शनिवार, 5 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की रचना ---


जिसके हाथों गया उकेरा,
भावी जीवन सारा।
जो करता है प्रतिपल निश्चित,
उज्ज्वल भाग हमारा।

हम अच्छे हैं या कि बुरे हैं,
जिस पर करता निर्भर।
जिसके भागीरथ प्रयास से,
मरु में झरते निर्झर।

जिसका होना असीमता का,
हमको बोध कराता
जो अपने छात्रों के हित में,
दुर्गम भी हो आता।

जिसकी महिमा देवों से भी
ऊँची कही गयी है।
जिसके दम पर पीढ़ी-पीढ़ी,
सभ्यता बढ़ रही है।

हम वह शिक्षक,और शान से,
हाँ,चलों दोहरायें।
नहीं सुशोभित हमको रोना,
हम जब जगत हँसायें।

यदि निज मन में हमें हमारा,
गौरव ध्यान रहेगा।
दूर नहीं होगा वह दिन जब,
फिर गुरुमान बढ़ेगा।

हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत


शिक्षक हमपर प्यार लुटाते
श्रद्धाभाव  हमें   सिखलाते
जो पढ़ने  से आंख  चुराता
उसको अपने पास  बुलाते।

ठीक समय विद्यालयआते
हिंदी, इंग्लिश, मैथ  पढ़ाते
ब्लैक  बोर्ड परआसानी से
पाठ सभी को याद  कराते।

हल्की-फुल्की डांट लगाते
नहीं किसीपर हाथ  उठाते
खेल-खेल में ही बच्चों को
शिक्षा की महिमा बतलाते।

शिक्षा  से  उजियारा  पाते
बिन शिक्षा  बेहद पछताते
बिना गुरु जीवन  नैया हम
लेकर पार  नहीं  जा  पाते।

पांच सितंबर भूल न  पाते
गुरु चरणों मे सीस  नवाते
अंधकार का  नाम  मिटाने
उजियारा घर-घर पहुंचाते।
शिक्षक हमपर-----------
 
       
  ✍️वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
   मो0-   9719275453

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की कविता ---


कलयुगी धनुर्धर ने
बाण छोड़ा,परन्तु
निशाना चूक गया
तभी,उसने
एक महात्मा को देखा
तो पूछा,
भगवन इसका रहस्य समझाइये,
निशाना क्यों खाली गया
कृपया बताइये ?
महात्मा ने प्रश्न किया
बच्चा,
तुम्हारा गुरु कौन है ?
लक्ष्य क्या है ?
मैं,
तभी कुछ कह सकूँगा -
तुम्हारे संदेह को
दूर कर सकूँगा ।
धनुर्धर ने उत्तर दिया-
आज के युग में गुरु
की आवश्यकता नहीं,
लक्ष्य क्या होता है
इसका मुझे पता नहीं।
महात्मा मुस्कराए
बोले,
ऐसे ही अभ्यास करते रहो,
मेरे बच्चे !
देश के तुम ही आधार हो ,
अंधे युग के सच्चे कर्णधार हो ।।

✍️ अशोक विश्नोई
   मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार शिशुपाल सिंह मधुकर के दो मुक्तक


मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) अमितोष शर्मा की रचना ---कभी कभी रोगों में विष ही प्राण बचाता है ..


मुरादाबाद के साहित्यकार अनवर कैफ़ी की गजल ---अपनी मिट्टी से मुहब्बत के गुनहगार हैं हम ..….


गुरुवार, 3 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा ------गुलामी


        " लो बसन्ता अंगूठा लगाओ,आज तुम बार- बार के झंझट से भी मुक्त हो गये हो । अब ज़मीन मेरी हो गई है," साहूकार ने यह कह कर स्टैम्प पैड उसके सामने रख दिया।
      " पर मालिक मैं तो रुपया बराबर देता रहा हूँ फिर यह--------अंगूठा लगाते हुए बसन्ता बोला ।
       अर्रे नहीं तू झूठ बोलता है कहीं और दिया होगा।"
       " नहीं ! नहीं !! ऐसा न करो मालिक, ऐसा न करो,"बसन्ता गिड़गिड़ाया ।
        " अरे कोई है---इसे धक्के मारकर बाहर निकाल दो,चले आते हैं न जाने कहाँ - कहाँ से मालिक के गुलाम ।

✍️ अशोक विश्नोई
 मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की लघुकथा ----न्याय

   
... ... कैदियों की गाड़ी कचहरी में आकर रुकी। पुलिस वालों ने खींच कर हरपाल सिंह को बाहर निकाला और जज के सम्मुख पेश किया ..... जज साहब ने कहा, आप पर आरोप है कि आपने दरोगा जी की रिवाल्वर छीनी और उन पर हमला किया । क्या आपको अपनी सफाई में कुछ कहना है!
      .... .. मंगलू की नई-नई शादी हुई थी बहू को विदा करा के लाने की खबर दरोगा के कान में पड़ी ....... कमला सुंदर तो थी  परन्तु गरीबी में सुंदरता भी अभिशाप बन गई ......। वह भी एक मजदूर थी। काम पर आते जाते दरोगा की बुरी नजर उस पर पहले से ही थी ... बस फिर क्या था एक कांस्टेबल को भेजकर मंगलू को थाने में बुलाया। मंगलू दलित जाति से था ..... दरोगा जानता था यह बेबस लाचार मेरा क्या कर लेगा।  फरमान सुना दिया ... "मैं शाम को तुम्हारे घर आऊंगा समझ लो अच्छी तरह से ....! वर्ना किसी केस में रख दूंगा ... जेल में सड़ते रहोगे ...!"
    बिरादरी में शाम को कानाफूसी होने लगी - दरोगा आने वाला है। हरपाल सिंह को जल्दी से  खबर करनी होगी! .. एक  वह ही है जो इस संकट से हमें बचा सकता है। उसके रग रग में अन्याय से लड़ने के लिए विद्रोह भरा था। हरपाल सिंह को जैसे ही खबर मिली तो उसने बिरादरी के लोगों को बुलाया और कहा "डूब मरो सब चुल्लू भर पानी में !! .... आज इसके साथ हो रहा है कल को तुम्हारे साथ होगा .. !! .. क्यों नहीं करते विरोध!" "..... लेकिन धीरे-धीरे सब के सब खिसक लिये ....  रात को जैसे ही दरोगा बलवान सिंह घर में घुसा ..... हरपाल सिंह उस पर टूट पड़ा .... लाठी से दरोगा का हुलिया ... बिगाड़ दिया .... फिर रिवाल्वर  छीन कर भाग गया ......
 ऑर्डर ! ऑर्डर !! सुनकर हरपाल सिंह की तंद्रा भंग हुई! "कुछ कहना है सफाई में! कोई गवाह है तुम्हारे पास  !!" ......! ! ! दूर दूर तक कोई नहीं ...
      .... और जज साहब ने निर्णय सुना दिया ... आरोपी हरपाल सिंह को जनता के रक्षक और कानून के रखवाले दरोगा बलवान सिंह पर हमला करने का दोषी पाया जाता है और उसे दस साल की कड़ी सजा सुनाई जाती है।

 ✍️ अशोक विद्रोही
 412 प्रकाश नगर
मुरादाबाद
82 188 25 541




मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की लघुकथा -----कर्तव्य निष्ठा



" कित्ते में "  मोहन बाबू ने इशारे से पूछा । सड़क पर खड़ी औरत ने उँगलियों से बताया -- पाँच  !!!
  मोहन बाबू मोल भाव पर उतर आए । फिर से इशारा किया -- " तीन "
  औरत शायद जल्दी में थी । उसने पास आकर कहा " ठीक है बाबू , पर घ॔टे भर में छोड़ देना ।"         
   " क्यों और कित्ते निपटाएगी रात भर में ।" मोहन बाबू निर्लज और संवेदनहीन होकर बोले । 
      "जितने बन पड़ें "   " ज्यादा से ज्यादा " औरत ने बिना बुरा माने तटस्थ भाव से कहा और दोनों ने पास के होटल की राह पकड़ी ।
      औरत के इतने संयमित और दो टूक उत्तर को मोहन बाबू हजम नहीं कर पा रहे थे । कदाचित उनके मन में ये भाव था कि वो औरत उनके सामने रोएगी या गिड़गिड़ाएगी या दो चार तीखे कटाक्ष ही करेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ था ।
     घंटे भर बाद मोहन बाबू के मन में जाने क्या आया कि तीन की जगह पाँच पकड़ा दिए । बोले   " चल जा ऐश कर "   
     "नहीं कर सकती " औरत ने साड़ी लपेटते हुए फिर सपाट सा उत्तर दिया ।
      अब तो मोहन बाबू भन्ना गए , चिढ़ कर बोले   " तो रात भर रकम बटोर कर क्या सुबह आचार डालेगी ?" 
     इस बार औरत ने थोड़ी सी हिचकिचाहट से बड़ी दर्दीली मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया    "नहीं साब"  कल मेरे पति की आखिरी    "कीमो"  है ( कैंसर के मरीजों को दी जाने वाली थैरेपी )   "मैं चाहती हूँ इस करवा चौथ तक तो वो मेरे साथ रह ही जाए" ,  "अगले बरस का क्या भरोसा"    "फिर तो आप बाबू लोगों का ही सहारा है ।"
    किंकर्तव्यविमूढ़ से मोहन बाबू उसकी कर्तव्य निष्ठा के आगे नतमस्तक हो गए थे ।

✍️ सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद ।

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा -----साम्प्रदायिकता


"क्या हो रहा है ये सब? सम्प्रदायिकता का इतना बड़ा बम फोड़ने पर भी वोटर हमारी तरफ नहीं झुका ऐसा कैसे चलेगा चंदू?" नेताजी ने अपने चमचों को गुस्से से देखते हुए कहा।
"क्या करें हुज़ूर! अब हर मजहब हर जात में लोग पढ़ लिख गए हैं तो जल्दी बहकाने में नहीं आते", चंदू ने  धीरे से कहा।
"हुँह!! लगता है सरकारी स्कूलों की सिर्फ हालत बिगाड़ने से काम नहीं चलेगा। इन्हें बन्द ही करवाना पड़ेगा", नेता जी सर ठोककर बड़बड़ाते हुए चले गए।

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा ----श्रद्धा का फल


विनीता ने जब एम ए प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया ,निरन्तर गुरु जनों के प्रति उसकी श्रद्धा का भाव उसकी छवि को कॉलेज में उज्ज्वल करता रहा ,लेकिन यह तो उसका स्वभाव ही था ।कुछ साथी उसकी इस अतिशय श्रद्धा भावना का मजाक भी उड़ाते । विनम्रता के कारण वह कुछ न कहकर हँस देती । विभाग में उसके मुकाबले और भी अच्छे छात्र छात्राएं थीं , किसी लेख अच्छा तो किसी का प्रस्तुति करण । कॉलेज अंतिम वर्ष में स्वर्णपदक के लिये जाने कितने लोग मेहनत कर रहे थे ।विनीता भी मन से लगी थी पर अचानक अंतिम पेपर में स्वास्थ्य खराब होने से उसका पेपर उतना अच्छा नहीं रहा।
जिन छात्रों ने मेहनत की थी ,वे सभी उत्तेजित थे ,परीक्षा परिणाम के लिये। विनीता का मन अशांत था ।काश!तवीयत ठीक होती तोकुच और...........। तभी लैंडलाइन फोन की घंटी बजी .....ट्रिन ......ट्रिन ट्रिन....। विनीता !  बधाई हो बहन ...टॉपर हो तुम ,संस्कृत फाइनल ईयर में ।
विनीता की सखी गीता ने बताया।

✍️ डॉ प्रीति हुँकार
मुरादाबाद


मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रामकिशोर वर्मा की लघुकथा ---- स्कूल की राधा


     " अम्मी, आज कृष्ण जन्माष्टमी है न!" - रूबी ने टी वी देखते हुए अपनी अम्मी को याद दिलाने के उद्देश्य से पूंँछा ।
    " हांँ, तो !" - पूंँछते हुए रूबी की अध्यापिका अम्मी अपने काम में व्यस्त रहीं ।
    " पिछले साल स्कूल खुला था तो मुझे राधा के रूप में सजाया गया था । सभी कह रहे थे कि कहीं नज़र न लग जाये।" - बतियाते हुए रूबी की याद ताजा हो आयी और सोचने लगी कि  आजकल कोरोना के कारण सब चौपट हो गया है।
        " और पूरे स्कूल में तुम्हारी पहचान राधा के रूप में होने लगी थी ।" - रूबी की अम्मी ने हंँसते हुए उसकी खुशी को दोगुना कर दिया ।
       
✍️ राम किशोर वर्मा
रामपुर

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी -----वार्षिक परीक्षा की फीस


कक्षा अध्यापक ने आवाज़ लगाकर कहा अरे मोहन तुमने हाई स्कूल की वार्षिक परीक्षा फीस अभी तक जमा नहीं की, क्या तुम्हें परीक्षा नहीं देनी।सोच लो कल तक का समय ही शेष है।
        मोहन उदास मन से खड़ा होकर  अध्यापक की तरफ  देखकर कुछ कहने से पहले ही आंखों में आंसू भर लाया और रुंधे गले से बोलते-बोलते यकायक फफक कर रो दिया। अध्यापक अपनी कुर्सी से उठे और मोहन के पास जाकर उसे चुप करते हुए उससे वास्तविकता जानने का प्रयास करने लगे।उन्होंने कहा कि तुम अपनी विवशता खुलकर बताओ हिम्मत हारने से काम नहीं चलेगा।
       मोहन ने कहा सर मैं परीक्षा किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाहता हूँ परंतु घर के हालात ऐसे नहीं हैं।मैं अपनी विधवा माँ के साथ रहता हूँ।हमारी देख-रेख करने वाला भी कोई नहीं है।मेरी माँ ही छोटे-मोटे काम करके मुझे पढ़ाने की चाहत में लगी रहती है।
       अब काफी समय से उसकी तबीयत भी बहुत खराब चल रही है।घर में जो कुछ पैसे- धेले थे वह भी माँ के इलाज में उठ गए लेकिन हालत सुधरने की जगह और बिगड़ती जा रही है।मुझे हर समय उनकी है चिंता रहती है।ऐसे में मैं यह फैसला नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं परीक्षा दूँ या छोड़ दूं
परीक्षा तो फिर भी दे दूँगा परंतु माँ तो दोबारा नहीं मिल सकती।यह कहकर वह मौन होकर वहीं बैठ गया।
      अध्यापक महोदय का दिल भर आया उन्होंने कहा कि मेरी कक्षा के तुम सबसे होनहार विद्यार्थी हो मुझे यह भी भरोसा है कि तुम इस विद्यालय का नाम रौशन करोगे।
       परेशानियां तो आती जाती रहती हैं परंतु परीक्षा छोड़ने का तुम्हारा निर्णय तो तुम्हारी माँ की बीमारी को और बढ़ा देगा।इसलिये हिम्मत से काम लो ईस्वर सब अच्छा करेंगे।
          गुरुजी ने अपनी जेब से कुछ रुपए निकाल कर मोहन के हाथ पर रखते हुए कहा लो बेटे इनसे तुम अपनी माँ का सही इलाज कराओ।उनके खाने पीने का उचित प्रबंध करो।फीस की चिंता मुझपर छोड़ दो।
        मोहन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कभी स्वयं को तो कभी पूज्य गुरुवर को देखता और यह सोचता कि भगवान कहीं और नहीं बसता मेरे सहृदय गुरु के रूप में इस संसार मे विद्यमान रहकर असहाय लोगों की सहायता करके अपने होने को प्रमाणित करता है।
      मोहन ने गुरु जी की आज्ञा को सर्वोपरि रखते हुए माँ का इलाज कराया और पूरे मनोयोग से परीक्षा देकर कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा अपनी माँ और पूज्य गुरुवर के चरण स्पर्श करके उनका परम आशीर्वाद भी प्राप्त किया।
     
             
 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
  मुरादाबाद/उ,प्र,
  9719275453

मुरादाबाद के साहित्यकार प्रवीण राही की लघुकथा --- विज्ञापन


  बूट प्राइवेट लिमिटेड जूते की नई कंपनी है।अच्छे डिजाइन और क्वालिटी के बावजूद भी उनके जूतों की मांग नहीं बढ़ रही है।इस पर विचार करने के लिए कंपनी के मालिक ने पूरी टीम को मीटिंग के लिए बुलाया .......
अंततः सभी के विचार से यह निष्कर्ष निकला कि,जूते को ब्रांड प्रमोशन की जरूरत है ।कुछ दिनों बाद मालिक ने अपने एक भरोसेमंद कर्मचारी को बुलाकर अच्छे खासे पैसे दिए और साथ ही एक मीडिया वाले को भी पैसे देकर एक डील की.....डील के तहत कल राष्ट्रीय कार्यकर्ता पार्टी के अध्यक्ष अशोक केजरी  रैली निकाल रहे हैं... रैली में भीड़ बहुत होगी और उन कार्यकर्ता पर भीड़ से जूता फेंकना है.... अगले दिन यही हुआ भी, भीड़ से किसी ने कार्यकर्ता पर जूता फेंक कर मारा और वहां खड़ी मीडिया ने उस जूते का कार्यकर्ता के साथ चित्र ले लिया। कई दिनों से टीवी पर यही न्यूज चल रहा है कि राष्ट्रीय कार्यकर्ता पार्टी के कार्यकर्ता पर भीड़ से किसी ने जूता फेंका और जूता बूट कंपनी का है....काफी मजबूत जूता, जिसकी वजह से उनके सिर पर गहरी चोट लगी है।अब इन कुछ दिनों से जूतों की मांग बढ़ गई है और  राष्ट्रीय,अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस जूते को पहचान मिल गई है। अब हर नाप की पहले से ज्यादा कीमत बढ़ा दी गई है...... आखिर मीडिया और कर्मचारी को दिया गया पैसा, आम जनता से निकालना है।

 ✍️ प्रवीण राही
मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की लघुकथा ---मास्क


वह मेरे पास आया । रुका और करीब आया। मुख से मास्क को नीचे किया । नाक से नीचे , फिर होठों से नीचे और फिर कुछ कहने लगा । मैं घबराया , जोर से चीखा " पुलिस - पुलिस "
   वह भाग गया । अब मैं सुरक्षित था , अपना मास्क लगाए हुए ।

✍️ रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की दो लघुकथाएं


 (1) खेल

गेंदबाज ने बहुत अच्छी गेंद फैकी थी।लेकिन बल्लेबाज भी कम नहीं था,उसने जबरदस्त शॉट लगाया और गेंद बाउंड्री लाइन के बाहर जाकर गिरी राजीव ताली बजाने लगे तो उनकी पत्नि ने टोंका "अरे ये तो विरोधी टीम का खिलाड़ी है"
 "तो क्या हुआ,हम खेल देखने आए है,और खेल बहुत अच्छा चल रहा है।" राजीव ने धीरे से कहा और ताली बजाते रहे।

(2) सबूरी

सावन मास की विशेष कथा समाप्त हो चुकी थी प्रसाद की लाइन बहुत लंबी थी।सभी श्रद्धालु शांति से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। अचानक चारो ओर घनघोर काली घटा छाने लगी। हल्की बूंदाबांदी भी शुरू हो गई।तेज़ बारिश की आशंका से श्रद्धालुओं में हड़बड़ाहट होने लगी।पहले प्रसाद लेने के चक्कर में अधिकांश लोग लाइन तोड़ कर आगे आने लगे धक्का मुक्की शुरू हो गई।कुछ लोग गिर गए,और उनके हल्की चोट भी लग गई।
   कार्यक्रम संयोजक शांति बनाए रखने की अपील करते रहे,लेकिन सभी को घर जाने की जल्दी थी।तेज़ बारिश में भीगने के डर से,सब,एक दूसरे को पीछे धकेल कर सबसे पहले प्रसाद पाने में जुटे थे।मंदिर के उपर एक बहुत बड़ा बोर्ड लगा था,जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा था - सबूरी।

✍️  डॉ पुनीत कुमार
T-2/505
आकाश रेजिडेंसी
मधुबनी पार्क के पीछे
मुरादाबाद - 244001
M - 9837189600

मुरादाबाद की साहित्यकार इला सागर रस्तोगी की लघुकथा ----- मानवता


"गुडमार्निग$$$$........ टीचर$$$.........." क्लास फर्स्ट के छोटे छोटे बच्चे एक मधुर संगीत की तरह गुडमार्निग गाते हुए बोले।
"गुडमार्निग बच्चों सिट डाउन। मैं जिन जिन बच्चो का नाम ले रही हूँ वो खड़े हो जाए। आशि, अर्नव, रुद्धव, राघव, सारिका, मिष्टी और मेधावी आप सभी की दो महीने की फीस पैडिंग हैं। एक तो इतने टाइम बाद स्कूल खुले हैं उसपर आपलोग ने पूरे दो महीने से फीस नहीं जमा करी। अब जबतक फीस जमा नहीं होगी आप हर पीरियड में कान पकड़कर क्लास के बाहर खड़े रहेंगे।" सभी बच्चे कान पकड़कर क्लास के बाहर खड़े रहे।
आशि रोते रोते घर पहुंची। वहां उसने देखा कि उसका छोटा भाई सफेद चादर में लिपटा जमीन पर लेटा हुआ था और माँ पापा का रो रोकर बुरा हाल था।
पड़ोस की एक आंटी दूसरी आंटी को बता रही थी "पैसे नहीं बचे इसीलिए टायफॉयड का इलाज नहीं करा सके और .......अपने नन्हे से बच्चे को खो दिया।"
अगले दिन आशि को छोड़ सभी बच्चों की फीस जमा हो गई। क्लासटीचर क्लास में आयी और फीस न जमा होने की वजह से फिर से आशि को पूरे टाइम क्लास के बाहर कान पकड़कर खड़े रहने को कहा।
आशि की नन्ही आखों से बहते आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उधर टीचर ने चैप्टर फाइव जिसका टाइटिल था "मानवता", बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।

✍️ इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद

बुधवार, 2 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेंद्र कुमार मिश्र की कहानी। यह कहानी उनके कहानी संग्रह "पुजारिन" से ली गई है ।यह संग्रह प्रकाशित हुआ था सन्1959 में ।








मुरादाबाद मंडल के सिरसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार कमाल जैदी वफ़ा की लघुकथा ------मिठाई

             
 लॉक डाउन के बाद सरकारी कार्यालय में खाली बैठे बाबूओं  में गप शप चल रही थी सब एक दूसरे का हाल चाल पूछ रहे थें बड़े बाबू अपनी डायबटीज के बारे में बताते हुए कहने  लगे कि कैसे उन्होंने घर पर रहकर शुगर को कंट्रोल किया  मीठी चीज़ो से पूरी तरह परहेज़ रखा अब तो उन्होंने कसम खा ली है कि मिठाई को हाथ भी नही लगाएंगे नई नियुक्ति पाकर कार्यालय में  आये शरत बाबू बड़े गौर से बड़े बाबू की बातें सुन रहे थे तभी परेशान  से लग रहे एक व्यक्ति ने कार्यालय में प्रवेश किया वह सीधा बड़े बाबू की टेबल के पास जाकर खड़ा हो गया और याचना पूर्वक उनसे अपनी फाइल पर
आदेश कराने के लिये कहने लगा बड़े बाबू उसकी ओर देखकर कहने लगे -"अरे भाई!हो जायेगा तुम्हारा काम भी हो जायेगा पहले हमारी मिठाई तो लाओ "।
बड़े बाबू की बात सुनकर शरत बाबू उन्हें हैरत से देखने लगे।

✍️  कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'
सिरसी (सम्भल)
9456031926

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की कहानी ---- अधिकारी बहु


       ‘’अधिकारी बहु ढूँढी है तेरे लाड़ले ने, देख लेना एक कप चाय भी बनाकर नही देगी। पैसे की कोई कमी तो है नही जो कमाऊँ बहु ला रहा है। पढ़ा लिखाकर राजेश को अफसर बनाया ताकि एक सुन्दर सुशील सेवा करने वाली बहु ला सके, पर यहाँ तो सब किये धरे पर पानी फेर दिया उसने। कांता मैं तो जा रही हूँ गाँव, तू ही स्वागत कर अपनी बहु रानी का ’’बडबड़ाते हुए दुलारी मौसी अपना कपड़ो का थैला उठाकर चल दी।’’ पर....  मौसी रुक जाती, मैं अकेली क्या क्या कर लूँगी। ’’कांता ने दुलारी मौसी को रोकने की बहुत कोशिश की पर वो नही रुकी।
         राजेश ,रिटायर कर्नल शेखावत सिंह और कांता का इकलौता बेटा था। अपनी माँ के देहांत के बाद दुलारी मौसी को ही शेखावत सिंह अपनी माँ समान मानते थे। दुलारी मौसी ने बहुत लाड़ प्यार से राजेश को पाला था। हालाँकि शेखावत सिंह और कांता दोनो ही खुले विचारों के थे परंतु दुलारी मौसी अपने उसूलों पर अडिग थी इसलिए जब उन्हें पता चला कि राजेश ने अपने साथ की किसी अधिकारी से शादी कर ली है तो वह गुस्सा होकर अपने गाँव चली गयी।  राजेश जिस जिले में  डिप्टी कलेक्टर थे वहीं साक्षी कर अधिकारी थी। दोनो की मुलाक़ात हुई वे एक दूसरे को पसंद करने लगे और उन्होने शादी कर ली।आज राजेश साक्षी को लेकर घर आ रहा था। दुलारी मौसी की कही बातें कांता को परेशान कर रही थी कि कही सच में बहु...........!! जबकि राजेश ने फ़ोन पर सब बातें अपने माँ पिताजी को बता दी थी कि साक्षी के पेरेंट्स दो साल पहले कार दुर्घटना में चल बसे, वह अकेली है। दोनो की पोस्टिंग घर से दूर होने के कारण शेखावत सिंह ने ही कहा था कि शादी करके आ जाओ फिर यही सबकी दावत कर देंगे। कांता इसी सोच में ही डूबी थी कि अचानक कार घर के दरवाज़े पर आकर रुकी। ’बहु आ गयी कांता, शेखावत सिंह ने कांता को आवाज़ लगायी। गाड़ी से उतर कर साक्षी ने दोनो के पैर छुए। जीती रहो, शेखावत सिंह ने आशीर्वाद दिया। सब अंदर आकर ड्रॉइंग रूम में बैठ गए। सभी ने खूब बातें की। बहु तो बहुत सुन्दर है, आदत पता नहीं कैसी होगी..... कांता मन ही मन मे सोच रही थी। फिर वह चाय बनाने के लिए रसोई में गयी तो पीछे पीछे साक्षी भी चली आयी।  ’’चाय मैं बनाती हूँ माँ जी‘’ साक्षी ने विनम्रता से अपनी सासु मां कांता से कहा। ’’तुम ........!!! अरे नहीं... तुम रहने दो, तुम एक  अधिकारी हो, तुम चाय .......... रहने दो। मैं ही बना देती हूँ। ’’कांता के मन में अब भी मौसी जी की कही बातें चल रही थी। ’माँ जी अधिकारी मैं बाहर वालों के लिए हूँ, इस घर की तो मैं बहू हूँ और मैं जब तक यहाँ रहूँगी घर का काम तो मैं ही करूँगी।’ ऐसा कहकर साक्षी ने चाय का भगोंना गैस पर रख दिया। माँ जी एक बात कहनी थी .............., साक्षी धीरे से कहकर चुप हो गयी। कांता ने साक्षी की तरफ़ देखकर कहा ‘’हाँ बताओ।’’ मेरे मम्मी पापा नही हैं, बहुत याद आती है उनकी। क्या यह घर मेरे ससुराल के साथ साथ मेरा मायका नही हो सकता। मैं आपकी बहू नही बेटी बनकर रहना चाहती हूँ माँ।’’ कहते कहते साक्षी का गला रूँध गया। क्यों नही ‘मेरी बच्ची, मैं हूँ तेरी माँ ‘कांता ने उसे अपने गले से लगा लिया। ’’भई माँ बेटी का मिलन ही होता रहेगा या चाय भी मिलेगी ‘’ शेखावत सिंह ने चुटकी ली। यह सुनकर कांता और साक्षी ज़ोर ज़ोर से हसने लगी ।बहु के रूप में बेटी पाकर कांता फूली नहीं समा रही थी। इस सुंदर रिश्ते की ख़ुश्बू से पूरा घर महक गया।                         
                                   
✍️ प्रीति चौधरी
 गजरौला,अमरोहा

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की कहानी ---प्रमोशन



मध्यमवर्गीय परिवार मे जन्मी लतिका सामान्य कदकाठी की बालिका का थी।हँसना,पढ़ना, खेलना यही खुशियां थी उसकी।उसकी दुनिया उसकी मां असमय भगवान के पास चली गयीं।घर मे भाभियो ने पराया कर दिया।पिता से शिकायत की तो व्यर्थ।अब कमजोर शरीर और कम आमदनी वाले उसके पिता से अधिक भाई कमाई करते थे तो।वह बोले,"अब बेटे घर चलाते हैं,पहले वाली स्थिति नहीं रही, तुम अपनी पढाई पर ध्यान दो।पढलिख कर कुछ काम कर लेना।मुझ से कुछ उम्मीद न रखना"।वह मायूस हो जीवन जीने लगी।
धीरे धीरे कई वर्ष गुजर गये। एकदिन आलिंगन वद्ध भईया भाभी को देखकर उसे अपनी जिंदगी नीरस लगने लगी।तभी धीरज उसकी जिन्दगी मे आया।और एकदिन उसने माँ ने उसकी शादी के लिए जो गहने बनवाये थे लेकर घर छोड दिया।दोनो मेरठ आ गये।एक कमरे मे रहने लगे।जिस सुखद जीवन की कल्पना लेकर आयी थी तार तार होने लगी।माँ के दिये गहने एक एक कर बिकने लगे।एक अँगूठी बची थीबस।तभी धीरज ने बताया कि उसे नौकरी मिल गई।उसे लगा खुशियां लौट रही है।एक दिन शाम को फैक्टरी से वापस आकर धीरज बोला"सेठानी बाहर गयी है ,तुम सेठ के यहां जाकर खाना बना आना"।वह सेठ के घर पहुंच गयी।काम पूरा होने ही वाला था कि सेठजी बोले,"जाने से पहले मेरे कमरे मे पानी रख जाना"।जब वह कमरे मे गयी तो मेज पर शराब की बोतल खुली थी,जैसे ही पानी का जग रखा सेठ ने उसका हाथ पकड बिस्तर पर गिरा लिया।बहुत प्रयास किया छुडाने का मगर सफल न हो सकी।
थके कदमों से  घर पहुंची।धीरज सो चुका था।किवाड़ खुलीथी वह कटेवृक्ष सी बिस्तर पर गिर पडी।सुबह तबियत खराब का बहाना बनाकर पडी रही।शाम तक हिम्मत जुटायी कि धीरज को सब बता देगी।शाम को धीरज मिठाई के डिब्बे केसाथ आया और चहकता हुआ बोला,"लो मुँह मीठा करो,मेरा प्रमोशन हो गया,अब मै फैक्टरी में मैनेजर हो गया हूँ।"
लतिका  धीरज की  प्रमोशन की खुशी देखकर कुछ न कह सकी।।

✍️ डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
12/08/2020

मुरादाबाद के साहित्यकार विवेक आहूजा की कहानी...... दरकते रिश्ते


       आज विनय काफी खुश था क्योंकि आज वह अपनी बेटी को  मेडिकल की कोचिंग दिलाने दिल्ली लेकर जा रहा था। विनय की बेटी को मेडिकल की कोचिंग हेतु सौ परसेंट का स्कॉलरशिप जो मिला था और वह दो वर्षीय  वीकेंड क्लासेस के लिए प्रत्येक शनिवार और इतवार को दिल्ली में कोचिंग करने के लिए जा रही थी । विनय रास्ते में सोच रहा था कि दिल्ली में तो उसकी कितनी सारी रिश्तेदारी है अगर वह सबसे एक या दो बार भी मिलेगा तो 2 वर्ष किस तरह बीत  जाएंगे पता ही नहीं चलेगा। विनय ने अपने रहने की व्यवस्था पहले ही कोचिंग क्लास के निकट एक लॉज में कर ली थी। चूंकि  वह उसका प्रथम दिन था उसने सोचा इस बार चलो चाचा जी से मिल लेते हैं क्योंकि चाचा जी कई बार उन्हें दिल्ली नहीं आने का उलाहना दे चुके थे । विनय अपनी बेटी के साथ अपने  चाचा जी के पंजाबी बाग स्थित मकान पर उनसे मिलने पहुंच गया विनय व उसकी बेटी को देखकर चाचा जी बहुत प्रसन्न हुए और उनसे कुछ देर विश्राम करने को कहा और स्वयं सामान लेने बाजार चले गए । बाजार से लौटकर जब चाचा जी घर आए तो चाची ने उन्हें बाहर दरवाजे पर ही रोक लिया, विनय को कमरे में नींद नहीं आ रही थी और वह खिड़की के पास ही खड़ा था । चाची जी ,चाचा जी से कह रही थी कि अपने भतीजे और पोती की इतनी सेवा सत्कार मत करना कि वह प्रत्येक सप्ताह यहीं पर आ धमके  यह सुन विनय के पैरों तले जमीन खिसक गई और वह मन में सोचने लगा कि वह तो अपनी रिश्तेदारी पर गर्व कर रहा था की दिल्ली जाकर उसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी परंतु रिश्तेदारी का यह चेहरा उसने पहली बार देखा था ।चाचा जी ने मकान में प्रवेश किया तो विनय अपने चाचा जी को बताया की उसने कोचिंग के समीप ही रहने की व्यवस्था कर ली है वह तो बस उनका हालचाल जानने के लिए मिलने चला आया , विनय ने अपनी बेटी को तैयार होने को कहा और कोचिंग के समीप लॉज में प्रस्थान किया । रास्ते में जाते वक्त विनय यह सोच रहा था की आज के दौर में रिश्ते इतने दरक चुके हैं कि वह अपनी सगी रिश्तेदारी का  बोझ एक दिन भी सहन नहीं कर सकते उसके पश्चात विनय हर सप्ताह अपनी बेटी को लेकर दिल्ली आता रहा और उसने किसी रिश्तेदार के यहां जाना मुनासिब नहीं समझा।

 ✍️विवेक आहूजा
बिलारी
जिला मुरादाबाद
@9410416986
@7906933255
Vivekahuja288@gmail.com

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एटा की संस्था "प्रगति मंगला" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक परिचर्चा

   
           एटा के वरिष्ठ साहित्यकार बलराम सरस द्वारा वाट्स एप पर गठित साहित्यिक समूह " प्रगति मंगला " की ओर से प्रत्येक  शनिवार को "साहित्य के आलोक स्तम्भ" शीर्षक से देश के प्रख्यात दिवंगत साहित्यकारों   के व्यक्तित्व और कृतित्व पर  साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया जाता है । इसी श्रृंखला में शनिवार 29 अगस्त 2020 को हास्य व्यंग्य के प्रख्यात साहित्यकार हुल्लड़ मुरादाबादी पर ऑन लाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया गया। मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी के संयोजन में हुए इस आयोजन की अध्यक्षता आचार्य डॉ प्रेमी राम मिश्र ने की । पटल प्रशासक नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा उदघाटन व दीप प्रज्ज्वलन के  साथ कार्यक्रम का आरम्भ हुआ।
  स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी  का विस्तृत जीवन परिचय, साहित्यिक योगदान और उनकी रचनाएं प्रस्तुत करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी एक ऐसे रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल श्रोताओं को गुदगुदाते हुए हास्य की फुलझड़ियां छोड़ीं बल्कि रसातल में जा रही राजनीतिक व्यवस्था पर पैने कटाक्ष भी किए। सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया तो आम आदमी की जिंदगी को समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया। हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है । जी हां , एक समय तो ऐसा था जब हुल्लड़ मुरादाबादी  अपनी हास्य कविताओं से पूरे देश मे हुल्लड़ मचाते फिरते थे। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं ।दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की ।
एटा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं जे एल एन कालेज के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ प्रेमी राम मिश्र ने कहा कि हुल्लड़ मुरादाबादजी का नाम स्मरण होते ही चेहरे पर  मुस्कुराहट आ जाती है -जादू वह जो सिर पर चढ़कर बोले !कौन जानता था कि श्रीसरदारी लाल चड्ढा, बर्तन व्यापारी का लाड़ला पुत्र सुशील कुमार चड्ढा एक दिन हुल्लड़ मुरादाबादी बनकर मुरादाबाद की शान बन जाएगा! 29 मई 1942 में गुजरांवाला पाकिस्तान में जन्मे हुल्लड़ जी यहां आकर मुरादाबादी संस्कारों में रस बस गए थे। यहीं उन्होंने एम ए हिंदी तक की शिक्षा ग्रहण की। धन्य है पारकर इंटर कॉलेज के हिंदी अध्यापक पंडित मदन मोहन व्यास जी ,जिन्होंने अपनी साहित्य और संगीत कला से सुशील कुमार चड्ढा को तराश कर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहचान बनाने में मार्गदर्शन दिया।संत कबीर ने उचित कहा है- गुरु ज्ञाता परजापति गढले कुंभ अनूप। हुल्लड़ जी ने इस कथन को चरितार्थ करा दिया। वर्ष 1962 के लालकिला कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि  रामधारी सिंह दिनकर जी की अध्यक्षता में उन्होंने ओज और राष्ट्रीय चेतना की रस वर्षा कर जो प्रशंसा अर्जित की थी ,उसके बाद कौन सोच सकता था कि वह हास्य रस की कविता के शिखर पुरुष बन जाएंगे! उनकी जुझारू मनोवृत्ति और बहुमुखी प्रतिभा ने उन्हें फिल्म जगत में सम्मान प्रदान कराने में योगदान दिया था। अपनी प्रतिभा के बल पर वे अनेक फिल्मों में गीत लेखन और अभिनय के द्वारा चर्चित हुए ।उनमें  अभिनय के संस्कार  तो  विद्यार्थी जीवन में ही पल्लवित  और पुष्पित हो गए थे ,जहां उन्होंने  अनेक नाटकों में  नायक की भूमिका  में भूरि भूरि प्रशंसा  प्राप्त की थी।  फिल्म जगत के सियाह पक्ष से समझौता न कर पाने के कारण वे पुनः मुरादाबाद आ गए और फिर से अपनी कवि सम्मेलनों की यात्रा पर उत्तरोत्तर आरूढ़ होते चले गये। आगे चलकर उनका नाम  कवि सम्मेलनों की प्रतिष्ठा और सफलता का पर्याय बन गया । भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में हास्य रस को एक सुखात्मक रस कहा है ।उनके अनुसार इसकी उत्पत्ति श्रृंगार रस से हुई है। साहचर्य भाव से हास्य रस श्रृंगार ,वीर, अद्भुत, करुण आदि  रसों का भी  पोषक है ।आपकी कविताओं ने इस सत्य का प्रमाण प्रस्तुत किया है।     हिंदी साहित्य में हास्य रस का शुभारंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र के काल से हो गया था।उन्होंने हास्य रस पर पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। यह परंपरा निरंतर गतिशील है ।हुल्लड़जी की हास्य रस की श्रेष्ठता का यह प्रमाण है कि साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उनकी रचनाओं को विशेष स्थान प्राप्त होता था। उनके 10 से अधिक कविता संग्रह अनेक सीडी, कैसेट आदि आज भी देश विदेश में लोगों को गुदगुदाती रहती हैं ।
समूह के संस्थापक वरिष्ठ साहित्यकार बलराम सरस ने कहा कि वह भी क्या जमाना था जब मंच पर चार नाम हास्य व्यंग्य और फुलझड़ियों के लिए कवि सम्मेलनी श्रोताओं के दिल और दिमाग में छाये रहते थे। काका हाथरसी,बाबा निर्भय हाथरसी,शैल चतुर्वेदी और हुल्लड़ मुरादाबादी। हुल्लड़ जी के सानिध्य में मंच साझा करने का अवसर तो मुझे नसीब नहीं हुआ लेकिन एटा प्रदर्शनी के कवि सम्मेलनों में श्रोता की हैसियत से बहुत बार सुना। एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में बहुत पढ़ा। साप्ताहिक हिन्दुस्तान का होली विशेषांक तो हुल्लड़ जी के बिना पूरा होता ही नहीं था। मंच पर बोलते हुल्लड़ कवि की छवि आज भी जहन में जिन्दा है।
बदायूं के वरिष्ठ कवि उमाशंकर राही ने कहा कि स्वस्थ हास्य के सिद्धहस्त अंतरराष्ट्रीय कवि हुल्लड़ मुरादाबादी जी एक ऐसा व्यक्तित्व थे  जो लोगों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । गोरा चिट्टा बदन, चेहरे पर हर समय मुस्कुराहट, जिससे भी मिलते थे खुले दिल से मिलते थे कविताओं में भी उनके व्यवहार की झलक दिखलाई देती थी मुझे भी उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला है उनकी आत्मीयता उनका आत्मीय व्यवहार सदैव स्मरणीय रहने वाला रहता था । आदरणीय डॉ उर्मिलेश शंखधार, डॉ विजेंद्र अवस्थी जी उनको बदायूं में होने वाले कवि सम्मेलन पर बुलाते थे । पूज्य गुरुदेव डॉ बृजेंद्र अवस्थी जी को वह अपना गुरु मानते थे । वह अनेक बार उनके घर भी आए । मेरी भी वहां अक्सर उनसे मुलाकात होती थी । उनसे बात करके मन प्रसन्न हो जाता था । ऐसे व्यक्तित्व को भला कैसे भुलाया जा सकता है। हुल्लड़ जी को मैंने सुना तो अनेक बार था लेकिन उनको पढ़ने का अवसर प्रथम बार मिला है ।
नई दिल्ली की कवियत्री आशा दिनकर आस ने कहा कि  उनके व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में खूब पढ़े हैं । उनकी रचनाएं इतनी कुशलतापूर्वक और आम भाषा में रची हुई होती थी कि आम आदमी को भी वह अपनी जैसी बात लगती है, ये है हुल्लड़ मुरादाबादी जी के लेखनी का जादू जो सबके सर चढ़कर बोलता है | तालियों और दाद के ज़रिए उन तक पहुंचता था | यही कारण है उन्होंने हिंदुस्तान में और हिंदुस्तान के बाहर भी अपने हास्य और व्यंग्य की कविताओं से खूब धूम मचायी । मैं भी हुल्लड़ मुरादाबादी जी को हास्य और व्यंग्य कवि के रूप में जानती थी लेकिन जब ये जानकारी हुई कि हुल्लड़ जी ने ग़ज़लें भी खूब लिखीं हैं तो उन्हें पढ़कर जानने की जिज्ञासा हुई कि उनका गजलकार वाला अवतार कैसा होगा । उनकी ग़ज़लों को कम आंकना हमारी भूल होगी सरल कहना और सहज लिखना केवल हुल्लड़ मुरादाबादी जी ही कर सकते हैं  सरलता और सहज लेखन के कारण ही हुल्लड़ मुरादाबादी जी जन-जन में मशहूर हुए । उनकी रचना एक अनपढ़ आदमी और गैर साहित्यिक पारखी आदमी को भी भली प्रकार समझ में आती है | सबकी बात को अपनी कलम से पन्नों पर उतार देना एक अद्भुत स्मरणीय सृजन है ।
कानपुर के साहित्यकार जयराम जय  ने कहा कि
हुल्लड़ मुरादाबादी हास्य रसावतार थे। मैंने देखा है वह जिस मंच पर होते थे वहां उनको सुनने के लिए लोग प्रतीक्षा में सुबह तक बैठे रहते थे। हुल्लड़ मुरादाबादी साहब की हास्य व्यंग की रचनाएं सीधे लोगों के दिलों तक उतरती थी और लोग आनंद लेकर ठहाके लगाते थे ।उनके कविता   पढ़ने का अंदाज अलहदा था। वह अपनी प्रस्तुति बड़े ही नाटकीय शैली में देते थे जिससे वह और प्रभावी हो जाते थे । हुल्लड़ मुरादाबादी कभी हूट नहीं हुए। वह हास्य व्यंग्य की रचनाओं के अतिरिक्त  गीत और कविता की अन्य विधाओं पर भी अपनी कलम चलाने में सफल रहे हैं ।
कवियत्री नूपुर राही (कानपुर) ने कहा कि हुल्लड़  जी मेरे पिता  पं.देवीप्रसाद राही जी के परममित्र थे ज्यादातर मंच दोनों ने साथ में साझा किए। पिता जी अक्सर उनको कानपुर अपने संयोजन में होने वाले कवि सम्मेलनों में बुलाते थे और वह हमारे घर पर ही ठहरते थे। ज्यादातर लोग हुल्लड़ जी को हास्य कवि समझते हैं , पर उनकी ग़ज़लें और कुन्डलियां कमाल की होती थी। जब हुल्लड़ जी घर में आते थे उस समय मैं बहुत ही छोटी थी पर मुझे उनकी एक कविता आज तक याद है जो कुछ इस तरह थी "एक टूटी खाट और हम पाँच"।
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि बचपन से ही टी.वी.में कवि सम्मेलन आने पर उसे तल्लीनता से देखने वाली घर भर में मैं अकेली दर्शक होती थी।पर टीवी पर हुल्लड़ जी के आने पर दर्शकों की संख्या बढ़ जाती थी,जिसमें मेरे डैडी भी होते।तब शायद मैं मुरादाबाद से भी परिचित नहीं थी लेकिन तब कहाँ पता था कि हुल्लड़ मुरादाबादी जैसे जिस कवि को हम इतने चाव से सुन रहे हैं,कभी उनके ही मुरादाबाद में बसना होगा । हुल्लड़ जी को सुनना,पढ़ना चेहरे पर मुस्कान ला देता था,लेकिन यह हास्य फूहड़ नहीं था और न ही केवल मनोरंजन मात्र।वे समाज की विद्रुपताओं को हास्य की कोटिंग में लपेटकर इस तरह पेश करते कि जब यह कोटिंग उतरती तो  विद्रुपताओं का नग्न स्वरूप मस्तिष्क को कचोटने लगे और हम सोचने को मजबूर हों।वे निश्चित ही हास्य व्यंग्य के बड़े रचनाकार थे और उनके द्वारा प्रयुक्त हर विधा में हास्य व्यंग्य का पुट यत्र तत्र मिल ही जाता है।
जयपुर के वरिष्ठ साहित्यकार वरुण चतुर्वेदी ने अपने संस्मरण साझा करते हुए कहा बात  सन् १९६८ की है। उस समय मैं १८ वर्षीय आयु का कालेज विद्यार्थी हुआ करता था। यह बात भरतपुर में प्रतिवर्ष दशहरे पर लगने वाले जशवंत प्रदर्शनी के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन की है जिसमें भरतपुर के केवल तीन कवियों को काव्यपाठ का अवसर दिया गया था जिनमें स्व.धनेश 'फक्कड़',स्व.मूल चंद्र 'नदान' और मैं मंच पर उपस्थित थे। उस कवि सम्मेलन की टीम में देश के सिरमौर गीतकारों व सिरमौर हास्य-व्यंग्य कवियों का जमघट था।गीतकारों‌ में, स्व.नीरज जी,स्व.शिशु पाल निर्धन जी, आदरणीय बड़े भाई सोम जी, हास्य-व्यंग्य कवियों में स्व.काका हाथरसी जी, स्व.निर्भय हाथरसी जी, जैमिनी हरियाणवी जी,स्व.अल्हड़ बीकानेरी जी,स्व. मुकुट बिहारी 'सरोज' जी, स्व.विश्वनाथ विमलेश जी,स्व. हुल्लड़ मुरादाबादी जी व वीर रस के कवियों में स्व.देव राज दिनेश जी,स्व.राजेश दीक्षित जी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन सुविख्यात मंच संचालक स्व.बंकट बिहारी जी पागल कर रहे थे।कवि सम्मेलन निरंतर यौवन की ओर बढ़ रहा था। जब स्व. हुल्लड़ जी को काव्यपाठ के लिए बुलाया गया तो उनका नाम सुनते ही‌ करीब २५/३० हजार श्रोताओं ने तालियों से जो स्वागत किया वह अविस्मरणीय है।तत्पश्चात उनके काव्यपाठ का जादू मैंने मंचस्थ कवि के रूप में देखा वह अद्भुत था। हुल्लड़ जी से सान्निध्य का यह पहला अवसर था।चूँकि वह हास्य-व्यंग्य के कवि थे और मैं भी हास्य-व्यंग्य की पैरौडियाँ लेकर मंच पर आया था तो उनके साथ कितने कवि सम्मेलन शेयर किये यह अब याद नहीं।
सब टी वी के बहुत खूब और वाह वाह क्या बात है ‌सैट‌ पर भी मिलना भी होता रहता था।
उनके जीवन काल में ही‌ उनके सुपुत्र स्व.नवनीत ने भी हास्य कवियों में अच्छा स्थान बना लिया था। लेकिन क्रूर काल ने उसे अल्पायु में ही ग्रस लिया।
उसके साथ किया मथुरा का अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आज भी स्मृतियों में घूमता है।उस कवि सम्मेलन के करीब एक महीने बाद ही उसका स्वर्गवास हो गया था।
हास्य व्यंग्य के प्रख्यात साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि मैं , सन् १९७० में ही अपनी मित्र मंडली के साथ हुल्लड़ जी के संपर्क में आ गया था।श्रद्धावनत उनके प्रति यही कह सकता हूं कि यदि सुशील कुमार चड्ढा हुल्लड़ मुरादाबादी न हुए होते तो कारेन्द्र देव त्यागी मक्खन मुरादाबादी न हुआ होता। हुल्लड़ जी को जीने के लिए प्रसिद्धि का चरम मिला है साथ ही इसी दुनिया में पीने के लिए वह भी,जो उन्हें नहीं मिलना चाहिए ।
आगरा की ऋचा गुप्ता नीर ने कहा कि कवि सम्मेलन के बड़े कवि मंच पर वही सुनाते हैं जो श्रोता सुनना चाहता है। इससे उनकी मूल रचनाओं से श्रोता वंचित रह जाता है। धन्यवाद प्रगति मंगला परिवार जो ऐसे कवियों से परिचित कराता है जिनकी रचनाओं से हम अब तक वंचित रहे हैं। हुल्लड़ जी के व्यंग्य, कुन्डलियां, गजलें पढ़ कर बहुत कुछ ज्ञान लाभ हुआ।         
मुरादाबाद के युवा ग़ज़लकार जिया जमीर ने कहा कि मैं  हुल्लड़ मुरादाबादी जी को हास्य और व्यंग्य कवि के रूप में जानता था। मगर जब जानकारी हुई कि हुल्लड़ जी ने ग़ज़लें भी कहीं हैं तो उन्हें पढ़ा। दो चार जगहों को छोड़ कर उन ग़ज़लों में कहीं भी कोई कमी नहीं है, अगर व्याकरण की बात की जाए। हैरत होती है कि क्या आसान ज़बान, क्या आम बोलचाल की हिंदुस्तानी ज़बान का इस्तेमाल हुल्लड़ जी ने अपने यहां किया है। अगर कोई यह देखना चाहिए और सवाल पूछना चाहे कि हुल्लड़ मुरादाबादी इतने मशहूर क्यों हुए। तो उसका सबसे अच्छा जवाब उनकी ग़ज़लें हैं और ग़ज़लों की यह ज़बान है। बिल्कुल सामने के बोलचाल वाले बल्कि कहना चाहिए जिन्हें हम साहित्यकार गैर साहित्यिक अल्फ़ाज़ कहते हैं उनको उठा कर उन्होंने साहित्यिक अल्फ़ाज़ बना दिया। उनके मक़बूले-आमो-ख़ास होने की सबसे बड़ी वजह मुझे लग रही है कि उनकी साहित्य और व्यंग पर पकड़ तो थी ही, इसके अलावा उन्होंने जितनी सादा ज़बान में उन्होंने अपने एहसासात को शायरी और कविता बनाया, वो कमाल किया। यह बड़ा मुश्किल काम है। सड़क पर चलने वाला एक आम आदमी जिसे सिर्फ़ आम ज़बान आती है उस तक उनकी रचनाएं पहुंचती थीं और वह आनंदित होता था और उसका आनंद तालियों और दाद के ज़रिए उन तक पहुंचता था। यही सबब है कि उन्होंने हिंदुस्तान में और हिंदुस्तान के बाहर भी अपने हास्य और व्यंग्य की कविताओं और रचनाओं से धूम मचायी।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि हुल्लड़ जी की रचनाएं पढ़ने के बाद अंदाजा होता है कि हुल्लड़ जी की मकबूलियत का राज उनकी भाषा में छिपा हुआ है। उन्होंने आम आदमी के दुख दर्द को समझा और उसी की भाषा में पेश करके यह सिद्ध कर दिया कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
उनकी रचनाएं बताती है कि उन्होंने बड़ा बनने के लिए शायरी नहीं की बल्कि उन्होंने बुनियाद के उन पत्थरों को देखा जिस पर समाज की नींव टिकी होती है, उनकी पीड़ा को समझा जो समाज के कर्णधार होते हैं, उन्होंने समाज को हर दृष्टि से देखा समझा और उसे आत्मसात किया फिर उन तमाम कड़वाहटों को हास्य व्यंग की चाशनी लगाकर पेश किया क्योंकि उनकी शायरी बामकसद थी, सिर्फ हंसना हंसाना , व्यंग के तीर चला ना ही उनका मकसद नहीं था बल्कि समाज को सही दिशा देना भी उनका मकसद था। अतः जो बात उन्होंने कही वह दिल से कही लिहाजा दिलों तक पहुंची, जिस दिल तक भी पहुंची उस दिल में उनके लिए घर बनता चला गया और वह हर दिल की आवाज बन गए। उन्होंने समाज को एक सही दिशा में ले जाने का काम किया जो एक सच्चे साहित्यकार की पहचान है। अतः वह अपने इस कार्य के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे,जब जब हास्य व्यंग का इतिहास लिखा जाएगा वह उसमें अवश्य ही जगह पाएंगे।
मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा कि आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी का मुझे बहुत स्नेह मिला। बात 1990-91 की है। मैं अमर उजाला में सर्विस करता था। ड्यूटी रात की होती थी, दोपहर में फ़्री होता था। उस समय हुल्लड़ जी का मकान बन रहा था। मोबाइल तो उस समय थे नहीं। शाम के समय अमर उजाला में ही हुल्लड़ जी का फोन मेरे पास पहुंच जाता था- "नाज़ भाई, कल हमारी तरफ़ आइएगा। मैं पहुंचता था और घंटों तक साहित्य पर चर्चा होती रहती थी। हुल्लड़ जी का सान्निध्य मुझे लगातार मिला। एक-दूसरे की रचनाएं सुनते-सुनाते रहते थे। उस समय हुल्लड़ जी का ग़ज़ल लेखन आरंभ हुआ। बातचीत के दौरान उनसे ग़ज़ल पर चर्चा भी होती थी। मुझे उनसे सदैव बड़े भाई का प्यार मिला। मैं उनके पारिवारिक सदस्य की तरह था। हुल्लड़ जी मंच के स्टार थे। लोग उनको सुनने के लिए देर रात तक बैठे रहते थे। महानगर में विशेष अवसरों पर आयोजित होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों में वह मुझे अपने साथ ले जाते थे। मैं भी उस समय मुरादाबाद में नवागत था। हुल्लड़ जी मुझे बाहर भी कई कार्यक्रमों में अपने साथ ले गए। उनकी एक विशेषता मैंने बड़ी शिद्दत के साथ महसूस की। यह उनका प्यार ही था कि अन्य शहरों में आयोजित कार्यक्रमों में ले जाते समय भी वह मुझे ख़र्च नहीं करने देते थे। एक सुंदर घटना याद आ रही है। अक्टूबर 1992 में मेरे जुड़वां पुत्र पैदा हुए। उनमें जन्म के बाद ही एक बच्चा अत्यंत बीमार पड़ गया, तो मैंने उसे डॉक्टर वी.के. दत्त के क्लीनिक में भर्ती करा दिया। हुल्लड़ जी को पता चला तो वे क्लीनिक में आए, मुझसे मिले और ₹1000 मेरी जेब में डाल दिए। मैंने पूछा भाई साहब यह किसलिए, तो बोले कोई बात नहीं, बाद में मुझे लौटा देना। उसके बाद वह चले गए। तीन-चार दिन तक अस्पताल में रहने के बाद जब डिस्चार्ज होने के समय बिल बना तो वह बहुत मामूली था। दत्त जी जैसे महंगे डॉक्टर का बिल इतना कम देखकर मुझे हैरत हुई। मुझे लगा कि इसमें कुछ जोड़ने से शेष रह गया है। मैंने कंपाउंडर से कहा कि भाई पूरा बिल लेकर आइए। उसने कहा कि आपका पूरा बिल यही है। मैं जब डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो राज़ खुला। डॉक्टर साहब बोले कि हुल्लड़ मुरादाबादी जी आए थे और आपके बारे में कह रहे थे कि यह मेरे छोटे भाई हैं, ख़याल रखना। तब मुझे समझ मे आया कि मेरा बिल इतना कम क्यों है।

 जयपुर की साहित्यकार डॉ सुशीला शील ने कहा कि
मैं 12 वीं कक्षा में पढ़ती थी,तब सुनी थीं उनकी कविताएं टेपरिकार्डर के माध्यम से अपने मामाजी के यहाँ ।नहीं मालुम था कि ईश्वर सौभाग्य देगा सुनाने वाले से न सिर्फ मिलने का,अपितु  उनके साथ बहुत से मंचों पर काव्य-पाठ करने का और उनके आमंत्रण पर मुरादाबाद में कविसम्मेलन पढ़ने का,उनके घर आतिथ्य प्राप्त करने का । मुझे पहली बार कहाँ मिले ये तो याद नहीं,परन्तु उनके स्नेहिल निमंत्रण पर मुरादाबाद उनके घर रुकना,जिसमें श्रद्धेय कृष्णबिहारी नूर जी ,सोम ठाकुर जी,कुँवर बैचैन जी,सुरेन्द्र चतुर्वेदी जी,सुरेन्द्र सुकुमार भी थे। दोपहर का भोजन हुल्लड़ जी के घर में ही था । मैंने भी रसोईघर में सहयोग किया और सबने मिलकर भोजन का आनंद लिया । रात्रि में कविसम्मेलन बहुत शानदार रहा। उनकी बहुत सी कविताओं में से  एक प्रसिद्ध कविता थी- अच्छा है पर कभी-कभी
  निम्बाहेड़ा के कविसम्मेलन में उन्होंने यह कविता पढ़ी,तुरंत मेरा नाम पुकारा गया और मेरे आशु रचनाकार मन ने दो पंक्तियाँ सृजित कर हास्य के लिए सुनाईं-
  बहुत बार सुन ली ये कविता,अब तो नया सुनाओ जी
श्रोताओं से पंगा लेना अच्छा है पर कभी-कभी ।।
   हँसी के फुहार उठी और मैंने अपना वास्तविक काव्यपाठ के बाद मंच पर बैठकर उनसे क्षमा याचना की। बड़े सरलता से उन्होंने कहा-अरे कोई बात नहीं,ये तो चलता है,चलता रहना चाहिए पर मुझे अच्छी लगी तुम्हारी पँक्तियाँ,खूब लिखो और आगे बढ़ो ।
डॉ रंजना शर्मा, कोलकाता ने कहा कि पटल पर उनकी कविताएं पढ़ कर सचमुच आनंद से भर उठी । कई साल पहले घर में दो पत्रिकाएं धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान आती थीं। हिंदी प्रदेश से बंगाल पिताजी के तबादले के कारण चले आने से पत्रिकाएँ  बमुश्किल मिलती थी। उनमें हुल्लड़ जी की कविता हम मजे लेकर पढ़ते थे, आपने पुरानी याद ताजी कर दी।
गुना( मध्य प्रदेश) की साहित्यकार नीलम कुलश्रेष्ठ ने कहा कि मुझे भी बस उन्हें टी वी कार्यक्रमों में सुनने और समाचार पत्रों में पढ़ने का ही अवसर मिला था। इस पटल पर उनकी रचनाएं एवं साहित्य कीर्ति को पढ़कर आज उनकी रचनाधर्मिता से खासा परिचय हो गया। उनकी रचनाएं वास्तव में ऐसी हैं जिन्हें लोग आज भी  सुनकर या पढ़ कर ठहाके लगाने पर विवश हो जाते हैं।
साहित्यकार  डॉ प्रतिभा प्रकाश , रोपड़ (पंजाब) ने प्रगति मंगला पटल की सराहना करते हुए कहा कि इस आयोजन के माध्यम से  मैंने आज पहली बार हुल्लड़ मुरादाबादी के बारे में गम्भीरता से सोचा समझा और जान सकी । इसके लिए मै सभी प्रस्तुति कर्ताओं का आभार व्यक्त करती हूं ।
जयपुर की साहित्यकार प्रशंसा श्रीवास्तव ने कहा कि हुल्लड़ जी मेरे पिता स्व० कवि बंकट बिहारी "पागल" जी के परममित्रों मे से एक थे , ज्यादातर मंच दोनों ने साथ में साझा किए।  उनके दोहे सुनकर श्रोता हंसते हंसते लोटपोट होने लगते थे। हुल्लड़ चाचा के कुछ ऐसे ही दोहों पर नजर डालिए-
कर्जा देता मित्र को वो मूरख कहलाय
महामूर्ख वो यार है
जो पैसे लौटाय
पुलिस पर व्यंग्य करते हुए लिखा है-
बिना जुर्म के पिटेगा
समझाया था तोय
पंगा लेकर पुलिस से
साबित बचा न कोय
उनका एक दोहा- पूर्ण सफलता के लिए, दो चीजें रख याद, मंत्री की चमचागिरी, पुलिस का आशीर्वाद।’ राजनीति पर उनकी कविता- ‘जिंदगी में मिल गया कुरसियों का प्यार है, अब तो पांच साल तक बहार ही बहार है, कब्र में है पांव पर, फिर भी पहलवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं...।’ उन्होंने कविताओं और शेरो शायरी को पैरोडियों में ऐसा पिरोया कि बड़ों से लेकर बच्चे तक उनकी कविताओं में डूबकर मस्ती में झूमते रहते थे ।
नोएडा की साहित्यकार
नेहा वैद का कहना था कि हुल्लड़ जी की लेखनी को एक साथ इतने रुपों में पढ़ना जानना, बड़ी सुखद अनुभूति है। चंदौसी की वार्षिक छपने वाली स्मारिका 'विनायक' में मेरे गीतों को भी छपने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। 1982-83 में इगलास में उनके साथ मंच पर होना बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उनके सुपुत्र नवनीत जी के साथ कुछ वर्ष पहले जब मैं भी  मुंबई गोरेगांव ही रहती थी, स्थानीय मंचों पर कई बार गीत पढ़ें। आज आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी को समर्पित पटल सचमुच धन्य हो रहा है। आप सभी विद्वान-साहित्यकारों द्वारा संचालित/सांझा की जा रही उनकी रचनाओं और संस्मरणों से मन अभिभूत हो रहा है।
गुना (मध्य प्रदेश) की रानी शक्ति भटनागर ने अतीत की स्मृतियां साझा करते हुए कहा कि हुल्लड़ मुरादाबादी जी  उनके भाई श्री ज्ञान स्वरूप भटनागर जी की  के सहपाठी व मित्र रहे । उन्होंने उनके कॉलेज के समय का एक संस्मरण भी प्रस्तुत किया ।
हुल्लड़ मुरादाबादी जी की सुपुत्री मनीषा चड्डा ने कहा कि ऐसा कोई समय नही होता था कि पापा लिख न रहे हों।चाहे रात के 2 बजे हों अगर उन्हें कोई पंक्ति सूझ गयो तो उठ कर पूरी कविता पूरी करते थे।ट्रैन की टिकट हो या कोई रसीद जो जेब में होता था उसपर भी लिख देते थे।मंच पर बैठे बैठे भी उसी वक़्त कविता बना लेते थे। उनका जन्म ही लेखन के लिए हुआ था। उनका प्रस्तुतिकरण बहुत अच्छा था।अंत समय तक वो लिखते रहे और ज़िद करते थे कविसम्मेलन में जाने के लिए। घर में ठहाकों की गूंज होती थी उनकी और भैया की।वो हमारे बीच में अपनी अनगिनत कविताओं ,गीतों,और ग़ज़लों के रूप मे हमेशा जीवित रहेंगे।