रविवार, 23 अप्रैल 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह 'ओंकार' का गीत..... मन- मोहक सुख देने वाली, होती धरती की हरियाली।


मन- मोहक सुख देने वाली, होती धरती की हरियाली।

जो दुनिया के हर प्राणी के, जीवन की करती रखवाली। ।


ये हरी क्यारियां, घास हरी, इठलाती- बलखाती ऐसे,

मदमस्त हवा के झोंकों से, लहराता हो आँचल जैसे,

खुशबू से तर करती सबको, भर-भर देती मधु की प्याली। 


जब पेड़ो पर बैठे पंछी ,मीठी लय में सब गाते हैं,

तो फूलों से लिपटे भौंरे , उनसे सुर-ताल मिलाते हैं,

यह दृश्य देखकर आंखें भी, होती जाती हैं मतवाली।।


मीठे फल लगते पेड़ों पर, जो भूख मिटाते जन-जन की,

रोगों को दूर भगाते हैं, हरते पीड़ाएँ तन-मन की,

सेवा में तत्पर रहते हैं ,  पत्ते- पत्ते, डाली-डाली।।


हरियाली कारण वर्षा का ,जलवायु विशुध्द बनाती है , 

हर जीव-जंतु को धरती के , माता बनकर सहलाती है ,

सिंचित करती रस से जीवन , बनकर माली यह हरियाली।।


हितकामी जन इस जगती के, सब मिलकर चिंतन-मनन करें, 

हरियाली नष्ट न हो पाए , हम ऐसा कोई जतन करें ,

'ओंकार' तभी इस दुनिया में , सब ओर बढ़ेगी खुशहाली।।


✍️ओंकार सिंह 'ओंकार' 

1-बी-241 बुद्धि विहार, मझोला,

दिल्ली रोड, मुरादाबाद-  244103

 उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित नई दिल्ली की साहित्यकार डॉ कीर्ति काले का संस्मरणात्मक आलेख...... विद्वत्ता, विनम्रता एवं विचारशीलता का अद्भुत समन्वय थे डॉ कुंअर बेचैन ....


तुम ही भरी बहार से आगे निकल गए

तुम मेरे इन्तजार से आगे निकल गए

विद्वत्ता, विनम्रता एवं विचारशीलता का अद्भुत समन्वय थे डॉ कुंअर बेचैन जी। बहुत सारे लोग बहुत विद्वान होते हैं। विद्वत्ता का दर्प उन्हें विनम्र नहीं रहने देता और वे अहंकारी हो जाते हैं। कुछ विनम्र तो होते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश वे विद्वान नहीं होते। विरले ही होते हैं जो विद्वान और विनम्र दोनों एक साथ हों। विद्वान एवं विनम्र होने के साथ साथ व्यक्ति विचारशील भी रहे ऐसा तो दुर्लभ से भी दुर्लभतम है। गीत के शलाका पुरुष और ग़ज़ल के उस्ताद आदरणीय डॉ कुंअर बेचैन जी इसी तीसरी अति विशिष्ट श्रेणी में आते थे। अत्यन्त विद्वान,अति विनम्र एवं सतत् विचारशील।

     डॉ कुंअर बेचैन जी ऐसे चंद कवियों में से एक हैं जो कवि सम्मेलनों मे जितने सक्रिय एवं लोकप्रिय थे, प्रकाशन की दृष्टि से भी उतने ही प्रतिष्ठित थे। इनके साहित्य पर पन्द्रह से भी अधिक पी एच डी के शोधग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक गीत, नवगीत, ग़ज़ल, बाल कविता संग्रह, महाकाव्य, उपन्यास आपके प्रकाशित हो चुके हैं। आपने हिन्दी छन्दों के आधार पर ग़ज़ल का व्याकरण लिखा। यह डॉ कुंवर बेचैन जी की हिन्दी एवं उर्दू के नवोदित लेखकों के लिए महत्वपूर्ण देन है।

     मैंने जबसे कविता का कखगघ समझा तब से डॉ कुंअर बेचैन जी से परिचय है। कवि सम्मेलन जगत में आने के पश्चात हजारों यात्राएँ साथ में कीं। लाखों मंचों पर आपका सान्निध्य प्राप्त हुआ। देश विदेश में आपके साथ जाना हुआ।कवि सम्मेलनों से इतर भी सदा मार्गदर्शन और आशीर्वाद मिलता रहा। जब आपके न होने का दुखद समाचार मिला था तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ।आपके परम शिष्य चेतन आनन्द जी को फोन किया तो उनकेे हिचकियों भरे रुदन ने दुखद सूचना पर मुहर लगा दी।आप तो ठीक हो रहे थे न ! दो एक दिन में आपको अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी और अचानक !

बहुत सारे दृश्य आंखों के सामने उमड़ घुमड़ रहे हैं ।

दुबई यात्रा पर जब हम साथ गए थे तब वहां इंडियन स्कूल में कवि सम्मेलन था। कवि सम्मेलन के मंच पर जब सारे कवियों के साथ मैं और डॉ कुंअर बेचैन जी पहुंचे तब स्कूल की प्रिंसिपल साहिबा दौड़ कर हमारे पास आईं और उन्होंने सबके सामने डॉ कुंअर बेचैन जी के चरण स्पर्श किए और बोला आज हमारा अहोभाग्य है कि आप के चरण हमारे विद्यालय में पड़े। शायद आपको मालूम है या नहीं, आपकी कविताएं हमारे विद्यालय के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। कई बच्चे आप की कविताएं खूब मन से गाते हैं। इतना बड़ा व्यक्तित्व डॉ कुंअर बेचैन जी का और इतने सहज कि क्या कहूं।कोई भी अच्छा काम करने पर ₹10 इनाम  देते थे। मंच पर भी इतने सरल इतने सहज। 

  कभी किसी की निंदा करते हुए मैंने देखा ही नहीं डॉ कुंवर बेचैन जी को। सदा अपने से छोटों की और अपने से बड़ों की प्रशंसा ही करते थे। छोटों का मार्गदर्शन भी करते थे तो प्रोत्साहित करते हुए। उनकी गलतियां बताते थे तो वह भी ऐसे जिससे वह हतोत्साहित ना हों। 

    एक घटना का स्मरण और हो रहा है ।अभी कुछ दिनों पहले मैं प्रेरणा दर्पण साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के सिलसिले में उनसे बात कर रही थी ।बातचीत के दौरान डॉक्टर साहब ने बताया कि बहुत सारी चीजें उन्होंने शुरू कीं। जैसे पुस्तकें प्रकाशित कराईं तो पुस्तकों के प्रत्येक पृष्ठ पर कवि एवं प्रकाशक का उल्लेख अवश्य किया। इसके पीछे का कारण यह है कि पुस्तके तो कई सालों तक रहती हैं। कालांतर में पुस्तकों के पृष्ठ अलग-अलग हो जाते हैं। तब बिखरे हुए पृष्ठों पर प्रकाशित सामग्री के रचयिता कौन है इस बारे में पता करना कठिन हो जाता है । हम से पूर्व अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं  जिनके पृष्ठों पर कवि का नाम प्रकाशित नहीं था। इसलिए वे रचनाएं विवादास्पद रहीं। हमने बहुत विचार करने के बाद अपनी पुस्तकों के प्रत्येक पृष्ठ पर अपना नाम मुद्रित करवाया। कई लोगों ने इस बात का उपहास भी किया लेकिन बाद में इसी प्रक्रिया को उन्होंने भी अपनाया। मुझे याद आया कि जब मेरी पुस्तक  "हिरनीला मन" डॉ कुंअर बेचैन जी के मार्गदर्शन में प्रकाशित हुई थी तब उसके प्रत्येक पृष्ठ पर मेरा एवं प्रकाशक का नाम अंकित हुआ था। यह डॉ कुंअर बेचैन जी की दूरदर्शिता एवं विचार शीलता का एक उदाहरण है। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो डॉक्टर साहब की विचार शीलता को उद्घाटित करते हैं। 

    सन 2018 को भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से 6 कवि जिनमें कुंअर बेचैन जी एवं मैं भी सम्मिलित थे 15 दिन की इंग्लैंड काव्य यात्रा पर गए थे। वहां डॉक्टर साहब के इतने चाहने वाले श्रोता थे कि मत पूछिए ।प्रत्येक शहर में प्रत्येक कवि सम्मेलन के बाद बहुत बड़ी संख्या में श्रोता  कुंअर बेचैन जी को घेर कर खड़े हो जाते थे और उनके ऑटोग्राफ लेने लगते थे। डॉक्टर साहब इतने सरल इतने सहज कि आकाश की ऊंचाई पर होते हुए भी सदा हमारे साथ बड़ी विनम्रता से व्यवहार करते थे। हम उनसे मजाक भी कर लेते थे साथ में खूब कविताएं सुनते सुनाते थे । आज वे दिन बहुत याद आ रहे हैं ।

बहुत कम लोग जानते हैं कि कुंअर जी बहुत अच्छे चित्रकार भी थे।उनकी प्रकाशित अधिकांश पुस्तकों पर उनके द्वारा बनाए गए रेखा चित्र हैं।जब भी डॉ साहब अपनी पुस्तक किसी को भेंट करते थे तो प्रथम पृष्ठ पर शुभकामनाओं के साथ हस्ताक्षर करने से पहले बहुत सुन्दर चित्र बनाकर विशेष आशीर्वाद देते थे।

   एक बात और बताना चाहूंगी। डॉ कुंअर बेचैन जी को कोई भी लेखक, रचनाकार पुस्तक भेंट करता था तो डॉक्टर साहब उस पुस्तक की राशि लेखक को अवश्य देते थे ।वह ना लेना चाहे तब भी जबरदस्ती उसकी जेब में रख देते थे ।इसके पीछे बहुत ठोस कारण था। वे कहते थे कि आजकल कोई भी प्रकाशक बिना पैसे लिए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित नहीं करता। पुस्तक प्रकाशन में कितना परिश्रम एवं धन लगता है यह मैं भली-भांति जानता हूं। इसलिए किसी की भी पुस्तक मैं बिना मूल्य चुकाए नहीं लेता।और हाँ, मैं अपनी पुस्तक बिना मूल्य लिए देता भी नहीं हूं। मुझे याद आया जब डॉक्टर साहब ने अपना महाकाव्य "पांचाली" मुझे दिया तब अधिकार पूर्वक आदेशात्मक स्वर में मुझसे ₹500 मांगे यह कहते हुए की यह राशि मैं आपसे इसलिए ले रहा हूं जिससे आपको पुस्तकें खरीद कर पढ़ने का अभ्यास रहे।

पिछले पचास,पचपन वर्षों से डॉ कुंअर बेचैन जी हिन्दी कवि सम्मेलनों का इतिहास लिखने के लिए सामग्री एकत्रित कर रहे थे। प्रत्येक मंच पर वे कागज कलम लेकर मंच पर होने वाली हर गतिविधि को लिखते थे। जैसे शहर एवं स्थान का नाम, संयोजक, संचालक आयोजक एवं अध्यक्ष का नाम ,मंचासीन कवियों का नाम, किस कवि ने कौन सी कविता सुनाई उसकी प्रमुख पंक्तियां, कवि सम्मेलन में घटित होने वाली महत्वपूर्ण घटनाएं आदि आदि। पिछले 55 वर्षों से निरंतर लिखकर बहुत बड़ी संख्या में सामग्री एकत्रित कर ली थी डॉक्टर साहब ने ।अब समय था उस एकत्रित सामग्री पर मनन करके उसे ऐतिहासिक रूप देने का। लेकिन ईश्वर ने इतना अवकाश कुंवर जी को नहीं दिया। उनके लिखे इतने सारे पृष्ठ किसी न किसी फाइल में सुरक्षित होंगे। किसी न किसी डायरी में "कवि सम्मेलन का इतिहास" की रूपरेखा अंकित होगी। हमारा दायित्व है कि हम हमारी संपूर्ण सामर्थ्य के साथ डॉक्टर साहब के अधूरे कार्य को पूर्ण करें। ईश्वर हमें शक्ति दे कि हम यह कार्य कर पाएँ। 

   हॉस्पिटल में एडमिट होने के तीन-चार दिन पहले मैंने डॉ कुंवर बेचैन जी को फोन किया और उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली। दूरदर्शन द्वारा मेरे व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक कार्यक्रम बनाने की योजना थी जिसमें कुछ व्यक्तियों को मेरे बारे में बोलने के लिए कहा गया था ।जब मैंने यह बात डॉक्टर साहब को बताई तो वह बोले देखो न कीर्ति जी मेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि मैं आप पर बहुत कुछ बोलना चाहता हूं लेकिन आज मेरा स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। गला बहुत खराब हो गया है। मैं अभी आपसे बातें भी बहुत मुश्किल से कर पा रहा हूं। मैंने कहा कोई बात नहीं डॉ साहब आप ठीक हो जाइए उसके बाद  वीडियो बना दीजिएगा ।मैं दूरदर्शन वालों को बता देती हूं। अगले दिन फिर डॉक्टर साहब का फोन आया और वे भारी मन से क्षमा मांगते हुए कहने लगे की मेरा बुखार अभी तक नहीं उतरा है ।मैं और आपकी चाचीजी अब अस्पताल में भर्ती होने जा रहे हैं ।वापस आ गए तो सबसे पहला काम आपका ही  करूंगा ।देखो ना आज कहने को बहुत कुछ है लेकिन कह नहीं पा रहा ।इतना विवश, इतना असहाय मैंने स्वयं को कभी भी महसूस नहीं किया ।मैंने बोला नहीं डॉक्टर साहब ऐसा मत कहिए। आप बिल्कुल ठीक हो कर आएंगे। हम साथ में बैठकर गोष्ठी करेंगे फिर आप जी भर कर बोलिएगा। बस डॉ कुंवर बेचैन जी से यही अंतिम बातचीत थी मेरी। आज अत्यन्त द्रवित ह्रदय से मैं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रही हूं ।

    डॉक्टर साहब के  दुनिया भर में अनेक शिष्य हैं जिसने भी डॉ कुंअर बेचैन जी को सुना है अथवा पढ़ा है अथवा जो उनसे मिला है वो उनके आकर्षण से बच नहीं सका है। 

आपकी अनेक काव्य पंक्तियां याद आ रही हैं जैसे-


जितनी दूर नयन से सपना

जितनी दूर अधर से हँसना

बिछुए जितनी दूर कुंआरे पाँव से

उतनी दूर पिया तुम मेरे गाँव से।


नदी बोली समुन्दर से

मैं तेरे पास आई हूँ

मुझे भी गा मेरे शायर

मैं तेरी ही रुबाई हूँ।


मीठापन जो लाया था मैं गाँव से

कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।


कल स्वयं की व्यस्तताओं से निकालूंगा समय कुछ

फिर भरूंगा कल तुम्हारी माँग में सिन्दूर

मुझको माफ करना

आज तो सचमुच बहुत देर ऑफिस को हुई है।


ज़िन्दगी का अर्थ मरना हो गया है

और जीने के लिए हैं

दिन बहुत सारे।


जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने

दादी की हँसुली अम्मा की पायल ने

उस पक्के घर की कच्ची दीवारों पर

मेरी टाई टँगने से कतराती है।


जिस दिन ठिठुर रही थी,कुहरे भरी नदी में,

माँ की उदास काया,लेने चला था चादर, मैं मेजपोश लाया


सूखी मिट्टी से कोई भी मूरत न कभी बन पाएगी

जब हवा चलेगी ये मिट्टी खुद अपनी धूल उड़ाएगी

इसलिए सजल बादल बनकर बौझार के छींटे देता चल

ये दुनिया सूखी मिट्टी है तू प्यार के झींटे देता चल।


ऐसी अनेक गीत पंक्तियाँ हैं डॉ साहब की जो कवि सम्मेलन में श्रोताओं को मंत्रबिद्ध कर देती थीं।

ग़ज़लें भी एक से बढ़कर एक थीं।आपकी ग़ज़लों में भी गीत जैसी तन्मयता थी,गीत जैसा तारतम्य था।


पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है

पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है

चलने को एक पाँव से भी चल रहे हैं लोग

पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है


दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना

जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना


दो चार बार हम जो कभी हँस हँसा लिए

सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

संटी तरह मुझको मिले ज़िन्दगी के दिन

मैंने उन्हीं को जोड़ के कुछ घर बना लिए।


ज़िन्दगी यूं भी जली,यूँ भी जली मीलों तक

चाँदनी चार कदम धूप चली मीलों तक


ये सोचकर मैं उम्र की ऊँचाईयाँ चढ़ा

शायद यहाँ,शायद यहाँ,शायद यहाँ है तू

पिछले कई जन्मों से तुझे ढ़ूढ़ रहा हूँ

जाने कहाँ,जाने कहाँ,जाने कहाँ है तू


ग़मों की आँच पे आँसूं उबालकर देखो

बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो

तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी

थेकिसी के पाँव से काँटा निकालकर देखो


साँचे में हमने और के ढ़लने नहीं दिया

दिल मोम का था फिर भी पिघलने नहीं दिया

चेहरे को आज तक भी तेरा इंतज़ार है

हमने गुलाल और को मलने नहीं दिया।


असंख्य पंक्तियाँ हैं, असीमित स्मृतियाँ हैं। क्या लिखूं और क्या छोड़ूं।


1जुलाई 1942 को मुरादाबाद जिले के उमरी नामक गाँव में जन्में डॉ कुंअर बेचैन जी ने अपने जीवन में अनेक कष्ट सहे।इनका पूरा जीवन संघर्षों का महासमर रहा।बचपन में ही सिर से माता पिता का साया उठ गया था।बड़ी बहन और जीजाजी ने  पालन-पोषण किया। फिर बहन भी स्वर्ग सिधार गई। जीजाजी इन्हें लेकर चन्दौसी आ गए।चन्दौसी में ही आगे की शिक्षा ग्रहण की।

प्रकाशित पुस्तकें

गीत/नवगीत संग्रह - पिन बहुत सारे,भीतर साँकल बाहर साँकल,उर्वर्शी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख,एक दीप चौमुखी,नदी पसीने की, दिन दिवंगत हुए

ग़ज़ल संग्रह - शामियाने कांच के, महावर इंतजारों का ,रस्सियाँ पानी की, पत्थर की बांसुरी, दीवारों पर दस्तक, नाव बनता हुआ कागज, आग पर कंदील, आंधियों में पेड़, आठ सुरों की की बांसुरी, आंगन की अलगनी, तो सुबह हो, कोई आवाज देता है, 

कविता संग्रह -नदी तुम रुक क्यों गई, शब्द एक लालटेन, 

महाकाव्य - पांचाली 

ललित उपन्यास : मरकत द्वीप की मणि

बाल कविताएँ,हायकू,दोहे, अनेक पुस्तकों की भूमिकाएँ



✍️ डॉ कीर्ति काले 

बी702,न्यू ज्योति अपार्टमेंट सैक्टर 4 प्लॉट नंबर 27, द्वारका, नई दिल्ली, भारत

E mail : kirti_kale@yahoo.com

मोबाइल फोन नंबर 9868269259

मुरादाबाद मंडल के शेरकोट (जनपद बिजनौर ) निवासी साहित्यकार शुचि शर्मा की सरस्वती वंदना


नत  नमन स्वीकार कर मां

कामना  यह   पूर्ण  कर  दे,

सार्थक  हो  शब्द  हर  एक

मातु  मुझको  ऐसा  वर  दे,


हे  नीर क्षीरा हंस  वाहिनी!

दिव्य   सरसिज  आसिनी !

ज्योतिर्मयी  !  शुभ्रांअबरी !

मधुभाषिनी ! मृदु हासिनी!


अनुभूति सेअभिव्यक्ति तक

सत्य  का  ही  ज्ञान  भर  दे

सार्थक हो शब्द.............।


हे   दिव्यरुपा ! शंख, माला,

वेद,   वीणा,   से   अलंकृत,

शब्द  की  हर  एक विधा में

मां   तेरा   ही   नाद   झंकृत ,


अक्षरा!   शुचि   अक्षरों   में 

नित्य  अक्षय   गान   भर  दे ,

सार्थक हो शब्द..............।


वंदना   के   स्वर  समर्पित

रत    रहूं    आराधना    में   

भावना   के   पुष्प  अर्पित 

सर्व  सुख  की  साधना में,


लेखनी में नव सृजन, स्वर

छंद, लय और तान भर दे,

सार्थक हो शब्द ........….।


✍️ शुचि शर्मा 

W/o श्री शरद चंद्र शर्मा 

जयहिंद ब्रुश फैक्ट्री

मौ. शेखान  

शेरकोट, जिला बिजनौर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर  9149273601

गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़( जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ......आकाश बेल


                                                       

 " पापा हमें छोड़कर चले गये... हमेशा हमेशा के लिए।" यह हृदय विघातक समाचार कानों में पड़ा तो मैं अवसन्न रह गयी...अब मां का क्या होगा?... वह तो जीते-जी मर जाएगी। मां तो जीवित ही पापा के सहारे थी... जैसे आकाश बेल हो; जो परजीवी के रूप में वृक्ष का आश्रय लेकर ही जिन्दा रह सकती है...वृक्ष का अस्तित्व मिटते ही स्वयं उसका भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर वह ऐसी शुष्क लता में परिणत हो जाती है जिसका जीवनीय तत्व किसी ने सोख लिया हो... और जीवनहीन कर डाला हो।

     पापा जी भी मां के लिए वृक्ष समान ही थे जो उसे जीवनीय तत्वों की ऊर्जा प्रदान कर रहे थे, प्राणों का संचार कर रहे थे, सांसों को ऊष्मा दे रहे थे, शिराओं में रक्त बनकर बह रहे थे और धमनियों में रक्त प्रवाह को गतिवान बना रहे थे।

     न जाने कितने-कितने रूप थे पापा के; जो मेरे अवचेतन में रच बस गये थे। उनके सहसा चले जाने का आकस्मिक समाचार सुना तो यकायक ही वे रूप मेरे नेत्रपटलों पर जीवंत होकर किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……


     *स्नातकोत्तर* महाविद्यालय में प्राचार्य पद को सुशोभित कर रहे थे वे उन दिनों जब मैं किशोर वय: की दहलीज को कुलांचे भरकर पार कर रही थी। अनुशासन व स्वच्छता प्रिय पापा की नासिका के अग्रभाग पर क्रोध ऐसे रखा रहता था जैसे चश्मा हो। महाविद्यालय में क्या दु:साहस किसी का कि उनके बनाए सिद्धांतों के परिपालन में लेशमात्र भी चूक हो सके। विद्यालय के सुविस्तृत परिसर में उनके आने की आहट मात्र से उद्दंडी विद्यार्थियों के समूह ऐसे तितर-बितर हो जाते जैसे शेर के आने से हिरणों का समूह पलांश भर में ही सुरक्षित स्थानों पर जाकर छिप जाता है। आंखों पर जंजीर वाला चश्मा लगाए तथा हाथ में पीतल के मूठ वाली छड़ी झुलाते हुए परिसर में प्रवेश करते ही वे सरसरा सा दृष्टिपात चारों ओर करते और कर्मचारियों पर बरस पड़ते... वह कागज़ का टुकड़ा बाहर क्यों पड़ा है?...वो पीले गुलाब वाला गमला पंक्ति से बाहर क्यों?...उस मयूरपंखी की छंटाई क्यों नहीं हुई?... उस टोंटी से पानी क्यों टपक रहा है?...जल के मूल्य को नहीं पहचानते क्या?... और वो उधर देखिए! उस बरामदे में बल्ब दिन के उजाले में भी जल रहा है?... आखिर राष्ट्रहित में ऊर्जा संरक्षण तुम किस दिन सीखोगे?... और वह कौन छात्र है जो निर्धारित समय से पांच मिनट विलंब से विद्यालय आने की धृष्टता कर रहा है? उसे मुख्य द्वार पर ही क्यों नहीं रोका गया? यदि सभी छात्र इसी तरह से दस-पांच मिनट विलंब से आने लगे तो अनुशासन की सारी ही व्यवस्था बिगड़ नहीं जाएगी क्या?...

     सारे कर्मचारी भृकुटि मात्र के संकेत पर इधर से उधर दौड़ जाते और उनका मन्तव्य पूर्ण करके ही चैन की सांस लेते।

     किंतु घर में घुसते ही पापा वह शीतल बयार बन जाते जो हल्के झोंके से ही घर का कोना-कोना महका देती है... 'हमारी प्यारी प्यारी बिटिया कहां गयी? अभी कालेज से नहीं लौटी क्या?...और वह हमारा प्यारा बेटा, खेलने निकल गया या स्टडी रूम में घुसा है?' उनके मृदुल स्नेह की गंध पाते ही बेटी-बेटा दोनों दौड़कर उनसे लिपट पड़ते--'पापा हमारे लिए क्या लाये हैं? मैंने लैदर वाली फाइल लाने को कहा था; और भैया कई दिनों से रिस्टवाच की मांग कर रहा है। कब लाएंगे?'

     'ओह! आयम सॉरी! आज बिल्कुल भी वक्त नहीं मिला। कल जरूर ले आऊंगा।' वे दोनों के कपोलों पर एक-एक प्यार भरा स्पर्श कर मां की ओर बढ़ जाते। मां आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूरते हुए स्वागत सत्कार को तत्पर रहती-- 'इन्हें घर के लोगों के लिए वक्त कहां है। कालेज के चमचों से फुरसत मिले तभी तो घर के कुछ काम करें। कितनी बार कह दिया कि जल्दी घर आया करो। कुछ काम भी निपटें। पर ये तो देर से ही इतनी आएंगे कि मेरे साथ कहीं जाना न पड़ जाए; या घर के किसी कामकाज को हाथ न लगाना पड़ जाए। महीने भर से कह रही हूं कि सामने वाली जाटनी गले में जैसा नैकलेश पहन रही है वैसा मैं भी लाऊंगी। पर इन्हें तो मेरे लिए कभी वक्त मिलेगा नहीं। भाग फूट गये मेरे जो ऐसे आदमी के साथ बांध दी गयी जिसने कभी औरत के अरमानों की लेशमात्र भी परवाह नहीं की।'

     पल भर बाद ही उन आग्नेय नेत्रों से जलधार प्रवाहित होने लगती जैसे पति के उपेक्षित आचरण से उसे कितनी पीड़ा पंहुची हो...गरज-बरस के छींटों से घर में तूफान सा आ जाता।

     पापा शीतल, सुगंधित समीर थे तो मां दहकता अंगार थी। जो शीतल समीर के हल्के झोंके से भी अग्नि की लपलपाती लपटों में परिणत हो जाता था। पापा बड़ा संभल-संभलकर आचरण करते, संतुलित वाणी का प्रयोग करते, मां के मर्मवेधक विषाक्त तंजों को भी मुस्कराकर परिहास भाव में उड़ा देते। तब तो अग्नि की लपटें और भी तीव्रता से भड़क उठतीं-- 'हर बात को ऐसे हंसी में उड़ाकर काम नहीं चलने वाला। पर तुम्हें किसी के दुःख दर्द से क्या, तुम्हें तो हर समय मजाक उड़ाना ही सूझता है। जिस दिन न रहूंगी सब आटे दाल का भाव पता चल जाएगा। अभी तो सब करा कराया मिल रहा है न। तभी तो कुछ महसूस नहीं हो रहा।'

     'और यदि मैं ही न रहा तब?' मुंह मोड़कर वे हंस पड़ते।

     'तो धीरज धर लूंगी। किसी के बिना कोई काम नहीं रुकता।' अग्नि की लपटें किसी भी तरह बुझने को तैयार न होतीं।

     पापा की नसों में एक ऐसा सांस्कृतिक तत्व दौड़ता था जो हर किसी को अपना बना लेने की क्षमता रखता था। हर किसी के सहयोग के लिए वे हमेशा तत्पर रहते। परोपकार और धर्मार्थ कार्यों से उनके चित्त को अद्भुत शान्ति मिलती थी।

     मां उनकी इस सात्विक वृत्ति की भी घोर विरोधी थी। जब भी मां को उनके किसी का भी कार्य निपटाकर लौटने की भनक लगती; वह उन पर भड़क पड़ती-- 'घर के काम काज निपटाने को तो तुम्हें वक्त मिलता नहीं; बाहर वालों के लिए कहां से निकल आता है? वे ही तुम्हारे सगे हैं तो उन्हीं के पास जाकर रहो। घर लौटने की जरूरत ही क्या है? मैं होती ही कौन हूं तुमसे किसी काम को कहने वाली? पहले पता होता कि ऐसे निष्ठुर आदमी के साथ ब्याही जा रही हूं तो कभी साथ न आती। मेरे तो भाग फूट गये…मेरे माता-पिता ने घोर अन्याय किया मेरे साथ।'

     सिद्धांत धनी व व्यवस्था प्रेमी पापा घर में अस्त व्यस्तता देखकर शान्त नहीं रह पाते थे-- 'ये गन्दे पात्र डाइनिंग टेबल पर क्यों रखे हैं? इन्हें तो किचन के सिंक में होना चाहिए था... और इन कुर्सियों पर धूल क्यों जमी है? आज घर में सफाई नहीं हुई क्या?...इस बिस्तर की चादर पर सिलवटें क्यों?...आंगन में चिड़िया विष्ठा कर गयी है तो उसे साफ नहीं किया जा सकता था क्या?... यह घर गन्दा कितना रहने लगा जैसे इसमें कोई रहता ही न हो... जैसे सारे लोग आलसी हो गये हों।'

     मां भी भला क्यों चुप रहने वाली थी-- 'सफाई का इतना ही शौक है तो खुद कर लिया करो! या फिर नौकरानी रख लो! देखूंगी कितनी सफाई होती है? दिन भर मरते-खपते भी रहो और जली कटी भी सुनते रहो। कालेज में तो कहीं कुछ वश चलता नहीं; घर में गुस्सा उतारना शुरू कर देंगे। यह तो पूछने की जरूरत है नहीं कि तबीयत कैसी है? सुबह से दर्द के कारण सिर फटा जा रहा है। घर में घुसते ही चीखना चिल्लाना शुरू, जैसे कंजर हों। साफ-साफ बताए देती हूं कि न तो मैं घर की सफाई करुंगी, न ही बरतनों को हाथ लगाऊंगी। या तो खुद करो या नौकर रखो!…'

     मां का सतत प्रवाहमान ओजस्वी भाषण समाप्त नहीं होता तो वे चुपके से बाहर निकल जाते...न घर में रहेंगे, न कानों में मिर्ची जैसे तीक्ष्ण शब्द पड़ेंगे।

     अगले ही दिन से एक महिला बरतन मांजने व पूरे घर की स्वच्छता करने आने लगी थी।

     मां ने उस महिला को लेकर भी संग्राम किया था कि इन कार्यों के लिए वैतनिक महिला को रखने की क्या जरूरत थी? कालेज के चपरासियों से काम नहीं लिया जा सकता क्या? पैसे कहीं किसी पेड़ से तो टपक नहीं रहे कि कहीं भी बांट दो।

     सात्विक प्रवृत्ति के पापा को सात्विक आहार ही प्रिय था। जबकि मां को तीक्ष्ण मिर्च मसालेदार, तैलीय, चटपटा स्वादिष्ट भोजन व भांति-भांति के तामसिक व्यंजन पसंद थे। मां की दिन-प्रतिदिन थुलथुली काया को देखकर वे कुढ़ते भी रहते और चिंतित भी रहते। तभी तो जब भी कभी वे मां को आलू की टिकिया, गोलगप्पे व समोसे जैसी बाजारू चीजें चटखारे ले-लेकर खाते देखते तो कटाक्ष किए बिना नहीं रह पाते-- 'क्यों इस छोटी सी जीभ के लोभ में तुम अनेकों बीमारियों को आमंत्रण देने पर तुली बैठी हो? प्रतिदिन शरीर पर चरबी की परतें चढ़ती चली जा रही हैं। ब्लड प्रेशर भी ज्यादा रहने लगा है।'

     'हां-हां तुम तो चाहते ही हो कि मेरा शरीर रोगों की खान बन जाए।' बस संग्राम शुरू-- 'ताकि मैं कल की मरती आज मर जाऊं। इतने दिनों से कहती आ रही हूं कि किसी अच्छे से डाक्टर से मेरा चैकप करा दो! हर वक्त मेरी सांस फूली रहती है और सिर में भी तनाव बना रहता है। पर तुम्हें मेरे लिए तो वक्त तब मिले जब बाहर वालों की जी हुजूरी से फुरसत मिले। क्योंकि काम तो बाहर वाले ही आएंगे। मैं तो फालतू की चीज हूं। जबसे इस घर में आयी हूं तब से कभी दो पल चैन के नसीब न हुए। मेरे तो भाग फूट गये।'

     वे मां को डाक्टर के पास ले गये। तमाम सारे परीक्षण हुए तो उनकी देह में छिपी बैठीं मधुमेह, उच्च रक्तचाप, वातरक्त जैसी कुछ असाध्य बीमारियों का पता चला। डाक्टर द्वारा प्रातः-सायं के भ्रमण के साथ-साथ सामान्य उबले भोजन का कठोर निर्देश देते हुए चेतावनी भी दे दी गयी कि यदि सावधानी न बरती गयी तो कुछ भी हो सकता है।

     किंतु मां ने डाक्टर के निर्देशों का कभी गम्भीरता से पालन नहीं किया। देर से सोकर उठना, उठते ही कड़क चाय लेना, फिर देर तक शौचालय में बैठे रहना उसकी दिनचर्या में था। पथ्य का भोजन भी मां ने कभी नहीं लिया। पापा भृकुटि वक्र करते तो उनके मुंह खोलने से पहले ही मां प्रारंभ हो जाती-- 'आंखें लाल-पीली करने की कोई जरूरत नहीं। मुझे मरना स्वीकार है पर मैं अपने स्वाद की चीजें नहीं छोड़ सकती।'

     इस प्रकार गृह संग्राम को न रुकना था न रुक सका। पापा के सारे प्रयास निष्फल निष्प्रयोज्य सिद्ध होते चले गये। वे कसमसाकर रह गये और भीतर ही भीतर तिलमिलाकर भी। कुछ भी न कर सक पाने का असामर्थ्यबोध उन्हें व्यग्र और व्यथित कर गया।

     आखिर वही हुआ जिसकी उन्हें पहले से सम्भावना थी... एक शाम को मां किसी जन्मदिवस की पार्टी से छोले भटूरे और जलेबी खाकर लौटी तो सिर को कसकर पकड़े थी। उसके हृत्प्रदेश में भी भारीपन महसूस हो रहा था। न लेटकर चैन मिल पा रहा था न बैठकर।

     देर रात को पापा कालेज की व्यवस्था संबंधी किसी मीटिंग से घर लौटे तो मां की स्थिति देख बहुत परेशान हुए। मां सिर की वेदना से छटपटा रही थी। और नासारंध्रों से रक्त स्राव होकर वस्त्रों को भिगो रहा था।

     'बचाना है तो बचा लो मुझे!' मां ने बस इतना कहा और संज्ञा शून्य हो गयी।

     हतचित्त पापा समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें क्या न करें? कभी नब्ज टटोलते, कभी नासिका के सामने हथेली रखकर अनुमान लगाने का प्रयास करते कि सांस चल भी रही है अथवा नहीं? कभी हृत्प्रदेश पर हथेली रखकर धड़कनों का अनुमान लगाने लगते। उनकी आंखें भर आयी थीं...अश्रु तटबंध तोड़कर बाहर छलकने को आतुर... जिन्हें उन्होंने बलात सोख लिया और मां के दोनों हाथ पकड़कर झिंझोड़ दिया-- 'उठो ना! बताओ क्या परेशानी है?...उठती क्यों नहीं हो?... कुछ बोलो तो!... कुछ बोलती क्यों नहीं हो?'

     किंतु मां नहीं उठी, न ही बोली। उठती बोलती तो तभी जब उसमें संज्ञा होती... वह तो जैसे प्रगाढ़ निद्रा में सोयी पड़ी थी... वेदना शून्य सी...निश्चल नि:स्पंद सी।

     कभी कोई भार न उठाने वाले पापा में यकायक न जाने कहां से इतनी शक्ति आ समायी कि उन्होंने भारी वजन वाली मां को दोनों बाहों में उठाया और घर के बाहर खड़ी गाड़ी में लिटाकर रात में ही अस्पताल ले गये।

     'आपने बहुत अच्छा किया जो रात में ही अस्पताल ले आये, नहीं तो कुछ भी अनिष्ट हो सकता था।' डाक्टर ने निरीक्षण परीक्षण के उपरांत पापा के प्रयास की सराहना की तो उन्होंने डाक्टर के पैर पकड़ लिये-- 'डाक्साब! चाहे मेरे शरीर से रक्त की एक-एक बूंद निचोड़ लीजिए! पर इसे बचा लीजिए! यह मेरी सांस है, मेरी जिंदगी है, मेरा प्राण है। यूं समझ लीजिए कि इसके बिना मैं बिखरकर रह जाऊंगा।'

     मस्तिष्क में रक्तस्राव हुआ था; उसी का थक्का कहीं जम गया था। शल्य चिकित्सकों की टीम ने रातोंरात शल्य क्रिया करके रक्त के थक्के को बाहर निकाल रक्त प्रवाह व आक्सीजन के संचार को सुचारु किया।

     संज्ञाशून्यता की स्थिति से उबरने में मां को पूरे पांच दिन लगे थे। तब तक पापा के कण्ठ में न तो एक ग्रास अन्न का उतरा और न ही कोई पेय पदार्थ। न ही वे वहां से एक पल के लिए भी दूर हुए। जब देखो तब मां के हाथ पैरों का मर्दन करते रहते। कभी भी उसकी देह को झिंझोड़ देते-- 'उठो ना! आंखें खोलो! देखो तुम कहां हो?' कभी भी समाधि की मुद्रा में नेत्रोन्मीलित हो हाथ जोड़कर बुदबुदाने लगते-- 'रक्षा करो प्रभु! मेरे जीवनाधार की रक्षा करो!'

     डाक्टर आते तो उनके पैर पकड़ लेते-- 'बच तो जाएगी न?... कितने प्रतिशत आशा है?'

     एक बार तो वरिष्ठ चिकित्सक ने शिष्ट भाषा में उन्हें झिड़क ही दिया था-- 'गुरुजी आप इतने बड़े कालेज के प्राचार्य हैं कि हजारों छात्र आपके पैर छूते हैं, हमारे पैर छूकर हमें शर्मिंदा मत कीजिए! हम पूर्ण प्रयास कर रहे हैं बचाने का। आशा भी पूरी-पूरी है। पर दायां हाथ पैर निष्क्रिय बने रहने की  पूरी-पूरी संभावना है।'

     अश्रुओं से डबडबाई आंखों में हल्की सी चमक दौड़ गयी थी-- 'कोई बात नहीं डाक्साब! इसका हाथ भी मैं बन जाऊंगा और पैर की बैशाखी भी।'

     और जिस दिन मां ने आंखें खोलीं; पापा खुशी से ऐसे उछल पड़े थे मानों कोई अलभ्य वस्तु प्राप्त हो गयी हो-- 'बेटी निरुपमा! देखो तुम्हारी मां ने आंखें खोल दी हैं। और अभिषेक को भी बता दो कि वह होश में आ गयी है। शायद अब हम जल्दी घर लौट सकें।'

     घर लौटने तक पापा इतने कृशकाय हो गये थे जैसे बीमार मां न होकर स्वयं वही हों... आंखें सूजकर लाल; मानों एकांत मिलने पर रोते रहे हों। आहार इतना अल्प मानों केवल जीने भर के लिए खा रहे हों।

     घर आते ही मां की संपूर्ण व्यवस्थाएं उन्होंने अपने कमजोर कन्धों पर लाद ली थीं। मां तो आकाश बेल की तरह पूर्णतया परजीवी होकर रह गयी थी। उसके अपने वश में तो कुछ रह ही नहीं गया था। मल-मूत्र तक पापा कराते थे। किसी यान्त्रिक मशीन की तरह पापा सुबह से देर रात तक मां की सेवा सुश्रुषा में लगे रहते। मधुमेहग्रस्त होने के कारण मां को प्यास ज्यादा लगती तो हर घण्टे पानी पिलाते, समय पर औषधियां खिलाते, थोड़ी-थोड़ी देर में दूध, चाय, उबली दाल,                   दलिया,सूप,पनीर,फलरस आदि पिलाते। निष्क्रिय हाथ पैर पर अभ्यंग करते, फिर पूरी देह का उष्ण जल से प्रक्षालन करते, शैया व्रणों की ड्रेसिंग करते, अपने कन्धों पर लादकर चलाने का प्रयास करते। 

     इन्हीं व्यस्तताओं के मध्य समय निकालकर दौड़ते भागते कालेज की औपचारिकताएं पूर्ण करके आते। पर अपने लिए समय तब भी नहीं निकाल पाते। कब सोते; कब उठते किसी को कुछ पता नहीं चल पाता? रात को जब मां की झपकी लगती तब वे अपने कक्ष में पहुंचते। और भीतर से कपाट बंद कर न जाने किस उधेड़बुन में लग जाते? पता नहीं क्यों उस कक्ष का ताला लगा चाबी हर समय अपने नाड़े में बांधकर रखते?

     मां की जरा सी आहट पर दौड़कर वे उसके समीप पहुंचते और हाथ पैर मलने लगते। फिर बैठे-बैठे वहीं सो जाते।

     जब कभी मां ज्यादा भावाभिभूत हो जाती तो बायें हाथ से उनका पैर स्पर्श कर कहती-- 'मेरे भगवान तो तुम्हीं हो!'

     पापा हैरत के साथ हंस पड़ते-- 'यह मैं क्या देख रहा हूं? दहकता अंगार बुझे कोयले में परिणत हो रहा है? आज पैर छूने की कैसे याद आ गयी? जिंदगी भर तो कभी छुए नहीं; हमेशा मुझसे लड़ती रहीं और आज मैं भगवान हो गया?'

     मां भी पहले तो तिरछे मुंह से हल्की सी मुस्कराती, फिर गंभीर हो जाती-- 'अब तक तुम्हें पहचान न पायी थी। अब जाकर पहचानी हूं कि मेरे लिए तुमसे बढ़कर कोई नहीं। मैं तो जिन्दा ही तुम्हारे सहारे हूं।'

     कैसी साधना थी वह पापा की, जिसमें अपने सुख के लिए कोई स्थान नहीं था। दिन रात मां के लिए जुटे रहना... बस किसी तरह वह रोग से मुक्ति पा जाए… जैसे दीपक दूसरों के जीवनांगन में उजियारा करने के लिए स्वयं तिल-तिल जलता रहता है; वैसे ही पापा भी मां के लिए तिल-तिल जल रहे थे।

     उनकी साधना के प्रतिफल स्वरूप मां शनै:-शनै: आरोग्यता की ओर बढ़ने लगी थी।

     शरीर स्वस्थ हुआ तो बुझे कोयले फिर से दहकने लगे। मां का बुझा स्वर फिर से उग्र होने लगा। पापा से वह बात-बात पर फिर झगड़ने लगी-- 'मुझे चैन से जीने मत देना, भूखा मार डालो मुझे! ये उबली दाल सब्जियां मेरे गले से नीचे नहीं उतरतीं। पर तुमने तो हमेशा यही चाहा है कि मैं कल की मरती आज मर जाऊं। मुझे कुछ खाने दोगे या नहीं?'

     बात आगे न बढ़े इसलिए वे बिना कोई प्रत्युत्तर दिये अपने कक्ष में जाकर लेट जाते।

     परंतु उसे इतने पर भी चैन कहां था, जोर से आवाज लगाती-- 'इधर सुनों! ऐसा करो! पनीर का पकोड़ा मुझे नुकसान देगा तो नमक मिर्च मिलाकर पनीर का परांठा ही बनाकर ले आओ!... और एक कड़क पत्ती की चाय...पेट तो किसी तरह भरना ही है, भूखे पेट मेरी अन्तड़ियां कुलबुलाने लगती हैं।'

    मां के चेहरे की चमक दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। परंतु न जाने क्यों पापा निरंतर क्षीण होते जा रहे थे। चेहरे का तेज व लालिमा लुप्त होती जा रही थी। हड्डियों का मांस पता नहीं कहां गायब होता जा रहा था? न ढंग से भूख लगती, न नींद आती। मुंह से कभी भी कराह सी निकल पड़ती; जैसे शरीर में कहीं वेदना हो रही हो।

     मां तब भी तंज कसने से नहीं चूकती-- 'इतना सब खा पी रहे हो वह सब जा कहां रहा है? दिन प्रतिदिन सूखते चले जा रहे हो? किसी डाक्टर से चैकप क्यों नहीं करा लेते? पर उसमें पैसा खर्च होगा और वह तुम कर नहीं सकते।'

     वे सुनकर भी अनसुना कर देते। या फिर धीरे से कह देते कि समय मिलने पर करा लूंगा। अग्निदग्ध वाक् प्रहार असह्य हो जाते तो धीमें और अस्पष्ट स्वर में उन्हें कहना ही पड़ता-- 'मैंने अपना चैकप करा लिया तो मेरी साधना अधूरी रह जाएगी। तुम्हारा उपचार अधर में ही रुक जाएगा।'

     उनकी ऊर्जा चुकने लगी थी। हल्के से श्रम से ही वे थककर गिर पड़ते थे। मां के पैर दबाते-दबाते वे उसी पर झुक पड़ते थे। तब मां उन्हें चेताती-- 'नाटक मत करो! दबाना है तो ढंग से दबाओ! मेरे पैर दर्द से फटे जा रहे हैं और तुम्हें नाटक सूझ रहा है...।' अगले ही पलों में मां की जिह्वा अंगार उगलने लगती, पर वे तब भी शांत बने रहते। गजब का धैर्य था उनमें।

     उस रात को भी जब वे मां के पैर दबा रहे थे तो उसकी झपकी लग गयी। और वे उसी के पैरों पर सिर रखकर सो गये।

     मां की नींद खुली तो बड़बड़ाना शुरू-- 'इन्हें तो पता नहीं नींद कितनी गहरी आती है कि कहीं भी सो जाते हैं...चलो उठो! मुझे एक गिलास गरम पानी से रात वाली गोली खिलाओ!'

     रात वाली गोली के प्रभाव से बहुत गहरी नींद आयी मां को। सुबह हड़बड़ाकर उठी तो आश्चर्यचकित... पापा उसी मुद्रा में पैरों पर सिर रखे प्रगाढ़ निद्रा में सो रहे थे। मां ने पहले तो उन्हें आवाजें लगायीं, फिर पूर्ण शक्ति से झिंझोड़ ही जो दिया-- 'अरे उठो तो! कब तक सोते रहोगे?...उठो! जल्दी उठो! गरम पानी में दो चम्मच शहद डालकर पिलाओ मुझे, मेरा पेट तभी साफ होता है।'

     पर पापा तभी तो उठते जब वहां होते। वहां तो मात्र नश्वर देह पड़ी थी। वे तो न जाने कब पिंजरा खाली कर नीलांबर की अनंत यात्रा पर निकल गये थे?...सारी अनुभूतियों से दूर... फिर कभी वापस न लौटने के लिए।

     अपनी सहधर्मिणी के चरणों में शीश नवाए-नवाए ही प्राण तज दिये थे पापा ने।

     मेरे पहुंचते ही उनके कक्ष को खोला गया; जिसकी चाबी वे हमेशा अपने पास रखते थे। जिसमें किसी को भी जाने की अनुमति नहीं थी... जो हमेशा बंद रहता था... जिसके बारे में सबका अनुमान यही था कि उसमें वे अपना रुपया पैसा, स्वर्ण मुद्राएं, बैंकों की सावधि जमा की रसीदें आदि सभी से छिपाकर सहेजकर रखते होंगे।

     परंतु हैरत... वहां ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे गोपनीय रखना आवश्यक हो। कुछ साहित्य, आत्म कथ्य डायरियां, व्रण के उपचार की क्रीम, लोशन, रुई, पट्टियां, टेप आदि के साथ-साथ कुछ औषधियां खाने की भी संग्रहित थीं। शायद उनकी देह के किसी भाग में कोई कुटिल व्रण रहा होगा, जिसकी ड्रेसिंग वे कक्ष बन्द कर नित्यप्रति करते रहे होंगे।

     पर इन्हें छिपाना क्या इतना आवश्यक था? क्या व्रण को रहस्य बनाकर रखना जरूरी था?... किसी को उन्होंने क्यों अपने व्रण के बारे में नहीं बताया?...बताते तो किसी रोग विशेषज्ञ से समुचित उपचार कराया जा सकता था... मेरी उलझन निरंतर बढ़ती जा रही थी कि अपने बारे में क्यों वे सबसे गोपनीयता बरत रहे थे?

     तभी मेरी निगाह लोहे की बड़ी सी अल्मारी के भीतर रखी एक छोटी सी अटैची पर चली गयी...अटैची छोटी सी, पर उसमें झूल रहा ताला मोटा सा... और चाबी का कहीं कुछ अता पता नहीं... तत्काल ताला तोड़ अटैची को खोला गया तो डाक्टरों के उपचार पत्रों व विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के कागजों का पुलिंदा नीचे गिरकर बिखर गया।

     और यह जानकर तो मेरे पैरों तले से जमीन ही खिसक गयी थी कि उनकी दायीं जंघा में एक बड़ा सा प्राणघातक, विषाक्त व्रण अपना रौद्र रूप दिखा रहा था जिसकी बायोप्सी रिपोर्ट में बिल्कुल स्पष्ट लिखा था-- वैल डिफरैंशिएटेड स्क्वेमश सैल कार्सिनोजेनिक ट्यूमर (अर्थात कैंसर) ।

     डाक्टर ने परामर्श भी दिया था-- तत्काल आपरेशन के साथ-साथ एक माह के लिए होस्पिटेलाइज्ड।

    ओह! अपनी सहधर्मिणी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी मेरे पापा ने। मां के उपचार व परिचर्या में कोई विघ्न बाधा न पड़े इसलिए उन्होंने अपने कैंसर की ओर से मुंह मोड़ लिया था। और अपनी साधना को खण्डित होने से बचा लिया था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर 

मो.9411012039/8077945148

     

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की लघुकथा..... सौतेली बेटी

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....पिता को लेकर रागनी अपने घर पहुंची .....रागिनी के कानों में अभी तक अपनी सौतेली मां के शब्द "अगर ज्यादा परेशानी है तो अपने बाप को अपने साथ ले जाओ हमसे सेवा नहीं होती."गूंज रहे थे.......

......आसाराम ने अपनी सारी जमीन जायदाद  दूसरी पत्नी से जन्मे अपने दोनों बेटों के नाम कर दी थी उनकी दूसरी पत्नी व बेटों ने पति को बाहर के एक कमरे में बदहाल हालत में छोड़ दिया था रागिनी उनकी पहली पत्नी की संतान थी जो शहर में अपने पति के साथ रहती थी उसकी शादी में सौतेली मां ने कुछ भी नहीं दिया था यहां तक की रागनी के लिए उसकी मां द्वारा छोड़े गए गहने तक न देकर अपनी दोनों बहुओं को चढ़ा दिए थे...और उससे नाता तोड़ लिया था...परंतु जैसे ही रागनी को पता लगा पिता की  हालत बीमारी के कारण बहुत खराब है मां बीमारी में दवा एवं खाना भी ठीक से नहीं दे रही है तो उससे न रहा गया वह उन्हें देखने गांव पहुंची  मां ने झट कह दिया" ज्यादा लाड़ है तो इन्हें अपने साथ ले जाओ हमसे नहीं होती इनकी सेवा....! "

....आशाराम को बड़े चैन का अनुभव हो रहा था परंतु उसकी आखों में पश्चाताप एवं विवशता  के आंसू थे...... ! 

✍️ अशोक विद्रोही

412 प्रकाश नगर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

 मो 82 188 25 541

मुरादाबाद की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था कला भारती की ओर से 15 अप्रैल 2023 को आयोजित समारोह में रामपुर के वरिष्ठ कवि रामकिशोर वर्मा को कलाश्री सम्मान ।

मुरादाबाद की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था कलाभारती की ओर से शनिवार 15 अप्रैल 2023 को  सम्मान-समारोह एवं काव्य-गोष्ठी का आयोजन, मिलन विहार स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज पर हुआ जिसमें रामपुर के वरिष्ठ रचनाकार  रामकिशोर वर्मा को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए संस्था की ओर से, कलाश्री सम्मान से सम्मानित किया गया। कवयित्री पूजा राणा द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार जितेन्द्र कमल आनंद ने की। मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार  सर्वेश कुमार सिंह एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में अशोक विश्नोई एवं बाबा संजीव आकांक्षी मंचासीन हुए जबकि कार्यक्रम का संचालन राजीव प्रखर ने किया। सम्मानित रचनाकार श्री रामकिशोर वर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित आलेख का  वाचन राजीव प्रखर एवं प्रदत्त मान पत्र का वाचन मनोज मनु ने किया। 

       कार्यक्रम के द्वितीय चरण में एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें उपस्थित रचनाकारों ने विभिन्न सामाजिक मुद्दों को अपनी रचनाओं में उकेरा। काव्य-पाठ करते हुए सम्मानित रचनाकार  राम किशोर वर्मा ने कहा -

 हिले पत्ते नहीं फिर भी, पवन को जान जाते हैं । 

अधर बिन नैन ये तेरे, बहुत कुछ बोल जाते हैं ।। 

इसी क्रम में राजीव प्रखर, योगेन्द्र वर्मा व्योम, आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, ईशांत शर्मा ईशु, प्रशांत मिश्र, पूजा राणा, मनोज मनु, रघुराज सिंह निश्चल, अशोक विद्रोही, नकुल त्यागी, रामदत्त द्विवेदी, डॉ मनोज रस्तोगी, अंबरीश गर्ग, अशोक विश्नोई बाबा संजीव आकांक्षी, जितेन्द्र कमल आनंद, आकृति सिन्हा, कमल सक्सेना आदि ने रचना पाठ किया। राजीव प्रखर द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा।








































बुधवार, 19 अप्रैल 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की रचना ....एक दूसरे को मिले प्यार की सौगात रे

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मुरादाबाद जनपद के ठाकुरद्वारा की साहित्यकार चक्षिमा भारद्वाज ’ खुशी’ की लघु कथा ...... टूटे टुकड़े



 "अरे रामरती तेरी बहु ने ये नई गगरी फोड़ दी तूने उसे कुछ कहा क्यों नहीं?" हिरादेई ने कुएँ पर मटकी टूटने के बाद बहु के नई मटकी लेने जाते ही पीछे से कहा।

 "क्या मटकी के ये टुकड़े जुड़ सकते हैं हिरा?" रामरती ने उल्टा हिरादेई से सवाल कर दिया।

 "नहीं तो! टूटी हुई चीजें भी भला कभी जुड़ती हैं।" हिरादेई ने मुँह बनाकर कहा।

 "तो फिर इस मिट्टी की मटकी के टूट जाने पर मैं अपनी बहू को खरी-खोटी सुनकर उससे अपने रिश्ते क्यों तोड़ लूँ? जब इस मटकी को नहीं जोड़ा जा सकता तो क्या हमारे रिश्ते में आई दरार को जोड़ा जा सकेगा? और फिर मेरी बहु का पैर यहाँ की कीचड़ पर फिसल गया था जिसके कारण मटकी फूटी। मेरी बहू ने इसे जानबूझकर तो तोड़ा नहीं...।" रामरती ने कहा और हिरादेई को अनदेखा करके आगे बढ़ गयी।


✍️ चक्षिमा भारद्वाज "खुशी"

ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार धन सिंह धनेंद्र की लघुकथा..... ' मुक्ति '

   


वह भागती -दौडती, चीखती-चिल्लाती पुलिस स्टेशन के गेट तक पहुंची ही थी, कि मोटर साईकिल से पीछा करते गुण्डे ने आकर उसकी कमर और कनपटी पर दो फायर झोंक दिये और फरार हो गया।वह वहीं पर औंधे मुंह गिर पडी । उसके एक हाथ में दरख्वास्त थी। खून से लथ-पथ उसका शरीर निढ़ाल पडा था। भीड इकट्ठा हो गई । भीड से आवाज आई । बेचारी कई दिन से थाने के चक्कर काट रही थी।कोई सुनने वाला ही नहीं था। 

       चलो अब ईश्वर ने उसकी सुन ली। उसे इस नरक के जंजाल से अपने पास बुला लिया। गुण्डों से मानो वह भी डरता हो। इसलिए ,उनका कुछ न बिगाड़ पाया। उस निर्दोष महिला को मुक्ति दे दी।

 ✍️ धनसिंह 'धनेन्द्र'

चन्द्र नगर, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा....'संस्कारी बेटा '


"ट्रीन ...ट्रीन ...ट्रीन ...!"

"अरे जगत फोन उठा बेटा ...।"माँ रसोई में से बोलीं 

"हां ...हेल्लो ...अच्छा शुभि ..हाँ लायब्रेरी से ले लेना ...ठीक है ...ठीक है ।"

"किसका फोन है बेटा ?"

"माँ वो शुभि का था ...पूँछ रही थी कौन कौन सी बुक्स ले लूँ ?"जगत ने मोबाइल टेबल पर रखते हुए कहा ।

"भैया कह रही होगी !"निकिता जगत की बहिन ने व्यंगात्मक लहजे में कहा ।

"हाँ तो क्या हुआ ?"जगत ने उसके पास बैठते हुए कहा ।

"जगत अगर तुम यूँ ही हर लड़की के भाई बनते गए न तो देख लेना तुम्हारी तो शादी होने से रही ।

"चुप कर निकिता क्या बोलती रहती है ?"माँ ने निकिता को डाँटा ।

"बोलने दो माँ इसको ।"जगत ने हँसकर कहा ।

"तुमको बुरा नहीं लगता ...कॉलेज में 'अड़ोस पड़ोस में रिश्तेदारी में सब लड़कियाँ तुमको भैया भैया कहकर पुकारती हैं ।"निकिता ने फिर मुँह बनाया ।

"मैं उनकी हेल्प करता हूँ कह देती हैं मुझे अच्छा लगता है ।"जगत ने चाय का घूँट भरते हुए कहा ।

माँ रसोई में खड़ी मुस्करा रहीं थीं ।

"तो तुमतो क्वारे ही रहोगे ।"निकिता ने जगत को फिर चिढ़ाया ।

"ठीक है ।"जगत ने मुस्कराते हुए कहा ।

"क्या ठीक है ...अरे डाँट दिया करो लड़कियों को जब तुमसे भैया कहें ।"

"तुझे डांटता हूँ क्या बता ?सब में मुझे तू ही दिखती है । रही शादी की बात तो शादी तो एक लड़की से होगी और प्यार भी एक से ही फिर सब पर ट्राई मारकर खुद की आत्मा को मैला क्यों करूं ?"जगत ने निकिता से कहा तो निकिता को अपने भाई और माँ को अपने बेटे को दिए संस्कारों पर गर्व हो उठा ।

✍️ राशि सिंह 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश , भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार राम दत्त द्विवेदी की रचना .....

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मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रामकिशोर वर्मा की रचना ....

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मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी की कविता .... प्रतीक्षा कृष्ण की

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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी-छोटी सी आशा.......


"सुनो ! कल कमल को छुट्टी कह दूँ क्या"

"नहीं,बुला लो।"

"अरे छोड़ो न, एक दिन रेस्ट कर लेगा।"

"उसने कौनसा पहाड़ खोदना है?आराम ही तो है,बैठ कर गाड़ी ही तो चलानी है।"

"फिर भी, मुझे ठीक नहीं लग रहा कल बुलाना।कल मुझे कॉलेज जाना नहीं है और हम सब लोग मूवी देखने जा रहै हैं।वहाँ के लिए तो आप ही ड्राइव कर लोगे।"

"जब मैं कह रहा हूँ तो कह रहा हूँ।बस तू कह दे उसे।भले ही कल 2 बजे बुला ले क्योंकि तीन बजे का शो है" 

"ठीक है..." रमा ने बेमन से कहा।उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि वह नये साल के दिन खुद तो परिवार के साथ एंजॉय करे और अपने ड्राइवर को बेवजह थोड़ी दूरी की ड्राइव करने के लिए भी बुला ले।उसने सोचा था कि वह कमल को कल की छुट्टी देकर उसे नये साल का जश्न मनाने को कहेगी तो उस गरीब के चेहरे पर भी एक छोटी सी मुस्कान आ जायेगी।

     'हम बड़ी चीजें न कर सकें पर अपने स्तर की छोटी छोटी खुशियां तो बाँट ही सकते हैं' रमा ने मन में बुदबदाया।उसे राघव पर झुंझलाहट आ रही थी,पर अपने पति की बात भी वह नहीं टाल सकती थी।

     कमल गैराज में गाड़ी पार्क कर चुका था और अंदर लॉबी में की-स्टेंड पर गाड़ी की चाभी टाँगने आया था।उसने रोज की तरह रमा से पूछा,

     "मैंने गाड़ी पार्क कर दी है,मैम।अब मैं जाऊँ....?और वो ...कल की तो छुट्टी रहेगी न मैम।आप कह रहे थे न कि कल कॉलेज नहीं जाना है।"

     "हाँ,कल कॉलेज तो नहीं जाना है पर सर बुला रहे हैं कल किसी काम से।तुम कल दो बजे आ जाना।" रमा ने सेन्टर टेबल पर फैली पड़ी मैग्जीन्स समेटने का उपक्रम करते हुए कहा।वह असहज महसूस कर रही थी क्योंकि उसने जो सोचा था वह हो नहीं पाया था।उसने चोर निगाह से कमल की ओर देखा।

     "ठीक है,मैम" कहकर कमल रोज की तरह गम्भीरता ओढ़े गर्दन झुका कर मेन गेट के पास खड़ी अपनी टीवीएस तरफ बढ़ गया।रमा के सिर पर उस उदास चेहरे का बोझ चढ़ गया था,वह जाकर अपने कमरे में लेट गयी।

        अगले दिन ठीक दो बजे कमल अपनी ड्यूटी पर था।

        "नमस्ते मैम,नमस्ते सर।आपको नये साल की बहुत बहुत मुबारकबाद।"

        "नमस्ते कमल,तुमको भी नया साल मुबारक।" राघव ने गर्मजोशी से कहा।

        रमा ने फीकी मुस्कान फैंकी।उसे राघव का कमल को छुट्टी के दिन भी काम पर बुलाना गलत लग रहा था।हालांकि महीने में चार-पाँच छुट्टियाँ कमल को आराम से मिल जाती थी क्योंकि सन्डे को तो रमा कॉलेज नहीं जाती थी।पर आज नया साल था और यही बात उसे खटक रही थी।

        रमा के दो बेटे थे जो युवा कमल से कुछ ही वर्ष छोटे किशोर वय के थे।वे दोनों भी तैयार होकर बाहर आ गये थे।कमल ने गैराज से गाड़ी बाहर निकाली और उसे साफ किया।राघव ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठा और रमा दोनों बेटों सहित पीछे की सीट पर।

        गाड़ी शहर के सबसे शानदार मॉल कम मल्टीप्लेक्स के मेन गेट पर पहुँच चुकी थी।

        कार पार्किंग में ले जाने से पहले कमल ने मालिक के परिवार को कार से उतारते हुए मालिक से पूछा," सर,कितनी देर की मूवी है?मैं सोच रहा था कार पार्क कर के मैं भी थोड़ी देर पास में ही अपने रिश्तेदार के घर हो आता।जब मूवी ख़त्म हो आप मुझे कॉल कर देना,मैं तुरन्त आ जाऊँगा।"

        "नहीं,तुम कहीं नहीं जाओगे।कार पार्क कर के सीधे यहाँ आओ।"

        कमल चुपचाप कार पार्किंग की ओर बढ़ गया।अब तो रमा को बहुत ही गुस्सा आया पर सार्वजनिक स्थान पर और वह भी जवान बेटों के सामने वह अपने पति से क्या कहे।उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर राघव ऐसा क्यों कर रहे हैं?राघव ने मुस्कुराकर रमा की ओर देखा लेकिन उसने गुस्से से मुंह फेर लिया।

        थोड़ी देर में कमल कार पार्क कर के लौटा तो राघव ने उसके कन्धे पर हाथ रखा और पूछा, "मूवी वगैरह देख लेते हो या नहीं।आज तुम्हें हमारे साथ मूवी देखना है,ठीक है।" कमल का चेहरा कमल की तरह खिल गया।रमा के दोनों बेटे भी पापा को देखकर मुस्कुराने लगे और रमा.... वह तो हक्की बक्की रह गयी थी।राघव ने प्यार से जब रमा की तरफ देखा तो वह मुस्कुरा उठी।रमा के बेटों ने कमल का हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ आगे बढ़ाया तो राघव ने रमा का हाथ पकड़ा।पाँच टिकट ऑनलाइन बुक कराये गये थे,थ्री डी मूवी थी जो रेटिंग्स में धूम मचाये हुए थी।ढाई घण्टे की मूवी देखकर हंसते खिलखिलाते सब हॉल से बाहर निकले।

        राघव पिज्जा कॉर्नर की तरफ बढ़ा और सबके लिए पिज्जा आर्डर किया।कमल के चेहरे पर संकोच मिश्रित प्रसन्नता के भाव थे।पाँच जगह पिज्जा सर्व  हुए।सबने खाना शुरू किया।लेकिन ये क्या कमल की आँखों में आंसू थे।राघव ने मज़ाक करते हुए पूछा,"क्या बात मूवी अच्छी नहीं लगी, कमल।"

"नहीं,सर नहीं,ऐसी बात नहीं है।बहुत अच्छी मूवी थी।पर.... मैंने अपने जीवन में आज तक कभी मल्टीप्लेक्स में मूवी नहीं देखी और थ्री डी मूवी भी पहली बार देखी।एक बात बताऊं ,सर।दो साल पहले मैंने इस पिज्जा कॉर्नर पर काम किया है।लेकिन मैंने कभी पिज्जा नहीं खाया।मैं बता नहीं सकता कि मैं आज कितना खुश हूँ।आप सचमुच बहुत बड़े दिल वाले हैं।वरना एक ड्राइवर को अपने साथ कौन बैठाता है,एक ड्राइवर के लिए इतना कौन सोचता है?" राघव ने कमल को गले से लगा लिया।

       रमा खुद पर शर्मिन्दा थी कि वह अपने ही पति की भलमनसाहत को आखिर क्यों नहीं पहचान पायी।पर उसे हल्का गुस्सा भी आया कि आखिर राघव ने उसे ये सब पहले क्यों नहीं बताया।? पर अगले ही पल उसने मन ही मन ढेर सारा प्यार राघव पर उड़ेला।दोनों बेटे बहुत खुश थे कि वे अपने व्यस्ततम माता पिता के साथ नये साल पर मूवी देखने आए।लौटते समय गाड़ी में बैठी सवारियों के भाव बिल्कुल बदले हुए थे।इस नये साल पर सबकी छोटी छोटी आशाएं जो पूरी हुई थीं।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित कानपुर के साहित्यकार डॉ सुरेश अवस्थी का संस्मरणात्मक आलेख


" सबकी बात न माना कर
                                        
खुद को भी पहचाना कर।  

दुनियां से लड़ना है तो-                                               
अपनी ओर निशाना कर।" 

        जीवन संघर्ष के लिए ये प्रेरक पंक्तियां कोमलतम संवेदनाओं को सहजतम अभिव्यक्ति देने वाले गीतकार कीर्तिशेष डॉ कुँअर बेचैन की हैं। क्रूर कोरोना से संघर्ष में भले ही डॉ बेचैन हार गए हों पर उन्होंने अपनी गीत व ग़ज़ल रचनाओं से प्रेम, दर्शन, जीवन संघर्ष के जो सन्देश  दिये हैं वे अक्षुण्य व अमर रहेंगे। यूँ तो उनकी बहुत सी रचनाओं से मैं भरपूर परिचित हूँ पर इस गीत की शक्तिमत्ता को मुझे अमेरिका के 18 शहरों में हुए कवि सम्मेलनों में देखने व आत्मसात करने का पुण्य अवसर मिला है।

 

  मेरी अमेरिका की तीसरी साहित्यिक यात्रा में 4 अप्रैल 2013 से 5 मई 2013 के मध्य अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति की ओर से श्री आलोक मिश्र के सौजन्य से विभिन्न शहरों में 18 कवि सम्मेलनों का संचालन व काव्यपाठ का अवसर मिला। यूँ तो यह यात्रा कई कारणों से विशेष रही पर डॉ कुँअर बेचैन जी के सानिध्य व संरक्षण से विशेषतम हो गयी।
    व्यंग्य कवि दीपक गुप्ता आरम्भिक काव्य पाठ कर रहे थे और समापन श्री बेचैन जी। मध्य में मैं काव्यपाठ करता था। पहले दो कवि सम्मेलनों में कुँवर जी ने हिंदी की महिमा पर केंद्रित गीत को समापन का गीत बनाया। तीसरे दिन कवि सम्मेलन मंच पर जाने से पूर्व उन्होंने मुझसे एकांत में बात की। अपने अनुभवों के अनन्त महासागर से निकाले कुछ मोतियों की चर्चा करते हुए उन्होंने
मुक्त मन से मन्त्रणा करके फैसला दिया हिंदी का समापन गीत समापन को उतनी ऊंचाइयां नहीं दे पा रहा जितनी अपेक्षित है। उन्होंने मेरा अभिमत जानना चाहा। सच तो यह है कि मैं भी महसूस कर रहा था कि उनके गीत-ग़ज़ल पाठ पर सुधी श्रोतागण जिस उल्लास और ऊर्जा के साथ अपनी अन्तस् खुशी प्रकट करते थे इस गीत पर वह किंचित कमजोर पड़ जाती थी। मैं इस पर पहले ही चिंतन कर चुका था पर मेरे संकोच ने मुझे जकड़ रखा था इसलिए मैं कह नहीं पाया।
      उन्होंने मेरी दोनों हथेलियां अपने हाथों में लीं तो उनकी स्नेहिल ऊष्मा से मेरा संकोच पिघल गया। मैंने प्रस्ताव रखा कि क्यों न आप समापन ' सबकी बात न माना कर ' गीत से करें। उन्होंने सहमति दी और फिर उस दिन समापन इसी गीत से किया। इस गीत की प्रस्तुति पर श्रोताओं का उल्लास ऐसा बिखरा की हम सभी मंत्रमुग्ध थे। गीत की अंतिम पंक्ति  " दुनिया बहुत सुहानी है इसको और सुहाना कर " तक पहुंचते पहुंचते प्रेक्षागार
के सभी श्रोताओं ने खड़े होकर विपुल तालियों के साथ कुँवर जी के स्वर से समवेत स्वर मिलाते हुए अभिनन्दन किया तो मैं हिंदी कविता की सामर्थ्य पर धन्य धन्य हो गया। यह सिलसिला आगे के कवि सम्मेलनों में भी चलता रहा। वे पल याद करता हूँ तो अन्तस में वही तालियां गूंज उठती हैं।
     
सच यह है कि डॉ कुँअर बेचैन ने हिंदी ग़ज़ल को स्थापित करने के लिए ग़ज़ल के मान्य शिल्प का पूर्ण निर्वहन करते हुए उसमें गीतात्मकता, गीत के विम्ब विधान, प्रस्तुति कला और रागात्मक भाषा को प्रतिष्ठापित किया है वह अलग से शोध का विषय हो सकता है। बाद में उन्होंने ही बताया कि ' सबकी बात न माना कर' ग़ज़ल ही थी जिसे उन्होंने बाद में गीत बनाया।
    इस यात्रा में उनके कुछ प्रसंशकों की प्रशंसा का अंदाज ही अलग मिला। मुझे शहर तो नहीं याद है पर याद है कि एक काव्यप्रेमी कार्यक्रम समाप्त होने पर कुँअर जी समीप आ कर बोले, तो बेचैन साहब जी"झूले पर उसका नाम लिखा और झूला दिया।" एक अन्य व्यक्ति ने दो उंगलियां उठा कर कहा," आती जाती सांसे दो सहेलियां हैं, वाह क्या गज़ब की बात कही। " एक महिला ने यूँ तारीफ की, डॉक्टर साहब" नदी बोली समंदर से में तेरे पास आई हूं, मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ," की नदी को साथ नहीं लाये। मैंने देखा कुँअर जी ऐसे क्षणों में बस किसी मासूम बच्चे की तरह मुस्करा देते।
 
   

विस्मित करने वाली रेखांकन कला


  डॉ कुँअर बेचैन जी की रेखाचित्र बनाने की कला में भी सिद्धहस्त थे। इस कला प्रत्यक्ष प्रदर्शन इसी अमेरिका यात्रा में देखने को मिला। 8 अप्रैल 2013 को हम लोग सिद्ध प्रसिद्ध कथाकार दीदी सुधा ओम ढींगरा के आतिथ्य में उनके शहर राले नार्थ कैरोलिना पहुंचे। हमें दो दिन इसी शहर में रहना था। इसी शहर में मेरा चचेरा भाई संकल्प अवस्थी है। हम लोग खाली दिन संकल्प के बुलावे पर उनके आवास पर गए। कुंअर जी कुछ ही समय में संकल्प , किरण (पत्नी) व उनकी बेटी (अपेक्षा) व बेटे (अथर्व) के संग आत्मीयता के साथ ऐसे घुलमिल गए कि मानों लंबे अर्से से परिचित हों। उन्होंने बेटी की कापी पर अपने पेन से आड़ी तिरछी रेखाएं खींच कर एक चित्र  उंकेरा और उस पर सुंदर हस्तलेख में तुरन्त रचा हुआ एक दोहा - (किरन,अपेक्षा,और नव प्रिय संकल्प अथर्व।यू.यस. में इनसे मिले, हुआ हमें अति गर्व) लिखा और कलात्मक हरस्ताक्षर करके  मुझसे व दीपक गुप्ता से भी हस्ताक्षर कर आशीर्वाद स्वरूप  बच्चों को थमा दिया। रेखांकन में  मुस्कराते हुए  चार चेहरे बने हुए थे। उनकी इस रेखांकन कला को देख कर हम सभी आश्चर्यचकित रह गए।
  

 

मॉरीशस में मस्ती

डॉ कुँअर बेचैन के सानिध्य में मेरी दूसरी विदेश यात्रा विश्व हिंदी सम्मेलन, मॉरीशस (18 से 20 अगस्त 2020) की हुई।संयोग से समुद्र तट के बहुत करीब बने खूबसूरत होटल हैल्टन में मेरा और डॉक्टर साहब का कमरा आमने सामने था। हम  साथ साथ ही जाते। उस दिन मैं तैयार होने के लिए पैन्ट, शर्ट, सदरी, रुमाल, व प्रयोग किये मोजे बेड पर इधर उधर फेंक कर अभी बाथरूम में घुस ही रहा था कि समय के बेहद पाबंद कुंअर जी रूम में मुझे बुलाने आ गए। बोले, ' अरे अभी तैयार नहीं हुए?' मैं ' सिर्फ दो मिनट' कह कर बाथरूम में घुस गया। दो मिनट में लौटा तो देखा कि कुँअर जी मेरी खुली अटैची से मेरे लिए अपनी पसंद की पोशाक निकाल चुके थे। मैने उनके द्वारा चयनित पोशाक पहनी। उन्होंने तुरंत मोबाइल से एक फोटो क्लिक किया।
मुझे अपनी अस्त व्यस्तता पर खुद से शर्मिंदगी हुई। मैने उस दिन समय का पाबंद रहना सीखा।वहाँ हम लोगों ने उनके साथ खूब आनंद उठाया।


मेरा पहला कवि सम्मेलन कुँअर जी के सानिध्य में...


यह सुखद संयोग है कि काव्य साहित्य की वाचिक परम्परा कवि सम्मेलन से जिस कार्यक्रम से मेरा परिचय हुआ, वही मेरा पहला कवि सम्मेलन बना जिसमे मैने काव्यपाठ किया। सुखद है कि पहले ही कवि सम्मेलन में मुझे डॉ कुंअर बेचैन जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। जहां तक मुझे स्मरण है कि सितंबर 1979 में कानपुर में गीतकार श्री शिव कुमार सिंह कुँवर के संयोजन में रोडवेज वर्कशाप में कवि सम्मेलन हुआ था जिसका सन्चालन श्री उमाकांत मालवीय जी कर रहे थे। मैं पहली बार कवि सम्मेलन सुन रहा था। मैंने साथ बैठे मित्र अनुपम निगम से कहा कि जैसे ये लोग कविता पढ़ रहे हैं, मैं भी पढ़ सकता हूँ। उन्होंने मेरा नाम आयोजक मंडल के पास भेज दिया। चमत्कार हुआ और दूसरे चक्र में डॉ कुँअर बेचैन के बाद मुझे बुलाया गया। चूंकि मैं उन दिनों रामलीला में वाणासुर का पाठ करता था और कविताएं लिखा करता था, इसलिए मुझे मंच व माइक का भय नहीं था। मैंने उन दिनों स्वतंत्रता दिवस पर कविता लिखी थी। वही कविता मैने पूरे तेवर के साथ प्रस्तुत की। खूब वाह वाह हुई। कार्यक्रम खत्म होने पर जिस कवि ने सबसे पहले मुझे नोटिस में लेकर पीठ थपथपाई वह कुँअर जी थे। सिर पर रखा उनका आशीर्वाद का हाथ मैं अभी भी महसूस करता हूँ। ' मानस मंच ', राष्ट्रीय पुस्तक मेला, दैनिक जागरण के कवि सम्मेलनों, लाल किला, देश के कई शहरों सहित तमाम कवि सम्मेलनों व पुस्तक लोकार्पण समारोहों में उनके साथ मंच साझा करने के पुण्य अवसर मिले। मानस मंच,कानपुर के आयोजन में उन्होंने मेरे आग्रह पर सम्मान भी स्वीकार किया।डॉ कुअँर बेचैन ने एक अन्य आत्मीय यात्रा में बताया कि बचपन में ही माता पिता को खो देने के बाद बड़ी बहन के संरक्षण व निर्देशन मे उन्होंने कितने संघर्षों से इस मुकाम तक पहुंचा हूं। मैंने सीखा कि साधन ' से नहीं 'साधना' से मिलती है सफलता।

आज भी प्रेरणा देता है मेरे जन्मदिन पर लिखा प्रत्येक शब्द 


डॉ कुँअर बेचैन ने अमेरिका यात्रा के बाद मेरे जन्मदिन 15 फरवरी को उन्होंने मेरे लिए जो लिखा उसका शब्द शब्द में स्नेह से पगा हुआ और प्रेरक है...
"आज प्रसिद्ध पत्रकार, कवि,संचालक , संयोजक एवं चिंतक डॉ. सुरेश अवस्थी जी का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं । सुरेश जी के साथ मुझे कई कविसम्मेलनों में जाने का अवसर मिला। विशेष रूप से उस यात्रा का ज़िक्र करना चाहूंगा जो अमेरिका की यात्रा थी। अमेरिका के 18 नगरों में हम लोगों का काव्य-पाठ था। कहा जाता है कि अगर किसी के स्वभाव की मूल प्रवृति की पहचान करनी हो तो उसके साथ कुछ दिनों यात्रा करो। डॉ. सुरेश ने इस यात्रा के दौरान जिस आत्मीयता का परिचय दिया, जितना मेरा ध्यान रखा,  जितना मुझे प्रेम और सम्मान दिया वह अविस्मरणीय है। उनकी प्रबंधन-क्षमता भी अनुकरणीय है।
      मैं उनके जन्मदिन के सुअवसर पर उनके उत्तम स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि की कामना करता हूँ। वे दीर्घजीवी हों। - कुँअर बेचैन


काश! उनके हाथों में सौंप पाता पुस्तकें...

डॉ कुंअर बेचैन जी ने मेरे ग़ज़ल संग्रह " दीवारें सुन रही हैं" व दोहा संग्रह " बन कर खिलो गुलाब " में मेरी रचनाधर्मिता पर उदारतापूर्वक आलेख लिखे। कोरोना महामारी के चलते ये दोनों पुस्तकें समय पर न आ सकीं। अब जब कि दोनों पुस्तकें आ गईं हैं तो जीवन भर मलाल रहेगा कि काश! मैं ये पुस्तकें उनके हाथों में सौंप पाता?
  

 शिष्यों की लंबी सूची

डॉ  बेचैन जी के रचनाधर्मी शिष्यों की लंबी सूची है। उन्हीं में से एक गीतकार ग़ज़लकार मेरे अनुजवत डॉ दुर्गेश अवस्थी हैं । उन्होंने कई बार अपने गुरुदेव डॉ कुँअर जी के गुरुत्वभाव, सदाशयता, स्नेह , उदारता, सहयोग आदि की मुझसे कई बार चर्चा की। मुझे याद है कि जब मैंने डॉ दुर्गेश को मानस मंच, कानपुर के कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया तो उन्होंने काव्यपाठ से पूर्व अपने गुरुदेव का स्मरण करके उनकी ही पंक्तियों से उन्हें प्रणाम किया और फिर अपनी रचनाएं पढ़ीं। उनके महाप्रस्थान से बेहद भावुक व दुखी दुर्गेश जी ने बताया कि हाल ही में डॉ बेचैन जी ने उनकी पुस्तक की भूमिका लिखी है। उनके द्वारा लिखी यह भूमिका अंतिम भूमिका है। जाते जाते वह मुझे आशीर्वाद का महाप्रसाद दे गए। उनके प्रति वह जीवनपर्यंत ऋणी रहेंगे।
    

मेरा मानना है कि कालजयी रचनाओं के रचनाकार देह से भले ही हमारे बीच से चले जाएं पर अपनी रचनाओं से हमेशा रहते हैं क्योंकि उनकी मृत्यु नहीं होती, रूपांतरण होता है। डॉ कुंअर बेचैन अपने प्रसंशकों व अपने दुर्गेश जी जैसे प्रतिभासंपन्न शिष्यों में रूपांतरित हुए हैं।इसलिए अनन्त स्मृतियां, अपार स्नेह, अप्रतिम रचनाधर्मिता, आनंदकारी प्रस्तुति, अभिभूत करने वाली लोकप्रियता, अद्भुत शालीनता, अपार बड़प्पन, अक्षुण्य धैर्य, अभूतपूर्व वाणी संयम, अलौकिक रागात्मकता, अमर काव्य साधना, अगम सकारात्मकता व अनन्तिम सौहार्द्र ।

✍️ डॉ.सुरेश अवस्थी    
117/L / 233 नवीन नगर
कानपुर.208925
उत्तर प्रदेश, भारत
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