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मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य...मल्लिका और क़ब्र के मुर्दे.

       



मल्लिका शेरावत के कपड़े दो रूमालों से ही तैयार होते हैं। एक रुमाल भी अगर हो तो वह उसे कैमरे के लैंसों पर रखकर काम चला सकती है। इतना बूता बॉलीवुड कि अन्य हेरोइनों में नहीं है। उनको थोड़े बड़े वस्त्र चाहिए। किफायत उनके बस की नहीं। वे सब वैसा नहीं सोचतीं, जैसा कि उन्हें सोचने के 'पॉइंट ऑफ़ व्यू' से सोचना चाहिए कि क्या सोचें ?

        जीवन के बावन घटिया बसंत पार कर चुकने के बावजूद, जब कभी हम मल्लिका के अल्प पारदर्शी वस्त्रों की और निगाहें उठाते हैं, तो मन में एक कसक सी होती है और जिसे हम शेरो-शायरी में बयान करने कि बजाय सीधे-साधे बताये दे रहे हैं।  ऐसा नहीं है कि ऐसा सिर्फ हमारे साथ ही होता है। दुनिया बहुत बड़ी है और किसी के साथ भी ऐसा हो सकता है। यह हर आदमी का निजी अधिकार है और सेंसर बोर्ड का बाप भी इसके इस्तेमाल से किसी को नहीं रोक सकता। 

        ध्यान से देखा जाये, तो लगेगा कि मल्लिका एक ख़ास क़िस्म की अदा  से हमें टी.वी. स्क्रीन के अंदर बुला रही होती है कि "आ जाओ, तो पाइप से चिपकने के बजाये तुम्हारा ही इस्तेमाल कर लें।" कई मर्तबा इस चक्कर में हम टी.वी. से सटकर भी बैठ गए कि शायद कोई तकनीकी चमत्कार ऐसा हो जाये कि हम स्क्रीन में अपने आप घुस जाएं और डांस कर रहे हीरो को चपतिया कर उसकी जगह ले लें। मल्लिका को देखकर मन उसको 'डिजिटल शेप' में देखने को आतुर हो जाता है। हर दिशा से और हर तरह से कब्रों में जाने से पहले दो बुजुर्ग मल्लिका को लेकर चर्चा कर रहे थे।

             "देख रहे हो, क्या कशिश है ?" क़ब्र  में पहले जाने को तैयार बैठे बुजुर्ग ने अख़बारी फोटो में दर्ज मल्लिका का बदन निहारते हुए यह सिद्ध कर दिया कि हौंसले जब शरीर का साथ छोड़ देते हैं, तो वे दिल में अपना स्थाई मुकाम बना लेते हैं।

         "हमारे ज़माने में कुक्कू और सुरैया कि जगह अगर यह होती, तो फिल्मों का अपना अलग ही मज़ा होता। " जूनियर बुजुर्ग ने, जो नहीं हुआ, उसके न होने का अफ़सोस ज़ाहिर किया।

           "ख़ासतौर से, जब वह किसी फलौदी पाइप के सहारे अपनी कामनायें व्यक्त करने कि कोशिश करती, तो उस ज़माने में लोग अपनी-अपनी टंकियों के पाइप उखाड़कर उसके पास भिजवाते कि लो, यह ज़्यादा मज़बूत और टिकाऊ 

है। डांस में कभी इसे भी इस्तेमाल होने का मौका दें।" सीनियर बुजुर्ग ने डरते हुए एक यथासंभव गहरी साँस यह सोचते हुए छोटी की कि कहीं यह उनकी आखिरी साँस न हो। 

         "चलो, जवानी में न सही, अब तो हसरतें पूरी कर ही लीं।" हसरतों की व्यापकता पर प्रकाश डाल बिना जूनियर बुजुर्ग ने तसल्ली दी। 

        किसी स्थानीय अख़बार के हवाले से पता चला कि 'कब्रिस्तान के पास से मल्लिका के गुजरने पर दो मुर्दे ज़िंदा होकर उसके साथ चल दिए।' इस शीर्षक के नीचे समाचार में यह भी विस्तार से बताया गया था कि उसके साथ किस कार्य से, कहाँ और कितने बजे गये थे।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल ) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....सड़कें और कमीशनख़ोरी




         "सड़क का ठेका आप ही के पास है ?" बड़े अफसर का छोटा,  मगर निहायत महत्वपूर्ण सवाल हवा में उछला।

         "जी, मेरे पास ही है।" खुद को गुनहगार न समझते हुए ठेकेदार ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।

         "कितने दिन में काम पूरा हो जायेगा ?"अफसर ने पूछा।

         "साल भर तो लग ही जायेगा, साहब !" ज़्यादा वक्त में ज़्यादा लागत का हिसाब लगाते हुए उत्तर मिला।

         "एक महीने में नहीं हो सकता?" जीवन क्षण-भंगुर है और वक्त का कुछ पता नहीं कि कब, क्या हो जाये, इस भावना के तहत अफसर ने सवाल किया।

         "हो भी सकता है, साहब लेकिन वो बात नहीं आएगी। आप हुक्म करें, तो महीने भर में करा दें ?" अफसर से आदेश पाकर कृतार्थ होने के अंदाज़ में ठेकेदार ने प्रतिपृश्न किया।

         "यही सही रहेगा।" कमीशनखोरी में अल्प वाक्यों का प्रयोग ही सही और 'सेफ' रहता है, यह सिद्ध करते हुए अफसर ने 'एकमाही सड़क-कार्यक्रम' को हरी झंडी दिखा दी।

   "सर, एक ही गुज़ारिश है कि बरसात में जब सड़क उखड़ जाये, तो अगली बार का ठेका भी हमारा ही करा दें।" कमीशनखोरी में सहभागिता के हिसाब से ठेकेदार ने आग्रह किया।

        "चिंता मत करो। मेरा ट्रांस्फर भी हो गया तो आने वाले अफसर को बता जाऊँगा कि तुम कितने 'टेलेंटेड' हो, जो साल भर का काम एक ही महीने में निपटा देते हो। हर अफसर यही पसंद करता है।" कमीशनखोरी कि सर्वव्यापकता पर अपनी टिप्पणी करते हुए अफसर ने आश्वस्त किया।

         "बस सर,आपकी कृपा दृष्टि बनी रही, तो जहाँ-जहाँ आपकी पोस्टिंग होगी, मैं वहाँ-वहाँ भी अपने इस हुनर का इस्तेमाल कर सकूंगा।" ठेकेदार ने अफसर को भावी कमीशनखोरी के अंगूर दिखते हुए एक बड़ा लिफ़ाफ़े उनके सामने रख दिया।

        "वैरी गुड। लगे रहो" लिफ़ाफ़े में रखी नोटों की गड्डियों को विश्वास नाम की चीज़ इस दुनिया में अभी भी मौज़ूद होने की वजह से अफसर ने बिना देखे अपने बैग में रखते हुए प्रोत्साहन दिया और कुछ धूल फाँक रहीं मोटी फाइलों में संभावनायें तलाशने लग गया।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 3 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ....भैंसिया गाँव की भैंसें




         जिसकी लाठी होती है, उसके पास एक अदद भैंस भी होती है। भैंस होने के लिए लाठी का होना एक अनिवार्यता है। बिना लाठी के आप भैंस के मालिक नहीं हो सकते। भैंस खरीदने से पहले लाठी ख़रीदना ज़रूरी होता है। इसके बिना न तो आप अपनी 'भैंसियत' दिखा सकते हैं और न ही यह दावा कर सकते हैं कि यह जो भैंस आपके घर के बाहर खड़ी है, यह आपकी ही है। इसे पत्नी की तरह मानकर चलें। किसी की पत्नी को अगर यह साबित करना हो कि वह उसी की है, तो उस पत्नी के मुँह से भैंस के स्वर में यह कहलवा दें कि "मैं इन्हीं की हूँ और इन्हीं की रहूँगी।" बात ख़त्म हुई।

         यह एक विचित्र बात लगी कि भैंसियां गाँव की भैंसों में लड़ाई हुई और नौबत लाठियों तक आ पहुँची। दोनों पक्षों पर चूँकि भैंसें थीं, इसीलिए एक दूसरे पर लाठियों का होना भी लाज़मी है। लिहाज़ा भैंसों ने अपने सींगों से लड़ाई लड़ी और उनके मालिकों ने सींग न होने की वजह से अपनी लाठियाँ चलाई। जमकर युद्ध हुआ। नौ लोग घायल हुए। भैंसों को कोई हानि नहीं हुई। लड़ने के बाद वे एक तरफ खड़ी होकर आदमी की लाठियों की लड़ाई देखती रहीं। अखबारी संवाददाता ने बताया कि भैंसें आपस में हँस भी रही थीं- इस दौरान। 

          भैसों के लिए प्रसिद्ध 'भैंसिया गाँव' में भैसों के अलावा लाठियाँ रखने वाले आदमी भी रहते हैं, रहस्य की यह बात एक पुलिस अधिकारी ने बताकर हमारे हमारे ज्ञान में इज़ाफा किया। महंगाई के इस दौर में जब बीवी और बच्चों को पालना मुश्किल होता है, तो ज़रा कल्पना कीजिये कि भैंसें पालना कितना कठिन होगा। जो लोग अपनी भैंस को बीवी से अधिक महत्व देते हैं या उसे वही सम्मान देते है, जो अपनी भैंस को देते चले आये है, तो उनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा पैदा होती है और इंशा अल्लाह हमेशा होती रहेगी।    

वाकया एक गाँव के परिचित का है। उनसे भेंट हुई, तो घर के हाल चाल पूछे और साथ ही यह भी कि "यार, भाभी को ले आते ?" थोड़ा सोचने के बाद वे बोले,‘’दद्दा, बाऊ को लायैं, तो भैंसियन कोऊ लाये ?"हम समझ गए की उनकी भैंसिया और बीवी में से कोई एक ही आ सकता है। दोनों का एक साथ एक वक़्त में आना बड़ा मुश्किल है। 

          हमारा देश ग्राम-प्रधान होने के आलावा भैंस-प्रधान भी कहा जा सकता है। इसके लिए यह जरुरी नहीं है कि भैंसें सिर्फ गाँव में ही हों। शहरों और कस्बों में भी भैसों का बाहुल्य होता है। तहज़ीब न होने की वजह से ये भैंसे जहाँ मन होता है, वहीं अपना गोबर छोड़ कर आगे चल देती हैं। आदमियों को लड़ने के 'प्वाइंट ऑफ़ व्यू' से इतना मुद्दा ही काफी होता है कि इन भैसों ने यह जो गोबर छोड़ा है, वह उनके दरवाज़े के सामने ही क्यों छोड़ा ?इस बात पर भी लाठियाँ चल सकती हैं। दूध की तरह खून की नदियाँ बह निकलती हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि इस मुल्क में भैसों का जो योगदान है, वो पत्नियों से भी अधिक 'इम्पोर्टेन्ट'होता है - लोगों के जीवन में।

'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाला मुहावरा यूँ ही नहीं बना है। इसके पीछे हमारे बुजुर्गों के भी बूढ़े-बुजुर्गों की 'रिसर्च' रही होगी। वरना लाठी का भैंस से क्या मतलब ? जहाँ तक लाठियाने वाले तर्क का सवाल है, तो उसके लिए तो आदमी ही काफी होते हैं। भैसों को मुद्दा बनाने कि क्या ज़रुरत है ? लाठियों का अविष्कार भैसों की वजह से नहीं हुआ था। यह एक आदमियाना साजिश है कि उसने लाठियों को भैसों के साथ जोड़ दिया। बिना भैसों के भी आदमी लोग लाठियाँ चलाते हैं। मगर भैसों को लाठिया चलते हुए कभी नहीं देखा होगा आपने। कहीं देखा हो, तो ज़रूर बतायें। किसी भी दफ़ा में उठाकर उन्हें थाने में बंद कर देगी हमारी पुलिस।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य .....सरस्वती-वंदना में दूध




 कवि-गोष्ठी की तमाम तैयारियाँ हो चुकी थीं। रामभरोसे लाल के घर की बैठक में समाजवादी परम्परा के अनुसार सभी के बैठने के लिए ज़मींन थी, जिसे विभिन स्थानों से फटी हुई ब्रिटिश कालीन दरी द्वारा सम्मानपूर्वक ढक दिया गया था। दीवार से लगा एक मसनद भी  बैठक की शोभा में कई सारे चाँद लगा रहा था। इस मसनद के सहारे बैठने के लिए एक अध्यक्ष भी तलाश लिया गया था और जिसके ज़िम्मे बाहर से आये दो-तीन नवोदित और गुमनाम कवियों के मार्ग-व्यय का भार था। यह भार उठाने में अध्यक्ष भी तलाश लिया गया था और जिसके जिम्मे बाहर से आये दो तीन नवोदित और गुमनाम कवियों के मार्ग-व्यय का भार था। यह भार उठाने में अध्यक्ष इसलिए समर्थ था कि उसका सिंथेटिक दूध का सर्वमान्य कारोबार था।

       "अध्यक्ष महोदय बस थोड़ी देर में आने ही वाले हैं। जैसी कि हमारी परम्परा रही है, कवि-गोष्ठी अपने निर्धारित समय पर ही प्रारम्भ कर दी जायेगी।" क़स्बे में बातूनी मास्टर के नाम से विख्यात संचालक ने कवियों में हो रही काव्य-पाठ की बेसब्री को भाँपते हुए उद्घोषणा की। 

        "तब तक सरस्वती-वंदना शुरू करा दीजिये। अध्यक्ष आते रहेंगे।" कवि-गोष्ठी में अध्यक्ष के होने न होने को बराबर सिद्ध करने के अंदाज़ में सरस्वती-वंदना एक्सपर्ट कवि की व्याकुलता जवाब दे रही थी।

        "आ गए भैया, हम भी आ गये।" अचानक अध्यक्ष प्रवेश करते हैं। मसनद से टिकने के बाद अध्यक्ष ने सबके अभिवादन स्वीकार किये और अपने एक कूल्हे को पच्चीस डिग्री के कोण में उठाकर एक ज़ोरदार स्वर में अपनी गैस खारिज की। कवियों ने अध्यक्ष की इस हरकत का मुस्कुराकर स्वागत किया। 

        "अब शुरू करे ?" रामभरोसे ने अध्यक्ष से अनुमति लेनी चाही। "बिलकुल !" गैस का दूसरा धमाका इस बात का संकेत देने के लिए थोड़ी मुशक़्क़त के बाद हुआ कि अगर गोष्ठी का शुभारम्भ शीघ्र नहीं हुआ, तो आगे ना जाने कैसे हालात पैदा हों ? सरस्वती वंदना गाने वाले ने शुरुआत की- 

       "सरस्वती मैया वर दे। 

कविता रूपी शुद्ध दूध से, जल का तत्व अलग कर दे।

सरस्वती मैया वर दे।"

"वाह-वाह-वाह -वाह ! क्या डिमांड की है सरस्वती मैया से। मज़ा आ गया !" कविता पर वाह-वाह करने से अध्यक्ष की योग्यता पता चलती है, यह सोचकर अध्यक्ष का स्वर इस बार उनके मुँह से निकला।

         "आगे आप सबका ध्यान चाहूँगा," सरस्वती-उपासक ने अपनी वंदना जारी रखते हुए सुनाया, 

         "सरस्वती मैया वर दे। 

         दूध, जिसे सिंथैटिक कहते,भैंसों के थन में भर दे, 

         हर कवि का सर साबुत निकले,अगर ओखली में सर दे, 

         सरस्वती मैया वर दे।"

        कवियों की यह गोष्ठी अध्यक्ष महोदय की भावनाओं के मद्देनजर देर रात तक चलती रही। कवियों ने 'दूध की नदियाँ', 'दूध का दूध, पानी का पानी'और दूध का हक़' जैसी अनेक विषयी रचनाओं का पाठ करके यह साबित कर दिया कि लक्ष्मी-पुत्र अगर किसी कवि-गोष्ठी का अध्यक्ष हो, तो सरस्वती-पुत्रों के स्वर अपने आप ही बदल जाते हैं।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 20 नवंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल ) के साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य .....हार जाना एक वर्ल्ड कप का



हारने के लिए किसी किस्म के प्रयास की जरूरत नहीं होती। बिना कोशिश किए आप किसी भी खेल में अपनी हार को 'हार-जीत तो लगी रहती है', जैसे तसल्ली दायक शब्दों से नवाजकर सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं। क्रिकेट वर्ल्ड कप को हारने के बाद जिन नेताओं ने जीतने के लिए इंडियन टीम को अग्रिम शुभकामनाएं दी थीं, वे अब अपने चुनाव- प्रचार में लग चुके हैं। नरेंद्र मोदी के नाम से बने स्टेडियम पर उनकी हार का ठीकरा फोड़ने वाले विपक्षी नेताओं के 'हमने तो पहले ही कहा था कि यह स्टेडियम इंडियन टीम के लिए शुभ नहीं है' जैसे भविष्यपरक लोकल बयान आने शुरू हो गये हैं। अगर अभी शुरू नहीं भी हुए हैं, तो उम्मीद है कि हमारा यह लेख पढ़ने के बाद आने शुरू हो जायेंगे। किरकिट में ऐसे लोग गिरगिट की भूमिका निभाते हैं। कल किसी और रंग का बयान दिया और आज जबकि इंडिया हार चुका है, कुछ अलग रंग के जो बयान हैं, वो अस्तित्व में आ रहे हैं।
    गिरगिट और नेता भी इतनी जल्दी रंग नहीं बदलते, जितनी जल्दी किरकिट के महारथी बदल लेते हैं। पहले ऐसा नहीं था। या तो गिरगिटों के रंग बदलने पर पाबंदी थी या वे इसमें इंटरैस्टिड नहीं थे। जो भी था, बस, था। बुद्ध और गांधी के काल में अगर किरकिट इतना लोकप्रिय होता, तो उसकी अहिंसक गतिविधियों पर पाबंदी लगाने के लिए वे लोग अन्ना हजारे की शैली में धरने प्रदर्शन कर रहे होते। गेंदों को पीटे जाने पर उनके क्या विचार होते, यह तो भावी इतिहास ही बताता, मगर इसे बंद करवाने में उनकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण थी, इसे जरूर दर्ज किया जाता।

    बैट और बाल के आपसी रिश्ते कैसे होते हैं, भाजपा और 'इंडिया' गठबंधन की तरह यह किसी से छिपा नहीं है। हर बाल पिटने के लिए "पहले मार लिया, अबकी से मार के देख" वाले जुमले की तर्ज पर बार-बार बैट की ओर चली जाती है। यह बहुत अच्छी पोजीशन नहीं है। कई मर्तबा ऐसा भी होता है कि बैट से पिटने के बाद गेंद किसी फील्डर के हाथ में पहुंच जाती है और अपनी पृष्ठभूमि पर अपने दोनों हाथ टिकाए रहने के बावजूद 'एंपायर' नाम का कोई प्राणी अपनी एक उंगली उठाकर उसे कैच करार दे देता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पिटी हुई बाल को पकड़कर सहलाया-पुचकारा जाता है। अक्सर फील्ड में खड़े कुछ लोग, जिन्हें लोग फील्डर भी कहते हैं, पिटी हुई बाल की आबरू बचाने के लिए अपने हाथ-पैरों के टूटने की चिंता न करके बॉल को बचा लेते हैं। स्टेडियम में इस पर भी पता नहीं क्यों तालियां बजाई जाती हैं। भारत की हार पर अभी तक पाकिस्तानियों की तरह किसी किरकिट प्रेमी द्वारा अपना टीवी सैट तोड़ने की सूचना नहीं मिली है। जबकि पाकिस्तान में खिलाड़ियों के सिर न तोड़कर लोग घरों में रखे अपने पुराने और खराब टीवी सैट तोड़ देते हैं। हमारे यहां ऐसा नहीं है।

 हमारे यहां इसे 'जो हार गया, वह जीत गया' । ढाई हजार वर्ष पुराने चीनी दार्शनिक लाओत्से ने यह सूत्र वाक्य देकर भारतीय किरकिट प्रेमियों को भी प्रभावित किया है। हार के बाद वे अब इस सत्य को स्वीकार कर खामोश हो जाते हैं कि जिसने अपनी हार जीत से पहले ही स्वीकार ली हो, उसे हराने का कोई विकल्प नहीं रह जाता। विश्वास न हो, तो अपनी किरकिट टीम के कप्तान से पूछकर देख लें। अपने दार्शनिक में वे भी यही कहेंगे 'जो हार गया, वह जीत गया'। हमने कुछ गलत कहा हो ,तो बताएं ।



 ✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत


शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) के साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ....रेलवे प्लेटफार्म की गतिविधियां


 रेलवे प्लेटफार्म कई सारी गतिविधियों को संपन्न करने के काम आते हैं ! ‘ गतिविधियाँ ‘ हम उन तमाम हरकतों के गतिशील बने रहने को कहते हैं, जो किसी भी नंबर के प्लेटफार्म पर किसी भी वक़्त, किसी भी रूप में की जा सकती हैं ! इसमें बिना टिकिट गाड़ी में बैठने से पहले टी टी या गार्ड से ‘ सेटिंग ‘ की गुज़ारिश के अलावा किसी वीरान और तनहा पड़े प्लेटफार्म पर किसी से इश्क फरमाने जैसी बातें शामिल हैं !इन गतिविधियों में रेलवे कर्मियों के अलावा पुलिस, यात्री या कोई भी प्रतिभागी हिस्सा ले सकता है ! इधर-उधर के मंहगे होटलों में जाने से क्या फायदा ?


    रेलवे प्लेटफार्म पर कई ऐसे भी डिब्बे खड़े दिखाई देते हैं, जो ब्रिटिश काल से वैसे ही खड़े हैं, जैसे कि अंग्रेज उन्हें छोड़ कर गए थे ! भारी होने कि वजह से वे इन्हें अपने साथ नहीं ले जा सके ! ये डिब्बे अब लैलाओं और मजनूओं के सांस्कृतिक कार्यों के काम आते हैं ! यूं तो रेलवे स्टेशनों पर आपको विभिन्न किस्म के नज़ारे देखने को मिलते होंगे, मगर गौर से देखें तो भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के लिए देश-भ्रमण करने कि कोई ज़रुरत नहीं पड़ेगी ! सब कुछ यहीं मिल जाएगा !

    नाक पौंछकर फिर उसी हाथ से रोटी सकते बैल्डर, पागल किस्म की लड़की में विभिन्न किस्म की संभावनाएं तलाशते पुलिस वाले, बिना टिकिट-यात्री को पकड़कर उनसे मोल-भाव करते टीसी, बदबूदार पानी पीकर रेलवे को कोसते यात्री, किसी भी दशा में कहीं भी सो जाने वाले सिद्धांत में विश्वास करने वाले ग्रामीण या ज़हरखुरानी के शिकार व्यक्ति पर ज़्यादा शराब पीकर ज़मीन पर गिरे होने के आरोप लगाते रेलवे और पुलिस के न्यायशील कर्मी , जैसे सैकडों दृश्य हैं, जिमें ‘ इंडियन कल्चर ‘ तलाशी जा सकती है !

    देखने के नज़रिए हैं कि आप किसको किस नज़रिए से देख रहे हैं ? टिकिट होने के बाबजूद टीसी आपको और आपकी पर्स वाली जेब को किस नज़रिए से देख रहा है या ‘ बम-चेकिंग अभियान ‘ पर निकले रेलवे पुलिस कर्मी आपकी अटैची को बैंत मार कर आपको किस नज़रिए से देख रहे हैं ? या अन्य सीटें खाली होने के बाबजूद लड़कियों से सट कर बैठने वाले खूसट , मगर भाग्यशाली बूढे को वहां बैठे लड़के किस नज़रिए से देख रहे हैं आदि ऐसी अनेक बातें हैं, जो रेलवे से जुडी हैं, मगर हमारा नजरिया जो है, वो वही है, जो हमेशा से रहा है ! उसमें कोई बदलाव नहीं है ! 

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....मौसम, छतरी और उधार




        "मौसम अच्छा हो गया आज।" यह जानते हुए भी कि अच्छे मौसम में हर व्यक्ति ऐसा ही महसूस कर रहा होगा, एक दोस्त ने अपने दोस्त को बिना अंधा साबित किये अपनी बातचीत का पहला वाक्य छोड़ा।

        "हां यार, कल कितना बुरा मौसम था ? गर्मी के मारे हालत ख़राब थी।" दूसरे दोस्त ने मौसम-सम्बंधी अपना विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए पहले दोस्त का ज्ञानवर्धन करने के लिहाज़ से कहा।

       "लगता है, बारिश होगी।" मौसम की भविष्यवाणी में अपनी माहिरी प्रदर्शित करके पहले वाले ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा।  

       "बारिश हुई, तो भीगना पड़ेगा हमें।" दूसरे दोस्त ने बारिश के पानी में गीलापन होने की बुराई करते हुए जवाब दिया।

       "छतरी होती तो शायद इतना नहीं भीगते।" भीगने से पूर्व जल-रक्षक छतरी की भूमिका और फिर उसकी प्रंशसा भी बात की बात में हो गई।

      "छतरी से बैटर बरसाती रहती है। नीचे का हिस्सा भी नहीं भीगता उसमें।" स्वज्ञानजन्य  बेहतर विकल्प का तात्कालिक प्रदर्शन करते हुए दूसरे दोस्त ने चारों  दिशाओं में अपनी गर्दन घुमाकर ऐसे देखा कि अगर और लोग भी उसकी यह बात सुन रहे हों, तो 'क्या बात कही है आपने,' वाले अंदाज़ में उसकी तारीफ़ 

करें।

      "वो तो है ही। छतरी अपनी जगह है, बरसाती अपनी जगह ।" पहले दोस्त ने यह बात कुछ इस अंदाज़ से की, जैसे उसने 'प्राचीन वर्णाश्रम-व्यवस्था  में हर वर्ण का अपना अलग महत्त्व था, जैसी कोई बहुत ज्ञानपरक और गूढ़ बात कही हो और जिसकी कि तारीफ़ होनी चाहिए।

       "लेकिन बारिश के साथ अगर आँधीनुमा हवा चल पड़े, तो छतरी किसी की नहीं रहती । कई मर्तबा तो वह उल्टी भी हो जाती है । " जीवन की तरह छतरी की भी निरर्थकता को सिद्ध करने की  गरज से दूसरे दोस्त ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया ।

      "देखा जायेगा । अभी कौन सी बारिश हो रही है।" वार्ता-समापन की शैली में पहले वाला दोस्त 

बुदबुदाया।

     "और क्या। बातों-बातों में असली बात तो मैं भूल ही गया । यार, दौ सौ रुपये उधार दे दो। एक तारीख़ को लौटा दूँगा।" दूसरे ने अच्छे मौसम में अर्थदान की भूमिका प्रस्तुत करते हुए कहा।

      और इस तरह पहले वाले दोस्त का अच्छा-ख़ासा आंतरिक मौसम ख़राब हो गया।

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद संभल)निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य....हमारे शहर के निराले कुत्ते...



धर्मराज युधिष्टिर ने जो सबसे गलत काम किया, वह यह था कि वे खुद तो स्वर्ग की सीड़ियां पार करके चले गए, मगर अपने उस कुत्ते को पीछे ही छोड़ गए, जिसके नाम को लेकर अभी भी एकमत होने के चक्कर में इतिहासकार एकमत नहीं हो पाए हैं. अखबारों में अपना नाम ना छापने की शर्त पर कुछ इतिहासकारों ने यह मानने का दावा किया है कि इंडिया में कुत्तों का आदि पूर्वज वही कुत्ता था और बाकी सब जो देश भर में घूम रहे हैं, वे उसके वंशज हैं. प्राचीन काल में कुत्तों को वह सम्मान प्राप्त था, जो वफादारी की कमी होने की वजह से आदमी का भी नहीं रहा होगा. बेवफाई की कसमें खाने पर लोग कहा करते थे कि "खा, अपने कुत्ते की कसम कि तूने बेवफाई नहीं की." बाद में यही बेवफाई शायरी में महबूबा के लिए इस्तेमाल की जाने लगी.

    हमारे शहर में नगर पालिका होने की वजह से कुत्तों की पैदावार भी खूब हो रही है. ऐसा क्यों है, यह रिसर्च का विषय होने के बावज़ूद अभी तक किसी शोधार्थी के गाइड के दिमाग में नहीं आ पाया है. रास्ता चलते कौन सा कुत्ता, कब काट ले, कुछ नहीं कहा जा सकता. जो लोग कुत्तों से डरते हुए साइड में निकलने की कोशिशें करते हैं, कुत्ते सबसे ज़्यादा उसी शख्स की तरफ मुखातिब हो लेते हैं और तब अपनी पैंट में मौजूद टांगों की रक्षा के लिए उसके अन्दर से भर्राई सी आवाज़ निकलती है कि "बचा लो, यार, यह किन सज्जन का कुत्ता है ?" वह आदमी इस बात को जानता है कि अगर "यह किस कमबख्त का कुत्ता है," जैसी कोई बात बोल दी, तो वह कभी भी अपने कुत्ते से कटवाए बिना बाज नहीं आएगा.

    हमारी कॉलोनी को ही ले लीजिये. ऐसी-ऐसी नस्लों के कुत्ते लोगों ने पाले हुए हैं कि वे लाख 'हट-हट' या 'शीट-शीट' जैसी ध्वनियां करने के बावज़ूद, जब तक अच्छे भले आदमी की रही सही जान नहीं ले लेंगे, उसे यूं ही घूरते रहेंगे. इन कुत्तों से डरकर भागने  की ज़रा सी बात अगर मन में भी सोच ली, तो समझें कि वे या तो शराफत से आपको आपके घर के अन्दर तक दौड़ाकर आयेंगे या बहुत मूड में हुए, तो ऐसी जगह पर काटेंगे कि आप यह बताने की पोज़ीशन में भी नहीं रहेंगे कि यहीं पर क्यों काटा, अन्य किसी उपयुक्त स्थान पर क्यों नहीं ?

    भौंकने की अवस्था में काटने के संकेत देने पर कुत्ते को चुपाने का एक ही तरीका है और जो बहुत कारगर माना जाता है. जितनी जोर से कुत्ता भौंक रहा है, उससे भी जोर से अगर भौंक दिया जाये, तो कुत्ते को थोड़ी सी तसल्ली मिल जाती है कि आदमी और कुत्ते का कॉम्बिनेशन है, इसलिए इसे ना काटा जाये तो ही सही है. ना काटे जाने वाला आदमी अपनी इस गुप्त विद्या को अपने बच्चों को भी सिखा जाता है, ताकि इंजेक्शनों का खर्चा बचाने के काम आये. अब कोई कुत्ता पागल है या नहीं है, यह जानने के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहिए, वरना हर कुता अपने आप को पागल समझने की गुस्ताखी के एवज़ में इस कदर काट खाता है कि इंजेक्शन लगाने लायक जगह भी ढूंढनी मुश्किल हो जाये कि अब ये कहां लगाएं ?

✍️अतुल मिश्र 

श्री धन्वंतरि फार्मेसी 

मौ. बड़ा महादेव 

चन्दौसी, जनपद सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की काव्य कृति - मुरादाबाद और अमरोहा के स्वतंत्रता - सेनानी। यह कृति वर्ष 2003 में प्रतिमा प्रकाशन , दीनदयाल नगर ,मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित की गई थी। स्मृतिशेष मिश्र जी ने अपनी यह कृति मुझे तीन जून 2004 को प्रदान की थी ।



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::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 29 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की रचना --यहां भग्न मूर्ति का भाग हूं । यह रचना उन्होंने अपने दिल्ली प्रवास के दौरान लिखी थी । हमें यह रचना उपलब्ध कराई है उनके सुपुत्र अतुल मिश्र ने ।


मैं शिकारियों से घिरा हुआ, 

मैं थके हिरन सा डरा हुआ,

किसी राजधानी में खो गया,

मुझे क्या हुआ, मुझे क्या हुआ।


वहां लिख रहा था कहानियां,

वहां खोजता था निशानियां,

वहां कर रहा था खुदाइयां,

जहां ज्ञान-धन था दबा हुआ।


हैं पुरावशेष रखे जहां,

मृण्पात्र-शेष रखे जहां,

मुझे उस मकां का पता तो दो,

है बुतों से ही, जो सजा हुआ।


यह नया शहर भी अजीब है,

यहां हर शरीफ़ ग़रीब है,

यहां हर निगाह है अजनबी,

है सभी में ज़हर घुला हुआ।


वहां शब्द-शब्द का अर्थ था,

वहां शब्द-शब्द समर्थ था,

यहां आके सब ही भुला चुका,

वहां पुस्तकों का पढ़ा हुआ।


वहां मूर्ति थी किसी यक्ष की,

वहां यक्षिणी मेरे वक्ष थी,

यहां भग्न मूर्ति का भाग हूं,

ना जुड़ा हुआ, ना ढला हुआ।


वहां तितलियों को सुगंध दी,

वहां ज़िंदगी मेरी छंद थी,

यहां डाल-टूटा गुलाब हूं,

ना झरा हुआ, ना खिला हुआ।


वहां आंचलों ने सजा दिया,

यहां आंधियों ने हिला दिया,

मैं वो बदनसीब चिराग हूं,

ना धरा हुआ, ना जला हुआ।


✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र

::::प्रस्तुति::::::

अतुल मिश्र

सुपुत्र स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र

चन्दौसी, जिला सम्भल

उत्तर प्रदेश, भारत


सोमवार, 27 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की प्रथम काव्य कृति -- मधुगान । इस कृति में उनके 37 गीत हैं । इस कृति का प्रकाशन श्री योगेन्द्र मोहन मिश्र, काव्य कुटीर चन्दौसी द्वारा वर्ष 1951 में हुआ । हमें यह दुर्लभ कृति उपलब्ध कराई है उनके सुपुत्र श्री अतुल मिश्र जी ने ।


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डॉ मनोज रस्तोगी

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रविवार, 26 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की दुर्लभ गीति काव्य कृति -- कल्पना कामिनी । इस कृति में उनके वर्ष 1951-52 में लिखे 51 गीत हैं । इस कृति का प्रकाशन काव्य कुटीर चन्दौसी द्वारा वर्ष 1955 में हुआ । हमें यह कृति उपलब्ध कराई है उनके सुपुत्र श्री अतुल मिश्र जी ने ।


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डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार, इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र की ऐतिहासिक कृति - 'बदायूं के रण-बांकुरे राजपूत' । उनकी यह कृति सौजन्या मिश्र, प्रतिमा प्रकाशन चंदौसी, उत्तर प्रदेश, भारत द्वारा वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई । इस कृति में श्री मिश्र ने कठेरिया, गहरवार, गौतम,गौर, चौहान, चंदेल, जंघारा, तोमर, भाटी, बड़गूजर, बाछिल,बैस, राष्ट्रकूट और मुस्लिम राजपूतों का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत कृति श्री मिश्र जी ने मुझे 4 जुलाई 1994 को भेंट की थी।


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डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

सोमवार, 8 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र की ग़ज़ल --सारी ख़ुशियां न्यौंछावर कर आया हूं जिस गांव में, लिखना क्या अब भी ठंडक है, पीपल वाली गांव में,


सारी ख़ुशियां न्यौंछावर कर आया हूं जिस गांव में,

लिखना क्या अब भी ठंडक है, पीपल वाली गांव में,


क्या पड़ोस का कलुआ अब भी, पीकर जुआ खेलता है,

मंगलसूत्र बहू का गिरवीं, रख आता था दांव में।


क्या बच्चों की टोली अब भी, मुझे पूछने आती है,

मैं बंदी था, जिनकी मुस्कानों के सरल घिराव में।


बिन दहेज के कई लड़कियां, क्वांरी थीं उस टोले में,

लिखना, बिछुए झनक रहे हैं, अब किस-किसके पांव में।


कभी तलैया में कागज की नाव चलाया करता था,

अब ख़ुद ही दिल्ली में बैठा हूं कागज की नाव में।

(22 मार्च 1983) (दिल्ली-प्रवास)

✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र 


गुरुवार, 22 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- व्याख्या एक फ़िल्मी गाने की !!!!

 


किसी भी फ़िल्मी गाने की व्याख्या हमने कभी सही ढंग से नहीं की. एक तो इन गानों के पीछे बजते हुए पार्श्व संगीत ने हमेशा परेशान किये रखा कि जंगल में, जहां आजकल जंगली जानवर भी रहने से घबराते हैं, संगीतकार अपने तान-तमूरे लेकर कैसे पहुंच जाते हैं कि हीरो या हीरोइन के गाने में कोई कमी ना रह जाये ? कई गाने तो ऐसे होते हैं कि जिनको हीरो जो है, वो हीरोइन की शान में गाता है और कई ऐसे होते हैं, जिन्हें ग़म नाम की कोई बीमारी होने की वजह से वह गाने के लिए अपने घर से दूर जंगलों में जाकर गाना ही उन्हें मुनासिब समझता है. इन गानों में बेवफाई, मिलने आने का वादा करके भी ना आना, याद का लगातार आना और दुनिया के ज़ालिम होने जैसी सूचनाएं होती हैं. इन गानों को हीरो किसी भी सुनसान लगने वाली ऐसी जगह पर जाकर गा लेता है, जहां अभी तक प्लॉटिंग नहीं हुई है और किसानों की ज़मीनें मौज़ूद है.

    साठ और सत्तर के दशक की फिल्मों के गाने तो ऐसे होते हैं कि उन्हें जितनी बार सुनो, उतनी बार कई सारे सवाल खड़े हो जाते हैं. मसलन. एक गाना है, ” लो, आ गयी, उनकी याद, वो नहीं आये ? ” गाने में कोई कमी नहीं है, मगर हम इसे जब भी सुनते हैं, तो अफ़सोस होता है कि जिसे आना चाहिए था, कम्बख्त वह तो आया नहीं, याद पहले आ गयी. अब हीरोइन याद से कब तक काम चलाएगी ? हीरो या तो किसी लोकल ट्रेन से आने की वजह से अपने निर्धारित समय से कई घंटे लेट हो गया है या फिर उसकी याद में इसी किस्म का गाना गाने वाली कोई और मिल गयी है तो उसने सोचा होगा कि चलो, इसका गाना भी सुनते चलें. कुछ भी हो सकता है. आना-जाना किसी के हाथ में है कि गाना गाकर याद किया तो हाज़िर ?

    ” लो, आ गयी उनकी याद…..” गाना अपने शबाब पर है. संगीतकार सारे साथ चल रहे हैं कि पता नहीं कौन सा सुर बदलना पड़ जाये ? गाने वाली गाये जा रही है, ” लौ थरथरा रही है, अब शम्मे-ज़िन्दगी की, उजड़ी हुई मोहब्बत, मेहमाँ है दो घड़ी की……. ” शम्मे-ज़िन्दगी की यानि वह ज़िन्दगी, जिसकी पोज़ीशन अब शम्मां की तरह की हो गयी है, उसकी लौ जो है, वह थरथरा रही है और वो जिसके एवज़ में सिर्फ़ याद ही हमेशा आ पाती है, अभी तक नहीं आ पाया है, इसलिए गाना संगीतकारों सहित अपने अगले पड़ाव पर पहुंच जाता है. जंगली जानवरों से भरे सुनसान जंगल में हीरोइन इतना नहीं थरथरा रही, जितनी उसकी ज़िन्दगी की शम्मां की लौ थरथरा रही है. आज उसके ना आ पाने की वजह से उसकी मोहब्बत बेमौसम बरसात में हुई बारिश की वजह से उजड़ी फसल की तरह उजड़ गयी है और अब सिर्फ़ दो मिनट में गाना ख़त्म होने तक की ही मेहमाँ है, उसके बाद वह अपने घर और यह अपने घर, मगर वह जो कम्बख्त हीरो है, वह अभी तक नहीं आ पाया है.

    यही नहीं, कई गाने ऐसे हैं, जिनको हम जब भी गुनगुनाते हैं तो कई किस्म के कई सवाल आ खड़े होते हैं हमारे सामने और हम उनकी व्याख्या अपने ढंग से कर डालते हैं. एक सवाल और था जो बचपन से हमारे ज़हन में कौंधता रहा है कि फिल्मों में गाने गाकर ही अपनी बात कहने की कौन सी तुक है और जब गाने गाये ही जा रहे हैं तो संगीतकार उनके साथ क्यों चल रहे होते हैं ? वे अपने गाने गायें, हमें कोई ऐतराज़ नहीं, मगर उनमें इस किस्म की बातें तो ना कहें कि ” उजड़ी हुई मुहब्बत मेहमाँ है दो घड़ी की…..” एक बार अगर महबूब नहीं आ पाया तो मुहब्बत उजड़ गयी ? आज अगर कोई महबूब ना आ पाए तो अपनी मुहब्बत को उजड़ने से बचाने के लिए महबूबा फ़ौरन किसी दूसरे महबूब को मोबाइल करके बुला लेगी. पहले ऐसी बात नहीं थी. लानत है उस ज़माने की मुहब्बत पर.

     ✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----हमारे पूर्वजों पर एक स्कूली बहस

   


 “चलो बच्चो, बताओ कि हमारे पूर्वज कौन थे ?” मास्टर साहब ने प्राचीन इतिहास का एक ऐसा सवाल छात्रों से पूछ लिया, जिसको लेकर छात्रों में अक्सर मतभेद होता था और जो वानर-जाति से खुद को जोड़े जाने कि वजह से था!

“सर, हमारे पूर्वज तो हमेशा से ही ग्राम-प्रधान रहे हैं! और लोगों के या आपके पूर्वजों के बारे में हमें जानकारी नहीं है कि वे कौन थे?” देहात के एक खुराफाती इतिहास-छात्र ने इतिहास-सिद्ध जानकारी को नज़रअंदाज करते हुए जबाव दिया!

    “मैं तुम्हारी वंशावली नहीं पूछ रहा! तमाम इंसानों कि बात कर रहा हूं कि उनके पूर्वज कौन थे?” मास्टर साहब ने बन्दर की शक्ल से मिलते-जुलते एक ऐसे छात्र से सवाल किया, जिसको लेकर वह अपने चिंतन के क्षणों में डार्विन की थ्योरी पर अपनी प्रमाणिकता की मोहर लगा दिया करते थे कि उसने कुछ सोचकर ही इंसानों को ‘वानरों की औलादें’ कहा होगा!“सर, आप यह सवाल मुझसे ही क्यों पूछते हैं? मैं तो कई मर्तबा बता चुका हूं हमारे और आपके पूर्वज बन्दर थे और पेड़ों पर ही रहा करते थे!” वानरमुखी छात्र ने अपनी मुखाकृति को ‘पूर्वज गिफ्टेड’ सिद्ध करते हुए निस्संकोच मास्टर साहब को याद दिलाया!“………..फिर भी……. तुम सही जवाब देते हो, इसलिए तुमसे पूछ लेता हूं!” वानर-वंश के नवनिर्मित दस्तावेज़ के तौर पर वानारमुखी छात्र को प्रोत्साहित करते हुए मास्टर साहब ने कहा!

    “मेरे पिताजी बुरा मानते हैं कि इतिहास का यह सवाल तुमसे ही क्यों पूछते हैं तुम्हारे मास्टर साहब?” ऐतिहासिक धरोहर सिद्ध होते छात्र ने अपनी पारिवारिक समस्या की ओ़र ध्यान खींचते हुए मास्टर साहब के सामने अपनी बात रखने की कोशिश की!“मैं तुम्हारे माताजी और पिताजी की समस्या को बखूबी समझ सकता हूं! डार्विन का नाम सूना है तुमने? वो भी यही सोचते थे,जो मैं सोचता हूं कि आदमी के पूर्वज बन्दर रहे होंगे!” सार्वजनिक तौर पर बंदरों द्वारा की जाने वाली अश्लील हरकतों का स्मरण करते हुए इतिहास के मास्टर साहब ने छात्र से भविष्य में ऐसे सवाल न पूछने के लिए आश्वस्त किया और ब्लैक बोर्ड पर बन्दर और बंदरियानुमा कुछ अजीब से चित्र बनाने में व्यस्त हो गए!

    ✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

सोमवार, 28 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----होना एक शरीफ़ आदमी का !!


शरीफ़ आदमी........!  शरीफ़ आदमी वह होता है, जो शराफ़त को बेच खाने के बाद लोगों से पूछता फिरता है कि, "यह शराफ़त इस दुनिया से मल्लिका के कपड़ों की तरह ख़त्म क्यों हो गई है ?" शरीफ़ आदमी वह होता है, जो ऊँचे मंचों से झूठ बोलने के बाद जनता से यह भी पूछता रहता है कि, "विपक्षी दलों की तरह लोग झूठ कैसे बोल लेते हैं ?" या "झूठ का यह व्यापार अन्ना हज़ारे या रामदेव जैसे लोग कब तक करते रहेंगे ?" शरीफ़ आदमी कोई यूँ ही नहीं हो जाता ! बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं, तब कोई एक शरीफ़ हमारे मुल्क़ पर अहसान करते हुए पैदा होता है !

 हर शरीफ़ आदमी की यह क्वालिटी होती है कि वह देखने में भले ही किसी भेड़िये से ज़्यादा ख़तरनाक लगता हो, मगर हँसेगा ऐसे, जैसे कलमाड़ी या राजा की तरह काले धन से उसका कोई वास्ता ही ना हो और जो लोग काले धन को अपने लिए नहीं, बल्कि इस मुल्क़ के लिए विदेशों से वापस लाना चाहते हैं, वह उनके आन्दोलन के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर देगा ! धर्म या सियासत में जाने के बाद हर शरीफ़ आदमी ऐसा ही बन जाता है ! अब शरीफ़ आदमी के बारे में हम ख़ुद क्या कहें ?

   शरीफ़ आदमी वह होता है, जो किसी रिटायर्ड आदमी की तरह पौधों में पानी भी डालता रहता है और रास्ता चलती घरेलू नौकरानियों से अक्सर यह भी पूछ लेता है कि "कैसी हो या कहाँ काम कर रही हो या अब कितने घर ले रखे हैं ?" यह शरीफों की एक अलग ही प्रजाति है और जो 'अंकल' कहलाने की आड़ में थोड़ा खुलकर शरीफ़ बन जाती है ! शरीफ़ आदमी कौन होता है, यह बताना बहुत मुश्किल नहीं है !

     शरीफ़ आदमी वह होता है, जो रात में तो अपनी बीवी से यह कहकर सोता है कि "तुमसे हसीन तो इस दुनिया में कोई है ही नहीं !" और सुबह जब सड़क पर पराई नारियों को देखता है तो ख़ुद ही सोचता है कि मैंने ऐसे कौन से बुरे कर्म किसी जन्म में किए थे कि मुझे इनमें से कोई भी इस बीवी की जगह नहीं मिली ? उसकी शराफ़त देखिये कि वह शरीफ़ बने रहने के लिए बीवी के आगे अपने इस मन की अभिव्यक्ति नहीं करता ! आज शराफ़त मियाँ फिर पौधों को पानी पिला रहे हैं ! देखूँ, अगर शरीफ़ आदमी के बारे में वो कुछ बता सकें तो !

✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

शनिवार, 5 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----होना एक सरकारी अभिशाप का


सरकारी इश्तहारों में जो नारे लिखे होते हैं, उनकी पोज़ीशन अब यह है कि उन्हें लोग बिना पढ़े निकल लेते हैं, जिससे उन सरकारी मंसूबों पर पानी फिर जाता है, जो दीवारों पर कुछ इस अंदाज़ में लिखे जाते हैं कि आदमी भयभीत ही ना हो, उनसे डरकर उन पर अमल करना भी शुरू कर दे. लोग अब इन्हें देखकर मन ही मन कहते हैं कि यार, दफ़ा करो, जो काम खुद सरकार करवा रही है, उसी को मना भी कर रही है कि ” शराब पीना अभिशाप है. ” या ” बाप शराब पियेंगे, बच्चे भूखे मरेंगे. ” सरकार ने यह सोचा होगा कि इंडियन बाप जो हैं, वो इन इश्तेहारों से डरकर शराब पीना बंद कर देंगे और हमें यह कहने को हो जाएगा कि हमारी सरकारी मुहिम सफल रही.

मज़े की बात तो यह है कि जिस मद्य-निषेध विभाग की तरफ से ये विज्ञापन किये जा रहे हैं, उसका मंत्री कौन है और किसी भी शहर में उसका ऑफिस कहां है, भगवान सहित कोई नहीं जानता. अगर यह ऑफिस किसी गली के किसी कोने में अपना अस्तित्व बनाए हुए कहीं है भी, तो वह क्या कर रहा है, यह भी कोई नहीं जानता. कायदे में तो जिस तरह से दारू की दुकानों के बराबर ही ये विज्ञापन लिखकर दर्ज़ किये जा रहे हैं, वहां इस विभाग के कर्मचारियों को भी तैनात कर देना चाहिए कि तुम किसी को भी शराब नहीं पीने दोगे और जो पिए, उसे पकड़कर थाने पहुंचा दो, मगर ऐसा आज तक नहीं हुआ. लोग ” शराब पीना अभिशाप है.” में से ” अभिशाप ” पर कालिख या स्वसुविधानुसार गोबर पोतकर अन्दर निकल लेते हैं.

सरकार दोनों बातों में दिलचस्पी रखती है कि शराब के राजस्व से उनकी सरकार भी चलती रहे और मद्य-निषेध विभाग भी. लोगों से जिस बात को मना करो, वे उस बात को करते ज़रूर हैं, इस लिहाज़ से सरकार ने कुछ तो अपने छंद बोध से और कुछ जहां बोध सही नहीं लगा, वहां सीधे-सादे शब्दों में अपनी आवाम को यह पैग़ाम भी दे दिया कि दारू पीने के बाद यह सोचो कि तुम्हारे बच्चे अब भूखे मरेंगे कि नहीं ? ऐसे-ऐसे डरावने इश्तहार हैं कि आदमी बिना डरे ना रहे और अपना डर दूर करने को दारू ज़रूर पिए कि यार, सरकार जब खुद बिकवा रही है तो पीने में क्या हर्ज़ है ? ज़्यादा पी ली तो इसी बात को मुददा बना कर सरकार को चार-छह गालियां भी दे लीं कि मन हल्का हो जाये.

मैं अक्सर सोचता हूं कि सरकार अगर वास्तव में शराब पीने को अभिशाप मानते हुए इसकी बिक्री पर ही रोक लगा दे तो क्या होगा ? इस बारे में जब एक मंत्री से पूछा तो उन्होंने बताया कि होगा क्या, भट्टा बैठ जाएगा सरकार का. सरकार का मुंह अमरीका या विश्व बैंक की तरफ मुड़ जाएगा कि भैया, भगवान के नाम पर दे दो या ईमान के नाम पर दे दो. पड़ोसी मुल्कों को समझाना पड़ेगा कि भाई, आजकल ज़रा हालात सही नहीं हैं, इसलिए हमला-वमला करने से पहले सोच लेना कि करना है या नहीं. हमारा मुल्क अब अमन प्रिय हो गया है और लोगों ने दारू भी छोड़ रखी है. सच में, अगर एक बार ऐसा हो जाये तो शराबियों का तो जो होगा, वह होगा ही, सरकार का क्या हाल होगा, यह सोचकर मैं अक्सर गर्मियों में भी कांप उठता हूं.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

शनिवार, 1 मई 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- बवाल-ए-फ़ोन-टेपिंग !!!!


 विपक्षी दलों की फोन-टेपिंग का मामला जब सामने आया तो कई नेताओं की दिन की नींद और रात का चैन ( जो ज़ाहिर है की बिस्तरों पर ही मिलता है ) अचानक गायब हो गया. सुबह संसद में सोने वाले नेता भी जाग गए कि पता नहीं रात में होने वाली हमारी कौन सी सीक्रेट बात रिकॉर्ड कर ली गयी हो ? क्या पता कि रामकली से घर जल्दी आने की बात कहकर लाजवती यानि लज्जो से होटल जल्दी पहुंचने की बात हो या आई.पी.एल.के घपलों में अपनी हिस्सेदारी से मुक्त होने के जुगाड़ की कोई बात की गयी हो. कल रात भर नेताओं के हाथ-पैर फूले रहे कि पता नहीं हमारी कौन सी 'ह्युमन वीकनेस' यानि मानवीय कमज़ोरी पब्लिक के सामने लाने की साज़िश रची जा रही हो कि कभी इलेक्शन में खड़े होना तो  अलग, नामांकन कराने लायक पोज़ीशन भी ना रहे हमारी.

आज सुबह से ही संसद की इमारत यह सोचने में लगी थी कि मैंने पता नहीं कौन से ऐसे बुरे कर्म अपने पिछले जन्म में किये थे, जो आज उनकी सज़ा एक शोरमचाऊ इमारत के रूप में जन्म पाकर भुगतनी पड़ रही है. जिन लोगों के फटे हुए गले पहले से ही इस लायक नहीं हैं कि वे उन्हें और ज़्यादा फाड़ सकें, वे भी गला फाड़-फाड़कर कह रहे हैं कि " यह जो कुछ भी हुआ या अभी भी हो रहा है, वह लोकतंत्र के मुंह पर ( अगर वह वाक़ई में कहीं दिखता है तो ) एक ना पड़ने लायक तमाचा है. " संसद के उस वीरान कोने में, जहां लोग बीड़ियों और सिगरेटों के टोंटे फ़ेंक दिया करते है, लोकतंत्र खड़ा हुआ सोच रहा था कि इस मुल्क के नेता हर मसले में मेरे मुंह पर ही तमाचा क्यों पड़वाते हैं, खुद के मुंह पर क्यों नहीं ?

 यह हमारी गोपनीयता के अधिकारों का हनन है और इसे जब तक हम यह सरकार बदलकर अपनी सरकार ना ले आयें, नहीं होने देंगे. " किसी ऐसे विपक्षी सांसद की आवाज़ उनके गले में से बार-बार कुछ सोचते हुए निकलने के प्रयास करती है, जो पिछले दिनों ही अपने गले में आज़ादी के बाद से जमे बलगम को साफ़ कराके अमरीका से लौटे थे.    " यह सरासर ज़्यादती है, तानाशाही है और मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि... वो क्या नाम है उसका.....लोकतांत्रिक.....लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास है. " कोने में खड़े लोकतंत्र का मन कर रहा था कि वह अभी उस सांसद का गला पकड़ ले, जिसने इस बार फिर उसके ह्रास होने जैसी कोई गन्दी बात की है. खुद के चरित्र का कितना ह्रास कर लिया है इसने, यह कभी नहीं सोचा इस नेता ने ? लोकतंत्र आज कुछ ज़्यादा ही दुखी था.    " सरकार को हम सबसे और इस देश की जनता से माफ़ी मांगनी होगी कि इस तरह की हरकतें वह फिर नहीं करेगी. " किसी ऐसे सांसद की आवाज़ इस बार सदन में गूंजी, जो पहले कभी सरकार में मंत्री-पद पर था और अभी भी उम्मीद में था कि उसे फिर से सरकार में अपनी हिस्सेदारी वापस मिल जायेगी.

संसद में इस फोन-टेपिंग प्रकरण के विरुद्ध सबसे ज़्यादा गला उन्हीं लोगों ने फाड़ा था, जो पिछले कई महीनों से खुलेआम आई.पी.एल., मैच- फिक्सिंग, सट्टे और महिला-मित्रों के संसर्ग में थे और अपने हिस्सेदारों से स्वीटजरलैंड में बैंक-खाते खोलने की प्रक्रियाएं पूछ रहे थे. सबसे ज़्यादा हंगामा यही लोग कर रहे थे. सरकार से माफ़ी मांगने की मांग करने वाले लोग वे थे, जिनकी सोच यह थी कि अगर माफ़ी मांग ली तो ठीक और अगर शर्म या किन्हीं अडचनों की वजह नहीं मांगी, तो उनकी सरकार को समर्थन दे देंगे. समर्थन देने में क्या घिस रहा है ? लेकिन अगर समर्थन नहीं दिया तो सरकार का तो कुछ नहीं घिसेगा, मगर हमारा सब कुछ घिस जाएगा.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश