शनिवार, 26 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष गगन भारती पर केंद्रित ए टी ज़ाकिर का संस्मरणात्मक आलेख ....कहां तुम चले गए.......


बात 1969 की है । गगन साहब से मेरा तार्रूफ़ जनाब साहिर लुधियानवी साहब के साथ एक मीटिंग के दौरान बम्बई के एक कौफ़ी हाउस में हुआ था। इस मीटिंग में अदबी दुनिया की मशहूर -ओ-मारुफ़ हस्तियां मौजूद थीं । अदब में ये एक अजीब इन्कलाबी दौर था, जिसमें हिन्दुस्तान के राइटर्स को जदीदियत की एक नई दुनिया दिखाई देने लगी थी।

ये क़लमकार थे, जनाब साहिर साहब, जनाब के.ए.अब्बास साहब, जनाब कृशन चन्दर साहब, जनाब रामलाल साहब, जनाब कैफ़ी आज़मी साहब, जनाब जां निसार अख़्तर साहब, जनाब राजेन्द्र सिंह बेदी साहब, जनाब हसरत जयपुरी साहब, जनाब तलत महमूद साहब, जनाब जोश मलीहाबादी साहब , उनके साथ थे गगन भारती और मेरे जैसे नन्हे पौधे जो इन बड़े- बड़े आलीशान दरख़्तों के साये में पल रहे थे। जिस गुलशन या अंजुमन का मैं ज़िक्र कर रहा हूं, उसका नाम था,"प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन"इस ग्रुप का मिम्बर होना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी। बडा फ़ख्र महसूस करते थे इसकी मिम्बरशिप पाकर लोग।

तरक्की पसंद ख्याल और जदीद सोच के नारों को बुलन्द करने वाली ऐसी ही उस मीटिंग में पहले -पहल गगन भारती साहब को देखा। गगन साहब आग उगलती हुई नज़्मों के शायर थे और मैं इक्कीस  साल का वो अनजाना अफसाना निगार था,जो इन अज़ीम अदबी सितारों से उस हद तक मुत्तासिर हो चुका था कि एक अजीब से मकनातीसी अंदाज़ में इन सितारों के गिर्द गर्दिश कर अपना वजूद टटोल रहा था। ये मेरी ख़ुशकिस्मती थी कि अपने चन्द अशआर से जनाब साहिर साहब की नज़र की ज़द में आ चुका था।

     

मैं साहिर साहब और जनाब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की कला का शैदाई था, तो उसी अंदाज़ में गगन साहब का कहा क़लाम मेरे दिल में उतर गया। मुझे बताया गया किसी यूनानी देवता जैसा दिखने वाला ये बेहद हैंडसम नौजवान गगन भारती भी मुरादाबाद से ताल्लुक रखता है, तो मुझे बहुत खुशी हुई और मैंने दोस्ती का हाथ गगन साहब के आगे बढ़ा दिया। हम अच्छे दोस्त बनकर मुरादाबाद लौटे पर जिस मीटिंग का ज़िक्र मैनें ऊपर किया, उसमें गगन साहब ने न सिर्फ अपने कलाम से  वाहवाही लूटी वरन अपनी ज़हनियत और तरक्की पसंद सोच के झंडे गाड़ दिए।

गगन साहब ने जनाब के ए अब्बास साहब और कृशन चंदर साहब के सामने एक मशवरा रखा कि हमारी इस अंजुमन में सिर्फ जदीद खयाल राइटर्स ही क्यों मेंबर हैं ? कोई भी फनकार जो हुनरमंद और तरक्की पसंद है, वह क्यों नहीं मेंबर हो सकता। उसे भी मेंबर होना चाहिए। खासी तवील बहस के बाद गगन साहब का मशवरा मान लिया गया और एक नई अंजुमन बन गई जिसमें कोई भी जदीद खयाल हुनरमंद फनकार मेंबर हो सकता था। गगन साहब ने नाम सुझाया "अंजुमन तरक्की पसंद मुफक् रीन" और उसी रात ये अंजुमन अपने वजूद में आ गई।

   

मैं गगन साहब की फिलासफी और ज़हनियत का और ज्यादा कायल हो गया। मुरादाबाद लौट कर हम दोनों एक दूसरे से मिलने लगे । गगन साहब को मेरे अफ़साने पसंद आते तो मैं उनकी नज़्मों पर फिदा था। कहना गलत ना होगा कि मैं न सिर्फ उनसे नज़्म कहने का सलीका बल्कि उनकी अजीम शख्सियत से एक सच्चा इंसान बनने की तालीम लेने लगा । आज जो तहजीब और इंसानियत का जज्बा मेरे अंदर आप पाते हैं। वह गगन साहब का मुझे दिया ईनाम है और जो बदतमीजी या अक्खड़पन आपको मुझ में नजर आता है वह मेरा ओरिजिनल किरदार है । गगन साहब बहुत अजीम और कामयाब शायर थे। हिंदुस्तान का कोई मुशायरा ऐसा नहीं था जो उन्होंने पढ़ा ना हो। वह मुशायरे के बादशाह थे, कितनी ही बार मैंने वह दिल फरेब मंजर देखा जब लोग उन्हें मुशायरे का माइक छोड़ने नहीं देते थे । बाहैसियत एक इंसान, गगन साहब का किरदार इतना आलीशान था कि अपनी 74 साल की जिंदगी में मैंने उन जैसा सच्चा और उम्दा इंसान दूसरा नहीं देखा।

एक वाकया याद आ रहा है : मुरादाबाद में हमारे एक और प्यारे दोस्त रहते थे जिनके गगन साहब से अच्छे ताल्लुकात थे। हमारे वह साथी मुरादाबाद से कहीं बाहर चले गए और गुरबत के शिकार हो गए। 43 साल के बड़े अर्से में उनकी कोई खैर खबर नहीं मिली गो कि वो बात और थी कि वह गगन साहब की तलाश सोशल साइट्स पर करते रहे और मुरादाबाद की महफिलों में गगन साहब उनका जिक्र खासे ऐहतराम से करते रहे । 2018 में उन्होंने फेसबुक के जरिए गगन साहब को ढूंढ निकाला और दोस्ती की ठहरी हुई किश्ती एक बार फिर खुशियों के दरिया में आगे चल पड़ी । पर वक्त को दोस्तों की यह छोटी सी खुशी बर्दाश्त नहीं हुई और एकाएक उन दोस्त की कुंवारी नौजवान बेटी की दोनों आंखों की रोशनी एक हादसे में जाती रही। इन आंखों के कामयाब ऑपरेशन  के लिए 2 लाख रुपए  की दरकार  थी । एक गरीब फनकार इतनी बड़ी रकम कहां से जुटा सकता था पर किसी दोस्त के जरिए गगन  साहब को ये बात पता चली,उन्होंने उसी दिन बीस हजार रुपए अपने उसी दोस्त  को भिजवा दिये। अल्लाह की मेहर से बाकी रकम का भी वक्त रहते बन्दोबस्त  हो  गया और उस बेटी की आंखो का कामयाब ऑपरेशन  दिल्ली में हुआ। आंखो की रौशनी वापिस आ गई। बाद में जब उस दोस्त ने गगन साहब को इस मदद का शुक्रिया अदा करना चाहा तो इन्सान  की शक्ल मे जीने वाले उस फरिश्ते ने कहा,"कैसा "शुक्रिया ?, कैसी मदद? मैंने सिर्फ वो किया जो एक दोस्त को करना चाहिए था और जहां तक उस छोटी सी रकम की बात है,क्या वह मेरी बेटी नहीं है ?"और गगन साहब ने इस टाॅपिक पर फ़ुुलस्टाप लगा दिया। तो इतनी शानदार शख्सियत और आला किरदार  के मालिक थे गगन साहब !

 

मुझे याद है, 1970-71 के वो दिन जब के.जी.के.कालेज के इंग्लिश डिपार्टमेंट के प्रोफेसर मोयत्रा साहब के दौलतखाने पर एक माहनामी नशिस्त बज़्मे मसीह हुआ करती थी,जिसकी डायस सैक्रैटरीशिप गगन साहब सम्भालते थे ।इस हिन्दी,उर्दु की गंगा_जमुनी नशिस्त में मुरादाबाद और आसपास  के शहरों के कवि और शायर शिरकत किया करते थे. ये वो स्टेज था जिस  पर जनाब कमर मुरादाबादी साहब और अल्लामा कैफ मुरादाबादी को मैने एक साथ  पढते देखा । इस नशिस्त का आगाज  रात करीबन नौ बजे होता धा और  तड़के मुर्गे की बांग के साथ यह नशिस्त अपने अंजाम पर पहुंचती थी। इस नशिस्त में जनाब शाहाब मुरादाबादी,जनाब अख्तर आजिम साहब ,जनाब हिलाल रामपुरी, जनाब गौहर उस्मानी साहब, जनाब हुल्लड़ मुरादाबादी, जनाब मक्खन मुरादाबादी, जनाब प्रोफेसर महेंद्र प्रताप,जनाब ललित मोहन भारद्वाज साहब और इस मयार के और जाने कितने शोरा हाजरात अपने कलाम  सुनाया करते थे।गगन साहब इंकलाबी नज़्में कहते थे,हम सब सांस रोक कर उनका क़लाम सुनते थे। शायरी गगन साहब को अपनी अम्मी से विरासत में मिली थी। वो बहुत आलादरजे का क़लाम कहती थीं । उन्होंने ही शायरी की ए.बी.सी.डी.गगन साहब को समझायी थी।

मेरी जिन्दगी की इतनी सारी यादें गगन साहब  से वाबस्ता है कि अगर मैं उनको लिखने -समेटने बैठूं तो एक मुकम्मल दीवान बन सकता है। अब  मैं उस मनहूस दिन का जिक्र कर रहा हूं, जिस दिन गगन  से आया ये फरिश्ता हम सब को तन्हा छोड़कर चला गया। गगन साहब की तबीयत पिछले 6-7 माह से ख़राब थी और बिगड़ती जा रही थी मगर  उस शेरदिल इंसान ने हम दोस्तों को अपनी इस बीमारी और तकलीफ़ से कभी रुबरु होने ही न दिया जब ज़िन्दगी की लौ टिमटिमाने लगीं तो हमें मनोज रस्तोगी साहब से उनकी बीमारी की ख़बर मिली। मैं उन दिनों रोज रात को 8.30 बजे फ़ोन करके उनका हाल लेता था । कभी कभी भाभी साहिबा से भी बात हो जाती थी। मैं उनकी खैरियत रोज़ रात को नौ बजे मनोज रस्तोगी साहब, जनाब मक्खन मुरादाबादी  और बम्बई के जनाब विनोद गुप्ता साहब को बतलाता था। 

 न चाहते हुए भी आ गया, वो मनहूस दिन जब गगन  साहब अपना हाथ हमसे छुड़ा के जिस गगन से आए थे, वहीं लौट गए। मैंने जब ये मनहूस खबर मक्खन मुरादाबादी और उसके बाद जनाब विऩोद गुप्ता साहब को बतलाई तो ये दोनों साहेबान फ़ोन पर ही फ़ूट फूटकर रोने लगे। अपनी कैफि़यत को इस हादसे के इतने दिनों बाद भी बतलाने की हालत में मैं नहीं हूं । मेरी दुनिया 21 अक्टूबर 2022 को जहां थी, वहीं उसी लम्हे में ठहर गयी है।

  गगन साहब क्या गए, मेरी आधी ज़िन्दगी और मेरी रूह भी उनके साथ ही चली गई । मैं हूं यहीं,इसी दुनिया में टूटा हुआ और अधूरा। मेरे सिर के ऊपर बहुत ऊंचाई तक ख़ला है पर गगन नहीं।  


✍️
ए.टी.ज़ाकिर

 फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001 

 मोबाइल फ़ोन नंबर 9760613902, 847 695 4471

 मेल- atzakir@gmail.com


सोमवार, 21 नवंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं कला संस्था 'संकेत' के रजत जयंती समारोह में साहित्यकार डॉ प्रेमवती उपाध्याय , श्रीकृष्ण शुक्ल, प्रेमचंद प्रेमी, ओंकार सिंह विवेक एवं मीनाक्षी ठाकुर को किया गया सम्मानित

मुरादाबाद की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं कला संस्था 'संकेत' का रजत जयंती समारोह रविवार 20 नवम्बर 2022 को रामगंगा विहार स्थित एमआईटी सभागार में आयोजित किया गया। वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए समारोह में डॉ प्रेमवती उपाध्याय (मुरादाबाद), श्रीकृष्ण शुक्ल(मुरादाबाद), प्रेमचंद प्रेमी (धामपुर), ओंकार सिंह विवेक (रामपुर) एवं मीनाक्षी ठाकुर (मुरादाबाद) को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए संस्था की ओर से सम्मानित किया गया। 

   सम्मान स्वरूप संस्था की ओर से उन्हें अंग वस्त्र, मानपत्र, प्रतीक चिह्न एवं पुस्तक प्रदान की गई। सागर तरंग प्रकाशन की ओर से उपरोक्त पांचों सम्मानित रचनाकारों की रचनाओं के साझा संकलन " साधना के पथ पर " का विमोचन भी  किया गया। सभी पाॅंचों सम्मानित रचनाकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित आलेख प्रो ममता सिंह, राजीव प्रखर, दुष्यंत बाबा, पूजा राणा, एवं मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत किए गये। इस अवसर पर सम्मानित पांचों साहित्यकारों ने रचना पाठ भी किया। 

समारोह की अध्यक्षता करते हुए सुधीर गुप्ता  (चेयरमैन एमआईटी, मुरादाबाद) ने कहा...  "सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं कला के क्षेत्र में संकेत द्वारा किया गया योगदान सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। साहित्यकारों पर यह दायित्व है कि वे समाज को निरंतर सही दिशा में आगे बढ़ाते रहें।"

  मुख्य अतिथि डॉ विशेष गुप्ता (पूर्व अध्यक्ष बाल संरक्षण आयोग, उत्तर प्रदेश) का कहना था - 'संकेत' ने अपने विभिन्न आयामों से  समाज को रास्ता दिखाने का उल्लेखनीय कार्य किया है जो भविष्य में सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगा।"

  विशिष्ट अतिथि के रूप में दयानंद डिग्री कॉलेज के प्रबंधक उमाकांत गुप्ता ने कहा "सामाजिक उत्थान में संकेत की भूमिका निश्चित रूप से वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को प्रेरित करेगी।"

   डॉ महेश 'दिवाकर' (अध्यक्ष अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य कला मंच) ने कहा ..

 "कहा-अनकहा सब कहें, कविगण करें सचेत। 

अद्भुत गति साहित्य की, बता दिया संकेत।"

   विशिष्ट अतिथि बाल-साहित्यकार राजीव सक्सेना ने विचार रखते हुए कहा - "संकेत का समाज को बेहतर बनाने और नगर के साहित्यिक व सांस्कृतिक परिदृश्य को परिष्कृत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उसने सफलतापूर्वक अपनी भूमिका का निर्वहन किया है।"

   संस्था की स्थापना एवं गतिविधियों पर आधारित आलेख का वाचन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी द्वारा किया गया। काले सिंह साल्टा ने काव्य पाठ किया। 

 समारोह में वरिष्ठ कवयित्री डॉ पूनम बंसल, नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम, अमर सक्सेना,  पूजा राणा,  सरिता लाल, सुनील ठाकुर, रामसिंह निशंक, इंदु रानी, डॉ प्रीति हुंकार, नकुल त्यागी,  रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ, डॉ मधु सक्सेना, डॉ मीरा वैश्य, शिवओम वर्मा, रवि चतुर्वेदी, राशिद हुसैन, अभिव्यक्ति सिन्हा, रघुराज सिंह निश्चल, ओंकार सिंह ओंकार आदि साहित्य प्रेमी उपस्थित रहे। समारोह का संचालन संस्था के अध्यक्ष अशोक विश्नोई ने किया तथा संयोजन राजीव प्रखर एवं दुष्यंत बाबा का रहा।  संस्था के महासचिव शिशुपाल 'मधुकर' ने आभार-अभिव्यक्त किया। 








































मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ....गुरु चेला


एक दाता,

एक ग्राहक

एक सम्पन्न,

एक विपन्न

एक शीर्ष,

एक चरण,

एक मुखर,

एक मौन

बने रहेंगे 

जब तलक

मैं और तुम।

सब कुछ होगा 

केवल यन्त्रवत

या चित्रवत 

तात्कालिक

अथवा

सूक्ष्म कालिक।

तो चलो बदलें

परिदृश्य

मैं और तुम 

मिलकर

हों दोनों मुखर,

नव विचारों से 

हों दोनों सम्पन्न,

ज्ञान की आभा से

हों दोनों ग्राहक

सद्ज्ञान के

न चरण 

न शीर्ष

दोनों हों 

बस हृदय।

चरण और

शीर्ष के मध्य 

की दूरी जिस दिन

हृदय बन कर मिट जायेगी

पाट लिए जायेंगे,

अज्ञान के सब सागर

उसी दिन।

जी उठेंगी,

पत्थर व कागज की

पाठशालाएं,

हांं, उसी दिन।


✍️ हेमा तिवारी भट्ट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


शनिवार, 19 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद संभल)के साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग की रचना ....गौरैया और गिद्ध


सुनो! सुनाऊं, ध्यान से; सुन लो मेरे मीत।

गौरैया और गिद्ध में हुई अनोखी प्रीत। 


ऐसी डूबी प्रीत में, इक गौरैया यार।

प्रीत करी इक गिद्ध से, किया न तनिक विचार।

 

समझाई माँ-बाप ने, समझ सुता यह मर्म। 

गौरैया और गिद्ध के, नहीं निभेंगे धर्म।


लाख सीख दी भ्रात ने, मत कर ऐसी प्रीत।

माँ का आंचल रौंदकर ,गइ गौरैया जीत।


गौरैया पर गिद्ध का, चढ़ा प्रेम का रंग।

गौरैया फुर हो गई, छली-गिद्ध के संग।


 लिप्त हुए फिर 'काम में, खूब बुझाई प्यास।

मात-पिता करते रहे, गौरैया की आस।

 

देह वासना में सखे!, बीते कुछ दिन- रैन।

देख रूप फिर गिद्ध का, गौरैया बेचैन।


 उसका धन लुटता रहा, भइ गौरैया रंक ।

नोचे इक-इक गिद्ध ने, गौरैया के पंख।

 

हुई जुल्म की इंतेहा, फटा कलेजा यार।

गौरैया को गिद्ध ने, दिया एक दिन मार।


विनती करे 'चिराग' यह, दे! गौरैया ध्यान।

किसी प्रेम में तोड़ मत, मात-पिता की आन।


 मात-पिता के प्रेम का, रख गौरैया मोल।

धरती के भगवान हैं, मात-पिता अनमोल।


✍️ दीपक गोस्वामी 'चिराग'

शिवबाबा सदन, कृष्णाकुंज 

बहजोई -244410 

जनपद संभल

उत्तर प्रदेश, भारत

मो. 9548812618 

ईमेल-deepakchirag.goswami@gmail.com

बुधवार, 16 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ....गिद्ध


       

 ‌"पापा!कुछ करो ना! मेरा दम घुट रहा है, और  सांस भी उखड़ रही है।" एंबुलेंस की सीट पर लेटे कार्तिक ने ऑक्सीजन मास्क के पीछे से अटकते - अटकते बड़े दयनीय स्वर में कहा तो बराबर की सीट पर बैठे डॉ० राघव मल्होत्रा की मजबूर आंखों में जलकण झिलमिलाने लगे।

    कार्डियक अस्थमा से पीड़ित बेटा थोड़ी - थोड़ी देर में यही करुण पुकार करने लगता था और वे कसमसा कर रह जाते थे। ऑक्सीजन के सहारे ही सांसे चल रही थीं, और वह भी समाप्ति की ओर थी। एंबुलेंस में लिटाए - लिटाए कहाँ - कहाँ नहीं भटकते फिरे थे वे... कभी बोथम हॉस्पिटल तो कभी संजीव आरोग्य केंद्र, कभी सरस्वती अस्पताल तो कभी देवनंदिनी चिकित्सालय… सभी जगह रटारटाया सा प्रत्युत्तर मिलता - 'सॉरी! अस्पताल में भरती करने के लिए कोई बैड खाली नहीं है, न ही ऑक्सीजन उपलब्ध है। कहीं और प्रयास करें!'

    स्वयं भी महानगर के सुप्रतिष्ठित चिकित्सक होने के नाते अपने कई डॉक्टर मित्रों से वे फोन पर अनुरोध भरी भिक्षा मांग चुके थे - "बस एक सिलेंडर की भिक्षा दे दीजिए या फिर अपने अस्पताल में भरती कर लीजिए! मेरे बेटे की जिंदगी का सवाल है, कोई भी, कितना भी मूल्य चुकाने को तैयार हूं।"

   पर सब जगह निराशा ही हाथ लगी - "इस समय बहुत बड़ी मजबूरी है। हॉस्पिटल में कोई भी बैड खाली नहीं है। और ऑक्सीजन भी कुछ ही घंटों की शेष है! जिलाधिकारी से गुहार लगाई है कि किसी भी तरह ऑक्सीजन की व्यवस्था कराएं! वरना हम रोगियों को बचा न सकेंगे!"

    वे गिड़गिड़ा भी पड़ते थे जैसे फोन पर ही पैर छूने को आतुर हों - "मेरा इकलौता बेटा है, ऑक्सीजन न मिली तो कुछ भी हो सकता है… बस थोड़ी सी गैस दे दीजिए! ताकि इस समय का काम चल सके, बाद में तो मैं कोई और भी व्यवस्था कर सकता हूं।"

   उनके अभिन्न मित्र डॉ० कुलकर्णी ने तो उन्हें झिड़क ही दिया था - "तुम्हारे लिए तुम्हारे बेटे की जान कीमती है तो हमारे लिए हमारे अस्पताल में भरती रोगियों की जान कीमती है। हम उनका जीवन कैसे दांव पर लगा दें? कई पेशेंट तो ऐसे हैं जो केवल ऑक्सीजन के आश्रय पर ही जिंदा हैं। इधर ऑक्सीजन समाप्त, उधर उनकी जिंदगी समाप्त।"

   "अर्थात् तुम्हारे लिए मेरे बेटे की जान कीमती नहीं है, वे अनजान बीमार कीमती हैं जिनसे तुम्हारा दूर-दूर तक कोई रिश्ता - नाता नहीं? कुछ पेशेंट काम में आ भी गए तो क्या हुआ? तुम पर क्या असर पड़ेगा उनका? पर मेरा बेटा तो बच जाएगा। मेरे बेटे से तो मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। यूं समझिए कि मेरे बेटे के बचने से मुझे भी जिंदगी मिल जाएगी। वरना मैं भी जीते जी मर जाऊंगा।" डॉ मल्होत्रा करुण कटाक्ष करते - करते भावपूर्ण आवेश में आ गए थे।

   डॉ कुलकर्णी इस कटाक्ष पर तिलमिला गए थे - "डॉ० राघव मल्होत्रा! तुम अपने पेशे के प्रति कर्तव्य विहीन हो सकते हो परंतु मैं नहीं। मुझे सब पता है तुम्हारे अस्पताल में क्या-क्या होता है? मुझे आवेशित कर मेरा मुंह मत खुलवाओ!"

   "क्या कर लोगे मेरा तुम, अपना मुंह खोलकर? अरे मैं भी सब जानता हूं तुम्हारे अस्पताल में कितने - कितने काले कारनामें होते हैं? तुम तो मरे हुए पेशेंट की चमड़ी तक उधेड़ लेते हो। डैड बॉडी से भी पैसे बनाते रहते हो।" आवेश में वे भूल गए कि उनका बेटा गंभीर रूप से बीमार है और वह उसी के लिए एक यूनिट ऑक्सीजन के लिए दर-दर भटक रहे हैं।

   आक्रोश में तमतमा गए थे डॉ० कुलकर्णी - "अरे हम तो मरे हुए की ही चमड़ी उधेड़ते हैं, पर तुम तो वह गिद्ध हो जो जिंदा आदमी का मांस नोंच नोंचकर खा जाता है। बताओ! तुम्हारे हॉस्पिटल में सामान्य पेशेंट की भी कोविड टैस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आती है या नहीं? फिर उसे रेमडेसिविर इंजेक्शन लगा - लगाकर लाखों रुपए वसूलते रहते हो या नहीं? ऑक्सीजन खत्म हो जाने का नाटक रचकर ब्लैक में खरीदने के बहाने तुम कई गुना दाम वसूलते हो या नहीं? फिर उसकी डैड बॉडी ही तुम्हारे हॉस्पिटल से कई सतह वाले कफन में पैक होकर बाहर निकलती है या नहीं?... डॉ० राघव मल्होत्रा! सच पूछो तो यह तुम्हारे उन्हीं कुकृत्यों का परिणाम है कि महानगर में इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी तुम्हें एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए किसी भूखे भिखारी की तरह भीख मांगनी पड़ रही है।"

   बुरी तरह बौखला गए थे डॉ० राघव मल्होत्रा। कोई प्रत्युत्तर नहीं सूझा तो झुंझलाकर फोन ही डिस्कनेक्ट कर दिया था उन्होंने।

   डॉ० कुलकर्णी ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया था... कठोर और कटु सत्य कह दिया था कुलकर्णी ने... उनकी आंखों में अपने ही अस्पताल के कुकृत्य किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……. 


   महानगर का सुप्रतिष्ठित 'आयुष्मान हॉस्पिटल'… संचालक डॉ० राघव मल्होत्रा… एक सिद्धहस्त कुशल सर्जन के रूप में दूर-दूर तक उनकी विशिष्ट पहचान थी। जटिल से जटिल सर्जरी के केस बड़ी सरलता से सुलझा लिए जाते थे उस हॉस्पिटल में। सर्जरी के कुशल प्रवक्ता के रूप में व्याख्यान देने भी वे देश - विदेश में जाते रहते थे... और मोटे शुल्क पर अन्य अस्पतालों की भी विजिट करते रहते थे... हर ओर से धन की बौछार... हर समय सिर पर धन कमाने का जुनून सवार...

   मानवीयोचित संवेदनाएं हृदय के किसी कोने में न थीं… जीवन का एक ही उद्देश्य, एक ही धर्म, एक ही कर्तव्य... मानव को जितना नोंचा - खसोटा जाए, कमी मत छोड़ो! चर्म तक उधेड़ लो... इस संसार में कोई किसी का नहीं, बस पैसा ही काम आता है।

   अर्थात् यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि उनके भीतर एक गिद्ध छिपा बैठा था, जो नोंचने - खसोटने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था।

   और जब एक नन्हें से वायरस कोरोना ने देश भर में महाप्रलय मचायी तो उनके प्रखर महत्त्वाकांक्षी मस्तिष्क ने आपदा में भी अवसर तलाशने में विलंब नहीं किया। प्रशासन के सहयोग से उन्होंने 'आयुष्मान हॉस्पिटल' को 'कोविड-19 उपचार केंद्र' में परिणत करने में सफलता अर्जित की तो वहां सर्जरी के स्थान पर कोरोना पीड़ित रोगियों का उपचार किया जाने लगा।

   फिर तो धन की घनघोर वर्षा होने लगी... कोई सर्जरी का रोगी भी आ जाता तो निराश उसे भी नहीं किया जाता... पहले उसे भरती किया जाता, फिर उसका कोरोना टैस्ट किया जाता। पॉजिटिव प्रदर्शित कर कोविड-19 का उपचार करने की ओट में लाखों रुपए वसूले जाते... कभी रेमडेसिविर का अभाव बताकर रोगी के परिचारकों को इधर-उधर भटकाया जाता, कभी ऑक्सीजन की कमी दर्शाकर नचाया जाता और इस ओट में मोटी कमाई की जाती।

   परंतु रोगी बचता तब भी नहीं था - 'सॉरी! बहुत कोशिश की हमने, पर पेशेंट को बचा नहीं सके! फेफड़े पूरी तरह गल गए थे।'

   कई सतह वाले कफन में पैक्ड डैड बॉडी ही बाहर निकलती थी। वह भी कोविड अस्पताल के प्रोटोकॉल के अनुसार परिजनों को नहीं दी जा सकती थी। मृत शरीर से भी धन वसूलने में पीछे नहीं रहा जाता था - 'श्मशान गृह में इंच भर भी जगह खाली नहीं है।' यह अभाव दर्शाकर किसी अन्य स्थान का भारी-भरकम शुल्क जमा कराया जाता था। और क्रियाकर्म का शुल्क तो अलग से था ही जो अस्पताल के कर्मचारियों की सदाशयता पर निर्भर करता था।

   परीक्षणशाला अपनी, मेडिकल स्टोर अपना, कर्मचारी अपने, समूची व्यवस्था अपनी... आयुष्मान हॉस्पिटल में आने वाला हर रोगी कोविड-19 वायरस पॉजिटिव ही निकलता था, चाहे वह सामान्य खांसी, जुकाम से ही पीड़ित क्यों न हो।

   और यह भी उसकी एक विशेषता ही थी कि शायद ही कोई रोगी उसमें से स्वस्थ होकर बाहर निकलता हो?... लोग स्वस्थ होने की आशा हृदय में पाले अपने रोगी को हॉस्पिटल में भरती करते और अपना सब कुछ दांव पर लगाकर कुछ दिन बाद ही लुटे - पिटे जुआरी की तरह खाली हाथ रोते - बिलखते घर वापस लौटते।


   किसी समाचार पत्र का पत्रकार था वह, जिसके पिता को उदरशूल की शिकायत पर वृक्काश्मरी के संदेह मे अल्ट्रासाउंड तथा अन्य परीक्षणों आदि के लिए भरती किया गया था।

   सर्वप्रथम कोविड टैस्ट किया गया… परिणाम आने तक कोई उपचार नहीं, कोई परिचार नहीं... एक गिलास पानी अथवा एक कप चाय के लिए रोगी तरसता रहा... वह दर्द से तड़पा तो चीखने - चिल्लाने पर डरा - धमकाकर शांत कर दिया गया...

   रिपोर्ट आयी - कोविड-19 वायरस : पॉजिटिव (हाइली सेंसेटिव)... यह तो सुनिश्चित था ही।

   पत्रकार को रोग की गंभीरता समझा दी गयी - 'वायरस का प्रभाव गुरदों पर हुआ है, गुरदे संक्रमित होकर सिकुड़ गए हैं, और निरंतर गलते जा रहे हैं। क्या परिणाम होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता? फिर भी हम पूरी कोशिश करेंगे। हमें विश्वास है कि हम रोगी को बचा लेंगे। किंतु खर्च कुछ ज्यादा हो सकता है। हालांकि हम कम से कम खर्च में ही काम चलाने की कोशिश करेंगे।'

   पत्रकार ने उनके पैर पकड़ लिए - 'मेरे पिता को बचा लीजिए डाक्साब! मैं खुद बिक जाऊंगा, पर अस्पताल का खर्च पूरा वहन करूंगा।'

   भीतर ही भीतर पुलकित हो उठे डॉ० मल्होत्रा… अच्छा मुर्गा फंसा है... उनके मस्तिष्क में बैठे गिद्ध ने तत्काल ही किसी योजना को साकार रूप देना प्रारंभ कर दिया...

   सुबह होते ही लाखों रुपए जमा करा लिए जाते... कभी परीक्षण के नाम पर, कभी दवाइयों के लिए, कभी रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर, कभी ब्लैक में खरीदी गई ऑक्सीजन के नाम पर, कभी वेंटिलेटर के लिए, कभी नेफ्रोलॉजिस्ट की विशेष विजिट के लिए, कभी विदेश से मंगाए गए कुछ विशेष उपकरणों के शुल्क के रूप में...

   पत्रकार ने बहुत बार पिता से मिलने का प्रयास किया। परंतु हर बार ही उसे रटा - रटाया सा आश्वासन देकर शांत कर दिया जाता - 'आप निश्चिंत होकर घर जाइए अथवा वेटिंग हॉल में जाकर बैठिए! जो कुछ भी नयी सूचना होगी, आपको फोन पर दे दी जाएगी।'

‌‌   सप्ताह भर बाद उसे सूचना दी गयी - 'वायरस ने लैफ्ट किडनी तो पूरी तरह डैमेज कर ही दिया है, लंग्स (फेफड़े) भी गल चुके हैं। फिर भी हम बचाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हम अमेरिकी नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ ऑस्टिन से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं, एक बार उन्होंने देख लिया तो आपके पिता निश्चित रूप से बच जाएंगे। परंतु उनकी फीस आपको भरनी होगी।'

   कुछ दिन बाद उसे पुनः आश्वस्त किया गया - 'अमेरिकी डॉ० ऑस्टिन की एडवाइस के अनुसार ही ट्रीटमेंट दिया जा रहा है। हमें विश्वास है कि सफलता अवश्य मिलेगी। हम उन्हें बचा लेंगे।'

   'क्या मैं एक झलक देख सकता हूं अपने पिता की?' उसने डरते डरते पूछा था।

   'बेवकूफ! क्या बक रहे हो? वह कोरोना पेशेंट हैं, उसे देखने की तुम सोच भी कैसे सकते हो?' डॉ० मल्होत्रा ने उसे इतनी बुरी तरह झिड़क दिया था कि वह सहमकर रह गया था।

   पता नहीं उसे किसी नर्स अथवा वार्डबॉय ने कोई संकेत दिया था अथवा अंतर्चेतना में कोई झंकार हुई थी कि उसे डॉ० मल्होत्रा की विश्वसनीयता पर संदेह होने लगा था। यह भी संभव हो सकता है कि अस्पताल से दिन - प्रतिदिन निकलने वाली लाशों ने उसे उद्विग्न किया हो।

   उसी रात्रि को जब समूचा अस्पताल निद्रा के आगोश में समाया पड़ा था वह पी पी ई किट पहनकर उस वार्ड में घुस गया जहां उसके पिता भरती थे... और वह यह देखकर दंग रह गया कि वहां कई लाशें रोगियों के रूप में पड़ी थीं... नासिका व मुख पर लगे मास्क मात्र प्रदर्शन भर के लिए... दोनों हाथों की नसों में ड्रिप की नलियां लगी हुईं...

   स्वयं उसके पिता भी मुर्दे के रूप में परिणत हो चुके थे... उदर पर टेप से चिपकायी गयी रुई पर रक्त स्राव के निशान... तो क्या पिता का पेट चीरा गया था? क्यों चीरा गया होगा?... क्या किसी अंग की चोरी की गयी है?... गुर्दा ही या कुछ और?

   'हे भगवान्! ये लोग डॉक्टर हैं या गिद्ध? जो इंसान के अंग नोंचकर खाने से भी नहीं चूकते।' उसकी आंखों में पीड़ा मिश्रित विस्मय का संसार उमड़ आया।

   डॉक्टर के सामने पड़ते ही उसने हंगामा मचा दिया - 'इंसानी खाल में छिपे गिद्ध हो आप! मेरे जीवित पिता को नोंच - नोंचकर खा गए? वरना तो बताइए! उनके पेट को क्यों चीरा गया? कौन सा अंग निकाला गया है उसमें से? मैं अभी पुलिस में रिपोर्ट करूंगा, उनका पोस्टमार्टम होगा, और आप जेल जाएंगे! अरे मैं तो अच्छे भले पिता को लेकर केवल इस परीक्षण के लिए यहां आया था कि बायीं कुक्षि में उठने वाला दर्द पथरी का है अथवा कुछ और?... और आपने लाखों रुपए बनाकर भी उन्हें जिंदा नहीं ‌छोड़ा।'

   बहुत शोर मचा, भीड़ इकट्ठी हो गयी, पुलिस भी आयी और पत्रकारों का दल भी आ विराजा।

   पुलिस को तो उन्होंने चढ़ावा चढ़ाकर शांत कर दिया, परंतु अखबारों को शांत न कर सके।

‌   बाद में उन्होंने अपने स्टाफ को बुरी तरह डांट - फटकार लगायी - 'वह भीतर घुसा कैसे? भीतर का सच लोगों के सामने उजागर हुआ तो क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी हॉस्पिटल की? कौन जिम्मेदार होगा गिरती साख के लिए? तुम लोगों को मासिक वेतन के अतिरिक्त भी बहुत कुछ दिया जाता है, कहां से निकलेगा वह?'

   वही हुआ... अगले दिन के समाचार पत्र उनके समाचारों से भरे पड़े थे - महानगर का सुप्रसिद्ध 'आयुष्मान हॉस्पिटल' बना गिद्धों का अड्डा। हॉस्पिटल में भर्ती छद्म कोरोना के रोगियों के अंगों की तस्करी चरम पर... पुलिस प्रशासन मौन।

   फिर तो आए दिन उन पर आरोपों की बौछार होने लगी... जिनमें कहीं न कहीं सत्यता भी थी... कभी कोविड रोगियों के लिए जीवन रक्षक माने जाने वाले रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी का आरोप, कभी उसके स्थान पर डिस्टिल्ड वाटर लगाकर रोगियों को मार डालने का आरोप, कभी ऑक्सीजन का कृत्रिम अभाव प्रदर्शित कर कई गुना अधिक मूल्य वसूलने का आरोप, कभी हॉस्पिटल में 'बैड फुल' की तख्ती लगाकर बैक डोर से मोटी राशि लेने का आरोप, कभी गुरदा चोरी का आरोप, कभी रोगियों के स्वर्णाभूषण उतार लेने का आरोप…

   अर्थात् दिन - प्रतिदिन आयुष्मान हॉस्पिटल की प्रतिष्ठा धूमिल होती चली गई... जितना यश डॉ० मल्होत्रा ने अपने कौशल व मृदुलाचरण से अर्जित किया था वह सब उनकी गिद्धवृत्ति की भेंट चढ़ गया... वे डॉक्टर गिद्ध के नाम से चर्चित होते चले गए…….


   "मैं मर जाऊंगा पापा! कुछ करो! मुझे बचा लो! शहर के इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी आप कुछ नहीं कर रहे?" मलीन से, बिखरते से स्वर में कहा कार्तिक ने तो उनकी सोच की परत दरक गयी।

     चौंककर उन्होंने बेटे के चेहरे की ओर देखा... चेहरा निरंतर पीला पड़ता जा रहा था और स्याह आंखें बुझी - बुझी सी, होंठ पपड़ाए हुए, कपोल भीतर धंसे हुए... अपनी विवशता पर उनका अंतर्मन रो पड़ा।

   फिर भी बाहरी मन से उन्होंने उसे दिलासा देने का प्रयत्न किया - "डोंट वरी माय लवली सन! बहुत जल्दी मैं कोई न कोई समाधान निकालता हूं। मैं अपने प्यारे बेटे को जरूर बचा लूंगा।"

   यकायक उन्हें राजकीय चिकित्सालय में नियुक्त कार्डियोलॉजिस्ट डॉ० गर्ग का ध्यान आ गया... उनसे उनके बहुत मधुर संबंध थे। डॉ गर्ग ने अनेकों रोगी उनके हॉस्पिटल में अग्रसरित किए थे, बदले में उन्होंने गर्ग को मोटा कमीशन दिया था।

   और उनकी एंबुलेंस राजकीय चिकित्सालय की ओर दौड़ पड़ी... डॉ० गर्ग से कुछ सहायता मिलने की आशा में...

‌   डॉ० गर्ग ने मधुर वाचन शैली में उनका उत्साहवर्धन किया - "चिंता मत करो माय डीयर फ्रेंड! इस अस्पताल में आपको बैड भी मिलेगा और ऑक्सीजन भी... और यदि वेंटिलेटर की आवश्यकता हुई तो मैं वह भी उपलब्ध कराऊंगा…" क्षणिक ठिठककर वे मुख्य बिंदु पर भी आ ही गए - "किंतु दोस्त! अस्पताल के नियमानुसार सर्वप्रथम कोरोना टैस्ट अनिवार्य है।"

   कोरोना टैस्ट का नाम सुनते ही उनके हृदयाकाश में विचित्र - विचित्र सी आशंकाओं के बादल मंडराने लगे... कोरोना टैस्ट का मतलब - कोविड-19 वायरस पॉजिटिव... जब उनके आयुष्मान हॉस्पिटल में आज तक कोई भी परीक्षण नेगेटिव नहीं दर्शाया गया तो इसी राजकीय अस्पताल का क्या विश्वास?... और यदि पॉजिटिव आया तो?...

   पॉजिटिव परिणाम की दिशा में सोचते ही उनकी पूरी देश स्वेद बिंदुओं से लथपथ हो गयी... उन्होंने आज तक किसी रोगी को अपने हॉस्पिटल से जिंदा नहीं लौटाया तो राजकीय व्यवस्थाओं पर भी कैसे विश्वास किया जा सकता है?... उन्हें लगा कि कोरोना के रूप में यमदूत तैयार खड़े हैं... एक - एक सांस से जंग जीतने को संघर्ष कर रहे इकलौते बेटे को ले जाने के लिए…

   इस हृदयाघाती कल्पना से तो उनका दिल धक्क से बैठ गया... उन्होंने माथे पर हाथ रख लिया और किंकर्तव्यविमूढ़ से भयावह विचारों के अंधड़ में चकरघिन्नी की तरह घूमने लगे।

   डॉ० गर्ग ने उन्हें उहापोह के दलदल में फंसे देखा तो बड़े ही स्निग्ध स्वर में उन्हें परामर्श देने लगे - "क्यों माय डीयर फ्रेंड! इसे तुम अपने ही अस्पताल में भरती क्यों नहीं कर लेते? एक पूरा वार्ड कोरोना पेशेंट से खाली कराओ और बेटे के लिए व्यवस्थाएं बनवा लो! मैं वहीं आकर विजिट कर लूंगा।"

‌‌   जैसे कोई जुआरी जुआ खेलकर हताश - निराश सा परिक्लांत और बोझिल कदमों से घर लौटने को मजबूर हो, वैसे ही उनकी एंबुलेंस भी अपने ही आयुष्मान हॉस्पिटल की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगी थी।

   अपने हॉस्पिटल पहुंचकर वे समूचे स्टाफ पर निर्देशात्मक कर्कश स्वर में बरस पड़े - "एक पूरा वार्ड मेरे बेटे के लिए खाली कराओ! पेशेंट को उठा - उठाकर बाहर फेंक दो!... भाड़ में जाएं, जिंदा बचें या मरें... उनकी किस्मत। किंतु मेरा बेटा हर हाल में बचना चाहिए!... पहले कोरोना टैस्ट कराओ बेटे का... और ध्यान रहे! वास्तविक रिजल्ट बताना है, केवल पॉजिटिव ही रिपोर्ट नहीं बतानी है... और तत्काल ही सारे पेशेंट की ऑक्सीजन रोककर बेटे को लगानी है... यह भी ध्यान रखना है कि केवल ऑक्सीजन मास्क ही लगाकर नहीं छोड़ देना है अपितु गैस भी सप्लाई करनी है।… और जरूरत पड़ी तो रेमडेसिविर इंजेक्शन भी लगाने होंगे... किंतु ध्यान रहे ओरिजिनल इंजेक्शन ही लगाने हैं, उनकी जगह डिस्टिल्ड वॉटर नहीं... ओरिजिनल इंजेक्शन मैं स्वयं लाकर दूंगा... बल्कि लगाऊंगा भी मैं ही स्वयं अपने हाथों से, मुझे तुम लोगों पर किंचित विश्वास नहीं।"

   कालचक्र की यह कैसी विडंबना थी कि उनके भीतर बैठे भूखे गिद्ध ने परिस्थितियों का कितना जटिल मकड़जाल बुन दिया था कि अपने ही हॉस्पिटल पर विश्वास डगमगा गया था, हॉस्पिटल से संबंधित हर व्यवस्था हर व्यक्ति संदिग्ध लगने लगा था... उन्हें प्रतीत हो रहा था कि हॉस्पिटल का समूचा स्टाफ ही गिद्धों में परिणत हो गया है... डरावनी डरावनी सी आशंकाओं के कृमि कुलबुलाने लगे थे उनके भीतर कि कहीं ये गिद्ध उनके बेटे को भी नोंच - नोंच न खा जाएं...

   किंतु जब तक महानगर के उस सुविख्यात, सर्वसाधन संपन्न, दंभी व गिद्धवृत्ति शल्य चिकित्सक के लाड़ले बेटे को एंबुलेंस से उठाकर उस स्पेशल वार्ड में भर्ती किया जाता, तब तक एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए तरस रहे उस अभागे की सांसो की डोर टूट चुकी थी... न जाने कब एंबुलेंस में रखा ऑक्सीजन सिलेंडर खाली हो चुका था... एक-एक सांस के लिए व्यवस्था से जंग कर रहे बेटे की निश्चेतन पथराई आंखें शायद अब भी अपने पिता से करुण स्वर में याचनामयी गुहार लगा रही थीं - "पापा! कुछ करो ना!"


 ✍️डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़

बिजनौर, 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर  9411012039 / 8077945148