रविवार, 17 जुलाई 2022

'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 16 जुलाई 2022 को आयोजित भव्य समारोह में मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की कृतियों 'सपनों का शहर' (लघुकथा संग्रह) एवं 'ओस की बूंदें' (हाइकु संग्रह) का लोकार्पण एवं देशभक्ति पर आधारित लघु नाटिका एकांकी प्रतियोगिता के विजेताओं और तीन बाल साहित्यकारों को सम्मानित किया गया।

 मुरादाबाद मंडल के साहित्य के प्रसार एवं संरक्षण को पूर्ण रूप से समर्पित 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से आयोजित भव्य समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई की कृतियों 'सपनों का शहर' (लघुकथा संग्रह) एवं 'ओस की बूंदें' (हाइकु संग्रह) का लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर 13 साहित्यकारों को सम्मानित भी किया गया।

 राम गंगा विहार स्थित एमआईटी के सभागार में आयोजित समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने कहा - "श्री अशोक विश्नोई जी की मुरादाबाद के साहित्य के प्रति निष्ठा और समर्पण अनुकरणीय है‌। उन्होंने सदैव  नए रचनाकारों को प्रोत्साहित और प्रेरित करने का कार्य किया है।"

मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती वंदना से आरंभ इस कार्यक्रम में डॉ. मनोज रस्तोगी ने साहित्यिक मुरादाबाद की उपलब्धियों पर चर्चा की।

मुख्य अतिथि डॉ महेश 'दिवाकर' तथा विशिष्ट अतिथियों के रूप में डॉ. मक्खन मुरादाबादी, जितेंद्र कमल आनंद, धवल दीक्षित एवं डॉ. कुलदीप नारायण सक्सेना ने अशोक विश्नोई के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा करते हुए कहा कि हिंदी साहित्य, पत्रकारिता, पुस्तक प्रकाशन एवं लघु फिल्म निर्माण में आपका उल्लेखनीय योगदान रहा है। 

इस अवसर पर साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अंतर्गत देशभक्ति पर आधारित लघु नाटिका एकांकी प्रतियोगिता के वरिष्ठ वर्ग में प्रथम डॉ अशोक रस्तोगी, द्वितीय अशोक विद्रोही, तृतीय रवि प्रकाश एवं कनिष्ठ वर्ग में प्रथम मीनाक्षी ठाकुर, द्वितीय नृपेन्द्र शर्मा सागर तथा तृतीय डॉ. प्रीति 'हुंकार' को सम्मानित किया गया। डॉ. फ़हीम अहमद, प्रो. ममता सिंह, सपना सक्सेना दत्ता सुहासिनी को बाल साहित्यकार सम्मान 2022 प्रदान किया गया। निर्णायक के रूप में रवि प्रकाश, डॉ. अनिल शर्मा अनिल, धन सिंह धनेंद्र एवं शिव ओम वर्मा को सम्मानित किया गया। सभी सम्मानित साहित्यकारों को अंग वस्त्र, स्मृति चिन्ह एवं सम्मान पत्र प्रदान किए गए।

डॉ मनोज रस्तोगी के संचालन में आयोजित समारोह में अशोक विश्नोई का जीवन परिचय राजीव प्रखर ने प्रस्तुत किया। योगेंद्र वर्मा व्योम, मीनाक्षी ठाकुर, हेमा तिवारी भट्ट , पूजा राणा, काले सिंह साल्टा, शिशुपाल मधुकर, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय ने लोकार्पित कृतियों की समीक्षा प्रस्तुत की। धन सिंह धनेंद्र ने एकांकी लेखन एवं डॉ. अनिल कुमार शर्मा अनिल ने बाल कविता लेखन की बारीकियों और विशेषताओं पर प्रकाश डाला। 

  इस अवसर पर डॉ. संगीता महेश, मनोरमा शर्मा, डॉ पुनीत कुमार,डॉ रीता सिंह,नकुल त्यागी, नीमा शर्मा हंसमुख, रचना शास्त्री,प्रीति चौधरी, इंदु सिंह, विवेक आहूजा , श्री कृष्ण शुक्ल, अनुराग रोहिला, अतुल शर्मा, रामकिशोर वर्मा, शिखा रस्तोगी, प्रशांत मिश्र, ज़िया ज़मीर, मनोज मनु, रेखा रानी, वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी , योगेंद्र पाल विश्नोई, रामेश्वर वशिष्ठ, ओंकार सिंह ओंकार, फक्कड़ मुरादाबादी, उदय अस्त, स्वदेश कुमारी, राशिद हुसैन,  आदि उपस्थित रहे। दुष्यंत बाबा ने आभार अभिव्यक्त किया।




























































































































:::::::प्रस्तुति:::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

गुरुवार, 14 जुलाई 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से 14 जुलाई 2022 को काव्य-गोष्ठी का आयोजन

  मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से मासिक काव्य-गोष्ठी का आयोजन 14 जुलाई 2022 को विश्नोई धर्मशाला, लाइनपार पर किया गया।

 रामसिंह निशंक द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता रामदत्त द्विवेदी ने की। मुख्य अतिथि श्री अशोक विश्नोई तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री रमेश यादव कृष्ण उपस्थित रहे। संचालन राजीव प्रखर ने किया। 

वरिष्ठ शायर ओंकार सिंह ओंकार का कहना था - 

आलोचकों को जब से सितमगर समझ लिया।

 तब से ही मस्ख़रों को सुख़नवर समझ लिया।

 शैतान की उड़ान को बहतर समझ लिया। 

संजीदगी को लोगों ने कमतर समझ लिया।।

 वरिष्ठ रचनाकार डॉ. मनोज रस्तोगी की अभिव्यक्ति इस प्रकार थी - 

कंक्रीट के जंगल में, 

गुम हो गई हरियाली है, 

आसमान में भी अब, 

नहीं छाती बदरी काली है। 

रचना-पाठ करते हुए राजीव प्रखर ने कहा - 

आकर मेरी नाव में, हे जग के करतार।

 मुझको भी अब ले चलो, भवसागर से पार।। 

छुरी सियासत से कहे, चिन्ता का क्या काम। 

मुझे दबाकर काॅंख में, जपती जा हरिनाम।

प्रशांत मिश्र ने कहा - 

छोटी-छोटी खुशियाँ मन महकाती हैं,

 धीरे-धीरे से दिल में उतर जाती हैं।

 उपरोक्त रचनाकारों के अतिरिक्त शिशुपाल मधुकर, गौरव यादव, रामेश्वर वशिष्ठ,  अशोक विश्नोई, रामदत्त द्विवेदी, रमेश यादव कृष्ण आदि ने भी अपनी-अपनी अभिव्यक्ति की। योगेन्द्र पाल विश्नोई द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम विश्राम पर पहुॅंचा।























सोमवार, 4 जुलाई 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी के अस्सी दोहे -----

 


दिल से दिल की बात सुन, दिल से कर विश्वास। 

दिल से बड़ा न बावरा, दिल से बड़ी न आस।। 1।।


माना मुद्दा है बड़ा, अफवाहें भी तेज़। 

दिल थामे पढ़ते रहो, बदल बदल कर पेज।।2।।


अपनी-अपनी कह रहे, चूहे, बिल्ली शेर।

आया गीदड़ पढ़ गया, और किसी के 'शेर'।।3।।


लोरी सुनकर सो गये, सभी बुरे हालात।

देखे विपदा नींद में, सपनों की हर रात।। 4।।


सुख सूने इस गाँव में, दुःख नदिया उस पार। 

चले राम वनवास को, कहने को  अवतार।। 5।।


सावन बोला नैन से,  तू  कितनी चितचोर।

मैं तो बरसूं  कुछ घड़ी,  तू हर दिन घनघोर।।6।।


छोड़ वसीयत जा रही, अब पीढ़ी गुमनाम।

आंगन, तुलसी, वंदना,  हाथ जोड़ प्रणाम।।7।।


क्या चिंता अवसान की, लिख जीवन के गीत। 

बूँद भला कब सोचती, धरती, सावन, मीत।।8।।


आती जाती है हवा, आता जाता रूप। 

पल दो पल की सांस है, पल दो पल की धूप।। 9।।


बाग़ी जंगल हो गया, ठंडी पड़ी दहाड़। 

पदवी छीनी शेर से, चींटी चढ़ी पहाड़।। 10।।


युग युग की यह सीख है, रच अपनी तस्वीर।

बढ़ना है तो खींच ले, तू भी बड़ी लकीर।। 11।।


धन, दौलत, यशगान में, समझा जिसे अमीर। 

हाथ पसारे वो चला, बनकर एक फ़कीर।। 12।।


बहुत बड़ी यह साधना, घर है जिसका नाम। 

इसे अवध काशी कहूँ, या वृन्दावन धाम।। 13।।


खुशहाली घर में रहे, हरियाली मन मोर ।

है जीवन की कामना, वृंदावन चहुं ओर।। 14।।


लिखा हुआ क्या भाग्य में, यह जाने करतार।

कर्म-मार्ग पर बढ़ चलो, खुल जाएंगे द्वार।। 15।।


सूने इस संसार में, कौन किसी के संग।

बड़ी मित्र है लेखनी, फूटे क़ाग़ज़ रंग।। 16।।


सागर मन की सुन ज़रा, बढ़ती जाये पीर।

आँसू सूखे नयन से, भाप उड़े सब नीर।। 17।।


शब्द सरीखी भावना, शब्द सरीखा प्यार। 

शब्द शब्द अनमोल है, अद्भुत ये संसार।। 18।।


किसी तीर से कम नहीं, शब्दों की ये मार ।

सोच समझकर बोलिये, इसके दर्द अपार।।19।।


लिख-लिखकर कागज धरे, पढी सुनी कब बात।

अपना दिल कहता रहा,  बंद ज़िल्द जज़्बात।। 20।।


रोते-हँसते आ गई, जीवन की लो शाम ।

मधुर-मधुर संगीत है, अधरों  पर हे राम।।21।।


पास पास सब दूर हैं, दूर दूर सब पास।

इस आभासी जगत में, जुमलों में उल्लास।। 22।।


बस्ती अपनी छोड़कर, भोगा यूँ वनवास।

घट घट जल पीते रहे, बुझी नहीं वो प्यास।।23।।


अंबर से आँचल गिरा, गई नैन से लाज।

मौन हवा कहने लगी, धरती के सब राज़।। 24।।


तुम तो सावन सी रही, मेघों की मल्हार।

दिल अपना भादो रहा, राधे राधे प्यार।। 25।।


लिखा कील के भाग में, सहे हथौड़ा छेद।

दीवारें यह सोचती,खुले सभी अब भेद।। 26।।


आई चाभी ले गई, मन का सब विश्वास।

खुले खुले तब द्वार थे, ताले पड़े उदास।। 27।।


कोई भी टिकता नहीं, बदले सबका रूप।

बचपन, यौवन कह गये, अब क़ाग़ज़ की धूप।।28।।


अपनी अपनी वेदना, अपना ही संताप।

बाहर बाहर सब हँसें, अंदर रोवें आप।। 29।।


एक कली मासूम सी, करती क्या वो बैर।

फूलों के है हाथ में, खुद अपनी ही ख़ैर।। 30।।


आई रात तो सो लिये, दिन निकले ही काम। 

घट घट सागर पी गया, नदिया का आराम।। 31।।


मन मंदिर के सामने, खुद ही हम करतार।

मगर जानते ही नहीं,क्या अपना किरदार।। 32।।


आंगन टेढ़ा सब कहें, नाचन को संसार। 

दिखे कमी खुद में नहीं, औरन में भरमार।। 33।।


जो भोगा सो कह दिया, कह दी अपनी रीत। 

छोटा सा है ये सफ़र, रखिये सबसे प्रीत।। 34।।


जब तक है जाने जहाँ, करते रहिये काम। 

बोझ बनी ज्यूँ ज़िन्दगी, घर के घर नीलाम।। 35।।


शीशी भरी गुलाब थी, और मित्र थे इत्र

गंध कहीं वो उड़ गई ,रहे नहीं  वो चित्र।। 36।।


यह बस्ती है संत की, देता किसको सीख

चलो कबीरा घर चलें, मांगें सुख की भीख।। 37।।


मीर कहो ग़ालिब कहो, तुलसी या फिर सूर।

चमचों के है हाथ में, शहंशाहे हुज़ूर।। 38।।


क़ाग़ज़ पर लिखते रहे, सभी यहाँ पर फूल।

देखी जो बगिया कभी, नफरत के थे शूल।। 39।।


ये उदासी शाम लिए, जाता कहाँ किशोर। 

धीरज रख तू राम सा, माधव सा मन मोर।। 40।।


शोध किये बाहर सभी, भूले घर परिवार।

घर है मीठी चाशनी, इससे सब त्योहार।।41।।


बदल गई आबो हवा, बदले सभी उसूल। 

वर्जित चीजें हो गई, सब की सब अनुकूल।। 42।।


वनवासी संसार में, कौन किसी का राम।

चले अकेले अवधपति, लड़ने को संग्राम।। 43।।


मुद्दत से जाना नहीं, क्या अपना क़िरदार।

एक रूप में सब बसें, फूल शूल ओ' प्यार।। 44।।


क्या लिखते क्या सोचते, क्या कहते हैं आप।

नज़र उठाकर देखिये, सभी यहाँ पर 'बाप' ।। 45।।


जाने किसके भाग से, साँसें हैं अवशेष। 

अभिशापों से क्यों डरें, हाथों में लग्नेश।। 46।।


मधुर मधुर वाणी भली, मधुर मधुर संसार।

क्यों फिर मन के द्वार पर, नफ़रत पहरेदार।। 47।।


ढाई अक्षर प्रेम का, लिखते सौ-सौ बार।

नफ़रत के बस चार ही, सीने के उस पार।।48।।


बिना बीज होती नहीं, कभी फसल तैयार।

माँ क़ुदरत का नूर है, धरती पर अवतार।। 49।।


हर पल चिंता वो करे, सांसें करे उधार। 

कागज, कलम दवात से, माँ है मीलों पार।। 50।।


हर दिन साँसों में चढ़े, जिसका क़र्ज़ अपार।

खिली खिली वह धूप है, ममता की बौछार।। 51।।


दिल सबका है जानता, अंदर कितनी खोट। 

पोल खुले दीवार की, कील करे जब  चोट।। 52।।


क्या देखें हम क्या पढ़ें, यही समय का लोच।

सारा जग ज्ञानी भया, अब आगे की सोच।। 53।। 


मकड़ी ने जाला बुना, चींटी चढ़ी पहाड़। 

गिरा आँख से आदमी, नकली सभी दहाड़।। 54।।


सूरज तब नादान था, चंदा भी शैतान।

संग संग मेरे चले, भूले सभी जहान।। 55।।


माँ से बड़ा श्रम नहीं, और पिता से ताप। 

मजदूरी ऐसी मिली, जीवनभर संताप।। 56।।


चार चार में चार हैं, धर्म, वर्ण निष्काम।

चार पलों में कह गए, चार चरण सुख धाम।। 57।।


आँखों-आँखों में हुये, सब गुनाह मंजूर।

घर चौखट को देखिये, हम कितने मजबूर।। 58।।


धूल भरी हैंआँधियाँ, उड़ते छप्पर ताज।

कब किसके टिकते यहाँ, राज,काज,ओ साज।।59।।


आभासी संसार में, आँगन आँगन शोर।

कोयल खींचे सेल्फी, करता लाइव मोर।। 60।।


मर्यादा के कान में, पिघला शीशा रात।

नया नया परिवेश है, आँचल ढूँढे वात।। 61।।


पिघल पिघल कर मोम ने, कह दी अपनी पीर।

ठंडा ठंडा जिस्म है, पल दो पल के नीर।। 62।।


बैठ जा कभी दो घड़ी, कर ले खुद से  बात। 

धन दौलत ये नौकरी, पल दो पल की रात।। 63।।


एकाकी जीवन हुआ, घर में अब वनवास

कलयुग में भी देखिए, त्रेता सम उपवास।। 64।।


घर से बड़ी दवा नहीं , तन से बड़ा न काम।

मन से बड़ा न राज़ है,  सेहत चारों धाम।। 65।।


साँसों से होती रही, तन की जब तकरार।

तभी सामने आ गया, जिस हाथों पतवार।। 66।।


तन से बड़ी न नौकरी, मन से बड़ा न बॉस

कहे सूर्य  संसार से,  कभी न छोड़ो आस।। 67।।


हुरियारी हर दिन रहे, बरसे रंग गुलाल।

होली कहती ज़िन्दगी, रखना इसे सँभाल।। 68।।


फीके फीके रंग हैं, फीकी फ़ाग फुहार।

बस कविता में रह गए, होली के क़िरदार।। 69।।


ओह जानकी भाग में, क्या तेरे संताप।

हर युग में तूने सहा, ताप ताप बस ताप।। 70।।


उबल रहा था दूध भी, घुमड़ रहे थे भाव।

संकट में दो जान थीं, कौन न खाए ताव ।।71।।


कौन न खाए ताव, बड़ी थी मन में दुविधा।

कवि युगल परेशान, कहीं से आये सुविधा।।72।।


कहे सूर्य कविराय, वीर-गीत का रस प्रबल।

कह देते दूध से, अरे सीमा पार उबल।। 73।।


प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते, हरा भरा परिवार।

छोटी सी है यही जिंदगी, सब अपना संसार।। 74।।


टप-टप-टप ओले गिरे, कांपे थर-थर गात।

सब दलों में द्वंद्व है, तू ने की बरसात।। 75।।


जुमलों की इस जंग में, हार गए अल्फ़ाज़

काँव काँव कोयल करे,कौओं के सर ताज।। 76।।


आये चुनाव हो लिए, हम तो उनके साथ।

अब तो भगवन आप हैं, लोकतंत्र के नाथ।। 77।।


सबके सब चलते रहे, शकुनी जैसी चाल।

गौण हुए मुद्दे सभी, चौपड़ पर सुर-ताल।। 78।।


वेश बदलते जो यहाँ, लेते नव-अवतार।

आज उन्हीं की जेब में, टिकटों का संसार।। 79।।


बन दूल्हा मेंढक चला, कह मौसम का हाल। 

आ रही है तेज घटा, लोकतंत्र की चाल।। 80।।


 ✍️ सूर्यकांत द्विवेदी

 मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर ) की साहित्यकार दीपिका महेश्वरी सुमन का दीपिका छंद विधान और चार दीपिका छंद

 


दीपिका छंद विधान

दीपिका छंद दोहा विधा में लिखा हुआ छंद है, जो पांच दोहों से मिलकर निर्मित होता है। इसमें दोहा विधा के सारे विधान सम्मिलित हैं। इसका विस्तार पहले दोहे के अंतिम चरण को दूसरे दोहे के प्रथम चरण के रूप में परिवर्तित कर के किया जाता है, अर्थात् दोहे की अंतिम चरण में 11 मात्राएं होती है यदि हमें उसे अगले दोहे का प्रथम चरण बनाना है तो हमें उस में 13 मात्राएं बनाने के लिए 11 प्लस दो मात्राएं बढ़ा देने पर दूसरे दोहे का प्रथम चरण बन जाएगा। 

इसमें यह ध्यान रखना जरूरी है कि  पहले दोहे की अंतिम चरण की 11 मात्राओं के बाद आपको दो मात्रा बढ़ानी हैं। ऐसी दो मात्राएं, जिससे हम दूसरे दोहे का विस्तार पहले दोहे के संबंध में ही कर सके जैसे-

भँवरें गुंजन कर रहे, कल कल बजता साज। 

केसू सिन्दूरी खिले , महके यूँ गिरिराज ॥

महके यूँ गिरिराज हैं,किया पुष्प सिंगार।

शीश चाँदनी ओढ़ के, धरा हुई तैयार॥

धरा हुई तैयार जब, खिली सुनहरी धूप। 

चम-चम-चम-चम चमकता, निखरा-निखरा रूप॥

निखरा-निखरा रूप ले, ढूंढ़े मन का मीत। 

राहों में गाती चले, मीठे-मीठे गीत॥

मीठे-मीठे गीत से, गूंजा सारा व्योम।

बूँद-बूँद तन में घुले, बरसा मादक सोम॥


दीपिका छंद कई रस मे लिखे जा सकते हैं जैसे शृंगारिक दीपिका छंद ,भक्तिमय दीपिका छंद ,विरह दीपिका छंद ,ओजमयी दीपिका छंद

दीपिका छंद के पांचों दोहे एक दूसरे से जुड़े हुए होने चाहिए। दीपिका छंद की सुंदरता बढ़ाने के लिए इसमें युग्म शब्दों का और अालंकारिक भाषा का प्रयोग करना चाहिए।जैसे युग्म शब्द

मीठे-मीठे गीत से, गूंजा सारा व्योम।

बूँद-बूँद तन में घुले, बरसा मादक सोम॥

अालंकारिकभाषा

चम-चम-चम-चम चमकता, निखरा-निखरा रूप॥

इस पंक्ति में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग करने का प्रयास किया गया है

दीपिका छंद कई प्रकार के लिखे जाते हैं। इसमें सभी दोहे का चरणान्त एक ही वर्ण से होता है। जैसे-

मृग तृष्णा में भटकता , मन है बहुत अधीर।

मैया को पहचान के , धर लो मन में धीर।।

धर लो मन में धीर तो, मिट जाये सब पीर। 

जो मन में  मैया बसे, नैन न आये नीर।।

 इसमें सभी दोहों का चरणांत अलग-अलग वर्ण से होता है। जैसे-

सावन ले अंगङाइयाँ, उपवन हुआ निहाल।

कोयल छेड़े रागिनी, मेघ मिलाये ताल॥

मेघ मिलाये ताल प्रिय, मानों बजे मृदंग।

हृदय तार मिलने लगे, चढ़ा प्रेम का रंग ॥

    दीपिका छंद का श्रेष्ठतम सृजन जब ही माना जाता है जब इस छंद का प्रत्येक दोहे का प्रकार अलग हो जैसे गयंद दोहा , बल दोहा पान दोहा, सर्प दोहा।इस छंद की श्रेष्ठता छंद लिखने वाले की अपनी कार्यकुशलता पर निर्भर है।

     जैसे कुंडलिया छंद के चौथे और पाँचवें चरण में पुनरावृत्ति ,या सिंहावलोकन छन्द ‌में‌ हर नये छन्द की शुरुआत पिछले छन्द के अन्तिम शब्द से होती है।   दीपिका छन्द भी उसी श्रेणी में आता है । इसलिए  इस बात का ध्यान  रखना चाहिए कि दोहे इस तरह लिखे जायें कि पढने में पुनरावृत्ति अखरे नहीं क्योंकि इसमें पुनरावृति का प्रयोग काव्य सौंदर्य के लिए ही किया जा रहा है। प्रस्तुत हैं चार दीपिका छंद-----

(1)

झर झर झर झर झरत है, आज गगन का नीर।

समझ समझ समझी धरा, नभ के मन की पीर॥

(त्रिकल दोहा  9 गुरु और 30 लघु वर्ण हैं)

नभ के मन की पीर अब, करती विकल त्रिलोक । 

जग जब जीवन मांगता , झुक कर करता धोक॥

  (पान दोहा 10 गुर 28 लघु वर्ण)

झुक कर करता धोक जब, मिलता प्रभु का साथ।

अमृत्व का प्रकाश लिए , उठे ईश के हाथ॥

(गयंद दोहा 13 गुरु 22 लघु)

उठे ईश के हाथ से, निकला पुंज प्रकाश।

खिल-खिल कण-कण यूँ गया, थमता चला विनाश॥

(गयंद दोहा 13 गुरु 22 लघु) 

थमता चला विनाश है, उर-उर उठे उमंग।

ठुम ठुम ठुम ठुम ठुमकती, भू ओढ़े नवरंग॥

(पान दोहा 10 गुरु 28 लघु)

(2)

रिमझिम रिमझिम बरसता, है सावन का मास।

रोम-रोम पुलकित हुआ, कान्हा खेलें रास॥

कान्हा खेलें रास जब, नैनों से हो बात।

श्वासों में श्वासें घुलें, बीती जाए रात॥

बीती जाए रात प्रिय, कान्हा जी के संग ।

मगन-मगन सब नाचते, मौसम भरे उमंग ॥

मौसम भरे उमंग ज्यों, हाथों में हो हाथ। 

पंखों के झूले पड़े, झूलें राधे साथ ॥

झूलें राधे साथ हैं, वरमाला को डाल।

वैज्यंती बन झूमती, खिले खिले हैं गाल ॥

(3)

झन झन झन झनका रही, झाँझर की झंकार।

खोले गहरे राज़ को, नई नवेली नार॥

नई नवेली नार अब,   कहती जीवन सार।

चरनन तल में है बसा, प्रीतम वैभव द्वार ॥

प्रीतम वैभव द्वार हूं, भावों का आधार।

भावों में ही है बँधी, विभूति अतुल अपार॥

विभूति अतुल अपार हूँ, माया की मैं धार।

तीखी-सी तलवार से, मत करना तुम वार॥

मत करना तुम वार प्रिय, मत ठानो तुम रार।

फूलों से स्वागत करो, महके जीवन डार॥

(4)

मधुर-मधुर सी महकती , चलती चले बयार।

असर लिए तुम इत्र सा , आए मेरे द्वार॥

आए मेरे द्वार हो, बन मीठी सौगात।

डाली जैसा डोलता, बहके मेरा गात॥

बहके मेरा गात यूँ, ले हाथों में हाथ।

रात-रात भर रास में, नाचूँ मोहन साथ॥

नाचूँ मोहन साथ मैं, उड़े अबीर गुलाल।

श्याम रंग ऐसा चढ़े, कर दे मालामाल ॥

कर दे मालामाल ज्यों, पहुँचूँ मैं ब्रजधाम।

प्रीत बसंती कह रही,मेरे तन-मन  श्याम ॥

✍️ दीपिका महेश्वरी सुमन (अहंकारा), नजीबाबाद बिजनौर ,उत्तर प्रदेश, भारत