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::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी, 8,जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
दयानन्द गुप्त जी मुरादाबाद के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ अधिवक्ता थे। सन 1943 में प्रकाशित उनके काव्य संकलन "नैवेद्य" को पढ़ कर आश्चर्य होता है कि एक भावी अधिवक्ता की हिन्दी साहित्य में कितनी गहरी पैठ थी। 1943 के आसपास का समय वह समय था, जब हिन्दी साहित्य में छायावाद के तिरोभाव के पश्चात, प्रगतिवाद जन्म ले चुका था। यद्यपि श्री गुप्त जी ने स्वयं "नैवेद्य" के भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि "मुझे आप 'छायावादी' या 'प्रगतिवादी' कवियों की श्रेणी में बिठलाने की अनधिकार चेष्टा न करें " , परंतु फिर भी उक्त काव्य संग्रह में कवि की भाव, अनुभूति, भाषा, अभिव्यक्ति में छायावाद का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। नैवेद्य काव्य संग्रह में 52 गीतों/ कविताओं का संकलन है, जो खड़ी बोली व गेय शैली में लिखे गए हैं।परम्परागत अलंकारों के साथ ही पाश्चात्य अलंकारों, मानवीकरण, विशेषण विपर्यय और ध्वन्यर्थ व्यंजना का भी प्रयोग देखने को मिलता है।भाषा में लाक्षणिकता और कोमलकान्त पदावली का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।
गुप्त जी छायावादी कवियोँ की ही तरह व्यक्तिवादी कवि हैं, जिन्होंने भाव, कला और कल्पना के माध्यम से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इन गीतों में की है। “तुम क्या”, “स्मृति”, “प्रेयसी” जैसी रचनाओं में गुप्त जी के प्रेमी का उसकी प्रियतमा के प्रति प्रेम स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है, इनमें बाह्य सौंदर्य की नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाओं की अभिव्यक्ति की गयी है-
तुम क्या जानो प्रिय तुम क्या हो ?
सुषमा की भी प्रिय उपमा हो ।
कितनी भावतिरेकित करने वाली पंक्तियाँ हैं, देखिये-
प्रिय को क्या न दिया, हृदय ओ ।
प्रिय को क्या न दिया ?
उर सिंहासन पर आसन दे
फिर दृग जल अभिषेक किया ।
ये पंक्तियां अनायास ही राज्याभिषेक का दृश्य मूर्त कर देती हैं। कवि ने अपने हृदय सिंहासन पर अपनी प्रियतमा को आसीन कर दृग जल से उसका अभिषेक किया है, अब वही उसके हृदय की मल्लिका है।
छयावादी कवियों की प्रणय कथा असफलता में पर्यवसित होती है, अतः उनके विरह में सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं का हृदय विदारक चित्रण मिलता है। गुप्त जी की रचनाओं में भी प्रेम का चित्रण मानसिक स्तर पर होने के कारण मिलन की अनुभूतियों की अपेक्षा विरहानुभूति का व्यापक चित्रण मिलता है।
“ विरहगान”, “मिलन”, “प्रेयसी से”, “प्रश्न” जैसी रचनाओं में विरह की इसी प्रकार की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की गई है-
विरह करता झुलस मरु सा
प्राण की निर्जीव निधियाँ,
मिलन भर देती उन्हीं में
स्रोत सुखमय सुरँग सुधियाँ
× × × × × × × × × × ×
प्रीति यहाँ सखि फूस तापना
क्षण में लगी, बुझी क्षण में फिर।
विरह की अग्नि मरु भूमि की तरह झुलसा देती है, तो मिलन जीवन को खुशियों से सतरंगी बना देता है, फूस का स्वभाव ही है क्षण भर में आग पकड़ना और तुरंत ही बुझ जाना ।
कुछ क्षण का संयोग शाप है,
लगता विरह समान खटकने,
किस तरंग ने हमें मिला कर
छोड़ उदधि में दिया भटकने।
क्षणिक संयोग के फलस्वरूप विरह के समुद्र में असहाय भटकना कितना मर्मान्तक होता है । जैसे प्यासे को दिया गया एक घूँट पानी उसकी प्यास और बढ़ा देता है, उसी प्रकार क्षण भर का मिलन विहाग्नि और अधिक उद्दीप्त कर देता है।
हे प्रिय,
यौवन के कितने मर्मों को
छल विनोद में समझाती तू।
तप पर वर देने वाली सी
आती तू, फिर छिप जाती तू ।
प्रेमी का प्रेम एक तपस्या से कमतर नहीं है, जैसे किसी तपस्वी के तप से प्रसन्न हो उसका आराध्य उसे वर दे कर विलुप्त हो जाता है और साधक अपने आराध्य की स्मृति में व्यथित होता है, वैसे ही हे प्रिय तुम भी यौवन की उद्दात भावनाओं को जागृत कर विलुप्त हो जाती हो।
एक और प्रयोग देखिये-
बाँधो , भागा जाता यौवन।
समय, जरा का देख आगमन।
कब तक रुके ऋणी का वैभव
ब्याज सहित होगा चुकता सब
मानो यौवन ऋण है, जिसे ब्याज सहित चुकाते चुकाते व्यक्ति बुढ़ापे के द्वार तक पहुँच जाता है।
इस काव्य संग्रह में प्रकृति की भी अद्भुत छटाएँ देखने को मिलती हैं। गुप्त जी के प्रकृति चित्रण पर भी छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे प्रकृति का मानवीकरण हो या कोमलकान्त पदावली का प्रयोग या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग या सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमान या स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान।
छायावादी कवियों की ही भाँति गुप्त जी भी प्रकृति में नारी रूप देखते हैं और उसमें सम्भवतः प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का भी अनुभव करते हैं। प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों में उन्हें किसी नवयौवना की विभिन्न चेष्टायें दृष्टिगत होती हैं। प्रकृति पर नारी चेतना का आरोप करते हुए गुप्त जी ने रात्रि व्यतीत होने व उषा के आगमन इस प्रकार चित्रण किया है-
उन्मुक्त गगन के चरण तले
अर्चन कर पल्लव पुष्प चढ़ा,
लुक छिप तुहीनों की लघुता में
निशि चली, आरती दीप बढ़ा,
घबरा डगमग पग बसन हिले।
बाजे नूपुर रुन रणन कणन,
संकुचित तन स्वेदित शरम शिथिल,
छूटी चंगेरी कुसुमों की
दोलित उरोज, द्रुत श्वास अनिल,
सौरभ के संयत खुले केश।
उपरोक्त छंद में “बाजे नूपुर रुन रणन कणन” अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण विशेष सौंदर्य लिए हुए है।
उन्मुक्त गगन में चारों ओर सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश प्रकृति को सराबोर कर रहा है। रात्रि में गिरी ओस की बूँदेँ उगते सूर्य के ललिमा युक्त किरणों का स्पर्श पाकर जैसे हिमकण में परिवर्तित हो चमकने लगती हैं।उषा रूपी नायिका नया सवेरा नई आशायें ले कर आती है।
नभ का कवि कल कण्ठ खुला,
कहती दिशि दिशि गा कोकिला,
उठ, उर उर की प्रिय कमला,
देखी प्राची ने लिया पहन,
तुङ्ग शुभ्र शारद शिखरों पर,
किरणों का कंचन हार निकर।
अम्बर के सीमान्त देश में,
शुभ सुहाग की रेखा सी,
मृदुल कपोलों पर लज्जा के
शत शत चुम्बन लेखा सी
× × × × × × × × × ×
सजनि! सुषुप्त विश्व के मुख ओर
अंकित कर तुहिनिल चुम्बन,
छिटकाती त्रिभुवन-अंचल में
हिमकन सी निज शुचि छविकन।
× × × × × × × × × ×
ऐ प्रभात सन्ध्ये! नव आशे!
उस अनन्त की छाया सी,
मौन सिन्धु के नील अंक में
सांध्य सुनहरी माया सी ।
शिशिर ऋतु की प्रातः में उदित सूर्य की हल्की गर्माहट लिए भीनी भीनी स्वर्णिम किरणें मानों प्रकृति को पीले रेशमी वस्त्र से आवृत कर देती हैं , देखिये--
अयि रस रंगिणि! शिशिर प्रात में
डाल घना मानिक , घूँघट,
रंगरलियाँ करती, निदाघ में
पहन रेशमी पीला पट।
सन्ध्या हो चुकी है, रात्रि का अवतरण हो रहा है, सन्ध्या की ललिमा मानों रात्रि रूपी नायिका की मेहँदी है और धीरे धीरे घिरने वाला अंधकार उसकी नीली साड़ी है, सुन्दर चित्रण--
प्राची में मन्द मन्द चुप चुप
घन नील आवरण रजनी,
लख सन्ध्या तन नूतन मेहँदी
बौरी सी उठी अनमनी।
× × × × × × × × ×
हंसता आया नव वयस इन्दु
मानिनी यामिनी विमना
नमित नयन, अखिली कलिका
निश्छल छवि सी मौन मना ।
वर्षा ऋतु की काली मेघमयी रात्रि , मानों वर्षा रूपी नायिका अपने काले मेघ रूपी सर्पों जैसे केशों को खोल कर अभिसार कर रही हो और वे विषधर सर्प इस ऋतु में यदा कदा दिखने वाले सुधामय चन्द्र से सुधा का पान करने हेतु अग्रसर हों ---
व्योम छाए मेघ काले
यामिनी ने खोल कुन्तल
आज विषधर नाग पाले
कर रहे शशि पात्र से पय सुधा का सुख पान ।
शरद ऋतु सबसे सुहानी ऋतु होती है। वर्षा ऋतु के चार मास बीत जाने पर सारी प्रकृति साफ सुथरी दिखती है, धूल कहीं दिखाई नहीं देती, चारों ओर पुष्प खिल उठते हैं। शरद ऋतु की रात्रि भी सुहानी हो उठती है, चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से युक्त हो कर पृथ्वी पर श्वेत चाँदनी बिखेरने लगता है। उस दुग्ध धवल शारदीय रात्रि का चित्रण गुप्त जी ने निम्न प्रकार से किया है --
उग उठे शत श्वेत सरसिज,
हँसी राका शारदीया,
अंग उपजा रजत मनसिज,
दुग्ध की सित सीप से निशि आज धोइ जान ।
उषाकाल व रात्रिकाल के अतिरिक्त कुछ ऋतुओं का वर्णन भी गुप्त जी ने किया है। ग्रीष्म के लम्बे, लू से तपते दिन, धरती पर अंगारे बरसते हैं और पृथ्वी के जीवन - रस जल को सोख लेते है--
तपते धूमिल भू, दीर्घ दिवस,
लेते लपेट लू केश-विवश,
सूखी काया औ जीवन रस
जल उठा वर्ष का विगत विभव
कर जेठ चिता पर हा हा रव,
नभ में अंगार ज्वार धाये।
ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु का आगमन होता है, नभ जो ग्रीष्म में अंगारे बरसा रहा था, पूरी धरती को जलमय कर देता है, चारों ओर हरियाली छा जाती है, ऐसा लगता है, जैसे वर्षा रूपी नायिका हरित पताका ले कर भ्रमण पर निकली हो। ऐसी पावस ऋतु का मनोहारी दृश्य देखिये-
वायु उपद्रव आज रच रहा,
बिछी सजल रपटन मग री
हरित केतु ले चली रूपसी,
फिसल न जाये कहीं पग री,
अनिल प्रकम्पित तन थर थर।
पावस पुलकित गात न कर।
मृत्यु सृष्टि का चिरन्तन सत्य है, इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दिन मृत्यु के आगोश में सोना ही पड़ता है, मृत्यु बिना किसी भेदभाव के सभी को अपने अंतर में समेट ही लेती है, इसी भाव को गुप्त जी ने “मृत्यु के प्रति” कविता में व्यक्त किया है-
इसके सम्मुख सबकी समता,
हो निर्धनता या हो प्रभुता
योगी, भोगी, सबसे ममता।
× × × × × × × × × ×
शत द्वार द्वार पर पा कर भी
भरती न कभी इसकी झोली,
कैसी भिक्षुका हठीली यह
टलती न कभी इसकी टोली।
जीवन के कुछ अन्य चिरंतन सत्यों को भी इस काव्य संग्रह में स्थान मिला है। एक विधवा के एकाकी व शापित जीवन का हृदयविदारक चित्रण “विधवा के प्रति” कविता में मिलता है-
सुख का प्रकरण परित्यक्त हुआ,
दुख परिधि बढ़ी, परलोक बसा,
उजड़ी नगरी उर की सुन्दर,
पतझर चिर घेरा डाल हंसा ।
× × × × × × × × × × ×
एकाकी जीवन, बिन सम्बल,
यात्रा सुदुर, पर घाट नहीं,
पतवार नहीं, रखवार नहीं,
नभ का तारक आधार नहीं।
माँ का स्थान हम सभी के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व रखता है, माँ प्रेम का स्रोत है, माँ प्रथम गुरु है, माँ संतान को संस्कारित करती है आदि आदि। इन्हीं सब भावनाओं को गुप्त जी ने भी अपनी रचना “माँ के प्रति” में व्यक्त किया है-
माँ शुभे स्नेह की आदि स्रोत
अविरल अस्वार्थ, निर्मल अजस्त्र,
आदर्श भावना भाव भूति
कल्याण मूर्ति, वरदान हर्ष।
माँ श्रेष्ठ प्रथम गुरु शिशु जग की
नव प्रकृति प्रगतियों की धात्री।
शिशु मन की चेतन रचना के
चित्रों के रंगों की दात्री।
गुप्त जी अपनी मातृभाषा हिन्दी का बहुत सम्मान करते थे। यद्यपि वे अंग्रेजी के भी प्रकांड पण्डित थे, परन्तु हिन्दी का उनके जीवन में विशिष्ट स्थान था, उनकी साहित्यिक रचनाएँ, काव्य व कहानी, इस तथ्य का प्रमाण हैं। गुप्त जी के छयावादी मूर्धन्य कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से गहरे सम्बन्ध थे।गुप्त जी के कहानी-संग्रह “मंजिल” की भूमिका निराला जी ने ही लिखी थी। उन्होंने लिखा-
“दयानन्द जी गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद हैं, आज के सुपरिचित कवि और कहानी लेखक; मुझ से मिले थे, तब कवि और कलाकार के बीज में थे। …….बीज आज लहलहाता हुआ पौधा है। वकालत के पेशे की जटिलता में इनके हृदय की साहित्यिकता नहीं उलझी, यह अंतरंग प्रमाण बहिरंग कहानियों के संग्रह के रूप में मेरे सामने है।”
निराला जी के पत्र व चित्र आज भी गुप्त जी के सुपुत्र श्री उमाकान्त गुप्त जी के पास संरक्षित हैं। उसी माँ भारती के प्रति अपने उद्गार गुप्त जी ने इस प्रकार प्रकट किए हैं-
गीतों के मुक्ता बिखरा कर
माँ अंचल तेरा मैं भर दूँ
जीवन के मंजुल प्रभात में।
कर्ण -विवर में मद निर्झर भर,
माँ ओतप्रोत तुम को कर दूँ,
स्वर लहरी के मधु -प्रपात में
गुप्त जी के समय में संदेशों के आदान-प्रदान के लिए प्रचुर संख्या में टेलीफोन व मोबाइल तो थे नहीं, पत्र व्यवहार ही वन साधन था, जिसके माध्यम से अपनों की कुशल- क्षेम ज्ञात हो पाती थी। प्रेम- संदेश भेजने व प्राप्त करने का भी एकमात्र साधन डाकिया ही था। डाकिये की सभी को प्रतीक्षा रहती थी और डाकिया भी पूरी ईमानदारी से सभी के पत्रों को उन तक पहुंचाता था। गुप्त जी की दृष्टि भी तत्कालीन समाज के ऐसे महत्त्वपूर्ण किरदार पर पड़ी और उन्होंने उस पर भी एक कविता की रचना कर दी। प्रगतिवाद के प्रभाव को रेखांकित करती गुप्त जी की यह रचना है “डाकिया”, जिसमें उन्होंने डाकिये का जैसे शब्द-चित्र ही उकेर दिया है, साथ ही भाव- व्यंजना भी अद्वितीय है-
कितने उर के उद्गार लिए,
कितने रहस्य आभार लिए,
सन्देशों के ऐ नित वाहक!
तुम मेघदूत का कार्य किये!
× × × × × × × × × ×
सुरमई आँख, खाकी वर्दी,
आँखों पर लगी एक ऐनक,
हो कलम कान पर रखे हुए,
चमड़े का थैला लटकाये
घुटनों तक तुम पट्टी बाँधे,
पहने रहते देशी जूता,
भय से न तुम्हें छेड़े कोई,
लख उड़ जावे साहस बूता ।
गुप्त जी ने अपने यौवनकाल में जिस प्रकार के जीवन की कामना की थी, ईश्वर ने उनकी “विनय” सुन कर उन्हें उसी प्रकार का जीवन प्रदान किया । आज भी वे यश रूपी शरीर से हम सब के बीच जीवित हैं और उनके आत्मीयजन आज भी उन्हें अश्रुपूरित नेत्रों से स्मरण करते हैं-
प्रभु हो मेरा ऐसा जीवन।
रोता आया मैं इस जग में
हर्षित हँसते थे प्रियवर,
हँसता जाऊँ इस जीवन से
रोवे स्नेह अधीर जगत भर,
रहूँ विश्व की स्मृति में पावन।
कृति : नैवेद्य (काव्य)
प्रकाशक : प्राविंशियल बुक डिपो, चौक, इलाहाबाद
प्रथम संस्करण : वर्ष 1943
समीक्षक : डॉ. स्वीटी तलवाड़, पूर्व प्राचार्या, दयानन्द आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
उनकी कविताओं में से विशेष रूप से कुछ रचनाओं की पंक्तियां यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जो उनके भीतर के साहित्यकार को परिभाषित करने में सक्षम हैं।
एक यही तो है स्वतंत्र जन नगरी
कौन मनुज काया को कहता कारा
हमें सर्वहितकारी सक्रियता से
लेना है पल पल का लेखा जोखा
विश्व व्यथा से सतत संग रखने को
रखना रोम रोम का खुला झरोखा
होने और न होने से जीवन के
बड़ा तथ्य निश्चित गंतव्य हमारा।
इसी रचना में आगे कहते हैं:
जन बलिदान मूल्य पर जनमत पाना क्षम्य नहीं
इसमें छिपी हुई हिंसा से जनपद मरता है।
इन पंक्तियों में वह सत्ता पाने के लिये हिंसा का सहारा लेने वाली राजनीति को भी चेतावनी देते दिखाई देते हैं।साथ ही सत्ता की दमनकारी नीतियों के कारण उत्पन्न परिस्थितियों का जीवंत चित्रण इन पंक्तियों में भी परिलक्षित होता है:
कहीं भूखों ने लूटा नाज
आग उगली पिस्तौलों ने
कहीं दंगों में जन निर्दोष
भून डाले पिस्तौलों ने
समाज में सफल और समर्थ वर्ग की अर्थपिपासा, संवेदन शून्यता, परिवारों का विघटन, इन सभी परिस्थितियों को अत्यंत मार्मिक तरीके से उन्होंने व्यक्त किया है। देखें ये पंक्तियां:
जाने कब सबलों की विजय पिपासा
बूंद बूंद जल सागर का पी जाये
शेष स्नेह में संवेदना नहीं है
परिवारों की चौखट चटख रही है
प्रेतों की छवियां समाज पर उभरी
आकृति बदल गयी है चित्र वही है
इसके परिणाम भी उन्होंने इन पंक्तियों में दर्शाए हैं:
लोक प्रगति को अवसादों ने घेरा
विश्व शांति का मुँह अशान्ति ने फेरा।
साथ ही साथ अपनी रचनाओं में उन्होंने समाज को शिक्षा भी दी है:
बोलो दो बोल किन्तु मधुर मधुर बोलो
रस में विष तीसरे वचन का मत घोलो।
और आने वाले समय के लिये आगाह भी किया है :
राज्य के महोत्सव सब राजसी होंगे
और जन अभावों की यातना सहेंगे।
साहित्यकार की रचनाधर्मिता कभी अभावों या दबाव के आगे प्रभावित नहीं होती वह किसी त्रासदी से विवश होकर नहीं लिखता, कुछ यही व्यक्त होता है इन पंक्तियों में:
पामर से पामर जन
झेले इतिहासों ने
भूख से हिला डाले
व्यक्ति विवश त्रासों ने
एक झिल न पाया तो मैं
और अंत में कवि की रचनाधर्मिता का स्वआकलन जो कवि को कभी निराश या हताश नहीं होने देता:
जो कुछ उसने लिखा भले मर जाए
किन्तु न मर पायेगी उत्कट ममता
उपरोक्त विवरण उनके विराट व्यक्तित्व के संबंध में अत्यंत सूक्ष्म परिचय देता है, लेकिन उनके भीतर के साहित्यकार से अच्छे से परिचित करवाता है।
✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG 69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारतउसके सच्चे सपूत
प्रेमचंद जी को नमन करती हूं
नमन करती हूंँ उस माँ को
उस धरती को नमन करती हूँ
धन्य हुई भारत भूमि
धन्य हुई वो जननी
जन्म दिया जिसने इस धरा पर
लेखनी के सच्चे सवांहक को
खाका उतार डाला यथार्थ का
लेखनी सत्य पर उकेरी थी
विडम्बनाओं से परे होकर
खुद अपनी आवाज उठाई थी
एक -एक कृतियों में उनके
जीवन जीवन्त हुआ
खुद भले ही मुश्किलें झेली
साहित्य का सागर भर डाला
एक से एक हीरे मोती से
श्रृंगार उसका कर डाला
दे दिया अनमोल खजाना हमको
जिसका कोई सानी न हुआ
इतिहास बन गये मुंशी जी स्वयं
उनसा न दूसरा ज्ञानी हुआ
✍️ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद
उर्दू को लेकर चले, हिंदी मन को भाय ।
दीन-दुखी का दर्द लिख, मुंशी सब पर छाय ।। 1 ।।
कहानी-उपन्यास में, प्रेमचंद का नाम ।
उनके लेखन को सदा, शत-शत करूँ प्रणाम ।। 2 ।।
"गोदान" ज़रा देखिए, "गुल्ली डंडा" खेल ।
"नमक-दरोगा" क्या लिखा, "ईदगाह" बे-मेल ।। 3 ।।
"पूस-रात" की बात हो, कहें "गबन" का दर्द ।
या "दो बैलों की कथा", मुंशीजी हमदर्द ।। 4 ।।
साहित्यिक इतिहास में, लेखन है बेजोड़ ।
प्रेमचंद मुंशी हुए, नहिँ है जिनका तोड़ ।। 5 ।।
✍️ राम किशोर वर्मा, रामपुर (उ०प्र०), भारत
मोबाइल फ़ोन नंबर। 9760613902,
847 695 4471.
मेल- atzakir@gmail.com
गूंथ गीतों में वही लौटा दिया।।
भावनाओं में सदा बहते रहे हैं हम।
दर्द जितना भी मिला सहते रहे हैं हम।
रूढ़ियों का खुल न पाया कोई ताला,
परिधियों में ही सदा रहते रहे हैं हम।
स्वाभिमानी एक जीवन है जिया।
हम न कोई चाँद पाना चाहते हैं।
हम न नभ को ही झुकाना चाहते हैं।
उड़ रहे आकाश में ऊंचे भले हम,
किन्तु धरती पर ठिकाना चाहते हैं।
भ्रांति का मीठा ज़हर हमने पिया।
अक्षरों ने शब्द को अमृत पिलाया।
शब्द के हर रूप ने हमको रुलाया।
भाव भी अनुभूति भी थी कल्पना भी,
किन्तु काग़ज़ लेखनी को मिल न पाया।
गीत को मेरे मिला है हाशिया
ज़िन्दगी के अनुभवों से जो लिया।
गूंथ गीतों में वही लौटा दिया।।
✍️ डॉ कृष्ण कुमार "बेदिल", "साई सुमरन", डी-115,सूर्या पैलेस,दिल्ली रोड, मेरठ-250002 मोब-9410093943, 8477996428 E-MAIL-kkrastogi73@gmail.com
तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहाँ गया ?
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
पहिले। तो तुम्हारे क़दमों से, सारी। धरती थर्राती थी,
सागर का दिल हिल जाता था, पर्वत की धड़कती छाती थी ।
अब चाल में सुस्ती कैसी है, क्यों पांव हैं डगमग डोल रहे ?
कुछ करके नहीं दिखाते हो, केवल अब मुँह से बोल रहे ॥
दुश्मन को मार गिराने का आक्रोश तुम्हारा कहाँ गया ?
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
जाकर देखो सीमाओं पर, जो आज कुठाराघात हुआ,
जाकर देखो भारत माँ के माथे पर जो आघात हुआ ।
गर अब भी खून नहीं खौला, गर अब तक जाग न पाये हो,
मुझको विश्वास नहीं आता, तुम भारत माँ के जाये हो ।
दुनियाँ को दिव्य दृष्टि देते, वह होश तुम्हारा कहाँ गया
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
आँखों की मस्ती दूर करो, यह संकट में कैसी हाला ?
टक्कर से तोड़ो प्याले को, अब बन्द करो यह मधुशाला।
गर तुम को कुछ पीना ही है, तो फिर दुश्मन का खून पियो,
या तो स्वदेश पर मिट जाओ, या भारत माँ के लिये जियो ।
दुश्मन की फौजें दहल उठें, वह रोष तुम्हारा कहाँ गया ?
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
हे वीरों तुम हो महाकाल, फिर काल जो आये डरना क्या ?
जब चला सिपाही लड़ने को, तो जीना क्या या मरना क्या ?
यदि मिटे तो फिर इतिहासों में, बलिदान अमर हो जायेगा,
यदि जीवित रहे तो हर मानव, आदर से शीश झुकायेगा ।
माटी का हर कण पूछेगा, वह घोष तुम्हारा कहाँ गया ?
बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?
::::::;प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी, 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत,मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
जिम्मेदारी
जिस दिन से गांव में टीकाकरण करने वाली टीम पंचायत भवन पर आने लगी।राघव ने तो मजदूरी करने जाना भी बंद कर दिया। घर घर जाता, आवाज लगाता, बुलाकर लाता।बड़े बूढ़ों को गोदी में ही उठा लाता या पीठ पर टांग लाता। बिना किसी लालच के सेवाभाव से यह सब करता राघव।
आज मुखिया जी ने बताया , शहर में मजदूरी करता था यह। वहां पूरा परिवार कोरोना की चपेट में आया और उसकी भेंट चढ़ गया।एक भाई,भाभी,पत्नी और तीन बच्चे।बस यह ही बचा।अब गांव में किसी को ऐसा दुख न उठाना पड़े, इसीलिए राघव जिम्मेदारी के साथ सबका टीकाकरण कराने में पूरा सहयोग कर रहा है।
दो-
जगा दिया
बारात तो जाने की पूरी तैयारी थी।पच्चीस लोगों की लिस्ट थामें दीनानाथ ने एक एक चेहरा देख लिस्ट पर निशान लगाना शुरू कर दिया। अब उसने पूछना शुरू किया,"वैक्सीनेशन किस किसने नहीं कराया अभी?"
ये क्या सात बारातियों के साथ साथ एक उनके जीजा जी भी निकल आए बिना वैक्सीनेशन वाले।
दीनानाथ ने हाथ जोड़कर कहा," आपसे निवेदन है कि अपनी और अन्य लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए आपका बारात में न जाना और अपने घर को वापस चले जाना बहुत ही आवश्यक है। मैं क्षमा चाहता हूं।"
दीनानाथ के जीजा जी सबसे पहले उठ खड़े हो गये, "तुमने सही कहा दीनानाथ, हम बहुत बड़ा खतरा मोल लेने और खुद खतरा बनने से बच गये भाई।आज तेरी बात ने हमें गहरी नींद से जगा दिया।"
तीन-
टीकाकरण
कविता,लेख, कहानी लिखकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर टीकाकरण अभियान का खूब प्रचार किया राजेश जी ने।
आज खबर मिली, अस्पताल में भर्ती है।
क्या हुआ? जानकारी ली तो पता चला,भाई साहब कोरोना की चपेट में आ गये।
उनको फोन लगाया तो बेटे ने उठाया,बोला " अंकल पापा ने बार बार कहने पर भी टीका नहीं लगवाया। हमारे समझाने पर हमें ही डॉट देते।अब सब परेशान हैं हम।"
"चिंता मत करो,सब ठीक होगा।"बस इतना ही कह सका मैं।
चार-
नियम से
लालाजी ने लाकडाउन के नियमों का पालन तो किया ही। सरकारी निर्देश और गाइडलाइन को मानते रहे।
आज अस्पताल में लाइन में खड़े देखा। वैक्सीनेशन कराने आए थे। डॉ.गुप्ता ने भीतर से ही आवाज लगायी,"अंदर आ जाइए लालाजी।बाहर मत खड़े रहिए।"
लालाजी ने हवा में हाथ लहरा दिया," ठीक हूं डॉ.साहब यहीं पर हम कोई अलग थोड़े ही है।
हम भी तो अपनी दुकान पर लाइन लगवा देते हैं।"
पांच-
गाइडलाइन
"कभी अट्ठाइस दिन कभी पैंतालीस,कभी चौरासी दिन बाद आखिर माजरा क्या है सर।"
पत्रकार ने डॉ.शुक्ला से वैक्सीन की दूसरी डोज के अंतर की बाबत सवाल किया।
"पत्रकार जी, गाइडलाइन हम तो बनाते नहीं।हम केवल उसको इंप्लीमेंट करते हैं। यह दिनों का अंतर भी मिली गाइडलाइन अनुसार बताया गया है।" डॉ.शुक्ला ने उत्तर दिया।
"सर,फिर भी आपकी निजी राय क्या है?"पत्रकार ने फिर प्रश्न कर दिया।
डॉ.शुक्ला मुस्कुराएं, बोले," आप देख रहे हैं, सरकार के स्तर से कितना बड़ा वैक्सीनेशन अभियान चल रहा है। इसमें सहयोग कीजिए और प्रयास कीजिए कि कोई भी पात्र व्यक्ति इससे वंचित न रहे। बाकी गाइडलाइन के मुताबिक हम काम कर ही रहे हैं। इसमें हमारे स्तर से कुछ कमी हो तो बताना।"
✍️ डॉ.अनिल शर्मा अनिल, धामपुर,जनपद बिजनौर,उत्तर प्रदेश, भारत
एक-----
ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
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ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
साल, साल में घर आती हैं।
नहीं एक का, साझे का है
छह बहनों का पुस्तैनी घर।
जो भी इसमें रहती आई
वह, देखी गई अकेली पर।।
रहन-सहन इस ढब का हो तो
शंकाएँ घर कर जाती हैं।
बतलाए जाते हैं, इनके
और कहीं भी ठौर-ठिकाने।
चली वहीं जाती हैं क्रम से
अपना-अपना अर्थ कमाने।।
कमा-कमाकर गर्मी, ठिठुरन
और कमा जलधर लाती हैं।
जाती एक दूसरी लौटे
निज मान सुरक्षित रखने को।
घर की बात बना रक्खी है
आते जिसको सब लखने को।।
जोड़-जमाकर जी की ठंडक
हँसने को,पतझर लाती हैं।
दो-----
खेत जोत कर जब आते थे
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खेत जोत कर जब आते थे
थककर पिता हमारे।
कहते! बैलों को लेजाकर
पानी जरा दिखाना।
हरा मिलाकर न्यार डालना
रातब खूब मिलाना।।
बलिहारी थे, उस जोड़ी पर
हलधर पिता हमारे।
स्वर से लेकर वर्णों तक के
जो भी पाठ पढ़ाए।
इस जीवन में उत्कर्षों तक
ले, जो हमको आए।।
परम शास्त्र के मंदिर जैसे
गुरुवर पिता हमारे।
इसी लोक से अपर लोक को
जाने वाला रस्ता।
इसपर पड़कर चलने वाला
बाँधे बैठा बस्ता।।
इसी मार्ग से मिल जाते हैं
ईश्वर! पिता हमारे।
तीन-----
काम बोलता है
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शोर मचा है! सबका
काम बोलता है।
सच का पता न पाया
पूछ-पूछ कर हारे।
किस मुँह से बतलाएँ
जो, उसके हत्यारे।।
पर, मदिरालय में कुछ
जाम बोलता है।
चुप रहती है कुर्सी
उस पर बैठा भी चुप।
रेंग रही है फाइल
खेल-खेलकर लुकछुप।।
आगे आकर केवल
दाम बोलता है।
सुस्ती में दिन सारे
ताल ठोकती रातें।
छंद विफल हो बैठे
पास हो गईं बातें।।
जिस पर होवे, उसका
राम बोलता है।
रुष्ट देवता इतने
सुनती नहीं देवियाँ।
घाटे पर घाटा है
उस पर नई लेवियाँ।।
लिखा मुकद्दर ऐसा
धाम बोलता है।
चार----
पीले पत्ते रड़क लिए
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नव का स्वागत करते-करते
पीले पत्ते रड़क लिए।
खींच हमें ले जाता बरबस
मधुशाला का अपनापन।
वहाँ बैठकर कलुषित में भी
दिख जाता है उजलापन।।
झूठे सच्च बोलने लगते
घूँट तनिक जो कड़क लिए।
जितना सोचो, उतना दुष्कर
हवा महल के घर जाना।
गुनी-धुनी भी सीख न पाए
खूब तैरकर तिर पाना।।
बटिया-रस्ते थक हारें तो
चल पड़ती है सड़क लिए।
अच्छे-अच्छे सपने देखे
और दिखाए औरौं को।
पके फलों का सदा टपकना
भाग्य मिला है बौरों को।।
जितनी साँसें थीं, दिल उतने
रह सीने में धड़क लिए।
पांच--------------------------
फुदक रही हैं खीलें
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गिद्ध और सब चीलें
लगी हुई हैं, लाशें
गिर जायें तो छीलें।
प्रोपेगैंडा के सब
अक्षर लगे चीखने।
पास हमारे आओ
हमसे कला सीखने।।
लूट घरों को,उनपर
लगा रहे खुद सीलें।
गाँव-गाँव अब भुरजी
भाड़ झोंक हर्षाए।
आये जो भुनवाने
सबने उधम मचाए।।
जली-भुनी जितनी भी
फुदक रही हैं खीलें।
चढ़ मंचों पर गरजें
भटिये इधर-उधर के।
मूषक मक़सद पूरे
गन्ने कुतर-कुतर के।।
भेड़ भेड़िए खाएँ
हुई पड़ी हैं डीलें।
अगुआ हलधर सारे
लगे देखने धन्धे।
चौपट फसल करा दी
यूज़ हो गए कंधे।।
लुटिया भरी डुबाकर
अब गंगाजल पीलें।
छह------------------------
चलो! एक हम भी होलें
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रोग-व्याधियों के कुनबे
एक हो गए मिलकर।
चलो! एक हम भी होलें
फटा-पुराना सिलकर।।
पाँचों उंगली अलग-अलग
सिर्फ विवशता जीतीं।
मिल बैठैं तो मिली जुली
सार शक्तियाँ पीतीं।।
सीख ग़लतियों से मिलती
दर्द दुखों में बिल कर।
दुरुपयोग शक्तियाँ जियें
तो चिंता हो पुर को।
भस्मासुर की अतियाँ ही
डहतीं भस्मासुर को।।
एक हुआ था, लेकिन सच
देवलोक भी हिलकर।
विविध धर्म भाषाएँ मिल
मानव मर्म बचाएँ।
महल, मड़ैया, घेर सभी
संजीवन हो जाएँ।।
राम हुए ज्यों पुरुषोत्तम
मर्यादा में खिलकर।
सात-----
डर बैठाते हैं
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गरज-गरज कर काले बादल
डर बैठाते हैं।
ज़िद पर उतर हवा आए तो
दौड़ लगाते हैं।।
ख़बर बुरी है! पर, जीने को
हरगिज़ जीना है।
सुख-दुख जीवन के साजिंदे
समय हसीना है।।
दिवस-रात ही विषम चक्र में
शुभ ले आते हैं।
भाग्य बुरा है तो मिल-जुलकर
उसे सँवारेंगे।
पास-दूर के सब ही अपने
उन्हें पुकारेंगे।।
निष्ठाओं के दम पर ही, घर
भगवन् आते हैं।
विपदाओं का गुण ही सबको
दुख पहुँचाना है।
हमने सीखा खुद को, कैसे
पार लगाना है।।
पंख खुलें तो उड़ धरती का
अम्बर छाते हैं।
✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
कांठ रोड, मुरादाबाद
पिनकोड: 244001
मोबाइल: 9319086769
ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com
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::::::प्रस्तुति:::::
डॉ मनोज रस्तोगी, 8,जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत , मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
आओ!मुझ पर अधिकार करो तुम।
तोड़ो जग-बंधन कह रहा मन,
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
एक सहरा रहा ठहरा मुझमें,
सजल सागर से नैन रहे।
एक दूजे से मिलने की खातिर,
हम नदिया के तट से बेचैन रहे।
एक अमावस है ठहरी मुझमें,
दीपक बन उजियार करो तुम।
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
जीर्ण पांडुलिपि सी पड़ी इधर उधर,
मन का भोजपत्र नही किसी ने बाँचा।
कितने मेह आकर बरसे अब तक,
पर मेरे मन का मयूरा नहीं नाचा।
एक उमस आषाढ़ की रहती मुझमें,
सावन की जलधार भरो तुम।
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
देह की देहरी लीप के मैंने,
मानस हवन आज रचाया है।
विधि विधान से आहुति तुम देना,
बना के पुरोहित तुम्हें बुलाया है।
यज्ञ-धूम सी महक जायें साँसें मेरी,
ऐसा मंत्रोच्चार करो तुम
मन भर मुझको प्यार करो तुम।
हाँ प्यार करो तुम ....
✍️ रचना शास्त्री, बिजनौर, उत्तर प्रदेश, भारत
मौत का खौफ महामारी दिखाने लगती है
मन में विश्वास कि उम्मीद भरी आंखो से
ये ज़ुबां टेर तेरे दर की सुनाने लगती है
दिल को जब भी जरा सी देर सुकूं मिलता है
जी जलाने को तेरी याद ही आने लगती है
भूखों मरने के पुराने हुए किस्से साहिब
खाते पीते हुए अब जान ये जाने लगती है
अपने अपराध तिजोरी में छिपाकर दुनिया
आंसू घड़ियाली सरेआम बहाने लगती है
✍️ मोनिका मासूम, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
छोड़कर वो चल दिये डूबा किनारा देखकर।।
वो पराया हो गया ,जो था कभी मेरा सनम
हो गयी हैरान हूँ मैं ये नज़ारा देखकर।
ज़िंदगी नाराज़ है या ,है मुकद्दर की ख़ता
मौत भी खामोश है मुझको तड़पता देखकर
फैसला तकदीर का जो हो गया अब आखिरी
मैं अकेली ही चली,सबको पराया देखकर ।
आँधियों औकात में रहना ज़रा कुछ देर तक,
झुक सका क्या आसमाँ,टूटा सितारा देखकर ।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश, भारत
बन बैठे साधू सन्यासी,
झूठों को सम्मानित करके,
सच्चों को ये देते फांसी।
बिल्ली भाग्य टूटते छींके,
फिरहरपल इतरातेक्योंहो,
साम-दाम से सत्ता पाकर,
ईश्वर को झुठलाते क्योंहो,
वैर भाव का पाठ पढ़ाकर,
जन-मानस में भरें उदासी।
सुरसा सी महंगाई देखो,
मुँह बाए प्रत्यक्ष खड़ी है,
भूख, गरीबी, लाचारी की,
आज किसे परवाह पड़ी है,
हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसाई,
लगते सारे धर्म सियासी।
खेती - बाड़ी, उद्योगों की,
खुले आम बोली लगती है,
इनको चेताने वालों के,
सीनों में गोली लगती है,
सिर्फ आंकड़ों में जिंदा हैं,
सूख रही हैं फसलें प्यासी।
आसमान छू रही पढ़ाई,
किसने इसपर रोक लगाई,
मनचाहा व्यापार बनाकर,
शिक्षा की दे रहे दुहाई,
पुश्तैनी धंधे की नेता,
सीख दे रहे अच्छी-खासी।
लोगों में सद्भाव नहीं है,
सर्व धर्म समभाव नहीं है,
सिर्फ वोटकी राजनीति से,
बढ़कर कोई दांव नहीं है,
पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
फंसते इसमें नगर निवासी।
✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र, भारत, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453
खाना बनाने के बाद फैली हुई रसोई को समेटने के बाद बरतन माँजते ऐसा लगा कि अचानक ही घर के सारे बरतन मेरी तरफ घूर घूर के देख रहे हों।मैने डरते डरते सबसे पहले कुकर जी को पानी भरकर एक ओर रखा ,तो लगा कि ससुर जी पूछ रहे हो,"बहू मेरी चाय कब बनेगी?"
मैने सहम कर साडी का पल्लू कमर में खोंसा और परात माता को उठाया और जूने से साफ करने लगीं,तभी माता जी की तली में चिपके आटे ने कहा,"बहू जरा संभलकर मांज ,देख तेरे गोरे -गोरे हाथ खुरखुरे न हो जायें।मैने परात माता को पानी भरकर ससुर जी की बगल मे बैठाया तो दोनो खीसें निपोरते मुझे यों घूरने लगे जैसे मेरे पीहर से कोई कपड़ा लत्ता घटिया आ गया हो।खैर अब टीपैन फूफा जी की बारी थी.उफ्फ्फ बच्चों के फूफा जी ,!!!चाय की पत्ती से लाल होकर यूँ मुस्कुराये जैसे अभी अभी म्हारेरे नंदोई सा बनारसी पान चबाकर पूछ रहे हों,"और जी !!साले साहब आये नहीं दफ्तर से अभी तक?,आजकल कमाई ज़्यादा हो रही है शायद?।मैने घबरा के जल्दी जल्दी टीपैन को माँजकर एक ओर रखा।
तभी मुझे फूल से नाजुक मेरे छोटे छोटे बच्चों की तरह कप गिलास नज़र आये।हाय !!कलेजा ही काँप गया।कौन इन बच्चों को यहाँ रख गया सिंक में,मैनै गुस्से मे आँखें लाल पीली कीं और हृदय में पीर दबाये अपनी मासूम सी क्राकरी मांजकर एक ओर रख दी।तभी मेरी नज़र सिंक के पानी में तैरती मेरी सखियों समान कलछी,चमची,पौनी पर पड़ी, जो न जाने कबसे मेरी ओर देख रही थीं मानो पूछ रही हों कि घर गृहस्थी तो हमारी भी है,पर तुझे तो फुरसत ही नहीं हमसे बात करने की।मैने मुस्कुराते हुए उन्हें साफ करके स्टैंड में सजा दिया।तभी देखा देवर जैसा बे पैंदी का लोटा जो कभी सास की तरफ कभी मेरी तरफ अवसर के अनुरूप होता रहता है ,मुहँ फुलाये बैठा था।चलो भाई तुम भी निकलो सिंक से।और ये देखो जिठानी की तरह मुँह फुलाये चिकनी कढ़ाई... हाय राम...बड़ी मेहनत से चमकीं ये महारानी!!और दूध का बड़ा भगोना साफ करते -करते तो पसीने छूट गये।चम्मच से मलाई खुरचते ऐसा लगा मानो जेठ जी कह रहे हों," देख 'छोटे' तेरी घरवाली की आजकल बहुत जुबान चलने लगी है।काबू में रख इसे।"
"हुँहह...मुझे क्या...?अब तो आदत पड़ गयी है सबकी सुनने की।कहते रहो..।"यही सोचकर मैं फिर से बरतन घिसने लगीं।
हाय ये क्या !!लंच बाक्स के डिब्बे- डिब्बी,ननदो और उनके बच्चों की तरह संभाले नहीं सँभल रहे थे।बड़े यत्न से साफ किया उन्हें भी उल्टा रखकर स्लैब पर लगाया।
लो जी अब बारी आयी तवा महाराज की जो पूरा दिन पूरे घर का बोझ उठा उठाकर जला भुना बैठा है,घर का मालिक...मैने मुस्कुराकर 'उन्हें' भी साफ करके फिर से गोरा चिट्टा बनाया।
अब आखिर में चाय की छलनी ...देखो सबके दोष कैसे निथारकर एक ओर फेंकती है!!अब खुद को तो बहुत ही करीने से साफ करना था।लिहाज़ा वक्त लगा ...पर चमचमा गयीं मैं...थोड़ी ही मेहनत से..।
अब.....!!अब क्या..? मैं हूँ ,मेरी रसोई!और मेरे बरतन ...अक्सर तनहाई में बाते करते हैं और कहते हैं कि चार बरतन होंगे तो बजेगें ही न....!और जो बजता नहीं वो टूट जाता है।
खैर...!!चाय बन रही है।पीकर जाइएगा।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
"बस इसे भी ऐसे ही समझ लो। कोरोना की बुरी नजर से बचना है तो टीका लगवाना जरूरी है।" कलावती के दिमाग में ये बात बैठ गई।वो फुर्ती से उठीं और बोलीं __"ठीक है,तेरी ताई और चाची को भी साथ ले चलते हैं।"
✍️ डॉ पुनीत कुमार, T 2/505 आकाश रेजीडेंसी मुरादाबाद 244001, M 9837189600
आखिर माँ हूँ तुम्हारी ,आज से एक नही दो माएँ हैं तुम्हारी ।एक मायके में और एक ससुराल में।कह पल्लवी ने रिद्धिमा को गले लगा लिया ।सच रिद्धिमा का सारा डर एकदम दूर हो गया ।वह सोच रही थी ,कितनी भाग्यशाली है वह जो उसे ऐसी सासू माँ मिली ।आज पंद्रह वर्ष बीत जाने पर भी दोनों में वैसा ही अगाध प्रेम है ,जैसा पहले था ।माँ -बेटी जैसा और रिद्धिमा ने भी सही अर्थों में अच्छी बहु होने की परिभाषा गढ़ दी ।जो केवल और केवल आपसी सामंजस्य से ही सम्भव हो पाई ।
✍️ डॉ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद
"ठीक है बाबा,मै बाबूजी से कहकर देखता हूं .वह माताजी से अलग रहना भी तो नही चाहते और तुम कहती हो कि माताजी को सचिन के पास ही रहने दो ।" राजेश ने आशु की बात का जवाब देते हुए कहा .
अगले दिन राजेश ने माताजी और बाबूजी से कहा कि वह बाबूजी को अब अपने साथ लेकर जाना चाहता है. कुछ वर्ष वह उसी के पास रहेंगे. वह उनका शहर में अच्छे से इलाज भी करा देगा. थोड़ा न नुकर के बाद आखिर बाबूजी राजेश के साथ जाने को तैयार हो ही गये।
राजेश उन्हें अपने साथ शहर ले आया हर माह वो ए टी एम के जरिये बाबूजी की पेंशन बैंक से ले आता था. बाबूजी का चंद माह में ही वहाँ से दिल उचाट होने लगा उन्हें फिर से अपना कस्बा याद आने लगा. वहाँ सब एक दूसरे से घुले मिले थे. यहाँ सब अनजान थे. कोई नमस्ते करना तो दूर नमस्ते का जवाब देना भी गवारा नही करता था। बाबूजी यहाँ पहले से और अधिक बीमार रहने लगे. और एक रात हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई. घर मे कोहराम मच गया. आशु बाबूजी से ज्यादा यह सोचकर रो रही थी कि हर माह बाबूजी की पेंशन के अब चालीस हजार कहा से आएंगे. बाबूजी की मौत को सुनकर माताजी और सचिन भी परिवार सहित राजेश के यहां आये और अंतिम संस्कार के बाद वापस अपने कस्बे लौट गये बाबूजी की पेंशन अब माताजी को मिलने लगी थी उधर माताजी के मायके में उनका छोटा भाई अमेरिका में जा बसा और जाते जाते उसने गांव का घर व ज़मीन अपनी बहन यानी माताजी के नाम कर दी। यह सुनकर आशु व राजेश पछता रहे थे कि काश वह बाबूजी के साथ माताजी को भी अपने साथ ले आते।
✍️ कमाल ज़ैदी "वफ़ा", सिरसी (संभल), मोबाइल फोन नम्बर 9456031926
बनवारी लाल की बात बीच ही में काटते हुए शंकर लाल ने कहा उस सुंदर बिटिया लक्ष्मी के लिए कुछ भी नहीं।ऐसी क्या बात है वह कोई पराई है क्या।
तुमने ठीक कहा शंकर लाल बेटी तो पराया धन होती ही है।उससे क्या मोह, उसको तो एक न एक दिन यह घर छोड़कर जाना ही जाना है।फिर मैं फ़िज़ूल उसके ऊपर खर्चा क्यों करूं।
मैंने लक्ष्मी की माँ को बोल दिया है कि अब यह लगभग पांच साल की हो रही है।इसे घर का काम धंधा भी सिखाओ।सबेरे उठकर पूरे घर में झाड़ू,दोपहर का खाना, चौका-बर्तन के साथ-साथ कुछ सिलाई-कढ़ाई करना भी सिखाया करो।खाली पड़े-पड़े खाएगी तो मोटी और हो जाएगी।शंकर लाल उसकी बात सुनकर चुचाप अपने घर लौट गए।
यह सुकर बेटी ने पापा से कहा।पापा अगर मैं सारे दिन घर का ही काम करूंगी तो पढ़ने स्कूल कैसे जाऊँगी। मुझे भी तो पढ़-लिख कर आगे बढ़ना है।
बनवारी लाल झल्लाते हुए,,,,,चल,चल आई बड़ी पढ़लिख कर आगे बढ़ने वाली।पढ़-लिख कर तू कौन सी कलेक्टर बनेगी।तेरे लिए उतनी ही पढ़ाई काफी है ताकि तू चिट्ठी-पत्री बांच सके।
बेटी लक्ष्मी अपना सा मुंह लेकर आंखों में आंसू भरे माँ के पास जाकर अपने पढ़ने के बारे में पिता जी को समझाने की ज़िद करने लगी। माँ ने कहा बेटी तेरे पिता जी ठीक ही तो कह रहे हैं।
कल से घर के काम में मेरा हाथ बटाना सीख।
बेटा मोहन भी अब काफी बड़ा हो चुका था।परंतु पढ़ाई में फिसड्डी ही निकला।वह हाई स्कूल भी पास नहीं कर सका।फिर भी पापा कहते क्या हुआ,अगर पास नहीं हुआ वह तो घर का चिराग है चिराग।कुछ नहीं तो दुकान पर बैठकर ही नौ के सौ कर लेगा।अब तो उसकी शादी वाले भी घर का चक्कर काटने लगे।
बनवारी लाल पत्नी से बोला क्यों भाग्यवान लड़की तो अपने घरवार की हो चुकी।अब मोहन की भी शादी हो जाए तो कैसा रहे।ठीकठाक रिश्ते भी आ रहे हैं। जैसी आपकी इच्छा।
शादी होते ही मोहन के स्वर बदलने लगे।अब वह केवल वही करता जो उसकी पत्नी कहती।कभी-कभी तो माता-पिता पर बेतहाशा चीख-चीखकर घर से निकल जाने की धमकी भी देने लगा।
बेटी लक्ष्मी से यह सब देखा न गया।उसने माता-पिता से बड़े विनम्र भाव से प्रार्थना की कि आप चिंता क्यों करते हो ,अगर भैया आपके साथ नहीं रहना चाहते, वह अकेले रहना चाहे हैं तो रहें।आप दोनों अभी इसी वक्त हमारे साथ चलो।
यह सुनकर बनवारी लाल सुबुक-सुबुककर रोने लगे और रो-रोकर बस यही कहते रहे बेटी मुझे माफ़ करना मैंने तुम्हारा बड़ा अपमान किया।मैं बेटे के प्यार में अंधा हो गया था।पर अब समझा बेटियां ही घर का चिराग होती हैं।
वह एक नहीं दो-दो घरों को रौशन करके भी मां-बाप का साथ निभाना नहीं भूलतीं।
मैं तो यही कहूंगा----
बेटी क्यों बेचारी है,
वह तो राजदुलारी है,
बेटी ही तो जीवन की,
महक भरी फुलवारी है।
✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र, 9719275453
,
एक दिन तो हद ही हो गई जब उन्होंने मंदिर के सामने बहुत सारे पटाखे छोड़ दिए आजिज होकर मोहल्ले वाले उनके घर शिकायत लेकर पहुंचे । शिकायत सुन घर वालों का पारा हाई हो गया , उन्होंने तीनों की जमकर लताड़ लगाई और आदेश पारित कर दिया कि अगर आइंदा ऐसा हुआ तो वह घर में ना घुसे । जय सुनील और संदीप को घर में पड़ी लताड़ इतनी बुरी लगी की उन्होंने घर छोड़ने का फैसला कर लिया और रात वाली ट्रेन से ही घर से भाग गए । जब सुबह उठकर घरवालों ने देखा तो जय , सुनील और संदीप घर पर नहीं थे । पूरे मोहल्ले में शोर हो गया कि तीनों बदमाश लड़के घर से भाग गए हैं , पूरे मोहल्ले ने राहत की सांस ली..... चलो कुछ दिन तो शांति रहेगी । लेकिन घरवाले बुरी तरह परेशान हो गए उन्होंने जगह-जगह उनकी तलाश करी पर उनका कहीं अता पता नहीं चला , हार कर वह भी टिक कर घर पर बैठ गए और मन ही मन सोचने लगे कि जब पैसे खत्म हो जाएंगे तो घर वापस आ जाएंगे ।
जय , सुनील व संदीप घर से भागकर ट्रेन में तो बैठ गए थे पर उन्हें पता नहीं था ट्रेन कहां जा रही है । पूरी रात का सफर कर ट्रेन सुबह शिमला के स्टेशन पर पहुंच गई शिमला के स्टेशन पर जय , सुनील व संदीप तीनों बहुत प्रसन्नता पूर्वक उतरे पर उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि शिमला के किसी महंगे होटल में रह सके , अतः शिमला के नजदीक ही एक गांव में एक किसान के घर पर रुक गए , गांव में उन्होंने सभी को यही बताया कि वे शिमला घूमने आए हैं । तीनों की घर पर इतनी बेइजती हुई थी कि अब उन्होंने पक्का फैसला कर लिया था कि घर वापस नहीं जाना है और बाहर रहकर ही खूब पैसा कमाएंगे । लेकिन दो-चार दिनों में ही उनके हौसले पस्त हो गए शिमला जैसे महंगे शहर में गुजारा करना उनके लिए मुश्किल हो गया उनके पैसे भी अब खत्म होने लगे थे , तीनों ने विचार किया चलो दिल्ली चलते हैं , वहां उन्हें जरूर काम मिलेगा यही सोच वह अपना बोरिया बिस्तरा उठा दिल्ली आ गए ।
दिल्ली पहुंचकर कई दिनों की भागदौड़ के पश्चात जय व सुनील को एक ढाबे पर वेटर की नौकरी मिल गई व संदीप एक मोटर मैकेनिक के पास लग गया । तीनो का अपनी नौकरी से प्राप्त धनराशि से मुश्किल से ही गुजारा हो पाता था । इस तरह 6 माह का समय गुजर गया इधर उनके घर वाले भी उनके घर ना आने की वजह से बहुत परेशान थे और जगह-जगह जाकर उनकी तलाश कर रहे थे । अब तीनों को अच्छे से समझ आ चुका था कि बगैर शिक्षा पूर्ण करें वह कभी कामयाब नहीं हो सकते और उनकी की गई कारगुजारीओं के कारण उनके घर वालों को कितना दुख हुआ होगा । अंततः उन्होंने वापस घर जाने का फैसला कर लिया 1 दिन तीनों ने अपना सारा सामान बांधा और वापस अपने शहर आ गए । तीनों को वापस घर पर पाकर घर वाले बहुत प्रसन्न हुए तीनों ने अपने घरवालों से माफी मांगी , वह आगे से पढ़ाई में पूरा ध्यान देने व किसी भी प्रकार की कोई शैतानी ना करने का वादा किया । घर वाले भी तीनों के स्वभाव में इस परिवर्तन को देख अति प्रसन्न थे , उनको पता था यह परिवर्तन जीवन में किए गए अथक संघर्ष के कारण हुआ है , क्योंकि उन्हें इसका अनुभव था । उन्होंने अपने बच्चों में आए इस परिवर्तन के लिए परम पिता का शुक्रिया अदा किया व मन ही मन प्रसन्न होते हुए कहा "अंत भला तो सब भला"
✍️ विवेक आहूजा , बिलारी, जिला मुरादाबाद
@9410416986
@8923831037
"देखिए भाई ! दो हजार दो सौ रुपए की यह कुर्सी तो बहुत महँगी बैठ रही है । वैसे भी हमें अभी दो दुकानों की कोटेशन और लेनी हैं ।"- अधिकारी के इतना कहते ही फर्नीचर विक्रेता सजग हो गया ।
कहने लगा - "कोटेशन में क्या रखा है ? बाकी दो कोटेशन भी हम ही दे देंगे और आपको भी खुश करेंगे ।"
"वह तो हम समझ रहे हैं । मगर बाईस सौ रुपए की कीमत बहुत ज्यादा है । आपके खुश करने से भी काम नहीं बन पाएगा ।"
"दस परसेंट आप को दे देंगे । अब तो ठीक रहेगा ?"
"आप कुर्सियों की कीमत चालीस प्रतिशत कम कर दीजिए । फिर तीनों कोटेशन आप भी बना कर दे सकते हैं । हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।"
" कैसी बातें कर रहे हैं साहब ? चालीस प्रतिशत कम करने के बाद क्या तो आपको बचेगा और क्या हमें बचेगा ?"
"आप सोच लीजिए । आपको बचे तो हमें कुर्सियाँ बेच दीजिए और अगर कुछ नहीं बच रहा है तो हम दूसरी दुकान तलाश करें।"- अधिकारी का लहजा अब सख्त था।
दुकानदार झुँझलाने लगा था । बोला "ठीक है । तीस प्रतिशत कम कर दूंगा। इससे ज्यादा नहीं हो पाएगा । आपकी समझ में आए ,तो हम से ले लीजिए ।"
कुछ देर तक अधिकारी सोचता रहा। फिर बोला " चलो ! ऐसा करते हैं आपके हिसाब से कुर्सी की कीमत एक हजार पाँच सौ चालीस बैठ रही है आप चौदह सौ रुपए का रेट लगा दीजिए । कुर्सियाँ भिजवा दीजिए । हम आपको एक लाख चालीस हजार रुपए का चेक पेमेंट कर देंगे ।"
दुकानदार ने एक मिनट सोचा । अधिकारी के चेहरे की तरफ कुछ पढ़ने की कोशिश की ,मगर जब पढ़ने को कुछ नहीं मिला तो बोला " ठीक है ! चौदह सौ में ही आप ले लीजिए । पाँच दिन बाद कुर्सियाँ पहुँच जाएँगी।"
सौदा तय करके जब अधिकारी शोरूम से बाहर चला गया तो दुकानदार अपने सहकर्मी से दबी जुबान में कहने लगा - "अजीब सिरफिरे आदमी से पाला पड़ा है। मुझे तो इसके दिमाग का एक पेंच ढीला नजर आता है ।
✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल फोन नम्बर 99976 15451
यह क्या एक कौवा नीचे पडा हुआ था और उसके पास देवेंद्र जी का पालतु कुत्ता जैसे ही वह कुत्ता इसको उठाने की कोशिश करता सभी कौवे काँव -काँव कर उसके पीछे पड़ जाते वह भागता तो उसके ऊपर उड़कर रोकने का प्रयास करते l
अन्त में कुत्ता थक गया और बैठकर लम्बी जीभ निकाल कर हाँफ़ने लगा l
कौवे अभी भी चिल्ला रहे थे l
आदमी सोचने लगे शायद यह सब कौवे एक ही जाति के हैं तभी तो इतनी एकता है कि अपने जैसे ही कौवे को बचाने के लिये इतनी एकता के साथ कुत्ते से लड़ रहे हैं l
एक और अच्छाई कि इन के पास मोबाईल नहीं है नहीं तो बचाने की बजाय वीडीओ बनाने में लग जाते हमारी तरह l
✍️ राशि सिंह , मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
"... न मेरी......! न बच्चों की !सुबह 6:00 बजे निकल जाता है! और रात को 11:00 बजे पहुंचता है वापस घर।
..... घर में ! क्या सामान है ...... क्या नहीं ? राशन महीने में एक बार ही लाता है!..... फिर बीच में दो बार सब्जी..... बस हो गया ! मेरा तो मन भर गया इस आदमी से.!.... आखिर मेरा भी तो मन है.....कि ये मेरे साथ भी समय गुजारे...... !" मेरे मन की बात सुने अपने बच्चों के बीच में दो घड़ी बैठे बतियाये..!".... कभी साथ में पिक्चर देखे!..".
...."कभी कहीं अकेले नहीं जाना चाहता घूमने मेरे साथ ! प्रोग्राम भी बनाओ तो एक दो को चिपका ही लेता है !अपने साथ......!" तंग आ गई मैं तो इस आदमी से !
"अरे यही सब करना था तो शादी क्यों... की ?".......भगवान दुश्मन को भी ऐसा पति न दे.... फूट गयी मेरी किस्मत !...... दिन भर घर से गायब रहता है रात को खाना खाने चला आता है बेशर्म.....!"
" हमेशा समाज सेवा! समाज सेवा ! ! समाज सेवा!!! समाज सेवा न हुई मरी गुलामी हो गयी..!.... भूत सवार है इसके सर पर कभी अपने घर को देखता ही नहीं.....!... मैं तो तंग आ चुकी हूं !इसकी आवारागर्दी से... अगर इसे कौरोना हो गया तो कौन देखेगा ? बस सुघड़ भलाई से मतलब है !!
.....आज सुबह से ही किसी अनहोनी की कल्पना से बेचैन....... अनीता बड़बड़ाये जा रही थी। ...... मूड बिल्कुल खराब हो रहा था।
"..........मरे कोरोना में संघ वालों के साथ खाने के किट बांटते फिर रहे हैं न तन का होश है न वदन का !"
.....अगर इन्हें कोरोना हो गया तो हम लोग तो कहीं के ना रहेंगे"....? यह सोचते सोचते अनीता अपने कामों में लग गयी ।
......नगर में महामारी ने विकराल रूप ले लिया था...... .विशाल पूरे दिन कोरोना मरीजों को अस्पताल पहुंचाने ,सहायता पहुंचाने उनके घर वालों को भोजन किट पहुंचाने में ही व्यस्त रहने लगा था ......जो घर लौटा तो उसको गले में दर्द था .....अंदर से !..... बुखार सा भी था...... शाम से रात होते-होते तकलीफ बढ़ने लगी रात के 12:00 बजे तक गला बन्द... खांसी, जुकाम ,बुखार से बुरा हाल हो गया..... उसकी सूंघने व स्वाद ग्रहण करने की शक्ति भी खत्म हो गई थी!
..... जांच कराने के लिए कोरोना सेंटर पर ले गए ।कोरोना पाज़िटिव रिपोर्ट आयी !
.....अनीता क्रोध शोक से आपा खो बैठी ! ...."पड़ गयी ठंडक !"..होगयी समाज सेवा!!..... बहुत आखरी काट रखी थी....अरे मैं तो पहले ही कहती थी...मेरी सुनता कौन है? ...अब मरो बे मौत !"
....आखिर दुखों का पहाड़ जो टूट पड़ा था उस पर !
....... अनीता ने अपने मैके में भाइयों व ससुराल में देवर , जेठों सभी से बात की "भैया हमारी मदद करो ! हम मुसीबत में हैं !" परन्तु कोरोना की सुन कर सभी ने वहाने बाजी कर किनारा कर लिया ।..... अब क्या करे ....तीन तीन बच्चों को लेकर कहां जाये ? किससे मदद मांगे ?
......परन्तु ये क्या ! विशाल के मित्रों की टोली जैसे ही घर पहुंची ! खबर आग की तरह पूरे शहर में फ़ैल गयी......विशाल को कोरोना हुआ है !........फिर क्या था उसके घर पर सामान पहुंचाने वालों का तांता लग गया !
"हम हैं न!..भाभी जी !"
"चिन्ता मत करो !... "
"सब ठीक हो जाएगा"..!
..क्या क्या चाहिए ?.... सब हाजिर होने लगा ....क्या करना है ? रुपए पैसे से लेकर बिना मांगे ही लोग सहयोग में जुट गए!
.... विशाल भैया को कोई तकलीफ न हो सब अच्छे से अच्छे इंतजाम होने लगे ....अच्छे अस्पताल में भर्ती कराया गया.... हालत ज्यादा बिगड़ने पर तीर्थंकर से उसको मेरठ रेफर कर दिया गया...... रातों रात विशाल भैया को मेरठ में आंनद हास्पिटल में भर्ती कराया गया.....लोग रात दिन उसके बच्चों का ध्यान रख रहे थे । हर संभव परिवार की देखभाल कर रहे थे।
......अनीता को अपने उलाहनो पर आज पश्चाताप और मलाल हो रहा था ....और बहुत आश्चर्य भी ! ..... कि आज मुसीबत की घड़ी में जब सब अपनों ने उसका साथ छोड़ दिया था तब उसे सहायता पहुंचाने वाले .... इतने लोग....!
अपनो की कमी तो चुभ रही थी.... पर .... अपने लोगों की कोई कमी नहीं थी ।
.....उधर अस्पताल में प्लाज्मा देने वालों की लाइन लगी हुई थी.....
.....धीरे धीरे विशाल स्वस्थ होकर घर आया ......घर पर मिलने वालो की भीड़ लगी थी........तिल रखने की घर में जगह नहीं थी.....!
.......... अनीता को मानो... विशाल के व्यक्तित्व के विराट रूप का दर्शन हो रहा था..... वह व्यक्ति जो हजार ताने उलाहने सुन कर भी हमेशा जोर से हंस दिया करता था! जिसे अनीता ने हमेशा निकम्मा, संवेदन हीन, तुच्छ समझा कभी सम्मान की दृष्टि से भी नहीं देखा.....उसके इतने चाहने वाले !...
भीड़ को देख कर उसकी आंखों में आंसू थे.....शायद इसलिए कि उसका मन कह रहा था......!
........यही सब तो हैं मेरे अपने!
✍️ अशोक विद्रोही , 412,प्रकाशनगर, मुरादाबाद, मोबाइल फोन नम्बर 8218825541
श्याम अपनी कार से ऑफिस से वापस लौट रहा था, उसने देखा कि ....सड़क के किनारे बहुत सारे लोग एकत्र हैं । उसने तुरंत गाड़ी रोक कर साइड में ली। उतर कर देखा तो उसके होश उड़ गए ...."अरे ये तो सीमा मैम हैं "... पास जाकर हिला डुला कर देखा स्थिति गंभीर थी। श्याम ने आनन - फानन में गाड़ी में सीट पर लिटाकर तेज़ी से हॉस्पिटल लेकर चल दिया रास्ते से ही हॉस्पिटल में संपर्क किया ....इमर्जेंसी में भर्ती कराया। डॉक्टर ने चेक अप के पश्चात कहा कि "सिर और नाक में चोट होने के कारण इनका ब्लड ज्यादा बह गया है ,तुरंत ही ऑपरेशन करना होगा और ब्लड भी चाहिए"। श्याम की आंखों से अश्रु धार बह रही थी ..
ख़ुद को संभालते हुए बोला," डॉक्टर जितना ब्लड चाहिए मेरा ले लीजिए और रुपए पैसे की चिंता मत कीजिए प्लीज़ मेरी मैम को बचा लीजिए......। " ऑपरेशन के पश्चात सीमा को ओ.टी.से रूम में शिफ्ट किया गया... जब होश में आई तब श्याम ने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा कि ..."मैम अब कैसी हैं "? सीमा मुस्कुराई और बोली "आख़िर , तुमने दे ही दी मुझे गुरु दक्षिणा .....श्याम शांत हो कर मुस्कराते हुए शून्य में निहारने लगा......।
✍️ रेखा रानी, विजय नगर गजरौला, जनपद अमरोहा, उत्तर प्रदेश
डॉ मनोज रस्तोगी, 8,जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नम्बर 9456687822