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बुधवार, 21 जून 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी..... दावानल

     


अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के मानव अंग पुनर्स्थापन विभाग में नेत्र प्रत्यारोपण के उपरांत जब मंजरी जोशी ने आंखें खोलीं तो हृदय में फूट रहे उल्लास के नवांकुर अधरों से प्रस्फुटित होने को अधीर हो उठे। दृष्टि चारों ओर घुमाकर उसने वातावरण के सौंदर्य को विस्मय से निहारा और संस्थान के चिकित्सक अनंत चतुर्वेदी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बोली –"आप मेरे लिए देवदूत बनकर अवतरित हुए हैं सर! आपने मेरे नेत्रों को जीवन दान देकर मेरे जीवन को पुनर्प्रकाशित किया है। मेरा यह जीवन सदैव आपका ऋणी रहेगा। आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भुला पाऊंगी कि आपने मुझे विश्व का सौंदर्य पुनः देखने की सामर्थ्य प्रदान की  है।"

      डॉक्टर चतुर्वेदी ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फिराया–" बेटी तुम्हें मेरा नहीं अपितु उस व्यक्ति का ऋणी होना चाहिए जिसके नेत्रों को हमने तुम्हारे नेत्रों में प्रत्यारोपित किया है। आज के इस स्वार्थवादी युग में ऐसा महान धर्मात्मा होना असंभव नहीं तो कम से कम कठिन और दुर्लभ अवश्य है। एक ओर जहां इस युग में लोग अपने छोटे से स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों का जीवन लेने से भी नहीं हिचकते, वहीं उस बेचारे ने पांच-पांच लोगों को नवजीवन प्रदान कर मानवता का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है। धन्य है उसका यह प्रेरणादाई त्याग।" 

      मंजरी जोशी चौंकी–"पांच-पांच लोगों को किस प्रकार सर? मैंने तो मात्र नेत्रदान के विषय में ही सुना है। और वह भी केवल मृत्यु उपरांत ही।" 

      डॉक्टर चतुर्वेदी बताने लगे–"पिछले सप्ताह संस्थान में बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त एक ऐसा व्यक्ति आया था जिसके दोनों पैर और एक हाथ कुचला जा चुका था। रक्त भी बहुत बह चुका था। उसके बचने की आशा बहुत क्षीण थी। फिर भी संस्थान के चिकित्सकों ने कई दिनों तक अथक परिश्रम कर उसे जीवनदान दे दिया था। उसकी चेतना जब वापस लौटी तो हाथ-पैरों की दुर्दशा देखकर वह बहुत रोया। बिलख-बिलखकर बार-बार यही प्रार्थना करता रहा कि ऐसे जीवन से भी क्या लाभ जो पराश्रित होकर जिया जाए। इससे तो मौत अच्छी। डॉक्टर मुझे जहर का कोई ऐसा इंजेक्शन दे दो जो सरलता से मृत्यु की नींद सो सकूं।…

     "हमने उसे समझाया कि यदि तुम मृत्यु का आलिंगन करना ही चाहते हो तो अपने अंगों के दान से जीवन को अमरत्व प्रदान करते जाओ! उसकी आंखों में खुशी की लौ चमक उठी। तुरंत दानपत्र पर उसने अपने परिजनों के हस्ताक्षर करा दिए।… इस प्रकार उसके नेत्र तुम्हारे चेहरे पर हैं तथा यकृत, गुर्दे और हृदय अन्य ऐसे लोगों को प्रत्यारोपित किए गए हैं जिनके लिए अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। वह मरकर भी अमर हो गया। धन्य है उसका जीवन, तुम्हें उसी का ऋणी होना चाहिए बेटी!"

      "क्या आप मुझे उसके घर परिवार का पता दे सकते हैं ताकि मैं वहां जाकर उसके परिजनों का आभार व्यक्त कर सकूं?"

      "नहीं बेटी संस्थान के नियमानुसार यह संभव नहीं है। हम दानकर्ता का पता किसी को नहीं देते। हां इतना अवश्य कहेंगे कि इस धरा पर राक्षस तो बहुत विचरण करते फिरते हैं, लेकिन ऐसा धर्मात्मा कभी-कभी ही अवतरित होता है। जो हजारों लाखों की भीड़ में अकेला होता है। तुलना करो बेटी! वह एक राक्षस भी इसी धरती का जीव था जिसने तुम्हारे नेत्रों की ज्योति छीनकर तुम्हारे जीवन में घोर अमावस जैसा अंधकार व्याप्त कर दिया था। और यह धर्मात्मा भी इसी धरती पर जन्मा था जिसने तुम्हारे जीवन के अंधकार को अपना बलिदान देकर प्रकाशपुंज में परिवर्तित कर दिया। धरती और आसमान जैसा कितना विशाल अंतर है दोनों के व्यक्तित्व में।"

      मंजरी को लगा कि डॉक्टर चतुर्वेदी ने अनजाने में उसके रोपित व्रण को छील दिया …ऐसा व्रण जिसके रोपण में इतना लंबा समय निकल गया था… यकायक उसके प्रत्यारोपित नेत्रों में उस राक्षस का वीभत्स चेहरा उभर आया, जिसने एक प्रकार से उसे मृत्यु के आगोश में ही धकेल दिया था… उसके प्रकाशपुंज सदृश जीवन को तिमिराच्छादित कर दिया था…और वर्तमान छोड़कर वह अतीत से जा जुड़ी…….

     पत्रकारिता का पाठ्यक्रम कर रही थी वह उन दिनों। प्रतिदिन बस से आना-जाना पड़ता था। अनेक राक्षसी आंखों का सामना होता था। जिसे भी देखो वही उसके नैसर्गिक सौंदर्य को ऐसे निहारता प्रतीत होता जैसे क्षणिक अवसर मिलते ही समूचा निगल जाएगा। पर ऐसी काकदृष्टियों की अभ्यस्त हो चली मंजरी कांव-कांव करने वाले इन कव्वों से लेश मात्र भी तो भयभीत नहीं होती थी। कोई दुष्ट छींटाकशी करता भी तो वह मक्खी- मच्छर की भांति झटक देती। ऐसी अशोभनीय प्रक्रियाओं का प्रायः उसे नित्य प्रति ही सामना करना पड़ता था। अतएव किसी भी मनचले को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया था।

      बस कुछ इसी तरह से गंगा नदी की भांति कभी चट्टानों से टकराती, कभी पत्थरों को धकेलती, चकनाचूर करती जिंदगी अनवरत रूप से बही चली जा रही थी।

      लेकिन अकस्मात् अप्रत्याशित रूप से एक भारी-भरकम चट्टान ने उसकी राह में आकर उसके प्रवाहक्रम को बाधित कर दिया। उसे क्या पता था कि प्रतिदिन पूरे रास्ते पीछा करने वाला वह राक्षस उसके जीवन को अंधकारमय बनाकर रख देगा? उसे न जीता छोड़ेगा न मरता। 

     सड़क पर बने यात्री प्रतीक्षालय से उसकी गतिविधियां प्रारंभ हो जातीं… हर पल में उसे खा जाने वाली निगाहों से घूरता रहता और पलार्द्ध को भी दृष्टि टकराती तो दुष्ट विषाक्त हंसी हंस पड़ता। बस में चढ़ती तो साथ-साथ चढ़ता, सटकर बैठने अथवा खड़े होने की दुष्चेष्टा करता, उसके समीप अपना खुरदरा मुंह करके कोई भी फब्ती कस देता। उसकी दुष्चेष्टाएं जब असह्य हो उठतीं तो वह उसे आग्नेय नेत्रों से घूर देती। लेकिन अद्भुत  साहस का धनी था वह भी। नेत्रों से निकलती चिंगारियों से भी लेशमात्र भयभीत नहीं होता। अपितु दाईं आंख दबाकर धीरे से हंस पड़ता।

      कभी इतनी व्याकुल नहीं हुई थी मंजरी, जितना इस राक्षस के कारण हुई थी…हृदय की व्यथा कहे भी तो किससे कहे?… परिवार वालों से कहेगी तो तत्काल उसका विद्यालय जाना रोक देंगे… वे तो पहले से ही इस संघर्षभरे पाठ्यक्रम के विरोधी थे। मंजरी शैशव से ही संघर्षों से टकराना सीख गई थी। उसकी हठधर्मिता के समक्ष परिवार वालों को झुकना पड़ता था… थाने में शिकायत करने जाए तो पुलिस वाले चटखारे लेकर परिहास उड़ाएंगे, कई तरह के सुझाव देकर पीछे छुड़ा लेंगे। और थाने से निकलते ही हृदयोद्गार व्यक्त करने से भी नहीं चूकेंगे –'जालिम है भी तो इतनी खूबसूरत कि देखते ही दिल बेलगाम हो जाता है।'

     वह स्वयं ही कई दिनों तक आत्ममंथन करती रही…सोचती रही…विचारती रही… और आखिर में स्वयं ही उस राक्षस को सीख देने का  वज्र निर्णय  मन ही मन ले बैठी।

      एक सुबह को जब वह यात्री प्रतीक्षालय पहुंची तो उसका स्वयंभू प्रेमी पहले से ही वहां खड़ा था। उसके पहुंचते ही वह आगे बढ़कर बोला–'भगवान ने तुम्हें इतना भरपूर सौंदर्य प्रदान किया है कि तुम्हें देखते ही मेरा दिल बेकाबू हो जाता है। तुम नहीं जानतीं मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं। सच-सच बताओ क्या तुम भी मुझे उतना ही प्यार करती हो?'

      क्रोध की पराकाष्ठा में मंजरी का अंग-अंग कंपकंपाने लगा। ढेर सारा झागदार थूक मुख से निकालकर उसने दुष्ट  के मुंह पर उछाल दिया। साथ ही दाएं पंजे में शरीर की संपूर्ण ऊर्जा सन्निहित कर तड़ाक से उसके गाल पर छापते हुए बोली–'ले यह है मेरा जवाब!'

      विस्मित नेत्रों से तमाशा देख रहे लोग रोमांचित होकर उपहास की हंसी हंस पड़े। और थोथी सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए उसकी बहादुरी की प्रशंसा करने लगे। परंतु चूड़ियां पहने कायर पुरुषों के वक्तव्य सुनने के लिए वह रुकी नहीं। तेज-तेज कदमों से घर पर वापस लौट आई। परिजनों ने वीरता भरा वृतांत सुना तो पीठ थपथपाने के बजाय उसी को डांटने लगे–'क्या जरूरत थी उस गुंडे मवाली से पंगा लेने की? कल को वह प्रतिशोध लेने पर उतर आया तो न जाने क्या परिणाम सहना पड़े? हमें नहीं करवानी ऐसी पत्रकारिता जिस की राह में कांटे ही कांटे बिछे पड़े हों।'

      साथ ही उसे कर्कश आदेश भी सुनना पड़ा था–'कल से तू कॉलेज नहीं जाएगी।घर पर रहकर ही पढ़ाई करेगी।'

      मंजरी पलांश में आकाश से धरती पर गिर पड़ी। उसे लगा उसका अस्तित्व शून्य में विलीन हो गया है। नेत्रों से अश्रु टपककर पैरों पर गिर पड़े। स्वर में आक्रोश का पुट उभर आया–'क्या समझते हैं आप नारी को? मोम की गुड़िया या हाड़मांस का निष्प्राण शरीर?… जैसे उसका कोई अस्तित्व ही न हो, जैसे उसकी कोई महत्ता ही न हो… क्या ईश्वर ने नारी को मात्र पुरुषों का अत्याचार सहने के लिए ही बनाया है? क्या उसे सिर उठाकर जीने का कोई अधिकार नहीं?… कैसी दयनीय स्थिति बना दी है इस पुरुष समाज ने नारी की… घर के लोग ईंटों की दीवारों में कैद रखना चाहते हैं तो बाहर के लोग जीवित निगल जाने को तैयार … लेकिन मंजरी को ऐसा कातर जीवन कदापि स्वीकार नहीं… वह जिएगी तो स्वाभिमान पूर्वक सिर उठाकर जिएगी, अन्यथा हंसते-हंसते सहर्ष मृत्यु का आलिंगन कर लेगी'…

     निकृष्ट छद्म प्रेमी से वह लेशमात्र भी भयभीत नहीं हुई थी। अपितु एक नए उत्साह से भरकर फिर से विद्यालय जाने लगी थी।

      कुछ दिनों तक उस बर्बर की छाया भी कहीं दिखाई नहीं दी तो वह हर ओर से निश्चिंत हो गई थी। शायद अपमान दंश से लज्जित होकर वह कहीं किसी विवर में जा घुसा था।

      लेकिन वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी शीघ्र ही आ पहुंचा जब उसके जीवन के चंद्रमा जैसे प्रकाश को राहु ने ग्रसकर अमावस जैसा घोर अंधकार व्याप दिया।

      संध्या के झुरमुटे में जब वह एक दिन घर वापस लौट रही थी तो एक संकरी गली में किसी गुरिल्ले की भांति वह यकायक मंजरी के सामने प्रकट हुआ और लोहे के शिकंजे जैसा हाथ उसके मुंह पर चिपकाकर कंधे पर डाल समीपस्थ सुनसान खंडहर में ले गया। और लगा पाशविक कामुक चेष्टाएं करने। मंजरी ने पूरी शक्ति के साथ उसकी हर कुचेष्टा का प्रतिकार किया। परंतु एक कोमल कमनीय काया कब तक उस बलिष्ठ पशु का सामना कर पाती? शीघ्र ही उससे परास्त होने लगी। उसे लगा कि यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया गया तो वह उसकी अस्मत तार-तार कर देगा।

     अतएव अपने दांत उसने ऊपर पड़े राक्षस के वक्ष में पूर्ण शक्ति से चुभा दिए। असह्य वेदना से तिलमिलाकर वह उसके ऊपर से तो हट गया, परंतु क्रोधावेश में थरथरा उठा। दोनों हाथों से मंजरी का सिर पकड़कर उसने पूर्ण वेग के साथ दीवार में दे मारा। मंजरी की आंखों के सामने तारे से झिलमिलाए तथा मस्तक बड़ी तीव्रता से घूमने लगा। दोनों हाथों से सिर को थामकर वह एक और गिर पड़ी। और कुछ ही पलों में संज्ञाशून्य होती चली गई। फिर कुछ भी तो उसके संज्ञान में नहीं आ पाया कि निकृष्ट राक्षस ने उसकी अचेत देह के साथ  क्या-क्या किया?

      चेतना वापस लौटी तो उसने स्वयं को चिकित्सालय में परिजनों व चिकित्सकों से घिरा पाया। उन लोगों के पारस्परिक वार्तालाप से ही उसे आभास हुआ कि मस्तिष्काघात के कारण उसका रेटिना नष्ट हो चुका है। नेत्रों की ज्योति सदा-सदा के लिए समाप्त हो चुकी है।

     सन्न रह गई जलधारा सी सहज मंजरी जोशी… और वह केवल सन्न ही नहीं हुई थी अपितु ऐसे पथरा गई थी जैसे किसी ने उसके भावनामृत युवा शरीर से सारी शक्ति खींच ली हो… जीवन हीन कर डाला हो। उसके अधरों पर पाषाणी जड़ता चिपक गई।अंत:करण शोक और निराशा से परिपूर्ण हो उठा… लगा कि जैसे कोंपल जैसे बसंत पर यकायक पतझड़ टूट पड़ा है। मन हुआ कि चीत्कार कर उठे …इतनी जोर से रोए कि अपना ही सीना फट जाए… सावन की घनघोर काली घटाओं की तरह हृदय की पीड़ा सघन हो उठी… कालचक्र ने यह कैसा अंधकार व्याप्त कर दिया था उसके सद्यप्रकाशित जीवन में…

      फिर भी दु:खाग्नि में जलते अपने हृदय पर उष्ण घृतवत आ गिरे इस भयावह वृतांत को पचाने में उसने समूची संयम शक्ति लगा दी। शांतभाव से समूचे घटनाक्रम को भीतर ही भीतर पी गई वह। असंतोष और क्षोभभरा एक भी शब्द मुख से बाहर नहीं निकलने दिया। लाभ भी क्या था कुछ कहने से? चंद्रमा पर लगा कलंक का टीका और भी काला हो सकता था।

      घृणा  लावे की तरह तन-मन को जलाकर राख करती रही… चुप रहकर भीतर ही भीतर वह जलती रही…बस जलती रही।

      परिजन उसे लेकर कहां-कहां नहीं घूमें-फिरे थे? किस-किस ख्याति प्राप्त नेत्र चिकित्सक के पास नहीं गए थे? परंतु हर किसी का एक ही निराशा भरा उत्तर होता था–'अफसोस नेत्र ज्योति वापस नहीं आ सकती। नेत्र प्रत्यारोपण के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं।'

      लेकिन नेत्र भी किसी दुकान पर बिकते हैं क्या कि खरीदो और प्रत्यारोपित करा लो?

      थक-हारकर निराश से सभी घर बैठ गए थे। और मंजरी को उसके भाग्य और परिस्थितियों पर छोड़ दिया था।

     परंतु मंजरी जोशी उस मृत्तिका से नहीं बनी थी जिससे निर्मित लोगों के लिए लाचारी और विवशता जैसे शब्द ज्यादा अर्थमय होते हैं। नेत्र ज्योति खोकर भी वह लाचार अथवा असहाय बनकर शांत नहीं बैठी। अपनी इस अपंगता को उसने चुनौती के रूप में स्वीकार किया। और परिजनों की इच्छा के विपरीत एक सहायिका के माध्यम से विभिन्न समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में छिपे हुए पहलुओं को उजागर करना उसका मुख्य शौक बन गया।काले चश्में से नेत्रों को ढके अपनी सहायिका को साथ लेकर चर्चाओं के वृत्त में कैद पुरुषों को प्रश्नों के जाल में ऐसा उलझाती कि शीर्ष पुरुष पिंजरे में बंद पक्षी की तरह छटपटाने लगता। ऐसे साक्षात्कार लोग चटखारे ले-लेकर पढ़ते।

        परंतु विगत की तिक्त स्मृतियां हर पल उसके मस्तिष्क में लोहशस्त्र जैसा प्रहार करती रहतीं। बलात् किए गए कामुक स्पर्शों की विषाक्त पीड़ा देह में वृश्चिक दंश जैसी चुभन का एहसास कराती रहती। जीवन को अंधकारमय बनाने वाले उस निकृष्ट राक्षस का वीभत्स चेहरा भयानक अट्टहास करता हुआ कभी भी उसके अवचेतन में उभर आता। तब आवेश में शरीर की शिराएं झनझना उठतीं। क्रोध की अधिकता में मुट्ठियां कस जातीं। मन करता कि कहीं सामने आ जाए तो उसका चेहरा नोंच डाले…

      लेकिन अगले ही पल अपने असामर्थ्यबोध पर तिलमिला उठती… सामने आ भी गया तो पहचानेगी कैसे?… उफ्फ!उसने तो न जीता छोड़ा और न मरता… इससे तो अच्छा था मार ही डालता… इस प्रकार घुट-घुटकर तो न मरना पड़ता… एक जीवित लाश बनकर तो न जीना पड़ता।

     उन्हीं दिनों उसने कहीं सुना कि आयुर्विज्ञान संस्थान में डॉ अनंत चतुर्वेदी अपने सहयोगी चिकित्सकों के साथ उन रोगियों को उचित अंग प्रत्यारोपित कर नवजीवन प्रदान करने के महान कार्य में जुटे हुए हैं जिनके लिए अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा रह जाता।

      बस वह पहुंच गई उनका साक्षात्कार शब्दांकित करने… डॉक्टर चतुर्वेदी उसे शांत, गंभीर, परोपकारी और त्यागी-तपस्वी से लगे। साक्षात्कार के मध्य ही डॉक्टर चतुर्वेदी उसकी काले चश्मे के पीछे से झांकती आंखों की असामर्थ्यता पहचान गए। उन्होंने स्वयं ही उसके सामने नेत्र प्रत्यारोपण का प्रस्ताव रख दिया। हर्षातिरेक में मंजरी का झरने की तरह झनझनाता हुआ मृदुल स्वर भर्रा उठा–'सर क्या मैं पूर्व की भांति फिर से विश्व के सौंदर्य का आनंद ले सकती हूं? क्या मेरी खोई हुई नेत्रज्योति पूरी तरह वापस लौट सकती है?'

     'हां-हां क्यों नहीं? हमारे नेत्र शल्यकर्म के कुछ ही दिनों बाद तुम विश्व की रंगीनियों का सौंदर्यपान अपनी आंखों द्वारा कर सकती हो!' डॉ चतुर्वेदी ने उसे विश्वास दिलाया तो वह सतरंगी सपनों की वादियों में विचरण करने पहुंच गई।

"बेटी! तुम्हारा ऑपरेशन सफल रहा, चाहो तो घर जा सकती हो!"  डॉक्टर चतुर्वेदी ने उसकी आंखों पर बंधी पट्टियां खोलते हुए कहा तो उसका स्वप्निल संसार ऐसे छिन्न-भिन्न हो गया जैसे किसी ने शांत और स्थिर जल में ऊपल फेंक दिया हो।

      घर वापस लौटते ही पुनः संघर्षमई पत्रकारिता में जुटने में उसने पल भर का भी विलंब नहीं किया। अपने कार्य में वह स्वयं को इस तरह उलझाए रखती कि स्मृतियां उद्वेलित न करें। लेकिन जब कभी विगत से जुड़ जाती तो हृदय में आकाश तक को धुंधला देने वाले रेतीले बवंडर उठ खड़े होते…विगत की कष्टकारी अनुभूतियां उसे अनंत रेगिस्तान जैसी झुलसन का एहसास करातीं तो वर्तमान के आनंददाई पल तन-मन को पुलकित करके रख देते। एक ओर वह नेत्रदान जैसा पुण्यकर्म करने वाले उस महान धर्मात्मा के चेहरे को अज्ञात रेखाओं द्वारा पहचानने का प्रयास करती रहती जिसका वह नाम तक नहीं जान सकी थी…कितना पवित्रात्मा था वह जो मरकर भी अमर हो गया… उसका तो किसी प्रकार ऋण भी नहीं चुकाया जा सकता।

     तो दूसरी ओर एकांतिक अवसर पाते ही वह विगत से जुड़ जाती। तब उसे अपने जीवन की सुख-शांति हर लेने वाले उस राक्षस का वीभत्स चेहरा चिढ़ाता हुआ सा दिखाई देता…घृणा तन-मन को जलाकर राख कर देने को उतावली हो उठती…

     और जब-जब भी उसके प्रत्यारोपित नेत्रों में उस राक्षस की भयावह आकृति उभरकर आती तब-तब उसकी देह में एक दावानल सुलगने लगता… ऐसा दावानल जिसकी प्रचंड लपटें आसमान तक की हर वस्तु को भस्मीभूत करने को आतुर हो उठतीं…दुःख और अपमान की चिंगारियां  उसके अंग-प्रत्यंग को झुलसाने लगतीं…सारे शरीर में उत्तेजना व्याप्त हो जाती।मन करता कि कहीं मिल जाए तो कुचल-मसलकर रख देगी…समाज के सामने ऐसा नंगा करेगी उसे कि पश्चात्ताप और घृणा की अग्नि में स्वयं ही तिल-तिल जल मरेगा।

     कैसी विचित्र सी स्थिति हो गई थी उसकी…कभी तो मन वर्तमान के आनंददाई क्षणों को महसूस कर चांदनी भरे आकाश की तरह निर्मल तथा शांतिमय हो जाता तो कभी अगले ही पल दुःख और अपमान के भारी बोझ से वर्षा के घटाटोप मेघ सा घिर आता। पाशविक दुराचरण और सामाजिक अवमानना का स्मरण होते ही उसके भीतर प्रतिशोध की वह भावना बलवती हो उठती जो ध्वंश की प्रलय लाती है।

     दैवयोग से ऐसा अवसर भी शीघ्र ही हाथ आ गया जब उस दुष्टात्मा तक पहुंचने का सूत्र उसके हाथों तक स्वत: चला आया।

     पिछले वर्षों के आपराधिक आंकड़ों का तुलनात्मक ग्राफ तैयार करते समय एक पुराने समाचारपत्र में उस राक्षस का सचित्र विवरण उसे अकस्मात् ही दिखाई दे गया…हूबहू वही था…वही बिज्जू जैसी चमक बिखेरती छोटी-छोटी आंखें, खुरदरा चेहरा और मोटे से भद्दे होंठ, दैत्यों वाली मोटी नाक और अस्त व्यस्त उलझे हुए बाल…छायाचित्र में भी कितना वीभत्स लग रहा था दुष्ट…जैसे अभी छायाचित्र से बाहर निकलकर पुनः पाशविक आचरण करने लगेगा।

     क्रोधाधिकता में जबड़े भिंच गए उसके और मुट्ठियां कस गईं, शिराएं झनझना उठीं…लगा जैसे खौलता हुआ तरल लोह पदार्थ उसकी नस-नस में प्रवाहित होकर ज्वालाएं उगल रहा है। तीव्र अपमान का एहसास और भयंकर वेदना ने एक बार पुनः उसके भावनामृत शरीर को झकझोरकर रख दिया…प्रतिशोध लेकर रहेगी उससे…दुर्भाग्य का जैसा काला डरावना बादल उस पिशाच ने जीवन के निर्मल आकाश पर आच्छादित कर दिया था उससे भी ज्यादा गहरी कालिमा वह उसके पूरे जीवन पर पोतकर रहेगी…ऐसा पंगु बना देगी उसे कि धूर्त मृत्यु की भिक्षा मांगने को विवश हो जाएगा।

     कंधे पर बैग लटका तत्काल सहायिका को साथ ले वह समाचारपत्र में दिग्दर्शित पते की खोज में निकल पड़ी। 

     और जब वह झुग्गी झोपड़ी जैसे उसके घर में प्रविष्ट हुई तो सामने की दीवार पर शीशे के आवरण में कैद उस निकृष्ट राक्षस की छायाकृति टंगी देखकर क्रोध की ज्वाला में दहक उठी। नेत्रों से चिंगारियां सी झड़ने लगीं… जैसे सर्वप्रथम उसी छायाचित्र को भस्मीभूत करेगी… संपूर्ण बदन में विद्युत लहरियों जैसी तेज लपटें सुलग  आईं… क्रोधावेश में उसे यह भी तो ध्यान नहीं रहा की छायाकृति पर तो पुष्पमाल टंगी है। सहायिका ने  भ्रू संकेत से उसका ध्यान आकृष्ट किया तो वह चौंक पड़ी… यथार्थ का बोध होते ही आवेश किसी तरल पदार्थ की भांति बहकर शिराओं से बाहर निकलने लगा। क्रोध का ज्वार भी नीचे गिरने लगा। देह शीतल होने लगी।

      असमंजस के से भाव नेत्रों में लिए वहां खड़ी एक युवती दो अजनबी युवतियों को घर में यकायक प्रविष्ट हुआ देखकर कुछ समझ नहीं पाई तो उसने मंजरी से पूछ लिया–" बहन जी! क्या आप इन्हीं के बारे में कोई जानकारी लेने आई हैं या कोई और प्रयोजन है ?"

      मंजरी की गर्दन स्वीकृति में हिलते ही उस युवती के नेत्रों में दर्द का समंदर उमड़ पड़ा और कंठ भर्रा गया–" बहन जी! मेरे पति की स्मृति है यह। बेचारे मरकर भी अमर हो गए। जीते जी तो मुझे कुछ सुख दिया या नहीं वह तो अलग की बात है, परंतु मरते समय जो पुण्य कार्य वह कर गए हैं उससे मेरा भी मस्तक गर्व से ऊंचा उठ गया …दुर्घटना में दोनों पैर और एक हाथ कुचल गए थे उनके। जीने का कोई प्रयोजन भी नहीं रह गया था उनकी सोच में। अपंग और पराश्रित होकर जीना उन्हें कदापि स्वीकार नहीं था। अपना एक जीवन खोकर पांच-पांच जिंदगियों को नया जीवन प्रदान कर गए हैं वह।अब आप ही बताइए बहन जी! क्या आपने ऐसे महान धर्मात्मा के विषय में कहीं सुना है जिसने पांच-पांच जिंदगियों को सुख पहुंचाने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया हो? वरना जिंदगी किसे प्यारी नहीं होती? क्या प्रेरणापुंज सदृश नहीं  है उनका यह कृत्य?"

      लंबी-लंबी सिसकियों के बीच उसका स्वर अटककर रह गया। अंगुलियों के पोरों से आंसुओं को पोंछकर वह पुनः भावनाओं में बह गई–" ऐसी श्रेष्ठ पुण्यात्मा के प्रति किसका मस्तक श्रद्धा से नहीं झुक जाएगा बहनजी? शायद आप भी इसी परोपकारी को शीश झुकाने आई होंगी? श्रद्धांजलि अर्पित करने आई होंगी इन्हें जैसे कि अन्य बहुत से लोग नित्यप्रति आते रहते हैं। प्रेरणादायक है ऐसे दानवीर का महान व्यक्तित्व।"

      मंजरी प्रस्तर प्रतिमा सी अवाक् खड़ी रह गई। उसके कर्णद्वय युवती के हृदयोद्गारों को बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे। और विस्फारित सी दृष्टि उसी छायाकृति को अपलक निहारे जा रही थी। परंतु जिह्वा जैसे लकवाग्रस्त हो गई थी अथवा शब्दकोश ही समाप्त हो गया था… कोई भी तो शब्द मुख से बाहर नहीं निकल पा रहा था। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे निकृष्ट राक्षस कहे या धर्मात्मा की उपाधि प्रदान करे?… अथवा धर्मात्मा-राक्षस कहकर पुकारे?…

     उसकी अपनी आंखों में उसी की आंखों की रोशनी जगमगा रही थी जिसने किन्हीं दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में उसे विवेकशून्यता से ग्रसित होकर नेत्रांधता प्रदान की थी।

      वर्षों से सुलगता आया दावानल इस तरह कभी स्वत: ही पलांश भर में शांत हो जाएगा जैसे किसी ने यकायक ढेर सारा जल उछाल दिया हो… उसने कभी सोचा भी नहीं था…न ही कभी कल्पित कर सकी थी।

  ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़( जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ......आकाश बेल


                                                       

 " पापा हमें छोड़कर चले गये... हमेशा हमेशा के लिए।" यह हृदय विघातक समाचार कानों में पड़ा तो मैं अवसन्न रह गयी...अब मां का क्या होगा?... वह तो जीते-जी मर जाएगी। मां तो जीवित ही पापा के सहारे थी... जैसे आकाश बेल हो; जो परजीवी के रूप में वृक्ष का आश्रय लेकर ही जिन्दा रह सकती है...वृक्ष का अस्तित्व मिटते ही स्वयं उसका भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर वह ऐसी शुष्क लता में परिणत हो जाती है जिसका जीवनीय तत्व किसी ने सोख लिया हो... और जीवनहीन कर डाला हो।

     पापा जी भी मां के लिए वृक्ष समान ही थे जो उसे जीवनीय तत्वों की ऊर्जा प्रदान कर रहे थे, प्राणों का संचार कर रहे थे, सांसों को ऊष्मा दे रहे थे, शिराओं में रक्त बनकर बह रहे थे और धमनियों में रक्त प्रवाह को गतिवान बना रहे थे।

     न जाने कितने-कितने रूप थे पापा के; जो मेरे अवचेतन में रच बस गये थे। उनके सहसा चले जाने का आकस्मिक समाचार सुना तो यकायक ही वे रूप मेरे नेत्रपटलों पर जीवंत होकर किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……


     *स्नातकोत्तर* महाविद्यालय में प्राचार्य पद को सुशोभित कर रहे थे वे उन दिनों जब मैं किशोर वय: की दहलीज को कुलांचे भरकर पार कर रही थी। अनुशासन व स्वच्छता प्रिय पापा की नासिका के अग्रभाग पर क्रोध ऐसे रखा रहता था जैसे चश्मा हो। महाविद्यालय में क्या दु:साहस किसी का कि उनके बनाए सिद्धांतों के परिपालन में लेशमात्र भी चूक हो सके। विद्यालय के सुविस्तृत परिसर में उनके आने की आहट मात्र से उद्दंडी विद्यार्थियों के समूह ऐसे तितर-बितर हो जाते जैसे शेर के आने से हिरणों का समूह पलांश भर में ही सुरक्षित स्थानों पर जाकर छिप जाता है। आंखों पर जंजीर वाला चश्मा लगाए तथा हाथ में पीतल के मूठ वाली छड़ी झुलाते हुए परिसर में प्रवेश करते ही वे सरसरा सा दृष्टिपात चारों ओर करते और कर्मचारियों पर बरस पड़ते... वह कागज़ का टुकड़ा बाहर क्यों पड़ा है?...वो पीले गुलाब वाला गमला पंक्ति से बाहर क्यों?...उस मयूरपंखी की छंटाई क्यों नहीं हुई?... उस टोंटी से पानी क्यों टपक रहा है?...जल के मूल्य को नहीं पहचानते क्या?... और वो उधर देखिए! उस बरामदे में बल्ब दिन के उजाले में भी जल रहा है?... आखिर राष्ट्रहित में ऊर्जा संरक्षण तुम किस दिन सीखोगे?... और वह कौन छात्र है जो निर्धारित समय से पांच मिनट विलंब से विद्यालय आने की धृष्टता कर रहा है? उसे मुख्य द्वार पर ही क्यों नहीं रोका गया? यदि सभी छात्र इसी तरह से दस-पांच मिनट विलंब से आने लगे तो अनुशासन की सारी ही व्यवस्था बिगड़ नहीं जाएगी क्या?...

     सारे कर्मचारी भृकुटि मात्र के संकेत पर इधर से उधर दौड़ जाते और उनका मन्तव्य पूर्ण करके ही चैन की सांस लेते।

     किंतु घर में घुसते ही पापा वह शीतल बयार बन जाते जो हल्के झोंके से ही घर का कोना-कोना महका देती है... 'हमारी प्यारी प्यारी बिटिया कहां गयी? अभी कालेज से नहीं लौटी क्या?...और वह हमारा प्यारा बेटा, खेलने निकल गया या स्टडी रूम में घुसा है?' उनके मृदुल स्नेह की गंध पाते ही बेटी-बेटा दोनों दौड़कर उनसे लिपट पड़ते--'पापा हमारे लिए क्या लाये हैं? मैंने लैदर वाली फाइल लाने को कहा था; और भैया कई दिनों से रिस्टवाच की मांग कर रहा है। कब लाएंगे?'

     'ओह! आयम सॉरी! आज बिल्कुल भी वक्त नहीं मिला। कल जरूर ले आऊंगा।' वे दोनों के कपोलों पर एक-एक प्यार भरा स्पर्श कर मां की ओर बढ़ जाते। मां आग्नेय नेत्रों से उन्हें घूरते हुए स्वागत सत्कार को तत्पर रहती-- 'इन्हें घर के लोगों के लिए वक्त कहां है। कालेज के चमचों से फुरसत मिले तभी तो घर के कुछ काम करें। कितनी बार कह दिया कि जल्दी घर आया करो। कुछ काम भी निपटें। पर ये तो देर से ही इतनी आएंगे कि मेरे साथ कहीं जाना न पड़ जाए; या घर के किसी कामकाज को हाथ न लगाना पड़ जाए। महीने भर से कह रही हूं कि सामने वाली जाटनी गले में जैसा नैकलेश पहन रही है वैसा मैं भी लाऊंगी। पर इन्हें तो मेरे लिए कभी वक्त मिलेगा नहीं। भाग फूट गये मेरे जो ऐसे आदमी के साथ बांध दी गयी जिसने कभी औरत के अरमानों की लेशमात्र भी परवाह नहीं की।'

     पल भर बाद ही उन आग्नेय नेत्रों से जलधार प्रवाहित होने लगती जैसे पति के उपेक्षित आचरण से उसे कितनी पीड़ा पंहुची हो...गरज-बरस के छींटों से घर में तूफान सा आ जाता।

     पापा शीतल, सुगंधित समीर थे तो मां दहकता अंगार थी। जो शीतल समीर के हल्के झोंके से भी अग्नि की लपलपाती लपटों में परिणत हो जाता था। पापा बड़ा संभल-संभलकर आचरण करते, संतुलित वाणी का प्रयोग करते, मां के मर्मवेधक विषाक्त तंजों को भी मुस्कराकर परिहास भाव में उड़ा देते। तब तो अग्नि की लपटें और भी तीव्रता से भड़क उठतीं-- 'हर बात को ऐसे हंसी में उड़ाकर काम नहीं चलने वाला। पर तुम्हें किसी के दुःख दर्द से क्या, तुम्हें तो हर समय मजाक उड़ाना ही सूझता है। जिस दिन न रहूंगी सब आटे दाल का भाव पता चल जाएगा। अभी तो सब करा कराया मिल रहा है न। तभी तो कुछ महसूस नहीं हो रहा।'

     'और यदि मैं ही न रहा तब?' मुंह मोड़कर वे हंस पड़ते।

     'तो धीरज धर लूंगी। किसी के बिना कोई काम नहीं रुकता।' अग्नि की लपटें किसी भी तरह बुझने को तैयार न होतीं।

     पापा की नसों में एक ऐसा सांस्कृतिक तत्व दौड़ता था जो हर किसी को अपना बना लेने की क्षमता रखता था। हर किसी के सहयोग के लिए वे हमेशा तत्पर रहते। परोपकार और धर्मार्थ कार्यों से उनके चित्त को अद्भुत शान्ति मिलती थी।

     मां उनकी इस सात्विक वृत्ति की भी घोर विरोधी थी। जब भी मां को उनके किसी का भी कार्य निपटाकर लौटने की भनक लगती; वह उन पर भड़क पड़ती-- 'घर के काम काज निपटाने को तो तुम्हें वक्त मिलता नहीं; बाहर वालों के लिए कहां से निकल आता है? वे ही तुम्हारे सगे हैं तो उन्हीं के पास जाकर रहो। घर लौटने की जरूरत ही क्या है? मैं होती ही कौन हूं तुमसे किसी काम को कहने वाली? पहले पता होता कि ऐसे निष्ठुर आदमी के साथ ब्याही जा रही हूं तो कभी साथ न आती। मेरे तो भाग फूट गये…मेरे माता-पिता ने घोर अन्याय किया मेरे साथ।'

     सिद्धांत धनी व व्यवस्था प्रेमी पापा घर में अस्त व्यस्तता देखकर शान्त नहीं रह पाते थे-- 'ये गन्दे पात्र डाइनिंग टेबल पर क्यों रखे हैं? इन्हें तो किचन के सिंक में होना चाहिए था... और इन कुर्सियों पर धूल क्यों जमी है? आज घर में सफाई नहीं हुई क्या?...इस बिस्तर की चादर पर सिलवटें क्यों?...आंगन में चिड़िया विष्ठा कर गयी है तो उसे साफ नहीं किया जा सकता था क्या?... यह घर गन्दा कितना रहने लगा जैसे इसमें कोई रहता ही न हो... जैसे सारे लोग आलसी हो गये हों।'

     मां भी भला क्यों चुप रहने वाली थी-- 'सफाई का इतना ही शौक है तो खुद कर लिया करो! या फिर नौकरानी रख लो! देखूंगी कितनी सफाई होती है? दिन भर मरते-खपते भी रहो और जली कटी भी सुनते रहो। कालेज में तो कहीं कुछ वश चलता नहीं; घर में गुस्सा उतारना शुरू कर देंगे। यह तो पूछने की जरूरत है नहीं कि तबीयत कैसी है? सुबह से दर्द के कारण सिर फटा जा रहा है। घर में घुसते ही चीखना चिल्लाना शुरू, जैसे कंजर हों। साफ-साफ बताए देती हूं कि न तो मैं घर की सफाई करुंगी, न ही बरतनों को हाथ लगाऊंगी। या तो खुद करो या नौकर रखो!…'

     मां का सतत प्रवाहमान ओजस्वी भाषण समाप्त नहीं होता तो वे चुपके से बाहर निकल जाते...न घर में रहेंगे, न कानों में मिर्ची जैसे तीक्ष्ण शब्द पड़ेंगे।

     अगले ही दिन से एक महिला बरतन मांजने व पूरे घर की स्वच्छता करने आने लगी थी।

     मां ने उस महिला को लेकर भी संग्राम किया था कि इन कार्यों के लिए वैतनिक महिला को रखने की क्या जरूरत थी? कालेज के चपरासियों से काम नहीं लिया जा सकता क्या? पैसे कहीं किसी पेड़ से तो टपक नहीं रहे कि कहीं भी बांट दो।

     सात्विक प्रवृत्ति के पापा को सात्विक आहार ही प्रिय था। जबकि मां को तीक्ष्ण मिर्च मसालेदार, तैलीय, चटपटा स्वादिष्ट भोजन व भांति-भांति के तामसिक व्यंजन पसंद थे। मां की दिन-प्रतिदिन थुलथुली काया को देखकर वे कुढ़ते भी रहते और चिंतित भी रहते। तभी तो जब भी कभी वे मां को आलू की टिकिया, गोलगप्पे व समोसे जैसी बाजारू चीजें चटखारे ले-लेकर खाते देखते तो कटाक्ष किए बिना नहीं रह पाते-- 'क्यों इस छोटी सी जीभ के लोभ में तुम अनेकों बीमारियों को आमंत्रण देने पर तुली बैठी हो? प्रतिदिन शरीर पर चरबी की परतें चढ़ती चली जा रही हैं। ब्लड प्रेशर भी ज्यादा रहने लगा है।'

     'हां-हां तुम तो चाहते ही हो कि मेरा शरीर रोगों की खान बन जाए।' बस संग्राम शुरू-- 'ताकि मैं कल की मरती आज मर जाऊं। इतने दिनों से कहती आ रही हूं कि किसी अच्छे से डाक्टर से मेरा चैकप करा दो! हर वक्त मेरी सांस फूली रहती है और सिर में भी तनाव बना रहता है। पर तुम्हें मेरे लिए तो वक्त तब मिले जब बाहर वालों की जी हुजूरी से फुरसत मिले। क्योंकि काम तो बाहर वाले ही आएंगे। मैं तो फालतू की चीज हूं। जबसे इस घर में आयी हूं तब से कभी दो पल चैन के नसीब न हुए। मेरे तो भाग फूट गये।'

     वे मां को डाक्टर के पास ले गये। तमाम सारे परीक्षण हुए तो उनकी देह में छिपी बैठीं मधुमेह, उच्च रक्तचाप, वातरक्त जैसी कुछ असाध्य बीमारियों का पता चला। डाक्टर द्वारा प्रातः-सायं के भ्रमण के साथ-साथ सामान्य उबले भोजन का कठोर निर्देश देते हुए चेतावनी भी दे दी गयी कि यदि सावधानी न बरती गयी तो कुछ भी हो सकता है।

     किंतु मां ने डाक्टर के निर्देशों का कभी गम्भीरता से पालन नहीं किया। देर से सोकर उठना, उठते ही कड़क चाय लेना, फिर देर तक शौचालय में बैठे रहना उसकी दिनचर्या में था। पथ्य का भोजन भी मां ने कभी नहीं लिया। पापा भृकुटि वक्र करते तो उनके मुंह खोलने से पहले ही मां प्रारंभ हो जाती-- 'आंखें लाल-पीली करने की कोई जरूरत नहीं। मुझे मरना स्वीकार है पर मैं अपने स्वाद की चीजें नहीं छोड़ सकती।'

     इस प्रकार गृह संग्राम को न रुकना था न रुक सका। पापा के सारे प्रयास निष्फल निष्प्रयोज्य सिद्ध होते चले गये। वे कसमसाकर रह गये और भीतर ही भीतर तिलमिलाकर भी। कुछ भी न कर सक पाने का असामर्थ्यबोध उन्हें व्यग्र और व्यथित कर गया।

     आखिर वही हुआ जिसकी उन्हें पहले से सम्भावना थी... एक शाम को मां किसी जन्मदिवस की पार्टी से छोले भटूरे और जलेबी खाकर लौटी तो सिर को कसकर पकड़े थी। उसके हृत्प्रदेश में भी भारीपन महसूस हो रहा था। न लेटकर चैन मिल पा रहा था न बैठकर।

     देर रात को पापा कालेज की व्यवस्था संबंधी किसी मीटिंग से घर लौटे तो मां की स्थिति देख बहुत परेशान हुए। मां सिर की वेदना से छटपटा रही थी। और नासारंध्रों से रक्त स्राव होकर वस्त्रों को भिगो रहा था।

     'बचाना है तो बचा लो मुझे!' मां ने बस इतना कहा और संज्ञा शून्य हो गयी।

     हतचित्त पापा समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें क्या न करें? कभी नब्ज टटोलते, कभी नासिका के सामने हथेली रखकर अनुमान लगाने का प्रयास करते कि सांस चल भी रही है अथवा नहीं? कभी हृत्प्रदेश पर हथेली रखकर धड़कनों का अनुमान लगाने लगते। उनकी आंखें भर आयी थीं...अश्रु तटबंध तोड़कर बाहर छलकने को आतुर... जिन्हें उन्होंने बलात सोख लिया और मां के दोनों हाथ पकड़कर झिंझोड़ दिया-- 'उठो ना! बताओ क्या परेशानी है?...उठती क्यों नहीं हो?... कुछ बोलो तो!... कुछ बोलती क्यों नहीं हो?'

     किंतु मां नहीं उठी, न ही बोली। उठती बोलती तो तभी जब उसमें संज्ञा होती... वह तो जैसे प्रगाढ़ निद्रा में सोयी पड़ी थी... वेदना शून्य सी...निश्चल नि:स्पंद सी।

     कभी कोई भार न उठाने वाले पापा में यकायक न जाने कहां से इतनी शक्ति आ समायी कि उन्होंने भारी वजन वाली मां को दोनों बाहों में उठाया और घर के बाहर खड़ी गाड़ी में लिटाकर रात में ही अस्पताल ले गये।

     'आपने बहुत अच्छा किया जो रात में ही अस्पताल ले आये, नहीं तो कुछ भी अनिष्ट हो सकता था।' डाक्टर ने निरीक्षण परीक्षण के उपरांत पापा के प्रयास की सराहना की तो उन्होंने डाक्टर के पैर पकड़ लिये-- 'डाक्साब! चाहे मेरे शरीर से रक्त की एक-एक बूंद निचोड़ लीजिए! पर इसे बचा लीजिए! यह मेरी सांस है, मेरी जिंदगी है, मेरा प्राण है। यूं समझ लीजिए कि इसके बिना मैं बिखरकर रह जाऊंगा।'

     मस्तिष्क में रक्तस्राव हुआ था; उसी का थक्का कहीं जम गया था। शल्य चिकित्सकों की टीम ने रातोंरात शल्य क्रिया करके रक्त के थक्के को बाहर निकाल रक्त प्रवाह व आक्सीजन के संचार को सुचारु किया।

     संज्ञाशून्यता की स्थिति से उबरने में मां को पूरे पांच दिन लगे थे। तब तक पापा के कण्ठ में न तो एक ग्रास अन्न का उतरा और न ही कोई पेय पदार्थ। न ही वे वहां से एक पल के लिए भी दूर हुए। जब देखो तब मां के हाथ पैरों का मर्दन करते रहते। कभी भी उसकी देह को झिंझोड़ देते-- 'उठो ना! आंखें खोलो! देखो तुम कहां हो?' कभी भी समाधि की मुद्रा में नेत्रोन्मीलित हो हाथ जोड़कर बुदबुदाने लगते-- 'रक्षा करो प्रभु! मेरे जीवनाधार की रक्षा करो!'

     डाक्टर आते तो उनके पैर पकड़ लेते-- 'बच तो जाएगी न?... कितने प्रतिशत आशा है?'

     एक बार तो वरिष्ठ चिकित्सक ने शिष्ट भाषा में उन्हें झिड़क ही दिया था-- 'गुरुजी आप इतने बड़े कालेज के प्राचार्य हैं कि हजारों छात्र आपके पैर छूते हैं, हमारे पैर छूकर हमें शर्मिंदा मत कीजिए! हम पूर्ण प्रयास कर रहे हैं बचाने का। आशा भी पूरी-पूरी है। पर दायां हाथ पैर निष्क्रिय बने रहने की  पूरी-पूरी संभावना है।'

     अश्रुओं से डबडबाई आंखों में हल्की सी चमक दौड़ गयी थी-- 'कोई बात नहीं डाक्साब! इसका हाथ भी मैं बन जाऊंगा और पैर की बैशाखी भी।'

     और जिस दिन मां ने आंखें खोलीं; पापा खुशी से ऐसे उछल पड़े थे मानों कोई अलभ्य वस्तु प्राप्त हो गयी हो-- 'बेटी निरुपमा! देखो तुम्हारी मां ने आंखें खोल दी हैं। और अभिषेक को भी बता दो कि वह होश में आ गयी है। शायद अब हम जल्दी घर लौट सकें।'

     घर लौटने तक पापा इतने कृशकाय हो गये थे जैसे बीमार मां न होकर स्वयं वही हों... आंखें सूजकर लाल; मानों एकांत मिलने पर रोते रहे हों। आहार इतना अल्प मानों केवल जीने भर के लिए खा रहे हों।

     घर आते ही मां की संपूर्ण व्यवस्थाएं उन्होंने अपने कमजोर कन्धों पर लाद ली थीं। मां तो आकाश बेल की तरह पूर्णतया परजीवी होकर रह गयी थी। उसके अपने वश में तो कुछ रह ही नहीं गया था। मल-मूत्र तक पापा कराते थे। किसी यान्त्रिक मशीन की तरह पापा सुबह से देर रात तक मां की सेवा सुश्रुषा में लगे रहते। मधुमेहग्रस्त होने के कारण मां को प्यास ज्यादा लगती तो हर घण्टे पानी पिलाते, समय पर औषधियां खिलाते, थोड़ी-थोड़ी देर में दूध, चाय, उबली दाल,                   दलिया,सूप,पनीर,फलरस आदि पिलाते। निष्क्रिय हाथ पैर पर अभ्यंग करते, फिर पूरी देह का उष्ण जल से प्रक्षालन करते, शैया व्रणों की ड्रेसिंग करते, अपने कन्धों पर लादकर चलाने का प्रयास करते। 

     इन्हीं व्यस्तताओं के मध्य समय निकालकर दौड़ते भागते कालेज की औपचारिकताएं पूर्ण करके आते। पर अपने लिए समय तब भी नहीं निकाल पाते। कब सोते; कब उठते किसी को कुछ पता नहीं चल पाता? रात को जब मां की झपकी लगती तब वे अपने कक्ष में पहुंचते। और भीतर से कपाट बंद कर न जाने किस उधेड़बुन में लग जाते? पता नहीं क्यों उस कक्ष का ताला लगा चाबी हर समय अपने नाड़े में बांधकर रखते?

     मां की जरा सी आहट पर दौड़कर वे उसके समीप पहुंचते और हाथ पैर मलने लगते। फिर बैठे-बैठे वहीं सो जाते।

     जब कभी मां ज्यादा भावाभिभूत हो जाती तो बायें हाथ से उनका पैर स्पर्श कर कहती-- 'मेरे भगवान तो तुम्हीं हो!'

     पापा हैरत के साथ हंस पड़ते-- 'यह मैं क्या देख रहा हूं? दहकता अंगार बुझे कोयले में परिणत हो रहा है? आज पैर छूने की कैसे याद आ गयी? जिंदगी भर तो कभी छुए नहीं; हमेशा मुझसे लड़ती रहीं और आज मैं भगवान हो गया?'

     मां भी पहले तो तिरछे मुंह से हल्की सी मुस्कराती, फिर गंभीर हो जाती-- 'अब तक तुम्हें पहचान न पायी थी। अब जाकर पहचानी हूं कि मेरे लिए तुमसे बढ़कर कोई नहीं। मैं तो जिन्दा ही तुम्हारे सहारे हूं।'

     कैसी साधना थी वह पापा की, जिसमें अपने सुख के लिए कोई स्थान नहीं था। दिन रात मां के लिए जुटे रहना... बस किसी तरह वह रोग से मुक्ति पा जाए… जैसे दीपक दूसरों के जीवनांगन में उजियारा करने के लिए स्वयं तिल-तिल जलता रहता है; वैसे ही पापा भी मां के लिए तिल-तिल जल रहे थे।

     उनकी साधना के प्रतिफल स्वरूप मां शनै:-शनै: आरोग्यता की ओर बढ़ने लगी थी।

     शरीर स्वस्थ हुआ तो बुझे कोयले फिर से दहकने लगे। मां का बुझा स्वर फिर से उग्र होने लगा। पापा से वह बात-बात पर फिर झगड़ने लगी-- 'मुझे चैन से जीने मत देना, भूखा मार डालो मुझे! ये उबली दाल सब्जियां मेरे गले से नीचे नहीं उतरतीं। पर तुमने तो हमेशा यही चाहा है कि मैं कल की मरती आज मर जाऊं। मुझे कुछ खाने दोगे या नहीं?'

     बात आगे न बढ़े इसलिए वे बिना कोई प्रत्युत्तर दिये अपने कक्ष में जाकर लेट जाते।

     परंतु उसे इतने पर भी चैन कहां था, जोर से आवाज लगाती-- 'इधर सुनों! ऐसा करो! पनीर का पकोड़ा मुझे नुकसान देगा तो नमक मिर्च मिलाकर पनीर का परांठा ही बनाकर ले आओ!... और एक कड़क पत्ती की चाय...पेट तो किसी तरह भरना ही है, भूखे पेट मेरी अन्तड़ियां कुलबुलाने लगती हैं।'

    मां के चेहरे की चमक दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। परंतु न जाने क्यों पापा निरंतर क्षीण होते जा रहे थे। चेहरे का तेज व लालिमा लुप्त होती जा रही थी। हड्डियों का मांस पता नहीं कहां गायब होता जा रहा था? न ढंग से भूख लगती, न नींद आती। मुंह से कभी भी कराह सी निकल पड़ती; जैसे शरीर में कहीं वेदना हो रही हो।

     मां तब भी तंज कसने से नहीं चूकती-- 'इतना सब खा पी रहे हो वह सब जा कहां रहा है? दिन प्रतिदिन सूखते चले जा रहे हो? किसी डाक्टर से चैकप क्यों नहीं करा लेते? पर उसमें पैसा खर्च होगा और वह तुम कर नहीं सकते।'

     वे सुनकर भी अनसुना कर देते। या फिर धीरे से कह देते कि समय मिलने पर करा लूंगा। अग्निदग्ध वाक् प्रहार असह्य हो जाते तो धीमें और अस्पष्ट स्वर में उन्हें कहना ही पड़ता-- 'मैंने अपना चैकप करा लिया तो मेरी साधना अधूरी रह जाएगी। तुम्हारा उपचार अधर में ही रुक जाएगा।'

     उनकी ऊर्जा चुकने लगी थी। हल्के से श्रम से ही वे थककर गिर पड़ते थे। मां के पैर दबाते-दबाते वे उसी पर झुक पड़ते थे। तब मां उन्हें चेताती-- 'नाटक मत करो! दबाना है तो ढंग से दबाओ! मेरे पैर दर्द से फटे जा रहे हैं और तुम्हें नाटक सूझ रहा है...।' अगले ही पलों में मां की जिह्वा अंगार उगलने लगती, पर वे तब भी शांत बने रहते। गजब का धैर्य था उनमें।

     उस रात को भी जब वे मां के पैर दबा रहे थे तो उसकी झपकी लग गयी। और वे उसी के पैरों पर सिर रखकर सो गये।

     मां की नींद खुली तो बड़बड़ाना शुरू-- 'इन्हें तो पता नहीं नींद कितनी गहरी आती है कि कहीं भी सो जाते हैं...चलो उठो! मुझे एक गिलास गरम पानी से रात वाली गोली खिलाओ!'

     रात वाली गोली के प्रभाव से बहुत गहरी नींद आयी मां को। सुबह हड़बड़ाकर उठी तो आश्चर्यचकित... पापा उसी मुद्रा में पैरों पर सिर रखे प्रगाढ़ निद्रा में सो रहे थे। मां ने पहले तो उन्हें आवाजें लगायीं, फिर पूर्ण शक्ति से झिंझोड़ ही जो दिया-- 'अरे उठो तो! कब तक सोते रहोगे?...उठो! जल्दी उठो! गरम पानी में दो चम्मच शहद डालकर पिलाओ मुझे, मेरा पेट तभी साफ होता है।'

     पर पापा तभी तो उठते जब वहां होते। वहां तो मात्र नश्वर देह पड़ी थी। वे तो न जाने कब पिंजरा खाली कर नीलांबर की अनंत यात्रा पर निकल गये थे?...सारी अनुभूतियों से दूर... फिर कभी वापस न लौटने के लिए।

     अपनी सहधर्मिणी के चरणों में शीश नवाए-नवाए ही प्राण तज दिये थे पापा ने।

     मेरे पहुंचते ही उनके कक्ष को खोला गया; जिसकी चाबी वे हमेशा अपने पास रखते थे। जिसमें किसी को भी जाने की अनुमति नहीं थी... जो हमेशा बंद रहता था... जिसके बारे में सबका अनुमान यही था कि उसमें वे अपना रुपया पैसा, स्वर्ण मुद्राएं, बैंकों की सावधि जमा की रसीदें आदि सभी से छिपाकर सहेजकर रखते होंगे।

     परंतु हैरत... वहां ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे गोपनीय रखना आवश्यक हो। कुछ साहित्य, आत्म कथ्य डायरियां, व्रण के उपचार की क्रीम, लोशन, रुई, पट्टियां, टेप आदि के साथ-साथ कुछ औषधियां खाने की भी संग्रहित थीं। शायद उनकी देह के किसी भाग में कोई कुटिल व्रण रहा होगा, जिसकी ड्रेसिंग वे कक्ष बन्द कर नित्यप्रति करते रहे होंगे।

     पर इन्हें छिपाना क्या इतना आवश्यक था? क्या व्रण को रहस्य बनाकर रखना जरूरी था?... किसी को उन्होंने क्यों अपने व्रण के बारे में नहीं बताया?...बताते तो किसी रोग विशेषज्ञ से समुचित उपचार कराया जा सकता था... मेरी उलझन निरंतर बढ़ती जा रही थी कि अपने बारे में क्यों वे सबसे गोपनीयता बरत रहे थे?

     तभी मेरी निगाह लोहे की बड़ी सी अल्मारी के भीतर रखी एक छोटी सी अटैची पर चली गयी...अटैची छोटी सी, पर उसमें झूल रहा ताला मोटा सा... और चाबी का कहीं कुछ अता पता नहीं... तत्काल ताला तोड़ अटैची को खोला गया तो डाक्टरों के उपचार पत्रों व विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के कागजों का पुलिंदा नीचे गिरकर बिखर गया।

     और यह जानकर तो मेरे पैरों तले से जमीन ही खिसक गयी थी कि उनकी दायीं जंघा में एक बड़ा सा प्राणघातक, विषाक्त व्रण अपना रौद्र रूप दिखा रहा था जिसकी बायोप्सी रिपोर्ट में बिल्कुल स्पष्ट लिखा था-- वैल डिफरैंशिएटेड स्क्वेमश सैल कार्सिनोजेनिक ट्यूमर (अर्थात कैंसर) ।

     डाक्टर ने परामर्श भी दिया था-- तत्काल आपरेशन के साथ-साथ एक माह के लिए होस्पिटेलाइज्ड।

    ओह! अपनी सहधर्मिणी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी मेरे पापा ने। मां के उपचार व परिचर्या में कोई विघ्न बाधा न पड़े इसलिए उन्होंने अपने कैंसर की ओर से मुंह मोड़ लिया था। और अपनी साधना को खण्डित होने से बचा लिया था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर 

मो.9411012039/8077945148

     

गुरुवार, 23 मार्च 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी.... पराजय

     


सरस्वती माध्यमिक विद्यालय का परीक्षा परिणाम गतवर्षों की भांति इस वर्ष भी शत-प्रतिशत ही रहा था। प्रदेश में सर्वोच्च स्थान भी इसी विद्यालय के छात्र ने पाया था। तथा अन्य कई छात्र विशेष उच्चांक सूची में भी आये थे।इस अप्रतिम सफलता का श्रेय विद्यालय के प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे की अद्भुत कार्यशैली, कठोर परिश्रम व शिक्षण के प्रति समर्पण भाव को जाता था। प्रदेश भर में उनका नाम समाचार पत्रों की सुर्खियों में छा गया। उनके सचित्र समाचार तो छपे ही, साक्षात्कार भी प्रकाशित हुए। अनेकों सामाजिक संस्थाओं द्वारा उनका अभिनंदन किया गया। सात्विक वृत्ति और सरल हृदयी नवीनचंद्र पांडे ऐसा भावभीना सम्मान पाकर भी कभी दम्भ अथवा लोभ से ग्रस्त नहीं हो पाये।

     पतली सी कदकाठी,सपाट चेहरा, आंखों पर चश्मा,देह पर खादी का लंबा कुरता व किनारीदार धोती,हाथ में पतली सी छड़ी…विद्यालय में जिधर को भी निकल जाते,सब उनकी तेजोद्दीप्त आंखों के संकेत मात्र से ही अनुशासन की सीमा में बंध जाते। कठोर अनुशासन,अत्युत्तम शिक्षा व शुद्ध आचरण उनके मुख्य सिद्धांत थे।उनका कथन था कि पांडे वह लोहस्तंभ है जो टूट तो सकता है किंतु झुक नहीं सकता…और न ही सिद्धांतों के परिपालन में कभी किसी से पराजित हो सकता।

     प्रदेश के नवमनोनीत शिक्षा मंत्री अनुज प्रताप सिंह के संज्ञान में पांडे जैसे उत्प्रेरक व आदर्श प्रधानाचार्य का व्यक्तित्व आया तो उन्होंने भी उन्हें पुरस्कृत करने की घोषणा करके अपने विद्वताप्रेमी व शिक्षाप्रेमी होने का संदेश प्रचारित कर डाला।

     अभिनंदन की तिथि घोषित करने से पूर्व प्रधानाचार्य जी को मंत्री जी के सचिव की ओर से अनेक दिशा निर्देश दिए गए…जैसे – सभास्थल पर भारी भीड़ जुटाई जाए, छात्राओं द्वारा उनका प्रशस्ति गान कराया जाए, गणमान्य नागरिकों द्वारा उनका अधिकाधिक माल्यार्पण कराया जाए, उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया जाए, पुरस्कार में प्रदत्त धनराशि का आधा भाग मंत्री जी की संस्था को सहयोग रूप में दिया जाए,मंच ऊंचा व पुष्पसज्जित देवोपम सुंदर होना चाहिए,निरामिष भोजन व मदिरापान की व्यवस्था अत्युत्तम होनी चाहिए…आदि-आदि।

     नवीनचंद्र पांडे के हृदय में वितृष्णा की लहर दौड़ गई…मंत्री जी अभिनंदन करने आ रहे हैं या कराने आ रहे हैं?... कदाचित इस ओट में वे स्वयं का महिमामंडन कराना चाह रहे हों…उनका उत्साह तो शून्य में विलीन हो ही गया, मंत्री जी के नाम पर मन में भी कड़वाहट घुल गई…नहीं चाहिए ऐसा पुरस्कार जिससे स्वाभिमान आहत होता हो…फिर भी वे ऊपर से शांत ही बने रहे।

     घोषित तिथि को निर्धारित समय से काफी विलम्ब के पश्चात् जिस समय मंत्री जी का आगमन हुआ, उस समय प्रधानाचार्य जी दर्शक दीर्घा की अग्रिम पंक्ति में आत्मलीन से बैठे थे। मंत्री जी के गाड़ी से उतरते ही उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें पुष्पमालाओं से लाद दिया। फिर वे कार्यकर्ताओं से घिरे धीर मंथर गति से करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में मंचासीन हुए।

      और ज्यों ही कंठ में पड़ी पुष्प मालाएं उतारकर उन्होंने मेज पर रखीं तो उस चेचक के दाग भरे खुरदुरे श्यामल चेहरे पर नवीनचंद्र पांडे का दृष्टिपात् होते ही यकायक उन्हें लगा जैसे गरम तवे पर पैर पड़ गया हो…बुरी तरह चौंक पड़े वे…मुंह से उच्छवास सा निकल गया –"अरे प्रताप तू?...तू मंत्री बन गया?... वह भी शिक्षा मंत्री?..."

     अनायास ही उनके अवचेतन मन ने आंधी में फड़फड़ाते ध्वज के समान वर्षों पूर्व के अतीत के गर्त में छलांग लगा दी……

     *कुंवर* राघवेंद्र सिंह पब्लिक इंटर कालेज में जब वे प्रथम बार प्रधानाचार्य बनकर पहुंचे थे तो अनुशासन शून्य विद्यालय कुव्यवस्थाओं का शिकार बना हुआ था। छात्र-छात्राएं दिनभर विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं में व्यस्त रहते तो शिक्षक गण भी शिक्षक कक्ष में एकत्रित होकर हंसी-ठिठोली करते रहते। दायित्वबोधी शिक्षक विद्यार्थियों को समझाने का प्रयास करते तो उनका उपहास उड़ाया जाता, करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में उन्हें कुवाच्य बोले जाते।हर ओर अराजकता का कोलाहल व्याप्त…और प्रयोगशालाएं तो मानो कबाड़खाना बनकर रह गई थीं…प्रयोग करने में विद्यार्थियों की रुचि नहीं तो प्रयोग  कराए किसे जाएं?

     नवीनचंद्र पांडे ने पहले दिन ही प्रार्थना सभा में वज्रनाद् कर दिया –'अनुशासन,अध्यापन और अध्ययन आज से इस विद्यालय के मूलमंत्र रहेंगे।आज से इस विद्यालय में वही रह सकेगा जो इनका अनुसरण करेगा। अवहेलना करने वालों के लिए मुख्य द्वार हमेशा खुला रहेगा…नियम भंग करने वाला स्वेच्छापूर्वक यहां से विदा ले जाए ,अन्यथा हठधर्मिता से बाहर धकेल दिया जाएगा।'

     उन्होंने छात्र-छात्राओं के साथ-साथ शिक्षकों के पैरों में भी कठोर नियंत्रण की जंजीरें डाल दीं और स्वच्छंदता पर प्रतिबंध लगा दिया।हर बच्चे,हर शिक्षक पर वे पैनी निगाह रखते। उनकी कठोर विभेदक दृष्टि जिस पर भी पड़ जाती वह भय से थरथरा उठता।अतएव सभी अपने-अपने कर्तव्यबोध के प्रति सजग रहकर विद्यालय का वातावरण सुधारने हेतु सन्नद्ध रहने लगे।उनके अथक प्रयास और दृढ़ निश्चय से विद्याध्ययन का मलय पवन विद्यालय के वातावरण को सुवासित करने लगा।

     किंतु सत्तारूढ़ दल के नगराध्यक्ष के शरारती व उद्दंडी पुत्र प्रताप ने उनके नियंत्रण को स्पष्ट अस्वीकार कर दिया। सीधे सरल छात्रों का उत्पीड़न करना उसका मुख्य स्वभाव था।उनका भोजन छीनकर खा जाना,जेब से पैसे निकाल लेना, उनकी नई-नई कापियों-पुस्तकों पर अपना नाम लिखकर अधिपत्य जमा लेना, किसी से शिकायत करने पर उनके साथ मारपीट करना उसकी प्रवृत्ति में सम्मिलित था। और शिक्षकों पर उपहासात्मक कटाक्ष करने में तो उसे विचित्र सी आनन्दानुभूति होती थी।

     लेकिन एक दिन विद्यालय परिधि के बाहर प्रताप कुछ छात्रों को कुक्कुट बनाकर उत्पीड़न करते हुए प्रधानाचार्य जी की सजग दृष्टि में कैद हो गया। तत्काल उन्होंने उसे व उसके नगराध्यक्ष पिता को अपने कार्यालय में बुलाकर पहले तो स्नेहसिक्त वाणी में समझाया और फिर कठोर शब्दों में चेतावनी भी दे डाली –'विद्यालय का अनुशासन भंग करने का परिणाम होगा विद्यालय से निष्कासन…इसलिए अच्छी तरह समझ लीजिए कि आज के बाद कोई भी अनुशासनहीनता स्वीकार नहीं होगी। और यह भी आप लोगों को पता होना चाहिए कि नवीनचंद्र पांडे पर किसी भी तरह का कोई दबाव प्रभावी नहीं होता…अब आप लोग जा सकते हैं।'

     पिता ने तो हाथ जोड़कर पुत्र के कुकृत्यों की क्षमा उनसे विनम्र स्वर में मांग भी ली किंतु प्रताप गर्दन झुकाए बिना कुछ बोले, बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए शांत भाव से बाहर निकल गया।मानो प्रधानाचार्य जी की चेतावनी का उस पर लेशमात्र भी प्रभाव न पड़ा हो।

    और फिर अगले दिन से ही वह सहपाठियों का पीछा छोड़कर प्रधानाचार्य जी के पीछे हाथ धोकर पड़ गया…

     निरीक्षण के उद्देश्य से प्रधानाचार्य जी नियमित रूप से किसी न किसी कक्षा की कोई न कोई बेला स्वयं निर्देषित करते थे। प्रताप उसी बेला में उनके साथ कोई न कोई हास्यास्पद् कृत्य कर देता था…कभी कागज की गेंद बनाकर उनकी दृष्टि बचाकर उनके सिर पर दे मारता, कभी उनकी कुर्सी पर कोलतार चिपका देता…वे बैठते तो चिपके रह जाते, कभी उनकी कुर्सी के पाये तले पटाखा रख देता…वे बैठते तो तड़ाक से फूट पड़ता।कभी उनकी पीठ पर धूर्त मक्कार लिखा कागज चिपका देता…वे जिधर को भी निकलते हंसी के फव्वारे फूट पड़ते। शरारती का नाम उजागर करने के लिए पूरी कक्षा की पिटाई होती। पर प्रताप के आतंक से कोई भी उसका नाम बताकर नहीं देता। सबके होंठ ऐसे सिल जाते जैसे कभी खुलेंगे ही नहीं।

     किंतु उस दिन प्रताप उनकी सतर्क निगाहों से बचा न रह सका,जब उसने प्रार्थना सभा में सोडियम के टुकड़े उछाल दिए।वायु का संपर्क होते ही वे जलकर छात्रों पर गिरे तो पूरी सभा में भगदड़ मच गई। प्रधानाचार्य जी ने तत्काल उसे विद्यालय से निष्कासित कर निष्कासन पत्र उसके पिता को भेज दिया।

     परंतु पता नहीं वह किस मिट्टी का बना था कि निष्कासन से भी लेशमात्र भयभीत नहीं हुआ। अपितु विद्यालय के अनुसूचित व दलित छात्रों को एकजुट कर उकसाने लगा –'अनुसूचित जाति का कमजोर व कुचला हुआ समझकर यह अत्याचार मुझ पर किया जा रहा है। अरे आज मुझे इस विद्यालय से निकाला जा रहा है,कल तुम सब दलितों को भी एक-एक कर बाहर कर दिया जाएगा। ताकि इस विद्यालय पर सवर्णों का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो सके। लेकिन यदि आप सब मेरा साथ दोगे तो दबे कुचले लोगों के प्रति यह तानाशाही मैं कभी चलने नहीं दूंगा।सारे दलितों की फीस माफ कराकर रहूंगा। और आप सभी को परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराना भी मेरा दायित्व रहेगा। यह एक अकेले प्रताप की लड़ाई नहीं अपितु दलितों व सवर्णों के बीच की लड़ाई का आरंभ है।'

     फिर क्या था, फिर तो सभी ने समवेत स्वर में क्रांति का बिगुल बजा दिया –'प्रताप भैया! तुम संघर्ष करो!हम तुम्हारे साथ हैं…हमारा नेता कैसा हो?... प्रताप भैया जैसा हो!...जो हमसे टकराएगा!...चूर चूर हो जाएगा!'

     और अगले दिन ही विद्यालय के मुख्य द्वार पर प्रताप के नेतृत्व में धरना प्रदर्शन आरंभ कर दिया गया। प्रधानाचार्य जी के विरोध में दलितों का स्वर मुखर हो गया –'नवीनचंद्र पांडे हाय-हाय!...हाय-हाय।… प्रधानाचार्य! मुर्दाबाद…मुर्दाबाद!'

     प्रधानाचार्य जी ने उन्हें समझाने का प्रयास किया तो मानो उनमें तो प्रबल ऊर्जा का संचार हो गया –'पहले निष्कासन वापस, फिर कोई और बात!' कई छात्र तो उनके साथ अभद्रता पर उतारू हो गए।विवश होकर उन्हें पुलिस की सहायता लेनी पड़ी। पुलिस की फटकार से समस्त आंदोलनरत छात्र मधुमक्खियों की तरह तितर- बितर हो गये।

     हर कूल कंगारे को झिंझोड़ता हुआ यह समाचार नगर में हर ओर फैल गया कि जिस शिक्षा के मंदिर में कभी पुलिस के सिपाही की छाया तक नहीं पड़ी थी वहां की व्यवस्था में पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा।

     विद्यालय प्रबंधन समिति की आपात सभा बुलाई गई। और उसमें प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे की अकर्मण्यता, विवेकहीनता, अकुशलता व विद्यालय परिसर में पुलिस बल के कदमों की घोर भर्त्सना की गई। तथा उन्हें   अपमानित व लांछित भी किया गया। इस अपमानदंश पर नवीनचंद्र पांडे बुरी तरह तिलमिलाकर रह गये…लगा जैसे संपूर्ण व्यक्तित्व सुलग रहा हो।

     उधर प्रताप की अनुशासनहीनता को दंडित करने के उद्देश्य से अगली प्रार्थना सभा में प्रबंधक द्वारा उससे प्रधानाचार्य जी के चरण स्पर्श कराकर क्षमायाचना कराई गई तथा दंडस्वरूप उसके हाथों पर प्रधानाचार्य जी द्वारा बेंत प्रहार भी कराया गया।

     और फिर अप्रत्याशित व अकल्पित रूप से वह घटित हो गया था जिसने उनकी समूची संयम शक्ति को पूर्ण वेग से झिंझोड़ डाला था…उनके व्यक्तित्व को झकझोरकर रख दिया था।…विद्यालय के अवकाश के उपरांत ज्यों ही वे मुख्य द्वार से बाहर निकले, प्रताप कहीं से घात लगाए चीते की तरह चपल गति से प्रकट हुआ और उनका कालर पकड़कर एक झन्नाटेदार तमाचा उनके गाल पर मारता हुआ बोला –'पांडे! प्रताप आज तक किसी के सामने नहीं झुका तो तुझसे कैसे पराजित हो सकता है?आज से ध्यान रखना! मुझसे टकराने की कोशिश मत करना कभी वरना तेरे लिए परिणाम अच्छा नहीं होगा।'

     पलार्द्ध भर को अवसन्न रह गया नवीनचंद्र पांडे का भावप्रधान मस्तिष्क…किंतु अगले ही पल उनमें न जाने कहां से ऐसी शक्ति ऐसा साहस उत्पन्न हो गया कि विद्युत गति से उन्होंने उसे लात घूंसो से बुरी तरह धुन दिया। हांफते हुए से बोले–'प्रताप याद रखना!मेरा नाम नवीनचंद्र पांडे है। सिद्धांतों का धनी हूं इसलिए कभी किसी से पराजित नहीं होता। तुम जैसे गुंडों को सुधारना मेरा बांए हाथ का खेल है। लेकिन जो कुछ आज हुआ वह मैं करना नहीं चाहता था। इससे विद्यालय की भी गरिमा धूमिल हुई तथा मेरी भी …और यदि तूने अपना यह धृष्टाचरण नहीं सुधारा तो जिंदगी में तू कभी कुछ नहीं बन सकता।…मेरा क्या है मुझे तो यह नहीं तो कोई और विद्यालय अपना ही लेगा। इसलिए मैं स्वयं इस विद्यालय को त्यागकर जा रहा हूं।यह निर्णय कल ही मैंने उस समय ले लिया था जब प्रबंधनतंत्र ने मेरे कार्य में हस्तक्षेप करने की चेष्टा की थी…लेकिन यह तुझे भविष्य बताएगा कि पराजय मेरी हुई या तेरी?'

     और उसी समय उन्होंने प्रबंधनतंत्र को अपना त्यागपत्र भिजवाया तथा वहां से विदा ली।

     चूंकि उनकी सुघड़ कार्य शैली की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी थी अतएव उपप्रधानाचार्य के अवलंबन पर चल रहे सरस्वती माध्यमिक विद्यालय धर्मपुर ने तत्काल उन्हें प्रधानाचार्य पद पर नियुक्त कर विद्यालय की डोर पूर्णतया इस अनुबंध के साथ उनके हाथों में सौंप दी कि परिणाम शत-प्रतिशत मिलना चाहिए, शैक्षिक स्तर शिखर को स्पर्श करना चाहिए, विद्यालय की दुंदुभी चहुंओर बजनी चाहिए।

     सर्वप्रथम आत्ममंथन, फिर व्यवस्थाओं का अवलोकन और तत्पश्चात् तदनुरूप क्रियान्वयन शैली अपनाते हुए उन्होंने विभेदक दृष्टि से विद्यार्थियों का निरीक्षण किया, उनकी नसों पर हाथ रखा, अभिभावकों की सभा आयोजित कर उन्हें विश्वास में लिया, अपने उद्देश्य, लक्ष्य व कार्यप्रणाली के विषय में विस्तार से चर्चा की, शिक्षकों से बंधुत्व भाव बनाए रखने का आग्रह किया, छात्रों को पुत्रवत् स्नेह प्रदान कर विद्यालय में पारिवारिक वातावरण उत्पन्न किया, छात्रों व शिक्षकों को उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए पुरस्कृत करने का निर्णय लिया।…

     और मनोयोगपूर्वक किये गये अथक परिश्रम, ध्येय के प्रति अटूट निष्ठा,लगन, सुनियोजित क्रियात्मक योग, त्यागी वृत्ति, स्नेहिल आचरण, विलक्षण कार्यक्षमता व अनुपम शैली ने अपना रंग दिखाया तो विद्यालय का नाम प्रदेश भर में विख्यात् होने के साथ-साथ ही प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे का अद्भुत प्रेरणास्पद् व्यक्तित्व शिक्षा जगत में एक किंवदंती बन गया।……

     *शिक्षामंत्री* अनुज प्रताप सिंह!... जिंदाबाद… जिंदाबाद!...समूचा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजा तो अतीत का वह तिक्त कषाय कालखंड वायु के पत्तों पर आरूढ़ हो अनंत में कहीं जाकर शून्य में विलीन हो गया। चैतन्य होकर उन्होंने चहुंओर दृष्टिपात् किया तो मंच पर ध्वनि विस्तारक के समक्ष खड़े मंत्री जी उन्हें ही लक्ष्य कर संबोधित कर रहे थे –"देखिए!समय का चक्र किस प्रकार घूमता और सबको घुमाता है…आज मैं जिन नवीनचंद्र पांडे को पुरस्कृत करने आया हूं वे कभी मेरे कालेज में प्रधानाचार्य हुआ करते थे। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था कि तू जिंदगी में कभी कुछ नहीं बन सकता,न कभी मुझसे जीत सकता है। लेकिन आज आप देख ही रहे हैं कि उनके कालेज का वह आवारा गुंडा, अनुसूचित जाति का दबा कुचला छात्र,जिसे पांडे ने छोटी सी बात पर विद्यालय से निष्कासित कर दिया था आज आपके सामने एक लोकप्रिय मंत्री के रूप में खड़ा है। जबकि पांडे पहले भी प्रधानाचार्य थे और आज भी प्रधानाचार्य हैं। उन्नति के सोपान पर एक कदम भी तो नहीं चढ़ सके…काल विडंबना का इससे सशक्त उदाहरण और क्या हो सकता है कि जिन हाथों पर उन्होंने कभी बेंत प्रहार किए थे,वही आज उन्हें पुरस्कृत करने जा रहे हैं।"                                                                                        पलांशभर को ठिठके मंत्री जी और फिर खुरदरे स्याह होंठों पर कुटिल मुस्कान लाते हुए बोले–" तो मैं प्रधानाचार्य पांडे को अपने हाथों से पुरस्कार देने के लिए मंच पर बुलाना चाहूंगा…शीघ्र आ जाएं क्योंकि अभी मुझे कार्यकर्ताओं की मीटिंग भी लेनी है।"

     भारी और बोझिल कदमों से नवीनचंद्र पांडे मंच पर चढ़े और माइक के सामने बिना किसी औपचारिकता के प्रारंभ हो गये–"ऐसा प्रतीत होता है कि माननीय मंत्री जी मुझे पुरस्कृत करने की ओट में अपने हृदय में बरसों से बंधी हुई ग्रंथि खोलने आये हैं…लेकिन वे बहुत बड़े भ्रम का शिकार हैं।या तो वे अभी तक नवीनचंद्र पांडे को समझ नहीं पाए हैं या फिर न समझने का अभिनय कर रहे हैं। पांडे मंत्री जी जैसा वृहदाकार अस्तित्व नहीं है। वह ऐसा लघुतर अस्तित्व वाला दीपक है जिसकी प्रज्वलित की हुई ज्योति में अब तक अगणित चिकित्सक, इंजीनियर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, प्रशासनिक अधिकारी, न्यायाधीश व शिक्षाविद् प्रकाशित हो चुके हैं। और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकाश फैला रहे हैं। इस अस्तित्व विहीन पांडे के शिक्षा मंदिर से अनेक प्रतिभाएं उदित हुई हैं। लेकिन क्या हमारे सम्मानित मंत्री जी बता सकते हैं कि उनके कौशल से कितनी प्रतिभाओं का विकास हो सका है?...रही बात पुरस्कार की, तो स्वाभिमान आहत करके जो पुरस्कार दिया जाता है उसकी कोई महत्ता नहीं रह जाती। ऐसे पुरस्कार की कोई गुणवत्ता नहीं होती। आज राजनीति में पुरस्कार तो रह गया है परंतु सम्मान व वास्तविक कार्यक्षेत्र नहीं रह गया है। पुरस्कार देना राजनीतिज्ञों के लिए बहुत सरल है। इससे उनकी सदाशयता प्रदर्शित होती है, लोकप्रियता बढ़ती है, क्षेत्र में महत्ता बढ़ती है।"…

     निमेषभर को रुककर उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर बोले–"मेरे विद्यार्थियों ने, शिक्षकों ने, अभिभावकों ने व इस क्षेत्र की जनता ने अपने प्रेम, प्यार, सम्मान व शुभकामनाओं से मुझे एक बार नहीं अनेक बार पुरस्कृत किया है।आजन्म ऋणी रहूंगा मैं उनके इस भावनात्मक अभिनंदन का।अतएव मुझे माननीय मंत्री जी के पुरस्कार की कोई आवश्यकता नहीं। मैं उनका पुरस्कार अस्वीकार करता हूं। माननीय मंत्री महोदय का बहुत-बहुत धन्यवाद।"

     प्रधानाचार्य जी मंच से उतरकर सभागार से भी बाहर निकल गये। जबकि हाथों में प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह, धनराशि का अनुदेश पत्र व शाल थामें मंत्री जी पाषाण प्रतिमा बने उनके जाने की दिशा में एकटक निहारते -निहारते न जाने किस लोक का विचरण करने निकल गये।

     शायद यह एहसास उन्हें कहीं भीतर तक कचोट गया था कि प्रधानाचार्य नवीनचंद्र पांडे ने उन्हें एक बार पुनः पराजित कर दिया था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

मो.9411012039

बुधवार, 16 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ....गिद्ध


       

 ‌"पापा!कुछ करो ना! मेरा दम घुट रहा है, और  सांस भी उखड़ रही है।" एंबुलेंस की सीट पर लेटे कार्तिक ने ऑक्सीजन मास्क के पीछे से अटकते - अटकते बड़े दयनीय स्वर में कहा तो बराबर की सीट पर बैठे डॉ० राघव मल्होत्रा की मजबूर आंखों में जलकण झिलमिलाने लगे।

    कार्डियक अस्थमा से पीड़ित बेटा थोड़ी - थोड़ी देर में यही करुण पुकार करने लगता था और वे कसमसा कर रह जाते थे। ऑक्सीजन के सहारे ही सांसे चल रही थीं, और वह भी समाप्ति की ओर थी। एंबुलेंस में लिटाए - लिटाए कहाँ - कहाँ नहीं भटकते फिरे थे वे... कभी बोथम हॉस्पिटल तो कभी संजीव आरोग्य केंद्र, कभी सरस्वती अस्पताल तो कभी देवनंदिनी चिकित्सालय… सभी जगह रटारटाया सा प्रत्युत्तर मिलता - 'सॉरी! अस्पताल में भरती करने के लिए कोई बैड खाली नहीं है, न ही ऑक्सीजन उपलब्ध है। कहीं और प्रयास करें!'

    स्वयं भी महानगर के सुप्रतिष्ठित चिकित्सक होने के नाते अपने कई डॉक्टर मित्रों से वे फोन पर अनुरोध भरी भिक्षा मांग चुके थे - "बस एक सिलेंडर की भिक्षा दे दीजिए या फिर अपने अस्पताल में भरती कर लीजिए! मेरे बेटे की जिंदगी का सवाल है, कोई भी, कितना भी मूल्य चुकाने को तैयार हूं।"

   पर सब जगह निराशा ही हाथ लगी - "इस समय बहुत बड़ी मजबूरी है। हॉस्पिटल में कोई भी बैड खाली नहीं है। और ऑक्सीजन भी कुछ ही घंटों की शेष है! जिलाधिकारी से गुहार लगाई है कि किसी भी तरह ऑक्सीजन की व्यवस्था कराएं! वरना हम रोगियों को बचा न सकेंगे!"

    वे गिड़गिड़ा भी पड़ते थे जैसे फोन पर ही पैर छूने को आतुर हों - "मेरा इकलौता बेटा है, ऑक्सीजन न मिली तो कुछ भी हो सकता है… बस थोड़ी सी गैस दे दीजिए! ताकि इस समय का काम चल सके, बाद में तो मैं कोई और भी व्यवस्था कर सकता हूं।"

   उनके अभिन्न मित्र डॉ० कुलकर्णी ने तो उन्हें झिड़क ही दिया था - "तुम्हारे लिए तुम्हारे बेटे की जान कीमती है तो हमारे लिए हमारे अस्पताल में भरती रोगियों की जान कीमती है। हम उनका जीवन कैसे दांव पर लगा दें? कई पेशेंट तो ऐसे हैं जो केवल ऑक्सीजन के आश्रय पर ही जिंदा हैं। इधर ऑक्सीजन समाप्त, उधर उनकी जिंदगी समाप्त।"

   "अर्थात् तुम्हारे लिए मेरे बेटे की जान कीमती नहीं है, वे अनजान बीमार कीमती हैं जिनसे तुम्हारा दूर-दूर तक कोई रिश्ता - नाता नहीं? कुछ पेशेंट काम में आ भी गए तो क्या हुआ? तुम पर क्या असर पड़ेगा उनका? पर मेरा बेटा तो बच जाएगा। मेरे बेटे से तो मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। यूं समझिए कि मेरे बेटे के बचने से मुझे भी जिंदगी मिल जाएगी। वरना मैं भी जीते जी मर जाऊंगा।" डॉ मल्होत्रा करुण कटाक्ष करते - करते भावपूर्ण आवेश में आ गए थे।

   डॉ कुलकर्णी इस कटाक्ष पर तिलमिला गए थे - "डॉ० राघव मल्होत्रा! तुम अपने पेशे के प्रति कर्तव्य विहीन हो सकते हो परंतु मैं नहीं। मुझे सब पता है तुम्हारे अस्पताल में क्या-क्या होता है? मुझे आवेशित कर मेरा मुंह मत खुलवाओ!"

   "क्या कर लोगे मेरा तुम, अपना मुंह खोलकर? अरे मैं भी सब जानता हूं तुम्हारे अस्पताल में कितने - कितने काले कारनामें होते हैं? तुम तो मरे हुए पेशेंट की चमड़ी तक उधेड़ लेते हो। डैड बॉडी से भी पैसे बनाते रहते हो।" आवेश में वे भूल गए कि उनका बेटा गंभीर रूप से बीमार है और वह उसी के लिए एक यूनिट ऑक्सीजन के लिए दर-दर भटक रहे हैं।

   आक्रोश में तमतमा गए थे डॉ० कुलकर्णी - "अरे हम तो मरे हुए की ही चमड़ी उधेड़ते हैं, पर तुम तो वह गिद्ध हो जो जिंदा आदमी का मांस नोंच नोंचकर खा जाता है। बताओ! तुम्हारे हॉस्पिटल में सामान्य पेशेंट की भी कोविड टैस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आती है या नहीं? फिर उसे रेमडेसिविर इंजेक्शन लगा - लगाकर लाखों रुपए वसूलते रहते हो या नहीं? ऑक्सीजन खत्म हो जाने का नाटक रचकर ब्लैक में खरीदने के बहाने तुम कई गुना दाम वसूलते हो या नहीं? फिर उसकी डैड बॉडी ही तुम्हारे हॉस्पिटल से कई सतह वाले कफन में पैक होकर बाहर निकलती है या नहीं?... डॉ० राघव मल्होत्रा! सच पूछो तो यह तुम्हारे उन्हीं कुकृत्यों का परिणाम है कि महानगर में इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी तुम्हें एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए किसी भूखे भिखारी की तरह भीख मांगनी पड़ रही है।"

   बुरी तरह बौखला गए थे डॉ० राघव मल्होत्रा। कोई प्रत्युत्तर नहीं सूझा तो झुंझलाकर फोन ही डिस्कनेक्ट कर दिया था उन्होंने।

   डॉ० कुलकर्णी ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया था... कठोर और कटु सत्य कह दिया था कुलकर्णी ने... उनकी आंखों में अपने ही अस्पताल के कुकृत्य किसी चलचित्र की भांति उभरने लगे……. 


   महानगर का सुप्रतिष्ठित 'आयुष्मान हॉस्पिटल'… संचालक डॉ० राघव मल्होत्रा… एक सिद्धहस्त कुशल सर्जन के रूप में दूर-दूर तक उनकी विशिष्ट पहचान थी। जटिल से जटिल सर्जरी के केस बड़ी सरलता से सुलझा लिए जाते थे उस हॉस्पिटल में। सर्जरी के कुशल प्रवक्ता के रूप में व्याख्यान देने भी वे देश - विदेश में जाते रहते थे... और मोटे शुल्क पर अन्य अस्पतालों की भी विजिट करते रहते थे... हर ओर से धन की बौछार... हर समय सिर पर धन कमाने का जुनून सवार...

   मानवीयोचित संवेदनाएं हृदय के किसी कोने में न थीं… जीवन का एक ही उद्देश्य, एक ही धर्म, एक ही कर्तव्य... मानव को जितना नोंचा - खसोटा जाए, कमी मत छोड़ो! चर्म तक उधेड़ लो... इस संसार में कोई किसी का नहीं, बस पैसा ही काम आता है।

   अर्थात् यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि उनके भीतर एक गिद्ध छिपा बैठा था, जो नोंचने - खसोटने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था।

   और जब एक नन्हें से वायरस कोरोना ने देश भर में महाप्रलय मचायी तो उनके प्रखर महत्त्वाकांक्षी मस्तिष्क ने आपदा में भी अवसर तलाशने में विलंब नहीं किया। प्रशासन के सहयोग से उन्होंने 'आयुष्मान हॉस्पिटल' को 'कोविड-19 उपचार केंद्र' में परिणत करने में सफलता अर्जित की तो वहां सर्जरी के स्थान पर कोरोना पीड़ित रोगियों का उपचार किया जाने लगा।

   फिर तो धन की घनघोर वर्षा होने लगी... कोई सर्जरी का रोगी भी आ जाता तो निराश उसे भी नहीं किया जाता... पहले उसे भरती किया जाता, फिर उसका कोरोना टैस्ट किया जाता। पॉजिटिव प्रदर्शित कर कोविड-19 का उपचार करने की ओट में लाखों रुपए वसूले जाते... कभी रेमडेसिविर का अभाव बताकर रोगी के परिचारकों को इधर-उधर भटकाया जाता, कभी ऑक्सीजन की कमी दर्शाकर नचाया जाता और इस ओट में मोटी कमाई की जाती।

   परंतु रोगी बचता तब भी नहीं था - 'सॉरी! बहुत कोशिश की हमने, पर पेशेंट को बचा नहीं सके! फेफड़े पूरी तरह गल गए थे।'

   कई सतह वाले कफन में पैक्ड डैड बॉडी ही बाहर निकलती थी। वह भी कोविड अस्पताल के प्रोटोकॉल के अनुसार परिजनों को नहीं दी जा सकती थी। मृत शरीर से भी धन वसूलने में पीछे नहीं रहा जाता था - 'श्मशान गृह में इंच भर भी जगह खाली नहीं है।' यह अभाव दर्शाकर किसी अन्य स्थान का भारी-भरकम शुल्क जमा कराया जाता था। और क्रियाकर्म का शुल्क तो अलग से था ही जो अस्पताल के कर्मचारियों की सदाशयता पर निर्भर करता था।

   परीक्षणशाला अपनी, मेडिकल स्टोर अपना, कर्मचारी अपने, समूची व्यवस्था अपनी... आयुष्मान हॉस्पिटल में आने वाला हर रोगी कोविड-19 वायरस पॉजिटिव ही निकलता था, चाहे वह सामान्य खांसी, जुकाम से ही पीड़ित क्यों न हो।

   और यह भी उसकी एक विशेषता ही थी कि शायद ही कोई रोगी उसमें से स्वस्थ होकर बाहर निकलता हो?... लोग स्वस्थ होने की आशा हृदय में पाले अपने रोगी को हॉस्पिटल में भरती करते और अपना सब कुछ दांव पर लगाकर कुछ दिन बाद ही लुटे - पिटे जुआरी की तरह खाली हाथ रोते - बिलखते घर वापस लौटते।


   किसी समाचार पत्र का पत्रकार था वह, जिसके पिता को उदरशूल की शिकायत पर वृक्काश्मरी के संदेह मे अल्ट्रासाउंड तथा अन्य परीक्षणों आदि के लिए भरती किया गया था।

   सर्वप्रथम कोविड टैस्ट किया गया… परिणाम आने तक कोई उपचार नहीं, कोई परिचार नहीं... एक गिलास पानी अथवा एक कप चाय के लिए रोगी तरसता रहा... वह दर्द से तड़पा तो चीखने - चिल्लाने पर डरा - धमकाकर शांत कर दिया गया...

   रिपोर्ट आयी - कोविड-19 वायरस : पॉजिटिव (हाइली सेंसेटिव)... यह तो सुनिश्चित था ही।

   पत्रकार को रोग की गंभीरता समझा दी गयी - 'वायरस का प्रभाव गुरदों पर हुआ है, गुरदे संक्रमित होकर सिकुड़ गए हैं, और निरंतर गलते जा रहे हैं। क्या परिणाम होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता? फिर भी हम पूरी कोशिश करेंगे। हमें विश्वास है कि हम रोगी को बचा लेंगे। किंतु खर्च कुछ ज्यादा हो सकता है। हालांकि हम कम से कम खर्च में ही काम चलाने की कोशिश करेंगे।'

   पत्रकार ने उनके पैर पकड़ लिए - 'मेरे पिता को बचा लीजिए डाक्साब! मैं खुद बिक जाऊंगा, पर अस्पताल का खर्च पूरा वहन करूंगा।'

   भीतर ही भीतर पुलकित हो उठे डॉ० मल्होत्रा… अच्छा मुर्गा फंसा है... उनके मस्तिष्क में बैठे गिद्ध ने तत्काल ही किसी योजना को साकार रूप देना प्रारंभ कर दिया...

   सुबह होते ही लाखों रुपए जमा करा लिए जाते... कभी परीक्षण के नाम पर, कभी दवाइयों के लिए, कभी रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर, कभी ब्लैक में खरीदी गई ऑक्सीजन के नाम पर, कभी वेंटिलेटर के लिए, कभी नेफ्रोलॉजिस्ट की विशेष विजिट के लिए, कभी विदेश से मंगाए गए कुछ विशेष उपकरणों के शुल्क के रूप में...

   पत्रकार ने बहुत बार पिता से मिलने का प्रयास किया। परंतु हर बार ही उसे रटा - रटाया सा आश्वासन देकर शांत कर दिया जाता - 'आप निश्चिंत होकर घर जाइए अथवा वेटिंग हॉल में जाकर बैठिए! जो कुछ भी नयी सूचना होगी, आपको फोन पर दे दी जाएगी।'

‌‌   सप्ताह भर बाद उसे सूचना दी गयी - 'वायरस ने लैफ्ट किडनी तो पूरी तरह डैमेज कर ही दिया है, लंग्स (फेफड़े) भी गल चुके हैं। फिर भी हम बचाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हम अमेरिकी नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ ऑस्टिन से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं, एक बार उन्होंने देख लिया तो आपके पिता निश्चित रूप से बच जाएंगे। परंतु उनकी फीस आपको भरनी होगी।'

   कुछ दिन बाद उसे पुनः आश्वस्त किया गया - 'अमेरिकी डॉ० ऑस्टिन की एडवाइस के अनुसार ही ट्रीटमेंट दिया जा रहा है। हमें विश्वास है कि सफलता अवश्य मिलेगी। हम उन्हें बचा लेंगे।'

   'क्या मैं एक झलक देख सकता हूं अपने पिता की?' उसने डरते डरते पूछा था।

   'बेवकूफ! क्या बक रहे हो? वह कोरोना पेशेंट हैं, उसे देखने की तुम सोच भी कैसे सकते हो?' डॉ० मल्होत्रा ने उसे इतनी बुरी तरह झिड़क दिया था कि वह सहमकर रह गया था।

   पता नहीं उसे किसी नर्स अथवा वार्डबॉय ने कोई संकेत दिया था अथवा अंतर्चेतना में कोई झंकार हुई थी कि उसे डॉ० मल्होत्रा की विश्वसनीयता पर संदेह होने लगा था। यह भी संभव हो सकता है कि अस्पताल से दिन - प्रतिदिन निकलने वाली लाशों ने उसे उद्विग्न किया हो।

   उसी रात्रि को जब समूचा अस्पताल निद्रा के आगोश में समाया पड़ा था वह पी पी ई किट पहनकर उस वार्ड में घुस गया जहां उसके पिता भरती थे... और वह यह देखकर दंग रह गया कि वहां कई लाशें रोगियों के रूप में पड़ी थीं... नासिका व मुख पर लगे मास्क मात्र प्रदर्शन भर के लिए... दोनों हाथों की नसों में ड्रिप की नलियां लगी हुईं...

   स्वयं उसके पिता भी मुर्दे के रूप में परिणत हो चुके थे... उदर पर टेप से चिपकायी गयी रुई पर रक्त स्राव के निशान... तो क्या पिता का पेट चीरा गया था? क्यों चीरा गया होगा?... क्या किसी अंग की चोरी की गयी है?... गुर्दा ही या कुछ और?

   'हे भगवान्! ये लोग डॉक्टर हैं या गिद्ध? जो इंसान के अंग नोंचकर खाने से भी नहीं चूकते।' उसकी आंखों में पीड़ा मिश्रित विस्मय का संसार उमड़ आया।

   डॉक्टर के सामने पड़ते ही उसने हंगामा मचा दिया - 'इंसानी खाल में छिपे गिद्ध हो आप! मेरे जीवित पिता को नोंच - नोंचकर खा गए? वरना तो बताइए! उनके पेट को क्यों चीरा गया? कौन सा अंग निकाला गया है उसमें से? मैं अभी पुलिस में रिपोर्ट करूंगा, उनका पोस्टमार्टम होगा, और आप जेल जाएंगे! अरे मैं तो अच्छे भले पिता को लेकर केवल इस परीक्षण के लिए यहां आया था कि बायीं कुक्षि में उठने वाला दर्द पथरी का है अथवा कुछ और?... और आपने लाखों रुपए बनाकर भी उन्हें जिंदा नहीं ‌छोड़ा।'

   बहुत शोर मचा, भीड़ इकट्ठी हो गयी, पुलिस भी आयी और पत्रकारों का दल भी आ विराजा।

   पुलिस को तो उन्होंने चढ़ावा चढ़ाकर शांत कर दिया, परंतु अखबारों को शांत न कर सके।

‌   बाद में उन्होंने अपने स्टाफ को बुरी तरह डांट - फटकार लगायी - 'वह भीतर घुसा कैसे? भीतर का सच लोगों के सामने उजागर हुआ तो क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी हॉस्पिटल की? कौन जिम्मेदार होगा गिरती साख के लिए? तुम लोगों को मासिक वेतन के अतिरिक्त भी बहुत कुछ दिया जाता है, कहां से निकलेगा वह?'

   वही हुआ... अगले दिन के समाचार पत्र उनके समाचारों से भरे पड़े थे - महानगर का सुप्रसिद्ध 'आयुष्मान हॉस्पिटल' बना गिद्धों का अड्डा। हॉस्पिटल में भर्ती छद्म कोरोना के रोगियों के अंगों की तस्करी चरम पर... पुलिस प्रशासन मौन।

   फिर तो आए दिन उन पर आरोपों की बौछार होने लगी... जिनमें कहीं न कहीं सत्यता भी थी... कभी कोविड रोगियों के लिए जीवन रक्षक माने जाने वाले रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी का आरोप, कभी उसके स्थान पर डिस्टिल्ड वाटर लगाकर रोगियों को मार डालने का आरोप, कभी ऑक्सीजन का कृत्रिम अभाव प्रदर्शित कर कई गुना अधिक मूल्य वसूलने का आरोप, कभी हॉस्पिटल में 'बैड फुल' की तख्ती लगाकर बैक डोर से मोटी राशि लेने का आरोप, कभी गुरदा चोरी का आरोप, कभी रोगियों के स्वर्णाभूषण उतार लेने का आरोप…

   अर्थात् दिन - प्रतिदिन आयुष्मान हॉस्पिटल की प्रतिष्ठा धूमिल होती चली गई... जितना यश डॉ० मल्होत्रा ने अपने कौशल व मृदुलाचरण से अर्जित किया था वह सब उनकी गिद्धवृत्ति की भेंट चढ़ गया... वे डॉक्टर गिद्ध के नाम से चर्चित होते चले गए…….


   "मैं मर जाऊंगा पापा! कुछ करो! मुझे बचा लो! शहर के इतने बड़े डॉक्टर होते हुए भी आप कुछ नहीं कर रहे?" मलीन से, बिखरते से स्वर में कहा कार्तिक ने तो उनकी सोच की परत दरक गयी।

     चौंककर उन्होंने बेटे के चेहरे की ओर देखा... चेहरा निरंतर पीला पड़ता जा रहा था और स्याह आंखें बुझी - बुझी सी, होंठ पपड़ाए हुए, कपोल भीतर धंसे हुए... अपनी विवशता पर उनका अंतर्मन रो पड़ा।

   फिर भी बाहरी मन से उन्होंने उसे दिलासा देने का प्रयत्न किया - "डोंट वरी माय लवली सन! बहुत जल्दी मैं कोई न कोई समाधान निकालता हूं। मैं अपने प्यारे बेटे को जरूर बचा लूंगा।"

   यकायक उन्हें राजकीय चिकित्सालय में नियुक्त कार्डियोलॉजिस्ट डॉ० गर्ग का ध्यान आ गया... उनसे उनके बहुत मधुर संबंध थे। डॉ गर्ग ने अनेकों रोगी उनके हॉस्पिटल में अग्रसरित किए थे, बदले में उन्होंने गर्ग को मोटा कमीशन दिया था।

   और उनकी एंबुलेंस राजकीय चिकित्सालय की ओर दौड़ पड़ी... डॉ० गर्ग से कुछ सहायता मिलने की आशा में...

‌   डॉ० गर्ग ने मधुर वाचन शैली में उनका उत्साहवर्धन किया - "चिंता मत करो माय डीयर फ्रेंड! इस अस्पताल में आपको बैड भी मिलेगा और ऑक्सीजन भी... और यदि वेंटिलेटर की आवश्यकता हुई तो मैं वह भी उपलब्ध कराऊंगा…" क्षणिक ठिठककर वे मुख्य बिंदु पर भी आ ही गए - "किंतु दोस्त! अस्पताल के नियमानुसार सर्वप्रथम कोरोना टैस्ट अनिवार्य है।"

   कोरोना टैस्ट का नाम सुनते ही उनके हृदयाकाश में विचित्र - विचित्र सी आशंकाओं के बादल मंडराने लगे... कोरोना टैस्ट का मतलब - कोविड-19 वायरस पॉजिटिव... जब उनके आयुष्मान हॉस्पिटल में आज तक कोई भी परीक्षण नेगेटिव नहीं दर्शाया गया तो इसी राजकीय अस्पताल का क्या विश्वास?... और यदि पॉजिटिव आया तो?...

   पॉजिटिव परिणाम की दिशा में सोचते ही उनकी पूरी देश स्वेद बिंदुओं से लथपथ हो गयी... उन्होंने आज तक किसी रोगी को अपने हॉस्पिटल से जिंदा नहीं लौटाया तो राजकीय व्यवस्थाओं पर भी कैसे विश्वास किया जा सकता है?... उन्हें लगा कि कोरोना के रूप में यमदूत तैयार खड़े हैं... एक - एक सांस से जंग जीतने को संघर्ष कर रहे इकलौते बेटे को ले जाने के लिए…

   इस हृदयाघाती कल्पना से तो उनका दिल धक्क से बैठ गया... उन्होंने माथे पर हाथ रख लिया और किंकर्तव्यविमूढ़ से भयावह विचारों के अंधड़ में चकरघिन्नी की तरह घूमने लगे।

   डॉ० गर्ग ने उन्हें उहापोह के दलदल में फंसे देखा तो बड़े ही स्निग्ध स्वर में उन्हें परामर्श देने लगे - "क्यों माय डीयर फ्रेंड! इसे तुम अपने ही अस्पताल में भरती क्यों नहीं कर लेते? एक पूरा वार्ड कोरोना पेशेंट से खाली कराओ और बेटे के लिए व्यवस्थाएं बनवा लो! मैं वहीं आकर विजिट कर लूंगा।"

‌‌   जैसे कोई जुआरी जुआ खेलकर हताश - निराश सा परिक्लांत और बोझिल कदमों से घर लौटने को मजबूर हो, वैसे ही उनकी एंबुलेंस भी अपने ही आयुष्मान हॉस्पिटल की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगी थी।

   अपने हॉस्पिटल पहुंचकर वे समूचे स्टाफ पर निर्देशात्मक कर्कश स्वर में बरस पड़े - "एक पूरा वार्ड मेरे बेटे के लिए खाली कराओ! पेशेंट को उठा - उठाकर बाहर फेंक दो!... भाड़ में जाएं, जिंदा बचें या मरें... उनकी किस्मत। किंतु मेरा बेटा हर हाल में बचना चाहिए!... पहले कोरोना टैस्ट कराओ बेटे का... और ध्यान रहे! वास्तविक रिजल्ट बताना है, केवल पॉजिटिव ही रिपोर्ट नहीं बतानी है... और तत्काल ही सारे पेशेंट की ऑक्सीजन रोककर बेटे को लगानी है... यह भी ध्यान रखना है कि केवल ऑक्सीजन मास्क ही लगाकर नहीं छोड़ देना है अपितु गैस भी सप्लाई करनी है।… और जरूरत पड़ी तो रेमडेसिविर इंजेक्शन भी लगाने होंगे... किंतु ध्यान रहे ओरिजिनल इंजेक्शन ही लगाने हैं, उनकी जगह डिस्टिल्ड वॉटर नहीं... ओरिजिनल इंजेक्शन मैं स्वयं लाकर दूंगा... बल्कि लगाऊंगा भी मैं ही स्वयं अपने हाथों से, मुझे तुम लोगों पर किंचित विश्वास नहीं।"

   कालचक्र की यह कैसी विडंबना थी कि उनके भीतर बैठे भूखे गिद्ध ने परिस्थितियों का कितना जटिल मकड़जाल बुन दिया था कि अपने ही हॉस्पिटल पर विश्वास डगमगा गया था, हॉस्पिटल से संबंधित हर व्यवस्था हर व्यक्ति संदिग्ध लगने लगा था... उन्हें प्रतीत हो रहा था कि हॉस्पिटल का समूचा स्टाफ ही गिद्धों में परिणत हो गया है... डरावनी डरावनी सी आशंकाओं के कृमि कुलबुलाने लगे थे उनके भीतर कि कहीं ये गिद्ध उनके बेटे को भी नोंच - नोंच न खा जाएं...

   किंतु जब तक महानगर के उस सुविख्यात, सर्वसाधन संपन्न, दंभी व गिद्धवृत्ति शल्य चिकित्सक के लाड़ले बेटे को एंबुलेंस से उठाकर उस स्पेशल वार्ड में भर्ती किया जाता, तब तक एक यूनिट ऑक्सीजन तथा एक बैड के लिए तरस रहे उस अभागे की सांसो की डोर टूट चुकी थी... न जाने कब एंबुलेंस में रखा ऑक्सीजन सिलेंडर खाली हो चुका था... एक-एक सांस के लिए व्यवस्था से जंग कर रहे बेटे की निश्चेतन पथराई आंखें शायद अब भी अपने पिता से करुण स्वर में याचनामयी गुहार लगा रही थीं - "पापा! कुछ करो ना!"


 ✍️डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़

बिजनौर, 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर  9411012039 / 8077945148

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर ) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी ........ पिता का श्राद्ध

     


पिता का श्राद्ध है आज…

     निकेत बड़े श्रद्धा भाव से पूजा पाठ की तैयारियों में लगा है…और पत्नी रसोई में विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में व्यस्त है…श्वसुर की पसंद का मटर पनीर, कोफ्ते, बूंदी का रायता,मेवे पड़ी मखाने की खीर, शुद्ध गोघृत का सूजी का हलवा,उड़द की दाल की कचोड़ियां आदि आदि।

     मां का कमरा रसोई से कुछ दूर है। उच्च रक्तचाप व मधुमेह की रुग्णा मां की दो कदम चलने में ही श्वास फूलने लगती है। बार-बार कण्ठ शुष्क हो जाता है और बार बार प्यास लगती है। और थोड़ी-थोड़ी देर में मूत्र त्याग की इच्छा होने लगती है। अन्य दिनों में तो बेटा अथवा पौत्र उन्हें शौचालय ले जाकर मूत्र विसर्जन करा लाते थे…परंतु आज तो कोई भी उनके समीप नहीं आया…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…जिन्हें मरे हुए आज पूरे पांच वर्ष हो चुके हैं…प्रति वर्ष उनका श्राद्ध मनाया जाता है…सुस्वादु व्यंजन उनके नाम पर पंडित और कौए को खिलाए जाते हैं। पंडित पूजा पाठ का उपक्रम करता है, दक्षिणा लेता है और सामान की पोटली बांधकर घर ले जाता है…बस हो गया श्राद्ध…

     वह अलग की बात है कि जब तक वे जीवित रहे तब तक पुत्र और पुत्रवधू दोनों ही उनकी घोर उपेक्षा करते रहे। उनकी पसंद के सुस्वादु व्यंजन तो क्या सामान्य भोजन के लिए भी तरसाया जाता था…

     मधुमेह की रुग्णा होने के कारण मां को भूख सहन नहीं हो पाती…हर दो घण्टे पर उन्हें कुछ न कुछ खाने के लिए चाहिए, वरना उन्हें कमजोरी और चक्कर महसूस होने लगते हैं।

     लेकिन आज तो उन्हें सुबह से कुछ भी नहीं मिला…क्योंकि आज उनके मृत पति का श्राद्ध है न…बेटा और बहू तैयारियों में व्यस्त हैं न…श्राद्ध के विधि विधान में कोई कमी न रह जाए…किसी भी तरह पितर न रुष्ट होने पाएं…

    भूख बड़ी तेजी से सता रही है उन्हें…टकटकी बांधे वे निरंतर रसोई की ओर निहार रही हैं…हर आहट पर उन्हें लगता है कि  कुछ खाने को मिलने वाला है…इस मध्य हांफती-कांपती वे कई बार शौचालय हो आयी हैं और लौटते हुए तिर्यक दृष्टि से वे रसोई में भी झांक आयी हैं।

     जब उन्हें लगा कि यदि कुछ देर उन्हें खाने को कुछ न मिला तो रक्त शर्करा शून्य हो जाएगी और वे मूर्छित हो जाएंगी। तो उन्हें बहू से याचना भाव से कहना ही पड़ा– "बहू!भूख सहन नहीं हो रही…रात का ही कुछ रखा हो तो वही खाने के लिए दे दे!"

     बहू की त्योरियां चढ़ गयीं – "मां जी कुछ तो धीरज रखा करो!आज पिताजी का श्राद्ध है तो बिना पूजा पाठ किए, बिना पंडित जी को भोग लगाए आपसे कैसे झुठला दें? पुण्य कार्य में विघ्न बाधा डालकर क्यों अनर्थ करने पर तुली हुई हो?"

     पौत्र को उनसे कुछ सहानुभूति हुई तो वह उन्हें आश्वस्त करने आ पहुंचा – "अम्मा! पापा पंडित जी को बुलाने गये हैं बस आने ही वाले होंगे। जैसे ही पंडित जी को भोग लगाया जाएगा वैसे ही सबसे पहले मैं आपका थाल लेकर आऊंगा।"

     उनके मन में आशा की एक नन्ही सी किरण जगी । और वे अपने बिस्तर पर लेटी मुख्य द्वार की ओर अनिमेष निहारने लगीं…पुत्र के पंडित जी के साथ आने की प्रतीक्षा में…

     किंतु पुत्र अकेला ही बाहर से ही  तीव्र स्वर में कहते हुए भीतर घुसा चला आया – "पंडित जी को आने में कुछ देर लगेगी क्योंकि वे अन्य घरों का श्राद्ध निपटाने गये हैं।इन लोगों के लिए कोई एक घर तो होता नहीं जो सुबह से ही जाकर जम जाएं,दस घर जाना होता है। कहीं चेले चपाटों को भेज देते हैं कहीं खुद जाते हैं। हमारे घर तो वे स्वयं ही आएंगे,हमारा श्राद्ध कर्म अच्छी तरह जो निपटाना है। यहां से उन्हें दक्षिणा भी अच्छी मिलती है।"

     मां जी के मन में टिमटिमा रहा आशा का नन्हा दीप भी बुझ गया…पता नहीं पंडित जी कब आएंगे?...कब तक उन्हें इस भूख से तड़पना होगा?

     साहस जुटा कर वे किसी भिक्षुणी की भांति पुत्र के सामने गिड़गिड़ाने लगीं – "बेटा!तू मेरे मरने के बाद भी तो मेरा श्राद्ध कर्म करेगा ही न,तो वह श्राद्ध मेरे जीते जी कर ले! बेटा बहुत जोर की भूख लगी है,बस तू मुझे दो सूखी रोटी दे दे! चाहे मेरे मरने के बाद मुझे कुछ मत देना खाने के लिए।"

     पुत्र की भृकुटि वक्र हो गयी– "अम्मा! तुम भी हर समय कैसी कुशुगनी की बातें करती रहती हो? पंडित जी को जिमाने से पहले तुम्हें कैसे जिमां दें? क्यों हमसे घोर पाप कराने पर तुली हो? जब इतनी देर रुकी हो तो थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं क्या?"

     मां जी की आंखों में अश्रु छलछला आए…अपने रक्तांश से ऐसे तिरस्कार की तो उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं थी।

     लड़खड़ाते बोझिल से कदमों से वे अपनी कोठरी में घुसीं और निढाल सी, निष्प्राण सी ओंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ीं।सिकुड़ी आंखों से अविरल अश्रुधार प्रवाहित हो पड़ी…और पता नहीं कब तक होती रही?

     कुछ समय उपरांत पंडित जी बाहर से ही शोर मचाते हुए घर में प्रविष्ट हुए – "जल्दी करो भाई! मुझे और घरों में भी जाना है।"

     पूजा पाठ की औपचारिकता पूर्ण होते ही पंडित जी के सामने सारे व्यंजनों से सजा थाल लाया गया तो उन्होंने क्षणिक दृष्टिपात थाल पर करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहा –"ऐसा करो यजमान!इसे खाने का मेरे पास वक्त नहीं है,अभी और भी घर निपटाने हैं। इसमें दक्षिणा रखकर इसे मेरे घर दे आओ! भगवान तुम्हारे पिता की आत्मा को संतृप्त रखे।"

     पंडित जी के जाने के बाद मां जी को सुस्वादु व्यंजनों से भरा भोजन  थाल पहुंचाया गया…

     किंतु यह क्या?...मां जी तो तब तक उसे ग्रहण करने की स्थिति में ही नहीं रही थीं…शायद उन्हें मधुमेही संज्ञाशून्यता ने आ दबोचा था।

✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 8077945148

शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की लघुकथा ...श्रद्धा

       


शिवालय में माता का भव्य जागरण हो रहा था। भांति-भांति की पुष्प श्रंखलाओं से देवोपम भव्य दरबार सज्जित किया गया था।लब्ध प्रतिष्ठ गायक और कलाकार आये हुए थे।

     अर्पित और उसकी पत्नी शैला भी जागरण में जाने की तैयारी कर रहे थे…ऐसे ख्याति प्राप्त गायक सुनने को कहां मिल पाते हैं…और विभिन्न प्रकार की झांकियां…कभी मयूर नृत्य,कभी राधा कृष्ण का नृत्य,कभी काली माई की झांकी,कभी शिव स्तोत्र पर तांडव नर्तन…भरपूर मनोरंजन के साथ-साथ अध्यात्म की अनुभूति भी…माता की पूजा में तो अगाध श्रद्धा उनकी थी ही।

     एक कोठरी में चारपाई पर पड़ी बीमार वृद्ध वयस मां को तो उन्होंने भनक भी नहीं लगने दी थी…वह भी साथ चलने की अभिलाषा व्यक्त कर सकती थी।

     लेकिन बहू को सजते-संवरते श्रंगार करते देखकर मां ने स्वयं ही अनुमान लगा लिया कि पति को साथ लेकर वह कहीं जा रही है…कहां जा रही होगी?...शिव मंदिर में इतना सुन्दर इतना भव्य मां का दरबार सजाया गया है तो फिर वहीं जा रही होगी…

     मां भगवती में तो उसकी भी अगाध श्रद्धा थी।वह भी जीवन भर नवदुर्गे और नवरात्रों के पूरे व्रत निष्ठा और नियम पूर्वक रखती आयी थी। और जब तक देह की सामर्थ्य रही कहीं भी मां का जागरण अथवा भजन कीर्तन उसने छोड़ा नहीं था। श्रद्धा होती भी क्यों नहीं,भगवती मां ने उसकी मनोकामना भी तो पूर्ण की थी…अर्पित को उसके अंक में डालकर…अर्पित को पाने के लिए उसने कितने जप तप, कितने व्रत अनुष्ठान किये थे , उम्र के इस अन्तिम पड़ाव पर कुछ भी तो स्मरण नहीं।

     मां के दरबार में अपनी श्रद्धा की देवी की एक झलक पाने के लिए उसका भी मन ललचा उठा। उसने साहस कर बहू को आवाज लगा दी– "बहू!जरा मेरे पास तो आ!... तुम लोग आज जा कहां रहे हो?"

     बहू ने सुनकर भी अनसुना कर दिया तो उसने बेटे को पुकारा।बेटा वहीं से चीखा– "क्या है मां?यह कितनी गन्दी आदत है तुम्हारी कि हम जब भी कहीं जाने को तैयार होते हैं तुम हमें परेशान करने लगती हो!... चुपचाप नहीं लेटी रह सकतीं क्या?"

     मां सहम गयी…जब अपनी कोख से जना बेटा ही कोई बात सुनने को तैयार नहीं तो फिर बहू पर ही क्या अधिकार?...उसका भी क्या विश्वास कि वह कोई बात मान ही लेगी?

     लेकिन देवी मां के चरणों में शीश नवाने की अदम्य लालसा ने उसमें साहस भर दिया । लाठी के सहारे वह उठी और बहू के सामने पहुंचकर धीरे से ससंकोच बोली – "बहू क्या मां के जागरण में जा रही हो? मेरा भी बहुत मन था मां के चरणों में मत्था टेकने का।सोच रही थी कि आज हूं कल का क्या पता रहूं न रहूं? अन्तिम बार मां के दिव्य दर्शन कर लेती तो हृदय को बड़ी शांति मिल जाती…"

     बहू की भृकुटी वक्र हो गयी– "मां जी! आपसे कितनी बार कहा है कि हमारे काम में अड़ंगा मत लगाया करो! न कहीं आते जाते समय हमें रोका-टोका करो! पर सठिया गयी हो न, मान कैसे सकती हो?... अच्छा खासा मूड खराब कर दिया…दो कदम तो तुमसे चला नहीं जाता, जागरण में जाओगी?... भीड़ की रेलमपेल में कहीं कुचल कुचला गयीं तो और हमारी जान को मुसीबत खड़ी हो जाएगी। वैसे भी हम कौन सा मंदिर जा रहे हैं, इनके दोस्त की मां बीमार है उसे देखने जा रहे हैं आधे घण्टे में लौट आएंगे।"

     बहू से निराश होकर बूढ़े नेत्रों में याचना भाव लिये वह बेटे की ओर मुड़ गयी– "बेटा! मैं तुम दोनों के काम में बिल्कुल भी अड़ंगा नहीं लगाऊंगी।बस तू मुझे मंदिर तक पहुंचा आ! उसके बाद तुम दोनों को जहां जाना हो वहां चले जाना और उधर से लौटते समय मुझे भी लेते आना। अंतिम समय में एक बार मां के दर्शन हो जाएं तो समझ लूंगी कि मैंने सारे तीरथ कर लिये।"

     पुत्र ने क्षणार्ध भर को पत्नी की ओर देखा…पत्नी ने आंखों ही आंखों में उसे कोई संकेत किया तो वह आवेश में आ आ गया – "अम्मा! तुम पागल हो गयी हो। बीसियों बीमारियां तुम्हारे शरीर में घुसी पड़ी हैं।पता है तुम्हें कुछ,कितना खर्च आ रहा है तुम्हारी दवाइयों पर? मंदिर की भीड़ में तुम्हें चोट वगैरह लग गयी तो कैसे करा पाएंगे तुम्हारा इलाज? इतना धन आएगा कहां से? …दो कदम चलने में तुम्हारी सांस फूलने लगती है मंदिर तक कैसे चल पाओगी? या तुम्हें कन्धे पर बैठाकर ले जाऊं?"

     वृद्धा मां उपहास की हंसी हंस पड़ी – "ना बेटा ना! तू क्यों ले जाएगा मुझे अपने कंधों पर बैठाकर? वह तो मैं ही थी कि जब तू छोटा था तब बीमार होने पर भी तुझे अपने कंधों पर बैठाकर माता के दरबार में ले जाती थी और तेरा मत्था टिकवाती थी। क्योंकि मैं मां हूं न। तू क्या जाने मां की ममता का मूल्य?बेटा तू अब भी कहे तो मैं अब भी तुझे अपनी पीठ पर लादकर घिसटती-घिसटती मां के दरबार तक ले ही जाऊंगी। और बेटा तुझे याद है न कि तेरे कालेज की फीस भरने के लिए मैंने अपना सारा जेवर बेच दिया था…और तू कहता है कि इलाज का खर्च कहां से आएगा?... वाह बेटा वाह!..."

     लेकिन पुत्र मां की बात सुनने के लिए रुका नहीं। पत्नी का हाथ पकड़ कर तत्काल बाहर की ओर निकल गया…मां के जागरण में शीश नवाने के लिए…ताकि मां सारी मनोकामनाएं पूर्ण कर सके।

     इधर श्रद्धा की यह विडंबना देखकर बूढ़े नेत्रों से जलधार बह चली…बेटा और बहू घर में विद्यमान जीवन्त देवी मां का तिरस्कार कर जागरण में कृत्रिम देवी मां को शीश झुकाने गये थे।

  ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

गुरुवार, 1 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की लघुकथा...... विवशता

     


रेलवे स्टेशन से बाहर कदम रखते ही कई रिक्शा चालक मेरी ओर ऐसे झपट पड़े जैसे मुझ अकेली सवारी को कई टुकड़ों में बांटकर अपनी-अपनी रिक्शाओं में ले जाएंगे।किसी ने मेरी अटैची कब्जा ली तो कोई मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा – 'हां बोलो बाबू! कहां जाना है?... घंटाघर, हज़रत गंज,बस अड्डे…?'

     'निशातगंज…जल्दी से पैसे बताओ?'

     'तीस रुपए…चलो पच्चीस दे देना!...बीस से कम तो बिल्कुल नहीं!'

     'दस रुपए दूंगा, तैयार हो तो चलो जल्दी! बहुत बार आता जाता रहता हूं, इससे ज्यादा कभी नहीं देता।'

     'तो फिर पैदल चला जा!' मेरी अटैची फेंक वे अभद्रता पर उतर आए। और दूसरी सवारियों की ओर बढ़ गये।

     तभी काली पैंट पहने और काला चश्मा लगाए एक युवक मेरी ओर बढ़ आया – 'आइए सरजी! मेरी रिक्शा में बैठिए! मैं ले चलूंगा आपको निशातगंज!'

     'तू भी खोल अपना मुंह,बोल कितने लेगा?' मेरे स्वर में किंचित आवेश का पुट मिश्रित हो आया।

     'जो चाहे वह दीजिएगा पर बैठ तो जाइएगा!' विनम्र स्वर के साथ अनुरोध भी।

     'तुम जाहिल गंवारों में यही तो खास बात होती है कि पहले तो बताएंगे नहीं, और फिर जेब खाली करने पर उतारू हो जाएंगे…या फिर झगड़ा करने लगेंगे। तुम रिक्शा वालों की फितरत से मैं बहुत अच्छी तरह परिचित हूं।' पहले वाले रिक्शा चालकों के अभद्राचरण से मेरे स्वर में स्वत: ही उत्तेजना मुखर होने लगी थी।

     युवक तब भी सहिष्णु बना रहा – 'सर!आप मुझे भी अन्य रिक्शा चालकों जैसा ही समझ रहे हैं। मैं उन जैसा नहीं हूं।आप निश्चिंत होकर बैठिएगा और जो उचित लगे दीजिएगा!न मन करे तो मत दीजिएगा! बिल्कुल नहीं झगड़ूंगा।'

     'चल फिर ! आठ से ज्यादा बिल्कुल नहीं दूंगा! तुम जैसे जाहिल गंवारों से निपटना मैं भी अच्छी तरह जानता हूं।'

     मैं बैठ गया। रिक्शा हवा से बातें करने लगा।साथ ही वह मुझसे निकटता बढ़ाने का प्रयास करने लगा – 'सर आप आए किस ट्रेन से हैं?...ट्रेन्स आजकल बहुत लेट चलने लगी हैं, बहुत टाइम बरबाद होता है यात्रियों का। पर कोई कहने सुनने वाला नहीं। कोई जिए या मरे, किसी का काम बने या बिगड़े, कोई है आवाज़ उठाने वाला? सर!इस देश में व्यवस्था नाम की कोई चीज है भला?सब कुछ राम भरोसे चल रहा है। अमेरिका और जापान में देखिए!सब कुछ निर्धारित रूप से संचालित होता है।समय का सम्मान करना जानते हैं वहां के लोग।तभी तो उन्नति कर रहे हैं वे देश।'

     वह देश की व्यवस्था पर प्रहार कर रहा था जबकि मुझे लग रहा था कि वह मुझ पर मक्खन लगाने का प्रयास कर रहा है। ताकि मैं उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर ज्यादा पैसे दे सकूं। मैं मन ही मन हंस पड़ा…बेटा चाहे तू कितनी भी बातें बना लें, पर मैं एक भी पैसा ज्यादा देने वाला नहीं…आठ रुपए कह दिए हैं तो आठ ही दूंगा। ज्यादा करेगा तो दो झापड़ रसीद करूंगा और चिल्लाकर भीड़ इकट्ठी कर लूंगा…स्साले बेइमान कहीं के…

     'वैसे सर आप निशातगंज में जाएंगे कहां?' पैडिल पर पैर मारते-मारते उसने पूछा तो मैं अपनी सोच से बाहर निकल झुंझला सा पड़ा– 'जहन्नुम में जाऊंगा,बोल पंहुचा देगा? अकारण चख-चखकर मेरा दिमाग खाए जा रहा है? क्या मतलब है फालतू बातें करने का?'

     वह कुछ बुझ सा गया – 'सर मैं इसलिए पूछ रहा था कि निशातगंज तो आ गया है, आपको जहां जाना हो वहां तक पंहुचा देता और आपका सामान भी उतार देता। सवारी पैसे देती है तो हमारा भी कर्तव्य बनता है कि उसे कोई कष्ट न होने दें,न कोई परेशानी होने दें। सारे रिक्शा वाले एक जैसे नहीं होते सर!'

     गन्तव्य पर पंहुच मैंने उसे दस का नोट दिया तो दो रुपए वापस करते हुए उसने सिर को हल्का सा झुकाते हुए कहा – 'मेरी रिक्शा में बैठने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर!'

     आश्चर्य से जड़ रह गया मैं…आजतक किसी रिक्शा चालक में ऐसी विनम्रता, ऐसी शालीनता, ऐसी शिष्टता कहीं देखने को न मिल सकी थी मुझे। मेरी हैरतभरी निगाहें उसकी मुरझायी सी आंखों से टकरायीं तो उन आंखों में जलकण झिलमिला उठे – 'इस देश की भ्रष्ट व्यवस्था ने मुझे रिक्शा चलाने को मजबूर कर दिया सर! वरना कैमिस्ट्री से एम एस सी में फर्स्ट क्लास हूं मैं।दो बार चयन आयोग की परीक्षा में चुना गया पर नियुक्ति पाने के लिए न तो पैसा था जेब में और न ही सिफारिश थी।अतएव साक्षात्कार में असफल घोषित कर दिया गया।सिर पर बूढ़ी मां और दो बहनों का भार…आजीविका तो चलानी ही थी। रात्रि को ट्यूशन पढ़ाता हूं और दिन में रिक्शा चलाता हूं। और इसी में से समय निकालकर एम फिल की तैयारी भी कर रहा हूं।'

     आत्म ग्लानि की ज्वाला में झुलस उठा मैं…मुझे उसके साथ ऐसा अशिष्ट और आक्रोशित आचरण नहीं करना चाहिए था। मैंने जेब से सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा – 'अपनी मां व बहनों के लिए मिठाई फल वगैरह लेते जाना!'

     उसने हाथ जोड़ दिए– 'सर! गरीब जरूर हूं पर भिक्षुक नहीं। परिवार के जीविकोपार्जन योग्य कमा ही लेता हूं…नमस्कार!!'

    मेरी दंभ भरी मानसिकता को दर्पण दिखा रिक्शा मोड़ बड़ी तीव्रता से वह वापस चला गया। किंतु मैं न जाने कब तक इस देश की भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार उस स्नातकोत्तर रिक्शा चालक की विवशता के मकड़जाल में उलझा रहा।

✍️डॉ अशोक रस्तोगी 

अफजलगढ़ 

बिजनौर 

उत्तर प्रदेश, भारत





गुरुवार, 25 अगस्त 2022

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर ) निवासी साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी का एकांकी ...शठे शाठ्यम समाचरेत्


पृष्ठभूमिसिंहावर्त नामक सघन वृक्षों वाला रमणीक महावन…ऊंची-ऊंची पर्वत श्रंखलाओं, नदियों, स्वच्छ पानी वाले जलाशयों और सुंदर सुगंधित पुष्पों लताओं से परिपूर्ण…हर ओर मनमोहक हरियाली…विशालकाय पत्थर, गुफाओं और सुरंगों की बहुलता।

पात्र परिचय :

तानिया बिल्ली     –   वनमाता

मनशेरा शेर          –   कठपुतली राजा

कुटिलरुप भेड़िया   –  निकटवर्ती राज्य कूटिस्तान का शासक

बाघेन्द्र बाघ        –     वनखण्ड प्रभारी

  :   परिदृश्य एक   :

उद्घोषककिसी समय सिंहावर्त नामक महावन में जीवा नामक बिलाव शासन करता था। किन्तु उसकी नीतियों से असंतुष्ट कुछ उग्र व हिंसक जन्तुओं ने उसकी हत्या कर दी थी। तब उसके चाटुकारों ने उसकी राजकाज में अनुभवहीन पत्नी तानिया नामक बिल्ली को सिंहासनासीन करने की भरसक चेष्टा की। किन्तु तानिया ने वनहित में त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए मनशेरा नामक एक ऐसे बूढ़े शेर को सत्तासीन कर दिया जो वंश से तो शेर था किन्तु स्वभाव व प्रवृत्ति से किसी मूषक की भांति कातर और मूकबधिर जैसा था। शायद तानिया ने उसे इसीलिए कठपुतली के रूप में राजा बनाया था। और वह त्याग की प्रतिमूर्ति बन परदे के पीछे से महावन पर अपना शासन चलाने लगी…

     एक दिन मनशेरा वनमाता तानिया के तमाम सुख साधनों से भरपूर भव्य राजगुफा में पहुंचता है…और

मनशेरा (करबद्ध अभिवादन की मुद्रा में नतमस्तक) – वनमाता की सदा ही जय हो!

वनमाता (आशीर्वचन की मुद्रा में दायां हाथ ऊपर उठाते हुए)-- हां बोलो मनशेरा! क्यों इतने घबराये हुए हो?

मनशेरा – वनमाता! कूटिस्तान के राजा कुटिलरूप ने हमारे महावन में बहुत उत्पात मचा रखा है।

वनमाता (चौंकते हुए) – कौन कुटिलरूप? कौन कूटिस्तान?... पहले तो तुमने कभी ये नाम लिये नहीं?

मनशेरा – वनमाता! यह वह वन है जो कभी हमारे ही महावन का एक भाग हुआ करता था , किंतु अब वह अलग स्वतन्त्र वन कूटिस्तान बन गया है उसी का राजा है कुटिलरूप भेड़िया।

वनमाता – किस मूर्ख ने किया उसे हमारे महावन से अलग? क्या कोई सजा दी गई उसे?

मनशेरा – वनमाता! उसे तो कोई सजा नहीं दी गई, किन्तु उसके किए की सजा हमारा महावन अवश्य भुगत रहा है।

वनमाता – आखिर किसके दिमाग में वह कीड़ा कुलबुलाया था जो इस महावन से एक खण्ड काटकर इसे छोटा कर दिया गया? कौन बुद्धिहीन था वह?

मनशेरा (तनिक झिझकते हुए)– अतीत की बड़ी लम्बी और शर्मनाक कहानी है वनमाता!...सुनाते हुए संकोच भी होता है और भय भी लगता है कि कहीं आप कुपित न हो जाएं।

वनमाता – बिल्कुल मत डरो मनशेरा! और संकोच भी मत करो! सब कुछ साफ़ साफ़ बताओ!

मनशेरा (भयाक्रांत स्वर)-- वनमाता! किसी समय में यह सिंहावर्त नामक महावन क्षेत्रफल व समृद्धि की दृष्टि से अत्यधिक विशाल था। किन्तु आपके पति जीवा के एक सदाशय पूर्वज ने अपने किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने मित्र किसी भेड़िए को इस महावन का एक छोटा सा खण्ड उपहार स्वरूप प्रदान कर दिया था।तब से अब तक वहां भेड़िए ही शासन करते आ रहे हैं। आजकल वहां कुटिलरूप नामक एक निकृष्ट स्वभावी भेड़िया अधिपत्य जमाए हुए है। उसकी लोलुप दृष्टि हमारे महावन पर लगी हुई है।उसका दिवास्वप्न है कि वह हमारे सिंहावर्त व अपने कूटिस्तान को मिलाकर अपना साम्राज्य स्थापित करे। इसीलिए वह हमारे सिंहावर्त में अपने भेड़ियों द्वारा विध्वंस व उत्पात मचाता रहता है।

वनमाता – तो उससे हमें क्या हानि है?

मनशेरा (किंचित्आवेश में)-- वनमाता! वह हमारे वनवासियों का बहुत प्रकार से उत्पीड़न कर रहा है। हमारे तमाम जीवजंतु मारे जा रहे हैं। वनसम्पदा नष्ट की जा रही है।नदी नालों का पानी रक्त से लाल व दूषित किया जा रहा है।

वनमाता – तो उसके कुकृत्यों से हमें क्या हानि है?... हमारी समझ में यह बात नहीं आ पा रही?... वह हमारी प्रजा का ही तो शोषण कर रहा है हमारा तो नहीं।…बस इतना ध्यान तुम्हें अवश्य रखना है कि उसके कारण हमारे सुखोपभोग में कोई कमी न आने पाए।

मनशेरा – इतनी व्यवस्था तो हमने पहले ही कर रखी है। हमने चीते,हाथी, जिराफ़ व ऊंट को महावन की सीमाओं पर नियुक्त कर रखा है। परंतु वनमाता!कुटिलरूप भेड़िया इतना कुटिल है कि उसने साही के द्वारा महावन व कूटिस्तान के मध्य आर पार सुरंगें बनवा ली हैं। और विभाजन के समय जो भेड़िए यहां रह गये थे उनका आश्रय लेकर विध्वंस मचाता रहता है। तथा उन्हें यह कहकर उत्साहित करता रहता है कि अभियान जारी रखो! वह दिन दूर नहीं जब महावन सिंहावर्त में भी एक छत्र भेड़ियों का साम्राज्य स्थापित होगा।

वनमाता (आंखें विस्फारित करते हुए)-- ओह ऐसा हुआ?... यह तो बहुत ग़लत है…फिर तुमने क्या किया उसका अभियान रोकने के लिए?

मनशेरा – हमने उसे कठोर चेतावनी दी है कि कुटिलरूप जी! हमारे धैर्य की परीक्षा मत लीजिए! हम आपसे डरने वाले नहीं हैं,अपना विध्वंसक अभियान तत्काल रोक दीजिए! वरना हम आपकी ईंट से ईंट बजा देंगे।

वनमाता – तो उस पर क्या प्रतिक्रिया हुई तुम्हारी धमकियों की? क्या उसका अभियान रुक पाया?

मनशेरा – नहीं वनमाता!उसका तो दु:साहस निरंतर बढ़ता जा रहा है। उसने तो हमें ही ललकार दिया कि अरे जा-जा कठपुतली राजा! उस बिल्ली की गोद में बैठकर गीदड़भभकी देने वाले तुझ जैसे भीरू राजा से डरकर हम कभी पीछे हटने वाले नहीं।

वनमाता – पता नहीं क्यों मनशेरा! हमें इन भेड़ियों से कुछ विशेष प्रेम है, उनके अनिष्ट से हमारा हृदय रोता है। जबकि खरगोश,हिरण,सांभर, नीलगाय जैसे निरीह जन्तुओं से हमें नफरत है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये हमारे महावन पर बोझ हैं। और ये यहां से निकलकर किसी और वन में चले जाएं…

     …खैर तुम अपनी गुफा में जाकर विश्राम करो!हम अपने परामर्शदाताओं से विचार विमर्श कर कोई ऐसी राह निकालेंगे कि इन भेड़ियों को भी कोई क्षति न पहुंचे और हमारे सुखोपभोग में भी कोई बाधा न पड़े।

    ( मनशेरा वनमाता के चरणों में तीन बार शीश झुकाकर किसी पंखकटे पक्षी की तरह छटपटाता हुआ रुआंसे मन से वापस लौट जाता है)


उद्घोषक : फिर एक रात्रि को कुटिलरूप ने बहुत सारे भेड़ियों के साथ सीमा पर बनाई गई सुरंगों से घुसकर सिंहावर्त पर आक्रमण कर दिया। वीभत्स जन्तु संहार करते हुए उसने बहुत भीतर तक प्रवेश कर लिया। मनशेरा को सूचना मिली तो  वह अपने कातर स्वभावानुसार कुटिलरूप की अभ्यर्थना करने जा पहुंचा…

मनशेरा (कुटिलरूप की ओर मैत्री भरा हाथ बढ़ाते हुए) – सिंहावर्त की सुसमृद्ध धरती पर आपका अभिनन्दन है माननीय महोदय! 'अतिथि देवो भव:' हमारी परंपरा रही है। एक अतिथि के रूप में आप जब तक चाहें तब तक यहां रहें! परंतु हमारे जंतुओं को कोई हानि न पहुंचाएं! वे हमसे शिकायत करने आ जाते हैं तो हमारी शासकीय क्षमता पर प्रश्न चिन्ह उठ खड़े होते हैं। बात वनमाता के कानों तक जा पहुंचती है तो हमें उनका कोपभाजन बनना पड़ता है।

कुटिलरूप (अपने सेनापति के कानों में फुसफुसाते हुए)-- इस शेर की बुद्धिहीनता का भी कोई जवाब नहीं। शत्रु का भी कैसा भावभीना सत्कार कर रहा है। बेवकूफ कहीं का।

मनशेरा – सम्माननीय महोदय! धीरे-धीरे क्या कह रहे हैं आप? कुछ हमें भी तो पता चले?

कुटिलरूप – तुम्हारी सादगी और प्यार भरे आतिथ्य तथा इस महावन की सुंदरता ने हमारा मन मोह लिया है। मन करता है कि इस महावन को भी हम अपने कूटिस्तान में ही मिला लें। तुम भी वहीं चलकर रह लेना!... इस प्रस्ताव के संदर्भ में क्या कहते हो तुम?

मनशेरा (मंद-मंद मुस्कराते हुए)-- परिहास बहुत अच्छा कर लेते हैं आप। हंसी मजाक हमें भी बहुत पसंद है।

कुटिलरूप  (अपने सेनापति से धीमें स्वर में)--  जहां का राजा नीति निपुण न हो , जिसे शत्रु मित्र की लेशमात्र भी पहचान न हो, जो शत्रु से भी प्रेमपगा व्यवहार करता हो– ऐसे राजा के राज्य पर अधिपत्य जमा लेने में लेशमात्र भी बाधा नहीं आ सकती।

उद्घोषक  : और कुछ ही समय में देखते ही देखते सिंहावर्त महावन में कूटिस्तान के भेड़ियों ने उत्पात मचा दिया। वहां के मूल निवासी सांभर, नीलगाय, चीतल, चिंकारा, खरगोश,ज्ञ हिरण आदि निरीह जन्तुओं का सफाया किया जाने लगा। सम्पूर्ण महावन में करुण क्रंदन और चीत्कार के स्वर…जिधर भी देखो उधर हिंसा का भयावह ताण्डव…आतंक का नग्न नर्तन।

     परंतु सिंहावर्त का कठपुतली राजा मूक,मौन और बधिर था…शायद उसे वनमाता के किसी आदेश की प्रतीक्षा थी।

                    ( परदा गिरता है )

                : परिदृश्य क्रमांक दो   :

उद्घोषक : सिंहावर्त के एक लघुखण्ड का प्रभारी बाघेंद्र नामक बाघ बहुत शक्तिशाली, स्वाभिमानी और वीर था…खण्ड के जंतुओं की रक्षा के लिए सदैव सतर्क और सन्नद्ध…कूटिस्तान के भेड़िए जब उपद्रव मचाते हुए उसके खण्ड तक जा पहुंचे तो वह रौद्रमुखी बन गया…अन्य हिंसक जन्तुओं के सहयोग से उसने उन्हें तत्काल मार भगाया। और अगले ही दिन उसने अपने सेनापति व अन्य परामर्शदाता जंतुओं की एक सभा की…

बाघेंद्र (परामर्शदाताओं से)-- यह सोचकर मेरे मस्तक पर चिंता के साये लहराने लगे हैं कि पड़ोसी वन के जन्तुओं का हमारी सीमा में घुस आने का दु:साहस कैसे हुआ? क्या हमारे महावन का राजा इतना भीरू,कायर और ओजविहीन है कि अपने राज्य में घुस आए शत्रुओं का प्रतिकार नहीं कर सकता?

चीता– ऐसे डरपोक और शक्तिहीन राजा को राज करने का कोई अधिकार नहीं।उसे तो एक पल भी सिंहासनारूढ़़ नहीं रहने देना चाहिए।

बाघेंद्र (क्रांति का बिगुल बजाते हुए)-- जिस राजा को अपनी प्रजा के हितों की चिंता न हो,जो शत्रुओं से अपनी प्रजा की रक्षा करने में सक्षम न हो– उसे शासन करने का कोई अधिकार नहीं।…तो आइए मेरे साथ…सत्ता परिवर्तन के लिए क्रांति की मशाल लेकर सब साथ-साथ चलें!

चीता, तेंदुआ,भालू,गुलदार (उत्साहित समवेत स्वर)-- बाघेंद्र जी संघर्ष करो!हम तुम्हारे साथ हैं।

बाघेंद्र– साथियों! हम शठे शाठ्यम समाचरेत् युद्ध नीति के अनुसार अपने महावन में अवैध रूप से घुस आए भेड़ियों को चुन-चुनकर मारेंगे और सारे वनद्रोही व धूर्त जंतुओं का भी सफाया करेंगे। तत्पश्चात पर्वतों पर अनधिकृत रूप से वास कर रहे कूटिस्तान के गुप्तचर सियार, लोमड़ी,साही, ऊदबिलाव आदि को चीर फाड़ डाला जाएगा।

चीता तेंदुआ – परंतु अपने महावन के राजा मनशेरा और वनमाता से मुक्ति कैसे मिलेगी? जिन्होंने अपनी स्वार्थांधता और कातरता से इस महावन के गौरवशाली इतिहास को कलंकित कर दिया।

बाघेंद्र– मैंने सिंहावर्त महावन के सर्वविधि संरक्षण और सर्वांगीण उन्नति की शपथ ली है तो मैं अपने इस संकल्प को अवश्य पूर्ण करके रहूंगा। बस आप सब मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहिए!आज से *सबका साथ सबका विकास* मेरा लक्ष्य है।

      (बाघेंद्र महाराज की जय हो!... बाघेंद्र महाराज की जय हो!! – उद्घोष से आकाश गुंजाते हुए सारे जीव जंतु तत्क्षण उठ खड़े होते हैं और बाघेंद्र के पीछे पीछे चल पड़ते हैं )

उद्घोषकमहावन के जीव जन्तु मनशेरा के मौन व अकर्मण्यता से रुष्ट व क्षुब्ध तो थे ही, अतएव बाघेंद्र के नेतृत्व में सिंहावर्त में एक नई क्रांति का सूत्रपात करने एकजुट होकर निकल पड़ते हैं। और मनशेरा की राजगुफा पर धावा बोल उसे सत्ताच्युत कर बाघेंद्र को राजा घोषित कर देते हैं।

 ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़ ,बिजनौर

मो. 8077945148/9411012039