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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी जी से लिया गया यह साक्षात्कार बरेली से प्रकाशित दैनिक अमर उजाला के 24 मई 1987 के रविवासरीय परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था । उस समय मैं एम ए का विद्यार्थी था । 37 वर्ष पूर्व लिया गया यह साक्षात्कार आज भी प्रासंगिक है ––

लोक से ही मिलते हैं कविता के संस्कार


■■ आपने किस आयु से लिखना प्रारंभ किया तथा लेखन की प्रेरणा किससे मिली?

□□ बारह वर्ष की आयु से। पहला छन्द एक समस्या पूर्ति के रूप में था। प्रेरणा के बारे में कई बातें हैं। पहली--मेरे चाचाजी को गीत-गोविन्द आदि के पद कंठस्थ थे। वे जब उन्हें सस्वर गाया करते थे तब मैं भी उनके साथ बैठ जाया करता था जिसके कारण संस्कार मेरे वहीं से पड़ गये।

     उसके बाद जब मैं जूनियर हाईस्कूल में पढ़ने गया तो वहां रामदेव सिंह कलाधर नामक के एक अध्यापक थे जो स्वयं सनेही जी के मण्डल के समर्थ रचनाकारों में से एक थे। चूंकि वहां उस समय कोई विशिष्ट श्रोता नहीं थे अतः उनके छात्र ही उनकी रचनाओं के प्रथम श्रोता होते थे। उसी दौरान में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की प्रथमा की परीक्षा में बैठा और रामचन्द्र शुक्ल 'सरस' का खण्ड काव्य को जो 'अभिमन्यु' से संबंधित था, पढ़ा। उसे  पढ़ते समय मुझे अचानक लगा मैं भी कुछ  लिख सकता हूं। संयोग है कि पहला छन्द जो मैंने लिखा वह अभिमन्यु से ही संबंधित था। इस बारे में जैसे ही श्री कलाधर जी को मेरे बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने न केवल मुझे प्रोत्साहित किया बल्कि छन्द शास्त्र की अलग से शिक्षा भी देनी प्रारंभ कर दी। इसलिये प्रेरक या काव्य गुरु अगर मैं किसी को कह सकता हूं तो श्री रामदेव सिंह कलाधर जी को ही। हालांकि प्राथमिक संस्कार मुझे परिवार से ही मिले।

■■ आपने अधिकतर नवगीत ही लिखे हैं। क्या सोच-समझकर या लिखने के बाद आपको लगा कि यह नवगीत हो गये हैं?

□□ दरअसल नवगीत के साथ मैं सन् 1969 से जुड़ा। उससे पहले छायावाद उत्तर गाथा से ही जुड़ा हुआ था। लिखने के साथ-साथ पढ़ने की रुचि मुझमें शुरू से थी उस समय मैं प्रकाशित रचनाओं को सिर्फ पढ़ता ही नहीं था, उन पर सोचता भी था और इस सोचने के क्रम में मुझे ऐसा लगा यदि हिन्दी गीत को अपने समय के साथ साँस लेनी है तो उसे उपस्थित चुनौतियों से जूझना पड़ेगा और उस समय हिन्दी गीत के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी--'नयी कविता' यदि हिन्दी गीत उस समय नयी कविता के अभिव्यक्ति कौशल को और समकालीन रचना के मुहावरों को नहीं पकड़ता तो इसके अप्रासंगिक हो जाने की पूरी-पूरी संभावनाएं थीं। दूसरी चुनौती थी मंच से पढ़े जाने वाले गीतों में निरन्तर रचनात्मकता का ह्रास होना। प्रमुख रूप से इन दो चुनौतियों ने मुझे नवगीत से जोड़ दिया। इसके अलावा मुझे वातावरण भी कुछ ऐसा मिला। देवेन्द्र कुमार, डा. परमानन्द श्रीवास्तव, ब्रजराज तिवारी, रामसेवक श्रीवास्तव, भगवान सिह आदि युवा रचनाकार मेरे महाविद्यालय के सहपाठी थे।

 ■■ गीत से नवगीत की पृथकता की पहचान के लिये आप किन-किन आधारों को स्वीकार करेंगे?

□□ देखिये, नवगीत ने आधुनिक बोध को ग्रहण किया है जबकि परम्परावादी गीत में आधुनिक बोध नहीं है। नवगीत में संभवतः पहली बार रागात्मकता को दाम्पत्य तथा पारिवारिकता से जोड़ा गया है जबकि परम्परावादी गीतों में आध्यात्म तथा प्रेम का ही बखान प्रमुख रूप से हुआ है। नवगीत ने छन्द में आवश्यक परिवर्तन किये हैं और छोटा किया है जबकि परम्परावादी गीत लम्बे-लम्बे लिखे जाते रहे हैं। नवगीत ने नये प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को सुधारा है।

दूसरी बात--नवगीत ने शब्दों के  संभावित अर्थों को साथ-साथ अपनाया है। इसके अलावा लोक से ही कविता को आदिशक्ति और संस्कार मिलते रहे हैं। नवगीत अपनी तलाश में उसी ओर लौटा जबकि परम्परावादी गीतों में यह लोक चेतना या लोक संस्कृति, लोक भाषा अथवा लोकलय अनुपस्थित रही।

■■ आपकी दृष्टि में श्रेष्ठ कविता के लिये किन-किन गुणों का समावेश होना जरूरी है?

□□ सबसे पहली चीज है, रचना की विषय वस्तु। दरअसल जब तक रचना से यह स्पष्ट न हो कि वह आपके निजत्व को तोड़कर उसे कितना सामाजिक बनाती है तथा अपने समय के साथ अपनी प्रांसगिकता को सिद्ध करती है तब तक रचना शिल्प की दृष्टि से कितनी ही प्रौढ़ और परिपक्व क्यों न हो वह एक कमजोर रचना ही मानी जायेगी। शिल्पगत निखार उसका एक उपकरण है लेकिन वह सबसे ज्यादा जरूरी और सबसे बड़ा उपकरण नहीं है। प्रमाण देना यदि किसी रचना की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये शिल्पगत आग्रह ही प्रमुख होते तो कबीर को या तो कवि ही नहीं माना जाता और यदि माना जाता तो एक घटिये दर्जे का।

      मात्राएं गिनकर हम सिर्फ कविता का ढाँचा खड़ा कर सकते हैं उससे कविता नहीं खड़ी कर सकते। हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि उसके तमाम रचनाकार शब्द और अर्थ की लय को भूलकर मात्राओं के तानपुरे में ज्यादा उलझे रहते हैं। इसीलिये आज के बहुत से गीतों में सिर्फ साज बजते हैं, गीत नहीं सुनाई देता।

■■ क्या कोई विचारधारा अथवा सिद्धान्त आपके विचारों को बल देता है और क्या उसका उपयोग आप अपने लेखन में करते हैं ?

□□ हाँ, सन् 1970 तक कलावादियों की तरह सिर्फ कलागत आग्रह ही मेरी रचनाओं के मूलबिन्दु थे। कोई भी विचारधारा अलग से स्पष्ट नहीं थी। 1970 के बाद प्रगतिशील विचारधारा से समता के कारण यह स्पष्ट हो गया कि रचना की सबसे बड़ी और केन्द्रीय चुनौती और चिन्ता उसके सामाजिक चुनौती और चिन्ता उसके सामाजिक सरोकारों से जुड़कर प्रासंगिकता ग्रहण करती है। उसका परिणाम यह हुआ कि मैं अपने लेखन में सामाजिक चिन्ताओं को ही अभिव्यक्ति देने लगा।

■■ आदरणीय तिवारी जी, क्या आप मानते हैं कि कविता से सामाजिक क्रान्ति संभव है?

□□ कविता से सामाजिक बदलाव दूसरी प्रक्रियाओं की अपेक्षा ठोस किन्तु धीमी होती है। रचना अपने आप में पूर्ण होती है और अपने समय के मनुष्य के मन और मस्तिष्क को तैयार करती है और इसके लिये उसे व्यक्ति के मन में बैठे पूर्व संस्कारों से जूझना पड़ता है।

■■ आप कवि सम्मेलनों से भी बहुत जुड़े हुए हैं। क्या आप आज के कवि सम्मेलनों के स्वरूप से सन्तुष्ट हैं?

□□ मैं नितान्त असन्तुष्ट हूं। सबसे पहले तो घटिया रचनाकारों की मंच से छंटाई होनी  चाहिये और दूसरे घटिया कवियों ने जिन श्रोताओं और पाठकों के मन बिगाड़ दिये हैं उनको संस्कारित करने के लिये बड़ी गोष्ठियां आयोजित की जायें।

■■ चलते-चलते, एक प्रश्न नवोदित रचनाकारों की ओर से कि आप उन्हें क्या सुझाव देना चाहेंगे?

□□ नवोदित रचनाकारों को मेरा सुझाव है - कि वे जिस भी विधा में लिख रहे हों उस विधा के पुराने से लेकर नये तक के साहित्य को गंभीरता से पढ़ें और उस पर चिन्तन करें। 



रविवार, 24 दिसंबर 2023

बुधवार, 1 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी से डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ की बातचीत। यह साक्षात्कार उन्होंने सितंबर 2000 में लिया था, जो मुरादाबाद से प्रकाशित समाचार पत्र ’दैनिक आर्यभाषा” के दिनांक 21सितंबर 2000 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद यह साक्षात्कार वर्ष 2023 में प्रकाशित उनके साक्षात्कार-संग्रह “प्रश्न शब्दों के नगर मे” में भी प्रकाशित हुआ है।


 साहित्येतर कारणों से हिंदी कविता का जनसंवाद कम हुआ

*** हिंदी कविता ख़त्म होने की घोषणाएँ उन्हीं लोगों ने कीं, जो उससे जुड़े नहीं रहे

*** अपना माल बेचने वाले दुकानदारों का जमावड़ा हिंदी काव्य-मंच 

*** अपने समय और व्यापक समाज के दुख-दर्द का संवाहक बना है नवगीत।

कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। यदि यह बात सच है, तो यह भी सत्य है कि दर्पण ज़िंदगी की आवश्यकता है। इस प्रकार साहित्य जि़ंदगी की अहम ज़रूरत हुआ।

हिंदी काव्य साहित्य में गीत का महत्वपूर्ण स्थान है। गीत पर चर्चा हो और नवगीतकार माहेश्वर तिवारी का उसमें जि़क्र न हो, यह असंभव है। एक बातचीत के दौरान जब उनसे यह पूछा जाता है कि हिंदी कविता की वर्तमान में क्या स्थिति है, तो इस प्रश्न का उत्तर वह विस्तार से देते हैं। कहते हैं- ‘‘हिंदी कविता समाप्त हो गई है, वह मर गई है, ऐसी घोषणाएँ पिछले दिनों राजेंद्र यादव और सुधीश पचौरी जैसे लोगों ने कीं। ये घोषणाएँ ऐसे लोगों की थीं जो कविता या उसकी समीक्षा से जुड़े हुए नहीं हैं और समय-समय पर कुछ अप्रत्याशित घोषणाएँ करते हुए चर्चा में बने रहने का प्रयास करते रहते हैं।’’

श्री तिवारी कहते हैं कि कविता आज भी लेखन की केंद्रीय विधा है। प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में प्रकाशित होने वाली पुस्तकें इसका प्रमाण हैं। हालाँकि वह इस बात को भी स्वीकारते हैं कि पुस्तकों की इस ‘बड़ी संख्या’ में कूड़ा करकट भी कम नहीं होता। वह बताते हैं कि आज हिंदी कविता विश्व कविता के समानांतर उससे आँखें मिलाते हुए खड़ी है। यह अलग बात है कि अन्यान्य साहित्येतर कारणों से उसका जन संवाद पहले की अपेक्षा कुछ कम हुआ है। श्री तिवारी कई कवियों के नाम गिनाते हैं कि अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, नरेंद्र जैन, स्वप्निल श्रीवास्तव, ध्रुव नारायण गुप्ता, कात्यायनी, चम्पा वैद्य, गगन गिल जैसे असंख्य मुक्तछंद के कवि ही नहीं, बल्कि डा. शिव बहादुर सिंह भदौरिया, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, गुलाब सिंह, अमरनाथ श्रीवास्तव, अवध बिहारी श्रीवास्तव, शतदल, यश मालवीय जैसे अनेक गीत कवि भी महत्वपूर्ण लेखन में निरंतर सक्रिय हैं। उनका कहना है कि डा. रामदास मिश्र, केदारनाथ सिंह आदि ही नहीं, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से लेकर लीलाधर जगूड़ी, विनोद कुमार शुक्ल, कुमार अंबुज, एकांत श्रीवास्तव, बद्री नारायण आदि तक एक साथ कई पीढि़याँ कविता लेेखन में सक्रिय है।

नवगीत का प्रयोग और वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता के सवाल पर श्री तिवारी कहते हैं कि हिंदी में नवगीत का जन्म ऐतिहासिक कारणों से हुआ। छायावादोत्तर गीत काव्य में जब कविता बेडरूम आदि के चित्रा परोसने में लग गई, तब गीत के नए रूप की तलाश आवश्यक हो गई। कविता के पुराने अलंकरणों को छोड़ने की बात निराला और पंत पहले ही कर चुके थे। वह मुक्त छंद में पहले ही घटित हो गया। इसलिए नई शैली के गीतों को पुराने गीतों से अलग करने के लिए उन्हें ‘नवगीत’ नाम दिया गया।

श्री तिवारी बताते हैं कि नवगीत का स्वरूप अपने कथ्य और बिंब विधान में नया था ही, उसने अपनी छांदसिक बुनावट के लिए निराला के ‘नवगति, नवलय, ताल-छंद नव’ को आधार बनाया। नवगीत जब तक अपने समय और व्यापक समाज के दुख-दर्द का संवाहक बना रहेगा, उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा करना स्वयं अप्रासंगिक होगा।

नवगीत के पक्ष में श्री तिवारी कुछ कवियों के नवगीतों की पक्तियाँ भी उदाहरण स्वरूप सुनाते हैं-

पुरखे थे। पेड़ बने

हाथों में पंछी के घोंसले लिए

छाया नीचे, मीठे फल ऊपर

मिल जाते बिन जतन किए,

आँधी में। वे फल टूट झरे

- दिनेश सिंह


क्या बतलाएँ

कुछ भी निश्चित नहीं रहा अब

नंदन वन में

नियम पुराने। टूटे सारे

न जिसकी जो मरज़ी करता है

सूरज। लाता है अंधियारे

बे-मौसम पत्ता झरता है

फूल खिलें। अगले बसंत में नहीं ज़रूरी

- कुमार रवींद्र


पेड़ अब भी आदिवासी हैं

पेड़ खालिस पेड़ हैं अब भी

पेड़ मुल्ला हैं, न पंडित हैं न पासी हैं

- सूर्यभानु गुप्त

श्री तिवारी बताते हैं कि नवगीत में प्रगतिशीलता की चर्चा करते हुए श्री ‘रंग’ ने ‘शताब्दी के अंत में नवगीत का प्रगतिशील पथ और चुनौतियाँ’ शीर्षक वाले लेख में लिखा है कि शताब्दी के अंत में प्रगतिशील गीतकारों ने सामाजिक, सरकारी तंत्र, मानवीय संबंध तथा उत्पादन और उपभोग के समस्त मानवीय चक्र के द्वंद्व को पूरी ईमानदारी से उजागर किया है। 

वर्तमान में नई कविता की स्थिति के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि यह विडंबना है कि प्राध्यापकीय जगत में मुक्तछंद की कविता के प्रति आचार्य रामचंद्र शुक्ल का फ़तवा आज भी सर्वमान्य-सा ही है।

श्री तिवारी कहते है कि मुक्तछंद वाली कविता छंदमुक्त नहीं है, सिर्फ़ यह समझने की ज़रूरत है। वह नई कविता के साथ एक विडंबना और बताते हैं कि इसकी पाठ शैली हिंदी में वैसी विकसित नहीं हुई है, जैसी बंगला में। साथ ही प्रश्न भी करते हैं कि विश्व की तमाम भाषाओं में नई हिंदी कविता के अनुवाद और अनेक देशों में उनका कविता के रूप में ही पठन-पाठन क्या यह सिद्ध नहीं करता कि हिंदी की नई कविता विश्व कविता के परिवार में शामिल हो गई है।

हिंदी काव्य मंचों की वर्तमान स्थिति से श्री तिवारी बेहद चिंतित हैं, कहते हैं कि आज हिंदी काव्य मंचों की स्थिति काफ़ी ख़राब है। इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो हिंदी काव्य मंच अब कविता या कवियों का मंच नहीं रह गया है, वह अपना-अपना माल बेचने वाले दुकानदारों का जमावड़ा बन गया है।

हिंदी कवियों के हास्य कविताओं की ओर बढ़ते रुझान के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि हास्य जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन वह भी जब बाज़ार में बिकने वाली वस्तु बन जाए तो उसके प्रति ऐसे लोगों का रुझान बढ़ेगा ही जो कविता से कम, धनोपार्जन में अधिक दिलचस्पी रखते हैं। हिंदी कवियों का अधिकाधिक हास्य की ओर रुझान बाज़ार की शक्तियों से निर्धारित और प्रेरित हो रहा है, उसके पीछे गहरे साहित्यिक मूल्यों से लगाव नहीं है।

व्यंग्य कविता से क्या अभिप्राय है, इस प्रश्न पर श्री तिवारी का कहना है कि ‘व्यंग्य’ शब्द अंग्रेजी के ‘सटायर’ शब्द के आधार पर निर्मित है। वि+अंग की संधि से व्यंग शब्द बना है, जिसका अर्थ है चुहुल या परिहास अथवा विसंगतियों पर कटाक्ष। इसका प्रयोग वेदों में भी ढूँढा जा सकता है, किंतु नाट्य शास्त्र में इसके स्पष्ट संकेत मिलते हैं।

वर्तमान में अधिकतर कवियों द्वारा अछांदिक कविता लखे जाने के प्रश्न पर श्री तिवारी कहते हैं कि कविता अछांदिक नहीं होती। गड़बड़ी यह हुई कि छांदसिकता के लिए ‘तुक’ को अपरिहार्य मान लिया गया, जबकि ‘लय’ महत्वपूर्ण है। यदि ‘तुक’ को ही आधार माना जाए, तो वैदिक रिचाएँ भी अछांदिक मानी जानी चाहिएँ, जबकि ऐसा नहीं है। यहाँ तक कि लोकगीतों में भी छंद का विधान वैसा नहीं है, जैसा मोटे तौर पर सोचा-समझा जाता है।

इस दौर में काव्य मंच और साहित्य में सामंजस्य समाप्त होता जा रहा है? इस प्रश्न के उत्तर में श्री तिवारी का कहना है कि मंच और साहित्य में सामंजस्य लगभग सन् 1960 तक रहा। बाद में जैसे-जैसे मंच पर बाज़ार हावी होता गया, दोनों के रिश्तों में फ़र्क़ आता गया। यह सामंजस्य फिर से बनाया जा सकता है, पहले छोटी-छोटी गोष्ठियों और फिर व्यापक जन-संवाद के माध्यम से। पहले मंच साहित्य का मंच था, जिसे मनोरंजन के मंच में तब्दील कर दिया गया, जबकि साहित्य का प्रयोजन सस्ता मनोरंजन नहीं, बल्कि अनुरंजन के साथ जन-रुचियों और संस्कारों को उदात्त बनाना रहा है।

वर्तमान में काव्य मंचों पर गीत की स्थिति पर चर्चा करते हुए श्री तिवारी एक पंक्ति सुनाते हैं- ‘अब दादुर वक्ता भए तुमको पूछे कौन’। ठीक इसी जैसी स्थिति मंच पर गीत की है। वह स्वर्गीय वीरेंद्र मिश्र के गीत की पंक्तियाँ भी सुनाते हैं-

गीत वह 

जो पढ़ो झूम लो

सिर्फ़ मुखड़ा पढ़ो

चूम लो

तैरने दो समय की नदी

डूबने का निमंत्रण न दो,

वह कहते हैं कि अब मंच पर गीत के नाम पर ऐसे भी तथाकथित कवि आते जा रहे हैं, जिनकी रचनाएँ समय की नदी में सफलतापूर्वक तैरकर पार हो जाने की जगह अपने श्रोता को सिर्फ़ डुबोती हैं। फिर हास्य और तथाकथित ओज का मंच पर क़ब्ज़ा भी गीत को उसके स्थान पर बेदख़ल करने में ही लगा हुआ है।

कवियों और कविताओं की जनता से क्या अपेक्षाएँ हैं? इस प्रश्न पर श्री तिवारी कहते हैं कि इन्हीं संदर्भों में एक प्रश्न और भी महत्वपूर्ण है कि जनता कविता सुनने आती है या नाटक-नौटंकी का मज़ा लेने? कविता सुनने की कुछ शर्तें होती हैं। उसके लिए श्रोता के मन में कविता के संस्कार होने चाहिएँ। मूँगफली बेचने वालों या चाट का ठेला लगाने वालों में कविता के संस्कार की बात बेमानी है। उन्हें तो चुटकुले और काव्यपाठ में कुछ नाटकीयता भली लगती है। पहले लोग कविता के पास आते थे, अब कविता ही लोगों के पास जाने लगी है। कवि भी वैसा ही तर्क देने लगे हैं, जैसा सिनेमा वाले यानी आम जनता की रुचि की बात। जब कविता जनरुचि से निर्धारित होगी और कला मूल्यों को पीछे छोड़ दिया जाएगा, तो यही होगा जो हो रहा है।

वह कहते हैं कि सीमित वर्ग में गोष्ठियों की बात मैं इसलिए करता हूँ कि वहाँ कविता अपनी शर्तों के साथ लोगों के पास जाएगी, लोगों की रुचि से संचालित होकर नहीं, अन्यथा उसकी भी वही स्थिति होगी, जो बाज़ार में फ़ैशनेबुल साबुनों, तेलों और सौंदर्य प्रसाधनों की है। आम साबुन का गुण अब मैल साफ़ करना नहीं, गोरापन बढ़ाना हो गया है।


हिंदी-ग़ज़ल और उर्दू-गीत की साहित्य में क्या स्थिति है? इस प्रश्न पर श्री तिवारी का कहना है कि हिंदी-ग़ज़ल एक गढ़ा हुआ नाम है। हिंदी कवियों द्वारा लिखी गई ग़ज़ल को मैं ज़्यादा से ज़्यादा हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहता हूँ। 

निराला, त्रिेलोचन, आचार्य जानकी बल्लम शास्त्री, शमशेर बहादुर सिंह, शंभुनाथ शेष, बलवीर सिंह रंग आदि ने तो हिंदी-ग़ज़ल नाम का प्रयोग नहीं किया, फिर आज क्यों? फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने एक बार कहा था कि ग़ज़ल को जि़ंदा रखने की उम्मीद अब हिंदी वालों से है, लेकिन उन्होंने भी इसे हिंदी-ग़ज़ल का नाम नहीं दिया। श्री तिवारी कहते हैं कि हिंदी भाषा की प्रकृति ही ग़ज़ल की बनावट के अनुरूप नहीं है। यह हिंदी कविता की जातीय परंपरा को बाधित या नष्ट करने में भी कारक हो सकती है। फिर ग़ज़ल लिखने वाले हिंदी कवि, पूर्व उल्लिखित कवियों को छोड़ दिया जाए तो ग़ज़ल की परंपरा और उसके व्याकरण से अपरिचित हैं। नये लोगों में कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन क़तार में शामिल तमाम लोग हिंदी-कविता परंपरा ही नहीं, ग़ज़ल के साथ भी दुराचार करने में लीन हैं।

वह उर्दू गीत की स्थिति को तो और भी दयनीय बताते हैं कि उर्दू गीत न तो लोकगीत की परंपरा से प्राणरस ग्रहण करते हैं और न स्वस्थ साहित्यिक गीतों की परंपरा से। वे तो प्राचीन सिनेमा के गीतों के समक्ष भी खड़े नहीं हो पाएँगे। उन्हें सुनकर हँसी आती है।

इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया के कविता पर प्रभाव के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया इतना प्रभावशाली नहीं हुआ है कि वह कविता को प्रभावित कर सके। आकाशवाणी का पहले, जब प्रोड्यूसर का पद हुआ करता था और इस कार्य को कोई सृजनधर्मी ही सँभालता था, अवश्य कुछ सीमा तक प्रभाव रहा। तब साहित्यिक प्रसारण लोग ध्यान से सुनते थे। दूरदर्शन के एकाध कार्यक्रम को अपवाद मान लिया जाए तो उसके अधिकतर प्रसारण बाज़ार से उठाए गए माल का उपयोग ही हैं।

उनका कहना है कि प्रिंट मीडिया में ‘आज’ जैसे अख़बार तथा सरस्वती, ज्ञानोदय, कल्पना, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान व वसुधा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य ने नए रचनाकारों को प्रेरित-प्रभावित किया। कुछ हद तक यह कार्य हिंदुस्तान दैनिक तथा जनसत्ता के रविवासरीय अंकों ने भी किया। उस भूमिका में आज कुछ लघु पत्रिकाएँ भी अपना काम कर रही हैं। श्री तिवारी कहते हैं कि अपनी जानकारी के अनुसार मैं यह कह सकता हूँ कि ‘आज’ ने हिंदी के कई कवियों- कथाकारों को स्थापित होने में सहयोग दिया। वर्तमान में इलेक्ट्रानिक मीडिया की स्थिति तो व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं से भी ज़्यादा घटिया है।

मंगलवार, 17 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम की कृति ---बात बोलेगी.... । यह कृति देश के प्रमुख गीत-नवगीत एवं गजलकारों डा. शिवबहादुर सिंह भदौरिया, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, सत्यनारायण, अवध बिहारी श्रीवास्तव, शचीन्द्र भटनागर, डॉ माहेश्वर तिवारी, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव, डा. कुँअर बेचैन, ज़हीर कुरैशी, डा. ओमप्रकाश सिंह, डा. राजेन्द्र गौतम, आनंद कुमार ‘गौरव’ और डॉ कृष्णकुमार 'नाज़' से लिये गए साक्षात्कारों का संकलन है । उनकी यह कृति गुंजन प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2013 में प्रकाशित हुई ।



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::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश द्वारा प्रसिद्ध जनकवि बाबा नागार्जुन से 11 अगस्त 1990 को मुरादाबाद में लिया गया साक्षात्कार--आम आदमी की आवाज हैं नागार्जुन। यह सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) रामपुर ,उत्तर प्रदेश के अंक 15 अगस्त 1990 में प्रकाशित हुआ था।


 मैंने कहा : "बाबा ! मुझे खेद है कि मैं ३१ जुलाई को अपके बुलाने के बावजूद आपसे मिलने मुरादाबाद नहीं आ सका "

          " इसीलिए तो मैंने तुम्हें दोबारा याद किया।" वह मुस्कराते हुए कह उठे। इतना सुनते ही मेरे मन में जमा हुआ वह तमाम अपराध-बोध पिघलकर बह गया, जो उनके द्वारा प्रथम बार  स्वयं मिलने के लिए आमन्त्रित करने के बावजूद न जा पाने के कारण मुझमें लगातार बना हुआ था ।
         "मैं तुम्हें बराबर रुचि पूर्वक पढ़ता रहा हूँ, सहकारी युग में तुम्हारी रचनाएं मुझे हमेशा प्रभावित करती रही हैं। तुमने जो अपनी कहानियों की किताब मुझे भेजी थी. मैं उस पर विस्तार से राय देना चाहता था मगर हुआ यह कि पंजाब के एक सज्जन जो कि प्रखर वामपंथी है, उस किताब को ही मुझसे मांगकर ले गए ! बहुत बढ़िया लिख रहे हो ।" -वह प्रेम की बिना रुकी सरिता बने अपना आशीष दिये जा रहे थे। और, मैं आश्चर्य चकित था कि क्या सचमुच भाग्य मुझ पर इतना मेहरबान है कि हिन्दी कविता के शीर्ष पुरुष और साहित्य साधना के सर्वोच्च शिखर पर आसीन बाबा नागार्जुन मेरे प्रति ऐसा उदार और आत्मीयता भरा भाव रखते हैं।
      मैं धन्य हो गया । हाँ ! यह नागार्जुन ही हैं। बाबा नागार्जुन ! अस्सी साल का एक नौजवान । पुराना पड़ गया पायजामा, अस्त-व्यस्त कुर्ता, बेतरतीब बिखरी हुई दाढ़ी-मूँछे और सिर के सफेद पड़ चुके बाल । थकी हुई आंखों में जब-तब दौड़ जाने वाली एक चमक। प्रायः निढालपन मगर फुर्ती में फिर भी कोई कमी नहीं। वह शांत होकर बात करते हैं , मगर घोर आवेश में आने से भी अछूते नहीं रहते। जो निश्छल और दिल खोलकर पवित्र हँसी वह हँस पाते हैं, आज की औपचारिकताओं भरी महफिलों के खोखले ठहाकों में कहाँ है ? वह सादा जीवन उच्च विचार की साकार प्रतिमा हैं। वह भारत के आम आदमी का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं -अपनी वेशभूषा से ,अपने विचारों से, अपनी बहुजनपक्षीय प्रतिबद्धताओं से । "संदर्श" पत्रिका का हृदयेश विशेषांक अपने हाथ में लिए हुए जब वह मुझे ग्यारह अगस्त की सुबह साढ़े आठ बजे मुरादाबाद में सुकवि और साहित्यकार गिरिराज सिंह के जिला सहकारी बैंक स्थित निवास के सुसज्जित कक्ष में पहली-पहल मिले, तो मैं उस बोने कद में मनुष्यता की विराटता को मापने का प्रयास ही करता रह गया | अहम् उन्हें छू तक नहीं गया है। छोटों को प्रेम से गले लगाना और बांहों में भरकर उनके सिर को अपने अमृतमय स्पर्श से जड़वत बना देने का जादू क्या होता है ,यह मैं उसी दिन जान पाया।
      बाबा नागार्जुन आजकल भ्रमण पर निकले हुए हैं। पांच सप्ताह बिहार रहे। फिर उत्तर प्रदेश में बनारस कुछ दिन रहे। इसी तरह नगर-नगर, गांव-गांव घूमना चल रहा है। वह इसी को शरीर की ऊर्जा का सार्थक उपयोग मानते हैं कि जब तक शरीर समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी है ,तभी तक उसका रहना सार्थक है।
                  इतनी उम्र में भी इस हद तक घूमना-फिरना क्या स्वास्थ्य के लिए उचित है ? -इम प्रश्न का उत्तर देते हुए यह कहते है कि लोग बुलाए बिना नहीं मानते और मेरा मन भी जाए बिना नहीं मानता। सच ही है कि बाबा नागार्जुन अपने जीवन की समस्त उर्जा को नई से नई पीढ़ी तक के रचनाकार से एकाकार करने के एक प्रकार के मिशन में लगे हुए हैं और जो स्वतंत्र, निर्भीक और सत्य-सम्मत अभिव्यक्ति उनके रचनाकार की विशेषता बन गई, उस रचनाधर्मी-ज्योति को वह सारे देश के असंख्य दिलों में धधकती हुई मशालों में बदलने के काम में लगे हुए हैं। इसके लिए वह अपने शरीर पर अत्याचार करने की हद तक आगे बढ़ चुके है। उनका मुरादाबाद आना और आसपास के रचनाकारों से सम्पर्क करके उन्हें प्रोत्साहित करने के साथ-साथ रचनाधर्मिता की एक नई ओजस्वी लहर उत्पन्न कर जाना इसी बात के प्रमाण हैं। अब उन्हें कानों से कम सुनाई पड़ता है। पढ़ने के लिए एक बड़ा-सा लेंस हाथ में रखते हैं। यूं उन्हें चश्मे से विरोध नहीं है। मगर कहने का अर्थ यह है कि आंखें कमजोर है, कान से कम सुनाई पड़ता है और दस- पन्द्रह मिनट बात करके ही जो व्यक्ति थोड़ी थकान महसूस करने लगता हो और जिसकी उम्र अस्सी के आस-पास हो गई हो, वह सिर्फ समाज के मानस को बदलने के शुद्ध साहित्यिक इरादे से स्थान-स्थान घूम रहा हो ,यह एक असाधारण बात है।
          "कैसी रचनाएं आज लिखी जानी चाहिए ?" मैंने प्रश्न किया। बाबा गंभीर हो गए। कहने लगे : "जो समय के अनुरूप हों और हमारे मौजूदा समाज में अपेक्षित बदलाव ला सकें। आज साहित्यकार यदि देश की स्थिति को बदलने में सार्थक सिद्ध नहीं हो रहा है तो इसका कारण यह है कि वह कहीं चारण की भूमिका निभा रहा है तो कहीं भांड बना हुआ है। लेखनी का जब तक सही-सही और निःस्वार्थ भाव से जन-मन को आंदोलित करने के लिए प्रयोग नहीं होता ,तब तक वह प्रभावशाली सिद्ध नहीं होती।
        देश की राजनीतिक स्थिति को देखकर बाबा बहुत चिंतित हैं । यद्यपि वह स्वयं को आशावादी बताते हैं मगर निराशा की गहरी अंधेरी खाइयाँ उनकी आंखों में झलकती हुई कोई भी झांक सकता है । वह कहते हैं "देवीलाल धृतराष्ट्र हो गए हैं । वह पुत्र-मोह में फंस गए हैं। उनके लिए घोटाला ही सब कुछ हो गया है। सारी राजनीति ऐसी ही हो रही है। सब तरफ कुर्सी की खुजली मची हुई है। कोई नेता ऐसा नहीं जो बिना कुर्सी पर बैठे देश की सेवा करने का इच्छुक हो। जिसे देखो, देश सेवा की खातिर कुर्सी के लिए झगड़ रहा है। मैं बूढ़ा हो गया हूँ।" वह कहते हैं- "मगर यह सब देख कर मैं क्रुद्ध हो उठता हूँ तो देश के युवा वर्ग के आक्रोश की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। हमारे सारे स्वप्न व्यर्थ होते जा रहे हैं।"
                "मन्दिर और मस्जिद के झगड़ों के कारण देश की बिगड़ती स्थिति पर आप अपना मत प्रकट करेंगे ?" ऐसा आग्रह करने पर बाबा ने आवेशित होकर कहा कि आज जरूरत गरीबी, बेकारी और भूख के खिलाफ सारी जनता को एकजुट करके जोरदार आंदोलन छेड़ने की है। हिन्दू और मुसलमानों को कन्धा से कन्धा मिलाकर देश के निर्माण में सहभागी बनाने का माहौल पैदा करने की है, धर्म के नाम पर बौना चिंतन रोकने की जरूरत है। हजारों मन्दिर गाँव-गाँव, शहर-शहर में उपेक्षित पड़े है । उन्हें नजरन्दाज करके कोई धर्म का हित नहीं कर रहा है क्या ?
          बातों-बातों में बाबा कहीं एक बहुत गहरी बात कह गए। वह बोले: "विनोबा का अपन लोगों ने (हम लोगों ने) विरोध भी किया था, मगर जिस तरीके से उन्होंने अपने जीवन का अन्त किया वह मुझे बहुत प्रभावित करता है। जीवन के अन्तिम वर्षों में विनोबा का पवनार आश्रम पंडों का अड्डा बन गया था। यहाँ तक कि बिनोबा से भेंट करने के लिए आश्रम के पंडे दस-दस हजार रुपये की फीस मांगने लगे थे। यह स्थिति होती है कि जब किसी आदमी के नाम पर उसका दुरुपयोग होना शुरू हो जाता है और वह खुद कुछ नहीं कर पाता । ऐसे में जीवन का अंत ही एकमात्र विकल्प है ,जो विनोबा ने ठीक ही किया। इस तरह मेरा कहना यह है कि आदमी का जीना तभी तक सार्थक है ,जब तक उसके विवेक का जेनरेटर चालू है। जब उसका या उसके नाम का दुरुपयोग दूसरे लोग करने लगें, तो ऐसे में व्यर्थ जीते रहने का कोई औचित्य नहीं है।"
       करीब आधे घन्टे की मुलाकात में मैंने बाबा को अक्सर थका हुआ पाया, हालांकि हर बार अपनी थकान को वह एक अपराजेय उत्साह से जीतने में सफल रहते थे। बातचीत के शुरू में ही उन्होंने कहा था कि मैं थोड़ी-थोड़ी देर में ही थक जाता हूँ और लघुशंका न भी लग रही हो तो बहाना करने उठ जाता हूँ। यह कहने के ठीक पन्द्रह मिनट बाद वह लघुशंका के लिए उठ गए. जिसका मतलब साफ था कि अब बाबा को अधिक कष्ट देना उचित नहीं है। मगर, लौटकर आने के बाद उन्होंने कहा कि "भाई ! मै वाकई लघुशंका के लिए गया था । बैठो।" और, इस तरह बातचीत विश्राम-बिन्दु पर नहीं रुक पाई।
      बाबा नागार्जुन साहित्य की वह गंगा हैं ,जो स्वयं अपने भक्तों को आवाज देकर अवगाहन करने का सुख पहुंचाने की उदारता रखते हैं। उन जैसी सहजता अब दुर्लभ है।
    

✍️  रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश), भारत
मोबाइल 99976 15451

रविवार, 19 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी से योगेंद्र वर्मा व्योम की बातचीत । यह साक्षात्कार लिया गया है उनकी कृति "बात बोलेगी..." से । यह कृति गुंजन प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2013 में प्रकाशित हुई थी । इस कृति में 15 साहित्यकारों से लिए गए साक्षात्कार हैं -----

साक्षात्कारकर्त्ता : योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
 ए.एल.-49,  उमा मेडिकोज़ के पीछे, दीनदयाल नगर फेज़-।, काँठ रोड,
मुरादाबाद (उ0प्र0)-244105
मोबाइल- 9412805981

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अजय अनुपम से विकास भटनागर की बातचीत


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह से बातचीत


मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी से बातचीत


मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज से बातचीत


मुरादाबाद के साहित्यकार अम्बरीष गर्ग से उदयभान की बातचीत


मुरादाबाद के प्रख्यात हास्य व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी से बातचीत