सोमवार, 21 नवंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ....गुरु चेला


एक दाता,

एक ग्राहक

एक सम्पन्न,

एक विपन्न

एक शीर्ष,

एक चरण,

एक मुखर,

एक मौन

बने रहेंगे 

जब तलक

मैं और तुम।

सब कुछ होगा 

केवल यन्त्रवत

या चित्रवत 

तात्कालिक

अथवा

सूक्ष्म कालिक।

तो चलो बदलें

परिदृश्य

मैं और तुम 

मिलकर

हों दोनों मुखर,

नव विचारों से 

हों दोनों सम्पन्न,

ज्ञान की आभा से

हों दोनों ग्राहक

सद्ज्ञान के

न चरण 

न शीर्ष

दोनों हों 

बस हृदय।

चरण और

शीर्ष के मध्य 

की दूरी जिस दिन

हृदय बन कर मिट जायेगी

पाट लिए जायेंगे,

अज्ञान के सब सागर

उसी दिन।

जी उठेंगी,

पत्थर व कागज की

पाठशालाएं,

हांं, उसी दिन।


✍️ हेमा तिवारी भट्ट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


शनिवार, 19 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद संभल)के साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग की रचना ....गौरैया और गिद्ध


सुनो! सुनाऊं, ध्यान से; सुन लो मेरे मीत।

गौरैया और गिद्ध में हुई अनोखी प्रीत। 


ऐसी डूबी प्रीत में, इक गौरैया यार।

प्रीत करी इक गिद्ध से, किया न तनिक विचार।

 

समझाई माँ-बाप ने, समझ सुता यह मर्म। 

गौरैया और गिद्ध के, नहीं निभेंगे धर्म।


लाख सीख दी भ्रात ने, मत कर ऐसी प्रीत।

माँ का आंचल रौंदकर ,गइ गौरैया जीत।


गौरैया पर गिद्ध का, चढ़ा प्रेम का रंग।

गौरैया फुर हो गई, छली-गिद्ध के संग।


 लिप्त हुए फिर 'काम में, खूब बुझाई प्यास।

मात-पिता करते रहे, गौरैया की आस।

 

देह वासना में सखे!, बीते कुछ दिन- रैन।

देख रूप फिर गिद्ध का, गौरैया बेचैन।


 उसका धन लुटता रहा, भइ गौरैया रंक ।

नोचे इक-इक गिद्ध ने, गौरैया के पंख।

 

हुई जुल्म की इंतेहा, फटा कलेजा यार।

गौरैया को गिद्ध ने, दिया एक दिन मार।


विनती करे 'चिराग' यह, दे! गौरैया ध्यान।

किसी प्रेम में तोड़ मत, मात-पिता की आन।


 मात-पिता के प्रेम का, रख गौरैया मोल।

धरती के भगवान हैं, मात-पिता अनमोल।


✍️ दीपक गोस्वामी 'चिराग'

शिवबाबा सदन, कृष्णाकुंज 

बहजोई -244410 

जनपद संभल

उत्तर प्रदेश, भारत

मो. 9548812618 

ईमेल-deepakchirag.goswami@gmail.com

बुधवार, 16 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ....गिद्ध


       

 ‌"पापा!कुछ करो ना! मेरा दम घुट रहा है, और  सांस भी उखड़ रही है।" एंबुलेंस की सीट पर लेटे कार्तिक ने ऑक्सीजन मास्क के पीछे से अटकते - अटकते बड़े दयनीय स्वर में कहा तो बराबर की सीट पर बैठे डॉ० राघव मल्होत्रा की मजबूर आंखों में जलकण झिलमिलाने लगे।

    कार्डियक अस्थमा से पीड़ित बेटा थोड़ी - थोड़ी देर में यही करुण पुकार करने लगता था और वे कसमसा कर रह जाते थे। ऑक्सीजन के सहारे ही सांसे चल रही थीं, और वह भी समाप्ति की ओर थी। एंबुलेंस में लिटाए - लिटाए कहाँ - कहाँ नहीं भटकते फिरे थे वे... कभी बोथम हॉस्पिटल तो कभी संजीव आरोग्य केंद्र, कभी सरस्वती अस्पताल तो कभी देवनंदिनी चिकित्सालय… सभी जगह रटारटाया सा प्रत्युत्तर मिलता - 'सॉरी! अस्पताल में भरती करने के लिए कोई बैड खाली नहीं है, न ही ऑक्सीजन उपलब्ध है। कहीं और प्रयास करें!'

    स्वयं भी महानगर के सुप्रतिष्ठित चिकित्सक होने के नाते अपने कई डॉक्टर मित्रों से वे फोन पर अनुरोध भरी भिक्षा मांग चुके थे - "बस एक सिलेंडर की भिक्षा दे दीजिए या फिर अपने अस्पताल में भरती कर लीजिए! मेरे बेटे की जिंदगी का सवाल है, कोई भी, कितना भी मूल्य चुकाने को तैयार हूं।"

   पर सब जगह निराशा ही हाथ लगी - "इस समय बहुत बड़ी मजबूरी है। हॉस्पिटल में कोई भी बैड खाली नहीं है। और ऑक्सीजन भी कुछ ही घंटों की शेष है! जिलाधिकारी से गुहार लगाई है कि किसी भी तरह ऑक्सीजन की व्यवस्था कराएं! वरना हम रोगियों को बचा न सकेंगे!"

    वे गिड़गिड़ा भी पड़ते थे जैसे फोन पर ही पैर छूने को आतुर हों - "मेरा इकलौता बेटा है, ऑक्सीजन न मिली तो कुछ भी हो सकता है… बस थोड़ी सी गैस दे दीजिए! ताकि इस समय का काम चल सके, बाद में तो मैं कोई और भी व्यवस्था कर सकता हूं।"

   उनके अभिन्न मित्र डॉ० कुलकर्णी ने तो उन्हें झिड़क ही दिया था - "तुम्हारे लिए तुम्हारे बेटे की जान कीमती है तो हमारे लिए हमारे अस्पताल में भरती रोगियों की जान कीमती है। हम उनका जीवन कैसे दांव पर लगा दें? कई पेशेंट तो ऐसे हैं जो केवल ऑक्सीजन के आश्रय पर ही जिंदा हैं। इधर ऑक्सीजन समाप्त, उधर उनकी जिंदगी समाप्त।"

   "अर्थात् तुम्हारे लिए मेरे बेटे की जान कीमती नहीं है, वे अनजान बीमार कीमती हैं जिनसे तुम्हारा दूर-दूर तक कोई रिश्ता - नाता नहीं? कुछ पेशेंट काम में आ भी गए तो क्या हुआ? तुम पर क्या असर पड़ेगा उनका? पर मेरा बेटा तो बच जाएगा। मेरे बेटे से तो मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। यूं समझिए कि मेरे बेटे के बचने से मुझे भी जिंदगी मिल जाएगी। वरना मैं भी जीते जी मर जाऊंगा।" डॉ मल्होत्रा करुण कटाक्ष करते - करते भावपूर्ण आवेश में आ गए थे।

   डॉ कुलकर्णी इस कटाक्ष पर तिलमिला गए थे - "डॉ० राघव मल्होत्रा! तुम अपने पेशे के प्रति कर्तव्य विहीन हो सकते हो परंतु मैं नहीं। मुझे सब पता है तुम्हारे अस्पताल में क्या-क्या होता है? मुझे आवेशित कर मेरा मुंह मत खुलवाओ!"

   "क्या कर लोगे मेरा तुम, अपना मुंह खोलकर? अरे मैं भी सब जानता हूं तुम्हारे अस्पताल में कितने - कितने काले कारनामें होते हैं? तुम तो मरे हुए पेशेंट की चमड़ी तक उधेड़ लेते हो। डैड बॉडी से भी पैसे बनाते रहते हो।" आवेश में वे भूल गए कि उनका बेटा गंभीर रूप से बीमार है और वह उसी के लिए एक यूनिट ऑक्सीजन के लिए दर-दर भटक रहे हैं।

   आक्रोश में तमतमा गए थे डॉ० कुलकर्णी - "अरे हम तो मरे हुए की ही चमड़ी उधेड़ते हैं, पर तुम तो वह गिद्ध हो जो जिंदा आदमी का मांस नोंच नोंचकर खा जाता है। बताओ! तुम्हारे हॉस्पिटल में सामान्य पेशेंट की भी कोविड टैस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आती है या नहीं? फिर उसे रेमडेसिविर इंजेक्शन लगा - लगाकर लाखों रुपए वसूलते रहते हो या नहीं? ऑक्सीजन खत्म हो जाने का नाटक रचकर ब्लैक में खरीदने के बहाने तुम कई गुना दाम वसूलते हो या नहीं? फिर उसकी डैड बॉडी ही तुम्हारे हॉस्पिटल से कई सतह वाले कफन में पैक होकर बाहर निकलती है या नहीं?... डॉ० राघव मल्होत्रा! सच पूछो तो यह तुम्हारे उन्हीं कुकृत्यों का परिणाम है कि महानगर में इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी तुम्हें एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए किसी भूखे भिखारी की तरह भीख मांगनी पड़ रही है।"

   बुरी तरह बौखला गए थे डॉ० राघव मल्होत्रा। कोई प्रत्युत्तर नहीं सूझा तो झुंझलाकर फोन ही डिस्कनेक्ट कर दिया था उन्होंने।

   डॉ० कुलकर्णी ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया था... कठोर और कटु सत्य कह दिया था कुलकर्णी ने... उनकी आंखों में अपने ही अस्पताल के कुकृत्य किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……. 


   महानगर का सुप्रतिष्ठित 'आयुष्मान हॉस्पिटल'… संचालक डॉ० राघव मल्होत्रा… एक सिद्धहस्त कुशल सर्जन के रूप में दूर-दूर तक उनकी विशिष्ट पहचान थी। जटिल से जटिल सर्जरी के केस बड़ी सरलता से सुलझा लिए जाते थे उस हॉस्पिटल में। सर्जरी के कुशल प्रवक्ता के रूप में व्याख्यान देने भी वे देश - विदेश में जाते रहते थे... और मोटे शुल्क पर अन्य अस्पतालों की भी विजिट करते रहते थे... हर ओर से धन की बौछार... हर समय सिर पर धन कमाने का जुनून सवार...

   मानवीयोचित संवेदनाएं हृदय के किसी कोने में न थीं… जीवन का एक ही उद्देश्य, एक ही धर्म, एक ही कर्तव्य... मानव को जितना नोंचा - खसोटा जाए, कमी मत छोड़ो! चर्म तक उधेड़ लो... इस संसार में कोई किसी का नहीं, बस पैसा ही काम आता है।

   अर्थात् यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि उनके भीतर एक गिद्ध छिपा बैठा था, जो नोंचने - खसोटने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था।

   और जब एक नन्हें से वायरस कोरोना ने देश भर में महाप्रलय मचायी तो उनके प्रखर महत्त्वाकांक्षी मस्तिष्क ने आपदा में भी अवसर तलाशने में विलंब नहीं किया। प्रशासन के सहयोग से उन्होंने 'आयुष्मान हॉस्पिटल' को 'कोविड-19 उपचार केंद्र' में परिणत करने में सफलता अर्जित की तो वहां सर्जरी के स्थान पर कोरोना पीड़ित रोगियों का उपचार किया जाने लगा।

   फिर तो धन की घनघोर वर्षा होने लगी... कोई सर्जरी का रोगी भी आ जाता तो निराश उसे भी नहीं किया जाता... पहले उसे भरती किया जाता, फिर उसका कोरोना टैस्ट किया जाता। पॉजिटिव प्रदर्शित कर कोविड-19 का उपचार करने की ओट में लाखों रुपए वसूले जाते... कभी रेमडेसिविर का अभाव बताकर रोगी के परिचारकों को इधर-उधर भटकाया जाता, कभी ऑक्सीजन की कमी दर्शाकर नचाया जाता और इस ओट में मोटी कमाई की जाती।

   परंतु रोगी बचता तब भी नहीं था - 'सॉरी! बहुत कोशिश की हमने, पर पेशेंट को बचा नहीं सके! फेफड़े पूरी तरह गल गए थे।'

   कई सतह वाले कफन में पैक्ड डैड बॉडी ही बाहर निकलती थी। वह भी कोविड अस्पताल के प्रोटोकॉल के अनुसार परिजनों को नहीं दी जा सकती थी। मृत शरीर से भी धन वसूलने में पीछे नहीं रहा जाता था - 'श्मशान गृह में इंच भर भी जगह खाली नहीं है।' यह अभाव दर्शाकर किसी अन्य स्थान का भारी-भरकम शुल्क जमा कराया जाता था। और क्रियाकर्म का शुल्क तो अलग से था ही जो अस्पताल के कर्मचारियों की सदाशयता पर निर्भर करता था।

   परीक्षणशाला अपनी, मेडिकल स्टोर अपना, कर्मचारी अपने, समूची व्यवस्था अपनी... आयुष्मान हॉस्पिटल में आने वाला हर रोगी कोविड-19 वायरस पॉजिटिव ही निकलता था, चाहे वह सामान्य खांसी, जुकाम से ही पीड़ित क्यों न हो।

   और यह भी उसकी एक विशेषता ही थी कि शायद ही कोई रोगी उसमें से स्वस्थ होकर बाहर निकलता हो?... लोग स्वस्थ होने की आशा हृदय में पाले अपने रोगी को हॉस्पिटल में भरती करते और अपना सब कुछ दांव पर लगाकर कुछ दिन बाद ही लुटे - पिटे जुआरी की तरह खाली हाथ रोते - बिलखते घर वापस लौटते।


   किसी समाचार पत्र का पत्रकार था वह, जिसके पिता को उदरशूल की शिकायत पर वृक्काश्मरी के संदेह मे अल्ट्रासाउंड तथा अन्य परीक्षणों आदि के लिए भरती किया गया था।

   सर्वप्रथम कोविड टैस्ट किया गया… परिणाम आने तक कोई उपचार नहीं, कोई परिचार नहीं... एक गिलास पानी अथवा एक कप चाय के लिए रोगी तरसता रहा... वह दर्द से तड़पा तो चीखने - चिल्लाने पर डरा - धमकाकर शांत कर दिया गया...

   रिपोर्ट आयी - कोविड-19 वायरस : पॉजिटिव (हाइली सेंसेटिव)... यह तो सुनिश्चित था ही।

   पत्रकार को रोग की गंभीरता समझा दी गयी - 'वायरस का प्रभाव गुरदों पर हुआ है, गुरदे संक्रमित होकर सिकुड़ गए हैं, और निरंतर गलते जा रहे हैं। क्या परिणाम होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता? फिर भी हम पूरी कोशिश करेंगे। हमें विश्वास है कि हम रोगी को बचा लेंगे। किंतु खर्च कुछ ज्यादा हो सकता है। हालांकि हम कम से कम खर्च में ही काम चलाने की कोशिश करेंगे।'

   पत्रकार ने उनके पैर पकड़ लिए - 'मेरे पिता को बचा लीजिए डाक्साब! मैं खुद बिक जाऊंगा, पर अस्पताल का खर्च पूरा वहन करूंगा।'

   भीतर ही भीतर पुलकित हो उठे डॉ० मल्होत्रा… अच्छा मुर्गा फंसा है... उनके मस्तिष्क में बैठे गिद्ध ने तत्काल ही किसी योजना को साकार रूप देना प्रारंभ कर दिया...

   सुबह होते ही लाखों रुपए जमा करा लिए जाते... कभी परीक्षण के नाम पर, कभी दवाइयों के लिए, कभी रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर, कभी ब्लैक में खरीदी गई ऑक्सीजन के नाम पर, कभी वेंटिलेटर के लिए, कभी नेफ्रोलॉजिस्ट की विशेष विजिट के लिए, कभी विदेश से मंगाए गए कुछ विशेष उपकरणों के शुल्क के रूप में...

   पत्रकार ने बहुत बार पिता से मिलने का प्रयास किया। परंतु हर बार ही उसे रटा - रटाया सा आश्वासन देकर शांत कर दिया जाता - 'आप निश्चिंत होकर घर जाइए अथवा वेटिंग हॉल में जाकर बैठिए! जो कुछ भी नयी सूचना होगी, आपको फोन पर दे दी जाएगी।'

‌‌   सप्ताह भर बाद उसे सूचना दी गयी - 'वायरस ने लैफ्ट किडनी तो पूरी तरह डैमेज कर ही दिया है, लंग्स (फेफड़े) भी गल चुके हैं। फिर भी हम बचाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हम अमेरिकी नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ ऑस्टिन से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं, एक बार उन्होंने देख लिया तो आपके पिता निश्चित रूप से बच जाएंगे। परंतु उनकी फीस आपको भरनी होगी।'

   कुछ दिन बाद उसे पुनः आश्वस्त किया गया - 'अमेरिकी डॉ० ऑस्टिन की एडवाइस के अनुसार ही ट्रीटमेंट दिया जा रहा है। हमें विश्वास है कि सफलता अवश्य मिलेगी। हम उन्हें बचा लेंगे।'

   'क्या मैं एक झलक देख सकता हूं अपने पिता की?' उसने डरते डरते पूछा था।

   'बेवकूफ! क्या बक रहे हो? वह कोरोना पेशेंट हैं, उसे देखने की तुम सोच भी कैसे सकते हो?' डॉ० मल्होत्रा ने उसे इतनी बुरी तरह झिड़क दिया था कि वह सहमकर रह गया था।

   पता नहीं उसे किसी नर्स अथवा वार्डबॉय ने कोई संकेत दिया था अथवा अंतर्चेतना में कोई झंकार हुई थी कि उसे डॉ० मल्होत्रा की विश्वसनीयता पर संदेह होने लगा था। यह भी संभव हो सकता है कि अस्पताल से दिन - प्रतिदिन निकलने वाली लाशों ने उसे उद्विग्न किया हो।

   उसी रात्रि को जब समूचा अस्पताल निद्रा के आगोश में समाया पड़ा था वह पी पी ई किट पहनकर उस वार्ड में घुस गया जहां उसके पिता भरती थे... और वह यह देखकर दंग रह गया कि वहां कई लाशें रोगियों के रूप में पड़ी थीं... नासिका व मुख पर लगे मास्क मात्र प्रदर्शन भर के लिए... दोनों हाथों की नसों में ड्रिप की नलियां लगी हुईं...

   स्वयं उसके पिता भी मुर्दे के रूप में परिणत हो चुके थे... उदर पर टेप से चिपकायी गयी रुई पर रक्त स्राव के निशान... तो क्या पिता का पेट चीरा गया था? क्यों चीरा गया होगा?... क्या किसी अंग की चोरी की गयी है?... गुर्दा ही या कुछ और?

   'हे भगवान्! ये लोग डॉक्टर हैं या गिद्ध? जो इंसान के अंग नोंचकर खाने से भी नहीं चूकते।' उसकी आंखों में पीड़ा मिश्रित विस्मय का संसार उमड़ आया।

   डॉक्टर के सामने पड़ते ही उसने हंगामा मचा दिया - 'इंसानी खाल में छिपे गिद्ध हो आप! मेरे जीवित पिता को नोंच - नोंचकर खा गए? वरना तो बताइए! उनके पेट को क्यों चीरा गया? कौन सा अंग निकाला गया है उसमें से? मैं अभी पुलिस में रिपोर्ट करूंगा, उनका पोस्टमार्टम होगा, और आप जेल जाएंगे! अरे मैं तो अच्छे भले पिता को लेकर केवल इस परीक्षण के लिए यहां आया था कि बायीं कुक्षि में उठने वाला दर्द पथरी का है अथवा कुछ और?... और आपने लाखों रुपए बनाकर भी उन्हें जिंदा नहीं ‌छोड़ा।'

   बहुत शोर मचा, भीड़ इकट्ठी हो गयी, पुलिस भी आयी और पत्रकारों का दल भी आ विराजा।

   पुलिस को तो उन्होंने चढ़ावा चढ़ाकर शांत कर दिया, परंतु अखबारों को शांत न कर सके।

‌   बाद में उन्होंने अपने स्टाफ को बुरी तरह डांट - फटकार लगायी - 'वह भीतर घुसा कैसे? भीतर का सच लोगों के सामने उजागर हुआ तो क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी हॉस्पिटल की? कौन जिम्मेदार होगा गिरती साख के लिए? तुम लोगों को मासिक वेतन के अतिरिक्त भी बहुत कुछ दिया जाता है, कहां से निकलेगा वह?'

   वही हुआ... अगले दिन के समाचार पत्र उनके समाचारों से भरे पड़े थे - महानगर का सुप्रसिद्ध 'आयुष्मान हॉस्पिटल' बना गिद्धों का अड्डा। हॉस्पिटल में भर्ती छद्म कोरोना के रोगियों के अंगों की तस्करी चरम पर... पुलिस प्रशासन मौन।

   फिर तो आए दिन उन पर आरोपों की बौछार होने लगी... जिनमें कहीं न कहीं सत्यता भी थी... कभी कोविड रोगियों के लिए जीवन रक्षक माने जाने वाले रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी का आरोप, कभी उसके स्थान पर डिस्टिल्ड वाटर लगाकर रोगियों को मार डालने का आरोप, कभी ऑक्सीजन का कृत्रिम अभाव प्रदर्शित कर कई गुना अधिक मूल्य वसूलने का आरोप, कभी हॉस्पिटल में 'बैड फुल' की तख्ती लगाकर बैक डोर से मोटी राशि लेने का आरोप, कभी गुरदा चोरी का आरोप, कभी रोगियों के स्वर्णाभूषण उतार लेने का आरोप…

   अर्थात् दिन - प्रतिदिन आयुष्मान हॉस्पिटल की प्रतिष्ठा धूमिल होती चली गई... जितना यश डॉ० मल्होत्रा ने अपने कौशल व मृदुलाचरण से अर्जित किया था वह सब उनकी गिद्धवृत्ति की भेंट चढ़ गया... वे डॉक्टर गिद्ध के नाम से चर्चित होते चले गए…….


   "मैं मर जाऊंगा पापा! कुछ करो! मुझे बचा लो! शहर के इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी आप कुछ नहीं कर रहे?" मलीन से, बिखरते से स्वर में कहा कार्तिक ने तो उनकी सोच की परत दरक गयी।

     चौंककर उन्होंने बेटे के चेहरे की ओर देखा... चेहरा निरंतर पीला पड़ता जा रहा था और स्याह आंखें बुझी - बुझी सी, होंठ पपड़ाए हुए, कपोल भीतर धंसे हुए... अपनी विवशता पर उनका अंतर्मन रो पड़ा।

   फिर भी बाहरी मन से उन्होंने उसे दिलासा देने का प्रयत्न किया - "डोंट वरी माय लवली सन! बहुत जल्दी मैं कोई न कोई समाधान निकालता हूं। मैं अपने प्यारे बेटे को जरूर बचा लूंगा।"

   यकायक उन्हें राजकीय चिकित्सालय में नियुक्त कार्डियोलॉजिस्ट डॉ० गर्ग का ध्यान आ गया... उनसे उनके बहुत मधुर संबंध थे। डॉ गर्ग ने अनेकों रोगी उनके हॉस्पिटल में अग्रसरित किए थे, बदले में उन्होंने गर्ग को मोटा कमीशन दिया था।

   और उनकी एंबुलेंस राजकीय चिकित्सालय की ओर दौड़ पड़ी... डॉ० गर्ग से कुछ सहायता मिलने की आशा में...

‌   डॉ० गर्ग ने मधुर वाचन शैली में उनका उत्साहवर्धन किया - "चिंता मत करो माय डीयर फ्रेंड! इस अस्पताल में आपको बैड भी मिलेगा और ऑक्सीजन भी... और यदि वेंटिलेटर की आवश्यकता हुई तो मैं वह भी उपलब्ध कराऊंगा…" क्षणिक ठिठककर वे मुख्य बिंदु पर भी आ ही गए - "किंतु दोस्त! अस्पताल के नियमानुसार सर्वप्रथम कोरोना टैस्ट अनिवार्य है।"

   कोरोना टैस्ट का नाम सुनते ही उनके हृदयाकाश में विचित्र - विचित्र सी आशंकाओं के बादल मंडराने लगे... कोरोना टैस्ट का मतलब - कोविड-19 वायरस पॉजिटिव... जब उनके आयुष्मान हॉस्पिटल में आज तक कोई भी परीक्षण नेगेटिव नहीं दर्शाया गया तो इसी राजकीय अस्पताल का क्या विश्वास?... और यदि पॉजिटिव आया तो?...

   पॉजिटिव परिणाम की दिशा में सोचते ही उनकी पूरी देश स्वेद बिंदुओं से लथपथ हो गयी... उन्होंने आज तक किसी रोगी को अपने हॉस्पिटल से जिंदा नहीं लौटाया तो राजकीय व्यवस्थाओं पर भी कैसे विश्वास किया जा सकता है?... उन्हें लगा कि कोरोना के रूप में यमदूत तैयार खड़े हैं... एक - एक सांस से जंग जीतने को संघर्ष कर रहे इकलौते बेटे को ले जाने के लिए…

   इस हृदयाघाती कल्पना से तो उनका दिल धक्क से बैठ गया... उन्होंने माथे पर हाथ रख लिया और किंकर्तव्यविमूढ़ से भयावह विचारों के अंधड़ में चकरघिन्नी की तरह घूमने लगे।

   डॉ० गर्ग ने उन्हें उहापोह के दलदल में फंसे देखा तो बड़े ही स्निग्ध स्वर में उन्हें परामर्श देने लगे - "क्यों माय डीयर फ्रेंड! इसे तुम अपने ही अस्पताल में भरती क्यों नहीं कर लेते? एक पूरा वार्ड कोरोना पेशेंट से खाली कराओ और बेटे के लिए व्यवस्थाएं बनवा लो! मैं वहीं आकर विजिट कर लूंगा।"

‌‌   जैसे कोई जुआरी जुआ खेलकर हताश - निराश सा परिक्लांत और बोझिल कदमों से घर लौटने को मजबूर हो, वैसे ही उनकी एंबुलेंस भी अपने ही आयुष्मान हॉस्पिटल की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगी थी।

   अपने हॉस्पिटल पहुंचकर वे समूचे स्टाफ पर निर्देशात्मक कर्कश स्वर में बरस पड़े - "एक पूरा वार्ड मेरे बेटे के लिए खाली कराओ! पेशेंट को उठा - उठाकर बाहर फेंक दो!... भाड़ में जाएं, जिंदा बचें या मरें... उनकी किस्मत। किंतु मेरा बेटा हर हाल में बचना चाहिए!... पहले कोरोना टैस्ट कराओ बेटे का... और ध्यान रहे! वास्तविक रिजल्ट बताना है, केवल पॉजिटिव ही रिपोर्ट नहीं बतानी है... और तत्काल ही सारे पेशेंट की ऑक्सीजन रोककर बेटे को लगानी है... यह भी ध्यान रखना है कि केवल ऑक्सीजन मास्क ही लगाकर नहीं छोड़ देना है अपितु गैस भी सप्लाई करनी है।… और जरूरत पड़ी तो रेमडेसिविर इंजेक्शन भी लगाने होंगे... किंतु ध्यान रहे ओरिजिनल इंजेक्शन ही लगाने हैं, उनकी जगह डिस्टिल्ड वॉटर नहीं... ओरिजिनल इंजेक्शन मैं स्वयं लाकर दूंगा... बल्कि लगाऊंगा भी मैं ही स्वयं अपने हाथों से, मुझे तुम लोगों पर किंचित विश्वास नहीं।"

   कालचक्र की यह कैसी विडंबना थी कि उनके भीतर बैठे भूखे गिद्ध ने परिस्थितियों का कितना जटिल मकड़जाल बुन दिया था कि अपने ही हॉस्पिटल पर विश्वास डगमगा गया था, हॉस्पिटल से संबंधित हर व्यवस्था हर व्यक्ति संदिग्ध लगने लगा था... उन्हें प्रतीत हो रहा था कि हॉस्पिटल का समूचा स्टाफ ही गिद्धों में परिणत हो गया है... डरावनी डरावनी सी आशंकाओं के कृमि कुलबुलाने लगे थे उनके भीतर कि कहीं ये गिद्ध उनके बेटे को भी नोंच - नोंच न खा जाएं...

   किंतु जब तक महानगर के उस सुविख्यात, सर्वसाधन संपन्न, दंभी व गिद्धवृत्ति शल्य चिकित्सक के लाड़ले बेटे को एंबुलेंस से उठाकर उस स्पेशल वार्ड में भर्ती किया जाता, तब तक एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए तरस रहे उस अभागे की सांसो की डोर टूट चुकी थी... न जाने कब एंबुलेंस में रखा ऑक्सीजन सिलेंडर खाली हो चुका था... एक-एक सांस के लिए व्यवस्था से जंग कर रहे बेटे की निश्चेतन पथराई आंखें शायद अब भी अपने पिता से करुण स्वर में याचनामयी गुहार लगा रही थीं - "पापा! कुछ करो ना!"


 ✍️डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़

बिजनौर, 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर  9411012039 / 8077945148

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष रामलाल अनजाना के कृतित्व पर केंद्रित यश भारती माहेश्वर तिवारी का महत्वपूर्ण आलेख .….समकालीन यथार्थ का दस्तावेज़ । यह आलेख अनजाना जी के वर्ष 2003 में प्रकाशित दोहा संग्रह "दिल के रहो समीप" की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ है ।


 हिंदी के वरिष्ठ गीत-कवि वीरेन्द्र मिश्र ने अपने गीतों की सृजन-प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए बहुत सारी गीत पंक्तियों का लेखन किया है। एक गीत में वे लिखते हैं, 'कह रहा हूं जो, लिखा वह ज़िंदगी की पुस्तिका में।' इसका सीधा अर्थ है कि वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि कोई भी कविता जीवन से विमुख नहीं हो सकती। गीत या कविता लेखन को वे अपना कर्तव्य ही नहीं, वरन् गीत को अतीत का पुनर्लेखन और भविष्य की आकांक्षा के स्वरूप में देखते हैं। लेखन उनकी दृष्टि में शौक़ या मन बहलाव का माध्यम अथवा पर्याय नहीं है, 'शौकिया लिखता नहीं हूं। गीत है कर्तव्य मेरा। गीत है गत का कथानक । गीत है भवितव्य मेरा।' वैसे भी सुधी विद्वानों ने इस बात को स्वीकार किया है कि काव्य-सृजन ही नहीं, वरन् किसी भी तरह का कलात्मक-सृजन एक तरह से सामाजिक दायित्व का निर्वहन है। इसी दायित्व का निर्वहन तो किया है तुलसी ने, सूर ने, कबीर ने, विद्रोहिणी मीरा ने और अपनी तमाम कलात्मक बारीकियों के प्रति अतिशय सजग एवं प्रतिबद्ध बिहारी तथा घनानंद जैसे उत्तर मध्यकालीन कवियों ने।

      दोहा हिंदी का आदिम छंद है। इतिहास की ओर दृष्टिपात करें तो इस अवधारणा की पुष्टि होती है। छंद शास्त्र के इतिहास के अध्येयताओं ने इसे महाकवि कालिदास की प्रसिद्ध रचना 'विक्रमोर्वशीयम्' में तलाश किया है

मई जाणिअ मिअलोअणि णिसिअरु कोइ हरेइ
जाव णु साव तडिसामलि धारा हरु बरिसेइ

अपभ्रंश, पुरानी हिंदी, ब्रज, अवधी आदि भाषाओं के साहित्य में इस छंद के बहुलांश में प्रयोग मिलते हैं। हिंदी साहित्य का मध्यकाल तो इस छंद का स्वर्णकाल कहा जा सकता है, जिसमें कबीर, तुलसी, रहीम, बिहारी जैसे अनेक सिद्ध कवियों ने इस छंद को अपनाया। मध्यकाल के बाद इस छंद के प्रति रचनाकारों की रुचि कम होती गई, यद्यपि सत सर्व की परंपरा में वियोगी हरि जैसे कुछ कवियों ने इस छंद को अपनाया। द्विवेदी युग के बाद तो एक तरह छांदसिक कविता को हिंदी के जनपद से निकालने का उपक्रम आरंभ हो गया और प्रयोगवाद तथा नई कविता के आगमन के साथ तो इसे लगभग पूरी तरह ख़ारिज़ ही कर दिया गया। यह अलग बात है कि नाथों और सिद्धों ने इसे एक विद्रोही तेवर दिया, जो कबीर तक अविश्रांत गति से बना रहा। रहीम ने उसे कांता सम्मति नीति-वचनों का जामा पहनाया। जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, दोहा-लेखन का स्वर्णकाल बिहारी का रचनाकाल है। मतिराम और रसलीन उसी की कड़ियां हैं।
     आज से लगभग दो-ढाई दशक पहले रचनाकारों का ध्यान फिर इस छंद की ओर गया और हिंदी-उर्दू के कई रचनाकारों ने इसको अपनाना शुरू किया। भाली, निदा फ़ाज़ली और सूर्यभानु गुप्त इस नई शुरूआत के ध्वजवाही रचनाकार हैं। अतिशय कामात्मकता और राग-बोध से आप्लावित सृजन धर्मिता से निकाल कर एक बार फिर छंद को बातचीत का लहजा दिया नए दोहा कवियों ने जनता को सीधे-सीधे उसी की भाषा में संबोधित करने का लहजा । लगभग दो दशक पूर्व हिंदी के कई छांदसिक रचनाकारों की रुचि इस छंद में गहरी हुई और जैसे ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार और गीत में मुकुट बिहारी सरोज ने इन दोनों काव्यरूपों को आत्यंतिक निजता से निकालकर उसे लोक से, जन से जोड़कर उसे एक सामाजिक, राजनीतिक चेहरा दिया, उसी तरह सर्वश्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, विकल प्रकाश दीक्षित बटुक, जगत प्रकाश चतुर्वेदी, भसीन, कुमार रवीन्द्र दिनेश शुक्ल, आचार्य भगवत दुबे, डा. राजेन्द्र गौतम, कैलाश गौतम, जहीर कुरैशी, यश मालवीय, विज्ञान व्रत, डा. कुंवर बेचैन, हस्तीमल हस्ती, योगेन्द्र दत्त शर्मा, भारतेन्दु मिश्र, डा. श्याम निर्मम, डा. विद्या बिंदु सिंह तथा सुश्री शरद सिंह सरीखे शताधिक गीत-नवगीत एवं ग़ज़ल के कवियों ने इस सृजन-यात्रा में अपने को शामिल किया। मुरादाबाद नगर में भी सर्वश्री बहोरन लाल वर्मा 'प्रवासी' तथा परशूराम सरीखे वरिष्ठ तथा समकालीन कवियों ने दोहा लेखन में अपनी गहरी रुचि प्रदर्शित की। सुकवि रामलाल 'अनजाना' उसी की एक आत्म सजग कड़ी हैं। वे देश के तमाम अन्य कवियों की ही तरह इस त्रययात्रा में अपना कदम ताल मिलाकर अभियान में अपनी हिस्सेदारी निभा रहे हैं।
     कविवर रामलाल 'अनजाना' की यह उल्लेखनीय विशिष्टता है कि छांदसिक रचनाशीलता में सबके साथ शामिल होकर भी सबसे अलग हैं, सबसे विशिष्ट । समकालीन सोच के अत्यधिक निकट । उनमें सिद्धों, नाथों से लेकर कबीर तक प्रवहमान असहमति की मुद्रा भी है और रहीम का सर्व हितैषी नीति-निदेशक भाव भी । साथ ही साथ सौंदर्य और राग चेतना से संपन्न स्तर भी। कविवर 'अनजाना' की सृजन यात्रा कई दशकों की सुदीर्घ यात्रा है। उनका पहला काव्य-संग्रह 'चकाचौंध 1971 में प्रकाशित हुआ । उसके बाद सन् 2000 में उनके दो संग्रह क्रमशः 'गगन न देगा साथ और 'सारे चेहरे मेरे' प्रकाशित हुए।
    चकाचौंध में विविध धर्म की रचनाएं हैं कुछ तथाकथित हास्य-व्यंग्य की भी लेकिन उन कविताओं के पर्य में गहरे उतर कर जांचने परखने पर वे हास्य कविताएं नहीं, समकालीन मनुष्य और समाज की विसंगतियों पर प्रासंगिक टिप्पणियों में बदल जाती है। गगन न देगा साथ उनके दोहों और गीत -ग़ज़लों का संग्रह है, जो पुरस्कृत भी हुआ है, जिसमें उनके कवि का वह व्यक्तित्व उभर कर आता है जो अत्यंत संवेदनशील और सचेत है। तीसरा संग्रह 'सारे चेहरे मेरे' उनकी लंबी छांदसिक तथा मुक्त छंद की रचनाओं का है। यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि उनकी मुक्त छंद की रचनाएं छंद के बंद' को खोलते हुए भी लयाश्रित है और वह लय डा. जगदीश गुप्त की अर्थ की लय नहीं है। इस संग्रह में कुछ दोहे भी हैं जो उनके दोहा लेखन की एक सूचना का संकेत देते हैं। इस संग्रह की उनकी कविताएं भाषा और कथ्य के धरातल पर उन्हें कविवर नागार्जुन के निकट ले जाकर खड़ा करती है। नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे एक पूर्णकालिक कवि की तरह काव्य-सृजन से जुड़ गए
    सुकवि रामलाल 'अनजाना' के संदर्भ में यह कहना कठिन है कि उनके मनुष्य ने उन्हें कवि बनाया अथवा कविता की तरलता ने उनके व्यक्तित्व को ऐसा निर्मित किया। हिंदी के एक उत्तर मध्यकालीन कवि ने लिखा भी है
लोग हैं लागि कवित्त बनावत ।
मोहि तो मेरे कवित्त बनावत ।।

बारीकी से देखा जाए, तो यह बात कविवर 'अनजाना' पर भी शतशः घटित होती है। अपनी कविताओं के प्रति संसार की चर्चा करते हुए अपने संग्रह 'सारे चेहरे मेरे' की भूमिका में उन्होंने लिखा है, 'अस्मिता लहूलुहान है, महान आदर्शों और महान धर्मात्माओं के द्वारा। असंख्य घड़ियाल पल रहे हैं इनके गंदे और काले पानी में असंख्य पांचालियां, सावित्रियां, सीताएं और अनुसुइयाएं | दुष्ट दुःशासनों के द्वारा निर्वस्त्र की जा रही हैं और उनकी अस्मिता ध्वस्त की जा रही है। दया, करुणा, क्षमा, त्याग, ममता और सहयोग प्रायः लुप्त हो चुके हैं।' यही उनकी कविताओं और उनके  व्यक्ति की चिंताओं-चिंतनों तथा सरोकारों से जुड़े हैं। यहां यही  बात ध्यान देने की है कि 'अनजाना' कबीर की तरह सर्वथा  विद्रोही मुद्रा के कवि तो नहीं हैं, लेकिन जीवन में जो अप्रीतिकर है, मानव विरोधी है, उससे असहमति की सर्वथा अर्थवान मुद्रा है।। एक तरह से कहा जा सकता है कि उनमें कबीर और रहीम के व्यक्तित्व का परस्पर घुलन है।
      अपनी जीवन यात्रा के दौरान 'अनजाना' ने जो भोगा, जो जीने को मिला, जो देखा, मात्र वही लिखा है। ठीक कबीर की तरह 'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन देखी। 'अनजाना' की कविता में भी कागद की लेखी बहुत कम है। शायद नहीं के  बराबर। इसी ओर अपने पाठकों का ध्यान खींचते हुए तीसरे संग्रह की भूमिका में एक जगह लिखा है- 'हर ओर अंधे, गूंगे, बहरे और पंगू मुर्दे हैं, जिनके न तो दिल हैं, न दिमाग़ हैं, न गुर्दे हैं। जो जितने कुटिल हैं, क्रूर हैं, कामी है, छली हैं, दुराचारी हैं, वे उतने ही सदाचारी, धर्माचार्य, परम आदरणीय और परम श्रद्धेय की पद्मश्री से विभूषित हैं। पहरूए मजबूर हैं, पिंजड़े में बंद पक्षियों की तरह।' इस आत्मकथ्य की आरंभिक पंक्तियां पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियों बरबस कौंच जाती है- 'यहाँ पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग रहते है' कविवर 'अनजाना' के नए संग्रह 'दिल के रहो समीप' के दोहों को इसी संदर्भ से जोड़कर देखा जा सकता है ...
नफरत और गुरूर तो देते हैं विष घोल ।
खुशियों को पैदा करें मधुर रसीले बोल ।।
जीवन के पथ पर चलो दोनों आंखें खोल ।
दुखे न दिल कोई कहीं, बोलो ऐसे बोल।।

    कड़वाहट, अहंकार और घृणा से उपजती है और मिठास चाहे वह व्यवहार की हो अथवा वाणी की, इस कड़वाहट को समाप्त कर जीवन को आनंदप्रद तथा सहज, तरल बनाती है। कविवर 'अनजाना' अपने रचना संसार में जाति तथा संप्रदायगत संकीर्णता, जो मनुष्य को मनुष्य से विभाजित करती है, उससे लगातार अपनी असहमति जताते हुए इस मानव विरोधी स्थिति पर निरंतर चोट करते हैं
पूजा कर या कथा कर पहले बन इंसान।
हुआ नहीं इंसान तो जप-तप धूल समान।।

     इसी तरह वे आर्थिक गैर बराबरी को भी न केवल समाज और सभ्यता के लिए बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए अस्वीकार्य ठहराते हैं
    कोई तो धन को दुखी और कहीं अंबार ।
    जीवन शैली में करो कुछ तो यार सुधार।।

प्रसिद्ध चिंतक क्रिस्टोफर कॉडवेल ने लिखा है कि पूंजी सबसे पहले मनुष्य को अनैतिक बनाती है। कवि 'अनजाना' भी लिखते हैं....
पैसा ज्ञानी हो गया और हुआ भगवान ।
धनवानों को पूजते बड़े-बड़े विद्वान ।।

पूंजी के प्रति लोगों के लोग के दुष्परिणाम उजागर करते हुए वे आगे भी लिखते है....
पैसे ने अंधे किए जगभर के इंसान।
पैसे वाला स्वयं को समझ रहा भगवान ।।

इतना ही नहीं, वे तो मानते हैं
मठ, मंदिर, गिरजे सभी हैं पैसे के दास।
बिन पैसे के आदमी हर पल रहे उदास।।
लूटमार का हर तरफ मचा हुआ है शोर।
पैसे ने पैदा किए भांति-भांति के चोर।।
जन्में छल, मक्कारियां दिया प्यार को मार।
पैसे से पैदा हुआ जिस्मों का व्यापार ।।

श्रम ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ धर्म है, जीवन की मूल्यवान पूंजी है, इसे सभी सुधीजनों ने स्वीकार किया है। श्रम की प्रतिष्ठा की ओर ध्यान खींचते हुए उन्होंने लिखा है ....
मेहनत को मत भूलिए यही लगाती पार
कर्महीन की डूबती नाव बीच मझधार।।

मानव जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है, प्रसंग नहीं है, जिसकी ओर कविवर 'अनजाना' की लेखनी की दृष्टि नहीं गई है। फिर वह पर्यावरण हो अथवा नेत्रदान। नारी की महिमा-मर्यादा की बात हो अथवा सहज मानवीय प्यार की। पर्यावरण पर बढ़ते हुए संकट की ओर इशारा करते हुए वनों-वनस्पतियों के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है....
बाग़ कटे, जीवन मिटे, होता जग वीरान ।
जीवन दो इंसान को, होकर जियो महान।।

यही नहीं वकील, डाक्टर, शिक्षक किसी का भी अमानवीय आचरण उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है ....
लूट रहे हैं डाक्टर, उनसे अधिक वकील।
मानवता की पीठ में ठोंक रहे हैं कील।।
पिता तुल्य गुरु भी करें अब जीवन से खेल।
ट्यूशन पाने को करें, वे बच्चों को फेल।।

अन्यों में दोष दर्शन और उस पर व्यंग्य करना सरल है, सहज है। सबसे कठिन और बड़ा व्यंग्य है अपने कुल - गोत्र की असंगतियों पर चोट करना। 'अनजाना' इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं और समकालीन समाज, विशेष रूप से मंचीय कवियों और उनकी कविताओं में बढ़ती पतनशीलता से अपनी मात्र असहमति और विक्षोभ को ही नहीं दर्ज कराते, वरन् अपनी गहरी चिंता के साथ चोट भी करते हैं उस पर। उनकी चिंता यह है कि जिनकी वाणी हमें आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती है आज उन कवियों ने भी अपने दायित्व तथा धर्म को बिगाड़ लिया है। वे सर्जक नहीं, विदूषक बन गए हैं
कहां-कहां किस ठौर का मेटें हम अंधियार ।
कवियों ने भी लिया है अपना धर्म बिगाड़।।
रहे नहीं रहिमन यहां, तुलसी, सूर कबीर ।
भोंडी अब कवि कर रहे कविता की तस्वीर।। 

महाकवि प्रसाद ने जिसके लिए लिखा है- 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' अथवा कविवर सुमित्रा नंदन पंत ने जिसे 'मां, सहचरि, प्राण कहा है, उसके प्रति 'अनजाना' भी कम सजग नहीं हैं। जीवन में जो भी सुंदर है, प्रीतिकर है, सुखकर है, कवि उसके कारक के रूप में नारी को देखता है
ठंढी-ठंढी चांदनी और खिली-सी धूप ।
खुशबू, मंद समीर सब हैं नारी के रूप।।
झरने, बेलें, वादियां, सागर, गगन, पठार।
नारी में सब बसे हैं मैंने लिया निहार।।

नारी के ही कुछ सौंदर्य और चित्र दृष्टव्य हैं- यहां नारी जीवन का छंद है।
नारी कोमल फूल-सी देती सुखद सुगंध।
जीवन को ऐसा करे ज्यों कविता को छंद ।।

इतना ही नहीं, वे तो नारी को ही सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में स्वीकारते हैं। उसमें भगवत स्वरूप के दर्शन करते हैं तथा उसके बदले करोड़ों स्वर्गों के परित्याग की भी वकालत करते हैं। यहां यह बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि बहुत सारे उत्तर  मध्यकालीन कवियों की तरह यहां रूपासक्ति अथवा देहभोग नहीं। गहरा आदरभाव है। पूजा का भाव ।
    कविवर रामलाल ‘अनजाना' एक मानवतावादी कवि हैं। सहज, सरल, संवेदनशील व्यक्ति और कवि । विकारहीन आम हिंदुस्तानी आदमी जिसके पास एक सौंदर्य दृष्टि भी है और विचारशील मेधा भी। उनके व्यक्तित्व से अलग नहीं है उनकी कविता, वरन् दोनों एक-दूसरे की परस्पर प्रतिक्रियाएं हैं। इसीलिए उनकी काव्य भाषा में भी वैसी ही सहजता और तरल प्रवाह है जो उनकी रचनाओं को सहज, संप्रेष्य और उद्धरणीय बनाता है। वे सजावट के नहीं, बुनावट के कवि हैं। ठीक कबीर की तरह। उनकी कविता से होकर गुज़रना अपने समय के यथार्थ के बरअक्स होना है यू और कविता इस यथार्थ से टकराकर ही उसे आत्मसात कर महत्वपूर्ण बनती है। वे मन के कवि हैं। उनकी बौद्धिकता उनके अत्यंत संवेदनशील मन में दूध-मिसरी की तरह घुली हुई है। जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है, उनको पढ़ना अपने समय को, समकालीन समाज और मनुष्य को बार-बार पढ़ने जैसा है। उनकी रचनाएं विविधवर्णी समकालीन स्थितियों-परिस्थितियों को प्रामाणिक दस्तावेज हैं, जिनमें एक बेहतर मनुष्य, बेहतर समाज सभ्यता की सदाकांक्षा की स्पष्ट झलक मिलती है।
      मुझे विश्वास है कि उनके पूर्व संग्रहों की ही तरह इस नये संग्रह 'दिल के रहो समीप' का भी व्यापक हिंदी जगत में स्वागत होगा। उनका यह संग्रह विग्रहवादी व्यवहारवाद से पाठकों को निकालकर सामरस्य की भूमि पर ले जाकर खड़ा करेगा और हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में सहायक होगा।
शुभेस्तु पंथानः ।

✍️ माहेश्वर तिवारी
'हरसिंगार'
ब/म-48, नवीन नगर
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 15 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर (वर्तमान में शाहजहांपुर निवासी) की साहित्यकार विनीता चौरसिया द्वारा प्रस्तुत मां सरस्वती वंदना

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मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की व्यंग्य कविता.... होनहार बेटा


 

मुरादाबाद की साहित्यकार प्रो ममता सिंह की बाल कविता .....

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सोमवार, 14 नवंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति ने 14 नवम्बर 2022 को आयोजित की काव्य-गोष्ठी

 मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की ओर से मासिक काव्य-गोष्ठी का आयोजन सोमवार 14 नवंबर 2022 को लाइनपार स्थित विश्नोई धर्मशाला में किया गया। 

रामसिंह निशंक द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने कहा...

समस्या अब कैसे हो हल। 

सोचकर बीते जाते पल। 

जहाॅं ठहरा डर लगता है, 

बिछी बारूद संभल कर चल। 

 मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि रामदत्त द्विवेदी ने कहा ....

तू न मेरी बात कर, औ' न मेरी बात सुन। 

सोच अपने फायदे की, बस वही तू पाथ चुन।

 विशिष्ट अतिथि के रुप में ग़ज़लकार ओंकार सिंह ओंकार की अभिव्यक्ति इस प्रकार रही - 

समय मिले तो खेलो खेल। 

खेल-खेल में कर लो मेल। 

बात पते की तुम्हें बताऊं, 

छोड़ दुश्मनी कर लो मेल। 

     वरिष्ठ कवयित्री डॉ प्रेमवती उपाध्याय की इन पंक्तियों ने सभी के हृदय को स्पर्श किया- 

नीम बोकर तो निबोली से भरा ऑंगन रहा। 

फल मधुर जिस पर लगें, वह बेल तो बोई नहीं। 

एचपी शर्मा की इन पंक्तियों ने भी सभी को सोचने पर विवश किया - 

भूत के जनक

वर्तमान के अनुज

भाग्य की पीठ सहलाकर

अपने धैर्य का मूल्यांकन कर रहा हूॅं।

रामसिंह निशंक का कहना था - 

चकाचौंध ने इक दूजे का, अपनापन छीन लिया।

 मोबाइल ने बच्चों से उनका, बचपन छीन लिया। 

डॉ मनोज रस्तोगी ने वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों का चित्र उकेरा - 

उड़ रही गंध ताज़े खून की, 

बरसा रहा ज़हर मानसून भी। 

  योगेन्द्र वर्मा व्योम का कहना था-  

रामचरितमानस जैसा हो, 

घर-ऑंगन का अर्थ। 

मात-पिता, पति-पत्नी,

भाई, गुरू-शिष्य संबंध। 

पनपें बनकर अपनेपन के, 

अभिनव ललित निबंध। 

अहम-वहम रिश्ते-नातों

 का करते सदा अनर्थ। 

 संचालन  करते हुए राजीव प्रखर कहा - 

मन की ऑंखें खोल कर, देख सके तो देख। 

कोई है जो रच रहा, कर्मों के अभिलेख।

 पंछी ने की प्रेम से, जब जगने की बात। 

बोले मेंढक कूप के, अभी बहुत है रात। 

इसके अतिरिक्त रामेश्वर वशिष्ठ, योगेंद्र पाल विश्नोई, रमेश गुप्ता, चिंतामणि शर्मा आदि ने भी रचनाएं प्रस्तुत की। अंत में उपस्थित रचनाकारों ने रंगमंच कलाकार, साहित्यकार एवं संगीतकार अमितोष शर्मा के  निधन पर दो मिनट का मौन रखते हुए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। 












मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर की साहित्यिक संस्था अखिल भारतीय काव्यधारा की ओर से 13 नवंबर 2022 को कवि सम्मेलन, लोकार्पण एवं सम्मान समारोह का आयोजन

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर की साहित्यिक संस्था अखिल भारतीय काव्यधारा  की ओर से रविवार 13 नवंबर 2022 को  महादेवी वर्मा की स्मृति में कवि सम्मेलन एवं सम्मान समारोह आयोजित किया गया । यह आयोजन आनंद कॉवेंट स्कूल , ज्वाला नगर, रामपुर में संस्थापक जितेन्द्र कमल आनंद की अध्यक्षता में हुआ ।

  मुख्य अतिथि प्रो मीना श्रीवास्तव 'पुष्पांशी ' (ग्वालियर -मप्र), विशिष्ट अतिथि द्वय प्रमेश लता पाण्डेय (कासगंज) व डॉ  गीता मिश्रा 'गीत' (हल्द्वानी) , अध्यक्ष जितेन्द्र कमल आनंद, महासचिव राम किशोर वर्मा (रामपुर), संरक्षक पीयूष प्रकाश सक्सेना, रोहित राकेश द्वारा मां सरस्वती के चित्र के सम्मुख दीप प्रज्ज्वलन और अनमोल रागिनी (रामपुर) द्वारा सरस्वती वंदना से आयोजन का शुभारंभ हुआ ।

   जितेन्द्र कमल आनंद ने अपने अध्यक्षीय उद्बबोधन में महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला। नजीबाबाद से पधारीं डॉ  मंजू जौहरी 'मधुर' ने महादेवी वर्मा की कृतियों- "नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत' आदि का उल्लेख किया तो रुद्रपुर (उत्तराखंड) से पधारी कवयित्री शारदा नरूला ने उनके गीतांश को सस्वर प्रस्तुत किया ।

   इस अवसर पर ग्वालियर से पधारी  प्रो मीना श्रीवास्तव पुष्पांशी का संग्रह "मीना की गज़लें" का लोकार्पण संस्था अध्यक्ष जितेन्द्र कमल आनंद ,  प्रमेश लता पाण्डेय, डॉ गीता मिश्रा 'गीत' तथा राम किशोर वर्मा द्वारा किया गया । 

   इस अवसर पर प्रो मीना श्रीवास्तव पुष्पांशी, प्रमेश लता पाण्डेय, डॉ  गीता मिश्रा 'गीत', राम किशोर वर्मा, चंद्रभूषण तिवारी 'चंद्र' ( प्रयागराज), बरेली के पूनम शुक्ला, डॉ  निशा शर्मा, रोहित राकेश, डॉ  रीता सिंह (चंदोसी), डॉ  अरविंद धवल (बदायूं), अमरोहा से शशि त्यागी , इंदु रानी, मुरादाबाद से राजीव प्रखर, उदय प्रकाश 'उदय', डॉ  प्रीति हुंकार , सत्यपाल सिंह 'सजग' (लालकुआं), राम रतन यादव (खटीमा), सुश्री पुष्पा जोशी 'प्राकाम्य' (सितारगंज- उ०खं०), रामपुर से राजवीर राज, सुरेन्द्र अश्क, अनमोल रागिनी, रवि प्रकाश, राम सागर शर्मा, जितेन्द्र नंदा , अमित रामपुरी, रश्मि चौधरी, झांसी से सांध्य निगम  सहित लगभग ३५ काव्यकारो ने काव्यपाठ किया और इन सभी को शाल ओढ़ाकर , प्रतीक चिन्ह देकर व "महादेवी वर्मा स्मृति काव्य धारा " सम्मान से संस्था द्वारा सम्मानित किया गया ।

    रोहित राकेश (बरेली) और राम किशोर वर्मा ( रामपुर) ने संचालन किया।अध्यक्ष जितेन्द्र कमल आनंद ने आभार व्यक्त किया ।

























::::::: प्रस्तुति:::::     

राम किशोर वर्मा

राष्ट्रीय महासचिव

अखिल भारतीय काव्यधारा,

 रामपुर (उ०प्र०) भारत ।


शनिवार, 12 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की सजल...


पग-पग पर पीडा़यें  भोगी, 

सपने  चकनाचूर  हुए  हैं! 

कैसे  अपना  दर्द  छुपाएँ, 

क्यों अपनों से दूर हुए हैं? 


साथ-साथ आंगन में खेले, 

प्रातराश-भोजन भी पाया! 

तारे गिनते - गिनते सोये, 

कभी नहीं मजबूर हुए हैं!! 


खेल-खेल में गिरे अचानक, 

चोट लगी कितना मन रोया! 

हाथ पकड़ कर सहलाते थे, 

कितने दिन काफ़ूर हुए हैं!! 


बड़े  हुए  घर  गया  छूटता, 

शिक्षा-परहित रहे अकेले! 

लेकिन,घर को भूल न पाये, 

मिलन दिवस अति क्रूर हुए हैं!! 


समय बदलते देर न लगती, 

मात-पिता भी स्वर्ग सिधारें! 

अपनों का संकट हरने को, 

अनचाहे  ज्यों  घूर  हुए  हैं!! 


तन-मन कब नीलाम हो गया, 

वैभव - साहुकार  के  द्वारा! 

यौवन उसका दास बन गया, 

मित्र  कहें  मशहूर  हुए  हैं!! 


श्रम ने भाग्य बदल डाला है, 

बदला घर का मानचित्र भी! 

अपने  भूले  अहंकार  में, 

हम  खट्टे  अंगूर  हुए  हैं!! 


अपना कौन पराया जग में,

इसका बोध नहीं हो पाता ? 

महाकष्ट में साथ खड़े जो, 

वे  ही  सच्चे  शूर  हुए  हैं!! 

✍️ डॉ. महेश 'दिवाकर' 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार के डी शर्मा (कृष्ण दयाल शर्मा ) की पंद्रह रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में