गुरुवार, 6 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ----बेसहारा हाउस..

 


 ''अरे कौन है वहां?..... कौन पड़ा हुआ है?....... यह कैसे लोग इकट्ठे हो रहे हैं?...... कैसा शोर है यह?"
     ...''कोई बुढ़िया है..... बेहोश! शायद कोविड से पीड़ित है!..... कोई रात में डाल गया अस्पताल के बाहर....!''
     "भाई जल्दी से अस्पताल के अंदर ले चलो शायद बच जाए इसकी सांसे अभी चल रही है"
 मास्क लगाए हुए लोगों ने बुढ़िया को उठाया और अंदर ले गए। ऑक्सीजन लगायी गयी। ट्रीटमेंट किया गया ।
  बहुत हल्की हल्की सांसे चल रहीं थीं.... झटके के साथ ! लगता है कोई इसका अपना ही यहां छोड़ गया और अपने आप को बचाने के लिए..... चला भी गया.... सोचा होगा मर जाएगी..... अस्पतालों में वैसे ही ऑक्सीजन की कमी है फिर ऊपर से इसका बुढ़ापा.... इसकी देखभाल कौन करेगा ?
        इंजेक्शन लगाए गए दवाइयां दी गईं अगली सुबह को बुढिया को होश आया।
      "अम्मा कहां की रहने वाली हो? "
"नंदप्रयाग! यह कौन सी जगह है?"
गोपेश्वर!
गोपेश्वर?..... मैं यहां कैसे पहुंची?....
गोपाल और सोनू कहां है मेरे बेटे? क्या मेरे साथ कोई भी नहीं आया?
नहीं!
धीरे-धीरे बूढ़ी अम्मा की हालत ठीक होने लगी उसके शरीर में ऑक्सीजन का लेवल भी ठीक होने लगा..... खाना पीना खाकर थोड़ी जान शरीर में आई फिर उसने कहा कि मेरे बेटों को बुलाओ ।
अम्मा पता नहीं तुम्हें छोड़कर कौन गया है.....?
        इस तरह लावारिस मुझे छोड़ कर चले गये ....!कोई  अपनी मां को ऐसे छोड़ता है क्या?
बूढ़ी अम्मा रोने लगती है !!!
     उसे यकीन ही नहीं होता अब उसके शरीर पर ना सोने के कंगन है 'न कानों में सोने की बाली , न गले की सोने की हसली । रोते-रोते कहने लगी ....."जब मेरे बेटो को ,मेरी बहुओं को मुझसे लगाव ही नहीं है....मेरी चिंता ही नहीं तो मैं जी कर क्या करूंगी ? इस भरी दुनिया में मेरा कौन है? जिसके लिए मैं जियूं ! 
      कहते कहते बुढ़िया बेहोश हो गयी! 
अगले दिन तक मन में निराशा ने इतना घर कर लिया था कि डॉक्टर ने लाख कोशिश की पर बुढ़िया के मुंह से एक शब्द न निकला .....
......... कुछ दिनों के बाद......... बुढ़िया का लग कर इलाज करने पर वह भली चंगी हो गयी...पर उसने घर वापस जाना स्वीकार नहीं किया.......।
..... सीनियर डाक्टर खुराना बुढ़िया के लाख मना करने पर भी अपनी कोठी पर ले गये...नौकर- चाकर सुंदर फूलों से सजा बंगला... बड़ा सा लांन बड़े-बड़े चार कमरों वाले बंगले में डॉ खुराना अकेले रहते थे अब उन्हें बात करने वाला कोई  तो  मिला....!
   ... अस्सी साल की अम्मा को पचपन साल का डॉ बेटा क्या मिला ....बुढ़िया जी उठी...।
कुछ समय और बीता और विधि की विडंबना देखिए जो डॉक्टर सबकी जान बचाता था..... उसी को कोरोना हो गया। बहुत प्रयास के बावजूद भी उसकी जान बचाई ना जा सकी अंतिम समय में वह अपनी सारी संपत्ति बूढ़ी अम्मा को सौंप कर स्वर्ग सिधार गया। बुढ़िया ने अब बंगले को दीन दुखियों के लिए ''बेसहारा हाउस" के नाम से खोल दिया जिसको कहीं शरण न मिले वह ,बेसहारा हाउस, चला जाता और उसका सारा इंतजाम बूढ़ी अम्मा करती......।
..... बुढ़िया के बेटों अब सब पता लग चुका था कि मां मरी नहीं बल्कि उस की तो और भी अधिक मौज आ गयी है परन्तु लेने किस मुंह से जाएं... सोच कर कि समय आने पर मां ही काम आयेगी .. मां से कोई सम्पर्क तक नहीं किया........!
           समय का फेर देखो......... नंदप्रयाग में बादल फटने के कारण बुढ़िया के परिवार पर बज्रपात हो गया....और एक ही दिन में दिल दहला देने वाला बर्बादी का मंजर....।
 एक लड़के का तो पूरा परिवार ही नष्ट हो गया और दूसरा  भी बेसहारा हो गया ..........
 ...... शरण लेने के लिए बुढ़िया का छोटा बेटा  अपने परिवार को लेकर  बेसहारा हाउस पहुंचा.............।
.......कहने को बुढिया बहुत बूढ़ी हो चुकी थी परंतु उसके शरीर में अभी जान बाकी थी जब उसने अपने बेटे को देखा तो मानो उसके तन बदन में आग लग गयी .......दया उसके मन से मानों मर चुकी थी उसने गेट पर ही उसके परिवार को रुकवा दिया....."
.... हम बेसहारा हाउस में................  उन गरीबों के लिए जिनका दुनिया में कोई नहीं बचा.....को ही सहारा देते हैं........ इसमें ऐसे बेटों के लिए कोई स्थान नहीं....जो अपनी मां ...को. निर्दयतापूर्वक अस्पताल में  बेसहारा छोड़ कर चले जाय.....!" "मां को तुमने बर्षो पहले मार दिया.."..! अब  जाओ यहां से ।.....
........बेटा, मां के पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाने लगा अंततः मां का ह्रदय द्रवित हो गया, फिर अन्य लोगों की भांति ही मां ने, अपने बेसहारा हाऊस में उसे भी जगह दे दी। आखिर मां तो मां ही होती है!

✍️ अशोक विद्रोही , 412, प्रकाशनगर, मुरादाबाद मोबाइल 82 188 25 541

बुधवार, 5 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार केपी सिंह सरल की रचना ----क्षमा करो संसार को, बन्द करो उत्पात! कोरोना से जगत को, अब तो देउ निजात!!

 


गली मुहल्ले सूने हैं

     सूना लगता शहर ! 

दया करो प्रभु जगत पर, 

   रोको अपना कहर!!१

क्षमा करो संसार को, 

      बन्द करो उत्पात! 

कोरोना से जगत को, 

अब तो देउ निजात!!२ 

दया आपकी चाहिए, 

         ए मेरे घनश्याम!

सुख में भी नहिं भूलते, 

   कभीआपका नाम!!३ 

नीरवता सी छा रही, 

     चहुँदिश हाहाकार! 

बहुत दुखीअब हो चुका, 

         तेरा ये संसार!! ४

'सरल'आपके द्वार पर, 

       झुका रहा है शीश! 

रोकोअब इस मृत्यु को, 

     हे करुणा के ईश!!५



✍️ केपी सिंह 'सरल'       

मिलन विहार

 मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 4 मई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में नोएडा निवासी) साहित्यकार अटल मुरादाबादी का गीत ---- मिट जाये कोरोना दानव,उस पर ऐसा वार करो। दुनिया में जो दीन दुखी हैं, उनका बेड़ा पार करो।।

  


बेच रहे जो माल ब्लैक में,उनका मां संहार करो।

दुनिया में जो दीन दुखी हैं,उनका बेड़ा पार करो।।


जीवन रक्षा दवा नहीं है,जीने को अब हवा नहीं।

लाइन में सब लोग खड़े हैं, लेकिन राहत नहीं कहीं।

राह दिखाकर कोई उत्तम,हे मां तुम उपचार करो।

दुनिया में जो दीन दुखी हैं,उनका बेड़ा पार करो।।


प्राणवायु की है अब किल्लत, तड़फ रहे हैं लोग यहां।

शासन भी अंधा बहरा है,जायें भी तो लोग कहां।।

शासन की आंखें बन जाओ,कुछ तो अब उपकार करो।

दुनिया में जो दीन दुखी हैं, उनका बेड़ा पार करो।।


भरे पड़े हैं अस्पताल सब,दुनिया ही अब रोगी है ‌।

भय से ही सब आतंकित हैं,चाहें संत या योगी है।।

मिट जाये कोरोना दानव,उस पर ऐसा वार करो।

दुनिया में जो दीन दुखी हैं, उनका बेड़ा पार करो।।


✍️ अटल मुरादाबादी

बी -142 सेक्टर-52

नोएडा उ ०प्र०

मोबाइल 9650291108,

8368370723

Email: atalmoradabadi@gmail.com

& atalmbdi@gmail.com


मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना की कविता --- मृत्यु का कहर

 

  यह कैसा दौर है?

   यह कैसी हवा?

   पगलाई एम्बुलेंस में सिसकतेप

   अस्पतालों में 

   बेड पर दम तोड़ते

   विवश-निरुपाय इंसान हैं,

   बीमारों को नहीं है दवा।

   लोभी मानव 

   बने हैं दानव

   महंगाई की जय-जयकार है,

   अंत्येष्टि व्यापार है।

   गरीबी बेजार है।

   तार-तार मानवता की

   हृदयहीन खबरों से भरे

   चैनल और अखबार हैं।

  निरर्थक हैं प्रार्थनाएं,

  नग्न नर्तन करता कोरोना शैतान है।

   उसका पैशाचिक अट्टहास है,

   प्रकृति उदास है।

   साँसों में घुला जहर है

   और सन्नाटे की चादर में 

  लिपटा मेरा शहर है।

   मन में  फन काढ़े

   नागफनी आशंकाएं हैं।

   रक्तिम विषदंती चिंताएं हैं

   और भय की लहर है।

   चहुँ ओर करुण नाद है

  और तक्षक -सी डसती

   मृत्यु का कहर है। 

   श्मशानों में धधकती चिताएं हैं,

   अदृश्य रक्तबीज के यज्ञ में

   समर्पित मानव समिधाएं हैं।

  कंधों पर हरदम सवार

   एक अगिया बेताल है

   और दुनिया की बिगड़ी चाल है।

   आखिर इस दौर का

   कोई अंत तो होगा?

   तिमिर घनेरा ही सही

   धरती की कोख में

   कोई उजाला तो लिखा होगा।

   

✍️ राजीव सक्सेना, डिप्टी गंज,

मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 3 मई 2021

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से रविवार दो मई 2021 को आयोजित ऑनलाइन कवि गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों की रचनाएं----


1-- है वो जोकर

      हमें खूब हंसता
      आँसू पीकर

2--  जाप करले
       तिलक लगाकर
       पाप करले

3--  न्याय मिलेगा
       चप्पल घिस गई
       कैसे चलेगा

4--  सत्य कहेगा
       अंधो की नगरी में
        कौन सुनेगा

5--  भोले चेहरे
       नहीं सुनेगा कोई
       सभी बहरे

  ===================           
                   
         क्यों भाई------!!!

एक व्यक्ति की
स्कूटर से
हो गई टक्कर,
वह बोला
उल्लू हो क्या ?
चल नहीं सकते देखकर ।
वह बोला
जी हाँ,
मुझे दिन बहुत खलता है,
रात में ही दिखता है ।
पर
तुम तो देख रहे थे,
साइड से
क्यों नहीं चल रहे थे ।
लगता है
हम दोनों
एक ही श्रेणी में आते हैं,
तभी तो बहुत
देर से लड़े जा रहे हैं,
एक दूसरे को
उल्लू कहे जा रहे हैं ।

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
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भीड़ से दूरी बनाओ,
       मास्क भी मुख पर धरो!
बढ़ रहा बेशक करोना,
           पर न तुम इससे डरो!

तेरी हिम्मत-तेरी मेहनत,
             रंग इक दिन लायेगी।
जब बहारें न रहीं तो,
             यह घड़ी भी जायेगी।।
लिख इवारत आसमां पर,
              जंग का ऐलां करो !
बढ़ रहा बेशक करोना,
           पर न तुम इससे डरो!

तम  घनेरे  चीर कर ,
           फिर से उजाले आयेंगे।
तीव्र रवि की रश्मियों में,
          शत्रु सब जल जायेंगे।।
जो मिले हैं काम तुमको ,
           खत्म  सब करते चलो !
बढ़ रहा बेशक करोना,
           पर न तुम इससे डरो !

है थका हारा मुसाफिर,
             और थक कर चूर है ।
पांव में अनगिन हैं छाले,
              चलने से मज़बूर है ।।
फिर भी हिम्मत बांध! उठ चल!,
           मंजिलों  की  ज़िद  करो !!
बढ़ रहा बेशक करोना,
              पर न तुम इससे डरो!

माना मौसम है खिजां का,
                और  बहारें  दूर हैं।
पर चमन महकेगा फिर से,
                कुदरती दस्तूर है।।
वागवां हो तुम चमन के!,
              सींचना न कम करो !
बढ़ रहा बेशक करोना,
              पर न तुम इससे डरो !!

तेरी हस्ती को मिटा दे ,
           ऐसी कोई शह नहीं ।
रब की इस दुनिया में ,
           कोई तेरे जैसा है नहीं।।
बाद जाने के भी बन के,
           गीत तुम गुंजा करो !!
बढ़ रहा बेशक कोरोना,
           पर न तुम इससे डरो !!

✍️ अशोक विद्रोही
412 , प्रकाश नगर,  मुरादाबाद,  मोबाइल फोन 82 188 25 541
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मौतों का सिलसिला जारी है
व्यवस्था की कैसी लाचारी है
आप सिर्फ शोक संदेश पढ़िये
आपकी इतनी ही जिम्मेदारी है

✍️ डॉ मनोज रस्तोगी, मुरादाबाद
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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दिलों से दूरियाँ तज कर, नये पथ पर बढ़ें मित्रो।
नया भारत बनाने को, नई गाथा गढें मित्रो।
खड़े हैं संकटों के जो, बहुत से आज भी दानव,
सजाकर शृंखला सुदृढ़, चलो उनसे लड़ें मित्रो।
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कठिन समय में भूल कर, आपस की हर रार।
आओ मिल जुल कर करें, आशा का संचार।।

चाहे गूँजे आरती, चाहे लगे अज़ान।
मिल कर बोलो प्यार से, हम हैं हिन्दुस्तान।।

राजा-पापे-सोफ़िया, और मियाँ अबरार।
चलो मनाएं प्रेम से, हम सारे त्योहार।।

मत कर इतना चाँद तू, खुद पर आज गुमान।
फिर आयेगा जीतने, तुझको हिन्दुस्तान।।

हरे-भरे वन कट रहे, सिमट रही जलधार।
मानुष सुधरो अन्यथा, प्रलय खड़ी है द्वार।।

✍️ राजीव 'प्रखर'
(मुरादाबाद)
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रुलाया है जिसने हँसायेगा वो ही
ये तक़दीर बिगड़ी बनायेगा वो ही।

भरोसा हमेशा है रहमत पे उसकी
वबा के सितम से बचायेगा वो ही।

नसीबों ने माना, है पहचान खो दी
कि तदबीर फिर भी दिखायेगा वो ही।

हो साजिश अँधेरों की पुरज़ोर कितनी
उजालों का दीपक जलायेगा वो ही।

झुका दो ये सर अपना चौखट पे उसकी
उठाकर गले से लगायेगा वो ही।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर,  मिलन विहार, मुरादाबाद
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जहाँ चाह है वहाँ राह है
सदियों से सुनते आये हैं
बढ़ते कदमों को तूफां भी
रोक भला कहाँ पाये हैं ।

चलते जाते जिनको चलना
नहीं बहाना उनको करना,
बढ़ते जाना बढ़ते जाना
नित नित आगे बढ़ते जाना,
बाधायें जितनी भी आयीं
वे विजय सभी पर पाये हैं ।।
बढ़ते कदमों को तूफां भी.......

नहीं डिगे हैं नहीं रुके हैं
नहीं थमें हैं नहीं थके हैं,
दर्द भूलकर बढ़े चले हैं
बढ़े चले हैं बढ़े चले हैं,
कर पराजित हर अटकन को
बस गान जीत के गाये हैं ।।
बढ़ते कदमों को तूफां भी.....

नेक इरादे अच्छी चाहत
करते नहीं कभी भी आहत,
राहें आसां बनतीं उनकी
देते हैं जो सबको राहत ,
मंजिल तक हैं वही पहुँचते
जो सच्ची लगन से धाये हैं ।।
बढ़ते कदमों को तूफां भी.....

✍️ डॉ रीता सिंह
आशियाना (मुरादाबाद)
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देर तक विपदा नही टिक पाएगी।
देखना इक दिन सुबह मुस्काएगी।

तेरी हिम्मत ही तेरा हथियार है,
दम से तेरे ये खत्म हो जाएगी।

योद्धा भी डर पाए कब इस काल से,
ये कलम तलवार से टकराएगी।

हैं अमर पग चिन्ह सुन इतिहास में,
जिस्म को ही मौत बस ले जाएगी।

हो गए कुर्बा जो राहे फ़र्ज़ में,
हर सदी उस नाम को दुहराएगी।

✍️ इन्दु रानी, मुरादाबाद
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देश ये फिर से यारों सँवर जाएगा।
जल्द ही ये करोना भी मर जाएगा।।

बात शासन की मानों मिरे दोस्तों।
गर न मानें मरज़ ये निगर जाएगा।।

रौशनी हर क़दम फिर से होगी यहाँ।
तीरगी से वतन जब उभर जाएगा।।

मारना है अगर मार नफ़रत को तू।
मारकर बेगुनह को किधर जाएगा।।

ज़ुस्तजू में जो रोजी की बेघर हुआ।
लौटकर आज अपने वो घर जाएगा।।

नासमझ बनके जो जाल फैला रहा।
खुद उसी जाल में फँस के मर जाएगा।।

जंग ग़ुरबत से भी आज है देख लो।
हौसला रख ये पल भी गुजर जाएगा।।

है मुझे ये शपथ आज के हाल पर।
अब न 'आनंद' कोई भी दर जाएगा।।

✍️ अरविन्द कुमार शर्मा "आनंद"
मुरादाबाद (उ०प्र०)
8979216691












मुरादाबाद मंडल के चंदौसी ( जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार डॉ मूलचंद्र गौतम का व्यंग्य ---- कृपया हमेशा पाजिटिव होने से बचें


प्यारेलाल उम्र से पूरे पक चुके हैं लेकिन  आज तक समझ नहीं आया कि कब उन्हें पॉजिटिव होना चाहिए और कब निगेटिव।उन्हें तो  देव दानव ,जीवन और मृत्यु ,सत असत के द्वंद्व का ही पता है जो शाश्वत और सनातन है।सकारात्मकता और नकारात्मकता में वह बात नहीं। मोटी अकल और रटंत विद्या वालों की यही दिक्कत है कि अगर वे कहीं चौराहे पर फँस जायें तो उनकी  बाँये और दाँये की समझ ही गायब हो जाती है क्योंकि वे उल्टा और सीधा ही समझ पाते हैं या लेफ्ट और राइट ।वो तो भला हो ध्रुवतारे का जो हमेशा उत्तर में रहता है अन्यथा ज्यादातर लोग पूर्व और पश्चिम भी नहीं पहचान पाते जैसे कुछ भले आदमी ध्रुवतारे को ही नहीं चीन्ह सकते।उनके लिये मामूली सी दूरी भी बिल्लात यानी विलायत है।

प्यारेलाल को बचपन से सीधे रास्तों पर चलने की आदत है इसलिए वे कभी वृंदावन नहीं गये क्योंकि उन्हें कुंज गलियों में फँसने का डर है।उन्हें तो वसंत कुंज में अपने भाईसाब का घर ढूँढने में ही घण्टों लग जाते हैं क्योंकि वहाँ कोई भला आदमी पडौसी का नाम और नम्बर तक नहीं जानता।इन तमाम हालात के लिये कोई और नहीं वे खुद जिम्मेदार हैं।दरअसल उन्हें बचपन से ही जीवन के जो सूत्र और सुभाषित घुट्टी में पिलाये गये हैं युधिष्ठिर की तरह वे उनके दिमाग से निकलते ही नहीं।मसलन शिव संकल्प सूक्त सहित कृपया बाँये चलें,धीरे चलें, घर पर कोई आपका इन्तज़ार कर रहा है,सत्यं वद धर्मं चर,परहित सरिस धर्म नहिं भाई।वे शमशान में विवाह के गीत तो नहीं गा सकते।अब कोई कुछ भी कहे वे अपने मार्ग से डिगते नहीं।कोई कृष्ण ही उनका दुरुपयोग कर सकता है।

प्यारेलाल एकला चलो में परम विश्वास रखते हैं।साँयकालीन भ्रमण में जब सारे रिटायर्ड बुजुर्ग पेंशन,फंड,डीए ,बेटे बहुओं ,पडौसियों के सामूहिक निंदा रस में  तल्लीन रहते हैं तब वे अपने आध्यात्मिक आनंद में पेड़,पौधों,फूलों और चिडियों को एकटक निहारते रहते हैं।यह वैराग्यपूर्ण गैर दुनियादारी उन्हें घर में भी अजनबी बनाये रहती है।यों खुद को व्यस्त रखने के लिये उन्होंने पाजिटिव थिंकर्स फोरम और लाफ्टर क्लब की सदस्यता ले रखी है जहाँ वे निरंतर सादा जीवन उच्च विचारों का प्रचार करने में लगे रहते हैं लेकिन नकली ठहाके झेलना उनके बस का नहीं ।उन्हें संसार में विपक्ष तक निगेटिव नजर नहीं आता।विज्ञान और दर्शन के सामंजस्य से उन्होंने जो जीवन दर्शन गढा है उसमें बिजली की तरह पाजिटिव और निगेटिव सृष्टि के विकास के दो अनिवार्य तत्व हैं।

लेकिन जबसे प्यारेलाल को डाक्टरों ने कोरोना पाजिटिव घोषित किया है उनका यह विश्वास धराशायी हो गया है।जैसे पूरी दुनिया में उल्टी गंगा बहने लगी है।वे बाबा के सुर में गाने लगे हैं -अब लौं नसानी अब न नसैहों।जैसे यही उनकी आईसीयू, आक्सीजन और रेमीडिसिवर  है।अब उनका जिंदगी का  फलसफा बदल गया है।अब सन्दर्भ और प्रसंग के बिना वे कोई बात नहीं करते।अब तक वे थरूर की अंग्रेजी से ही परेशान थे लेकिन कोरोना और मनोविज्ञान की अजीबोगरीब भाषा के जंजाल ने उनका जीना हराम कर दिया है।डिक्शनरी भी फेल है ।वे समझ गये हैं कि जिंदगी में और मेडिकल की तरह अलग-अलग अनुशासनों की भाषा में जमीन आसमान का फर्क है।इस कलिकाल में खग जाने खग ही की भाषा और ठग जाने ठग ही की भाषा।अवसाद से बचने का यही एकमात्र मध्यमार्ग है।परधर्म में टाँग अडाने या उसमें खाहमखाह घुसाने से उसके टूटने का खतरा है।अंत में उनका निष्कर्ष कि हमेशा पाजिटिव होने से बचो ,जिन्दा रहने के लिये कभी कभार निगेटिव होना भी जरूरी है।यों भी इतिहास गवाह है कि निगेटिव ऊर्जा सदैव से पाजिटिव से ज्यादा ताकतवर होती आई है।जरा सी चींटी पहाड जैसे हाथी को हिला देती है और जरा सा नीबू क्विंटलों दूध को सेकेंड्स में फाड़ देता है।

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम
शक्ति नगर,चंदौसी,संभल 244412
मोबाइल  8218636741

वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । इस आयोजन में समूह में शामिल साहित्यकार अपनी हस्तलिपि में चित्र सहित अपनी रचना प्रस्तुत करते हैं । रविवार 2 मई 2021 को आयोजित 251 वें आयोजन में शामिल साहित्यकारों डॉ अशोक रस्तोगी,चंद्रकला भागीरथी, सन्तोष कुमार शुक्ल सन्त, विवेक आहूजा, शिशुपाल मधुकर, अशोक विद्रोही, कंचन खन्ना, दीपक गोस्वामी चिराग, मीनाक्षी वर्मा, राजीव प्रखर, अटल मुरादाबादी, रेखा रानी, इंदु रानी, शिव कुमार चंदन, रवि प्रकाश, मीनाक्षी ठाकुर, श्री कृष्ण शुक्ल और डॉ मनोज रस्तोगी की रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में .......


















 

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर ) निवासी साहित्यकार नरेंद्र जीत अनाम का गीत ----ओ, कोरोना पीछा छोड़, रख दूं तेरी गर्दन मोड़, पास अगर जो आया जालिम , नींबू सा दूंगा निचोड़


 

रविवार, 2 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी की काव्य कृति - प्रवासी - पंच सई । उनकी यह कृति अशोक प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 1981 में प्रकाशित हुई थी। इसकी भूमिका लिखी है डॉ जयनाथ नलिन ने । इस कृति में उनके 504 दोहे संगृहीत हैं .....


क्लिक कीजिये और पढ़िये पूरी कृति

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:::::::  प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शनिवार, 1 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार की 31 ग़ज़लें -----

 


(1)

उत्सवों के देश में ऐसा अचानक क्या हुआ!

आज हर-इक शहर में सन्नाटा है पसरा हुआ!!


  कैसी  बीमारी  कोरोना, आई  है  संसार में ,

इससे तो हर आदमी है आज घबराया हुआ !!


कोई दुश्मन , दीखता भी तो नहीं है सामने ,

फिर भी उसके ख़ौफ़ से है आदमी सहमा हुआ !!


लाख कोशिश करने पर भी ये सुलझता ही नहीं,

मसअला मज़हब का है ये किसका उलझाया हुआ!


मौत का वारंट बनकर हर जगह पहुँचा है जो,

कौन से ज़ालिम का है फ़रमान यह आया हुआ!! 


आओ!मिल-जुल कर करें 'ओंकार' इसका ख़ात्मा ,

हर जगह  संसार में  कोरोना  है  फैला  हुआ!! 


(2)

यूँ कोई दीप मुहब्बत का जलाया जाए ,

दोस्तो! जिसका ज़माने में उजाला जाए ।।


दिल की कश्ती है घिरी वक़्त के तूफ़ानो में ,

ग़र्क़ होने से भला कैसे बचाया जाए ।।


ख़ून इंसान का जो चूस के फूला है बहुत ,

ऐसे कोरोना को अब जड़ से मिटाया जाए ।।


ज़हर नफ़रत का जो इंसां के लहू में घोलें ,

ऐसे नागों से अब इंसां को बचाया जाए ।।


मसअला हल कोई बंदूक़ नहीं कर सकती ,

क्यों न हल  बैठके आपस में निकाला जाए ।।


नित नए रंग हों ख़ुशबू भी हो प्यारी-प्यारी ,

ऐसे फूलों से ही गुलदस्ता सजाया जाए ।।


जिससे लोगों के दिमाग़ों में हो नफ़रत पैदा ,।।

ऐसी बातों को न अब शेरों में ढाला जाए ।।


प्यार की ज्योति हर इक दिल में जलाकर 'ओंकार' ,

जग से नफ़रत के अंधेरों को मिटाया जाए ।।


(3)

दिल में जो घाव हैं उनको मैं दिखा भी न सकूं ।

अपने अश्कों  को ज़माने  से छुपा भी  न सकूं  ।।

 

इस तरह मोह के बंधन   ने है जकड़ा  मुझको

बेड़ियां तोड़  के संसार से  जा भी   न सकूं ।।


अब हवा- पानी   भी ज़हरीले   हुए हैं    इतने ,

सांस मैं ले न सकूं , प्यास   बुझा भी   न सकूं ।।


दिल में बसते  थे कई ख़्वाब सुहाने  लेकिन ,

जिनकी ताबीर को मैं आज बता भी न सकूं  ।।


कुछ नए गीत हैं करने    को समर्पित  तुमको ,

ग़म यही है मैं जिन्हें , तुमको सुना भी न सकूं ।।


आज बीमारी ये कैसी है कि जिसमें अपने ,

ख़ून के रिश्तों का मैं साथ निभा भी न सकूं ।।


नाव मझधार में है ,  तेज़ है   तूफ़ान  बहुत ,

कितना बेबस हूं कि मैं नाव चला भी न सकूं ।।


ख़ुश हैं कुछ लोग तो बारूद इकट्ठा करके ,

मुझको दुख है, मैं कोई जान बचा भी न सकूं ।।


ग़म ने जकड़ा है  ये संसार सभी ऐ 'ओंकार' ,

एक इंसान को मैं ग़म से छुड़ा भी न सकूं ।।


(4)

न रिश्ता कोई सच,न अब प्यार सच है ।

हुआ सब पे भारी ये बाज़ार सच है ।।


न कोई हुनर या हुनरदार सच है ।

मुनाफ़ा हो जिसमें वो व्यापार सच है ।।


न तो सत्य कवि है न ही सत्य कविता ,

मगर हो जो विकने को तैयार सच है ।


विचारों को उन्नत बनाएं तो कैसे ,

नहीं कोई उनका तरफ़दार सच है ।।


किसी मोल पर हो जो बिकने को राज़ी,

वही आदमी है समझदार, सच है ।।


बचाना शराफ़त को मुश्किल है यारो!,

हुई उसमें जुल्मों की भरमार सच है।।


न आसान है अब सफ़र ज़िन्दगी का ,

भरा मुश्किलों से ये संसार सच है ।।


नियामक है जीवन का पैसा ही अब तो ,

हुआ वो ही रिश्तों का आधार सच है ।।


अकेला हर इक शख़्स है भीड़ में भी ,

किसी का न कोई मददगार,  सच है ।।


नहीं पूछता है कोई सादगी को ,

बनावट के युग में चमकदार सच है ।।


नहीं गुम हुआ जो चकाचोंध में भी ,

फ़क़त आप ही का ये 'ओंकार' सच है।।


(5)

मैं गीत में वो सुखद भवनाएँ भर जाऊँ ,

कि छंद- छंद में बनकर खु़शी उतर जाऊँ !!


तराने प्यार के छेड़ूँ जिधर-जिधर जाऊँ  ,

हर-एक शेर मुहब्बत के नाम कर जाऊँ !!


हर-एक शख़्स करे प्यार सारी दुनिया को ,

सभी दिलों को इसी रौशनी से भर जाऊँ !!


हटा सकूँ मैं सभी रास्तों से काँटों को ,

हर-एक राह पे फूलों-सा मैं बिखर जाऊँ !!


ख़ुशी की राह को मैं खोजता हूँ बरसों से ,

मिले न राह तो फिर बोलिए किधर जाऊँ !!


तुम्हारा साथ अगर उम्र भर मिले मुझको ,

तो सारी मुश्किलें जीवन की पार कर जाऊँ !!


मुझे कमाल वो हासिल हो काश ऐ 'ओंकार',

कि दिल की बातों को शेरों में नज़्म कर जाऊँ!!


(6)

आपस में जहाँ प्यार हो घर ढूंढ़ रहे हैं,

इस दौर में ये कौन-सा दर ढूंढ़ रहे 


परिवार की टूटन से तो सुख-चैन भी टूटा ,

अब चैनअकेले ही किधर ढूंढ़ रहे हैं !


सुख -चैन से सब लोग वतन में हों हमारे ,

अख़बार में हम ऐसी ख़बर ढूंढ़ रहे हैं !


हर बस्ती ,गली -गाँव-नगर,बाग़ में ढूंढ़ा 

मिलता ही नहीं यार मगर ढूंढ़ रहे हैं!


 ग़म कोई किसी को भी न छू पाए कभी भी,

हम लोग वो जीने का हुनर ढूंढ़ रहे हैं !


मीठे हों समर-1और घनी छाँव हो जिसकी ,

पंछी वो बसेरे का शजर ढूंढ़ रहे हैं !


संसार के लोगों के दिलों को जो मिला दे,

अब लोग कोई ऐसा बशर ढूंढ़ रहे हैं !


खोए हैं अभी हम तो विचारों के भँवर में ,

मंज़िल पे पहुंचने की डगर ढूंढ़ रहे हैं!


'ओंकार' बबूलों को ही बोया था जिन्होंने ,

वो लोग ही अब आम इधर ढूंढ़  रहे हैं !

1- समर= फल


(7)

नाम तक भी नहीं शेष मधुमास का ।

एक भी फूल खिलता नहीं आस का ।।


हर मनुज है अकेला यहाँ आजकल ,

है न अंकुर कहीं मन में विश्वास का ।।


अब स्वयं से भी भयभीत है आदमी ,

हर दिशा में हुआ वास संत्रास का ।।


रंग काला रंगा भृष्ट आचार ने  ,

स्वच्छ कैसे बने पृष्ठ इतिहास का ।।


मार्गदर्शी ग्रसित मोतिया बिंद से ,

दीखता ही नहीं दूर का- पास का ।।


अब अँधेरा उजाला निगलने लगा ,

एक भी दीप जलता नहीं आस का ।।


लालसा तीव्र थी देखने की उन्हें ,

था न अनुमान जिनको मेरी प्यास का  ।।


है न 'ओंकार 'कहना सरल यह ग़ज़ल ,

खेल है ये कठिन नित्य अभ्यास का ।।


(8)

फूल खिलते हैं हसीं हमको रिझाने के लिए ।

ये बहारों का है मौसम गुनगुनाने के लिए ।।


बाग़ में चंपा, चमेली ,खेत में सरसों खिली ,

हर कली तैयार है अब मुस्कुराने के लिए ।।


गुलमुहर के लाल फूलों की छटा है फागुनी ,

है रंगीली धूप धरती को सजाने के लिए ।।


देखकर फूलों को खिलता झूमती हैं तितलियाँ ,

मस्त भौंरे गुनगुनाते रस को पाने के लिए ।।


कोंपलों के फूटते ही आम बौराने लगे ,

आ गई डाली पे कोयल गीत गाने के लिए ।।


नाचती हैं तितलियाँ , मधुमक्खियाँ देती हैं ताल ,

मस्त धुन पंखों से बजती झूम जाने के लिए ।।


अब उदासी रात की धुलकर सहर होने लगी ,

आ गया फूलों का मौसम खिलखिलाने के लिए ।।


ताज़गी से भर गया उम्मीद का हर-इक ख़याल ,

गुनगुनी है धूप सर्दी को मिटाने के लिए ।।


उड़ रही है मस्त खुशबू हर तरफ़ 'ओंकार 'अब,

दिल उसे करता है साँसों में बसाने के लिए ।।


(9)

हम नई राहें बनाने का जतन करते चलें ।

जो भी वीराने मिलें उनको चमन करते चलें ।।


नफ़रतों की आग से बस्ती बचाने के लिए ,

प्यार की बरसात से ज्वाला शमन करते चलें ।।


दूसरों का छीनकर सुख अपना सुख चाहें नहीं ,

ऐसे सुख की कामनाओं का दमन करते चलें।।


अंधकारों को ज़माने से मिटाने के लिए ,

ज्ञान के दीपक जलाने का जतन करते चलें ।।


सारी दुनिया में सभी सुख से रहें ये सोचकर ,

रात-दिन अपने विचारों का हवन करते चलें ।।


रात भर जलकर स्वयं जो रौशनी करते रहे ,

उन दियों की साधनाओं  को नमन करते चलें ।।


हौसला कमज़ोर को देते रहें  'ओंकार' हम ,

दूर गीतों से दिलों की हर दुखन करते चलें ।


(10)

ज़द में उदासियों की वतन देखते चलें ।

आओ ! फिर एक बार चमन देखते चलें ।।


मेले न महफिलें हैं , न यारों के क़हक़हे ,

वीरान क्यों है आज वतन देखते चलें ।।


किस वास्ते रुखों पे उदासी है आजकल ,

किस आग में जले हैं बदन देखते चलें ।।


 चिड़ियों के चहचहाने से ,कोयल के गीत से ,

क्या गूंजता है अब भी गगन देखते चलें ।।


चल चित्र देखने में लगे  लोग आजकल ,

सजती कहाँ है बज़्मे -सुख़न देखते चलें ।।


फसलें उग रहे हैं पसीना बहा के जो ,

चेहरों की आज उनके थकन देखते चलें ।।


किन महफ़िलों में जश्ने-चिरागां है दोस्तो !

है किन घरों में आज घुटन देखते चलें ।।


'ओंकार'  सीखना है अगर प्यार का सबक़ ,

सागर से इक नदी का मिलन देखते चलें ।।


(11)

ग़मों के बीच से आओ! खुशी तलाश करें !

अँधेरे चीरके हम रोशनी तलाश करें!!


ख़ुशी को अपनी लुटाकर ख़ुशी तलाश करें ,

सभी के साथ में हम ज़िन्दगी तलाश करें !!


हटाके धूल जमी है जो अपने रिश्तों पर ,

पुराने प्यार में हम ताज़गी तलाश करें !!


अकेलेपन को मिटाने को आज दुनिया से,

भुलाके भेद सभी दोस्ती तलाश करें!!


दिल अपना शोर से दुनिया के आज ऊब गया ,

चलो कहीं भी मिले ख़ामशी तलाश करें !!


ख़ुशी जो गुम है चकाचोंध में बनावट की ,

ख़ुशी वो पाएं अगर सादगी तलाश करें !!


निकल पड़ेंगे उजाले इन्हीं अंधेरों से ,

हम अपने मन की अगर रोशनी तलाश करें !!


नहा के जिसमें बनें मन पवित्र लोगों के ,

विशुद्ध जल की वो गंगा नदी तलाश करें !!


मिटाके नफ़रतें संसार से सभी "ओंकार" ,

चलो के भोर मुहब्बत भरी तलाश करें !!



(12)

किया है उसने किसी खल का अनुसरण मित्रो !

कि जिससे बिगड़ा है उसका भी आचरण मित्रो !!


सड़क है सकरी गली और मन भी तंग हुए ,

हुआ है आज सभी ओर अतिक्रमण मित्रो !


इधर से मूल्य बढ़े हैं उधर से बेकारी ,

हुआ सब ओर से पूँजी का आक्रमण मित्रो !


धरा को फोड़के अंकुर गगन को घूरेंगे ,

हर-एक बीज का होगा जब अंकुरण मित्रो !


जिधर हों फूल सुगंधित उधर ही जाते हैं ,

सुगंध -मुग्ध है भौंरों का आचरण मित्रो  !


मधुप की गूँज को सुन कर कली ने मुस्काकर ,

हटा दिया है स्वयं मुख से आवरण मित्रो !


लगाके पेड़ नए उनकी देखभाल करें , 

वसुन्धरा का नहीं होगा फिर क्षरण मित्रो !


चलो कि सीख लें जीने का ढंग नैसर्गिक ,

सुखी बनाएगा उसका ही अनुसरण मित्रो !


तुम्हारे हँसने से खिलते हैं फूल उपवन में ,

तुम्हारा फूल भी करते हैं अनुकरण मित्रो !


जगाएँ प्रेम मनों में सभी के हम 'ओंकार',

हमारा काम है करना ही जागरण मित्रो !


(13)

 मिलने-जुलने की कोई राह निकाली जाए!

क्यों न तन्हाई से अब जान छुड़ा ली जाए !!


बीच में रिश्तों के अब रार न डाली जाए !

जो भी दीवार हो ऐसी वो हटा ली जाए !!


यूँ न पगड़ी सरे- बाज़ार उछाली जाए !

बात घर की है तो घर में ही संभाली जाए !!


आओ! सब ईद की खुशियों को मनाएँ मिलकर ,

और दीवाली भी मिल-जुलके मना ली जाए !!


जिससे लोगों के दिमाग़ों में हो नफ़रत पैदा ,

बात ऐसी न कभी मुँह से निकाली जाए !!


कल भी हम एक थे और एक रहेंगे कल  भी ,

बात नफ़रत की हर-इक दिल से निकाली जाए !!


जिसमें हर रंग के फूलों की महक हो शामिल,

एेसे फूलों से ही महफ़िल ये सजा ली जाए !!


कल तो 'ओंकार' उगेगा ही ख़ुशी का सूरज,

दुख भरी रात है ये आज बिता ली जाए! !


(14)

जाने हम गॉव की तारीख़ किधर भूल गए!

याद सब कुछ है मगर अपना ही घर भूल गए!!


इस क़दर लोग अँधेरों के तरफ़दार हुए ,

ऐसा लगता है उजालों का सफ़र भूल गये !


मुश्किलों को न गिना वोटों की गिनती कर ली,

नज़्र वोटिंग के हुए कितनों के सर भूल गये !


टूट  जाते  हैं  ज़रा  बात  में   रिश्ते    ऐसे  ,

जैसे अब लोग मुहब्बत का हुनर भूल गये !


मैने   हर   तौर  मुहब्बत  में उजाले  देखे ,

और तुम मेरे उजालों का नगर भूल गये !


एक हो जाएं तो दुनिया को बदल सकते हैं ,

हम तो ख़ुद अपनी ही ताक़त का असर भूल गये!


हों जो फलदार, घनी छांव लिए खुशबू भी,

लोग राहों पे लगाना वो शजर भूल गये !


रूप की धूप ढली सांझ की बेला आई ,

कितना रंगीं था वफाओं का सफ़र भूल गये ,


तुमने जो राह ज़माने को दिखाई 'ओंकार' ,

याद रखनी थी तुम्हें , ख़ुद ही मगर भूल गये!


(15)

जिसने सीखा है हर-इक शख्स की इज़्ज़त करना !

उसको आता है हर-इक दिल पे हकूमत करना !!


नेक बंदों को सिखाते हैं जो नफ़रत करना ,

ऐसे लोगों से सदा आप बग़ावत करना !!


बेगुनाहों पे मज़ालिम-1 जो किया करते हैं,

वे सभी छोड़ दें अब ऐसी शरारत करना !!


दिल भी जलते हैं फ़ना ज़िन्दगी हो जाती हैं ,

है बुरी बात किसी से भी अदावत करना !!


लोग संसार के सुख-चैन से रह सकते हैं ,

सबकी चाहत हो अगर ख़त्म कदूरत-2 करना !! 


उनका दस्तूर है क्या ये हमें मालूम नहीं ,

हमको आता है फ़क़त सबसे मुहब्बत करना !!


बिगड़े हालात हमारे भी सुधर सकते हैं ,

हमको आ जाए अगर वक़्त की इज़्ज़त करना !!


लोग खुशहाल सभी होंगे वतन में अपने ,

सब अगर सीख लें जी-जान से मेहनत करना !!


दुख की रातें हैं बड़ी , चंद खुशी की घड़ियाँ ,

ज़िन्दगी के तू हर-इक पल से मुहब्बत करना !!


जल की एक बूंद है संजीवनी जीवन के लिए,

एक-इक बूंद की सब लोग किफ़ायत करना !!


क़ीमती होता है हर आँख का आँसू यारो,

एक आँसू की भी 'ओंकार'हिफ़ाज़त करना !


1-मज़ालिम-- अत्याचार (बहुवचन)

2-कदूरत-- गदलापन ,मैलापन , रंजिश


(16)

राहों की मुश्किलों से न घबरा रहा हूँ मैं !

काँटों में अपनी राह बनाता रहा हूँ  मैं !!


छाने लगी है अब तो थकन जिस्म पर मेरे ,

वरना कभी जवान सजीला रहा हूँ मैं!!


चेहरे की झुर्रियों पे नहीं आज तुम हँसो,

कल तक किसी का ख़्वाब सुहाना रहा हूँ मैं !!


वीणा के अपनी   तार पुराने   हुए हैं  अब ,

जीवन का वरना साज़ सुरीला रहा हूँ मैं ,


खाई हैं कितनी ठोकरें जीवन की राह में, 

गिर-गिर के बार - बार संभलता रहा हूँ मैं !!


ज़ख़्मों को मेरे दिल के कोई कैसे जानता ,

हंस-हंस के अॉसुओं को छिपाता रहा हूँ मैं !!


सुनता नहीं  है   कोई  भी    पैग़ामे - दोस्ती ,

फिर भी तो दिल की बात सुनाता रहा हूँ मैं!!


नफ़रत के दाग़ दिल से मिटाने को आज तक ,

नयनों के प्रेम-जल से ही धोता रहा हूँ  मैं !!


'ओंकार' 'जब से होश संभाला है आज तक ,

जीवन की उलझनों को ही सुलझा रहा हूँ  मैं!!


(17)

बीत रहे हर पल को भरने एक नया पल आएगा 

समय नहीं रुकता रोके से आगे बढ़ता जाएगा 


बुरे समय में अगर किसी के जो भी साथ निभाएगा

खुशियाँ उसके पॉव छुएंगी वो हरदम मुस्काएगा 


करो सदा सम्मान समय का यह तो एक परिंदा है 

अगर परिंदा उड़ जाएगा कभी न वापस आएगा 


कष्ट पड़ें चाहे जितने भी मलिन नहीं होगा साधू 

जैसे- जैसे स्वर्ण तपेगा और निखरता जाएगा 


जीवन रूपी इस पुस्तक में नियम यही लागू होगा य

इक पन्ना यदि पलट गया तो झट दूजा खुल जाएगा 


ऐ 'ओंकार ' सदा तू दिल से लोकहितों की बातें लिख 

तेरे गीतों को पढ़-पढ़कर हर मानव सुख पाएगा 


(18)                

बस्ती-बस्ती हमें ज्ञान के दीप जलाने हैं 

हर बस्ती से सभी अंधेरे दूर भगाने हैं 


सबके मन में प्रीत जगाते गीत सुनाने हैं 

भरें उमंगें हर मन में,वे साज़ बजाने हैं 


हरियाली ही हरियाली हो खेतों में सबके 

श्रम करके ही हमें सभी उद्योग चलाने हैं 


खोज करेंगे नए-नए हम चाँद सितारों की 

मानव हित को नए-नए औज़ार बनाने हैं 


मिले सभी को सुख-सुविधा सब शोषण मुक्त रहें

इस धरती पर खुशियों के अंबार लगाने हैं 


खुशबूदार हवा हो जिनकी और रसीले फल 

जीवन की बगिया में ऐसे पेड़ लगाने हैं 


महानगर से सड़क, गाँव,हर घर तक जाएगी 

इस जीवन के सब के सब पथ सुगम बनाने हैं 


नए-नए फ़िरक़ों में बांटें जो 'ओंकार' हमें

सावधान उनसे रहना वे ढीठ पुराने हैं 


(19)           

विचारों में मेरे गहराइयां हैं 

ये तेरे प्यार की ऊँचाइयां हैं 


उठीं जन मन से जो चिंगारियां  हैं 

तनीं प्रत्यक्ष  में  अब  मुट्ठियां हैं 


बढ़ी जातीं गहन कठिनाइयां हैं 

दिखीं हर ओर फिर क्यों  चुप्पियां हैं 


न कम समझे कभी भी बेटियों को

सुखी घर को बनाती बेटियां हैं 


व्यथाएं मार्ग की किसको सुनाएं 

कहारों ने ही लूटीं डोलियां  हैं 


विदेशी शब्द-जालों के भंवर  में 

फंसीं जाती हमारी बोलियां हैं 


बिखरते जा रहे  संबंध  सारे 

सुलझती  ही नहीं अब गुत्थियां हैं 


इसी धरती की हैं संतान हम सब

हमारे बीच  फिर क्यों दूरियां हैं 


उड़ी हैं छीनकर हाथों से रोटी 

चलीं कैसी प्रगति की ऑधियां हैं 


निराशा के क्षणों में से भी हमको

मिलीं जीवन की कुछ उपलब्धियां हैं 


चलाता था मनुज कल मंडियों को

चलाती अब मनुज को मंडियां हैं 


खड़ी  बाधाएं करती हैं निरंतर 

प्रगति के  मार्ग में कुछ रूढ़ियां हैं 


लगे फल हैं अधिक 'ओंकार ' जिस पर

झुकीं उस पेड़ की सब डालियां  हैं 


(20)

दर्द में डूबी है क्यों रात ,कोई क्या जाने 

किसने बख़्शी है ये सौग़ात, कोई क्या जाने 


आज छप्पर से टपकता है जो पानी घर में 

कैसे गुज़रेगी ये बरसात , कोई क्या जाने 


हर तरफ़ धोखाधड़ी,ज़ुल्म हैं और राहज़नी

किस क़दर बिगड़े हैं हालात,कोई क्या जाने


जाने कब लौट के फिर आएँ मेरे आंगन में 

गूँजते प्यार के नग़मात,कोई क्या जाने 


आज किस वास्ते मुरझाई हैं कलियाँ प्यारी 

कैसी पेड़ों से हुई घात, कोई क्या जाने 


छोटा घर छोड़के महलों में ठहरती है सदा 

धूप के दिल में है क्या बात, कोई क्या जाने 


किसलिए शोले भड़कते हैं किसी के दिल में 

क्यों झुलस जाते हैं जज़्बात, कोई क्या जाने 


आग में फ़िक्र की हर ज़हन झुलसता है क्यों 

कौन सी किस को लगी बात,कोई क्या जाने


कुर्सियों के लिए होती है बहस संसद में 

आम लोगों के सवालात, कोई क्या जाने


कल को "ओंकार" किसे घेरे अँधेरा ग़म का 

रास आएँ किसे हालात, कोई क्या जाने 

        

(21)

तपाकर ख़ुद को सोने -सा निखरना कितना मुश्किल है

ख़ुद अपनी ज़िंदगी पुरनूर-1 करना कितना मुश्किल है


है आसाँ ख़ून से अपनी इबारत आप ही लिखना 

मुकम्मल शेर में अपने उतरना कितना मुश्किल है 


बहुत आसान है गुलपोश-2 राहों से गुज़र जाना

मगर पथरीली राहों से गुज़रना कितना मुश्किल है


गुज़रती ज़िन्दगी जिसकी है औरों की भलाई में 

नदी की धार-सा लेकिन गुज़रना कितना मुश्किल है


किसी निर्धन को मिल सकता है उजला पैरहन-3 लेकिन

किसी चेहरे से कालिख का उतरना कितना मुश्किल है


बहुत है डूबने वाले को तिनके का सहारा भी 

डुबोया जिसको अपनो ने उभरना कितना मुश्किल है


बहुत आसान है कुछ खोट औरों में बता देना

मगर अपनी कमी को दूर करना कितना मुश्किल है 


मिला धोखा हो जिसको हर क़दम 'ओंकार सिंह'बोलो

किसी पर भी उसे विश्वास करना कितना मुश्किल है 

1-पुरनूर--चमकीला,आभायुक्त,

2-गुलपोश राहों =फूल बिछे रास्ते

3- उजला पैरहन =सफेद कपड़े


(22)

आदमी ऊँचा उठा तो और भी तनकर मिला

हाँ मगर झुकता हुआ फल से लदा तरुवर मिला


चिलचिलाती धूप में जब भी घना तरुवर मिला 

इक थके हारे पथिक को जैसे अपना घर मिला 


आज अच्छे आचरण से लोग क़तराने लगे 

जो भला था बस वही अब काँपता थरथर मिला


रोशनी अच्छाइयों की कैसे टिक पाती भला 

जब अँधेरों से डरा-सहमा हुआ दिनकर मिला 


एक अच्छा मित्र मैने  उम्रभर खोजा मगर 

आज तक उसका पता पाया न उसका घर मिला


भूल को तू ,दोस्तों की ,तूल देना छोड़कर 

हाथ अपने दोस्तों से और भी बढ़कर मिला 


पास आ 'ओंकार' तू शिकवे शिकायत भूलकर 

'"मीत मन से मन मिला तू और स्वर से स्वर मिला "


(23)

प्यार का होता है यारो क़ायदा कुछ भी नहीं

राब्ता ही राब्ता-1  है ज़ाबता-2  कुछ भी नहीं


कब तलक है दाना-पानी ये पता कुछ भी नहीं 

ज़िन्दगी से मौत का तो फ़ासला कुछ भी नहीं 


भूलता हरगिज़ नहीं कमियाँ किसी इंसान की 

वक़्त करता है इशारे बोलता कुछ भी नहीं 


सारे सुख-दुख और साधन बांटते मिलकर अगर 

तो दिलों के बीच होता फ़ासला कुछ भी नहीं


शोर में  पूजा - इबादत कैसे  हो पाए  भला 

शोर है केवल दिखावा प्रार्थना कुछ भी नहीं


जोड़ने का काम करती थी सियासत अब मगर

तोड़ना ही तोड़ना है जोड़ना कुछ भी नहीं 


प्यार से सब ही रहें 'ओंकार' दुनिया में सदा 

दिल में मेरे और है अब कामना कुछ भी नहीं 

राब्ता ही राब्ता=मेल-मिलाप

ज़ाबता= विधि-विधान 


(24)

आपके आ जाने भर से यह अचानक क्या हुआ।

मेरा घर लगने लगा है आज तो महका हुआ ।।


ज़िंदगी की झंझटों में ख़ुद को था भूला हुआ ,

शाम को घर आ गया वो सुब्ह का भटका हुआ ।।


चैन से बीते  बुढ़ापा ,थी यही   चाहत  मगर, 

सत्य हो पाया न अब तक अपना वो सोचा हुआ ।।


जिंदगी का कारवॉ  अब  आख़िरी  मंज़िल  में है,

काम आ जाता है अब भी  मॉ का समझाया हुआ ।।


एक अरसे में   गया  तो , गॉव   वालों ने   कहा ,

एक चेहरा लग  रहा है  जाना- पहचाना  हुआ ।।


जाला मकड़ी की तरह  ख़्वाबों का बुन डाला घना, 

अब उसी जाले में है ,ये आदमी उलझा हुआ ।।


 कैसी  बीमारी  कोरोना, आई  है  संसार में ,

इससे तो हर आदमी है आज घबराया हुआ ।।


कोई दुश्मन सामने से दीखता भी है नहीं,

फिर भी उसके ख़ौफ़ से है आदमी सहमा हुआ ।।


लाख कोशिश करने पर भी ये सुलझता ही नहीं,

मसअला मज़हब का है ये किसका उलझाया हुआ ।।


जिससे हर-इक ज़िंदगी ख़तरे में है 'ओंकार' अब,

कौन से ज़ालिम का है यह जाल फैलाया  हुआ ।।


(25)

क़ुदरत ने हमको दिए ,    नए- नए    उपहार ।

भुला दिए हमने मगर ,   उसके सब उपकार ।।


उसने तो हमको दिए , विविध रंगों के फूल ,

जिनकी मस्त सुगंध से , महक रहा संसार ।।


हरे पेड़-पौधे हमें ,      देते पावन  वायु     ,

जिन पर लगते फूल-फल , देते ख़ुशी अपार ।।


खाने से फल-फूल के , मिटे पेट की भूख ,

हो जाता है गात में ,     ऊर्जा का संचार  ।।


सभी चाहते हैं यही , स्वस्थ रहें  सब लोग,

हरियाली का सब करें , मिलजुलकर विस्तार ।


हरा-भरा संसार को ,   करें लगा  कर पेड़ ।

हरियाली है दोस्तो ,  जीवन का  आधार ।।


(26)

इंसान ही दुनिया में है इंसान का दुश्मन ।

शैतान तो होता नहीं शैतान का दुश्मन ।।


मेहनत पे जो करता नहीं है अपनी भरोसा ,

वो खेत का दुश्मन है वो खलिहान का दुश्मन ।


जिस शख्स का मामूल हो जिस्मों की नुमाइश ,

होगा वो मेरे मुल्क के सम्मान का दुश्मन ।।


गुलशन में हसीं फूल खिलेंगे भी तो कैसे ,

माली हो अगर कलियों की मुस्कान का दुश्मन ।।


ऐ दोस्त भला ऐसे में हो किस पे भरोसा ,

दरबान जहां पर हो खुद ऐवान 2का दुश्मन ।।


किस तरह वहाँ कोई किसी हुक्म को माने ,

हाकिम हो अगर अपने ही फ़रमान का दुश्मन ।।


'ओंकार' ज़माने में कोई शख़्स किसी के ,

अहसास का दुश्मन हो न अरमान का दुश्मन ।।


1-मामूल- आदत, २- ऐवान- महल


(27)

मेरे भोलेपन का उसने कितना प्यारा मोल दिया ।

"नफ़रत की मीज़ान पे उसने मेरा सब कुछ तोल दिया "।।


हमने जिस को सम्मानित कर बैठाया अपने सर पर ,

उसने हमको अपमानित कर उल्टा-सीधा बोल दिया ।।


बंधक उसने समझ लिया है मेरे नाज़ुक-से दिल को ,

जब चाहा दामन में बांधा ,जब जी चाहा खोल दिया ।।


कुछ लोगों ने अच्छाई को  ‌ दूर किया यों जीवन से ,

जैसे ग़ल्ले में से कूड़ा , छाना- फटका रोल दिया ।।


साधनहीनों को लोगों ने  , ठुकराया हर तौर मगर ,

पल्ला जिसका भारी देखा, वह सिक्कों से तोल दिया ।।


ताल-तलैया नदियां पाटीं , धरती बंजर कर डाली ,

पेड़-हरे काटे लोगों ने , सांसों में विष घोल दिया ।।


हिन्दू,मुस्लिम,सिख, इसाई , रहते हैं जिसमें मिलकर ,

मेरे भारत ने दुनिया को, वह प्यारा भूगोल दिया ।।


दुनिया ने 'ओंकार' हमें तो, ख़ूब सताया है लेकिन ,

हमसे जितना हो पाया है , प्यार हवा में घोल दिया ।।


(28)

अज्ञान की चौखट पे झुका ज्ञान मिला है 

विद्वान को ठुकराता ही धनवान मिला है 


रहकर के तेरे साथ में जो ज्ञान मिला है 

उसमें ही मुझे आज ये अवदान-1 मिला है 


मिलते थे विविध रंग के सुघड़ फूल जहाँ पर 

अब मात्र वहाँ शूलों का संज्ञान मिला है 


समझो कि पतन शीघ्र है उस देश का मित्रो

विद्वान को जिस देश में अपमान मिला है 


सब लोग अलग ढपलियों को पीट रहे हैं 

समवेत-2 सुरों का न कोई भान मिला है 


यह शोर- शराबा भला संगीत है कैसा 

सुर -ताल का जिसमें नहीं संज्ञान मिला है 


पाने के लिए धन को ही जो दौड़ते रहते 

सदमार्ग का उनको न कोई ज्ञान मिला है 


उलझे हैं अभी प्रश्न तो जीवन में बहुत से 

उनका न कहीं कोई समाधान मिला है


हर व्यक्ति को बाज़ार ने उलझाया है ऐसे 

वो प्रेम की हर बात से अनजान मिला है 


धरती को निहारो तो वो है कितनी मनोहर  

'ओंकार'  न उस रूप को पहचान मिला है 

1-अवदान=उत्क्रष्ट या पवित्र विचार 

2-संवेत = एकीक्रत या एकीकरण 


(29)

बढ़ते हुए उन्माद को अलगाव को रोको 

हर हाल में तुम आपसी टकराव को रोको 


बेकार न कर दे कहीं उपजाऊ ज़मीं को 

उफ़ने हुए इस पानी के भटकाव को रोको 


फिर आज उठी है नई विध्वंस की आंधी

सदयत्न से निर्माण के बिखराव को रोको 


ज़रदार  मेरे    हिन्द  पे  हैं  घात  लगाए 

ज़रदारों के बढ़ते हुए फैलाव को रोको 


पहले भी बहुत ज़ख़्म हैं सीने में हमारे

'ओंकार' ज़माने के नए घाव को रोको 

 

(30)

जाति, मज़हब धर्म के झगड़े  मिटाने के लिए 

आओ!  सोचें बीच की दीवार ढाने  के लिए 


एक लम्हा है  बहुत  रिश्ता बनाने के लिए 

उम्र लेकिन कम है वो रिश्ता  निभाने के लिए 


उम्र कम पड़ती है  जिस घर को बनाने के लिए 

एक लम्हा है  बहुत  उसको गिराने के लिए 


कोई  मुश्किल में किसी की काम आता ही नहीं 

हर  कोई  तैयार  है  बातें  बनाने  के  लिए 


दीप जो क़ुरबानियॉ देकर जलाए थे यहॉ

लोग अब चक्कर में हैं उनको बुझाने के लिए 


बॉटते  ख़ुशियॉ  परिंदे  और  देते  सुख हमें

हम भी कुछ करते हैं क्या उनको बचाने के लिए 


शोर अब कौओं का सुनकर ऐसा लगता है मुझे 

ये परिंदे  आए  हैं  संसद   चलाने   के लिए


हमने यह महफ़िल करी मंसूब  जिनके नाम पर

काश वो आते  हमें जलवा  दिखाने के लिए 


हमने भी कुछ शेर लिक्खे हैं नए 'ओंकार सिंह '

दिल हुआ  बेताव है  उनको सुनाने  के लिए


(31)

चमन में गुलों की हँसी लुट न जाए
ये कलियों की दोशीज़गी -1 लुट न जाए

जो राहे -वफ़ा से मिटाती है ज़ुल्मत-2
चिरागों की वो रोशनी लुट न जाए

बने हो मुहाफ़िज़ -3 मगर याद रखना
सरे-रहगुज़र-4 फिर कोई लुट न जाए

अजब हादसों के मुक़ाबिल है शायर
कहीं आज़मते-शायरी-5  लुट न जाए

बहुत कोशिशें हैं हमें बांटने की

ये महफ़िल मुहब्बत भरी लुट न जाए

ये कोशिश करें आज 'ओंकार' हम सब
कोई फूल-सी ज़िन्दगी लुट न जाए

1-दोशीज़गी- कौमार्य,    2- ज़ुल्मत--अँधेरा
3--मुहाफ़िज़--रक्षक , 4- सरे-रहगुज़र --रास्ते में
5-अज़मते-शायरी--- शायरी का सम्मान

✍️ ओंकार सिंह 'ओंकार'
1-बी-241 बुद्धिविहार,मझोला,
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)  244001
मो.न.      9997505734


मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- बवाल-ए-फ़ोन-टेपिंग !!!!


 विपक्षी दलों की फोन-टेपिंग का मामला जब सामने आया तो कई नेताओं की दिन की नींद और रात का चैन ( जो ज़ाहिर है की बिस्तरों पर ही मिलता है ) अचानक गायब हो गया. सुबह संसद में सोने वाले नेता भी जाग गए कि पता नहीं रात में होने वाली हमारी कौन सी सीक्रेट बात रिकॉर्ड कर ली गयी हो ? क्या पता कि रामकली से घर जल्दी आने की बात कहकर लाजवती यानि लज्जो से होटल जल्दी पहुंचने की बात हो या आई.पी.एल.के घपलों में अपनी हिस्सेदारी से मुक्त होने के जुगाड़ की कोई बात की गयी हो. कल रात भर नेताओं के हाथ-पैर फूले रहे कि पता नहीं हमारी कौन सी 'ह्युमन वीकनेस' यानि मानवीय कमज़ोरी पब्लिक के सामने लाने की साज़िश रची जा रही हो कि कभी इलेक्शन में खड़े होना तो  अलग, नामांकन कराने लायक पोज़ीशन भी ना रहे हमारी.

आज सुबह से ही संसद की इमारत यह सोचने में लगी थी कि मैंने पता नहीं कौन से ऐसे बुरे कर्म अपने पिछले जन्म में किये थे, जो आज उनकी सज़ा एक शोरमचाऊ इमारत के रूप में जन्म पाकर भुगतनी पड़ रही है. जिन लोगों के फटे हुए गले पहले से ही इस लायक नहीं हैं कि वे उन्हें और ज़्यादा फाड़ सकें, वे भी गला फाड़-फाड़कर कह रहे हैं कि " यह जो कुछ भी हुआ या अभी भी हो रहा है, वह लोकतंत्र के मुंह पर ( अगर वह वाक़ई में कहीं दिखता है तो ) एक ना पड़ने लायक तमाचा है. " संसद के उस वीरान कोने में, जहां लोग बीड़ियों और सिगरेटों के टोंटे फ़ेंक दिया करते है, लोकतंत्र खड़ा हुआ सोच रहा था कि इस मुल्क के नेता हर मसले में मेरे मुंह पर ही तमाचा क्यों पड़वाते हैं, खुद के मुंह पर क्यों नहीं ?

 यह हमारी गोपनीयता के अधिकारों का हनन है और इसे जब तक हम यह सरकार बदलकर अपनी सरकार ना ले आयें, नहीं होने देंगे. " किसी ऐसे विपक्षी सांसद की आवाज़ उनके गले में से बार-बार कुछ सोचते हुए निकलने के प्रयास करती है, जो पिछले दिनों ही अपने गले में आज़ादी के बाद से जमे बलगम को साफ़ कराके अमरीका से लौटे थे.    " यह सरासर ज़्यादती है, तानाशाही है और मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि... वो क्या नाम है उसका.....लोकतांत्रिक.....लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास है. " कोने में खड़े लोकतंत्र का मन कर रहा था कि वह अभी उस सांसद का गला पकड़ ले, जिसने इस बार फिर उसके ह्रास होने जैसी कोई गन्दी बात की है. खुद के चरित्र का कितना ह्रास कर लिया है इसने, यह कभी नहीं सोचा इस नेता ने ? लोकतंत्र आज कुछ ज़्यादा ही दुखी था.    " सरकार को हम सबसे और इस देश की जनता से माफ़ी मांगनी होगी कि इस तरह की हरकतें वह फिर नहीं करेगी. " किसी ऐसे सांसद की आवाज़ इस बार सदन में गूंजी, जो पहले कभी सरकार में मंत्री-पद पर था और अभी भी उम्मीद में था कि उसे फिर से सरकार में अपनी हिस्सेदारी वापस मिल जायेगी.

संसद में इस फोन-टेपिंग प्रकरण के विरुद्ध सबसे ज़्यादा गला उन्हीं लोगों ने फाड़ा था, जो पिछले कई महीनों से खुलेआम आई.पी.एल., मैच- फिक्सिंग, सट्टे और महिला-मित्रों के संसर्ग में थे और अपने हिस्सेदारों से स्वीटजरलैंड में बैंक-खाते खोलने की प्रक्रियाएं पूछ रहे थे. सबसे ज़्यादा हंगामा यही लोग कर रहे थे. सरकार से माफ़ी मांगने की मांग करने वाले लोग वे थे, जिनकी सोच यह थी कि अगर माफ़ी मांग ली तो ठीक और अगर शर्म या किन्हीं अडचनों की वजह नहीं मांगी, तो उनकी सरकार को समर्थन दे देंगे. समर्थन देने में क्या घिस रहा है ? लेकिन अगर समर्थन नहीं दिया तो सरकार का तो कुछ नहीं घिसेगा, मगर हमारा सब कुछ घिस जाएगा.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की कहानी ---अनोखा विकास

     


किसी नगर में एक अनोखा वृक्ष था। उस वृक्ष पर बहुत सुंदर और सुनहरे फल लगते थे।जिन्हें विकास फल के नाम से जाना जाता था।समस्त जनता को वे फल उनके विभिन्न कार्यों के अनुसार, कम या ज्यादा तोड़कर दिये जाते थे।या यों कहिए कि उन विकास नामक फलों को खाकर ही उनको विभिन्न सुख- सुविधाएं प्राप्त होती थीं।परंतु जो भी राजा उस नगर में राज्य करता ,वह उन फलों के एवज़ में उनसे कुछ न कुछ अवश्य ही वसूलता था।

   एक बार वहाँ की प्रजा ने सोचा कि हम एक ऐसे राजा को चुनते हैं, जो हमसे बदले में कुछ भी न ले और यह फल भी खाने को मिल जायें।अतः नया राजा बनाया गया।जब विकास रूपी फल खाने का समय आया ,तब प्रजा राजा के दरबार पहुँची और उन फलों की माँग करने लगी।

 राजा ने उन सभी की बात सुनकर कहा,"ये फल आपको अवश्य मिलेंगे, परंतु इनके एवज़ में आपको अपनी जान देनी पड़ेगी!!"

"ये क्या कह रहे हो महाराज!!जान देकर हमें विकास का पता कैसे चलेगा?ये कैसा विकास है?"जनता ने विस्मित होते हुए पूछा।

तब राजा ने गंभीरतापूर्वक कहा,"आज से तुम्हारा ज़िंदा रहना ही सबसे बड़ा विकास होगा।क्योंकि तुमने मुफ्त में ही फलों के दर्शन किये हैं।उसके बदले हमने तुमसे  कभी कुछ नहीं लिया।"

"किन्तु...महाराज!!!"जनता ने कहना चाहा..

मगर  राजा ने उनकी एक न सुनी और उठकर अपने महल की ओर चल दिये। 

तबसे आज तक ,उस नगर में जनता दूर से ही उस वृक्ष पर लगे उन सुनहरे फलों को देख-देख कर ज़िंदा है और अन्य सुख-सुविधाएं भूलकर अपने जीवन को ही अपना विकास  समझने लगी है।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मुरादाबाद


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा---बीता हुआ कल

     


पंकज ऑफिस से जैसे ही घर आता वैसे ही बहू के खिलाफ दिन भर का बंधा शिकायतों का पुलन्दा माँ पंकज के सामने रख देती।बहू ने यह नहीं किया, खाने में नमक ज्यादा डाल देती है, देर से सोकर उठती है, पता नहीं माँ-बाप ने कुछ सिखाया भी है या नहीं आदि आदि ,,,," मैं तो परेशान हो गई हूँ तू कुछ बोलता क्यों नहीं "। यह छोटी - छोटी बातें रोज़ के कार्यक्रमों में शामिल हो गई थीं।पंकज भी क्या करता ? इस कान से सुनता ,उस कान से निकाल देता । यह क्रम कई हफ्तों तक चलता रहा।आखिर  पंकज से रहा नहीं गया ,सो पास ही बैठी दादी व बाबू जी की ओर इशारा करते हुए पूछा क्यों दादी , माँ की इन रोज़ -रोज़ की बातों के बारे में तुम्हारा क्या विचार है ? बस इतना कहना था कि दादी ने बाबू जी की ओर देखा , दोनों ने आँखों में कुछ बात कही और मुस्कुरा दिये,,,,,,,,,,!!

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद

                  

मुरादाबाद की साहित्यकार मोनिका मासूम की ग़ज़ल ----भूखों मरने के पुराने हुए किस्से साहिब खाते पीते हुए अब जान ये जाने लगती है


ज़िंदगी जब ज़रा खाने कमाने लगती है

मौत का खौफ महामारी दिखाने लगती है


मन में विश्वास कि उम्मीद भरी आंखो से

ये ज़ुबां टेर तेरे दर की सुनाने लगती है


दिल को जब भी जरा सी देर सुकूं मिलता है

जी जलाने को तेरी याद ही आने लगती है


भूखों मरने के पुराने हुए किस्से साहिब

खाते पीते हुए अब जान ये जाने लगती है


अपने अपराध तिजोरी में छिपाकर दुनिया

आंसू घड़ियाली सरेआम बहाने लगती है


✍️ मोनिका मासूम, मुरादाबाद