मंगलवार, 22 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी पर केंद्रित डॉ राजीव सक्सेना का आलेख ---- प्रेम और पीड़ा के कवि - स्व प्रवासी जी । यह आलेख उनकी कृति समय की रेत पर ( साहित्यकारों के व्यक्तित्व- कृतित्व पर एक दृष्टि ) में संगृहीत है। यह कृति वर्ष 2006 में श्री अशोक विश्नोई ने अपने सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की थी। श्री सक्सेना वर्तमान में प्रभारी सहायक निदेशक (बचत) , मथुरा हैं ।

 


नगर के दो प्रमुख साहित्यकारों का निधन हो गया था और उनकी स्मृति में श्री शिव अवतार 'सरस' के निवास पर शोक सभा थी। दिवंगत साहित्यकार थे श्री शंकर दत्त पाण्डे और श्री बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी।इनमें से पांडे जी से तो मेरा व्यक्तिगत परिचय था किन्तु 'प्रवासी' जी से साक्षात्कार का सौभाग्य मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ।यद्यपि मैं उनके रचनाकर्म से भली-भांति अवगत था। प्रवासी जी के व्यकितगत जीवन के बारे में  कुछ न जानते भी मैं उनके प्रति एक अदृश्य आकर्षण अनुभव कर रहा था। तभी 'सीपज' मेरे हाथ आयी। आद्योपान्त पढ़ गया और यह इच्छा बलवती हुई कि काश प्रवासी जी की कुछ और पुस्तकें पढ़ने को मिली होती। यह कवि 'प्रवासी' जी से मेरा मानसिक साक्षात्कार था।

      फिर तो प्रवासी जी के बारे में जानने की उत्कण्ठा तीव्र हो गयी। उनके व्यक्तित्व के कई आयाम उद्घाटित होने लगे और उनके प्रति मेरा आदरभाव गहरा हो गया। पतला दुबला लम्बा शरीर, स्वर्णिम काया, तेजोद्दीप्त नेत्रों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, कुर्ता-पाजामा और चप्पलें कुल मिलाकर 'प्रवासी' जी की आकृति बड़ी भव्य थी। वे दूर से देखने पर पूरे गांधीवादी दिखायी पड़ते थे। स्वभाव से अत्यन्त विनम्र किन्तु पूरे सिद्धान्तवादी । अनुचित को कभी सहन नहीं किया और अन्याय के प्रति अपनी वाणी से ही नहीं कलम से भी आजीवन संघर्षरत रहे। एक विचित्र किस्म का अक्खड़पन भी उनमें था ठीक वैसा ही जैसा धूमिल में था। व्यवस्था की विसंगतियों से भिड़ने को सदैव तत्पर। नगर के लोग जो 'प्रवासी' जी को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं वे उनके बारे में ऊँची राय रखते हैं।

किन्तु मैं तो उनके साहित्यकार व्यक्तित्व से ही परिचित हो सका हूँ। जहाँ तक उनके साहित्यिक व्यक्तित्व की बात है वे निश्चित ही ऊँचे दर्जे के साहित्यकार, विशेषकर कवि थे। यद्यपि उनका लेखन स्वांतः सुखाय ही था किन्तु वे ऐसे साहित्य को निरर्थक मानते थे जो जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर न रचा गया हो। शायद यूँ ही उन्होंने एक जगह यह बात कही है

हो न कल्याण भावना जिसमें 

काव्य ऐसा असार होता है ।

 निज दृगों में पराश्रु भरने से

  हर्ष मन में अपार होता है ।


वस्तुतः 'प्रवासी' जी अपने जीवनकाल में गांधी जी से काफी प्रभावित थे। गांधी दर्शन का प्रभाव केवल उनके आचार-व्यवहार पर ही नहीं बल्कि साहित्य पर भी परिलक्षित होता है। दरअसल, 'प्रवासी' जी उस पीढ़ी के साहित्यकार थे जिसने स्वाधीनता के संघर्ष में स्वयं भाग लिया था बल्कि राष्ट्र के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता को भी अनुभव कर लिया था। तभी उन्होंने अपनी एक लम्बी कविता में लिखा है

यहाँ मन्दिरों में चलता है नित अर्जन पूजन

यहाँ मस्जिदों में अजान का होता मृदु गुंजन ।। गुरुद्वारों-गिरजाओं से नित मधुरम ध्वनि आती। 

सुन जिसको सानन्द प्रकृति, निजमन में हर्षाती।। आते यहीं विश्वपति धर तन, शत शत नमन करो।

 यह धरती सुरपुर सी पावन, शत-शत नमन करो ।।


'सीपज' 'प्रवासी' जी का चर्चित काव्य संग्रह है। यूँ उनकी 'प्रवासी सतसई', 'हिन्दी शब्द विनोद', 'बच्चों की फुलवारी' और 'मंगला' शीर्षक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है। किन्तु 'सीपज' अद्वितीय है। यह उनकी हिन्दी-उर्दू गज़लों का संग्रह है। 'सीपज' के जरिये प्रवासी जी ने हिन्दी कविता में एक विलक्षण प्रयोग किया है जो उनसे पहले शायद किसी ने नहीं किया है। 'सीपज' में 'प्रवासी' जी ने पूरी हिन्दी शब्दावली या हिन्दी वाक्यों का उपयोग करते हुए विशुद्ध हिन्दी गज़लें लिखी है। यूँ हिन्दी में गजल लिखने की परम्परा भी दशकों पुरानी हो चली है और गोपाल दास 'नीरज' जैसे गीतकार 'गीतिका' नाम से गज़ले कहते रहे हैं। स्वयं महेन्द्र प्रताप जी भी गीत-गजल के नाम से एक मिश्रित विधा का

उपयोग काव्य सृजन के लिए करते रहे हैं। अन्य हिन्दी कवियों ने भी विपुल मात्रा में गज़लें लिखी हैं। लेकिन दूसरे कवियों में जहाँ गजल के नाम पर उर्दू गजल की भोंडी नकल की है और उर्दू शब्दों का जमकर उपयोग किया है वही 'प्रवासी' जी की हिन्दी गज़लों में उर्दू के शब्द न केवल दुर्लभ हैं बल्कि छन्दशास्त्र की दृष्टि से भी वे एकदम 'परफेक्ट' है। जहाँ हिन्दी के कवियों ने गजल लिखते समय उर्दू के गज़लकारों की तरह इश्क, आशिक या महबूब जैसे परम्परागत प्रतीकों को अपनी आधार वस्तु बनाया है वहीं प्रवासी जी की हिन्दी गज़लें इन सबसे काफी दूर जान पड़ती हैं और वे सामान्य तौर पर हिन्दी गजलों में पाये जाने वाले दोषों से मुक्त है। यद्यपि "सीपज' में प्रवासी जी की उर्दू गजलें भी संग्रहीत हैं किन्तु हिन्दी गज़लों की दृष्टि से प्रवासी जी हिन्दी के कथित गज़लकारों के लिए न केवल एक मानक हैं बल्कि उनके आदर्श भी सिद्ध हो सकते हैं। अपनी एक गज़ल में प्रवासी जी ने लिखा है


'काव्य कहलाता वही जो गेय है,

छंद, यति गति हीन, रचना हेय है।

 निज प्रगति तो जीव सब ही चाहते। 

 किन्तु जग उन्नति मनुज का ध्येय है ।।


ऐसी बात गज़ल के जरिये और वह भी विशुद्ध हिन्दी शब्दावली में कहने की सामर्थ्य 'प्रवासी' जी में ही हो सकती है। यदि संक्षेप में 'प्रवासी जी के साहित्य को रेखांकित करना हो तो इसे सहज ही 'प्रेम, पीड़ा और आँसुओं का साहित्य' कहा जा सकता है। निज मन की पीड़ा उनके काव्य विशेषकर गज़लों का मुख्य स्वर रहा है। जैसे मोती सीपी से जन्म लेता है उसी तरह 'सीपज' 'प्रवासी' जी के उर की घनीभूत पीड़ा के परिणाम स्वरूप दृग-सीपियों से जन्मा है। जीवन के अभावों और विश्वासघातों ने कवि को शायद इतनी पीड़ा दी है कि दुख या अवसाद उनका स्थायी 'मूड' बन गया है। महान अंग्रेज कवि शैली की तरह 'मैलानकोली' सदैव उनके अवचेतन और सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर हावी रहा है। शायद यूँ ही जीवन संध्या पर शैली द्वारा रची गयी प्रसिद्ध कविता 'स्टेन्जास रिटेन इन डिजेक्शन नियर नेपल्स' की तर्ज पर प्रवासी जी लिखते हैं 

पीर बढ़ती जा रही है क्या करें।

सुधि कभी की आ रही है, क्या करें ।।

स्वर हुये नीलाम, वीणा बिक गयी। 

गीत पुरवा गा रही, क्या करें ।। 

आज जन का विषमयी स्वर पान कर।

 ' साँस घुटती जा रही है, क्या करें।


महीयसी महादेवी वर्मा की 'मै नीर भरी दुख की बदली' की तरह 'प्रवासी' जी के काव्य में भी पीड़ा और अश्रुओं की बार-बार अभिव्यक्ति हुई है और हृदय की वेदना 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान' की तर्ज पर कविता के रूप में निःसृत हुई है। " सांत्वना दे दे हृदय को बींध जाता कौन है। विष बुझे स्वर्णिम चषक से मधु पिलाता कौन है।" इस दृष्टि से मन की पीर प्रवासी जी के लिए वरदान भी सिद्ध हुई है, क्योंकि अगर मन में पीड़ा न होती तो वे इतने समर्थ कवि कैसे बन पाते ?

'प्रवासी' जी ने बच्चों के लिए भी बहुत सी रचनाएं लिखीं। 'प्रवासी सतसई', 'बच्चों की फुलवारी' और 'बाल गीत मंजरी' (अप्रकाशित) उनकी प्रसिद्ध बाल कृतियां हैं, किन्तु 'प्रवासी' जी की बाल साहित्यकार के रूप में पहचान नहीं है। न ही बाल साहित्य के दृष्टिकोण से उनका मूल्यांकन किया गया है। यदि उनकी बाल रचनाओं का सम्यक मूल्यांकन किया जा सके तो कवि रूप में हम उनके एक और नये आयाम से परिचित हो सकेंगे।

 


✍️ राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था कला भारती की ओर से रविवार 20 जून 2021 को आयोजित काव्य गोष्ठी

 


आप जानते हैं ,

मैं, गीत नहीं लिखता ।
       सुख कब आते हैं ;
       पीड़ा के आंगन में ।
       रहा अकेला मैं ,
       अपनों के कानन में ।
मेरा पका घाव ,
फिर भी नहीं रिसता ।।
        छोटे से घर में ,
        ईर्ष्या की दीवारें ।
        बाहर से अच्छा ,
        दिलों में दरारें ।
भोला मन है ये,
सदा रहा दबता ।।
         विश्वासों पर ही तो,
         दिन कम हो जाता ।
         निजी आस्थाओं में ,
         मन कहीं खो जाता।
भोर से भी अपना,
भ्रम नहीं मिटता ।।
         पक्षी करते कलरव,
         अच्छा सा लगता है।
         सांझ ढले जब-जब,
         भीतर डर लगता है।
करे क्या मानव,
ईमान यहां बिकता ।।
आप जानते हैं,
मैं, गीत नहीं लिखता ।।

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
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उड़ रही रेत गंगा किनारे
              महकी आकाश में 
                       चांदनी की गंध
              अधरों की देहरी
                       लांघ आए छंद
गंगाजल से छलके
नेह के पिटारे
उड़ रही रेत गंगा किनारे
          कौन खड़ा है नभ में  
               लेकर चांदी का थाल
          देखो बुला रहा पास किसे   
              फैला कर किरणों का जाल
किस के स्वागत में चमक रहे
नभ में अनगिन तारे
उड़ रही रेत गंगा किनारे
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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पत्तों पर मन से लिखे, बूँदों ने जब गीत ।
दर्ज़ हुई इतिहास में, हरी दूब की जीत ।।

किये दस्तख़त जब सुबह, बूँदों ने चुपचाप ।
मन के कागज़ के मिटे, सभी ताप-संताप।।

रिमझिम बूँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार ।
पूर्ण हुए ज्यों धान के, स्वप्न सभी साकार ।।

पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात ।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात ।।

भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन ।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन ।।

बरसो, पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध ।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध ।।

पिछला सब कुछ भूलकर, कष्ट और अवसाद ।
पत्ता-पत्ता कर रहा, बूँदों का अनुवाद ।।
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद
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जिन्दगी से दर्द ये जाता नहीं
और अपना चैन से नाता नहीं।

आस की कोई किरण दिखती नहीं।
बेबसी में कुछ कहा जाता नहीं।।

जिन्दगी मजदूर की भी देखिए।
दो घड़ी भी चैन वो पाता नहीं।।

रात दिन खटता है रोटी के लिये।
माल फोकट का कभी खाता नहीं।।

सत्य की जो राह पर चलने लगा,
साजिशों के भय से घबराता नहीं।।

काम आयेगी न ये दौलत तेरी,
मौत का धन से तनिक नाता नहीं।।

वो कहाँ किस हाल में है क्या पता,
यार की कोई खबर लाता नहीं।।

कृष्ण जय जयकार के इस शोर से
झुग्गियों के शोर का नाता नहीं।।

,✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG - 69, रामगंगा विहार,
मुरादाबाद,  (उ.प्र.)
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दुख सह कर भी बच्चों के हित
खुशियां जो ले आता है ।
बाहर गुस्सा प्रेम हृदय का 

कभी नहीं दिखलाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है
खुद खाये कुछ,या न खाए,
परिवार न भूखा रह जाये।
सब सोयें अमन चैन से पर,
रातों को नींद नहीं आये।
परिवार का पालन पोषण
जिस के हिस्से आता है।
संतानो के लिए सदा
दुनिया भर से लड़ जाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।।
जीवन भर कमा कमा कर जो,
धन जोड़े जान खपा कर जो।
तन काटे और मन को मारे,
बन  गये महल और चौबारे।
अपनी पूंजी पर भी जो
हक कभी नहीं जतलाता है।
बच्चों के हित अक्सर घर में
खलनायक बन जाता है।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।।
लव पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।।
तन पिंजर बल काफूर हुआ,
चलने से भी मजबूर  हुआ
बच्चे अब ध्यान नहीं रखते,
कुछ भी सम्मान नहीं रखते,
अपने सारे दुख जो अपने
अंतर बीच छुपाता है।
अपने मन की व्यथा कथा
ना दुनिया से कह पाता है।।
दिल का दर्द समा ले दिल में
पिता वही कहलाता है।
पिता वही कहलाता है।
संकट की घड़ियों में भी
दुख प्रकट नहीं कर पाता है
संतापों का सारा विष
चुपचाप स्वयं पी जाता है
लब पर सदा दुआएं जिसके
पिता वही कहलाता है
पिता वही कहलाता है।।

✍️ अशोक विद्रोही , प्रकाश नगर मुरादाबाद
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बाहर वृक्षों का क्षरण, भीतर कलुष विचार।
हो कैसे पर्यावरण, इस संकट से पार।।

नवयुग में है झेलती, अपशिष्टों के रोग।
गंगा माँ को चाहिये, भागीरथ से लोग।।

चुपके-चुपके झेल कर, कष्टों के तूफ़ान।
पापा हमको दे रहे, मीठी सी मुस्कान।।

कृपा इस तरह कर रहा, वृक्षों पर इन्सान।
नहीं दूर अब रह गया, घर से रेगिस्तान।।

वृक्षों पर विध्वंस ने, पायी ऐसी जीत।
गाथाओं में रह गये, अब झूलों के गीत।।

प्यासी धरती रह गई, लेकर अपनी पीर।
मेघा करके चल दिये, फिर झूठी तक़रीर।।

भू माता की कोख पर, अनगिन अत्याचार।
इसका ही परिणाम है, चहुँ दिशि हाहाकार।।

पावन तट पर हो रहा, कैसा भीषण पाप।
जल में कचरा फेंक कर, जय गंगे का जाप।।

✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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धूप सा कड़क बन छाँव की सड़क बन
उर की धड़क बन,पिता हमें पालता।

डाँट फटकार कर कभी पुचकार कर,
सब कुछ वार कर,वही तो  सँभालता।

जीवन आधार बन प्रगति का द्वार बन
ईश का दुलार बन,साँचे में है ढालता।

मेरा आसमान पिता,मेरा अभिमान पिता
जग वरदान पिता,संकटों को टालता।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
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सनम कैसे छिपायें हम ये दिल की बात बारिश में।
हुए मुश्किल बहुत ही आज तो हालात बारिश में।।

नहीं काबू रहा इन धड़कनों पे अब मेरा कुछ भी,
मिली है प्यार की जब से मुझे  सौग़ात बारिश में।।

निगाहों में अभी तक रक्स करते हैं वही मंज़र,
बिताये साथ जो हमने हसीं लम्हात बारिश में।।

कभी जो साज़ पे छेड़े थे हम दोनों ने ही हमदम,
रहें हैं गूँज देखो फिर वही नग़्मात बारिश में।।

जुबाँ पे जो कभी तुम आज तक 'ममता' न ला पायीं
पढ़ें हैं आँख में वो अनकहे जज़्बात बारिश में।।

✍️ डाॅ ममता सिंह, मुरादाबाद
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मतवाले से बादल आये , लेकर शीतल नीर
धरती माँ की प्यास बुझायी , हर ली सारी पीर ।
पाती सर सर गीत सुनाती , बूँदे देतीं ताल
तरुवर झूम - झूम सब नाचें , हुए मस्त हैं हाल ।

नदियाँ कल - कल सुर में बहतीं , सींच रही हैं खेत
सड़कें धुलकर हुईं नवेली , बची न सूखी रेत ।
तपते घर भी सुखी हो गये , आया है अब चैन
गरमी से बड़ी राहत मिली , तपते थे दिन - रैन ।

✍️ डॉ. रीता सिंह, मुरादाबाद
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दूर रह कर हमें तू सताया न कर।
बात अनदेखी कर के दिखाया न कर।

हैं जवानी का मौसम ये दो चार दिन-
वक्त है साथ जितना भी जाया न कर।

प्यार है गर निगाहें मिलाया करो,
मोड़ कर मुँह, दिल को दुखाया न कर।

हम जो पिघले, जलेगा वो दिल तेरा भी,
बेरुखी यूँ दिखा कर जलाया न कर।

उफ्फ संभाला है किंतने, जतनो से दिल,
पास आ कर के हमको रिझाया न कर।

यूँ तो जलता है हर इक ये मौसम मिरा,
आग बरसात मे भी लगाया न कर।

✍️ इन्दु रानी,मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
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उनकी सूरत देखे बिन मोहे
न चैन न सुख कोई पाना
आज की साँझ ढले मोहे
पिया मिलन को जाना

न देखूँ सूरज भोर का
न दिन को घर पर जाना
जब तक लगे न सुध पिया की
न अन्न जल मोहे पाना
आज की साँझ मोहे
पिया मिलन को जाना

पीयूष की न चाह मोहे
न कंचन मोहे पाना
जिस घट पिया बसें
उस घट की गंगा बन जाना
आज की साँझ मोहे
पिया मिलन को जाना

न हिय के घाव भरूं मैं
न वैद्य को कोई लाना
पिया मिलन की औषधि मोहे
रुचि रुचि हिय लगाना
साँझ ढले प्रिय चाह में
पिया मिलन को जाना

न कोई सुख चैन
न सुधा कंचन पाना
पिया मिलन की चाह में
मोहे दरसन को है जाना

✍️ विभांशु दुबे विदीप्त , मुरादाबाद
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जो मिल जाये गर हमसफ़र खूबसूरत।
तो हो जाये अपना सफ़र ख़ूबसूरत।
है अपनों में शामो सहर ख़ूबसूरत।
जहां है मुहब्बत वो घर ख़ूबसूरत।
ग़ज़ल का मुतालाह किया तो ये जाना,
ज़बानों में अपना जिगर खूबसूरत।
दरख्तों से किसने परिंदे उड़ाए,
न मौसम है सुंदर शज़र खूबसूरत।
न महफूज़ सलमा न अब निर्भया है ,
तो फिर कैसे कह दे नगर ख़ूबसूरत।
है वो खूबसूरत जो ग़म आशना है,
खुदा की नजर में बशर खूबसूरत।
वज़ीफ़ा शुभम जिनका नाम-ए -वफ़ा है ,
हयात उनकी मिस्ल ए कमर खूबसूरत।

✍️ शुभम कश्यप, मुरादाबाद
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दिन को दिन रात को रात समझो,
दिल से दिल मिले तभी अपना समझो।
यूं तो रास्ते हैं सभी खूबसूरत,
जो मंजिल तक पहुंचाये वही अपना समझो ।।

ग़ुरबत को ग़ुरबत ज़रदारी को ज़रदारी समझो,
तर्बियत से तर्बियत मिले तभी अपना समझो।
ग़ैरत शख्शियत सूफ़ियत सभी हैं जरूरी,
यूं ही दिल्लगी में न किसी को अपना समझो ।

रंज को रंज उल्फत को उल्फत समझो,
जो हर असरार को समझे उसे अपना समझो।
यूं तो हर शख़्श है इनायत रब की,
जो इंसान को इंसान समझे उसे अपना समझो।

✍️ अमित कुमार सिंह(अक्स)7C/61बुद्धिविहार फेज , मुरादाबाद,मोबाइल-9412523624
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आइये संकल्प सिद्ध करें, देश के गलियारों में
छुआ-छुत से भरी जातिवाद की ऊँची दीवारों में
जब अपना ही घर लूट लिया देश के गद्दारों ने,
जनता खड़ी देखती रही सिमटी अपने किरदारों में,

✍️  प्रशान्त मिश्र, मुरादाबाद
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पिता का हृदय विशाल है कितना,
आसमां का फैला विस्तार है जितना।
पिता के पास है सुरक्षा का अटूट घेरा,
पिता हर मुश्किलों में देते सहारा।
पिता ईश्वर से पहले साथ देता है,
पिता हर दुःख का रुख मोड़ देता है।
पिता की गोद में मिलता है असर ऐसा,
जो लगता है सुख के समंदर के जैसा।
पिता के क्रोध में भी प्यार का पुट होता है,
पिता भी छिप छिपकर हमारे लिए रोता है।
जो संतान के वास्ते त्याग दे अपना हर सुख,
भुला देता है खुद को भी पिता वह होता है।
पिता के व्यक्तित्व को समझना भी कब आसान है,
वह भीतर से कोमल बाहर से चट्टान सा कड़ा होता है।।
✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर", ठाकुरद्वारा
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जीवन दायक जीवन का आधार पिता
बालक का तो है सारा संसार पिता
धरती मां है नभ का है विस्तार पिता
बालक गीली माटी हैं तो  कुम्हार पिता
जिसके हाथों में मूर्त बन जाती है
ऐसा अद्भुत शिल्पकार है यही पिता
जीवन दायक जीवन का आधार पिता
बालक का तो है सारा संसार पिता।
✍️ आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, मुरादाबाद
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खुद अभावों को चुना, बच्चों में खुशियां बाँट दीं.
और चुने काँटे स्वयं को, पंखुरी सब बाँट दीं.
अभिनन्दन ऐंसे  पिता का जो करो सब कम ही कम है.
मुँह छुपा रातों को रोया, जो बच्चों को झिड़की डांट दी.
✍️ बाबा संजीव आकांक्षी, मुरादाबाद



मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी) साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की रचना -----


पिता पूंजी है

एफडी है

ड्राफ्ट है

ग्रेच्युटी है

जो सब हमे

बनाने में लगती है

उसके पास होती

है  सिर्फ पेंशन

बुढ़ापे की टेंशन।

2

मां घर है ..

पिता मकान

खेत खलिहान

औलाद के हाथों में

भविष्य का सामान।

3

पिता अनुशासन है

चुपचाप चलने वाला

शासन है..

जब हम कुछ नही

कह पाते

वो आंखे पढ़ लेता है

पर्स खोल देता है।।


4

पिता बीज है

अंकुर है

दिखता नहीं

न हो यदि

कोई खिलता नहीं।

5

पिता शाख है

साख है..

फैलता है

महकता है।।

6

पिता गुप्त प्रेम है

जब सो जाते हैं

उसके अंश

वह चुपके से आता है

अपलक देखता है..

निहारता है..

चमक जाती हैं उसकी

आँखें...हाँ...वाह

अपना अंश है।

वह बेटी का दहेज

बेटे का कैरियर है

वह पैदा नही करता

न दूध पिलाता है..

मगर..

सबको पालता है।।

✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी, मेरठ

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की रचना ----पर्वत जैसे पिता स्वयं ही होते घर की शान

 


पर्वत  जैसे  पिता   स्वयं   ही
होते      घर       की      शान
उनकी    सूझ-बूझ  से  थमते
जीवन       के          तूफान।
      

अनुशासित जीवन का दिखते
पापा                    दस्तावेज़
सतत    संस्कारों    से    रहते
हरपल         ही        लवरेज
उनके  होंठों   पर  सजती   है
नित         नूतन       मुस्कान।
पर्वत जैसे-------------------

व्यर्थ  समय  खोने  वालों   से
रहते          हरदम           दूर
कठिन  परिश्रम  ही  है  उनके
जीवन         का          दस्तूर
आलस  करने  से  मिट जाती
मानव          की       पहचान।
पर्वत जैसे ----------------------

घर  के  हालातों   से  भी वह
अनभिज्ञ       नहीं         रहते
रिश्तों   की    जिम्मेदारी    से
वे     सदा       भिज्ञ       रहते
अपने   और   पराए   का  भी
रखते           हैं        अनुमान
पर्वत जैसे-------------------

प्रातः अपने  मात - पिता  को
करते          रोज़        प्रणाम
ले   करके  आशीष   सदा  ही
करते          अपना       काम
उनकी सुख सुविधाओं का भी
रखते           पूरा         ध्यान।
पर्वत जैसे--------------------

बच्चों   में  बच्चे   बनकर   के
सबसे          करते         प्यार
इसमें   ही  तो   छुपा  हुआ  है
जीवन         का         आधार
दिल से  नमन  करें  पापा  का
करें          सतत        सम्मान।
पर्वत जैसे--------------------

✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र,

  मोबाइल 9719275453

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम की रचना ----साधना है मां, पिता है सिद्धि का अनुभव

 


मार्गदर्शक है पिता,रखता दुखों से दूर भी।

बाढ़ की संभावनाओं में पिता पुल है

धर्म शिक्षा आचरण की मूर्ति मंजुल है

हर्ष है सत्कार की आश्वस्ति से भरपूर भी।

धूप वर्षा से बचाता जिस तरह छप्पर

लाज घर की मां, पिता से मान पाता घर

गेह-उत्सव में पिता बजता हुआ संतूर भी।

शंखध्वनि माता, पिता है यज्ञ का गौरव

साधना है मां, पिता है सिद्धि का अनुभव

पिता मंगलसूत्र भी है,मांग का सिन्दूर भी।

मार्गदर्शक---

✍️ डॉ अजय अनुपम मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता ----पिता ही बस एक परम है

 


पिता पर कविता लिखना

सहज नहीं है , दुष्कर है ,
भले ही
पिता को जीने
और पिता होने का
कितना ही
अनुभव भीतर है ।                                                  
मां कृपा से जब
हुई उधेड़बुन भीतर
पिता को कहने में ,
खड़ी विवशताएं
दीखीं उस क्षण
पिता सा रहने में ।
मां बोली,तू अपनी बुन,
पर पहले मेरी सुन ।
पिता,बरहे चलता
वह पानी है,जो
मुरझाई धूप से
दूब में जीवन भरता है,
पिता,वह साधन है
जो थाम थमा उंगली से
बच्चों को खड़ा करता है।
पिता,वह सपना है
जो अपने आप, आप को
छोटा करके
बच्चों को
रोज़ बड़ा करता है।
पिता,वह संयम है,जो
जिद पर बच्चों की
अपनी जिद पर
नहीं अड़ा करता है ,
पिता ही तो
संपूर्ण पराग फूलों का
जो बच्चों पर
घड़ी घड़ी हर पल
दिन रात झड़ा करता है।
पिता-
गरम नरम है
धरम करम है ,
सोचें तो
पिता ही बस
एक परम है ।।
    डॉ.मक्खन मुरादाबादी
   झ-28, नवीन नगर
   कांठ रोड, मुरादाबाद
   मोबाइल:9319086769

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) आमोद कुमार अग्रवाल का मुक्तक ---


हर कोलाहल का अंत एक,सूनापन ही होता,
हर बसंत पतझर का, अभिनंदन ही होता,
बिटिया के नेह का,जीवन कितना सीमित ये,
तनिक देर के बाद पिता,अपने आँगन ही रोता ।
 ✍️ आमोद कुमार अग्रवाल, दिल्ली






मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल की रचना ----पिता बनकर पिता का मोल अब अपनी समझ आया


नहीं चिंता रही कोई, न कोई डर सता पाया

पिताजी आपके आशीष.की हम पर रही छाया


हमारी प्रेरणा है आपका सादा सरल जीवन 

सदा हम पर रहे बस आपके व्यक्तित्व का साया.


नहीं सोचा कि कैसी है, पिता की जेब की सेहत।

रखी जिस चीज पर उंगली, उसी को हाथ में पाया।


जरूरत के समय अपना, न कोई काम रुकता था।

भुला अपनी जरूरत को, हमारा काम करवाया।


भले थी जेब खाली किंतु चिंता में नहीं देखा

अभावों का हमारे पर नहीं पड़ने दिया साया।


पिता खामोश रहकर हर, घड़ी चिंता करे सबकी,

पिता बनकर पिता का मोल अब अपनी समझ आया।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG - 69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद।

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम का गीत ------जब तक पिता रहे तब तक ही घर में रही मिठास

 


बहुत दूर हैं पिता

किन्तु फिर भी हैं
मन के पास

पथरीले पथ पर चलना
मन्ज़िल को पा लेना
कैसे मुमकिन होता
क़द को ऊँचाई देना
याद पिता की
जगा रही है
सपनों में विश्वास

नया हौंसला हर पल हर दिन
देती रहती हैं
जीवन की हर मुश्किल का हल
देती रहती हैं
उनकी सीखें
क़दम-क़दम पर
भरतीं नया उजास

कभी मुँडेरों पर, छत पर
आँगन में आती थी
सखा सरीखी गौरैया
सँग-सँग बतियाती थी
जब तक पिता रहे
तब तक ही
घर में रही मिठास

✍️  योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद
मोबाइल-9412805981

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु का गीत ----पिता परिस्थिति की बिसात पर, चलना हमें सिखाए

 


सिर पर छाँव पिता की

कच्ची दीवारों पर छप्पर ...

आंधी बारिश खुद पर झेले,
हवा थपेड़े रोके
जर्जर तन भी ढाल बने,
कितने मौके-बेमौके
रहते समय समझ ना पाते
जाने क्यों हम अक्सर ....

सारी दुनियादारी जो भी
नजर समझ पाती है,
वही दृष्टि अनमोल,पिता के
साए संग आती है ..,
जिससे दुष्कर जीवन पथ पर
नहीं बठते थक कर,...

माँ का आंचल संस्कार भर,
प्यार दुलार लुटाए,
पिता परिस्थिति की बिसात पर,
चलना हमें सिखाए
करते सतत प्रयास कि बच्चे
होवें उनसे बढ़कर .....

-मनोज 'मनु'
मोबाइल- 063970 93523

मुरादाबाद के साहित्यकार अखिलेश वर्मा की ग़ज़ल ------लौटा नहीं कभी फिर जाकर पिता का साया


दे दे मुझे कोई तो ......लाकर पिता का साया

हैं खुशनसीब जिनके सर पर पिता का साया।


कोई नहीं है चिंता ......... कुछ फ़िक्र ही नहीं है

जिसको मिला है हर दम घर पर पिता का साया।


मिलते हैं शाम को जब ऑफिस से लौटकर तो

मिलता जहां है सारा पाकर पिता का साया ।


भगवान तू मुझे भी ......लौटा दे उस पिता को

जीवन बड़ा है मुश्किल खोकर पिता का साया।


सेवा करो पिता की .......कोई कसर न छोड़ो

लौटा नहीं कभी फिर जाकर पिता का साया।


✍️ अखिलेश वर्मा, मुरादाबाद

  

मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा की ग़ज़ल -----नकली कठोरता के मुखौटे से झाँकती आँखों से फूटती हुई मुस्कान है पिता


हिम्मत है हौसला है समाधान है पिता 

हर एक कठिन प्रश्न का आसान है पिता 


दुनिया में जिसके नाम से जाना गया तुम्हें 

अस्तित्व से जुड़ी वही पहचान है पिता 


नकली  कठोरता के मुखौटे से झाँकती 

आँखों से फूटती हुई मुस्कान है पिता 


सागर है मौन प्रेम का पर्वत है त्याग का 

अनबोले समर्पण का यशोगान है पिता 


सर पर पिता के हाथ से बढ़कर नहीं दुआ 

रक्षा कवच के साथ अभयदान है पिता 


कांधे पे बैठे बच्चे का आकाश भी है और 

सारे खिलौने खेल का सामान है  पिता 


सब देखभाल कर भी नज़र फेरता रहा 

बच्चे समझ रहे हैं कि नादान है पिता 


दुनिया में उसके जैसा कोई दूसरा नहीं 

ईश्वर का सबसे कीमती वरदान है पिता                                           

✍️ राहुल शर्मा , R-2, रंगोली ऑफ़िसर कालोनी, रामगंगा विहार, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार सरिता लाल की रचना ----मेरे रक्षाकवच,होआंखों की शान आप मेरे अस्तित्व की पहचान हो


आप मेरे सुन्दरसपनों की उड़ान

आप मेरा अडिग सा विश्वास हो

जहाँ चित्र बना सकता मैं हर पल

आप वो झिलमिल सा आकाश हो


आप मेरे सारे प्रश्नों के भी उत्तर 

मेरी नन्ही दुनिया की मुस्कान हो

हो मेरे सारेअरमानों की चितवन

आप तो हर खुशी का वरदान हो


 मेरी भाषाओं की सुखद लेखनी

आप मेरे अन्दर की परिभाषा हो

मैं निश्चिंत भाव से जो सोता हूं

आप गुदगुदाती सीअभिलाषा हो


आप मेरे खेल खिलौनो की दुनिया

आप क्या जादू सा कर जाते हो

जो चाहूँ उससे पहले देते सबकुछ

मेरे लिये सोनपरी भी बन जाते हो


 मेरे रक्षाकवच,होआंखों की शान

आप मेरे अस्तित्व की पहचान हो

नही जाना अब तक उस ईश्वर को

आप ही मेरे लिये सारे भगवान हो


✍️ सरिता लाल, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता का गीत ---भूल नहीं सकती जीवन भर मेरा पहला प्यार पिता ..... साथ में दस दोहे


दस दोहे

मिले पिता से हौसला, और असीमित प्यार 

इनके ही आधार पर ,टिका हुआ परिवार

बच्चों के सुख के लिये, पिता लुटाते प्रान

अपने सारे स्वप्न भी, कर   देते कुर्बान

मिले पिता के नाम से, हम को हर पहचान 

कोई भी होता नहीं,   प्यारा  पिता समान

मिले पिता के रूप में, धरती पर भगवान 

इनका करना चाहिये, हमें सदा सम्मान 

पापा रहते आजकल,घर में बनकर मित्र 

जीवन शैली के बहुत, बदल गये हैं चित्र

पापा बाहर से कड़क, अंदर होते मोम 

खुद पीते गम का गरल, बच्चों को दे सोम 

पापा जब भी बाँटते, अनुभव की सौगात

बच्चों को कड़वी लगे, तब उनकी हर  बात

पापा साये की तरह, रहते हर पल साथ 

कैसे भी हों रास्ते, नहीं छोड़ते हाथ

पापा से है हर खुशी,  मम्मी का श्रृंगार 

मुखिया घर के हैं यही ,पालें घर परिवार

पापा मम्मी साथ में,चलें मिलाकर ताल

इन दोनों की छाँव में,घर होता खुशहाल 

✍️ डॉ अर्चना गुप्ता, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के हसनपुर (जनपद अमरोहा ) निवासी साहित्यकार मुजाहिद चौधरी की रचना ----बादल की मानिंद पिता को रोज़ बरसते देखा है


मैंने एक पिता को तन्हा घुटकर रोते देखा है ।

बच्चों की खुशियों की खातिर पांव घिसटते देखा है ।।

खेतों में खलिहानों में और घने बाजारों में ।

अपने बच्चों के सपनों का बोझा ढोते देखा है ।।

विपदा और संकट में भी जो खड़ा-खड़ा मुस्काता है ।

मैंने एक पिता को अक्सर परबत चढ़ते देखा है ।।

संघर्षों से हार न माने भूख प्यास से ना घबराए ।

जीवन पथ पर ऐसे राही को शान से चलते देखा है ।।

बच्चों की उपलब्धि पर वो फूले नहीं समाता है ।

बच्चों की मानिंद मचलते और उछलते देखा है ।।

सपने पूरे होने पर जो इठलाता इतराता है ।

बादल की मानिंद पिता को रोज़ बरसते देखा है ।।

त्याग तपस्या और साधना सब उस से मजबूर हुए ।

हमने मुजाहिद को सपनों में खूब उलझते देखा है ।।

✍️ मुजाहिद चौधरी, हसनपुर, अमरोहा

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार ओंकार सिंह विवेक के दो मुक्तक और एक ग़ज़ल ----ये आपकी ही सीख का है मुझ पे असर,जो- विपदा से नहीं मानता मैं हार पिता जी



दो मुक्तक

मेरी  नींदों  की ख़ातिर ख़ुद जागा   करते हैं,

सहकर धूप हमेशा मुझ पर साया करते हैं।

करते  रहते  हैं  हर पल मेरे दुख की चिंता,

पापा अपना कोई दुख कब साझा   करते हैं।

भले  ही  रंज  का  दिल  में बड़ा   तूफ़ान रखते हैं,

मगर  लब  पर  सदा मासूम सी मुस्कान रखते हैं।

कभी  होती  नहीं  घर  में किसी को कुछ परेशानी,

पिता जी इस तरह हर आदमी का ध्यान रखते हैं

 ग़ज़ल

मेरी  सभी  ख़ुशियों  का  हैं आधार पिता जी,

और माँ के भी जीवन का हैं शृंगार पिता जी।


सप्ताह  में   हैं  सातों  दिवस  काम  पे  जाते,

जानें   नहीं  क्या  होता  है  इतवार पिता जी।


हालाँकि ज़ियादा  नहीं कुछ आय के साधन,

फिर  भी  चला ही लेते हैं परिवार पिता जी।


ख़ैरात   किसी   की  भी  गवारा  नहीं  करते,

है   फ़ख़्र   मुझे , हैं   बड़े  ख़ुद्दार   पिता  जी।


दुख  अपना  बताते  नहीं ,पर सबका हमेशा,

ग़म   बाँटने   को  रहते  हैं  तैयार  पिता  जी।


दुनिया बड़ी ज़ालिम है,सजग हर घड़ी रहना,

समझाते  हैं  मुझको  यही हर बार पिता जी।


ये  आपकी  ही सीख का है मुझ पे असर,जो-

विपदा  से   नहीं  मानता   मैं  हार  पिता  जी।


पीटो   मुझे   या   चाहे   कभी   कान  मरोड़ो,

हर  बात  का है आपको अधिकार पिता जी।


सर  से  न   उठे  मेरे  कभी  आप  का  साया,

मिलता  रहे  बस  यूँ ही सदा  प्यार पिता जी।

 ✍️ ओंकार सिंह विवेक,रामपुर 

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की कुण्डलिया ----


पापा गुडिया आपको  , करे बहुत ही  याद ।

  जग सूना लगता मुझे , एक आपके  बाद।।

  एक आपके बाद,  हुई मैं आज अकेली ।

  उलझाती हैं रोज़, ज़िंदगी हुई पहेली।

  सबल वृक्ष की छाँव, गया कब उसको मापा ।

  वह मजबूती-साथ ,कहाँ से लाऊँ, पापा !!                                   

✍️ प्रीति चौधरी गजरौला,अमरोहा

                                       

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल ) के साहित्यकार रमेश अधीर की रचना ---सिखलाते थे जीने का अंदाज हमारे बाबू जी ....


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में नोएडा निवासी) साहित्यकार अटल मुरादाबादी की रचना ---पिता जो जन्म देता है ,विधाता ही कहाता है -------


 

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर ) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की रचना ---


 

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की रचना---– पिता वही कहलाता है

 


दुख सह कर भी बच्चों के हित 

खुशियां जो ले आता है ।

बाहर गुस्सा प्रेम हृदय का 

कभी नहीं दिखलाता है।

दिल का दर्द समा ले दिल में 

पिता वही कहलाता है।

लव पर सदा दुआएं जिसके

पिता वही कहलाता है।

 पिता वही कहलाता है

खुद खाये कुछ,या न खाए,

परिवार न भूखा रह जाये।

सब सोयें अमन चैन से पर,

रातों को नींद नहीं आये।

परिवार का पालन पोषण

 जिस के हिस्से आता है।

संतानो के लिए सदा

 दुनिया भर से लड़ जाता है।

दिल का दर्द समा ले दिल में 

पिता वही कहलाता है।

लव पर सदा दुआएं जिसके

पिता वही कहलाता है।

पिता वही कहलाता है।।

जीवन भर कमा कमा कर जो,

धन जोड़े जान खपा कर जो। 

तन काटे और मन को मारे,

बन  गये महल और चौबारे।

अपनी पूंजी पर भी जो

 हक कभी नहीं जतलाता है।

बच्चों के हित अक्सर घर में

 खलनायक बन जाता है।

दिल का दर्द समा ले दिल में 

पिता वही कहलाता है।।

लव पर सदा दुआएं जिसके

पिता वही कहलाता है।

पिता वही कहलाता है।।

तन पिंजर बल काफूर हुआ,

चलने से भी मजबूर  हुआ

बच्चे अब ध्यान नहीं रखते,

कुछ भी सम्मान नहीं रखते,

अपने सारे दुख जो अपने

 अंतर बीच छुपाता है।

अपने मन की व्यथा कथा 

ना दुनिया से कह पाता है।।

दिल का दर्द समा ले दिल में 

पिता वही कहलाता है।

पिता वही कहलाता है।

संकट की घड़ियों में भी 

दुख प्रकट नहीं कर पाता है

संतापों का सारा विष

चुपचाप स्वयं पी जाता है 

लब पर सदा दुआएं जिसके 

पिता वही कहलाता है 

पिता वही कहलाता है।।

✍️ अशोक विद्रोही ,प्रकाश नगर, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कुण्डलिया --पर्वत से दृढ़ तुम पिता


 सागर  से  गंभीर  तुम , नभ  जैसा  विस्तार 

पर्वत  से  दृढ़  तुम  पिता ,वंदन  है शत बार

वंदन   है   शत   बार ,  सदा  देते  ही  पाया 

घर को शुभ आकार ,मिली तुमसे ही काया

कहते  रवि कविराय ,स्वयं सिमटे गागर-से

चाह  रहे  संतान ,  बने  बढ़कर  सागर   से

 ✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा , रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर के मुक्तक और दोहे ....

 


मुक्तक 

खुद में सारे दर्द समेटे खड़े पिता।

घर की खातिर हर संकट से लड़े पिता।

और भला क्या मांगूँ तुमसे भगवन मैं,

दुनियां भर की दौलत से भी बड़े पिता।


अन्तर्मन पर जब-जब फैला तम का साया।

या कष्टों की आपाधापी ने भरमाया।

तब-तब बाबूजी के अनुभव की आभा ने,

जीवन पथ पर बढ़ते रहना सुगम बनाया।


दुनियां के हर सुख से बढ़कर, मुझको प्यारे तुम पापा।

मेरे असली चंदा-सूरज, और सितारे तुम पापा।

लिपट तिरंगे में लौटे हो,बहुत गर्व से कहता हूँ,

मिटे वतन पर सीना ताने, कभी न हारे तुम पापा।


दोहे

दोहे में ढल कर कहे, घर-भर का उल्लास। 

मम्मी है यदि कोकिला, तो पापा मधुमास।। 

चुपके-चुपके झेल कर, कष्टों के तूफ़ान। 

पापा हमको दे गये, मीठी सी मुस्कान।।

दिया हमें भगवान ने, यह सुन्दर उपहार।

जीवन के उत्थान को, पापा की फटकार।।

✍️  राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार मोनिका मासूम की रचना -पिता अमृत की धारा है, ज़रा सा स्वाद खारा है पिता चोटी हिमालय की, ये चौखट है शिवालय की


 प्रथम अभिव्यक्ति जीवन की

पिता है शक्ति तन मन की,   

पिता है नींव की मिट्टी,

जो थामे घर को है रखती 


पिता ही द्वार पिता प्रहरी , 

सजग रहता है चौपहरी

पिता दीवारो दर है छत, 

ज़रा स्वभाव का है सख्त


पिता पालन है पोषण है, 

पिता से घर में भोजन है

पिता से घर में अनुशासन,

 डराता जिसका प्रशासन


पिता संसार बच्चों का,

 सुलभ आधार सपनों का

पिता पूजा की थाली है, 

पिता होली दिवाली है


पिता अमृत की  धारा है, 

ज़रा सा स्वाद  खारा है

पिता चोटी हिमालय की, 

ये चौखट है शिवालय की


हरी, ब्रह्मा या शिव होई,

पिता सम पूजनिय कोई

हुआ है न कभी होई, 

हुआ है न कोई होई                  


✍️  मोनिका "मासूम", मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की रचना ---- मेरा आसमान पिता,मेरा अभिमान पिता जग वरदान पिता,संकटों को टालता


धूप सा कड़क बन,छाँव की सड़क बन

उर की धड़क बन,पिता हमें पालता।


डाँट फटकार कर,कभी पुचकार कर,

सब कुछ वार कर,वही तो  सँभालता।


जीवन आधार बन,प्रगति का द्वार बन,

ईश का दुलार बन,साँचे में है ढालता।


मेरा आसमान पिता,मेरा अभिमान पिता

जग वरदान पिता,संकटों को टालता।


✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह की रचना ----कारज अपने सभी निभाते बनें नहीं अधिनायक पापा -

 


हर बेटी के नायक पापा

करते हैं सब लायक पापा

कारज अपने सभी निभाते

बनें नहीं अधिनायक पापा ।


जग में सबसे न्यारे होते

जनक सिया के प्यारे होते

अपनी राजकुमारी पर हैं

सारे सपने वारे पापा ।


वर्ष हजार जियें दुनिया में

यही कामना करूँ दुआ में

रोग शोक से रहें दूर वो 

महके उनकी महक हवा में ।

✍️ डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार मयंक शर्मा की ग़ज़ल --- जीवन संघर्षों को लेकर हम जब भी कमज़ोर पड़ें, ताक़त बनकर साथ हमारे रहते चारों ओर पिता


मां है नदिया की गहराई तो नदिया का छोर पिता,

कभी न रुकने वाले जैसे सागर का हैं शोर पिता।


सबके अपने-अपने मन हैं सबके अपने सपने हैं,

घर की हर ज़िम्मेदारी को रखते अपनी ओर पिता।


माँ के मुख की रौनक तन का हर आभूषण उनसे है,

ईंगुर, बिंदी, काजल वाली आंखों की हैं कोर पिता।


आँसू के इक क़तरे को भी आने का अधिकार न था

पर जब विदा हुई बहना तो बरसे थे घनघोर पिता।


अपनेपन की ख़ुशबू पाकर महक रही उस माला में,

रिश्तों को फूलों सा गूँथे रखने वाली डोर पिता।


ज़ख्म मिले जीवनपथ में जो ख़ुद में उनको दफ़्न किया,

मुश्किल से मुश्किल पल में भी नहीं दिखे कमज़ोर पिता।


संकट की काली अँधियारी छाया जब भी छा जाती,

एक नई स्वर्णिम आभा की लेकर आते भोर पिता।


जीवन संघर्षों को लेकर हम जब भी कमज़ोर पड़ें,

ताक़त बनकर साथ हमारे रहते चारों ओर पिता।

✍️मयंक शर्मा, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार दुष्यंत बाबा का गीत --उन्हीं पिता के हम गुण गाएं उनको हम सब शीश झुकाएं


जो देकर अपनी ऊर्जा करता नवग्रह का संचार।

उसी सूर्य सम तात है सन्तान के सकल संसार।।


पिता सूर्य  हैं, पिता  है  बरगद

गम में दुखी हैं खुशी में गदगद

बच्चों में मिल बच्चे बन  जाएं

हर दुख को खुद ही सह जाएं

उन्हीं  पिता  के हम  गुण गाएं

उनको हम  सब शीश  झुकाएं


पिता  हैं  पोषक, पिता सहारा

ये  संतति  के  हैं  सृजन  हारा

पूरे  कुल  का  जो भार उठाएं

कभी न इनके दिल को दुखाएं

उन्हीं  पिता  के  हम  गुण गाएं

उनको हम  सब शीश  झुकाएं


पिता  हैं  मेला,  पिता  है ठेला

पिता बिना लगे संसार अकेला

अपना  दुःख  न  कभी जताएं

जो बिना आंसुओं  के  रो पाएं

उन्हीं  पिता  के  हम  गुण गाएं

उनको हम  सब शीश  झुकाएं


पिता  क्रोध, पिता  पालनहारा

इनके  क्रोध  में  छिपा  सहारा

दुःख  में भी तो ये हंसते  जाएं

हम  रहस्य  को समझ न पाएं

उन्हीं  पिता  के हम  गुण गाएं

उनको हम  सब शीश  झुकाएं


पिता कठोर  हैं उतने ही मृदल

जो नित पिता का आशीष पाएं

वह कर्म  करें  न पाछे पछताएं

सारी  विपदा  से वह बच जाएं

उन्हीं  पिता  के  हम  गुण गाएं

उनको हम  सब शीश  झुकाएं


पिता सृष्टि संतान की पिता ही जन आधार।

पिता की छाया  मात्र  से  हो  जाता उद्धार!।।

✍️ दुष्यन्त बाबा, पुलिस लाइन, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा ) की साहित्यकार रेखा रानी की कविता ----एक पिता ही जनाब


 बाज़ार से लाता है, 

 ख़रीद कर खुशियां।

 कमाकर लाता है 

 चंद ख्वाब,

 एक पिता ही जनाब।

चुन चुन कंटीले वन से

मधुर फ़ल।

जीवन के भीषण रण से,

स्वर्णिम कल,

छुपाकर लाता है,

चंद ख्वाब

एक पिता ही जनाब

 एक एक लम्हा संजोता है,

 तब कहीं जाकर,

 अपने आंगन में फसल

 खुशियों की बोता है।

 लहलहाते हैं

 तब कहीं जाकर,

 चंद ख्वाब,

 एक पिता ही जनाब।

 स्वेद से सिंचित कर,

 सुर्ख़ खूं से रंग भर,

 खूबसूरत गुलों को

 तब कहीं जाकर,

 महकाता, संजोता है

 चंद ख्वाब,

 एक पिता ही जनाब।

 ख़ुद बैठकर फर्श पर

 बैठाता है अर्श पर,

फलक तक ले जाता है

चंद ख्वाब

एक पिता ही जनाब।

✍️ रेखा रानी, विजयनगर गजरौला, जनपद अमरोहा, उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ की रचना ----जीवन दायक जीवन का आधार पिता



जीवन दायक जीवन का आधार पिता 

बालक का तो है सारा संसार पिता

 धरती मां है नभ का है विस्तार पिता

 बालक गीली माटी हैं तो  कुम्हार पिता 

जिसके हाथों में मूर्त बन जाती है 

ऐसा अद्भुत शिल्पकार है यही पिता 

जीवन दायक जीवन का आधार पिता

 बालक का तो है सारा संसार पिता।

✍️आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार (वर्तमान में पुणे निवासी) मनीषा चड्डा की रचना --- पूरा जीवन भी कम है प्यार जताने के लिए ....