कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 19 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... शिकस्त । हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी।

सेठ साटनवाला ने जब मुझे अपनी एकमात्र सन्तान रेखा को ट्यूशन पढ़ाने का निमंत्रण दिया तो सारे दफ्तर की आंखें करुणाद्र होकर मेरे ऊपर इस प्रकार जा टिकीं मानो मैं कोई मासूम कैदी हूँ जिसे बिना किसी अपराध के बलपूर्वक बलिवेदी की ओर ले जाया जा रहा है।

      छत्तीसगढ़ के छोटा नागपुर क्षेत्र की सुरम्य किन्तु सुनसान पहाड़ियों पर अभ्रक की खानों में सुपरवाइजर पद पर मेरी नई-नई नियुक्ति हुई थी। खानों के स्वामी सेठ साटनवाला से मेरे एक मित्र के व्यक्तिगत संबंध थे। उन्हीं के आधार पर अपने नगर से सैकड़ों मील दूर हजारीबाग जिले के डोमचांच नामक स्थान पर मुझे यह काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। सेठ साटनवला भले ही तीखे स्वभाव के व्यक्ति रहे हों लेकिन मेरे साथ उनकी आत्मीयता प्रारम्भ से ही बढ़ गई थी। कह नहीं सकता मेरे अच्छे कार्य और स्वभाव के कारण अथवा मेरी सिफारिश से प्रभावित होकर। एक दिन जैसे ही सेठ जी को यह पता चला कि विगत वर्षों में मैं एक अध्यापक का जीवन व्यतीत कर चुका हूँ, उन्होंने तुरंत अपनी इकलौती बेटी रेखा को घंटा भर के लिए घर पर पढ़ाने का प्रस्ताव मेरे सामने रख दिया। इस प्रस्ताव से मुझे प्रसन्नता ही हुई। एक तो शिक्षण कार्य मुझे स्वभाव से ही प्रिय है दूसरे इस निर्जन पहाड़ी प्रदेश में रहकर कुछ ही दिनों में मैं पारिवारिक स्नेह पाने के लिए छटपटा उठा था। छोटी उम्र के नेक और मिलनसार व्यक्ति को यह स्नेह भले घर का ट्यूशन करने पर प्रायः मिल ही जाता है।

     मैंने रेखा को पढ़ाने का समय निर्धारित कर लिया लेकिन मेरे इस निश्चय से दफ्तर के बाबू लोगों में एक विचित्र सी हलचल प्रारम्भ हो गई। उनका विचार था कि सेठ जी के प्रस्ताव को स्वीकार करके स्वयं को फंसाने के लिए मैंने एक जाल अपने आप ही तैयार कर लिया है जिसमें पड़कर सहज में ही मेरी भावी उन्नति के मार्ग अवरुद्ध हो जाने की प्रबल सम्भावना है। हो सकता है एक दिन मुझे अपनी नौकरी से ही हाथ धोना न पड़ जाये।

     सभी लोगों की आंखों में मुझे ईर्ष्या के स्थान पर भय का भाव ही दृष्टिगोचर हुआ इसलिए उनकी बातों में मुझे कोई न कोई तथ्य अवश्य प्रतिभासित होने लगा था। उस दिन बड़े ही असमंजस में पड़कर मैंने सेठ जी के बंगले में प्रवेश किया, उनको एकमात्र संतान रेखा को पढ़ाने के लिए। एक वर्ष में आठ अध्यापक आये और शिकस्त खाकर वापस चले गए। कोई भी उसे दो माह से अधिक नहीं पढ़ा सका लेकिन मुझे रेखा में कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी। मेरे पहुँचते ही दोनों हाथ जोड़कर उसने मुझे 'प्रणाम, सर!' कहा और मेरे बैठ जाने पर बड़ी शालीनता और तरीके के साथ उसने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। उत्सुकता मिटाने के लिए सर्वप्रथम मैंने उसे अपना परिचय देना प्रारम्भ कर दिया। मैं एक अच्छा कवि भी हूँ- यह बात जानकर वह चौकी। उसके चेहरे के भाव-परिवर्तन से मुझे बल मिला और मैंने अपनी कविताओं की दो-एक पंक्तियाँ उसे सुनानी प्रारम्भ कर दीं। सहसा उसको त्योरियों में बल पड़ गए। वह चिल्ला उठी 'बस करिये, मुझे कविता से सख्त नफरत है।"

'कविता? निष्क्रियता की निकम्मी संतान!'

'कवि? आलसी, निकम्मा और दरिद्र जीव!'

   मेरे सम्मान के लिये यह एक ठेस थी लेकिन उसकी बात में एक तथ्य था, एक स्वतंत्र धारणा जो कटु भले ही हो, लेकिन आंशिक सत्य भी थी। थोड़ी प्रशंसा के अतिरिक्त और कौन सा वैभव है एक कवि के पास? इसलिये रेखा की बात में मुझे कोई उदडण्ता दिखायी नहीं दी, कोई ऐसी शोखी जिसके कारण एक वर्ष में आठ अध्यापक आये और शिकस्त खाकर वापस चले गए। कोई भी उसे दो माह से अधिक नहीं पढ़ा सका।

    तीन-चार दिन बीत गए। मैंने पढ़ाया। उसने पढ़ा। पूर्ण व्यवस्था के साथ। पांचवें दिन बैठते ही मैंने उससे प्रश्न किया 'तुम्हारे कोई भाई नहीं है न?'

उसने उपेक्षा से सर हिला दिया नहीं।

बहिन?

नहीं।

दूर की या निकट की?

नहीं। यह भी नहीं उसके स्वर में गंभीरता थी।

मेरे मन में करुणा जागृत हुई। सहानुभूति के स्वर में उससे पूछा- 'कोई भी ऐसा प्राणी है

जिससे तुम्हें प्यार हो?'

'जी हां, मेरा कुत्ता' और वह खिलखिलाकर हँसने लगी।

एक सहृदय की सहानुभूति का यह उत्तर। मेरे सम्मान के लिये यह एक ठेस थी लेकिन उसकी

बात में एक तथ्य था, एक स्वतंत्र धारणा, जो कटु भले ही हो लेकिन सत्य अवश्य थी। एक पूंजीपति के लिये इंसान की कीमत ही क्या है? दस-बीस रुपए में खरीदा हुआ एक कमजोर जानवर, जो कुत्ते से भी अधिक पूंछ हिलाता है और फटकारे जाने पर भी भौंकता नहीं, खीसें निपोर देता है। एक दिन पहुंचते ही अपनी मेज को मैंने नाना प्रकार के फलों और पकवानों से भरा पाया।

श' आर्यावर्त' की एक प्रति हाथ में लिए हुए रेखा इठलाती हुई वहाँ आ पहुंची। प्रसन्नता के उन्माद में झूम उठी थी वह-'सर.... मेरे नाम से छपा यह गीत कॉलेज जीवन में मेरी सबसे बड़ी जीत है.....। सर, मैं आपकी बड़ी कृतज्ञ हूँ।'

मेरी श्वासों में कुछ-कुछ उष्णता का स्पन्दन होने लगा। रेखा बेहद प्रसन्न थी। आज पहली बार सारे कॉलेज में उसकी प्रतिभा की धाक जम गई। सुनीता, संध्या या कल्पना, परीक्षा में किसी से भी अधिक अंक वह आज तक नहीं पा सकी। उसके स्वभाव में खोटापन निकालकर लड़‌कियों ने उससे बोलना तक छोड़ दिया किंतु आज उन सभी के चेहरे फीके पड़ गए। 'आर्यावर्त' में छपे हुए कु. रेखा साटनवाला के मनोहर गीत ने क्या शिक्षक, क्या शिक्षिका; लड़के और लड़‌कियों सभी के मन को जीत लिया और आज सैकड़ों के मुँह से सुना-

'रेखा? एक छिपी हुई काव्य प्रतिभा।'

'रेखा? अपने कॉलेज की गौरव गरिमा।'

रेखा का रोम-रोम प्रसन्न था। वह चहक उठी 'सर आपने मुझे नई जिंदगी दी है। एक और ऐसी ही कविता छपवा दीजिये मेरे लिए, प्लीज... सर। मैं आपका अहसान नहीं भूलूंगी।'

कविता? निष्क्रियता की निकम्मी संतान।

मेरे ओंठों पर व्यंग्य मुस्करा रहा था।

कवि? आलसी, निकम्मा और दरिद्र जीव।

वेदना ने व्यंग्य को झकझोर डाला-

'नहीं-नहीं रेखा, यह ठीक नहीं है। यह तो मेरी भूल थी।

सहसा मुझे लगा कि पुष्प मुरझा गए। पक्षियों का कलरव शांत हो गया। पादपों पर कुहरा छाने

लगा। चारों ओर सन्नाटा पसर गया। फलों और पकवानों से भरी मेज, मामूली सा अध्यापक और सामने बैठी हुई मिस साटनवाला। मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखायी नहीं दी।


रेखा के चेहरे पर एक मासूमी सी व्याप रही थी। मकड़ियों का जाला। मुझे बाबुओं की बात

याद आ गई वह जाल, जो स्वयं को फंसाने के लिए मैंने अपने आप ही तैयार कर लिया था। सहसा मैं चौंक उठा। मेघ उमड़ने लगे। वर्षा प्रारंभ हो गई। मूसलाधार। मुझे कंपकंपी हो आई। रेखा के नेत्रों से अश्रुओं को अविरल धारा प्रवाहित हो चली थी।

    मेरा हृदय द्रवित हो उठा तो मैंने उसे धैर्य का बांध बंधाया मैं छपवाऊंगा, एक नहीं दो नहीं सैकड़ों गीत, तब तक जब तक कि रेखा अपने आप लिखकर स्वयं ही न छपवाने लगे।

     आसमान साफ हो गया। प्रभातकालीन समीरण के मस्त झोंके का मादक स्पर्श प्राप्त कर वृन्त झूम उठे। वातावरण नितांत शान्त, शीतल और स्निग्ध हो चला था। उल्लास की मिठास पकवानों के व्याज मेरे मुख में अनायास ही समाहित होने लगी।सहसा रेखा को स्मरण हो आया।

'सर, साथ में चाय लेंगे या शरबत?'

'चाय'- मैंने कहा। मैं अपने हृदय की समस्त कालिमा को जला डालना चाहता था।

रेखा ने खानसामा को बुलाया और तुरंत चाय बना लाने का आदेश दिया।

खानसामा सकपका गया। डरते-डरते बोला- 'दूध खत्म हो गया है मैडम। सिर्फ कुत्तों के लिए बचा रखा है थोड़ा सा।'

'नानसैन्स!'- रेखा चीख उठी 'तुम्हें चाय बनाकर लानी ही होगी। दूध बचाकर क्यों नहीं रखा गया? कुत्तों के लिए दूध और मास्टर जी के लिये नहीं। नालायक कहीं का। मैं कहती हूँ तुझे चाय बनाकर लानी होगी अभी, इसी वक्त।'

रेखा गुस्से से पागल हो उठी थी लेकिन मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी।

कुत्ता, कवि, अध्यापक और इन्सान।

मैं गंभीरतापूर्वक मनन करने लगा। किंतु दो क्षण में ही मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ गई- 'रेखा, तुम्हें सबसे अधिक कुत्तों से प्रेम है न?'

रेखा की आंखें झुक गई 'मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ सर!'

दूसरे ही क्षण रेखा फफक-फफक कर रो रही थी और अगले वर्ष भी रेखा को मैं ही पढ़ा रहा हूं।


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... आघात। हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।



राकेश से जब भी मेरी किसी विषय पर बातचीत हुई, उसने सदैव मुझे दकियानूसी बताया। इससे पहले वह मुझे चार वर्ष पूर्व मिला था। उस समय एक जगह से मेरे रिश्ते को बातचीत चल रही थी। राकेश मेरे घर आया। और मुझसे लड़की की पसंदगी के बारे में पूछने लगा।
    मैंने कहा, 'लड़की तो अच्छी बताते हैं लेकिन मेरे पिताजी को यह रिश्ता जंच नहीं रहा है।' 'देखो सुधीर’– राकेश यह सुनते ही उबल पड़ा,– मेरा और तुम्हारा दस वर्ष तक साथ रहा लेकिन तुमने मेरे विचारों को समझने की कभी कोशिश नहीं की। मैंने तुमसे कितनी बार कहा होगा कि विवाह शादी में लेन-देन का बंधन वैवाहिक संबंधों को सदा के लिये खोखला बना देता है। तुम्हारे पिताजी जरूर दहेज में मोटी रकम चाह रहे होंगे। नकद रुपया और माल न देने वाले किसी भी घर की लड़की उन्हें कभी पसंद आयेगी ही नहीं।
 मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि मेरे पिता जी के विचार इस प्रकार के कदापि नहीं हैं। संबंध चाहे लड़की का हो अथवा लड़कों का, वे धन को महत्व न देकर उसके शील, स्वभाव और उत्तम खानदान का ही ख्याल रखते हैं।
   राकेश की प्रगतिशील विचारधारा में विवाह संबंधों में यह बंधन भी ढकोसले थे। इसलिये उसने पुनः अपनी प्रगतिशीलता बखाननी शुरू कर दी, 'शादी विवाह व्यक्तिगत जीवन का प्रश्न है। यदि लड़की देखने-भालने में अच्छी हो और तुम्हारे विचार उसकी मान्यताओं से मेल खा रहे हों तो फिर तुम्हें उसको अपना लेने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। कीचड़ में पड़ा हुआ सोना किसी भी व्यक्ति के लिए त्याज्य नहीं होता फिर यदि खानदान दुष्ट भी है तो उसमें से एक निरपराध कन्या को उबार कर नया जीवन दे देना क्या हमारे समाज का कर्तव्य नहीं?'
    राकेश की तर्कशक्ति से मैं भलीभांति परिचित था इसलिये मैंने बात आगे बढ़ाना उचित न समझकर यह कहकर उससे पीछा छुड़ाया 'मैं इन सब बातों को भलीभांति समझता हूं राकेश, किंतु अपने माता-पिता के आदेश का उल्लंघन करने का सामर्थ्य मेरे अंदर नहीं है।'
   और वास्तव में पिता जी की इच्छा के अनुसार मेरा संबंध वहां से नहीं हो सका बल्कि नगर के एक अच्छे खानदान की लड़की से मेरी शादी तय हो गई। भगवान ही जानता है कि मेरे विवाह में नकदी के नाम पर एक छोटा पैसा भी प्राप्त हुआ हो किंतु वधू के शील, सौंदर्य और व्यवहार की सभी देखने वालों ने प्रशंसा की।
   इसके बाद मुझे नौकरी मिल गयी। मैं आसाम चला गया और राकेश उसी नगर में रहकर अपने पिता के व्यवसाय में लग गया।
     सुदीर्घ अवधि के उपरान्त जब मैं आसाम से लौटा तो घर में घुसते ही सबसे पहले मैंने अपने मित्र राकेश की खैर-कुशलता के विषय में पूछताछ की। बड़ी भाभी जी मानों पहले से ही इस संबंध में वार्तालाप करने के लिए समुत्सुक बैठी थीं। विषय छिड़ते ही जोर से हंस पड़ीं। बोलीं- उनकी तो बड़ी दुर्दशा हुई पिछले वर्ष। निश्चिंत रहिए लालाजी, अब राकेश भाई साहब पहले जैसे नहीं रह गए हैं। उनकी समस्त मान्यतायें विपरीत हो गई हैं, विश्वास डिग गए हैं और तर्कशक्ति भी पहले जैसी नहीं रही है। आजकल तो वे बड़ा खोया खोया सा अनुभव करते रहते हैं।
    मैं असमंजस में पड़ गया। ऐसी कौन सी विचित्र शक्ति का प्रादुर्भाव हो गया मेरे पीछे, जिसके विचारों के हठात् राकेश बाबू के निश्चयों को डिगा दिया। मैं विस्मयपूर्ण दृष्टि से टकटकी लगाए हुए भाभीजी की ओर ताक रहा था कि उन्होंने स्वयं ही मेरा समाधान करने के लिए बड़े रोचक ढंग से राकेश की आपबीती सुनानी शुरू कर दी- एक दिन राकेश बाबू अकेले ही अपनी कोठी में बैठे हुए थे कि सहसा एक अपूर्व सुंदरी
नवयुवती ने उसमें प्रवेश किया। अचानक ही एक अज्ञात नवयौवना को अपने सामने देखकर वे सकपका गए लेकिन युवती संकोच रहित होकर राकेश बाबू के सामने वाले कोच पर बैठ गई। राकेश बाबू की प्रश्न सूचक दृष्टि उसके मुख पर जा टिकी।
    युवती ने कुटिलतापूर्वक होठों से मुस्कराते हुए एक बार कृत्रिम निःश्वास भरा और अपनी कहानी का बखान शुरू कर दिया- 'बाबू जी हम बाढ़ग्रस्त दक्षिणी क्षेत्र की विपदा की मारी कुलवती नारी हैं। भयंकर बाढ़ आ जाने के कारण हमारा धन, माल, जानवर, बच्चे सब कुछ बह गया। खुद हम भी पानी में बह निकले। चारों तरफ भयंकर वेग से उमड़ता हुआ जल ही जल दिखलाई पड़ता था। जानवरों की चिंघाड़ और बच्चों की चीत्कार सुनकर हम सिहर उठीं... फिर हमें होश नहीं कि क्या हुआ। सरकार के आदमियों ने हमें निकाल लिया। हम घर-बार विहीन होकर टक्करें खाने लगीं। अब हम अपने इलाके को वापस जाना चाहती हैं। बाबू, आप दो रुपए, चार रुपए देकर हमारी मदद करिएगा।
   राकेश बाबू युवती के अपरूप सौंदर्य को एक टक निहारते चले जा रहे थे। अंग-अंग से प्रस्फुटित उसके नवयौवन ने उन्हें सहज ही में विमोहित कर लिया। उनके हृदय की सुकोमल वृत्तियाँ जागृत हो उठीं। युवती की कुशल अभिव्यक्ति एवं करुण आत्म-कहानी ने भी राकेश बाबू के आदर्शवाद को एड़ लगा दी। वे मन मन बुदबुदा उठे- 'विपदा की मारी सुशिक्षित सुंदर नवयुवती। इसके द्वारा क्या अपने जीवन को सार्थक नहीं बनाया जा सकता ? वह अवश्य प्रयत्न करेगा। और इसलिए प्रकट में उन्होंने नवयुवती से प्रश्न किया-
'यहीं कहीं गृहस्थी बसाकर रहना प्रारंभ क्यों नहीं कर देतीं आप?'
युवती के अधरों पर हल्की सी मुस्कराहट बिखर उठी। उसने अपनी सलज्ज दृष्टि को राकेश बाबू के चेहरे पर टिका दिया और बोली-
 'हमारी पसंद ना पसंद का क्या मूल्य है बाबूजी? हम अज्ञात कुल वाली नारी को कौन व्यक्ति अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहेगा।'
   युवती के हावभाव से राकेश जी का धैर्य विखण्डित होता जा रहा था। तभी सहानुभूति और आकर्षण से अनुप्राणित उनका आदर्शवाद भी मुखरित हो उठा।
'ये सब दकियानूसी विचार हैं। लड़की यदि सुंदर, सुशिक्षित और सुशील हो तो केवल मात्र कुलीनता आदि की अज्ञातावस्था में उसको त्याज्य समझना बड़ा भारी अपराध माना जाना चाहिए।'
कुछ क्षण युवती की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए भावावेश में आकर वह पुनः बोल उठे - 'यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं तुम्हें इस घराने की वधू बनाने के लिए तैयार हूँ।'
'क्या यह सच है?' युवती ने सहसा आश्चर्य व्यक्त किया।
’एक दम सत्य! उतना ही जितने हम और तुम।'
'नि:संदेह आपके आदर्श महान् हैं।' लड़की बुदबुदा उठी।
'आप सदृश महान आत्मा की चरणदासी बनने के सौभाग्य से कौन अभागिन अपने को वंचित
रखना चाहेगी?'
और तबसे उस नवयुवती ने राकेश बाबू के घर में रहना प्रारम्भ कर दिया। दोनों के दिन बड़ी हंसी-खुशी से व्यतीत होने लगे। राकेश बाबू रात-दिन उसके प्रेम में सराबोर रहते और वह भी उसके प्रतिदान स्वरूप स्वयं को समस्त सौंदर्य प्रसाधनों से प्रसाधित करके नारी-सुलभ काम-कलाओं से उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किये रहती और एक माह के अंदर ही उस नवयुवती की मनोकामना पूर्ण होने को आ गई। वह गर्भवती हो चुकी थी।
  मित्रवर राकेश की यह कहानी मैं बड़ी उत्सुकता के साथ सुन रहा था। सहसा भाभीजी सुनाते-सुनाते रुक गईं और मुस्कराने लगीं।
मैं व्यग्रतापूर्वक बोला 'फिर क्या हुआ भाभी जी?'
'वह दुखदायी घटना जो हमारे लिए हँसी मजाक थी किंतु राकेश बाबू के लिए सबक सिखाने वाली वस्तु बन गई। भाभीजी पुनः गंभीर हो चली थीं।
'एक दिन राकेश बाबू कहीं बाहर गए हुए थे। वापस लौटे तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को कहीं जाने के लिए तैयार पाया। वे मुस्कराते हुए ज्यों ही उसके निकट पहुंचे उसने अपनी कुटिल दृष्टि ऊपर उठाई और बोल उठी- 'मेरे लिए इसी समय बीस हजार रुपए का प्रबंध कर दीजिए राकेश बाबू!' नवयुवती के स्वर में तीखापन था।
'ओह तो आप ऐक्टिंग करने में भी अत्यन्त निपुण हैं।' राकेश बाबू मुस्करा दिये- 'सच, इस
मुद्रा में कितनी खूबसूरत लगती हो तुम!'
'बकवास बंद कीजिए, बाबू जी, शराफत इसी में है कि बीस हजार रुपया चुपचाप मेरे हवाले कर दीजिए। युवती ने रोष से आँखें तरेर दीं।
राकेश बाबू का मुख विवर्ण होने लगा। बोले- 'कहीं पागल तो नहीं हो गई हो तुम?' 'पागल मैं हूँ या आप इसका पता शीघ्र ही चल जायेगा आपको, जब में पुलिस में जाकर रिपोर्ट लिखवाऊंगी कि मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर आपने बलात्कार किया है मेरे साथ और जब मेरी डाक्टरी परीक्षा कराई जाएगी तो दुनिया थूक उठेगी तुम्हारे मुँह पर और तुम्हारी लाखों की इज्जत क्षण मात्र में मिट्टी में लोटती दिखाई देने लगेगी.....।'
   ओफ! राकेश जी को जैसे काठ मार गया हो। उनके हृदय पर सैकड़ों बिच्छुओं ने एक साथ प्रहार कर दिया मानो। वे चीख उठे-
'धोखा? तुमने धोखा किया है मेरे साथ!'
'चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं बनता-बिगड़‌ता है राकेश बाबू! अच्छी तरह से सोच-समझ लीजिए। मैं आपसे अंतिम बार कह रही हूँ कि यदि आपको अपनी और अपने खानदान की इज्जत प्यारी है तो तुरंत बीस हजार रुपया लाकर मेरे हाथ पर रख दीजिए कहती हुई युवती जाने का उपक्रम करने लगी। ठहरो! राकेश बाबू चिल्ला उठे और चुपचाप तिजोरी की ओर मुड़कर उसमें से बीस हजार रुपए निकालकर उसके हाथ पर रख दिए।
रुपए हाथ में लेकर युवती ने एक बार नमस्ते किया उनको, और कुटिलतापूर्वक मुस्कराती हुई दरवाजे की ओर मुड़ गई।
   राकेश बाबू के आदर्शवादी चिंतन पर यह गहरा आघात था जिसे वे जीवनपर्यन्त विस्मृत न कर सके।

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... रंगपुर का बांका । हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

 


खेतों और खलिहानों के मध्य विचरण करती हुई यशोदा ने यौवन के द्वार में प्रवेश किया। उसके अप्रतिम सौंदर्य में निराली मादकता का विकास प्रारम्भ हो गया किंतु उसके हृदय और स्वभाव की शुद्धता एवं निष्कपटता में कोई अंतर नहीं आया। उसे न तो गांव भर में किसी से ईर्ष्या थी, न द्वेष और न ही किसी के प्रति विशेष आकर्षण। माता-पिता को उस पर विश्वास था और इसीलिए स्वच्छंदतापूर्वक वह कहीं भी घूम-फिर सकती थी। गांव में कोई उसका दादा था, कोई ताऊ तो कोई चाचा। समवयस्क और छोटे बच्चे सभी उसके भाई-बहन थे।


एक दिन अमराइयों में गुजरते हुए उसे किसी ने पुकारा- यशोदा!

यशोदा ठिठक गई। एक युवक उसकी ओर आ रहा था।

'जी, मैं आपको पहचानती नहीं।' यशोदा ने विनम्रतापूर्वक आगवानी की।

'अरे वाह, लखनऊ से आया हूं तुम्हारे दर्शन के लिए। जमींदार बाबू के लड़के ने तुम्हारे बारे में बताया था मुझको।'

'बताया होगा; बोलिये मैं आपको क्या सेवा कर सकती हूँ?'

’सेवा! सेवा तो मुझे करनी चाहिए तुम्हारी। भगवान ने तुम्हें कितना खूबसूरत बनाया है।’

'माफ कीजियेगा मेरे पास फिजूल की बातें करने का समय नहीं है' कहती हुई यशोदा चलने को उद्धत हो गई।

ऐसा न करो डियर! बांका युवक उसको भुजाओं में बाँधने के लिए आगे बढ़ा। यशोदा सावधान हो गई। उसके बलिष्ठ हाथों ने जोर का धक्का दिया। युवक चारों खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ा। सिर में गहरी चोट आई।

'समझे! भविष्य में कभी ऐसी हरकत करने की कोशिश मत करना' युवक की ओर कातरतापूर्ण दृष्टि से देखती हुई यशोदा बोली 'इस गांव के सभी युवक यहाँ की समस्त युवतियों के भाई होते हैं श्रीमानजी।"

बहन!.... बांका बुदबुदाया लेकिन यशोदा तब तक बहुत दूर जा चुकी थी। युवक यशोदा के साहस और शुचिता पर अभिभूत था। बहन के रिश्ते की मर्यादा को भी वह भलीभांति जानता था।

अतः लज्जावनत मुख किये वह अपने स्थान की ओर चला गया।

विवाह के बाद यशोदा ससुराल जा रही थी।

'गाड़ियां रोक दो!' हट्टे-कट्टे, सुगठित शरीर वाले एक नकाबपोश की कर्कश आवाज से सारा जंगल गूंज उठा।

गाड़ियां रुक गईं। सारे बाराती भयभीत हो गये।

'सब लोग हाथ ऊपर करके खड़े हो जाइये' नकाबपोश का दूसरा आदेश हुआ, सभी बाराती एक ओर जाकर चुपचाप खड़े हो गये। नकाबपोश रथ की ओर बढ़ा 'सारे जेवर ईमानदारी से उतार कर सौंप दो वरना तुम्हें और तुम्हारे पति सहित सारे बरातियों को मौत के घाट उतार दिया जायेगा।'

वधू ने अपूर्व धैर्य का परिचय दिया 'ईमानदारी? सज्जनों के आभूषण का अपहरण करने वाले बेईमान! मौत? ब्रह्मा के विधान को अपने हाथ में लेने वाले दुराचारी! कौन हो तुम? निर्जन वन प्रदेश में कायरों की तरह डरा-धमका कर लूटमार करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती।'

'मैं कतई बकवास सुनना नहीं चाहता। मुझे सिर्फ तुम्हारे जेवर चाहिए।' आवेग में आकर नकाबपोश ने रथ के परदे को फाड़ डाला।

'अयं यशोदा! उसके मुँह से हल्की सी चीख निकल पड़ी 'बहन! ओह, इस गाँव के सभी

युवक....।' उसने साथियों को आदेश दिया। सबके सब देखते ही देखते नौ दो ग्यारह हो गये। यशोदा को गाँव की अमराइयों के मध्य की घटना का स्मरण हो आया।

बाराती रथ की ओर बढ़े। वधु सकुशल थी। आश्चर्य है कि डाकू उसका एक भी जेवर नहीं ले गये।

बारात थोड़ी दूर पहुंची होगी कि फिर वही नकाबपोश आता हुआ दिखाई पड़ा। उसने अपना घोड़ा रथ के पास रोक दिया। हाथ में लाई हुई पोटली को रथ के भीतर फेंक कर वह तुरंत गायब हो गया।

सम्पूर्ण घटना सुनने से पूर्व ही सास का निश्चित मत प्रसारित हो गया जरूर कोई यार रहा होगा इस कुलच्छिनी का।

मौहल्ले की स्त्रियां एकत्र होतीं। वधू के रूप की सराहना करतीं तो सास के शरीर में चैंके लग जाते- मरे इस रूप ने ही तो सारा सत्यनाश कर डाला होता, वह तो भगवान की खैर कहो, नहीं तो यह डायन तो उसी दिन सबको भख लेने पर तुली थी।

विवाहित जीवन के सुखद स्वप्नों की परिकल्पना करने वाली नववधू भाग्य को दोष देकर सबकुछ चुपचाप सहन करती रहती। उसके पति किसी दूर के शहर में सरकारी नौकरी पर थे। कुछ दिवस उपरान्त वे अपने काम पर चले गये। गृहस्थी बसाने में बड़ा खर्च बैठेगा इसलिए बहू को सास के पास ही छोड़ दिया। कभी-कभी महीने, दो महीने में एकाध चक्कर लगा जाते। उनका आना यशोदा के रेगिस्तान में सदृश जीवन में मरुउद्यान के समान होता। बाद में पुनः रेत ही रेत! सास के ताने और नन्द देवरों की झिड़कियाँ।

समय व्यतीत होता गया। इन पंद्रह वर्षों के दीर्घ काल में यशोदा ने चार संतानों के अतिरिक्त अन्य कोई सुख न माना। चारों ओर से आघात सहन करता हुआ उसका हृदय भगवत भक्ति की ओर उन्मुख हो गया।

अन्य सोमवारों को भाँति यशोदा इस सोमवार को भी गंगा स्नान करने के लिए गई। लौटते समय उसकी दृष्टि एक अत्यन्त क्षीणकाय भिखारी पर पड़ी। आकृति कुछ परिचित सी लगी। ठिठक गई।

गौर से देखा तो स्तब्ध रह गयी। गाँव की अमराइयों और लौटती हुई बारात का चित्र आँखों के सम्मुख घूम गया। वह अधिक देर स्थित न रह सकी। पुकारा भैया!

भिखारी ने अपनी आँखें ऊपर उठाई ; फिर सहसा ही अपना मुँह घुटनों के बीच में छिपा लिया।

'तुम्हारी यह दशा कैसे हुई भैया?' यशोदा से रहा न गया।

भिखारी फिर भी शान्त भाव से मुख नीचा किये हुए बैठा रहा। किंतु यशोदा के अत्यधिक आग्रह

करने पर उसने अपनी आँखें ऊपर को उठाई। और अस्फुटित शब्दों में अपने पाप-पूर्ण अतीत का वर्णन प्रारम्भ कर दिया।

बाल्यकाल में ही बुरी संगति। घर छोड़कर भाग निकलना। वासनामय जीवन का प्रारम्भ। पैसे का अभाव इसलिए चोरी डकैती। रंगे हाथों गिरफ्तार होना। संगी-साथियों का बिछुड़ जाना। पंद्रह वर्षों का सश्रम कारावास। मुक्त होने पर वर्तमान दशा। रोमांचक घटनाओं का अ‌द्भुत क्रम। यशोदा काँप गई।

उसका हृदय द्रवित हो गया। बाँह पकड़कर उठाते हुए बोली- 'चलो, मेरे घर चलो भैया। जब तक तुम पूर्ण स्वस्थ न हो जाओ मेरे घर पर चलकर आराम करो।

ग्लानिवश मुख नीचा किये हुए भिखारी यशोदा के साथ हो लिया।

सास को अच्छा मौका मिल गया। यशोदा पर बुरी तरह फटकार पड़ी यह यारों का घर नहीं है बहुरानी। गृहस्थी है गृहस्थी। करम फूट गये हमारे तो! बाप ने शादी ही क्यों की थी, किसी यार के साथ बैठा दिया होता। तनिक चैन तो मिलता इसे!

यशोदा नित्यप्रति ऐसी बातें सुनने की अभ्यस्त हो चुकी थी। अतैव उसने उस ओर कोई ध्यान ही न दिया किंतु आगंतुक इन तीक्ष्ण कटाक्षों को सहन नहीं कर सका। मन ही मन भाग्य को कोसते हुए लड़खड़ाते कदमों से वह घर से निकलने लगा। पंद्रह वर्ष के कठोर कारावास ने उसे जर्जर बना दिया था। कहीं यशोदा न देख ले, इसीलिये जल्दी से चलना शुरू कर दिया। किंतु दरवाजे की चौखट नहीं लांघी गयी। पैर अटक गया। मुँह के बल औंधा गिर पड़ा। हल्की सी चीख निकल गई। यशोदा ने ऊपर से झांककर देखा। हतप्रभ सी दौड़ी नीचे आई। भैया के शरीर को झकझोरने लगी। सास भी आ पहुँची। भैया ने आंखें खोलीं। टूटे-फूटे शब्दों में बुदबुदाने लगा 'अपने पापों का फल मैंने यहीं पा लिया बहन! तुम एक काम करना। रंगपुर का कोई आदमी मिले तो कह देना...... सेठ नवलकिशोर......... के बेटे ने बड़े पाप किये थे....... और वह भिखारी का श्वांस छूट गया।

रंगपुर। नवलकिशोर! सास चौंक पड़ीं मेरे बहनोई। उसके मुख से चीख निकल पड़ी- शंकर! बेटा शंकर! वह खूब जोर-जोर से अलाप करने लगीं। चारों दिशायें गूंज उठीं लेकिन शंकर का शरीर सदा के लिए शान्त हो चुका था।

और यशोदा, मूर्तिवत खड़ी थी।

बुधवार, 20 सितंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष आनंद स्वरूप मिश्रा का कहानी संग्रह ..."टूटती कड़ियां" वर्ष 1993 में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत है मुरादाबाद के बाल साहित्यकार शिव अवतार सरस जी द्वारा लिखी गई इस संग्रह की भूमिका

कथा साहित्य को भाव-संप्रेषण का एक सशक्त माध्यम कहा जाता है । इसका इतिहास भी मानव सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना है जिसके प्रमाण हैं अजन्ता और ऐलोरा आदि गुफाओं के वे भित्तीचित्र जो आज भी उस समय की शिकार- गाथाओं का सम्यक संप्रेषण कर रहे हैं। साहित्य की इस सर्वाधिक चर्चित विधा को विश्व की सभी भाषाओं ने उन्मुक्त भाव से अपनाया है। कारण स्पष्ट है क्योंकि समय की दृष्टि से एक कहानी स्वल्प समय में ही सहृदय पाठक के अन्तस्तल को झकझोर कर एक नयी दिशा में सोचने के लिये विवश कर देती है। कहानी में विद्यमान जिज्ञासा का भाव रसग्राही पाठक को आस-पास के वातावरण से दूर ले जाता है। कहानी में प्रयुक्त अन्तर्द्वन्द्व उसे अपने जीवन से जोड़ने का प्रयास करते हैं और पात्रों का मनो- वैज्ञानिक चित्रण उसे अपने निकटस्थ प्रिय एवं अप्रिय लोगों की याद दिलाता है । इस दृष्टि से एक कहानी साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा मानव-मन के अधिक निकट प्रतीत होती है।

'टूटती कड़ियाँ' शीर्षक संकलन के रचनाकार श्री आनन्द स्वरूप मिश्रा स्वातन्त्र्योत्तर कथाकारों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। जीवन के यथार्थ से सम्पृक्त चरित्र एवं घटनायें लेकर श्री मिश्र ने कथा और उपन्यास साहित्य में जो लेखनी अपने विद्यार्थी जीवन में चलाई थी वह आज ३५-४० वर्षों के उपरान्त भी अवाध गति से चल रही है। इस ग्रंथ में मिश्र जी की उन बारह कहानियों का संकलन है जो विगत ३२ वर्षों के अन्तराल में अरुण, साथी, हरिश्चन्द्र बन्धु एवं विभिन्न वार्षिक पत्र-पत्रिकाओं आदि में स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। ये सभी कहानियाँ प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से अत्यन्त सशक्त मार्मिक एवं हृदय-ग्राह्य हैं। श्रेष्ठ कहानी के लिये आवश्यक तत्व जिज्ञासा की भावना इन सभी कहानियों में पूर्णरूप से विद्यमान है । कहानी कला के सभी तत्वों का इनमें पूर्णरूपेण निर्वाह हुआ है तथा आदि और अन्त की दृष्टि भी ये सभी कहानियाँ स्वयं में पूर्ण एवं प्रभावोत्पादक हैं। इन सभी कहानियों के सभी पात्र पारिवारिक एवं अपने आस-पास के ही हैं । कहानियों का कथानक सरल, संक्षिप्त, सुगम, मार्मिक एवं प्रभविष्णुता हैं ।

    श्री मिश्र जी की प्रायः सभी कहानियाँ समय की धारा के अनुसार प्रेम एवं रोमांस पर आधारित हैं। अध्ययनकाल के चंचल मन का प्रेम जब यथार्थ की कठोर भूमि पर उतरता है तो हथेली से गिरे पारद (पारे) की भाँति क्षणभर में छिन्न-भिन्न हो जाता है। त्रिकोणात्मक संघर्ष पर आधारित इस संकलन की अधिकांश कहानियों में कहीं प्रेमी को तो कहीं प्रेमिका को अपने अमर प्रेम का बलिदान करना पड़ता है। यदि संकलन की प्रथम कहानी 'टूटती कड़ियां' को लें तो ज्ञात होता है कि उद्यमी अध्यवसायी एवं महत्वाकांक्षी डा अविनाश का डा आरती के प्रति अविचल प्रेम, अवसर मिलने पर भी फलीभूत नहीं हो पाता और अन्त में उसी के आंसुओं के मूल्य पर उसे सलिला के साथ विवाह करना पड़ता है। यथार्थ की मरुभूमि पर जब आदशों के स्वप्निल बादल सूख जाते हैं तब अविनाश जैसे प्रेमियों को यही कहना पड़ता है- "आरती तुम सब कुछ खोकर भी रानी हो और मैं सब कुछ पाकर भी आज भिखारी हूँ ।"

    संकलन की दूसरी कहानी 'सुख की सीमा' की परिणति भी नारी के त्याग पर आधारित है। पति प्रमोद की बगिया हरी भरी रहे इस ध्येय से अध्ययन-काल की सहपाठिनी और बाद में धर्म-पत्नी के पद पर अभिषिक्त जिस रागिनी से स्वयं उमा को सपत्नी के रूप में चुना था उसी उमा के उपेक्षित व्यवहार एवं  एकाधिकार से क्षुब्ध होकर रागिनी को पुनः उसी पैतृक परिवेश  में लौट जाना पड़ता है जहाँ उसके इन साहसिक कृत्यों का कदम- कदम पर विरोध हुआ था ।

    'त्रिभुज का नया विन्दु' शीर्षक कहानी निश्चय ही एक  अप्रत्याशित अन्त लेकर प्रस्फुटित हुई है। कहानी का नायक डा अविरल अपनी चचेरी बहन की शादी में सोलह वर्षीया मानू से मिलता है और उसकी बाल-सुलभ चपलताओं को भुला नहीं पाता है। इधर दिल्ली विश्वविद्यालय में विज्ञान का प्रोफेसर बनकर वह अन्तिम वर्ष की छात्रा सुवासिनी के चक्कर में फँस जाता है। सुवासिनी होस्टल के वार्डन की पुत्री अनुपमा से मित्रता करके अविरल तक पहुंचने का मार्ग बना लेती है। उधर अविरल के माता-पिता चाहते हैं कि ऊँचे घराने की सुन्दर सुशील कन्या उनके घर वधू के रूप में पदार्पण करे। मगर सीनियर प्राध्यापकों की दृष्टि में सीधा-सादा, पढ़ाकू, दब्बू और लज्जालु अविरल इस त्रिभुज के मध्य एक नया विन्दु खोज लेता है और एम० एस-सी (प्रथम वर्ष) की एक हरिजन छात्रा 'ऋतु राकेश' के साथ प्रेम- विवाह कर सब को हतप्रभ कर देता है ।

    इसी संकलन में संकलित 'कोई नहीं समझा' शीर्षक कहानो बाल मनोविज्ञान पर आधारित है जो इस तथ्य पर चोट करती है कि प्रति वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण विद्यार्थी ही महापुरुष बन सकता है । नायक शोतल बाबू का अनुज सुरेश हाई स्कूल में लगातार ५ बार फल होकर घर से भाग जाता हैं और फिर एक चुनौती भरा पत्र लिखकर भेजता है कि "मैं हाईस्कूल में पाँच साल फेल होकर भी बड़ा बनकर दिखलाऊँगा ।"

संकलन की एक कहानी 'उम्मीद के सितारे के तीनों पात्र- किशन, प्रमोद और मालती भी एक त्रिभुज के तीन कोण हैं जो भारत सेवक समाज के एक शिविर में एक ही मंच पर उपस्थित होकर परिणाम को एक अप्रत्याशित मोड़ दे देते है । एक पत्रिका के उपसम्पादक के रूप में मध्य प्रदेश चले जाने के कारण प्रेमी किशन और प्रेमिका मालती के मध्य दूरियां बढ़ जाती हैं और मालती हताश होकर समाज सेविका बन जाती है। इधर इसी समाज में प्रमोद नाम का एक भारत सेवक भी है जो स्वयं प्रेम का भूखा है। भावसाम्य के कारण प्रमोद और मालतो में परस्पर मित्रता हो जाती है और प्रमोद उसके साथ शादी कर के भविष्य की योजनायें बनाने लगता है। मगर शिविर की गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिये जब किशन इन दोनों के मध्य आता है तो इस कामना से चुप-चाप भाग जाना चाहता है कि भारत सेवक और समाज सेविका की जोड़ी खूब जंचेगी। मगर वेश बदलने पर भी जब वह मालती की निगाह से बच नहीं पाता है तो उसे मालती का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना पड़ता है ।"

संकलन की अन्य कहानी 'कालिख' में डा० सत्येन्द्र का हृदय परिवर्तन कर कथासार ने एक आदर्श प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही इस कहानी में उन दुर्दान्त प्रबन्धकों के मुख पर लगी उस कालिख को भो उजागर किया गया है जो भोली-भाली कन्याओं की विवशता का लाभ उठाकर उनका देह शोषण करते हैं और फिर समाज में हत्या और आत्म-हत्या जैसे अपराधों को बढ़ावा देते हैं । इस मार्मिक कहानी का अन्त पूर्णतः अप्रत्याशित है । डा सत्येन्द्र ने यह स्वप्न में भी न सोचा होगा कि जिस मालवी के भाई अभय को गुनाह से बचाने के लिये उन्होंने मालती के एवारशन की व्यवस्था की थी वही मालती उनकी पुत्र वधू बनकर उनके घर आ जायेगी। मगर नई विचार धारा का उनका पुत्र रवि जब मालती को अपनी सहधर्मिणी बना लेता है तो वह चाहते हुए भी उसका विरोध नहीं कर पाते हैं ।

   श्री आनन्द स्वरूप मिश्र की सभी कहानियाँ पाठकों के अन्तस्तल को झकझोर देने में पूर्णरूपेण समर्थ है। आशा-निराशा, उत्थान-पतन, आदर्श और यथार्थ के हिण्डोले में झूलते हुए इन कहानियों के सभी पात्र अपने ही निकट और अपने ही बीच के प्रतीत होते हैं। विद्वान कथाकार ने पात्रानुकूल और बोल-चाल की प्रचलित भाषा का प्रयोग करके इन कहानियों को यथार्थ के निकट खड़ा कर दिया है। वाक्य विन्यास इतना सरल और स्पष्ट है कि कहीं भी कोई अवरोध नहीं आ पाता - यथा 'यह सुवासिनी भी बड़ी तोप चीज है। आती है तो मानो तूफान आ जाता है । बोलती है तो जैसे पहाड़ हिल जाते हैं और जाती है तो सोचने को छोड़ जाती है ढेर सारा ।'( त्रिभुज का नया बिन्दु ) 

वातावरण के निर्माण में भी कथाकार को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है । यथा "बाहर दृष्टि दौड़ी-चारों ओर खेत ही खेत दिखाई देते थे । गेहूँ के नवल पत्ते सकुचाते हुए से अपना शरीर इधर उधर हिला रहे थे। कोमल कलियाँ अपनी वय: सन्धि की अवस्था में अँखुड़ियों के वस्त्रों से तन ढकती हुई अपने ही में सिमिट रही थी "...." (उम्मीद के सितारे)


श्री मिश्र ने अपने कथा शिल्प में अन्तर्द्वन्द के साथ फ्लैशबैक का भी पर्याप्त सहारा लिया है। इसी कारण आपकी कहानियों में जिज्ञासा को पर्याप्त स्थान मिला है। शैली की दृष्टि से वर्णनात्मकता के साथ इन कहानियों में संवाद शैली का भी यथेष्ठ उपयोग हुआ है। कुछ संवाद तो इतने सरल, सरस और सटीक है कि सूक्ति वाक्य ही बन गये हैं यथा - "एक आदर्श पति

तो बनाया जा सकता है पर आदर्श प्रेमी नहीं ।"

"नारी बिना सहारे के जीवित नहीं रह सकती ।" "एक नारी क्या कभी पराजित हुई है पुरुष के आगे ?"( शाप का अन्त)


श्री मिश्र एक सिद्ध हस्त लेखक हैं। अलग-अलग राहें, प्रीत की रीत, अंधेरे उजाले , कर्मयोगिनी शीर्षक उपन्यासों के प्रकाशन के उपरान्त आपका यह प्रथम कहानी संग्रह पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है । आशा है कि जिस प्रकार हिन्दी जगत ने आपके उपन्यासों को सराहा और सम्मान दिया है उसी प्रकार यह कहानी संग्रह भी समादर और सम्मान प्राप्त करेगा ।



✍️ शिव अवतार 'सरस' 

मालती नगर

मुरादाबाद


::::::::प्रस्तुति::::::

, डॉ मनोज रस्तोगी

सोमवार, 4 सितंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष आनंद स्वरूप मिश्रा का कहानी संग्रह ..."टूटती कड़ियां"। यह कहानी संग्रह वर्ष 1993 में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ है। इसकी भूमिका लिखी है शिव अवतार सरस ने । इस संग्रह में बारह कहानियां संकलित हैं ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️

https://acrobat.adobe.com/link/track?uri=urn:aaid:scds:US:2a0bf1ca-4ff6-30e3-ba5c-a5fac59c5775 

:::::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

शनिवार, 2 सितंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष आनन्द स्वरूप मिश्रा की कहानी ... "मन की पीर"। उनकी यह कहानी प्रकाशित हुई है केजीके इंटर एंड टीचर्स ट्रेनिंग कालेज मुरादाबाद की पत्रिका के वर्ष 1967–68,वॉल्यूम 15 में । उस समय वह वहां अध्यापक थे ।







::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट 
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत 



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष आनन्द स्वरूप मिश्रा की कहानी ...यात्रा के पन्ने । उनकी यह कहानी प्रकाशित हुई है मेरठ कालेज की पत्रिका के वर्ष 51,जनवरी 1961,अंक 1 में । उस समय वह वहां स्नातकोत्तर (हिन्दी) उत्तरार्द्ध के छात्र थे ।





::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822

बुधवार, 30 अगस्त 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की कहानी..... राखी की सौगंध


"अब चलो भी शुभि ..! बाज़ार चलने में देर हो रही है"शुभम ने गाड़ी स्टार्ट करते हुए घर के बाहर से , अपनी पत्नी शुभि को आवाज़ लगायी . 

"आ गयीं बस...!". कहते हुए शुभि अपना दुपट्टा संभालते हुए मेन गेट से बाहर निकली और गाड़ी में बैठ  गयी.रक्षा बंधन आने में अभी पूरे दस दिन थे, मगर शुभि चाहती थी कि सभी तैयारियां समय रहते पूरी कर  ली जाएँ.अत: वह आज राखी खरीदने शुभम के साथ बाज़ार जा रही थी. राखी की दुकान पर पहुँच कर  तीनों भाइयों और भतीजों के लिए राखी खरीदने के  बाद, वह भाभियों के लिए लेडीज़ राखियाँ पसंद करने लगीं, मोतियों  की लड़ी से सजी लटकन वाली लेडीज़ राखियां उसे बहुत प्यारी लगीं, उसने दुकानदार से कहा कि  "भैया..! ये वाली "दो....राखियाँ  दे दीजिए..... !" मगर ....दो ..शब्द जैसे उसके गले मे अटक गया......! 

   कुछ समय पहले तक शुभि के मायके में सब कुछ ठीक -ठाक था मगर अचानक छोटे भैया राहुल की गृहस्थी में उस वक़्त भूचाल आ गया ,जब उसकी पत्नी रंजना  ने  छोटी -छोटी बातों पर झगड़ा करना शुरू कर दिया, और एक दिन झगड़ा इतना बढ़ा कि वह रूठकर अपने मायके जा बैठी.तब प्रारंभ में सबको यही लगा कि पति- पत्नी का झगड़ा है ,आपस में ही सुलझा लेंगे, मगर धीरे- धीरे जब उसे गये पंद्रह दिन हो गये तब सबको स्थिति की गंभीरता का अनुमान लगने लगा.वह अपने साथ अपने पांच साल के बेटे  अंश को भी ले गयी थी.  घर के सब लोगों ने  रंजना को मनाने की  बहुत कोशिश भी , कई फोन  भी किए, उसके माता- पिता से भी बात की और छोटे भैया ने गलती न होते हुए भी उससे  माफी माँगी, मगर वह  अपने अहम् के कारण आने को तैयार  न थी,छोटे भैया तो जैसे बिलकुल ही टूट  गये थे,  वह अपने कमरे तक सीमित होकर रह गये थे.   माँ का स्वर्गवास तो पहले ही हो चुका था, एक ही मकान में रहते हुए भी तीनों भाइयों के चूल्हे अलग-अलग थे, पिताजी बड़े भैया के साथ रहते थे.अत: छोटे भैया कभी होटल पर या कभी खुद कच्चा -पक्का बनाकर खाना खा लेते थे,इसी प्रकार  धीरे -धीरे तीन महीने बीत चले थे.

   यह सब सोचकर राखी  की दुकान पर पर खड़ी  शुभि की आंखें गीलीं और मन भारी हो चला था. उसने खुद को संयत करते हुए, दुकानदार से कहा, सुनो भैया, ये वाली लेडीज़ राखियाँ  दो नहीं...तीन दे दीजिए ...! "

"मगर शुभि तीन ...!".. शुभम ने कुछ कहना चाहा तो शुभि ने अपनी पलकों को हौले से झपकाते हुए  उसे चुप रहने का संकेत किया.दुकान से निकलकर उसने शुभम से पोस्ट आफिस चलने को कहा, वहांँ जाकर उसने एक चिट्ठी लिखकर , राखियों के साथ भाभी के मायके के पते पर पोस्ट कर दीं 

  रक्षा बंधन का पावन दिन भी आ पहुंचा , शुभि अपने मायके मिठाइयाँ और राखियाँ लेकर पहुँच चुकी थी, दोनों बड़े भाइयों और भाभियों को राखी बांधने के बाद, छोटे भैया की कलाई पर राखी बांधने ही वाली थी कि.....तभी डोरबेल बज उठी,

 बड़ी भाभी ने गेट खोला तो सबके आश्चर्य की सीमा न रही. दरवाजे पर छोटी भाभी रंजना  भतीजे के साथ खड़ी थी.रंजना के एक हाथ में अटैची और दूसरे में चिट्ठी थी .अंदर आते ही रंजना, शुभि से लिपटकर रोने लगी, शुभि की आंखों से भी गंगा- यमुना बह चली थी.घर के सब लोग आश्चर्य में थे कि यह चमत्कार कैसे हुआ ?इस दौरान वह चिट्ठी रंजना के हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ी, जिसे उठाकर राहुल ने मन ही मन एक साँस में पढ़ डाला, चिट्ठी में लिखा था

प्रिय भाभी,

बहुत दिन हुए ....!अब नाराजगी छोड़कर अपने घर आ जाओ! भैया की किसी भी गलती की मैं माफी मांगती हूँ....माँ तो इस दुनिया में नहीं है ,मगर  मैंने हमेशा  आप में अपनी माँ को ही देखा है, आप के बिना मेरे भैया अधूरे  हैं और भैया के बिना मैं.... ! और  मैं इस अधूरेपन के साथ  रक्षा बंधन के इस  पावन  त्योहार  को नहीं मना सकती,आपको  इस राखी की  सौगंध...!वापस आ जाओ  भाभी ..... ‌!मैं राह देखूंगी...

आपकी 

शुभि

पत्र पढ़कर ,छोटे भैया राहुल की आंखों से खुशी के आंँसू बह चले थे  ..आज उन्हें अपनी इस छोटी बहन में  माँ का अक्स दिख रहा था. उसकी लायी राखी के  कच्चे  धागों ने उसके बिखरे हुए घर को रक्षा कवच के अटूट बंधन में जो बांँध दिया था.

शुभि ने हौले से रंजना को अलग करके आँसू पोछकर, मुस्कुराते हुए कहा "आओ भाभी.. पहले राखी बंधवा लो, शुभ मुहूर्त बीता जा रहा है..! "

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, 

मिलन विहार, 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष आनन्द स्वरूप मिश्रा का कहानी संग्रह ..."इन्तजार"। यह कहानी संग्रह वर्ष 2003 में दिशा पब्लिकेशन्स प्रा. लि. मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ है। इसकी भूमिका लिखी है डॉ श्रीमती कौशल कुमारी ने । इस संग्रह छह कहानियां संकलित हैं ।


क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️⬇️ 

https://acrobat.adobe.com/link/track?uri=urn:aaid:scds:US:59121259-a951-3b02-888d-9990b32ca766 

:::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822


शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ......जमाना बदल गया

 


हरप्रसाद जी अपने पुत्र को कुछ इस प्रकार समझा रहे थे "बेटा! तुम बेकार ही ब्रांडेड जूतों का शोरूम या रेडीमेड कपड़ों का शोरूम खोलने की जिद पर अड़े हुए हो। मेरी तो यही राय है कि इंटर कॉलेज खोलकर मान्यता ले लो। इस समय सबसे अच्छा मुनाफे का काम यही है।"

         " पिताजी! मेरी शिक्षा क्षेत्र में कोई रुचि नहीं है। वैसे भी मैंने रो-झींककर इंटर पास किया है। इंटर कॉलेज खोलते हुए क्या अच्छा लगेगा ?"-पुत्र रमेश ने बुझे हुए मन से अपने पिताजी को जवाब दिया ।

              " बेटा इसमें अच्छा-बुरा लगने की क्या बात है ? अध्यापक बनने के लिए योग्यता जरूरी है लेकिन विद्यालय खोलने के लिए किसी कानून में न्यूनतम योग्यता कहॉं लिखी हुई है? इंटर पास कर लिया, अच्छी बात है।फेल होकर भी खोल लेते तो कौन रोकने वाला था ? बात बिजनेस की है। मेरी बात को समझो। इंटर कॉलेज खोलने से ज्यादा मुनाफेदार काम दूसरा कोई नहीं है ।"

          लेकिन पिताजी! जूतों का शोरूम भी तो अच्छा रहेगा ?"- रमेश हार नहीं मान रहा था। वास्तव में उसकी दिलचस्पी स्कूल खोलने-चलाने में नहीं थी। पढ़ाई से हमेशा चार कोस दूर भागता रहा था। अब पढ़ने-पढ़ाने के झमेले में वह भला क्यों पड़ने लगा।

        " देखो बेटा! शोरूम खोलने के लिए तुम्हें मेन रोड पर बढ़िया-सी दुकान खरीदनी पड़ेगी। खर्च बहुत बड़ा होगा। ब्रांडेड कोई भी दुकान खोलो ! जूतों की, कपड़ों की, ज्वेलरी की, महंगे आइटम, दुकान में रखे हुए सामान की कीमत; यह सब धनराशि का जुगाड़ करना काफी मुश्किल बैठेगा। फिर यह भी है कि बिजनेस चले न चले। दूसरी तरफ इंटर कॉलेज खोलने के लिए हमारे पास जमीन ही जमीन है। उसी में से एक छोटी-सी जमीन पर खोल दिया जाएगा। जितने कमरे बनवाने जरूरी होंगे, बनवा लेंगे। धंधा चल निकलेगा तो काम को बढ़ाते रहेंगे।"- हर प्रसाद जी ने अपने पुत्र को योजना के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए तो रमेश को भी इंटर कॉलेज खोलने की योजना में दिलचस्पी होने लगी।

            " एक बात है पिताजी ! मैंने तो पढ़ा था कि विद्या दान का विषय है, व्यापार का नहीं है?"

                   पुत्र के मुख से यह बात सुनकर हरप्रसाद जी गंभीर हो गए। बोले " यह सब किताबों की बातें हैं। जो तुमने इंटर तक पढ़ा, उसे भूल जाओ। अब दुनिया को साक्षात देखो। विद्या दान का विषय नहीं है। विद्या पैसा कमाने या धंधे का विषय है। चारों तरफ मुंह उठा कर देखो ! इससे अच्छा बिजनेस कोई नहीं है। फिर इस क्षेत्र में कोई रोक-टोक भी तो नहीं है । जितनी चाहे फीस लो, जैसे चाहे खर्च करो।"

       " लेकिन सरकार का हस्तक्षेप भी तो कुछ होता होगा ?"

               - पुत्र के मुंह से सुनकर हरप्रसाद जी इस बार गंभीर नहीं हुए बल्कि खिलखिला कर हंसने लगे। उनकी हॅंसी में अट्टहास था। भयावहता और वीभत्सता थी। कहने लगे -"पचास-बावन साल से तो हम देख रहे हैं। धड़ाधड़ इंटर कॉलेज तो क्या डिग्री कालेज तक पैसा कमाने के लिए खुल रहे हैं। सरकार ने रत्ती-भर उन पर कोई नियंत्रण नहीं बिठाया।"

                 पिता की बातें सुनकर पुत्र आनंदित होकर बोला "जब पचास साल से इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज पैसा कमाने के लिए ही खुल रहे हैं और सरकार उनकी तरफ टेढ़ी आंख करके देखने का साहस नहीं कर पा रही है तो इससे अच्छा बिजनेस और क्या हो सकता है ? ठीक है पिताजी! आप अपनी जमीन के एक हिस्से पर इंटर कॉलेज खोलने की शुरुआत कीजिए । सचमुच आजादी के बाद के पिचहत्तर वर्षों में जमाना बदल गया"।

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सराफा

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 6 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार राशिद हुसैन की कहानी ......किट्टू

 


आज घर में खाना नहीं बना था। घर के सभी लोग उदास थे, खामोश थे। सब एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे। कोई कुछ बोलता तो सिर्फ किट्टू का ही ज़िक्र करता उसी की बातें करता। आज हमारा किट्टू दूर बहुत दूर चला गया था। वह कम समय में ही परिवार का सदस्य बन गया था। सभी के साथ खेलता और सभी उससे प्यार करते थे। आज घर में सन्नाटा सा छाया हुआ था। कोई परिचित या संबंधी सांत्वना देने भी नहीं आया।

 मैं कभी घर में कोई भी पालतू जानवर या पक्षी पालने के पक्ष में नहीं रहा। एक दिन बच्चे अपनी बुआ के घर से एक बिल्ली का बच्चा जो मात्र डेढ़ माह का था, ले आए। उसका नाम किट्टू रखा गया मुझे उस समय काफी बुरा लगा लेकिन बच्चों की मोहब्बत के आगे मैं कुछ कह न सका। धीरे-धीरे वक्त गुजरने लगा। बच्चे किट्टू के साथ बहुत खुश रहते और किट्टू उनके साथ उछल–कूद करता रहता। मैं किट्टू से थोड़ा अलग- थलग ही रहता। मैं जब सुबह ऑफिस के लिए घर से निकलता तो किट्टू मेरे पीछे -पीछे छोटे -छोटे कदमों से दरवाजे तक आता जब मैं घर से बाहर निकल जाता तो वह लौट जाता। शाम को जब मैं ऑफिस से घर लौटता तो किट्टू मुझे बड़ी मासूम नज़रों से देखता, जब घर में टहलता तो वह घर की लॉबी के कोने में जहां उसके सोने बैठने के लिए एक छोटे गद्दे का इंतजाम किया गया था और टेडी बियर बॉल और कुछ खिलौने दे दिए गए थे उनसे  खेलता रहता था। वहां बैठकर मुझे गर्दन घुमा कर देखता रहता। यह सिलसिला यूं ही चलता रहा। एक दिन जब शाम को मैं ऑफिस से घर लौटा तो किट्टू मेरे पैरों में आकर लिपट गया इससे पहले कि मैं छुड़ाने की कोशिश करता वह प्यार करने लगा । मैं हतप्रभ  उसे देखता रहा और कुछ न कह सका फिर थोड़ी देर बाद उसने मुझे छोड़ा और अपनी जगह जाकर बैठ गया। बच्चों को तो जैसे खिलौना मिल गया था वह उसके साथ खूब खेलते उसे गोद में उठाए_ उठाए फिरते सुबह  जब स्कूल जाते तो उससे खेल कर जाते जब स्कूल से आते तो फिर उस में लगे रहते मैं इस बात से संतुष्ट था थी चलो बच्चों को मोबाइल देखने की लत से छुटकारा मिला। बच्चों को पढ़ाई के बाद जितना भी समय मिलता वह किट्टू के साथ गुजारते। किट्टू अब बड़ा होने लगा था और पूरे घर में उछल कूद करता रहता उसकी शरारतें अब दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी।

    एक दिन देर रात को बहुत तेज आंधी बारिश होने लगी और बिजली चमकने लगी सभी लोग सोए हुए थे तब ही बादलों की तेज गरज से मेरी आंख खुल गई मैं उठा और अपने कमरे से बाहर आकर  देखा तो किट्टू लॉबी के एक कोने में डरा सहमा हुआ बैठा था वह मुझे देखकर म्याऊं- म्याऊं करने लगा। मुझे लगा कि वह डर गया है और मुझसे कुछ कहना चाह रहा है। मैंने उसको उठाया और अपने कमरे में ले गया जहां वह बारिश रुक जाने और बादलों की गरज बिजली की गड़गड़ाहट समाप्त हो जाने तक वहीं रहा उसके बाद बाहर आकर अपनी जगह लेट कर सो गया।

घर की लॉबी के एक कोने में जहां किट्टू का बिस्तर खिलौने रखे थे वहीं पर उसके खाने के लिए एक प्लेट और दूध पीने के लिए कटोरी और पानी पीने के लिए एक छोटा लोटा रख दिया गया था। घर में सुबह सबसे पहले जो उठता किट्टू उसको देखकर म्याऊं- म्याऊं करने लगता और अपने खाने-पीने के बर्तनों की तरफ इशारा करता। हम समझ जाते उसको भूख लगी है और खाने को दे देते उसके लिए फिक्र से कैट फूड बाजार से लाकर रखे जाते वह अपना खाना खाकर शांत हो जाता।

एक दिन रात को मैं अपने बिस्तर पर लेटा सोने की कोशिश कर रहा था और नींद का कहीं अता पता नहीं था। मैं करवटें बदल रहा था उस दिन मां की बहुत याद आ रही थी। उनकी कभी ना पूरी होने वाली कमी का बहुत एहसास हो रहा था अचानक मुझे ख्याल आया कि जब मेरी मां इस दुनिया ए फानी से रुखसत हुई थी तब मेरी उम्र पैंतीस साल थी। मुझे एकदम ध्यान आया अरे हमारा किट्टू तो मात्र डेढ़ माह का ही था जब वह अपनी मां से जुदा हुआ। यह सोच कर मेरा दिल भर आया और उसके लिए मन में प्यार उमड़ने लगा और सोचने लगा अब तो हमारा परिवार ही उसका परिवार है। उसका ख्याल हमें ही रखना है ।उसको प्यार की जरूरत है। मैं जो उस से हटा बचा रहता था अब मेरे मन में उसके लिए प्रेम उमड़ आया अब मैं ऑफिस जाते और आते समय उसको देखता बातें करता यहां तक की ऑफिस से घर को फोन करके किट्टू की खैरियत लेता रहता। रात घर आने पर अब किट्टू मेरी गोद में आकर काफी देर तक बैठ जाता।

वक्त गुजर रहा था और यह सिलसिला यूं ही चलता रहा। किट्टू भी अब बड़ा हो गया था। अब उसकी इच्छा बाहर इधर-उधर घूमने की होती तो वह अक्सर छत पर चला जाता वहां छत से होते हुए पड़ोसियों के घर भी चला जाता। सभी पड़ोसी जान गए थे की वह हमारे घर का किट्टू है। किट्टू घर में रहे बाहर सड़क पर न निकले इसके लिए हमेशा घर का मुख्य द्वार बंद रखते लेकिन एक दिन बे ध्यानी से घर का मुख्य द्वार खुला रह गया और किट्टू घर से बाहर चला गया इसी बीच गली के कुत्तों ने उस पर हमला कर दिया । उसकी आवाज सुन मैं बाहर निकला, कुत्तों से उसे छुड़ाया तब तक वह किट्टू को काफी जख्मी कर चुके थे। किट्टू लहूलुहान था वह मेरे पैरों पर आया, सिर रखा और हल्की आवाज से एक बार म्याऊं की आवाज निकाली और हमेशा के लिए सो गया। मैंने उसे उठाया फिर एक कपड़े में रखकर नदी के किनारे ले गया जहां गड्ढा खोदकर उसे दबा दिया। जब मैं उसे दबा कर लौट रहा था तब मेरी आंखों में आंसू थे। घर आकर सबसे पहले मैंने बहुत सख्त लहजे में ताकीद की अब  इस घर में कोई किट्टू नहीं लाया जाएगा क्योंकि जब कोई किट्टू हमेशा के लिए चला जाता है तब उसके जाने का गम भी इंसानों के जाने के गम के बराबर ही होता है।

✍️ इंजीनियर राशिद हुसैन

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 1 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल की कहानी .......मानवता का धर्म

 


पहाड़ी घुमावदार रास्तों पर श्याम बाबू अपनी गाड़ी सहज गति से चलाते हुए जा रहे थे। अचानक एक मोड़ काटते ही सड़क किनारे भीड़ दिखाई दी। ट्रैफिक भी रुका हुआ था।श्याम सिंह ने गाड़ी से उतरकर पूछा तो पता चला एक कार नीचे गिर गयी है। तभी नीचे से एक घायल को ऊपर लाया गया। श्याम बाबू उसे देखते ही चौंक गये: अरे ये तो दिलावर है। दिलावर गंभीर रुप से घायल था और उसे तुरंत चिकित्सा की जरुरत थी। बिना एक क्षण की देरी किये श्याम बाबू चिल्लाये: अरे जल्दी करो, इसे मेरी गाड़ी में लिटा दो और अस्पताल लेकर चलो। थोड़ी ही देर में वह अस्पताल पहुँच गये। डाक्टर ने जाँच की और कहा खून बहुत बह गया है। इन्हें तुरंत दो यूनिट खून चढ़ाना जरूरी है, नहीं तो ये नहीं बचेंगे। संयोग से श्याम बाबू का और वहाँ उपस्थित दो अन्य लोगों का खून भी मैच कर गया। लगभग दो घंटे की मशक्कत के बाद आपरेशन थियेटर से डाक्टर बाहर आये और बोले , आप लोग इन्हें टाइम से ले आये। और थोड़ी देर हो जाती तो ये नहीं बचते।

श्याम बाबू ने ईश्वर का बहुत धन्यवाद किया और अपने दफ्तर में आ गये। बैठे बैठे उन्हें वो दिन स्मरण हो आया जब यही दिलावर किसी टेंडर के सिलसिले में उनसे मिला था और टेंडर न मिलने पर उन्हें खुलेआम धमका कर गया था। श्याम बाबू एक आध दिन थोड़ा विचलित हुए, फिर सब भूल गये। 

दफ्तर के बाद शाम को श्याम बाबू फिर अस्पताल पहुँचे। दिलावर को होश आ चुका था।कहो दिलावर अब कैसे हो, श्याम बाबू ने उसका हाथ सहलाते हुए पूछा। तभी वहाँ खड़ी नर्स ने दिलावर को बताया, यही साब जी अपनी गाड़ी में आपको अस्पताल लाये थे, और अपना खून भी दिया था। इन्हीं की वजह से आपकी जिन्दगी बच गयी,नहीं तो यहाँ तक आते आते तमाम एक्सीडेंट के केस निपट जाते हैं।

दिलावर यह सुन कर रोने लगा और हाथ जोड़कर बोला बाबूजी आप मुझे क्षमा कर दो। मैंने आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया किंतु आपने सब कुछ भुलाकर मेरी जान बचायी।

अरे, रोओ मत, श्याम बाबू उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले: ये तो मानवता का कार्य था। कोई और भी होता तो उसे भी हम अस्पताल पहुँचाते। और तुम ज्यादा मत सोचो। मैंने तो वह बात तभी भुला दी थी। हमारा काम ही ऐसा है। जिसका काम नहीं हो पाता वो ही धमका जाता है। तुम जल्दी से ठीक हो जाओ।

साब' आप इंसान नहीं इंसान के रुप में फरिश्ता हो। आपका बहुत बड़ा दिल है। जीवन में आपके किसी काम आ सका तो अपने को धन्य मानूँगा, कहते कहते दिलावर फिर रोने लगा।

रोओ मत दिलावर, सबकी रक्षा करनेवाला वह ईश्वर ही होता है, वो ही समय पर हमारे पास मदद के लिये किसी न किसी को भेज देता है। अब आगे से तुम भी यह निश्चय कर लो कि मुसीबत में यथासंभव अन्जान व्यक्ति की मदद करोगे और किसी से दुर्व्यवहार नहीं करोगे।

अच्छा चलता हूँ, कहकर श्याम बाबू अपने घर वापस आ गये।


✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 29 जून 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ......ओह बाबा !

   


पिछले 3 दिन से घर में चूल्हा नहीं जला था जलता भी कैसे  घर में अन्न का एक भी दाना नहीं था....!

       .......... किसी ने कुछ भी नहीं खाया था परंतु अब सहन नहीं होता ! हे भगवान आगे कैसे चलेगा.. कुछ तो मदद करो...! कहीं से तो आओ ?.... क्या मेरे बच्चे यूं ही भूखे मर जाएंगे?.... प्रभु कुछ तो चमत्कार दिखाओ .....! घर के पूजा गृह में माथा टेकते हुए  संगीता बुदबुदाई !

    पति का एक्सीडेंट क्या हुआ संगीता  की तो दुनिया ही  उजड़ गई ..... एक्सीडेंट होने के बाद वह बिस्तर पर आ गए और फिर धीरे-धीरे घर की सारी जमा पूंजी की एक-एक पाई समाप्त हो गयी...! 

.......?और फिर अचानक एक दिन राधेश्याम  स्वर्ग सिधार गया। और छोड़ गया अपने पीछे एक बूढ़ी मां, पत्नी और दो बेटियों को.... बेसहारा परिवार में कमाने वाला कोई भी नहीं..... जहां कहीं से मदद ली जा सकती थी ली जा चुकी थी......।

.. अब दुकानदार ने भी उधार देना बन्द कर दिया था । ऐसा लगता था कि पूरा परिवार ही भूख से  दम तोड़ देगा.....!

......... शाम के 8:00 बजे  दरवाजे पर एकाएक दस्तक हुई.....  दरवाजा संगीता ने ही खोला.... क्या बात है ? कौन है ?क्या है?

.......... ".... कुछ खाने का सामान ,राशन, घी ,तेल और कुछ फल व सब्जियां हैं"..... "कहां रखना है?" लंबे डील-डोल वाले व्यक्ति ने जवाब देते हुए प्रश्न किया !

.....संगीता ने पूछा  "किसने भेजा है ? "

.....".हमें डॉ जोशी ने भेजा है. .!."

... पता गलत हो सकता है ! हमारी तो कोई जान पहचान भी डॉक्टर जोशी से नहीं है !

......."नहीं यही पता है नरोत्तम सिन्हा का यही मकान है न ?"

....... "हां मेरे दादाजी का नाम ही नरोत्तम सिन्हा था " नन्दू ने  कहा......"रास्ते में पूछा था तो पता तो सही है ही"!.... और साथ में लिफाफा भी है ....!"

      सभी घरवाले यह देखकर चकित थे कि ये  चमत्कार कैसे हो गया.....  ऐसा कौन डॉ जोशी है ? जो संकट की इस घड़ी में भगवान बन कर हमारे सम्मुख उपस्थित हो गया है।...... हम तो किसी डॉक्टर जोशी को नहीं जानते .....?हमारा उस से क्या संबंध ?

.... खैर जो भी हो यह सब सोचने समझने का समय अब नहीं था....... भूख से सभी के प्राण निकले जा रहे थे .....खाने में कुछ ब्रेड थीं ड्राई फ्रूट्स थे; नमकीन, बिस्कुट थे.......

 सभी खाने पर झपट पड़े,.....! पानी पिया दूध से चाय बनाई गई !

  ....... लिफाफा खोला तो उसमें 500  के नोटों की गड्डी थी गिनती करने पर पता लगा कि ₹20000 थे ! सोचा सामान खत्म हो जाएगा तो कोई बात नहीं और सामान लाया जाएगा ।

    .....डॉ जोशी ने ये  सामान क्यों भेजा ? कुछ दिन बीते धीरे-धीरे सारा सामान खत्म होने लगा परंतु यह क्या महीना भर बाद फिर वही समान वही लिफाफा....घर में आ गया अब तो बहुत मुश्किल थी .. यह जानना भी जरूरी था आखिर ये डॉक्टर जोशी है कौन ?

   ......जो संकट की घड़ी में अनजाने लोगों की यों मदद कर रहा है ।

 .......डॉक्टर जोशी रामनगर में कहीं रहते थे अम्मा जैसे तैसे पता लगा कर रामनगर पहुंचीं  तो वहां देखा कि बहुत भीड़ लगी है जानने की कोशिश की कि क्या हुआ है?.... तो पता लगा डॉक्टर जोशी की एक्सीडेंट में मौत हो चुकी थी..... उम्र यही कोई 45 साल.... लोग कहते जा रहे थे डॉक्टर साहब बहुत भले आदमी थे ....!

      हार कर अम्मा वापस आ गई पता लगाने की कोशिश बेकार गयी .......!.......

.....महीना भर बाद फिर वही गाड़ी आई और समान और लिफाफा छोड़ गयी.....अब तो डॉक्टर जोशी भी जिंदा नहीं थे....... ।

...... कुछ दिन बाद अम्मा को बाबा का संदूक खोलने पर एक डायरी मिली उस डायरी  में अंदर जो लिखा था उसे देख कर अम्मा  चकित रह गई .....!

.......एक पन्ने पर सारा हिसाब लिखा था  जिसका अर्थ  निकलता था कि हर महीने बाबा ₹1000 किसी अनाथ बच्चे जोशी को देहरादून भेजते थे ...जिससे जोशी का पूरा पढ़ाई का खर्च हॉस्टल की फीस जमा होती थी  ।..... बाबा अक्सर देहरादून जाते रहते थे ....वे जब तक जिंदा रहे तब तक पैसा भेजते रहे.... और वही बालक आज एक सफल डॉ सर्जन बन गया..था...!

        कुछ दिन बाद डॉक्टर जोशी के अकाउंटेंट इस परिवार का हाल जानने आए तो उन्होंने बताया कि डॉक्टर जोशी अत्यधिक बिजी रहते थे .....बहुत  धर्म कर्म वाले थे जैसे ही डॉक्टर जोशी को पता लगा कि नरोत्तम सिन्हा के  इकलौते बेटे की भी एक दुर्घटना में मौत हो गई तो उन्होंने इस परिवार के लिए एक बड़ा फंड बैंक में जमा किया जिससे प्रति माह इस परिवार का खर्च चल सके ! 

........जानकर नन्दू के मुंह से अनायास ही निकल गया *ओह बाबा !*और दो आंसू उसके गालों पर ढुलक पड़े !!

.........डॉक्टर जोशी उस दिन इसी परिवार से मिलने आ रहे थे कि रास्ते में उनका एक्सीडेंट हो गया और उनकी मृत्यु हो गई.......!

✍️ अशोक विद्रोही 

 412 प्रकाश नगर

  मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत