सोमवार, 26 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' की काव्य कृति ' सरस संवादिकाएँ ' । इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 2007 में पुनीत प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ । इस कृति को तीन खंडों "शिशु सौरभ", "बाल वीथिका" और "किशोर कुंज" में विभाजित किया गया है । तीनों खंडों में 22-22 कविताएं (कुल 66) हैं । इन खंडों की भूमिका क्रमशः डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा " अरुण", डॉ चक्रधर "नलिन",और डॉ विनोद चंद्र पांडेय "विनोद" ने लिखी है। अंत में कवि की पूर्व प्रकाशित काव्य कृति " नोक झोंक" के संदर्भ में देश के साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हैं ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति 

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:::::::::प्रस्तुति::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी 

8,जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर 9456687822




वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से माह के प्रत्येक रविवार को वाट्सएप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । रविवार 25 दिसंबर 2022 को आयोजित 323 वें वाट्स एप कविसम्मेलन एवं मुशायरे में शामिल साहित्यकारों राजीव प्रखर, उमाकांत गुप्ता, विनीता चौरसिया, संतोष कुमार शुक्ल सन्त, सूर्यकांत द्विवेदी और श्री कृष्ण शुक्ल की रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में







 

रविवार, 25 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के प्रथम ग़ज़ल संग्रह “गुनगुनी धूप“ में प्रकाशित डा. कुँअर बेचैन द्वारा लिखी गई भूमिका...."संवेदना की धरती पर आँखों देखे हाल का आलेख हैं कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें।" इस संग्रह का प्रथम संस्करण वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा संस्करण आठ वर्ष पश्चात 2010 में गुंजन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ ।




कहा जाता है कि सच्ची कविता अपने युग की परिस्थितियों को स्पष्ट करते हुए, उनकी विडंबनाओं पर प्रकाश डालते हुए, उनकी विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए शाश्वत सत्यों और उन्नत जीवन-मूल्यों की खोज करती है। कवि अपने समय के प्रति जागरूक रहता है, तो भविष्य के लिए कुछ दिशा-निर्देश भी करता चलता है। जैसे पुष्प सामने दिखाई देता है, किंतु उसकी सुगंध हवाओं में समाहित होकर दूर तक फैलती है, युगीन कविता भी उसी प्रकार जो सामने है, उस वस्तुस्थिति को दिखाते हुए उसकी व्यंजनाओं को आगत के लिए सुरक्षित रखती चलती है। इस दृष्टि से इस संकलन के सुकवि श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें सफल और सार्थक ग़ज़लें हैं। उनकी ग़ज़लें आज की ग़ज़लें हैं, जो पुरानी शैली में लिखी हुई ग़ज़लों से कई अर्थों में भिन्न हैं। उनका कथ्य अब केवल प्रेम और सौंदर्य नहीं है, वरन् आज के इंसान का दुख-दर्द भी है। आज के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक परिवेश पर भी 'नाज़' की ग़ज़ल टिप्पणी करती चलती है। उनमें भाषा की नवीनता है, प्रतीक और बिंब भी नये हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें बिल्कुल नयी हैं। इश्क की शायरी से हटकर उनकी ग़ज़लें आम आदमी की मजबूरियों को संवेदनात्मक स्तर पर समझते हुए चिंता में डूबी ग़ज़लें लगती हैं।

कुम्हलाई फ़स्लें तो खुश हैं, बादल जल बरसायेंगे 

सोच रहे हैं टूटे छप्पर, वो कैसे बच पायेंगे

यही नहीं, उनका ध्यान उन अधनंगे बच्चों पर भी जाता है, जो कूड़े के ढेर में से पन्नी चुनने को मजबूर हैं, क्योंकि ये चुनी हुई पन्नियां ही उनको कुछ पैसे दिला पायेंगी, जिससे वे अपना पेट भर सकेंगे

कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे

पेट से हटकर भी कुछ सोचें, वक़्त कहाँ मिल पाता है

आर्थिक दृष्टि से समाज में कितनी विषमता है। यह देश जिसके कानून की नींव 'समाजवादी ढाँचे का समाज' होने पर रखी गई है, उसी देश में एक ओर ऊँची अट्टालिकाएँ हैं तो दूसरी ओर झोंपड़ियाँ।  कवि 'नाज़' ने इस बात को अभिव्यक्त करने के लिए कितना प्यारा शेर कहा है

किसी के जिस्म को ऐ 'नाज़' चिथड़ा तक नहीं हासिल 

किसी की खिड़कियों के परदे भी मख़मल के होते हैं

और इसी समाज में जो बड़े लोग हैं, वे छोटों को शरण देने के बजाय उन्हें लील जाते हैं। यह सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक ऊँच-नीच छोटों को अस्तित्व-विहीन बनाने में संलग्न है। 'सर्वाइवल आफ़ फ़िटेस्ट' में जो बड़े हैं, उन्हें ही 'फिटेस्ट' माना जाता है। छोटी मछली, बड़ी मछली के प्रतीक के माध्यम से कवि ने यह बात ज़ोरदार तरीके से कही है

निगल जाती है छोटी मछलियों को हर बड़ी मछली

नियम-कानून सब लागू यहाँ जंगल के होते हैं

आज जीवन-मूल्यों का इतना पतन हुआ है कि वे लोग जो अच्छे हैं, सच्चे हैं, वे ही दुखी हैं। झूठ तथा ऐसी ही अन्य नकारात्मक स्थितियाँ सच्चाई तथा ऐसे ही अन्य सकारात्मक मूल्यों पर विजय प्राप्त करती नज़र आ रही हैं। सच की राह पर चलने वाले लोगों की हालत बिगड़ी हुई है

ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म 

सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है

जब घर का मुखिया ठंडा चूल्हा देखता है, खाली बर्तन देखता है, बच्चों की भूख और उनके नंगे जिस्मों को देखता है, तब आखिर सच की राह पर चलना उसके लिए सचमुच ही नामुमकिन हो जाता है। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने जीवन मूल्यों के पतन के पीछे छिपे 'गरीबी' के तथ्य को ठीक से समझा है और इसी कारण को ख़ास तौर से रेखांकित किया है।

आज महँगाई का बोझ और काम का बोझ व्यक्ति को कितना तोड़ रहा है, कवि की दृष्टि उधर भी गई है। वेतनभोगी, निम्न-मध्यवर्गीय या मध्यम वर्ग के लोगों की कठिनाइयों को एक बहुत ही सुंदर शेर में अभिव्यक्त किया है

फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं

हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल

भौतिक सभ्यता का प्रभाव आज के व्यक्ति के ज़हन में इस क़दर घर कर गया है कि वह चाहे भीतर-भीतर कितना ही टूटा हुआ हो, बाहर से ठीक-ठाक दिखाई देना चाहता है। वह अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छुपाने में लगा है

घर की खस्ताहाली को वो कुछ इस तौर छुपाता है 

दीवारों पर सुंदर-सुंदर तस्वीरें चिपकाता है

आज आम आदमी के सम्मुख रोटी का प्रश्न मुँह बाये खड़ा है। रात हो या दिन, हर समय उसे यही चिंता है कि उसके परिवार वालों को कोई कष्ट न हो। इसी चिंता में नींदें भी गायब हो गई हैं

पेट की आग बुझा दे मेरे मालिक, यूँ तो 

भूख में नींद भी आते हुए कतराती है।

बड़ी कविता वह होती है जिसमें कवि जीवनानुभवों को चिंतन और भाव की कसौटी पर कसकर दुनिया के सामने लाता है और उसमें उसके अभिव्यक्ति-कौशल की क्षमताएँ दिखाई देती हैं। कवि कृष्ण कुमार 'नाज़' ने विभिन्न जीवनानुभवों को बड़े ही खूबसूरत ढंग से नज़्म किया है। इस अभिव्यक्ति में उन्होंने सुंदर प्रतीकों को माध्यम बनाया है। संसार में सबसे कठिन कार्य है सबको साथ लेकर चलना,क्योंकि कहा भी गया है- 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नः'। सबके अलग-अलग विचार होते हैं, उनमें एकरूपता उत्पन्न करना कोई हँसी-खेल नहीं है। 'नाज़' साहब ने इस बात को एक सच्ची हकीकत, जो रोज़ देखने में आती है, के माध्यम से व्यक्त किया है

सबको साथ में लेकर चलना कितना मुश्किल है ऐ 'नाज़' 

एक कदम आगे रखता हूँ, इक पीछे रह जाता है

दुनिया में यह भी देखा गया है कि किसी भी व्यक्ति का अहंकार नहीं रहा है। जो अपनी औकात से बढ़ता है, उसे भी उसके किये की सज़ा मिलती जरूर है। इस बात को जिस उदाहरण द्वारा कवि कृष्ण कुमार ने समझाया है, वह काबिले तारीफ़ है

अपनी औकात से बढ़ने की सज़ा पाती है 

धूल उड़ती है तो धरती पे ही आ जाती है

सामान्यतः यह भी देखा जाता है कि जब हमें किसी विशेष स्थिति या बात की आवश्यकता होती है, तब ही जिससे हमें कुछ प्राप्त करना होता है, उसके नखरे बढ़ जाते हैं। मनुष्य की इस प्रवृत्ति को कवि ने विभिन्न संदर्भों एवं आयामों से जोड़कर इस प्रकार व्यक्त किया है 

नहाते रेत में चिड़ियों को जब देखा तो ये जाना

ज़रूरत हो तो नखरे और भी बादल के होते हैं

व्यक्ति तरह-तरह के बहाने बनाकर अपनी कमजोरियों और अपने अभावों को छिपाता है। सच बात तो यह है कि यदि हममें हौसला होता है तो 'थकन' आदि कुछ भी अपना अस्तित्व नहीं रख पाती हैं। जब हम हौसला हार जाते हैं, तब ही सारी चीजें मुसीबतें बनकर सामने खड़ी हो जाती हैं

थकन तो 'नाज़' है केवल बहाना

हमारे हौसले ही में कमी है

कृष्ण कुमार 'नाज' की गजलें सामाजिक सरोकार की ग़ज़लें हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि उनकी गजलों में सौंदर्य और प्रेम का अहसास नहीं है। सच तो यह है कि अहसास के स्तर पर भी एक गहन आलोक छोड़ जाती हैं। इसी रंग के दो शेर देखें

काग़ज़ के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए

 लिपटी हुई है एक महक फूलदान से

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है साथ अपना कई जनमों पुराना 

तू कागज़ है, मैं तेरा हाशिया हूँ

इस प्रकार आज के ग़ज़लकारों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले एक सलीके के गजलकार श्री कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें जहाँ एक ओर अपने युग का चित्रण हैं, वहीं उसके रंग और रूप कुछ ऐसा संकेत भी देते चलते हैं, जो युग को केवल चित्र ही नहीं बने रहने देते, वरन् मानवतावादी दृष्टि, संवेदना और शाश्वत मूल्यों की रक्षा के संकल्प की प्रतिबद्धता को भी रेखांकित करते हैं। कृष्ण कुमार 'नाज़' की ग़ज़लें एक ओर भाषा की सरलता एवं 'कहन' की सहजता से सुसज्जित हैं, तो दूसरी ओर अपने गूढ़ार्थों को कुछ इस प्रकार छिपाये रखती हैं कि वे स्पष्ट भी होते चलते हैं। यदि वे एक ओर संवेदना की धरती की गंध से आवेशित हैं, तो दूसरी ओर उनमें जागरूक विचारों का गौरवशाली स्पर्श भी है। यदि वे एक ओर बंद आँखों से देखा गया 'आलोक' हैं, तो दूसरी ओर खुली आँखों से देखा हुआ वह 'आलेख' भी, जो आम आदमी के मस्तक की रेखाओं से झाँकता है। उनकी गज़लें वह मानसरोवर हैं, जिसमें मुक्त विचारों के हंस तैरते हैं, वह नदी हैं जिसमें भावनाएँ बहती हैं, वह सागर हैं जिसका ज्वार अनेक समस्याओं के जहाज़ों को पार लगाने का साधन बन सकता है।




✍️ डा. कुँअर बेचैन 




मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार मनोज मानव के चौदह बाल गीत । विशिष्ट शैली में लिखे गए इन शिक्षाप्रद गीतों का मुखड़ा एक ही है....जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया। छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।।


 1... नित्य नहाना


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


सुबह-सवेरे नित्य नहाओ, दादा जी मुझको समझाते।

जिस दिन नहीं नहाता हूँ मैं , मुझे बुलाकर डाँट लगाते।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

चुस्त-दुरुस्त सदा रहते वे, जो बच्चे नित सुबह नहाते।

क्या-क्या लाभ नहाने के नित, पापा ने मुझको समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


नित्य नहाकर मानव तन-मन, फुर्ती और ताजगी पाता।

बदन फूल सा खिल जाता है, आलस दूर सभी हो जाता।

नित्य नहाने से मानव को, फंगस रोग नही लगता है,

बैक्टीरिया त्वचा को कोई, हानि कभी नहीं पहुंचाता।

सुबह समय पर नित्य नहाना, शास्त्रों ने भी श्रेष्ठ बताया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


रोगों से लड़ने की क्षमता, बढ़ जाती है मानव तन की।

बदन निरोगी स्वयं हमारी, उम्र बढ़ा देता जीवन की।

बदबू दूर पसीने की हो, बदन महकता रहता दिन भर।

रहता निज मस्तिष्क स्वस्थ है, चमक बनी रहती आनन की।

नित्य नहाने की आदत से, रोगरहित रहती हैं काया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया


2..... पौधारोपण 


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


वर्षों से दादा जी सबका, जन्म-दिवस इस तरह मनाते।

जिसका जन्म-दिवस हो उससे , पौधारोपण एक कराते।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

दादा को है प्रेम प्रकृति से, इसीलिए पौधे लगवाते।

पेड़ लगाना क्यों आवश्यक, पापा ने मुझको समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


केनवास पर पेड़ प्रकृति के, भव्य मनोरम रँग भरते हैं।

ध्यान प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन का भी रखते हैं।

कार्बन-डाई-ऑक्साइड के, विष को पीकर पेड़ धरा पर,

प्राणवायु का उत्सर्जन कर , जीवन की रक्षा करते हैं।

वास और भोजन के सँग-सँग, देते हैं आँचल की छाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


कई तरह की जड़ी-बूटियां, पेड़ और पौधों से पाते।

तापमान बढ़ने से भू का , भू पर केवल पेड़ बचाते।

पेड़ों के बिन नहीं धरा की, सम्भव पर्यावरण सुरक्षा,

रहे सुरक्षित भू पर जीवन, इसीलिए हम पेड़ लगाते।

जिसने पेड़ लगाया उसने, धरती माँ का कर्ज चुकाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


3..... धूप में बैठकर शरीर की मालिश


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


छुट्टी के दिन मुझे धूप में , दादा छत पर लेकर जाते।

गर्म तेल से मेरी मालिश , करते अपनी भी करवाते।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

ऐसे सूरज की किरणों से, मुफ्त विटामिन-डी  हम पाते।

लाभ विटामिन-डी के क्या-क्या, पापा ने मुझको समझाया,

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


अल्ट्रा-वायलेट किरणें जब, सूरज की तन पर हैं पड़ती।

त्वचा हमारी स्वयं विटामिन, डी किरणों से निर्मित करती।

गर्म तेल की मालिश से सब, रन्ध्र त्वचा के खुल जाते हैं,

तब निर्माण विटामिन करने,की गति बहुत अधिक जा बढ़ती।

इसी विटामिन-डी से बनती, हम सबकी बलशाली काया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


यही विटामिन-डी भोजन को, अच्छे से हैं नित्य पचाता।

तन में यही पचा कैल्शियम, हड्डी को मजबूत बनाता।

सँग में गर्म तेल तन के सब ,जोड़ों को देता नव ताकत,

भव्य निखार त्वचा को देकर , मानव तन का ओज बढाता।

जिसने भी इसको अपनाया, लाभ उसी ने इसका पाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


4..... खाने से पहले हाथ धोना


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


नित खाना खाने से पहले, मम्मी मेरे हाथ धुलाती।

बिना हाथ अच्छे से धोये , मेरा खाना नहीं लगाती।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

धुलवाकर वह हाथ तुम्हारे, बीमारी से तुम्हें बचाती।

धोने क्यों है हाथ जरूरी, पापा ने मुझको समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


गन्दे हाथों के कारण ही , होते तन में रोग अधिकतर।

छिपे हुए कीटाणु हजारों , रहते हैं गन्दे हाथों पर।

बिना हाथ धोये जब बच्चे,अपने भोजन को खाते हैं,

भोजन के ही साथ सभी ये, चले पेट में जाते अंदर।

जिसके अंदर चले गये ये, उसको ही बीमार बनाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


पग-पग पर कीटाणु सक्रिय, वैज्ञानिक हमको बतलाते।

जब हम किसी सतह को छूते,तब ये चिपक हाथ पर जाते।

हम जब साबुन से हाथों को , अच्छे से धोते है  तो ये,

हुए वार को सहन स्वयं पर , ज्यादा देर नहीं कर पाते।

धोकर हाथ करे जो भोजन , रहे निरोगी उसकी काया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


5........ बड़ों के पैर छूना


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


चरण स्पर्श करना दादा जी, उत्तम अभिवादन बतलाते।

घर पर आते सभी बड़े जब, मुझसे उनके पैर छुआते।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

झुककर पैर बड़ों के छूकर, हम उनसे ऊर्जा है पाते।

झुककर पैरों को छूने का , वैज्ञानिक कारण समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


छूते पैर बड़ों के जब हम, दादा , चाचा या हो ताया।

दाया हाथ पैर को बायें, बाया हाथ छुएगा दाया।

ऐसा जब होता है उस क्षण, चक्र एक विद्युतीय बनता,

जिससे सदा बड़ों की ऊर्जा , को छोटों ने उनसे पाया।

आशीर्वाद साथ में मिलता, जाता नहीं कभी जो जाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


ज्ञान बड़ों से कुछ पाने को, हमें उन्हें सुनना पड़ता है।

कुछ पाने के लिए सभी को, कुछ श्रम तो करना पड़ता है।

आशीर्वाद नाम की पूँजी , पाने को दुनिया मे बेटा,

ऊँचे से ऊँचे मस्तक को, नीचे तो झुकना पड़ता है।

बिना झुके इस सकल जगत में, आशीर्वाद कौन जन पाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


6....... भोर में जगना 


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


दादा-दादी जल्दी सोते, और सुबह जल्दी जग जाते।

हम यदि सुबह देर से जगते  , हमें बुलाकर डाँट लगाते।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

रोज सुबह जल्दी जग जाना, शास्त्र हमारे श्रेष्ठ बताते।

फिर पापा ने इससे होते, क्या-क्या लाभ मुझे समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


नित्य भोर में जग जाने से, हमें अधिक ऊर्जा मिलती है।

दूर हमारा आलस कर जो, दिन भर चुस्त-दुरुस्त रखती है।

दिन भर बढ़ा प्रदूषण सारा , वृक्ष सोख लेते हैं मिलकर,

वातावरण शुद्ध होता है, प्राण वायु उत्तम बहती है।

इसीलिए तो समय भोर का , जगने को उत्तम कहलाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


सुबह-सुबह धरती माता का, भरा खुशी से रहता आँचल।

नित्य भोर में ईश- वन्दना, का मिलता है श्रेष्ठ सदा फल

सुबह-सुबह पढ़ने से बेटा, पाठ याद अच्छे से होता,

किया सुबह व्यायाम बहुत ही, तन को देता है उत्तम बल।

जो जगता है नित्य भोर में, रोगमुक्त तन उसने पाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया


7...... सूर्य नमस्कार


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


सुबह- सुबह नित मेरे दादा , अजब-गजब आसन करते हैं।

उठकर झुककर कमर धनुष कर, दण्डवत करते रहते हैं।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

नमस्कार कर नित सूरज को , स्वस्थ स्वयं को वे रखते हैं।

नमस्कार सूरज को कैसे, करते हैं मुझको समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


पहले करे प्रणाम खड़े हो , फिर करते हस्त उत्तानासन।

उसके बाद पाद हस्तासन, करके करे अश्व संचालन।

अगली मुद्रा पर्वत आसन, बाद किया जाता दण्डासन।

फिर अष्टांग,भुजंगासन कर, आधा पूर्ण करे यह आसन।

फिर इन सबको उल्टे क्रम में, वापिस जाता हैं दोहराया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


बारह मुद्रिक इस आसन से , पूरे तन को लाभ पहुंचता।

सदा निरोगी रहता है वह , जो नित इस आसन को करता।

योगशास्त्र अनुसार इसी को ,सर्वश्रेष्ठ आसन कहते हैं,

बना लचीला मानव का तन , तन के सब कष्टों को हरता।

अस्सी साल उम्र दादा की, फिर भी रोगमुक्त है काया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


8...... गुरु जी ने मुर्गा बनाया


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


आज परीक्षा लेकर गुरु ने , बच्चों को यह दंड सुनाया।

जिनके उत्तर सही नहीं थे , उन सबको मुर्गा बनवाया।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

सजा रूप में भी गुरुवर ने , योगासन अभ्यास कराया।

कितने अधिक लाभ होते हैं, मुर्गा आसन के बतलाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


योग-शास्त्र में मुर्गा आसन, समझो कैसे हम हैं करते।

झुककर टाँगों के नीचे से , हाथों से निज कान पकड़ते।

जितना ऊपर उठा सके फिर, ऊपर कमर उठा देते हैं,

साँस रोककर तनिक देर तक , इसी अवस्था में हैं रहते।

जिसने भी यह किया नियम से, उसने इसका लाभ उठाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


मुर्गा आसन को करने से , बढ़ संचार रक्त का जाता।

बढ़ा रोशनी ये आंखों की , लाभ सभी को है पहुंचाता।

पाठ याद करने की क्षमता , बहुत अधिक बढ़ जाती इससे,

इसीलिए तो सजा रूप में , सब गुरुओं को ये है भाता।

सबक शिष्य जो लिया सजा से, वही सफलता को छू पाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


9......पक्षियों को दाना-पानी


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


दादा जी नित छत पर जाकर, दाना-पानी रखकर आते।

आस-पास के पक्षी सारे , कलरव कर छत पर आ जाते।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

ऐसा कर तेरे दादा जी , मानवता का फर्ज निभाते।

इसके पीछे छिपे भेद को, पापा ने मुझको समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


बेटा ऐसा नित करने से, घर में क्लेश नहीं हो पाते।

शास्त्र हमारे कहते इससे , सब ग्रह दोष दूर हो जाते।

वैज्ञानिक भी यह कहते हैं, मित्र हमारे होते पक्षी,

चुन-चुन कीट पतंगे खाकर, बीमारी से हमें बचाते।

सारे सुख उस आँगन बसते, जिसे पक्षियों ने चहकाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


रंग-बिरंगे पक्षी बेटा, हर मानव के मन को भाते।

जितना हमसे पाते पक्षी, उससे अधिक हमें दे जाते।

फल खाने पर बीज फलों के,पक्षी पचा नहीं पाते हैं,

पक्षी की बीटों से भू पर , नये-नये पौधे उग आते।

जिसने दाना-पानी डाला, उस मानव ने पुण्य कमाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


10...... गाय और कुत्ते की रोटी


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


मम्मी लगी सेंकने रोटी, पहली रोटी अलग निकाली।

उसके बाद लगायी माँ ने, दादा-दादी जी की थाली।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

पहली रोटी गौ माता की, अंतिम रोटी कुत्ते वाली।

दोनों जीवों की महिमा को, पापा ने मुझको समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


इस धरती पर मात्र गाय ही , पालनहार पूर्ण कहलाती।

दूध पूर्ण भोजन है इसका, इसीलिए कहलाती दाती।

वफादार कुत्ते के जितना, नहीं जीव कोई धरती पर,

कुत्ते को रोटी डाले जो,उसको अकाल मौत  न आती।

नहीं फटकता इनके रहते, किसी दुष्ट आत्मा का साया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


ईश्वर इन पशुओं को भू पर, हम मानव के मित्र बनाये।

इन सबके पालन पोषण के , उर मानव के भाव जगाये।

मुफ्त नहीं लेते ये सेवा , उसका फल हमको देते हैं,

कदम-कदम पर साथ हमारे , नजर हमेशा ये सब आये।

इनकी सेवा की जिसने भी , वह सच्चा मानव कहलाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


11...... बुजुर्गों के पैर दबाना


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


सभी काम निपटाकर मम्मी, नित दादी के पैर दबाती।

कभी एक तो कभी दूसरी, पकड़ पिंडली जोर लगाती।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

ऐसा करने से दादी को, नींद बहुत अच्छे से आती।

पैर दबाने का पाचन से, रिश्ता पापा ने समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


नसें पिंडली में जो होती, उनका आंतों से हैं नाता।

पैर दबाने से खाने का , पाचन अच्छे से हो जाता।

पैर दबाने से दादी की , दूर थकान सभी हो जाती।

दौर रक्त का बढ़ जाता है , जो तन-मन को बहुत लुभाता।

बड़े और बूढ़ों की सेवा, करना पापा ने सिखलाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


पापा बोले सुन लो बेटा, तुम भी अपना फर्ज निभाओ।

अच्छे से तुम दादा जी के, जाकर दोनों पैर दबाओ।

बड़े बुजर्गों की सेवा का, फल ईश्वर देता है सबको,

जब भी मौका मिले बुजुर्गों, का आशीष सदा तुम पाओ।

जीवन सफल उसी का जिसने, आशीर्वाद बड़ों का पाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


12........ दूध बिलोना


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


मम्मी दूध बिलोने बैठी, लगा बिलोनी हांडी ऊपर।

बारी-बारी उल्टे-सीधे, लगी घुमाने उसके चक्कर।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

इससे ही मक्खन निकलेगा, जो है छिपा दूध के अंदर।

बड़े प्यार से पापा ने फिर, मंथन का मतलब समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


द्रव्य स्वयं में अपने अंदर, रखता अवयव कई समाये।

मथने से अंदर के अवयव, निकल सतह पर ऊपर आये।

सतयुग में सागर के अंदर, रत्नों का भंडार छिपा था,

बृह्मा जी देवों से कहकर, सागर का मंथन करवाये।

सागर मंथन कर देवों ने, अपने लिए अमृत था पाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


सुन बेटा ईश्वर धरती पर, दूध मनुज के लिये बनाये।

चतुराई से अमिय रूप में, उसमें मक्खन दिये छिपाये।

सागर मंथन से शिक्षा ले, मथने लगा दूध को मानव,

जिससे निकला मक्खन खाकर, बच्चे उन्नत ताकत पाये।

मक्खन खाने से बच्चों की, बनती हैं ताकतवर काया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


13.... आटा गूंथती माँ


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


मम्मी गूँथ रही थी आटा , मैंने थोड़ा ध्यान लगाया।

बार-बार माँ ने आटे में, थोड़ा-थोड़ा नीर मिलाया।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

नीर अधिक हो गया अगर तो, आटा हो जायेगा जाया।

और तभी अनुपात विषय के, बारे में मुझको समझाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


पटक-पटक मम्मी ने आटा, उस पर गुस्सा खूब उतारा।

लगी मारने घूसे उसको, और कभी चांटा जा मारा।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

बोले बेटा तेरी माँ के, पास ज्ञान का भरा पिटारा।

ऐसा कर उसने आटे की, लोच बढा वह नरम बनाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


रिश्ते-नाते सुख देते जो, और कहाँ सुख मिलता वैसा।

रिश्तों में अनुपात चाहिए, आटे और नीर के जैसा।

जैसे सही लोच आने पर, रोटी अच्छी बनती वैसे,

मात्र लोच पर निर्भर नर का , नर से रिश्ता होगा कैसा।

सफल जिंदगी उसकी जो जन,  पग-पग खुद में लोच बढाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया



14... दाल पकाई मां ने


जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

छोटे बड़े सभी कर्मों में , छिपे ज्ञान का सार बताया।


चूल्हें चढा दाल मम्मी ने, धीरे-धीरे ताप बढाया।

बड़ी समझदारी से उसमे ,आया सारा झाग हटाया।

इसका कारण जब पूछा तो, पापा ने समझाया मुझको,

साथ गुणों के विष आ जाता, ऐसा कर विष मुक्त बनाया।पकते-पकते दाल पिता ने , इसका भेद मुझे बतलाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


झाग मुक्त जब हुई दाल तो, रंग निखर कर उसका आया।

दाल सही से पक जाने पर, माँ ने उसमें छौंक लगाया।

इसका कारण जब पूछा तो , पापा ने समझाया मुझको,

छौंक लगाया उसने तब ही, जब तैयार दाल को पाया।

डले मसालों की खुशबू ने , दाने-दाने को महकाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।


बापू बोले सुनो गुणों के, अवगुण साथ चला करते हैं।

ज्ञानी लोग तपस्या के बल, दूर जिन्हें करते रहते हैं।

अपने लिए श्रेष्ठ पोष्टिक, छाँट मसालों को जीवन में,

छौंक ज्ञान का लगा स्वयं में, जीवन में आगे बढ़ते हैं।

जीवन सफल उसी का जिसने, जीवन को विष-मुक्त बनाया।

जब भी मौका मिला पिता ने, एक नया तब पाठ पढ़ाया।

✍️ मनोज मानव 

पी 3/8 मध्य गंगा कॉलोनी

बिजनौर  246701

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर  9837252598


शनिवार, 24 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की कविता ....आयत


एक आयत है

दूसरा वर्ग है

दोनों में

सूक्ष्म सा फर्क है

आयत

कोई भेदभाव

नहीं करता है

छोटे और बड़ों को

आपस में मिला कर

रखता है

वर्ग में एकरूपता है

वह

एक जैसे व्यक्तित्वों का

प्रतिनिधित्व करता है

काश, हमारा देश 

एक आयत बन जाए

जिसमे छोटा बड़ा

हर तरह का वर्ग हो

आपस में ऐसा

सद्भाव और भाईचारा हो

जिस पर

सब को गर्व हो


✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेजीडेंसी

मुरादाबाद 244001 

उत्तर प्रदेश, भारत

M 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह 'ओंकार' की गजल ......भ्रष्ट आचरण से लोग जो दौलत कमा रहे, भुगतेंगे वे ज़रूर ही अंजाम देखिए .....


जिसने समाज का न किया काम देखिए।

सेवा का वो ही पा रहा इनआम देखिए ।।


मेहनतकशों के हाथ लगीं रूखी रोटियां,

पर कामचोर खाते हैं बादाम देखिए ।।


भ्रष्ट आचरण से लोग जो दौलत कमा रहे,

भुगतेंगे वे ज़रूर ही अंजाम देखिए ।।


ठहरी हुई पगार है, ये सोचिए मगर,

चीजों के चढ़ गए हैं बहुत दाम देखिए।।


माना अकेले आप बहुत दिन चले मगर ,

चलकर हमारे साथ भी दो गाम देखिए।।


साक़ी ने मय पिलाई हर-इक रिंद को मगर, 

मुझको न फिर भी उसने दिया जाम देखिए।।


'ओंकार' भाग-दौड़ में गुज़री है ज़िन्दगी ,

क्या मिल सकेगा मुझको भी आराम देखिए ।।


✍️ ओंकार सिंह 'ओंकार' 

1- बी-241 बुद्धि विहार, मझोला,

 मुरादाबाद 244103

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिव अवतार रस्तोगी 'सरस' की काव्य कृति 'अभिनव मधुशाला' । इस कृति का तृतीय परिवर्धित संस्करण वर्ष 2013 में पुनीत प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ । इस कृति की भूमिका आचार्य राजेश्वर प्रसाद गहोई ने लिखी है।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति 

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 ::::::::::प्रस्तुति:::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी 

8, जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नंबर 9456687822



गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के साहित्यकारों जितेंद्र कमल आनंद रामपुर, राम किशोर वर्मा रामपुर, अनमोल रागिनी चुनमुन रामपुर,प्रीति चौधरी अमरोहा, डॉ रीता सिंह मुरादाबाद, रवि प्रकाश रामपुर, कृष्ण कुमार पाठक बिजनौर, राजवीर सिंह राज रामपुर, सुरेश अधीर रामपुर, इंदु रानी अमरोहा और राजीव प्रखर मुरादाबाद के दोहे । ये प्रकाशित हुए हैं रामपुर से जितेंद्र कमल आनंद के संपादन में प्रकाशित मासिक ई पत्रिका अखिल भारतीय काव्य धारा के नवम्बर दिसम्बर 2022 के संयुक्त अंक में ....















मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल की काव्य कृति "ज़िन्दगी एक गड्डी है ताश की" की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा- ‘आत्मसत्य और बेचैनी को शब्दांकित करती कविताएं’

मुरादाबाद इन अर्थों में विशेष रूप से सौभाग्यशाली रहा है कि यहाँ जन्में अथवा रहे हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं के अनेक रचनाकारों ने अपने कृतित्व से न केवल राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य को समृद्ध किया वरन मुरादाबाद की प्रतिष्ठा को भी समृद्ध किया है। साहित्य की समृद्धि और प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि का यह क्रम आज भी अनवरत रूप से प्रवाहमान है। डाॅ. आर.सी.शुक्ल मुरादाबाद के वर्तमान समय के वरिष्ठ और महत्वपूर्ण रचनाकारों में शुमार ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने हिन्दी व अंग्रेज़ी में समान रूप से उल्लेखनीय सृजन किया है। उनकी अंग्रेज़ी में 10 पुस्तकें तथा हिन्दी में 6 पुस्तकें  प्रकाशित हो चुकी हैं। 

   हिन्दी के विख्यात कवि डा. शोभनाथ शुक्ल ने कहा है कि ‘कविता तो जीवन की व्याख्या है, विसंगतियों एवं जटिल-कुटिल परिस्थितियों में जीवन जीने की कला और संवेदना का लवालब संसार होती है कविता। मानव के लघुतर होते जाते कलेवर का पुनः सृजन करती है और सूखते जाते रिश्तों के तट पर फिर से लहरों की छुवन को महसूस कराती है’। हिन्दी के वरिष्ठ कवि डाॅ. आर.सी.शुक्ल की सद्यः प्रकाशित काव्यकृति ‘ज़िन्दगी एक गड्डी है ताश की’ की रचनाओं से गुजरते हुए भी यही महसूस होता है कि उनके सृजन लोक में जीवन-जगत से जुड़ा और जीवन-जगत से परे का हर छोटा-बड़ा परिदृश्य यहाँ-वहाँ चहलकदमी करता हुआ दिखाई देता है। संग्रह की शीर्षक रचना में शुक्ल जी संकेत में गहरी बात कहते हैं- 

हमारी ज़िन्दगी की सूरत

इस बात पर निर्भर करती है कि

हमारा राजा कैसा है

सूरज अगर बेईमान हो जाय

तो खेतों में खड़ी फसलें तो

बर्बाद हो ही जायेंगी

पुरुषों और स्त्रियों के जिस्मों में भी

लग जायेगी फफूँद

इस संग्रह से पहले शुक्लजी की दो लम्बी कविता की कृतियाँ ‘मृगनयनी से मृगछाला’ और ‘मैं बैरागी नहीं’ आयी हैं जो दर्शन की पगडंडियों पर दैहिक प्रेमानुभूतियों और परालौकिक आस्था के बीच की उस दिव्ययात्रा की साक्षी हैं जिसे कवि ने अपने कल्पनालोक में बैराग्य के क्षितिज तक जाकर जिया है। लगभग ऐसे ही बैराग्य के दर्शन शुक्लजी की इस काव्य-कृति में भी होते हैं लेकिन अलग तरह से-

भवन कितना भी ऊँचा क्यूँ न हो

पर्वत नहीं हो सकता

सिर्फ़ ऊँचाई ही नहीं

पर्वत में गहराई भी होती है

भवन विक्षिप्त रहता है शहर के शोर-शराबे से

पर्वत शान्त होता है किसी ऋषि की तरह

भवन आवास होता है सांसारिक लोगों का

पर्वत पर देवता भी आते हैं

पर्वत बहुत प्रिय है बर्फ़ को

जो प्रतीक है तपस्या की

ओशो की दार्शनिक विचारधारा से भीतर तक प्रभावित शुक्लजी की जीवन-जगत को देखने की दृष्टि भी बिल्कुल अलग है। पुस्तक में संग्रहीत अनेक रचनाएं जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपने अलग अंदाज़ में अभिव्यक्त करती हैं। शुक्लजी ‘मनुष्य का जीवन’ शीर्षक से कविता में कहते हैं-

मनुष्य का जीवन

एक मैदान है रेत का

जिस पर आकांक्षाओं के ऊँट

चलते रहते हैं निरंतर

यह मनुष्य ज़िद्दी तो है ही

अज्ञानी भी है

इस मैदान को

हरा-भरा करने के लिए

वह जीवन-भर लगाता रहता है

पौधे मोह के

जो मुरझाकर गिर जाते हैं

कुछ ही समय पश्चात

अनेक विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से मृत्यु को परिभाषित और व्याख्यायित किया है। मृत्यु के संदर्भ में अनेक लेखकों के साथ-साथ अनेक कवियों ने भी अपनी कविताओं में अपने भावों और विचारों को महत्वपूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया है, किन्तु मुझे लगता है कि शुक्लजी ने अपने कल्पना-लोक में मृत्यु को अपेक्षाकृत अधिक और भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से सोचा है, उसे अनुभूत किया है। परिणामतः उनकी लेखनी से मृत्यु को केन्द्र में अनेक रचनाएं प्रस्फुटित हुई हैं जिनका एक अलग संग्रह ‘मृत्यु के ही सत्य का बस अर्थ है’ शीर्षक से आया है। मृत्यु पर केन्द्रित उनकी एक कविता देखिए जिसमें वह अपने मन का पूर्ण बैराग्य अभिव्यक्त कर रहे हैं-

मृत्यु

किसी दूसरे ग्रह से नहीं आती है

हमें लेने के लिए

वह सदैव मौजूद रहती है

इसी भौतिक जगत में

मृत्यु एक भयप्रद तस्वीर है उस वृक्ष की

जो निर्जीव हो जाता है

उस चिड़िया के उड़ने के पश्चात

जिसने एक लम्बे समय तक बनाए रखा था

उसे अपना आवास

अलवर के कवि विनय मिश्र ने कहा है कि ‘कविता कवि की आत्मा का चित्र है।’ वरेण्य रचनाकार डाॅ. आर.सी.शुक्ल की कविताएं भी उनकी आत्मा के ही शब्दचित्र हैं जिसमें उन्होंने अपनी भावभूमि पर अपने आत्मसत्य और बेचैनी को ही शब्दांकित कर चित्रित किया है। शुक्लजी की अन्य कृतियों की भाँति यह महत्वपूर्ण कृति भी साहित्य-जगत में अपार सराहना पायेगी, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी।



कृति
- ‘ज़िन्दगी एक गड्डी है ताश की’ (कविता-संग्रह)

रचनाकार - डाॅ. आर.सी.शुक्ल

प्रकाशन वर्ष - 2022

प्रकाशक - प्रकाश बुक डिपो, बरेली-243003

मूल्य650 ₹ (पेपर बैक)

समीक्षकयोगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981

बुधवार, 21 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना की कविता ...... उठो देवगण

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मुरादाबाद की साहित्यकार रश्मि प्रभाकर का गीत ......एक नौकरी की खातिर अपनों का साथ गंवाया है...

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मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी) प्रदीप गुप्ता के सम्मान में कोचिंग संस्थान स्कॉलर्स डेन में 18 दिसंबर 2022 को साहित्यिक मिलन का आयोजन

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी)  प्रदीप गुप्ता के सम्मान में रविवार 18 दिसंबर 2022 को साहित्यिक मिलन का आयोजन किया गया। आयोजन में उपस्थित साहित्यकारों ने मुरादाबाद के साहित्यिक परिदृश्य पर चर्चा के साथ- साथ काव्य पाठ भी किया। 

   कांठ रोड स्थित कोचिंग संस्थान स्कॉलर्स डेन में   प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी के संरक्षण में आयोजित कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने किया । काव्य पाठ करते हुए माहेश्वर तिवारी ने कहा-- 

साथ-साथ बढ़ता है 

उम्र के

अकेलापन

फ्रेमों में मढ़ता है 

उम्र के

अकेलापन

    प्रदीप गुप्ता का कहना था-- 

किनारे बैठ कर देख लिया बहुत हमने

मौज के साथ तनिक बह के भी देखा जाए 

हास्य व्यंग्य के वरिष्ठ रचनाकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा-- 

चोरी की कविताओं की 

हाय-हाय को लेकर

सवाल यह पैदा होकर सामने आया है

किसने किसका माल चुराया है

वरिष्ठ रचनाकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा -- 

द्वेष घृणा मिट सके दिलों से कुछ ऐसे अश्आर लिखो मानवता दम तोड़ रही है कुछ इसका उपचार लिखो    

    चर्चित नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम का कहना था --- 

रामचरितमानस जैसा हो

घर आनंद का अर्थ

मात-पिता पति पत्नी भाई 

गुरु शिष्य संबंध

पनपें बनकर अपनेपन के

अभिनव ललित निबंध 

     वरिष्ठ बाल साहित्यकार राजीव सक्सेना ने कहा ....

प्राचीर के पीछे

सूरज निकल तो रहा है

पत्थरों के भीतर

कुछ पिघल तो रहा है

स्पंदन धीमे ही सही

जीवन चल तो रहा है

अंधेरा घना ही सही

दीपक जल तो रहा है

 मैं यूं ही डरा जा रहा हूं 

     युवा शायर ज़िया जमीर का कहना था... 

हकीकत था मगर अब तो फसाना हो गया है 

उसे देखे हुए कितना जमाना हो गया है  

युवा कवि मयंक शर्मा

मन ले चल अपने गांव यह शहर हुआ बेगाना

दुख का क्या है दुख से अपना पहले का याराना

      राजीव  प्रखर ने दोहे प्रस्तुत करते हुए कहा ....

अब इतराना छोड़ दे, ओ निष्ठुर अंधियार

 झिलमिल दीपक फिर गया, तेरी मूंछ उतार  

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने नवगीत प्रस्तुत करते हुए कहा... 

उसके दम से मां की बिंदी, 

बिछिया कंगना हार 

नहीं पिता के हिस्से आया 

कभी कोई इतवार 

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा ... 

सुंदरता नैसर्गिक हो सकती है

किंतु उसका स्थायित्व 

तुम्हें अर्जित करना पड़ता है 

फूल यूं ही फूल नहीं होता

उसे हर पल 

फूल रहना पड़ता है 

     डॉ मनोज रस्तोगी ने  कविता 'नई सदी की ओर' के माध्यम से युवा पीढ़ी के अपनी परंपराओं से विमुख होने पर चिंता व्यक्त की....

भेड़ियों के मुहल्ले में 

गूंजते हैं 

रात को स्वर 

आदमी आया ,आदमी आया 

 रंगकर्मी धन सिंह धनेंद्र ने मुरादाबाद के रंगमंच पर चर्चा की वहीं डॉ स्वीटी तलवार ने प्रदीप गुप्ता की कविता का पाठ किया ।अनिल कांत बंसल ने मुरादाबाद की साहित्यिक विरासत पर चर्चा की । आभार डॉ मनोज रस्तोगी ने व्यक्त किया ।