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रविवार, 14 अगस्त 2022

वाट्स एप पर संचालित समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब की ओर से शनिवार 13 अगस्त 2022 आॅनलाइन अमृत काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने की। मुख्य अतिथि डॉ पूनम बंसल और विशिष्ट अतिथि योगेन्द्र वर्मा व्योम रहे। संचालन ज़िया ज़मीर ने किया। प्रस्तुत हैं गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों की रचनाएं.......




 चलता जा निर्द्वंद्व बटोही मंज़िल हो कितनी ही दूर

पथ जाना हो या अनजाना
लेकिन कभी नहीं घबराना
पहले मंज़िल को पा जाना
फिर चाहे जी-भर सुस्ताना
चढ़कर अँधियारों के रथ में
रातें भी आयेंगी पथ में
दुर्गमताओं के आगे पर झुकना मत होकर मजबूर
   
सूरज बरसाये अंगारे
या वर्षा तुझको ललकारे
क्षणभर को भी मत रुक जाना
कोई कितना तुझे पुकारे
आशाओं को देकर न्योता
विपदा से करना समझौता
तुझे सफलता की दुलहन के मांँग लगाना है सिंदूर

आँधी की परवाह न करना
तूफ़ानों से तनिक न डरना
ख़ुद ही अपनी राह बनाना
लक्ष्य न मिल पाएगा वरना
रिसते छालों का दुख सहना
घायल पैरों से यह कहना
मिलते ही गंतव्य थकन सब हो जाएगी ख़ुद काफ़ूर

✍️  डा. कृष्णकुमार 'नाज़'
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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तिरंगा जान है अपनी,तिरंगा शान है अपनी।
गगन से कर रहा बातें,यही पहचान है अपनी।
इसी के शौर्य की गाथा,महकती है फिज़ाओं में।
सजी इन तीन रंगों में,मधुर मुस्कान है अपनी।।

नज़र मां भारती की ये ,लहू देकर उतारी है।
यही जननी भगत सिंह की,विजय श्री से संवारी  है।
शहीदों ने दिलाई है,अमर अनमोल आज़ादी।
तिलक माटी बनी चंदन,धरा पावन हमारी है।।

वीरों के बलि दान से ,देश हुआ आज़ाद।
उनको करते हम नमन,लिए सुगंधित याद।।

नील गगन लहरा रहा,लिए शौर्य पहचान।
देख तिरंगा है बना,भारत का अभी मान।।

हरित धरा है गा रही,आज़ादी के गीत।
प्राची की किरणें सजीं,सिंदूरी है प्रीत।।

सकल जगत में गूंजती,भारत की आवाज़।
देश प्रेम के गीत हों,मानवता का साज़।।

गंगा की धारा कहे,अनुपम अपना देश।
कर्मों को समझा रहे,गीता के उपदेश।।

✍️ डॉ पूनम बंसल
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत

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हिंसा भ्रष्टाचार द्वेष
आतंकवाद का तमस मिटायें
देशभक्ति के भाव जगायें,
आओ फिर से दिया जलायें

देशप्रेम ले चुका विदा अब,
नहीं दीखता है मानव में
बात देश की कौन करे
पनपे गुण जो होते दानव में
निजता से यह देश बड़ा है,
आओ बच्चों को सिखलायें

पहले थे भारतवासी
अब हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
दलित-सवर्णों में बँटकर फिर
कहाँ रहे हम भाई-भाई
चलो द्वेष के इस मरुथल में
देशप्रेम के सुमन खिलायें

जन्म लिया जिसने धरती पर
निश्चित है उसका तो मरना
शाश्वत है जब मृत्यु यहाँ पर,
फिर बोलो उससे क्या डरना
जब निश्चित है मरना तो फिर
चलो देश हित मर मिट जायें

सोने की चिड़िया कहलाता
देश आज बदहाल हुआ है
बाड़ खा गई स्वयं खेत को
इससे ही यह हाल हुआ है
आओ मिलकर फिर भारत को
पहले-सा सम्मान दिलायें

✍️ योगेन्द्र वर्मा व्योम
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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जन जन को प्राणों से प्यारा भारत देश हमारा है।
ये स्वतंत्रता का उत्सव भी ,  हर उत्सव से न्यारा है।
आजादी के इस उत्सव को हम प्रतिवर्ष मनाते हैं।
भारत माँ की शान तिरंगा, लगता हमको प्यारा है।

अधिकारों के लिए लड़ रहे, कर्तव्यों को मत भूलो
जात धर्म की राजनीति में, भारत माँ को मत भूलो
भारत तेरे टुकड़े हों ये, नारे आप लगाते हो
देश बचेगा तभी बचोगे, याद रखो ये मत भूलो

हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई, एकसूत्र में बँध जाएं
भारत माँ को देशद्रोहियों, के चंगुल से छुड़वाएं
घर के भीतर गद्दारों का, मिल जुल कर प्रतिकार करें
जन गण की पहचान तिरंगा, सदा शान से फहराएं

आओ इस अमृत उत्सव पर, गीत एकता के गाएं
राष्ट्र प्रेम की अलख जगाकर, देश राग फिर से गाएं
भारत माता का यश वैभव पुनः विश्व पर छा जाए
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण, रंग तिरंगे के छाएं।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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निराशा ओढ़ कर कोई, न वीरों को लजा देना।
नगाड़ा युद्ध का तुम भी, बढ़ाकर पग बजा देना।
तुम्हें सौगंध माटी की, अगर मैं काम आ जाऊॅं,
बिना रोए प्रिये मुझको, तिरंगों से सजा देना।
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लगा रही है आज भी, माटी यही पुकार।
खड़ी न होने दीजिये, नफ़रत की दीवार।।

आज़ादी हमको मिली, कड़े जतन के बाद।
पावन उत्सव प्रेम से, दिला रहा है याद।।

लिए गीत कुछ चल पड़े, बाॅंके वीर जवान।
हॅंसते-हॅंसते कर गये, प्राणों का बलिदान।।

प्यारे भारत को सदा, ऐसी मिले उमंग।
मन के भीतर भी खिलें, ध्वज के सारे रंग।।

पंछी दरबे में पड़ा, होकर बस हैरान।
भीतर से ही सुन रहा, आज़ादी का गान।।

आज़ादी के बाद हैं, हम इतने मुस्तैद।
बैर भाव-विद्वेष की, ज़ंजीरों में क़ैद।।

✍️  राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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सारी दुनिया को नई राहें तू दिखलाता रहे
तेरा परचम ता-क़यामत यूं ही लहराता रहे

तेरे माथे को हिमाला चूमना जारी रखे
चांद तुझको चांदनी दे, घूमना जारी रखे
तेरी सुब्हें लाए सूरज और मुस्काता रहे
तेरा परचम ता-क़यामत यूं ही लहराता रहे

तेरे बादल तेरी नदियों को रवां करते रहें
तेरे दरिया तेरे खेतों को जवां करते रहें
खेत हर इक अन्न की ख़ुशबू को बिखराता रहे
तेरा परचम ता-क़यामत यूं ही लहराता रहे

तेरी मिट्टी से हमेशा सोंधी सी आए महक
तेरे पेड़ों पर परिदों की रहे यूं ही चहक
तेरा हर इक पेड़ फल और फूल बरसाता रहे
तेरा परचम ता-क़यामत यूं ही लहराता रहे

राम पुरुषोत्तम रहें और कृष्ण गीता-सार हों
बुद्ध, नानक, चिश्ती तेरे प्रेम का आधार हों
फूल तेरे बाग़ को हर एक महकाता रहे
तेरा परचम ता-क़यामत यूं ही लहराता रहे

तेरे कालीदास, ग़ालिब, तेरी मीरा और कबीर
प्रेमचंद, टैगोर तेरी लेखनी के हैं अमीर
सूर, तुलसी, मीर को संसार यह गाता रहे
तेरा परचम ता-क़यामत यूं ही लहराता रहे

तेरी सुब्हें तेरी शामें यूं ही ताबिन्दा रहें
बांटने वाले तुझे ता-उम्र शर्मिन्दा रहें
छोड़ जो तुझको गए तू उनको याद आता रहे
तेरा परचम ता-क़यामत यूं ही लहराता रहे

✍️ ज़िया ज़मीर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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जय हिंद दोस्तो है ,अपना तो एक नारा,
ये देश है उसी का ,जो देश पर है वारा।

ग़म की अँधेरी बदली, छायेगी अब न फिर से,
पाया है जान देकर ,आज़ादी का नज़ारा

जीते हैं हम  वतन पर, मरते है हम वतन पर
भारत सदा रहेगा प्राणो से हमको प्यारा

दुश्मन खड़ा है हर सू, ललकारता है हमको
माँ भारती ने देखो ,हमको है फिर पुकारा

बाँधा कफन है सर से ,हमने वतन की खातिर,
देकर लहू  जिगर का,हमने इसे  सँवारा।

मरता है हिंद पर ही ,भारत का हर निवासी,
सदियो तलक रहेगा बस दौर ही हमारा।

है आरज़ू ये मेरी, तेरी ज़मी ही पाऊँ,
सातो जनम ही चाहे, आना पड़े दुबारा।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर,
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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तुम नींद चैन की सो जाना,
सीमा पर मैं हूँ जाग रहा।
तुम छांव तले बैठे रहना,
मैं जलते पथ पे भाग रहा।
    तुम लड़ो न छोटी बातों पर,
    मैं रोज मौत से लड़ता हूँ।
    तुम गिरो न मतलब की खातिर,
    मैं पल पल ऊँचा चढ़ता हूँ।
लू या बर्फीली हवा चले,
कदमों ने रुकना ना जाना।
भारत बसता है आँखों में,
कुछ और नहीं मुझको पाना।
   जश्न ए तिरंगा होगा तो,
   कुर्बानी मेरी गायेगी।
   हँसते हँसते मर जाऊँगा,
   जब बात देश की आयेगी।
मैं वीर सिपाही सीमा का,
मेरे दिल का अरमान सुनो।
झुक जाये न शीश तिरंगे का,
तुम देश का स्वाभिमान चुनो।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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अमृत की वर्षा झरे, स्वर्णिम हो उत्थान।
नित नित ही फूले फले, भारत देश महान।।

दसों दिशा गुंजित करे, जन गण मंगल गान।
जयति जयति मां भारती, जय जय हिंदुस्तान।।

आजादी को सींचता, वीरों का बलिदान।
शत शत वंदन आपको, कोटि कोटि सम्मान।।

शौर्य, शांति, समृद्धि की , गाथा रहा बखान
आज तिरंगी शान को, देखे सकल जहान

ऊपर अंबर केसरी, हरित खेत खलिहान
मध्य प्रेम सद्भाव की, पुरवाई वरदान

✍️ मोनिका "मासूम"
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उन्नत माँ का भाल करें जो उनका वंदन होता है,
बलिदानी संतानों का जग में अभिनंदन होता है,
माटी में मिलकर ख़ुशबू उस नील गगन तक छोड़ गए,
ऐसे वीरों की धरती का कण-कण चंदन होता है।

गोरी सेना को हुंकारों से दहलाने वाले थे,
दाग ग़ुलामी वाला अपने खूँ से धोने वाले थे,
उनको कौन डरा सकता था आज़ादी की ख़ातिर जो,
संगीनों के आगे अपनी छाती रखने वाले थे।

✍️ मयंक शर्मा
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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ये मेरे देश की मिट्टी, इसका कण-कण खुद कहानी है
इसी में पर्वत का राजा तो, इसी  में नदियों की रानी है
इसी में चर्चों की घण्टी तो, इसी में गुरुओं की बानी है
यही है आव-ए-जम-जम, तो  यही  गंगा  का पानी है

यह मेरे देश की  मिट्टी, मिट्टी  नही  ये चंदन है।
लगा मस्तक पे जो उतरे, उन वीरों को वंदन है।।

ये सीता की है जन्मभूमि, इसमें राम का बचपन है।
बंधुत्व का प्रेम भी इसमें, पितृभक्ति के भी दर्शन है ।।
यहाँ के राम ही हैं आदर्श, तो संस्कारों में रामायन है।
लगा मस्तक पे जो उतरे उन वीरों...

हुए यहाँ कर्ण से दानी, और अर्जुन  से  धुरंधर हैं।
यहाँ गीता की वाणी है, और कृष्ण भी निरन्तर हैं।।
गोकुल का रास भी इसमें, गोपियों का सुक्रंदन है।
लगा मस्तक पे जो उतरे उन वीरों...

बजी जब भी है रणभेदी, बनी पावस की ज्योति है।
रगों में उल्लास भर-भर के, निराशा पल में खोती है।।
है वीरों का लहु शामिल, तभी पावन तो कन-कन है।
लगा मस्तक पे जो उतरे उन वीरों...

तुम अपने रक्त से सींचो, सजाया वीरों ने उपवन है
क्योंकि आशा तुम्हीं से है तुम्हारे नाम ही ये कल है
बढ़ा दो मान सब जग में, यही हर बार अभिनंदन है
लगा मस्तक पे जो उतरे उन वीरों...

✍️ दुष्यन्त 'बाबा'
पुलिस लाइन
मुरादाबाद 244001
उत्तर  प्रदेश, भारत

रविवार, 13 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का नवगीत पर केंद्रित विस्तृत आलेख ----काल की सापेक्षता है नवगीत .....। यह आलेख उन्होंने वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब पर नवगीत पर विमर्श के दौरान प्रस्तुत किया था ।

 


हिंदी के वरेण्य व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने गीत सम्बन्धी अवस्थापना की व्याख्या करते हुए कुछ सूत्रों का हवाला दिया है ।मैंने उनकी स्थापना के मूल बिंदुओं की तलाश करने के लिए कुछ आधुनिक शब्दकोशों के पृष्ट पलटने पहले आरम्भ किये और पाया कि संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में गीत का अर्थ गाया हुआ और गीतायन का अर्थ, गीत का गायन दिया गया है यह काफी हद तक डॉ. मक्खन के निष्कर्ष की पुष्टि करता है लेकिन सामान्य रूप से गीत के व्यवहारिक स्तर पर जो अर्थ समझा जाता है गेयता अर्थात गीत वह है जो गेय हो। नालंदा अद्यतन कोश के संपादक पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार गीत वह है जो गाया जाय/गान। डॉ. फादर कामिल बुल्के ने अपने अंग्रेजी हिंदी कोश में एक तरह से गीत को अंग्रेजी के लिरिक का समानार्थक माना है और लिरिक की अर्थ स्थापना करते हुए लिखा हैं प्रगीतात्मक, गीतात्मक, गीत। चैम्बर्स अंग्रेजी हिंदी कोश के संपादक डॉ. सुरेश अवस्थी लिरिक की जगह लायर शब्द को उठाते हैं और अर्थ करते हैं गीत, गाना, गेयत्व ,गायन। इसी तरह पटल पर एक किसी टिप्पणीकार ने पाणिनि के माहेश्वर सूत्र और भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के दिये सूत्रों की चर्चा की है। पाणिनि और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की व्याख्याएं गीत के लिए नहीं संगीत के लिए हैं। लेकिन जब हम साहित्यिक गीत की चर्चा कर रहे हों तो पाणिनी, भरतमुनि की चर्चाएँ अप्रासंगिक लगती हैं।शब्दकोशीय अर्थ भी सिर्फ रास्ता सुझाते हैस ही आशय तक नहींपहुंचाते। 

      यह बात ध्यान देने की है कि गीत का उद्भव और विकास मानुस के जन्म के साथ नहीं हुआ बल्कि उसमें बोलने की शक्ति के विकास के साथ हुआ। यह अलग बात है कि संगीत सृष्टि के साथ हुआ। अतः यह अलग बात है कि प्रकृति में संगीत था। हवा गाती थी, झरने गाते थे, नदियां गाती थीं। पेड़ गाते रहे, पक्षी गाते रहे किन्तु वे सांगीतिक स्वरों का स्वरूप था और मूल में शब्दहीन थीं वे सांगीतिक अभिव्यक्तियाँ। 

         गीत सबसे पहले हमारे लोकजीवन, लोककंठों में मुखरित हुए और हर्ष विषाद, ऋतुएं उनकी अभिव्यक्ति के विषय रहे फिर श्रम गीत आये और धीरे धीरे जैसे जैसे समाज विकसित होता गया लोकगीतों का सीवान बड़ा होता गया और उसकी अभिव्यक्ति में त्योहार, धर्म, जाति आदि तमाम विषय समाते गये। लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि हिंदी भाषा के मानक स्वरूप में जिस गीत की चर्चा होती है उसे कला गीत की संज्ञा दी गयी है । 

      हिंदी मे गीत काव्य का प्रयोग सबसे पहले लोचन प्रसाद पाण्डे ने अपनी कृति कविता कुसुम माला के प्रथम संस्करण,(जनवरी-1909) की भूमिका में किया। वैसे प्राचीनतम प्रयोग हेमचंद, गीता गाममिमेसमे (अमरकोश) में मिलता है ।लेकिन हिंदी में लोचन प्रसाद पाण्डे की ही अवधारणा समीचीन लगती है। यह बात स्मरण रखने की जरूरत है कि लोचन प्रसाद पाण्डे और मुकुट धर पाण्डे को कुछ विद्वान छायावाद के प्रथम पुराष्कर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं जिसकी नींव द्विवेदी युग में ही पड़ गई थी ।राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के साकेत महाकाव्य के नवम सर्ग के गीत ,यशोधरा के कुछ गीत इसके प्रमाण हैं। 

          छायावाद काल को हिंदी गीतों का स्वर्णकाल कहा जाता है लेकिन इस स्वर्ण काल मे आम जन की जगह बहुत कम थी और बौद्धिक सामन्तों के वाग्विलास के लिए ज्यादा।कल्पना की अतिशयता और छाया की ओट से ऊबकर लोगों ने कविता को यथार्थ जीवन को निकट लाने की कोशिश के फलस्वरूप प्रगतिशील साहित्य में आती अतिशय सपाटता से छिटक कर कुछ लोगों ने जीवन यथार्थ की वकालत करते हुए स्वच्छंदतावादी उत्तरछायावादी काव्य की धारा शुरू की और हिंदी को कई विश्रुत गीतकवि दिए। लेकिन यहां भी अंतर्वस्तु में कामातुर रीतिकालीन भाव पूरी तरह कामातुर तो नहीं आया लेकिन श्रृंगारगीतों में देहभोग और कामातुर मुद्राओं की अभिव्यक्ति में बड़े बड़े नामधारी गीत कवि रस लेने लगे। यहाँ फिर गीतों को संस्कारित करने की आवश्यकता महसूस हुई। प्रेम वासना के कीचड़ में फंसा हिरण हो गया और नवगीत ने जन्म लिया। 

             जिस तरह गीत का हिंदी में प्रथम उल्लेख लोचन प्रसाद पाण्डे की कृति कविता कुसुम माला के प्रथम संस्करण की भूमिका में मिलता है उसी प्रकार नवगीत शब्द का प्रथम उल्लेख राजेन्द्र प्रसाद सिंह की संपादित कृति गीतांगीनि की भूमिका में मिलता है यद्यपि उसमें नवगीत के जो पाँच तत्व या प्रतिमानो का उल्लेख मिलता है वे स्वीकार्य नहीं हैं। नवगीत शब्द की प्रथम चर्चा का जिक्र डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने परिमल की इलाहाबाद की गोष्ठी में किया था ऐसा उल्लेख भी मिलता है। वीरेंद्र मिश्र का नाम भी इस संदर्भ में उल्लेख में आता है। एक अन्य वरिष्ठ गीतकार और विश्रुत साहित्यकार रहे हैं ठाकुर प्रसाद सिंह जिनकी चर्चा होती है। भइया उमाकांत मालवीय का नाम भी इस संदर्भ में याद आ रहा है। बहरहाल नवगीत के प्रथम पुरुष या पुरोहित कोई भी हों पहले जिन नामों का उल्लेख किया गया है वे सब नवगीत के उन्नयन तथा स्थापना के लिए उल्लेखनीय लोग हैं। डॉ .पी.एन. सिंह, डॉ. उमाशंकर तिवारी की चर्चा इस संदर्भ में करते हैं।सबकी मान्यताओं तथा दावों को भविष्य के शोधार्थियों के लिए छोड़ने के बाद नवगीत की पदचाप की आहट की बात करते हैं। नवगीत अपने निकट पूर्ववर्ती कुछ गीतकारों की रचनाओं में आई लिजलिजी भावुकता और कामातुर अभिव्यक्तियों और स्वाधीनता के कुछ ही समय उपजे मोहभंग से उपजा काव्यबोध है ।

           इस बात को आगे बढ़ाने से पहले  यह जान लेना भी जरूरी है कि आज़ादी से कुछ समय पूर्व से कुछ गीतकार क्या सोच और लिख रहे थे। 1953 में वीरेंद्र मिश्र के एक गीत की चर्चा जनसत्ता में हुई - दूर होती जा रही है कल्पना /पास आती जा रही है जिंदगी। 

15 जुलाई 1955 में उनका एक गीत है--

पीर मेरी कर रही गमगीन मुझको 

और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी 

और उससे भी अधिकहर पाँव की जंजीर रानी। 

इसी तरह की पीड़ा से जुड़ा हुआ बलवीर सिंह रंग का एक गीत है-

नगर नगर बढ़ रही अमीरी 

मेरा गाँव गरीब है 

अपना गाँव गरीब है 

सबका गाँव गरीब है।।

और अब आते हैं साठोत्तर पीढ़ी पर। सपनो के टूटने को लेकर शलभ श्रीराम सिंह ने लिखा -

बादल तो आये पानी बरसा गए 

लेकिन यह क्या हुआ

 खिले हुए धानों के 

मुखड़े मुरझा गए।

एक और दर्द मन में घुमड़ता रहा। ओम प्रभाकर के शब्दों में -

जैसे जैसे घर नियराया 

बाहर बापू बैठे दीखे 

लिये उम्र की बोझिल घड़ियाँ 

भीतर अम्माँ करे रसोई 

लेकिन जलतीं नहीं लकड़ियाँ

कैसा है यह दृश्य कटखना 

जो तन से मन तक गहराया 

लेकिन मोहभंग और हताशा का यह बोध नवगीत ने छिटककर अपने से दूर किया और लिखा गया-

पत्ते फिर हरे होंगे

कोयलें उदास मगर फिर वे गाएँगी 

नये नए पत्तो से राहें भर जायेंगी।

         ठाकुर प्रसाद सिंह - 

प्रेम के नाम पर पहले पड़ोस था 

उसकी जगह घर आ गया

छोड़ो बातें दुनिया भर की

आओ कुछ बात करें घर की 

         डॉ. शम्भू नाथ सिंह 

नवगीत में वैज्ञानिक बोध को भी अभिव्यक्ति मिली शम्भूनाथ सिंह जी का एक गीत है-

बादल को बाहों में भर लो 

एक और अनहोनी कर लो।।

नवगीत में सौंदर्य बोध के खूबसूरत बिम्ब हैं --

मुँह पर उजली धूप 

पीठ पर काली बदली है 

राम धनी की बहुरि 

नदी नहाकर निकली है।

        -कैलाश गौतम

इसी तरह एक बिम्ब है देवेन्द्र कुमार की कविता में - 

आगे आगे पछुआ , पीछे पुरवाई 

बादल दो बहनों के बीच एक भाई ।

नईम एक जगह लिखते हैं-

मेरा मन घेर गये मालवा के घाघरे 

तो दूसरी ओर उन्हें बुंदेलखंड के किसानों की याद आती है।

नवगीत अपने समय के आम आदमी की पीड़ा का गायक है उसे रामगिरि के शापित यक्ष की पीड़ा का भान है तो और भी बहुत कुछ याद आता है ---

चलो न्योत आयें अपने--

           तिथि-तीजो को त्योहारों को 

महानगर,कस्बों से लेकर-

                   सारे गाँव-जवारोंको ।

कोई  किसी को नहीं पूंछता 

सब अपने में डूबे हैं।

गति की सीमाएँ लांघते

अपने में ही डूबे हैं 

खैर खबर पूंछे उठकरके 

पीछे छोड़ आये जिनको हम 

चिट्ठी पत्री लिखें लिखाएँ।  

        ढाणी घर परिवारों को 

               -  नईम

और अंत मे एक गीतांश यश मालवीय के 'समय लकड़हारा' गीत से - 

छह जाती मौसम पर

साँवली उदासी

पाँव पटकती पत्थर पर 

पूरनमासी  

रात गये लगता है 

हर दिन बेचारा। 

और अंत में, कविता-गीत-नवगीत में अंतर पर प्रकाश डालते हुए मैं अपनी बात को विराम दे रहा हूँ। 

       कविता, गीत एवं नवगीत गुनगुनाने योग्य शब्द रचना को गीत कहने से नहीं रोका जा सकता। किसी एक ढांचे में रची गयीं समान पंक्तियों वाली कविता को किसी ताल में लयबद्ध करके गाया जा सकता हो, तो वह गीत की श्रेणी में आती है, किन्तु साहित्य के मर्मज्ञों ने गीत और कविता में अन्तर करने वाले कुछ सर्वमान्य मानक तय किये हैं। छन्दबद्ध कोई भी कविता गायी जा सकती है। पर, उसे गीत नहीं कहा जाता। गीत एक प्राचीन विधा है जिसका हिन्दी में व्यापक विकास छायावादी युग में हुआ। गीत में स्थाई और अन्तरे होते हैं। स्थाई और अन्तरों में स्पष्ट भिन्नता होनी चाहिये। प्राथमिक पंक्तियांँ जिन्हें स्थाई कहते हैं, प्रमुख होती है और हर अन्तरे से उनका स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई देना चाहिये। गीत में लय, गति और ताल होती है। इस तरह के गीत में गीतकार कुछ मौलिक नवीनता ले आये तो वह नवगीत कहलाने लगता है।

गीत एवं नवगीत में समानता-

नवगीत भी गीत की तरह दो हिस्सों में बँटा होता है-

१-‘स्थायी’/’मुखड़ा’/और अन्तरा ’टेक’/नवगीत में भी होते हैं।

गीत-नवगीत में अंतर-

    1- अंतरा/बंद- नवगीत के ‘स्थायी’ की पंक्तियों में ‘वर्ण’ या ‘मात्रा’ विधान का कोई बंधन नहीं होता, किन्तु इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि ‘स्थायी’ की या तो पहली पंक्ति या अंतिम पंक्ति के समान उत्तरदायित्व की पंक्ति ‘अन्तरे’ के अंत में अवश्य हो। यह गेयता के लिए अत्यावश्यक है। इस ‘स्थायी’ को दोहराते समय कथन में निरन्तरता और सामंजस्य तभी बनता है।  

2- नवगीत में अंतरा प्राय: दो या तीन ही होते हैं किन्तु चार से अधिक अन्तरे की मान्यता नहीं है।

3- नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता। नवगीत में संक्षिप्तता, मार्मिकता, सहजता एवं सरलता, बेधक शक्ति का समन्वय एवं सामयिकता का होना अति आवश्यक है।

4- नवगीत में देशज प्रचलित क्षेत्रीय बोली के शब्दों का प्रयोग मान्य है और इससे कथ्य में नयापन और हराभरापन आ जाता है। एक नवगीत में कई देशज शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। नवगीत पर संप्रेषणीयता का संकट आ सकता है।

5- नवगीत में नवगीतकार आम आदमी, मेहनत एवं मजदूर वर्ग या सरल भाषा में कहा जाये तो सार्वजनिक सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है।

6- नवगीत में नये प्रयोग को प्रधानता दी जाती है और लीक से हटकर कुछ कहने का प्रयास होता है। यदि आप किसी नये छंद का गठन करते हैं तो यह नवगीत की विशेषता समझी जाती है।

7- नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है और वह कम शब्दों में अधिक बात कहने की सामर्थ्य रखता है।

8- नई कविता में  पंत जी ने खुल गये छंद के बंद, प्रास के रजत पाश की घोषणा की लेकिन पूरी तरह छंद से मुक्ति की बात नहीं थी। छंदमुक्ति का अर्थ मुक्तछंद था छंदहीनता नहीं। नवगीत में छंद से मुक्ति की बात नहीं थी बल्कि कथ्य के दबाव में लय का ध्यान रखते हुए कभी कभी छंद के बंद को कुछ लचीला बनाया जा सकता है। 

नवगीत में भी गेयता भंग नहीं होनी चाहिए। अलंकार का प्रयोग मान्य तो है किन्तु वह कथ्य की सहज अभिव्क्ति में किसी तरह बाधक न हो। अलंकार का एक पैर आकाश में है तो दूसरा पैर जमीन की सतह से ऊपर नहीं होना चाहिए। नवगीत में भाषा, शिल्प, प्रतीक, शैली, रूपक, बिम्ब, कहन, कल्पना, मुहावरा, यथार्थ आदि कथ्य के सामाजिक सरोकारों में एक बड़े सहायक के रूप में खड़े होते हैं।

9- नवगीत नवगीत होता है और अपनी गेय क्षमता के कारण ही वह गीत हो सकता है अन्य किसी अर्थ में नहीं।

10- नवगीत कथ्य प्रधान होता है। नवगीत में समुद्र एक बूँद में समाहित होता है। बूँद ही एक समुद्र होती है। नवगीत में विस्तार नहीं होता है। अभिव्यक्ति की व्याख्या से विस्तार तक पहुँचा जा सकता है।

11- नवगीत तात्कालिक समय को लिखता है, उसमें सनातनता और पारम्परिकता का कोई स्थान नहीं है। नवगीत का उद्देश्य समाज के बाधक कारकों को और उत्पन्न स्थितियों को पहचानकर उन्हें समाज को बताना, इंगित करने के साथ उचित समाधान की ओर अग्रसर करना है। नवगीत काल की सापेक्षता है।

12- नवगीत में स्पष्टता का प्रभाव है। जो भी कहा जाए वह स्पष्ट हो, आम व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ सके और भाषा का प्रयोग आम आदमी की समझ की हो। किसी शब्द का अर्थ समझने के लिए शब्दकोश का सहारा न लेना पड़े, तो अति उत्तम।

13- नवगीत में छांदस स्वतन्त्रता है। नवगीत का कार्य कोने में छिपी किसी अनछुई सामाजिक छुईमुई अनुभूति को समाज के समक्ष लाना है। 

      14-  नवगीत न मांसल सौन्दर्य की कविता है और न संयोग-वियोग की स्मृतियाँ। नवगीत प्रथम पुरुष के जीवन की उठा-पटक, उत्पीड़न, गरीबी, साधनहीनता के संघर्ष की अभिव्यक्ति है।

15 - नवगीत हृदय प्रधान, छन्दबद्ध, प्रेम और संघर्ष का काव्य है। नवगीत की यह एक विशेषता है कि वह छंदबद्ध होकर भी किसी छंदवाद की लक्ष्मणरेखा के घेरे से नहीं लिपटा है।

नवगीत लेखन में लिए निम्न बातों का ध्यान रखें-

१. संस्कृति व लोकतत्त्व का समावेश हो।

 २. तुकान्त की जगह लयात्मकता को प्रमुखता दें। 

३. नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करें।

 ४. दृष्टिकोण वैज्ञानिकता लिए हो। 

५. सकारात्मक सोच हो।

६. बात कहने का ढंग कुछ नया हो और जो कुछ कहें उसे प्रभावशाली ढंग से कहें। 

७. शब्द-भंडार जितना अधिक होगा नवगीत उतना अच्छा लिख सकेंगे।

 ८. नवगीत को छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है, परंतु लयात्मकता की पायल उसका श्रृंगार है, इसलिए लय को अवश्य ध्यान में रखकर लिखें और उस लय का पूरे नवगीत में निर्वाह करें। 

९. नवगीत लिखने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि प्रकृति का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण करें और जब स्वयं को प्रकृति का एक अंग मान लेगें तो लिखना सहज हो जाएगा।

  तो अब आपको कविता, गीत एवं नवगीत में अंतर स्पष्ट हो गया होगा, ऐसा विश्वास है....।

✍️ माहेश्वर तिवारी, 'हरसिंगार', बी/1-48,

नवीन नगर, मुरादाबाद 244001

बुधवार, 30 दिसंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की पुण्यतिथि पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर मुरादाबाद लिटरेरी क्लब की ओर से ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा ......


 वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा  "विरासत जगमगाती है" शीर्षक के तहत मुरादाबाद मंडल के बिजनौर जनपद के साहित्यकार दुष्यंत कुमार को उनकी पुण्यतिथि पर 29 व 30 दिसम्बर 2020 को याद किया गया। ग्रुप के सभी सदस्यों ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा की।   

सबसे पहले ग्रुप एडमिन ज़िया ज़मीर ने उनके जीवन के बारे में विस्तार से बताया कि दुष्यंत कुमार उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर के रहने वाले थे। दुष्यन्त कुमार का जन्म बिजनौर जनपद उत्तर प्रदेश के ग्राम राजपुर नवादा में एक सितम्बर 1933 को और निधन भोपाल में 30 दिसम्बर 1975 को हुआ था| इलाहबाद विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे बाद में प्रोड्यूसर पद पर ज्वाइन करना था लेकिन तभी हिन्दी साहित्याकाश का यह सूर्य अस्त हो गया| वास्तविक जीवन में दुष्यन्त बहुत सहज और मनमौजी व्यक्ति थे| सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की। समकालीन हिन्दी कविता विशेषकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता दुष्यन्त कुमार को मिली वो दशकों बाद विरले किसी कवि को नसीब होती है| दुष्यंत एक कालजयी कवि हैं और ऐसे कवि समय काल में परिवर्तन हो जाने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं| दुष्यंत का लेखन का स्वर सड़क से संसद तक गूँजता है| दुष्यंत कुमार अपने हाथों में अंगारे लिए ऐसा शायर है जो अपने लोगों की ज़िंदगियां अन्धेरी होने के कारण ही नहीं बताता बल्कि उन्हें रौशन करने के उपाय भी सुझाता है। इस कवि ने कविता, गीत, गज़ल, काव्य नाटक, कथा आदि सभी विधाओं में लेखन किया। उन्होंने पटल पर उनकी निम्न रचनाएं भी प्रस्तुत कीं-----

*1.*

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए

यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो

इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम

तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके

जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ

हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है

*2.*

ये शफ़क़ शाम हो रही है अब

और हर गाम हो रही है अब

जिस तबाही से लोग बचते थे

वो सरे आम हो रही है अब

अज़मते—मुल्क इस सियासत के

हाथ नीलाम हो रही है अब

शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं

सुब्ह बदनाम हो रही है अब

जो किरन थी किसी दरीचे की

मरक़ज़े बाम हो रही है अब

तिश्ना—लब तेरी फुसफुसाहट भी

एक पैग़ाम हो रही है अब

*3.*

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं

जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं

वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है

मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं

यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन

ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं

चले हवा तो किवाड़ों को बंद कर लेना

ये गरम राख़ शरारों में ढल न जाए कहीं

तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है

तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं

कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू उभरी

कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं

ये लोग होमो-हवन में यकीन रखते है

चलो यहां से चलें, हाथ जल न जाए कहीं

*4.*

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी

शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

*5.*

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ

मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह

तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ

अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर

तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ

ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो

तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

*6.*

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो

अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा

इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे

आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे

आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया

इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की

तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

*7.*

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही

कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

*8.*

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं

इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो

धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं

बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है

ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं

आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है

पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं

आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर

आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं

सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत

हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं

 ***अपनी प्रेमिका से

मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी

जो तुम्हें शीत देतीं

और मुझे जलाती हैं

किन्तु

इन हवाओं को यह पता नहीं है

मुझमें ज्वालामुखी है

तुममें शीत का हिमालय है।

फूटा हूँ अनेक बार मैं,

पर तुम कभी नहीं पिघली हो,

अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं

पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं

तनी हुई.

तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की

जो गर्म हो

और मुझे उसकी जो ठण्डी!

फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति

जो दुखाती है

फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का

जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है

काश! इन हवाओं को यह सब पता होता।

तुम जो चारों ओर

बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो

(लीन... समाधिस्थ)

भ्रम में हो।

अहम् है मुझमें भी

चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ

लेकिन क्यों?

मुझे मालूम है

दीवारों को

मेरी आँच जा छुएगी कभी

और बर्फ़ पिघलेगी

पिघलेगी!

मैंने देखा है

(तुमने भी अनुभव किया होगा)

मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को

जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे

लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई।

देखो ना!

मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,

सूर्योदय मुझमें ही होना है,

मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,

इसीलिए कहता हूँ-

अकुलाती छाती से सट जाओ,

क्योंकि हमें मिलना है।

***फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

अब अंतर में अवसाद नहीं

चापल्य नहीं उन्माद नहीं

सूना-सूना सा जीवन है

कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं


तव स्वागत हित हिलता रहता

अंतरवीणा का तार प्रिये ..


इच्छाएँ मुझको लूट चुकी

आशाएं मुझसे छूट चुकी

सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ

मेरे हाथों से टूट चुकी


खो बैठा अपने हाथों ही

मैं अपना कोष अपार प्रिये

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..


***सूना घर


सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।


पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर

अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर

खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।


पर कोई आया गया न कोई बोला

खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला

आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को।


फिर घर की खामोशी भर आई मन में

चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में

उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को।


पूरा घर अँधियारा, गुमसुम साए हैं

कमरे के कोने पास खिसक आए हैं

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

***एक आशीर्वाद

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

भावना की गोद से उतर कर

जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।

चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये

रूठना मचलना सीखें।

हँसें

मुस्कुराएँ

गाएँ।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें

उँगली जलाएँ।

अपने पाँव पर खड़े हों।

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

***सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन

सूरज जब

किरणों के बीज-रत्न

धरती के प्रांगण में

बोकर

हारा-थका

स्वेद-युक्त

रक्त-वदन

सिन्धु के किनारे

निज थकन मिटाने को

नए गीत पाने को

आया,

तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,

ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप

और शान्त हो रहा।


लज्जा से अरुण हुई

तरुण दिशाओं ने

आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!

क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने

मुख-लाल कुछ उठाया

फिर मौन सिर झुकाया

ज्यों – 'क्या मतलब?'

एक बार सहमी

ले कम्पन, रोमांच वायु

फिर गति से बही

जैसे कुछ नहीं हुआ!

मैं तटस्थ था, लेकिन

ईश्वर की शपथ!

सूरज के साथ

हृदय डूब गया मेरा।

अनगिन क्षणों तक

स्तब्ध खड़ा रहा वहीं

क्षुब्ध हृदय लिए।

औ' मैं स्वयं डूबने को था

स्वयं डूब जाता मैं

यदि मुझको विश्वास यह न होता –-

'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य

ज्योति-किरणों से भरा-पूरा

धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को

जोतता-बोता हुआ,

हँसता, ख़ुश होता हुआ।'

ईश्वर की शपथ!

इस अँधेरे में

उसी सूरज के दर्शन के लिए

जी रहा हूँ मैं

कल से अब तक!

   


चर्चा शुरू करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि दुष्यन्त मुहावरों की तरह आम आदमी की ज़बान पर चढ़ कर आज भी जहां-तहां कभी तबीयत से पत्थर उछालता मिल जाता है तो कभी हिमालय से गंगा निकालने लगता है राजा भगीरथ की तरह। 


वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि दुष्यंत कुमार एक ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने न केवल सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विद्रूपताओं- विसंगतियों के खिलाफ अपनी रचनाओं के जरिए आवाज उठाई बल्कि वे उस आवाज में असर के लिए बेकरार थे। वे बंद दरवाजे को तोड़ने का जतन कर रहे थे। वे जर्जर नाव के सहारे लहरों से टकरा रहे थे । वे देख रहे थे- इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है, हर किसी का पांव घुटनों तक सना है । उनके सामने स्थितियां थी- इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं खिड़कियां। वह हतप्रभ थे यह देखकर- यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं । इन तमाम स्थितियों को खत्म करने के लिए उनकी लेखनी ने आह्वान किया - कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं। पुराने पड़ गए डर को फेंक दो तुम । चारों तरफ बिखरी राख में चिंगारियां देखो और पलकों पर शहतीर उठाकर एक पत्थर तो तबीयत से उछालो। उनका मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना नहीं था, वह पर्वत सी हो गई पीर को पिघलाना चाहते थे, हिमालय से गंगा निकालना चाहते थे। वे चाहते थे बुनियाद हिले और यह सूरत बदले ।

प्रसिद्ध गीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि दुष्यंत कुमार स्थापित परंपराओं के विरुद्ध जाकर नई परंपराओं को इस तरह विकसित करने वाले रचनाकार थे कि नई पीढ़ियां उनसे प्रेरणा हासिल कर सकें। 


युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि उनके महान व क्रांतिकारी रचनाकर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह   तात्कालिक रूप से प्रभावशाली होने के साथ-साथ भविष्य की तस्वीर को भी स्वय॔ में समाहित किये रहा।

युवा कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि दुष्यंत कुमार अपने रचनाकर्म के माध्यम से आमजन में इतने रचे बसे हैं कि दुष्यंत के बिना कोई महफिल, कोई कार्यक्रम यहाँ तक कि संसद के अधिवेशन भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होते। 

:::::;;प्रस्तुति::::::

 ज़िया ज़मीर

ग्रुप एडमिन

मुरादाबाद लिटरेरी क्लब

मो०8755681225

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नूर उज़्ज़मां नूर की दस ग़ज़लों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा आनलाइन साहित्यिक चर्चा


वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा  'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 24 अक्टूबर 2020 को मुरादाबाद के साहित्यकार नूरउज़्ज़मां नूर की दस ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई। यह चर्चा तीन दिन चली। सबसे पहले नूरउज़्ज़मां नूर ने निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत कीं---

1)
शिकस्ते ज़ात की यह आखिरी निशानी थी
मिरे वुजूद से सैराब रायगानी थी

मुझे चराग़ बनाना था अपनी मिट्टी से
बदन जला के तुम्हें रोशनी दिखानी थी

पकड़ रहा था मैं आँखों से जुगनुओं के बदन
अंधेरी रात थी ,मशअल मुझे बनानी थी

उतर रहा था फ़लक मिट्टी के कटोरे में
ज़मीं सिमटती हुई खु़द में पानी पानी थी

पलक झपकने के इस खेल में पता क्या था
मुझे नज़र किसी तस्वीर से मिलानी थी

2)
रोज़े अव्वल से किस गुमान में हूँ
अपनी छोटी सी दास्तान में हूँ

खु़द ही इम्काँ  निकालता हूँ मैं
खु़द ही इम्काँ  के इम्तिहान में हूँ

एक  नुक़्ता भी जो नहीं भरपूर
अपनी हस्ती के उस निशान में हूँ

ढूंढने निकलूं तो कहीं भी नहीं
मैं जो मौजूद दो जहान में हूँ

बंद दरवाज़ों का भरम हूँ मैं
मुंह से चिपकी हुई ज़बान में हूँ

एक अरसे से यह भी ध्यान नहीं
एक अरसे से किसके ध्यान में हूँ

3)
तिरा गुमान ! उजालों का आसमाँ  है तू
मिरा यक़ीन ! अंधेरों के दरमियाँ  है तू

कोई सनद तो दे अपने कुशादा दामन की
मिरी नज़र मे तो छोटा सा आस्माँ है तू

निकलते ही नहीं ज़ेरो ज़बर के पेचो ख़म
यह किस ज़बान में तहरीर दास्ताँ है तू

मिरे मुरीद मैं सदक़े तिरी अक़ीदत के
तुझे बता दूँ, मिरी तरह रायगाँ  है तू

तिरा उरूज ही दरअसल है ज़वाल तेरा
है बूंद नूर की और ख़ाक मे रवाँ है तू

4)
ज़ात का पत्थर उगल कर आ गया
अपने अन्दर से निकल कर आ गया

हलचलें ठहरी रहीं दरयाऔं में
शोर पानी से उछल कर आ गया

तीरगी से तीरगी मिलती रही
दरमि्याँ  से मैं निकल कर आ गया

आज़माइश धूप की पुर ज़ोर थी
रोशनी का साया जल कर आ गया

आँख से तेज़ाब की बारिश हुई
हड्डियों में जिस्म गल कर आ गया

चेहरा चेहरा जुस्तुजू इक ख़्वाब की
कितनी आँखें मैं बदल कर आ गया

5)
नये फूल खिलते हुए देखता हूँ
मैं इक ज़र्द पत्ता हरी शाख़ का हूँ

बदन के मकाँ से जो घबरा रहा हूँ
न जाने कहाँ मैं पनह चाहता हूँ

मैं शौके जुनूँ मे उड़ाते हुए ख़ाक
सफ़र दर सफ़र ख़ाक में मिल रहा हूँ

मैं अपनी ही आँखों में  चुभने लगा था
सो अपने ही पैरों से कुचला गया हूँ

तो क्या मैं गया भी इसी शहर से था
मैं जिस शहर में लौट कर आ रहा हूँ

मुझे भीड़ मे उसको पहचानना है
जिसे सिर्फ आवाज़ से जानता हूँ

अभी उसके बारे मे दा'वा करूँ क्या
अभी उसके बारे मे क्या जानता हूँ

6)
बन्द है कारोबारे सुख़न इन दिनों
मुझ से नाराज़ है मेरा फ़न इन दिनों

एक बे सूद कश्ती मिरे नाम की
एक दरिया में है मोजज़न इन दिनों

दाद दी है किसी ने बदन पर मिरे
रुह में है उसी की छुअन इन दिनों

फूल किसने बिछाये मिरी क़ब्र पर
ख़ाक दर ख़ाक है एक चुभन इन दिनों

चार शानो पे यारों के जाते मगर
बंद है इस सफ़र का चलन इन दिनों

लोग आते हैं थैली में लिपटे हुए
और चले जाते हैं बे कफ़न इन दिनों

हाल ये हो गया है कि बाज़ार में
बिक रही है दिलो की कुढ़न इन दिनों

7)
धोका है निगाहों का,फ़लक है न ज़मीं है
मौजूद वही है जो कि मौजूद नहीं हैं

इम्काँ के मनाज़िल से ज़रा आगे निकल कर
क्या देखता हूँ मुझ में ,गुमाँ है न यकीं है

इस ख़ाक में मैंने ही बसाये थे कई घर
इस ख़ाक में अब कोई मकाँ है न मकीं है

फिर किसके लिए तूने, बनाई है ये दुनिया
मिट्टी को वह इंसाँ तो, कहीं था न कहीं है

सजदों के निशानात तो दोनों ही तरफ़ हैं
मंज़ूरे नज़र फिर भी,ज़मीं है न जबीं है

हम लोग हैं किरदार मजाज़ी,यह हक़ीक़त
मेरे ही तईं है ,न तुम्हारे ही तईं है

8)
तुझ से जितना मुकर रहा हूँ मैं
ख़ुद में उतना बिखर रहा हूँ मैं

क्या सितम है कि फ़र्ज़ करके उसे
तुझको बांहों में भर रहा हूँ मैं

तुझ को हासिल नहीं हूँ पूरी तरह
यह बताने से डर रहा हूँ मैं

पाप करते हुए सितम यह है
एक नदी मे उतर रहा हूँ मैं

कौन ईमान लाएगा मुझ पर
अपने बुत से मुकर रहा हूँ

मुझसे आगे हैं नक़्शे पा मेरे
यह कहाँ से गुज़र रहा हूँ मैं

9)
रौशन अपना भी कुछ इम्काँ होता ।
कारे  तख़्लीक़,  गर आसाँ  होता ॥

मैं कि आइने से होता न अयाँ  ?
अक्स मे अपने जो  पिंहाँ  होता ॥

उसने देखा ना मुझे ख़स्ता हाल।
देख लेता तो पशेमाँ होता ??

सिर्फ होती जो मिरी हद बंदी ।
यूँ ज़माना ये परेशाँ होता ??

दरो दीवार से होता जो घर  ।
क्या मकाँ मेरा बयाबाँ  होता ?

कब कि माँगी थी ख़ुदाई मैंने।
बस कि इक जिस्म का सामाँ  होता ॥

10)
दरे इम्कान खटखटाता है
एक उंगली से सर दबाता है

न बदल जाए रंग मट्टी का
पानियों को गले लगाता है

जिसके चेहरे पे कोई आँख नहीं
वह मुझे रोशनी दिखाता है

चाक करता है दिल ख़लाऔं का
अपने दिल का ख़ला मिटाता है

घूमता है बदन हवाऔं का
कोई बच्चा पतंग उड़ाता है


इन गजलों पर चर्चा शुरू करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि ग़ज़ल में नयी कहन मुरादाबाद का नाम रौशन करेगी,यह बात बहुत ज़़ल्द सच साबित होगी। हिन्दुस्तानी फ़लसफ़े की खुली हवाओं में सांस लेती, हालात से रूबरू मुखातिब होने वाले भाई नूरुज्ज़मा को हार्दिक शुभकामनाएं।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि शायर नूरुज़्ज़मां की दस ग़ज़लों ने उनकी शायरी के जहान से वाक़िफ़ कराया। पढ़ कर अच्छा लगा। जिस सलीक़े से उन्होने अपने एहसासात और तख़य्युलात का इज़हार किया है उस से उन की फ़िक्री उड़ान का अन्दाज़ा बख़ूबी हो जाता है। उनकी शायरी ग़ज़ल के एतबार से उनकी विशिष्ट शैली के  आहंग और उसलूब में जलवे बिखेरती नज़र आती है। ग़ज़लों में लय भी है सादगी भी है और शाइसतगी भी। रवाँ दवाँ और पैहम ज़िन्दगी के नित नये मसायल की तर्जुमानी में उम्दा तख़लीका़त अश्आर के रूप में ढली हैं।

मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फराज़ ने कहा कि आज जब मुरादाबाद के लिटरेरी क्लब के पोर्टल पर नूर की दस ग़ज़लें पढीं तो बहुत दिनों से ख़याल के घर में सोए हुए पंछी फड़फड़ाने लगे। इसे नूर की शायरी की ताज़गी ही कहा जाएगा कि उसे पढ़ते हुए ज़हनो दिल थकन की चादर उतारकर मज़ीद कुछ पढ़ने का तकाज़ा करने लगे।
वरिष्ठ कवि आनन्द गौरव ने कहा कि  मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के पटल पर प्रस्तुत नूर साहब की सभी ग़ज़लें सराहनीय हैं । बड़े अदब से नूर उज़्ज़मा साहब को उनकी अदबी फिक्र औऱ क़लाम के बावत दिली मुबारकबाद।

वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि नूर साहब की ग़ज़लों में उनके भीतर की बेचैनी, कसमसाहट और छटपटाहट स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। वह मशअल बनाने के लिए अपनी आंखों से जुगनुओं के बदन पकड़ते हैं और मिट्टी के कटोरे में फ़लक उतारते हैं। उनकी शायरी भीड़ में उसको पहचानने की कोशिश करती है जिसको वह सिर्फ आवाज से जानते हैं। बाजार में दिलों की कुढ़न बिकते हुए देखकर वह कह उठते हैं - ज़ात का पत्थर उगल कर आ गया, अपने अंदर से निकल कर आ गया और सवाल करते हैं तो क्या मैं गया भी इसी शहर से था, मैं जिस शहर में लौट के आ रहा हूं।यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि नूर साहब की शायरी  की छुअन देरतक रुह में रहती है
युवा शायर फ़रहत अली ख़ान ने कहा कि नूर भाई की शायरी की सब से बड़ी ख़ासियत है इन की फ़िक्र की वुसअत और फिर अल्फ़ाज़ से उस की बुनाई, इस तरह कि शायरी कहीं भी सपाट नहीं होने पाती। जदीदियत का रंग इन की शायरी का बुनियादी रंग है। जो सादगी इन के मिज़ाज में जगमगाती है, वही इन की शायरी को रौशन करती है। बिला-शुबह नूर भाई में एक बड़ा शायर मौजूद है। इन के पास वो टूल्स भी मौजूद हैं जिन से ये अपने फ़न के स्क्रू भली तरह कस सकते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि मुरादाबाद के  साहित्यिक पटल पर भाई नूर उज़्ज़मां जैसे उम्दा शायर का उभरना अर्थात् मुरादाबाद की गौरवशाली साहित्यिक परम्परा का एक और सुनहरा कदम आगे बढ़ाना।
युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि  वाट्स एप.पर संचालित साहित्यिक समूूूह मुरादाबाद लिटरेरी क््लब पर मुरादाबाद के युवा शायर नूर साहब की सभी ग़ज़लें पढ़ी। बहुत अच्छा पढ़ने को मिल रहा है बहुत-बहुत मुबारकबाद आपको  नूर साहब। 

युवा शायरा मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि मुरादाबाद लिटरेरी क्लब द्वारा प्रस्तुत की गईं नूर उज़्ज़मां जी की सभी ग़ज़लें बेहद उम्द़ा व ग़ज़ल की कसौटी पर खरे सोने से चमकती हुई हैं। 


ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि अच्छी बात यह है कि यह शायरी जो कुछ सोचती है वो बयान करने में हिचकते नहीं है, यानी नूर साहसी शायर हैं जिनसे आने वाले वक़्त में हमें और बेहतर शायरी सुनने को मिलेगी। ऐसा मुझे पूरा यक़ीन है।

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ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" मुरादाबाद।
मो० 8755681225

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की दस ग़ज़लों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब'' द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा

 


वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत  3 व 4 अक्टूबर 2020 को मुरादाबाद की युवा साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की दस ग़ज़लों पर ऑन लाइन साहित्यक चर्चा का आयोजन किया गया । सबसे पहले मीनाक्षी ठाकुर द्वारा निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत की गयीं----

(1)
हथेली पर नया सूरज किसी ने फिर उगाया है
अँधेरा दूर करने को उजाला साथ लाया है

पकड़ना जब भी चाहा हर खुशी को हाथ से हमने
तभी  तितली सा उड़कर वक्त़ ने हमको रुलाया है

जगह थोड़ी सी माँगी थी किसी के दिल में रहने को
नहीं खाली मकां उसका, यही उसने बताया है

भरोसा करना मत क़िस्मत के लिक्खे फैसलों  का तुम
हमेशा हौसलों ने जीत का मंज़र दिखाया है

मै लिख दूँ आसमां पर नाम अपनी कामयाबी का
बुज़ुर्गों ने सदा मेरे मुझे उठना सिखाया है

(2)
तीर दिल पर चला कर गये हैं
मुझसे दामन छुड़ा कर गये है

हर दुआ दिल ने की जिनकी ख़ातिर
आज वो ही रुला कर गये हैं

छोड़ना ही था गर यूँ सफ़र में
ख़्वाब फिर क्यूँ सजा कर गये हैं

देने आये थे झूठी तसल्ली
चार आँसू बहा कर गये हैं

हैं पशेमाँ वो अपनी ज़फा से
इसलिए मुँह छुपा कर गये हैं

(3)
दोस्ती करके किसी नादान से
हमने झेले हैं बड़े तूफ़ान से

दिल में रहते थे कभी जो हमनवा
आज क्यूँ लगते भला मेहमान से

साथ मेरे तू नहीं तो कुछ नहीं
फ़िर गुलिस्तां भी लगे वीरान से

याद ही बाक़ी रही अब दरमियां
दिल के टूटे हैं कहीं अरमान से

ख़ुदक़ुशी करना नहीं यूँ हारकर
मौत भी आये मगर सम्मान से

वो गये दिल तोड़कर तो क्या हुआ
ज़िंदगी फिर भी चलेगी शान से

तंगदिल देंगे तुम्हें बस घाव ही
आरज़ू करना सदा भगवान से

(4)
हँसा के मुझको रुला रहा था
छुड़ा के दामन वो जा रहा था

उसी ने बदली हैं क्यूँ निगाहें
जो कसमें उल्फ़त में खा रहा था

हुआ किसी का न आज तक जो
वफ़ा के क़िस्से सुना रहा था

मिटाने को मेरी हर निशानी
ख़तों को मेरे जला रहा था

कभी न झाँका जो आइने में
वो मुझ पे उँगली उठा रहा था

(5)
दिल ही दिल में उनको चाहा करते हैं
सीने में इक तूफां पाला करते हैं

जब आये सावन का मौसम हरजाई
यादों की बारिश में भीगा करते हैं

कटती हैं अपनी रातें तो रो-रो कर
वो भी शायद, करवट बदला करते हैं

होते कब सर शानों पर दीवानों के
फिर भी क्यूँ खुद को दीवाना करते हैं

लिक्खें जितने नग़में उनकी यादों में
हँसकर हर महफ़िल में गाया करते हैं

(6)
रस्म उल्फ़त की कुछ तो अदा कीजिए
चाहिए ग़र वफ़ा तो वफ़ा कीजिए

इश़्क करने का अंजाम होता है क्या
दिल के बीमारों से मशविरा कीजिए

तोड़कर सारे रिश्ते चले जाएं पर
हाथ की इन लकीरों का क्या कीजिए

हो दग़ाबाज़ी जिनके लहू में घुली
ऐसे लोगों से बचकर रहा कीजिए

कुछ भरम प्यार का दरमियां ही रहे
ख्व़ाब में ही सही पर मिला कीजिए

(7)
खोकर मुझको रोया होगा
रातों को भी जागा होगा

दिल जो मेरा तोड़ा तूने
तेरा दिल भी टूटा होगा

वादों की तहरीरों में भी
सच का किस्सा झूठा होगा

होगी महफ़िल जब भी तेरी
चर्चा मेरा होता होगा

अश्कों के खारे पानी से
गम का दरिया हारा होगा

(8)
आइना सच हज़ार बोलेगा
इक नहीं बार-बार बोलेगा

क़त्ल होगा जो जिस्म मेरा ये
रूह का तार-तार बोलेगा

सिल गये लब,नज़र झुका ली है
आज तो शर्मसार बोलेगा

लुट गये हम वफ़ा की राहों में
प्यार में कर्ज़दार बोलेगा

मुंतज़िर थे कभी हमारे वो
बस यही राज़दार बोलेगा

(9)
कोई अपना भी रहनुमा होता
दर्द इतना न फिर मिला होता

बैठे हो सर झुकाए गै़रो में
तीर अपनों का सह लिया होता

मुब्तिला थे तेरी ख़ुशी में हम
राज़ ग़म का भी तो कहा होता

तोड़ देते वो दिल मेरा बेशक
मशवरा मुझ से कर लिया होता

भूल जाते हैं इश्क़ करके वो
ये हुनर हमको भी मिला होता

(10)
रो रही ज़िंदगी अब हँसा दीजिये
फूल ख़ुशियों के हर सू खिला दीजिये

इश्क़ करने का जुर्माना भर देंगे हम
फै़सला जो भी हो वो सुना दीजिये

ढक गया आसमां मौत की ग़र्द से
मरती दुनिया को मालिक दवा दीजिये

बंद कमरों में घुटने लगी साँस भी
धड़कनें चल पड़ें वो दुआ दीजिये

जाल में ही न दम तोड़ दें ये कहीं
कै़द से हर परिंदा छुड़ा दीजिये


इन गजलों पर चर्चा शुरू करते हुए वरिष्ठ व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि मीनाक्षी में लेखन के प्रति ललक भी है और उनके भीतर ऊर्जा भी है। पटल पर प्रस्तुत दस ग़ज़लें जहां अपनी भाव संपदा से भरपूर हैं, वहीं मुझे यह विशेष लगा कि वे अपने आकार में उतनी ही हैं जितना कि ग़ज़ल को होना चाहिए। जैसा कि जानकारों ने माना है कि अभी उनकी शुरुआत है। शुरुआत है तो भाव दृष्टि से संतोषजनक है।

वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि बहुत अच्छी कहन है। ईमानदारी और साफगोई के साथ सादा बयानी ने दिल में जगह बनाई है। अभ्यास हर कमी को दुरुस्त कर देगा। एक उभरती हुई मजबूत शायरा का साहित्य जगत में हार्दिक स्वागत है।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि मुझे लगा कि मीनाक्षी छन्द युक्त लेखन पसन्द करती हैं जो ग़ज़ल के लिये अनिवार्य शर्त है।  पटल पर उनकी दस ग़ज़लें मेरी ये बात सिद्ध करने को पर्याप्त हैं। उनकी भाषा की सरलता उनके लेखन का क्षितिज विस्तृत करेगी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण उनकी ये दस ग़ज़लें  हैं।
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि उनकी ग़ज़लें पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि वह परिश्रम से कतराने वाली नहीं, बल्कि चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत रखती हैं और उसमें सक्षम भी दिखाई देती हैं। ग़ज़ल जैसी कठिन काव्यविधा को साधना बहुत मुश्किल है, लेकिन वह इस मुश्किल को आसान बनाने में पूरी लगन के साथ जुटी हैं। मैं उनकी इस लगन की सराहना करता हूं।
वरिष्ठ कवि आनन्द गौरव ने कहा कि मुरादाबाद के साहित्यिक पटल पर  पारदर्शी ग़ज़ल की हस्ताक्षर का साहित्य जगत में पूर्ण परिपक्वता पर स्वागत व सम्मान निश्चित ही होगा। मीनाक्षी जी को हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं। 
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि पटल पर उनकी 10 ग़ज़लें प्रस्तुत की गई हैं । सभी ग़ज़लों में वह बड़ी सहजता और सादगी से अपनी बात कहती हैं। वह साहित्यिक आकाश में एक नया सूरज उगाने के हौसले के साथ अपनी भावाभिव्यक्ति का उजाला फैलाना चाहती हैं । उनके भीतर अश्कों के खारे पानी से गम के दरिया को हराने का भरपूर जज्बा है ।वह किस्मत के लिखे फैसलों पर भरोसा नहीं करती बल्कि अपने सीने में एक तूफ़ां पालकर आसमां पर अपनी कामयाबी का नाम लिखना चाहती हैं। 
वरिष्ठ कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि मीनाक्षी ठाकुर जी की ग़ज़लें पहली बार पढ़ने को मिली। अभी तक काफी गोष्ठियों में उनके गीत ही सुनने को मिले थे। इन ग़ज़लों को पढ़कर लगा कि ग़ज़ल लेखन में भी वे उतनी है सिद्ध हस्त हैं जितनी कि गीत लेखन में। प्रस्तुत ग़ज़लों में कथ्य को ग़ज़ल के मिजाज़ के अनुरूप ही पिरोया गया है ताकि ग़ज़ल की गजलियत बरकरार रहे।प्रेम की गहरी अनुभूतियों के साथ साथ जीवन की कटु  सच्चाइयों को भी मीनाक्षी जी ने बहुत ही खूबसूरती के साथ अपनी ग़ज़लों में स्थान दिया है।.                               
नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि मीनाक्षी जी की रचनाएं पहली बार पढ़ रहा हूँ जो ग़ज़लों के रूप में प्रस्तुत की गई हैं, हालांकि काव्य-गोष्ठियों में कई बार उन्हें सुना है। आज मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के पटल पर प्रस्तुत उनकी रचनाएं उनके उजले साहित्यिक भविष्य की आहट देती हैं और मुरादाबाद को भविष्य की एक सशक्त छांदस कवयित्री मिलने की संभावना को बलवती बनाती हैं।

कवि श्रीकृष्ण शुक्ल ने कहा कि उनकी सभी गज़लें मैंने पढ़ीं, और यह कहने में कोई अतिश्योक्ति न होगी कि उनका गज़ल कहने का अंदाज बिलकुल सरल सीधा सादा और साफगोई वाला है। भाषा अत्यंत सरल और कहन स्पष्ट है। ज्यादातर गज़लें सामाजिकता और व्यावहारिकता पर केंद्रित हैं।  बीच बीच में अत्यंत प्रेरक संदेश भी उनमें निहित हैं।

युवा शायर फ़रहत अली ख़ान ने कहा कि मुरादाबाद में नयी पीढ़ी की चुनिंदा महिला साहित्यकारों में से एक मीनाक्षी जी की ग़ज़लें उम्मीदें जगाती हैं। इन की शायरी में फ़िक्र की गहरायी के निशानात मौजूद हैं। फ़न आते-आते आता है, सो वक़्त और मेहनत के साथ वो बुलंदी ही पाएगा।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि बहन मीनाक्षी ठाकुर जी का  रचनाकर्म इस बात को स्पष्ट दर्शा रहा है कि एक और ऐसी बहुमुखी प्रतिभा की धनी कवयित्री/शायरा का साहित्यिक पटल पर पदार्पण हो चुका है जो भविष्य में अनेक ऊँचाईयों का स्पर्श करेगी। मैं व अन्य अनेक साथी रचनाकार विभिन्न कार्यक्रमों में उनकी प्रतिभा के दर्शन कर चुके हैं। सीधी व सरल भाषा-शैली में  प्रभावपूर्ण ढंग से अपनी बात कह देने वाली यह बहुमुखी प्रतिभा निश्चित ही समय के साथ और भी निखरेगी।
युवा साहित्यकार मनोज वर्मा 'मनु' ने कहा कि साहित्य की अन्य तमाम विधाओं में बेहतर शुरूआत करते हुए गद्य और पद्य में उत्तरोत्तर हाथ आजमाते हुए क्रमशः मुक्तक ....फिर शेरो -शाइरी की तरफ मुत्तासिर होना यह बताता है कि इनके ज़ेहन में शुरू से ही  ग़ज़लियत के अंकुर   विद्यमान रहे हैं... बस उनको आकार देने के लिए जो पर्याप्त वातावरण, प्रोत्साहन और प्लेटफॉर्म की आवश्यकता थी वह  "साहित्यिक मुरादाबाद" वाट्स एप समूह के रूप में समय रहते इन्हें मिला  जिसके  सबब  आज उनकी लगन परिश्रम और हौसले के परिणामस्वरूप इस सम्मानित समूह पर समीक्षा हेतु साहित्य की अन्य विधाओं के इतर 10 गजलें प्रस्तुत की गई हैं।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि आज पटल पर उनकी दस ग़ज़लें प्रस्तुत हुई हैं किंतु मैंने उन्हें मुक्तक, छन्द, कविताएं और कहानी कहते हुए भी सुना है। रचनाओं में भाव और उपयुक्त शब्दों का प्रयोग उनकी ख़ासियत है, जैसा कि आज की दस ग़ज़लों में हमें देखने को भी मिला है। ग़ज़लों की तरन्नुम और उनका प्रस्तुतिकरण श्रोताओं को आकर्षित करने वाला होता है। उनकी सभी दस ग़ज़लें अलग-अलग विषयों और भावों को लिये हुए हैं।

 हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि मीनाक्षी ठाकुर जी ने अपनी आरंभिक रचनाओं से ही जता दिया है कि उन्हें साहित्य के संस्कार उस पावन भूमि की हवाओं से,परिवेश से स्वत: ही प्राप्त हैं और साथ ही उस प्राप्त अंकुरण को गौरवशाली स्तर तक ले जाने के लिए अपनी लगन,सादगी,साफगोही,कहने की निर्भीकता,मेहनत और वरिष्ठ रचनाकारों की सलाह पर विनम्रता से मनन करने जैसी अपनी खूबियों के चलते जो न केवल सर्वथा सक्षम हैं बल्कि इसके लिए प्रयासरत भी हैं।आज के हालात को समेटती हुई,निराशाओं में आशाओं की राह तलाशती,व्यवहारिक समाधान सुझाती इस सामयिक ग़ज़ल को रखकर दस ग़ज़लों के इस शानदार बुके में अन्तिम ग़ज़ल से सुन्दर रैपिंग करते हुए भी मीनाक्षी दी ने अपनी विशिष्टता प्रस्तुत कर दी है।
युवा कवि दुष्यंत 'बाबा' कहा कि आप अंग्रेजी विषय के साथ स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत भी हिंदी की एक प्रखर लेखिका है। हिंदी और उर्दू के प्रति इतना स्नेह/लगाव इनके रचनाकर्म में सुस्पष्ट प्रतीत होता है। इनकी रचनात्मकता का प्रदर्शन इनकी गज़लों और कविताओं में देख ही चुके है ।

ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि सबसे अहम बात यह है कि मीनाक्षी का मिज़ाज ग़ज़ल का है। यानी यह महसूस नहीं होता कि उन्होंने ज़बरदस्ती ज़ुबान का स्वाद बदलने के लिए ग़ज़ल कहने की कोशिश की हो। क्योंकि उनका मिज़ाज ग़ज़ल का है इसलिए उनके यहां ग़ज़ल वाकई ग़ज़ल के रूप में नजर आ रही है। यह शुरुआती ग़ज़ल है लेकिन इस ग़ज़ल में बहुत रोशन इमकानात हैं। मीनाक्षी ने ग़ज़ल में किसी तरह अपने आप को मनवाने की कोशिश नहीं की है। यह उनकी सादगी है जो उनके फ़न में और उनकी ग़ज़ल में भी नज़र आती है। ज़ुबान बहुत सादा है। हिंदी और उर्दू के सांझे अल्फ़ाज़ उनकी ग़ज़ल में बहुत आसानी से आ रहे हैं जो कि एक बहुत पॉज़िटिव बात है।

✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" मुरादाबाद
मो० 8755681225

सोमवार, 14 सितंबर 2020

मुरादाबाद लिटरेरी क्लब ने किया प्रख्यात साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की जयंती पर ऑन लाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन।


वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा "विरासत जगमगाती है" शीर्षक के तहत 9 सितंबर 2020 को  साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की जयंती पर ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सभी सदस्यों ने उनके व्यक्तित्व  एवं कृतित्व  पर विचार व्यक्त किये ।
चर्चा शुरू करते हुए वरिष्ठ व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि भारतेन्दु ने ऐसा प्रतिभा संपन्न लेखक मंडल तैयार किया जिसने सभी गद्य विधाओं में रचनाएं करके साहित्य को समृद्ध किया। भारतेन्दु ने भाषा के रूप को तो व्यवस्थित किया ही, साथ ही अपने प्रयासों से जनता में साहित्य के प्रति अभिरुचि भी जाग्रत की। भारतेन्दु मंडल के लेखकों में बालकृष्ण भट्ट,प्रताप नारायण मिश्र, ठाकुर जगमोहन सिंह, बालमुकुंद गुप्त, बद्रीनारायण चौधरी, अंबिका दत्त व्यास और लाला श्रीनिवास दास के नाम उल्लेखनीय हैं। हिन्दी गद्य के विकास का श्रेय भारतेन्दु और उनके साहित्यिक मंडल को ही जाता है। उनके इस लेखक मंडल ने अपने लेखन में रोचक तत्व को महत्व देकर उसे जन-जन का प्रिय बना देने का ऐतिहासिक कार्य किया। यूं तो भारतेन्दु हिन्दी नाटक परंपरा के मूल स्रोत होकर उसके प्रवर्तक रूप में सामने आए।उनका 'अंधेर नगरी ' नाटक अन्य नाटकों के साथ समाज में धूम मचाए रहा।
वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि विलक्षण प्रतिभा, अद्भुत कार्यक्षमता और अपार ज्ञान के भंडार,कुल पैंतीस वर्ष का जीवन मिला,उसी छोटे से काल खंड में भारत की दशा का आकलन किया, भविष्य के लिए दिशानिर्देश भी तत्कालीन शासन-व्यवस्था के अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिये , भाषाई विकास को सही मार्ग पर लाने के लिए, समाज के समक्ष प्रस्तुत किये। आप सोच सकते हैं कि जो काम राजा राम मोहन राय ने किया था उसी को आगे बढ़ा कर उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक एवं वैचारिक रूप से थके-हारे भारत को अपनी स्वतंत्रता पाने का बल प्रदान किया। वर्तमान समय के कथित बड़े लेखक उतना सोच भी नहीं सकते जितना विस्तृत और विविध लेखन परम सम्माननीय भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र कर गये।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य के अद्वितीय निर्माता और प्रेरक व्यक्तित्व थे। उनके नाम पर ही उनके युग का साहित्यिक नामकरण हुआ। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में हिंदी भाषियों का नेतृत्व किया। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का प्रतिबिंब उनके समकालीन अन्य लेखकों एवं कवियों की रचनाओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। भारतेंदु युगीन मुरादाबाद के साहित्यकारों में लाला शालिग्राम वैश्य का नाम सर्वोपरि है । उनका जन्म भारतेंदु जी से काफी समय पहले सन 1831 ईसवीं में हो चुका था । उनकी मृत्यु भी भारतेंदु जी के बाद सन 1901 ईसवी में हुई । मुरादाबाद के पंडित झब्बीलाल मिश्र (1833-1860) ,पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र (1862- 1916), पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र (1869-1904) भी भारतेंदु जी के समकालीन साहित्यकार थे । इसके अतिरिक्त कन्हैयालाल मिश्र, सुभद्रा देवी, रामदेवी, पंडित जुगल किशोर बुलबुल, पंडित श्याम सुंदर त्रिपाठी, रामस्वरूप शर्मा, स्वरूप चंद्र जैन, पंडित भवानी दत्त जोशी, पन्नालाल जैन बाकलीवाल, वैद्य शंकरलाल, तथा सूफी अंबा प्रसाद भी उल्लेखनीय साहित्यकार रहे।
प्रसिध्द समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि किसी साहित्यकार की मृत्यु के पश्चात उसके कार्यों और गुणों की चर्चा और उसकी महिमा का वर्णन करना एक आम बात है। लेकिन यदि उस साहित्यकार के जीवन काल में ही उसके कार्यों को सराहा जाने लगे और उसकी महिमा को स्वीकार कर लिया जाए तो उस साहित्यकार के लिए बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। यह सौभाग्य हरिश्चंद्र जी को प्राप्त हुआ। जिस समय शिवप्रसाद जी को ब्रिटिश गवर्नमेंट की तरफ से 'सितारा-ए-हिंद' की उपाधि प्रदान की गई तो उसी समय हरिश्चंद्र जी के प्रशंसकों ने उन्हें 'महताब-ए-हिंद' अर्थात भारतेंदु की उपाधि से सम्मानित किया। लोकप्रियता का इससे बड़ा कोई प्रमाण नहीं हो सकता। इस से यह भी सिद्ध होता है कि भारतेंदु जी जनमानस के हृदय में घर कर चुके थे। भारतेंदु जी भी जनमानस की भावनाओं का सम्मान करते हुए स्वयं को भारतेंदु कहलाना ज़्यादा पसंद करते थे। साथ ही साथ वह अपने मूल नाम हरिश्चंद्र पर भी गर्व करते थे और सत्यवादी हरिश्चंद्र का अनुसरण करने की हमेशा कोशिश करते थे।
कादम्बिनी वर्मा  ने कहा कि प्राचीन संस्कृतनिष्ठ और तत्कालीन नवीन अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दवी के मध्य हिंदी खड़ी बोली गद्य सरीखा सुंदर सामंजस्य भारतेन्दु जी की कला का विशेष माधुर्य है। 15 वर्ष की अवस्था मे ही इनका साहित्य प्रेम जाग उठा और 18 वर्ष की अवस्था मे 'कविवचनसुधा" पत्रिका का सम्पादन किया जिसमें बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैग्ज़ीन, बालबोधिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के सम्पादक रहे भारतेन्दु जी के द्वारा अंग्रेजी की शिक्षा के लिए राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद जी की शरण लेना इनके सरल व्यक्तित्व का ही उदाहरण है। जो इन्हें इनके पिता से मिला।
युवा शायर फरहत अली ख़ान ने कहा कि जिस हिंदी को हम हिंदी जानते हैं, जिस ने हमें हमारे पसंदीदा लेखक दिए, ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुकी रचनाएँ दीं। उस हिंदी से हमें वाक़िफ़ कराने वाले सब से पहले लोगों में से एक थे भारतेंदु। उन्होंने हिंदी को सींचा और साथ ही उसे कवि, निबंधकार और नाटककार के रूप में अपने साहित्य कर्म से एक दिशा भी दी, जिस से आगे चल कर न जाने कितनों की राह रौशन हुई। वो हिंदी गद्य में विषयों की विविधता लाए। एक साहित्यिक मैगज़ीन भी चलाई।
युवा कवि राजीव 'प्रखर' ने कहा कि 'भारतेन्दु' उपाधि से विभूषित श्री हरिश्चन्द्र हिंदी साहित्य की ऐसी विभूति हुए हैं जिन्होंने रीतिकालीन सामन्ती परम्परा का स्पष्ट विरोध करते हुए एक भिन्न विचारधारा का सूत्रपात किया। अगर यह कहा जाय कि हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु जी से ही हुआ तो गलत न होगा। उनके रचनाकर्म का अवलोकन करने पर यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि वह साहित्यकार होने के साथ-साथ एक युगदृष्टा भी थे। भविष्य में होने वाले सामाजिक परिवर्तनों को संभवतः उन्होंने अनुभव कर लिया था। यही कारण है कि आज भी उनकी रचनाएं प्रासंगिकता की कसौटी पर खरी उतरती प्रतीत होती हैं। 'अँधेर नगरी', 'भारत दुर्दशा', 'नील देवी', 'गीत गोविंदानंद', 'बंदर सभा', 'बकरी विलाप', 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?',।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य का आधार स्तंभ माना जाता है। वह हिंदी नवयुग के निर्माणकर्ता थे। उन्होंने अपने अल्प जीवन काल के प्रत्येक क्षण को हिंदी के लिए जिया। हिंदी साहित्य को राज दरबारों से निकालकर जनसामान्य के सम्मुख लाने का श्रेय भारतेंदु जी को ही है। काशी के संपन्न वैश्य परिवार में जन्म लेने वाले भारतेंदु जी के माता पिता उनकी अल्पायु में ही स्वर्ग सिधार गए। इसी कारण भारतेंदु जी की शिक्षा व्यवस्थित नहीं हुई किंतु अपने स्वाध्याय से ही मात्र 18 वर्ष की आयु में इन्होंने हिंदी, उर्दू, मराठी, गुजराती, बंगला, अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन कर लिया। जिस आयु में सामान्य व्यक्ति साहित्य क्षेत्र में आँख खोलता है उस आयु में भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्य का बड़ा खजाना छोड़कर इस दुनिया से प्रयाण कर गए। अट्ठारह सौ सत्तर से उन्नीस सौ तक का समय भारतेंदु युग माना गया है।
युवा कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि अल्पायु में ही विविध विधाओं में, विविध विषयों पर न केवल प्रचुरता से बल्कि प्रभावोत्पादक और गुणवत्तापूर्ण उनके द्वारा लिखा गया।भाषा,कला,साहित्य,समाज और देश को अपने छोटे से जीवन काल में जो सौगात वह दे गये हैं,उसका सही-सही मूल्यांकन करने में हमें कई जीवन लग जायेंगे।भारतेंदु हरिश्चंद्र जी और जिग़र मुरादाबादी जैसे व्यक्तित्व युगों में इस धरती पर अवतरित होते हैं।हम गौरवान्वित हैं,धन्य हैं कि हमने उस धरती पर जन्म लिया है जहाँ ऐसी विलक्षण सार्वभौमिक प्रतिष्ठा वाले पुरूषों ने जन्म लिया और हम उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर पा रहे हैं।
युवा कवि दुष्यंत कुमार ने कहा कि देश की गरीबी, पराधीनता तथा अंग्रेजी शासन अमानवीय चित्रण को अपने साहित्य का लक्ष्य बना कर प्रत्येक भारतीय की आत्मा को जगाने वाले भारतीय नवजागरण के अग्रदूत प्रसिद्ध लेखक, सम्पादक, रंगकर्मी, नाटककार, निबंधकार, कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे।  भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का जन्म वाराणसी में हुआ था इनके पिता हिंदी के प्रथम नाटक 'नहुष' के रचियता गोपाल चंद्र थे। उनको काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया।
ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि हिंदी ज़बान का जो आज का रूप है। उसे ऐसा बनाने में जिन लोगों का योगदान है, यानी जो लोग हमारी हिंदी के यहां तक लगातार बहने का सबब हैं, उनमें भारतेंदु बाबू का नाम सबसे ज़्यादा एहम है। भारतेंदु बाबू अपने युग से आगे के साहित्यकार थे। अपने समय से आगे सोचने वाले भाषा प्रवर्तक थे। वह न केवल बड़े साहित्यकार और भाषाकार थे बल्कि उनका प्रभाव ऐसा था कि उन के प्रभाव के में आकर उस समय के कई साहित्यकारों ने हिंदी के नए और ज़्यादा खुले रूप को अपनाकर न सिर्फ़ साहित्य का सर्जन किया बल्कि हिंदी साहित्य में अपना अलग स्थान भी बनाया।  भारतेंदु बाबू का हम हिंदी से प्यार करने वालों और उर्दू से मुहब्बत करने वालों पर बड़ा एहसान है। उन्होंने हिंदी को आसान बनाया जिसके सबब उस आसान हिंदी को उर्दू ने अपनाया और उर्दू भी उसी असान हिंदी के सबब ज़्यादा हिंदुस्तानी ज़बान बन गई। क्योंकि भारतेंदु बाबू को उर्दू का भी बहुत अच्छा ज्ञान था और उर्दू में उन्होंने शायरी भी की तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतेंदु बाबू उन बड़े नामों में से एक थे जिन्होंने हिंदी और उर्दू को क़रीब लाने में का बड़ा काम किया। भारतेंदु बाबू हम सभी का गौरव हैं।
      युवा लेखक अभिनव चौहान ने कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र को महज़ 34 वर्ष का जीवन मिला। इतने कम जीवनकाल में उन्होंने हिंदी, उर्दू, थियेटर, पत्रकारिता हर क्षेत्र के लिए अपना कुछ न कुछ योगदान किया। इसलिए हिंदी में शुरू होने वाला नवजागरण काल भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है। पूर्व भारतेंदु काल और उत्तर भारतेंदु काल की अवधारणा भी अब नए अध्ययनों में मिलने लगी है। अपने से पूर्व और समकालीन हिंदी साहित्य में जिन दो भाषाई परंपराओं को भारतेंदु देख रहे थे, उसे पूरी तरह पलट कर रख दिया था इस व्यक्ति ने। यही वजह है कि हिंदी साहित्य की चर्चा करते ही पहला नाम किसी का आता है तो वो हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र।

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ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
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