गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार (वर्तमान में नोएडा निवासी ) सपना सक्सेना दत्ता की रचना -----माटी का कर्ज चुकाते हैं, स्वेद-लहू बहाते हैं । हम धरती-पुत्र कहाते हैं, पर नेता नहीं सुन पाते हैं।।


 माटी का कर्ज चुकाते हैं।

स्वेद-लहू बहाते हैं ।।

हम धरती-पुत्र कहाते हैं। 

पर नेता नहीं सुन पाते हैं।।


हाड़ कँपाती सर्दी में, 

मौसम की बेदर्दी में। 

खुली सड़क पर बैठे हैं, 

बैठे,खड़े,अधलेटे हैं ।

भूख प्यास को भूल भाल,

जीवन लगता, बन रहा काल। 

तीन नियमों के विरोध में,

जीवन के गतिरोध में। 

अपनी बात सुनाते हैं ।

पर नेता सुन नहीं पाते हैं।।


जीवन सारा बलिदान किया,

धरती माँ का सम्मान किया।

जिन तन पर पूरे वसन नहीं,

सर्दी-गर्मी की तपन सही।

किस विधि खेत बचाएंगे,

अब कैसे कर्ज चुकाएंगे।

 कर्ज़ भी है, जुर्माना है, 

विपदा का विषम खजाना है।

वह किसान कहलाते हैं।

पर नेता सुन नहीं पाते हैं।।


पराली से प्लेटें बनाओ तुम,

प्लास्टिक को दूर भगाओ तुम।

बायोडीजल बन सकता है,

पौष्टिक चारा बन सकता है।

पशुचारा पर्वत पहुंचाओ,

प्रगति की राह पर तुम आओ।

कल कारखाने लगाओ तुम,

कुछ आगे तो भी आओ तुम।

क्या करना है? बतलाते हैं।

पर नेता सुन नहीं पाते हैं।। 


पराली नहीं जलाएंगे, 

कंपोस्ट खाद भी बनाएंगे।

मशरूम उत्पादन कर लेंगे,

पैकिंग पशु चारे में देंगे।

जितनी लागत जितनी मेहनत,

भरे बरस की जब आगत।

तब मूल्य अवमूल्यन होता है,

पूरा परिवार जब रोता है।

लागत की राशि न पाते हैं।

पर नेता सुन नहीं पाते हैं।।


माटी का कर्ज चुकाते हैं। 

स्वेद-लहू बहाते हैं ।।

हम-धरती पुत्र कहाते हैं। 

पर नेता सुन नहीं पाते हैं।।

✍️ सपना सक्सेना दत्ता, सेक्टर 137, नोएडा 

बुधवार, 9 दिसंबर 2020

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। मंगलवार 3 नवंबर 2020 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों अशोक विद्रोही, डॉ ममता सिंह, रेखा रानी, डॉ शोभना कौशिक, धर्मेंद्र सिंह राजोरा, अटल मुरादाबादी, प्रीति चौधरी, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, दुष्यंत बाबा, डॉ रीता सिंह, मीनाक्षी ठाकुर, अशोक विश्नोई और कंचन खन्ना द्वारा प्रस्तुत रचनाएं-----

 


मत समझो बालक हमको,

     दुश्मन के लिए शमशीर बनें।
शौर्य पराक्रम से हम कल के
          भारत की तकदीर बनें ।।
मां जीजा के वीर शिवा हम
            जग   ने  गाथाएं गाईं।
आंधी जैसा था बचपन  ,
       और तूफानी थी तरुणाई।।
मुगल बादशाह थरथर कांपे,
           भारत मां की पीर बनें।।
शौर्य पराक्रम से हम कल के,
             भारत की तस्वीर बनें।।
मां सीता के लवकुश हम ही,
              अश्व मेध घोड़ा रोका ।
दिखा दिया बाहूबल दमखम ,
            जब पाया हमने मौका।।
अन्यायों से लड़ें सदा हम,
           युद्ध लड़े  रणधीर  बने।।
शौर्य पराक्रम से हम कल के,
          भारत  की  तस्वीर  बनें।।
अभिमन्यु ने गर्भ काल में ,
       ग्रहण किया था दुर्लभ ज्ञान।
अद्भुत रण कौशल दिखलाया,
        शत्रु  का  तोड़ा अभिमान।।
रथ पहिया ले बढ़ा निहत्था,
        भले  काल  थे  तीर बने ।।
शौर्य पराक्रम से हम कल के,
          भारत  की  तस्वीर बनें।।

✍️ अशोक विद्रोही विश्नोई, 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद, मोबाइल फोन नम्बर 82 188 25 541
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चूहे खाये बिल्ली रानी।
आखिर कब तक यही कहानी।।

बहुत सह चुके अब न सहेंगे ,
बिल्ली तेरी ये मन मानी।।

हम चूहों को खा-खा कर तुम ,
खुद को समझी ज्ञानी ध्यानी।।

शक्ति एकता में है कितनी ,
बात न अब तक तुमने जानी।।

ख़ूब भगा कर मारेंगे हम,
याद करा देंगे फिर नानी।।

छोड़ो खाना चूहे अब तुम ,
ढूंढो दूजा दाना पानी।।

✍️ डाॅ ममता सिंह, मुरादाबाद
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सोनू मोनू मोबाइल में
घंटों से कुछ सीख रहे हैं।
आंखें थकी हुई सी बोझिल
दोनों टिम- टिम  मींच रहे हैं।
आज यकायक मोनू को
  एक शरारत सूझी।
  ऑन लाइन शिक्षण के बहाने
   फ़ोन मिला था चूंकि।
   गेम रिचार्ज  कराने हेतु
    नेट बैंकिंग जरूरी।
  एटीएम पापा का ले
   झट से की प्रक्रिया पूरी।
  खाता खाली का मैसेज पा
   पापा  माथा पीट रहे हैं।
ऑन लाइन शिक्षण को ले
  अभिभावक भी खीज रहे हैं।
  माना रोचकता है काफी,
   प्रशस्त विकास का मार्ग हुआ।
   किन्तु इस मोबाइल युग में
  गुम सा  बचपन होने लगा है।
   रेखा कुछ तरकीब लगाएं।
   स्वस्थ मधुर बचपन दे पाएं।
 
✍️ रेखा रानी , गजरौला, अमरोहा
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आओ एक खेल खेलें हम ।
आँख -मिचौनी खेलें हम ।

तन्नू ,गोलू ,चिया, डुग्गू ,।
दौड़ -दौड़ कर खेलों तुम ।

हाथ न किसी के आना तुम ।
बच के हर किसी से रहना तुम ।

खेल हैं, सेहत के लिये अच्छे।
इनसे दोस्ती करके रहना तुम ।
✍️  डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद
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मम्मी पापा धर लो ध्यान
कहता है यही विज्ञान
पेड़🌴 लगाने है मिलजुल के
बड़े फायदे हैं जंगल के
फल फूल लकड़ी ईंधन
जीवन दायनी आक्सीजन
वातावरण शुद्ध बनायें
वर्षा ऋतु में वर्षा लायें
इनसे मिलती जड़ी बूटियां
दाल अनाज हरी सब्जियां
बड़े काम के है ये वन
इनसे मिलता है जीवन

✍️  धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

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लंबू चाचा आये हैं।
खेल खिलोने लाये हैं।

रंग बिरंगे गुब्बारे हैं।
कांधे सबकुछ धारे हैं।।
बारह मन की धौबन है।
धरे बांसुरी मोहन है।
सबके मन पर छाये हैं।
लंबू चाचा आये हैं।।

काॅधे रखी गठरिया है।
उस पर चढी बॅदरिया है।
सॅग में एक जमूरा   है।
बॅदरी बिना अधूरा है।
जाने क्या क्या लाये हैं।
लंबू चाचा आये हैं।।

✍️ अटल मुरादाबादी, नोएडा
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बच्चों तुम चलते चलो, ले आशा के दीप।
ले जायेंगे लक्ष्य के, तुमको यही समीप।।

साहस रख बढ़ते चलो, अन्धेरे को चीर।
पथ अपना है ढूँढता, जैसे नदिया-नीर।।
                              
✍️  प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा
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आसमान से उतरीं परियाँ
लेकर  जादू   की  छड़ियाँ
फैल गया हरओर उजाला
चमकीं मोती की  लड़ियाँ।

सोने   सी  पोशाकें   उनमें
जड़ी  हुईं    मुक्ता-मणियां
हँसने पर  झरती फूलों की
महक   लुटातीं   पंखुरियाँ।

चांदी जैसे  पंख  हिलाकर
करतीं  नृत्य  सभी  परियाँ
बंधन मुक्त हुई स्वर लहरी
खुलने लगीं सभी कड़ियाँ।

चहुंदिस सजीं दीपमालाएं
छुटी प्यारकी फुलझड़ियां
रंग   बिरंगी   रंगोली    से
सजा रहीं आंगन सखियां।

कोटि-कोटि आशीष देरहीं
अम्बर  से  उतरीं   परियाँ
खील-बताशे बांट-बांटकर
घर-घर भेज रहीं  खुशियां।

मैं भी परियों के  संग नाचूँ
महक उठें मन की कलियां
जाग उठे अलसाया जीवन
महकें  जीवन  की  बगियाँ।
         
✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र, मो0-   9719275453
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आज से अच्छा था समय वह पुराना
बहुत याद आता है वो गुजरा जमाना

हाथ से नेकर पकड़ के टायर चलाना
कंचों के जीतने पर अंगुली  चटकाना

ट्यूवेल पर जाकर मन भर के नहाना
चप्पल काटकर ट्रेक्टर-ट्रॉली  बनाना

गरीबी में अमीरी का अहसास पा जाना
वो वर्षा के पानी जहाज का चलाना

बागों में  पेड़ों पर उछल-कूद  मचाना
उबलती हांडी  दूध-मलाई भी चुराना

हीरो-हीरोइन के  फ़ोटो  खूब सजाना
माचिस को फाड़कर ताश का बनाना

हमको  संशाधनों  से  नही था तकाजा
पूर्ण आत्मनिर्भर था वो गुजरा जमाना

✍️ दुष्यंत 'बाबा', पुलिस लाईन, मुरादाबाद
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वृक्षो का दरबार

देखी जंगल में इक बस्ती
एक से एक बड़ी है हस्ती ,
रहते वृक्ष मानुष की भाँति
करते बहुत वहाँ वे मस्ती ।

बरगद पेड़ों का बन राजा
जब जी चाहे सभा बुलाता ,
घनी घनी अपनी छाया में
वृक्षों का दरबार सजाता ।

जटा बने हाथों से अपने
सब को है आदेश सुनाता ,
सेनापति बनाकर पीपल को
पेड़ों की रक्षा करवाता ।

आम वृक्ष बना महामंत्री
जंगल का पोषक बन जाता ,
नीम चिकित्सक - सा खड़ा हो
निर्माण औषधि का करवाता ।

दे आदेश सभी फूलों को
वन भवन में महक बिखराता ,
सुरभित तन मन रहते सबके
रोग शोक है कभी न छाता ।

चीड़ ,साल, सागौन, कीकर
सब उसके ही दरबारी हैं ,
जंगल की इस भरी सभा पर
स्वस्थ वसुन्धरा सारी है ।

✍️ डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद
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मक्कार लोमड़ी
सुंदरवन  में सभी पशु -पक्षी मिलजुल कर रहते थे।वहाँ का राजा शेरसिंह  था।शेरसिंह मनोरंजन हेतु प्रत्येक माह में एक बार रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन करता था ।उस दिन कोई जानवर किसी का शिकार नहीं कर सकता था।अतः सभी जानवर निडरतापूर्वक उस आयोजन में हिस्सा लेते थे।जो आयोजन में हिस्सा नहीं लेते थे, दर्शक बनकर कार्यक्रम का आनंद लेते थे।
हर बार की तरह  इस बार भी  आयोजन नियत समय पर प्रारंभ हो गया।सबसे पहले  साँवरी कोयल ने आकर मधुर स्वर में गीत सुनाया। तत्पश्चात रंगीले मयूर ने मनमोहक नृत्य किया जिसे देख सभी पशु- पक्षी झूम उठे ।मोहिनी मैना ने बहुत सुंदर कविता सुनायी, तो हरियल तोते ने  मधुर भजन। चीनू चीते ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया तो भोलू भालू ने नये -नये करतब दिखाये।बंटी बंदर ने सभी को बहुत हँसाया। सभी दर्शक  तालियाँ बजाकर प्रतिभागियों का उत्साहवर्धन कर रहे थे ।
परंतु यह बात नीलू लोमड़ी को ज़रा भी अच्छी नहीं लग रही थी।ताली बजाना तो दूर,उल्टे नाक भौं सिकोड़कर सबकी मज़ाक बना रही थी।यह देखकर शरारती  चीकू खरगोश से रहा नहीं गया और उसने मंच पर जाकर माइक से उद्घोषणा कर दी "आइये !!अब मिलते हैं नीलू मौसी से,कृपया  नीलू मौसी जी मंच पर आयें और अपनी प्रस्तुति दें...!!कृपया सभी  ज़ोरदार तालियों से नीलू मौसी जी का स्वागत करें !!"यह सुनते ही नीलू लोमड़ी सकपका कर बगलें झाँकने लगी,परंतु अब  क्या कर सकती थी?अब तो माइक से उसके नाम की  आवाज़ लग गयी थी,अतः मंच पर  जाना  ही पड़ा।
परंतु उसे तो न नाचना आता था,न गाना और न बजाना।बेचारी कोई करतब भी नहीं दिखा सकी ।जब उसे बहुत देर खड़े खड़े हो गयी तब दर्शकों में से हूटिंग की आवाज़ें आने लगीं ।तभी मीनू हिरनी ने खड़े होकर हँसते हुए पूछा,"आखिर तुम्हें आता क्या है जी ?...जो आता है वही करके दिखा दो..."
"म..म..मक्कारी !!"नीलू लोमड़ी के मुँह से हड़बड़ी में  निकल गया।
इतना सुनते ही सभी  पशु- पक्षी ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे और नीलू लोमड़ी  दुम दबाकर  वहाँ से भाग  खड़ी हुयी।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
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राजा कौन बनेगा ?

     जंगल के सभी पशु पक्षियों की मीटिंग में यह तय हुआ कि इस बार जंगल का राजा किसको बनाया जाये।आखिर प्रस्ताव पास हुआ और बन्दर को राजा बना दिया गया।एक दिन वास्तविक जंगल के राजा शेर ने लोमड़ी को दबोच लिया, जंगल में हड़कम्प मच गया।सभी ने एक स्वर में राजा बना बन्दर से कहा अरे क्या देख रहे हो लोमड़ी को बचाओ जल्दी से।अब बन्दर कभी इस डाली तो कभी उस डाली पर दौड़ता रहा ,आखिर शेर ने लोमड़ी का अंत कर दिया।सभी जंगल के पशु पक्षी नाराज़ हो गए और बन्दर से बोले क्या तुम्हें इसलिए राजा बनाया था।बन्दर बोला मैने तो बहुत मेहनत की पर क्या करता ।वास्तव में उसने मेहनत तो बहुत की कभी इस डाली तो कभी उस डाली।अब शेर जो गुर्राया तो बन्दर का पता नहीं चला कहाँ गया।

✍️ अशोक विश्नोई , मुरादाबाद
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मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार अशोक मधुप की रचना -----कुछ गलती तो थी अपनी, क्यों ये विषधर पाले जी? नेता जी के दमपर ही खुश हैं साली - साले जी।


 मॉल रहे या माले जी।

 रुके नहीं घोटाले जी।

गंगा ही बस पावन है,

दूषित नदियाॅ, नाले जी।

उनके घर पकवान बने हैं,

इनके रोटी-  लाले जी।

कुछ गलती तो थी अपनी,

क्यों ये विषधर पाले जी?

नेता जी के दमपर ही

खुश हैं साली - साले जी।

योगी मोदी अच्छे हैं,

अधिकारी मतवाले जी।

नए -नए हथकंडों से ,

करते काम निराले जी।

फाइल पैसे से चलती,

 कैसे  काम निकालें जी।

आओ बैठो सोचें कुछ,

बिगड़ी बात बनालें जी।

 क्या लाये या ले जाएंगे ?

 मन को ये समझालें जी,

बुरा समय आया था कल ,

भाग गये हमप्याले जी।

✍️ अशोक मधुप

25- अचारजान, कुंवर बाल गोविंद स्ट्रीट, बिजनौर 246701, उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार ओंकार सिंह विवेक के ग़ज़ल संग्रह --"दर्द का अहसास " की नवीन कुमार पांडेय द्वारा की गई समीक्षा ----

          ओंकार सिंह विवेक के  ग़ज़ल संग्रह "दर्द का अहसास" मेरे सामने है। इस ग़ज़ल संग्रह को जब पढ़ते हैं तो पाते है कि ग़ज़लकार ने जिस पैनी नजर से ज़िन्दगी को देखा और संघर्षों से मिलने वाले दर्द को महसूस किया है, उसे शब्दों में साफगोई से बयां कर दिया है। अपनी और अपने आस पास के लोगों की ज़िन्दगी में चल रही जद्दोजहद हो या फिर समाज का बदलता रूप, दोस्ती, रिश्ते-नाते आदि जीवन के तमाम पहलुओं को बड़े ही आसान तरीके से अपने अशआरों में रख दिया है। जब आप इनके शेरों को देखेंगे तो पायेंगे  कि बड़ी से बड़ी बात को आम बोलचाल के लब्जों में पिरो दिया है, मुझे लगता है कि यही ग़ज़लकार का खास हुनर है। 

इसकी बानगी देखिये कि ----                         

 दर्द दिल में रहा बनके तूफ़ान-सा,                        

 फिर भी मैं मुस्कुराता रहा जिंदगी।                                                                                           

 एक और शेर देखिये----

जब घिरा छल फरेबों के तूफ़ान में,
मैंने रक्खा यकीं अपने ईमान में।           
                      

उनका यह नसीहत देता हुआ शेर देखिये-

जीवन में ग़म आने पर जो घबरा जाते हैं,

उनको हासिल खुशियों की सौग़ात नहीं होती।                  

दूसरा शेर है ----
  वक़्त के साँचे में ढल, मत कर गिला सदमात से
  ज़िन्दगी प्यारी है तो लड़ गर्दिशे-हालात से ।
   बेसबब ही आपकी तारीफ़ जो करने लगें,
   फासला रक्खा करें कुछ, आप उन हज़रात से।   
         

 इनका यह शेर भी आपको खूब पसंद आएगा--

अभी तीरगी के निशान और भी हैं,
उजाले तेरे इम्तिहान और भी हैं।। 
हुआ ख़त्म मेरा सफ़र कैसे कह दूं,.
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं।।

 इस ग़ज़ल के आखिरी शेर में सीख भी दी है कि----
अभी से मियाँ हौसला हार बैठे,
अभी राह में सख्तियाँ और भी हैं।।   
                            

  एक ग़ज़ल में उनका शेर देखिये कि----
आ गये हैं वो ही सब अफ़सोस करने, 
साजिशों से जिनकी यह बस्ती जली है।।       
                

 मौजूदा हालात के ये शेर देखिये कि------ 

लो वक़्त पे उसने भी किया मुझसे किनारा, 
मैं खुश था कि उससे मेरी पहचान बहुत है।।
भरोसा जिन पे करता जा रहा हूँ,
मुसलसल उनसे धोखा खा रहा हूँ।।     
                        

 इस शेर को भी आप पसंद करेंगे कि-----
असल कुछ है, कुछ बताया जा रहा है, 
आँकड़ों में सच छुपाया जा रहा है।।       
                                                                                    
एक और शेर देखिये जिसमें कर्म पर जोर दिया गया है------
जब भरोसा मुझको अपने बाजुओं पर हो गया,
साथ मेरे फिर खड़ा मेरा मुकद्दर हो गया।           
          

इस क़िताब में कुल 58 ग़ज़लें हैं। आशा है कि विवेक जी ने जिस अंदाज से अपनी ग़ज़लों का आगाज़ किया है, आगे हमें और भी बेहतर अशआर पढ़ने को मिलेंगे ।





कृति : दर्द का अहसास ( ग़ज़ल संग्रह)
कवि : ओंकार सिंह विवेक
प्रकाशक: गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद
मूल्य : 150₹

समीक्षक : नवीन कुमार पाण्डेय, 93, एल आई जी पुरानी आवास विकास कॉलोनी, सिविल लाइंस, रामपुर,उत्तर प्रदेश
मोबाइल फोन नंबर : 9411647489
मेल  : navin9rmp@gmail.com





सोमवार, 7 दिसंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था "हिंदी साहित्य संगम" की ओर से रविवार 6 दिसंबर 2020 को काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों अशोक विश्नोई, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, डॉ मनोज रस्तोगी, योगेंद्र वर्मा व्योम, अखिलेश वर्मा, अशोक विश्नोई, डॉ रीता सिंह, मीनाक्षी ठाकुर, राजीव प्रखर, अरविंद कुमार शर्मा आनंद, इंदु रानी, प्रशांत मिश्र, राशिद मुरादाबादी, जितेंद्र कुमार जौली, विकास मुरादाबादी और नकुल त्यागी द्वारा प्रस्तुत रचनाएं----

आओ  कोई   गीत  लिखें ,

अपनी-अपनी प्रीत लिखें ।
      करें कल्पना
      हम स्वप्न बुनें ,
      कली खिलायें
      शूल चुनें ,
एक नई हम रीत लिखें ।
       दर्द सहें
       कुछ रंग रचें ,
       खुशियां बाटें
       सजे -धजे ,
आज कही मनमीत लिखें ।
       सांझ ढल रही
       दीप जले ,
       शलभ उड़ रहे
       पंख जले ,
हार कहीँ , तो जीत लिखें ।
       शब्द जुटायें
       गीत गढ़े ,
       आराध्यों पर
       पुष्प चढ़ें ,
ग्रीष्म नहीं, हम शीत लिखें ।
आओ  कोई   गीत   लिखें ।।
             
✍️ अशोक विश्नोई, डी०12, अवन्तिका कॉलोनी, मुरादाबाद 244001
मो० 9411809222
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सबके  लिए  बनी यह  धरती
सबको  ही  जीने  का  हक है
शुद्ध   हवा,   पानी,  पेड़ों   में
जीवन  है  इसमें क्या  शक है।
      
हमने  अपनी स्वार्थ सिद्धि  में
इसकी  महिमा को  झुठलाया
शाक-भाजियां,  फल  मेवा में
बढ़ चढ़कर  ही ज़हर मिलाया
इसीलिए  हर   रोज़  धरा  पर
क्रूर  व्याधियों  की  आवक  है
सबके लिए बनी--------------

बच्चों  का जीवन  सिकुड़ा  है
कौर-कौर   बेस्वाद   हो   गया
सिर्फ    दवाएं     खाते - खाते
जीवन  ही   बर्बाद   हो   गया
कृत्रिम   दूध,  दही,  मट्ठे   की
बनी   शुद्धता   ही  भ्रामक  है।
सबके लिए बनी--------------

धरती   का  श्रृंगार   खो  गया
उजड़ा-उजड़ा चमन लग रहा
सूरज  की   गर्मी  से  जलकर
झुलसा-झुलसा  बदनलग रहा
दुर्गन्धों    के    साम्राज्य    से
लगती  कोसों   दूर  महक  है।
सबके लिए बनी--------------

कंक्रीट   के    जंगल    उपजे
रोज़  वनों  का  हुआ सफाया
भौतिक जीवन  की  चाहत ने
सबको  अपना  दास  बनाया
शुध्द  हवा  का  झोंका  मानो
लगता आज  बना  बंधक  है।
सबके लिए बनी-------------

सारा   आलस  दूर   भगाकर
आओ  मिलकर  पेड़  लगाएं
पोखर, ताल, बावड़ी सब  में
जीवन    का   संचार   कराएं
पर्यावरण   सुरक्षित   कर  लें
वरना तो  हर  पल  घातक है।
सबके लिए बनी ---------------

जीवों  का  अस्तित्व   बचाने
ऐसा      वातावरण     बनाएँ
खुशी-खुशी  हर जीव धरापर
उछलें    कूदें   मौज   मनाएँ
नहीं  सोचने  से  कुछ   होगा
सिर्फ   सोचना तो नाहक  है।
सबके लिए बनी-------------

✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,
मोबाइल फोन नम्बर  9719275453
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भोपाल गैस त्रासदी पर  -----

सुन रहे यह गैस आदमखोर है ।                               हर तरफ बस चीख दहशत शोर है ।।

बढ़ रहे हैं जिस सदी की ओर हम ।
यह उसी की चमचमाती भोर है ।।

मौत से क्यों इस तरह घबरा रहे ।
जिंदगी तो एक रेशम डोर है।।

इस तरह मातम मनाते क्यों भला।
देश तो अपना प्रगति की ओर है।।

मत कहो यह गैस जहरीली बहुत ।
आदमी ही आजकल कमजोर है।।

✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश,भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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तनिक नहीं संवेदना, का जिनमें उल्लेख
राजनीति लिखती रही, स्वार्थ पगे आलेख

लेकर फिर अभिव्यक्ति की, आज़ादी की ओट
राजनीति करने लगी, राष्ट्र हितों पर चोट

बस सत्ता के वास्ते, नैतिकता को छोड़
राजनीति करती रही, तोड़-फोड़-गठजोड़

जीवन का अस्तित्व भी, हो जब संकटग्रस्त
उचित कहाँ तक तब भला, राजनीति हो मस्त

क्या जनहित क्या राष्ट्रहित, ख़त्म हुए एहसास
नैतिकता को दे चुकी, राजनीति वनवास

इधर भूख से चल रहा, बाहर-भीतर द्वंद
राजनीति भी रच रही, उधर नये छल-छंद

✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, मुरादाबाद 244001
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तंज तुम बेवजह कसा न करो
दरमियां और फ़ासला न करो।

इम्तहां तो वफ़ा के ले लो पर
छोड़ दूँ तुम को ये कहा न करो।

फिर बखेड़ा खड़ा न हो जाए
बात का ऐसा तरज़ुमा न करो।

हमको फिर होश तक नहीं रहता
अपनी नज़रों से यूँ छुआ न करो।

देखो अशआर घुट न जाएँ कहीं
इतना चौड़ा भी हाशिया न करो।

वो है पत्थर पिघल नहीं सकता
उससे अब और इल्तज़ा न करो।

बात ' अखिलेश ' ने बताई जो
काम की बात है हवा न करो ।

✍️  अखिलेश वर्मा, मुरादाबाद
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अपनी खुशियों पे मत इतना इतराइये
दर्द औरों का भी थोड़ा अपनाइये !
जग से जाओ तो हर नैन में नीर हो,
काम जीवन में कुछ ऐसे कर जाइये!!

जिंदगी अनकही एक पहेली सी है,
हर छटा इसकी नूतन नवेली सी है!
संग खुशियों में अपनों के हैं काफिले,
पर विपत्ति में बेहद अकेली सी है!!

छोड़कर गांव तेरा चले जाएंगे,
लौटकर फिर न वापस कभी आएंगे!
कल को ढूंढोगे हमको तुम्हीं हर जगह,
आसमां में धुंआं बनके खो जायेंगे!!

दिल पे एहसान है आपका दोस्तों
प्यार जी भर मिला आपका दोस्तों!
जग से रुख़सत हुए तो ज़माना हुआ,
जी उठे साथ पा आपका दोस्तों !!

✍️ अशोक विद्रोही , 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
मोबाइल 82188 25541
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पथिक वही जो बढ़ता जाता
अवरोधों से कब घबराता ,
ऊँची-नीची सब राहों पर
बिना रुके ही चलता जाता ।

पाषाणों से जब टकराता
असंभव को संभव बनाता ,
बड़े बड़े तूफां से लड़कर
विजयी रथ पर चढ़ता जाता ।

गरमी सहता स्वेद बहाता
शीत ताप भी नहीं डराता
मंज़िल मिले न जब तक उसको
साहस गाथा गढ़ता जाता ।

✍️ डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद
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दोस्ती  करके किसी नादान से
हमने झेले हैं बड़े  तूफ़ान से।

दिल में रहते थे कभी जो हमनवां
आज क्यूँ लगते भला मेहमान से ।

साथ मेरे तू नहीं तो कुछ नहीं,
फ़िर गुलिस्तां भी लगे वीरान से।

याद ही बाकी रही अब दरम्यां
दिल के टूटे हैं कहीं अरमान से ।

खुदक़ुशी करना नहीं यूँ हारकर,
मौत भी आये मगर सम्मान से।

वो गये दिल तोड़कर तो क्या हुआ,
ज़िंदगी फिर भी चलेगी शान से ।

तंगदिल देंगे तुम्हें बस घाव ही,
आरज़ू करना सदा भगवान से ।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
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सोचता हूँ अब लिखूँ ऐसी सुहानी गीतिका।
साधना की राह पर अपनी कहानी गीतिका।

भावनाओं के भँवर को पार कर पहुँची पुलिन,
काव्य में ढलती हुई मुझ सी दिवानी गीतिका।

बाद मेरे भी रहे सबके दिलों को जीतती,
प्रेम से छोड़ी गयी मेरी निशानी गीतिका।

जो सुने उसके हृदय से दूर सब अवसाद हों,
है इसी उल्लास से मुझको सुनानी गीतिका।

हाथ में है लेखनी तो क्या भला रुकना 'प्रखर',
चल चला चल साथ है तेरी रवानी गीतिका।
कुछ दोहे
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आहत बरसों से पड़ा, रंगों में अनुराग।
आओ टेसू लौट कर, बुला रहा है फाग।।
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देख शरारत से भरी, बच्चों की मुस्कान।
बूढ़े दद्दू भी हुए, थोड़े से शैतान।।
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अभी मिटाना शेष है, अन्तस से अँधियार।
जाते-जाते कह गया, दीपों का त्योहार।।
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दिनकर पर पहरा लगा, चौकस हुए अलाव।
उष्ण वसन देने लगे, फिर मूँछों पर ताव

✍️ - राजीव 'प्रखर' , मुरादाबाद
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जिंदगी रंग हर पल बदलती रही।
साथ गम के ख़ुशी रोज़ चलती रही।।

शम्अ जो राह में तुम जला के गये।
आस में आपकी बुझती जलती रही।।

रिफ़अतें जो जहाँ में अता थी मुझे।
रेत सी हाथ से वो फिसलती रही।

क्या कहूँ दोस्तों दास्ताँ बस मिरी।
शायरी बनके दिल से निकलती रही।।

जो खिली रौशनी हर सुबह जाने क्यों।
शाम की आस में वो मचलती रही।।

क्या बचा अब है 'आनंद' इस दौर में।
लुट गया सब कलम फिर भी चलती रही।।

✍️ अरविंद कुमार शर्मा "आनंद", मुरादाबाद (यू०पी०)
मोबाइल 8979216691
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इस हिन्द का फौजी जो तू बन कर नही देखा
जानो कभी भी सच को उठा कर नही देखा

कुरबान है ये हिन्द तो मजबूरी से बंधकर
इस देश की बिगड़ी दशा को गर नही देखा

पुरजोर राजनीतियां चीखों को भी सुन कर
बनते हुए बद हाल को बदत्तर नही देखा

बस नाम का ही रह गया ,लोकतंत्र शब्द भर
बिकते हुए वीभाग औ दफ्तर नही देखा

भीखों मे कहे दे दया, हर कौम जातियां
आँखों मे बह रहा वो समुन्दर नही देखा

✍️ इन्दु,अमरोहा,उत्तर प्रदेश
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आइए!
संकल्प सिद्ध करें
देश के गलियारों में,
छुआ-छूत से भरी
जातिवाद की ऊंची दीवारों मन,
जब अपना ही घर लूट लिया
देश के ग़द्दारों ने...
जनता खड़ी देखती रही
सिमटी अपने किरदारों में ।

आइए !
संकल्प सिद्ध करें
देश के गलियारों में...

✍️-प्रशान्त मिश्र
राम गंगा विहार, मुरादाबाद
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दास्तान-ए-इश्क़ जब भी दोहराई गई,
हर किसी की आँख में नमी ही पाई गई,

हमने तो देखा है ज़माने का यही दस्तूर,
हुए जुदा मुहब्बत किसी से ना निभाई गई,

हुआ है ज़माने का निज़ाम आज ऐसा,
सच बोलने वाले को ही सज़ा सुनाई गई,

मिलती है यहाँ इज़्ज़त दौलत को ही,
ग़ुरबत की हमेशा यूँ ही की रुसवाई गई,

यूँ तो नज़र आता है ज़माना बहुत ख़राब,
ग़ौर से देखा तो ख़ुद में ही कमी पाई गई,

मिले हैं ज़ख़्म बहुत दिल हुआ है घायल,
तक़लीफ़ ए ज़िन्दगी हमसे ना उठाई गई,

गर्द ए ज़हन धुल ही गई बेगुनाहों के ख़ून से,
सियासत में इस क़दर नफ़रत फैलाई गई,

,✍️ राशिद मुरादाबादी
कांठ रोड हिमगिरि कालोनी मुरादाबाद
Ph :- 8958430830
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ऊपरवाले मुझ पर इतना, कर देना उपकार।
अबकी बार चुनावों में मैं, बना सकूँ सरकार॥

मैं ना चाहूँ सोना चाँदी, मै ना चाहूँ नोट।
मुझको तो बस दिला दीजिए, जनता के सब वोट॥
वर्षों से जो सपना देखा, हो जाये साकार।
अबकी बार चुनावों में मैं, बना सकूँ सरकार॥

हार चुनावों में अक्सर मैं, गया कर्ज में डूब।
दौलत की खातिर कर लूँगा, घोटाले मैं खूब॥
फिर खुद हो जायेगी मुझ पर, नोटों की भरमार।
अबकी बार चुनावों में मैं, बना सकूँ सरकार॥

जनता की दौलत पर मेरी, गढ़ी हुई है आँख।
नौकरियाँ लगवाने को भी, लूँगा मैं दो लाख॥
रोजगार सब पायेंगे अब, मेरे रिश्तेदार।
अबकी बार चुनावों में मैं, बना सकूँ सरकार॥

✍️-जितेन्द्र कुमार जौली
अम्बेडकर नगर, मुरादाबाद
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हमको  न भाता  है    ऐसा जमाना !
जहां   पर  मोहब्बत  न  हो तानाबाना !!
जहां लोग करते हों कटुता की बातें ;
हो  मतलब   परस्ती   का  ही तानाबाना !
हमको   न   भाता  है   ऐसा जमाना !!
जहां जाति मजहब की दोहरी दीवारें ;
नहीं   एक   दूजे  घर   आना जाना !
हमको  न   भाता  है   ऐसा जमाना !!
जहां सिर्फ नफरत  के तम्बू सजे हों ;
कुटिल भाषणो से जहां वोट पाना !
हमको  न   भाता   है   ऐसा जमाना !!
जहां  आदमी   के  कई  हों मुखौटे ;
सम्भव न हो जिनको पहचान पाना !
हमको  न   भाता  है   ऐसा जमाना !!

✍️ विकास मुरादाबादी , मुरादाबाद

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कहीं पर मूल चलता है, 

कहीं अनुवाद चलता है ।

कहीं अपवाद चलता है ,

कहीं प्रतिवाद चलता है ।

परंतु सब ने यहां देखा ,

इलेक्शन में,सलेक्शन में,

 हमेशा भाई भतीजावाद 

चलता है।

✍️ नकुल त्यागी, मुरादाबाद

            

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र का बाल गीत ---हवा! हवा तुम कितनी अच्छी, करती सबका ही अभिनन्दन ... । उनका यह गीत पत्रिका संगिनी के दिसंबर 2020 के अंक में प्रकाशित हुआ है ।


 

रविवार, 6 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ जगदीश शरण के खण्डकाव्य "जय मुक्ति-दूत" से कुछ अंश -----। डॉ भीमराव आंबेडकर के दर्शन पर केंद्रित उनकी यह कृति वर्ष 2012 में नवभारत प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुई है ।


वह दुष्काल सन् छप्पन का था
      तीव्र  शमन  की     सन्धि- बेला,
विश्व समोद  रश्मियों  से जब
       शिशु-सा  खेलता था   अकेला ।

क्रूर  काल  की  तम आँधी में
       वह  दीपक - ज्योति क्षीण हुई,
नवयुग की नवसृष्टि   ललाम
         हा ! पंचभूत  में विलीन   हुई ।

रोये  खेत,  खलिहान,  किसान
         रोये पशु -पक्षी  सकल  विस्मित,
रोये  वृक्ष  नव  किसलय  त्याग
          रोये   भारत   के  नेत्र   थकित !

वह  तापस धुनी त्राणक प्रवर
      पार्श्व  असंख्य  पग भू  के  बल,
प्रेरित  स्वर्गिक   मुहुर्त  अक्षर
       धँसता  वर्ण  भू   तमस  दलदल !

मुक्त  शब्दों  की करो घोषणा
       मुक्त  गति, लय, कविता और छंद,
मुक्त   देश के  मुक्त सभी  जन
         विचरण   करें  नित  हो स्वच्छंद  !
      
धन्य, समता तापस धुनी वर
        जटाजूट  शुचि  गंग  बहाकर,
प्रक्षालित पंक दलित पंगु चरण
         अज्ञ शठ हठि मुनि मान ढहाकर !

विजय नरता की कहिए,अथवा
      खल  मानव  की  अंध   पराजय,
जड़ -चेतन-मुक्ति-समर कहिए,
       युग  आग्रह या धर्म  का निश्चय  !

शीतल  हुई  रे त्रसित धरती
    भीष्म  ग्रीष्म  आतप  से  तपकर,
युग नभ रवि तन भस्म रमाये
      तापस  मुक्ति  नव  भासित प्रवर !

 ✍️ डॉ जगदीश शरण,  217, प्रेमनगर, लाइनप, माता मंदिर गली, मुरादाबाद-- 244001, उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल :  983730 8657 

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----खुद को विद्वान समझने वाले विद्वान

         


दूसरों को बेवकूफ़ समझना, खुद को विद्वान समझने की शुरुआत है. खुद को विद्वान समझने के लिए किसी किस्म के सरकारी प्रमाण पत्र की ज़रुरत नहीं होती है कि वही हो तभी किसी को विद्वान माना जाना चाहिए. लोकतंत्र में सबको हक़ है कि वे दूसरों को बेवकूफ़ समझते हुए खुद को उतना बड़ा विद्वान समझें, जितना बड़ा ना उनके पैदा होने से पहले कोई पैदा कोई हो पाया और ना ही बाद में उम्मीद है कि कोई हो पायेगा. वे लोग समझते हैं कि उनके पैदा होने के बाद ऊपर वाले की विद्वान  बनाने वाली मशीन ही ख़राब हो गयी थी और जो आज भी किसी कबाड़ी के इंतज़ार में ज्यों की त्यों ही पड़ी है. ऐसे विद्वान अपनी बातचीत के दौरान बीच-बीच में यह पूछकर कि ” आप समझे नहीं हमारी बात,” यह कन्फर्म कर लेते हैं कि यह जो बन्दा उनकी बात समझने की कोशिश कर रहा है, उनकी बात को वाक़ई कहीं समझ तो नहीं रहा है.

         खुद को विद्वान समझने वालों में अगर मतभेद ना हों तो यह लगता नहीं कि वे विद्वान कहलाने लायक भी हैं. उनकी विद्वता संदेहास्पद हो जाती है. ये विद्वान प्रथ्वी के गोल होने के तमाम प्रमाणों को झुठलाते हुए कभी भी कह देते हैं कि अभी क्या पता कि दुनिया गोल है या चोकोर है या जिसे हम गोल समझ रहे हैं, वह गोलाई ना होकर गोलाई होने का भ्रम मात्र है ? ऐसे विद्वान सत्य और असत्य पर भी अपने विचार रख देते हैं कि जिसे सत्य समझा जा रहा है, वह वास्तव में सत्य नहीं है, केवल सत्य होने का भ्रम मात्र है. असत्य पर भी वे अपने इसी किस्म के सिर घुमाऊ वक्तव्य परोस देते हैं और जो लोग खुद को विद्वान मानने में संकोच करते हैं, वे कह उठते हैं कि “वाह, क्या बात कही है ?

       डार्विन एक ऐसे विद्वान थे, जो खुद को विद्वान नहीं मानते थे, मगर लोगों ने ज़बरदस्ती उन्हें इसलिए विद्वान मान लिया कि वे हमारे पूर्वजों को बन्दर घोषित कर चुके थे. लोगों ने जब आदमी की आदतों का अध्ययन किया तो यह पाया कि वे वास्तव में बन्दर ही रहे होंगे. राजनीतिक बन्दर बाँट देखकर भी लोगों का यक़ीन पक्का हो गया होगा कि डार्विन ने सही कहा था और इन राजनेताओं के पूर्वज तो वाक़ई बन्दर रहे ही होंगे. कालिदास जिस डाल पर बैठते थे, उसी को काट देते थे, लेकिन आगे चलकर वे भी विद्वान माने गए और इसीलिए वे कई सारे ग्रन्थ भी लिख गए ताकि सनद रहे और उन्हें आगे चलकर विद्वान करार देने के काम आये.

    हम जब कई मर्तबा गणित में फेल हुए तो हमने सबसे पहला काम यह किया कि गणित के उन विद्वानों की खोज की, जो उस ज़माने में हमें फेल करवाने के लिए ज़िम्मेदार थे और अगर उन्होंने गणित जैसे विषय में अपना कीमती वक़्त बरवाद ना किया होता तो हम इस कदर फेल ना हुए होते. दुनिया में जितने विषय हैं, उनसे हज़ारों गुने विद्वान माने जाने वाले विद्वान मौज़ूद हैं. हमारा तो मानना ऐसा है कि पहले ज़माने में विद्वानों को विद्वान मानने वाले लोग भी विद्वान् रहे होगे, वरना दुनिया में विद्वानों को विद्वान मानने का रिवाज़ ही अब कहाँ रहा ? आप किसी को किसी भी ग़ैर ज़रूरी विषय का विद्वान मान लें, तभी वह आपको विद्वान मान सकता है, इससे अलग नहीं. हमने कुछ ग़लत कहा हो तो आप बताएं.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ----- चिड़ियाघर


निकुंज पिछले एक मास से चिड़ियाघर देखने की जिद कर रहा था। उसके पापा राजेन्द्र अपने व्यापार में इतने व्यस्त थे कि उसके लिये समय नहीं निकाल पा रहे थे।

   इसी बीच राजेन्द्र के बड़े साले रवीश का राजेन्द्र के यहां आना हुआ।रवीश संसदीय व्यवस्था के गुण- दोषों पर शोध कर रहा था।दिल्ली के संसद भवन की कार्यवाही पर उसको एक रिपोर्ट तैयार करनी थी। वो अपने साथ निकुंज को भी़ संसद की कार्यवाही दिखाने के लिए ले गया।

  उस दिन के बाद से राजेन्द्र बहुत सुकून का अनुभव कर रहे हैं। अब निकुंज चिड़ियाघर देखने की जिद नहीं करता।

✍️ डाॅ पुनीत कुमार

T -2/505, आकाश रेजिडेंसी, मधुबनी पार्क के पीछे, मुरादाबाद - 244001

M - 9837189600

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा ---संपत्ति


आज भोर से ही मन बड़ा घबरा रहा था राजेश्वरी का पति की असमय मौत और इकलौते बेटे की बीमारी की दुख रूपी कडी धूप ने उसके सीधे -साधे जीवन का रंग -रूप ही बदल कर रख दिया था ।

घर में पति द्वारा एकत्रित जो जमा पूंजी थी वह धीरे -धीरे घर के खर्च और बेटे की बीमारी पर खर्च हो गयी ।इसलिये उसने खुद को मानसिक रूप से घर से बाहर  निकलने के लिये खुद को मजबूत किया परंतु यक्ष प्रश्न उसके सामने आ खड़ा हुआ कि वह करेगी क्या पढी-लिखी तो वह थी नहीं इसलिये घर-घर झाडू -पौछा ,बर्तन साफ़ करने का काम चुन लिया ।

जिन्दगी की वास्तविकता से सामना हुआ उसका ,जिन घरों में वह कामकरती सभी तरह के अच्छे -बुरे लोग मिलते लेकिन वह ज्यादा ध्यान नहीं देती ,अपना काम इस तरह से करती कि कोई उसके काम में मीन-मेख न निकाले फिर भी कामवालिओं को नीचा दिखाना शायद मालिक अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं ।

लेकिन उस दिन तो हद ही हो गयी ,एक घर जिसकी मालकिन बैंक में जॉव करती थीं ,उनके बैंक जाने के बाद ज्यौं ही वह काम करने उसके घर गयी ,अचानक बर्तन साफ़ करते हुए उनके शरीफ़ पति ने उसका हाथ पकड़ लिया ।वह स्तब्ध रह गयी ।

''अरे यह का कर रहे हैं साहब ?''राजेश्वरी गिड़गिड़ाई 

''अब ज्यादा नाटक मत कर शरीफ़ होने का मैं जानता हूँ तुम जैसी औरतो को ।''उस नीच आदमी ने नीचता से कहा।

''छोडो मेरा हाथ ।''कहते हुए राजेश्वरी ने करछली हाथ में लेकर बिजली की भांति कडकते हुए बोली ।

''तुम खुद को बहुत ऊँचा समझते हो चंद नोट के टुकडे इकट्ठे करके समझते हो कि हम जैसे गरीब लोग तुम्हारी बपौती हो गये खबरदार !जो मुझे छूने की कोशिश की ।''और आगे बढते उस दुष्ट पर अपने हाथ में ली हुई करछली से भरपूर प्रहार किया तो वह कायर पीछे हट गया ।

आज राजेश्वरी ने अपनी चरित्र और आबरू रूपी संपत्ति को लुटने से बचा लिया ।

✍️ राशि सिंह , मुरादाबाद


मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा --–-चुभती तारीफ़


नयी नवेली दुल्हन रुचि की मुहँ दिखायी करने कोई न कोई आ ही रहा था .  . ......

अब पड़ोस की दुलारी मौसी बैठी हुई थी। 

'बहुत सुन्दर बहू है,कांता तेरी तो ।' दुलारी मौसी ने कहा।

कांता खुश हो  सबसे सुबह से यही बातें कर रही थी .....

'हाँ मौसी एक ही लड़का है हमारा तो, हमने तो खुले मन से खर्च किया। लड़की वालों की हैसियत नही थी पर हमने कह दिया कि शादी तो बढिया मैरिज होम में ही करेगें। हमने ही सारा खर्च उठाया .......  हमने तो बस लड़की देखी.......सुन्दर है ,संस्कारी है। गरीब है तो क्या हुआ ......। एक रिश्ते वाले तो बहुत पीछे पड़े थे कि दस  लाख की शादी कर देंगे,पर  राजेश को यही पसंद आयी।

अब मौसी आजकल के बच्चे हमारी कहाँ चलने देते है।

ये कानों के कुन्डल, अंगूठी, चेन  .....सब हमने ही डाले है। इसके बेचारे  माँ बाप पर तो बस दो लाख ही रुपए थे।अब मौसी इतने में क्या आ रहा है आजकल ..... । ये है बस कि लड़की अच्छी है।

रुचि नीची नजरें कर चुपचाप सब सुन रही थी। पता नही क्यों...... ये  तारीफ उसके मन को बहुत चुभ रही थी।

 ✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा

                                    

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा की कहानी --------समझदारी के लपेटे में कोरोना

 


कोरोना का नाम सुनते-सुनते कान भी अभ्यस्त होने लगे, जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया, और आदमी ही आदमी से डरने लगा। एक दिन  अर्चना ने अपनी बूढ़ी दादी से पूछा कि अम्मा!  क्या है कोरोना की असली कहानी ? दादी ने कहा -ना बेटी ना!नाम भी मत ले ,इस मनहूस बीमारी का। इसने मेरे परिवार को परेशान करके रख दिया ,तेरा बापू बैंक से सारे पैसे निकाल लाया और तेरी मम्मी के जुड़े-जुड़ाये पैसे भी घर के सामान लाने में खर्च हो गए,रोजमर्रा का खर्च मजदूरी करके निकल रहा है। हर बार दीवाली पर ,मैं बच्चों को नए कपड़े दिलाती थी लेकिन इस बार,एक रुमाल भी नहीं खरीदा,क्योंकि पेट के लिए रोटी और बालकों की पढ़ाई-लिखाई सबसे पहले है। भगवान अपनी कृपा बरसाएं !सब कुछ ठीक-ठाक हो जाए,इस बीमारी का जड़ से नाश हो जाए। आज हिंदुस्तान में ही क्या, पूरी दुनिया में हाहाकार मचा हुआ है, कई लाख लोग, इस बीमारी से चल बसे।तेरा बापू भी टेलीविजन पर सुनकर आया था कि अपनी सुरक्षा अपने हाथों में ही है, कह रहा था कि थोड़ी-थोड़ी देर पर हाथों को साबुन से धोते रहो, शारीरिक दूरी बना कर रखो, किसी अनजान आदमी से मत मिलो ,मुंह पर मास्क लगाकर रहो। अर्चना ने मुस्कुराकर कहा- अम्मा यह सब बातें तो हमारे स्कूल वाले सर जी ने पहले से ही बता रखी हैं। पूरे गांव में घूमकर भी उन्होंने कोरोना से बचने के उपाय बताए थे, इसलिए ही बाजार भी बंद हुए थे, ताकि भीड़-भाड़ ना हो, लोग एक दूसरे के संपर्क में कम से कम आएं।

दादी बोली- हां सब मालूम है मुझे ,ज्यादा वकील मत बन। तू पढ़ाई पर ध्यान दे, सबक भूल गई तो अच्छी तरह खबर लेंगे तेरे मास्टर और मास्टरनी । पड़ोस के चौधरी साहब कह रहे थे कि शहर वाले कॉन्वेन्ट स्कूल से मोबाइल पर पढ़ाई आ रही है और साथ में फीस की खबर भी। क्यों बेटी! तेरी पढ़ाई कैसे पूरी होगी?

अर्चना ने कहा- दादी,मेरा स्कूल सरकारी जरूर है लेकिन प्राइवेट से किसी बात में कम नहीं है मेरे स्कूल का भी व्हाट्सएप ग्रुप है जिसमें रोजाना काम आता है और मैं होमवर्क करके भेजती भी हूं।सभी बच्चे इसी तरह काम पूरा करते हैं। जिन बच्चों पर बड़ा(एन्ड्राॅइड) मोबाइल नहीं है वे पड़ोस के बच्चों से काॅपी लेकर पूरा करते हैं ।रही बात फीस की, तो हमारे सरकारी स्कूल में फीस तो कोई है ही नहीं, बल्कि स्कूल से यूनिफॉर्म, किताबें ,जूता-मोजा,स्वेटर और मिड-डे-मील (खाना) भी मिलता है। मेरे पिताजी को,फीस की कोई टेंशन नहीं है , उन्होंने सही किया जो कि मेरा एडमिशन सरकारी स्कूल में करा दिया वरना प्राइवेट स्कूल में तो बिल्डिंग फीस, एग्जाम फीस,कंप्यूटर फीस जैसी बहुत सारी फीस देते-देते परेशान हो जाते।

अर्चना आत्मविश्वास से लबरेज होकर बोली-आज मेरे परिवार पर भले ही अतिरिक्त खर्च को पैसे ना हो लेकिन दो वक्त की रोटी के लिए कोई परेशानी नहीं है, मेरा परिवार कोरोना संकट में भी अपनी सूझबूझ से प्रसन्न है।

आखिर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि हमें जरूरत के हिसाब से ही खर्च करना चाहिए, छोटी-छोटी बचत करनी चाहिए, जो बुरे वक्त में काम आती है। सीमित संसाधनों में अपना जीवन व्यतीत करने की आदत डालनी चाहिए, और सदैव घर के सदस्यों के बीच एक-दूसरे का हाथ बंटाकर,प्रेम से रहना चाहिए ।

यही कारण है कि मैं और मेरा परिवार कोरोना-संकट में तंग हालातों के चलते भी, अपने आपको खुश महसूस कर रहा है। हमें चाहिए कि हम घरों में रहें और सुरक्षित रहें, अपनी प्रतिरोधक क्षमता मजबूत करें ,मास्क लगाकर ही घर से निकले, और भीड़ भाड़ में तो बिल्कुल भी ना जाए ,इसी तरह हम कोरोना को हराकर अपनी जिंदगी पर जीत हासिल कर सकते हैं।

अर्चना की ऐसी समझदारी भरी बातें सुनकर, सब हतप्रभ रह गए और पूरा परिवार ऐसी योग्य बेटी पाकर , अपने जीवन को धन्य समझने लगा।

✍️ अतुल कुमार शर्मा,सम्भल

मोबाइल-8273011742,9759285761

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी वर्मा की लघुकथा ---- "कन्या पूजन"

 


"नहीं नहीं, बस अब और नहीं, एक ही लड़की बहुत है। मेरा बेटा कहां से इनका बोझ उठाएगा, कहां से देने के लिए इनको दहेज लाएगा। कल ही डॉक्टर से कहना अबॉर्शन कर दो अगली बार देखेंगे। एक पोती हो गई बहुत है बस, अब मुझे पोता ही चाहिए कहते हुए सरला देवी राशि के कमरे से निकल गई। राशि बड़े भारी मन से सोच रही थी कि इस खानदान का अंश है यह बच्चा। अगर यह लड़की है तो फिर इसमें इसका क्या दोष है? क्यों इसे पैदा होने से पहले खत्म किया जा रहा है? राशि का पति संजय सोने के लिए कमरे में आता है राशि कहती है  "सुनिए! मां अबॉर्शन के लिए कह रही है  पर मैं कह रही थी़़़़़़़़़़़़़ राशि की बात को काटते हुए संजय बोला हां तो क्या गलत कह रही हैं मां आखिर उन्हें भी पोता खिलाने का अधिकार है और मैं इतनी लड़कियों का बोझ नहीं उठा सकता। सो जाओ तुम अब ज्यादा मत सोचो इस बारे में। आखिर घर का चिराग भी तो आना जरूरी है। राशि की आंखों में अब नींद कहां थी एक नन्हे भ्रूण की हत्या के ख्याल से ही उसकी आत्मा कौन्ध रही थी ।

 अगले दिन सुबह सरला देवी की आवाज आती है, बहु जल्दी करो  कन्या जिमानी है। आज दुर्गा अष्टमी और कन्या पूजन का काम खत्म करके फिर तुम्हें डॉक्टर के यहां भी जाना है ।

राशि पूजा का सभी सामान इकट्ठा करती है और पूजन इत्यादि की तैयारी करके कहती है "माँ जी, आप कन्याओं को बुला लाइए पूजन की सभी तैयारी हो चुकी है।"  सरलादेवी आधा घंटा  घूम कर आ जाती हैं लेकिन उन्हें मात्र दो कन्याए ही मिल पाती हैं। वह कहती हैं राशि बहू इन दो कन्याओं का ही पूजन कर दो कॉलोनी में तो कन्याएं ही नहीं है अब मैं और कहां से कन्याएं लाऊं़़़़़़़

✍️ मीनाक्षी वर्मा, मुरादाबाद


मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की लघुकथा -----आस्तीन के साँप

 


मुखिया जी जुम्मन टेलर की दुकान पर पहुँचकर शर्ट का नाप देने खड़े ही हुए थे कि अचानक जेब में रखा मोबाइल फोन बज उठा।झल्लाते हुए मुखिया जी ने फोन रिसीव किया,"हैलो...!!क्या हुआ मनोज?अभी तो घर से आया हूँ...इतनी देर में क्या आफ़त आ गयी...।"

"पापा आफ़त तो बहुत बड़ी आ गयी है...हमारे कुछ समर्थक चुनाव से ऐन पहले दूसरे गुट में जा मिले हैं..।"मनोज लगभग हाँफते हुए बोला "पापा...आस्तीन के साँप निकले ये लोग तो..!!पता नहीं अभी और कौन कौन जायेगा उधर....??अब क्या होगा...!"

"कुछ नहीं होगा मनोज..!."मुखिया जी मुस्कुराते हुए बोले,"आस्तीन के साँप तो सब जगह होते हैं....हें हें हें...!!. उधर भी ज़रूर होंगे... उन्हें इधर बुला लेंगे ।"यह कहकर मुखिया जी ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ फोन काट दिया।

"चलो भई जुम्मन मियाँ..!!नाप ले लो शर्ट का...".

"...और हाँ आस्तीनों में गुंजाइश ज़रा ज्यादा रखना।"मुखिया जी से गंभीर होते हुए  जुम्मन मियाँ से बोले।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद 244001

गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की कहानी -----टॉमी की समाधि

 


हमारे मोहल्ले के शुक्ला जी तो रूढ़िवादी हैं ही।उनकी धर्म पत्नी उनसे भी बहुत आगे बढ़कर रूढ़ियों को अपने जीवन में स्थान देने से पीछे नहीं रहतीं।उन्हें किसी का छींकना,खाँसना,दाईं- बाईं आंख फड़कना,बाँह फड़कना,कुत्ते का रोना,बिल्ली का रास्ता काटना,ईश्वर प्रदत्त विशेष जाति का राह में मिलना,या दुर्भाग्यवश विक्लांगता से ग्रसित चेहरे का सामने पड़ जाना जैसी उनकी बेढंगी सोच का किसी के पास कोई इलाज नहीं था।

    उनकी यही दकियानूसी बातें कभी -कभी शुक्ला जी को भी बहुत अखरतीं।लेकिन चुप रहने के सिवाय कर भी क्या सकते थे।

    एक दिन शुक्ला जी और उनकी पत्नी को कुछ समय के लिए बाहर जाना आवश्यक हो गया।उन्होंने अपने पालतू कुत्ते टॉमी की देख-रेख का ज़िम्मा अपने प्रिय पड़ौसी उपाध्याय जी को सौंप दिया।उसके खाने-पीने का खर्चा भी उपाध्याय जी को मना करते करते भी देकर सफर पर निकल गए।

      कार्य पूर्ति के पश्चात घर लौटे तो उन्होंने देखा कि टॉमी की आँखों से टप टप आंसू गिर रहे हैं।कुत्ते के रोने को बुरा सगुन मानते हुए शुक्ला जी ने बिना आगा-पीछा सोचे अपनी लाइसेंसी रिवॉल्वर से गोली मारकर उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर दी और बोले चलो बुरी बला टली।

     जब थोड़ा और अंदर जाकर देखा तो वरांडे में टॉमी को डाला गया दूध,मीट, ब्रेड,रोटी सब्ज़ी ज्यों के त्यों पड़े हैं। तभी उनके पड़ौसी उपाध्याय जी भी वहां आ गए और बोले।भैय्या जानवर हो तो ऐसा, यह तो हम आप से भी कहीं ज्यादा समझदार और वफादार मालूम पड़ा।

      इसने तो आपकी याद में सारा अन्न जल ही त्याग दिया।काफी जतन करने पर भी एक निवाला तक मुँह में नहीं लिया।प्रमाण आपके सामने है।सारा खाना यूं ही खराब हो रहा है।केवल रोता ही रहता है।जब देखो तब आंखों से बस आंसू ही,,,,,,,,

          इतना सुनकर शुक्ला जी और उनकी पत्नी ने अपना सर पीट लिया और दहाड़ें मार-मार कर रोने लगे।उन्होंने सारी कथा उपाध्याय जी को बताकर अपनी मूर्खता पर खेद जताया।हमसे तो यह मूक जानवर ही अच्छा निकला जो हमारी रूढ़िवादी सोच  को भी अपनी जान देकर हमें आईना दिखा गया।

   शुक्लाजी ने उसी दिन,उसी समय यह कसम खाई कि हम व्यर्थ प्रचलित प्रथाओं को अपने जीवन में कोई स्थान नहीं देंगे।उनकी पत्नी ने भी आंसू बहाते हुए टॉमी की समाधि बनाने का संकल्प लिया।             

✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र

मो0-  9719275453

       

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा -----बिस्कुट का पैकिट

       


  मोहन के पड़ोस में शोर मच रहा था ,मिठाई बांटी जा रही थी मोहन ने एक बच्चे से पूछा क्या बात है ? पता चला कि पड़ोसी एक डॉगी खरीद कर लाये हैं उस खुशी में मिठाई बांटी जा रही है।यह सुन कर वह अपनी बीमार माँ के पास आकर बैठ गया।" माँ ने पूछा कैसा शोर है बेटा।" 

       " कुछ नहीं माँ , यह बताओ कुछ खाया या नहीं, माँ मैं कल तेरी दवाई जरूर ले आऊँगा।" पर अपनी दयनीय स्थिति को  देख उसकी आंखों में आँसू आ गये, उसका गला रुंध गया ।                                       

   "  मन ही मन बड़बड़ाया पड़ोस में कुत्ते की ख़ुशी में ---------। यह सोच कर उसने एक लम्बी सांस ली,,,,।"

     "फिर भरे मन से पत्नी से बोला कुछ पैसे पड़े हों तो दे दो कम से कम एक बिस्कुट का पैकिट ले आऊं माँ उसे खाकर पानी तो पी लेगी------।"

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद

मो० 9411809222

मुरादाबाद के साहित्यकार दुष्यंत बाबा की कहानी----- मन का भूत

     


बसंतपुर गांव में राजन नाम का एक बहुत ही होनहार बच्चा रहता था। दिमाग से बहुत तेज परंतु पढ़ाई में उसकी निरंतरता न थी। उसे प्रायः गांव में होने बाले कार्यक्रमों जैसे-आल्हा, ढोला, निधना, रसिया, नौटंकी इत्यादि देखने का बहुत शौक  था। परिवार शांतिकुंज से जुड़ा होने के नाते अनुशासित और संस्कारी था इसलिए कभी भी रात्रि में घर से बाहर जाने की छूट न थी। 

        इसी घुटन से मुक्ति पाने के लिए उसने ट्यूबवेल का भार स्वयं के कन्धों पर ले लिया। अब खाना खाने के बाद घर से निकलना उसके लिए सहज हो गया था। रात्रि में बिजली आने के बाद ट्यूबवेल चला देना और खेत की बहुत सी क्यारियों में एक साथ पानी कर रात भर गांव में दोस्तों के साथ मस्ती करना उसके का कार्यक्रम में सम्मिलित हो गया था। 

         अक्टूबर की रात्रि गुरुवार का दिन था। गांव में एक बारात आयी थी। दोस्तों से दिन में ही इसकी सूचना मिलने पर बारात देखने का कार्यक्रम तय हो गया था। 9 बजते ही मोटर स्टार्ट कर गांव की तरफ प्रस्थान कर दिया, मोटर की कोई चिंता न थी क्योंकि फ़्यूजवार बांधकर स्टार्टर का हत्था बांध दिया था सो मोटर बिजली आने-जाने पर स्वचलित की भाँति कार्य करता था। गांव पहुँचने पर बारात में पूरी मस्ती की। कार्यक्रम समाप्त होते-होते रात्रि एक बजे का समय हो गया। 

        राजन जब गांव से ट्यूबवेल की ओर जा रहा था तब बहुत तेज हवा चल रही थी सिर पर लोही बंधी थी और हाथ में लगभग तीन फुट का डंडा था ट्यूबवेल से कुछ पहले ही उसे बहुत तेज सांय-सांय की आवाज सुनाई के साथ कोई आकृति हिलती नज़र पड़ी। वैसे तो राजन बहुत बहादुर था जंगल में रहकर हिम्मत कुछ और बढ़ गयी थी, किन्तु उस आवाज को सुनकर उसे कुछ पुरानी बातें याद आने लगी, क्योंकि तीन वर्ष पूर्व उसी स्थान के पास बुद्धा की चाची की मृत्यु हो जाने पर अंतिम क्रिया हुई थी जिसकी चिता की आग के सहारे राजन ने हाथ सेंककर ठंड से खुद को बचाया था। वैसे भी गुरुवार को भूतों के बारात निकलने की कहानियाँ बाबा से खूब सुनी थी अब उसके मन में बुद्धा की चाची का भूत दिखाई देने लगा।

         उसने पीछे मुड़ना उचित समझा, वह जैसे ही पीछे मुड़ा तो आवाज और भी ऐसे लगने लगी कि कोई पीछे-पीछे ही आ रहा हो। जैसे-तैसे हिम्मत जुटाकर पीछे मुड़ा, उसे कुछ भी दिखाई नही दिया। राजन का पसीना सिर से पैरो तक पहुँच चुका था। उसने अपनी मृत्यु को तय समझ, उससे मुकाबला करने की ठान ली और पुनः कदम-दर-कदम उस हिलती हुई आकृति और आवाज की ओर चलने लगा। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता आवाज तेज हो रही थी उसने आकृति के पास पहुंच हिम्मत जुटाकर आंखे बंद करके आवाज के स्थान पर दोंनो हाथों से डंडे का प्रहार किया। प्रहार के बाद उसे स्वयं पर हँसी आ रही थी और मन में खेद भी। क्योंकि वह भूत नही, चिता के स्थान पर उगा हुआ पतेल का झूंड था अब उसके मन का भूत निकल चुका था।

✍️ दुष्यंत 'बाबा' , पुलिस लाइन, मुरादाबाद

मो0-9758000057

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की कहानी ---- ऑनलाइन क्लास

 


वैभव एक फर्म में बहुत छोटे ओहदे पर था ।रात दिन मेहनत करके इतनी तनख्वाह मिल जाती ,कि दो वक्त की रोटी नसीब हो जाये ।दो पढ़ने वाले बच्चों के साथ जैसे -तैसे गुजारा हो पाता ।वैभव अपने दोनों बच्चों के भविष्य के लिये कोई समझौता नही करना चाहता था ।वह नही चाहता था ,कि जिस हालात का वह सामना कर रहा है ,उसके बच्चे भी उसी हालात से गुजरे।यही कारण था,कि वह जी तोड़ मेहनत करके अपने बच्चों की फीस ,ट्यूशन आदि का खर्च निकाल ही लेता ।सुधा उसे बार -बार आगाह करती ,कि अपने स्वास्थ्य का तो ध्यान रखो । लेकिन वह उसकी एक न सुनता ।

       किसी को क्या पता था ,कि कोरोना जैसी बीमारी में स्कूल ऑफलाइन नही ऑनलाइन चलेगे।सो स्मार्टफोन का उपयोग जरूरी हो जायेगा।दोनों बच्चों की क्लास का एक ही टाइम था।अगर एक मोबाइल फोन लाता है ,तो दूसरा कैसे उसी टाइम पर पढेगा।इसी ऊहापोह में वैभव ने दो मोबाइल फोन का कर्जा अपने ऊपर करके बच्चों को मोबाइल फोन लाकर दे दिये।

      बच्चे सुबह से मोबाइल फोन लेकर बैठ जाते।सुधा पूछती क्लास चल रहीं है क्या ।वह हाँ में उत्तर देते।कम-पढ़े लिखे वैभव-सुधा इसी चक्कर में रहे ,कि बच्चे पढ़ रहे है ।उन्हें क्या पता ऑनलाइन क्लास की ओट में बच्चे गेम खेल रहे हैं,तरह-तरह की वीडियो देख रहे हैं।

       वैभव सुबह का जाता देर रात तक घर आता । नतीजा यह हुआ ,बच्चे दिन भर मोबाइलफोन ले कर बैठे रहते।न कोई घर का काम करते न बाहर का ।सुधा को उनका व्यवहार देख चिन्ता खाये रहती ,कि ये ऑनलाइन पढ़ाई उसके बच्चों को कहींं का नहींं छोड़ेगी।

  ✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ----,पंख

 


"माँ,माँ !देख कबूतर के पंख" चहकते हुए चम्पा ने आँगन में गिरे पंख को उठाया और बड़े प्यार से पंख को सहेजते हुए एकटक देखने लगी।"अरे क्या पंख पंख करती रहती है।किसी चिरैया का टूटा हुआ पंख दिखा नहीं कि बस पगला जाती है।,"माँ चूल्हा फूँकते हुए बीच में बोली।

     "माँ !मुझे भी एक दिन आकाश में उड़ना है।देखो ऊँचे आकाश में उड़ती चिड़िया कितनी अच्छी लगती है।ऊपर आकाश में कोई दीवार नहीं,कोई बाडर नहीं,कोई हवेली नहीं,कोई झोपड़ी नहीं।बस पंख फैलाओ और पूरा आकाश नाप लो।वहाँ कोई बंदिश नहीं।," माँ आकाश निहारती चम्पा की खुली आँखों में सपनों की चमक को अचरज से देखती रही।

      रेल की पटरियों के पास बसे छोटे से एक गाँव में झनकू गरीब की कुटिया में चम्पा टूटे पंखों को सहेज कर उड़ान भर रही थी।झनकू और उसका परिवार मुखिया के घर व खेतों में काम करके किसी तरह दो वक्त की रोटी जुटाता था।

           झनकू को चम्पा की ऐसी बातें बिल्कुल पसंद नहीं थीं। एक तो गरीबी की मार ऊपर से छ: बेटियों का पिता झनकू कभी हँसता हुआ नहीं देखा गया।बेटियों को वह हमेशा डाँट डपट कर रखता।सबसे छोटी चम्पा से तो वह खासा चिढ़ता था।चम्पा भी डर के मारे पिता के सामने जाने से बचती थी।बस माँ के सामने ही वह बेझिझक अपनी उड़ान भर लेती थी।

           धीरे-धीरे समय बीत रहा था।एक बार गाँव में हैजा फैला।चम्पा की माँ और दो बहनें इसकी चपेट में आ गईं।जहाँ खाने का भी आसरा न हो,वहाँ बेहतर इलाज की कौन सोचे।बदहाली में झोलाछाप की देखरेख में माँ के पीछे-पीछे दोनों बहनें भी काल का ग्रास बन गई।जीवित रह गयी शेष बड़ी तीन बहनों को पिता ने किसी तरह ठिकाने लगाया।हाँ....झनकू इसे ठिकाने लगाना ही कहता था।

           एक बेटी उसने अधेड़ अफीमची से ब्याही,दूसरी तीन-तीन बीवियों वाले नि:संतान जमींदार के पल्ले बंधी,जो किसी दूर के जिले का रहने वाला था।तीसरी बची माला ने अपनी पसंद के कल्लू से भाग कर शादी कर ली तो पिता ने उस से नाता ही तोड़ लिया।पर वह मन ही मन संतुष्ट था कि चलो यह भी ठिकाने लग गई,अब अपना नसीब खुद ढोये। शेष रह गई थी 16 साल की चम्पा जिससे पिता को कभी स्नेह नहीं रहा।चम्पा को ऐसा कोई दिन याद नहीं था जब उसने पिता से सहज होकर बात की हो या पिता ने ही ढंग से उससे बात की हो।माँ के जाने के बाद तो संवाद का रहा सहा पुल भी टूट गया था।

                     चंपा अजीब सी उधेड़बुन में थी।वह जानती थी कि एक दिन उसे भी ठिकाने लगा दिया जाएगा।उसने टूटे हुए पंखों के अपने खजाने को बड़ी अधीरता से देखा।पंखों की ऊर्जा मानो उसके हाथों और पैरों में आ गई थी।उसने एक गठरी बाँधी और पटरियों की ओर चल दी। पिता अभी काम से नहीं लौटा था,वैसे भी उसके लिए चम्पा का कोई अस्तित्व नहीं था।अक्सर वह मुखिया की पशुशाला में ही रुखा सूखा खा कर सो जाता था।

       चम्पा रेल के जनरल डिब्बे में शौचालय के पास अपनी गठरी पकड़ कर सहमी सी बैठ चुकी थी।तभी डिब्बे ने झटका खाया और रेल छुक छुक करती हुई बढ़ चली।चम्पा का दिल धक् कर गया था,पर जल्द ही उसे उड़ान का आभास होने लगा।उसने दरवाजे से बाहर देखा तो सब कुछ पीछे छूटता नजर आ रहा था उसे लगा जैसे पैरों में बँधी बेड़ियां खुल कर गिर गई हों।वह बहुत हल्का महसूस करने लगी।अपनी गठरी पकड़ कर चम्पा गहरी नींद में खो गई थी।वह ऊँचे आसमान में उड़ रही थी,"जहाँ कोई दीवार न थी,और न ही था कोई बाडर।"

         सुबह "चाय गरम..... !चाय ...."की आवाज के साथ चम्पा की नींद खुली।बड़ा स्टेशन था।जरूर कोई बड़ा शहर होगा, सोचकर चम्पा उस स्टेशन पर उतर गई।उस दिन यूँ ही शहर में भटकते हुए एक भण्डारे में खाना खाकर उसने स्टेशन पर रात गुजारी।कुछ दिन ऐसे ही बीते।एक दिन उसकी मुलाकात अपने ही जिले की एक महिला से हो गई।बातों ही बातों में आपस में दूर की जान पहचान भी निकल आयी।उसने अपने मालिक से कहकर चम्पा को झाड़ू पोछे का काम दिला दिया।

     गरीबी की मारी गाँव की चम्पा के लिए यह नया आकाश था।सब कुछ ठीक चल रहा था।चम्पा को पगार मिलने लगी थी और वह अपने ख्याली पंखों को सहेजते हुए अपने आकाश में उड़ान की कल्पना करते फूली न समाती थी।

     पर... क्या जमीन से उड़ान भरने के लिए अपना अपना आकाश पा लेना इतना सरल होता है?चम्पा की ख्याली उड़ान ज्यादा लंबी न चल सकी।

     चकाचौंध भरा शहर,ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ ,सफेदपोश व्यवसायी,हाई फाई लाइफ स्टाइल,नौकरों की फौज रखने वाले धनाढ्य वर्ग.... इस आकर्षक तस्वीर के पीछे कुछ इतना स्याह होता है, जो कभी किसी की नजर में नहीं आता,जो कभी बड़ी खबर नहीं बनता।चम्पा जैसे गुमनाम चेहरे बड़े- बड़े शहरों में कब और कैसे गुम हो जाते हैं,कोई नहीं जान पाता।ऐसे मसले पैसों के ढ़ेर के नीचे दबा दिए जाते हैं। 

     अखबार के स्थानीय खबरों वाले पृष्ठ पर एक छोटी सी खबर थी," सर्वेंट क्वार्टर में पंखे से लटकी मिली नौकरानी की लाश" चंपा की उड़ान लाश बन कर लटकने पर थम गई थी। 

           तहकीकात जारी है हत्या अथवा आत्महत्या?पर सब जानते हैं एक गरीब जवान लड़की की हत्या की बजाय आत्महत्या का एंगिल ही सब झंझटों से मुक्ति का रास्ता है।आखिर बड़े बड़ों की चमक फीकी नहीं पड़नी चाहिए।

        चम्पा के गाँव का पता पुलिस को उस महिला से मालूम हुआ।पुलिस ने वहाँ संपर्क साधा।गाँव के मुखिया ने झनकू से पुलिस की बात फोन पर करवायी।झनकू की आवाज सपाट थी,बिल्कुल उसकी ही तरह रूखी।उसके लिए चंपा पहले भी नहीं थी।चलो,अब ठिकाने लग गई तो सामाजिक दायित्व भी नहीं रहा।पुलिस ने शव को पोस्टमार्टम के बाद अंतिम संस्कार हेतु ले जाने के लिए उसे सूचित किया।झनकू ने मना कर दिया,"मैं नहीं आ सकता साहब,गरीब आदमी हूँ।आप जैसे चाहें वैसे मिट्टी को ठिकाने लगा दें।" 

       अपनी झोपड़ी में लौटकर झनकू ने चंपा के सहेजे हुए पंखों के ढ़ेर को थोड़ी देर निहारा और फिर उन्हें उठाकर हवा में उछाल दिया।चम्पा पंख लगाकर विस्तृत गगन में उड़ चली थी,"जहाँ ना कोई दीवार थी और न कोई बाडर।"

✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ---- पटाखों की लिस्ट


दीपक और उसके छोटे भाई अखिल ने मिलकर दीवाली के लिए खरीदे जाने वाले पटाखों की पूरी लिस्ट तैयार कर रखी थी। अनार ,फुलझड़ी, जमीन पर घूमने वाला सुदर्शन चक्र तथा साथ ही राकेट - बम ,चटाई - बम आदि की पूरी लिस्ट थी।  सोच रहे थे ,परसों जाकर आतिशबाजी मैदान से खरीद लाएँगे । इस समय कुछ सस्ती मिल जाएगी । लिस्ट दीपक के पास जेब में रखी हुई थी।

         घर से निकलकर कॉलोनी के गेट की तरफ वह बढ़ा ही था कि पड़ोस के खन्ना अंकल मिल गए । कहने लगे "बड़े भाई साहब की तबियत खराब है । उन्हें साँस लेने में तकलीफ है । "

     सुनते ही दीपक ने पहला काम राजेश जी की तबियत पूछने का किया । राजेश जी घर पर चारपाई पर अधलेटी अवस्था में थे।  दीपक को देखते ही उन्होंने कहा "आओ दीपक बेटा ! ठीक हो ? "

     दीपक ने कहा" मैं तो ठीक हूँ, लेकिन सुना है कुछ आपकी तबियत ठीक नहीं चल रही है ?"

     राजेश जी मुस्कुराए और कुछ कहने ही वाले थे ,तभी उन्हें खाँसी का फंदा लगा । काफी देर तक खाँसते रहे । चेहरा तमतमा गया ।  दीपक को यह सब देख कर बहुत दुख हो रहा था । फिर जब खाँसी शांत हुई तो राजेश जी ने कहा "बेटा ! अब इस उमर में यह सब तो चलता ही रहता है । आज सुबह ही घर में रसोई में कुछ सामान बनते समय धुँआ आँगन में फैल गया और उसके बाद से मुझे खाँसी का दौरा पड़ना शुरू हो गया है । कई दिन से यही स्थिति चल रही है। थोड़ा - सा भी धुँआ बर्दाश्त करने की स्थिति नहीं है।"

        दीपक ने सहानुभूति प्रकट की "धुँए से तो आपको परहेज करना ही चाहिए।"

         राजेश जी ने कहा "सवाल मेरे परहेज का नहीं है । सवाल तो हमारे आस-पड़ोस के परहेज का है ।"

       दीपक बोला "मैं समझा नहीं ।"

           राजेश जी ने कहा "अब दीवाली आने वाली है । लोग पटाखे खरीदेंगे ,लेकिन अगर वह यह सोच लें कि उनके पटाखों से जो धुँआ निकलेगा वह मेरे जैसे न जाने कितने लोगों को कितनी तकलीफ देगा, तो फिर मेरी समस्या का हल हो जाएगा ।"

            इतना सुनने के बाद दीपक से फिर वहाँ बैठा नहीं गया । वह चिंता की मुद्रा में बाहर निकला । कुछ दूर चला और फिर कूड़ेदान के पास पहुँचकर उसने अपनी जेब में रखा हुआ पटाखों की लिस्ट वाला कागज निकाला और उसके टुकड़े-टुकड़े करके कूड़ेदान में फेंक दिया 

 ✍️ रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)