मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार 'बेदिल' की कृति की आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा की गई समीक्षा -----' ग़ज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण' अपनी मिसाल आप

​​       हिंदी-उर्दू जगत के सुपरिचित हस्ताक्षर डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' हरदिल अज़ीज़ शायर हैं। वे उस्ताद शायर होने के साथ-साथ, अरूज़ के माहिर भी हैं। आज के वक्त में ज़िन्दगी जिस कशमकश में गुज़र रही है, वैसा पहले कभी नहीं था। कल से कल को जोड़े रखने कि जितनी जरूरत आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लार्ड मैकाले द्वारा थोपी गयी और अब तक ढोई जा रही शिक्षा प्रणाली कि बदौलत ऐसी नस्ल तैयार हो गयी है जिसे अपनी सभ्यता और संस्कृति पिछड़ापन तथा विदेशी विचारधारा प्रगतिशीलता प्रतीत होती है। इस परिदृश्य को बदलने और अपनी जड़ों के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करने में साहित्य की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। ऐसे रचनाकार जो सृजन को शौक नहीं धर्म मानकर सार्थक और स्वस्थ्य रचनाकर्म को पूजा की तरह निभाते हैं उनमें डॉ. बेदिल का भी शुमार है।

असरदार लेखन के लिए उत्तम विचारों के साथ-साथ कहने कि कला भी जरूरी है। साहित्य की विविध विधाओं के मानक नियमों की जानकारी हो तो तदनुसार कही गयी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। गजल काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय वि धाओं में से एक है। बेदिल जी, ने यह सर्वोपयोगी किताब बरसों के अनुभव और महारत हासिल करने के बाद लिखी है। यह  एक शोधग्रंथ से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। शोधग्रंथ विषय के जानकारों के लिए होता है जबकि यह किताब ग़ज़ल को जाननेवालों और न जाननेवालों दोनों के लिए सामान रूप से उपयोगी है। उर्दू की काव्य विधाएँ, ग़ज़ल का सफर, रदीफ़-काफ़िया और शायरी के दोष, अरूज़(बहरें), बहरों की किस्में, मुफरद बहरें, मुरक़्क़ब बहरें तथा ग़ज़ल में मात्रा गिराने के नियम शीर्षक अष्टाध्यायी कृति नवोदित ग़ज़लकारों को कदम-दर-कदम आगे बढ़ने में सहायक है। 

एक बात साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी और उर्दू हिंदुस्तानी जबान के दो रूप हैं जिनका व्याकरण और छंदशास्त्र कही-कही समान और कहीं-कहीं असमान है। कुछ काव्य विधाएँ  दोनों भाषा रूपों में प्रचलित हैं जिनमें ग़ज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण है। उर्दू ग़ज़ल रुक्न और बहारों पर आधारित होती हैं जबकि हिंदी ग़ज़ल गणों के पदभार तथा वर्णों की संख्या पर। हिंदी के कुछ वर्ण उर्दू में नहीं हैं तो उर्दू के कुछ वर्ण हिंदी में नहीं है। हिंदी का 'ण' उर्दू में नहीं है तो उर्दू के 'हे' और 'हम्ज़ा' के स्थान पर हिंदी में केवल 'ह' है। इस कारण हिंदी में निर्दोष दिखने वाला तुकांत-पदांत उर्दूभाषी को गलत तथा उर्दू में मुकम्मल दिखनेवाला पदांत-तुकांत हिन्दीभाषी को दोषपूर्ण प्रतीत हो सकता है। यही स्थिति पदभार या वज़न के सिलसिले में भी हो सकती है। मेरा आशय यह नहीं है कि हमेशा ही ऐसा होता है किन्तु ऐसा हो सकता है इसलिए एक भाषारूप के नियमों का आधार लेकर अन्य भाषारूप में लिखी गयी रचना को खारिज करना ठीक नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि विधा के मूल नियमों की अनदेखी हो। यह कृति गज़ल के आधारभूत तत्वों की जानकारी देने के साथ-साथ बहरों कि किस्मों, उनके उदाहरणों और नामकरण के सम्बन्ध में सकल जानकारी देती है। हिंदी-उर्दू में मात्रा न गिराने और गिराने को लेकर भी भिन्न स्थिति है। इस किताब का वैशिष्ट्य मात्रा गिराने के नियमों की सटीक जानकारी देना है। हिंदी-उर्दू की साझा शब्दावली बहुत समृद्ध और संपन्न है। 

उर्दू ग़ज़ल लिखनेवालों के लिए तो यह किताब जरूरी है ही, हिंदी ग़ज़ल के रचनाकारों को इसे अवश्य पढ़ना, समझना और बरतना चाहिए इससे वे ऐसी गज़लें लिख सकेंगे जो दोनों भाषाओँ के व्याकरण-पिंगाल की कसौटी पर खरी उतरें। लब्बोलुबाब यह कि बिदिक जी ने यह किताब पूरी फराखदिली से लिखी है जिसमें नौसिखियों के लिए ही नहीं उस्तादों के लिए भी बहुत कुछ है। इया किताब का अगला संस्करण अगर अंग्रेजी ग़ज़ल, बांला ग़ज़ल, जर्मन ग़ज़ल, जापानी ग़ज़ल आदि में अपने जाने वालों नियमों की भी जानकारी जोड़ ले तो इसकी उपादेयता और स्वीकृति तो बढ़ेगी ही, गजलकारों को उन भाषाओँ को सिखने और उनकी ग़ज़लों को समझने की प्रेरणा भी मिलेगी।

डॉ. बेदिल इस पाकीज़ा काम के लिए हिंदी-उर्दू प्रेमियों की ओर से बधाई और प्रशंसा के पात्र हैं। गुज़ारिश यह कि रुबाई के २४ औज़ानों को लेकर एक और किताब देकर कठिन कही जानेवाली इस विधा को सरल रूप से समझाकर रुबाई-लेखन को प्रोत्साहित करेंगे।



**पुस्तक : गज़ल रदीफ़,-काफ़िया और व्याकरण
**  रचनाकार : डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल'
**प्रथम संस्करण 2015
** मूल्य 195₹
** प्रकाशक : निरुपमा प्रकाशन 506/13, शास्त्री नगर, मेरठ
** समीक्षक : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
 204, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001
चलभाष : 9425183244
*****

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की काव्य कृति ' किसको कहूं पराया मैं ' की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा ---‘संवेदनाओं के मोहक रेखाचित्र’

      हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि श्री वीरेन्द्र सिंह ‘बृजवासी’ की कविताओं से गुज़रना भी स्फूर्त रूप से उतरी उनकी कविताओं का पंचामृतपान करने जैसा ही है।मुरादाबाद निवासी बृजवासीजी की सद्यः प्रकाशित काव्य-कृति ‘किसको कहूँ पराया मैं’ की रचनाएं अपने समय के और समय के परे के महत्व को रेखांकित करने के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं को बचाए रखने की कोशिशों की कला-कृतियाँ तैयार करती है। उनकी कविताएँ अपने कथ्य की ताज़गी और भाषाई सहजता की चुम्बकीय शक्ति से पाठक को स्वयं से जोड़े रखने में न सिर्फ़ सफल रहती हैं बरन परिदृश्य को समग्रता में देखते हुए मूल्यांकन करती हैं और अपने ढंग से उसे परिभाषित भी करती हैं।
बृजवासीजी की पूर्व प्रकाशित कृतियाँ हों या फिर वर्तमान कृति, उनकी रचनाओं को पढ़कर साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि घर-आँगन में उगने और पुष्पित-पल्लवित होने वाले रिश्ते उनकी कविताओं के केन्द्र में रहकर संवेदनाओं के मोहक रेखाचित्र बनाते हैं। वर्तमान बिद्रूप समय में संयुक्त परिवारों की परंपरा अब दिखाई नहीं देती। एकल परिवार के दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ते जा रहे फैशन के दुष्चक्र में फँसकर नई पीढ़ी तो प्रभावित हो ही रही है, घर के भीतर बुजुर्ग पीढ़ी भी कम आहत नहीं है। बच्चे बड़े होकर जब रोज़गार की ख़ातिर अपनी-अपनी गृहस्थियों के साथ कहीं दूर जाकर बस जाते हैं तो आँगन, बालकनी और कमरों का सन्नाटा बुजुर्गों को बहुत सालता है। ऐसे हालातों में वे बिल्कुल अकेले पड़ जाते हैं, किसी से अपने मन की बात कहने तक को तरस जाते हैं। जहाँ एक ओर रिश्तों-नातों का निभाव महज औपचारिक होकर रह गया है वहीं दूसरी ओर मुहल्लेदारी और आपसदारी जैसे शब्द अर्थहीन-से हो गए हैं फलतः आँगन की मिट्टी में पलनेे वाले संस्कार, अपनत्व और साँझापन की खुशबू कहीं महसूस नहीं होती। इक्कीसवीं सदी का ऐसा तथाकथित विकास कवि-मन को व्यथित करता है-"धर्म-कर्म बेजान हो गए/रिश्ते सब अंजान हो गए/बदली रिश्तों की परिभाषा/सड़कों पर हो रहा तमाशा/अंधकार से घिरे पलों में/अपनों से मिल रही निराशा/खींच रहे हैं चीर दुःशासन/माधव अंतर्धान हो गए"। शायद इसीलिए बृजवासीजी रिश्तों में मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए घर में, समाज में अपनेपन की ज़रूरत को महसूस करते हुए अभिव्यक्त करते हैं-"रिश्ते रूठ गए रिश्तों से/प्यार भरा दर्पण चटका है/होठों की मुस्कान खो गई/उच्चारण भटका-भटका है/रिश्ते तो नाज़ुक होते हैं/ऐसे नहीं निभाए जाते/घर को रोशन करने वाले/दीपक नहीं बुझाए जाते/उसे ख़ुदा क्या माफ़ करेगा/दिल को जो देता झटका है"।
‘अनेकता मे एकता’ भारत की संस्कृति रही है, भारत की पहचान रही है और सही मायने में भारत की शक्ति भी यही है तभी तो आज भी गाँव के किसी परिवार की बेटी पूरे गाँव की बेटी होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सभी धर्मों के लोग एक दूसरे के त्यौहार प्रेम और उल्लास के साथ मनाते हैं लेकिन हमारे राजनेता अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने के लिए धर्म और जातियों के नाम पर आपस में लड़ाने का काम करते हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द को मज़बूती से पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता को बृजवासीजी बड़ी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं-"हिन्दू-मुस्लिम के झगड़ों ने/कर डाला हैरान/कहाँ है मेरा हिन्दुस्तान/गुझिया, पाक, सिवैयां सहमी/सहम गए विश्वास/दानवता ने आज तोड़ दी/मानवता की आस/जिसको देखो बना हुआ है/धरती पर हैवान"।
भारत की सात दशकीय आज़ादी में आम आदमी की पीड़ा अब भी वही है- पेट को रोटी, तन को कपड़ा और सिर ढकने को छत तक मयस्सर नहीं है जबकि प्रगति के नाम पर हम 4जी-5जी के साथ-साथ मैट्रो ट्रेन में चलते हुए बुलेट ट्रेन के सपने देख रहे हैं। सबसे बड़ा आश्चर्य तो इस बात का है कि देश के लोकतांत्रिक मन्दिर संसद में आम आदमी की ग़रीबी, उसकी समस्याओं और उसकी मूलभूत ज़रूरतों को लेकर कई-कई दिन तक बहसें होती हैं, भाषणबाज़ी होती है, नई-नई कल्याणकारी योजनायें उत्पादित की जाती हैं लेकिन हक़ीक़त की ज़मीन पर तो सन्नाटा ही आमआदमी के भाग्य में लिखा है, उसके नाम पर बनी योजनाओं का लाभ उस तक प्रायः पहुंच ही नहीं पाता है। आज भी कितने ही लोग फुटपाथों पर अपना पूरा जीवन नारकीय स्थिति में व्यतीत करने के लिए विवश है। इसी विसंगतिपूर्ण स्थिति को पल-पल जीने वाले आमआदमी के दर्द को बृजवासीजी मुखरता से बयान करते हैं-"दूर हुई थाली से रोटी/पेट हवा से भर लेना/आज नहीं कल पा जाओगे/थोड़ा धीरज धर लेना/राहत की बाते भर देते/अपने बजट भाषणों में/कम देकर ज़्यादा लेने का/रचते खेल आंकड़ों में/पूँजीपतियों के दलाल हैं/भैया इनसे डर लेना"।
 दरअस्ल कविता एक कला है जो अन्य कलाओं से सर्वथा भिन्न है, क्योकि अन्य कलाओं का प्रशिक्षण प्राप्त कर उनमें पारंगत हुआ जा सकता है किन्तु कविता का कोई प्रशिक्षण केन्द्र नहीं होता। यह सत्य भी है कि कविता-लेखन दैनिक कार्यों से निवृत्त होने जैसा नहीं है। कविता को जब आना होता है, वह तब ही उतरती है कवि के मन-मस्तिष्क में। ना दिन देखती है ना रात, ना एकान्त देखती है ना कोलाहल, स्फूर्त रूप से कविता जब आती है तो आती ही चली जाती है। भिन्न-भिन्न संदर्भों, मानसिकताओं और अनुभूतियों में गुंथे इस संग्रह में उनकी कविताओं में सकारात्मकता की गूँज बहुत दूर तक जाती है। रचनाकार का स्थितियों के प्रति यही सकारात्मक दृष्टिकोण कविता को अर्थहीन होने से तो बचाता ही है साथ ही रचनात्मक परिपक्वता को भी प्रमाणित करता है। एक कविता का अंश देखिए-"सिर्फ़ अपने तक न अपनी/सोच हम सीमित करें/ज़िन्दगी को ज़िन्दगी के/वास्ते जीवित करें/ज़िन्दगी में रंग भरने का/हुनर भी सीख लें/हर किसी दिल में उतरने का/हुनर भी सीख लें/प्यार की ख़ातिर सभी को/क्यों न हम प्रेरित करें"।
हिन्दी के अप्रतिम गीतकवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र ने कहा है-‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख/और उसके बाद भी उससे बड़ा तू दिख।’ बृजवासीजी की रचनाधर्मिता के संदर्भ में दादा भवानीप्रसाद मिश्र की उपर्युक्त पंक्तियाँ सौ फीसदी सटीक उतरती हैं, बृजवासीजी का व्यक्तित्व भी उनकी रचनाओं की तरह निश्छल, संवेदनशील और आत्मीयता की ख़ुशबुओं से भरा हुआ है। तभी तो वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. आर.सी.शुक्ला ने पुस्तक की भूमिका में कहा है- ‘बृजवासीजी की समस्त कविताएं उनके व्यक्तित्व का अनुवाद ही हैं।’ ‘किसको कहूँ पराया मैं’ शीर्षक से उनकी यह काव्य-कृति भी हिन्दी साहित्य-जगत में पर्याप्त चर्चित होगी और सराही जायेगी, ऐसी मेरी आशा भी है और विश्वास भी।



**समीक्ष्य कृति - ‘किसको कहूँ पराया मैं’ (काव्य-संग्रह)
**रचनाकार   - वीरेन्द्र सिंह ‘बृजवासी’
**प्रकाशक    - विश्व पुस्तक प्रकाशन, नई दिल्ली-110063
**प्रकाशन वर्ष - 2019
**मूल्य       - रु0 250/-(सजिल्द)
**समीक्षक- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
 ए.एल.-49, उमा मेडिकल के पीछे
 दीनदयाल नगर-।, काँठ रोड,
मुरादाबाद (उ0प्र0)
चलभाष- 9412805981

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की कविता


टूट गया भ्रम
हम सरताज थे
वक़्त के हाथों
सब मोहताज थे।।
***
अमावस्या के घर पर
पूर्णमासी मेहमान थी
सूरज की हथेली पर
तितली मेहरबान थी।।
**
खुश्क थे गले
अधर भी मौन
आत्मा में आज
श्रीराम आ गए।।
****
पागल थी हवा
जज़्बात सो गये
बताये कोई उसे
हम क्या हो गये।।
****
जो हाथों में झूले
वो ही ठिठक गये
मोक्ष धाम में नटवर
कंधे भी बिदक गये।।

✍️  सूर्यकान्त द्विवेदी

मुरादाबाद की साहित्यकार रश्मि प्रभाकर के कुछ मुक्तक




🎤✍️ रश्मि प्रभाकर
10/184 फेज़ 2, बुद्धि विहार, आवास विकास, मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
फोन नं. 9897548736

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष पुष्पेंद्र वर्णवाल की लघु काव्य कृति ऋषि का एक अंश ---- यह कृति पुस्तिका के रूप में 44 साल पूर्व वर्ष 1976 में प्रकाशित हुई थी। इसे स्मृति शेष वीरेंद्र गुप्त ने अपने प्रकाशन मंदिर बाजार चौक से प्रकाशित किया था ।








            :::::::::::::प्रस्तुति :::::::::::;;;::::::
            डॉ मनोज रस्तोगी
            8, जीलाल स्ट्रीट
           मुरादाबाद 244001
           उत्तर प्रदेश, भारत
           मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद में प्रत्येक रविवार को वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है। रविवार 26 अप्रैल 2020 को आयोजित 199 वें वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे में साहित्यकारों अशोक रस्तोगी , जितेंद्र कमल आनन्द, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, राजीव प्रखर, रवि प्रकाश, डॉ कृष्ण कुमार बेदिल , अशोक विश्नोई, मीनाक्षी ठाकुर , संतोष कुमार शुक्ल , मुजाहिद चौधरी, श्री कृष्ण शुक्ल, हरि प्रकाश शर्मा, वहाज उल काशिफ, डॉ अनिल शर्मा अनिल, इंदु रानी , अमितोष शर्मा , प्रवीण राही, अरविंद कुमार शर्मा आनन्द, सीमा रानी, अखिलेश वर्मा, नृपेंद्र शर्मा सागर, शिशुपाल सिंह मधुकर, डॉ पुनीत कुमार , अशोक विद्रोही, राशिद मुरादाबादी ,डॉ मीरा कश्यप , मनोरमा शर्मा , डॉ प्रीति हुंकार, प्रीति चौधरी, हेमा तिवारी भट्ट, मनोज मनु, कंचन लता पांडेय , सूर्यकांत द्विवेदी और डॉ मनोज रस्तोगी द्वारा प्रस्तुत की गईं रचनाएं -----



































                   









                      ::::::::प्रस्तुति::::::::
   
                       डॉ मनोज रस्तोगी
                       8, जीलाल स्ट्रीट
                       मुरादाबाद 244001
                       उत्तर प्रदेश, भारत
                       मुरादाबाद 244001

रविवार, 26 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल की रचना ----- कोरोना का संकट मित्रों कब तक हमें डराएगा , अनुशासन में अगर रहेंगे तो संकट टल जाएगा


मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार डॉ डी एन शर्मा की रचना --- कोरोना आ गया जग में, पड़ रहा सभी को रोना


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष रमाशंकर जैतली ' विश्व ' की एक लंबी पद्य रचना का अंश ---- यह अंश उनकी कृति ' कसक ' से लिया गया है। इस कृति का प्रकाशन लगभग 85 साल पहले सन 1935 में अरुण कार्यालय मुरादाबाद द्वारा किया गया था ।







              :::::::::::: प्रस्तुति ::::::::::::::

              डॉ मनोज रस्तोगी
             8, जीलाल स्ट्रीट
            मुरादाबाद 244001
            उत्तर प्रदेश, भारत
            मोबाइल फोन नम्बर 9456687822