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शनिवार, 31 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दुर्गादत्त त्रिपाठी के कृतित्व पर केंद्रित श्रीकृष्ण शुक्ल का आलेख --- सामाजिक विषमता का चित्रण है दुर्गादत्त त्रिपाठी की रचनाओं में

 


कीर्तिशेष श्री दुर्गादत्त त्रिपाठी जी की रचनाओं में सामाजिक विषमता का चित्रण है, आध्यात्मिक चिंतन है, राजनीति के दमनकारी व्यवहार और निरीह जनता की लाचारी का चित्रण भी है।

उनकी कविताओं में से विशेष रूप से कुछ रचनाओं की पंक्तियां यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जो उनके भीतर के साहित्यकार को परिभाषित करने में सक्षम हैं।

एक यही तो है स्वतंत्र जन नगरी

कौन मनुज काया को कहता कारा

हमें सर्वहितकारी सक्रियता से

लेना है पल पल का लेखा जोखा

विश्व व्यथा से सतत संग रखने को

रखना रोम रोम का खुला झरोखा 

होने और न होने से जीवन के

बड़ा तथ्य निश्चित गंतव्य हमारा।

इसी रचना में आगे कहते हैं:

जन बलिदान मूल्य पर जनमत पाना क्षम्य नहीं

इसमें छिपी हुई हिंसा से जनपद मरता है।

इन पंक्तियों में वह सत्ता पाने के लिये हिंसा का सहारा लेने वाली राजनीति को भी चेतावनी देते दिखाई देते हैं।साथ ही सत्ता की दमनकारी नीतियों के कारण उत्पन्न परिस्थितियों का जीवंत चित्रण इन पंक्तियों में भी परिलक्षित होता है:

कहीं भूखों ने लूटा नाज

आग उगली पिस्तौलों ने

कहीं दंगों में जन निर्दोष 

भून डाले पिस्तौलों ने

समाज में सफल और समर्थ वर्ग की अर्थपिपासा, संवेदन शून्यता,  परिवारों का विघटन, इन सभी परिस्थितियों को अत्यंत मार्मिक तरीके से उन्होंने व्यक्त किया है। देखें ये पंक्तियां:

जाने कब सबलों की विजय पिपासा

बूंद बूंद जल सागर का पी जाये

शेष स्नेह में संवेदना नहीं है

परिवारों की चौखट चटख रही है

प्रेतों की छवियां समाज पर उभरी

आकृति बदल गयी है चित्र वही है

इसके परिणाम भी उन्होंने इन पंक्तियों में दर्शाए हैं:

लोक प्रगति को अवसादों ने घेरा

विश्व शांति का मुँह अशान्ति ने फेरा।

साथ ही साथ अपनी रचनाओं में उन्होंने समाज को शिक्षा भी दी है:

बोलो दो बोल किन्तु मधुर मधुर बोलो

रस में विष तीसरे वचन का मत घोलो।

और आने वाले समय के लिये आगाह भी किया है :

राज्य के महोत्सव सब राजसी होंगे

और जन अभावों की यातना सहेंगे।

साहित्यकार की रचनाधर्मिता कभी अभावों या दबाव के आगे प्रभावित नहीं होती  वह किसी त्रासदी से विवश होकर नहीं लिखता, कुछ यही व्यक्त होता है इन पंक्तियों में:

पामर से पामर जन

झेले इतिहासों ने

भूख से हिला डाले

व्यक्ति विवश त्रासों ने

एक झिल न पाया तो मैं

और अंत में कवि की रचनाधर्मिता का स्वआकलन जो कवि को कभी निराश या हताश नहीं होने देता:

जो कुछ उसने लिखा भले मर जाए

किन्तु न मर पायेगी उत्कट ममता

उपरोक्त विवरण उनके विराट व्यक्तित्व के संबंध में अत्यंत सूक्ष्म परिचय देता है, लेकिन उनके भीतर के साहित्यकार से अच्छे से परिचित करवाता है।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG 69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दुर्गादत्त त्रिपाठी की काव्यकृति 'कल्पदुहा' की यशभारती माहेश्वर तिवारी द्वारा लिखी गई भूमिका ---आर्त एवं पीड़ित जन का प्रार्थना गीत


 महाकवि दुर्गादत्त त्रिपाठी, हिन्दी के उन रचनाकारों में हैं जिन्हें अन्यान्य अनेक सर्जकों की तरह हिन्दी-जगत की चिर-परिचित उपेक्षा और विस्मृति का शिकार होना पड़ा। अत्यन्त विनम्र, मृदुभाषी तथा सहज सरल स्वभाव के धनी त्रिपाठी जी ने आज के तमाम रचनाकारों की तरह आत्मविज्ञापन और प्रायोजित मूल्यांकन से अपने को विरत रखा। यह उनके रचनाकार तथा व्यक्तिगत स्वभाव के अविपरीत ही था, सृजन उनके लिए कर्म और सहज मानवीय धर्म दोनों का पर्याय था। यह विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि न केवल छायावाद की वृहत्त्रयी के प्रमुख स्तम्भ जयशंकर प्रसाद का आत्मीय स्नेहभाव उन्हें भरपूर प्राप्त था वरन् विनोद शंकर व्यास, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र', लक्ष्मी नारायण मिश्र, डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, डॉ. शान्ति प्रिय द्विवेदी, कमलापति त्रिपाठी, रामनाथ सुमन, शिव पूजन सहाय, जनार्दन झा 'द्विज', शिवदास गुप्त 'कुसुम' जैसे हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण स्तम्भों का सख्य भाव तथा रामानन्द चटर्जी, रामचन्द्र शर्मा, जैनेन्द्र कुमार, भगवती प्रसाद वाजपेयी, चतुर सेन शास्त्री, नन्द किशोर तिवारी, शिवमंगल सिंह 'सुमन' तथा ज्वालादत्त शर्मा सरीखे महत्वपूर्ण पत्रकारों और साहित्यकारों का परिचित परिकर भी उन्हें आत्म विज्ञापन के प्रति गहरे संकोच भाव की कन्दरा से बाहर नहीं निकाल सका । चार महाकाव्य, दो खण्डकाव्य, बयालिस फुटकर कविताओं का संग्रह, पाँच उपन्यास तथा पाँच कथा-संग्रह, उन्हें इतिहास में अंकित करवाने के लिए पर्याप्त हैं लेकिन आज तक हिन्दी साहित्य के किसी भी इतिहास लेखक ने उन्हें अपने द्वारा लिखित इतिहास में शामिल कर उसके अधूरेपन को कम करने का प्रयास नहीं किया। इसे इतिहास लेखन की विडम्बना कहा जाए. आपाधापी अथवा और कुछ लेकिन यह एक निर्मम सत्य है।

        महाकवि दुर्गादत्त त्रिपाठी से मेरा परिचय इक्का-दुक्का 'अन्तरा' की गोष्ठियों तक ही सीमित रहा लेकिन उनकी सृजन समृद्धि की चर्चा प्रो. महेन्द्र प्रताप, स्व. मदन मोहन व्यास के सानिध्य में होती रही। स्व. कैलाश चन्द्र अग्रवाल के मन में उनके प्रति गहरा आदरभाव था और काफी कुछ अर्थों में वे उन्हें अपना काव्य गुरु मानते रहे लेकिन वास्तविकता यह है कि वे जितने अपरिचित हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन और आलोचना जगत में रहे, उससे शायद कुछ ही कम स्थानीय स्तर पर आज भी है। सम्भव है उनकी प्रकाशित कृतियों की अनुपलब्धता भी उसके पीछे एक प्रमुख कारण ही हो लेकिन वही एकमात्र कारण नहीं हो सकती। अपने को इतिहासविद् और हिन्दीसेवी घोषित करवाने वालों की संख्या यहाँ भी कम नहीं है लेकिन किसी ने उन पर गम्भीर मूल्यांकनपरक लम्बा आलेख तैयार करने की जरूरत महसूस नहीं की। स्व. सुमित्रानन्दन पंत उन्हें उच्चकोटि का कवि स्वीकार करते थे तो भवानी प्रसाद लिखते हैं कि-'आज की बिखरी हुई कविता धारा का विचार करते हुए, कई बार दुर्गादत्त त्रिपाठी का ध्यान आता है और लगता है कि यदि वे निरन्तर प्रकाशित होती रहतीं तो धारा के प्रवाह की कुछ न कुछ रक्षा तो होती ही' ।
      त्रिपाठी जी का प्रकाशकों के पास न जाने का औचित्य है उनका अपने लेखन के विषय को लेकर सोच । लेखन उनके लिए सृजनात्मक आत्मतुष्टि का माध्यम रहा। आत्म प्रचार या विज्ञापन नहीं लेकिन प्रकाशकों का उनके पास न आने का औचित्य समझ में नहीं आता। यह मान भी लें कि कविता उनकी दृष्टि में बिकाऊ माल नहीं है लेकिन वे उनके उपन्यास तथा कथा-संग्रह तो छाप ही सकते थे, कम से कम 'मंटो मिला था' जैसा उपन्यास लेकिन उसे भी राजनारायण मेहरोत्रा ने स्थानीय स्तर पर प्रकाशित किया। इन्हीं सब कारणों से जब प्रिय बन्धु श्री अनुकाम त्रिपाठी ने 'कल्पदुहा' की भूमिका के लेखन का आग्रह किया तो उसे मैंने सहज रूप में स्वीकार कर लिया। त्रिपाठी जी पर लिखना मेरे लिए एक चुनौती भी रही और कुछ लिखकर उनके पूर्वज-ऋण से किसी सीमा तक मुक्त होने का कृतज्ञ भाव भी मन में रहा।

कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि भूमिका लेखन के लिए रचनाकार से परिचित होना आवश्यक है। मेरा मत उनसे भिन्न है। मेरी दृष्टि में रचना में पैठ कर हम स्वयं रचनाकार से गहरा आत्मीय भाव बना सकते हैं। रचनाकार और व्यक्ति तथा उसकी रुचियाँ एवं स्वभाव बाहर से दिखने पर अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन मूल रूप से एक-दूसरे से गुथे हुए परस्पर अभिन्न होते हैं। त्रिपाठी जी के व्यक्तित्व एवं कृतिकार के विषय में विचार करते हुए शमशेर बहादुर सिंह की ये पंक्तियाँ बार-बार मन में उभरती रहीं
मुझको मिलते हैं अदीव और कलाकार बहुत
लेकिन इन्सान के दर्शन हैं मुहाल।
दर्द की एक तड़प
हल्के से दर्द की एक तड़प
मैंने अगलों के यहाँ देखी है;

      त्रिपाठी जी जितने बड़े रचनाकार थे, उतने ही बड़े इन्सान भी। उनमें दर्द की सच्ची और गहरी तड़प थी। अपने लिए कम, दूसरों के प्रति ज्यादा।            'कल्पदुहा' त्रिपाठी जी की गीतिकाओं का संग्रह है जिनका रचनाकाल 14 मई 1970 से 28 दिसम्बर 1970 के बीच की अवधि है। त्रिपाठी जी के रचनाकाल में मुझे निराला जैसी व्यापकता मिलती है।

'बांधो न नाव इस ठांव बन्धु,
पूछेगा सारा गाँव बन्धु ।

जैसी रचनाओं से-

मानव जहाँ बैल घोड़ा है,
कैसा तन-मन का जोड़ा है।
अथवा
वेश रूखे, केस सूखे,
भाव भूखे लोग आए।

- तक जैसा जीवन का व्यापक फलक निराला जी की रचनाओं में मिलता है, वैसा ही जीवन का वैविध्य और व्यापकता त्रिपाठी जी में भी मिलती है। आध्यात्म, सहज जीवन, सामाजिकता और सांस्कृतिक सरोकार उनके विस्तृत रचना जगत् में सहजता से ढूँढे जा सकते हैं। 'कल्पदुहा' ऐसी रचनाओं का संग्रह है जिसमें वर्तमान घड़कता
हुआ दिखाई पड़ता है। इस संग्रह की पहली रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं-
तुम रखो कर्म-क्रम को भविष्य-भय से अजान ।
मेरे विधान तुम, तुम जानो अपना विधान ।
तुम तूम-तूम कर दो मुझको मेरा भविष्य ।
मैं कात कात कर देता जाऊँ वर्तमान।"

यह वर्तमान क्या है जिसे वह कात-कात कर देना चाहते हैं! इसकी ओर संकेत करते हुए वे इसी कविता में आगे लिखते हैं

हो चुका बहुत मानव द्वारा मानव-विनाश।
जीवन सुख से हो चला सर्वहारा निराश ।
जो कई युगों तक उपजाए सन्तति अपंग,
हम को न चाहिए ऐसा वैज्ञानिक विलास।
अब बरसायी जा चुकी व्योम से बहुत आग।
बन जाँय भावना-यान सुधा-वर्षक विमान।'

त्रिपाठी जी का जन्म 1906 में हुआ और सम्भवतः 1920-21 में उन्होंने अपनी रचनात्मक यात्रा आरम्भ की। इस बीच विश्व के दो महायुद्ध हुए और पूँजीवाद ने अपने पंजे फैलाना आरम्भ किया। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इन दोनों मानव विरोधी स्थितियों से अपनी चिन्तना को मुक्त कैसे रख सकता था। बाबा नागार्जुन कहा करते थे कि 'शाश्वत' वर्तमान से ही जन्म लेता है क्योंकि वही इतिहास का दस्तावेज बनता है। त्रिपाठी जी ऐसे चाक्षुस वर्तमान से अपने को कैसे अलग कर सकते थे जो व्यापक विनाश का पर्याय बन चुका हो। जब वे यह कहते हैं-

जो कई युगों तक उपजाए सन्तति अपंग
हमको न चाहिए ऐसा वैज्ञानिक विलास।'

तो क्या उनका आशय हिरोशिमा और नागासाकी पर अमरीका द्वारा बमबारी से नहीं जुड़ता। यह सभी जानते हैं कि हिरोशिमा पर बम गिरने के बाद वहाँ क्या हुआ। इसीलिए वे व्योम से बरसती आग की जगह भावना-यान से सुधा-वर्षण की आकांक्षा करते हैं। चार्ली चैपलिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बड़े साहित्यकार वे होते हैं 'जो अपनी आँखों को आँसुओं में डुबाकर जीवन की सच्चाइयों के विषय में लिखते हैं।
    ये आँसू में डूबी हुई सच से उपजी संवेदनाएँ ही तो अमृत तत्व है जिसकी वर्षा कवि पीड़ित मनुष्यता पर करना चाहता है। चैपलिन ने कविता की परिभाषा करते हुए लिखा है 'एक अच्छी कविता विश्व को लिखा गया प्रेम पत्र है'। मेरी दृष्टि में न केवल 'कल्पदुहा' की सारी रचनाएँ विश्व को लिखा गया प्रेम पत्र हैं वरन् त्रिपाठी जी का समस्त साहित्य इसी कोटि में आता है, भले ही उसके रूप और प्रस्तुति में परस्पर भिन्नता दिखलाई पड़े।

त्रिपाठी जी के साहित्य का केन्द्रीय स्वर मानवतावादी है। वे स्वयं अपने को 'वाद' से मुक्त मानते थे, मानवतावाद से नहीं। इस सन्दर्भ में हरबर्ट मरक्यून ने 'सोसलिस्ट ह्यूमनिज्म' में लिखा है-"मानव वास्तव में एक खुला निकाय है। मार्क्सवादी या कोई अन्य सिद्धांत समाधान आरोपित नहीं कर सकता, इतिहास का आसंग जो आज मानव को नकारता है, एक दिन 'नकार' को भी नकार सकता है। बन्धन-प्रस्त लोगों को तो अभी अपनी मुक्ति मिलनी चाहिए। उनकी चेतना को विकसित करना, जो कुछ हो रहा है, उससे उन्हें अवगत कराना, भावी विकल्पों के लिए अस्थिर-सी भी भूमिका तैयार करना-यह हमारा कार्य है। 'हमारे' से अर्थ मार्क्सवादियों से ही नहीं, बुद्धिजीवियों से है, उन सबसे जो अभी स्वतंत्र हैं और जो स्वयं सोच सकते हैं, बिना साम्यवादी या गैर साम्यवादी दीक्षा का अवलम्बन लिए।" इसलिए त्रिपाठी जी जब यह लिखते हैं

'मत्यों को दो अभिबोध अमरता का पुनीत। सद्भाव-सूत्र से बंधे रहें जन सार्वभौम।
हों जनहितकामी भाव अभावों से अतीत ।
तुम दो शब्दों को नित्य निराले छन्द-मान।
पहले जीवन को स्वर दो, पीछे शब्द-दान।

मत्यों को अमरता का अभिबोध, सबका सद्भाव-सूत्र में बँधना, जनहितकारी भावों का उदय और अभावों का अतीत होना क्या स्वाधीनता का स्वर नहीं लगता। कवि इसीलिए पहले 'स्वर' और बाद में शब्द-दान की बात करता है।

कर्म का सर्वहित में होना, मनुष्यता का ही सम्मान है। कर्म की महत्ता को स्वीकार करते हुए कवि ने लिखा है

'कर्म कालातीत संस्कृति का सुरक्षक,
विश्व-तनु का प्राण होता है।
प्राण-वाद्यों की सुसंगत गीति-लय में
सृष्टि का सहगान होता है।

लेकिन अलग-अलग खानों में मनुष्य का बँटवारा कर्म को सृष्टि के सहगान में परिवर्तित होने से रोकता है। बाँटने वाले कारकों में, सम्भवतः सबसे बड़ा कारण उन्हें साम्प्रदायिकता लगती है इसीलिए 'कल्पदुहा' में जगह-जगह इस साम्प्रदायिकता और मानवीय विभाजन पर चिन्ता व्यक्त करते हुए चोट की गई है कवि मानता है कि 'मानवता' हिंसा से बड़ी है फिर वह आर्थिक हो, राजनीतिक या साम्प्रदायिक

कठिन हुई हिंसा को मानवता नापनी।
उघड़ गई बादल की चादर से चाँदनी।'

महादेवी वर्मा ने एक बार साम्प्रदायिकता पर विचार करते हुए कहा था-"सत्ता साम्प्रदायिकता की जननी है।" त्रिपाठी जी इसी सत्य को अपने ढंग से अभिव्यक्ति देते हैं

यह कैसा पागलपन! सोचा है क्या कभी
इनको लड़ाता जो देगा क्या साथ भी?
स्वार्थों की देख पड़ी सभी ओर छावनी,
नेता को भूमि पड़ी लोथों से पाटनी।'

धार्मिक दंगे और साम्प्रदायिकता से अनुप्राणित राजनीति त्रिपाठी जी को बार-बार आन्दोलित तथा आलोड़ित करती रही है। 'कल्पदुहा' की कई रचनाओं में इस संदर्भ में उनकी तड़प अभिव्यक्त हुई है।
मानवता विरोधी इस साम्प्रदायिकता पर वार करते हुए एक अन्य गीतिका में लिखा है

घोंसलों की चहक बन्द है,
बालकों की किलक बन्द है।
आज गोली चली है कहीं,
आज दंगा हुआ है कहीं!

बन रहे धर्म-नेता धनी, हिंस्र समुदाय के अग्रणी।
यह सुरक्षित खड़े हैं मगर व्यक्ति की जान पर आ बनी।
चाहते यह कि कुछ दिन अभी रक्त का फाग जारी रहे।
जो बचे, इस घड़ी की उन्हें, उम्र भर यादगारी रहे।

दूर तक आग ही आग है।
आज गोली चली है कहीं,
आज दंगा हुआ है कहीं।'

साम्प्रदायिकता की चर्चा करते हुए डॉ. कृष्ण लाल 'हंस' ने अपनी कृति 'प्रगतिवादी काव्य साहित्य' में लिखा है- भारत के वर्ण-भेद, जाति-भेद और धर्म-भेद से अंग्रेजी शासन ने सदैव ही अनुचित लाभ उठाने का प्रयत्न किया। यह साम्प्रदायिकता की प्रवृत्ति हमारी राष्ट्रीय एकता के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा आज भी बनी हुई है।" 'कल्पदुहा' की कई रचनाओं में त्रिपाठी जी ने इस पर अपनी रचनात्मक चिन्ता व्यक्त की है। वर्ण तथा जाति भेद पर त्रिपाठी जी ने लिखा है कि भले ही कोई अपने को उच्च या वैभवशाली तथा सर्वशक्तिमान समझने का भ्रम पाले, लेकिन तथाकथित छोटों की कार्य-कुशलता उसकी सम्पन्नता और बड़प्पन का आधार ही नहीं, उसकी दैनन्दिनी के वे अपरिहार्य सहायक हैं।

नापित का आश्रय दशकर्म-समापन तक,
भंगी के आश्रय में हम सबकी काया।
चर्मकार के आश्रय में पनही-प्रेमी
कुम्भकार-आश्रय में जल-जीवी काया।
भले मनुज वैभव में छोटों को भूले,
निर्वाहित छोटों से विभव-पराभव है।

वर्ण-भेद तथा कर्म-भेद के बावजूद सब एक धागे में गुथे हुए है और सब के प्रति समभाव हीसामाजिकता को गति देता है क्योंकि बनाने वाले ने भी सबमें अभेद की स्थिति को ही स्वीकृति दी है।

धाता सबको पास बिठा दुलराता है।
उसे सुखी से अधिक दुखी जन भाता है।
करता वंचित वह न किसी को सत्ता से,
जन को छोटा-बड़ा-भेद खा जाता है
  मंच बना सकना धाता के स्वागत को,
  दोनों की सहमति के बिना असम्भव है।

साम्राज्यवाद की बढ़ती प्रवृत्ति युद्ध को जन्म देती है। एक देश दूसरे देश से टकराता है। विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों की लपट में असंख्य जनों की आहुति चढ़ाई जाती है और सम्पूर्ण वसुधा को ही एक कुटुम्ब मानने की उदात्त अवधारणा जन-बल के अनेक खण्डों-उपखण्डों में विभाजित होकर अपना मूलार्थ खो देती है। साम्राज्यवाद की इस मानव विरोधी युद्ध-लिप्सा का विरोध करते हुए त्रिपाठी जी ने लिखा है

'हो अरब या यहूदी कि कम्बोदियाई,
हो वियतकांग या हो वियतनाम भाई,
रक्त अमरीकनों का हो कि कोरियाई,
हो कम्यूनिस्ट, लाओशियन हो कि थाई,
हम गिराने न देंगे किसी देश में,
यह हमारा रुधिर है, हमारा रुधिर।

साम्राज्यवाद तथा युद्धों का विरोध हिन्दी की अनेक प्रगतिशील रचनाओं में मिलता है। वीरेन्द्र मिश्र के एक युद्ध विरोधी गीत की पंक्तियाँ हैं
कंधों पर धरे हुए
खूनी यूरेनियम
गाती है तम
युद्धों के मलबों से
उठते हैं प्रश्न और गिरते हैं हम।

त्रिपाठी जी इसी प्रकार की चिन्तना को आगे बढ़ाते हुए 'युद्ध होने न देंगे किसी देश में' की उद्घोषणा करते है क्योंकि वे मानते हैं कि

'सार्वभौमिक रुधिर, एकभौमिक नहीं है।
विश्ववंशी रुधिर आनुवंशिक नहीं है।

उनकी दृष्टि सही अर्थों में विश्व-बिरादरी की भावना में डूबी हुई है इसीलिए इन पंक्तियों में 'विश्ववंशी रुधिर आनुवंशिक नहीं है-कहकर निजत्व ही नहीं, कई सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं।

हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने संघर्ष करते हुए एक सपना देखा था कि विदेशी दासता से मुक्ति के बाद यहाँ की शासन व्यवस्था अपने लोगों के पास होगी, वह एक ऐसा सुशासन होगा जो वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म के विभाजनकारी तत्वों से मुक्त एक समाजवादी समाज की स्थापना हो सकेगी जिसमें न कोई राजा होगा और न कोई प्रजा वरन् शासन में सबकी बराबर की हिस्सेदारी होगी। सामन्ती अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाएंगे। लेकिन सन् 1952 से धीरे-धीरे स्वदेशी शासकों के प्रति लोगों का मोहभंग होने लगा एक-एक कर सपने टूटने लगे। नए शासकों की काया में पुरानों के प्रेत प्रवेश कर गए। उनका पुरानी राजसी ठाट-बाट लौट आया और आम जन तथा सत्ता-पुरुषों के बीच निरन्तर दूरी बढ़ती गई। वॉयसराय राष्ट्रपति हो गए, मंत्री नए सामन्त । स्वाभाविक है कि इस बदलाव से त्रिपाठी जी का संवेदनशील मन आहत होकर कह उठा

राज्य के महोत्सव सब राजसी रहेंगे
और जन अभावों की यातना सहेंगे ।
राज्य के अतिथियों की राजसी सवारी
देख-देख भूखे ही रात काट देंगे।
आतों को जाड़े का शीत जकड़ लेगा।
क्रन्दित शिशु आँखों की नींद चुरा लेंगे।

इसी को और अधिक विस्तार देते हुए उन्होंने आगे लिखा है -
नित्य राजनैतिक दल फूकेंगे जन-धन।
ठाट से सभाओं के होंगे आयोजन ।
विपुल धन चुनावों में दुरुपयुक्त होगा।
नव नेता आएंगे करने को शोषण।
जगमग द्युति-सज्जा से कहीं भवन होंगे,
औषध के बिना कहीं आदमी मरेंगे।'

इन पंक्तियों को पढ़ते हुए किसी के भी मन में आज का जीवन्त परिदृश्य घूम जाएगा। ये पंक्तियाँ 1970 में लिखी गई है लेकिन इनका सत्य तीस वर्षों बाद सन् 2000 में भी जस का तस है, वरन् काफी कुछ अर्थों में और भी अधिक विकृतिजन्य। वर्तमान की शाश्वतता, जिसकी चर्चा पहले की गई है, क्या इन पंक्तियों से सहज सिद्ध नहीं हो जाती। कवि का विश्वास तो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः !।' वाली वैश्विकता में है। वह चाहता है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच की विभाजक रेखाएं समाप्त हों, सब-सबक सुख-दुःख के सहभागी बनें क्योंकि यह विश्व किसी एक का नहीं सबका है

दूर किसी कोने में विश्व के
विग्रह का स्वर न सुना जा सके।
सार्वभौम जनता के कष्ट को
जन-जन मन-प्राण से बँटा सके।
व्यक्ति-सुख समष्टि का विकास है।
सबका यह विश्व एक का नहीं।

समाज में आर्थिक रूप से इतना वैषम्य है कि कुछ अरबपति हैं तो चालीस प्रतिशत के आसपास लोग गरीबी रेखा से नीचे के स्तर पर जीवनयापन कर रहे हैं । सत्ता व्यक्ति तथा समाज विमुख है इस असमान बँटवारे के कारण।

पड़े कहीं रीते जन-भवनों में ताले।
सौंधों में कहीं चार जन रहने वाले।
विस्तृत भू-खण्डों का कहीं एक स्वामी।
खेती को कहीं एक बीघे के लाले।
व्यक्ति विमुख सत्ता है कल्मष की पुतली।
कौन समझ सकता है उसे दूध-धोयी?"

इस असमान आर्थिक विभाजन से ही सर्वहारा के बीच से क्रान्तिकारी शक्तियाँ जन्म लेती हैं और इसे समाप्त या आधिकाधिक कम करने के बाद ही शान्त होती हैं-

क्रान्ति सर्वहारा की शान्त तभी रहती,
जब उसकी माँगों की शान्ति से निबहती।

वसुधा की निधियों को जो न बँटा पाती
रहती वह नीति सदा रक्त में डुबोयी।'

जब तक यह पूँजी का असमान विभाजन है, सत्ता के दमन के बावजूद शोषित-पीड़ित जन क्रान्तिधर्मी पथ का वरण करते रहेंगे। यदि स्वविवेक और परस्पर सहकार से सम बंटवारा सम्भव नहीं होगा, समाज में शान्ति-सहयोग और भाईचारे की नींव मजबूत नहीं होगी। दमन किसी भी प्रकार का हो अन्ततः वह संघर्ष को ही जन्म देता है

'त्याग जागेगा न यदि मनुहार से,
तो जगाया जाएगा तलवार से ।
घन बरसता जो न निज जल-भार से,
वह बरसता बिजलियों की मार से ।
है अपेक्षा से अधिक जो सम्पदा,
व्यर्थ-संग्रह-वश वही है आपदा।
छीन लेंगे जीव जीने के लिए,
क्योंकि जीना भाग्य में सबके बदा।

'कल्पदुहा' में केवल सामाजिक, राजनैतिक चिन्तनपरक रचनाएं ही नहीं हैं, इनमें प्रकृति के मनोरम छवि-चित्र भी हैं और मानवीय राग-बोध से जुड़ी रचनाएं भी। इस संदर्भ में प्रकृति का एक छवि चित्र है

हिमगिरि के कन्धों पर झूलती हिमानी
निरख रही यौवन-सम्भार।
उलट-पलट हिमनद की आरसी निरखती
अपना मद-दाता श्रंगार

उत्तर मध्यकालीन हिन्दी कविता में ऐसी अनेक रचनाएं पढ़ने को मिलती है जिसमें परस्पर गहरे राग-बोध के फलस्वरूप कभी नायिका नायक को रिझाने के लिए कभी स्वयं सजती-संवरती है और कभी नायक स्वयं अपनी प्रिया का श्रृंगार करता है। प्रस्तुत अंश में यह दूसरा पक्ष शब्दांकित हुआ है।

पहनाया सूरज ने स्वर्णिम परिधान,
द्रवित कर हिमानी का रूपस अभिमान।
आलिङ्गित ऊष्मा से वाहित सित देह
और किसी लोक को सिधारी अम्लान।
दबे हुए पौधों के हिमकण को धोती,
उमड़ चली वसुधा के पार।

पंत ने लिखा है ---
'कहाँ बता हे बाल विहाँगिनि
सीखा तूने यह गाना।'

त्रिपाठी जी अपने बाल-खग से कोई प्रश्न, कुतूहल व्यक्त नहीं करते। वे भली प्रकार जानते हैं 'पक्षी में गाने का गुन' है।

बाल खग, तुम इस विजन बन के,
इस अंधेरे के उजाले हो।
गगन के इस  मूक मंडप में
तुम अकेले कण्ठ वाले हो।

त्रिपाठी जी का काव्य-स्वर किसी-किसी रचना में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के काव्य-स्वर को अपने में पिरोता दृष्टिगोचर होता है जब वे इस तरह अपनी अभिव्यक्ति को स्वर देते हैं

तुम जैसे कहो, कहूँ मैं।
तुम जैसे रखो, रहूँ मैं।
किन्तु रहे संग लगा आजीवन,
प्राण, स्वर तुम्हारा, मेरा चिन्तन।
पल भर को रुके न यह गायन-क्रम।

अथवा
"पास पहुँचू, न पहुँचू तुम्हारे,
किन्तु यों ही बुलाते रहो तुम।
दृष्टि-मन-प्राण की डोर मेरी
उँगलियों से नचाते रहो तुम।

त्रिपाठी जी 'कल्पदुहा' की एक रचना में अपनी सृजन-प्रक्रिया का भी बारीक संकेत देते हैं

'प्रक्षेपण शब्दों के काल के कुलिश-शर।
कम से कम शब्दों का सेवन ही सुखकर।
शब्द पूर्ण परिचय हो सूक्ष्म भावना का।
सूक्ष्म वस्त्रधारी हो सत्य का कलेवर।
शब्दों से दबा न दो रूप का निरूपण ।
रत्नों को रत्नों के काँटों पर तोलो।

अथवा
शब्द का अपव्यय है अहंभाव लाता।
सत्य भी असत्यों-सा वातुल बन जाता।
मर्म-व्यथा मौन के सहारे झिल जाती।
शब्द का मितव्यय है आत्म-बल-प्रदाता।'

'कल्पदुहा' की रचनाओं को पढ़ने-गुनने के बाद एक महत्वपूर्ण बात जो उभरकर आती है वह यह है कि तमाम वैषम्य, दारुणता के वावजूद रचनाकार के भीतर गहरा आशावाद झिलमिलाता दिखता है

जन को जन मोल ले सका नहीं।
बिक गया शरीर, सिर बिका नहीं
मानव तन आयु भर चला किया
  क्षत विक्षत पाँव भी थका नहीं।'

यहीं आशावाद, यही विश्वासभाव, मनुष्य की तमाम विषमताओं, अमानवीयताओं के विरुद्ध जय-यात्रा का संदल है। त्रिपाठी जी की रचनाओं के सुधी पाठकों को कल्पदुहा' की रचनाओं में एक नए आस्वाद का अनुभव होगा। आशा की जा सकती है कि उनकी पूर्व प्रकाशित कृतियों की तरह पाठक, गुणीजन इसे पाकर सन्तुष्ट होंगे। इतना ही नहीं, यह कृति त्रिपाठी जी के पूर्ण कवि व्यक्तित्व का परिचय करान में सहायक सिद्ध होगी।

कवि जहाँ अपने समय के समाज को सम्बोधित करता है वहीं आने वाली कवि पीढ़ियों के लिए भी कुछ सन्देश छोड़ जाता है। इस सन्दर्भ में इस संग्रह की एक पूरी रचना को उद्धृत करने का मोह संवरण ऐसा करने को उत्प्रेरित कर रहा है क्योंकि यह पूरी रचना कवि-कर्म अथवा कवि-धर्म को सम्बोधित है। यह सन्देश कवि को कलावीथियों, वातानुकूलित कक्षों तथा कॉफी हाउस की तथाकथित सम्भ्रान्तता की जड़ताग्रस्त होती सीमाओं से बाहर निकाल कर जन सम्बोधित करने और होने का कर्तव्यबोध जगाता है

"कविकर्मा, कमों का कलुष हरो।
ज्योतिष्पथ जीवन का प्रखर करो।
अधिकाधिक रसमय जन-गीतों की
ऊर्जित जय-यात्रा को मुखर करो।
                              मुखर करो।
मुखर करो आत्तों का मूक नाद ।
मुखर करो हिंसा के प्रति विषाद।
प्रखर करो संस्कृति का म्लान तेज।
प्रखर करो धूमिल जनतंत्रवाद।
                            प्रखर करो।
रूपों में संचारित स्वरस करो।
रंगों की जड़ता में रुधिर भरो।
                           रुधिर भरो।
नींव धरो अवबोधी कविता की।
बंजर है भाव-भू अकविता की।
करना रचनाओं से काम-गान,
अतिमांसल वृत्ति है रचयिता की।
विरह और विलपन की धरती में
जनवाची गीतों की शिला धरो।
                           शिला धरो।"

यह रचना जितनी स्वयं को सम्बोधित है उतनी ही अन्यों को भी। उत्तर-मध्यकालीन छायावादोत्तर काव्य के अनेक गीतों में यथार्थ के नाम पर देह-भोग का जो मनोविलास मिलता है त्रिपाठी जी की दृष्टि में वह मात्र काम-गान है। उसमें भावनायान की उदात्तता नहीं, मांसलता का कीच है। इसलिए वे देहजन्य विरह और विलपन की धरती में 'जनवाची' गीतों की शिला रखना चाहते हैं। क्योंकि 'कामगान' से नहीं, जनबोधी गीतों से ही मूकों का आर्त्तनाद मुखर होगा। वे संस्कृति के म्लान तेज को इसलिए पुनःप्रखर करने की बात करते हैं क्योंकि उसी से जनतंत्रवाद की धूमिलता नष्ट होगी।
      त्रिपाठी जी के सम्पूर्ण लेखन की केन्द्रीय चेतना है यही चिन्तन जो उन्हें अपने ही समानधर्मा कुछ लोगों से जोड़ता है तो अनेक स्वनामधन्यों से उन्हें अलग ले जाकर खड़ा करता है। जहाँ वे अधिकाधिक प्रखर-मानवतावादी ही नहीं -मशाल की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं।
      मुझे विश्वास है कि 'कल्पदुहा' का स्वागत हिन्दी जगत् में ऐसी बयार की तरह होगा जिसके ठहर जाने से गहरी उमस भरा वातावरण घुटन पैदा करने लगा था। 'कल्पदुहा' की रचनाओं को में आत्तपीड़़ित जनों का प्रार्थना गीत कहना पसन्द करूँगा।





✍️ माहेश्वर तिवारी, 'हरसिंगार', बी/1-48,
नवीन नगर, मुरादाबाद 244001

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दुर्गादत्त त्रिपाठी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तंभ के तहत 12 व 13 फरवरी 2021 को दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन


          मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार स्मृतिशेष दुर्गादत्त त्रिपाठी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 12 व 13 फरवरी 2021
को  दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन किया गया। कार्यक्रम में उनकी रचनाएं, चित्र तथा उनसे सम्बंधित सामग्री प्रस्तुत की गई। इन पर चर्चा के दौरान साहित्यकारों ने कहा कि दुर्गादत्त त्रिपाठी का सम्पूर्ण साहित्य मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत है। उन्होंने सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं तथा आम जन की पीड़ाओं को सजग दृष्टि से देखा और अपनी समस्त कृतियों में उसका सफलता पूर्वक निरूपण किया । 

मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ के अंतर्गत आयोजित इस कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए संयोजक डॉ मनोज रस्तोगी  ने कहा कि दुर्गादत्त त्रिपाठी ने साहित्य सृजन के साथ साथ  हिन्दी की 'मतवाला', महारथी और अंग्रेजी की 'मॉर्डन रिव्यू' जैसी स्तरीय पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। उनकी प्रकाशित कृतियों में गाँधी संवत्सर (महाकाव्य) शकुन्तला (खण्ड काव्य), तीर्थ शिला (काव्य संग्रह), अमर सत्य (उपन्यास) तथा मंटो मिला था (उपन्यास), स्वर्ग( महाकाव्य), सन्धि और विच्छेद(खण्ड काव्य),निर्बलता का शाप ( महाकाव्य) , कल्पदुहा ( काव्य) उल्लेखनीय हैं। उन्होंने त्रिपाठी जी की अनेक रचनाएं भी प्रस्तुत कीं।  

दुर्गादत्त त्रिपाठी के पुत्र अनुकाम त्रिपाठी ने कहा विलक्षण व्यक्तित्व के धनी और विपुल साहित्य के प्रणेता महाकवि दुर्गादत्त त्रिपाठी का सम्पूर्ण जीवन उत्कृष्ट साहित्य साधना का इतिहास रहा है । उनका चिंतन समग्र विश्व के कल्याण का चिंतन था। वह ऐसे विश्व समाज की बात करते थे जिसमें वर्ग विद्वेष का कोई स्थान न हो ।    

प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने कहा त्रिपाठी जी हमारी साहित्यिक विरासत के वह स्तंभ हैं जो साहित्य की मूल आत्मा ,मानवीय मूल्यों को अपने लेखन में गूँथते चले जाते हैं।उन्होंने उदात्त चिंतन को अपने लेखन में  पिरोया साथ ही प्रगतिशील विचारों को भी अपने लेखन में स्थान दिया ।
      
प्रख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा त्रिपाठी जी साहित्य की एक सम्पूर्ण यात्रा हैं। वह मात्र रचनाकार नहीं थे बल्कि अपनी रचनाओं से वह युग प्रवर्तक आचार्य थे। उनकी रचनाओं में से काल नहीं अपितु कालजयी भावना जागती दिखाई देती है।वह देश के उल्लिखित बड़े कवियों की पंक्ति के कवि थे।

  चर्चित पत्रकार एवं साहित्यकार भोलाशंकर शर्मा ( दिल्ली) ने कहा कि  महाकवि त्रिपाठी जी की  कविताओं में भागवत-भाव प्रतिबिम्बित होता है। उनके कवि ने "वसुधा को ही परिवार माना है।
उनका साहित्य समयगत सच्चाइयों को पूरी बेबाकी से उजागर करता है ।
    
श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि उनकी रचनाओं में सामाजिक विषमता का चित्रण है, आध्यात्मिक चिंतन है, राजनीति के दमनकारी व्यवहार और निरीह जनता की लाचारी का चित्रण भी है। वह सत्ता पाने के लिये हिंसा का सहारा लेने वाली राजनीति को भी चेतावनी देते दिखाई देते हैं । समाज में सफल और समर्थ वर्ग की अर्थपिपासा, संवेदन शून्यता,  परिवारों का विघटन, इन सभी परिस्थितियों को अत्यंत मार्मिक तरीके से उन्होंने व्यक्त किया है।    
शिखा रस्तोगी ने कहा कि उनकी कहानियों में जीवन का यथार्थ चित्रित किया गया है । कहानी का हर पहलू जीवन के किसी न किसी छोर को छूता हुआ निकल जाता है और मन में समाज के प्रति एक ऐसी चुभन का आभास होता है जो सदैव मानव मन को प्रेरित करती है -- सद्वृत्तियों सी ओर, सद् विचारों की ओर ।     
कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि दुर्गादत्त त्रिपाठी जी ने गुणवत्ता पूर्ण विपुल साहित्य रचने के बावजूद स्वयं को प्रायोजित मूल्याकंन से आजीवन दूर रखकर नवपीढ़ी के लिए एक आदर्श स्थापित किया है।उनका साहित्य मानवीय मूल्यों,विश्वबन्धुत्व की भावना और उत्कृष्ट विचारों से परिपूर्ण है। उनका अतुलनीय लेखन व्यक्ति की इकाई को समुन्नत बनाने की क्षमता रखता है।  
साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि मुरादाबाद ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर के बड़े साहित्यकार थे दुर्गादत्त त्रिपाठी जी। कीर्तिशेष राजेन्द्र मोहन शर्मा श्रृंग जी की संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से सन 2006 को दिव्य सरस्वती इंटर कॉलेज, लाईनपार में "दुर्गादत्त त्रिपाठी जन्मशती समारोह" का भव्य आयोजन किया गया था । इस कार्यक्रम में कीर्तिशेष गीतकवि शचींद्र भटनागर जी को पहला "दुर्गादत्त त्रिपाठी स्मृति साहित्य साधक सम्मान" से सम्मानित भी किया गया।
       
फ़रहत अली ख़ान ने कहा कि महा-काव्य और खंड-काव्य जैसी कम-याब विधाओं में रची गयी अहम कृतियाँ, ढेरों गीत-कविताओं की किताबें, कई नॉवेल्ज़, कई कहानी-संग्रह, कई मैगज़ीन्स की एडिटिंग, ये बड़ा अदबी सरमाया है और इस पर ख़ुद को छपवाने, अवार्ड पाने की ख़्वाहिश न रखना फ़क़ीर-मिज़ाजी की निशानी है।
 वरिष्ठ साहित्यकार आमोद कुमार (दिल्ली) ने कहा कि  हिन्दी साहित्य के गौरव व मुरादाबाद के सिरमौर स्मृति शेष  दुर्गा दत्त त्रिपाठी का साहित्य सृजन जयशंकर प्रसाद के समकक्ष है। 
साहित्यकार अशोक विश्नोई ने कहा कि महाकवि स्मृति शेष दुर्गादत्त त्रिपाठी जी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे जितना साहित्य उन्होंने रचा उस हिसाब से उन्हें हिंदी साहित्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान नहीं मिल पाया।
दुष्यन्त बाबा ने कहा कि दुर्गादत्त त्रिपाठी ने हिंदी साहित्य जगत में मुरादाबाद का प्रतिनिधित्व कर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित की है । 

राजीव प्रखर  ने कहा कि उनके साहित्य में लोक सँस्कृति की गूंज है। उन्होंने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर वृत्तचित्र के निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया।  
महानगर की कवयित्रीमीनाक्षी ठाकुर ने आयोजन  की सराहना करते  हुए कहा उनका सम्पूर्ण साहित्य एवं रचनाएं नवोदित रचनाकारों का मार्ग दर्शन करती हैं। 

अशोक विद्रोही ने कहा कि दुर्गादत्त त्रिपाठी  का लेखन निम्न वर्ग के समाज के लोगों के लिए अत्यंत संवेदनशील एवं प्रेरणादायी रहा है ।  

रामपुर के साहित्यकार रामकिशोर वर्मा ने कहा कि स्मृतिशेष दुर्गादत्त त्रिपाठी का अनुकरणीय जीवन परिचय है। जीवन के उतार-चढ़ाव से समायोजन करते हुए स्वयं की योग्यता से हिन्दी के प्रति वह समर्पित रहे ।
     
अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा ने कहा कि साहित्यिक मुरादाबाद के माध्यम से स्वनामधन्य श्री दुर्गादत्त  त्रिपाठी जी का साहित्य अवलोकन  करके  मुरादाबाद की साहित्यिक विरासत से हम सभी को परिचित होने का अवसर मिला
 ।इसके लिए  बहुत बहुत बधाई।
 
रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कि स्मृति शेष पूज्य श्री दुर्गा दत्त त्रिपाठी जी के बहुमुखी व्यक्तित्व तथा रचना धर्मिता पर केंद्रित  चर्चा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जब तक किसी रचना का बार-बार पाठ नहीं होता वह विस्मृत हो जाती है।1979 से अब तक एक लंबा समय बीत चुका है । अतः दुर्गा दत्त त्रिपाठी जी की रचनाओं को नए सिरे से पढ़कर ही हम उनसे परिचित हो पाएंगे । उपन्यास, कहानी, कविताएं आदि विविध विधाओं में लेखन कार्य करना सरल नहीं होता। ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व को मेरा शत-शत प्रणाम ।
 
कवयित्री इंदिरा रानी ने कहा कि महान साहित्यकार कीर्ति शेष श्रद्धेय दुर्गा दत्त त्रिपाठी जी से हमारे पारिवारिक सम्बंध रहे. हमारे पूज्य पिताजी के साथ वह रेल विभाग में गार्ड थे. अनेकानेक साहित्यिक एवं कलात्मक आयोजनों में हम सबकी सहभागिता रही. कालांतर में श्रद्धेय महेंद्र प्रताप जी के निवास पर 'अंतरा' में नियमित काव्य गोष्ठियों में मिलना होता रहा. यह हमारा सौभाग्य था कि उनको प्रत्यक्ष सुनने का अवसर मिला. उनकी उच्च स्तरीय रचना धर्मिता के सभी प्रशंसक रहे. हमारे विवाह के बाद उन्होंने बहुत स्नेह के साथ हमें आपने घर निमंत्रित किया था. उनका और पूजनीया शकुंतला जी का असीम वात्सल्य हमें मिला.


नोएडा की साहित्यकार सपना सक्सेना दत्ता ने साहित्यिक मुरादाबाद द्वारा किये गए इस दो दिवसीय आयोजन की सराहना की 

 

महानगर के संगीतज्ञ एवं साहित्यकार आदर्श भटनागर ने भी चर्चा में प्रतिभाग करते हुए इस प्रकार के आयोजनों की आवश्यकता पर बल देते हुुए कहा कि इससे हमें अपनी विरासत का ज्ञान होता है ।

:::::::::: प्रस्तुति ::::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

 
    
    

सोमवार, 30 मार्च 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दुर्गादत्त त्रिपाठी के तेरह गीत --- ये गीत उनके काव्य संग्रह तीर्थ शिला से लिए गए हैं । इस संग्रह का प्रकाशन कवि श्री दुर्गादत्त त्रिपाठी नागरिक अभिनंदन समिति मुरादाबाद द्वारा लगभग 48 साल पूर्व मई 1972 में किया गया था । इस संग्रह में श्री दुर्गादत्त त्रिपाठी जी के 67 गीत संग्रहीत हैं ।अभिनंदन समिति के अध्यक्ष गिरधर दास पोरवाल थे ।




















   :::::::::::::::प्रस्तुति::::: ::::::::
   डॉ मनोज रस्तोगी
    8, जीलाल स्ट्रीट
     मुरादाबाद 244001
      उत्तर प्रदेश, भारत
      मोबाइल फोन नंबर 9456687822

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दुर्गा दत्त त्रिपाठी पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख



 हिन्दी के प्रख्यात कवि, कहानीकार, पत्रकार और लेखक दुर्गादत्त त्रिपाठी का जन्म 19 मई 1906 को बरेली में हुआ था । उनके पूर्वज मूलतः अल्मोड़ा जिले के चौसर के निवासी थे । किन्तु कालान्तर में वे मुरादाबाद जनपद के चंदौसी नगर में आ गये । आपके पिता श्री गोविन्द दत्त त्रिपाठी रेल कर्मचारी थे । आपके पितामह श्री गोपाल दत्त त्रिपाठी अध्यापक थे, उन्नति करते- करते इंस्पैक्टर ऑफ स्कूल्स हो गये । वह भी एक अच्छे कवि थे । उनके नाना श्री हरदेव पंत आगरा के महाराजा के राजगुरू थे ।

    आपकी प्रारम्भिक शिक्षा काशी में हुई । सैन्ट्रल स्कूल काशी से एडमीशन परीक्षा कक्षा 10 उत्तीर्ण की । उनके पश्चात् रामजस इंटर कालेज, तथा रामजस कालेज आनन्द पर्वत दिल्ली से इंटरमीडिएट तथा बीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर महात्मा गाँधी की 'पढ़ना छोड़ो' आज्ञा पर पढ़ाई छोड़कर कांग्रेस के स्वयं सेवक बन गये ।

      इसी दौरान वह फिल्मों में काम करने के विचार से द्वितीय महायुद्ध के समय कलकत्ता चले गये और वहाँ कुछ समय तक रहे । वहाँ उनकी भेंट जाने-माने फिल्म निर्देशक श्री देवकी कुमार बोस से हुई । वे त्रिपाठी जी की योग्यता से बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने त्रिपाठी जी को अपने यहाँ हिन्दी उच्चारण विभाग में सहयोगी के रूप में सवेतन काम दिया और फिल्म 'रामानुज में सवेतन भूमिका भी दी । कलकत्ता में रहते हुए उन्होंने हिन्दी की 'मतवाला' और अंग्रेजी की 'मॉर्डन रिव्यू' जैसी स्तरीय पत्रिकाओं का संपादन भी किया । कलकत्ता प्रवास के दौरान ही उनके पिता श्री का देहान्त हो गया । इस प्रकार अपने पिताश्री की दिवंगति से त्रिपाठी जी पर अकस्मात् अपने परिवार का भार आ पड़ा । उघर द्वितीय महायुद्ध अपने पूरे जोरों पर था । लेखकों पर ब्रिटिश सरकार भाँति-भांति के अत्याचार कर रही थी । पुलिस आये दिन उनकी तलशियाँ लेती और उनकी पाण्डुलिपियाँ उठाकर ले जाती । उन सब प्रतिकूल परिस्थितियों को देखते हुए वे विवश कर मुरादाबाद लौट आये। कलकत्ता से वापस आने के उपरान्त उन्होंने दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अपने समय के प्रसिद्ध हिन्दी मासिक महारथी में सहायक सम्पादक पद पर लगभग 3 वर्ष तक कुशलता पूर्वक कार्य किया । 

   आजीविका की दृष्टि से सम्पादन कार्य में त्रिपाठी जी ने यह अनुमव किया कि उससे उनकी और उनके परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं हो सकेगी इस स्थिति में उन्होंने अपने पिताश्री की भांति रेल विभाग में ही नौकरी की । वे वहाँ गार्ड के रूप में सन 1961 तक सेवारत रहे ।

    हिन्दी साहित्य के प्रति उनकी रुचि विद्यार्थी जीवन से जागरूक हो चुकी थी। काशी में शिक्षा प्राप्ति के दौरान अध्यापक के रूप में हास्य रस के सुविख्यात कवि कृष्णदेव गौड़,बेढब बनारसी और ब्रज भाषा के सुकवि श्री भगवान दीन 'दीन' का उन्हें स्नेह प्राप्त हुआ । पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र, विनोद शंकर व्यास, लक्ष्मीनारायण मिश्र, कमलापति त्रिपाठी उनके सहपाठी तथा मित्र रहे थे । काशी में ही श्री जयशंकर प्रसाद, श्री रामनाथ 'सुमन' ,पंडित जनार्दन झा द्विज, पंडित शिवपूजन सहाय, शिवदास गुप्त 'कुसुम', आदि स्थापित साहित्यकारों की महत्वपूर्ण संगति में रहे । इसके अतिरिक्त उन्हें पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला', पं. सुमित्रानंदन पंत, श्री भवानी प्रसाद मिश्र, पं. अनूप शर्मा 'अनूप, श्री अमृत लाल नागर, डॉ. इलाचन्द्र जोशी, आचार्य चतुरसेन शास्त्री आदि साहित्य - महारथियों का भी सान्निध्य प्राप्त हुआ था । 'महारथी' पत्रिका में कार्य करते हुए वह हिन्दी के महान कथाकार जैनेन्द्र कुमार तथा भगवती प्रसाद वाजपेयी के सम्पर्क में आये । इन समस्त साहित्यकारों के सनिध्य का प्रभाव उनकी लेखन एवं रचनात्मक शैली पर पड़ा । उन्होंने न केवल काव्य विधा में लेखन किया अपितु वह एक सिद्धहस्त कहानीकार उपन्यासकार एवं निबन्धकार भी थे । उनकी प्रकाशित कृतियों में गाँधी संवत्सर (महाकाव्य) शकुन्तला (खण्ड काव्य), तीर्थ शिला (काव्य संग्रह), अमर सत्य (उपन्यास) तथा मंटो मिला था (उपन्यास), स्वर्ग( महाकाव्य), सन्धि और विच्छेद(खण्ड काव्य),निर्बलता का शाप ( महाकाव्य) , कल्पदुहा ( काव्य) उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपने  शंकराचार्य, आरोहा, आसव, अनुजा,  सौम्या, कृतम्भरा, भूयसी, श्रेयम्वदा,  मधुलिपि, पत्रांक, रक्त ग्रन्थि, वृन्दा, मामिका, यज्ञशेप, कलापी, प्रेयति, सघस्का,त्वदीया,उर्वरा, वेशिका, छन्दा, कदित्सा,कन्था, गतिका, स्वरन्यास, प्रत्यय, प्रकाम, उपनाह, गेया, शरण्या, प्रत्यक्ष, मुहूर्त, युगीन, निबन्ध गीत, गीतिका, वेणुजा, निशार्क, प्रेयम्वदा, परिचित और प्रशस्तियाँ, अनुश्रतियाँ ( सभी काव्य ), उत्तरदायी,जहां बंटवारा नहीं होता, बर्लिन की रक्तरेख (सभी उपन्यास) क्रमगत, विश्वास का लक्ष्य, जीने का सहारा, उतरा हुआ मद, अन्तरे अनेक टेक एक( सभी कहानी संग्रह) कृतियों की भी रचना की । इनमें से अधिकांश अप्रकाशित हैं ।

     श्री त्रिपाठी जी की दिल्ली और उत्तर प्रदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी एवं कविता प्रायः प्रकाशित होती रही है । मुरादाबाद से प्रकाशित 'अरुण' और 'प्रदीप'  से आपका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। आपका निधन 30 जनवरी 1979 को हुआ।


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822