बुधवार, 8 सितंबर 2021

मुरादाबाद मंडल के शाहपुर खेड़ी (जनपद बिजनौर) स्थित श्री ओम शिक्षा संस्थान इंटर कालेज में सात सितंबर 2021 को आयोजित कविसम्मेलन ----

नयी शिक्षा नीति के तहत भविष्य के दृष्टिगत आयोजित दो दिवसीय कार्यशाला के तहत श्री ओम शिक्षा संस्थान इंटर कालेज शाहपुर खेड़ी बिजनौर में  मंगलवार सात सितंबर 2021 को कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया ।

 कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए मुरादाबाद वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी जी ने कोरोना काल के संदर्भ में मुक्तक प्रस्तुत करते हुए कहा -----

सुन रहे यह साल आदमखोर है।

हर तरफ चीख दहशत शोर है।

मत कहो यह वायरस जहरीला बहुत,

आदमी ही आजकल कमजोर है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पधारे वैज्ञानिक डॉ सत्य प्रकाश पांडेय ने संचालन करते हुए कहा ---

 तन नहीं खास यह मेरा!

कितने दिन का है साथी!

बस भाव रख रहा यह ही!

तुम दीप बनो मै बाती!

विद्यालय की प्रबन्धक एवं संयोजिका कवयित्री रचना शास्त्री ने कहा ---

बांसुरी संभालो राधिके!

अखिल विश्व का तुमको

भार सौंपता हूं।

बिजनौर से आईं कवयित्री सुमन चौधरी जी ने राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत रचना प्रस्तुत करते हुए कहा--- 

देश प्रेम लहू बनकर धमनियों में बहना चाहिए।

कट जाए मस्तक मेरा सिर झुकना नहीं चाहिए।

धामपुर से पधारे प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ अनिल शर्मा 'अनिल' ने कहा-

ऐ!वतन के लाडलों

कर कड़ा प्रहार दो।

एक ही प्रहार में 

शत्रुओं को मार दो।

मुरादाबाद से पधारे प्रसिद्ध कवि राजीव प्रखर ने अपने अनेक मुक्तक प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा-

निराशा ओढ़ कर कोई, न वीरों को लजा देना।

नगाड़ा युद्ध का तुम भी, बढ़ा कर पग बजा देना।

तुम्हें सौगंध माटी की अगर मैं काम आ जाऊं,

बिना रोये प्रिये मुझको, तिरंगों से सजा देना।

नजीबाबाद की वरिष्ठ कवयित्री नीमा शर्मा ने अपने ओजस्वी स्वर में रचनापाठ करते हुए समां बांध दिया । उन्होंने कहा-

तुम स्वर्णिम युग की नारी हो।

दुश्मन से ना डर पायी हो।

शेरकोट से पधारीं कवयित्री शुचि शर्मा  ने कहा-

समंदर पार करके जब हवा पूरब से आती है।

अचानक रात को उठकर मैं खिड़की खोल देता हूं।

यहां पूछा है कितनी बार मेरा नाम लोगों ने,

मैं अचानक ही अपना नाम भारत बोल देता हूं।

चांदपुर से आईं कवयित्री उर्वशी कर्णवाल जी ने कहा-

बने यह घुल चंदन हृदय मेरा शिवाला हो।

चढ़ाऊं भाव के मोती यहां पूजन निराला हो।

जले बस घी भरा दीपक नहीं ऐसी मिली शिक्षा।

न चाहूं देवता होना,मनुजता की वरूँ भिक्षा।

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच नजीबाबाद से पधारे ओज के प्रसिद्ध कवि कपिल जैन ने पढ़ा-

भारतमाता के चरणों को धाम बनाकर रखते हैं।

अमर तिरंगे को अपना अभिमान बनाकर रखते हैं।

रोम रोम में राष्ट्र भक्ति का जज्बा रखने वाले हम,

अपने दिल में पूरा हिंदुस्तान सजाकर रखते हैं।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि आकाशवाणी  नजीबाबाद से पधारे कृष्ण अवतार वर्मा ने आयोजन की सराहना करते हुए कहा कि विद्यालयों में इस प्रकार के कार्यक्रमों से विद्यार्थियों में साहित्य के प्रति अभिरुचि पैदा होती है । विद्यालय के प्रधानाचार्य आदरणीय लालबहादुर शास्त्री  ने सभी साहित्यकारों का सम्मान आभार व्यक्त किया।







































:::::::::::प्रस्तुति::::::

रचना शास्त्री 

प्रबन्धक

श्री ओम शिक्षा संस्थान इंटर कालेज

शाहपुर खेड़ी, बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 6 सितंबर 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की शिक्षक दिवस पर रचना --- जिसकी महिमा देवों से भी ऊंची ...


 

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार अग्रवाल की ग़ज़ल ---साँस की मशीन कब रुक जाये कोई जानता नहीं , 'आमोद' सामान मगर सौ साल के रखता है


अपना पता ठिकाना जेब में डाल के रखता है।

ढलान का मुसाफ़िर कदम सम्हाल के रखता है।


मुफ़लिस सिर्फ़ देखता रहे कुछ ले न सके

वो कीमती चीजें भीतर जाल के रखता है।


उसका कोई भी ख़्वाब कभी पूरा नहीं होता

बदनसीब फिर भी उम्मीद पाल के रखता है।


वक्त तो नहीं बदलता, बदल जाते हैं हम

पुराने फोटो अक्सर वो निकाल के रखता


शख़्सीयत की पहचान दौलत से नहीं होती

,गरीब तो स्वागत में कलेजा निकाल के रखता है।


साँस की मशीन कब रुक जाये कोई जानता नहीं

'आमोद' सामान मगर सौ साल के रखता है।

✍️ आमोद कुमार अग्रवाल, सी -520, सरस्वती विहार, पीतमपुरा, दिल्ली -34, मोबाइल फोन नंबर  9868210248

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम का गीत ----घर की फाइल में रिश्तों के पन्ने बेतरतीब....


 

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा ---बहरूपिया


     कचहरी  के एक ओर बनी एक वकील  की गद्दी  पर , हंसा  सकुचाई  सी गुलाबी  कुर्ता  और सफ़ेद रंग का दुपट्टा  सिर पर ओढ़े  हुए बैठी थी पास में ही उसके पिता  आनंदी लाल  खड़े थे । कई बार वह गद्दी से दूर जाकर बीड़ी  पी आये थे ।

मन बड़ा विचलित  सा था कि केस वापस लें या अपनी बेटी के अधिकार  की लड़ाई जारी  रखें । 

वकील दया शंकर  जिनकी उम्र लगभग  साठ के करीब थी  उन्होंने बड़ी खुशी ...खुशी इस केस  को अपने हाथ में लिया।

वह बार -बार हंसा को पानी और चाय  के लिए  पूँछते वह इंकार  में सिर हिला  देती वह उसके सिर और खूबसूरत गालों को प्रेम से लाड  लड़ाते  हुए सहला  देते जैसे कि हँसा के पिता अक्सर करते हैं ।

मगर इस छुवन  से पता नहीं क्यों उसको असहजता  सी महसूस  होती ।

"हाँ...हँसा बेटा अब मुझे पूरी कहानी बताओ कि तुम्हारे साथ क्या हुआ ...देखो मुझसे कुछ छिपाना  मत क्योंकि डॉक्टर  और वकील से कुछ छिपाना यानि की मामले  को और पेचीदा  करना ...। " उसने जोर से हँसकर फिर से उसके गालों पर हाथ फेरा  l 

"ज...जी...जी । " हँसा ने अपने चेहरे को पीछे हटाने  की नाकामयाब  कोशिश की ।

"अरेवकील साहब हमने आपको बता तो दी सारी कहानी l " हँसा के पिता ने जोर देकर कहा तो वकील दयाशंकर  मुस्करा भर दिए । 

"अच्छा तो हँसा बेटा तुम्हारे पति के सम्बन्ध  गैर  औरत से थे ?" उसने कुटिल मुस्कान फेंकते  हुए बेगैरत  भरे अंदाज में कहा ।

"ज...जी ...जी ।"

"बताओ क्या  कमी है इस फूल सी बच्ची में ....?" इतनी खूबसूरत ...इतनी सादगी  से भरी .और क्या चाहिए था उस मरजाने  को ?"दयाशंकर. ने अपनी गिद्ध सी दृष्टि  से हँसा के मन को हिला कर रख दिया ।

"मारता पीटता  भी था ?"

"हाँ साहब नशे  में जानवरों  की तरह पीटता था मेरी फूल सी बच्ची को l " आनन्दी लाल. ने भरे हुए गले से कहा ।

"इनगालों  पर भी मारता  था ?" दयाशंकर. ने जहरीली  आवाज में दोबारा  हँसा को छूने   का प्रयास किया मगर वह पीछे हटकर  खड़ी हो गयी ।

"क्या हुआ बेटा ?" उसने बेशर्मी  से बेटा शब्द  निकाला सुनकर वह तिलमिला उठी  ।

"आपकी फीस क्या है वकील साहब ?" हँसा ने प्रश्न  किया l 

"देखो बेटा  तुम मेरी बेटी की तरह हो ...तुमसे कैसी  फीस .तुमकेस. के  डिश्कशन   के लिए बस इस पते   पर अपने पापा के साथ आ जाया   करना   .बसकल से कार्यवाही शुरू  करते हैं केस की ?"उसकी वासना   से भरी आवाज ने हँसा को अंदर   तक हिला दिया l 

यह आदमी  उसको अपने पति से भी ज्यादा दरिंदा   लगा  ..मुखौटा   लगाए बहरूपिया  l 

✍️ राशि  सिंह, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश , भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार फक्कड़ मुरादाबादी की व्यंग्य कविता ---- आजादी का हीरा


कल कोठी के कुत्ते ने 

सड़क पर चलते कुत्ते को रोका 

व्यंग भरे अंदाज में टोका 

और बोला तू कहे तो मालिक से

 बात करूं

 मस्ती मौज उड़ाना

 दूध मक्खन ब्रेड खाना

 कभी-कभी मिलेगा शानदार गोश्त 

बदल जाएगी तेरी सोच 

मालकिन प्रातः काल घुमाने ले जाएगी 

कीमती साबुन से नहलायेगी

मिलेगा मालिक का प्यार 

जीवन का हो जाएगा उद्धार

 पूरी बात सुन सड़क का कुत्ता बोला 

मैं कमजोर ही सही

 तू दिख रहा है हट्टा कट्टा 

कभी शीशे में जा कर देख 

 गले में पड़ा हुआ पट्टा 

मैं पालतू के नाम से बदनाम नहीं हूं 

कमजोर जरूर हूं गुलाम नहीं हूं

रूखा सूखा खाकर भी रहता हूं मस्त 

कभी इस गली में कभी उस गली में 

रहता हूं व्यस्त

 रात को गश्त करती पुलिस 

जब मुझे भौंकता देखती है 

कहीं कोई अनहोनी तो नहीं

 फौरन निगाहें फेंकती है 

यह सही है तेरे पास सब कुछ है

परंतु मेरी निगाह में तेरे जीवन की बर्बादी है 

यह तेरी खुशियां तुझे ही मुबारक 

मेरे पास सबसे कीमती हीरा

 मेरी आजादी है।।

✍️ फक्कड़ मुरादाबादी, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश,भारत , मोबाइल फोन नम्बर- 9410238638

मुरादाबाद मंडल के गजरौला ( जनपद अमरोहा ) की साहित्यकार रेखा रानी की लघुकथा ---वट वृक्ष


मिंटो काफ़ी देर से दोहरा रही थी कि आज़ के ज़माने में आंगन लगभग समाप्त ही हो गए हैं और जब आंगन ही नहीं होंगे तो कहां लगाओगे वट वृक्ष और जब वट वृक्ष नहीं होंगे तो कहां से पाओगे छांव

मां खीझते हुए बोलीं कि क्या रट्टा लगा रखा है इतनी देर से"

मिंटो बोली "मां आज़ हमारी मैम कक्षा में हमारी संस्कृति को समझाते हुए यह बोल रही थीं तब से मेरे मन में एक अजीब सी हलचल पैदा हो गई है....

मैम के कहने का आशय क्या था।

मां बोलीं - मैं समझ गई तुम्हारी मैम के कहने का आशय पापा से कहो गाड़ी निकालें और गांव चलें और इस बार तुम्हारे दादा जी को साथ ही ले आएंगे... आगे से अब वो हमारे साथ ही रहेंगे हमारे पास क्योंकि वो ही हैं हमारे वट वृक्ष हमें चाहिए उनकी छांव.

मिंटो मां की बात सुनकर खुशी से उछल पड़ी।

✍️ रेखा रानी, विजय नगर गजरौला , जनपद अमरोहा, उत्तर प्रदेश,भारत

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) की साहित्यकार दीपिका महेश्वरी सुमन का गीत ----अधरों को अधरों से अब तुम, करने दो मीठी सी बातें


 अधरों को अधरों से अब तुम, करने दो मीठी सी बातें।

तुमने जो कभी दीं थीं मुझको, मिट जाएंगी वो सब घातें॥

मधुर प्रेम का बन्धन जो है, अब भी घुँघरू से छनकाता।

मन ही मन तुमसे वो अपना, चुपके से बन्धन है निभाता ॥

रात चाँदनी ओढ़ के बोले क्यों  गुज़ारे अँखियो में रैना।

प्रेम परिधि नयनों में धरकर, मूँद ले तू चुपके से नैना॥

प्रयत्न करूँ पर बंद न होवे, नैनों में जो तुम ही बसे हो।

मोहनी मूरत मुझे दिखा कर, मोह बंधन में मुझे कसे हो॥

निकलना चाहूं निकल न पाऊं, मोह बंधन यह गहरा है। 

उम्मीदों का लश्कर देखो, अब भी मन में ठहरा है॥

आज मुझे तुम आकर दे दो, फिर वही मीठी सौगातें।

तुमने जो कभी दी थी मुझको, मिट जाएंगी वो सब घातें ॥

अधरों को अधरों से.......

दिन ढले नहीं ढल पाता है, मुझ पर यादों का साया है। 

सावन का ये मौसम जाने, कैसी बेचैनी लाया है॥

तड़प तड़प के जब श्वास है आती, मुझको तेरी याद सताती।

ठंडी पवन भी छू कर मुझको, तुमसे मिलन की आस जगाती॥

झर झर झर बहते हैं आँसू, नैना विहल हो जाते हैं। 

देख सुहानी यादों का डोला, अधर कमल मुस्काते हैं॥

साथ यह तेरा कभी न छूटे, चाहे कितनी भी हो दूरी। 

यादों में तुमको जीते हैं, मिलन नहीं अपनी मजबूरी॥

ग़म में भी खुशियों की फुहारें, दे जाती मीठी सौगातें। 

तुमने जो कभी दीं थीं मुझको, मिट जाएंगी वो सब घातें ॥

अधरों को अधरों से... 

✍️ दीपिका महेश्वरी सुमन (अहंकारा), नजीबाबाद बिजनौर ,उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ---- गृहस्वामी का सहायता प्राप्त घर


       "एतद् द्वारा आपको सूचित किया जाता है कि अनेक बार वाट्स एप द्वारा आप को नोटिस देने के बाद भी आपने समुचित उत्तर नहीं दिया । अतः आपके घर का प्रबंध अपने हाथ में लेते हुए नियंत्रक नियुक्त किया जाता है ।" अधिकारी का पत्र पढ़ने पर गृहस्वामी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ । यह बात तो सात-आठ साल से चल ही रही थी कि एक दिन सरकार हमारा घर हड़प लेगी । 

      "आपने तो हमें कोई वाट्स एप नहीं किया ? "-गृह स्वामी ने अधिकारी से पत्र लेते हुए प्रश्न किया ।

      "हमने आपके सहायताप्राप्त कर्मचारी को वाट्स एप  कर दिया था। क्या आप उस से सूचना प्राप्त नहीं करते ? यह आपका दोष है कि आप अच्छे संबंध नहीं रखते ।"-अधिकारी का दो टूक जवाब था । गृहस्वामी ने अधिकारी से न उलझने में ही खैरियत समझी ।

               वह कितनी सुहानी घड़ी थी जब सरकार ने योजना बनाई थी कि बेरोजगारी हटाने के लिए , श्रमिकों को उनके परिश्रम का उचित मूल्य देने के लिए तथा साथ ही साथ सभी के घरों के सुचारू संचालन के लिए हर घर में एक कर्मचारी का वेतन सरकार अपने खजाने से देगी । पूरी कॉलोनी सरकार की इस योजना के अंतर्गत देखते ही देखते सहायता प्राप्त घर वाली कॉलोनी बन गई । अब हर घर में एक सहायता प्राप्त कर्मचारी था । उस कर्मचारी को सरकार से वेतन मिलता था । वेतन भी ऐसा कि मकान मालिक ललचा उठे कि काश उसकी भी उतनी ही आमदनी होती ! वास्तव में सब मकान मालिक धनवान नहीं थे । कुछ की आर्थिक स्थिति खराब थी  लेकिन सबके घरों में एक-एक कर्मचारी पहले से था । अब उसका वेतन सरकार देती थी । इस निर्णय से मकान मालिक भी खुश थे और कर्मचारी तो खुश होना ही चाहिए थे ।आखिर वेतन वृद्धि उनकी ही हुई थी । उनकी ही नौकरी में स्थायित्व भी आया था । 

       बात यहाँ तक रहती तो ठीक थी लेकिन अधिकारियों की नजरें बदल गईं। अब उनकी नजर इस बात पर थी कि सहायता प्राप्त घरों की कालोनियों को किस प्रकार हड़पा जाए ?  व्यक्तिगत बातचीत में अधिकारी खुलकर कहने लगे कि जब हमारे द्वारा प्रदत्त वेतन से आपके कर्मचारी का खर्चा चल रहा है तो घर भी हमारा ही हुआ ? गृह स्वामी इस तर्क का विरोध करते थे और कहते थे कि वेतन देने का मतलब यह नहीं है कि घर सरकार का हो गया ? आप वेतन दे रहे हैं ,यह अच्छी बात है। हम विरोध नहीं करते , लेकिन हमारे घर को हड़पने की योजना अगर आप बनाते हैं तो यह अमानत में खयानत वाली बात होगी । यह विश्वासघात होगा । यह अधिकारों का दुरुपयोग होगा ..आदि आदि । अधिकारियों के कान में जूँ तक नहीं रेंगी। वह चिकने घड़े थे । योजनाएं और षड्यंत्र रचते रहे । 

      प्रारंभ में कर्मचारी का वेतनबिल मकान मालिक को सरकार के पास भेजना होता था। इस कार्य के लिए सरकार ने हर जिले में एक "सहायता प्राप्त गृह-अधिकारी" नियुक्त किया हुआ था । गृह-अधिकारी वेतनबिल के अनुसार चेक काट कर गृह स्वामी को भेज देता था । गृहस्वामी उसे बैंक में कर्मचारी के खाते में जमा कर देते थे । उसके बाद गृह स्वामी का कार्य बढ़ने लगा । उसे कर्मचारी की वेतन-वृद्धि ,अवकाश-विवरण तथा योग्यता में वृद्धि संबंधी अनेकानेक सूचनाएं समय पर जिला गृह अधिकारी को भेजनी पड़ती थीं। अगर एक दिन की भी भेजने में देर हो जाए जो गृह-अधिकारी कुपित हो जाता था । गृह स्वामी के अधिकारों का बुरा हाल यह था कि अगर कर्मचारी को कोई छुट्टी लेनी होती थी तो वह अब तक गृह स्वामी से पूछता था लेकिन अब उसे गृह स्वामी से पूछने की आवश्यकता नहीं थी । वह जब चाहे ,जितनी चाहे छुट्टियाँ ले सकता था ।उसके वेतन में कटौती करने का कोई अधिकार गृह स्वामी को नहीं रहा। कारण वही था कि वेतन सरकार द्वारा दिया जाता है । अब स्थिति यह थी कि कर्मचारी जब चाहे छुट्टी लेकर घर बैठ जाए और जब चाहे काम पर लौट आए । काम पर लौट आने के बाद भी घर का काम आधा-अधूरा पड़ा रहता था । 

            सरकार ने एक नियम बना दिया था कि गृहस्वामी कर्मचारी को डाँट नहीं सकता था। कार्य न करने के लिए उसके वेतन से कटौती भी नहीं कर सकता था। कर्मचारी का अधिकार था कि वह चाहे तो काम करे, चाहे तो न करे । 

           एक बार एक गृहस्वामी ने अपने सहायता-प्राप्त कर्मचारी से कहा कि मेरे लिए एक कप चाय बना दो । कर्मचारी ने साफ इंकार कर दिया। बोला "मैं इस समय उदास हूँ। चाय नहीं बनाऊंगा ।"

     गृह स्वामी ने पूछा " उदासी किस बात की है ?"

     कर्मचारी बोला "मेरी पत्नी हाई स्कूल में फेल हो गई हैं ।अतः मैं उदास हूँ। "

        "मगर यह तो दस दिन पुरानी बात हो चुकी है । अब उदासी छोड़ो और चाय बनाना शुरू कर दो ।"

      कर्मचारी बोला " इतना बड़ा झटका अगर आपको लगा होता तो दर्द होता ।लेकिन आप लोग तो निर्मम,शोषक और उत्पीड़क हो। आपको कर्मचारी की भावनाओं का कोई ख्याल ही नहीं है ।"

           बेचारा गृहस्वामी अपना सा मुँह लेकर रह गया । उसके बाद से उसने कर्मचारी से कभी भी चाय बनाना तो दूर की बात रही ,एक गिलास पानी भी लाने के लिए नहीं कहा। पता नहीं एक गिलास पानी को कहा जाए और कितनी बाल्टी पानी गृहस्वामी के ऊपर लाकर उड़ेल दी जाए। वह कुछ कर भी तो नहीं सकता था ।

        धीरे-धीरे गृहस्वामी के हाथ से घर का प्रशासन फिसलता जा रहा था । एक दिन सरकारी अधिकारी घर पर आया और कहने लगा " यह सुनने में आया है कि आप अपने कर्मचारी का शोषण और उत्पीड़न करते हैं ? "

    सुनकर गृहस्वामी दंग रह गया । बोला "हम तो इनसे कोई काम भी नहीं लेते ! इनके किसी कार्य पर दखलअंदाजी भी नहीं करते।"

      लेकिन अधिकारी नहीं माना । बोला "घर का प्रशासन सही प्रकार से चलाने के लिए हमने एक "सहायक मकान मालिक" नियुक्त किया है । अब आप घर अपने तथा "सहायक मकान मालिक" के साथ बैठकर आपसी सलाह-मशवरे के बाद चलाया करेंगे।"

       गृह स्वामी ने उदासीन होकर कहा "अब घर चलाने के लिए रह ही क्या गया है ? दीवारों पर धूल है । छतों पर मकड़ी के जाले हैं । न कोई आता है, न जाता है । हम भी अपने वित्तविहीन मकान में ही दिन काट रहे हैं ।"

     अधिकारी ने कहा " आपको मुझसे या मेरे आदेश से जो शिकायत हो ,अपील कर सकते हैं ।"-कहकर आदेश थमा कर चला गया । गृहस्वामी और सहायक-गृहस्वामी दोनों के लिए मकान में एक-एक कमरा अब रिजर्व था । सहायक गृहस्वामी क्योंकि सरकार के द्वारा मनोनीत था ,अतः वह अत्यंत प्रसन्नता के साथ अपने रिजर्व कमरे में रहता था । कर्मचारी क्योंकि सरकार से वेतन लेता था ,अतः उसे गृह स्वामी से ज्यादा सहायक गृहस्वामी के आदेश को मानने में रुचि थी। उसे मालूम था कि अब सहायक-गृहस्वामी ही घर का वास्तविक मालिक है । 

     समय बीतता गया । घर न रिश्तेदारों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा और न मिलने -जुलने वाले घर में आना पसंद करते थे। सहायताप्राप्त घर को सबने आकर्षण विहीन घोषित कर दिया था । पूरी कॉलोनी में सहायता प्राप्त घरों के होने के कारण कॉलोनी  ही उदासीन नजर आने लगी थी।

        अधिकारी फिर भी कॉलोनी के घरों पर बुरी नजर रखे हुए था । वह किसी प्रकार से गृह स्वामी को उसके एकमात्र कमरे में से भी निकालने की कोशिश कर रहा था । एक दिन उसके हाथ में नियमावली की एक धारा आ गई । यह नियमावली सहायताप्राप्त घरों के सुचारू संचालन के लिए सरकार ने बनाई थी । नियमावली की एक धारा यह थी कि अगर अधिकारी को यह विश्वास हो जाए कि गृहस्वामी सही प्रकार से घर का संचालन नहीं कर पा रहा है तो वह नियंत्रक बैठा सकता है और गृहस्वामी को घर से बेदखल कर सकता है । अधिकारी ने वस्तुतः इसी धारा का उपयोग करते हुए आखिर गृहस्वामी के सहायताप्राप्त घर को हड़प ही लिया। 

      अब गृह स्वामी यह कह रहा है कि जिस कर्मचारी को सरकार वेतन दे रही है उसके क्रियाकलापों से मेरा कोई संबंध नहीं रहेगा। बस केवल मुझे मेरे घर में चैन से रहने का अधिकार दे दो। सरकार मानने को तैयार नहीं है । कहती है जब तुम्हारे घर के कर्मचारी को सरकार वेतन दे रही है तब तुम घर के अंदर चैन से कैसे बैठ सकते हो ? 

 ✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा , रामपुर ,उत्तर प्रदेश, भारत , मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेन्द्र सिंह बृजवासी की लघु कहानी---- घर का न घाट का!


 लाला रामगुलाम मोहल्ले के संभ्रांत नागरिक होने के साथ-साथ जाने-माने आभूषण विक्रेता भी थे। पूरे शहर में उनके मधुर व्यवहार एवं ईमानदारी की खूब चर्चाएं सुनने को मिलती।

    उनके पूरे खानदान में इनके पास ही एक बेटा था।बाकी और भाइयों पर दो-दो बेटियां ही थीं।सभी लोग लाला रामगुलाम जी के बेटे बबलू पर ही अपनी जान छिड़कते थे।उसके लिए मुंह मांगा तोहफा हाजिर करने में देर करने का तो मतलब ही नहीं था।

     सभी चाचा-ताऊ बबलू को खूब पढ़ा -लिखा कर बड़ा अधिकारी बनते देखना चाहते।बबलू जब बारहवीं क्लास में था तभी अचानक उसके मन में मुम्बई जाकर फ़िल्म कलाकार बनने की सनक सवार हो गई। हर समय फिल्मी एक्टरों की नकल करता,उनके फिल्मी संवाद बोल बोलकर एवं फिल्मी गानों पर डांस करके अपने दोस्तों और अपनी चचेरी बहनों को दिखाता रहता।

     एक दिन बबलू अपने किसी दोस्त के घर जाने की बात कहकर घर से निकल गया,और रेलवे स्टेशन पहुंचकर मुम्बई जानेवाली गाड़ी में सवार हो गया।काफी रात तक भी जब बबलू घर नहीं आया तो घर वाले गहरी चिंता में पड़ गए।सब जगह टेलीफोन घुमा दिए गए।हर संभव ढूंढने के प्रयासों की होड़ लग गई।मगर उसके फ़िल्म नगरी मुम्बई जाने का अंदाज़ा किसी को नहीं लगा।

     उसकी तलाश करते -करते महीनों बीत गए।उधर बबलू मुम्बई पहुंच तो गया लेकिन उसे वहां कौन जानता,उसके पास जो भी रुपए -पैसे थे वह धीरे-धीरे खत्म होने लगे।एक समय वह आया जब वह एक प्याली चाय तक को तरसने लगा।कई दिन से बिना नहाए धोए रहने के कारण कपड़ों में से भी दुर्गंध आने लगी।ऊपर से भूख भी दम निकालने पर आमादा,,

     किसी को खाता देखकर मुंह में आए पानी को चुचाप निगलने के सिवाय कोई चारा नही था।बिखरे बाल,सूखे होंठ,भूखा पेट कुछ भी करने के लिए मजबूर करने की मजबूरी बनते जा रहे थे।आखिरकार उसने अपनी कमीज़ उतार कर आती जाती गाड़ियों को साफ करके पेट भरने का साधन तलाश ही लिया।

    उसके हाथ देने पर एक गाड़ी वाले बुजुर्ग ने गाड़ी रोककर बबलू से पूछा बेटे तुम कहाँ के रहने वाले हो और यहां किस उद्देश्य को लेकर आए हो।तब बबलू ने रोते हुए अपने संभ्रांत परिवार के बारे में सब कुछ बता दिया।

     दयावान बुजुर्ग ने पहले तो उसे अपने थैले से निकालकर बड़ा पाव खाने को दिया, बिसलरी का पानी पिलाकर उसको खड़ा होने लायक किया और उसके माता-पिता को मोबाइल पर अपना पता देते हुए बेटे को अपने पास सरक्षित होने की सूचना दी।

      तब उन्होंने बबलू को भी बहुत समझाते हुए कहा बेटा घर से भागने वाले बच्चों की हालत कैसी हो जाती है, क्या तुम्हें इसका अंदाज़ा है।कभी भी ऐसा कदम न उठाना। यह कहावत बिल्कुल सही है कि--- घर छोड़ने वाला न घर का रहता है न घाट का।बबलू ने कान पकड़कर अपनी ग़लती को मानते हुए बुजुर्ग सज्जन की दयालुता पर उनको साष्टांग प्रणाम किया।

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद, उप्र, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453

               

                   

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर की साहित्यकार रागिनी गर्ग की लघुकथा ---फर्क


 "अरे यार विनोद! बहू सुनीता मात्र सत्ताइस साल की छोटी उम्र में  विधवा हो गयी, तुमने उसके और उसकी पाँच साल की बच्ची के लिये क्या सोचा है? भाभीजी और तुम कब तक बैठे रहोगे? मेरी मानो तो उसका पुनर्विवाह कर दो।"

विनोद ने आँखें तरेरकर अपने लँगोटिया यार प्रकाश को घूरते हुये कहा:- 

"लगता है तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। जो बहकी- बहकी बातें कर रहे हो।"

"विनोद! इसमें बहकी बात जैसा क्या है?"

"बहू का दूसरा विवाह करना इतना आसान नहीं है। मेरी पोती का क्या होगा? लोग क्या कहेंगे? सुना! तुमने, मैं बहू का विवाह नहीं कर सकता।" लगभग प्रकाश पर चीखते हुये विनोद बोला।

"परररर विनोद! ये बहू,बहू की रट क्यों लगा रखी है? तुम तो सुनीता को बेटी मानते हो। वो अनाथ भी तुम दोनों को ही अपना माता- पिता मानती है।"

"बंद कर अपनी बक-बक और अपनी सलाहअपने पास रख" प्रकाश को झिड़कते हुये विनोद बोला,"बेटी मानने और बेटी होने में बहुत बडा़ फर्क है।"

✍️ रागिनी गर्ग, रामपुर , उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 2 सितंबर 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा ----जोंक

"अब तो हमीं नजर आयेंगे इनको बिटवा ......।एक समय जब हमरी कौनू औकात  ना थी इनकी नजर में , सब तरफ  जोंकें ही चिपकी रहतीं थी ....अब शरीर में चूसने को कुछ बचा ही नही तो जोंकें भी नहीं दिखतीं .....।  एक हाथ में पानी का गिलास  पकडे और दूसरे  से पंखा झलती हुई अम्मा अन्योक्ति में कहे जा रहीं थीं ...।।

✍️ डॉ प्रीति हुंकार, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश ,भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की कहानी --- तपस्विनी । यह कहानी उनके वर्ष 1959 में प्रकाशित कहानी संग्रह पुजारिन से ली गई है । इस कृति का द्बितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ था ।


         पंडित अनूप शर्मा ! तुम और इस वेष में ?" “क्यों, इसमें आश्चर्य का क्या कारण, जब देश और जाति को आवश्यकता हो तब क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्री और क्या वैश्य सभी को शस्त्र धारण करना चाहिये । पद्मा, अब मैं अनूप शर्मा नहीं अनूपसिंह हूँ ।”

"ओह, तो अब ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी है जो आपको शर्मा से सिंह बनना पड़ा । "
“पद्मा, तुम तो जानती ही हो सारा हिन्दू राष्ट्र छिन्न भिन्न हो छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हो चुका था । पूज्य राणा संग्राम सिंह ने उनको एक सूत्र में बांधा और फिर समय आया जब उनकी आज्ञा मेवाड़ के एक कोने से दूसरे कोने तक मानी जाने लगी । चारों दिशाओं में उनका यश फैल गया । बाबर शाह को राणा से भय हुआ और साथ ही द्वेष भी सुना है बाबर ने मेवाड़ हमारी मातृभूमि पर आक्रमण किया है.. " “तब, तब... उसी में तुम भी जा रहे हो अनूप ?”
"हां पद्मा, देश को वीरों की और पूर्वजों के मान को बलि की आवश्यकता जो है ।"
"परन्तु... "
"उदास न हो पद्मा, भगवान ने चाहा तो विजयी होकर शीघ्र आऊँगा और तभी शुभ कार्य भी होगा।”

“अच्छा, अनूप, यदि जाना ही है तो जाओ पर पीठ पर घाव न खाना, नहीं मुझे दुख होगा।"
सन् १५२८ में कार्तिक मास के पांचवे दिन खनुआ नामक स्थान में मुगल और राजपूत सेनाओं का सामना हुआ। राजपूत बड़ी वीरता से लड़े, मुग़लों के पैर उखड़ गये। पास खड़ी हुई मुग़ल सेना ने जब यह देखा तो भागते हुये व्यक्तियों के चारों ओर खाई खोदना आरम्भ कर दिया। बाबर ने भी.. उत्साह दिलाने के अनेक प्रयत्न किये। यहां तक कि अपनी प्रिय मदिरा के प्याले तोड़ फोड़कर फिर कभी पान न करने की शपथ खाई ।
फिर युद्ध प्रारम्भ हुआ। राणा शत्रु संहार करते आगे बढ़ते गये और थोड़े ही समय में वह शत्रुओं के मध्य जा पहुंचे। एक बार और, फिर राणा का अन्त था कि त्वरित गति से अनूप सहायता को जा पहुँचा। घमासान युद्ध हुआ, अनूप राणा की रक्षा करता हुआ घायल होकर गिर पड़ा और मूर्छित होगया ।
    दूसरे दिन सारे नगर में उदासी छाई हुई थी। घायलों की पालकियाँ शान्त भाव से लाकर उनके घर पहुंचाई जा रही थीं। पद्मा भी भीड़ में सशंकित नेत्रों से इधर उधर कुछ खोज रही थी। सहसा उसकी दृष्टि एक पालकी पर गई। उसमें अनूप था। प्रातः कालीन चन्द्रमा की भांति उसका मुख पांडु था। बिखरी हुई अलकों और मुख मंडल पर रक्त बिन्दु काले पड़ चुके थे। पद्मा के आदेश से पालकी रुक गई। पास जाकर पद्मा ने स्नेह का मृदु स्पर्श किया और धीमे स्वर में कहा, “अनूप ।
अनूप ने अर्द्ध मूर्छित अवस्था में आंखें खोलीं और फिर धीरे से कहा- “पद्... मा. देखो मेरे वक्ष पर ही घाव लगे हैं, मैंने पीठ नहीं दिखाई । पर कलंकित मुख लेकर देश को दासता की श्रृंखला में जकड़े देखने से तो मृत्यु अच्छी...”
अत्यन्त दुर्बलता और पीड़ा के कारण अनूप ने आंखें मींच लीं। पद्मा ने व्यग्रता से पुकारा, "अनूप | "
"प.. द्.. मा देखो मेरे वक्ष पर ही घाव लगे हैं। मैंने पीठ नहीं दिखाई" कहते कहते अपने हिचकी ली और संसार से ही मुँह मोड़ लिया ।
नगर से बाहर शमशान भूमि में अनेक चितायें जल रही हैं। पति परायण अनेक स्त्रियां सती हो रही हैं। अनूप को चिता पर रखा गया, पद्मा ने आगे बढ़कर उसका सिर उठा ज्यों ही गोद में रखना चाहा, उसी समय ब्राह्मण गुरु की कर्कश वाणी से वह ठिठक गई: “पद्मा का विवाह नहीं हुआ था अतः इसे सती होने का कोई अधिकार नहीं ।” फिर आदेशानुसार धर्म के रक्षकों में से कुछ ने जाकर पद्मा को घसीट कर अलग कर दिया। चिता में अग्नि दी गई पद्मा ने शीश झुका चिता को प्रणाम किया और अपने सारे आभूषण उतार कर प्रज्ज्वलित चिता में फेंक दिये।
    दूसरे दिन मनुष्यों ने देखा, पद्मा गेरुआ वस्त्र पहन शमशान की ओर गई ..  और फिर वहां से सघन वन मेंजाकर कहीं विलीन हो गई। सबने सोचा उसने आत्महत्या कर ली होगी परन्तु वह देश में अलख जगाती फिरी, यहां तक कि लोग उसके नाम को भी भूल गये और सारे मेवाड़ में वह तपस्विनी के ही नाम से विख्यात होगई । आज भी मेवाड़ के आस पास कथा प्रचलित है - वह तपस्विनी थी। उसने सब कुछ खोकर भी देश में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। देश को जागृत किया जिसके फलस्वरूप माताओं को वीर पुत्र और राणा प्रताप को देशभक्त सैनिक मिले ।
✍️ वीरेन्द्र कुमार मिश्र

::::::: प्रस्तुति :::::::
डा. मनोज रस्तोगी , 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत  मो. 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की नाट्य कृति - आचार्य चाणक्य । इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ था।



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::::::::::प्रस्तुति::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


बुधवार, 1 सितंबर 2021

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद सम्भल) के साहित्यकार स्मृतिशेष रामावतार त्यागी के पाँच गीत ------


(1)

आदमी का आकाश 

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भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है

आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है।


हो गए सम्बन्ध सीमित डाक से आए ख़तों तक

और सीमाएं सिकुड़ कर आ गईं घर की छतों तक

प्यार करने का तरीक़ा तो वही युग–युग पुराना

आज लेकिन व्यक्ति का विश्वास छोटा हो गया है।

आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है।


आदमी के शोर से आवाज़ नापी जा रही है

घंटियों से वक़्त की परवाज़ नापी जा रही है

देश के भूगोल में कोई बदल आया नहीं है

हाँ हृदय का आजकल इतिहास छोटा हो गया है।

आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है।


यह मुझे समझा दिया है उस महाजन की बही ने

साल में होते नहीं हैं आजकल बारह महीने

और ऋतुओं के समय में बाल भर अंतर न आया

पर न जाने किस तरह मधुमास छोटा हो गया है।

आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है।

(2)

रोशनी मुझसे मिलेगी

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इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ;

मत बुझाओ!

जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी!


पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले

अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ

आँसूओं से जन्म दे-देकर हँसी को

एक मंदिर के दिए-सा जल रहा हूँ;

मैं जहाँ धर दूँ कदम वह राजपथ है;

मत मिटाओ!

पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!


बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो

जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं

इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से

प्यार को हर गाँव दफनाता फिरूँ मैं

एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूँ

मत बुझाओ!

जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी!


जी रहे हो किस कला का नाम लेकर

कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,

सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो

वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;

मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ

मत सुखाओ!

मैं खिलूँगा, तब नई बगिया खिलेगी!


शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी

मैं जला हूँ, तो सुबह लाकर बुझुँगा

ज़िन्दगी सारी गुनाहों में बिताकर

जब मरूँगा देवता बनकर पुजुँगा;

आँसूओं को देखकर मेरी हंसी तुम

मत उड़ाओ!

मैं न रोऊँ, तो शिला कैसे गलेगी!

(3)

आँचल बुनते रह जाओगे 

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मैं तो तोड़ मोड़ के बंधन 

अपने गाँव चला जाऊँगा 

तुम आकर्षक सम्बन्धों का,

आँचल बुनते रह जाओगे.


मेला काफी दर्शनीय है 

पर मुझको कुछ जमा नहीं है 

इन मोहक कागजी खिलौनों में 

मेरा मन रमा नहीं है.

मैं तो रंगमंच से अपने 

अनुभव गाकर उठ जाऊँगा 

लेकिन, तुम बैठे गीतों का 

गुँजन सुनते रह जाओगे.


आँसू नहीं फला करते हैं 

रोने वाले क्यों रोता है?

जीवन से पहले पीड़ा का 

शायद अंत नहीं होता है.

मैं तो किसी सर्द मौसम की 

बाँहों में मुरझा जाऊँगा 

तुम केवल मेरे फूलों को 

गुमसुम चुनते रह जाओगे.


मुझको मोह जोड़ना होगा 

केवल जलती चिंगारी से 

मुझसे संधि नहीं हो पाती 

जीवन की हर लाचारी से. 

मैं तो किसी भँवर के कंधे

चढकर पार उतर जाऊँगा,

तट पर बैठे इसी तरह से 

तुम सिर धुनते रह जाओगे.

(4)

चाँदी की उर्वशी न कर दे~

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चाँदी की उर्वशी न कर दे युग के तप संयम को खंडित

भर कर आग अंक में मुझको सारी रात जागना होगा ।


मैं मर जाता अगर रात भी मिलती नहीं सुबह को खोकर

जीवन का जीना भी क्या है, गीतों का शरणागत होकर,

मन है राजरोग का रोगी, आशा है शव की परिणीता

डूब न जाये वंश प्यास का पनघट मुझे त्यागना होगा ॥


सपनों का अपराध नहीं है, मन को ही भा गयी उदासी

ज्यादा देर किसी नगरी में रुकते नहीं संत सन्यासी,

जो कुछ भी माँगोगे दूँगा ये सपने तो परमहंस हैं

मुझको नंगे पाँव धार पर आँखें मूँद भागना होगा ॥


गागर क्या है - कंठ लगाकर जल को रोक लिया माटी ने

जीवन क्या है - जैसे स्वर को वापिस भेज दिया घाटी ने,

गीतों का दर्पण छोटा है जीवन का आकार बड़ा है

जीवन की खातिर गीतों को अब विस्तार माँगना होगा ॥


चुनना है बस दर्द सुदामा लड़ना है अन्याय कंस से

जीवन मरणासन्न पड़ा है, लालच के विष भरे दंश से,

गीता में जो सत्य लिखा है, वह भी पूरा सत्य नहीं है

चिन्तन की लछ्मन रेखा को थोड़ा आज लाँघना होगा ॥

(5)

सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे 

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आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ तुम्हारे दृग में

लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे !

 

मैं आया तो चारण-जैसा

गाने लगा तुम्हारा आंगन;

हंसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी

तुम चुपचाप खड़े किस कारण ?

मुझको द्वारे तक पहुंचाने सब तो आये, तुम्हीं न आए,

लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे!


मौन तुम्हारा प्रश्न चिन्ह है, 

पूछ रहे शायद कैसा हूं 

कुछ-कुछ चातक से मिलता हूँ

कुछ कुछ बादल के जैसा हूं; 

मेरा गीत सुन सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई, 

लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे! 


तुमने मुझे अदेखा कर के

संबंधों की बात खोल दी;

सुख के सूरज की आंखों में 

काली काली रात घोल दी;

कल को गर मेरे आंसू की मंदिर में पड़ गई ज़रूरत 

लगता है आंचल को अपने सबसे अधिक तुम ही धोओगे!


परिचय से पहले ही, बोलो, 

उलझे किस ताने बाने में ?

तुम शायद पथ देख रहे थे, 

मुझको देर हुई आने में;

जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,

लगता है मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!

✍️  रामावतार त्यागी