शनिवार, 27 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शचींद्र भटनागर के ग़ज़ल संग्रह "तिराहे पर" की ओंकार सिंह ओंकार द्वारा की गई समीक्षा ....आस्था और चिंतन की गजलें हैं ’तिराहे पर’ में

  ग़जल की यह परंपरा रही है कि ग़जल का हर शेर अपने आपमें स्वतंत्र होता है यानी यह आवश्यक नहीं है कि ऊपर के शेर से मिलती हुई बात ही दूसरे शेर में भी कहीं जाए दूसरे शेर में दूसरी बात हो सकती है तीसरे शेर में कोई और बात हो सकती है चौथे और पाँचवे शेरों में अलग-अलग बातें कहीं जा सकती हैं। परंतु कवि श्री शचींद्र भटनागर जी की यह विशेषता है कि उनकी कृति "तिराहे पर" में संग्रहीत कई ग़ज़लों में एक शेर दूसरे शेर से संबद्ध रहता है जिससे गुज़लों का सौंदर्य और अधिक हो गया है, जो कि पाठक के आनंद को बढ़ा देता है।

   आजकल मनुष्य इतना स्वार्थी होता चला जा रहा है कि वह समृद्धि, संपन्नता, वैभव और सुख तो चाहता है, परंतु उसके लिए सकारात्मक प्रयास नहीं करता। यह बात ठीक उसी तरह से है जैसे कि किसी पुराने कवि की इस पंक्ति में कि 'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय' परंतु कवि श्री शचींद्र जी एक मतले के द्वारा इसी बात को सुंदर ढंग से इस तरह से कहते हैं

फूल चाहा, पर न अभिरुचि बागवानी में रही

 हर समय रुचि स्वार्थ के प्रति सावधानी में रही

और इसी प्रकार वे कहते हैं कि

जिक्र ऊँचाइयों का होता है 

पर सफ़र खाइयों का होता है

लाख चलते हैं हम मरुस्थल में

ध्यान अमराइयों का होता है।

राज्य का हर नागरिक पीड़ा से कराह रहा है तरह-तरह से कष्ट एवं कठिनाइयाँ झेल रहा है प्रदूषण, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महँगाई, शोषण, मजहब और धर्म के नाम पर अलगाववाद और आतंकवाद की चपेट में या गिरफ्त में फँसे हुए समाज का हर व्यक्ति इस घुटन से मुक्ति चाहता है। कवि श्री शचींद्र भटनागर जी ने भी इस घुटन से मुक्ति की कामना इस तरह से एक शेर के माध्यम से की है। इससे लगता है कि उनका भरोसा शासन से उठ गया है और जनता को घुटन से मुक्ति का रास्ता खुद तलाशना होगा।

     राज्य के हर नागरिक को जो घुटन से मुक्ति दे

     अब हवा ऐसी न कोई राजधानी में रही।

भीड़ बढ़ती चली जा रही है मगर आदमी अकेला होता चला जा रहा है। और इस भीड़ में तन्हाई के इस दर्द की टीस को कविवर श्री शचींद्र भटनागर ने अपने इस शेर में किस खूबसूरत अंदाज़ में बयान किया है

बढ़ती भीड़ों में रात-दिन केवल 

दर्द तनहाइयों को होता है।

संसार में सारे सुख वैभव मौजूद रहते हुए भी आज का आदमी उनका सुख नहीं भोग पा रहा है और अधिक प्राप्ति की चाह में अपने वर्तमान को नरक बनाए हुए हैं, अधिक से अधिक व्यक्तिगत पूँजी जमा करने में अपना भविष्य सुरक्षित समझता है। कवि श्री भटनागर इस बुराई से निजात पाने के लिए प्रेरित करते हैं और कहते हैं

धन तो चोरों औ' लुटेरों पे बहुत होता है

 मिल सके प्यार औ' सम्मान यही काफ़ी है।

और वे कहते हैं

आदमी है, जो हँसता-हँसाता रहे 

संकटों से भी जो सीख पाता रहे

फूल सा खुशनुमा हो सभी के लिए

 शूल के बीच भी मुस्कुराता रहे

जब लक्ष्य बड़ा होता है तो रास्तों का भी कठिन होना स्वाभाविक है ऐसे में अधिक धन-दौलत, आलीशान महल आदि की सुविधा भोगते हुए उस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है। इसी बात को अपने इस शेर में सुंदर ढंग से व्यक्त करते हैं श्री भटनागर जी

दूर जब लक्ष्य हो, राहें भी बहुत मुश्किल हों

 साथ में थोड़ा हो सामान यही काफी है।

समाज में संवेदनहीनता इतनी अधिक है कि यदि सड़क दुर्घटना में कोई व्यक्ति घायल पड़ा मदद के लिए तड़प रहा हो, तब भी उसे अस्पताल पहुंचाने वाला कोई नहीं होगा। भीड़ अनदेखी करती हुई गुजर जाएगी इसके अलावा भी न जाने कितनी ही घटनाएँ, दुर्घटनाएँ हमारे आस-पास होती हैं परंतु कोई किसी का दर्द बाँटने का उपक्रम नहीं करता। शायद इन्हीं बातों से व्यथित होकर श्री शचींद्र भटनागर जी कहते है कि

अब उन्हें देख के हरकत न जरा होती है

 हादिसे सामने हर रोज गुजर जाते हैं।

मनुष्य का जीवन खुशहाल बनाने के लिए सामाजिक ताना-बाना आवश्यक है। परंतु हमारा समाज विभिन्न रोगों से ग्रसित है। यह चिंता कवि श्री शचींद्र भटनागर को साल रही है। इसी से बेचैन होकर वे कहते हैं कि 

कैसे महकेगा कोई फूल किसी डाली पर

बाग का बाग है बीमार भला क्या होगा

द्वार दीवारें हैं कमजोर छतें चटकी हैं 

और तूफों के हैं आसार भला क्या होगा।

जब न हाथों में हो मल्लाह के ताकत बाकी 

लाख मजबूत हो पतवार भला क्या होगा।

श्री भटनागर साहब ने विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर और उनके निदान पर शेर कहे हैं। इसके अलावा शृंगाररस में भी उन्होंने बेजोड़ शेर कहे हैं, जिनमें हर पंक्ति से सौंदर्यबोध होता है, जो प्यार की खुशबू भरी मिठास पाठक के तक पहुँचाता है। बानगी के तौर पर कुछ शेर देखिए

वक्त के इस तरह से इशारे हुए 

आज के दिन पुनः तुम हमारे हुए

पांखुरी पांखुरी मुस्कुराने लगी 

रात तक जो रही मन को मारे हुए

आप जब भी मेरे उपवन की तरफ़ आते हैं

 वृक्ष किसलय से अनायास ही भर जाते हैं।

काम ही काम करते रहना मनुष्य का सद्गुण है कवि श्री शचींद्र जी कहते हैं....

हमारी व्यस्तता के क्षण कभी भी कम नहीं होंगे

हमारी याद ही रह जाएगी जब हम नहीं होंगे।

अंत में, मैं यही कहना चाहूँगा कि श्री भटनागर की गजलों से महसूस होता है कि वे ईश्वर में दृढ़ आस्था रखने वाले पूरी तरह आध्यात्मिक और समाज के प्रति चिंतनशील कवि थे। 






✍️ 'ओंकारसिंह 'ओकार'

1 बी/241, बुद्धि विहार 

आवास विकास कालोनी

मुरादाबाद (उ.प्र.)

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

मुरादाबाद मण्डल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----अधिकारी की जय हो

 


बिना अधिकारी के मंत्री की क्या मजाल कि एक फाइल भी तैयार करके आगे बढ़ा दे ! जब मंत्री पदभार ग्रहण करता है तब अधिकारी उसे अपने कंधे का सहारा देकर मंत्रालय की कुर्सी  पर बिठाता है । झुक कर प्रणाम करता है और कहता है "माई बाप ! आप जो आदेश करेंगे ,हमारा काम उसका पालन सुनिश्चित करना है ।"

     मंत्री इतनी चमचामय भाषा को सुनकर अपने आप को डोंगा समझने लगता है और इस तरह अधिकारी चमचागिरी करके मंत्री रूपी डोंगे के भीतर तक अपनी पहुँच बना लेता है । 

           मंत्रियों की टोपी का रंग नीला , पीला ,हरा ,लाल बदलता रहता है लेकिन अधिकारी का पूरा शरीर गिरगिटिया रंग का होता है । जो मंत्री की टोपी का रंग होता है, वैसा ही अधिकारी के पूरे शरीर का रंग हो जाता है । पार्टी में दस-बीस साल तक धरना - प्रदर्शन - जिंदाबाद - मुर्दाबाद कहने वाला कार्यकर्ता भी अधिकारी के मुकाबले में नौटंकी नहीं कर सकता । कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा टोपी पहन लेगा लेकिन अधिकारी का तो पूरा शरीर ही टोपी के रंग में रँगा होता है । अधिकारी मंत्री को यह विश्वास दिला देता है कि हम आप की विचारधारा के सच्चे समर्थक हैं और हम आपकी पार्टी को अगले चुनाव में विजय अवश्य दिलाएंगे । 

             मंत्री को क्या पता कि कानून कैसे बनता है ? वह तो केवल फाइल के ऊपर लोक-लुभावने नारे का स्टिकर चिपकाने में रुचि रखता है । भीतर की सारी सामग्री अधिकारी बनाता है । मंत्री के सामने मंत्री के मनवांछित स्टिकर के साथ फाइल प्रस्तुत करता है । इसलिए फाइलों में स्टिकर बदल जाते हैं ,नारे नए गढ़े जाते हैं ,महापुरुषों के चित्रों में फेरबदल हो जाती है लेकिन सभी नियमों का प्रारूप अधिकारियों की मनमानी को पुष्ट करने वाला ही बनता है । अधिकारी अपने बुद्धि चातुर्य से कानून का ऐसा मकड़ी का जाल बनाते हैं कि जनता रूपी ग्राहक उनके पास शरण लेने के लिए आने पर मजबूर हो जाता है और फिर उनकी मनमानियों का शिकार बन ही जाता है। मंत्रियों को तो केवल उस झंडे से मतलब है जो अधिनियम की फाइल के ऊपर लहरा रहा होता है । अधिकारी घाट-घाट का पानी पिए हुए होता है । उसे मालूम है कि यह झंडे -नारे सब बेकार की चीजें हैं । इन में क्या रखा है ? 

      असली चीज है अधिनियम की ड्राफ्टिंग अर्थात प्रारूप को बनाना । उसमें ऐसे प्रावधानों को प्रविष्ट कर देना कि लोग अफसरशाही से तौबा-तौबा कर लें । अधिकारियों की तानाशाही और उनकी मनमानी के सम्मुख दंडवत प्रणाम करने में ही अपनी ख़ैरियत समझें । परिणाम यह होता है कि मंत्री जी समझते हैं कि रामराज्य आ गया ,समाजवाद आ गया ,सर्वहारा की तानाशाही स्थापित हो गई । लेकिन दरअसल राज तो अधिकारी का ही चलता है । अधिनियम में जो घुमावदार मोड़ उसने बना दिए हैं , वहाँ रुक कर अधिकारी को प्रसन्न किए बिना सर्वसाधारण आगे नहीं बढ़ सकता। अधिकारी इस देश का सत्य है । मंत्री अधिक से अधिक अर्ध-सत्य है । अर्धसत्य फाइल का कवर है । सत्य फाइल के भीतर की सामग्री है ,जो अंततः विजयी होती है । इसी को "सत्यमेव जयते" कहते हैं ।

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा

 रामपुर

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर के निर्देशन में जय प्रकाश सिंह का शोध प्रबंध .... साहित्यकार डॉ पुष्पेंद्र वर्णवाल : जीवन और साहित्य : एक आलोचनात्मक अध्ययन


                          


क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरा शोध प्रबंध 

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:::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822





मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी की लघु कहानी.......आज भी,,,,

सर्वज्ञान विद्यालय के छात्र भीखू से स्वजातीय छात्रों ने पूछा अरे यार आज तो तुम एकदम सुस्त,थके-थके,मरियल से दिख रहे हो। तुम्हारा चेहरा भी बुझा बुझा और शरीर भी बेदम सा लग रहा है। तुम्हारे सूखे होंठों पर जमी पपड़ी भी तुम्हारी शारीरिक स्थिति को परिभाषित कर रही है। हो न हो कोई न कोई बीमारी अंदर ही अंदर पनप रही है। बोलो मित्र क्या बात है।

     भीखू की कक्षा के कुछ साथियों द्वारा उसकी सुस्ती का कारण जानने की हठ करने पर उसने कहा, भाइयो कई दिन से मैं तेज ज्वर व खाँसी से पीड़ित था। बुखार ऐसा कि कभी उतर जाता और फिर इतनी तेजी से चढ़ता की पूरे शरीर को ही जलाकर रख देता। कुछ भी खाने को मन न होता।

      आज कुछ कम होने पर विद्यालय आने की हिम्मत कर पाया। आज आजादी का  अमृत महोत्सव भी तो है। मैंने सोचा आप सभी से मिलकर मन खुश हो जाएगा।  और कुछ अधूरे कार्य भी आपके सहयोग से पूरे हो जाएंगे।

     भीखू के सभी मित्र यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उसे पूर्ण सहयोग देने की बात कहते हुए कक्षा में  ले जाकर बैठा दिया। भीखू के सभी दोस्त जिनमें नथुआ, खचेड़ू, कलुआ, भैरों, हीरा ने भीखू से पूछा भैया, कुछ खाओगे। हमारे पास जो भी है मिल बांट कर खा लेंगे। भीखू ने कहा नहीं भैया मुझे बिल्कुल भूख नहीं है। आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद। यदि हो सके तो दो घूँट पानी पिला देना। बहुत प्यास लगी है। सारा हलक सूख रहा है। 

     इतना कहते ही भीखू अचेत होकर धरती पर गिर गया। उसके सभी साथी चीखते-चिल्लाते विद्यालय के प्रधानाचार्य भद्राचरण शुक्ला जी के कार्यालय में पहुंचे  और भीखू की अचेतावस्था से अवगत कराते हुए कहा सर, विद्यालय का नल खराब हो गया है। यदि आप अपने घड़े में से थोड़ा जल दे दें तो आपका बड़ा उपकार होगा। यह कहते हुए सभी ने पानी हेतु अपने गिलास आगे बढ़ा दिए।

    इतना सुनते ही प्रधानाचार्य ने सभी छात्रों को फटकार लगाते हुए अपने कक्ष से तुरंत  बाहर निकल जाने का आदेश देते हुए कहा। तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई कि तुमने अपने गंदे पैर मेरे कक्ष में रखे। मेरा सारा कमरा ही अपवित्र कर दिया।

    मैं खूब समझता हूँ कि पढ़ने के नाम पर ऐसे नाटक करना तुम नींच जाति के छात्रों की पुरानी आदत है।

   नहीं-नहीं गुरुवर ऐसा नहीं है, भीखू वास्तव में ही बहुत बीमार है। उसे दो घूँट पानी न मिला तो उसके प्राण संकट में पड़ जाएंगे। नथुआ ने विनम्र भाव से पुनः जल देने की प्रार्थना करते हुए कहा। गुरुजी आप स्वयं चलकर देख लेते तो सत्य असत्य का पता चल जाता।

   प्रधानाचार्य ने क्रोधवश कहा कि मैं अपने घड़े से दो घूँट तो क्या, दो बून्द पानी भी उस अछूत को नहीं दे सकता। मुझे अपवित्र नहीं होना समझे और जहां तक चलकर देखने की बात है तो मैं अपनी परछाईं भी उसके समीप ले जाना पाप समझता हूँ।

    सवर्णों को छोड़कर उसके अन्य सहपाठी बड़े उदास मन से कक्षा में लौट आए। सभी ने मिलकर भीखू को उठाया और विद्यालय परिसर के बाहर बह रहे नाले के पानी को कपड़े से छानकर पिलाने को जैसे ही उसका मुँह ऊपर उठाया तो देखा कि उनका प्रिय मित्र भीखू उन्हें सदा-सदा के लिए छोड़कर जा चुका है।

    सारे के सारे मित्र दौड़े-दौड़े भीखू के गांव पहुंचे और उसके देहांत की दुखद सूचना देकर स्वयं भी दहाड़ें मार कर रोने लगे।

    देखते ही देखते सारा गाँव एकत्र होकर स्कूल में हो रहे भेद-भाव पर रोष प्रकट करने संबंधित पुलिस थाने पहुँचा। परंतु वहां भी ऊंच नीच के घृणित व्यवहार ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। सभी लोग अपना सा मुँह लेकर लौट आए और अपने नसीब को कोसते हुए भारी मन से भीखू का अंतिम संस्कार यह कहते हुए कर दिया कि, अब शांत बैठने से काम नहीं चलने वाला। हम सभी को एक साथ इस भेद-भाव की कुप्रथा से लड़ना ही पड़ेगा।और कहना होगा भाड़ में जाए ऐसी आजादी जिसमें दशकों बाद आज भी......


✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

 मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल फोन नंबर 9719275453

               

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर ) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी का एकांकी ...शठे शाठ्यम समाचरेत्


पृष्ठभूमिसिंहावर्त नामक सघन वृक्षों वाला रमणीक महावन…ऊंची-ऊंची पर्वत श्रंखलाओं, नदियों, स्वच्छ पानी वाले जलाशयों और सुंदर सुगंधित पुष्पों लताओं से परिपूर्ण…हर ओर मनमोहक हरियाली…विशालकाय पत्थर, गुफाओं और सुरंगों की बहुलता।

पात्र परिचय :

तानिया बिल्ली     –   वनमाता

मनशेरा शेर          –   कठपुतली राजा

कुटिलरुप भेड़िया   –  निकटवर्ती राज्य कूटिस्तान का शासक

बाघेन्द्र बाघ        –     वनखण्ड प्रभारी

  :   परिदृश्य एक   :

उद्घोषककिसी समय सिंहावर्त नामक महावन में जीवा नामक बिलाव शासन करता था। किन्तु उसकी नीतियों से असंतुष्ट कुछ उग्र व हिंसक जन्तुओं ने उसकी हत्या कर दी थी। तब उसके चाटुकारों ने उसकी राजकाज में अनुभवहीन पत्नी तानिया नामक बिल्ली को सिंहासनासीन करने की भरसक चेष्टा की। किन्तु तानिया ने वनहित में त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए मनशेरा नामक एक ऐसे बूढ़े शेर को सत्तासीन कर दिया जो वंश से तो शेर था किन्तु स्वभाव व प्रवृत्ति से किसी मूषक की भांति कातर और मूकबधिर जैसा था। शायद तानिया ने उसे इसीलिए कठपुतली के रूप में राजा बनाया था। और वह त्याग की प्रतिमूर्ति बन परदे के पीछे से महावन पर अपना शासन चलाने लगी…

     एक दिन मनशेरा वनमाता तानिया के तमाम सुख साधनों से भरपूर भव्य राजगुफा में पहुंचता है…और

मनशेरा (करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में नतमस्तक) – वनमाता की सदा ही जय हो!

वनमाता (आशीर्वचन की मुद्रा में दायां हाथ ऊपर उठाते हुए)-- हां बोलो मनशेरा! क्यों इतने घबराये हुए हो?

मनशेरा – वनमाता! कूटिस्तान के राजा कुटिलरूप ने हमारे महावन में बहुत उत्पात मचा रखा है।

वनमाता (चौंकते हुए) – कौन कुटिलरूप? कौन कूटिस्तान?... पहले तो तुमने कभी ये नाम लिये नहीं?

मनशेरा – वनमाता! यह वह वन है जो कभी हमारे ही महावन का एक भाग हुआ करता था , किंतु अब वह अलग स्वतन्त्र वन कूटिस्तान बन गया है उसी का राजा है कुटिलरूप भेड़िया।

वनमाता – किस मूर्ख ने किया उसे हमारे महावन से अलग? क्या कोई सजा दी गई उसे?

मनशेरा – वनमाता! उसे तो कोई सजा नहीं दी गई, किन्तु उसके किए की सजा हमारा महावन अवश्य भुगत रहा है।

वनमाता – आखिर किसके दिमाग में वह कीड़ा कुलबुलाया था जो इस महावन से एक खण्ड काटकर इसे छोटा कर दिया गया? कौन बुद्धिहीन था वह?

मनशेरा (तनिक झिझकते हुए)– अतीत की बड़ी लम्बी और शर्मनाक कहानी है वनमाता!...सुनाते हुए संकोच भी होता है और भय भी लगता है कि कहीं आप कुपित न हो जाएं।

वनमाता – बिल्कुल मत डरो मनशेरा! और संकोच भी मत करो! सब कुछ साफ़ साफ़ बताओ!

मनशेरा (भयाक्रांत स्वर)-- वनमाता! किसी समय में यह सिंहावर्त नामक महावन क्षेत्रफल व समृद्धि की दृष्टि से अत्यधिक विशाल था। किन्तु आपके पति जीवा के एक सदाशय पूर्वज ने अपने किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने मित्र किसी भेड़िए को इस महावन का एक छोटा सा खण्ड उपहार स्वरूप प्रदान कर दिया था।तब से अब तक वहां भेड़िए ही शासन करते आ रहे हैं। आजकल वहां कुटिलरूप नामक एक निकृष्ट स्वभावी भेड़िया अधिपत्य जमाए हुए है। उसकी लोलुप दृष्टि हमारे महावन पर लगी हुई है।उसका दिवास्वप्न है कि वह हमारे सिंहावर्त व अपने कूटिस्तान को मिलाकर अपना साम्राज्य स्थापित करे। इसीलिए वह हमारे सिंहावर्त में अपने भेड़ियों द्वारा विध्वंस व उत्पात मचाता रहता है।

वनमाता – तो उससे हमें क्या हानि है?

मनशेरा (किंचित्आवेश में)-- वनमाता! वह हमारे वनवासियों का बहुत प्रकार से उत्पीड़न कर रहा है। हमारे तमाम जीवजंतु मारे जा रहे हैं। वनसम्पदा नष्ट की जा रही है।नदी नालों का पानी रक्त से लाल व दूषित किया जा रहा है।

वनमाता – तो उसके कुकृत्यों से हमें क्या हानि है?... हमारी समझ में यह बात नहीं आ पा रही?... वह हमारी प्रजा का ही तो शोषण कर रहा है हमारा तो नहीं।…बस इतना ध्यान तुम्हें अवश्य रखना है कि उसके कारण हमारे सुखोपभोग में कोई कमी न आने पाए।

मनशेरा – इतनी व्यवस्था तो हमने पहले ही कर रखी है। हमने चीते,हाथी, जिराफ़ व ऊंट को महावन की सीमाओं पर नियुक्त कर रखा है। परंतु वनमाता!कुटिलरूप भेड़िया इतना कुटिल है कि उसने साही के द्वारा महावन व कूटिस्तान के मध्य आर पार सुरंगें बनवा ली हैं। और विभाजन के समय जो भेड़िए यहां रह गये थे उनका आश्रय लेकर विध्वंस मचाता रहता है। तथा उन्हें यह कहकर उत्साहित करता रहता है कि अभियान जारी रखो! वह दिन दूर नहीं जब महावन सिंहावर्त में भी एक छत्र भेड़ियों का साम्राज्य स्थापित होगा।

वनमाता (आंखें विस्फारित करते हुए)-- ओह ऐसा हुआ?... यह तो बहुत ग़लत है…फिर तुमने क्या किया उसका अभियान रोकने के लिए?

मनशेरा – हमने उसे कठोर चेतावनी दी है कि कुटिलरूप जी! हमारे धैर्य की परीक्षा मत लीजिए! हम आपसे डरने वाले नहीं हैं,अपना विध्वंसक अभियान तत्काल रोक दीजिए! वरना हम आपकी ईंट से ईंट बजा देंगे।

वनमाता – तो उस पर क्या प्रतिक्रिया हुई तुम्हारी धमकियों की? क्या उसका अभियान रुक पाया?

मनशेरा – नहीं वनमाता!उसका तो दु:साहस निरंतर बढ़ता जा रहा है। उसने तो हमें ही ललकार दिया कि अरे जा-जा कठपुतली राजा! उस बिल्ली की गोद में बैठकर गीदड़भभकी देने वाले तुझ जैसे भीरू राजा से डरकर हम कभी पीछे हटने वाले नहीं।

वनमाता – पता नहीं क्यों मनशेरा! हमें इन भेड़ियों से कुछ विशेष प्रेम है, उनके अनिष्ट से हमारा हृदय रोता है। जबकि खरगोश,हिरण,सांभर, नीलगाय जैसे निरीह जन्तुओं से हमें नफरत है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये हमारे महावन पर बोझ हैं। और ये यहां से निकलकर किसी और वन में चले जाएं…

     …खैर तुम अपनी गुफा में जाकर विश्राम करो!हम अपने परामर्शदाताओं से विचार विमर्श कर कोई ऐसी राह निकालेंगे कि इन भेड़ियों को भी कोई क्षति न पहुंचे और हमारे सुखोपभोग में भी कोई बाधा न पड़े।

    ( मनशेरा वनमाता के चरणों में तीन बार शीश झुकाकर किसी पंखकटे पक्षी की तरह छटपटाता हुआ रुआंसे मन से वापस लौट जाता है)


उद्घोषक : फिर एक रात्रि को कुटिलरूप ने बहुत सारे भेड़ियों के साथ सीमा पर बनाई गई सुरंगों से घुसकर सिंहावर्त पर आक्रमण कर दिया। वीभत्स जन्तु संहार करते हुए उसने बहुत भीतर तक प्रवेश कर लिया। मनशेरा को सूचना मिली तो  वह अपने कातर स्वभावानुसार कुटिलरूप की अभ्यर्थना करने जा पहुंचा…

मनशेरा (कुटिलरूप की ओर मैत्री भरा हाथ बढ़ाते हुए) – सिंहावर्त की सुसमृद्ध धरती पर आपका अभिनन्दन है माननीय महोदय! 'अतिथि देवो भव:' हमारी परंपरा रही है। एक अतिथि के रूप में आप जब तक चाहें तब तक यहां रहें! परंतु हमारे जंतुओं को कोई हानि न पहुंचाएं! वे हमसे शिकायत करने आ जाते हैं तो हमारी शासकीय क्षमता पर प्रश्न चिन्ह उठ खड़े होते हैं। बात वनमाता के कानों तक जा पहुंचती है तो हमें उनका कोपभाजन बनना पड़ता है।

कुटिलरूप (अपने सेनापति के कानों में फुसफुसाते हुए)-- इस शेर की बुद्धिहीनता का भी कोई जवाब नहीं। शत्रु का भी कैसा भावभीना सत्कार कर रहा है। बेवकूफ कहीं का।

मनशेरा – सम्माननीय महोदय! धीरे-धीरे क्या कह रहे हैं आप? कुछ हमें भी तो पता चले?

कुटिलरूप – तुम्हारी सादगी और प्यार भरे आतिथ्य तथा इस महावन की सुंदरता ने हमारा मन मोह लिया है। मन करता है कि इस महावन को भी हम अपने कूटिस्तान में ही मिला लें। तुम भी वहीं चलकर रह लेना!... इस प्रस्ताव के संदर्भ में क्या कहते हो तुम?

मनशेरा (मंद-मंद मुस्कराते हुए)-- परिहास बहुत अच्छा कर लेते हैं आप। हंसी मजाक हमें भी बहुत पसंद है।

कुटिलरूप  (अपने सेनापति से धीमें स्वर में)--  जहां का राजा नीति निपुण न हो , जिसे शत्रु मित्र की लेशमात्र भी पहचान न हो, जो शत्रु से भी प्रेमपगा व्यवहार करता हो– ऐसे राजा के राज्य पर अधिपत्य जमा लेने में लेशमात्र भी बाधा नहीं आ सकती।

उद्घोषक  : और कुछ ही समय में देखते ही देखते सिंहावर्त महावन में कूटिस्तान के भेड़ियों ने उत्पात मचा दिया। वहां के मूल निवासी सांभर, नीलगाय, चीतल, चिंकारा, खरगोश,ज्ञ हिरण आदि निरीह जन्तुओं का सफाया किया जाने लगा। सम्पूर्ण महावन में करुण क्रंदन और चीत्कार के स्वर…जिधर भी देखो उधर हिंसा का भयावह ताण्डव…आतंक का नग्न नर्तन।

     परंतु सिंहावर्त का कठपुतली राजा मूक,मौन और बधिर था…शायद उसे वनमाता के किसी आदेश की प्रतीक्षा थी।

                    ( परदा गिरता है )

                : परिदृश्य क्रमांक दो   :

उद्घोषक : सिंहावर्त के एक लघुखण्ड का प्रभारी बाघेंद्र नामक बाघ बहुत शक्तिशाली, स्वाभिमानी और वीर था…खण्ड के जंतुओं की रक्षा के लिए सदैव सतर्क और सन्नद्ध…कूटिस्तान के भेड़िए जब उपद्रव मचाते हुए उसके खण्ड तक जा पहुंचे तो वह रौद्रमुखी बन गया…अन्य हिंसक जन्तुओं के सहयोग से उसने उन्हें तत्काल मार भगाया। और अगले ही दिन उसने अपने सेनापति व अन्य परामर्शदाता जंतुओं की एक सभा की…

बाघेंद्र (परामर्शदाताओं से)-- यह सोचकर मेरे मस्तक पर चिंता के साये लहराने लगे हैं कि पड़ोसी वन के जन्तुओं का हमारी सीमा में घुस आने का दु:साहस कैसे हुआ? क्या हमारे महावन का राजा इतना भीरू,कायर और ओजविहीन है कि अपने राज्य में घुस आए शत्रुओं का प्रतिकार नहीं कर सकता?

चीता– ऐसे डरपोक और शक्तिहीन राजा को राज करने का कोई अधिकार नहीं।उसे तो एक पल भी सिंहासनारूढ़़ नहीं रहने देना चाहिए।

बाघेंद्र (क्रांति का बिगुल बजाते हुए)-- जिस राजा को अपनी प्रजा के हितों की चिंता न हो,जो शत्रुओं से अपनी प्रजा की रक्षा करने में सक्षम न हो– उसे शासन करने का कोई अधिकार नहीं।…तो आइए मेरे साथ…सत्ता परिवर्तन के लिए क्रांति की मशाल लेकर सब साथ-साथ चलें!

चीता, तेंदुआ,भालू,गुलदार (उत्साहित समवेत स्वर)-- बाघेंद्र जी संघर्ष करो!हम तुम्हारे साथ हैं।

बाघेंद्र– साथियों! हम शठे शाठ्यम समाचरेत् युद्ध नीति के अनुसार अपने महावन में अवैध रूप से घुस आए भेड़ियों को चुन-चुनकर मारेंगे और सारे वनद्रोही व धूर्त जंतुओं का भी सफाया करेंगे। तत्पश्चात पर्वतों पर अनधिकृत रूप से वास कर रहे कूटिस्तान के गुप्तचर सियार, लोमड़ी,साही, ऊदबिलाव आदि को चीर फाड़ डाला जाएगा।

चीता तेंदुआ – परंतु अपने महावन के राजा मनशेरा और वनमाता से मुक्ति कैसे मिलेगी? जिन्होंने अपनी स्वार्थांधता और कातरता से इस महावन के गौरवशाली इतिहास को कलंकित कर दिया।

बाघेंद्र– मैंने सिंहावर्त महावन के सर्वविधि संरक्षण और सर्वांगीण उन्नति की शपथ ली है तो मैं अपने इस संकल्प को अवश्य पूर्ण करके रहूंगा। बस आप सब मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहिए!आज से *सबका साथ सबका विकास* मेरा लक्ष्य है।

      (बाघेंद्र महाराज की जय हो!... बाघेंद्र महाराज की जय हो!! – उद्घोष से आकाश गुंजाते हुए सारे जीव जंतु तत्क्षण उठ खड़े होते हैं और बाघेंद्र के पीछे पीछे चल पड़ते हैं )

उद्घोषकमहावन के जीव जन्तु मनशेरा के मौन व अकर्मण्यता से रुष्ट व क्षुब्ध तो थे ही, अतएव बाघेंद्र के नेतृत्व में सिंहावर्त में एक नई क्रांति का सूत्रपात करने एकजुट होकर निकल पड़ते हैं। और मनशेरा की राजगुफा पर धावा बोल उसे सत्ताच्युत कर बाघेंद्र को राजा घोषित कर देते हैं।

 ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़ ,बिजनौर

मो. 8077945148/9411012039

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की बाल कहानी......पश्चाताप


 बस्ती में सेठ जी का एक छोटा सा प्लाट था। उसमें आस-पास के  बच्चे क्रिकेट खेलते थे। प्लाट से सटी हुई सेठ जी की आलीशान कोठी थी। उन्होंने एक कुत्ता पाला हुआ था जिसे पूरा परिवार बहुत प्यार करता था। उसे परिवार के सदस्य की तरह ही मानता था। बच्चों के प्रति सेठ का हमेशा रूखा व्यवहार रहता। उनकी गेंद अगर कोठी में चली जाती तो मांगने पर कभी भी वापस नहीं देते थे। उन्होंने आखिर अपने प्रभाव का प्रयोग कर पुलिस से  अपने प्लाट पर बच्चों का क्रिकेट खेलना बंद करा दिया। बच्चे अब 3 कि० मी० दूर एक मैदान में खेलने जाने लगे। 

      एक दिन सेठ जी का कुत्ता कोठी के बाहर निकल गया। कोई उसे पकड कर अपने घर ले गया। बहुत ढूंढने के बाद भी कुत्ता नहीं मिल पाया। पुलिस में रिपोर्ट करने के बाद भी जब कुत्ता नहीं मिला तो उन्होंने 5000 रु० का ईनाम भी घोषित कर दिया। कुत्ते के खो जाने से पूरे घर में मातम छाया हुआ था। एक दिन बच्चों ने देखा कि खेल के मैदान के पास एक आदमी कुत्ता घुमा रहा है। बच्चों ने उस कुत्ते को पहचान लिया। यह तो सेठ जी का कुत्ता है। सारे बच्चे उस आदमी का छिपते- छिपाते पीछा करने लगे । थोडी देर बाद वह कुत्ता लेकर अपने घर में घुस गया। बच्चों ने उस घर की अच्छी तरह पहचान कर ली । सब बच्चे एक साथ सेठ जी की कोठी में पहुंच गये। बच्चों ने जब कुत्ते के बारे में बताया तो उनकी तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने उसी समय सभी बच्चों को आग्रहपूर्वक नाश्ता व मिठाई खिलायी।अगले दिन वह पुलिस को साथ लेकर अपना कुत्ता ले आये। सेठ जी ने बच्चों से पूर्व में अपने द्बारा किये गये दुर्व्यवहार के लिए पश्चाताप किया। उन्होंने सभी बच्चों को अपने प्लाट में खेलने की अनुमति तो दी ही साथ में घोषित ईनाम रु० 5000 भी दिये। सेठ जी बोले यह ईनाम की धनराशि है। इसे आपस में बांट लेना। सेठ जी ने सभी बच्चों को अपना मित्र बना लिया। उस दिन से सेठ जी के व्यवहार में बच्चो के प्रति अभूतपूर्व परिवर्तन आ चुका था। 

✍️ धनसिंह 'धनेन्द्र'

चन्द्र नगर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 22 अगस्त 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था कला भारती के तत्वावधान में रविवार 21 अगस्त 2022 को वाट्स एप काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया । गोष्ठी की अध्यक्षता डॉ मनोज रस्तोगी ने की। मुख्य अतिथि योगेंद्र वर्मा व्योम और विशिष्ट अतिथि प्रो ममता सिंह रहीं। संचालन आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने किया । प्रस्तुत हैं गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों की रचनाएं .....


कुछ चूहे 

कुतर रहे हैं

देश का नक्शा
हम कर रहे हैं
गणपति वंदन

कुछ बंदर
उजाड़ रहे हैं
देश की बगिया
हम गा रहे हैं
हनुमान चालीसा

कुछ विषधर
उगल रहे हैं
लगातार जहर
हम डूबे हुए हैं
नाग पंचमी उत्सव में

बढ़ती ही जा रही है
कौरवों की संख्या
हम आंखें बंद करके
कर रहे हैं
कन्हैया की पूजा

आखिर कौन निभाएगा
कृष्ण का धर्म
कब रची जाएगी
नई गीता

✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

Sahityikmoradabad.blogspot.com
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अब तो डाक-व्यवस्था जैसा
अस्त-व्यस्त मन है

सुख साधारण डाक सरीखे
नहीं मिले अक्सर
मिले हमेशा बस तनाव ही
पंजीकृत होकर
फिर भी मुख पर खुशियों वाला
इक विज्ञापन है

गूगल युग में परम्पराएँ
गुम हो गईं कहीं
संस्कार भी पोस्टकार्ड-से
दिखते कहीं नहीं
बीते कल से रोज़ आज की
रहती अनबन है

नई सदी नित नई पौध को
रह-रह भरमाती
बूढ़े पेड़ों की सलाह भी
रास नहीं आती
ऐसे में कैसे सुलझे जो
भीतर उलझन है

✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

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हम वासी आज़ाद वतन के।
सोचें क्यों अन्जाम।।

नियम ताक पर रख कर सारे,
वाहन तेज भगाएं।
टकराने वाले हमसे फिर,
अपनी खैर मनायें ।
सही राह दिखलाने की हर,
कोशिश है नाकाम।

चोला ओढ़े सच्चाई का,
साथ झूठ का देते।
गुपचुप अपनी बंजर जेबें,
हरी-भरी कर लेते।
हर मुद्दे का कुछ ही पल में,
करते काम तमाम।

सुर्खी में ही लिपटे रहना,
हमको हरदम भाता।
भूल गए मेहनत से भी है,
अपना कोई नाता।
जिसकी लाठी भैंस उसी की,
जपते सुबहो-शाम।

✍️ प्रो ममता सिंह
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत

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एक देशद्रोही नेता को
जिंदा शेर के सामने डालने
की सज़ा सुनाई गई
नेता जी घबरा गए,
जोर जोर से चिल्लाए ।
बोले
माई बाप मुझे क्षमा करें
अब कोई गलत काम नहीं करूंगा,
जैसा आप चाहेंगे
वैसा ही काम करूंगा।
देश के प्रति वफादार रहूंगा।
परन्तु
उसकी एक न सुनी गई
नेता जी को शेर के पिंजरे
में डाल दिया गया,
शेर दहाड़ा,
नेता जी के पास दौड़ा।
उसी क्षण वापस लौट गया,
एक ओर बैठ गया।
नेता जी की जान में जान आई,
बोले
मुझे क्यों नहीं खाया भाई।
शेर बोला,
तेरे खून से मिलावटों ,
घोटालों तथा मासूमों की
हत्याओं की बू आ रही है।
तुझको
खाने में मुझे शर्म आ रही है।
अरे,
तेरे शरीर को तो गिद्ध भी
नहीं खायेंगे।
खायेंगे तो खुद ही मर जायेंगे।
मैं तो, फिर भी जंगल
का बादशाह हूँ,
तू ,न बादशाह है न वज़ीर
बस धरती पर बोझ है
अरे,
धिक्कार है तेरे जीवन को
तूने देश को खा लिया
मैं,
तुझे क्या खाऊंगा ।
और यदि खा भी लिया तो
कैसे पचा पाऊंगा ।।

✍️ अशोक विश्नोई
मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

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नटखट है वो श्याम सलोना,सबका प्यारा है मोहन।
कृष्णा की जब मुरली बाजे,नाचे सारा बृंदावन।।

ग्वाल संग वो धेनु चराए,चोरी कर माखन खाए।
देखो कैसी करे ठिठोली, ऊखल से बांधा जाए।
रास रचाकर खूब रिझाए,उसको है शत शत वंदन।।

जब जब अत्याचार बढ़े हैं,धरती पर अवतार लिया।
गीता का संदेश दिया,इस मानवता को तार दिया।
आओ मिलकर जतन करें हम,नेक बने सबका चिंतन।।

कर्म भूमि में ऐसे रहना,पोखर में ज्यों खिले कमल।
नैनों में हो छवि माधव की,बन जाए यह मन निर्मल।
ज़हर भरे इस वीराने में, ख़ुद ही बन जाना चंदन।।

कृष्णा की जब मुरली बाजे नाचे सारा वृंदावन।।

✍️ डॉ पूनम बंसल
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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प्राण समर्पित कर दिए, राष्ट्र-धर्म के काज।
सीमा-रेखा की रखी, सेना ने ही लाज।।

धर्म और मजहब अलग, अलग हमारी जात।
राष्ट्र-धर्म के नाम पर, किंतु एक जज्बात।।

दिल में ऐसी भावना, भर देना करतार।
जननी जैसा ही रहे, जन्मभूमि से प्यार।।

भारत भू से प्यार के, किस्से कई हजार।
शत्रु वक्ष पर लिख गयी, राणा की तलवार।।

भारत भू का भाल है, केसरिया कश्मीर।
नजर हटा लो दुश्मनों, वरना देंगे चीर।।

बिस्मिल से बेटे मिले, भगत सिंह से लाल।
उन्नत जिनसे हो गया, भारत माँ का भाल।।

खूब बजाओ तालियां,देश हुआ आबाद।
साल पिछत्तर हो गये, हमें हुए आजाद।।

✍️ त्यागी अशोका कृष्णम्
कुरकावली, संभल
उत्तर प्रदेश, भारत

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हिंदोस्तां की आनबान शान तिरंगा
सारे जहां में देश की पहचान तिरंगा।
कट चाहे सर इसे झुकने नहीं देंगे,
भारत के हरेक लाल का अभिमान तिरंगा।

तिरंगा शान से यूं ही,
सदा सरहद पे लहराए ।
वतन के वास्ते जी लें,
वतन पर ही ये जां जाये।

मिटी झांसी की रानी ,
लक्ष्मीबाई आन की खातिर।
किया सर्वस्व न्योछावर,
न राणा ने झुकाया सर।।
काफिले उन शहीदों के,
हैं कितने काम में आये।।
तिरंगा शान से यूं ही,
सदा  सरहद पे  लहराये ।।

कि मन चित्तौड़ में अग्नि ,
अभी यूं ही धधकती है।
हजारों पद्मिनियों की चीख,
क्रंदन बन  सुलगती हैं ।
सजग प्रहरी बनें हम सब,
न मां पर आंच फिर आये ।।
तिरंगा शान से यूं  ही,
सदा  सरहद पे  लहराये ।।

हुए  घर में  ही  परदेसी,
यहां  वादी  के  वाशिंदे ।
था गूंगा बहरा शासन और,
थे    सारे  भ्रष्ट   कारिंदे।।
मगर दृढ़ता पराक्रम ने,
सभी  वे  प्रश्न सुलझाये।
तिरंगा शान से यूं ही ,
सदा  सरहद पे  लहराए ।

नहीं कश्मीर और बंगाल में,
फिर  खून  खच्चर  हो।
न हों बेशर्म आंखें और,
छुपे दामन में खंजर हों।।
न खा कर अन्न जल हम,
राष्ट्र का मक्कार हो जायें।।
तिरंगा शान से यूं ही ,
सदा  सरहद पे  लहराए।।

विविध धर्मों का,पंथों का,
ये प्यारा देश है भारत ।।
भले हों धर्म नाना पर ,
सभी को इसकी है चाहत।
नहीं गद्दार हरगिज अब,
कहीं कोई नज़र आये।
तिरंगा शान सेयूं ही ,
सदा सरहद पे लहराए ।
वतन के बास्ते जी लें,
वतन पर ही ये जां जाये।

✍️ अशोक विद्रोही
412, प्रकाश नगर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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है नरों के इन्द्र ने तुमको जगाया
अब भी न जागे तो फिर संताप होगा

कौन जाने किस घड़ी हो युद्ध भारी
सोते रहे तो धर्म से यह पाप होगा

अब उठो जागो लडो खुद अपने मन से
आस्तीनें जांच लो कोई सांप होगा

अब चलेगी धर्म की खड़ग जो शिथिल थी
अधर्मियों के शिविर भारी प्रलाप होगा
✍️ संजीव आकांक्षी
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत

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कैसे आजादी मिली, कैसे हिन्दुस्तान
कितने वीरों ने दिये, इस पर तन मन प्राण,,

सोचें तो मन हूंकता, जब जब करें विचार
वीरों ने कैसे सहे, तन पर सतत् प्रहार,

खुद अपने ही खून से, कैसे सींचा बाग़ •
कैसे अपनी मृत्यु को, बना लिया सौभांग

गोली, फाँसी, सिसकियां, जेलें, कोडे, मात
क्या क्या मुश्किल की वरण, कितनी झेलीं घात,,

तोपें,चाबुक, हथकड़ी, तन मसला बारूद
डिगा सका ना लक्ष्य से, थामे रखा वजूद,

तनिक नहीं परवाह की, गये स्वयं को भूल
इस स्वतन्त्रता के लिये, सब कुछ किया कबूल,

भीषण संघर्षो सहित, जब पाया यह मान
इक चिंगारी फिर उठी, झुलसा हिन्दुस्तान,,

बोए बीज बबूल के सिखा गया तकरार
ज़ालिम एक परिवार मे, उठा गया दीवार,

बस मज़हब के नाम पर, फिर झेला संग्राम
वो भाई खुद भिड़ गये, हुआ बुरा परिणाम,,

जिस आज़ादी के लिये, सहे घोर संघर्ष
अपनी लाशों संग मिली, कैसे होता हर्ष,,

भाई को हिस्सा दिया, और दिया तिरपाल
रीते मन से दी दुआ, रहे सदा खुशहाल,,

और फिर सत्ता मिल गयी, खूब संभाला राज
आज़ादी के मोल का, इतना किया लिहाज,,

एक बरस में दे दिये, इस खातिर दिन चार
हम .बड़बोले बन गये, बदल लिया व्यवहार,,

आज़ादी के मायने बदल गये फिर आप
जब चाहे दिल खींच लो, टाँग किसी की आप,,

मुंह में जो आता रहे, पहले दीने बोल
आज़ादी है भाईयों, करनी कैसी तोल,,

राजनीति में फिर चला, ऐसा नंगा नाच
आज़ादी लज्जित हुई, कौन सके ये बाँच,

शब्द नहीं एक भाव है, आज़ादी की बात
स्वाभिमान की राष्ट्र को, मिलने दें सौगात,

नहीं न ऐसा कीजिये, गढ़िये नव प्रतिमान
विश्व गुरू फिर से बने, मेरा देश महान,

✍️मनोज वर्मा 'मनु'
6397093523

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मातृभूमि पर बलि होने के, अनगिन सपने पलते हैं।
कोमल कण कोमलता तज कर, अंगारों में ढलते हैं।
तब नैनो का नीर सूख कर, रच देता है नव गाथा,
जब भारत के वीर-बाॅंकुरे, लिए तिरंगा चलते हैं।
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तम के बदले हृदय में, भरने को उल्लास।
दीपक में ढल जल उठे, माटी-तेल-कपास।।

चुपड़े अपने गात पर, खूब सियासी तेल।
दानव भ्रष्टाचार का, दण्ड रहा है पेल।।

प्यारे भारत को सदा, ऐसी मिले उमंग।
मन के भीतर भी खिलें, ध्वज के सारे रंग।।

बेबस भीखू को मिली, कैसी यह सौगात।
दीवारों से कर रहा, अपने मन की बात।।

बढ़ते पंछी को हुआ, जब पंखों का भान।
सम्बंधों के देखिये, बदल गए प्रतिमान।।

आये जब अवसान पर, श्वासों का यह साथ।
तब भी लेखनरत रहें, हे प्रभु मेरे हाथ।।

ऑंखें खोलीं रात ने, दिन को चढ़ी थकान।
दीपक रचने चल पड़ा, एक नया सोपान।।

✍️ राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत

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अंबर के सूने आँगन में
जड़ती रजनी चाँद सितारे
सजते हीरे मोती जैसे
लगते कितने प्यारे प्यारे ।
अंबर के सूने आँगन में....

सूर्य कोप से तपता दिनभर
सहता सारी पीढ़ा हँसकर
धीर वीर उस नीलांबर पर
संध्या अपना यौवन वारे ।
अंबर के सूने आँगन में ....

कहता कभी न दर्द हृदय का
स्वामी अडिग शांत भाव का
अनंत असीम आश्रयदाता
देख यामिनी रूप सँवारे ।
अंबर के सूने आँगन में .....।

✍️डॉ रीता सिंह
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत

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सर्वश्रेष्ठ अभिनय जीवन का,
होता  केवल खुश दिखना।

सुख की मंज़िल पाने को  हर,
दुख की दुखती रग पकड़ी।
फिर भी उलझन के जालों को,
बुने गयी मन की मकड़ी।
कठिन प्रश्न से इस जीवन का,
मुश्किल है उत्तर लिखना।

ज़िम्मेदारी के काँटों पर,
कब फुर्सत की सेज सजी।
ख्वाहिश के हर व्यंजन वाली,
मेज रह गयी सजी -धजी।
अमृत -मंथन करके भी ,पर,
पड़ जाता विष ही चखना।

यदा कदा ही सही, कहीं पर,
जुगनू अब भी दिखते हैं।
घोर  अँधेरे के  सीने पर,
चमकीले क्षण लिखते हैं।
हमने भी जी को सिखलाया,
उम्मीदें पाले रखना।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत

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श्री हरि आज लिए अवतार,
खुशियाँ मना रहा संसार।
कृष्ण रूप में आये ईश्वर,
करने दुष्टों का संहार,
खुशियाँ मना रहा संसार।।

रात अंधेरी ऋतु वर्षा की,
तिथि अष्टमी भाद्रपद की।
कंस का कारागार,
जिसमें लिए हरी अवतार,
खुशियाँ मना रहा संसार।।

खुली बेड़ियाँ खुल गए फाटक,
सो गए पहरेदार,
वसुदेव नंद बाबा को,
दे आये कृष्ण मुरार।
खुशियाँ मना रहा संसार।

करी बाल लीला प्रभु गोकुल,
सारी यमुना पार।
जान गया कंस भी एक दिन,
लिया काल अवतार।
खुशियाँ मना रहा संसार।।

भेज बुलावा कंस बुलाया,
मथुरा नंद कुमार।
मल्ल युद्ध हुआ अति भारी,
प्राण कंस गया हार।
खुशियाँ मना रहा संसार।।

आज अष्ठमी आयी भादों की,
दिवस कृष्ण अवतार।
मची धूम हर घर मन्दिर में,
सजे हुए दरबार।
खुशियाँ मना रहा संसार।।

✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा
उत्तर प्रदेश, भारत

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कवि बन कविता लिखने चलता हूँ
मैं कभी-कभी...
चिड़िया बन शब्द चुनने चलता हूँ ,
मैं कभी-कभी...

पेड़ो के पत्तो का वो घूमना
शाखों का खुली हवा में झूमना
जल का धरती को
धरती का अम्बर को चूमना

शिशु बन पकड़ने चलता हूँ
मैं कभी-कभी....

कवि बन कविता लिखने चलता हूँ ..
मैं कभी-कभी  ....

✍️ प्रशान्त मिश्र
राम गंगा विहार
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 21 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में काशीपुर निवासी) अम्बरीष गर्ग की आठ कविताएं । ये सभी कविताएं अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2003 में प्रकाशित विशद भक्ति काव्य संकलन 'क्या कह कर पुकारूँ' से ली गई हैं। इस कृति का सम्पादन डॉ महेश दिवाकर, मोहन राम मोहन और जसपाल सिंह संप्राण ने किया है।


 (1) प्रभु की थाह

प्रभु तेरी थाह पाने

कितनी नदियाँ उतर पड़ी हैं पर्वतों से 

मैं भी तेरी खोज में

द्रुत वेग से चल दिया था 

अब समतल पर आ पहुंचा हूँ।

तीव्रता तो भावना में ही निहित थी

मिट चुकी।

प्रभु

तुम तक आते-आते बहुत देर हो जाएगी।

और मेरा प्रेम भी

भावनाओं से रहित, बस, प्रेम होगा।

तू भावनाओं के लिए कुछ भी मत कहना। 

प्रभु तेरी थाह पाने

कितनी नदियाँ उतर पड़ी हैं।


(2) प्रभु की प्रतीक्षा

आज मैंने

घर के सब लोगों से कह दिया है

कि तू आएगा।

मुझे तेरा विश्वास है

इसीलिए तो कह दिया है।

प्रभु!

अब तेरी प्रतीक्षा

मैं ही अकेला नहीं करूंगा।

तू मेरा विश्वास बचाने

आ जा !!


(3) प्रभु का स्वागत

तू मेरे घर आएगा

इसीलिए तो घर का सब सामान 

क्रमशः लगा दिया है।

प्रभु!

यह सारी व्यवस्था बनी रहे

बस, इसीलिए

तू जरुर आना।

मैं जानता हूँ तू व्यवस्थाओं को बिखरने नहीं देगा 

हाँ, तू अभी आता होगा

मैं स्वागत में खड़ा हो जाऊँ!


(4) प्रभु का प्रेम

तेरे प्रेम का लोभ देकर 

प्रभु ! किसी ने

आसमान से

वसुधा के अन्जान क्षितिज पर 

मुझे बुलाया था। 

मैं आया तो, पर 

अब अपना घर भूल गया हूँ।

अब मेरा अस्तित्व सर्वदा 

इन सीमाहीन दिशाओं पर

तेरे प्रेम की एक दृष्टि को खोजेगा

तू नये क्षितिज निर्माण कर !


(5) प्रभु के लिए

प्रभु !

मैं अब भी अकेला 

बाट तेरी जोहता हूँ।

सिर्फ तेरे ही लिए 

मैंने घर को बुहार लिया है 

और सब सामान को भी

व्यवस्थाओं में सजा दिया है।

तू देखने तो आ!


(6) प्रभु को समर्पण

अभिलाषाओं की नगरी में

जीवन के हर मोड़ पर 

खिला जहाँ भी पुष्प

तुझको देता गया मैं तोड़कर ।

प्रभु!

तेरा हार गूंथने

अब और सुमन कहाँ से लाऊँ? 

तुझे हार पहनाने को

आज मेरी वेदनाएँ दहक रही हैं।

तू इनको मत हाथ लगाना

इनमें मुझको ही जलने दे

तू तो पहले ही नीलकण्ठ है !!


(7) मन्दिर की रोशनी

जंगल के उस पार से

हम इसे देखा करते थे। 

वह टिमटिमाती रोशनी भी

इसी मन्दिर से आती होगी। 

इच्छाओं के सार्थ यहाँ

श्रद्धा चढ़ाने आते हैं। 

एक गहरी धुन्ध से यह ढक गया है

धुन्ध नहीं,

यह भक्तजनों की श्रद्धा है।

यहाँ का पुजारी

इसमें घुटकर मर गया है।

बहुत दिन हुए

वह और मैं

जंगल के उस पार से हम इसे

देखा करते थे ।।


(8) प्रभु की प्रतिमा 

प्रभु! तेरे मन्दिरों में

पाषाण किसने रख दिए हैं? 

आज मेरी सुधियाँ

अपनी भूमिका निभाऐंगी

तू देखना !

तुझे पकड़ने मेरी सुधियाँ 

अन्तिम सीढ़ी तक चढ़ आयी थीं 

वहाँ तेरी पाषाण-प्रतिमा की

छाया ही खड़ी हुई थी

मैं छला गया!

प्रभु! वह पाषाण प्रतिमा

क्या सचमुच तेरी ही थी? 

बेसुध-सी मेरी सुधियों ने 

शीष उसी को झुका दिया था। 

मैंने सुधियों को जगा लिया प्रभु! 

आज मेरी सुधियाँ 

अपनी भूमिका निभाऐंगी

तू देखना !


✍️ अम्बरीष गर्ग

काशीपुर 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी के छह दोहे


मीरा अंतस बावरा, करे कृष्ण गुणगान।

उसी सलोने रूप में, बसते उसके प्रान।। 1।।


डूबी मोहन प्रेम में, गयी जगत को भूल।

सुविधाएँ सब राजसी, लगतीं उसको धूल।। 2।।


राह देखतीं गोपियाँ, सुनें वही फिर तान l

कान्हा की ही बाँसुरी, बसते उनके प्रान ll 3।।


तेरे द्वार उपासना, करती हूँ गोपाल l

नैया पार उतारना, नन्द यशोदा लाल ।। 4।।


सुन लो मेरी प्रार्थना, जग के पालन हार।

भव बाधा से मुक्त हो, अपना यह संसार।। 5 ।।             


बजी बाँसुरी श्याम की, जब-जब यमुना तीर।

तब-तब बृजवासी सभी, भूले अपनी पीर।। 6।।

                                            

✍️ प्रीति चौधरी 

गजरौला,अमरोहा

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर के दो नवगीत .......


(एक) महँगाई

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महॅंगाई ने जबसे पहनी,

अच्छे दिन की अचकन।


ठंडा चूल्हा, चौके की बस,

करता रहा समीक्षा।

कंगाली में गीला आटा, 

लेता रहा परीक्षा।

जाग  रही है भूख अभी भी,

ऊँघ  रहे सब बरतन।


मीटर चालू बत्ती गुल तो,

ठलवे  हैं अँधियारे।

जिसकी आमद होय अठन्नी,

वो क्या रुपया वारे।

बिजली बिल को देख बढ़ी है,

 हर गरीब की धड़कन।


राशन की कीमत भी जबसे, 

बढ़कर ऊपर उछली।

अवसादों में घिरे बजट की, 

 टूटी  हड्डी-पसली।

सब जन मिलकर ढूँढ रहे हैं, 

अब विकास की कतरन।

(दो)  सर्वश्रेष्ठ अभिनय-

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सर्वश्रेष्ठ अभिनय जीवन का,

होता  केवल खुश दिखना।


सुख की मंज़िल पाने को  हर,

दुख की दुखती रग पकड़ी।

फिर भी उलझन के जालों को,

बुने गयी मन की मकड़ी।

कठिन प्रश्न से इस जीवन का,

मुश्किल है उत्तर लिखना।


ज़िम्मेदारी के काँटों पर,

कब फुर्सत की सेज सजी।

ख्वाहिश के हर व्यंजन वाली,

 मेज रह गयी सजी -धजी।

अमृत -मंथन करके भी ,पर,

 पड़ जाता विष ही चखना।


यदा कदा ही सही, कहीं पर,

जुगनू अब भी दिखते हैं।

घोर  अँधेरे के  सीने पर,

चमकीले क्षण लिखते हैं।

हमने भी जी को सिखलाया,

उम्मीदें पाले रखना।


  मीनाक्षी ठाकुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत



मंगलवार, 16 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दिग्गज मुरादाबादी का गीत। यह गीत वर्ष 1992 में साहित्य कला मंच चांदपुर(जनपद बिजनौर) की ओर से प्रकाशित काव्य संकलन प्रेरणा के दीप से लिया गया है। इस काव्य संकलन के संपादक डॉ सरोज मार्कंडेय एवं डॉक्टर महेश चंद्र दिवाकर हैं।


मेरे अन्तर की पीड़ा को,

तुमने कभी नहीं पहचाना,


सौगंधे तक खायी मैंने,

 पर विश्वास न तुमको आया, 

 घाव हृदय के जब दिखलाये, 

 तुमने मरहम नहीं लगाया,


यह सब है, विधि की बिडम्बना, 

और उसी का ताना बाना, 

मेरे अन्तर की..............।।


जिसको सब कुछ किया समर्पित, 

किन्तु न वह बन पाया अपना,

 तब क्या यह संसार नहीं है,

झूठ मूठ का सुन्दर सपना,


जब दुनिया है मृग - मरीचिका, 

कैसा इससे नेह लगाना,

 मेरे अन्तर की...........।।


मैं जिस मोह जाल में अब तक,

 फंसा हुआ था, अज्ञानी था ; 

 मेरा ये सब नेह - मोह बस, 

 धरती पर बहता पानी था,


अन्धकार मिट गया हृदय का,

सच्चाई को जब से जाना, 

मेरे अन्तर की पीड़ा को ..…।।


फिर भी जब तुमको कुछ बीते, 

सुखद समय की याद सताये, 

पल - क्षण तुम्हें सोचते बीते, 

आंखों से निद्रा उड़ जाये,


ऐसी संतापी घड़ियों में, 

निःसंकोच यहाँ आ जाना, 

मेरे अन्तर की पीड़ा को, 

तुमने कभी नहीं पहचाना।।


::::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

सोमवार, 15 अगस्त 2022

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार त्यागी अशोका कृष्णम के सात दोहे


प्राण समर्पित कर दिए, राष्ट्र-धर्म के काज।

सीमा-रेखा की रखी, सेना ने ही लाज।। 1।।


धर्म और मजहब अलग, अलग हमारी जात।

राष्ट्र-धर्म के नाम पर, किंतु एक जज्बात।। 2।।


दिल में ऐसी भावना, भर देना करतार।

जननी जैसा ही रहे, जन्मभूमि से प्यार।। 3।।


भारत भू से प्यार के, किस्से कई हजार।

शत्रु वक्ष पर लिख गयी, राणा की तलवार।। 4।।


भारत भू का भाल है, केसरिया कश्मीर।

नजर हटा लो दुश्मनों, वरना देंगे चीर।।5।।


बिस्मिल से बेटे मिले, भगत सिंह से लाल।

उन्नत जिनसे हो गया, भारत माँ का भाल।। 6।।


खूब बजाओ तालियां,देश हुआ आबाद।

साल पिछत्तर हो गये, हमें हुए आजाद।। 7।।


✍️ त्यागी अशोका कृष्णम्

कुरकावली, संभल

 उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु के अठारह दोहे .......

 


कैसे आजादी मिली, कैसे हिन्दुस्तान

 कितने वीरों ने दिये, इस पर तन मन प्राण ।।1।।


सोचें तो मन हूंकता, जब जब करें विचार 

वीरों ने कैसे सहे, तन पर सतत् प्रहार ।।2।।


खुद अपने ही खून से, कैसे सींचा बाग़ 

 कैसे अपनी मृत्यु को, बना लिया सौभाग ।।3।।


गोली, फाँसी, सिसकियां, जेलें, कोडे़, मात 

क्या क्या मुश्किल की वरण, कितनी झेलीं घात ।।4।।


तोपें,चाबुक, हथकड़ी, तन मसला बारूद

डिगा सका ना लक्ष्य से, थामे रखा वजूद ।।5।।


तनिक नहीं परवाह की, गये स्वयं को भूल

इस स्वतन्त्रता के लिये, सब कुछ किया कबूल ।।6।।


भीषण संघर्षो सहित, जब पाया यह मान 

इक चिंगारी फिर उठी, झुलसा हिन्दुस्तान ।।7।।


बोए बीज बबूल के सिखा गया तकरार

 ज़ालिम एक परिवार मे, उठा गया दीवार ।।8।।


बस मज़हब के नाम पर, फिर झेला संग्राम 

वो भाई खुद भिड़ गये, हुआ बुरा परिणाम ।।9।।


जिस आज़ादी के लिये, सहे घोर संघर्ष 

अपनी लाशों संग मिली, कैसे होता हर्ष ।।10।।


भाई को हिस्सा दिया, और दिया तिरपाल 

रीते मन से दी दुआ, रहे सदा खुशहाल ।।11।।


और फिर सत्ता मिल गयी, खूब संभाला राज 

आज़ादी के मोल का, इतना किया लिहाज ।।12।।


एक बरस में दे दिये, इस खातिर दिन चार 

हम ..और बड़बोले बन गये, बदल लिया व्यवहार ।।13।।


आज़ादी के मायने बदल गये फिर आप

 जब चाहे दिल ..खींच लो, टाँग किसी की आप ।।14 ।।


मुंह में जो आता रहे, पहले दीने बोल 

आज़ादी है भाईयों, करनी कैसी तोल ।।15।।


राजनीति में फिर चला, ऐसा नंगा नाच 

आज़ादी लज्जित हुई, कौन सके ये बाँच।।16।।


उन बलिदानी आस को, होने दें साकार

 क्यों हम लज्जित हो रहे, करिये गहन विचार ।।17।।


नहीं न ऐसा कीजिये, गढ़िये नव प्रतिमान 

विश्व गुरू फिर से बने, मेरा देश महान ।।18 ।।


✍️ मनोज मनु 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


रविवार, 14 अगस्त 2022

संस्कार भारती की ओर से आजादी के अमृत महोत्सव के सुअवसर पर शनिवार 13 अगस्त 2022 को काव्य गोष्ठी का आयोजन

आजादी के अमृत महोत्सव के सुअवसर पर, कला, संस्कृति एवं साहित्य की अखिल भारतीय संस्था, "संस्कार भारती" की मुरादाबाद महानगर शाखा द्वारा शनिवार 13 अगस्त 2022 को काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया।

    साहित्य विधा प्रमुख हेमा तिवारी भट्ट के संयोजन में विवेक निर्मल जी के निवास पर आयोजित गोष्ठी की अध्यक्षता डॉ. काव्य सौरभ रस्तोगी एवं संचालन आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने किया। मां सरस्वती वंदना फक्कड़ मुरादाबादी ने प्रस्तुत की।

     मुख्य अतिथि डॉ पूनम बंसल ने मुक्तक प्रस्तुत करते हुए कहा-----

 तिरंगा जान है अपनी तिरंगा शान है अपनी

 गगन से कर रहा बातें यही पहचान है अपनी 

 इसी के शौर्य की गाथा महकती है फिजाओं में 

 सजी इन तीन रंगों में मधुर मुस्कान है अपनी 

विशिष्ट अतिथि वीरेंद्र सिंह ब्रजवासी जी का स्वर था -----

 भारत मां को आओ हम सब 

 मिलकर नमन करें

 इसे सजाने का तन मन से 

  पावन जतन करें 

फक्कड़ मुरादाबादी का कहना था ------

 पूछा यूँ परीक्षा में प्राणों का पर्याय लिखो

  हमने कलम लहू में रंग कर प्यारा हिंदुस्तान लिखा

 डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा ------

 खाकर यहां का अन्न

 गीत औरों का गाना आता है

 नहीं लिखते हम

 भविष्य की सुनहरी इबारत

 इतिहास के काले पन्नों को ही दोहराते हैं

  विवेक निर्मल ने सुनाया ------

  दिन ही ऐसा है मनाएंगे इसे नाज के साथ 

  तुम भी आवाज मिलाना मेरी आवाज के साथ 

मयंक शर्मा ने कहा ----

गोरी सेना को हुंकारों से दहलाने वाले थे

 दाग गुलामी वाला अपने खून से धोने वाले थे 

 उनको कौन डरा सकता था आजादी की खातिर जो

  संगीनों के आगे अपनी छाती रखने वाले थे 

हेमा तिवारी भट्ट ने कहा -----

आजाद थे आजाद हैं आजाद रहेंगे 

हम देश के शहीद जिंदाबाद रहेंगे 

प्रशांत मिश्रा ने कहा -----

  जब सत्ता के लालच में 

  इमरजेंसी लगाई जाती है

आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने कहा -----

अपने ही हाथों स्वाहा न कर 

तू अपनी कहानी

देश और समाज पर 

न्योछावर हो छोड़ जा तू

इतिहास के पन्नो पर 

अपनी स्वर्णिम निशानी

शलभ गुप्ता ने कहा ------

 महामारी का असर है अब भी,

लोग कैसे बेपरवाह होने लगे हैं।

बेटे जाकर बस गए विदेश में,

मां बाप जल्दी बूढ़े होने लगे हैं

कार्यक्रम में डॉ राकेश जैसवाल, सविता गुप्ता, दीपक कुमार भी उपस्थित रहे। इस अवसर पर मयंक शर्मा ने स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी जी के गीतों का सस्वर पाठ भी किया ।