शनिवार, 4 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार भारती रस्तौगी की दस ग़ज़लें ---- ये ली गईं हैं उनके काव्य संग्रह "खुशबू अहसास की" से । यह संग्रह पांच साल पहले वर्ष2015 में हरिगंगा प्रकाशन, बिजनौर से प्रकाशित हुआ था ।












मुरादाबाद की साहित्यकार सरिता लाल की 11 कविताएं----- ये कविताएं ली गई हैं उनके कविता संग्रह "अभिव्यक्ति" से । यह संग्रह गीतिका प्रकाशन बिजनौर द्वारा 19 साल पहले वर्ष 2001 में प्रकाशित हुआ था ।













✍️ सरिता लाल
37-ए, मधुबनी
कांठ रोड
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष अम्बालाल नागर की कविता ---परोंठा




:::::प्रस्तुति::;:;;;
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार भोलानाथ त्यागी की कविता ------- नमामि गंगे

जल है , तो कल है -
लेकिन अब तो
जलहीन हैं
नदियां
सूख गई हैं  संवेदनाएं -
आंखों का पानी भी ,
मर चुका है कभी का -
उम्मीद की मछलियां ,
तपते रेगिस्तान में
तलाशी जा रही हैं -
पानी ,
खुद पानी - पानी
हो रहा है ,
और , भविष्य -
कटे जंगलों में
शेष ठूंठों सा ,
बिलबिला रहा है /
नीरो -
पूर्वतः , बाँसुरी बजा
भस्मासुरी नृत्य में -
मगन है ,
नमामि गंगे का जयघोष -
मात्र ,
उपहास का पात्र
बन कर रह गया है ,
राजनीति के ,
विदूषकों की
खोखली जलभक्ति
और -
जलसमाधि लेते ,
आश्वासन ,
मृगमरीचिका बन
जल , तलाश रहें हैं -
मरुस्थल में ......

✍️ भोलानाथ त्यागी
 विनायकम
49 इमलिया परिसर 
सिविल लाइंस
बिजनौर 246701
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 70172 61904  , 94568 73005
                   

मुरादाबाद की साहित्यकार अस्मिता पाठक की कविता ------ माइग्रेन

उस वक्त
वह माईग्रेन के जैसा नहीं था
वह रोज़मर्रा बहती नदी से
धूसर सवालों
की तरह नहीं टकराता था
वह बस मेरा ही एक भाग था
उसमें न मस्तिष्क था और
न दर्द था

उन खुशनुमा दिनों में
कैंपस के पास
मामूली सी झाड़ियों के बीच से
फुदकते हुए
एक टांग वाली गौरैया हाथ से
ब्रेड छीनती थी
और मैं कॉफी, दोस्तों
और बेचैन आवाज़ों में
सोमवार को ढ़ूँढती थी....
उन दिनों
दिल्ली, देश और हवा
वैसे ही दिखते थे जैसे मैंने
किताबों में देखे थे
कागज़ की खुशबू में
वे खूबसूरत थे
वे रोचक थे
तब समझी
...कागजों में सब खूबसूरत होता है...

उन दिनों
वह माईग्रेन नहीं था
क्योंकि शायद
तब सवाल स्पष्ट नहीं थे
उन बारीक महीन सवालों से
खेलते हुए
उनके किनारे बड़े होने तक
वे विरोध पर थोपी हुई सरलता
में गिरकर
खो चुके थे...

✍️  अस्मिता पाठक
मुरादाबाद 244001

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष पुष्पेंद्र वर्णवाल के 11 गीत ------ ये उनके गीत-विगीत संग्रह 'प्रणय पर्वा' से लिए गए हैं। उनका यह संग्रह श्री पुष्पेंद्र वर्णवाल षष्टिपूर्ति अभिनंदन समिति मुरादाबाद द्वारा 14 वर्ष पूर्व वर्ष 2006 में प्रकाशित हुआ था













:::::::प्रस्तुति::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का संस्मरण ---- जब काका हाथरसी रामपुर आये थे .....






रामपुर में काका हाथरसी नाइट : 8 फरवरी 1981
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काका हाथरसी हिंदी काव्य मंच के अत्यंत लोकप्रिय और सशक्त हस्ताक्षर थे। सारे भारत में आपके प्रशंसकों की संख्या लाखों में कही जा सकती है । ऐसे ही एक प्रशंसक रामपुर में सुन्दरलाल इंटर कॉलेज  के संस्थापक एवं प्रबंधक श्री राम प्रकाश सर्राफ थे । काका हाथरसी की काव्य शैली के आप प्रशंसक थे तथा रामपुर में काका हाथरसी को सुनने के इच्छुक थे। जब सुन्दरलाल इंटर कॉलेज की स्थापना के 25 वर्ष पूरे हुए तब आपने यह विचार किया कि क्यों न काका हाथरसी को रामपुर में आमंत्रित करके काका नाइट का आयोजन किया जाए और इस प्रकार अपने मनपसंद कवि को देर तक साक्षात सुनने का शुभ अवसर प्राप्त हो । इसी योजना के अंतर्गत दो दिवसीय काव्योत्सव आपने सुन्दरलाल इंटर कॉलेज के प्रांगण में आयोजित किया। पहले दिन 8 फरवरी 1981 को काका हाथरसी नाइट का आयोजन था तथा अगले दिन 9 फरवरी 1981 को बसंत पंचमी के दिन अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन रखा गया था ।
        कार्यक्रम के संचालन के लिए आपने श्री भगवान स्वरूप सक्सेना मुसाफिर से संपर्क किया । भगवान स्वरूप सक्सेना जी की मंच संचालन क्षमता बेजोड़ थी । आपकी गंभीर आवाज जो खनकदार गूँज पैदा करती थी , उसका कोई सानी नहीं था। आज भी आपकी आवाज का कोई दूसरा विकल्प दिखाई नहीं देता। आप सहज ही दोनों दिन के काव्य - समारोह का संचालन करने के लिए राजी हो गए। वास्तव में आपकी राम प्रकाश जी से बहुत निकटता तथा आत्मीयता रामपुर में जिला सूचना अधिकारी के पद पर कार्य करते हुए हो गई थी। आपका अक्सर दुकान पर आना , बैठना और बातचीत करते रहना चलता रहता था । अनेक बार आपके साथ आपकी बहन तथा आपकी माताजी भी साथ आ जाती थीं  और घर पर अत्यंत सहज रीति से घुलमिल जाती थी । आप मंच संचालन की अद्वितीय  क्षमता के साथ-साथ एक अच्छे लेखक और कवि भी थे । पुस्तक "नर्तकी" आपके शब्द चित्रों का  एक संग्रह है जिसे गद्य और पद्य का मिलन स्थल कह सकते हैं । तत्काल समारोहों का संचालन करने की जैसी खूबी आपने थी वैसी किसी में नहीं थी । राम प्रकाश जी के दर्जनों समारोहों में आप ने मंच को सुशोभित किया था । कवि सम्मेलन तथा काका नाइट में आपके मंच संचालन से चार चाँद लग गए ।
        किन कवियों को बुलाया जाए तथा काका हाथरसी से किस प्रकार से संपर्क किया जाए, इसके लिए रामप्रकाश जी ने विद्यालय के हिंदी प्रवक्ता डॉ चंद्र प्रकाश सक्सेना कुमुद जी से वार्तालाप किया । चंद्र प्रकाश जी न केवल विद्यालय के हिंदी प्रवक्ता थे ,बल्कि हिंदी के बड़े भारी विद्वान थे । कवि और कहानीकार भी थे। आपने संपर्क ढूंढ लिए और इस प्रकार अच्छे कवियों की व्यवस्था काका नाइट के अगले दिन के लिए भी हो गई ।
       मुरादाबाद से प्रोफेसर महेंद्र प्रताप विशेष रूप से कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किए गए । आप चंद्र प्रकाश सक्सेना जी के गुरु भी रहे थे । इसके अलावा अलीगढ़ से डॉ रवींद्र भ्रमर  ,लखनऊ से डॉक्टर लक्ष्मी शंकर मिश्र निशंक ,बरेली से श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना, बदायूँ से डॉ.उर्मिलेश ,श्री मोहदत्त साथी , श्री नरेंद्र गरल तथा दिल्ली से श्री अशोक चक्रधर ने कवि सम्मेलन में पधार कर अपनी उपस्थिति से वातावरण को रसमय कर दिया था ।
         काका हाथरसी नाइट में  काका अपने साथ डॉ. वीरेंद्र तरुण  को भी लाए थे।  उनका भी काव्य पाठ  आकर्षक रहा था । काका हाथरसी की  हास्यरस से भरी हुई  कुंडलियाँ  अपने आप में अनूठी थीं।  सहज सरल भाषा  और  देसी मुहावरों से रची - बसी उनकी कविताएँ  जनता के हृदय को स्पर्श करती थीं। रामपुर के सार्वजनिक जीवन में अभी भी वह काव्य - उत्सव स्मृतियों में सजीव है।

 ✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 545 1

बुधवार, 1 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर रस्तोगी की लघुकथा ------नियुक्ति

 
        बेटे अरविन्द को सरकारी नौकरी नहीं मिल पाने के कारण मोहन बहुत परेशान था। वह सोचता कि स्वयं सरकारी ऑफिस में बाबू होने पर भी अपने बेटे के लिए कुछ नहीं कर पाता। करता भी कैसे जनरल क्लास का जो ठहरा और पगार भी इतनी नहीं थी कि रिश्वत दे सके व न ही अरविन्द इतनी तीक्ष्णबुद्धि का था कि सर्वोत्तम अंक ला सके। वह अरविन्द को दुकान खुलवाने की सोचने लगा परन्तु सरकारी नौकरी के बिना न मान सम्मान मिलेगा न ही अच्छे घर की लड़की वह यह भी भलीभांति जानता था। यही सब सोचते हुए वह अखबार के पन्ने पलट रहा था कि तभी उसकी नजर एक खबर पर पड़ी। "पिता की मृत्यु हो जाने के कारण बेटे को पिता के पद पर नियुक्त किया गया।"
कुर्सी से उठ वह सीधा रेलवे ट्रैक की ओर गया, तेजी से उसकी ओर आती ट्रेन का जोरदार हॉर्न भी उसका इरादा नहीं बदल सका। उसकी आँखें आंसुओं से भीगी थी पर उम्मीद की एक किरण जगमगा रही थी।

 ✍️इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की कहानी --- कड़वा अनुभव-


      ‘’रमेश की माँ जो-जो सामान तुमने बताया था सब ले आया। ‘’सोहनलाल ने अपनी पत्नी कांता से कहा। अरे गुड़ फिर ले आए अभी तो लाए थे, कुछ भी मंगाओ बाज़ार से गुड़ ज़रूर आता है,  आपका। कांता ने ग़ुस्से में कहा।अरे भागवान, गुड़ पाचन में अच्छा होता है, खाने के साथ सबको खाना चाहिए और बहु रुचि को भी कितना पसंद है, रमेश आएगा इसबार तो ढेर सारा दे देना, मेरठ के गुड़ की बात ही अलग है। दिल्ली में कहाँ अच्छा गुड़ मिलता है। सोहनलाल अध्यापक पद से रिटायर होकर मेरठ के शांतकुंज में बने निज निवास में पत्नी कांता के साथ रहते थे। बेटा रमेश जिसने दिल्ली में अपने साथ ही कम्पनी में नौकरी करने वाली रुचि से शादी कर ली। वह अपनी पत्नी रुचि के साथ दिल्ली में सेटल हो गया।
सोहनलाल दिल्ली की महँगाई से वाक़िफ़ था इसलिए वह रमेश से कहता था कि घर का ज़रूरी सामान यही से ले जाया करो, रुचि के लिए तो वह स्पेशल गुड़ बनवाकर देता। एक दिन सोहनलाल को पैरालिसिस अटैक आया। इलाज के लिए रमेश बाबूजी को दिल्ली ले आया ।अटैक के कारण सोहनलाल न बोल पाए, न चल पाए। डाक्टर ने कहा इलाज लम्बा चलेगा तो वह माँ को भी दिल्ली ले आया। रमेश और रुचि दोनो कम्पनी चले जाते। घर पर सोहनलाल और कांता रह जाते। कांता सोहनलाल को अपने हाथो से खाना खिलाती।  खाने के साथ  गुड़ वह उन्हें नियम से देती। ’’रुचि बेटा मेरठ से जो गुड़ लाए थे वो तो ख़त्म हो गया तुम्हारे बाबूजी तो गुड़ के बिना रह नही पाते। यही से देख लेना ‘’ कांता ने रुचि से कहा।’’ इतनी जल्दी ख़त्म हो गया यहा दिल्ली में गुड़ बहुत महँगा है ‘’रुचि ने कहा। बेटी ले आना थोड़ा दे दिया करूँगी। रुचि बिना जवाब दिए काम पर चली गयी। ’’बेटी मिल गया क्या गुड़ आज तो तेरे बाबूजी ने खाना भी नही खाया ‘’शाम को कांता ने रुचि से कहा। ’’नहीं मिला’’ रुचि ने रूखेपन से जवाब दिया।सोहनलाल ने ज़िंदगी में बिना गुड़ के कभी खाना खाया हो, कांता को याद नही और आज इस हालत में वह उससे वंचित है। ये बात कांता को अंदर से दुखी कर रही थी। टर्न टर्न फ़ोन की घंटी बजी.... कांता ने फ़ोन उठाया तो दूसरी तरफ़ रमेश ने कहा कि माँ गीज़र वाले का नम्बर मेरी अलमारी में रखा है ज़रा मुझे बता दो। वैसे कांता बहु बेटे के कमरे में जाती नहीं थी। फ़ोन नम्बर के लिए उसने अलमारी खोली और काग़ज़ पर लिखा फ़ोन नम्बर रमेश को नोट करा दिया। फ़ोन रखने के बाद एकदम उसे ऐसा लगा जैसे उसने अलमारी में कुछ देखा है। घर में कोई नहीं था फिर भी उसका दिल बहू बेटे के कमरे की तरफ़ जाते हुए ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था उसने अलमारी खोली पीछे उसी बड़े डिब्बे में गुड़ रखा था जो उन्होने  मेरठ से भिजवाया था। कांता ने डरते डरते डिब्बे में से एक डली निकालकर पल्लू में छुपा ली और चुपचाप सोहनलाल के पास आकर बैठ गयी। उसका रंग पीला पड़ गया था। वह ख़ुद को अपराधी महसूस कर रही थी कि अपने ही घर में ........... सोहनलाल की आँखो से कांता जान गयी थी कि वह पूछना चाह रहे है कि क्या हुआ। शांता ने पल्लू हटाकर सोहनलाल को कहा कि आपकी बेटी समान बहू आपके लिए गुड़ ले आयी। सोहनलाल सब समझ गया। सोहनलाल ने इशारों से कहा कि जाओ इसे वही रख आओ। आज उस पल्लू में रखे गुड़ को देखकर दोनो की आँखे भीग गयी। ज़िंदगी भर जीवन में मिठास घोलने वाला गुड़ उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें कड़वा अनुभव दे गया।

✍️ प्रीति चौधरी
शिक्षिका
राजकीय बालिका इण्टर कॉलेज, हसनपुर, जनपद अमरोहा

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी---- बाल मिठाई


    ... बस हरे भरे पर्वतों के बीच से हिचकोले खाती हुई चली जा रही थी मोड़ पर मोड़ आते  जा रहे थे लगता था जैसे किसी हिंडोले में बैठे हों.... दोनों ही ओर बहुत सुंदर पहाड़ी दृश्य थे इनके बीच से सर्पीली सड़क पर बस तेजी से आगे बढ़ रही थी ...आदि और अनीता प्यार और उल्लास में डूबे अलौकिक आनंद का अनुभव कर रहे थे उन दोनों की नयी नयी शादी हुई थी और वे आदि के मित्र दिलीप के साथ अल्मोड़ा जा रहे थे दिलीप पंत की अल्मोड़ा में ननिहाल थी ननिहाल में सब आदि को अपना ही बच्चा मानते थे और आदि और अनीता उन्हीं के बुलावे पर अल्मोड़ा जा रहे थे के.एम.ओ की बस में बड़ी घिचपिच थी और भीड़ के कारण सामान का भी लोगों को ठीक से ध्यान नहीं हो पा रहा था.... हल्द्वानी से चलकर बस गर्म पानी में रुकी फिर अल्मोड़ा के पास बस दोबारा रुकी तभी अनीता ने देखा कि उसकी अटैची गायब है आपस में बात करने पर पता लगा कि हल्द्वानी छूट गई यह देखकर आदि और अनीता सकते में आ गए क्योंकि अटैची में कपड़ों के साथ साथ कुछ कीमती जेवर और करीब ₹10000 भी थे जिनका अब मिलना बहुत मुश्किल था सारा मजा खराब हो गया रास्ते में कुछ  ठीक से खाया पिया भी नहीं गया तभी दिलीप पंत ने आदि से कहा कि मैं अटैची लेने हल्द्वानी वापस जा रहा हूं आप लोग अल्मोड़ा पहुंचो पंत दूसरी बस से हल्द्वानी के लिए लौट गया बस अल्मोड़ा पहुंच गई रात हो चुकी थी बाकी बचे हुए सामान के साथ आदि और अनीता दिलीप के ननिहाल में पहुंचे सब को बड़ी चिंता हो रही थी ,,अरे! दिलीप नहीं आया!,, घर में प्रवेश करते ही मामा जी ने कहा तो आदि ने बताया कि इस तरह से अटैची छूट गयी उसी को वापस लेने हल्द्वानी लौट गया है सभी यही सोच रहे थे कि नहीं मिलेगी सबने खाना खाया रात के 1:00 बजे घर पर दस्तक हुई दिलीप लौट आया था परंतु अटैची नहीं मिली सभी बहुत परेशान थे ....अनीता के पास तो पहनने को कपड़े भी नहीं थे अब अटैची मिलने का कोई प्रश्न ही नहीं था.... ....जैसे-तैसे सुबह हुई एक व्यक्ति गेट पर आया आने वाला जिसका नाम जगदीश पांडेय था मामा जी से कुछ बातें कर रहा था,, आपके यहां कुछ मेहमान आए हैं,,,?,, मामा जी ने कहा,, हां,, उनकी अटैची हल्द्वानी बस स्टैंड पर छूट गई थी?... हां !..... तब तक घर के सभी लोग गेट पर पहुंच गए थे.... आदि और अनीता को अटैची देखकर बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ जगदीश ने बाकायदा पूरी लिस्ट बनाई हुई थी ..  एक एक चीज पूछ कर संतुष्ट होने पर ही उसने अटैची वापस की  कपड़े तक पहचानने के बाद ही जगदीश की संतुष्टि हुई अनीता ने कहा ,,भैया इसमें कुछ पैसे भी थे,,,,और भी कुछ था ?उसनेे पूछा ,,भैया उसमें मेरे कंगन और माथे का टीका भी थे,, जगदीश ने एक-एक सामान वापस कर दिया और बताया यदि अटैची में यहां का पता लिखा कार्ड नहीं होता तो मैं आ भी नहीं पाता ....सभी ने उसका धन्यवाद किया अनीता ने खासतौर से कहा,, भैया बहुत-बहुत धन्यवाद,, जगदीश ने कहा,,भाई कहा है तो धन्यवाद कैसा ,,?  दिलीप ने कहा कुछ तो लेना पड़ेगा ₹1000 देने की कोशिश की परंतु जगदीश ने कुछ भी नहीं लिया ।
       1 सप्ताह बाद वे लोग घर लौटने लगे..... बस में  खिड़की की तरफ अनीता बैठी हुई थी तभी ...अचानक जगदीश दिखाई पड़ा उसके हाथ में एक मिठाई का डिब्बा था अनीता को देते हुए उसने कहा लो दीदी ! रास्ते के लिए इसमें कुछ मीठा है..... वह बाल मिठाई का खूबसूरत डिब्बा था तत्काल ही बस चल दी दूर तक जगदीश हाथ हिलाते हुए दिखाई देता रहा.... अनीता को उसमें अपने भाई की छवि ही नजर ... आ रही थी ..
           अब जब भी कहीं बाल मिठाई दिखाई देती है अनीता को वही घटना याद आ जाती है.. सचमुच पूरी घटना काल्पनिक लगती है .... परंतु यह सत्य कथा है।

✍️ अशोक विद्रोही
 412 प्रकाश नगर
 मुरादाबाद
82 188 25 541

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघु कथा ----- तलाक


आज न्यायालय में उपस्थित जज़ साहब भी आश्चर्य थे जब उन्होंने सुना कि शादी के 28 साल बाद उर्मिला ने अपने पति से तलाक लेने हेतु मुकदमा डाला है।समाज के वे एक खशहाल परिवार के रुप में माने जाते थे।
       जज़ साहब बोले," एक बार सोच लीजिए "।उर्मिला बोली ,"सोच कर ही किया है श्रीमान।जब इनके विवाहेत्तर सम्बध को साक्षात अपनी आँखों से देखा था उसी दिन इन्हें छोडने का निश्चय कर लिया था ।मगर  परिवार की इज्ज़त का वास्ते कुछ न कर सकी।किन्तु मन से अपना न सकी।समाज के तलाक शुदा के बच्चों के प्रति व्यवहार जानते हुए,हम दोनों ने अलग अलग कक्षो मे रहने का फैसला लिया।और एक सहमति पत्र बना लिया था।आज मेरी बेटी की भी शादी हो चुकी है। बेटा भी अच्छे पद पर काम कर रहा है।आज वो मेरी स्थिति को समझ सकते है।उन्हें भी आपत्ति नहीं है। अपने समस्त उत्तरदायित्व मैने निबाहे है ।अब अपने सम्मान केसाथ जीना चाहती हूं।जज़ साहब पिछले 20वर्षों से केवल दिखावे के रिश्ते से आजादी चाहती हूँ।"

✍️ डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रागिनी गर्ग की कहानी -----भावनाओं की सूखी रेत



भूमि को अशोक अंकल  ने फोन करके अस्पताल आने को कहा।......
"भूमि!जल्दी, सिटी हास्पिटल पहुँचो ,दीपक को बहुत चोट आयी है।दीपक आइ सी यू में भर्ती है"
एक पल भी बिना गँवाए भूमि जिस हाल में  थी उसी हाल में अस्पताल पहुँची। उसे डा. अशोक बाहर ही खड़े मिले। वो भूमि के पापा के अच्छे दोस्त थे। सुबह अस्पताल आते समय,दीपक को सड़क से उठाकर वही अस्पताल लाये थे। दीपक का इलाज भी वही कर रहे थे।....
भूमि को देखते ही बोले, "बेटी! मैं तुमको किसी अँधेरे में नहीं रखना चाहता हूँ। दीपक की साँसें चन्द घड़ी की मेहमान हैं। मैंने बहुत कोशिश की,उसको बचाने की पर सिर में चोट काफी गहरी लगी है, और खून भी बहुत बह चुका है।अतःमैं उसको नहीं बचा पाऊँगा।जाओ!आखिरी बार उससे जाकर मिल लो।" .......
यह सुनकर, भूमि के कदम जड़वत हो गये, गला रुँध गया, आँखें पथरा गयीं और शरीर चेतना खोने लगा। वो गिर ही जाती अगर अंकल ने उसको सम्भाल न लिया होता।
वो उसको  साथ लेकर दीपक के पास गये। ......
भूमि दीपक से बस इतना ही बोल पायी, "दीपक! तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।"
तभी ,दीपक ने भूमि को देखकर आखिरी हिचकी ली,जैसे वो सिर्फ उसके आने का ही इन्तजार  कर रहा था और जिन्दगी शरीर रुपी मुठ्ठी से सरक गयी ।वैसे ही जैसे बन्द मुट्ठी से रेत सरक जाती है। ......
अशोक अंकल ने भूमि को सहारा दिया,और बोले,"बेटा!दीपक बच सकता था ,अगर लोगों में  थोडी़ सी भी संवेदनशीलता जिंदा होती।
भूमि बोली ,"मतलब अंकल?मैं कुछ समझी नहीं।"
"समझाता हूँ बेटा! मुझे दीपक सड़क पर बेहोश हालत में मिला तब तक उसका बहुत खून बह चुका था। आस-पास लोगों की भीड़ तो बहुत थी, लेकिन कोई मदद करने वाला नहीं था।सभी वीडियो बनाने में व्यस्त थे। अगर दीपक थोड़ी देर पहले हास्पिटल पहुँच जाता ,तो हम उसे बचा सकते थे।"
 "तुमको याद होगी भूमि! सूरत हादसे में घटी घटना,कितने बच्चे असमय काल का ग्रास बन गये थे। मेरे मानस पटल से तो वो हटती ही नहीं।बच्चे आग से बचने के लिए एक-एक कर ऊपर से नीचे कूदते रहे। किसी ने नहीं सोचा उनको बचाने के बारे में।और तो और यह संवेदनहीनता ही हर  रोज अनेकों दुर्घटनाग्रस्त लोगों की जान जाने का  कारण  है।
यह हमारा दुर्भाग्य है बेटी! हम अपनी भावनाओं को एकदम सूखी रेत बनाते जा रहे हैं।जबकि सूखी रेत रुक नहीं पाती, बन्द मुठ्ठी में भी नहीं।अगर वीडियो बनाने या फोटो खींचने की जगह उस चोटिल इन्सान को हस्पताल तक पहुँचा दें ,तो कई ज़िन्दगियाँ मुठ्ठी से नहीं फिसलेगी,यह मेरा दावा है।"
भूमि आँसू पौंछते हुये बोली, "अंकल!  आज मैं ये प्रण लेती हूँ ।कभी भी भावनाओं की रेत को नहीं सूखने दूँगी अपनी भावनाओं को गीली रेत बनाउँगी। जिससे लोगों की मदद करने का ज़ज्बा मुझमें बरकरार रहे।"
"बंद मुट्ठी रेत सूखी अब न फिसलेगी कहीं।"

✍️ रागिनी गर्ग
रामपुर (यूपी)

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मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार राम किशोर वर्मा की कहानी ------पटरी का सब्जीवाला


    "नौ बज गये। कब नहाओगे ?"    मनीषा ने पति से कहा - "छोड़ो इस अखबार को । और तुम्हें काम ही क्या है ? दिनभर पड़ा है पढ़ने को ।"
    "लो भई छोड़ दिया ।" कहते हुए मयंक पत्नी से बोला -"जिंदगी भर इतना काम किया है। रिटायरमेंट के बाद भी चैन से बैठा हुआ देखना नहीं चाहतीं।"
      "वो याद आया । टमाटर आने हैं ।" मनीषा ने पति से कहा - "नहाना बाद में । अनलॉक हो गया तो क्या हुआ ? बाजार से आकर नहाना पड़ेगा । इसलिए पहले टमाटर ले आओ। दो-एक सब्जी और ले आना । नहीं तो शाम को तुम्हें बाजार जाने का फिर बहाना मिल जायेगा।"
   मयंक ने थैला उठाया और पैदल ही बाजार की ओर चल दिया ।
    आज मयंक ने एक नये व्यक्ति को पटरी पर सब्जी बेचते देखा । वह रुक गया और पटरी पर रखी सब्जियों पर निगाह मार कर पूंँछा- "आलू नहीं है?"
      सब्जी वाले ने न में सिर हिला दिया ।
       सब्जी वाले जिस स्थायी दुकानदार से मयंक सब्जी लेता था उससे उसने दो किलो आलू लिये । थोड़ी मिर्च यों ही डाल दीं उसने और वह लेकर लौट पड़ा ।
       जब मयंक आलू ले रहा था तो उसने अन्य ग्राहकों से टमाटर, भिण्डी और लौकी के भाव सुन लिये थे ।
           लौटते समय मयंक सोच रहा था कि मैं पटरी के सब्जी वाले से शेष सब्जियांँ लूंँगा । लॉक डाउन के बाद आज यह यहां अकेला कुछ उम्मीद से सब्जी बेचने बैठा होगा । उसके भी बीबी-बच्चे होंगे । दो पैसे का फायदा उसे ही सही । स्थायी दुकानदार से तो खरीदने सभी चले जाते हैैं ।
         यह सब सोचता हुआ मयंक उस पटरी के सब्जीवाले के पास पहुंँच कर रुक गया ।
           पटरी के सब्जीवाले से मयंक ने पूंँछा - "टमाटर क्या भाव हैं?"
       उसने कहा - " 15₹ किलो ।"
       फिर मयंक ने पूंँछा -"यह भिण्डी और लौकी ?"
       उसने कहा - "भिण्डी आपको 25₹ लगा दूंँगा और लौकी 15₹ किलो है । आप ले लो ।"
        मयंक मन-ही-मन स्थायी दुकानदार के भावों की तुलना कर रहा था । कितना अंतर है उसके और इसके भावों में? मयंक ने एक-एक किलो सभी सब्जियांँ थैले में ले लीं । पर इसने हरी मिर्च यों ही नहीं डालीं । मयंक भी समझ गया कि वह अधिक भाव लगाकर थोड़ी हरी मिर्च डालकर बहला देता है । यह सही भाव लगा रहा है तो हरी मिर्च यों ही कैसे देगा ?
     मयंक ने पूंँछा - "कुल कितने ₹ हुए आपके ?"
       उसने हिसाब लगाया और बोला - " 55₹"
         मयंक ने ₹ दिये और घर की ओर चल दिया ।
          घर आकर मयंक ने रोज की तरह सब सब्जियांँ धोयीं और मनीषा को बताया कि मैं आज एक पटरी के नये सब्जीवाले से सब्जी लेकर आया हूं। बेचारा यह सोचकर यहां बैठ गया होगा कि यहांँ जल्दी बिक जायेंगी ।
      मनीषा मयंक का मुंँह ताकती बोली - "तुम नये सब्जीवाले से सब्जी ले आये ! जिसे तुम जानते नहीं । जिसकी स्थायी दुकान नहीं ! कोरोना खत्म नहीं हुआ है। केवल लॉक डाउन हटा है । सामान केवल परिचित दुकान से लाओ ।"
    मयंक सोच रहा था कि  कोरोना ने कहांँ-कहांँ दूरियाँ पैदा कर दी हैं । इसे खत्म करना ही पड़ेगा ।
     मयंक मनीषा से यह कहता हुआ :- "यह सब्जियांँ तुम मत खाना। मुझे खिलाना।"  नहाने के लिए बाथरूम में घुस गया ।
 
✍️ राम किशोर वर्मा
रामपुर
      

मुरादाबाद के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफ़ा की कहानी----- नहीं...नहीं....नहीं....


वह जब घर आती तो उसका चेहरा देखकर उसका भी दिल खिल उठता, जिस दिन वह नही आती उस दिन वह भी बुझा बुझा सा रहता ।वह आती तो उसकी ओर देखकर मुस्कराती उससे बातें करती उसे भी उससे बातें करना अच्छा लगता था। पिछले कई माह से यह सिलसिला चल रहा था ।दोनों में एक दूसरे के प्रति हमदर्दी थी । हर बात में दोनों एक दूसरे के समर्थक होते दोनों की पसंद न पसन्द भी मिलती जुलती थी । अरमान काफी दिन से अजीब कशमकश में था कि किस तरह शगुफ्ता से अपने प्यार का इज़हार करे और उसका जवाब ले । अरमान को उम्मीद थी कि शगुफ्ता की उसके प्रति जो हमदर्दी और लगाव है उसे देखते हुए वह अपने मकसद में कामयाब होगा ।
      बुधवार को  घर के सब लोग  अदनान चाचा के बेटे की सालगिरह में गये हुए थे । वो तबियत ठीक न होने का बहाना करके घर मे रुक गया था । शाम के पांच बजे वह घर मे बैचेनी से टहल रहा था । बार बार उसकी निगाह दरवाजे की ओर जाती और मायूस होकर लौट आती । उसके  दिल दिमाग  में विचारों की उथल पुथल चल रही थी लेकिन आज उसने पक्का इरादा कर लिया था कि शगुफ्ता से अपने सवाल का जवाब लेकर ही रहेगा कुछ ही देर बाद घर की बैल बजी उसने दौड़कर दरवाजा खोला । दरवाजे से हसती खिलखिलाती शगुफ्ता अंदर आई लेकिन घर मे सन्नाटा देखकर उसने अरमान पर सवालों की झड़ी लगा दी । रुखसाना कहाँ है, अंकल आंटी कहाँ है, अरमान ने हँसते हुए उसे बताया कि सब लोग अदनान चाचा के यहाँ सालगिरह में गये हुए है । सुनकर शगुफ्ता जाने लगी तो अरमान ने हाथ पकड़कर उसे रोक लिया बोला तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है । जरा बैठो, शगुफ्ता रुक गई सोफे पर बैठते हुए बोली कहिये क्या बात है ।अरमान ने हिम्मत करके बोलना शुरू किया शगुफ्ता मै तुमसे बहुत प्यार करता हूं तुमसे शादी करना चाहता हूं क्या तुम मुझसे शादी करोगी । सुनते ही शगुफ्ता का चेहरा जर्द पड़ गया अगले ही पल वह दोनों कानो पर हाथ रखकर जोर से चिल्लाई  'नहीं' 'नहीं' 'नहीं' । शगुफ्ता का जवाब सुनकर अरमान पर जैसे बिजली सी गिर गई हो लेकिन उसने अपने को संभालते हुए याचना के अंदाज़ में कहा -- शगुफ्ता मै तुम्हे बहुत चाहता हूं । तुम्हारे बिना जी नही सकूंगा प्लीज़ मान जाओ ।आखिर मुझमे क्या कमी है। अब शगुफ्ता के बोलने की बारी थी उसका जवाब सुनकर अरमान के पास कोई और सवाल करने  की हिम्मत नही थी शगुफ्ता रोते हुए कह रही थी मै भी आपसे बहुत प्यार करती हूं भाईजान आप मेरी सहेली रुखसाना के सगे भाई है लेकिन मै भी आपको सगे भाई से बढ़कर मानती हूं  इसीलिये आपसे हस बोल लेती हूं लेकिन मुझे क्या पता था कि ज्यादातर मर्द एक जैसे होते है किसी से हसने बोलने का मतलब वह कुछ और लगा लेते है क्या प्यार भाई या दोस्त से नही किया जाता एक एक्सीडेंट में मेरे एकलौते भाई नुरुल की मौत हो गई थी लेकिन रुखसाना से मुलाकात के बात जब आप मिले तो मुझे  लगा कि भाई के रूप में मुझे नुरुल मिल गया मुझे क्या पता था कि मेरे हसने बोलने से आपके दिमाग मे कुछ और चल रहा है शगुफ्ता की बात सुनकर निदामत से अरमान की आंखों से आंसू बह निकले दोनों हाथों से मुंह छिपाकर अरमान शगुफ्ता से कह रहा था शगुफ्ता बहन मुझे माफ़ करदो वाकई मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई है मैने तुम्हे गलत समझा प्यारी बहन आज से मेरे लिये तुम वैसी ही हो जैसी मेरी बहन रुखसाना ।

✍️  कमाल ज़ैदी ' वफ़ा'
 सिरसी (सम्भल)
9456031926

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की कहानी -----जिसकी लाठी उसकी भैंस


"मैंने कहा था न कि अभी मेरे साथ शहर मत चलो, जब घर का बंदोबस्त हो जाए तभी चलना मगर तुमको तो बस मेरे साथ यहां आने की जिद सी थी... अब रहो इस घौंसले में और...... l"
​"अजी आप तो ऐसे गुस्सा हो रहे हैं जैसे दुनियाँ की हम पहली महिला हों जिसने अपने पति के साथ नौकरी पर संग जाने की जिद की हो l"स्वर्णा को भी गुस्सा आ गया और वह अपने पति सुकुमार पर विफर पडी l
​"अब तुम फिर गुस्सा हो गईं भाग्यवान.... अब देखो न चार दिन हुए हैं हमें इस घर में आये हुए, मकान मालिक ने टोका टाकी शुरू कर दी... यह मत करो... वहाँ वो मत रखो.... l"सुकुमार पत्नी को समझाते हुए बोले l
​"अरे तभी तो कह रहे हैं कि आप इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, फिर आप वहां पर कोई क्वार्टर क्यों नहीं ले लेते? "स्वर्णा ने दोनों हाथ चलाते हुए कपडे बाहर छोटी सी बालकॉनी में सुखाते हुए कहा l
​"क्वार्टर क्या गाँव के घर जैसे हैं? "वह तिलमिला कर बोला.
​"महल जैसे नहीं मगर मकान मालिक की दुत्कार से तो बचा ही जा सकता है l"वह फिर गुस्से से बोली l
​"पांच साल हो गए शादी को.... अभी तक गोद सूनी है हमारी.... उधर सासु माँ को पोती पोता चाहिए... और उनका लड़का साथ रखना नहीं चाहता.... काहे विवाह किया तुमने हमसे? "वह गुस्से से साग को घोटते हुए बोली l
​"स्वर्णा... ऐसी बात नहीं है..... यूनिवर्सिटी में कोई क्वार्टर खाली है ही नहीं... l"
​"कभी होंगे भी नहीं l"वह गुस्से से आटे को गूंधते हुए बुदबुदाई l
​"आज का पेपर पड़ा? कैसे विद्यार्थी धरना प्रदर्शन कर रहे हैं... देखो न कुछ तो कई कई सालों से रह रहे हैं... पढ़ाई पूरी हो गई फिर भी..... और और कइयों ने तो अपने रिश्तेदारों को भी रख लिया है... जिनके अच्छे सोर्स हैं l"
​"अच्छा..... वहाँ घर मिलने के लिए सोर्स का होना भी जरूरी है का?
​? और नहीं तो क्या......'जिसकी लाठी उसकी भैंस' l"वह बुदबुदाया l
​"नंबर लगा दो.... मिल ही जाएगा l"उसने खाना परोसते हुए लापरवाही से कहा l
​"कबसे नंबर लगा पड़ा है मगर अभी तक आया ही नहीं l"सुकुमार ने बुझी आवाज में कहा l
​"कोई भी प्रोफेसर नहीं रहता क्या वहाँ? "
​"रहते हैं न l"
​"तो शायद आपसे ही कोई जाति दुश्मनी है उन लोगों की? "स्वर्णा ने व्यंगात्मक लहजे मे कहा और पट पट पट करके हथेलियों से रोटी पीटने लगी l इधर सुकुमार परेशान था, कैसे समझाए वीवी को कि सरकारी क्वाटर्स का कितना बुरा दुरूपयोग हो रहा है और उनको पाना सज्जन व्यक्ति के लिए कितने मुश्किल है?

​✍️राशि सिंंह
​मुरादाबाद उत्तर प्रदेश


मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी -----"सीख लॉकडाउन की"


        सुबह से किचन के काम निपटाते निपटाते सरला थक चुकी थी।क्या बच्चे,क्या बुजुर्ग और क्या मियाँ जी सबकी अलग-अलग फरमाइशें। लॉक डाउन सबके लिए फुर्सत के पल लेकर आया था लेकिन एक हाउसवाइफ के लिए शायद सबसे व्यस्ततम दिन।अभी बाथरूम में धोने के लिए कपड़ों का ढेर लगा था और एहतियातन मेहरी की छुट्टी कर दिये जाने से झाड़ू और पोछा भी सरला की राह तक रहे थे।आज क्लब की सखियों ने ऑनलाइन सिंगिंग मीट रखी थी,वह भी सज सँवरकर उसमें प्रतिभाग करना चाहती थी।पर कैसे....
    पतिदेव ब्रेकफास्ट डटकर ऊपरी मंजिल में वर्क फ्राम होम की कम्प्यूटर टेबल पर बैठ चुके थे।बच्चे ग्राउंड फ्लोर में ड्राइंग रूम में दादा दादी के साथ बैठकर टीवी देख रहे थे।दादा दादी के लाड़ले रोहित और रोनित दोनों जुड़वां भाई इन्टर फर्स्ट इयर में थे और लैपटॉप पर एक दो घण्टे की ऑनलाइन क्लास के अतिरिक्त पूरा दिन टी.वी और मोबाइल पर ही दोनों अपना टाइम पास कर रहे थे।सरला मोबाइल के लिए टोकती तो वे दोनों स्कूल एसाइनमेंट की जरूरत बताने लगते।ज्यादा टी वी देखने के लिए टोकने पर दोनों चीखते,"मॉम बाहर निकलना नहीं है,अब इंटरटेनमेंट के लिए टीवी तो देखने दो।आप का बस चले तो लेक्चर दे दे कर हमें हिमालय की गुफाओं में तपस्या करने के लिए भेज दो।"
    दादी सपोर्ट करती,"अरे बच्चे हैं।ये ही तो मौज मस्ती के दिन हैं इनके।पर इस पत्थरदिल को भी बच्चों को डाँटे बगैर चैन नहीं मिलता।"और बच्चे माँ को चिढ़ाते हुए दादी के गले लग जाते,"वी लव यू दादी माँ।एक आप ही हमारा ख्याल रखती हो।वरना माँ तो हम पर अत्याचार के सारे रिकॉर्ड तोड़ दे।"
    डाइनिंग टेबल पर नाश्ता कर रही सरला ने कुछ सोचकर दोनों बेटों को आवाज दी,"रोनित,रोहित दोनों यहांँ आना बेटा।"उसका नाश्ता खत्म होने वाला था,पर बच्चों ने न तो कोई उत्तर दिया न ही खुद आये।सरला को इसकी आदत थी।एक बार में तो उसके बेटे कभी सुनते ही नहीं थे।उसने फिर से पुकारा,"पापा को बताऊंँ क्या कि तुम मेरी बात नहीं सुन रहे हो।"अक्सर अजमायी जाने वाली यह तरकीब काम कर गयी।बस एक पापा के नाम से ही दोनों डरते थे।
    दोनों ने एहसान सा किया डाइनिंग हॉल में आकर,"हाँ,बताओ।क्या कह रही हो आप?" "कितनी अच्छी मूवी आ रही है।पर आप देखने नहीं दोगे।"
      सरला ने चाय का कप प्लेट पर रखते हुए दोनों से लगभग निवेदन सा किया," मम्मी के प्यारे बेटे।प्लीज अपने अपने कमरों की डस्टिंग ही कर दो,बच्चों।मम्मी की थोड़ी मदद हो जायेगी।आज मम्मी को बहुत काम है।"
      दोनों ने बड़े ही अजीब से फेस बना कर रिएक्ट किया।रोनित बोला,"ओ नो मम्मी!क्या कह रही हो आप।हम ये मेड वाले काम करेंगे।" रोहित का स्वर थोड़ा तेज था,"क्या मम्मी! कितने क्रूअल हो आप।अपने छोटे छोटे बच्चों से घर के काम कौन मम्मी कराती है।हम नहीं कर रहे कोई डस्टिंग वस्टिंग।अपना काम खुद करो।जैसे आप हमको कहते हो पढ़ाई के टाइम।आपको करना ही क्या है पूरा दिन।हमें तो अभी ऑनलाइन क्लास भी अटैण्ड करनी है।"
      तभी ठीक रोहित के पीछे से प्रकट होती दादी बोली,"भइया ऐसी माँ भी नहीं देखी मैं ने।अपने आराम के चक्कर में बच्चों से काम कराएगी।(बच्चों की तरफ देख कर...)तुम कुछ नहीं करोगे,बच्चों।मुझे बता क्या काम करना है?हम पर करले जितने जुलम करने हैं।इन बच्चों पर न कर।यही चिढ़ है न कि बच्चे मुझसे प्यार करते हैं।हे भगवान तू ही देख ले कैसे कैसे सताती है ये महारानी मुझे।"
      दादी ने घड़ियाली आँसू बहाते हुए आँचल से मुँह पोछा।सरला अवाक थी।एक आसान उपाय का इतना भयानक हश्र सोचकर उसकी आँखे भर आयी थी।बच्चे भी अब असहज महसूस कर रहे थे।दादी की ओवर एक्टिंग ने माँ की प्रार्थना की ओर उनका हृदय झुका दिया था।पर अब माँ की तरफदारी करने का मतलब था,दादी की एक हफ्ते की नाराज़गी मोल लेना।आँखों में आँसू लिए सरला अपनी प्लेट उठाकर रसोई की ओर चल दी। रोहित ने बात बदलते हुए कहा,"चलो दादी आप टी वी देखो।मम्मी अपने आप करेगी काम।मेरी दादी क्यों करेगी काम।"
      सरला सिंक में रखे बर्तन धोने लगी।कई विचार उसके ख्याल में आते और जाते थे।
"एक औरत की दुश्मन एक औरत ही होती है, बिल्कुल सच बात है।"
 "संयुक्त परिवार के  बड़े फायदे हैं,मैं भी मानती हूँ पर ऐसी जली कटी बातों का क्या।"
  "क्या एक हाउसवाइफ की कोई खुशी नहीं होती।"
   "क्या एक औरत कभी कुछ पल अपने लिए अपने तरीके से नहीं जी सकती?हर वक्त काम काम काम"
   "एक घर के सभी सदस्य मिल बांटकर घर के काम क्यों नहीं कर सकते?"
   "मम्मी जी की खुश बनाये रखने के चक्कर में मेरी औलाद मेरे हाथों से निकलती जा रही है।पर मैं क्या करूँ?"
       ये विचारों की लड़ी कुछ और लम्बी होती कि तभी बाहर "आलू लो,प्याज लोओअअ...,टमाटर लो,लौकी लोओअअ..." की आवाज ने उसका ध्यान खींचा।उसे याद आया,शाम के लिए सब्जी नहीं है।वह हाथ धोकर फटाफट मुंँह पर मास्क लगाकर और आंगन में रखी बाल्टी लेकर गेट की ओर लपकी।एक 10-11साल का लड़का सब्जी की रेहड़ी धकेलता एक अधेड़ औरत के साथ कॉलोनी में सब्जी बेचने के लिए आया था। सरला सावधानी के तहत बाल्टी लेकर गयी थी और सब्जियांँ तुलवाकर बाल्टी में रखवा रही थी।सब्जियाँ तुलवाते हुए उसने उस औरत से कहा,"कैसी माँ हो?इतनी ख़तरनाक बीमारी फैली हुई है और तुम इतने छोटे बच्चे को गली गली घुमा रही हो।"
      वह बोली,"तुम ठीक कै री हो,भैनजी।पर गरीब आदमी क्या करे। बीमारी से तो बाद में मरेगा,पर भूख से पैले मर जागा।भीख मांगना सीका नहीं हमने। बदकिस्मती से मेरा आदमी लाकडोन के चलते शहर में फंसा हुआ है।पाँच बच्चे हैं मेरे।येई सबसे बड़ा है।ये अकेले ना आने देता।कैता है मम्मी दोनों मिलके काम करेंगे तो हिम्मत रएगी।ये छटे में पड़ता है,सब बात जानता है।कपड़े का माक्स बनाया है।अपने लिए भी,मेरे लिए भी।साबुन और पानी का डब्बा रेहड़ी पे रख के चलता है।ऊपरवाले की दया है।कोई गलती करूँ तो बाप बन के डाँटता है,पर कहीं थक न जाऊँ इसलिए रेहड़ी नहीं खींचने देता।"
      सरला उस बेटे के प्रति अपार श्रद्धा और स्नेह से भर गयी थी। सब्जियाँ तुल चुकी थी।उसने हिसाब पूछा।बेटा वाकई समझदार था।तुरन्त बोला,"एक सौ पैंतालिस रूपये हुए आन्टी जी।हो सके तो खुले पैसे देना।पैसों की लौट फेर में बीमारी न लौट फेर हो जाय।"सरला उसकी ओर देखकर सहज ही मुस्कुरा दी थी।सब्जी की बाल्टी बाहर के बाथरूम में धोने के लिए रखकर वह जैसे ही खुले पैसों के लिए अपने बेटों को आवाज देती,उसने देखा रोहित खुले पैसे लिये सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था।रोनित छज्जे में खड़ा नीचे सड़क पर खड़ी उस रेहड़ी और उसके मालिक को देख रहा था।सरला ने रोहित से पैसे लेकर सब्जी वाली को दे दिये।
      "आलू लोअअअ..प्याज लोअअअ.."की कड़क आवाज पूरे आत्मविश्वास के साथ गली में आगे बढ़ चुकी थी।सरला बाहर बाथरूम में सब्जियों और खुद को सैनिटाइज करने की प्रक्रिया में लग गयी।
       करीब आधे घण्टे बाद जब वह घर के अन्दर पहुँची तो ड्राइंग रूम,जहांँ दादा दादी बैठे थे,को छोड़कर सभी कमरे दोनों भाइयों ने मिलकर बिल्कुल नीट एण्ड क्लीन कर दिये थे।सरला भावुक होकर कुछ कहती इससे पहले ही दोनों भाइयों ने इशारों में उसे ड्राइंग रूम की सफाई और दादी की उपस्थिति याद दिलायी।सरला की आँखों में वही श्रद्धा और दुलार तैरने लगा जो अभी कुछ देर पहले सब्जी वाली के बेटे के लिए उमड़ रहा था।उसके बेटे अनजान होने का मुखौटा लगाकर पढ़ने के लिए अपने अपने कमरों में जा चुके थे।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ---- आस्था


‌पूजा अर्चना करके,अनिल जी और मैं,जब मंदिर से बाहर आए,तो देखा --- अनिल जी की चप्पल गायब थी।अपराध बोध की भावना से मन भारी होने लगा।अनिल जी हमारे बचपन के सहपाठी थे और कई साल बाद हमारे घर आए थे। मैं ही उनको अपनी जिद से मंदिर ले कर आया था। मैंने आस पास निगाह दौड़ाई,लेकिन चप्पल कहीं नहीं थी।अनिल जी ,जो अभी तक शांति से खड़े थे, मुस्कराते हुए बोले -- ये तो अच्छा हुआ,चप्पल बिल्कुल नई थी,जिस जरूरत मंद को मिली होगी, खुश हो गया होगा।
‌मैंने अनिल जी से कहा -- आप यहीं रुकिए, मैं बाहर से एक नई चप्पल खरीद कर लाता हूं।
‌ ----- नहीं ...नहीं,उसकी कोई जरूरत नहीं है ।
 हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं, ईश्वर ने मुझे एक अवसर दिया है - धरती पर नंगे पैर चलने का। लगता है,उसने हमारी प्रार्थना सुन ली ।पहले मेरे माध्यम से किसी गरीब का भला करवाया और फिर प्रकृति से मुझे मिलवाया।
  अनिल जी की बातों ने मुझे नि:शब्द कर दिया। मैंने उनकी आस्था को मन ही मन ही नमन किया और उनके साथ घर वापस आ गया।

 ✍️ डॉ पुनीत कुमार
T - 2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद 244001
M- 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा---- काश


      ''अबे ! चल आगे बढ़------न जाने  कहाँ से चले आते हैं साले ।सुबह-सुबह, काम भी तो नहीं करने देते।''सेठ जी ने भिखारी को फटकारते हुए कहा।
       भिखारी जो निरन्तर दस मिनट से खड़ा अपनी भूख मिटाने के लिए पांच रुपये का सवाल कर रहा था, फटकारने पर आँखों में आँसू भरे अगले द्वार की ओर बढ़ गया।
       सेठ जी अपने दैनिक कार्य में व्यस्त हो गये ।एक घण्टे बाद फर्म के जनरल मैनेजर ने आकर बताया सर आज तो भाग्य धोखा दे गया। टेंडर हमारे हाथ से निकल गया।हमारा टेंडर पांच रुपये के अंतर से पिट गया । सेठ को जैसे झटका सा लगा ।पांच रुपये के लिए उस भिखारी का गिड़गिड़ाना उसके मानस पटल पर अंकित हो गया।काश---------?


✍️ अशोक विश्नोई
 मुरादाबाद
 मोबाइल--9411809222

मुरादाबाद की साहित्यकार स्वदेश सिंह की लघुकथा --- माहौल


             बड़ी धूमधाम से शादी के बाद मोहिनी ने अपनी ससुराल में आयी... आशा के विपरीत सुसराल का माहौल देखकर उसका माथा चकरा गया।.... उसके जेठ जो कि रेलवे में टेक्नीशियन के पद पर कार्यरत हैं.. पैर की हड्डी टूटने व अत्यधिक शराब पीने के कारण  कई महीनों से बिस्तर पर पड़े हैं।.... और परिवार का प्रत्येक सदस्य  उन्हें बहुत खरी -खोटी सुनाता रहता है ।यहाँ तक कि उसकी जेठानी भी अपने पति से दिन-रात लड़ती रहती है ।यह देखकर मोहिनी  को बहुत दुख हुआ। उसने मन ही मन घर के माहौल को बदलने का प्रण लिया..... उसने घर के सभी सदस्यों के साथ- साथ जेठ सुरेश को भी मान सम्मान देना शुरू कर दिया। यह देखकर सभी लोग अचंभित हो गए  ।...सभी का व्यवहार सुरेश के प्रति  बदलने लगा... उसकी सेवा से सुरेश धीरे-धीरे ठीक   होने  लगा।  और आज नौकरी पर जाते समय  को मोहिनी  को धन्यवाद देने उसके कमरे में गया और बोला..... मोहिनी.. यदि तुम इस घर में ना आती ....तो मैं कब का खत्म हो चुका होता.... तुम्हारी वजह से ही मुझे नया जीवन मिला है। जन्म देने वाली ही माँ नहीं होती ...बल्कि  जीवन को संवारने  वाली भी माँ के समान ही होती है..... मैं.. तुम्हें शत-शत प्रणाम करता हूँ.... यह सुनकर मोहिनी अपने आँसुओं को रोक नहीं पायी। और जेठ के पैर छूने के लिए नीचे झुक गयी।

 ✍️  स्वदेश सिंह
सिविल लाइन्स
 मुरादाबाद
9456222230

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की लघुकथा----छुट्टी


        दो बार चक्कर काट चुका था वो पर दोनों बार ही बाॅस उसे नहीं मिले । बार - बार काम बीच में छोड़ बाॅस के कमरे के चक्कर लगाना उसे पसंद नहीं है पर आज कुछ मजबूरी ही ऐसी थी कि उसे ऐसा करना पड़ रहा था । परसों उसके इकलौते साले साहब के इकलौते पुत्र की वर्षगाँठ है और श्रीमतीजी ने पिछले सप्ताह ही वारंट निकाल दिया था कि सपरिवार सुबह - सुबह पहुँचने का आग्रह क्रमशः उनके मायके का प्रत्येक प्राणी कर चुका है ।
 मार्च का महीना , आॅफिस में आॅडिट चल रहा था ।कई महत्वपूर्ण डाॅक्यूमैंट्स ( काग़ज़ पत्र ) उसकी निगरानी में थे । बाॅस ने इशारों - इशारों में उसे समझा दिया था कि उसकी उपस्थित आॅफिस में अनिवार्य है ।वैसे वो स्वयं भी अनावश्यक छुट्टियों के पक्ष में नहीं रहता  था । आॅफिस में उसका ओहदा बहुत सम्माननीय था । हर कोई उसकी कार्य कुशलता की प्रशंसा करता । ऐसे में बाॅस के पास छुट्टी माँगने जाने का मतलब था बिना बात के पंगा लेना पर इधर कुआँ उधर खाई जैसी परिस्थिति में मरता क्या ना करता ।
            चपरासी ने आकर बाॅस की उपस्थिति की सूचना दी तो हिम्मत जुटा उसने कदम आॅफिस की तरफ बढ़ाए , लाॅबी में  लगे टी वी पर समाचार प्रसारित हो रहे थे । देश की सबसे  ऊँची चोटी सियाचिन ग्लैशियर और  तिब्बती सीमा पर रहने वाले सैनिकों पर कोई विशेष प्रसारण आ रहा था । किसी अनिश्चित खतरे की बात जानकर सुरक्षा एजेंसियों और सेना ने जवानों की छुट्टियां कैंसिल कर दीं थीं । इनमें से कई जवान ऐसे भी थे जो लंबे समय से घर नहीं गए थे ।संवाददाता बता रहा था कि कैसे एक जवान के बीमार पिता ने आई सी यू से वीडियो बना कर अपने बेटे से हिम्मत बनाए रखने और देश सेवा में डटे रहने की अपील की थी । कुछ जवानों के इंटरव्यू भी आ रहे थे जो बता रहे थे कि छुट्टी से ज्यादा उन्हें देशसेवा आनंद देती है ।
        वो बाॅस के आॅफिस के दरवाजे पर खड़ा था , समाचार अब भी चल रहे थे । असमंजस में पड़ा हुआ था कि अंदर जाए या नहीं । उसके दिल और दिमाग में जंग चल रही थी । कुछ मन में ठान उसने कदम वापस लौटा लिए ।

 ✍️   सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की कहानी ---- नाम

   

        कमल ने अपनी पत्नी जया, दो बच्चों और माँ-पापा के साथ नया मकान किराए पर लिया। पापा-मम्मी दोनों ही की तबीयत ठीक ना होने की वजह से, कमल ने अपना काम घर से ही करना शुरू कर दिया था।
कमल अपनी व्यस्तता की वजह से बाजार  से सब्जी नहीं ला पाता था।
जया भी अपने ऑफिस से  काफी लेट आती। जया ने घर आते ही कमल से कहा,  "आप ज्यादातर घर पर ही रहते हो, सब्जी लेकर आ सकते हैं।"
कमल ने सवाल किया, "तुम क्यों नहीं लेकर आती?"
"क्या कह रहे हो आप ? सब्जी का थैला इतना ज्यादा भारी हो जाएगा, मैं कैसे बाजार से यहां तक लेकर आऊंगी।" जया ने जवाब दिया।
दोनों के बीच की बहस को देख-सुनकर बीमार पापा ने कहा, "तुम दोनों मत जाओ, मैं खुद ही जाकर सब्जी लेकर आजाऊँगा।"
"नहीं पापा मैं कुछ रास्ता निकलता हूं। आप इतना भारी थैला कैसे लेकर आ सकते हैं?" ऐसा कह कर जया कि तरफ कमल ने तिरछी निगाहों से देखा....।
काम की व्यस्तता, घर के सारे सदस्यों की अपेक्षाओं के बीच समझदारी और तालमेल नहीं बना पाने की वजह से कमल बहुत ज्यादा चिड़चिड़ा हो गया था।
अगले दिन जया के ऑफिस जाने के बाद , लगभग 12:00 बजे कमल को सब्जी वाले की आवाज सुनाई दी। कमल बालकोनी में आया.., "भैया!!, सब्जी वाले भाई, रुक जाना सब्जी लेनी है..।"
"जी साहब आ रहा हूं मैं, आपके मकान के नीचे..।" सब्जी वाला मुस्कुराकर बोला।
"आलू ,प्याज ,टमाटर ...इन सब का भाव बताओ", कमल ने पूछा।
सब्जी वाले के कहे भाव को सुनकर कमल ने कहा,  "अरे तू तो बहुत ज्यादा भाव बता रहा है। लूट मचा रखी है तुम जैसो ने, देना है तो सही भाव में दे वरना खिसक ले।"
"नहीं साहब मंडी से बस हर किलो पर तीन रुपए ज्यादा ले रहा हूँ। आप चाहो तो मालूम कर लो..., साहब यह भी तो देखो धूप में घूम रहा हूं।", सब्जी वाला सफाई देता हुआ बोला।
 "मै तुम जैसों के मुंह नहीं लगता। सब्जी दे और पैसे लेकर खिसक ले । और सुन,हर रोज इसी समय पर आ जाया कर", कमल ने बहुत रुखेपन से कहा।
"जी ...जी साहब!!
साहब आपको जो सही लगे पैसे दे देना", सब्जी वाले ने प्यार से कमल को कहा। पर कमल का रुखा व्यवहार हर रोज बढ़ता ही जा रहा था।
रविवार का दिन था ,जया घर पर ही थी सब्जी वाले ने घंटी बजाई। कमल- जरूर सब्जीवाला होगा। कमल जया दोनों बालकनी में गए।
आ गया तू ,वहीं रुक और सुन घंटी एक ही बार बजाया कर। हमें तेरा समय पता है", कमल ने चिढ़कर कहा।
"कमल रहने भी दो", जया ने टोका।
दोनों साथ नीचे गए।
"भैया क्या नाम है आपका?" जया  ने मुस्कुराकर पूछा। 
"दीदी, मेरा नाम गणेश है", सब्जी वाले ने धीरे से कहा।
"भैया आप अपना मोबाइल नंबर दे दो, हम सब कल बाहर जा रहे हैं... वापिस आते ही कमल आपको फोन कर देंगे। फिर आप सब्जी देने आ जाना", जया ने कहा।
सब्जी वाले ने जया को कहा - "जी दीदी।" गणेश नाम सुनकर राहुल का व्यवहार उस दिन सब्जी वाले के साथ थोड़ा मधुर था, और उस दिन उसने सब्जी वाले को आप कह  कर बोला।
कुछ दिनों बाद जब जया ,कमल सहित पूरा परिवार शहर वापस आए तो कमल ने सब्जी वाले को फोन किया,  "भैया गणेश जी आप सब्जी देना आ जाओ।"
"साहब मैंने आप सबके आशीर्वाद से  छोटी सी सब्जी दुकान खोल ली है ।आपके घर के पीछे वाली गली में  ही है। गेट से शायद पचास कदम दूर ही होगा...., साहब आप मेहरबानी कर यहीं आ जाइए", उधर से सब्जी वाले कि आवाज आई।
शाम होते ही कमल उस दुकान पर गया। कमल सब्जी वाले से -  "कैसे हो गणेश भैया?"
सब्जी वाला -  "ठीक हूं साहब ,और आप और दीदी..?"
कमल - "हम भी बढ़िया। बधाई हो गणेश भैया, अब धूप से बचोगे। एक जगह बैठकर बेचना है सब्जी।अच्छी है तरक्की...."
तभी बगल में एक साहब आए,बोले - "वालेकुम सलाम मियांं,अब्दुल।"
सब्जी वाला - अस्ससलाम वालेकुम आरिफ़ भाईजान सब खैरियत।"
"साहब इनका नाम गणेश है।"कमल ने  बीच में कहा उसे समझ नहीं आ रहा था। 
वे दोनों एक दूसरे को हतप्रभ होकर देखने लगे।
"भैया क्या नाम है आपका?", आरिफ ने भी चौंक कर पूछा।
"साहब आप दोनों माफ करे, मेरा नाम जॉन है। पर साहब मेरा नाम आप सब ने जब अपने भगवान, खुदा के नाम पर सुना तो फिर मै आपके रूखे व्यवहार से, गाली-गलौज से बच गया। अब आप सब मुझसे प्यार और आदर से पेश आते हैं।" सब्जी वाले ने धीरे से कहा।
ऐसा सुनकर कमल और आरिफ़ दोनों ने अपनी नजर शरम से झुका लीं।
"भैया जॉन माफ करना हमें" दोनों के मुँह से एक साथ निकला।


✍️  प्रवीण "राही"
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार मनोरमा शर्मा की कहानी ----- परवशता


बीमार जीवन की कहानी तन्हाइयों का शिखर होती है । दूसरों के आधीन जीवन बड़ा बेबस होता है ।जब आप जिम्मेदारियों से निवृत हो जायें तो कल्पना ऐसी होती है कि मानो सारे जहाँ का सुख आपकी झोली में आ गिरेगा पर नियति कुछ और ही सोचती है । जग से वितृष्णा कराके ही छोड़ती है ।बाबू जी अध्यापक थे ।पूरी जिन्दगी बच्चों को पढ़ा कर अपने बच्चों के लालन पालन में लगा दी और साथ-साथ खेती बाड़ी भी चलती रही ,दो पुत्र और एक बड़ी लाड़ों की बेटी थी ।तीनों बच्चों के विवाह आदि से निवॄत हो चुकें हैं सब अपने -अपने परिवार में भली भाँति खुश हैं ।नाती -नातिन ,पोती -पोते आदि से भरापूरा परिवार अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त है सब मग्न हैं अपनी गृहस्थियों में । इतने भरे पूरे परिवार में मैं क्यों अकेला हूँ ?पत्नी बहुओं के साथ काम में हाथ बटा रही है ।विमला मेरी दवाई का वक्त हो गया है जरा पानी तो देना ।अच्छा ला रही हूँ जरा रुक जाइए ।सोनल बेटे अपने बाबा की दवाई तो उठा के ला ,मैं पानी लाती हूँ ।विमला के घुटनों में आजकल दर्द रहने लगा है इसलिए चलने फिरने में भी दिक्कत होती है लेकिन किसी से कहती नही है ,सोचती हैं जब तक हो सके चलते फिरते रहो ।लो पानी से दवाई खा लो जी ।दवाई कहाँ है? सोनू दवाई नही लाया बेटा ,विमला ने पोते को पुकारा ..लेकिन वह तो अनसुना करके खेलने निकल गया । तुम भी अपनी दवाई अपने पास ही रखा करो ,सबको पुकारते रहो कि तू ला और तू ला ।विमला ने अपनी बहुओं से कहने बजाय खुद ही लाना उचित समझा और दवाई अलमारी में से निकाल कर ,दीन दयाल जी को सहारा देकर उठाया और दवाई खिला कर रसोई में आ गईं और बर्तनों को मांजने लगीं । रहने दीजिए मांजी ,मैं कर लूंगी आप बाबू जी को देख लीजिए वो फिर आपको आवाज लगायेंगें, छोटी बहू निर्मला ने थोड़ा मुस्करा कर कहा ।नही बहू कोई बात नही जब तक हाथ-पैर चलते रहें तब तक सही है नही तो परवशता अपने आप में ......और उनकी आवाज में लाचारी लरजने लगी ।
बाबू दीनदयाल फिर आवाजें देने लगे ।

 ✍️  मनोरमा शर्मा
अमरोहा
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मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा --------अहसान


        कभी मारना, कभी गालियां देना ,कभी बिना किसी बात उसके चरित्र को दाग लगाना ,यही सब सहते अवनि को 10 वर्ष बीत गए ।दो बच्चों की परवरिश पूरी तरह अवनि ने सम्हाली ।उसकी मेहनत की कमाई पर पति का हक था ,पर पति अपनी कमाई कहाँ डालता है,यह पूछने की हिम्मत न जाने किस डर से वह कभी न कर सकी ।
अति रूपमती ,धनलक्ष्मी पत्नी और मां  सब होने पर भी वह किसी भी पद का सम्मान अर्जित न कर सकी । एक अहसान किया उसने अवनि के नाम के साथ अपना नाम जोड़कर ,जिसका उसको जीवन भर लाभ मिलता रहा । साथ रहकर भी साथ न रहने का एहसान अवनि के अस्तित्व को मिटा ही गया था।

  ✍️ डॉ प्रीति हुँकार
 मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर जी लघु कथा ----- स्वतंत्रता दिवस


"अरे तारा बाबू, आज पड़ोस के पार्क में स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाया जा रहा है। देखने चलोगे ना ?" अपने परिवार में अकेले बचे वृद्ध तारा बाबू से उनके दोस्त महेन्द्र ने पूछा।
"नहीं भाई, वहाँ भीड़ बहुत है,  अब इस उम्र में क्या धक्के खाऊँ। मैं तो आज घर पर ही रह कर स्वतंत्रता दिवस मनाऊँगा"... कहते-कहते तारा बाबू की आँखों में चमक आने लगी थी।
"घर पर रहकर मनाओगे, मगर कैसे ?" पूछते हुए महेन्द्र के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये थे।
"अभी लो", कहते-कहते तारा बाबू ने अपने घर के एक कोने में रखा पिंजरा खोला और उसमें कैद तोते को उड़ा दिया।
"जय हिन्द"....जय हिन्द.....जय हिन्द"....... वृद्ध तारा बाबू के मुख से निकल रहे जोशीले नारे सुनसान पड़े घर में गूंज उठे थे।

✍️राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार का गीत ----- स्वदेशी अपनाओ रे


चीज विदेशी छोड़ के भाई ,
देशी घर में लाओ रे ।
धोखेबाज पड़ोसी को अब,
मिलके मजा चखाओ रे ।
स्वदेशी अपनाओ रे ,स्वदेशी अपनाओ रे ।

ब्रांडेड का चक्कर छोड़ो ,
देशी को अपनाना है ।
लोकल को वोकल करके ही,
भारत भव्य बनाना है ।
स्वावलंबन का पथ अपनाओ,
करके कुछ दिखलाओ रे ।
स्वदेशी अपनाओ रे ,स्वदेशी अपनाओ रे ।

कचरा जिसने देश का अपने ,
भारत में भिजवाया है ।
इसकी चीजें नही खरीदें ,
सबको मिल समझाया है ।
माल हमारा लूट रहा जो ,
उसको आज भगाओ रे ।
स्वदेशी अपनाओ रे ,स्वदेशी अपनाओ रे।

लेकर प्रतिभा देश की अपने ,
देश का मिलकर करें उत्थान।
ड्रेगन हमसे तभी डरेगा ,
डूबेगा उसका दिनमान ।
 देश के हित को खुद भी समझो ,
औरों को समझाओ रे ।
स्वदेशी अपनाओ रे ,स्वदेशी अपनाओ रे ।
 
 ✍️ डॉ प्रीति हुँकार
मुरादाबाद