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आ गया लो मेघ आंगन
कह रही चारों दिशाएं
यह कभी टिकता नहीं है
रूपसी तो रूप की है
यह कली तो धूप सी है
आज है पर कल नहीं है
कल भी एक पल नहीं है
पकड़े रहना आशाएं
वक़्त फिर मिलता नहीं है
बरसेगा इक दिन सावन
बोलेगा तुझको साजन
बूँद का इतिहास मन है
सर सर सर बहता तन है
भीगी भीगी अलकाएँ
जल वहाँ रुकता नहीं है।
देख ले तू चाँद यारा
मेघ में भी और प्यारा
यात्रा रुकती नहीं है
मात्रा गिनती नहीं है
तोड़ दे तू वर्जनाएं
मन कभी मरता नहीं है।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ
सच मानो, तभी से कायर हो गईं भावना।
दरवाज़े दस्तक को भूले, अतिथि मौन खड़े
हम न जावें कोई न आवे विकट भाव अड़े
मृगतृष्णा जब हो चौखट, कौन कहे देवो
उखड़ उखड़ कर ढूंढे सांसे कौन है मेरो
जब से छोड़ी इन कानों ने, सुननी प्रार्थना
सच मानो, तभी से कायर हो गई भावना
अब तो आदत पड़ चुकी यहाँ, क़र्ज़ लेने की
ख़्वाहिशों के घर बिस्तर, बस फ़र्ज़ निभाने की
कांपे रूह देख देख कर, अपने रोशनदान
काँच काँच बिखरा है भू पर, अक्स हिंदुस्तान
जब से भूली इन आँखों ने, करनी साधना
सच मानो, तभी से कायर हो गई भावना।।
एक कटोरी चीनी-पत्ती, घंटों फिर बातें
ले आंखों में चित्रहार, कट जाती थीं रातें
बुनें स्वेटर, डालें फंदे, भूल गये धागे
कैसी दौड़ इस जीवन की, सब के सब भागे
जब से भोगी इस बस्ती ने, सहनी यातना
सच मानो, तभी से कायर, हो गई भावना
✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी
मेरठ
उत्तर प्रदेश, भारत
क्या लिखूं मैं अब व्यथा
हर व्यथा के सामने है
अनकही मेरी कथा
हाथ में मौली बंधी है
आंख है अपनी ठगी
भाल पर मंगल तिलक है
हाट पर बोली लगी
हर वृथा के सामने है
अनकही मेरी कथा।।
खा रही है जिंदगी को
सांस दीमक की तरह
तेल अपने पी गए सब
एक दीपक की तरह
हर कुशा के सामने है ।
अनकही मेरी कथा।।
गीत, मुक्तक, छंद, गजलें
कोश कविता के गढे
हर विमोचन कह रहा है
पृष्ठ-पृष्ठ चेहरे पढ़े
हर प्रथा के सामने है
अनकही मेरी कथा।।
कह दिया है सभी कुछ तो
क्या लिखूं मैं अब व्यथा।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ
उत्तर प्रदेश, भारत
मेरे सपने, तेरे सपने
घर पर ही कुर्बान हुए
संतानों ने चढ ली सीढी,
सपने तब संधान हुए
सोचा क्या, पाया फिर हमने
इतनी फुरसत मिली कहां
अंगारों पर चले मुसाफिर
क्या अपने-अरमान हुए
बच्चों ने भी गुल्लक फोड़ी
मां ने गहने बेच दिए
कर्जा कर्जा लदे पिताजी
तब जाकर भगवान हुए।
कुछ बनने की खातिर यूं तो
करते हैं सब, जतन यहां
रखी दिवाली मन के अंदर
बल-बलकर बलिदान हुए।।
(2)
टूटी सड़कें, पसरे गड्ढे,
अपना सफर तो जारी है
आसमान में छेद किया है,
दिल अपना त्योहारी है।
सुबह सवेरे निकले घर से
क्या पूरब कहाँ पश्चिम है
दगा दे रहे सूरज को सब
दिल अपना सरकारी है।
आओ आकर देख लो तुम भी
कदमों से नापी दुनिया
उठते गिरते बढ़ गये आगे
छालों से भी यारी है।।
अभी अभी तो यहीं कहीं पर
फ़ाइल देखी किस्मत की
फेंका पैसा, खुल गई यारो
क्या अपनी लाचारी है।।
घर से दफ्तर,दफ्तर से घर
हर दिन का रूटीन यही
मुँह चुराता घर का चूल्हा
महँगी सब तरकारी है।।
(3)
प्रेम की संकल्पना
प्रेम की वर्जनाएं
है मेरे पास ही
तुम्हारी कल्पनाएं
एक दिया हाथ पर
रोशनी मुझमें कैद
प्रकाश का वह घेरा
और तुम्हारी अर्चनाएं
दीप्त प्रदीप्त सी तुम
समक्ष जो मेरे खड़ीं
उच्छवास था गहरा मगर
गूंजती मंगल कामनाएं
दर पर प्रतीक्षित चांद सा
मैं नभ दृष्टिपात करता
लाने उसको आँगन यहां
करता नित अभ्यर्थनाएं..
है परस्पर प्रीत का पर्व
आलिंगन में विश्वास बेला
तैरते नैनों ने देखी फिर
सदा यूँ ही ज्योत्स्नाएं..
(4)
जब जब ढलके शाम, गूंजता मन का क्रंदन
कैसे कह दूं कोई कर रहा, हमारा वंदन।।
आई पीर कहने लगी, सागर बूंदों का
डरना क्या तूफानों से, तन तो नींदों का
बन अगस्त्य हैं पी जाते, लहरें सागर की
बादल बनते हैं हमसे, आशा गागर की
ठहरो-ठहरो चली वेग है, खिलता उपवन।।
कैसे कह दूं कोई कर रहा, हमारा वंदन।।
हर मौसम की नई फसल, इन खलिहानों की
जब जब फूटती बालियां, कह बलिदानों की
रह रहकर फिर आ जाती, कथा सावन की
आसमां पर टिकी निगाहें, व्यथा आंगन की
नागफनी सम ख्वाब हमारे, तन-मन चंदन।
कैसे कह दूं कोई कर रहा, हमारा वंदन।।
आओ करते गुणा-भाग, अपनी बदरी का
छाता ओढे खड़े हुए जन, अपनी नगरी का
बीत गई लो उम्र अपनी, किस्सा पानी सा
नापतोल कर लिखा हमने, हिस्सा रानी का
ज्यूं कर रही कोई अप्सरा, छम-छम नर्तन।।
कैसे कह दूं कोई कर रहा, हमारा वंदन।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ
मन का केवल भेद चाहिए
षड्यंत्रों की कमी नहीं है
चौसर पर हैं हम सब यारों
शकुनि पासा फेंक रहा है
कह द्रोपदी लाज की मारी
कलियुग आंखें सेंक रहा है
कहे क्या मन का दुर्योधन
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।
दूं क्या परिचय तुमको
क्या मैं इतिहास सुनाऊं
नाम, पता, आयु, शिक्षा
संप्रति की आस जगाऊं
पड़े हैं सांसों पर ताले
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।
इस बस्ती में अंगारों की
निंदा, छल, कपट खड़े हैं
आग, आग है इस सीने में
तन कर सभी तन खड़े हैं
रक्त सभी के खौल रहे हैं
षड्यंत्रों की कमी नहीं है।।
(2)
कैसे कहें घनघोर तम है
सुनें व्यंजना मन है पल है
कौंध रहीं जो बिजली सारी
गरजा, बरसा, बिखरा जल है।
प्रतिध्वनि में ये गूंज किसकी
देख,भर रहा है कौन सिसकी
थाल आरती का लाई बदरी
फिर भी यहाँ उथल पुथल है।
बजती घण्टी, नाद शँख का
अंग अंग प्रतिदान अंक का
कह रही क्यों चारों दिशाएं
रिक्त आचमन, तल ही तल है।।
लबों पर सजी है अर्चना
तोड़ दी हैं सारी वर्जना
देख रहा यूँ हरि भी नभ से
धरती पर तो कल ही कल है।।
कोलाहल में फिर क्यों कौंधे
बिजलियाँ यहाँ मन की तन की
सबकी अपनी, यही व्यथा है
प्यासी धरती, नयन सजल है।।
(3)
मत पूछो किस तरह जिया हूं ।
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
इस दीपक के दस दीवाने
सबकी चाहत ओ’ उलाहने
जर्जर काया, पास न माया
कैसे कह दे धूप न साया
घर कहता है नई कहानी
बूढ़ी आंखें, सुता सयानी
मत पूछो किस तरह जिया हूं
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
मेरे राज़ हवा ही जाने
मेरे काज दवा पहचाने
नापी धरती, देखे सपने
उखड़ी सांसें, रूठे अपने
अब पैरों पर जगत खड़ा है
देखो तो, बीमार पड़ा है
मत पूछो किस तरह जिया हूं
कदम-कदम पर गरल पिया हूं
गंगा मेरे तट पर आई
देख मुझे, रोई बलखाई
बोली-बोली हे ! गंगाधर
उलझे-उलझे क्यों ये अक्षर
मुझसे ले तू छीन रवानी
जीवन तो है बहता पानी
मत पूछो किस तरह जिया हूं।
कदम-कदम पर गरल पिया हूं।।
(4)
क्या कर लेगा कोई तुम्हारा, अड़े रहो
आकाशी बूँदों का, अस्तित्व नहीं होता
रात रात भर, जाग जाग कर
नयन क्यों खोवै
पल दो पल की नींद तुम्हारी
सपन क्यों बोवै
लेनी है यदि साँस धरा पर, अड़े रहो
रातों में सूरज का, तेजत्व नहीं होता।
जीती तुमने जंग हजारों
अपने कौशल से
अब क्यों हारा थका बैठा है
भीगे आँचल से
यही मिली है सीख हमें तो, डटे रहो
रण में कभी भीरु का, वीरत्व नहीं होता
छोड़ भी दे तू अब यह कहना
प्रभु की इच्छा
क्या गीता क्या रामायण, बस
मन की इच्छा
क्या कर लेगा काल तुम्हारा, खड़े रहो
आकाशी बूँदों का, सतीत्व नहीं होता।।
(5)
स्वर लपेटे व्यंजना के, गीत नहीं भाते
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते
लेकर नागफनियां हमने, पीर बहुत गाई
गए जहां भी हम बंजारे, नीर बहुत पाई
उदासी के द्वार सजे हैं, मीत नहीं आते
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।
आंसू भूले नैन की भाषा, कैसी बदरी है
चादर खींचे लाज-धर्म, कैसी गठरी है
मर्यादा के जंगल में अब, रीत नहीं बातें
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।.
लघु बहुत है तेरा-मेरा, नाता दुनिया का
भूल गये सब छंद यारा, गाना मुनिया का
गर्म-गर्म हैं सांसे अपनी, शीत नहीं रातें
चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।।
(6)
अंकपत्र सा है यह जीवन
अंक सभी तो तोल रहे हैं
यहीं कमाया यहीं गंवाया
कोष सभी के बोल रहे हैं।
कॉपी में जीरो जब आया
ठिठका माथा, मन घबराया
अम्मा का था दूध बताशा
फिर क्या था, तू देख तमाशा
बनें यहीं जीरो से हीरो
पर अब कुछ भी याद नहीं है
जयति जयति बोल रहे हैं।।
अंकों की सब माया जननी
धन दौलत वो और चवन्नी
दो आने के दही बड़े थे
हलवा पूरी सभी पड़े थे
अब कार्ड में जीवन सारा
क्रेडिट क्रेडिट खोल रहे हैं।
अंक सभी अंकों से रूठा
घर का खाना, रूखा रूखा
इनकम सबकी बड़ी बड़ी है
फिर भी मुश्किल आन पड़ी है
आओ अपनी उम्र लगाएँ
थोड़ा तो हिसाब लगाएँ
रहा पहाड़ा सौ का जीवन
सब अपने में डोल रहे हैं।।
(7)
फट गया लो मेघ सावन
आ गया लो मेघ आंगन
कह रही चारों दिशाएं
यह कभी टिकता नहीं है
रूपसी तो रूप की है
यह कली तो धूप सी है
आज है पर कल नहीं है
कल भी एक पल नहीं है
पकड़े रहना आशाएं
वक़्त फिर मिलता नहीं है
बरसेगा इक दिन सावन
बोलेगा तुझको साजन
बूँद का इतिहास मन है
सर सर सर बहता तन है
भीगी भीगी अलकाएँ
जल वहाँ रुकता नहीं है।
देख ले तू चाँद यारा
मेघ में भी और प्यारा
यात्रा रुकती नहीं है
मात्रा गिनती नहीं है
तोड़ दे तू वर्जनाएं
मन कभी मरता नहीं है।।
(8)
कभी कभी तो आया कर
कभी कभी तो जाया कर
कहती विपदा, रात गई
नग़मे अपने गाया कर।।
अपने में ही मस्त रहा
सपने में ही त्रस्त रहा
दाना पानी, घर दफ्तर
जीवनभर यूँ व्यस्त रहा।।
खुद को भी समझाया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
कुछ पाना ,कुछ खोना क्या
समय समय को रोना क्या
रात कहे, तू सो जा री
तारों का फिर जगना क्या
जी को भी बहलाया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
छोड़ उदासी आगे बढ़
अपने हाथों क़िस्मत गढ़
जैसे रवि लिखे कहानी
ढूंढे शशि अमर जवानी
सागर सा लहराया कर
नग़मे अपने गाया कर।।
(9)
जब मन्दिर में दीप कोई, आशा का भरता है
तेल, बाती, घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
थाल लेकर चले आस्था, वर्जित तन अभिमान
मैं बन जाऊं दीप शिखा, ज्योति ज्योति का दान
एक यही तो दीपक अपना, रोज मरता है
तेल बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
शुक्ल कृष्ण पक्ष मेरे द्वारे अतिथि बन ठहरे
उजले उजले वसन थे उनके, घाव बहुत गहरे
कौन समझाए इस दीप को, रोज बिखरता है
तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
अर्चना के जंगल में, शंख ध्वनि कैसी
मोर पंख ले नज़र उतारें, ग्रह दशा कैसी
धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का, बाजार संवरता है
तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
(10)
लिख लेते हैं थोड़ा थोड़ा
कह लेते हैं थोड़ा थोड़ा
मत मानो तुम हमको कुछ भी
जी लेते हैं थोड़ा थोड़ा।।
दीप शिखा सी जले जिंदगी
खोने कभी और पाने को
बाहर बाहर करे उजाला
अंधियारा सब पी जाने को
मत मानो तुम उसको कुछ भी
जल लेते हैं थोड़ा थोड़ा
बस्ती बस्ती है शब्दों की
पढ़ी इबारत, मंजिल देखी
कुछ अंगारी, कहीं उदासी
आते जाते नस्लें देखीं
मत मानो तुम उनका कहना
पढ़ लेते हैं थोड़ा थोड़ा ।।
अभी वक्त है, थोड़ा सुन लो
अभी वक्त है, थोड़ा बुन लो
पल दो पल की प्राण प्रतिष्ठा
चली चांदनी, चंदा रूठा
मत मानो तुम इसको गहना
सज लेते हैं थोड़ा-थोड़ा ।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ
उत्तर प्रदेश, भारत
तन ने बाजार
में
कीमत लगाई
हाथों-हाथ
बिक गया।।
मन तो पागल
था
बिना कीमत
लुट गया।
2
सभ्यताओं के
स्टॉल पर कोई
नहीं आता
अब गाय को रोटी
नहीं डाली जाती
3
उधार की संस्कृति
कब तक चलेगी..?
जब तक जाने जहाँ
यह बहार चलेगी।।
4
अंदर से कुछ
बाहर से कुछ..हो
यह सियासत भी..
मियां!
कहॉं से कहाँ
पहुँच गई।।
5
सब नाच रहे हैं
तुम भी नाच लो
अस्मिता ने घूंघट
छोड़ दिया है।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ
उत्तर प्रदेश, भारत
सूर्य कांत द्विवेदी
मेरठ
उत्तर प्रदेश, भारत
दिल से बड़ा न बावरा, दिल से बड़ी न आस।। 1।।
माना मुद्दा है बड़ा, अफवाहें भी तेज़।
दिल थामे पढ़ते रहो, बदल बदल कर पेज।।2।।
अपनी-अपनी कह रहे, चूहे, बिल्ली शेर।
आया गीदड़ पढ़ गया, और किसी के 'शेर'।।3।।
लोरी सुनकर सो गये, सभी बुरे हालात।
देखे विपदा नींद में, सपनों की हर रात।। 4।।
सुख सूने इस गाँव में, दुःख नदिया उस पार।
चले राम वनवास को, कहने को अवतार।। 5।।
सावन बोला नैन से, तू कितनी चितचोर।
मैं तो बरसूं कुछ घड़ी, तू हर दिन घनघोर।।6।।
छोड़ वसीयत जा रही, अब पीढ़ी गुमनाम।
आंगन, तुलसी, वंदना, हाथ जोड़ प्रणाम।।7।।
क्या चिंता अवसान की, लिख जीवन के गीत।
बूँद भला कब सोचती, धरती, सावन, मीत।।8।।
आती जाती है हवा, आता जाता रूप।
पल दो पल की सांस है, पल दो पल की धूप।। 9।।
बाग़ी जंगल हो गया, ठंडी पड़ी दहाड़।
पदवी छीनी शेर से, चींटी चढ़ी पहाड़।। 10।।
युग युग की यह सीख है, रच अपनी तस्वीर।
बढ़ना है तो खींच ले, तू भी बड़ी लकीर।। 11।।
धन, दौलत, यशगान में, समझा जिसे अमीर।
हाथ पसारे वो चला, बनकर एक फ़कीर।। 12।।
बहुत बड़ी यह साधना, घर है जिसका नाम।
इसे अवध काशी कहूँ, या वृन्दावन धाम।। 13।।
खुशहाली घर में रहे, हरियाली मन मोर ।
है जीवन की कामना, वृंदावन चहुं ओर।। 14।।
लिखा हुआ क्या भाग्य में, यह जाने करतार।
कर्म-मार्ग पर बढ़ चलो, खुल जाएंगे द्वार।। 15।।
सूने इस संसार में, कौन किसी के संग।
बड़ी मित्र है लेखनी, फूटे क़ाग़ज़ रंग।। 16।।
सागर मन की सुन ज़रा, बढ़ती जाये पीर।
आँसू सूखे नयन से, भाप उड़े सब नीर।। 17।।
शब्द सरीखी भावना, शब्द सरीखा प्यार।
शब्द शब्द अनमोल है, अद्भुत ये संसार।। 18।।
किसी तीर से कम नहीं, शब्दों की ये मार ।
सोच समझकर बोलिये, इसके दर्द अपार।।19।।
लिख-लिखकर कागज धरे, पढी सुनी कब बात।
अपना दिल कहता रहा, बंद ज़िल्द जज़्बात।। 20।।
रोते-हँसते आ गई, जीवन की लो शाम ।
मधुर-मधुर संगीत है, अधरों पर हे राम।।21।।
पास पास सब दूर हैं, दूर दूर सब पास।
इस आभासी जगत में, जुमलों में उल्लास।। 22।।
बस्ती अपनी छोड़कर, भोगा यूँ वनवास।
घट घट जल पीते रहे, बुझी नहीं वो प्यास।।23।।
अंबर से आँचल गिरा, गई नैन से लाज।
मौन हवा कहने लगी, धरती के सब राज़।। 24।।
तुम तो सावन सी रही, मेघों की मल्हार।
दिल अपना भादो रहा, राधे राधे प्यार।। 25।।
लिखा कील के भाग में, सहे हथौड़ा छेद।
दीवारें यह सोचती,खुले सभी अब भेद।। 26।।
आई चाभी ले गई, मन का सब विश्वास।
खुले खुले तब द्वार थे, ताले पड़े उदास।। 27।।
कोई भी टिकता नहीं, बदले सबका रूप।
बचपन, यौवन कह गये, अब क़ाग़ज़ की धूप।।28।।
अपनी अपनी वेदना, अपना ही संताप।
बाहर बाहर सब हँसें, अंदर रोवें आप।। 29।।
एक कली मासूम सी, करती क्या वो बैर।
फूलों के है हाथ में, खुद अपनी ही ख़ैर।। 30।।
आई रात तो सो लिये, दिन निकले ही काम।
घट घट सागर पी गया, नदिया का आराम।। 31।।
मन मंदिर के सामने, खुद ही हम करतार।
मगर जानते ही नहीं,क्या अपना किरदार।। 32।।
आंगन टेढ़ा सब कहें, नाचन को संसार।
दिखे कमी खुद में नहीं, औरन में भरमार।। 33।।
जो भोगा सो कह दिया, कह दी अपनी रीत।
छोटा सा है ये सफ़र, रखिये सबसे प्रीत।। 34।।
जब तक है जाने जहाँ, करते रहिये काम।
बोझ बनी ज्यूँ ज़िन्दगी, घर के घर नीलाम।। 35।।
शीशी भरी गुलाब थी, और मित्र थे इत्र
गंध कहीं वो उड़ गई ,रहे नहीं वो चित्र।। 36।।
यह बस्ती है संत की, देता किसको सीख
चलो कबीरा घर चलें, मांगें सुख की भीख।। 37।।
मीर कहो ग़ालिब कहो, तुलसी या फिर सूर।
चमचों के है हाथ में, शहंशाहे हुज़ूर।। 38।।
क़ाग़ज़ पर लिखते रहे, सभी यहाँ पर फूल।
देखी जो बगिया कभी, नफरत के थे शूल।। 39।।
ये उदासी शाम लिए, जाता कहाँ किशोर।
धीरज रख तू राम सा, माधव सा मन मोर।। 40।।
शोध किये बाहर सभी, भूले घर परिवार।
घर है मीठी चाशनी, इससे सब त्योहार।।41।।
बदल गई आबो हवा, बदले सभी उसूल।
वर्जित चीजें हो गई, सब की सब अनुकूल।। 42।।
वनवासी संसार में, कौन किसी का राम।
चले अकेले अवधपति, लड़ने को संग्राम।। 43।।
मुद्दत से जाना नहीं, क्या अपना क़िरदार।
एक रूप में सब बसें, फूल शूल ओ' प्यार।। 44।।
क्या लिखते क्या सोचते, क्या कहते हैं आप।
नज़र उठाकर देखिये, सभी यहाँ पर 'बाप' ।। 45।।
जाने किसके भाग से, साँसें हैं अवशेष।
अभिशापों से क्यों डरें, हाथों में लग्नेश।। 46।।
मधुर मधुर वाणी भली, मधुर मधुर संसार।
क्यों फिर मन के द्वार पर, नफ़रत पहरेदार।। 47।।
ढाई अक्षर प्रेम का, लिखते सौ-सौ बार।
नफ़रत के बस चार ही, सीने के उस पार।।48।।
बिना बीज होती नहीं, कभी फसल तैयार।
माँ क़ुदरत का नूर है, धरती पर अवतार।। 49।।
हर पल चिंता वो करे, सांसें करे उधार।
कागज, कलम दवात से, माँ है मीलों पार।। 50।।
हर दिन साँसों में चढ़े, जिसका क़र्ज़ अपार।
खिली खिली वह धूप है, ममता की बौछार।। 51।।
दिल सबका है जानता, अंदर कितनी खोट।
पोल खुले दीवार की, कील करे जब चोट।। 52।।
क्या देखें हम क्या पढ़ें, यही समय का लोच।
सारा जग ज्ञानी भया, अब आगे की सोच।। 53।।
मकड़ी ने जाला बुना, चींटी चढ़ी पहाड़।
गिरा आँख से आदमी, नकली सभी दहाड़।। 54।।
सूरज तब नादान था, चंदा भी शैतान।
संग संग मेरे चले, भूले सभी जहान।। 55।।
माँ से बड़ा श्रम नहीं, और पिता से ताप।
मजदूरी ऐसी मिली, जीवनभर संताप।। 56।।
चार चार में चार हैं, धर्म, वर्ण निष्काम।
चार पलों में कह गए, चार चरण सुख धाम।। 57।।
आँखों-आँखों में हुये, सब गुनाह मंजूर।
घर चौखट को देखिये, हम कितने मजबूर।। 58।।
धूल भरी हैंआँधियाँ, उड़ते छप्पर ताज।
कब किसके टिकते यहाँ, राज,काज,ओ साज।।59।।
आभासी संसार में, आँगन आँगन शोर।
कोयल खींचे सेल्फी, करता लाइव मोर।। 60।।
मर्यादा के कान में, पिघला शीशा रात।
नया नया परिवेश है, आँचल ढूँढे वात।। 61।।
पिघल पिघल कर मोम ने, कह दी अपनी पीर।
ठंडा ठंडा जिस्म है, पल दो पल के नीर।। 62।।
बैठ जा कभी दो घड़ी, कर ले खुद से बात।
धन दौलत ये नौकरी, पल दो पल की रात।। 63।।
एकाकी जीवन हुआ, घर में अब वनवास
कलयुग में भी देखिए, त्रेता सम उपवास।। 64।।
घर से बड़ी दवा नहीं , तन से बड़ा न काम।
मन से बड़ा न राज़ है, सेहत चारों धाम।। 65।।
साँसों से होती रही, तन की जब तकरार।
तभी सामने आ गया, जिस हाथों पतवार।। 66।।
तन से बड़ी न नौकरी, मन से बड़ा न बॉस
कहे सूर्य संसार से, कभी न छोड़ो आस।। 67।।
हुरियारी हर दिन रहे, बरसे रंग गुलाल।
होली कहती ज़िन्दगी, रखना इसे सँभाल।। 68।।
फीके फीके रंग हैं, फीकी फ़ाग फुहार।
बस कविता में रह गए, होली के क़िरदार।। 69।।
ओह जानकी भाग में, क्या तेरे संताप।
हर युग में तूने सहा, ताप ताप बस ताप।। 70।।
उबल रहा था दूध भी, घुमड़ रहे थे भाव।
संकट में दो जान थीं, कौन न खाए ताव ।।71।।
कौन न खाए ताव, बड़ी थी मन में दुविधा।
कवि युगल परेशान, कहीं से आये सुविधा।।72।।
कहे सूर्य कविराय, वीर-गीत का रस प्रबल।
कह देते दूध से, अरे सीमा पार उबल।। 73।।
प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते, हरा भरा परिवार।
छोटी सी है यही जिंदगी, सब अपना संसार।। 74।।
टप-टप-टप ओले गिरे, कांपे थर-थर गात।
सब दलों में द्वंद्व है, तू ने की बरसात।। 75।।
जुमलों की इस जंग में, हार गए अल्फ़ाज़
काँव काँव कोयल करे,कौओं के सर ताज।। 76।।
आये चुनाव हो लिए, हम तो उनके साथ।
अब तो भगवन आप हैं, लोकतंत्र के नाथ।। 77।।
सबके सब चलते रहे, शकुनी जैसी चाल।
गौण हुए मुद्दे सभी, चौपड़ पर सुर-ताल।। 78।।
वेश बदलते जो यहाँ, लेते नव-अवतार।
आज उन्हीं की जेब में, टिकटों का संसार।। 79।।
बन दूल्हा मेंढक चला, कह मौसम का हाल।
आ रही है तेज घटा, लोकतंत्र की चाल।। 80।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
कारण न होता तो क्या होता। कारण तलाश करने के लिए पूरी मशीनरी काम करती है। सरकारी महकमे तो इसी वजह से चलते हैं। हजारों कर्मचारियों-अधिकारियों को पगार इसलिए ही मिलती है। पूरी सर्विस में कारण अज्ञात ही रहते हैं। जैसे किसी की हत्या हुई। कारण अज्ञात थे। यह बरसों तक अज्ञात रहते हैं। फिर केस होता है। पैरोकारी होती है। अधिवक्ता अपने बुद्धि-विवेक-तर्क से कारण का कारण जानने का प्रयास करते हैं। कभी कारण का कारण पता लग जाता है। कभी नहीं। कारण पता भी लग जाये तो कारण अंतिम नहीं होता। उसके पीछे और भी कारण होते हैं। तह में जाकर अनेक कारण मिलते हैं। अणुओं की मानिंद। सूर्य की किरणों की मानिंद। सिर में इतने बाल क्यों हैं? नाक का बाल भी अकारण नहीं है। नाक में बाल का भी कारण है। यह कारण आज तक अज्ञात है। यानी कितने आये और चले गये...मुहावरा बन गया लेकिन नाक का बाल नाक में रहा। यह कान तक नहीं आया। तफ्तीश भी नहीं हुई। हुक्मरान ने कभी नहीं विचारा...यह मुहावरा क्यों रचा गया। न आयोग बना। न जांच समिति बनी। न रिपोर्ट आई। सरकारी मशीनरी भी बिना कारण, कारण नहीं ढूंढती। उसके पीछे भी कारण होते हैं। कारण का पता करने के लिए बाकायदा एक पीठ काम करती है। वह यह पता करती है कि कारण क्यों कारण है? कारण पता भी चल जाये तो इसके क्या कारण होंगे। शोध पीठ न जाने कितने कारण रोज ढूंढती है। पीएचडी अवार्ड उनको मिलता है जो शोध करते हैं कि यह कारण पता नहीं लगा। यह शोध यहीं पूरा नहीं होता। जहां पर बात खत्म मान ली जाती है, उससे आगे बढ़ती है। दूसरा शोध करता है। फिर तीसरा। यानी शोधकर्ता कारण-दर-कारण बढते जाते हैं और कारण के पीछे कारण चलते रहते हैं।
हम अपने इर्द-गिर्द देखें। रोजाना कारण ही कारण हैं। सुबह हम कारण जानने निकलते हैं। शाम को मुंह लटकाए आ जाते हैं। पत्नी पूछती है...कारण पता लगा? हम क्या जवाब दें। कारण तो अकारण है। कारण ने एक बार कारण से पूछा...तुम कारण क्यों हो। तुममें ऐसा क्या है जो कोई नहीं जान सका। कारण बोला...मैं ही सच हूं। सत्य सनातन हूं। आगे-पीछे मेरे कोई नहीं। अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कारण बताये। अर्जुन ने किसी को नहीं बताये। वह युद्ध लड़ा। कारण....? यही तो कारण था जो इतने साल से चला आ रहा है। हमारे नेता, अफसर, पत्रकार, कर्मचारी,कवि, लेखक सब इसी में जुटे हैं...कारण को कारागार में डालो। कोई क्या बताये...हर चीज का कारण नहीं होता। कारण अकारण भी होता है। ठीक वैसे ही, जैसे घर में पत्नी ही भूल जाती है कि हम क्यों लड़ रहे थे। नेता भूल जाते हैं कि हम फलां क्यों आये हैं। वहां क्या कहना है। क्या बोलना है। कारण अनेक होते हैं। कारण स्वतंत्र होते हैं। यह एक फाइल की तरह है। लाल फाइल। हरी फाइल। पीली फाइल। इन सभी में कारण अनेक होते हैं। फाइल क्यों लौटी...इसके पीछे भी कारण होते हैं। फाइल स्वीकृत हुई, इसके पीछे भी कारण होते हैं। कारण एक बांध की तरह हैं। बह जाते हैं। कारण एक सतत प्रक्रिया है। जब तक सांस है। चलती रहती है। कारण कभी अकारण नहीं होते। कारण के पीछे भी कारण होते हैं। लिखने के पीछे भी कारण होते हैं। बिकने के पीछे भी कारण होते हैं। आने के भी कारण होते हैं। जाने के पीछे भी कारण होते हैं। कारण नाक का बाल है। जो हर इंसान में पाया जाता है। चूंकि अरबों की आबादी है। आबादी की गणना में यह निकले नहीं। पता नहीं....क्या कारण रहे????
✍️सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ
बिना बीज होती नहीं, कभी फसल तैयार।
माँ क़ुदरत का नूर है, धरती पर अवतार।।
2
हर पल चिंता वो करे, सांसें करे उधार।
कागज, कलम दवात से, माँ है मीलों पार।।
3
हर दिन साँसों में चढ़े, जिसका क़र्ज़ अपार।
खिली खिली वह धूप है, ममता की बौछार।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ
मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से
रखते थे किताब में हम, मोरपंख भी यादों में
रहे चूमते विद्या रानी, खाते कस्में बातों में
दही बताशा खा-खा कर, देते रहे परीक्षा जी
जाने कैसा स्वाद था वो, अम्मा की उस दीक्षा में
भूल गए हैं सब परम्परा, क्या होगा रटने से
मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से
बंद-बंद हैं सभी किताबें, खुली नहीं बरसों से
यूं रखने का चाव सभी को, पैशन है अरसों से
नहीं पता है हमको साथी, क्या लिखना क्या गाना
हम तो ठहरे उस पीढ़ी के, जिसका मधुर तराना
कह रहा है सूरज अब तो, क्या होगा रोने से
मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से।।
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
सर सर सर बहती है सरिता, मन के भाव जताने को
चंदा ने चुनरी फहराई, तारों का मस्तक चूमा
इठलाई बलखाई नदिया, देख नज़ारा मन झूमा
कौन सुने अब मन की बातें, घर सागर के जाने को
आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।
पोर-पोर में पीर समाई, सुबक- सुबक नैना रोये
जब जब बरसे मेघा पागल, बैठे बैठे दिल खोये
बड़ी है आकुल मन की कश्ती, खुद ही मर मिट जाने को
आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।
मेरा जीवन उसका जीवन, किसका जीवन क्या कहना
रास रंग की देख तरंगे, अद्भुत हैं दिल में रखना
लहर लहर फिर लहर लहर है, सागर गंगा जाने को
आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।
✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी
मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
सड़क पर खड़े
गधों को गधों ने
देखा...
सभी के कंधे
जिम्मेदारी के
बोझ से दबे थे
फिर भी सड़क पर
सीधे और तने थे।
इस बीच कितने
गधे वहाँ से गुजरे
वही नाज़ नखरे
कोई गधा मानने
को तैयार नहीं था
हम गधे है।
गधे हैं तो फिर
क्यों गधे हैं।
गधे गणेश जी के पास पहुंचे..
गधे: क्या हम गधे हैं?
गणेश: पूरे गधे हो
गधे: आधे कब थे
गणेश: पता चल जाएगा
गधों ने वही सवाल
कवि से किया.
.क्या हम गधे हैं..?
कवि: तुम तो फिर भी ठीक हो, मगर वो...
गधे: वो कौन...?
कवि: अरे वही, जो मेरी रचना पढ़ गया।
गधे सोच में/ रचना..?
हम गधों की क्या रचना?
खर-खर-खर: खराक्षरी?
बात बुद्धि की थी
गधे हार गए...!
तभी सामने से..
धवल वेषधारी नेताजी
का पदार्पण हुआ...
आकाश से
पुष्प वर्षा होने लगी...
कानों में
अपने आप शंख
बजने लगे....?????
लंबे-लंबे कान गधों
के हिलने लगे...?
सड़क पर सधे/तने
गधे हटने लगे...!
मुद्दा जस का तस रहा
हम क्यों गधे हैं..!!
✍️ सूर्यकांत द्विवेदी
भोर के क्षितिज का, अभिराम कीजिये
मन में तरंग रहे, तन में उमंग रहे
घेरे न उदासी फिर, राम राम कीजिए
दूर दूर ये दिशायें, कहतीं कुछ खास जी
चलते रहो निशिदिन, न आराम कीजिए
राम सा चरित्र रख, कृष्ण सा पवित्र दिख
आये हो जगत में तो, नेक काम कीजिए।।
(2)
चंदा से चकोर गाल, सुरभित उच्च भाल
गोल गोल मुखड़े पे, वारी वारी श्याम जी
शीश पे मुकुट सज, देखा पँख मोर ने तो
झूम झूम नाचे फिरा, पूरे ग्राम ग्राम जी
दृश्य देख गोपियों ने, किया खुद से ही बैर
आग लगे सावनवां, गये कहाँ धाम जी
राधे राधे रट रहे,अपने तो घनश्याम
सांवरी सुरतिया पे, बलिहारी राम जी।।
(3)
कारे कारे कजरारे, अलकाएँ श्याम मुख
देख देख गोपियों का, मन भरमात है
सागर यह प्यार का,मन के ही त्योहार का
बदरी बैरन भई , काहे ललचात है
घोर घोर गरजना, अधरों पे है अर्चना
पड़े बूंद एक भी न, कैसी बरसात है
सावन की प्यास लिए, भादो की भी आस लिए
झूम झूम मनवा रे, श्याम श्याम गात है।।
एफडी है
ड्राफ्ट है
ग्रेच्युटी है
जो सब हमे
बनाने में लगती है
उसके पास होती
है सिर्फ पेंशन
बुढ़ापे की टेंशन।
2
मां घर है ..
पिता मकान
खेत खलिहान
औलाद के हाथों में
भविष्य का सामान।
3
पिता अनुशासन है
चुपचाप चलने वाला
शासन है..
जब हम कुछ नही
कह पाते
वो आंखे पढ़ लेता है
पर्स खोल देता है।।
4
पिता बीज है
अंकुर है
दिखता नहीं
न हो यदि
कोई खिलता नहीं।
5
पिता शाख है
साख है..
फैलता है
महकता है।।
6
पिता गुप्त प्रेम है
जब सो जाते हैं
उसके अंश
वह चुपके से आता है
अपलक देखता है..
निहारता है..
चमक जाती हैं उसकी
आँखें...हाँ...वाह
अपना अंश है।
वह बेटी का दहेज
बेटे का कैरियर है
वह पैदा नही करता
न दूध पिलाता है..
मगर..
सबको पालता है।।
✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी, मेरठ