मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मुरादाबाद के रंगकर्मी मास्टर फिदा हुसैन नरसी पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख । यह आलेख प्रकाशित हुआ था दैनिक जागरण मुरादाबाद के 11 जुलाई 1999 के अंक में ...









मुरादाबाद के मास्टर फिदा हुसैन नरसी पारसी रंगमंच के वह आखिरी चिराग थे, जिन्होंने पारसी एवं हिन्दी रंगमंच को न केवल समृद्ध किया अपितु उसे विकसित भी किया। रंगमंच की नई पीढ़ी को पारसी रंगकर्म से परिचित कराया । अपनी एक सौ पांच वर्ष की आयु में भी वह सक्रिय रूप से रंगमंच से जुड़े हुए थे।

मुरादाबाद में 11 मार्च 1894 में जन्मे मास्टर फिदा हुसैन नरसी को अभिनय, गायन या वादन का शौक विरासत में नहीं मिला था। उनके परिवार में इनसे दूर-दूर तक का वास्ता न था। सन 1911 में कठपुतली का तमाशा देखकर वह अभिनय के प्रति आकृष्ट हुए और फिर उम्र के अंतिम पड़ाव तक रंगमंच से जुड़े रहे।

सन् 1917 में वह रामदयाल ड्रामेटिक क्लब से जुड़े। उस समय उन्होंने क्लब द्वारा मंचित किये गये नाटक “शाही फकीर“ में महिला कलाकार का अभिनय किया। सन् 1918 में उनकी मुलाकात दिल्ली में न्यू एल्फ्रेड कम्पनी के निदेशक मानिक शाह से हुई। यह कंपनी मुख्य रूप से पारसी नाटकों का मंचन करती थी। मास्टर फिदा हुसैन की कद काठी और बुलंद आवाज मानिक शाह को भा गयी। उन्होंने और कंपनी के लेखक निर्देशक पं. राधेश्याम कथा वाचक ने फिदा हुसैन की प्रतिभा को परखकर उन्हें कंपनी में शामिल कर लिया। इस कम्पनी में उन्होंने लगभग 12 वर्ष तक काम किया। सन 1921 में महात्मा गांधी अहमदाबाद में भक्त प्रहलाद नाटक में उनके अभिनय से खासे प्रभावित हुए।
   सन् 1928 में इसी कंपनी के नाटक ईश्वर भक्ति में मास्टर साहब के अभिनय और आवाज की तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मोतीलाल नेहरू सरोजिनी नायडू और पं. मदन मोहन मालवीय ने बेहद सराहना की। इस नाटक के एक गाने (निर्बल के प्राण पुकार रहे. जगदीश हरे, जगदीश हरे) ने तो मा. फिदा हुसैन को कामयाबी की बुलंदी पर पहुंचा दिया। उसके बाद भक्त नरसी मेहता नाटक में नरसी भगत के रूप में मा. फिदा हुसैन को देखकर जगदगुरु शंकराचार्य इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्हें नरसी की उपाधि से विभूषित कर दिया। उसी दौरान महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने उनके अभिनय को देखकर प्रेमशंकर की उपाधि से
अलंकृत किया और मा. फिदा हुसैन प्रेमशंकर और नरसी के नाम से विख्यात हो गये। उन्होंने राजा हरिश्चन्द्र, नल दमयंती, यहूदी की लड़की, चंद्रावली, खूबसूरत बला, गर्म खून, सीता वनवास, ख्वाबे हस्ती, सिल्वर किंग, वीर अभिमन्यु, हिटलर आदि नाटकों में यादगार अभिनय किया था। इस समय तक उन्हें डेढ़ सौ से अधिक स्वर्ण  पदक प्राप्त हो चुके थे तथा गायक, संगीतकार नाटककार के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे। सन् 1932 में प्रसिद्ध ग्रामोफोन रिकार्ड कम्पनी एचएमवी ने उन्हें कलकत्ता में अपना ड्रामा डायरेक्टर नियुक्त किया।इस कंपनी में उन्होंने दस साल तक काम किया। इसी दौरान जहांआरा बेगम उर्फ कजन बाई की कंपनी, कजन थियेट्रिकल कंपनी में उन्होंने लैला मजनू, शीरी फरहाद बिल मंगल, गरीब का दर्द और हुमायूँ आदि नाटकों में मुख्य भूमिका निभाई।
    सन् 1948 में उन्होंने कलकत्ता में अपनी निजी मून लाइट कंपनी स्थापित की। फिल्म जगत में उनका प्रवेश सन 1932 में हुआ। उनकी पहली फिल्म बाबूलाल चौरवानी द्वारा निर्मित और प्रफुल्लराय द्वारा निर्देशित रामायण थी। उसके बाद उन्होंने चारु राय की फिल्म मस्ताना, इंसाफ, डाकू का लड़का, सोहराब मोदी की फिल्म दिल की प्यास, खुदाई,सितमगर, मतवाली मीरा, मुंशी मेहंदी हसन की दिल फरोश, कुंवारी मां और गरीब की दुनिया फिल्मों में मुख्य भूमिका निभाई ।
     फिल्मी दुनिया को अलविदा कहकर वह फिर रंगमंच की दुनिया में लौट आये और मून लाइट कंपनी पुनः शुरू की। वर्ष 1968 तक रंगमंच की दुनिया में धूम मचाने के बाद वह अपने शहर मुरादाबाद वापस लौट आये।
    यहां आने के बाद भी यह निष्क्रिय नहीं रहे और आदर्श कला संगम से जुड़ गये। तब से अब तक लगातार वह नयी प्रतिभाओं को मार्ग दर्शन करते रहे। यहां आकर उन्होंने पारसी रंगमंच शैली से महानगर के रंगमंच को न केवल गौरवान्वित किया बल्कि इस शैली को नयी प्रतिभाओं को सिखाया भी। यहां उन्होंने आदर्श कला संगम के बैनर तले आगा खां कश्मीरी का तुर्की हूर, अहमद हसन का भाई बहिन और पं. राधेश्याम कथा वाचक का वीर अभिमन्यु नाटक मंचित किये।
   कलकत्ता की प्रतिभा अग्रवाल ने उनके कार्यों का मूल्यांकन करते हुए एक ग्रंथ मास्टर फिदा हुसैन, रंगमंच के 50 साल शीर्षक से प्रकाशित किया। उनके जीवन पर वृत्त चित्र बनाया गया। दूरदर्शन, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, संगीत नाटक अकादमी, भारत भवन जैसे राष्ट्रीय संस्थानों में उनकी सेवायें ली जाने लगीं।
   सन् 1985 में उन्हें केन्द्र सरकार द्वारा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकट रमन द्वारा उन्हें रंगमंच सम्राट की उपाधि से अलंकृत किया गया। उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें तीन वर्ष की मानद सदस्यता प्रदान की। वर्ष 94 में उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार के सर्वोच्च सम्मान यश भारती से सम्मानित किया गया। जिला प्रशासन द्वारा भी दर्जनों बार सम्मानित मा. फिदा हुसैन नरसी के आवास वाली गली का नामकरण भी उनके नाम पर किया गया।  उन्हें रंग भारती सम्मान से भी प्रदेश सरकार ने सम्मानित किया। उनका निधन 10 जुलाई 1999 को हुआ ।
   हिन्दी और परसी रंगमंच में उनका योगदान अब इतिहास बनकर रह गया है। अपनी शायरी, बेजोड़ अभिनय की छाप जो उन्होंने छोड़ी है वह युग-युगों तक अमिट रहेगी।
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822


 

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष कैलाश चन्द्र अग्रवाल पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख

 




छायावादोत्तर काल के सशक्त साहित्यकार कैलाश चन्द्र अग्रवाल का जन्म 18 दिसम्बर 1927 को मुरादाबाद के मंडी बांस मुहल्ले में हुआ । आपके पिता साहू रामेश्वर शरण अग्रवाल सुसम्पन्न सराफा व्यवसायी थे । आपकी माता का नाम श्रीमती राम सुमरनी देवी था जो अमरोहा निवासी श्री ब्रज रत्न अग्रवाल की एकमात्र सन्तान थीं। आपके पितामह भूकन शरण अग्रवाल नगर के प्रतिष्ठित साहूकार थे।

कैलाश जी की प्रारम्भिक शिक्षा अग्रवाल पाठशाला मुरादाबाद में हुई । स्व० पंडित लेखराज जी शर्मा आपकी प्राथमिक शिक्षा के गुरू थे । आपने वर्ष 1944 एवं 1946 में क्रमशः हाईस्कूल एवं इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की । वर्ष 1948 में आपने एसएम कालेज चंदौसी में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की । आपने हिन्दी में स्नातकोत्तर की उपाधि वर्ष 1950 में लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की तदुपरांत वर्ष 1952 में आगरा विश्वविद्यालय से एलएलबी की उपाधि प्राप्त करने के बाद वह मुरादाबाद में वकालत करने लगे।
      आपका विवाह तीन मार्च सन् 1952 को तहसील जानसठ (जनपद मुजफ्फरनगर) निवासी श्री हनुमान प्रसाद जी की सुपुत्री संतोष से हुआ । आपके ज्येष्ठ पुत्र आलोक चन्द्र अग्रवाल का 3 जनवरी2008 को स्वर्गवास हो चुका है ।उनके पुत्र अक्षय अग्रवाल हैं । द्वितीय पुत्र अतुल चन्द्र अग्रवाल पैतृक व्यवसाय (सराफा) में संलग्न हैं । उनके पुत्र डॉ मनुशेखर अग्रवाल हैं ।
   वकालत के दौरान आपके पिता का स्वास्थ्य निरंतर खराब रहने लगा । फलतः अपने पिता श्री का आदेश मानकर आप सन 1962 में वकालत छोड़कर अपने पैतृक व्यापार में लग गये । अंतिम समय तक आप इसी व्यापार से जुड़े रहे ।
  वर्ष 1945 में, जब वह इंटरमीडिएट के छात्र थे किया उनकी रुचि काव्य लेखन की ओर अग्रसर होने लगी। अपने काव्य गुरु के संबंध में कैलाश चन्द्र अग्रवाल के अनुसार सेवानिवृत्त डिप्टी कलेक्टर श्री केशव चन्द्र मिश्र से उन्होंने छन्द आदि का शान प्राप्त किया तदुपरान्त स्व पंडित दुर्गादत्त त्रिपाठी उनके काव्य गुरु रहे । धीरे-धीरे वर्ष 1947 तक उनकी प्रतिभा इतनी विकसित हो गयी कि वह परिपक्वता के साथ छन्दोबद्ध काव्य के रूप में गीत विद्या के माध्यम से अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने लगे।  उनके प्रारम्भिक गीतों का प्रतिनिधि संकलन वर्ष 1965 में "सुधियों की रिमझिम में" स्थानीय आलोक प्रकाशन मंडी बांस के माध्यम से पाठकों को प्राप्त हुआ, जिसमें उनकी 1947 ई. से 1965 ई. तक की काव्य यात्रा के विभिन्न पड़ाव समाहित है। चौसठ गीतों  के इस संकलन के पश्चात कवि की यात्रा वर्ष 1981 में 'प्यार की देहरी' पर पहुंची। प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस कृति में उनके सन 1965 के पश्चात रचे गए 81 गीत संगृहीत हैं । वर्ष 1982 में उनका मुक्तक संग्रह 'अनुभूति' प्रकाशित हुआ, जिसमें वर्ष 1971 से 1981 तक लिखे गए 351 मुक्तक संगृहीत हैं। यह यात्रा आगे बढ़ी और वर्ष 1984 में 'आस्था के झरोखों' से होती हुई वर्ष 1985 में "तुम्हारे गीत -तुम्ही को" गीत संग्रह के माध्यम से हिन्दी साहित्य की गीत विधा के भंडार को भरने तथा छन्दोबद्ध काव्य रचना करने की प्रेरणा देती रही ।वर्ष 1989 में गीत संग्रह "तुम्हारी पूजा के स्वर" पाठकों के सम्मुख प्रभात प्रकाशन दिल्ली द्वारा आया । इसमें आपके जनवरी 1986 से फरवरी 1988 तक रचे गये 71 गीत संगृहीत है। अंतिम सातवीं कृति के रूप उनका गीत संग्रह 'मैं तुम्हारा ही रहूंगा' पाठकों के समक्ष आया। इसका प्रकाशन सन 1993 में हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर द्वारा हुआ।इसमें उनके अप्रैल सन 1989 से मार्च 1992 के मध्य रचे 71 गीत संगृहीत हैं। कुल मिलाकर 441 गीतों और 351 मुक्तको के माध्यम से हिन्दी काव्य के भंडार में अपना योगदान दिया है । यह मुरादाबाद नगर का गौरव ही कहा जायेगा कि दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय दैनिक पत्र 'हिन्दुस्तान' के सम्पादकीय में आपकी काव्य पंक्तियां देश के दिग्गज साहित्यकारों के साथ अनेक बार उद्घृत की गयी ।

  इन संस्थाओं ने किया सम्मान
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हिन्दी की सुविख्यात साहित्यिक संस्था 'दधीचि हिन्दी साहित्य परिषद' सहारनपुर ने  7 दिसम्बर 1985 को आयोजित भव्य समारोह में उनके गीत संग्रह 'आस्था के झरोखों से' को वर्ष 1984 की सर्वश्रेष्ठ काव्य कृति घोषित करते हुए उन्हें  दो हजार पाँच सौ की धनराशि देकर सम्मानित किया और उन्हें 'कवि रत्न' की उपाधि से अलंकृत किया । उन्हें यह सम्मान प्रख्यात साहित्यकार जैनेंद्र कुमार द्वारा प्रदान किया गया।
वर्ष 1982 में मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति की ओर से आयोजित राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जन्मशती समारोह में
आपका साहित्यिक अभिनंदन किया गया ।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर हो चुके हैं शोधकार्य
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कैलाश चंद अग्रवाल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर शोध कार्य भी हो चुके हैं। वर्ष 1992 में कंचन प्रभाती ने कैलाश चंद अग्रवाल के काव्य में प्रणय तत्व शीर्षक से डॉ सरोज मार्कंडेय के निर्देशन में लघु शोध कार्य किया ।तत्पश्चात वर्ष 1995 में उन्होंने डॉ रामानंद शर्मा के निर्देशन में रुहेलखंड के प्रमुख छायावादोत्तर गीतिकार एवं श्री कैलाश चंद अग्रवाल के गीति काव्य का अध्ययन शीर्षक पर शोध कार्य पूर्ण कर पीएच-डी की उपाधि प्राप्त की।
      वर्ष 2002 में गरिमा शर्मा ने डॉ मीना कौल के निर्देशन में स्वर्गीय कैलाश चंद अग्रवाल (जीवन सृजन और मूल्यांकन )शीर्षक से लघु शोध कार्य किया। वर्ष 2008 में श्रीमती मीनाक्षी वर्मा ने डॉ मीना कौल के ही निर्देशन में स्वर्गीय श्री कैलाश चंद अग्रवाल के गीतों का समीक्षात्मक अध्ययन शीर्षक पर शोध कार्य पूर्ण किया।
इन संस्थाओं से रहा जुड़ाव
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कैलाश चन्द्र अग्रवाल वर्ष 1954 से वर्ष 1961 तक मुरादाबाद नगर के हिन्दू स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गोकुल दास गुजराती हिन्दू इंटर कालेज, गोकुल दास गुजराती हिन्दू कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, प्रताप सिंह कन्या इंटर कालेज तथा राजकला कन्या इंटर कालेज की प्रबन्धकारिणी समितियों के सक्रिय सदस्य रहे । मुरादाबाद की प्राचीन साहित्यिक संस्था 'अन्तरा' के आप संस्थापक सदस्य रहे ।
        वर्ष 1996 में 31 जनवरी को उन्होंने इस नश्वर देह को त्याग दिया ।

✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख






 

स्मृतिशेष श्री ईश्वर चंद्र गुप्त ईश का जन्म 7 दिसंबर 1925 को मुरादाबाद में हुआ था। आपके पिता श्री शांति प्रसाद अग्रवाल खिलौनों के निर्माता व व्यापारी थे। आप की माता जी का नाम श्रीमती भगवती देवी था। चार भाइयों श्री राजेश्वर प्रसाद अग्रवाल, श्री मिथिलेश्वर प्रसाद अग्रवाल,श्री हृदयेश्वर प्रसाद अग्रवाल और एक बहन श्रीमती धर्मवती में सबसे बड़े श्री ईश्वर चंद्र गुप्त ईश के पितामह श्री कुंज बिहारी अग्रवाल थे।
आप की शिक्षा दीक्षा मुरादाबाद में ही हुई। आप ने वर्ष 1952 में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्य रत्न की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 1954 में स्नातक, वर्ष 1957 में बीटी, वर्ष 1962 में स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र) एवं वर्ष 1973 में स्नातकोत्तर (समाजशास्त्र) की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 1957 में आप की नियुक्ति परसादी लाल झंडू लाल रस्तोगी इंटर कॉलेज में अध्यापक के रूप में हो गई। वर्ष 1965 में आप इसी विद्यालय में अर्थशास्त्र प्रवक्ता के पद पर पदोन्नत हुए तथा वर्ष 1985 -86 में प्रधानाचार्य पद पर कार्यरत रहे। कुछ समय उन्होंने महाराजा अग्रसेन इंटर कालेज में भी अध्यापन कार्य किया ।
  उनका विवाह काशीपुर के व्यापारी श्री कल्लू मल अग्रवाल की सुपुत्री दयावती से वर्ष 1941 में हुआ। आप के सबसे बड़े सुपुत्र श्री सर्वेश चंद्र गुप्ता पंजाब नेशनल बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त होकर वर्तमान में मेरठ निवास कर रहे हैं। मंझले पुत्र डॉ आदेश चन्द्र अग्रवाल रामनगर में फार्मास्यूटिकल कंपनी एमआर  हेल्थ केयर में सीईओ हैं तथा सबसे छोटे सुपुत्र उपदेश चंद्र अग्रवाल मुरादाबाद के प्रसिद्ध आयकर व्यापार कर अधिवक्ता हैं। उनकी भी रुचि का काव्य लेखन में है। आपकी सुपुत्रियों आभा एवं शोभा का निधन हो चुका है तथा अमिता वर्तमान में सहारनपुर में निवास कर रही हैं।
   साहित्य के प्रति उनकी रुचि किशोरावस्था से ही थी। काव्य लेखन की शुरुआत के संदर्भ में वे स्वयं लिखते हैं ---"मेरी आयु सन 1933 में लगभग 9 वर्ष की थी। मेरी पूज्या मां जब मेरे  श्रद्धेय मामाजी को रामनगर (नैनीताल) कभी पत्र लिखवाती तो प्रायः  वह लय के साथ तुकबंदी में कुछ पंक्तियां भी मुझे बोल कर  लिखवा देती थीं जिन्हें मैं भी तब गुनगुनाया करता था। सम्भवतः तभी से तुकबंदी की रचना मेरे मानस पटल पर भी पाषाण में उत्कीर्ण जैसी अंकित हो गई होंगी, जो आज तक प्रेरक बनकर मेरे मौन अंतः करण को प्रति ध्वनित कर रही हैं । अतः मैं इस तुकबंदी का श्रेय प्रेरक स्त्रोत अपनी परम पूज्या प्रिय मां भगवती देवी को ही मानता हूं।" (कुछ मेरी कलम से - ईश अंजली)
    वर्ष 1991 में उनकी पहली काव्य कृति 'ईश गीति ग्रामर' प्रकाशित हुई। इस कृति में उन्होंने अंग्रेजी ग्रामर को पद्यबद्ध किया है। प्रत्येक पद में कही बात को स्पष्टीकरण एवं उदाहरण द्वारा भी समझाया गया है।
     वर्ष 1994 में उनकी दूसरी काव्य कृति 'चा का प्याला' प्रकाशित हुई। इस कृति में उन्होंने भारत में चाय का प्रवेश, चाय की महिमा, चाय और समाज के साथ-साथ भारत के इतिहास की झलक को 140 पदों में प्रस्तुत किया है।
      तीसरी कृति 'ईश दोहावली' का प्रकाशन भी वर्ष 1994 में हुआ। इसमें वंदना, नीतिपरक, धर्माचरण स्वास्थ्य, श्रृंगार और हास्य व्यंग्य के 151 दोहे हैं।    
      चौथी कृति 'ईश अर्चना' का प्रकाशन वर्ष 1995 में हुआ। इस कृति में उनकी वर्ष 1941 से 1995 तक की ईश वंदना विषयक कविताओं का संग्रह है।    
      वर्ष 1997 में प्रकाशित 'ईश अंजलि' उनकी पांचवी कृति है। इस कृति में उनकी 1940 से 1996 तक की 63 रचनाएं हैं। छठी कृति 'हिंदी के गौरव' का प्रकाशन वर्ष 2000 में हुआ। इस कृति में हिंदी के प्रमुख कवियों एवं लेखकों का जीवन परिचय, कृतित्व एवं काव्यगत विशेषताओं को पद्य गद्य में प्रस्तुत किया गया है । उनकी अंतिम सातवीं कृति चिंतन मनन वर्ष 2004 में प्रकाशित हुई।
      ईश जी की रचनाएं विभिन्न साझा काव्य संकलनों  उन्मादिनी (संपादक शिवनारायण भटनागर साकी ), समय के रंग (संपादक अशोक विश्नोई व डॉ प्रेमवती उपाध्याय), उपासना (संपादक अशोक विश्नोई ), 31 अक्टूबर के नाम( संपादक अशोक विश्नोई ) आदि में भी प्रकाशित हुईं।
       कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, पंडित ज्वाला दत्त शर्मा जन्मशताब्दी कथा सम्मान के अतिरिक्त विभिन्न संस्थाओं कार्तिकेय, लायंस क्लब दीपशिखा, विभावरी (सहारनपुर), जनता सेवक समाज, डॉ हितेश चंद्र गुप्त मेमोरियल सोसायटी, साहू शिवशक्ति शरण कोठीवाल स्मारक समिति, अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनंदन समिति (मथुरा) सीनियर सिटीजन वेलफेयर सोसाइटी, सागर तरंग प्रकाशन, आकार आदि द्वारा भी समय-समय पर उन्हें सम्मानित किया गया।
         महानगर की विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं से भी ईश जी जुड़े रहे। वह मुरादाबाद की प्राचीन साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य सदन के संस्थापक सदस्य थे। उनका निधन 26 दिसंबर 2011 को उनके कानूनगोयान स्थित आवास पर हुआ।
:::::::::::::प्रस्तुति::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष प्रो.महेंद्र प्रताप के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख





 प्रो . महेंद्र प्रताप जी का जन्म 22 अगस्त 1923 को वाराणसी जनपद के  गांव सोनहुला में हुआ था। आपके पिता श्री नंदकिशोर लाल प्राइमरी स्कूल में हेडमास्टर थे। माता का नाम क्षत्राणी देवी था। आप के दादा का नाम बेनी माधव प्रसाद था। 

   उनकी शिक्षा-दीक्षा वाराणसी एवं इलाहाबाद में हुई। प्रारंभ से ही वह मेधावी थे। वर्नाक्यूलर मिडिल परीक्षा में उन्होंने प्रदेश में 16 स्थान प्राप्त किया था । वर्ष 1942 में हाईस्कूल, वर्ष 1944 में इंटरमीडिएट, वर्ष 1946 में  बीए किया। वर्ष 1948 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए( हिंदी) में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। प्रख्यात साहित्यकार *सुमित्रानंदन पंत* के शब्दों में ''श्री महेंद्र प्रताप जी से मैं अच्छी तरह परिचित हूं वह प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र रहे और अभी पिछले साल उन्होंने हिंदी में प्रथम श्रेणी में एमए किया है और प्रथम स्थान भी पाया है और परीक्षाओं में भी वह इसी प्रकार प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए हैं। विद्यार्थी जीवन के अतिरिक्त भी जिसमें वह अपने अध्यवसाय और कुशलता के कारण अपने अध्यापकों के प्रिय रहे । "

      आपका विवाह श्री विंध्यांचल प्रसाद वर्मा की सुपुत्री शांति वर्मा से 2 जून 1948 को हुआ। अगस्त 1948 से दिसंबर 1948 तक उन्होंने के पी यूनिवर्सिटी कॉलेज इलाहाबाद में अध्यापन कार्य किया तदुपरांत 6 दिसंबर 1948 को यहां के जीके महाविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया । लगभग एक वर्ष (1960-61)डीएसएम डिग्री कॉलेज कंठ में प्राचार्य भी रहे, उसके बाद वह पुनः केजीके कालेज आ गए और वर्ष 1974 से जून 1983 तक महाविद्यालय में प्राचार्य पद पर रहे।

     साहित्य के प्रति उनकी अभिरुचि प्रारम्भ से ही थी। उन्होंने पहली कविता उस समय लिखी जब वह जूनियर हाई स्कूल में पढ़ रहे थे। बाद में वाराणसी तथा प्रयागराज (इलाहाबाद)में अपनी रचनाशीलता को विकसित और सम्पन्न किया। डॉ धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, डॉ शम्भूनाथ सिंह, डॉ जगदीश गुप्त, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि उनके सहपाठी/साहित्यिक मित्र रहे हैं। आरम्भ में पंडित श्याम नारायण पांडे से भी उन्हें काफी प्रोत्साहन मिला। डॉ सम्पूर्णानंद, भगवती शरण ,कमलेश्वर, डॉ नामवर सिंह, नरेश मेहता का भी उन्हें स्नेह प्राप्त था। यह बिडंबना ही कही जाएगी कि एक अत्यंत संवेदनशील साहित्यकार की स्वतंत्र रूप से अभी तक कोई कृति प्रकाशित नहीं हो सकी है। आप के अनेक गीत केजीके महा विद्यालय की वार्षिक पत्रिकाओं और विभिन्न काव्य संकलनो में  प्रकाशित हुए हैं। आपके निधन के पश्चात डॉ अजय अनुपम और आचार्य राजेश्वर प्रसाद गहोई के संयुक्त संपादन और सुरेश दत्त शर्मा के  प्रबंध संपादन में प्रकाशित पुस्तक "महेंद्र मंजूषा" में उनके 21गीत, दो ग़ज़लें और 14 मुक्तक संकलित हैं।  उनके द्वारा संपादित पुस्तकें हिन्दी कहानी, पन्द्रह पगचिह्न, निबंध निकष, कहानी पथ, गद्य विविधा तथा एकांकी पथ विभिन्न विश्वविद्यालयों के स्नातक-स्नातकोत्तर हिन्दी पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जाती रही हैं । आपने मुरादाबाद के अनेक साहित्यकारों की कृतियों की भूमिकाएं भी लिखीं।

    मुरादाबाद में साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देने के लिए 14 अप्रैल 1963 को अंतरा संस्था की स्थापना की।  इसकी विशेषता थी कि इसमें एकमात्र पदाधिकारी संयोजक ही होता था। अन्य सभी सदस्य थे। सदस्यों की अधिकतम  संख्या 25 निर्धारित की गई थी। मासिक शुल्क दो रुपये था । संस्था की बैठकों में केवल सदस्य ही शामिल होते थे। अंतरा के संस्थापक सदस्यों में मदन मोहन व्यास, प्रभु दत्त भारद्वाज,डॉ राममूर्ति शर्मा, गिरधर दास पोरवाल, अम्बालाल नागर, सर्वेश्वर सरन सर्वे,बहोरी लाल शर्मा, कैलाश चंद अग्रवाल, डॉ बृज पाल शरण रस्तोगी, डॉ ज्ञान प्रकाश सोती,  सुरेश दत्त शर्मा पथिक, डॉ विश्वअवतार जैमिनी मुख्य थे । इसकी बैठक माह में दो बार होती थीं। ये बैठकें सामान्यतः अमरोहा गेट स्थित रस्तोगी इंटर कॉलेज में होती थीं।

 हिंदुस्तानी अकादमी के सचिव भी रहे : वह महानगर की अनेक साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के संरक्षक और अध्यक्ष रहे। इनमें तरुण शिखा, आदर्श कला संगम, आरोही, मंजरी, माला, सवेरा, संस्कार भारती, हिन्दी साहित्य सदन, नूतन कला मंदिर, जनता सेवक समाज  मुख्य संस्थाएं थीं। यही नहीं उन्हें प्रदेश के राज्यपाल द्वारा हिंदुस्तानी अकादमी प्रयागराज का सचिव कोषाध्यक्ष भी मनोनीत किया गया था । 

 अनेक साहित्यकारों ने उनके निर्देशन में पूर्ण किया शोध कार्य : प्रो महेंद्र प्रताप जी के निर्देशन में 22  विद्यार्थियों ने शोध कार्य पूर्ण कर के पीएच-डी की उपाधि प्राप्त की। इनमें से मुख्य हैं- डॉ कृष्ण जी भटनागर, डॉ गोपी चंद्र शर्मा,  डॉ विश्व अवतार जैमिनी, डॉ इंदिरा गुप्ता, डॉ एसपी सक्सेना, डॉ प्रभा कपूर,  डॉ राकेश मधुकर,  डॉ मक्खन मुरादाबादी , डॉ किरण गर्ग , डॉ वंदना रानी, डॉ वाचस्पति शर्मा , डॉ शंकर लाल शर्मा और डॉ जगदीश शरण ।  

        महानगर की अनेक सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षिक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर उनको सम्मानित एवं नागरिक अभिनन्दन किया जाता रहा है । 

      उनका  निधन 20 जनवरी 2005 को काशी में हुआ।


 


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

 8,जीलाल स्ट्रीट 

 मुरादाबाद 244001 

 उत्तर प्रदेश, भारत 

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष ललित मोहन भारद्वाज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख

 







ललित मोहन भारद्वाज का जन्म मुरादाबाद में अपनी ननिहाल में 8 अगस्त 1936 ई को हुआ । आपके पितामह पं थान सिंह शर्मा, बुलंदशहर में हेड मास्टर थे। आप स्वनाम धन्य कवि थे । आपके पिता का नाम प्रभुदत्त भारद्वाज था। वह अलौकिक प्रतिभासम्पन्न, शिक्षाशास्त्री, विद्यानुरागी साहित्यप्रेमी और एचएसबी इंटर कालेज मुरादाबाद के प्रधानाचार्य थे। मुरादाबाद में आयोजित होने वाले अधिकांश सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों की अध्यक्षता करने के कारण 'सभापति जी' नाम से भी विख्यात हो गए थे । आपकी माता जी डा० गिरिजा देवी भारद्वाज भी एक अच्छी कवयित्री थीं । आपके नाना पंडित अम्बिका प्रसाद शर्मा जी भी प्रख्यात शिक्षाविद तथा मुरादाबाद के अम्बिका प्रसाद इंटर कालेज के संस्थापक थे । इस तरह उन्हें साहित्यिक और कलात्मक संस्कार विरासत में ही प्राप्त हुए।

    आपकी प्रारम्भिक शिक्षा राजकीय इंटर कालेज में हुई। इस विद्यालय से आपने वर्ष 1951 में हाई स्कूल एवं वर्ष 1953 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् आप उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए इलाहाबाद चले गये इलाहाबाद विश्व विद्यालय से वर्ष 1956 में आपने स्नातक, वर्ष 1958 में प्राचीन इतिहास एवं वर्ष 1960 में हिन्दी विषय में स्नातकोत्तर उपाधियां प्राप्त की। आपने वहीं एलएलबी में प्रवेश ले लिया लेकिन आकाशवाणी पूना केन्द्र में आपकी नियुक्ति वर्ष 1961 में हो जाने के कारण एक वर्ष उपरान्त आपको पढ़ाई छोड़नी पड़ी।  आप आकाशवाणी पूना में 1964 तक रहे, उसके बाद चार वर्ष लखनऊ केन्द्र में कार्यक्रम निष्पादक पद पर रहे। वर्ष 1968 में आपका स्नानान्तरण आकाशवाणी कोहिमा में हो गया । वर्ष 1969 में पिता जी के देहान्त के कारण आपको आकाशवाणी की सेवा से त्यागपत्र देना पड़ा और आप स्थायी रूप से मुरादाबाद आकर बस गये । यहाँ आकर आपने वंदना प्रिंटर्स नाम से प्रकाशन व मुद्रण व्यवसाय आरम्भ किया । वर्ष 1990 में आपको ब्रेन हेमरेज हो गया, जिसके कारण आपको यह व्यवसाय बंद करना पड़ा । लगभग डेढ़ वर्ष तक शारीरिक पीड़ा भोगने के बाद आपने औषधि व्यवसाय आरम्भ किया।

     इसी बीच दो जुलाई 1964 में आगरा निवासी पंडित जगन्नाथ प्रसाद शर्मा एडवोकेट की सुकन्या निर्मला भारद्वाज से आपका पाणिग्रहण संस्कार हुआ । आपके चार पुत्रियाँ नमिता, इरा कौशिक, हिमानी भारद्वाज , वाणी भारद्वाज एवं एक पुत्र चारु मोहन है। चारु मोहन मुम्बई में म्यूजिक डायरेक्टर हैं।

     साहित्यिक संस्कार तो उनमें प्रारम्भ से ही थे लेकिन इलाहाबाद में शिक्षाध्ययन के दौरान उन्होंने लेखन कार्य शुरू किया। इलाहाबाद में ही आपने विभिन्न नाटकों में अभिनय किया तथा अनेक नाटक एवं रेडियो रूपक लिखे, जिनका प्रसारण आकाशवाणी से हुआ । इलाहाबाद प्रवास के दौरान उन्हें महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला' तथा पंडित सुमित्रानंदन पंत का भरपूर आशीष मिला, जिससे उनकी प्रतिभा निखरती गई।

   आकाशवाणी पूना में कार्य करते हुए उन्होंने पूना फिल्म इंस्टीट्यूट द्वारा एस दिनकर के निर्देशन में निर्मित पहले सवाक् वृत्त चित्र 'गाँव की ओर' में मुख्य नायक की भूमिका भी की । आपने मुरादाबाद में अप्रैल 1973 में हिन्दी मासिक 'प्रभायन' का संपादन व प्रकाशन किया । यह पत्रिका नवनीत और कादम्बिनी के समकक्ष कही जा सकती है। कतिपय कारणवश कुछ समय पश्चात इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा।

    स्वतंत्र रूप से आपका मुक्तक संग्रह 'प्रतिबिम्ब प्रकाशित हो चुका है तथा तीन कृतियाँ अप्रकाशित है । आपने मां दुर्गा की स्तुति में 108 मुक्तकों का सृजन भी किया । यह कृति प्रकाशनाधीन है।

    आपको विभिन्न संस्थाओं द्वारा समय समय पर सम्मानित भी किया जाता रहा है । 2 जनवरी 1995 को आपको साहू शिवशक्ति शरण कोठीवाल स्मारक समिति द्वारा  साहित्य के क्षेत्र में जिले के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया गया ।

   आप अनेक शिक्षण एवं साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध भी रहे । अंबिका प्रसाद इंटर कालेज मुरादाबाद के आप प्रबंधक रहे। इसके अतिरिक्त एचएसबी० इंटर कालेज के वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद पर भी आप कई वर्षों तक रहे । आपका निधन 12 मार्च 2009 को आगरा में हुआ ।

✍️ डॉ मनोज रस्तोगी 

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख -----



बहोरनसिंह वर्मा 'प्रवासी का जन्म 20 दिसम्बर 1921 को जनपद मुरादाबाद (वर्तमान जनपद सम्भल) के  कस्बे  सिरसी में हुआ। आपके पिता सिपाही सिंह स्वर्णकारी का कार्य करते थे। प्रारम्भिक शिक्षा सिरसी में हुई । वर्ष 1936 में हिन्दी मिडिल, वर्ष 1937 में उर्दू मिडिल, वर्ष 1940 में विशेष योग्यता हिन्दी की परीक्षा पास की। इसके उपरान्त वह प्राइमरी टीचिंग की ट्रेनिंग के लिए आंवला चले गये। वहाँ से वर्ष 1941 में आने के बाद उनकी नियुक्ति नयी बस्ती मुरादाबाद स्थित नगर पालिका के स्कूल में प्राइमरी शिक्षक के रूप में हो गयी। नौकरी लगने के एक वर्ष बाद वर्ष 1941 में आपका विवाह चांदपुर ( जनपद बिजनौर) निवासिनी राजरानी वर्मा से हो गया। नौकरी के दौरान आपके हृदय में आगे पढ़ने की इच्छा उत्पन्न हुई, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1950 में अंग्रेजी विषय लेकर आपने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा वर्ष 1953 में शेष सभी विषयों से पुनः हाई स्कूल किया । मुरादाबाद के अनेक नगरपालिका स्कूलों में अध्यापन करते हुए आप वर्ष 1982 में प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद भी कुछ वर्षों तक आपने केजीके इंटर कालेज के प्राइमरी विभाग में शिक्षक के रूप में कार्य किया।                        वर्ष 1940 में जब उन्होंने हिंदी विशेष योग्यता की परीक्षा उत्तीर्ण की उस समय उन्होंने अपने पाठ्यक्रम में निर्धारित कवियों को पूर्ण मनोयोग से पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते उनमें कविता के अंकुर फूटने लगे और 'सरस्वती वंदना के रूप में उन्होंने पहली रचना लिखी । उन दिनों 'प्रवासी' जी दीवान का बाजार में रहा करते थे, वहीं एक दुकान पर रोज़ शाम को कुछ शायरों की महफिल हुआ करती थी। 'प्रवासी' जी अक्सर वहाँ जाया करते थे। धीरे-धीरे उनका रुझान उर्दू लेखन की ओर हो गया और वे शायरी करने लगे ।

     आजादी के बाद उनकी साहित्यिक प्रवृत्ति फिर से हिन्दी की ओर हुई और वह हिन्दी में काव्य रचना करने लगे। उनकी काव्य रचनाओं में न केवल आध्यात्म का, श्रृंगार रस का, पुट है वरन देश में व्याप्त सामाजिक विद्रपताओ, विषमताओं, शोषण तथा वर्तमान समस्याओं आदि का भी पुट मिलता है।

उनकी प्रथम काव्य कृति 'प्रवासी पंच सई' अशोक प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 1981 में प्रकाशित हुई थी। इसकी भूमिका डॉ जयनाथ नलिन ने लिखी। इस कृति में उनके 504 दोहे संगृहीत है। दूसरी कृति "मंगला" डॉ प्रेमवती उपाध्याय के सद्प्रयासों से वर्ष 1999 में अशोक विश्नोई ने सागर तरंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की थी । इस कृति में उनके 57 भक्तिपद संगृहीत हैं। इसकी भूमिका उमेश पाल वर्णवाल 'पुष्पेंद्र' ने लिखी। तीसरी कृति "सीपज" डॉ इंदिरा गुप्ता के सद्प्रयासों से डॉ अजय अनुपम ने साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य सदन द्वारा वर्ष 2000 में प्रकाशित की। इस कृति में उनकी 80 हिन्दी ग़ज़लें और 30 उर्दू ग़ज़लें संगृहीत हैं। इसकी भूमिका सुरेश दत्त शर्मा पथिक और डॉ आरिफ हसन खान ने लिखी।

 उनकी रचनाएँ डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल द्वारा संपादित तथा डायमंड पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ गजलें, साहिल झांसवी द्वारा संपादित-हिन्दी-उर्दू की सर्वश्रेष्ठ गजलें, नज्में व मुक्तक 'महकते फूल' अतरंग प्रकाशन, रामपुर द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह 'इन्द्र धनुष, सागर तरंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'इकतीस अक्टूबर के नाम, शिव नारायण  भटनागर 'साकी' द्वारा संपादित काव्य संकलन 'उन्मादिनी', तथा डा. सुभाष  चन्द्र सक्सेना व डा. महेश दिवाकर द्वारा संपादित 'प्रणय गन्धा' आदि संकलनों में भी संगृहीत हैं

    इसके अतिरिक्त  समाज उत्थान, दशानन, जाहनवी, मेढ़ संदेश, बृज समाचार, अरुण, नवज्योति, सहकारी युग, विनायक,संकल्पिका, अन्तःकरण, रवि मित्र, आदर्श कौमुदी आदि अनेक पत्र-पत्रिओं व स्मारिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं । आपकी अप्रकाशित कृतियाँ वेदना, गजल मंजूषा, मुक्तक शतक, शतपुष्पी, जलते फूल, चुभती अलियां, बाल मंजरी आदि हैं ।

      प्रवासी जी की साहित्यिक सेवाओं को दृष्टि में रखते हुए स्थानीय संस्था राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति  द्वारा वर्ष १९८२ में राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन जन्मशती समारोह में उनका नागरिक अभिनंदन भी किया गया। इसके अतिरिक्त वर्ष १९८८ में  श्री यशपाल सिंह स्मृति साहित्य शोध पीठ द्वारा भी उन्हें सम्मानित किया जा  चुका है ।

      आपका निधन वर्ष 2004 में दीपावली के दिन 12 नवम्बर को हुआ ।

    ✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

     8, जीलाल स्ट्रीट

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दुर्गा दत्त त्रिपाठी पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख



 हिन्दी के प्रख्यात कवि, कहानीकार, पत्रकार और लेखक दुर्गादत्त त्रिपाठी का जन्म 19 मई 1906 को बरेली में हुआ था । उनके पूर्वज मूलतः अल्मोड़ा जिले के चौसर के निवासी थे । किन्तु कालान्तर में वे मुरादाबाद जनपद के चंदौसी नगर में आ गये । आपके पिता श्री गोविन्द दत्त त्रिपाठी रेल कर्मचारी थे । आपके पितामह श्री गोपाल दत्त त्रिपाठी अध्यापक थे, उन्नति करते- करते इंस्पैक्टर ऑफ स्कूल्स हो गये । वह भी एक अच्छे कवि थे । उनके नाना श्री हरदेव पंत आगरा के महाराजा के राजगुरू थे ।

    आपकी प्रारम्भिक शिक्षा काशी में हुई । सैन्ट्रल स्कूल काशी से एडमीशन परीक्षा कक्षा 10 उत्तीर्ण की । उनके पश्चात् रामजस इंटर कालेज, तथा रामजस कालेज आनन्द पर्वत दिल्ली से इंटरमीडिएट तथा बीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर महात्मा गाँधी की 'पढ़ना छोड़ो' आज्ञा पर पढ़ाई छोड़कर कांग्रेस के स्वयं सेवक बन गये ।

      इसी दौरान वह फिल्मों में काम करने के विचार से द्वितीय महायुद्ध के समय कलकत्ता चले गये और वहाँ कुछ समय तक रहे । वहाँ उनकी भेंट जाने-माने फिल्म निर्देशक श्री देवकी कुमार बोस से हुई । वे त्रिपाठी जी की योग्यता से बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने त्रिपाठी जी को अपने यहाँ हिन्दी उच्चारण विभाग में सहयोगी के रूप में सवेतन काम दिया और फिल्म 'रामानुज में सवेतन भूमिका भी दी । कलकत्ता में रहते हुए उन्होंने हिन्दी की 'मतवाला' और अंग्रेजी की 'मॉर्डन रिव्यू' जैसी स्तरीय पत्रिकाओं का संपादन भी किया । कलकत्ता प्रवास के दौरान ही उनके पिता श्री का देहान्त हो गया । इस प्रकार अपने पिताश्री की दिवंगति से त्रिपाठी जी पर अकस्मात् अपने परिवार का भार आ पड़ा । उघर द्वितीय महायुद्ध अपने पूरे जोरों पर था । लेखकों पर ब्रिटिश सरकार भाँति-भांति के अत्याचार कर रही थी । पुलिस आये दिन उनकी तलशियाँ लेती और उनकी पाण्डुलिपियाँ उठाकर ले जाती । उन सब प्रतिकूल परिस्थितियों को देखते हुए वे विवश कर मुरादाबाद लौट आये। कलकत्ता से वापस आने के उपरान्त उन्होंने दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अपने समय के प्रसिद्ध हिन्दी मासिक महारथी में सहायक सम्पादक पद पर लगभग 3 वर्ष तक कुशलता पूर्वक कार्य किया । 

   आजीविका की दृष्टि से सम्पादन कार्य में त्रिपाठी जी ने यह अनुमव किया कि उससे उनकी और उनके परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं हो सकेगी इस स्थिति में उन्होंने अपने पिताश्री की भांति रेल विभाग में ही नौकरी की । वे वहाँ गार्ड के रूप में सन 1961 तक सेवारत रहे ।

    हिन्दी साहित्य के प्रति उनकी रुचि विद्यार्थी जीवन से जागरूक हो चुकी थी। काशी में शिक्षा प्राप्ति के दौरान अध्यापक के रूप में हास्य रस के सुविख्यात कवि कृष्णदेव गौड़,बेढब बनारसी और ब्रज भाषा के सुकवि श्री भगवान दीन 'दीन' का उन्हें स्नेह प्राप्त हुआ । पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र, विनोद शंकर व्यास, लक्ष्मीनारायण मिश्र, कमलापति त्रिपाठी उनके सहपाठी तथा मित्र रहे थे । काशी में ही श्री जयशंकर प्रसाद, श्री रामनाथ 'सुमन' ,पंडित जनार्दन झा द्विज, पंडित शिवपूजन सहाय, शिवदास गुप्त 'कुसुम', आदि स्थापित साहित्यकारों की महत्वपूर्ण संगति में रहे । इसके अतिरिक्त उन्हें पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला', पं. सुमित्रानंदन पंत, श्री भवानी प्रसाद मिश्र, पं. अनूप शर्मा 'अनूप, श्री अमृत लाल नागर, डॉ. इलाचन्द्र जोशी, आचार्य चतुरसेन शास्त्री आदि साहित्य - महारथियों का भी सान्निध्य प्राप्त हुआ था । 'महारथी' पत्रिका में कार्य करते हुए वह हिन्दी के महान कथाकार जैनेन्द्र कुमार तथा भगवती प्रसाद वाजपेयी के सम्पर्क में आये । इन समस्त साहित्यकारों के सनिध्य का प्रभाव उनकी लेखन एवं रचनात्मक शैली पर पड़ा । उन्होंने न केवल काव्य विधा में लेखन किया अपितु वह एक सिद्धहस्त कहानीकार उपन्यासकार एवं निबन्धकार भी थे । उनकी प्रकाशित कृतियों में गाँधी संवत्सर (महाकाव्य) शकुन्तला (खण्ड काव्य), तीर्थ शिला (काव्य संग्रह), अमर सत्य (उपन्यास) तथा मंटो मिला था (उपन्यास), स्वर्ग( महाकाव्य), सन्धि और विच्छेद(खण्ड काव्य),निर्बलता का शाप ( महाकाव्य) , कल्पदुहा ( काव्य) उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपने  शंकराचार्य, आरोहा, आसव, अनुजा,  सौम्या, कृतम्भरा, भूयसी, श्रेयम्वदा,  मधुलिपि, पत्रांक, रक्त ग्रन्थि, वृन्दा, मामिका, यज्ञशेप, कलापी, प्रेयति, सघस्का,त्वदीया,उर्वरा, वेशिका, छन्दा, कदित्सा,कन्था, गतिका, स्वरन्यास, प्रत्यय, प्रकाम, उपनाह, गेया, शरण्या, प्रत्यक्ष, मुहूर्त, युगीन, निबन्ध गीत, गीतिका, वेणुजा, निशार्क, प्रेयम्वदा, परिचित और प्रशस्तियाँ, अनुश्रतियाँ ( सभी काव्य ), उत्तरदायी,जहां बंटवारा नहीं होता, बर्लिन की रक्तरेख (सभी उपन्यास) क्रमगत, विश्वास का लक्ष्य, जीने का सहारा, उतरा हुआ मद, अन्तरे अनेक टेक एक( सभी कहानी संग्रह) कृतियों की भी रचना की । इनमें से अधिकांश अप्रकाशित हैं ।

     श्री त्रिपाठी जी की दिल्ली और उत्तर प्रदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी एवं कविता प्रायः प्रकाशित होती रही है । मुरादाबाद से प्रकाशित 'अरुण' और 'प्रदीप'  से आपका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। आपका निधन 30 जनवरी 1979 को हुआ।


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

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उत्तर प्रदेश, भारत

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख -----






हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी एक ऐसे रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल श्रोताओं को गुदगुदाते हुए हास्य की फुलझड़ियां छोड़ीं बल्कि रसातल में जा रही राजनीतिक व्यवस्था पर पैने कटाक्ष भी किए। सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया तो आम आदमी की जिंदगी को समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया।  पदम् श्री गोपालदास नीरज के शब्दों में कहा जाए तो  हुल्लड़ मुरादाबादी की ख्याति हास्य व्यंग विधा के एक श्रेष्ठ कवि के रूप में है लेकिन उन्होंने जो दोहे और गजलें कहीं हैं वे उन्हें एक दार्शनिक कवि के रूप में भी स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं। हास्य के लहजे में कुछ शेर तो उन्होंने ऐसे कहे हैं जो बेजोड़ हैं और जो हजार हजार लोगों की जुबान पर हैं। हिंदी में तो कोई भी हास्य का ऐसा कवि नहीं है जो उनकी ग़ज़लों के सामने सिर ऊंचा करके खड़ा हो सके।

हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है । जी हां , एक समय तो ऐसा था जब  हुल्लड़ मुरादाबादी  अपनी हास्य कविताओं से पूरे देश मे हुल्लड़ मचाते फिरते थे। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं ।दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की ।

आजादी से पहले मुरादाबाद आकर बसा था परिवार

हुल्लड़ मुरादाबादी का जन्म 29 मई 1942 को गुजरांवाला (जो अब पाकिस्तान में है )हुआ था।  उनके पिता श्री सरदारी लाल चड्डा बर्तनों का व्यवसाय करते थे। उनकी माता जी का नाम विद्यावंती था। यह संभवतः कम लोगों को ही मालूम होगा कि आप का वास्तविक नाम सुशील कुमार चड्ढा था।  भारत के आजाद होने से पहले ही आपका पूरा परिवार मुरादाबाद आकर बस गया था। 

  चार भाइयों और तीन बहनों  विजय कुमार चड्ढा, सुभाष चड्ढा, अशोक चड्ढा, शशि कोहली, सुधा आनन्द और नीलम सेठी में सबसे बड़े हुल्लड़ मुरादाबादी की शिक्षा दीक्षा मुरादाबाद में ही हुई। सन 1958 में आपने पारकर इंटर कॉलेज से हाईस्कूल तथा वर्ष 1960 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की थी।बीएससी सन 1965 में तथा सन 1971 में हिंदी विषय से स्नातकोत्तर की परीक्षा स्थानीय हिंदू डिग्री कॉलेज से  उत्तीर्ण की । इसी बीच 1969 में आपका विवाह हो गया। वर्ष 1970-71 में आपने एस एस इंटर कॉलेज तथा 1971-72 में आरएन इंटर कॉलेज में अध्यापन कार्य किया । इसी बीच 30 नवम्बर 1969 को उनका विवाह अजमेर निवासी पन्ना लाल अरोड़ा की सुकन्या कृष्णा के साथ हुआ । उनसे उन्हें एक सुपुत्र नवनीत और दो सुपुत्रियाँ सोनिया व मनीषा चड्ढा की प्राप्ति हुई। ( नवनीत का असमय निधन 2018 में हो गया। वर्तमान में सोनिया दुबई और मनीषा पूना में निवास कर रही हैं। ) 

 पहली बार लाल किले पर 1962 में पढ़ी कविता

 पारकर इंटर कॉलेज में जब वह पढ़ते थे तो वहां हिंदी के एक अध्यापक पंडित मदन मोहन व्यास थे जो  एक चर्चित साहित्यकार व संगीतकार भी थे उन्हीं की प्रेरणा व निर्देशन में हुल्लड़ मुरादाबादी का साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ।  वह दिवाकर उपनाम से वीर  रस की कविताएं लिखने लगे।  2 दिसम्बर 1962 में आपने पहली बार किसी स्तरीय मंच से काव्य पाठ किया । भारत चीन महायुद्ध के संदर्भ में उस वर्ष राष्ट्रीय रक्षा कोष सहायतार्थ एक अखिल भारतीय वीर रस कवि सम्मेलन लालकिला दिल्ली में आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता महाकवि रामधारी सिंह दिनकर कर रहे थे । उक्त कवि सम्मेलन में एक श्रोता के रूप में हुल्लड़ जी भी मौजूद थे । कविसम्मेलन के दौरान राष्ट्र की रक्षा के लिए कुछ देने का प्रश्न आया तो उन्होंने अपनी एक सोने की अंगूठी उतार कर दे दी तथा देशभक्ति से ओतप्रोत एक वीर रस की रचना भी पढ़ी, जिसकी पंक्तियां थी -

 तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहां गया।

बोलो राणा की संतानों, वह जोश तुम्हारा कहां गया।।

 जाकर देखो सीमाओं पर, जो आज कुठाराघात हुआ ।

जाकर देखो भारत मां के, माथे पर जो आघात हुआ।।

गर अब भी खून नहीं ख़ौला, गर अब तक जाग न पाए हो ।। 

मुझको विश्वास नहीं आता, तुम भारत मां के जाए हो ।।

इसके बाद तो न जाने कितने कवि सम्मेलनों में रचना पाठ किया और एक तरह से वे हास्य के पर्याय बन गए । आपने मुरादाबाद के कुछ बुद्धिजीवियों व रचनाकारों को साथ लेकर हास परिहास नामक संस्था का भी गठन किया। वर्ष 1971 में यहीं से हास परिहास नामक एक मासिक पत्रिका भी संपादित की जो वर्ष 1975 तक प्रकाशित होती रही।  

 फिल्मों में भी किया अभिनय

आपकी रचनाओं की ख्याति को देखते हुए वर्ष 1977 में मशहूर हास्य अभिनेता व निर्माता निर्देशक आई एस जौहर ने उन्हें फिल्मों में लिखने का ऑफर भी दिया। उस समय वह नसबंदी फिल्म का निर्माण कर रहे थे।  उन्होंने हुल्लड़ जी का उसमें एक गीत क्या मिल गया सरकार तुझे इमरजेंसी लगा कर लिया जिसे संगीतबद्ध कल्याणजी-आनंदजी ने किया तथा महेंद्र कपूर व मन्ना डे ने गाया। इस तरह धीरे-धीरे उनका फिल्मों की ओर झुकाव होने लगा और वर्ष 1979 में वह मुरादाबाद छोड़कर मुंबई जाकर स्थाई रूप से रहने लगे। वहां प्रसिद्ध अभिनेता निर्देशक निर्माता मनोज कुमार को अपना गुरु बनाया तथा उन्हीं की प्रेरणा से आगे बढ़ते गए । फिल्म सन्तोष में भी उन्होंने एक अच्छी भूमिका निभाई । इससे पूर्व शिवानी की कहानी पर आधारित फिल्म बंधन बांहों का में भी उन्होंने अभिनय किया। दरअसल अभिनय करने के अंकुर भी उनमें छात्र जीवन में ही फूटे । वर्ष 1960-61 में हिंदू डिग्री कॉलेज की हिंदी साहित्य परिषद द्वारा आयोजित एकांकी नाटक प्रतियोगिता में उन्हें सर्वोत्तम अभिनय करने पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था । इसके अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा के एकांकी नाटक दो कलाकार , ऋषि भटनागर रचित सफर के साथी, डॉ शंकर शेष रचित एक और द्रोणाचार्य में भी  उन्होंने प्रमुख भूमिकाएं अभिनीत की।

 सन 1989 में सपरिवार लौटे मुरादाबाद

परिवार के साथ मुंबई चले जाने के बाद भी मुरादाबाद से उनका जुड़ाव बना रहा। यही कारण रहा कि वर्ष 1989 में  गर्दिश के दिनों में वह पुन: सपरिवार यहां वापस लौट आए। मुंबई से जब वह वापस मुरादाबाद आए तो साहित्य के प्रति उनका मन उचट सा गया था। उनका साहित्य से पुन: रिश्ता कायम हुआ दैनिक स्वतंत्र भारत के माध्यम से।  अपने मित्र चुन्नी लाल अरोड़ा के बहुत आग्रह के बाद उन्होंने स्वतंत्र भारत के लिए लिखना शुरू किया। उसके बाद फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।  वर्ष 2000 में  वह फिर मुरादाबाद की पंचशील कालोनी छोड़कर पूरी तरह मुम्बई में बस गए।  12 जुलाई 2014 को उन्होंने मुंबई के  गोरेगांव स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली ।

 प्रकाशित साहित्य एवं सम्मान

हुल्लड़ मुरादाबादी की  प्रमुख कृतियों में इतनी ऊंची मत छोड़ो, मैं भी सोचूं तू भी सोच, अच्छा है पर कभी कभी, तथाकथित भगवानों के नाम,सत्य की साधना, त्रिवेणी , हज्जाम की हजामत, सब के सब पागल हैं , हुल्लड़ के कहकहे ,हुल्लड़ का हंगामा,   हुल्लड़ की श्रेष्ठ हास्य व्यंग रचनाएं ,हुल्लड़ सतसई, हुल्लड़ हजारा, क्या करेगी  चांदनी, यह अंदर की बात है,जिगर से बीड़ी जला ले  मुख्य हैं । एचएमबी द्वारा आपकी हास्य रचनाओं के अनेक रिकॉर्ड्स एवं कैसेट्स रिलीज हो चुके हैं जिनमें प्रमुख रूप से हंसी का खजाना , हुल्लड़ का हंगामा , हुल्लड़ के कहकहे, हुल्लड़ मुरादाबादी से मिलिए बेहद पसंद की गई हैं । आपको विभिन्न पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया जिनमें प्रमुख रूप से काका हाथरसी पुरस्कार, महाकवि निराला सम्मान, हास्य रत्न अवार्ड, कलाश्री पुरस्कार, ठिठोली पुरस्कार, इंडियन जेसीज का टी ओ वाई पी अवार्ड  मुख्य हैं। 

 :::::;;;; प्रस्तुति :::::::

 


डॉ मनोज रस्तोगी

 8, जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद 244001

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख














इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता एवं साहित्यकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र का जन्म 22 मई 1932 को चंदौसी के लब्ध प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ। आपके पिता पंडित रामस्वरूप वैद्यशास्त्री रामपुर जनपद की शाहबाद तहसील के अनबे ग्राम से चंदौसी आकर बसे थे।उनकी आयुर्वेद जगत में अच्छी ख्याति थी। उनके द्वारा स्थापित धन्वतरि फार्मसी द्वारा निर्मित औषधियाँ देश भर में प्रसिद्ध है । आपके पितामह पंडित बिहारी लाल शास्त्री थे।

   आपकी प्रारम्भिक शिक्षा चंदौसी में पंडित गोकुलचन्द्र के विद्यालय में हुई। तदुपरान्त आपने एसएम इंटर कालेज में कक्षा तीन में प्रवेश ले लिया। वर्ष 1953 में आपने इसी विद्यालय से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1955 में आपने शिक्षाध्ययन त्याग दिया और साहित्य सेवा को पूर्ण रूप से समर्पित हो गये ।

   15 अप्रैल 1955 को उनका विवाह सोरों के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी पं दामोदर शर्मा की पुत्री और जिला सूचना अधिकारी ‘प्रियदर्शिनी’ महाकाव्य के अमर प्रणेता पं॰ राजेंद्र पाठक की छोटी बहन विमला के साथ सम्पन्न हुआ | उनके दो सुपुत्र अतुल मिश्र व विप्र वत्स मिश्र तथा दो सुपुत्रियाँ प्रज्ञा शर्मा व प्रतिमा शर्मा हैं।

     बचपन से ही आपकी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने में रुचि थी। पं सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, डॉ हरिवंश राय बच्चन जैसे अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों का साहित्य आपने पन्द्रह-सोलह वर्ष की अवस्था में ही पढ़ लिया था ।साहित्य अनुराग के कारण ही आप कविता लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उधर, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में गाये जाने वाले कोरसों का भी मन पर पूरी तरह प्रभाव पड़ा। 

आपकी प्रथम कविता दिल्ली से प्रकाशित दैनिक सन्मार्ग में वर्ष 1948 में प्रकाशित हुई । उस समय आपकी अवस्था मात्र सोलह वर्ष की थी। इसके पश्चात् आपकी पूरी रुचि साहित्य लेखन की ओर हो गयी लेकिन आपके पिता को यह सहन न था। वह चाहते थे कि उनका पुत्र अपने अध्ययन में मन लगाये व वैद्यक व्यवसाय में उनका सहयोग करें।  एक दीपावली की रात्रि को उन्होंने पिताश्री के पूजा-गृह मे लक्ष्मी और रजत मुद्राओं के आगे यह कहकर सिर नवाने से इंकार कर दिया- ‘मैं सरस्वती का पुत्र हूँ, लक्ष्मी के आगे सिर नही नवाऊंगा |’ 

    प्रारम्भ में आपने छायावादी और रहस्यवादी कवितायें लिखी जिनका प्रथम संग्रह मधुगान वर्ष 1951 में प्रकाशित हुआ, उस समय उनकी अवस्था मात्र 19 वर्ष की थी । इस संग्रह को काफी सराहना मिली । वर्ष 1955 में उनके प्रकाशित दूसरे संग्रह 'कल्पना कामिनी' में श्रृंगार रस से भीगी रचनायें थीं। वर्ष 1982 में आपकी हास्य कविताओं का एक संग्रह कविता नियोजन' प्रकाश में आया । वर्ष 1985 में ए कैटलॉग ऑफ संस्कृत मैन्युस्किरपट इन चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय का प्रकाशन हुआ। वर्ष 1993 में बदायूं के रणबांकुरे राजपूत(इतिहास) ,वर्ष 1999 में हास्य व्यंग्य काव्य संग्रह कवयित्री सम्मेलन, वर्ष 1997 में इतिहास के झरोखों से सम्भल (इतिहास) ,2001 में ऐतिहासिक उपन्यास शहीद मोती सिंह, वर्ष 2003 में मुरादाबाद जनपद का स्वतंत्रता संग्राम (काव्य),  मुरादाबाद व अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी(काव्य), पवित्र पंवासा (ऐतिहासिक खण्ड काव्य), मीरापुर के नवोपलब्ध कवि (शोध) तथा वर्ष 2008 में आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं (शोध) प्रकाशित हो चुकी हैं । 

   अप्रकाशित कृतियों में महाभारत और पुरातत्व, मुरादाबाद जनपद की समस्या - पूर्ति, स्वतंत्रता संग्राम: पत्रकारिता के साक्ष्य, चंदौसी का इतिहास, भोजपुरी कजरियाँ, राधेश्याम रामायण पूर्ववर्ती लोक राम काव्य, बृज के लोक रचनाकार, चंदौसी - इतिहास दोहावली, बरन से बुलंदशहर तक, हरियाणा की प्राचीन साहित्य धारा, स्वतंत्रता संग्राम का एक वर्ष, दिल्ली लोक साहित्य और शिला यंत्रालय, रूहेलखण्ड की हिन्दी सेवाएं, हिन्दी पत्रकारिता का साधना-काल, रूहेलखण्ड के प्रमुख हिन्दी पत्रकार, हिन्दी-पत्रों की कार्टून- कला के दस वर्ष, एक शहर पीतल का, संभल क्षेत्र की इतिहास - यात्रा, गंगा-घाटी का त्यागी-समाज, मध्य प्रदेश: भूले-बिसरे साहित्य-प्रसंग, रसिक कवि तुलसीदास,पूर्वी कौरवी के लोक-काव्य मुख्य हैं । आपकी रचनाओं और शोध परक लेखों का प्रकाशन साप्ताहिक हिन्दुस्तान (दिल्ली), कादम्बनी (दिल्ली), नव भारत टाइम्स तथा अमर उजाला दैनिक पत्रों में नियमित रूप से होता रहा है। 

  वर्ष 1955 में ही उनकी रुचि पुरातात्विक महत्व की वस्तुएँ एकत्र करने में हो गयी। इसी वर्ष उन्होंने ‘चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय’ की नींव डाल दी जो बाद में मुरादाबाद के दीनदयाल नगर में हिन्दी संस्कृत शोध संस्थान, पुरातत्व संग्रहालय के रूप में संचालित होता रहा। उन्होंने अपने जीवन के स्वर्णिम 25 वर्ष मुरादाबाद, बरेली बदायूँ गंगा रामगंगा बीच भूभाग पुराने टीलों, पुरानी इमारतों, जर्जर किलों और ऐतिहासिक महत्व स्थानों खाक छानते हुए गुजारे है। वह रोज सुबह से साइकिल लेकर निकलते और रात लौटते थे। कभी-कभी उन्हें वापस लौटने कई-कई दिन लग जाते थे। इस बीच घर वालों को यह भी पता नहीं रहता था कि वह कहाँ जब वह घर से निकलते, तो उनका थैला गुब्बारों भरा होता और जब वापस लौटते, तो उस थैले में होतीं तरह-तरह की मृण्मूर्तियां, सिक्के, पुरानी किताबें और ऐतिहासिक महत्व की दूसरी चीजें।

    पुरातत्व वस्तुओं की खोज के दौरान उन्होंने प्राचीन युग के अनेक अज्ञात कवियों प्रीतम, ब्रह्म, ज्ञानेन्द्र मधुसूदन दास, संत कवि लक्ष्मण, बालकराम आदि की पाण्डुलिपियाँ  खोजीं। हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने पर यह ज्ञात हुआ कि इनमें से अनेक ग्रन्थ दुर्लभ थे। श्री मिश्र जी के संग्रहालय में लगभग 4450 मृणमूर्तियाँ, 200 प्रस्तर मूर्तियाँ, 55 मृण्पात्र 40 लघु चित्र, 4000 सिक्के और मनके, 9 अभिलिखित मुहरें, 250 लीयो चित्र, हिन्दी और संस्कृत की 2000 पाण्डुलिपियाँ, 600 लीथो प्रकाशन तथा हिन्दी की हजारों प्राचीन पत्रिकाएँ थीं ।

     उनकी समस्त पुरातात्विक धरोहर वर्तमान में उनके सुपुत्र अतुल मिश्र के अलावा बरेली के पांचाल संग्रहालय तथा स्वामी शुकदेवानंद महाविद्यालय, शाहजहांपुर में 'पं.सुरेंद्र मोहन मिश्र संग्रहालय' में सुरक्षित है।

    उनका निधन 22 मार्च 2008 को मुरादाबाद में अपने दीनदयाल नगर स्थित आवास पर हुआ ।


 


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

 8, जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद  244001

 उत्तर प्रदेश, भारत 

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