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बुधवार, 3 अप्रैल 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण .... बचपन वहीं रमण जाता है



 मैंने पड़ोस के गाँव रझा से सन् 1962 में कक्षा पाँच पास करके अपने गाँव से पश्चिम में पाँच किमी दूरी पर स्थित गाँव सतूपुरा के जनता राष्ट्रीय विद्यालय में छठी कक्षा में प्रवेश ले लिया था। पढ़ाई के इसी सत्र की वार्षिक परीक्षा से पहले ही मेरे पिताजी का अपने तीन भाइयों से बँटबारा हो गया था अर्थात मेरे तीन चाचाओं ने मेरे पिताजी को न्यारा कर दिया था। उसी वर्ष मेरी बीबी (माँ) को टीबी की बीमारी होने का पता हम लोगों को एक वैद्य जी को दिखाने पर लगा था। चिंता पर चिंता सवार होकर मेरे पिताजी के सामने मुँह बाये खड़ी थी। न्यारे कर दिए जाने पर घर गृहस्थी के आवश्यक सामान जुटाना और बीबी की बीमारी का इलाज कराना पिताजी की उस समय की क्षमता से परे था। मुसीबत पर मुसीबत यह थी कि उन दिनों टीबी बेहद खतरनाक बीमारियों में शुमार थी और उसका इलाज भी मुश्किल ही था।आर्थिक हालात विपरीत होते हुए भी पिताजी मुझे और मेरी बीबी को अपने ऊपर आई आफ़त पर आफ़त का आभास तक नहीं होने देना चाहते थे। मुझे स्वयं को तो बीबी की इस बीमारी और पिताजी की मन:स्थिति का लेशमात्र भी आभास वैसे भी इसलिए नहीं था,क्योंकि उस आयु में न तो इतनी समझ होती है और न ही घर-परिवार के किसी इफ एण्ड बट से कोई लेना-देना होता है।बस, खाया-पीया, खेले-कूदे और मौज उड़ाई।यही तो बचपन है जिसमें बचपना ही सब कुछ होता है। माता-पिता की उन गंभीर परिस्थितियों में भी बचपन कितना निश्चिंत और उन्मुक्त रह लेता है, इसे आजतक जब-जब सोचा है तब-तब मेरी आँखें से तब तक के जमा आँसू बह निकले हैं।

       मैंने संघर्ष देखा भी है, किया भी है और जीया भी है। इसलिए मैंने तुलसी दास की "लाभ हानि जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ" पंक्ति की पूँछ तभी से पकड़ रखी है जब यह पंक्ति कहीं से भी मेरे संज्ञान में नहीं थी। तभी तो पिताजी के सम्मुख आई विकट समस्या के समाधान की किरण तब दिखाई देने लगी,जब मंडी धनौरा के गाँव पेली वाली मेरी बड़ी मौसी ने पिताजी को यह सूचना भिजवाई कि रूपदेई (मेरी माँ) को यहाँ ले आओ। धनौरा सघन क्षेत्र के अस्पताल में नए डॉक्टर आए हैं, उनसे बात हुई है। उन्होंने कहा है,यहाँ भर्ती करा दीजिए। ईश्वर ने चाहा तो बिल्कुल ठीक हो जाएँगी।

      बीस मई को मेरा छठी कक्षा का परीक्षा परिणाम मिलना था। परीक्षा परिणाम मिला। कक्षा में मेरा पाँचवाँ नंबर था। बीबी और पिताजी के अंदर बैठी चिंता के बाबजूद भी मेरे परीक्षा परिणाम ने उनके चेहरों पर प्रसन्नता के भाव ला दिए थे।उन दिनों घर का बालक पढ़ने जाए और पढ़ने लायक निकल आए,यह किसी भी परिवार के लिए अपार खुशी की बात हुआ करती थी। मेरे परीक्षा परिणाम आने के दो-चार दिन बाद ही पिताजी इधर-उधर से कुछ पैसों का जुगाड करके बीबी और मुझे लेकर मौसी के गाँव पेली को चल दिए।आज तो मेरे गाँव से पेली एक-सबा घंटे में ही पहुँच जाते हैं, लेकिन तब? सुबह से शाम हो जाती थी। मेरे गाँव से पाँच किमी पहले दहपा जाना पड़ता था और दहपा घंटों इंतजार करके सम्भल से हसनपुर जाने वाली बस में बैठकर हसनपुर पहुँचना तथा हसनपुर से जुगाड़ू साधन से गजरौला पहुँचकर रेलवे स्टेशन तक पहुँचना और वहाँ पर दो बजे तक ट्रेन का इंतजार करना। दो बजे ट्रेन से चलकर धनौरा पहुँचना और धनौरा से पैदल या स्टेशन से सवारी लेने अथवा छोड़ने आए किसी की बैलगाड़ी या ताँगा जैसे साधन के मिल जाने पर पाँच किमी चलकर पेली पहुँचना। इस रास्ते और इन साधनों से हम शाम तक दिन-दिन में ही पेली पहुँच गए। रेल तो धनौरा आधा घंटे में ही पहुँच जाती थी।पर गर्मियों में लोग स्टेशन पर ही पेड़ों की छाँव में कुछ खा-पीकर आराम करके दुपहरी ढले ही गन्तव्य के लिए प्रस्थान करते थे। जिन्हें कुछ आवश्यक कार्य या कोई विवशता होती वे ही उस रास्ते की तपती रेत की यात्रा पर दोपहरी में ही चल पड़ते थे। रास्ते में धनौरा से पेली तक रेत ही रेत और रेत के टीले थे। मैदानी भागों में रहने वालों के लिए तो वही रास्ता सचमुच में थार का मरुस्थल ही था। चलते हुए पाँव उस तपते हुए रेत में अंदर धँसने और बाहर निकलने में और तेज से गति से क्रियाशील होकर मंजिल शीघ्र तय करने में खूब मदद करते थे।

          आज तो धनौरा से पेली को चलें तो धनौरा से अमरोहा जाने वाली सड़क पेली के एक किलोमीटर दाँई ओर से गुजरती है और एक सड़क पेली के बाँई ओर से होती हुई नौगांवा सादात को जाती है। इन दोनों ही सड़कों पर प्राइवेट बस सेवा उपलब्ध है। लेकिन,उस समय? उस समय पेली से धनौरा का रास्ता रेत की भूड़ों का ही रास्ता था। गर्मियों के दिनों में उन भूड़ों का रेत शाम ढले तक तपता ही रहता था और सुबह को भी आठ बजे से ही तपना शुरू हो जाता था। पाँव भुनते रहते थे और मंज़िल तय होती रहती थी।

         अस्तु!दो दिन बाद बीबी को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। चार-छह दिन पिता जी वहाँ रहे तो मैं और पिताजी दोनों ही बीबी के लिए दोनों समय का खाना सुबह को एक बार ही लेकर पेली से रोज़ धनौरा आते और शाम को वापस पेली लौट जाते। बीबी के इलाज के लिए पिताजी को और पैसों की व्यवस्था करने तथा  बँटबारे में थोड़ी-बहुत खेती की जो जमीन आई थी, उसे किसी को बटाई पर देने के लिए अपने गाँव जाना आवश्यक था। उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम अपनी बीबी के लिए रोज़ाना खाना ले जाया करोगे। मैंने उत्साह में भरकर ख़ुशी-खुशी कह दिया,हाँ।दो दिन बाद पिताजी गाँव चले गए और मैं रोज़ाना बीबी का खाना ले जाने लगा।सुबह आठ-नौ बजे तक पेली से चलता। एक-डेढ़  घंटे में अस्पताल पहुँचता और दिन ढले धनौरा से चलकर सूरज छिपने से पहले-पहले पेली पहुँच जाता। गर्मा-गर्म रेत का ठंडियाता वह सफ़र मेरे नन्हें पाँव तय करना दो-तीन दिन में ही सीख गए थे।

            बालपन की छोटी सी उस उम्र में न खेल-कूद और न ही बचपन की मटरगश्ती,बस पेली से धनौरा और धनौरा से पेली। बचपन की दिनचर्या इतने में ही सिमट कर रह गई थी। इतने दुखदाई समय में मन इसलिए प्रसन्न रहने लगा था कि बीबी की बीमारी में दिनों-दिन सुधार होने लगा था और वह शारीरिक रूप से सुधार के कारण मानसिक चिंता से प्रसन्नता की ओर लौट लगीं थीं।

           धनौरा अस्पताल 'सघन क्षेत्र' में स्थित था और सघन क्षेत्र धनौरा से चाँदपुर जाने वाली सड़क के बाँई ओर एक दम बाहर की साइड था। किसी भी चीज की आवश्यकता होने पर धनौरा की बजरिया तक जाना ही पड़ता था। और तो किसी चीज की आवश्यकता अस्पताल में पड़ती ही नहीं थी।हाँ,कपड़े धोने का साबुन या छोटा-मोटा कुछ सामान ले आने के लिए मैं अस्पताल से बजरिया दो-तीन बार जा चुका था। एक दिन बीबी ने मुझे एक चवन्नी देकर कहा जा बजरिया से तरबूज ले आ।मैं चवन्नी लेकर बजरिया को चल दिया। बजरिया में कई जगहों पर तरबूज के बड़े-बड़े ढेर लगे हुए थे।एक ढेर पर मैं रूक गया और अपनी पसंद का तरबूज छाँटने में लग गया। छोटे-बड़े कई तरबूजों के मैंने पैसे पूछे।कई तरबूज चार आने से अधिक के थे।तब तरबूज वाले ने ही मुझसे पूछा - "बेटा तुम्हें कितने पैसे वाला तरबूज चाहिए।" मैंने कहा - " मेरे पास तो एक चवन्नी है।" तरबूज वाले ने मुझे एक चार-पांच सेर का तरबूज निकाल कर दे दिया। मैंने तरबूज लिया और चवन्नी तरबूज वाले को देकर वापस चल दिया। तरबूज ले जाकर अस्पताल में बीबी को दे दिया। बीबी का ध्यान मेरे पाँव पर गया तो वह तपाक से बोलीं कि तेरे चप्पल कहाँ हैं? चप्पल पाँव में थे ही नहीं। मैं उदासी से भर गया। कंगाली में आटा जो गीला हो गया था। मैंने बीबी से कहा बीबी चप्पल तरबूज वाले के यहाँ ही रह गए। मुझे याद आ गया था कि मैं चप्पल उतार कर अपनी पसंद का तरबूज लेने के लिए तरबूजों के ढेर के चक्कर काट रहा था। मैं बीबी से कहकर बजरिया को अपने चप्पल ले आने के लिए चल दिया। तरबूज वाले के पास पहुँचा और उनसे मैंने कहा कि मेरे चप्पल यहाँ रह गए थे। उन्होंने कहा - देख लो बेटा! कहाँ रह गए थे? मैंने वहाँ अच्छी तरह से हर जगह देख लिया लेकिन चप्पल नहीं मिले और मैं वापस लौट आया। लौट कर बीबी की गोद में मुँह देकर लुढ़क गया और खूब रोया । बीबी भी मेरे रोने पर जी भर कर रोई।उस दिन चप्पलों का खो जाना, मेरे लिए मेरा तो बहुत कुछ खो जाना था।उस समय मेरे चेहरे पर घोर उदासी थी ही पर मेरे भीतर और भी घनघोर उदासी व्याप्त थी। मैं और बीबी दोनों ही तरबूज खाना भूलकर चप्पलों में ही खो गए। किसी चीज का किसी के लिए क्या महत्व होता है,वह ऐसे ही क्षणों में पता लगता है?उस दिन मुझे ऐसा लगा कि चप्पल क्या गए बड़ा सहारा चला गया। बड़ा सहारा इसलिए कि प्रतिदिन भूड़ो के गर्म रेत के रास्ते की यात्रा करने में ये चप्पल ही तो एकमात्र सहारा थे।अब जाने चप्पल कब नसीब होंगे,कैसे होंगे,कुछ भी पता नहीं।चप्पल मुझ पर नहीं थे पर मैं चप्पलों में ही पड़ा हुआ था। तरबूज न बीबी ने खाया और न ही मैंने । दोपहरी ढले मैं हर दिन की तरह रुआंसा सा पेली के लिए चल दिया। पेली पहुँचा तो मुझे उदास देख मौसी ने पूछा कारिनदर क्या बात है,बेटा। मैंने सारी कहानी सुनाई तो मौसेरे भाई-बहन और मौसी इतना हँसें कि उनकी उन्मुक्त हँसी ने मुझे भी हँसा दिया और मौसी ने ढाँढस बँधाया कि चिंता मत कर बाबले,चप्पल ही तो खोए हैं,मौसा-मौसी थोड़ी ही खोए हैं। तेरे मौसा जिस दिन धनौरा जाएँगे, तुझे चप्पल दिला देंगे या गाँव में फेरुआ आ गया तो मैं यहीं ले लुँगी तेरे नाप के। मैं अगले दिन नंगे पाँव बीबी का खाना लेकर गया तो मैंने बीबी को बताया कि मौसी ने कह दिया है कि वह मुझे चप्पल दिला देंगी। बीबी ने मुझे गले लगा लिया और तरबूज फाड़कर मुझे खिलाने लगीं साथ- साथ उन्होंने खुद भी खाया। मेरे पीछे-पीछे मौसा जी भी अस्पताल पहुँच गए और बजरिया ले जाकर मुझे चप्पल दिला लाए। शाम को मैं और मौसा जी पेली पहुँच गए और हमारे एक -डेढ़ घंटे बाद पिताजी भी अपने गाँव से अस्पताल होते हुए पेली पहुँच गए।

    पहले तो मेरे चप्पलों पर आपस में खूब बात हुई।मेरे खोए चप्पल मुझे गुदगुदाने की कहानी बन गए,

पर मेरी चिंता तो उड़नछू होकर नए चप्पलों का गौरव पाकर बल्लियों उछलने लगी थी। जुलाई आने को थी।मेरा स्कूल खुलने वाला था। मुझे अपने गाँव लौटना था। पिताजी ने पूछा - कारेन्द्र तुम अकेले गाँव चले जाओगे। मैंने उछल कह दिया,हाँ। और अगले दिन

पिताजी ने मुझे आधा टिकट लेकर धनौरा से गाड़ी

मैं बैठा दिया और खर्चे के लिए बीस रुपए देकर गाड़ी में बैठाकर घर के लिए विदा कर और मैं शाम को अपने घर पहुँच गया।

       घर पर दादी थीं और दो चाचा जी थे। न्यारे हो ही चुके थे। मुझे सभी का व्यवहार बदला-बदला लगा। मैं

सुबह को अपना बस्ता और कपड़े लेकर स्कूल चला गया। सतूपुरा स्कूल के एक किलोमीटर पर पेली नाम का ही एक गाँव है।वहाँ मेरी दो मौसियां थी। उनके घर भी बराबर-बराबर ही धे। दोनों घरों में कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता था। परस्पर मेल-जोल का अभूतपूर्व उदाहरण थे वह दोनों घर। मैं स्कूल की छुट्टी के बाद अपनी मौसियों के यहाँ पहुँच गया।मैं मौसी के घर से ही स्कूल आने-जाने लगा। उधर जुलाई के अंत तक पिताजी भी बीबी को लेकर गाँव पहुँच गए और इस सूचना को अपने गाँव के अन्य छात्रों से जानकर मैं भी अपने गाँव चला गया। बीबी बिल्कुल ठीक होकर घर पहुँची थीं। दवाई आगे भी चलनी थी।

         एक दिन पिताजी और बीबी दोनों ने पूछा कि तू यहाँ आकर मौसियों के यहाँ क्यों चला गया। मैं उन्हें उनके प्रश्न का उत्तर तो नहीं दे पाया, लेकिन उत्तर तो मेरे पास था कि उपेक्षा के दर से लाड़,प्यार और दुलार के घर चला गया था। बचपन को यही तो चाहिए।यह जहाँ भी मिल जाता है, बचपन वहीं रमण जाता है।

        

✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी

झ -28, नवीन नगर

काँठ रोड, मुरादाबाद - 2440011

मोबाइल: 9319086769

रविवार, 28 जनवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी द्वारा लिखित संस्मरण ....यू परवतिया मरेगी



     मैं भी देश के उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से हूँ, जो 26 जनवरी 1950 के बाद अपने स्वाधीन भारत में पैदा हुए।परिजनों की याददाश्त के आधार पर मेरा जन्म 12 फरवरी 1951 को हुआ। जब मैं छ: वर्ष का होने को था,तभी पड़ोस के गाँव रझा के प्राथमिक  विद्यालय में मुझे प्रवेश दिला दिया गया।12 फरवरी 1951 को पैदा हुआ मैं,विद्यालय में प्रवेश लेते ही 10 नवंबर 1951 को पैदा हुआ दर्ज़ हो गया।उस समय ऐसा ही होता था। विद्यालय न जाने वाले बच्चों की जन्मतिथियाँ तो किसी को याद ही नहीं रहती थीं,उम्र का हिसाब-किताब सिर्फ अंदाज से चलता रहता था और विद्यालय जाने वाले बच्चों की जन्मतिथियाँ प्रवेश के समय हेड मास्टर साहब अपने हिसाब से तय करके प्रवेश रजिस्टर में दर्ज कर दिया करते थे।अस्तु! विद्यालय में मेरा प्रवेश हो गया और विद्यालय आना-जाना शुरू।इस प्रकार मेरी विद्या का श्रीगणेश हो गया।

     ‌     विद्यालय जाने में नानी मरती थी,जाने का मन ही नहीं होता था।मन तो गाँव के बाल सखाओं के साथ खेलने- कूदने में ही मग्न रहता था। मेरे बाल मन में स्कूल आते-जाते समय रास्ते भर स्कूल गोल करने की बातें स्वत: ही ध्यान में आने लगीं और इसके लिए भाँति-भाँति की युक्तियाँ भी सूझने लगीं,जाने क्यों? अंततः स्कूल गोल करने का विचार दिन पर दिन हावी होने लगा और एक दिन जब मैं स्कूल जाने के लिए घर से निकला तो देखा बाहर सामने वाली बैठक खाली पड़ी थी। वहाँ पर चार-पांच बैठने वाले मूढ़े पड़े हुए थे। मुझे पता नहीं क्या सूझा कि मैं एक मूढ़े को तिरछा करके उसके नीचे घुस गया और उसे अपने ऊपर सीधा कर लिया।अब मैं मूढ़े के नीचे और मूढ़ा मेरे ऊपर। मैं छुप तो गया पर यह सोचकर मेरे भीतर बड़ी धुकर-पुकर थी कि मेरे स्कूल गोल करने का ऊँट जाने आज किस करवट बैठेगा। इतने में ही गाँव के ही एक सज्जन वहाँ पर आए और उन्होंने बैठक वालों को ताऊ जी कहकर आवाज़ लगाई। आवाज़ लगाकर उत्तर की प्रतीक्षा में वह उसी मूढ़े पर टिक लिए जिसके नीचे मैं छुपा हुआ था।मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे। मैं अपनी साँसों को पी गया। मुझमें लेशमात्र भी जुंबिस नहीं ,बस पत्थर होकर जैसे-तैसे बैठा रहा। गनीमत रही कि उन सज्जन को अंदर से जवाब मिल गया कि घर पर कोई नहीं है।यह सुनकर वह उठ लिए और उठकर एकदम चल दिए। मुझे वह जगह सुरक्षित नहीं लगी।कोई दूसरी मुसीबत आकर                                              मूढ़े पर न बैठ जाए,इस विचार से मेरे मन में आया कि अब यहाँ से निकल लो,पर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ?मेरा घर तो सामने ही था,पर घर जाऊँ तो पिटने का डर और गाँव के किसी भी अन्य रास्ते से इधर-उधर जाऊँ तो अवश्य ही कोई न कोई रास्ते में मिल जाएगा।मिल जाएगा तो सारी पोल-पट्टी भी खुल जाएगी। पोल-पट्टी खुल जाएगी तो घर पर भी मार जमकर ही पड़नी है।आज तो आगे कुँआ है और पीछे खाई।बहुत सोच- विचार कर मैं अपने घर को ही लौट लिया।घर में घुसते ही दादी और बीबी (मैं माता जी को बीबी ही कहता था) को नमस्ते की। बीबी ने कहा - स्कूल नहीं गया क्या? मैंने तत्काल बहाना बना दिया कि मुझे उलटी हो गई और पेट में दर्द है, इसलिए रास्ते से ही लौट आया। बहाना सफल रहा।लल्लो चप्पो भी हुई और पड़ने वाली मार से भी बच गया। दोपहर को पिताजी जंगल से लौटे। उन्होंने पूछा तो बीबी ने उन्हें भी यही बता दिया। उन्होंने भी लाड़ जताते हुए सिर पर हाथ फेरकर खूब पुचकारा। मैंने मन ही मन शुक्र मनाया कि आज तो बच गए, बच्चू।ऐसी सफलताओं का भीतर ही भीतर जो आनन्द होता है, उसके लिए शब्द मुझ पर क्या किसी के पास नहीं होते।बस सोचते रहिए और आनन्द में गोते लगाते रहिए,सो मैंने भी आनन्द में मन भरकर डुबकियाँ लगाईं। बचपन इसी का नाम है।बालपन ने ही तो पूरे घर को छका दिया न।

         अगले दिन से नियमित स्कूल जाना शुरू। समय से जाना और समय से लौट कर घर आना।घर वाले सब बहुत खुश कि बालक पढ़ाई की लाइन पर पड़ गया।पर मेरे भीतर तो कुछ और ही पक रहा था। अगले दिन जब मैं स्कूल जाने के लिए गाँव के जिस रास्ते से निकला उसपर ताऊ बसंत ठेकेदार की ढुंड पड़ी खुली जगह में एक बड़ (बरगद)का खूब बड़ा पेड़ था। उसके तने की बनावट कुछ ऐसी थी कि बालक भी उसपर आसानी से चढ़ जाते थे और ऊपर ऐसी बनाबट उसके गुद्दों की भी थी कि कोई भी आराम से बैठ सकता था और कमर टिका कर लेट भी सकता था। मैं उसी पर चढ़ लिया। आराम से बैठा और लेट भी लगाई। स्कूल मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी पर ही था। स्कूल के इंटरवल और छुट्टी की घंटी की सुनाई वहाँ तक खूब तेज आती थी।उन दिनों स्कूल जाने के अपने अलग ही मजे थे। सुबह घर से मक्खन से रोटी और साथ में दूध या छाछ से खूब छककर स्कूल जाते थे और स्कूल में इंटरवल में खाने के लिए घी में तर गेंचनी की दो रोटियाँ आम के अचार के साथ एक छन्ने में बाँध कर बस्ते में रख दी जाती थीं और सख्त हिदायत दी जाती थी कि इंटरवल में जरूर खा लेना, भूखे मत रहना बेटा। उन रोटियों को खाकर पूरे दिन भी पानी पीने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती थी। स्कूल में जब इंटरवल की घंटी बजती तो मै बँधी रोटियाँ खोल लेता और पेड़ पर बैठे-बैठे खाना शुरू कर देता और जब स्कूल की छुट्टी की घंटी बजती तो गाँव के बालकों को पेड़ पर से ही गाँव की ओर आता हुआ देख देखभाल कर नीचे उतरता तथा अपने घर पहुँच जाता। वह बरगद का पेड़ मेरा पिकनिक स्पॉट बन चुका था।

          स्कूल जाते हुए किसी भी दिन मैं स्कूल गोल कर दिया करता और अपने मनोरम उस बरगद के पेड़ के पिकनिक स्पॉट का भरपूर आनंद लेता,यद्यपि उस समय यह पता ही नहीं था कि पिकनिक भी कुछ होती है। आज सोचता हूँ तो उस बचपन में उससे बढ़िया पिकनिक और क्या हो सकती थी? अपना यह क्रम लगभग दो-तीन महीने से चल रहा था।स्कूल भी जाते रहना और जिस दिन मन हुआ - स्कूल गोल करके बरगद के पेड़ को नानी का घर समझकर खूब मस्तियाँ करना।

         बरगद का वह पेड़ नानी का घर तो था नहीं।वह तो अपने ही गाँव का पेड़ था।वहाँ से तो गाँव की आने -जाने वाली कोई न कोई दादी,ताई,चाची,बुआ ,भावी, बहन अथवा कोई न कोई दादा,ताऊ,चाचा,भाई आदि अपने नित्य कार्यों से गुजरते ही रहते थे।यह डर भी बना रहता था कि किसी को तनिक भी भनक लग गई तो हमेशा के लिए पिकनिक-विकनिक सब रिल जाएगी। कहानी बना तो ली, पर कही न जाएगी।घर का कोई भी कुछ कहने की तो नौबत ही नहीं आने देगा, वह तो ठीक से कर्रा पड़कर जमकर खबर ही लेगा। पर,यह दिन तो आना ही था। सो,एक दिन उस दिन की वह घड़ी आ ही गई कि जब अपनी पोल-पट्टी खुलनी ही थी। अपने आप को बरगद के पेड़ के धोखे के जो कपड़े पहनाए थे,वह उतरने ही थे और अपुन को सरेआम नंगा होना ही था।

          गाँव के रिश्ते से मेरी दादी लगने वाली पार्वती जी का घेर उसी बरगद के पेड़ वाले ढुंड के बराबर में ही था।

गाँव में उन्हें परवतिया नाम से पुकारा जाता था। वह स्कूल के इंटरवल के कुछ समय बाद नियमित रूप से अपने ढोर-डंगरों के कार्य को निपटाने उधर से ही अपने पथनवाले जाती थीं-यानिकि पशुओं का गोबर घेर से उठाकर पथनवाले में डाल कर उपले पाथने। मैं उन्हें रोज़ इसलिए निहारता था कि वह मुझे निहार न लें। वैसे तो उधर से आने-जाने वाले अन्य सभी तो इधर-उधर देखे बिना फर्राटे से सीधे निकल जाते थे,पर दादी! चारों ओर देखती हुई और ताड़ती हुई ही निकलती थी। यद्यपि मैं उनसे छुपा रहा और मेरी परछाईं तक की भी भनक उन्हें महीनों तक न लग सकी।पर,होनी तो होने के लिए ही होती है और वह हो ही गई। आखिर उन्होंने मुझे एक दिन देख ही लिया और देखते ही झट से दौड़ कर पेड़ के नीचे आ धमकीं।डाँट कर बोलीं- 'उतर नीचे।' मैं सकपकाया सा डर से भरा हुआ नीचे उतर आया और उनके सामने हाथ जोड़ कर उनके पैरों में गिर पड़ा कि दादी घर पर मत कहना।आज के बाद रोज़ स्कूल जाऊँगा। दादी कहाँ मानने वाली थीं।न उन्हें मानना था और न ही वह मानीं।मेरा कान पकड़ा और खींचकर मुझे मेरे घर की ओर लेकर चल पड़ीं।मेरे घर के दरबाजे पर पहुँचते ही मेरी बीबी को जोर की आवाज लगाई।अरी,ओ बहू ऊऊऊऊ!ले थाम अपने छैला को। ठेकेदार के बड़ के पेड़ पर चढ़ा बैठा था।यू स्कूल-विस्कूल ना जाता दीखै है,उस पेड़ पर चढ़ा रहबै है।एक दिन मुझे और धोखा सा लगा था,पर मैं टाल गई थी।आज जब मुझे इसकी झपक पड़ी तो मैंने पेड़ के पास जाकर देखा तो यू उसपे छुपा बैठा था। मेरी बीबी उस समय नल पर बर्तन माँज रहीं थीं।उनके हाथ में पीतल का भारी लोटा था। उन्होंने दादी के हाथ में से मुझे लपकते हुए लोटा मेरे सिर में दे मारा।एक बार नहीं तीन बार। मेरे मन में उनके प्रति गुस्सा भर गया था। रोते-रोते मेरे मुँह से जोर से निकला -'यू परवतिया मरेगी।' एक लोटा और पड़ा धड़ाम से। और भी पड़ते,पर परवतिया दादी ने ही बीबी के हाथ में से मेरा हाथ छुड़ा कर मुझे बचा लिया। दोपहर को पिताजी जंगल से आए और इस कथा की जानकारी होने पर उन्होंने भी मुझे बहुत कर्रा लिया। पीटते-पीटते एक संटी तोड़ डाली।दूसरी संटी उनके हाथ ही नहीं आई, नहीं तो उस दिन उसका भी टूटना तय था।

        यह पिकनिक का दूसरा हिस्सा था। पहले हिस्से ने मौज मस्ती दी और इसने सबक।उस दिन के बाद मैं घर से स्कूल गया तो स्कूल ही गया। कक्षा एक से लेकर स्नातकोत्तर तक कभी क्लास गोल नहीं की।ऐसा परवतिया दादी की बजह से ही हो पाया। परवतिया दादी न होती तो मैं भी जाने क्या होता? परवतिया दादी की जय हो।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर

काँठ रोड, मुरादाबाद -244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल:9319086769

गुरुवार, 20 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दिग्गज मुरादाबादी के संदर्भ में ए टी ज़ाकिर का संस्मरणात्मक आलेख..... "आ, लौट के आजा मेरे मीत "


शायद वर्ष 1972 था या 1973, उन दिनों मैं मुजफ्फरनगर से स्टेट बैंक की अपनी नौकरी छोड़ के मुरादाबाद  लौट चुका था और शायद "साईको" उपन्यास के अनुवाद की तैयारी में व्यस्त था।  परंतु , साहित्यिक गोष्ठियों व सम्मेलनों में गाहे-बगाहे जाता रहता था। एक शाम हमारे साहित्यिक मित्र और मेरे वरिष्ठ कवि डा विनोद गुप्त जी के निवास, सब्जी मंडी पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन था। मैं भी आमंत्रित था। वहीं लम्बे चौड़े गोरे से चश्मा लगाये एक नवीन साहित्यकार से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने अपना नाम प्रकाश चन्द्र सक्सेना ’दिग्गज’ बतलाया। वे सफेद पाजामें– कुर्ते में बड़े प्रभावशाली लग रहे थे, और काफी हंसमुख भी थे।

बोले, "अरे, जाकिर साहब, मैंने आपका बहुत नाम सुन रखा है। आज आपसे मिल कर तबियत खुश हो गयी, मेरी।"

मैं हंसा, " श्रीमन तबियत तो मेरी भी खुश क्या डबल खुश हो गयी आपसे मिल के !"

वे बोले, "मतलब, डबल खुश कैसे ? " मैंने समझाया, " सादर प्रणाम ! श्रीमन मेरे श्वसुर महोदय का भी यही नाम है, श्री प्रकाश चन्द्र सक्सेना ! उपस्थित सभी लोग हँसने लगे।

 ‌‌यही थी मेरी 'दिग्गज जी' से पहली मुलाकात की बानगी !

 ‌उन्होंने बड़े ऊंचे स्तर की उर्दू नज़्में में सुनाई ।

बस, उस शाम के बाद उनका बारादरी स्थित मेरे निवास पर आना-जाना होने लगा और हम अक्सर मिलने लगे।

 जब मिलते थे, तो सुनना-सुनाना भी हो जाता था। पर उस समय तक वो शायर

 " दिग्गज' थे, "दिग्गज मुरादाबादी 'नहीं! और सिर्फ उर्दू में कलम चलाया करते थे। एक शाम को अपने साथ एक अन्य वरिष्ठ साहित्यकार को मेरे घर ले आये, परिचय कराया श्री बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी'! प्रवासी जी उच्च कोटि के कवि थे और तहसीली स्कूल में अध्यापन कार्य करते थे। वह" मैढ़ बालक" नामक एक बाल पत्रिका का संचालन भी करते थे। 

 अब हमारी काव्य गोष्ठियों में दिग्गज जी प्रवासी जी के साथ ही आने लगे। दिग्गज जी बहुत उच्च कोटि को नज़्मकार थे और मंच को जीत लेने वाली अनेक नज़्में कह चुके थे। मुझे उनका कलाम बहुत पसंद आता था और हम दोनों एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। उन्ही दिनों मुझे पता चला कि दिग्गज जी, मुरादाबाद कचहरी में अर्जी नवीस का काम करते थे।

शायद, एक बार मैं किसी काम से कचहरी के पोस्ट आफिस गया तो, कचहरी में जाकर उनके बस्ते पर बैठ कर  एक प्याला चाय भी पी आया। वहीं बातचीत में उनसे पता चला कि वे कटघर में पचपेड़ा नामक स्थान पर रहते थे। इसके बाद तो साहित्यक गोष्ठियों में वे हुल्लड़ मुरादाबादी, ललित मोहन भारद्वाज, पुष्पेन्द्र वर्णवाल, डा० विनोद गुप्ता, ओम प्रकाश गुप्ता, प्रवासी जी, कौशल शलभ और मक्खन जी के साथ मुझे मिल ही जाते थे। वैसे, उन्होंने बहुत कुछ कहा था, कहते ही रहते थे मगर उनकी एक नज़्म "झांसे वाली रानी" बहुत प्रसिद्ध हुई थी, मुझे भी पसंद थी। उसकी प्रारंभ की कुछ  पंक्तियां मुझे आज 52-53 वर्षों के बाद भी याद है?

सरल,सौम्य आकृति, मगर कुछ थोड़ी सी अभिमानी है ,

है प्रयाग से प्यार, कि जिससे इसकी जुड़ी कहानी है। 

सब लोगों,कुल अखबारों में खबर यही छपवानी है, 

कि एक थी झांसी वाली,पर यह झांसे वाली रानी है।

सैकुलर नारों की सारी शेखी  चकनाचूर हुयी, 

बाईस वर्षों में भी तुमसे नहीं गरीबी दूर हुयी। 

कुछ भी तुमसे हो न सका, पर इतनी बात ज़रूर हुयी, 

कि भूखी-नंगी भारत माता दूर-दूर मशहूर हुयी ।

 इस पर भी तू अपने मन में फूली नहीं समानी है। 

 एक थी झाँसी वाली पर ये झांसे वाली रानी है । (रचना काल 1969)

इसी प्रकार उनकी एक और नज़्म थी.. " मेहतर की बेटी ", उसे भी वो बड़े चाव से पढ़ते थे।

असल में उन दिनों कविता ' लुहार की लली' काफ़ी प्रसिद्धि पा रही थी, उसी से प्रभावित होकर दिग्गज जी ने यह कविता या नज़्म जो कुछ भी यह थी उसे लिखा। 

 प्रोफेसर एन० एल० मोयात्रा के घर पर होने वाली मासिक हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमनी काव्य गोष्ठी " बज़्मे मसीह" में दिग्गज जी हमेशा भाग लेते थे और खूब सराहे जाते थे।

परन्तु, इस सारे समय में वे जो डायरी अपने साथ लाते थे, उसमें  जो कुछ भी उनकी हस्तलिपि में होता था, वो सब उर्दू में ही होता था।

  इन कुछ महीनों के  साथ के बाद मेरा उनसे ही क्या मुरादाबाद से ही साथ छूट गया, जब मैं मुरादाबाद से प्रस्थान कर गया। पर उन्हें और उनके साहित्य और अपनत्व को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा । इसी लिये चाहता हूं, वो एक बार फिर हमारे बीच लौट आएं और अपने  क़लाम से हमें नवाज़ें !


✍️ ए टी ज़ाकिर 

 फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001  मोबाइल फ़ोन नंबर 9760613902, 847 695 4471

 मेल- atzakir@gmail.com

गुरुवार, 15 जून 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ महेश दिवाकर की कृति ....लोकधारा 9 । यह कृति वर्ष 2023 में विश्व पुस्तक प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुई है। इस कृति में उनकी पूर्व प्रकाशित कृतियां धरती के अवतंस (संस्मरण), दिये यादों के (संस्मरण) और भारत की जीवनदायिनी सरिताएं (रेखा चित्र) समाहित हैं...



 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

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:::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित नई दिल्ली की साहित्यकार डॉ कीर्ति काले का संस्मरणात्मक आलेख...... विद्वत्ता, विनम्रता एवं विचारशीलता का अद्भुत समन्वय थे डॉ कुंअर बेचैन ....


तुम ही भरी बहार से आगे निकल गए

तुम मेरे इन्तजार से आगे निकल गए

विद्वत्ता, विनम्रता एवं विचारशीलता का अद्भुत समन्वय थे डॉ कुंअर बेचैन जी। बहुत सारे लोग बहुत विद्वान होते हैं। विद्वत्ता का दर्प उन्हें विनम्र नहीं रहने देता और वे अहंकारी हो जाते हैं। कुछ विनम्र तो होते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश वे विद्वान नहीं होते। विरले ही होते हैं जो विद्वान और विनम्र दोनों एक साथ हों। विद्वान एवं विनम्र होने के साथ साथ व्यक्ति विचारशील भी रहे ऐसा तो दुर्लभ से भी दुर्लभतम है। गीत के शलाका पुरुष और ग़ज़ल के उस्ताद आदरणीय डॉ कुंअर बेचैन जी इसी तीसरी अति विशिष्ट श्रेणी में आते थे। अत्यन्त विद्वान,अति विनम्र एवं सतत् विचारशील।

     डॉ कुंअर बेचैन जी ऐसे चंद कवियों में से एक हैं जो कवि सम्मेलनों मे जितने सक्रिय एवं लोकप्रिय थे, प्रकाशन की दृष्टि से भी उतने ही प्रतिष्ठित थे। इनके साहित्य पर पन्द्रह से भी अधिक पी एच डी के शोधग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक गीत, नवगीत, ग़ज़ल, बाल कविता संग्रह, महाकाव्य, उपन्यास आपके प्रकाशित हो चुके हैं। आपने हिन्दी छन्दों के आधार पर ग़ज़ल का व्याकरण लिखा। यह डॉ कुंवर बेचैन जी की हिन्दी एवं उर्दू के नवोदित लेखकों के लिए महत्वपूर्ण देन है।

     मैंने जबसे कविता का कखगघ समझा तब से डॉ कुंअर बेचैन जी से परिचय है। कवि सम्मेलन जगत में आने के पश्चात हजारों यात्राएँ साथ में कीं। लाखों मंचों पर आपका सान्निध्य प्राप्त हुआ। देश विदेश में आपके साथ जाना हुआ।कवि सम्मेलनों से इतर भी सदा मार्गदर्शन और आशीर्वाद मिलता रहा। जब आपके न होने का दुखद समाचार मिला था तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ।आपके परम शिष्य चेतन आनन्द जी को फोन किया तो उनकेे हिचकियों भरे रुदन ने दुखद सूचना पर मुहर लगा दी।आप तो ठीक हो रहे थे न ! दो एक दिन में आपको अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी और अचानक !

बहुत सारे दृश्य आंखों के सामने उमड़ घुमड़ रहे हैं ।

दुबई यात्रा पर जब हम साथ गए थे तब वहां इंडियन स्कूल में कवि सम्मेलन था। कवि सम्मेलन के मंच पर जब सारे कवियों के साथ मैं और डॉ कुंअर बेचैन जी पहुंचे तब स्कूल की प्रिंसिपल साहिबा दौड़ कर हमारे पास आईं और उन्होंने सबके सामने डॉ कुंअर बेचैन जी के चरण स्पर्श किए और बोला आज हमारा अहोभाग्य है कि आप के चरण हमारे विद्यालय में पड़े। शायद आपको मालूम है या नहीं, आपकी कविताएं हमारे विद्यालय के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। कई बच्चे आप की कविताएं खूब मन से गाते हैं। इतना बड़ा व्यक्तित्व डॉ कुंअर बेचैन जी का और इतने सहज कि क्या कहूं।कोई भी अच्छा काम करने पर ₹10 इनाम  देते थे। मंच पर भी इतने सरल इतने सहज। 

  कभी किसी की निंदा करते हुए मैंने देखा ही नहीं डॉ कुंवर बेचैन जी को। सदा अपने से छोटों की और अपने से बड़ों की प्रशंसा ही करते थे। छोटों का मार्गदर्शन भी करते थे तो प्रोत्साहित करते हुए। उनकी गलतियां बताते थे तो वह भी ऐसे जिससे वह हतोत्साहित ना हों। 

    एक घटना का स्मरण और हो रहा है ।अभी कुछ दिनों पहले मैं प्रेरणा दर्पण साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के सिलसिले में उनसे बात कर रही थी ।बातचीत के दौरान डॉक्टर साहब ने बताया कि बहुत सारी चीजें उन्होंने शुरू कीं। जैसे पुस्तकें प्रकाशित कराईं तो पुस्तकों के प्रत्येक पृष्ठ पर कवि एवं प्रकाशक का उल्लेख अवश्य किया। इसके पीछे का कारण यह है कि पुस्तके तो कई सालों तक रहती हैं। कालांतर में पुस्तकों के पृष्ठ अलग-अलग हो जाते हैं। तब बिखरे हुए पृष्ठों पर प्रकाशित सामग्री के रचयिता कौन है इस बारे में पता करना कठिन हो जाता है । हम से पूर्व अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं  जिनके पृष्ठों पर कवि का नाम प्रकाशित नहीं था। इसलिए वे रचनाएं विवादास्पद रहीं। हमने बहुत विचार करने के बाद अपनी पुस्तकों के प्रत्येक पृष्ठ पर अपना नाम मुद्रित करवाया। कई लोगों ने इस बात का उपहास भी किया लेकिन बाद में इसी प्रक्रिया को उन्होंने भी अपनाया। मुझे याद आया कि जब मेरी पुस्तक  "हिरनीला मन" डॉ कुंअर बेचैन जी के मार्गदर्शन में प्रकाशित हुई थी तब उसके प्रत्येक पृष्ठ पर मेरा एवं प्रकाशक का नाम अंकित हुआ था। यह डॉ कुंअर बेचैन जी की दूरदर्शिता एवं विचार शीलता का एक उदाहरण है। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो डॉक्टर साहब की विचार शीलता को उद्घाटित करते हैं। 

    सन 2018 को भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से 6 कवि जिनमें कुंअर बेचैन जी एवं मैं भी सम्मिलित थे 15 दिन की इंग्लैंड काव्य यात्रा पर गए थे। वहां डॉक्टर साहब के इतने चाहने वाले श्रोता थे कि मत पूछिए ।प्रत्येक शहर में प्रत्येक कवि सम्मेलन के बाद बहुत बड़ी संख्या में श्रोता  कुंअर बेचैन जी को घेर कर खड़े हो जाते थे और उनके ऑटोग्राफ लेने लगते थे। डॉक्टर साहब इतने सरल इतने सहज कि आकाश की ऊंचाई पर होते हुए भी सदा हमारे साथ बड़ी विनम्रता से व्यवहार करते थे। हम उनसे मजाक भी कर लेते थे साथ में खूब कविताएं सुनते सुनाते थे । आज वे दिन बहुत याद आ रहे हैं ।

बहुत कम लोग जानते हैं कि कुंअर जी बहुत अच्छे चित्रकार भी थे।उनकी प्रकाशित अधिकांश पुस्तकों पर उनके द्वारा बनाए गए रेखा चित्र हैं।जब भी डॉ साहब अपनी पुस्तक किसी को भेंट करते थे तो प्रथम पृष्ठ पर शुभकामनाओं के साथ हस्ताक्षर करने से पहले बहुत सुन्दर चित्र बनाकर विशेष आशीर्वाद देते थे।

   एक बात और बताना चाहूंगी। डॉ कुंअर बेचैन जी को कोई भी लेखक, रचनाकार पुस्तक भेंट करता था तो डॉक्टर साहब उस पुस्तक की राशि लेखक को अवश्य देते थे ।वह ना लेना चाहे तब भी जबरदस्ती उसकी जेब में रख देते थे ।इसके पीछे बहुत ठोस कारण था। वे कहते थे कि आजकल कोई भी प्रकाशक बिना पैसे लिए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित नहीं करता। पुस्तक प्रकाशन में कितना परिश्रम एवं धन लगता है यह मैं भली-भांति जानता हूं। इसलिए किसी की भी पुस्तक मैं बिना मूल्य चुकाए नहीं लेता।और हाँ, मैं अपनी पुस्तक बिना मूल्य लिए देता भी नहीं हूं। मुझे याद आया जब डॉक्टर साहब ने अपना महाकाव्य "पांचाली" मुझे दिया तब अधिकार पूर्वक आदेशात्मक स्वर में मुझसे ₹500 मांगे यह कहते हुए की यह राशि मैं आपसे इसलिए ले रहा हूं जिससे आपको पुस्तकें खरीद कर पढ़ने का अभ्यास रहे।

पिछले पचास,पचपन वर्षों से डॉ कुंअर बेचैन जी हिन्दी कवि सम्मेलनों का इतिहास लिखने के लिए सामग्री एकत्रित कर रहे थे। प्रत्येक मंच पर वे कागज कलम लेकर मंच पर होने वाली हर गतिविधि को लिखते थे। जैसे शहर एवं स्थान का नाम, संयोजक, संचालक आयोजक एवं अध्यक्ष का नाम ,मंचासीन कवियों का नाम, किस कवि ने कौन सी कविता सुनाई उसकी प्रमुख पंक्तियां, कवि सम्मेलन में घटित होने वाली महत्वपूर्ण घटनाएं आदि आदि। पिछले 55 वर्षों से निरंतर लिखकर बहुत बड़ी संख्या में सामग्री एकत्रित कर ली थी डॉक्टर साहब ने ।अब समय था उस एकत्रित सामग्री पर मनन करके उसे ऐतिहासिक रूप देने का। लेकिन ईश्वर ने इतना अवकाश कुंवर जी को नहीं दिया। उनके लिखे इतने सारे पृष्ठ किसी न किसी फाइल में सुरक्षित होंगे। किसी न किसी डायरी में "कवि सम्मेलन का इतिहास" की रूपरेखा अंकित होगी। हमारा दायित्व है कि हम हमारी संपूर्ण सामर्थ्य के साथ डॉक्टर साहब के अधूरे कार्य को पूर्ण करें। ईश्वर हमें शक्ति दे कि हम यह कार्य कर पाएँ। 

   हॉस्पिटल में एडमिट होने के तीन-चार दिन पहले मैंने डॉ कुंवर बेचैन जी को फोन किया और उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली। दूरदर्शन द्वारा मेरे व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक कार्यक्रम बनाने की योजना थी जिसमें कुछ व्यक्तियों को मेरे बारे में बोलने के लिए कहा गया था ।जब मैंने यह बात डॉक्टर साहब को बताई तो वह बोले देखो न कीर्ति जी मेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि मैं आप पर बहुत कुछ बोलना चाहता हूं लेकिन आज मेरा स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। गला बहुत खराब हो गया है। मैं अभी आपसे बातें भी बहुत मुश्किल से कर पा रहा हूं। मैंने कहा कोई बात नहीं डॉ साहब आप ठीक हो जाइए उसके बाद  वीडियो बना दीजिएगा ।मैं दूरदर्शन वालों को बता देती हूं। अगले दिन फिर डॉक्टर साहब का फोन आया और वे भारी मन से क्षमा मांगते हुए कहने लगे की मेरा बुखार अभी तक नहीं उतरा है ।मैं और आपकी चाचीजी अब अस्पताल में भर्ती होने जा रहे हैं ।वापस आ गए तो सबसे पहला काम आपका ही  करूंगा ।देखो ना आज कहने को बहुत कुछ है लेकिन कह नहीं पा रहा ।इतना विवश, इतना असहाय मैंने स्वयं को कभी भी महसूस नहीं किया ।मैंने बोला नहीं डॉक्टर साहब ऐसा मत कहिए। आप बिल्कुल ठीक हो कर आएंगे। हम साथ में बैठकर गोष्ठी करेंगे फिर आप जी भर कर बोलिएगा। बस डॉ कुंवर बेचैन जी से यही अंतिम बातचीत थी मेरी। आज अत्यन्त द्रवित ह्रदय से मैं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रही हूं ।

    डॉक्टर साहब के  दुनिया भर में अनेक शिष्य हैं जिसने भी डॉ कुंअर बेचैन जी को सुना है अथवा पढ़ा है अथवा जो उनसे मिला है वो उनके आकर्षण से बच नहीं सका है। 

आपकी अनेक काव्य पंक्तियां याद आ रही हैं जैसे-


जितनी दूर नयन से सपना

जितनी दूर अधर से हँसना

बिछुए जितनी दूर कुंआरे पाँव से

उतनी दूर पिया तुम मेरे गाँव से।


नदी बोली समुन्दर से

मैं तेरे पास आई हूँ

मुझे भी गा मेरे शायर

मैं तेरी ही रुबाई हूँ।


मीठापन जो लाया था मैं गाँव से

कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।


कल स्वयं की व्यस्तताओं से निकालूंगा समय कुछ

फिर भरूंगा कल तुम्हारी माँग में सिन्दूर

मुझको माफ करना

आज तो सचमुच बहुत देर ऑफिस को हुई है।


ज़िन्दगी का अर्थ मरना हो गया है

और जीने के लिए हैं

दिन बहुत सारे।


जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने

दादी की हँसुली अम्मा की पायल ने

उस पक्के घर की कच्ची दीवारों पर

मेरी टाई टँगने से कतराती है।


जिस दिन ठिठुर रही थी,कुहरे भरी नदी में,

माँ की उदास काया,लेने चला था चादर, मैं मेजपोश लाया


सूखी मिट्टी से कोई भी मूरत न कभी बन पाएगी

जब हवा चलेगी ये मिट्टी खुद अपनी धूल उड़ाएगी

इसलिए सजल बादल बनकर बौझार के छींटे देता चल

ये दुनिया सूखी मिट्टी है तू प्यार के झींटे देता चल।


ऐसी अनेक गीत पंक्तियाँ हैं डॉ साहब की जो कवि सम्मेलन में श्रोताओं को मंत्रबिद्ध कर देती थीं।

ग़ज़लें भी एक से बढ़कर एक थीं।आपकी ग़ज़लों में भी गीत जैसी तन्मयता थी,गीत जैसा तारतम्य था।


पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है

पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है

चलने को एक पाँव से भी चल रहे हैं लोग

पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है


दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना

जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना


दो चार बार हम जो कभी हँस हँसा लिए

सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

संटी तरह मुझको मिले ज़िन्दगी के दिन

मैंने उन्हीं को जोड़ के कुछ घर बना लिए।


ज़िन्दगी यूं भी जली,यूँ भी जली मीलों तक

चाँदनी चार कदम धूप चली मीलों तक


ये सोचकर मैं उम्र की ऊँचाईयाँ चढ़ा

शायद यहाँ,शायद यहाँ,शायद यहाँ है तू

पिछले कई जन्मों से तुझे ढ़ूढ़ रहा हूँ

जाने कहाँ,जाने कहाँ,जाने कहाँ है तू


ग़मों की आँच पे आँसूं उबालकर देखो

बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो

तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी

थेकिसी के पाँव से काँटा निकालकर देखो


साँचे में हमने और के ढ़लने नहीं दिया

दिल मोम का था फिर भी पिघलने नहीं दिया

चेहरे को आज तक भी तेरा इंतज़ार है

हमने गुलाल और को मलने नहीं दिया।


असंख्य पंक्तियाँ हैं, असीमित स्मृतियाँ हैं। क्या लिखूं और क्या छोड़ूं।


1जुलाई 1942 को मुरादाबाद जिले के उमरी नामक गाँव में जन्में डॉ कुंअर बेचैन जी ने अपने जीवन में अनेक कष्ट सहे।इनका पूरा जीवन संघर्षों का महासमर रहा।बचपन में ही सिर से माता पिता का साया उठ गया था।बड़ी बहन और जीजाजी ने  पालन-पोषण किया। फिर बहन भी स्वर्ग सिधार गई। जीजाजी इन्हें लेकर चन्दौसी आ गए।चन्दौसी में ही आगे की शिक्षा ग्रहण की।

प्रकाशित पुस्तकें

गीत/नवगीत संग्रह - पिन बहुत सारे,भीतर साँकल बाहर साँकल,उर्वर्शी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख,एक दीप चौमुखी,नदी पसीने की, दिन दिवंगत हुए

ग़ज़ल संग्रह - शामियाने कांच के, महावर इंतजारों का ,रस्सियाँ पानी की, पत्थर की बांसुरी, दीवारों पर दस्तक, नाव बनता हुआ कागज, आग पर कंदील, आंधियों में पेड़, आठ सुरों की की बांसुरी, आंगन की अलगनी, तो सुबह हो, कोई आवाज देता है, 

कविता संग्रह -नदी तुम रुक क्यों गई, शब्द एक लालटेन, 

महाकाव्य - पांचाली 

ललित उपन्यास : मरकत द्वीप की मणि

बाल कविताएँ,हायकू,दोहे, अनेक पुस्तकों की भूमिकाएँ



✍️ डॉ कीर्ति काले 

बी702,न्यू ज्योति अपार्टमेंट सैक्टर 4 प्लॉट नंबर 27, द्वारका, नई दिल्ली, भारत

E mail : kirti_kale@yahoo.com

मोबाइल फोन नंबर 9868269259

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित कानपुर के साहित्यकार डॉ सुरेश अवस्थी का संस्मरणात्मक आलेख


" सबकी बात न माना कर
                                        
खुद को भी पहचाना कर।  

दुनियां से लड़ना है तो-                                               
अपनी ओर निशाना कर।" 

        जीवन संघर्ष के लिए ये प्रेरक पंक्तियां कोमलतम संवेदनाओं को सहजतम अभिव्यक्ति देने वाले गीतकार कीर्तिशेष डॉ कुँअर बेचैन की हैं। क्रूर कोरोना से संघर्ष में भले ही डॉ बेचैन हार गए हों पर उन्होंने अपनी गीत व ग़ज़ल रचनाओं से प्रेम, दर्शन, जीवन संघर्ष के जो सन्देश  दिये हैं वे अक्षुण्य व अमर रहेंगे। यूँ तो उनकी बहुत सी रचनाओं से मैं भरपूर परिचित हूँ पर इस गीत की शक्तिमत्ता को मुझे अमेरिका के 18 शहरों में हुए कवि सम्मेलनों में देखने व आत्मसात करने का पुण्य अवसर मिला है।

 

  मेरी अमेरिका की तीसरी साहित्यिक यात्रा में 4 अप्रैल 2013 से 5 मई 2013 के मध्य अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति की ओर से श्री आलोक मिश्र के सौजन्य से विभिन्न शहरों में 18 कवि सम्मेलनों का संचालन व काव्यपाठ का अवसर मिला। यूँ तो यह यात्रा कई कारणों से विशेष रही पर डॉ कुँअर बेचैन जी के सानिध्य व संरक्षण से विशेषतम हो गयी।
    व्यंग्य कवि दीपक गुप्ता आरम्भिक काव्य पाठ कर रहे थे और समापन श्री बेचैन जी। मध्य में मैं काव्यपाठ करता था। पहले दो कवि सम्मेलनों में कुँवर जी ने हिंदी की महिमा पर केंद्रित गीत को समापन का गीत बनाया। तीसरे दिन कवि सम्मेलन मंच पर जाने से पूर्व उन्होंने मुझसे एकांत में बात की। अपने अनुभवों के अनन्त महासागर से निकाले कुछ मोतियों की चर्चा करते हुए उन्होंने
मुक्त मन से मन्त्रणा करके फैसला दिया हिंदी का समापन गीत समापन को उतनी ऊंचाइयां नहीं दे पा रहा जितनी अपेक्षित है। उन्होंने मेरा अभिमत जानना चाहा। सच तो यह है कि मैं भी महसूस कर रहा था कि उनके गीत-ग़ज़ल पाठ पर सुधी श्रोतागण जिस उल्लास और ऊर्जा के साथ अपनी अन्तस् खुशी प्रकट करते थे इस गीत पर वह किंचित कमजोर पड़ जाती थी। मैं इस पर पहले ही चिंतन कर चुका था पर मेरे संकोच ने मुझे जकड़ रखा था इसलिए मैं कह नहीं पाया।
      उन्होंने मेरी दोनों हथेलियां अपने हाथों में लीं तो उनकी स्नेहिल ऊष्मा से मेरा संकोच पिघल गया। मैंने प्रस्ताव रखा कि क्यों न आप समापन ' सबकी बात न माना कर ' गीत से करें। उन्होंने सहमति दी और फिर उस दिन समापन इसी गीत से किया। इस गीत की प्रस्तुति पर श्रोताओं का उल्लास ऐसा बिखरा की हम सभी मंत्रमुग्ध थे। गीत की अंतिम पंक्ति  " दुनिया बहुत सुहानी है इसको और सुहाना कर " तक पहुंचते पहुंचते प्रेक्षागार
के सभी श्रोताओं ने खड़े होकर विपुल तालियों के साथ कुँवर जी के स्वर से समवेत स्वर मिलाते हुए अभिनन्दन किया तो मैं हिंदी कविता की सामर्थ्य पर धन्य धन्य हो गया। यह सिलसिला आगे के कवि सम्मेलनों में भी चलता रहा। वे पल याद करता हूँ तो अन्तस में वही तालियां गूंज उठती हैं।
     
सच यह है कि डॉ कुँअर बेचैन ने हिंदी ग़ज़ल को स्थापित करने के लिए ग़ज़ल के मान्य शिल्प का पूर्ण निर्वहन करते हुए उसमें गीतात्मकता, गीत के विम्ब विधान, प्रस्तुति कला और रागात्मक भाषा को प्रतिष्ठापित किया है वह अलग से शोध का विषय हो सकता है। बाद में उन्होंने ही बताया कि ' सबकी बात न माना कर' ग़ज़ल ही थी जिसे उन्होंने बाद में गीत बनाया।
    इस यात्रा में उनके कुछ प्रसंशकों की प्रशंसा का अंदाज ही अलग मिला। मुझे शहर तो नहीं याद है पर याद है कि एक काव्यप्रेमी कार्यक्रम समाप्त होने पर कुँअर जी समीप आ कर बोले, तो बेचैन साहब जी"झूले पर उसका नाम लिखा और झूला दिया।" एक अन्य व्यक्ति ने दो उंगलियां उठा कर कहा," आती जाती सांसे दो सहेलियां हैं, वाह क्या गज़ब की बात कही। " एक महिला ने यूँ तारीफ की, डॉक्टर साहब" नदी बोली समंदर से में तेरे पास आई हूं, मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ," की नदी को साथ नहीं लाये। मैंने देखा कुँअर जी ऐसे क्षणों में बस किसी मासूम बच्चे की तरह मुस्करा देते।
 
   

विस्मित करने वाली रेखांकन कला


  डॉ कुँअर बेचैन जी की रेखाचित्र बनाने की कला में भी सिद्धहस्त थे। इस कला प्रत्यक्ष प्रदर्शन इसी अमेरिका यात्रा में देखने को मिला। 8 अप्रैल 2013 को हम लोग सिद्ध प्रसिद्ध कथाकार दीदी सुधा ओम ढींगरा के आतिथ्य में उनके शहर राले नार्थ कैरोलिना पहुंचे। हमें दो दिन इसी शहर में रहना था। इसी शहर में मेरा चचेरा भाई संकल्प अवस्थी है। हम लोग खाली दिन संकल्प के बुलावे पर उनके आवास पर गए। कुंअर जी कुछ ही समय में संकल्प , किरण (पत्नी) व उनकी बेटी (अपेक्षा) व बेटे (अथर्व) के संग आत्मीयता के साथ ऐसे घुलमिल गए कि मानों लंबे अर्से से परिचित हों। उन्होंने बेटी की कापी पर अपने पेन से आड़ी तिरछी रेखाएं खींच कर एक चित्र  उंकेरा और उस पर सुंदर हस्तलेख में तुरन्त रचा हुआ एक दोहा - (किरन,अपेक्षा,और नव प्रिय संकल्प अथर्व।यू.यस. में इनसे मिले, हुआ हमें अति गर्व) लिखा और कलात्मक हरस्ताक्षर करके  मुझसे व दीपक गुप्ता से भी हस्ताक्षर कर आशीर्वाद स्वरूप  बच्चों को थमा दिया। रेखांकन में  मुस्कराते हुए  चार चेहरे बने हुए थे। उनकी इस रेखांकन कला को देख कर हम सभी आश्चर्यचकित रह गए।
  

 

मॉरीशस में मस्ती

डॉ कुँअर बेचैन के सानिध्य में मेरी दूसरी विदेश यात्रा विश्व हिंदी सम्मेलन, मॉरीशस (18 से 20 अगस्त 2020) की हुई।संयोग से समुद्र तट के बहुत करीब बने खूबसूरत होटल हैल्टन में मेरा और डॉक्टर साहब का कमरा आमने सामने था। हम  साथ साथ ही जाते। उस दिन मैं तैयार होने के लिए पैन्ट, शर्ट, सदरी, रुमाल, व प्रयोग किये मोजे बेड पर इधर उधर फेंक कर अभी बाथरूम में घुस ही रहा था कि समय के बेहद पाबंद कुंअर जी रूम में मुझे बुलाने आ गए। बोले, ' अरे अभी तैयार नहीं हुए?' मैं ' सिर्फ दो मिनट' कह कर बाथरूम में घुस गया। दो मिनट में लौटा तो देखा कि कुँअर जी मेरी खुली अटैची से मेरे लिए अपनी पसंद की पोशाक निकाल चुके थे। मैने उनके द्वारा चयनित पोशाक पहनी। उन्होंने तुरंत मोबाइल से एक फोटो क्लिक किया।
मुझे अपनी अस्त व्यस्तता पर खुद से शर्मिंदगी हुई। मैने उस दिन समय का पाबंद रहना सीखा।वहाँ हम लोगों ने उनके साथ खूब आनंद उठाया।


मेरा पहला कवि सम्मेलन कुँअर जी के सानिध्य में...


यह सुखद संयोग है कि काव्य साहित्य की वाचिक परम्परा कवि सम्मेलन से जिस कार्यक्रम से मेरा परिचय हुआ, वही मेरा पहला कवि सम्मेलन बना जिसमे मैने काव्यपाठ किया। सुखद है कि पहले ही कवि सम्मेलन में मुझे डॉ कुंअर बेचैन जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। जहां तक मुझे स्मरण है कि सितंबर 1979 में कानपुर में गीतकार श्री शिव कुमार सिंह कुँवर के संयोजन में रोडवेज वर्कशाप में कवि सम्मेलन हुआ था जिसका सन्चालन श्री उमाकांत मालवीय जी कर रहे थे। मैं पहली बार कवि सम्मेलन सुन रहा था। मैंने साथ बैठे मित्र अनुपम निगम से कहा कि जैसे ये लोग कविता पढ़ रहे हैं, मैं भी पढ़ सकता हूँ। उन्होंने मेरा नाम आयोजक मंडल के पास भेज दिया। चमत्कार हुआ और दूसरे चक्र में डॉ कुँअर बेचैन के बाद मुझे बुलाया गया। चूंकि मैं उन दिनों रामलीला में वाणासुर का पाठ करता था और कविताएं लिखा करता था, इसलिए मुझे मंच व माइक का भय नहीं था। मैंने उन दिनों स्वतंत्रता दिवस पर कविता लिखी थी। वही कविता मैने पूरे तेवर के साथ प्रस्तुत की। खूब वाह वाह हुई। कार्यक्रम खत्म होने पर जिस कवि ने सबसे पहले मुझे नोटिस में लेकर पीठ थपथपाई वह कुँअर जी थे। सिर पर रखा उनका आशीर्वाद का हाथ मैं अभी भी महसूस करता हूँ। ' मानस मंच ', राष्ट्रीय पुस्तक मेला, दैनिक जागरण के कवि सम्मेलनों, लाल किला, देश के कई शहरों सहित तमाम कवि सम्मेलनों व पुस्तक लोकार्पण समारोहों में उनके साथ मंच साझा करने के पुण्य अवसर मिले। मानस मंच,कानपुर के आयोजन में उन्होंने मेरे आग्रह पर सम्मान भी स्वीकार किया।डॉ कुअँर बेचैन ने एक अन्य आत्मीय यात्रा में बताया कि बचपन में ही माता पिता को खो देने के बाद बड़ी बहन के संरक्षण व निर्देशन मे उन्होंने कितने संघर्षों से इस मुकाम तक पहुंचा हूं। मैंने सीखा कि साधन ' से नहीं 'साधना' से मिलती है सफलता।

आज भी प्रेरणा देता है मेरे जन्मदिन पर लिखा प्रत्येक शब्द 


डॉ कुँअर बेचैन ने अमेरिका यात्रा के बाद मेरे जन्मदिन 15 फरवरी को उन्होंने मेरे लिए जो लिखा उसका शब्द शब्द में स्नेह से पगा हुआ और प्रेरक है...
"आज प्रसिद्ध पत्रकार, कवि,संचालक , संयोजक एवं चिंतक डॉ. सुरेश अवस्थी जी का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं । सुरेश जी के साथ मुझे कई कविसम्मेलनों में जाने का अवसर मिला। विशेष रूप से उस यात्रा का ज़िक्र करना चाहूंगा जो अमेरिका की यात्रा थी। अमेरिका के 18 नगरों में हम लोगों का काव्य-पाठ था। कहा जाता है कि अगर किसी के स्वभाव की मूल प्रवृति की पहचान करनी हो तो उसके साथ कुछ दिनों यात्रा करो। डॉ. सुरेश ने इस यात्रा के दौरान जिस आत्मीयता का परिचय दिया, जितना मेरा ध्यान रखा,  जितना मुझे प्रेम और सम्मान दिया वह अविस्मरणीय है। उनकी प्रबंधन-क्षमता भी अनुकरणीय है।
      मैं उनके जन्मदिन के सुअवसर पर उनके उत्तम स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि की कामना करता हूँ। वे दीर्घजीवी हों। - कुँअर बेचैन


काश! उनके हाथों में सौंप पाता पुस्तकें...

डॉ कुंअर बेचैन जी ने मेरे ग़ज़ल संग्रह " दीवारें सुन रही हैं" व दोहा संग्रह " बन कर खिलो गुलाब " में मेरी रचनाधर्मिता पर उदारतापूर्वक आलेख लिखे। कोरोना महामारी के चलते ये दोनों पुस्तकें समय पर न आ सकीं। अब जब कि दोनों पुस्तकें आ गईं हैं तो जीवन भर मलाल रहेगा कि काश! मैं ये पुस्तकें उनके हाथों में सौंप पाता?
  

 शिष्यों की लंबी सूची

डॉ  बेचैन जी के रचनाधर्मी शिष्यों की लंबी सूची है। उन्हीं में से एक गीतकार ग़ज़लकार मेरे अनुजवत डॉ दुर्गेश अवस्थी हैं । उन्होंने कई बार अपने गुरुदेव डॉ कुँअर जी के गुरुत्वभाव, सदाशयता, स्नेह , उदारता, सहयोग आदि की मुझसे कई बार चर्चा की। मुझे याद है कि जब मैंने डॉ दुर्गेश को मानस मंच, कानपुर के कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया तो उन्होंने काव्यपाठ से पूर्व अपने गुरुदेव का स्मरण करके उनकी ही पंक्तियों से उन्हें प्रणाम किया और फिर अपनी रचनाएं पढ़ीं। उनके महाप्रस्थान से बेहद भावुक व दुखी दुर्गेश जी ने बताया कि हाल ही में डॉ बेचैन जी ने उनकी पुस्तक की भूमिका लिखी है। उनके द्वारा लिखी यह भूमिका अंतिम भूमिका है। जाते जाते वह मुझे आशीर्वाद का महाप्रसाद दे गए। उनके प्रति वह जीवनपर्यंत ऋणी रहेंगे।
    

मेरा मानना है कि कालजयी रचनाओं के रचनाकार देह से भले ही हमारे बीच से चले जाएं पर अपनी रचनाओं से हमेशा रहते हैं क्योंकि उनकी मृत्यु नहीं होती, रूपांतरण होता है। डॉ कुंअर बेचैन अपने प्रसंशकों व अपने दुर्गेश जी जैसे प्रतिभासंपन्न शिष्यों में रूपांतरित हुए हैं।इसलिए अनन्त स्मृतियां, अपार स्नेह, अप्रतिम रचनाधर्मिता, आनंदकारी प्रस्तुति, अभिभूत करने वाली लोकप्रियता, अद्भुत शालीनता, अपार बड़प्पन, अक्षुण्य धैर्य, अभूतपूर्व वाणी संयम, अलौकिक रागात्मकता, अमर काव्य साधना, अगम सकारात्मकता व अनन्तिम सौहार्द्र ।

✍️ डॉ.सुरेश अवस्थी    
117/L / 233 नवीन नगर
कानपुर.208925
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9336123032,      9532834750    
मेल::::: drsureshawasthi@gmail.com

शनिवार, 26 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष गगन भारती पर केंद्रित ए टी ज़ाकिर का संस्मरणात्मक आलेख ....कहां तुम चले गए.......


बात 1969 की है । गगन साहब से मेरा तार्रूफ़ जनाब साहिर लुधियानवी साहब के साथ एक मीटिंग के दौरान बम्बई के एक कौफ़ी हाउस में हुआ था। इस मीटिंग में अदबी दुनिया की मशहूर -ओ-मारुफ़ हस्तियां मौजूद थीं । अदब में ये एक अजीब इन्कलाबी दौर था, जिसमें हिन्दुस्तान के राइटर्स को जदीदियत की एक नई दुनिया दिखाई देने लगी थी।

ये क़लमकार थे, जनाब साहिर साहब, जनाब के.ए.अब्बास साहब, जनाब कृशन चन्दर साहब, जनाब रामलाल साहब, जनाब कैफ़ी आज़मी साहब, जनाब जां निसार अख़्तर साहब, जनाब राजेन्द्र सिंह बेदी साहब, जनाब हसरत जयपुरी साहब, जनाब तलत महमूद साहब, जनाब जोश मलीहाबादी साहब , उनके साथ थे गगन भारती और मेरे जैसे नन्हे पौधे जो इन बड़े- बड़े आलीशान दरख़्तों के साये में पल रहे थे। जिस गुलशन या अंजुमन का मैं ज़िक्र कर रहा हूं, उसका नाम था,"प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन"इस ग्रुप का मिम्बर होना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी। बडा फ़ख्र महसूस करते थे इसकी मिम्बरशिप पाकर लोग।

तरक्की पसंद ख्याल और जदीद सोच के नारों को बुलन्द करने वाली ऐसी ही उस मीटिंग में पहले -पहल गगन भारती साहब को देखा। गगन साहब आग उगलती हुई नज़्मों के शायर थे और मैं इक्कीस  साल का वो अनजाना अफसाना निगार था,जो इन अज़ीम अदबी सितारों से उस हद तक मुत्तासिर हो चुका था कि एक अजीब से मकनातीसी अंदाज़ में इन सितारों के गिर्द गर्दिश कर अपना वजूद टटोल रहा था। ये मेरी ख़ुशकिस्मती थी कि अपने चन्द अशआर से जनाब साहिर साहब की नज़र की ज़द में आ चुका था।

     

मैं साहिर साहब और जनाब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की कला का शैदाई था, तो उसी अंदाज़ में गगन साहब का कहा क़लाम मेरे दिल में उतर गया। मुझे बताया गया किसी यूनानी देवता जैसा दिखने वाला ये बेहद हैंडसम नौजवान गगन भारती भी मुरादाबाद से ताल्लुक रखता है, तो मुझे बहुत खुशी हुई और मैंने दोस्ती का हाथ गगन साहब के आगे बढ़ा दिया। हम अच्छे दोस्त बनकर मुरादाबाद लौटे पर जिस मीटिंग का ज़िक्र मैनें ऊपर किया, उसमें गगन साहब ने न सिर्फ अपने कलाम से  वाहवाही लूटी वरन अपनी ज़हनियत और तरक्की पसंद सोच के झंडे गाड़ दिए।

गगन साहब ने जनाब के ए अब्बास साहब और कृशन चंदर साहब के सामने एक मशवरा रखा कि हमारी इस अंजुमन में सिर्फ जदीद खयाल राइटर्स ही क्यों मेंबर हैं ? कोई भी फनकार जो हुनरमंद और तरक्की पसंद है, वह क्यों नहीं मेंबर हो सकता। उसे भी मेंबर होना चाहिए। खासी तवील बहस के बाद गगन साहब का मशवरा मान लिया गया और एक नई अंजुमन बन गई जिसमें कोई भी जदीद खयाल हुनरमंद फनकार मेंबर हो सकता था। गगन साहब ने नाम सुझाया "अंजुमन तरक्की पसंद मुफक् रीन" और उसी रात ये अंजुमन अपने वजूद में आ गई।

   

मैं गगन साहब की फिलासफी और ज़हनियत का और ज्यादा कायल हो गया। मुरादाबाद लौट कर हम दोनों एक दूसरे से मिलने लगे । गगन साहब को मेरे अफ़साने पसंद आते तो मैं उनकी नज़्मों पर फिदा था। कहना गलत ना होगा कि मैं न सिर्फ उनसे नज़्म कहने का सलीका बल्कि उनकी अजीम शख्सियत से एक सच्चा इंसान बनने की तालीम लेने लगा । आज जो तहजीब और इंसानियत का जज्बा मेरे अंदर आप पाते हैं। वह गगन साहब का मुझे दिया ईनाम है और जो बदतमीजी या अक्खड़पन आपको मुझ में नजर आता है वह मेरा ओरिजिनल किरदार है । गगन साहब बहुत अजीम और कामयाब शायर थे। हिंदुस्तान का कोई मुशायरा ऐसा नहीं था जो उन्होंने पढ़ा ना हो। वह मुशायरे के बादशाह थे, कितनी ही बार मैंने वह दिल फरेब मंजर देखा जब लोग उन्हें मुशायरे का माइक छोड़ने नहीं देते थे । बाहैसियत एक इंसान, गगन साहब का किरदार इतना आलीशान था कि अपनी 74 साल की जिंदगी में मैंने उन जैसा सच्चा और उम्दा इंसान दूसरा नहीं देखा।

एक वाकया याद आ रहा है : मुरादाबाद में हमारे एक और प्यारे दोस्त रहते थे जिनके गगन साहब से अच्छे ताल्लुकात थे। हमारे वह साथी मुरादाबाद से कहीं बाहर चले गए और गुरबत के शिकार हो गए। 43 साल के बड़े अर्से में उनकी कोई खैर खबर नहीं मिली गो कि वो बात और थी कि वह गगन साहब की तलाश सोशल साइट्स पर करते रहे और मुरादाबाद की महफिलों में गगन साहब उनका जिक्र खासे ऐहतराम से करते रहे । 2018 में उन्होंने फेसबुक के जरिए गगन साहब को ढूंढ निकाला और दोस्ती की ठहरी हुई किश्ती एक बार फिर खुशियों के दरिया में आगे चल पड़ी । पर वक्त को दोस्तों की यह छोटी सी खुशी बर्दाश्त नहीं हुई और एकाएक उन दोस्त की कुंवारी नौजवान बेटी की दोनों आंखों की रोशनी एक हादसे में जाती रही। इन आंखों के कामयाब ऑपरेशन  के लिए 2 लाख रुपए  की दरकार  थी । एक गरीब फनकार इतनी बड़ी रकम कहां से जुटा सकता था पर किसी दोस्त के जरिए गगन  साहब को ये बात पता चली,उन्होंने उसी दिन बीस हजार रुपए अपने उसी दोस्त  को भिजवा दिये। अल्लाह की मेहर से बाकी रकम का भी वक्त रहते बन्दोबस्त  हो  गया और उस बेटी की आंखो का कामयाब ऑपरेशन  दिल्ली में हुआ। आंखो की रौशनी वापिस आ गई। बाद में जब उस दोस्त ने गगन साहब को इस मदद का शुक्रिया अदा करना चाहा तो इन्सान  की शक्ल मे जीने वाले उस फरिश्ते ने कहा,"कैसा "शुक्रिया ?, कैसी मदद? मैंने सिर्फ वो किया जो एक दोस्त को करना चाहिए था और जहां तक उस छोटी सी रकम की बात है,क्या वह मेरी बेटी नहीं है ?"और गगन साहब ने इस टाॅपिक पर फ़ुुलस्टाप लगा दिया। तो इतनी शानदार शख्सियत और आला किरदार  के मालिक थे गगन साहब !

 

मुझे याद है, 1970-71 के वो दिन जब के.जी.के.कालेज के इंग्लिश डिपार्टमेंट के प्रोफेसर मोयत्रा साहब के दौलतखाने पर एक माहनामी नशिस्त बज़्मे मसीह हुआ करती थी,जिसकी डायस सैक्रैटरीशिप गगन साहब सम्भालते थे ।इस हिन्दी,उर्दु की गंगा_जमुनी नशिस्त में मुरादाबाद और आसपास  के शहरों के कवि और शायर शिरकत किया करते थे. ये वो स्टेज था जिस  पर जनाब कमर मुरादाबादी साहब और अल्लामा कैफ मुरादाबादी को मैने एक साथ  पढते देखा । इस नशिस्त का आगाज  रात करीबन नौ बजे होता धा और  तड़के मुर्गे की बांग के साथ यह नशिस्त अपने अंजाम पर पहुंचती थी। इस नशिस्त में जनाब शाहाब मुरादाबादी,जनाब अख्तर आजिम साहब ,जनाब हिलाल रामपुरी, जनाब गौहर उस्मानी साहब, जनाब हुल्लड़ मुरादाबादी, जनाब मक्खन मुरादाबादी, जनाब प्रोफेसर महेंद्र प्रताप,जनाब ललित मोहन भारद्वाज साहब और इस मयार के और जाने कितने शोरा हाजरात अपने कलाम  सुनाया करते थे।गगन साहब इंकलाबी नज़्में कहते थे,हम सब सांस रोक कर उनका क़लाम सुनते थे। शायरी गगन साहब को अपनी अम्मी से विरासत में मिली थी। वो बहुत आलादरजे का क़लाम कहती थीं । उन्होंने ही शायरी की ए.बी.सी.डी.गगन साहब को समझायी थी।

मेरी जिन्दगी की इतनी सारी यादें गगन साहब  से वाबस्ता है कि अगर मैं उनको लिखने -समेटने बैठूं तो एक मुकम्मल दीवान बन सकता है। अब  मैं उस मनहूस दिन का जिक्र कर रहा हूं, जिस दिन गगन  से आया ये फरिश्ता हम सब को तन्हा छोड़कर चला गया। गगन साहब की तबीयत पिछले 6-7 माह से ख़राब थी और बिगड़ती जा रही थी मगर  उस शेरदिल इंसान ने हम दोस्तों को अपनी इस बीमारी और तकलीफ़ से कभी रुबरु होने ही न दिया जब ज़िन्दगी की लौ टिमटिमाने लगीं तो हमें मनोज रस्तोगी साहब से उनकी बीमारी की ख़बर मिली। मैं उन दिनों रोज रात को 8.30 बजे फ़ोन करके उनका हाल लेता था । कभी कभी भाभी साहिबा से भी बात हो जाती थी। मैं उनकी खैरियत रोज़ रात को नौ बजे मनोज रस्तोगी साहब, जनाब मक्खन मुरादाबादी  और बम्बई के जनाब विनोद गुप्ता साहब को बतलाता था। 

 न चाहते हुए भी आ गया, वो मनहूस दिन जब गगन  साहब अपना हाथ हमसे छुड़ा के जिस गगन से आए थे, वहीं लौट गए। मैंने जब ये मनहूस खबर मक्खन मुरादाबादी और उसके बाद जनाब विऩोद गुप्ता साहब को बतलाई तो ये दोनों साहेबान फ़ोन पर ही फ़ूट फूटकर रोने लगे। अपनी कैफि़यत को इस हादसे के इतने दिनों बाद भी बतलाने की हालत में मैं नहीं हूं । मेरी दुनिया 21 अक्टूबर 2022 को जहां थी, वहीं उसी लम्हे में ठहर गयी है।

  गगन साहब क्या गए, मेरी आधी ज़िन्दगी और मेरी रूह भी उनके साथ ही चली गई । मैं हूं यहीं,इसी दुनिया में टूटा हुआ और अधूरा। मेरे सिर के ऊपर बहुत ऊंचाई तक ख़ला है पर गगन नहीं।  


✍️
ए.टी.ज़ाकिर

 फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001 

 मोबाइल फ़ोन नंबर 9760613902, 847 695 4471

 मेल- atzakir@gmail.com


रविवार, 6 नवंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी का संस्मरण..... मुरादाबाद से गहरा लगाव रहा था बाबा नागार्जुन का

      सहज जीवन के चितेरे, शब्दों के अनूठे चित्रकार, प्रकृति प्रेमी जनकवि बाबा नागार्जुन का मुरादाबाद से विशेष लगाव रहा है। अक्सर गर्मियों के तपते दिन वह  लैंस डाउन और जहरी खाल की हरी भरी उपत्यकाओं में बिताते रहे हैं। वहां की हरियाली,घुमावदार सड़कें, चेरापूंजी जैसी बारिश और साहित्यकार वाचस्पति का स्नेह उन्हें हर साल वहां खींच लाता था तो मुरादाबाद भी वह आना नहीं भूलते थे। यहां प्रसिद्ध गीतकार माहेश्वर तिवारी और हिन्दू कालेज के सेवानिवृत्त प्रवक्ता डॉ डी. पी. सिंह -डॉ माधुरी सिंह के यहाँ रहते। उनके परिवार के साथ घंटों बैठकर बतियाते रहते। पता ही नहीं चलता था समय कब बीत जाता था।   साहित्य से लेकर मौजूदा राजनीति तक चर्चा चलती रहती और उनकी खिलखिलाहट पूरे घर में गूंजती रहती । मुरादाबाद प्रवास के दौरान वह सदैव सम्मान समारोह, गोष्ठियों से परहेज करते रहते थे।

    वर्ष 91  का महीना था बाबा, माहेश्वर तिवारी के यहां रह रहे थे। महानगर के तमाम साहित्यकारों ने उनसे अनुरोध किया कि वह अपने सम्मान में गोष्ठी  की अनुमति दे दें लेकिन वह तैयार नहीं हुए। वहीं साहित्यिक संस्था "कविता गांव की ओर"  के संयोजक राकेश शर्मा जो पोलियो ग्रस्त थे, बाबा के पास पहुंचे, परम आशीर्वाद लिया । बाबा देर तक उनसे बतियाते रहे. बातचीत के दौरान राकेश ने बाबा से उनके सम्मान में एक गोष्ठी का आयोजन करने को अनुमति मांगी। बाबा ने सहर्ष ही उन्हें अनुमति दे दी।
      अखबार वालों से वह दूर ही रहते थे । पता चल जाये कि अमुक पत्रकार उनसे मिलने आया है तो वह साफ मना कर देते। स्थानीय साहित्यकारों से वह जरूर मिलते थे, बतियाते बतियाते यह भी कह देते थे बहुत हो गया अब जाओ ।दाएं हाथ में पढ़ने का लैंस लेकर अखबार पढ़ने बैठ जाते थे और शुरू कर देते थे खबरों पर टिप्पणी करना।
    वर्ष 1992 में जब  बाबा यहां आए तो उस समय यहां कृषि एवं प्रौद्योगिक प्रदर्शनी चल रही थी। छह जून को के.सी. एम. स्कूल में कवि सम्मेलन था । बाबा ने एक के बाद एक, कई रचनाएं सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कवि सम्मेलन जब खत्म हुआ तो वह चलते समय वहाँ व्यवस्था को तैनात पुलिस कर्मियों के पास ठहर गये और लगे उनसे बतियाने। ऐसा अलमस्त व्यक्तित्व था बाबा का। वह सहजता के साथ पारिवारिकता से जुड़ जाते थे।
    बच्चों के बीच बच्चा बनकर उनके साथ घंटों खेलते रहना उनके व्यक्तित्व का निराला रूप दिखाता था। डॉ माधुरी सिंह अपने दीनदयाल नगर स्थित आवास पर बच्चों का एक स्कूल टैगोर विद्यापीठ संचालित करती थीं।  वर्ष 1995 की तारीख थी दस अगस्त , बाबा जब वहां गए तो बैठ गए बच्चों के बीच और बाल सुलभ क्रीड़ाएं करते हुए उन्हें अपनी कविताएं सुनाने लगे । यही नहीं उन्होंने बच्चों से भी कविताएं सुनीं, जमकर खिलखिलाए और बच्चों को टाफियां भी बांटी। बच्चों के बीच बाबा , अद्भुत और अविस्मरणीय पल थे।

     बाबा जब कभी मुरादाबाद आते, मेरा अधिकांश समय उनके साथ ही व्यतीत होता था । वर्ष 1985 में नजीबाबाद में आयोजित दो दिवसीय लेेेखक शिविर में भी उनके साथ रहने का  सुअवसर प्राप्त हुआ। अनेक यादें उनके साथ जुड़ी हुई हैं। वर्ष 1998 में इस नश्वर शरीर को त्यागने से लगभग छह माह पूर्व ही वह दिल्ली से यहां आए थे । कुछ दिन यहां रहने के बाद वह काशीपुर चले गए थे ।
















✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822










रविवार, 18 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा का संस्मरण ...नंगेपन की दौड़

 


मैं छोटा था ,मेरा गांव भी छोटा था ,लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया , वैसे-वैसे कुछ और चीजें भी विस्तार लेती चली गईं, जैसे- गांव का आकार, मतदाताओं की सूची, विभिन्न कृषि यंत्र, रोजगार के लिए पलायन ,लेकिन इसके साथ ही कुछ चीजें घटी भी, जैसे- खेती की जमीन, लोगों के दिलों का प्रेम, चौपालों पर जमा होने वाले लोगों की संख्या। खैर! जोड़-घटा-नफा-नुकसान ,यह सब जिंदगी के हिस्से ही हैं ,लेकिन आज भी वे दिन याद आते जरूर हैं, जिसमें जरूरतें कम थीं, समय खूब था। रिश्तेदारियों में रुकने और मेहमाननवाजी के लिए खूब वक्त था। पढ़ाई का बोझा भी ,ना के बराबर । बिना सिनेमा हॉल के ही भरपूर मनोरंजन और खाने-पीने की शुद्ध चीजों की भरमार ,खेत में उगने वाली सब्जियों का तो, आनंद ही कुछ और था। हमारे खेतों में जामुन, आम, शहतूत ,बेल और अमरूद के पेड़ ,जिसके फल कभी-कभार ,ही हमें मिल पाते थे क्योंकि रखवाली करने वाला कोई था नहीं ।गांव के आवारा किस्म के बच्चे और बंदर ही,उन फलों से हिसाब चुकता करते थे , कच्चे फल तोड़ने से हालांकि उनको कोई लाभ तो नहीं होता था ,मगर हमारा नुकसान जरूर कर देते थे ।

इन्हीं पेड़ों पर,सावन के महीने में झूले पड़ जाते, जो लगभग पूरे महीने चलते, भले ही त्योहार केवल एक दिन का होता ,यानिकि हरियाली तीज के दिन मनाया जाने वाला, महिलाओं का विशेष पर्व।

उधर जब कभी खेतों की जुताई होती और पटेला लगने की बारी आती तो ताऊ जी के पैरों के बीच बैठकर पटेला की सवारी ,हमारी खुशियों को कई गुना बढ़ा देती। ताऊ के लिए खेत पर पहुंची ताई के हाथ की पनपथी रोटी में कभी-कभी हम ताऊ का हिस्सा चट कर जाते, इस तरह ताई की रोटी और ताऊ के प्यार के बीच बीता बचपन, पूरी जिंदगी के लिए किसी प्रशिक्षण से कम नहीं था। मेरी सरलता और कम बोलने का गुण, शायद मुझे सबका प्यार दिलाने में सहायक होता।संयुक्त परिवार में होने के कारण ही, मैं सबका प्यारा था लेकिन फोकट में मिलने वाले उस प्यार का ,मैंने कभी गलत फायदा नहीं उठाया। तीन बड़ी बहनों द्वारा चिढ़ाना,कभी दुलारना, कभी मेरे पीछे उनकी दौड़ या कभी उनके पीछे मेरा दौड़ना,योगा जैसी पूर्ति तो आसानी से कर ही देता था। घर से खेत की दूरी अधिक न होने के कारण ,दिन में कई चक्कर लग जाते,जो कि मॉर्निंग वॉक और ईवनिंग वॉक की सारी कमी दूर कर देता।

खेत के रास्ते में एक मोड़ पर, इकलौता सुनार परिवार रहता, जिसके घर में बड़ा-सा नीम का पेड़ था। जिसका नामकरण, शायद गांव वालों ने ही किया होगा,नाम था- "सुनारों वाला नीम" । लेकिन समय बीतने पर एक दिन वह किसी बेदर्द तूफान का कोपभाजन बन गया, जो बहुत बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन की आपूर्ति जरूर करता रहा होगा, लेकिन यह ज्ञान हमें उस समय तो बिल्कुल था ही नहीं।उसके खत्म होने से हमें केवल इतना दुख था कि गर्मियों में पेड़ के नीचे खड़े होने वाले तरबूज-खरबूज के ठेले, आइसक्रीम-कुल्फी वाला या फिर सांपों और रीछ का खेल दिखाने वाले ,अब वहां नहीं ठहर पाएंगे और हम इन सुविधाओं से वंचित रह जाएंगे ,हालांकि बड़े होकर ऐसी सुख-सुविधाओं से हम स्वतः ही दूर होते चले गए।

 आखिर हम भी पढ़ाई के लिए शहर में बसे तो जरूर, लेकिन मन आज भी गांव में बसता है, क्योंकि आज भी गांव में प्रेम ,सहानुभूति, सम्मान, सहयोग और परस्पर रिश्तों की पवित्रता का कोई तोड़ नहीं है, बल्कि शहर का आदमी, गांववासियों की अपेक्षा अधिक जोड़-तोड़,प्रतिस्पर्धा ,फैशन के नाम पर नंगेपन की होड़ में, दिशाविहीन होकर, अनियंत्रित स्थिति में, निरंतर दौड़ रहा है ,और पैसे की चाहत में भटकते हुए, इन्सान इंसानियत को छोड़ रहा है।


✍️ अतुल कुमार शर्मा

 सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल:8273011742

रविवार, 12 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष प्रो. महेंद्र प्रताप पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का संस्मरणात्मक आलेख .... मेरे साहित्यिक जीवन की प्रथम पाठशाला थी 'अंतरा'


 बीती सदी का नवां दशक , जब मैंने शुरू की थी अपनी साहित्यिक यात्रा।  यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि 'अंतरा' की गोष्ठियां ही मेरे साहित्यिक जीवन की प्रथम पाठशाला बनीं। इन गोष्ठियों में 'दादा', श्री अंबालाल नागर जी, श्री कैलाश चंद अग्रवाल जी, पंडित मदन मोहन व्यास जी, श्री ललित मोहन भारद्वाज जी, श्री माहेश्वर तिवारी जी ने मेरी अंगुली पकड़कर मुझे चलना सिखाया और उनके संरक्षण एवं दिशा निर्देशन में मैंने साहित्य- पत्रकारिता के मार्ग पर कदम बढ़ाए । दादा और आदरणीय श्री माहेश्वर तिवारी जी के सान्निध्य से न केवल आत्मविश्वास बढ़ा बल्कि सदैव ऐसा महसूस हुआ जैसा किसी पथिक को तेज धूप में वृक्ष की शीतल छांव में बैठकर होता है।

इसी दौरान मैंने दादा के संरक्षण में एक सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्था ''तरुण शिखा'' का गठन भी कर लिया था। लगभग छह साल तक निरंतर 'तरुण-शिखा के माध्यम से मैं देश के प्रख्यात साहित्यकारों के जन्म दिवसों एवं पुण्य तिथियों पर विचार गोष्ठियां आयोजित करता रहा। इसकी लगभग सभी गोष्ठियों में दादा उपस्थित होते थे और मुझे प्रोत्साहित करते थे। 

   मुझे याद है 26 दिसम्बर 1985 का दिन, प्रख्यात कथाकार यशपाल के साहित्य पर मैंने तरुण शिखा की ओर से अपने निवास पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। दादा प्रो० महेन्द्र प्रताप, निर्धारित समय दोपहर दो बजे से पहले ही आ गए। धीरे धीरे केजीके महाविद्यालय के हिन्दी प्रवक्ता अवधेश कुमार गुप्ता, रणवीर दिनेश, राजीव बंसल राज भी  आ गए। अन्य आमंत्रितों की प्रतीक्षा होती रही। समय व्यतीत होता गया. घड़ी की बड़ी सुई सरकते सरकते छह पर आ गयी और छोटी सुई तीन से आगे निकल चुकी थी। डेढ़ घंटा हो चुका था लेकिन आमंत्रित साहित्यकारों में से और कोई उपस्थित नहीं हुआ। यह स्थिति देख कर मैं पूरी तरह हतोत्साहित हो चुका था। आयोजन की शुरुआत किस तरह की जाये, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरी मनोदशा को भाँपते हुये अचानक 'दादा' ने कहा- "मनोज, इस तरह हतोत्साहित होने की कोई बात नहीं है। ऐसी गोष्ठियों से जहाँ नये चिंतन, विचारधाराओं से साक्षात्कार होता है वहीं आत्म निर्माण भी होता है। तुम्हारा यह प्रयास शहर में एक नई शुरुआत है जो धीर-धीरे ही सफल होगा।" बीस साल पहले दादा के यह शब्द एम०ए० अर्थशास्त्र के विद्यार्थी के लिये एक प्रेरणा बन चुके थे।

       दादा के एक और संस्मरण का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा । 5 दिसंबर 1988 को मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार, संगीतज्ञ, कलाप्रेमी पंडित मदन मोहन व्यास जी की जयंती  पर मैंने तरुण शिखा, चेतना केंद्र और प्रयास नाट्य संस्था के संयुक्त तत्वावधान में संगीत, विचार व काव्य गोष्ठी का आयोजन हिंदू महाविद्यालय के अर्थशास्त्र व्याख्यान कक्ष में किया। आयोजन में स्मृतिशेष व्यास जी के लगभग सभी परिजन, अनेक मित्र, साहित्यकार, संगीतज्ञ और रंगकर्मी उपस्थित थे। दादा प्रो महेंद्र प्रताप जी कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे और विशिष्ट अतिथि आदरणीय माहेश्वर तिवारी थे। संचालन का दायित्व मेरे कंधों पर था । कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष दादा प्रो महेंद्र प्रताप जी का नाम उद्बोधन के लिए पुकारा गया । बोलने के लिए खड़े होते ही वह फफक फफक कर रोने लगे , आंखों से अश्रुधारा बहने लगी । यह देख कर उपस्थित सभी लोग भाव विह्वल हो गए और उनकी भी आंखे नम हो गई।  काफी देर बाद स्थिति सामान्य हुई।  भर्राए कण्ठ से दादा अधिक नहीं बोल सके। ऐसी थी उनकी सम्वेदनशीलता।

    उनका कहना था कि कविता लिखने से ज्यादा जरुरी है अपने अंदर कविता की समझ पैदा करना। यह जानना भी जरूरी है कि हमारे समकालीन रचनाकार क्या लिख रहे है और पूर्ववर्ती रचनाकारों ने हमें क्या दिया? उनके यह प्रेरणाप्रद वाक्य सचमुच मेरे लिये एक दिशा बन चुके थे और मैं अपना लक्ष्य निर्धारित कर चुका था मुरादाबाद जनपद के साहित्य पर शोध कार्य करने का। इसी लक्ष्य पूर्ति के लिये मैंने हिन्दी विषय से एमए किया और फिर पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की।

यह मेरा सौभाग्य है कि लगभग 21- 22 साल तक मुझे दादा का आशीष प्राप्त होता रहा। बहुत कुछ है लिखने को ....

'दादा' आज हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनकी स्मृतियां उनका दुलार, उनका आशीष सदैव मुझे आगे.... और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहेगा।


✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

 8,जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद 244001 

 उत्तर प्रदेश, भारत 

 मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार का संस्मरण---- जब स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास जी ने मुझसे कहा -- ... जो चाहते हो,उसे हिम्मत के साथ करोगे, तभी आगे बढ़ पाओगे


मैं आजकल जो कुछ लिख रहा हूं, उसमें आदरणीय पंडित मदन मोहन व्यास जी का महत्वपूर्ण योगदान है। मैंने कक्षा 6 से 12 तक की शिक्षा, पार्कर इंटरमीडिएट कॉलेज में प्राप्त की। आदरणीय व्यासजी वहां हिंदी पढ़ाया करते थे। यह मेरा परम सौभाग्य था, कि कक्षा 9 और 10 में मुझे आदरणीय व्यासजी से हिंदी पढ़ने और समझने का अवसर मिला।  मैं उस समय तक छोटी मोटी तुकबंदियां करने लगा था। लेकिन संकोची स्वभाव के कारण,अपने तक ही सीमित था।इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है कि मेरे अंतस में उमड़ रही काव्य घटाओं को, आदरणीय व्यासजी के मार्ग दर्शन और प्रेरणा से ही बरसने का मौका मिला।

     पार्कर कॉलेज में उन दिनों,हर वर्ष,फर्स्ट डिविजनर्स डे मनाया जाता था,जिसमे ईसाई समुदाय के, बरेली मंडल के प्रमुख,जिनको बिशप कहा जाता था, मुख्य अतिथि होते थे। कई दिन पहले से इस कार्यक्रम की तैयारी की जाती थी। यह शायद 1972 या 73 की घटना है। बिशप महोदय के स्वागत में,एक स्वागत गीत,आदरणीय व्यासजी के निर्देशन में,तैयार किया जा रहा था। यह गीत लिखा भी आदरणीय व्यास जी ने था । उसके मुख्य बोल थे --- " खुश है धरती गगन ,आपके स्वागत में"
मैंने उस गीत की एक पैरोडी बना डाली,जिसकी
दो पंक्तियां मुझे आज भी याद हैं
"स्कूल का पुता भवन,आपके स्वागत में
पढ़ना ,लिखना दफन,आपके स्वागत में"

आस पास बैठे साथियों को इसका पता चल गया और उन्होंने आदरणीय व्यासजी तक,ये बात पहुंचा दी।अगले दिन उन्होंने,मुझे स्टाफ रूम में बुलाया। मैं डरते डरते उनके पास गया।," ये तुमने लिखा है" उन्होंने कड़क आवाज में पूछा। मैंने कांपते हुए, स्वीकृति में सिर हिलाया।" लिखते हो तो डरते क्यों हो .... जो चाहते हो,उसे हिम्मत के साथ करोगे, तभी आगे बढ़ पाओगे।" इतना कह कर उन्होंने, मेरी पीठ थपथपाई। मेरी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े।आज, लगभग 50 साल बाद भी,जब परिस्थितिजन्य व्यथाओं से मन विचलित होता है,उनके ये शब्द, मुझे संतुलन प्रदान करते हैं।


✍️ डॉ पुनीत कुमार
T 2/505 आकाश रेजीडेंसी
आदर्श कॉलोनी रोड
मुरादाबाद 244001
मोबाइल फोन नम्बर 9837189600