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शनिवार, 29 मार्च 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ प्रशांत कुमार भारद्वाज की कहानी.... आखिरी किश्त

 


सुबह के सात बज चुके थे। दीवार पर टंगी घड़ी की सुइयाँ थकान से लटकी हुई थीं, जैसे कई सालों से वक्त ढोते-ढोते अब थककर सुस्ताने लगी हों। अविनाश ने करवट बदली। बिस्तर पर पड़े-पड़े उसे लगा, जैसे उसकी ज़िन्दगी भी उसी घड़ी की तरह हो गई है-एक ही जगह ठहरी हुई, एक ही तरह घूमती हुई, बस बिना रुके, बिना किसी नए मोड़ के।

रसोई से चाय की महक आई। पूजा चाय का कप मेज़ पर रखकर बिना कुछ कहे चली गई। पहले ऐसा नहीं था। पहले वह चाय के साथ मुस्कान भी देती थी, अब सिर्फ़ अदरक देती है। मुस्कान जैसे ब्याज की तरह चुकता हो गई थी, बस कड़वाहट रह गई थी।

मोबाइल वाइब्रेट हुआ। स्क्रीन पर वही नंबर चमक रहा था-बैंक ।

"सर, आपकी होम लोन ईएमआई आज कटनी है। बैलेंस चेक कर लीजिए, वरना पेनल्टी लग जाएगी।"

अविनाश ने फोन काट दिया। यह कॉल हर महीने आती थी, उसी दिन, उसी समय। जैसे कोई मशीन हो, जो हर महीने उसकी आत्मा से एक और टुकड़ा काट लेती हो। वह सोचता था, "ज़िन्दगी की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं कि हम गरीब हो जाते हैं, बल्कि यह है कि हम हर महीने थोड़ा-थोड़ा मरते रहते हैं।"

बेटे बिट्टू का स्कूल बैग टूटा हुआ था। पिछले हफ्ते उसने कहा था-

"पापा, नया बैग ला दोगे?"

अविनाश ने हाँ कह दिया था। झूठ बोलना भी शायद अब उसकी ज़रूरत बन गया था। ऑफिस में बॉस की निगाहें उसे घूर रहीं थीं।

"क्या चल रहा है तुम्हारे दिमाग़ में?" क्या बताता? बैंक बैलेंस, होम लोन, क्रेडिट कार्ड, बच्चों की स्कूल फीस, राशन का बिल, बिजली का बिल... दिमाग़ किसी हाइवे पर दौड़ते ट्रैफिक की तरह था, तेज़ रफ्त्तार, बेतरतीब, हर मोड़ पर टकराने के लिए तैयार।

लंच ब्रेक में वह वॉशरूम गया। आईने में अपना चेहरा देखा-गहरी आँखों के नीचे काले धब्बे, सफ़ेद होते बाल, बुझी हुई आँखें। "कब हुआ मैं इतना बूढ़ा?" 

बचपन में उसे लगता था कि आद‌मी तब बूढ़ा होता है, जब उसकी कमर झुकने लगती है।

लेकिन असली बुढ़ापा तब आता है, जब जेब में पैसे झांकते रह जाएँ और अंदर कुछ न मिले।

ऑफिस से लौटते वक्त समोसे की दुकान दिखी। जेब में पड़े पचास के नोट को टटोला। बचपन में माँ कहती थी-"जब मूड खराब हो, कुछ मीठा खा लो, अच्छा लगेगा।"

पर समोसे मीठे नहीं होते। और पंद्रह रुपए का समोसा भी अब गैरजरूरी खर्चा लगता था।

रात के खाने की मेज़ पर बिट्टू ने फिर सवाल किया -"पापा, इस बार मेरे बर्थडे पर क्या गिफ्ट दोगे?"

अविनाश ने मुस्कुराने की कोशिश की। "इस बार सरप्राइज़ दूँगा।"

बिट्टू खुशी से उछल पड़ा।

पूजा ने उसकी आँखों में देखा। उसे समझ आ गया कि अविनाश झूठ बोल रहा है।

पर बिट्टू को नहीं आया। शायद बच्चे बड़े होने के बाद झूठ पकड़ना सीखते हैं, और बड़े होने के बाद झूठ बोलना।

अगली सुबह बैंक का फिर कॉल आया। इस बार आवाज़ में थोड़ी सख्ती थी- "सर, आपकी आखिरी डेट थीं, अब पेनल्टी लग जाएगी।"

वह चुप रहा।

पेनल्टी? जो आद‌मी पहले से ही किश्तों में कट रहा हो, उसे और कौन-सी सजा दी जा सकती थी?

रात को करवटें बदलते हुए पंखे की आवाज़ सुनाई दी।

"पंखे से लटकने की मत सोचना," अचानक पूजा की आवाज आई।

अविनाश चौंक गया। "क्या?"

"कुछ नहीं।"

पर वह समझ गया कि पूजा ने उसके मन के विचार पढ़ लिए थे।

बाहर कुत्ते भौंक रहे थे। उसे लगा, जैसे कोई कर्ज़ वसूली एजेंट दरवाज़ा खटखटा रहा हो।

"कब तक बचूंगा?"

उसने आँखें बंद कर लीं।

...और फिर कुछ भी नहीं।


 ✍️ डॉ. प्रशांत कुमार भारद्वाज

सूर्य नगर, लाइन पार

मुरादाबाद– 244001 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9410010040

गुरुवार, 20 मार्च 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी .....शराब का पहला दिन

 


इमरती ने संदूक में रखे हुए रुपयों में से जब खर्च के लिए बीस रुपये निकालने चाहे तो देख कर उसकी तो चीख ही निकल गई। साड़ी के नीचे बहुत सँभाल कर और छिपाकर उसने बारह सौ रुपये रख दिए थे। उसी में से धीरे-धीरे बीस-तीस रुपये निकालकर खर्च करना शुरू हुआ था ।लेकिन रुपए कहाँ जा सकते हैं ? वह सोच में पड़ गई । लॉकडाउन चल रहा है । घर का दरवाजा अगर खुला भी रह जाए तो इस समय चोर-डकैतों का कोई खतरा नहीं होता।


घर पर चारों तरफ एक निगाह डालते ही उसका शक गहरा गया । जरूर यह पति का ही काम होगा । वही एक घंटे से गायब हैं। दौड़ती हुई बदहवास अवस्था में इमरती घर के दरवाजे से निकल कर गली में आ गई और पागलों की तरह चारों तरफ पति को ढूँढने लगी । तलाश में ज्यादा देर नहीं लगी। सामने से ही हाथ में शराब की बोतल थामें लड़खड़ाते हुए कैलाश आ रहा था। पति का नाम कैलाश ही था ।

.इमरती के बदन में जैसे आग लग गई। इतनी मेहनत से मैं बर्तन माँज कर जैसे- तैसे बारह सौ रुपए लाती हूँ और इस बार तो बिना काम किए ही मालकिन ने बारह सौ रुपए हाथ में थमा दिए थे । यह कहते हुए कि इमरती ! हमारी गुँजाइश तो नहीं है, लेकिन फिर भी तुम्हारी हालत देखकर मना भी नहीं कर पा रहे हैं ।

तपाक से हाथ से बोतल छीनी । घसीटते हुए घर के दरवाजे तक ले आई । “कहाँ हैं रुपए ? क्या किया ? ”

कैलाश के मुँह से कोई शब्द नहीं निकल पा रहा था । जो कह भी रहा था , वह अस्पष्ट था और बुदबुदाते हुए ही कुछ बोल पा रहा था । इमरती ने अपना सिर पकड़ लिया। ” हे भगवान ! अब महीना कैसे चलेगा ? अभी तो सत्रह मई तक लॉकडाउन है । फिर जाकर पता नहीं क्या हो ?”


पति बेसुध होने लगे थे । उन्होंने तो शराब ऐसे पी रखी थी कि जैसे मुफ्त में राशन बँट रहा हो। दौड़ती हुई इमरती मालकिन के घर की तरफ चल दी। रास्ते में सोचती रही कि किस मुँह से अपने पति की शराबी आदत को मालकिन के सामने बता पाऊँगी ? कैसे उनसे अब कुछ और रुपए माँग पाऊँगी ? और वह भी क्या दे पाएँगी ?

मालकिन के घर के दरवाजे पर घंटी बजाई और खुद मालकिन दरवाजा खोलने के लिए जब आईं तो इमरती उनको मुरझाई हुई देखकर आश्चर्यचकित रह गई । बगैर दरवाजा खोले ही उन्होंने कहा ” हमने तो तुम्हें पहली तारीख को ही वेतन के सारे रुपए दे दिए थे और लॉकडाउन रहने तक काम करने के लिए मना भी कर दिया था ताकि न कोई घर में आए, न कोई जाए ।अब क्या बात है?”

” मालकिन मैं बहुत परेशान हो गई हूँ। आपसे दो मिनट बात करनी है।” इमरती ने रुआँसे होकर जब कहा तो मालकिन ने दरवाजा खोल कर उसे अंदर बुला लिया। इमरती ने रोते-रोते सारी घटना मालकिन को बता दी और कहा कि अगर हजार रुपए एडवांस मिल जाएँ तो महीने भर का खर्चा चल जाएगा वरना भूखे पेट ही रोजाना सोना पड़ेगा ।”-कहते हुए इमरती रो रही थी ।

तभी उसकी नजर मालकिन पर गई। मालकिन की आँखों से आँसू बह रहे थे। इमरती समझी कि मालकिन मेरे दुख से दुखी हैं । कहने लगी ” मालकिन आप दुखी मत हो । मैं जैसे भी होगा , दिन काट लूँगी।”

तभी मालकिन ने इशारे से कहा “मैं तुम्हें अपने घर की हालत भी बताने जा रही हूँ।” और फिर साहब को पलंग पर जूते पहने हुए लेटी हुई अवस्था में मालकिन ने दिखा दिया। कहने लगीं ” यह भी सुबह से पिए हुए पड़े हैं । एक घंटा पहले घर से गए थे। अलमारी की सेफ में जितने रुपए रखे थे, सब उठाकर ले गए और पेटियों में भर – भर के शराब ले आए । तब से बैठकर पी रहे हैं। मैंने विरोध किया तो मुझे पीटने लगे ।”-कहकर मालकिन अपने शरीर पर पड़े हुए चोटों के निशान दिखाने लगीं। इमरती अपना रोना भूल गई और मालकिन के प्रति सहानुभूति से भर उठी ।

✍️रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 9 997615451

शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में गुरुग्राम निवासी) के साहित्यकार डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल की व्यंग्य कहानी .....दीक्षा-गाथा । व्यंग्य संग्रह बाबू झोलानाथ(1994) और गिरिराज शरण अग्रवाल रचनावली खंड 8 (व्यंग्य समग्र –एक) में संकलित यह व्यंग्य कहानी मुंबई के श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी महिला विश्वविद्यालय (एसएनडीटी) के स्नातक तृतीय वर्ष के हिन्दी पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित की गई है।

 




उस दिन वे मिले तो मधु घोलते हुए। 

तपाक से हाथ मिलाया, हाल-चाल पूछा, घर-गृहस्थी की चर्चा की। मैंने सोचा, चलो कोई तो आत्मीयता दिखाने वाला मिला। नई जगह पर परिचित व्यक्ति जरूरी होता है।

जब मैंने डिपार्टमेंट में प्रवेश किया तो किसी तेज तंबाकू की सुगंध मेरे नथुनों में जबरदस्ती घुसने की जिद करने लगी। मेरी निगाह उसी ओर घूम गई।

पतली मोरी की पैंट पर खद्दर की कमीज धारण किए हुए एक महाशय बनारसी स्टाइल में बीड़ा चबा रहे थे। लगता था कि इसके साथ ही वे सारे परिवेश को पीने की ख़ास कोशिश कर रहे थे।

नमस्कार-निवेदन के बाद मैंने अपना परिचय दिया तो वे चहक उठे,‘वाह, वाह आप ही हैं। आइए-आइए, बैठिए-बैठिए। बड़ी ख़ुशी हुई आपके आने पर। एक साथी बढ़ गया।’

उनके वार्तालाप से ही पता चल गया कि वे भी यहीं की तोड़ रहे हैं और मुझसे सीनियर है।

मैं नतमस्तक हो गया।

बोले,‘कोई परेशानी हो तो बताइएगा। मैं आपके किस काम आ सकता हूँ?’और इसके साथ ही उन्होंने विद्यालय के संपूर्ण भूगोल, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र पर सेवापूर्व दीक्षा-भाषण दे डाला। दीक्षांत भाषण तो मैंने डिग्री लेते हुए कई बार अनमने मन से सुने थे, किंतु इस भाषण को पता नहीं क्यों, ध्यानपूर्वक सुनता रहा।

दीक्षांत समारोह के विशाल पंडाल में जगमगाती हुई रोशनी से दिया जाने वाला औपचारिक भाषण मुझे सदैव उबाता रहा है। वही औपचारिक शपथ बी॰ए॰ से लेकर पी-एच॰डी॰ की डिग्री तक बार-बार दुहराता रहा और फिर सम्मानित मुख्य अतिथि का लिखा भाषण, जिसकी छपी प्रतियाँ पहले भी बँट जाती थीं, बड़ा बोर करता था। लगता था कि इसका जीवन से कहीं से कहीं तक संबंध नहीं है और प्रायः मैं पंडाल में औपचारिकता निभाने के ख़याल से ही बैठा रहता था, अन्यथा मन तो भविष्य के सपने सजाने में सोने की तैयारी में लगा रहता था।

किंतु पता नहीं इस भाषण में क्या आकर्षण था कि मंत्रमुग्ध-सा सुनता रहा। अब मैं धनुषाकार हो गया था। यदि वहाँ जगह होती तो साष्टांग करने की इच्छा पूरी कर लेता। इतने में ही किसी दूसरे विभाग के प्राध्यापक भी वहाँ आ गए थे। इसलिए यह अवसर मेरे हाथ से निकल गया। तभी मन ने कहा-‘अच्छा ही हुआ। पहली भेंट में इतना ही काफ़ी है।’

वे दोनों काफ़ी देर तक विद्यालय का भूगोल डिस्कस करते रहे। समाजशास्त्र में चलती हुई गाड़ी राजनीति के स्टेशन पर आकर सीटी देने लगी। अभी तक मैं निस्पृह भाव से आगे की सोच रहा था, किंतु अब मेरे कान भी खड़े हो गए। मैंने पहली बार समझा कि भूगोल और समाज से बचकर निकला जा सकता है, किंतु राजनीति के दरवाजे ऑटोमेटिक हैं और इनमें भारी पावर का चुंबक भी लगा है। ये हमारे तन-मन को अपनी ओर खींचकर एकदम बंद हो जाते हैं। बचो बच्चू! कैसे बचोगे?

मुझे एहसास हुआ कि नुक्कड़वाले की चाय की दुकान से लेकर कालेज की कैंटीन तक सभी राजनीतिज्ञ हैं। जो इससे अलग है, वह संसार का सबसे व्यर्थ व्यक्ति है। अपने अस्तित्व के लिए किसी के साथ जुड़ना और किसी से कटना जरूरी है। बीच में नहीं रह सकते। होता होगा मध्यम मार्ग। चलते होंगे साधक उन पर भी, किंतु अब तो राजनीति की मोटर आपको घायल करती हुई निकल जाएगी। फिर तो पोस्टमार्टम के लिए भी पुलिस ही उठाएगी। भीड़ तो अपने रास्ते निकल जाती है।

मन में कैसी-कैसी कड़वाहट भर गई। मैं बड़ी घुटन-सी महसूस कर रहा था। पंखे की खर्र-खर्र में भी मेरी साँस मुझे साफ़ सुनाई दे रही थी। मुझसे वहाँ न रुका गया। मैं वहाँ से उठ आया।

एक सप्ताह बीत गया। एक कहावत है-नया मुल्ला अल्ला-अल्ला पुकारता है। मैं छात्रों पर अपना प्रथम प्रभाव डालने में व्यस्त था। पता नहीं छात्रों को एक ही बार पंडित बनाने का भूत क्यों सवार हुआ?(अब तो मैं स्वयं भूत बन चुका हूँ) मुझे इस बात का भी ध्यान न रहा कि विद्यालय में प्राचार्य नाम का भी जीव रहता है और कभी-कभी उसके दर्शन करने अनिवार्य हैं। भगवान की एक क्वालिटी के विषय में मैं सदैव से आश्वस्त रहा हूँ कि तुम उसे भले ही याद न करो, वह तुम्हें अवश्य याद कर लेता है।

लायब्रेरी के एक कोने में कुर्सी पर आसीन मुझको किसी की आवाज ने चौंका दिया। गर्दन उठाई तो मेरे सामने चपरासी रूपी देवदूत (यमदूत भी कह सकते हैं।) एक कागज लिए हुए खड़ा था। अबू बेन ऐदम के समान मैं उससे उस लिस्ट के विषय में पूछने ही वाला था कि ‘हे देवदूत, इस पर किनके नाम लिखे हैं? क्या तुम भी अच्छे आदमियों के नाम नोट कर रहे हो?’ पर कुछ सोचकर रुक गया।

उसने अपनी स्वाभाविक वक्रता के साथ पूछा,‘आप ही अग्रवाल साब हैं?’ कहना तो चाहता था कि मिस्टर, तुम्हें बंदर या लंगूर दिखाई दे रहा हूँ? किंतु अपने चेहरे का ख़याल करके चुप रह गया। फिर इस चपरासी नामक जाति का बहुत नहीं तो थोड़ा-बहुत अनुभव अवश्य है, यह विशिष्ट प्राणी अपने को सबका बॉस समझता है।

एक बार की बात है। मैं इंटर में पढ़ता था। जाड़ों के दिन थे। प्रधानाचार्य महोदय धूप में बैठे चारों ओर का निरीक्षण कर रहे थे। वे अपने पास दूसरी कुर्सी रखना अपना अपमान समझते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति उनके पास आकर खड़े-खड़े बात करे। चांस की बात, उनका साला विद्यालय में ही चला आया। उन्होंने चपरासी को कुर्सी लाने के लिए आवाज लगाई। मंगू ने खचेडू को खचेडू ने कूड़ेसिंह और कूड़ेसिंह ने कल्लू को कुर्सी लाने का आदेश दिया और शांति के साथ अपने-अपने स्थान पर खड़े रहे। चारों ओर ‘कुर्सी-कुर्सी’ का शोर मच गया,किंतु कुर्सी न आई।

ऐसा सोचकर मैंने कहा,‘कहिए, क्या काम है?’

‘आपको प्रिंसिपल साब ने याद किया है।’ वह गंभीरता के साथ बोला।

‘कोई विशेष बात है?’ मैंने सवाल किया।

‘उनसे ही पूछिए।’ मानो वह प्रिंसिपल नहीं तो उन जैसा ही कुछ हो।

मुझे याद आया। मैंने अभी तक उनके आफ़िस के द्वार पर सिजदा नहीं किया है। एक फुरहरी-सी मेरे शरीर में दौड़ गई। जैसे किसी ने बर्फ़ का एक टुकड़ा मेरे कॉलर में डाल दिया हो।

प्राचार्य के आफ़िस में पूछकर जाने का रिवाज था। हड़बड़ी में मैं इस रिवाज का ध्यान न रख पाया। छात्रें को इस सांस्कृतिक कार्यक्रम से छूट मिली हुई थी। प्रिंसिपल साहब ने बिना मुँह उठाए पूछा, ‘कहो-कहो, क्या काम है? एप्लीकेशन लाए होगे। लाओ-लाओ।’ मैं मन-ही-मन ख़ुश हुआ कि हमारा प्राचार्य बड़ा दयालु और मिष्टभाषी है।

मैंने कहा,‘सर, मैं कोई एप्लीकेशन नहीं लाया। आपने---।’

नीचे कागज पर दृष्टि गड़ाए हुए ही उन्होंने कहा,‘क्या, क्या कहा, मैंने क्या?’

‘सर, आपने मुझे बुलाया था। मेरा नाम अग्रवाल। हिंदी विभाग में।’

प्राचार्य की मुखमुद्रा बदली होगी, उस पर सिलवटें भी पड़ी होंगी, मुँह पर कसैलापन भी उभरा होगा, दृष्टि भी वक्र हुई होगी, मुझे नहीं पता। मेरी दृष्टि तो नीचे की ओर थी। मैंने तो केवल इतना ही सुना, ‘ठीक है, ठीक है। किंतु आपको पता है, मैं एक जरूरी काम कर रहा हूँ। आपको प्राचार्य के पास आने के मैनर्स भी पता नहीं? महोदय, आगे से ध्यान रखिएगा। आप जा सकते हैं।’

मैं सर पर पैर रखकर भागा। मुझे फिर अहसास हुआ कि टुकड़ा डालने वाला रोब दिखाता ही है। चाहे छात्र हो अथवा प्राचार्य। यह अपनी-अपनी शक्ति पर निर्भर है कि हाथ से छीन भी लो और गुर्राओं भी अथवा पूँछ हिलाते हुए तलुवे चाटा करो।

मेरा मुँह एक बार फिर कड़वा हो गया।

पंद्रह दिन बीत गए। कोई हलचल नहीं हुई।

सारा कार्यक्रम बख़ैरियत चलता रहा। कभी-कभी अपने सीनियर मित्र से सलाह-मशवरा लेना अपना धर्म समझता था। उनकी वरीयता इस बात की डिमांड भी करती थी कि मैं बार-बार अपने जूनियर होने का भरोसा दिलाता रहूँ। मन को यह कहकर दिलासा दिलाता-‘फिक्र न करो, तुम्हारा क्या जाता है। चुप रहो, बोलना और मुँह खोलना अपने पाँव में ख़ुद कुल्हाड़ी मारना है।’ दिल ही तो था, कोई छात्र तो नहीं, इस नाजायज दबाव को मान लेता।


क्लासरूम में घुसा और हाजिरी रजिस्टर की पूँछ काटनी शुरू की। कितना उबाऊ काम है हाजिरी लेना। पचास सिंह और पच्चीस पुरुषवाचक रानियों की सूची का हनुमान चालीसा रोज पढ़ना पड़ता है। इस छात्र-स्वतंत्रता के युग में जेलर की हाजिरी परेड का औचित्य ही क्या है?‘न आने वालों’ को कौन बुला सकता है और जानेवालों को कौन रोक सकता है? है किसी में हिम्मत उनको परीक्षा में बैठने से रोक सके। इतना सोचते-सोचते रजिस्टर बंद कर दिया। आखि़री नाम जो आ गया था।

व्याकरण भी क्या बला है? छात्रों के सिर पर तलवार-सी लटकती रहती है। दुर्भाग्य से मैं इसकी राह का राहगीर बना दिया गया हूँ। मेरा वश चलता तो अपनी टाँग तोड़े पड़ा रहता। वह तो भविष्य का ख़्याल करके चुप रह जाता हूँ।

मेरे खड़े होते ही एक छात्र ने सवाल किया,‘सर आपने कहा था ‘निर’ उपसर्ग जिस शब्द में लग जाता है, उसका अर्थ निषेधात्मक हो जाता है जैसे निर्दोष, जिसमें दोष न हो, निर्बल जिसमें बल न हो, निरंकुश जिस पर अंकुश न हो।’

बात ठीक थी माननी पड़ी।

फिर सर,‘निर्माता’ का अर्थ क्या हुआ?

मेरे बोलने से पहले ही एक दूसरा छात्र बोल पड़ा,‘जिसके माता न हो, सर।’

क्लासरूम में हँसी का बम बिस्फोट हो चुका था और मैं घुग्घू की भाँति सबको टाप रहा था। सारी व्याकरण धरी रह गई। लगा सैकड़ों गधे एक साथ मेरे कानों पर रेंक रहे हों।

विषय से हटकर मैं समाज की चर्चा करने लगा। मुझे सबके भविष्य की चिता एक साथ सताने लगी। देर तक उनकी सफलता के गुर बताता रहा। परीक्षा से फैलती-फैलती दीक्षा-गाथा जीवन और जगत् तक पहुँच गई।

मुझे एक अहसास हुआ कि असफलता व्यक्ति को दार्शनिक बना देती है और मैं दुनिया-भर के दार्शनिकों की जीवन-कथाओं को दोहराने लगा था। 

✍️ डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल 

ए 402, पार्क व्यू सिटी 2

सोहना रोड, गुरुग्राम 

78380 90732


बुधवार, 17 जुलाई 2024

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी.....“निर्वासन”


  उद्विग्नता दीक्षा के मनोमस्तिष्क के साथ-साथ देह के अंग-अंग पर भी प्रभावी हो गई थी।रह-रहकर भाभी के विषाक्त तीक्ष्ण शर जैसे शब्द कानों में पिघले सीसे की तरह घुस सनसनी मचाने लगते–’जीजी! इस घर पर तुम्हारा क्या अधिकार है? क्यों अकारण हर वक्त अपना बड़प्पन प्रदर्शित कर हमारी सुखशांति भंग करती रहती हो? क्या हमारी खुशी तुम्हें पसंद नहीं?’

     यहां तक भी कुछ सह्य था। किंतु भैया के आचरण ने तो मर्म ही बेध डाला था।भाभी का कटाक्ष सुन दीक्षा ने मिट्टी के माधो बने खड़े भैया को पुकारा था –’सुन रहा है छोटे! जरा इसे बता तो सही कि इस घर पर मेरा क्या अधिकार है?’

     वह पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदता हुआ निगाह झुकाए बोला था –’याची ठीक कह रही है जीजी! तुम बेवजह छोटी-छोटी बातों पर हमें डांट-फटकारकर अपमानित करती रहती हो, जैसे हम कोई कूड़े-कचरे के ढेर पर से उठाकर लाए गए अनाथ बालक हों। इस हर समय की चिक-चिक से हम तंग आ चुके हैं। बस अब बहुत हो चुका, और नहीं सहा जा सकता। जीजी! अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर यहां से कहीं और चली जाओ!’

     ‘छोट्टे!’ दीक्षा आवेश में थरथराने लगी थी –’यह तू कह रहा है तू? जिसकी खुशी के लिए मैंने अपने जीवन का सर्वाधिक संवेदनशील यौवन तक न्यौछावर कर दिया। तू आज मुझे बोरिया-बिस्तर समेटने को कह रहा है? कुछ लाज-शरम आंखों में बची है कि नहीं?’

     ‘चिल्लाओ मत जीजी!’ छोटे ने प्रतिवाद किया था –’तुमने विवाह नहीं किया तो किसी पर कोई अहसान नहीं कर दिया। दूसरी बहन की तरह तुम भी कहीं अपना घर-बार बसा लेतीं तो आज पापा की इतनी कीमती दुकान पर किसी नागिन की भांति कुंडली मारे तो न बैठी होतीं। और न हमें इस तरह घुट-घुटकर जीने को बाध्य होना पड़ता कि हम स्वच्छंदता की दो सांसें लेने को भी छटपटाकर रह जाते हैं।’

     सन्न रह गई थी दीक्षा…तन-मन में समाहित आवेश पिघलकर नीर के रूप में आंखों की राह प्रवाहित हो चला था।तब से अब तक वह निरंतर रोती रही थी…बस रोती रही थी…

     जीवन में शायद दूसरी बार वह इतना रोयी थी…

     पहली बार तब… जब कैंसरग्रस्त मम्मी को अकाल मृत्यु के दानव ने अपने पाशविक पंजों में दबोच लिया था। पूरे घर में कोहराम मच गया था। मां की याद आते ही बीस वर्षों पूर्व का अतीत उसकी मोटे-मोटे आंसुओं से डबडबाई आंखों में किसी चलचित्र की तरह झिलमिलाने लगा……… 

      मां की जब मृत्यु हुई तब कला में एम.ए. कर रही थी वह। दोनों बड़ी बहनों का विवाह हो चुका था। मां उसका विवाह भी अपनी आंखों के सामने कर देना चाहती थी किंतु स्वयं उसी ने स्पष्ट इन्कार कर दिया था–’मम्मी! जब तक मैं स्वयं अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती तब तक विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। मुझे अपने जीवन में केवल स्वावलंबन पसंद है परनिर्भरता नहीं।’

      भैया तीनों बहनों के बाद ही इस घर में आया था इसलिए घरभर का लाड़ला था। मां के तो प्राण बसते थे उसमें। मृत्यु का पूर्वाभास होते ही मां बहुत चिंतित हो उठी थी। दीक्षा का हाथ अपने पीताभ व कमजोर हाथों में लेकर लरजते स्वर में बोली थी–’बेटी! चिंता मुझे मौत की नहीं है क्योंकि कैंसर तो नाम ही काल का है। चिंता मुझे छोटे की है। उसकी परवरिश कौन करेगा? वह अभागा तो मेरे बिना ढंग से पेट भी नहीं भर सकता। भूखा मर जाएगा बेचारा। मेरे बाद कैसे जी पाएगा वह?’

     किंतु दीक्षा के सुदृढ़ आश्वासन ने मां की पीड़ा को बहुत कम कर दिया था–’मम्मी! आप छोटे की चिंता तो दिल से निकाल दो! जब तक यह दीक्षा इस धरती पर है तब तक छोटे को आंच भी नहीं आ सकती। उसकी परवरिश मैं करूंगी… मैं स्वयं…मैं खुद उसकी मां बन जाऊंगी।’

     मां की असमय मौत ने घरभर को हिलाकर रख दिया था। निश्चेतन शरीर से लिपटकर दीक्षा इतना रोई, इतना रोई कि दीवारें तक दहल गईं और पापा पर तो ऐसा वज्रपात हुआ था कि सारे संसार से ही मोह टूट गया था। न किसी को सांत्वना देते, न धैर्य बंधाते,न किसी से अपने हृदय की पीड़ा कहते, न कहीं आते-जाते, न दुकान पर बैठते, न कुछ खाते-पीते। बस अपने बिस्तर पर चुपचाप लेटे सूनी छत को निहारते रहते।रीती दीवारों को तकते रहते जैसे उन दीवारों और सूनी छत पर सहचरी का प्रतिबिंब उभर रहा हो और वह उनसे मन ही मन वार्त्तालाप कर रही हो। दीक्षा उन्हें बहुत कुरेदती, बहुत प्रकार से धैर्य बंधाती, गुदगुदाने का प्रयास करती। पर उस पाषाणी चेहरे पर कोई भी तो प्रतिक्रिया नहीं होती, न ही कोई भाव आता जाता। जैसे अनुभूतियों के विहंगम कहीं दूर उड़ गए हों।

      शनै:-शनै: टूटन की स्थिति में पहुंचते गए थे पापा। एक ऐसी शुष्क शाख में परिणत हो गए थे वे जो किसी भी पल वृक्ष से अलग हो सकती थी। उसे यही भय खोखला किए दे रहा था कि पापा के बाद इस घर का क्या होगा? उसके नन्हें कमजोर कंधे कैसे इस विशाल गृह का संरक्षण कर सकेंगे? वह कैसे मां को दिया वचन निभा सकेगी? कैसे एकाकी छोटे की परवरिश कर सकेगी? समाज के भूखे भेड़िए उसे जिंदा कैसे रहने देंगे? अवसर मिलते ही नोच-नोचकर खा जाएंगे। 

     महीना भर भी नहीं लगा था पापा को सारी चिंताओं से मुक्त होने में। एक सुबह को वह जब उन्हें जगाने गई तो तब भी उनकी आंखें अपलक सूनी छत को निहार रही थीं।उसने उन्हें पूरी शक्ति से झिंझोड़ दिया। लेकिन, नि:स्पंद देह में स्फुरण तो तब होता जब उसमें चेतन तत्व होता। चेतन तत्व तो पता नहीं कब पिंजरा खाली कर नीलांबर कि उन्मुक्त उड़ान के लिए निकल पड़ा था।भैया पापा की नश्वर देह से लिपटकर बिलख-बिलखकर रो पड़ा था। ससुराल से अपने पतियों के साथ दौड़ी-भागी आईं बहनें भी छाती पीट-पीटकर ऐसे रोईं जैसे सर्वाधिक दुःख उन्हें ही हो। किंतु दीक्षा की आंखों से एक भी अश्रु नहीं टपका। पता नहीं अश्रुओं के समुद्र को उसने कहां सोख लिया था? अद्भुत धैर्य उपजा लिया था उसने। छोटे को भी अपने कलेजे से चिपटाकर हर प्रकार से आश्वस्त किया था उसने –’पगले तू क्यों चिंता करता है? मैं हूं ना तेरी मां भी और बाप भी। मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े किंतु तुझे कभी मम्मी-पापा का अभाव नहीं सहने दूंगी। मैं स्वयं भूखी रह जाऊंगी लेकिन तुझे कभी भूखे पेट नहीं सोने दूंगी। मैं अपनी पढ़ाई छोड़ दूंगी लेकिन कभी तेरी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आने दूंगी। मैं स्वयं फटे चीथड़ों से अपनी आबरू ढक लूंगी लेकिन तेरे कपड़ों को नहीं फटने दूंगी।’ 

     अरिष्टि तक दोनों बहनें पतियों सहित घर पर ऐसे आधिपत्य जमाए रहीं जैसे इस घर के संरक्षण की सर्वाधिक परवाह उन्हें ही हो।और अरिष्टि निपटते ही दोनों अपने वास्तविक प्रयोजन पर आ गईं।दीक्षा को समझाने का अभिनय करते हुए बोलीं –’बहन देख! सिर पर अब मां-बाप का साया तो रहा नहीं जो हमारा अच्छा बुरा सोच सकते।अब तो तेरा भी जो कुछ करना है हमें ही करना है। तेरा भी कहीं घरबार बस जाता तो अच्छा रहता।तब निपटारा भी अच्छी तरह करने में सुविधा रहती।’

     ‘कैसा निपटारा?’ दीक्षा चौंक पड़ी थी।

     ‘तू तो ऐसे बन रही है जैसे दूध पीती बच्ची हो।’ बड़ी बहन ने कटाक्ष किया था–’मम्मी के ढेर सारे गहनों, महंगी  साड़ियों व पापा की धन दौलत पर स्वयं ही कुंडली मारे बैठी रहेगी या कुछ हिस्सा हमें भी मिलेगा? आखिर हमारा भी तो कुछ न कुछ अधिकार होगा ही इस सब पर?’

      बड़ी की बात पूर्ण होने से पूर्व ही मझली बोल पड़ी थी–’इसीलिए तो मैं तुझे समझा रही थी कि मेरे देवर के साथ तेरी जोड़ी खूब फबेगी। वह पापा की दुकान भी अच्छी तरह संभाल लेगा। और निपट भी सस्ते में ही जाएगा। ऐसे कीमती लड़के आजकल लाखों खर्च करने पर भी नहीं मिलते। पर मैं उसे किसी न किसी तरह मना ही लूंगी। फिर सब कुछ हम तीनों आपस में बांट लेंगे।’

     ‘और भैया? वह कहां जाएगा?’ दीक्षा आवेश में आ गई थी।

     ‘भैया को हम हॉस्टल में रख देंगे। और खर्चा तीनों आपस में बांट लेंगे।’ दोनों जैसे सोची समझी रणनीति के अंतर्गत किसी योजना पर कार्य कर रही थीं। उन्होंने भैया का भी समाधान प्रस्तुत कर दिया था।

      दीक्षा बिफर पड़ी थी–’नहीं! यह नहीं हो सकता। मैं भैया को अनाथों की तरह कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाने दूंगी। वह जैसे पढ़ रहा है वैसे ही पढ़ता रहेगा। मैं उसपर लेशमात्र भी आंच नहीं आने दूंगी। उसके मां-बाप मर गए तो क्या हुआ? मैं तो हूं उसकी मां भी और बाप भी। रही  मेरे घर बसाने की बात तो उस बारे में तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। अपना अच्छा बुरा सोचने में मैं स्वयं सक्षम हूं।’

    ‘इसका मतलब सीधी तरह तू हमें कुछ भी नहीं देगी?’ जीजा भी आक्रामक मुद्रा में आ गए थे –’या तो पंचायत जोड़नी पड़ेगी या फिर कोर्ट कचहरी में मामला ले जाना पड़ेगा।पर तुझे यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अपना अधिकार हम तरह से लेकर रहेंगे, छोड़ेंगे नहीं।’ 

     ‘नहीं!’ दीक्षा सिंहनी की तरह गरज पड़ी थी–’इस घर की मान-मर्यादा को मैं कोर्ट कचहरी अथवा पंचायत की आश्रिता कभी नहीं बनने दूंगी। लोग हम पर कितना थूकेंगे कि लाला लक्ष्मीनारायण की बेटियां कितनी निकृष्ट निकलीं, बाप के प्राण निकलते देर नहीं हुई की लगीं आपस में लड़ने-झगड़ने,जैसे कुत्ते बिल्लियां हों।इस घर में से तुम्हें जो कुछ भी चाहिए ले जाओ किंतु घर की कलह सड़कों पर नहीं आनी चाहिए। लाला लक्ष्मी नारायण के नाम पर लांछन नहीं लगना चाहिए।’

      ‘और यह लाखों रुपए की मकान दुकान?… इन पर क्या स्वयं ही कब्जा जमाए रहेगी? ना बहन ना इतनी आसानी से हम अपना हिस्सा नहीं छोड़ने वालीं।’ बड़ी और मंझली दोनों सामूहिक स्वर में बोली थीं।

     ‘मकान की एक-एक ईंट तुम दोनों ले जाओ! लेकिन दुकान की ओर आंख उठाकर देखा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। उस पर भैया का अधिकार है। मैं अपना अधिकार तो छोड़ सकती हूं किंतु भैया का अधिकार नहीं। जब तक वह दुकान संभालने लायक नहीं हो जाता तब तक मैं उसे संभालूंगी।’ वसुधा ने अपना वज्र निर्णय सुनाकर दोनों बहनों के मुंह पर ढक्कन लगा दिया था।

      उसी समय उसने अपना और भैया का सामान अटैचियों व दो बड़े बैगों में समेटा और भैया की उंगली थाम दुकान पर पहुंच गई। दुकान के पिछले हिस्से को जहां पापा खाली समय में विश्राम कर लेते थे सुव्यवस्थित कर दोनों के रहने योग्य स्थान बना सामान रख दिया। और भविष्य की योजनाओं का ताना-बाना बुनने में जुट गई कि परिस्थितियों का सामना करते हुए कैसे जीवन चक्र को आगे बढ़ाना है?

      उसने दुकान में विद्यमान वस्तुओं और लेखाबहियों का अवलोकन किया तो भोंचक रह गई। दुकान में व्यापार करने योग्य पर्याप्त सामग्री भी नहीं थी और व्यापारियों का ऋण भी बहुत था। शायद मम्मी के कैंसर ने ही पापा और दुकान दोनों को टूटन की स्थिति में पहुंचा दिया था। किंकर्तव्यविमूढ़ सी, नन्हें-नन्हें कंधों वाली दीक्षा समझ नहीं पा रही थी कि कैसे अपने अस्तित्व की रक्षा करे? कैसे भैया के भविष्य को संवारे? भैया का भविष्य नहीं बन पाया तो वह स्वर्गासीन मां को क्या उत्तर देगी? जटिल दुविधा नागिन सा फन फैलाए सामने आ खड़ी हुई थी। 

     कई दिन बड़ी अन्यमनस्कता में गुजरे। दुकान पर बैठी-बैठी वह खाली कनस्तरों व खाली अलमारियों को घूरती रहती। दुकान पर सामान नहीं तो ग्राहक कैसे आते? जो छुटपुट ग्राहक आते भी वे सामग्री को पुरानी व गंदी बताकर वापस कर जाते अथवा लड़ने पर उतारू हो जाते। कई बार मन होता कि जीवन से ही मुक्ति पा ले। किंतु भैया का ध्यान आते ही वह आत्मघाती कदम आगे बढ़ने से पूर्व ही पीछे हट जाता।

      कोई उपाय समझ में नहीं आया तो उसने पुराने अखबारों की विभिन्न आकारों वाली थैलियां बनाकर दुकानों- दुकानों पर बेचनी प्रारंभ कर दीं। लोग कटाक्ष करने से नहीं चूकते –’लाला लक्ष्मी नारायण की बेटी को इस तरह दुकानों-दुकानों घूमते लाज नहीं आती क्या?या बाप के साथ सारी शरम हया भी चली गई?’

     ‘काम ही तो कर रही हूं किसी से भीख तो नहीं मांग रही।’ आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूर वह आगे बढ़ जाती।

      किंतु थैलियों के इस कार्य में दो वक्त की रोटी तो जुटाई जा सकती थी भैया के स्कूल की महंगी फीस नहीं भरी जा सकती थी। उसके खर्च पूर्ण नहीं किए जा सकते थे। समस्याएं किसी भयावह अजगर की भांति मुंह फैलाए उसे समूचा निगल जाने को उतावली थीं।ऐसे निराशाजनक और अंधकारपूर्ण क्षणों में यकायक ही उसे प्रकाश की एक नन्ही सी किरण दिखाई दे गई… क्यों न पापा के व्यवसाय का मोह त्यागकर अपनी प्रतिभा का उपयोग किया जाए। बस यही युक्ति उसकी जटिल राह को आसान बना गई।

      पिछले जन्म दिवस पर पापा द्वारा उपहार स्वरूप पहनाई गई स्वर्णमाला को किसी अपरिचित सर्राफ को बेचकर वह कैनवास, पेंसिल, रबर, ब्रुश, रंग आदि पेंटिंग का सामान व फ्रेमिंग की सामग्री खरीद लाई और दुकान में ही बैठ विभिन्न प्रकार की कलाकृतियां तैयार करने लगी।

     लोग किराने की दुकान में किसी लड़की को कलाकृतियां तैयार कर सजाते देखते तो उपहास उड़ाए बिना नहीं रह पाते–’भाई वाह क्या जमाना आ गया, अब दाल आटे की दुकानों पर तस्वीरें भी मिला करेंगी। पांच किलो दाल पर एक तस्वीर फ्री, दस पर दो…’

     किंतु वह सब कुछ सुनकर भी चुपचाप अपने कार्य में बड़ी तन्मयता से जुटी रहती। उसी में से समय निकालकर वह भैया के कार्य भी निपटाती। तैयार करके उसे स्कूल भेजती। उसे उसकी पसंद का खाना खिलाती चाहे स्वयं भूखी रह जातीऔर उसके स्कूल का कार्य भी करती करवाती।

     कला रसिक उसकी उंगलियों में रंगों के तालमेल से सृजित कलाकृतियों को बड़ी तन्मयता से निहारते परंतु खरीदने का साहस नहीं कर पाते। विभिन्न प्रकार की विभिन्न आकारों वाली कलाकृतियों का ढेर लगता जा रहा था जबकि खरीदार कहीं दिखाई नहीं पड़ते थे। एक बार पुनः हताशा के भंवर में डूबने उतराने लगी वह। सारा प्रयत्न निष्प्रयोज्य प्रतीत होने लगा था। पास भी कुछ नहीं बचा था जो आगे का कार्य चल पाता।

      संयोग ही था कि सफेद कैनवास पर मात्र गहरी काली पेंसिल से उकेरे गए जीवंत से प्रतीत होने वाले राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों के स्मृतिचित्रों पर नगर भ्रमण पर निकले प्रादेशिक  कला एवं सांस्कृतिक मंत्री की पारखी निगाह पड़ गई। अपने ऐश्वर्यमयी भवन के विशाल सभागार की शोभावर्धन हेतु उन्होंने वीर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, वल्लभभाई पटेल, रामप्रसाद बिस्मिल आदि अनेकों चित्रों को खरीद लिया। उनके साथ चल रहे पत्रकारों ने अपने-अपने समाचार पत्रों में इस समाचार का खूब महिमामंडन किया। फिर क्या था फिर तो लोगों का उसके चित्रों के प्रति प्रषुप्त कौतुक जाग पड़ा। और उसके चित्रों की महत्ता तत्काल बढ़ गई। उसके बनाए चित्रों को खरीदने की लोगों में होड़ सी मच गई। हर कला रसिक के अतिथि कक्ष में उसकी कलाकृतियां सजने लगीं। कला के क्षेत्र में उसका नाम नगर की सीमाओं को पार कर दूर तक छा गया। 

     चित्रों की प्रसिद्धि हुई तो कला प्रेमी शिक्षार्थियों की भी उसके पास भीड़ जुट गई। अनेक विद्यार्थी अलग-अलग समूहों में उससे कला का ज्ञान प्राप्त करने लगे। दुकान का सीमित स्थान अपर्याप्त लगा तो समीपस्थ  एक पूरा भवन ही उसने अपने कला केंद्र के लिए किराए पर ले लिया।

     जीवन में खुशियों का मलय पवन एक बार पुनः मधुर सुगंध के साथ प्रवाहित हो उठा। कलाकृतियों के निर्माण तथा शिक्षार्थियों के शिक्षार्जन में वह इतनी व्यस्त रहने लगी कि अपने लिए लेशमात्र भी समय नहीं निकाल पाती। किंतु भैया के प्रति वह पूर्ण सजग थी। उसके भविष्य निर्माण में कोई कमी न रह जाए इसका हर पल ध्यान रखती। उस पर ममत्व उड़ेलती।हर कदम पर उसका ऐसे मार्गदर्शन करती जैसे कोई मां हो, उसे आकाश की ऊंचाइयों के स्पर्शन के लिए ऐसे उत्प्रेरित करती जैसे कोई पिता हो। उसे शैक्षिक क्षेत्र के अस्पर्श्य, अदृश पहलुओं का ऐसे ज्ञान कराती जैसे कोई गुरु हो।

     जिंदगी में सर्वाधिक खुश,सर्वाधिक उत्साहित, सर्वाधिक रोमांचित वह उस दिन हुई थी जब भैया ने अपनी डी. लिट की उपाधि उसके हाथों में थमा चरणों में शीश झुकाया था और साथ ही डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति पा लेने का समाचार भी सुनाया था। हर्षाश्रु उमड़ पड़े थे उसके बंद नेत्रों से। मम्मी-पापा के तैलीय चित्र के सामने पता नहीं कितनी देर तक सुबकती रही थी वह। उस सुबकने में आत्मिक संतोष की अनुभूति थी, तपस्या सार्थक हो जाने का हर्ष था, लक्ष्य पा लेने की भावुकता थी और सपना पूरा हो जाने की खुशी थी।

      किसी अपनी पसंद की लड़की से भैया का विवाह करने को अधीर हो उठी थी वह। उमंगों को पंख लग गए थे। कभी भी वह कल्पनाओं के आकाश में उड़ने लगती… उड़ते-उड़ते घोड़ी पर दूल्हा बने बैठे भैया के सामने झूम- झूमकर नाचने लगती, इठलाने लगती, गाने लगती, नवागत भाभी पर किसी सास की तरह अधिकार जताने लगती।  परिश्रम, त्याग और अभावों के पाषाणी मार्ग पर चलते-चलते कर्कश और रुक्ष हुए अपने पैरों को भाभी के कोमल  हाथों से दबाए जाने का सुख अनुभूत करने लगती। 

     किंतु कल्पनाओं के आकाश से जब यकायक ही वह यथार्थ के कठोर अकल्पित धरातल पर गिर पड़ी तो उसका समूचा अस्तित्व ही बिखरकर रह गया। लगा… उसका अस्तित्व तो कुछ भी नहीं है,जो कुछ था भी वह शून्य में विलीन हो चुका है… किरचा-किरचा होकर बिखर चुका है।

     भैया लाल जोड़े में लिपटी, छुईमुई सी, लाज से सकुचाई हुई नववधू के साथ उसके सामने दृष्टि नत किए दबे स्वर में आशीर्वाद मांग रहा था–’जीजी हमें आशीर्वाद दीजिए! हमने सप्ताह भर पूर्व आर्य समाज मंदिर में शादी कर ली है। कुल्लू मनाली की यात्रा से हम अभी अभी ही लौटे हैं। और सबसे पहले आपका ही आशीर्वाद मांगने आए हैं।’

      स्तब्ध रह गई थी दीक्षा और केवल स्तब्ध ही नहीं हुई थी अपितु ऐसे पथरा गई थी जैसे विचारों अथवा संवेदनाओं के विहंगम कहीं दूर नीलगगन में उड़ गए हों। बड़ी मुश्किल से अथरोष्ठ खुल सके थे उसके और उनसे लरजते-कंपकंपाते मात्र कुछ शब्द निकल सके थे–’हमेशा खुश रहो!’

     उसी दिन से उसके होठों पर पाषाणी जड़ता चिपक गई थी। दिल में चाहे कितना ही भयंकर झंझावात उमड़ा, किंतु अधरों की सीमा लांघकर कोई भी शब्द ऐसा बाहर नहीं आ पाया जिससे भैया की सुखशांति में व्यवधान पड़ पाता।पर भाभी का उन्मुक्त, अशिष्ट, निर्लज्ज आचरण उसके धैर्य को चुनौती दे गया। उसने भाभी से दबे स्वर में मात्र इतना भर कहा था–’बहू! घर की मान-मर्यादा का कुछ तो ध्यान रखा करो! इस तरह आधे अधूरे से वस्त्रों में तुम वक्त बेवक्त कभी भी बाहर निकल पड़ती हो! भले घर की बहू-बेटियों को यह शोभा नहीं देता।’

     भाभी घायल नागिन की भांति फुफकार उठी थी जैसे न जाने कबसे अपनी आंखों की किरकिरी बनी दीक्षा पर प्रहार करने को छटपटा रही हो–’जीजी! आखिर इस घर पर क्या अधिकार है तुम्हारा?…’ 

     भाभी के विषबुझे शब्द कलेजे में तीर की तरह चुभे थे।और भाभी के शब्दों से ज्यादा पीड़ा तो भैया के आचरण ने पहुंचाई थी। 

      सोचते-सोचते उसके मुख से स्वत: ही एक चीख उस सघन तिमिराच्छादित रात्रि में निकलकर दम तोड़ गई–’नहीं! कोई अधिकार नहीं!…’

      चीख  के साथ ही सद्योदृष्ट अतीत रेत के खोखले भवन की भांति हवा के एक हल्के झोंके से ही कण-कण बिखर गया। वह चैतन्य हुई तो उसने महसूस किया कि उसका सर्वांग स्वेद बिंदुओं से लथपथ है और गला भी शुष्क है। उसने उठकर बाहर झांका। रात आधी से भी ज्यादा व्यतीत हो चुकी थी और उसकी आंखों में दूर-दूर तक भी नींद का नामोनिशान नहीं था।वातावरण में गहन सन्नाटा पसरा पड़ा था। सब निद्रा के आगोश में दुबके पड़े थे। बस आकाश में नन्हें-नन्हें दीप जैसे तारे टिमटिमा रहे थे। उसने एक घूंट जल कंठ में उतारा और सहज होकर मन ही मन एक वज्र निर्णय ले डाला… बिल्कुल वैसा ही वज्र निर्णय जैसा उसने पापा-मम्मी के असामयिक अवसान के बाद बड़ी बहनों के आचरण से क्षुब्ध होकर लिया था।

      उसने एक पेपर पर लिखा– ‘भैया! मैं तो अब तक जिंदा ही तेरी खुशी के लिए थी और तेरी एक नन्ही सी खुशी के लिए मैं एक नहीं अनेक जिंदगियां न्यौछावर कर सकती हूं। वरना मर तो मैं उसी दिन गई थी जब मेरी स्वयं की सहोदरा बहनों ने गृह निर्वासित करके मुझे दर-दर भटकने को मजबूर कर दिया था। किंतु अब जब जिंदगी की सारी खुशियां तेरे दामन में आ गिरी हैं और तुझे लग रहा है कि मैं तेरी खुशी में बाधक हूं, तो तेरा गृह निर्वासित कर मैं स्वयं ही जा रही हूं। मेरा क्या है कहीं भी किसी भी फुटपाथ पर बैठ दो चित्र बना दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर ही लूंगी। पर तू हमेशा खुश रहे यही मनोकामना है।

 — तेरी शुभाकांक्षी “जीजी”!

     ...... और एक अटैची में अपना घर संसार समेटकर भोर का उजाला धरती पर पसरने से पूर्व ही दीक्षा उस घर से निकल पड़ी… एक अनजान राह, अनजान आश्रय और अनजान भविष्य की ओर…

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़,बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

मो.9411012039

रविवार, 19 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... शिकस्त । हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी।

सेठ साटनवाला ने जब मुझे अपनी एकमात्र सन्तान रेखा को ट्यूशन पढ़ाने का निमंत्रण दिया तो सारे दफ्तर की आंखें करुणाद्र होकर मेरे ऊपर इस प्रकार जा टिकीं मानो मैं कोई मासूम कैदी हूँ जिसे बिना किसी अपराध के बलपूर्वक बलिवेदी की ओर ले जाया जा रहा है।

      छत्तीसगढ़ के छोटा नागपुर क्षेत्र की सुरम्य किन्तु सुनसान पहाड़ियों पर अभ्रक की खानों में सुपरवाइजर पद पर मेरी नई-नई नियुक्ति हुई थी। खानों के स्वामी सेठ साटनवाला से मेरे एक मित्र के व्यक्तिगत संबंध थे। उन्हीं के आधार पर अपने नगर से सैकड़ों मील दूर हजारीबाग जिले के डोमचांच नामक स्थान पर मुझे यह काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। सेठ साटनवला भले ही तीखे स्वभाव के व्यक्ति रहे हों लेकिन मेरे साथ उनकी आत्मीयता प्रारम्भ से ही बढ़ गई थी। कह नहीं सकता मेरे अच्छे कार्य और स्वभाव के कारण अथवा मेरी सिफारिश से प्रभावित होकर। एक दिन जैसे ही सेठ जी को यह पता चला कि विगत वर्षों में मैं एक अध्यापक का जीवन व्यतीत कर चुका हूँ, उन्होंने तुरंत अपनी इकलौती बेटी रेखा को घंटा भर के लिए घर पर पढ़ाने का प्रस्ताव मेरे सामने रख दिया। इस प्रस्ताव से मुझे प्रसन्नता ही हुई। एक तो शिक्षण कार्य मुझे स्वभाव से ही प्रिय है दूसरे इस निर्जन पहाड़ी प्रदेश में रहकर कुछ ही दिनों में मैं पारिवारिक स्नेह पाने के लिए छटपटा उठा था। छोटी उम्र के नेक और मिलनसार व्यक्ति को यह स्नेह भले घर का ट्यूशन करने पर प्रायः मिल ही जाता है।

     मैंने रेखा को पढ़ाने का समय निर्धारित कर लिया लेकिन मेरे इस निश्चय से दफ्तर के बाबू लोगों में एक विचित्र सी हलचल प्रारम्भ हो गई। उनका विचार था कि सेठ जी के प्रस्ताव को स्वीकार करके स्वयं को फंसाने के लिए मैंने एक जाल अपने आप ही तैयार कर लिया है जिसमें पड़कर सहज में ही मेरी भावी उन्नति के मार्ग अवरुद्ध हो जाने की प्रबल सम्भावना है। हो सकता है एक दिन मुझे अपनी नौकरी से ही हाथ धोना न पड़ जाये।

     सभी लोगों की आंखों में मुझे ईर्ष्या के स्थान पर भय का भाव ही दृष्टिगोचर हुआ इसलिए उनकी बातों में मुझे कोई न कोई तथ्य अवश्य प्रतिभासित होने लगा था। उस दिन बड़े ही असमंजस में पड़कर मैंने सेठ जी के बंगले में प्रवेश किया, उनको एकमात्र संतान रेखा को पढ़ाने के लिए। एक वर्ष में आठ अध्यापक आये और शिकस्त खाकर वापस चले गए। कोई भी उसे दो माह से अधिक नहीं पढ़ा सका लेकिन मुझे रेखा में कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी। मेरे पहुँचते ही दोनों हाथ जोड़कर उसने मुझे 'प्रणाम, सर!' कहा और मेरे बैठ जाने पर बड़ी शालीनता और तरीके के साथ उसने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। उत्सुकता मिटाने के लिए सर्वप्रथम मैंने उसे अपना परिचय देना प्रारम्भ कर दिया। मैं एक अच्छा कवि भी हूँ- यह बात जानकर वह चौकी। उसके चेहरे के भाव-परिवर्तन से मुझे बल मिला और मैंने अपनी कविताओं की दो-एक पंक्तियाँ उसे सुनानी प्रारम्भ कर दीं। सहसा उसको त्योरियों में बल पड़ गए। वह चिल्ला उठी 'बस करिये, मुझे कविता से सख्त नफरत है।"

'कविता? निष्क्रियता की निकम्मी संतान!'

'कवि? आलसी, निकम्मा और दरिद्र जीव!'

   मेरे सम्मान के लिये यह एक ठेस थी लेकिन उसकी बात में एक तथ्य था, एक स्वतंत्र धारणा जो कटु भले ही हो, लेकिन आंशिक सत्य भी थी। थोड़ी प्रशंसा के अतिरिक्त और कौन सा वैभव है एक कवि के पास? इसलिये रेखा की बात में मुझे कोई उदडण्ता दिखायी नहीं दी, कोई ऐसी शोखी जिसके कारण एक वर्ष में आठ अध्यापक आये और शिकस्त खाकर वापस चले गए। कोई भी उसे दो माह से अधिक नहीं पढ़ा सका।

    तीन-चार दिन बीत गए। मैंने पढ़ाया। उसने पढ़ा। पूर्ण व्यवस्था के साथ। पांचवें दिन बैठते ही मैंने उससे प्रश्न किया 'तुम्हारे कोई भाई नहीं है न?'

उसने उपेक्षा से सर हिला दिया नहीं।

बहिन?

नहीं।

दूर की या निकट की?

नहीं। यह भी नहीं उसके स्वर में गंभीरता थी।

मेरे मन में करुणा जागृत हुई। सहानुभूति के स्वर में उससे पूछा- 'कोई भी ऐसा प्राणी है

जिससे तुम्हें प्यार हो?'

'जी हां, मेरा कुत्ता' और वह खिलखिलाकर हँसने लगी।

एक सहृदय की सहानुभूति का यह उत्तर। मेरे सम्मान के लिये यह एक ठेस थी लेकिन उसकी

बात में एक तथ्य था, एक स्वतंत्र धारणा, जो कटु भले ही हो लेकिन सत्य अवश्य थी। एक पूंजीपति के लिये इंसान की कीमत ही क्या है? दस-बीस रुपए में खरीदा हुआ एक कमजोर जानवर, जो कुत्ते से भी अधिक पूंछ हिलाता है और फटकारे जाने पर भी भौंकता नहीं, खीसें निपोर देता है। एक दिन पहुंचते ही अपनी मेज को मैंने नाना प्रकार के फलों और पकवानों से भरा पाया।

श' आर्यावर्त' की एक प्रति हाथ में लिए हुए रेखा इठलाती हुई वहाँ आ पहुंची। प्रसन्नता के उन्माद में झूम उठी थी वह-'सर.... मेरे नाम से छपा यह गीत कॉलेज जीवन में मेरी सबसे बड़ी जीत है.....। सर, मैं आपकी बड़ी कृतज्ञ हूँ।'

मेरी श्वासों में कुछ-कुछ उष्णता का स्पन्दन होने लगा। रेखा बेहद प्रसन्न थी। आज पहली बार सारे कॉलेज में उसकी प्रतिभा की धाक जम गई। सुनीता, संध्या या कल्पना, परीक्षा में किसी से भी अधिक अंक वह आज तक नहीं पा सकी। उसके स्वभाव में खोटापन निकालकर लड़‌कियों ने उससे बोलना तक छोड़ दिया किंतु आज उन सभी के चेहरे फीके पड़ गए। 'आर्यावर्त' में छपे हुए कु. रेखा साटनवाला के मनोहर गीत ने क्या शिक्षक, क्या शिक्षिका; लड़के और लड़‌कियों सभी के मन को जीत लिया और आज सैकड़ों के मुँह से सुना-

'रेखा? एक छिपी हुई काव्य प्रतिभा।'

'रेखा? अपने कॉलेज की गौरव गरिमा।'

रेखा का रोम-रोम प्रसन्न था। वह चहक उठी 'सर आपने मुझे नई जिंदगी दी है। एक और ऐसी ही कविता छपवा दीजिये मेरे लिए, प्लीज... सर। मैं आपका अहसान नहीं भूलूंगी।'

कविता? निष्क्रियता की निकम्मी संतान।

मेरे ओंठों पर व्यंग्य मुस्करा रहा था।

कवि? आलसी, निकम्मा और दरिद्र जीव।

वेदना ने व्यंग्य को झकझोर डाला-

'नहीं-नहीं रेखा, यह ठीक नहीं है। यह तो मेरी भूल थी।

सहसा मुझे लगा कि पुष्प मुरझा गए। पक्षियों का कलरव शांत हो गया। पादपों पर कुहरा छाने

लगा। चारों ओर सन्नाटा पसर गया। फलों और पकवानों से भरी मेज, मामूली सा अध्यापक और सामने बैठी हुई मिस साटनवाला। मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखायी नहीं दी।


रेखा के चेहरे पर एक मासूमी सी व्याप रही थी। मकड़ियों का जाला। मुझे बाबुओं की बात

याद आ गई वह जाल, जो स्वयं को फंसाने के लिए मैंने अपने आप ही तैयार कर लिया था। सहसा मैं चौंक उठा। मेघ उमड़ने लगे। वर्षा प्रारंभ हो गई। मूसलाधार। मुझे कंपकंपी हो आई। रेखा के नेत्रों से अश्रुओं को अविरल धारा प्रवाहित हो चली थी।

    मेरा हृदय द्रवित हो उठा तो मैंने उसे धैर्य का बांध बंधाया मैं छपवाऊंगा, एक नहीं दो नहीं सैकड़ों गीत, तब तक जब तक कि रेखा अपने आप लिखकर स्वयं ही न छपवाने लगे।

     आसमान साफ हो गया। प्रभातकालीन समीरण के मस्त झोंके का मादक स्पर्श प्राप्त कर वृन्त झूम उठे। वातावरण नितांत शान्त, शीतल और स्निग्ध हो चला था। उल्लास की मिठास पकवानों के व्याज मेरे मुख में अनायास ही समाहित होने लगी।सहसा रेखा को स्मरण हो आया।

'सर, साथ में चाय लेंगे या शरबत?'

'चाय'- मैंने कहा। मैं अपने हृदय की समस्त कालिमा को जला डालना चाहता था।

रेखा ने खानसामा को बुलाया और तुरंत चाय बना लाने का आदेश दिया।

खानसामा सकपका गया। डरते-डरते बोला- 'दूध खत्म हो गया है मैडम। सिर्फ कुत्तों के लिए बचा रखा है थोड़ा सा।'

'नानसैन्स!'- रेखा चीख उठी 'तुम्हें चाय बनाकर लानी ही होगी। दूध बचाकर क्यों नहीं रखा गया? कुत्तों के लिए दूध और मास्टर जी के लिये नहीं। नालायक कहीं का। मैं कहती हूँ तुझे चाय बनाकर लानी होगी अभी, इसी वक्त।'

रेखा गुस्से से पागल हो उठी थी लेकिन मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी।

कुत्ता, कवि, अध्यापक और इन्सान।

मैं गंभीरतापूर्वक मनन करने लगा। किंतु दो क्षण में ही मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ गई- 'रेखा, तुम्हें सबसे अधिक कुत्तों से प्रेम है न?'

रेखा की आंखें झुक गई 'मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ सर!'

दूसरे ही क्षण रेखा फफक-फफक कर रो रही थी और अगले वर्ष भी रेखा को मैं ही पढ़ा रहा हूं।


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... आघात। हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।



राकेश से जब भी मेरी किसी विषय पर बातचीत हुई, उसने सदैव मुझे दकियानूसी बताया। इससे पहले वह मुझे चार वर्ष पूर्व मिला था। उस समय एक जगह से मेरे रिश्ते को बातचीत चल रही थी। राकेश मेरे घर आया। और मुझसे लड़की की पसंदगी के बारे में पूछने लगा।
    मैंने कहा, 'लड़की तो अच्छी बताते हैं लेकिन मेरे पिताजी को यह रिश्ता जंच नहीं रहा है।' 'देखो सुधीर’– राकेश यह सुनते ही उबल पड़ा,– मेरा और तुम्हारा दस वर्ष तक साथ रहा लेकिन तुमने मेरे विचारों को समझने की कभी कोशिश नहीं की। मैंने तुमसे कितनी बार कहा होगा कि विवाह शादी में लेन-देन का बंधन वैवाहिक संबंधों को सदा के लिये खोखला बना देता है। तुम्हारे पिताजी जरूर दहेज में मोटी रकम चाह रहे होंगे। नकद रुपया और माल न देने वाले किसी भी घर की लड़की उन्हें कभी पसंद आयेगी ही नहीं।
 मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि मेरे पिता जी के विचार इस प्रकार के कदापि नहीं हैं। संबंध चाहे लड़की का हो अथवा लड़कों का, वे धन को महत्व न देकर उसके शील, स्वभाव और उत्तम खानदान का ही ख्याल रखते हैं।
   राकेश की प्रगतिशील विचारधारा में विवाह संबंधों में यह बंधन भी ढकोसले थे। इसलिये उसने पुनः अपनी प्रगतिशीलता बखाननी शुरू कर दी, 'शादी विवाह व्यक्तिगत जीवन का प्रश्न है। यदि लड़की देखने-भालने में अच्छी हो और तुम्हारे विचार उसकी मान्यताओं से मेल खा रहे हों तो फिर तुम्हें उसको अपना लेने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। कीचड़ में पड़ा हुआ सोना किसी भी व्यक्ति के लिए त्याज्य नहीं होता फिर यदि खानदान दुष्ट भी है तो उसमें से एक निरपराध कन्या को उबार कर नया जीवन दे देना क्या हमारे समाज का कर्तव्य नहीं?'
    राकेश की तर्कशक्ति से मैं भलीभांति परिचित था इसलिये मैंने बात आगे बढ़ाना उचित न समझकर यह कहकर उससे पीछा छुड़ाया 'मैं इन सब बातों को भलीभांति समझता हूं राकेश, किंतु अपने माता-पिता के आदेश का उल्लंघन करने का सामर्थ्य मेरे अंदर नहीं है।'
   और वास्तव में पिता जी की इच्छा के अनुसार मेरा संबंध वहां से नहीं हो सका बल्कि नगर के एक अच्छे खानदान की लड़की से मेरी शादी तय हो गई। भगवान ही जानता है कि मेरे विवाह में नकदी के नाम पर एक छोटा पैसा भी प्राप्त हुआ हो किंतु वधू के शील, सौंदर्य और व्यवहार की सभी देखने वालों ने प्रशंसा की।
   इसके बाद मुझे नौकरी मिल गयी। मैं आसाम चला गया और राकेश उसी नगर में रहकर अपने पिता के व्यवसाय में लग गया।
     सुदीर्घ अवधि के उपरान्त जब मैं आसाम से लौटा तो घर में घुसते ही सबसे पहले मैंने अपने मित्र राकेश की खैर-कुशलता के विषय में पूछताछ की। बड़ी भाभी जी मानों पहले से ही इस संबंध में वार्तालाप करने के लिए समुत्सुक बैठी थीं। विषय छिड़ते ही जोर से हंस पड़ीं। बोलीं- उनकी तो बड़ी दुर्दशा हुई पिछले वर्ष। निश्चिंत रहिए लालाजी, अब राकेश भाई साहब पहले जैसे नहीं रह गए हैं। उनकी समस्त मान्यतायें विपरीत हो गई हैं, विश्वास डिग गए हैं और तर्कशक्ति भी पहले जैसी नहीं रही है। आजकल तो वे बड़ा खोया खोया सा अनुभव करते रहते हैं।
    मैं असमंजस में पड़ गया। ऐसी कौन सी विचित्र शक्ति का प्रादुर्भाव हो गया मेरे पीछे, जिसके विचारों के हठात् राकेश बाबू के निश्चयों को डिगा दिया। मैं विस्मयपूर्ण दृष्टि से टकटकी लगाए हुए भाभीजी की ओर ताक रहा था कि उन्होंने स्वयं ही मेरा समाधान करने के लिए बड़े रोचक ढंग से राकेश की आपबीती सुनानी शुरू कर दी- एक दिन राकेश बाबू अकेले ही अपनी कोठी में बैठे हुए थे कि सहसा एक अपूर्व सुंदरी
नवयुवती ने उसमें प्रवेश किया। अचानक ही एक अज्ञात नवयौवना को अपने सामने देखकर वे सकपका गए लेकिन युवती संकोच रहित होकर राकेश बाबू के सामने वाले कोच पर बैठ गई। राकेश बाबू की प्रश्न सूचक दृष्टि उसके मुख पर जा टिकी।
    युवती ने कुटिलतापूर्वक होठों से मुस्कराते हुए एक बार कृत्रिम निःश्वास भरा और अपनी कहानी का बखान शुरू कर दिया- 'बाबू जी हम बाढ़ग्रस्त दक्षिणी क्षेत्र की विपदा की मारी कुलवती नारी हैं। भयंकर बाढ़ आ जाने के कारण हमारा धन, माल, जानवर, बच्चे सब कुछ बह गया। खुद हम भी पानी में बह निकले। चारों तरफ भयंकर वेग से उमड़ता हुआ जल ही जल दिखलाई पड़ता था। जानवरों की चिंघाड़ और बच्चों की चीत्कार सुनकर हम सिहर उठीं... फिर हमें होश नहीं कि क्या हुआ। सरकार के आदमियों ने हमें निकाल लिया। हम घर-बार विहीन होकर टक्करें खाने लगीं। अब हम अपने इलाके को वापस जाना चाहती हैं। बाबू, आप दो रुपए, चार रुपए देकर हमारी मदद करिएगा।
   राकेश बाबू युवती के अपरूप सौंदर्य को एक टक निहारते चले जा रहे थे। अंग-अंग से प्रस्फुटित उसके नवयौवन ने उन्हें सहज ही में विमोहित कर लिया। उनके हृदय की सुकोमल वृत्तियाँ जागृत हो उठीं। युवती की कुशल अभिव्यक्ति एवं करुण आत्म-कहानी ने भी राकेश बाबू के आदर्शवाद को एड़ लगा दी। वे मन मन बुदबुदा उठे- 'विपदा की मारी सुशिक्षित सुंदर नवयुवती। इसके द्वारा क्या अपने जीवन को सार्थक नहीं बनाया जा सकता ? वह अवश्य प्रयत्न करेगा। और इसलिए प्रकट में उन्होंने नवयुवती से प्रश्न किया-
'यहीं कहीं गृहस्थी बसाकर रहना प्रारंभ क्यों नहीं कर देतीं आप?'
युवती के अधरों पर हल्की सी मुस्कराहट बिखर उठी। उसने अपनी सलज्ज दृष्टि को राकेश बाबू के चेहरे पर टिका दिया और बोली-
 'हमारी पसंद ना पसंद का क्या मूल्य है बाबूजी? हम अज्ञात कुल वाली नारी को कौन व्यक्ति अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहेगा।'
   युवती के हावभाव से राकेश जी का धैर्य विखण्डित होता जा रहा था। तभी सहानुभूति और आकर्षण से अनुप्राणित उनका आदर्शवाद भी मुखरित हो उठा।
'ये सब दकियानूसी विचार हैं। लड़की यदि सुंदर, सुशिक्षित और सुशील हो तो केवल मात्र कुलीनता आदि की अज्ञातावस्था में उसको त्याज्य समझना बड़ा भारी अपराध माना जाना चाहिए।'
कुछ क्षण युवती की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए भावावेश में आकर वह पुनः बोल उठे - 'यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं तुम्हें इस घराने की वधू बनाने के लिए तैयार हूँ।'
'क्या यह सच है?' युवती ने सहसा आश्चर्य व्यक्त किया।
’एक दम सत्य! उतना ही जितने हम और तुम।'
'नि:संदेह आपके आदर्श महान् हैं।' लड़की बुदबुदा उठी।
'आप सदृश महान आत्मा की चरणदासी बनने के सौभाग्य से कौन अभागिन अपने को वंचित
रखना चाहेगी?'
और तबसे उस नवयुवती ने राकेश बाबू के घर में रहना प्रारम्भ कर दिया। दोनों के दिन बड़ी हंसी-खुशी से व्यतीत होने लगे। राकेश बाबू रात-दिन उसके प्रेम में सराबोर रहते और वह भी उसके प्रतिदान स्वरूप स्वयं को समस्त सौंदर्य प्रसाधनों से प्रसाधित करके नारी-सुलभ काम-कलाओं से उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किये रहती और एक माह के अंदर ही उस नवयुवती की मनोकामना पूर्ण होने को आ गई। वह गर्भवती हो चुकी थी।
  मित्रवर राकेश की यह कहानी मैं बड़ी उत्सुकता के साथ सुन रहा था। सहसा भाभीजी सुनाते-सुनाते रुक गईं और मुस्कराने लगीं।
मैं व्यग्रतापूर्वक बोला 'फिर क्या हुआ भाभी जी?'
'वह दुखदायी घटना जो हमारे लिए हँसी मजाक थी किंतु राकेश बाबू के लिए सबक सिखाने वाली वस्तु बन गई। भाभीजी पुनः गंभीर हो चली थीं।
'एक दिन राकेश बाबू कहीं बाहर गए हुए थे। वापस लौटे तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को कहीं जाने के लिए तैयार पाया। वे मुस्कराते हुए ज्यों ही उसके निकट पहुंचे उसने अपनी कुटिल दृष्टि ऊपर उठाई और बोल उठी- 'मेरे लिए इसी समय बीस हजार रुपए का प्रबंध कर दीजिए राकेश बाबू!' नवयुवती के स्वर में तीखापन था।
'ओह तो आप ऐक्टिंग करने में भी अत्यन्त निपुण हैं।' राकेश बाबू मुस्करा दिये- 'सच, इस
मुद्रा में कितनी खूबसूरत लगती हो तुम!'
'बकवास बंद कीजिए, बाबू जी, शराफत इसी में है कि बीस हजार रुपया चुपचाप मेरे हवाले कर दीजिए। युवती ने रोष से आँखें तरेर दीं।
राकेश बाबू का मुख विवर्ण होने लगा। बोले- 'कहीं पागल तो नहीं हो गई हो तुम?' 'पागल मैं हूँ या आप इसका पता शीघ्र ही चल जायेगा आपको, जब में पुलिस में जाकर रिपोर्ट लिखवाऊंगी कि मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर आपने बलात्कार किया है मेरे साथ और जब मेरी डाक्टरी परीक्षा कराई जाएगी तो दुनिया थूक उठेगी तुम्हारे मुँह पर और तुम्हारी लाखों की इज्जत क्षण मात्र में मिट्टी में लोटती दिखाई देने लगेगी.....।'
   ओफ! राकेश जी को जैसे काठ मार गया हो। उनके हृदय पर सैकड़ों बिच्छुओं ने एक साथ प्रहार कर दिया मानो। वे चीख उठे-
'धोखा? तुमने धोखा किया है मेरे साथ!'
'चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं बनता-बिगड़‌ता है राकेश बाबू! अच्छी तरह से सोच-समझ लीजिए। मैं आपसे अंतिम बार कह रही हूँ कि यदि आपको अपनी और अपने खानदान की इज्जत प्यारी है तो तुरंत बीस हजार रुपया लाकर मेरे हाथ पर रख दीजिए कहती हुई युवती जाने का उपक्रम करने लगी। ठहरो! राकेश बाबू चिल्ला उठे और चुपचाप तिजोरी की ओर मुड़कर उसमें से बीस हजार रुपए निकालकर उसके हाथ पर रख दिए।
रुपए हाथ में लेकर युवती ने एक बार नमस्ते किया उनको, और कुटिलतापूर्वक मुस्कराती हुई दरवाजे की ओर मुड़ गई।
   राकेश बाबू के आदर्शवादी चिंतन पर यह गहरा आघात था जिसे वे जीवनपर्यन्त विस्मृत न कर सके।

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... रंगपुर का बांका । हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

 


खेतों और खलिहानों के मध्य विचरण करती हुई यशोदा ने यौवन के द्वार में प्रवेश किया। उसके अप्रतिम सौंदर्य में निराली मादकता का विकास प्रारम्भ हो गया किंतु उसके हृदय और स्वभाव की शुद्धता एवं निष्कपटता में कोई अंतर नहीं आया। उसे न तो गांव भर में किसी से ईर्ष्या थी, न द्वेष और न ही किसी के प्रति विशेष आकर्षण। माता-पिता को उस पर विश्वास था और इसीलिए स्वच्छंदतापूर्वक वह कहीं भी घूम-फिर सकती थी। गांव में कोई उसका दादा था, कोई ताऊ तो कोई चाचा। समवयस्क और छोटे बच्चे सभी उसके भाई-बहन थे।


एक दिन अमराइयों में गुजरते हुए उसे किसी ने पुकारा- यशोदा!

यशोदा ठिठक गई। एक युवक उसकी ओर आ रहा था।

'जी, मैं आपको पहचानती नहीं।' यशोदा ने विनम्रतापूर्वक आगवानी की।

'अरे वाह, लखनऊ से आया हूं तुम्हारे दर्शन के लिए। जमींदार बाबू के लड़के ने तुम्हारे बारे में बताया था मुझको।'

'बताया होगा; बोलिये मैं आपको क्या सेवा कर सकती हूँ?'

’सेवा! सेवा तो मुझे करनी चाहिए तुम्हारी। भगवान ने तुम्हें कितना खूबसूरत बनाया है।’

'माफ कीजियेगा मेरे पास फिजूल की बातें करने का समय नहीं है' कहती हुई यशोदा चलने को उद्धत हो गई।

ऐसा न करो डियर! बांका युवक उसको भुजाओं में बाँधने के लिए आगे बढ़ा। यशोदा सावधान हो गई। उसके बलिष्ठ हाथों ने जोर का धक्का दिया। युवक चारों खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ा। सिर में गहरी चोट आई।

'समझे! भविष्य में कभी ऐसी हरकत करने की कोशिश मत करना' युवक की ओर कातरतापूर्ण दृष्टि से देखती हुई यशोदा बोली 'इस गांव के सभी युवक यहाँ की समस्त युवतियों के भाई होते हैं श्रीमानजी।"

बहन!.... बांका बुदबुदाया लेकिन यशोदा तब तक बहुत दूर जा चुकी थी। युवक यशोदा के साहस और शुचिता पर अभिभूत था। बहन के रिश्ते की मर्यादा को भी वह भलीभांति जानता था।

अतः लज्जावनत मुख किये वह अपने स्थान की ओर चला गया।

विवाह के बाद यशोदा ससुराल जा रही थी।

'गाड़ियां रोक दो!' हट्टे-कट्टे, सुगठित शरीर वाले एक नकाबपोश की कर्कश आवाज से सारा जंगल गूंज उठा।

गाड़ियां रुक गईं। सारे बाराती भयभीत हो गये।

'सब लोग हाथ ऊपर करके खड़े हो जाइये' नकाबपोश का दूसरा आदेश हुआ, सभी बाराती एक ओर जाकर चुपचाप खड़े हो गये। नकाबपोश रथ की ओर बढ़ा 'सारे जेवर ईमानदारी से उतार कर सौंप दो वरना तुम्हें और तुम्हारे पति सहित सारे बरातियों को मौत के घाट उतार दिया जायेगा।'

वधू ने अपूर्व धैर्य का परिचय दिया 'ईमानदारी? सज्जनों के आभूषण का अपहरण करने वाले बेईमान! मौत? ब्रह्मा के विधान को अपने हाथ में लेने वाले दुराचारी! कौन हो तुम? निर्जन वन प्रदेश में कायरों की तरह डरा-धमका कर लूटमार करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती।'

'मैं कतई बकवास सुनना नहीं चाहता। मुझे सिर्फ तुम्हारे जेवर चाहिए।' आवेग में आकर नकाबपोश ने रथ के परदे को फाड़ डाला।

'अयं यशोदा! उसके मुँह से हल्की सी चीख निकल पड़ी 'बहन! ओह, इस गाँव के सभी

युवक....।' उसने साथियों को आदेश दिया। सबके सब देखते ही देखते नौ दो ग्यारह हो गये। यशोदा को गाँव की अमराइयों के मध्य की घटना का स्मरण हो आया।

बाराती रथ की ओर बढ़े। वधु सकुशल थी। आश्चर्य है कि डाकू उसका एक भी जेवर नहीं ले गये।

बारात थोड़ी दूर पहुंची होगी कि फिर वही नकाबपोश आता हुआ दिखाई पड़ा। उसने अपना घोड़ा रथ के पास रोक दिया। हाथ में लाई हुई पोटली को रथ के भीतर फेंक कर वह तुरंत गायब हो गया।

सम्पूर्ण घटना सुनने से पूर्व ही सास का निश्चित मत प्रसारित हो गया जरूर कोई यार रहा होगा इस कुलच्छिनी का।

मौहल्ले की स्त्रियां एकत्र होतीं। वधू के रूप की सराहना करतीं तो सास के शरीर में चैंके लग जाते- मरे इस रूप ने ही तो सारा सत्यनाश कर डाला होता, वह तो भगवान की खैर कहो, नहीं तो यह डायन तो उसी दिन सबको भख लेने पर तुली थी।

विवाहित जीवन के सुखद स्वप्नों की परिकल्पना करने वाली नववधू भाग्य को दोष देकर सबकुछ चुपचाप सहन करती रहती। उसके पति किसी दूर के शहर में सरकारी नौकरी पर थे। कुछ दिवस उपरान्त वे अपने काम पर चले गये। गृहस्थी बसाने में बड़ा खर्च बैठेगा इसलिए बहू को सास के पास ही छोड़ दिया। कभी-कभी महीने, दो महीने में एकाध चक्कर लगा जाते। उनका आना यशोदा के रेगिस्तान में सदृश जीवन में मरुउद्यान के समान होता। बाद में पुनः रेत ही रेत! सास के ताने और नन्द देवरों की झिड़कियाँ।

समय व्यतीत होता गया। इन पंद्रह वर्षों के दीर्घ काल में यशोदा ने चार संतानों के अतिरिक्त अन्य कोई सुख न माना। चारों ओर से आघात सहन करता हुआ उसका हृदय भगवत भक्ति की ओर उन्मुख हो गया।

अन्य सोमवारों को भाँति यशोदा इस सोमवार को भी गंगा स्नान करने के लिए गई। लौटते समय उसकी दृष्टि एक अत्यन्त क्षीणकाय भिखारी पर पड़ी। आकृति कुछ परिचित सी लगी। ठिठक गई।

गौर से देखा तो स्तब्ध रह गयी। गाँव की अमराइयों और लौटती हुई बारात का चित्र आँखों के सम्मुख घूम गया। वह अधिक देर स्थित न रह सकी। पुकारा भैया!

भिखारी ने अपनी आँखें ऊपर उठाई ; फिर सहसा ही अपना मुँह घुटनों के बीच में छिपा लिया।

'तुम्हारी यह दशा कैसे हुई भैया?' यशोदा से रहा न गया।

भिखारी फिर भी शान्त भाव से मुख नीचा किये हुए बैठा रहा। किंतु यशोदा के अत्यधिक आग्रह

करने पर उसने अपनी आँखें ऊपर को उठाई। और अस्फुटित शब्दों में अपने पाप-पूर्ण अतीत का वर्णन प्रारम्भ कर दिया।

बाल्यकाल में ही बुरी संगति। घर छोड़कर भाग निकलना। वासनामय जीवन का प्रारम्भ। पैसे का अभाव इसलिए चोरी डकैती। रंगे हाथों गिरफ्तार होना। संगी-साथियों का बिछुड़ जाना। पंद्रह वर्षों का सश्रम कारावास। मुक्त होने पर वर्तमान दशा। रोमांचक घटनाओं का अ‌द्भुत क्रम। यशोदा काँप गई।

उसका हृदय द्रवित हो गया। बाँह पकड़कर उठाते हुए बोली- 'चलो, मेरे घर चलो भैया। जब तक तुम पूर्ण स्वस्थ न हो जाओ मेरे घर पर चलकर आराम करो।

ग्लानिवश मुख नीचा किये हुए भिखारी यशोदा के साथ हो लिया।

सास को अच्छा मौका मिल गया। यशोदा पर बुरी तरह फटकार पड़ी यह यारों का घर नहीं है बहुरानी। गृहस्थी है गृहस्थी। करम फूट गये हमारे तो! बाप ने शादी ही क्यों की थी, किसी यार के साथ बैठा दिया होता। तनिक चैन तो मिलता इसे!

यशोदा नित्यप्रति ऐसी बातें सुनने की अभ्यस्त हो चुकी थी। अतैव उसने उस ओर कोई ध्यान ही न दिया किंतु आगंतुक इन तीक्ष्ण कटाक्षों को सहन नहीं कर सका। मन ही मन भाग्य को कोसते हुए लड़खड़ाते कदमों से वह घर से निकलने लगा। पंद्रह वर्ष के कठोर कारावास ने उसे जर्जर बना दिया था। कहीं यशोदा न देख ले, इसीलिये जल्दी से चलना शुरू कर दिया। किंतु दरवाजे की चौखट नहीं लांघी गयी। पैर अटक गया। मुँह के बल औंधा गिर पड़ा। हल्की सी चीख निकल गई। यशोदा ने ऊपर से झांककर देखा। हतप्रभ सी दौड़ी नीचे आई। भैया के शरीर को झकझोरने लगी। सास भी आ पहुँची। भैया ने आंखें खोलीं। टूटे-फूटे शब्दों में बुदबुदाने लगा 'अपने पापों का फल मैंने यहीं पा लिया बहन! तुम एक काम करना। रंगपुर का कोई आदमी मिले तो कह देना...... सेठ नवलकिशोर......... के बेटे ने बड़े पाप किये थे....... और वह भिखारी का श्वांस छूट गया।

रंगपुर। नवलकिशोर! सास चौंक पड़ीं मेरे बहनोई। उसके मुख से चीख निकल पड़ी- शंकर! बेटा शंकर! वह खूब जोर-जोर से अलाप करने लगीं। चारों दिशायें गूंज उठीं लेकिन शंकर का शरीर सदा के लिए शान्त हो चुका था।

और यशोदा, मूर्तिवत खड़ी थी।

बुधवार, 20 सितंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष आनंद स्वरूप मिश्रा का कहानी संग्रह ..."टूटती कड़ियां" वर्ष 1993 में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत है मुरादाबाद के बाल साहित्यकार शिव अवतार सरस जी द्वारा लिखी गई इस संग्रह की भूमिका

कथा साहित्य को भाव-संप्रेषण का एक सशक्त माध्यम कहा जाता है । इसका इतिहास भी मानव सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना है जिसके प्रमाण हैं अजन्ता और ऐलोरा आदि गुफाओं के वे भित्तीचित्र जो आज भी उस समय की शिकार- गाथाओं का सम्यक संप्रेषण कर रहे हैं। साहित्य की इस सर्वाधिक चर्चित विधा को विश्व की सभी भाषाओं ने उन्मुक्त भाव से अपनाया है। कारण स्पष्ट है क्योंकि समय की दृष्टि से एक कहानी स्वल्प समय में ही सहृदय पाठक के अन्तस्तल को झकझोर कर एक नयी दिशा में सोचने के लिये विवश कर देती है। कहानी में विद्यमान जिज्ञासा का भाव रसग्राही पाठक को आस-पास के वातावरण से दूर ले जाता है। कहानी में प्रयुक्त अन्तर्द्वन्द्व उसे अपने जीवन से जोड़ने का प्रयास करते हैं और पात्रों का मनो- वैज्ञानिक चित्रण उसे अपने निकटस्थ प्रिय एवं अप्रिय लोगों की याद दिलाता है । इस दृष्टि से एक कहानी साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा मानव-मन के अधिक निकट प्रतीत होती है।

'टूटती कड़ियाँ' शीर्षक संकलन के रचनाकार श्री आनन्द स्वरूप मिश्रा स्वातन्त्र्योत्तर कथाकारों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। जीवन के यथार्थ से सम्पृक्त चरित्र एवं घटनायें लेकर श्री मिश्र ने कथा और उपन्यास साहित्य में जो लेखनी अपने विद्यार्थी जीवन में चलाई थी वह आज ३५-४० वर्षों के उपरान्त भी अवाध गति से चल रही है। इस ग्रंथ में मिश्र जी की उन बारह कहानियों का संकलन है जो विगत ३२ वर्षों के अन्तराल में अरुण, साथी, हरिश्चन्द्र बन्धु एवं विभिन्न वार्षिक पत्र-पत्रिकाओं आदि में स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। ये सभी कहानियाँ प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से अत्यन्त सशक्त मार्मिक एवं हृदय-ग्राह्य हैं। श्रेष्ठ कहानी के लिये आवश्यक तत्व जिज्ञासा की भावना इन सभी कहानियों में पूर्णरूप से विद्यमान है । कहानी कला के सभी तत्वों का इनमें पूर्णरूपेण निर्वाह हुआ है तथा आदि और अन्त की दृष्टि भी ये सभी कहानियाँ स्वयं में पूर्ण एवं प्रभावोत्पादक हैं। इन सभी कहानियों के सभी पात्र पारिवारिक एवं अपने आस-पास के ही हैं । कहानियों का कथानक सरल, संक्षिप्त, सुगम, मार्मिक एवं प्रभविष्णुता हैं ।

    श्री मिश्र जी की प्रायः सभी कहानियाँ समय की धारा के अनुसार प्रेम एवं रोमांस पर आधारित हैं। अध्ययनकाल के चंचल मन का प्रेम जब यथार्थ की कठोर भूमि पर उतरता है तो हथेली से गिरे पारद (पारे) की भाँति क्षणभर में छिन्न-भिन्न हो जाता है। त्रिकोणात्मक संघर्ष पर आधारित इस संकलन की अधिकांश कहानियों में कहीं प्रेमी को तो कहीं प्रेमिका को अपने अमर प्रेम का बलिदान करना पड़ता है। यदि संकलन की प्रथम कहानी 'टूटती कड़ियां' को लें तो ज्ञात होता है कि उद्यमी अध्यवसायी एवं महत्वाकांक्षी डा अविनाश का डा आरती के प्रति अविचल प्रेम, अवसर मिलने पर भी फलीभूत नहीं हो पाता और अन्त में उसी के आंसुओं के मूल्य पर उसे सलिला के साथ विवाह करना पड़ता है। यथार्थ की मरुभूमि पर जब आदशों के स्वप्निल बादल सूख जाते हैं तब अविनाश जैसे प्रेमियों को यही कहना पड़ता है- "आरती तुम सब कुछ खोकर भी रानी हो और मैं सब कुछ पाकर भी आज भिखारी हूँ ।"

    संकलन की दूसरी कहानी 'सुख की सीमा' की परिणति भी नारी के त्याग पर आधारित है। पति प्रमोद की बगिया हरी भरी रहे इस ध्येय से अध्ययन-काल की सहपाठिनी और बाद में धर्म-पत्नी के पद पर अभिषिक्त जिस रागिनी से स्वयं उमा को सपत्नी के रूप में चुना था उसी उमा के उपेक्षित व्यवहार एवं  एकाधिकार से क्षुब्ध होकर रागिनी को पुनः उसी पैतृक परिवेश  में लौट जाना पड़ता है जहाँ उसके इन साहसिक कृत्यों का कदम- कदम पर विरोध हुआ था ।

    'त्रिभुज का नया विन्दु' शीर्षक कहानी निश्चय ही एक  अप्रत्याशित अन्त लेकर प्रस्फुटित हुई है। कहानी का नायक डा अविरल अपनी चचेरी बहन की शादी में सोलह वर्षीया मानू से मिलता है और उसकी बाल-सुलभ चपलताओं को भुला नहीं पाता है। इधर दिल्ली विश्वविद्यालय में विज्ञान का प्रोफेसर बनकर वह अन्तिम वर्ष की छात्रा सुवासिनी के चक्कर में फँस जाता है। सुवासिनी होस्टल के वार्डन की पुत्री अनुपमा से मित्रता करके अविरल तक पहुंचने का मार्ग बना लेती है। उधर अविरल के माता-पिता चाहते हैं कि ऊँचे घराने की सुन्दर सुशील कन्या उनके घर वधू के रूप में पदार्पण करे। मगर सीनियर प्राध्यापकों की दृष्टि में सीधा-सादा, पढ़ाकू, दब्बू और लज्जालु अविरल इस त्रिभुज के मध्य एक नया विन्दु खोज लेता है और एम० एस-सी (प्रथम वर्ष) की एक हरिजन छात्रा 'ऋतु राकेश' के साथ प्रेम- विवाह कर सब को हतप्रभ कर देता है ।

    इसी संकलन में संकलित 'कोई नहीं समझा' शीर्षक कहानो बाल मनोविज्ञान पर आधारित है जो इस तथ्य पर चोट करती है कि प्रति वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण विद्यार्थी ही महापुरुष बन सकता है । नायक शोतल बाबू का अनुज सुरेश हाई स्कूल में लगातार ५ बार फल होकर घर से भाग जाता हैं और फिर एक चुनौती भरा पत्र लिखकर भेजता है कि "मैं हाईस्कूल में पाँच साल फेल होकर भी बड़ा बनकर दिखलाऊँगा ।"

संकलन की एक कहानी 'उम्मीद के सितारे के तीनों पात्र- किशन, प्रमोद और मालती भी एक त्रिभुज के तीन कोण हैं जो भारत सेवक समाज के एक शिविर में एक ही मंच पर उपस्थित होकर परिणाम को एक अप्रत्याशित मोड़ दे देते है । एक पत्रिका के उपसम्पादक के रूप में मध्य प्रदेश चले जाने के कारण प्रेमी किशन और प्रेमिका मालती के मध्य दूरियां बढ़ जाती हैं और मालती हताश होकर समाज सेविका बन जाती है। इधर इसी समाज में प्रमोद नाम का एक भारत सेवक भी है जो स्वयं प्रेम का भूखा है। भावसाम्य के कारण प्रमोद और मालतो में परस्पर मित्रता हो जाती है और प्रमोद उसके साथ शादी कर के भविष्य की योजनायें बनाने लगता है। मगर शिविर की गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिये जब किशन इन दोनों के मध्य आता है तो इस कामना से चुप-चाप भाग जाना चाहता है कि भारत सेवक और समाज सेविका की जोड़ी खूब जंचेगी। मगर वेश बदलने पर भी जब वह मालती की निगाह से बच नहीं पाता है तो उसे मालती का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना पड़ता है ।"

संकलन की अन्य कहानी 'कालिख' में डा० सत्येन्द्र का हृदय परिवर्तन कर कथासार ने एक आदर्श प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही इस कहानी में उन दुर्दान्त प्रबन्धकों के मुख पर लगी उस कालिख को भो उजागर किया गया है जो भोली-भाली कन्याओं की विवशता का लाभ उठाकर उनका देह शोषण करते हैं और फिर समाज में हत्या और आत्म-हत्या जैसे अपराधों को बढ़ावा देते हैं । इस मार्मिक कहानी का अन्त पूर्णतः अप्रत्याशित है । डा सत्येन्द्र ने यह स्वप्न में भी न सोचा होगा कि जिस मालवी के भाई अभय को गुनाह से बचाने के लिये उन्होंने मालती के एवारशन की व्यवस्था की थी वही मालती उनकी पुत्र वधू बनकर उनके घर आ जायेगी। मगर नई विचार धारा का उनका पुत्र रवि जब मालती को अपनी सहधर्मिणी बना लेता है तो वह चाहते हुए भी उसका विरोध नहीं कर पाते हैं ।

   श्री आनन्द स्वरूप मिश्र की सभी कहानियाँ पाठकों के अन्तस्तल को झकझोर देने में पूर्णरूपेण समर्थ है। आशा-निराशा, उत्थान-पतन, आदर्श और यथार्थ के हिण्डोले में झूलते हुए इन कहानियों के सभी पात्र अपने ही निकट और अपने ही बीच के प्रतीत होते हैं। विद्वान कथाकार ने पात्रानुकूल और बोल-चाल की प्रचलित भाषा का प्रयोग करके इन कहानियों को यथार्थ के निकट खड़ा कर दिया है। वाक्य विन्यास इतना सरल और स्पष्ट है कि कहीं भी कोई अवरोध नहीं आ पाता - यथा 'यह सुवासिनी भी बड़ी तोप चीज है। आती है तो मानो तूफान आ जाता है । बोलती है तो जैसे पहाड़ हिल जाते हैं और जाती है तो सोचने को छोड़ जाती है ढेर सारा ।'( त्रिभुज का नया बिन्दु ) 

वातावरण के निर्माण में भी कथाकार को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है । यथा "बाहर दृष्टि दौड़ी-चारों ओर खेत ही खेत दिखाई देते थे । गेहूँ के नवल पत्ते सकुचाते हुए से अपना शरीर इधर उधर हिला रहे थे। कोमल कलियाँ अपनी वय: सन्धि की अवस्था में अँखुड़ियों के वस्त्रों से तन ढकती हुई अपने ही में सिमिट रही थी "...." (उम्मीद के सितारे)


श्री मिश्र ने अपने कथा शिल्प में अन्तर्द्वन्द के साथ फ्लैशबैक का भी पर्याप्त सहारा लिया है। इसी कारण आपकी कहानियों में जिज्ञासा को पर्याप्त स्थान मिला है। शैली की दृष्टि से वर्णनात्मकता के साथ इन कहानियों में संवाद शैली का भी यथेष्ठ उपयोग हुआ है। कुछ संवाद तो इतने सरल, सरस और सटीक है कि सूक्ति वाक्य ही बन गये हैं यथा - "एक आदर्श पति

तो बनाया जा सकता है पर आदर्श प्रेमी नहीं ।"

"नारी बिना सहारे के जीवित नहीं रह सकती ।" "एक नारी क्या कभी पराजित हुई है पुरुष के आगे ?"( शाप का अन्त)


श्री मिश्र एक सिद्ध हस्त लेखक हैं। अलग-अलग राहें, प्रीत की रीत, अंधेरे उजाले , कर्मयोगिनी शीर्षक उपन्यासों के प्रकाशन के उपरान्त आपका यह प्रथम कहानी संग्रह पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है । आशा है कि जिस प्रकार हिन्दी जगत ने आपके उपन्यासों को सराहा और सम्मान दिया है उसी प्रकार यह कहानी संग्रह भी समादर और सम्मान प्राप्त करेगा ।



✍️ शिव अवतार 'सरस' 

मालती नगर

मुरादाबाद


::::::::प्रस्तुति::::::

, डॉ मनोज रस्तोगी