सूर्यकांत द्विवेदी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सूर्यकांत द्विवेदी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 7 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... पृथ्वीलोक क्यों जाना चाहते हो पितृ..?

 


-सर। हमारे श्राद्ध आ रहे हैं। हम ही नहीं होंगे तो श्राद्ध कैसे होंगे?

मतलब क्या है? सीधे सीधे बोलो।

-सर। हम पृथ्वीलोक जाना चाहते हैं। 15 दिन की ही तो बात है। आ जाएंगे।

पृथ्वीलोक क्यों जाना चाहते हो? यहां अब कुछ तो है! 

-यह बात नहीं सर। आपकी कृपा से सब कुछ है। लेकिन पृथ्वी लोक तो पृथ्वी लोक है।

अगर हम यहीं से सब दिखा दें तो..?

-दिखा दीजिए। लेकिन हम जाना चाहते हैं। 

वहां ऐसा है क्या, जो जाना चाहते हो? नारद जी का भी यहां मन नहीं लगता?

-सर। आपको नहीं पता। वहां बहुत सुविधाएं हैं। 

कैसे? 

-सर। हम सीनियर सिटीजन होकर मरे या यमराज जबरदस्ती ले आए। मरे न आखिर।

हां

-वहां वाईफाई है। चैनल हैं। चैलेंज हैं। तकरार है। प्यार है। इजहार है। दुत्कार है। राजनीति है। 

यह क्या अच्छी बात है?

-न हो। मन तो लगता है वहां। टीवी पर संसद देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। 

हां। मैने भी देखा। लोग मेरे नाम पर दुकान चला रहे हैं। लेकिन हे पितृ! तुमको वहां अब कुछ नहीं मिलेगा। तुम निष्प्राण हो।

-यह सब भी आपकी कृपा से है। हम कोई अपने आप मरे?

नहीं। तुमको दुनिया ने मारा। अपनों ने मारा। तुम्हारा सब कुछ हजम कर गए।

-सर जी। बातों में मत उलझाओ। जाने दो।

ठीक है। जाओ। मगर हालात बदल गए हैं। 

तुम खुद देख लेना। तुमको काले तिल, दूध और पानी भी नहीं मिलेगा? तर्पण भूल गए हैं लोग।

-ऐसा नहीं होगा। मेरे अपने ऐसा नहीं कर सकते।

और सुनो। कुत्तों को पूरी सड़क पर खिला नहीं सकते। कोर्ट का ऑर्डर है। कौए गायब हो चुके हैं। गाय ? नारायण की आंखों में आंसू आ गए।

-सर जी। प्लीज जाने दो। इमोशनल न करो।

ठीक है। जाओ। 


सीन 2

पितृ पृथ्वी लोक में आ गए। लेकिन यह क्या? सब कुछ वैसा ही चल रहा है। कोई हमको याद नहीं कर रहा। कहीं श्राद्ध हो रहा है। ज्यादातर नहीं। सब बिजी हैं। कहते हैं, पितृ अमावस्या पर कर देंगे ! 

मेरे अपनों ने पंडित जी को बोल दिया..आपको पेमेंट कर देंगे। आप कर देना।किसी ने बरसी पर सब निबटा दिया।

मेरे अपनों को यह भी नहीं पता, मेरी मोक्ष तिथि क्या है? 

नारायण! आपने सच कहा। दुनिया बदल चुकी है। परदादा, परनाना के नाम की क्या कहें? दादा नाना के नाम लोगों को याद नहीं। इनको जीएसटी की छूट याद है। हमारी नहीं।

सब संस्कारों का तर्पण कर चुके हैं। ॐ शांति।

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ


शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य.....कल्लू के बाल और सवाल

 


गांव में सर्वे हुआ। कितने बच्चे पढ़ना चाहते हैं। बीस बच्चे निकले। यह कम थे। फिर सर्वे हुआ। अबकी बार 18 निकले। दो घट गए। फिर सर्वे हुआ...बच्चे क्यों घट रहे हैं। स्कूल है। इमारत है। मास्टर हैं। बच्चे क्यों नहीं आ रहे। मास्टर पांच थे। बच्चे 18..। कोटा दिया। हर मास्टर पांच बच्चे लेकर आए। फिर सर्वे हुआ..बच्चे चाहते नहीं या अंदर से इच्छा शक्ति नहीं है।  पता लगा..पहले चाहते थे। अब नहीं चाहते। माथा ठनका। इसका मतलब..पढ़ाई ठीक नहीं। मास्टर जी का टेस्ट लो। 

अब मास्टर जी टेस्ट दे रहे हैं। बच्चों को फिर भी "टेस्ट" नहीं आ रहा। पहले मुर्गा बनते थे। अब खुद मुर्गा बन रहे हैं। गांव का कल्लू बहुत होशियार था। हर सवाल का जवाब देना उसके बाएं हाथ का खेल था। गांव के स्कूल में निरीक्षण हुआ। कल्लू से पूछा गया..कौन सी ऐसी चीज है जो रहती तो वही है लेकिन उसका स्थान बदलते ही नाम चेंज हो जाता है। कल्लू उस्ताद बताते गए। सिर के बाल। कान के बाल। नाक के बाल। पलकों के बाल। बगल के बाल। सीने के बाल। कल्लू कुछ और बोलता। निरीक्षक ने रोक दिया। स्कूल पास। पहली शिक्षक पात्रता परीक्षा मास्टर जी ने पास कर ली।

मास्टर जी ने कल्लू को बुलाया। "सुन। मैं तो तुझको उल्लू समझता था। यह तूने तो कमाल कर दिया ? "

कल्लू बोला..मास्टर जी! छोटी सी तो बात थी। कह दी।

बाल में से बाल निकल सकता है तो खाल क्यों नहीं निकल सकती ? कुछ दिन बाद कल्लू के मास्टर जी, हेड मास्टर हो गए। कल्लू बोला..आपकी किस्मत ही खराब है। मुझे और बोलने देते तो आज प्रिंसिपल होते।

शिक्षक। निरीक्षण। स्कूल। ये 19 का पहाड़ा है। अच्छी तरह याद नहीं होता। कल्लू बड़ा होकर इंटर कॉलेज में गया। वहां कोई निरीक्षण नहीं था। कोई पहाड़ा नहीं पूछता था।

बोर्ड की परीक्षा थी। गारंटी थी..फेल तू होगा नहीं। कल्लू 99% से टॉपर। कल्लू यूनिवर्सिटी पहुंचा। सज धज कर। उसको तो अपना प्राइमरी स्कूल याद था। 

गेट पर ही उसके मुंह से निकला.. वाह। उसको बताया गया। यहां आने जाने की पूरी छूट है। आओ चाहे ना आओ। निरीक्षण की टेंशन मत लो। बड़े लेवल के निरीक्षण होते हैं। सब मैनेज हो जाते हैं। 

कल्लू बचपन से मास्टर बनना चाहता था। दिक्कत दो थी। एक वो गांव का था। दूसरे उसके बालों से सरसों का तेल निकलता था। कल्लू होनहार था। उसने बहुत डिग्री ले ली।  लेकिन कल्लू पात्र नहीं था। उसको उसके बाल वाले मास्टर जी ने सलाह दी..टीईटी करनी होगी। 

कल्लू की क्वालिफिकेशन इससे ज्यादा थी। उसने गूगल बाबा से पूछा..शिक्षक कैसे बनें? गूगल बाबा ने लिस्ट थमा दी...ये करो। वो करो।

कल्लू ने फिर पूछा..शिक्षक बनने के लिए क्या जरूरी है। जवाब मिला...मेहनत, ईमानदारी, आत्म विश्वास, समर्पण। आप युग निर्माता है।

कल्लू तो कल्लू था। समझ गया। मुर्गा बनाया जा रहा है। जब टीईटी करानी थी तो बीएड क्यों कराया ? मास्टरों की योग्यता कौन मापेगा ? बहरहाल। गूगल बाबा के रस्ते पर चलकरकल्लू की नौकरी लग गई। अब वह डेली हनुमान चालीसा का पाठ करता है। आते जाते हर वक्त वही रटता है... भूत पिशाच निकट नहीं  आवे...संकट कटे मिटे सब पीरा। 

कल्लू की सैलरी अच्छी थी। बस आराम नहीं था। टेंशन बहुत थी। यह करो। वो करो। कभी यह भरो। कभी वह भरो। यह चुनाव कराओ। वो कराओ। 

कल्लू को अपने जीवन का पहला सवाल याद आ गया.. वही कौन सी ऐसी चीज है..जो स्थान  बदलने पर नाम बदल देती है लेकिन रहती वही है। तब उसने बाल बताया था। आज उसके मुंह से निकला..मास्टर।

प्राइमरी स्कूल में मास्टर, गुरुकुल में गुरु, माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक या अध्यापक, डिग्री कॉलेज में टीचर, असिस्टेंट प्रोफेसर, प्रोफेसर, डीन आदि आदि। कल्लू बोला..एक शिक्षक...इतने सारे नाम। 

समय बदलते देर नहीं लगती। कुछ दिन पहले कल्लू ने प्रियंका चोपड़ा का इंटरव्यू पढ़ा। कैसे वो काली थी। लोग उसे चिढ़ाते थे। फिर कैसे वो सुंदरी बन गई। बॉलीवुड हॉलीवुड पर छा गई। कल्लू राजनीति में आ गया। कल्लू जान गया...बेंत, स्टूल, सीट, मुर्गा का दौर गया। मुर्गा बनना नहीं, बनाना है। मुर्गा जब मटन हो सकता है। तो कल्लू "केएल" क्यों नहीं हो सकता? कल्लू के अब कई कॉलेज और प्राइवेट यूनिवर्सिटी है। वह कुलाधिपति है। 

कल्लू के बालों से अब सरसों का तेल नहीं निकलता।  कल्लू के दो बच्चे हैं। स्कूल जाते हैं। पीटीए होती है। उसकी मम्मी पीटीए में झगड़कर आ जाती है।" टीचर को कुछ नहीं आता। बताओ, कोई बात हुई ...मासूम से बच्चे को डांट दिया।"

कल्लू को अपनी पुरानी बेंत याद आ गई। जिसने कल्लू को केएल बनाया। 


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ


गुरुवार, 4 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... गड़ा मुर्दा उखड़ गया..जी!

 


मुर्दा जब गड़ गया। फिर उसको उखाड़ने की क्या जरूरत थी। इसके पीछे दो कारण होंगे। पोस्ट मार्टम न कराया हो। या ठीक से न गड़ा हो। पोस्ट मार्टम पहले होता नहीं था। सो, पहली बात गलत है। ठीक से न गड़ा हो?  यह हो नहीं सकता। हजारों लोग जनाजे में थे। सबने चेक किया था। फिर गड़ा मुर्दा बाहर आया तो कैसे आया? शायद उसको कोई बात बुरी लगी होगी। किसी ने गाली दी होगी। मुर्दे को बदला लेना होगा। कोई अंतिम इच्छा पूरी न हुई हो। लोग कफन डाल गए। उसको ठंड लग रही हो। वगैरह वगैरह। 

जब मुहावरा बना होगा। मुर्दा उखड़ा होगा। वरना...? मुहावरे के महान रचयिता को क्या पता.. मुर्दा उखड़ा। उस वक्त चैनल होते तो ब्रेकिंग न्यूज होती। बेचारा मुर्दा। कितनी बड़ी अपॉर्च्युनिटी मिस कर गया। 

मुर्दा उखड़े न उखड़े। एक दिन उखड़ता जरूर है। क्या मुर्दे की तरह पड़ा है? मुर्दे में जान आ गई? क्यों मुर्दे को गाली देते हो? वो चाहे तो मुर्दे में भी जान डाल दे। देखो..मुर्दा अकड़ गया। चिता बहुत "अच्छी जली"। मुर्दे ने जरा भी तंग नहीं किया। आराम से जल गई। ये..ऊंची लपटें! एक मुर्दा, सौ रूप।

हम बिस्तर पर पड़े थे। अम्मा आई...क्या मुर्दे की तरह पड़ा है, कुछ करता धरता क्यों नहीं? अब अम्मा को कौन कहे..हम दुनिया का सबसे नेक काम कर रहे हैं... रील्स देख रहे हैं। 

मुर्दे की बात छोड़ो। यह वाइड डिस्कशन का विषय है। उखाड़ने और उखड़ने पर आते हैं। यह एक आर्ट है। यह हर किसी को नहीं आती। किसी को उखाड़ना आसान भी नहीं होता। बड़ा आदमी कभी नहीं उखड़ता। किसी की हिम्मत भी नहीं जो उसको उखाड़ दे।

 इसको उदाहरण के साथ समझिए। कवि सम्मेलन में जमता कौन है? बड़ा कवि। उखड़ता कौन है? छोटा कवि या विरोधी कवि। क्यों? बड़े कवि ने संचालक को देखा। कनखियों में बात हुई। मकसद साफ। बहुत तैश खाता है। अपने को उस्ताद समझता है...उखाड़ दो। बस शतरंज की चौपाल बिछ गई। सबसे पहले उसको खड़ा कर दिया। निबट गया। वीर रस के बाद असहाय रस डाल दिया। निबट गया। संचालक इसमें निपुण होता है। उसको पता  है,  कब किसको क्यों और कैसे उखाड़ना है। 

हम सब जीवन के कवि सम्मेलन में हैं। रोज यही करते हैं। हमारे मन का मुर्दा उखड़ कर हमसे पूछता है..क्या हुआ? वो उखड़ा क्या ? नहीं उखड़ा तो? हम जमेंगे कैसे?  कुछ करो। कुछ उखाड़ो।

लगता है, यहीं से पोस्ट मार्टम की नींव पड़ी। पीएम रिपोर्ट बताती है..मुर्दा क्यों गड़ा और क्यों उखड़ा ? वह मरा तो क्यों मरा? 

गड़े मुर्दे उखाड़ना समय, काल, परिस्थितियों और सियासत के लिए जरूरी है। वो क्या है न...इससे पुरानी बातें रिकॉल हो जाती हैं। याद बनी रहनी चाहिए। मुर्दा  और वोट दोनों बाहर। 

पितृ पक्ष आ रहा है जी। 


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

बुधवार, 3 सितंबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... बत्ती चली गई


बत्ती कभी भी जा सकती है। बत्ती जाना और बत्ती निकालना दोनों का ही महत्व है। बत्ती के कई रूप हैं। वह वीआईपी में पावर है। पावर ऑफ एनर्जी। मध्यम वर्ग में बिजली। निम्न आय वर्ग में बत्ती। उच्च शुद्ध समुदाय में विद्युत।

विद्युत आ गई। विद्युत चली गई। इस जैसे मुहावरे को सिर्फ बिजली विभाग समझता है। इसका सामाजिक महत्व नहीं है। बहुत सी चीजें चलन से बाहर हुईं हैं। इसमें विद्युत भी है। जिन चीजों से करंट लगे या आउट डेटेड हों उनको चलन से बाहर कर देना चाहिए यथा घूंघट, चुनरी, चरण स्पर्श आदि। 

शर्मा जी की बिजली चली गई (गलत मत सोचो, घर की लाइट चली गई। पत्नी घर में ही है)। शर्मा जी ने हेल्प लाइन नंबर पर फोन किया। वो सर्विस से बाहर था। बिजली घर फोन किया। नहीं मिला। टू टू की आवाज आती रही। शर्मा जी भी थके नहीं। बिजली आए या न आए...आज बिजली वालों का फोन उठाकर ही मानूंगा।

तीन घंटे हो गए। टू टू होती रही। अरे....मुबारक हो....उठ गया। 

बिजली कब आएगी? शर्मा जी ने पूछा।

"अच्छा। लाइट। ऊपर से गई है। फोन कट।"

शर्मा जी छत पर गए। बिजली वाले झूठ क्यों बोलेंगे? ऊपर से ही गई होगी। चारों तरफ अंधेरा। अंधेर नगरी चौपट राजा। कुछ देर बाद लाइट आ गई। फिर चली गई। 

बिजली जाना कोई खबर नहीं है। बिजली आना खबर है। रोज रोज की दिक्कत। शर्मा जी ने सोचा...बिजली कटवा दूं। पीडी ( परमानेंट डिस्कनेक्शन) हो जाएगा तो सोलर लगवा लूंगा।

"आप पीडी क्यों कराना चाहते हैं।"

लाइट नहीं आती।

"तो इसमें पीडी की क्या जरूरत। पत्नी मायके चली जाए तो क्या उसे छोड़ देंगे?"

नहीं साब। हमको बिजली चाहिए ही नहीं।

ठीक है। यह फॉर्म भर दो। जेई चेक करेगा। कटनी चाहिए या नहीं। ( जेई वो प्राणी है जो हर जगह पाया जाता है। नाना रूप धरे ये जेई।)

कई बार फोन करने पर जेई शुभ मुहूर्त में आया। मुस्कुराया। मलाई के कोफ्ते के मानिंद नमस्कार किया। शर्मा जी को अंकल कहा। "अंकल जी, काम हो जाएगा। आजकल बहुत दिक्कत हो रही है। सब परेशान हैं। हम और भी परेशान हैं। कोई बिजली ठीक करने को नहीं कहता। सबको कटवानी है।"

"अंकल जी। आपका बिल तो बहुत आरा होगा?"

अरे भाई। हम दो ही तो प्राणी हैं। बच्चे बाहर हैं।  100 यूनिट भी नहीं आती।

"ऐसा क्यों अंकल! ( इस बार उसने जी नहीं लगाया। समझ गया। मुर्गी फंस गई।) 

आपके एसी है? पंखा है? फ्रिज है? टीवी है? फिर भी 100 यूनिट।"

शर्मा जी देखते रह गए। जेई ने मीटर शंट की रिपोर्ट दे दी। एक लाख की। जुर्माना लग गया।

"छी छी छी। सुना तुमने। शर्मा जी के यहां छापा पड़ा! बिजली चोरी पकड़ी गई।" पड़ोसी ने कहा।

दूसरा पड़ोसी-"वही तो मैं कहूं, अंकल आंटी कई इतनी बिजली फूंक रहे थे।"

शर्मा जी ने ऊपर कंप्लेंट की। गुरुत्वाकर्षण का  नियम है। ऊपर फेंकी चीज नीचे आती है। वहीं हुआ। दन दनादन फोन तो बहुत आए। जांच जेई पर ही आ गई। 

"शर्मा जी! ( अब अंकल भी नहीं बोला) ! आपने शिकायत की थी। बताइए, क्या कहना है?"

भैया! हमको कुछ नहीं कहना। शर्मा जी ने जैकेट में से पेंशन के रुपए निकाले। पांच सौ रुपए थमाए। 

"अंकल जी। अब बात ऊपर पहुंच गई है। अब तो...! " शर्मा जी जेब हल्की करते गए। बात बिजली गुल से शुरू हुई थी। कहां पहुंच गई। दीमक कभी घर छोड़ती है? नहीं न। बिजली आ रही है तो भगवान का धन्यवाद दीजिए। चली जाए तो धन्यवाद दीजिए। यह व्यवस्था है। इसका कुछ नहीं होने वाला। फ्यूज बल्ब कभी रोशनी नहीं देते।

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

रविवार, 31 अगस्त 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य..... खूब चढ़ी कढ़ाई


खूब चढ़ी कढ़ाई में आपका स्वागत है। आज हम आपको बिल्कुल नई रेसिपी बताते है। पहले भी यह मार्केट में आई थी। तब से यह मार्केट में है। रिस्पॉन्स अच्छा है।  रेसिपी में बदलाव करते रहना चाहिए। इससे डिमांड बनी रहती है। रेसिपी टेस्टी होती है।


रेसिपी स्टेप-1

आपको बाहर से कोई आइटम नहीं मंगवाना। हम घर के आइटम से ही रेसिपी बनाएंगे। मेड इन इंडिया। यह वीडियो बनाने तक हम 140 करोड़ हैं। जब तक रेसिपी तैयार होगी। बढ़ सकते हैं। तो आइए, रेसिपी तैयार करते हैं। 

स्टेप 2

एक नई कढ़ाई लीजिए। आपके पास नई न हो तो पुरानी भी ले सकते हैं। लेकिन इसमें वोट चोरी का अंदेशा होता है। आपके घर में एक थाली होगी। एक चम्मच होगी। उसको बजाइए। ठीक वैसे ही जैसे कोरोना में बजाई थी। यह काम घर के अंदर मत कीजिए। आप अपनी बालकनी में आ जाइए। फिर बजाइए। जितने बर्तन बजेंगे, सेहत के लिए अच्छा होगा। पड़ोस को पता होना चाहिए कि किस घर में बर्तन बज रहे हैं। इससे दो लाभ होंगे। पड़ोस में बर्तन खटकेंगे। नंबर दो.. तांक झांक बंद हो जाएगी। 

स्टेप 3 

अब थाली को लेकर किचिन में आ जाइए। गैस जलाइए।  कढ़ाई लीजिए। अभी एक नंबर पर ही जलाइए क्यों कि सिलेंडर महंगा है। अब उसमें थोड़ा सा घी डालिए। घी जल जाए तो कोई बात नहीं, दुबारा डालिए। आग में जितना घी डालोगे, रेसिपी उतनी टेस्टी बनेगी।

स्टेप 4

आपके पास बासी मलाई होगी। ताजी हो तो भी चलेगी। ताजी मलाई में स्वाद नहीं आता। बासी मलाई को अच्छी तरह फेंट लें। 

अब एक लौकी ले। चाकू लें। चाकू तेज होना चाहिए। आजकल चाकू तेज नहीं आते। अब हम चाकू से लौकी की ऊपर की हरी परत उतारेंगे। यह दो मिनट में उतर जाती है। किसी की भी उतारनी हो, दो मिनट ही लगते है। गोल गोल पीस कर लीजिए। लीजिए लौकी कट गई। 

कटने में टाइम नहीं लगता है।  बनने में देर लगती है। खाने में दो मिनट लगते हैं। 

स्टेप 5

अब लौकी को ऐसे ही रहने दें। एक कटोरे में एक चम्मच जीरा, एक चम्मच अजवाइन, कड़ी पत्ता, थोड़ी सी हल्दी लीजिए। लौकी को इस मसाले में मिक्सड कीजिए। अब महीन महीन राजनीतिक मुद्दों की तरह प्याज काटिए। प्याज जितनी महीन होगी उतने ही लोग कहेंगे वाह। 

लौकी को घी या तेल में फ्राई कर ले। फ्राई हल्के हल्के कीजिए। मसाला मिक्सड कर लीजिए। अब कढ़ाई में फ्राई कीजिए। मुद्दे बाहर आ जाएंगे।

स्टेप 6

लीजिए। रेसिपी तैयार हो गई। अब लौकी पर दही डालिए। और झट से सर्व कर दीजिए। एक बात और। लौकी खाने के दो फायदे हैं। पेट दुरुस्त होता है। हाजमा ऐसा कि ईडी को भी पता नहीं चलता। नंबर दो, लौकी से भाग्य बनता है। कारोबार फैलता है ।

मिसेज शर्मा जी ने पूछा.. आंटी जी मलाई का क्या करें ? 

"उसका कुछ नहीं करना। और बासी होने दीजिए। विपक्ष के काम आयेगी। "

लौकी को फ्राई कितनी गैस पर करें? एक नंबर पर?

"ओह नो। फ्लेम तेज कर दें। जब तक आग नहीं भड़केगी, लौकी नहीं गलेगी।"

मिसेज शर्मा ने दही की जगह बासी मलाई मिलाई और  मिस्टर शर्मा जी को परोस दी। 

याद रखिए, हर रेसिपी लोकतंत्र का हिस्सा है। घर और राजनीति में कोई चीज बेकार नहीं जाती। घर की रसोई में पड़ी पन्नियां कभी न कभी काम आ जाती हैं। पन्नियां वो राजनीतिक दल हैं जिनकी बड़े दलों को कभी न कभी जरूरत पड़ती ही है।

मिलते हैं, अगली रेसिपी पर। देखते रहिए - खूब चढ़ी कढ़ाई। यह रेसिपी अच्छी लगी हो तो चैनल को सब्सक्राइब करें। लाइक करें। शेयर करें। 

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ


31.08.2025

बुधवार, 12 जुलाई 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी)के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत ....फट गया लो मेघ सावन आ गया लो मेघ आंगन


फट गया लो मेघ सावन 

आ गया लो मेघ आंगन 

कह रही चारों दिशाएं 

यह कभी टिकता नहीं है


रूपसी तो रूप की है

यह कली तो धूप सी है

आज है पर कल नहीं है

कल भी एक पल नहीं है

पकड़े रहना आशाएं

वक़्त फिर मिलता नहीं है


बरसेगा इक दिन सावन

बोलेगा  तुझको साजन

बूँद का इतिहास मन है

सर सर सर बहता तन है

भीगी भीगी  अलकाएँ

जल वहाँ रुकता नहीं है।


देख ले तू चाँद यारा

मेघ में भी और प्यारा

यात्रा रुकती नहीं है

मात्रा गिनती नहीं है

तोड़ दे तू वर्जनाएं

मन कभी मरता नहीं है।।


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी)के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत .....कायर हो गई भावना


जब से सीखी इन हाथों ने, करनी याचना 

सच मानो, तभी से कायर हो गईं भावना। 


दरवाज़े दस्तक को भूले, अतिथि मौन खड़े 

हम न जावें कोई न आवे विकट भाव  अड़े 

मृगतृष्णा जब हो चौखट, कौन कहे देवो 

उखड़ उखड़ कर ढूंढे सांसे कौन है मेरो 


जब से छोड़ी इन कानों ने, सुननी प्रार्थना 

सच मानो, तभी से कायर हो गई भावना 


अब तो आदत पड़ चुकी यहाँ, क़र्ज़ लेने की 

ख़्वाहिशों के घर बिस्तर, बस फ़र्ज़ निभाने की 

कांपे रूह देख देख कर, अपने रोशनदान 

काँच काँच बिखरा है भू पर, अक्स हिंदुस्तान 


जब से भूली इन आँखों ने, करनी साधना 

सच मानो, तभी से कायर हो गई भावना।। 


एक कटोरी चीनी-पत्ती,  घंटों फिर बातें 

ले आंखों  में चित्रहार, कट जाती थीं  रातें 

बुनें स्वेटर, डालें फंदे,   भूल गये धागे 

कैसी दौड़ इस जीवन की, सब के सब भागे 


जब से भोगी इस बस्ती ने, सहनी यातना

सच मानो, तभी से कायर, हो गई भावना


✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी

मेरठ

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 10 दिसंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी)के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का नवगीत .....क्या लिखूं मैं अब व्यथा


कह दिया है सभी कुछ तो 

क्या लिखूं मैं अब व्यथा 

हर व्यथा के सामने है 

अनकही मेरी कथा  


हाथ में मौली बंधी है

आंख है अपनी ठगी

भाल पर मंगल तिलक है 

हाट पर बोली लगी 

हर वृथा के सामने है 

अनकही मेरी कथा।। 


खा रही है जिंदगी को

सांस दीमक की तरह

तेल अपने पी गए सब 

एक दीपक की तरह 

हर कुशा के सामने है ।

अनकही मेरी कथा।।


गीत, मुक्तक, छंद, गजलें 

कोश कविता के गढे 

हर विमोचन कह रहा है 

पृष्ठ-पृष्ठ चेहरे पढ़े  

हर प्रथा के सामने है  

अनकही मेरी कथा।। 


कह दिया है सभी कुछ तो

क्या लिखूं मैं अब व्यथा।।


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी 

मेरठ 

उत्तर प्रदेश, भारत



सोमवार, 7 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी)के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी के चार गीत .....


(1)

मेरे सपने, तेरे सपने  

घर पर ही कुर्बान हुए  

संतानों ने चढ ली सीढी, 

सपने तब संधान हुए 


सोचा क्या, पाया फिर हमने 

इतनी फुरसत मिली कहां 

अंगारों पर चले मुसाफिर 

क्या अपने-अरमान हुए


बच्चों ने भी गुल्लक फोड़ी 

मां ने गहने बेच दिए 

कर्जा कर्जा लदे पिताजी

तब जाकर भगवान हुए।


कुछ बनने की खातिर यूं तो

करते हैं सब, जतन यहां 

रखी दिवाली मन के अंदर

बल-बलकर बलिदान हुए।।  

(2)

टूटी सड़कें, पसरे गड्ढे, 

अपना सफर तो जारी है

आसमान में छेद किया है,

 दिल अपना त्योहारी है।


सुबह सवेरे निकले घर से

क्या पूरब कहाँ पश्चिम है

दगा दे रहे सूरज को सब

दिल अपना सरकारी है। 


आओ आकर देख लो तुम भी

कदमों से नापी दुनिया 

उठते गिरते बढ़ गये आगे

छालों से भी यारी है।। 


अभी अभी तो यहीं कहीं पर

फ़ाइल देखी किस्मत की

फेंका पैसा, खुल गई यारो

क्या अपनी लाचारी है।। 


घर से दफ्तर,दफ्तर से घर

हर दिन का रूटीन यही 

मुँह चुराता घर का चूल्हा

महँगी सब तरकारी है।।

(3)

प्रेम की संकल्पना

प्रेम की वर्जनाएं

है मेरे पास ही

तुम्हारी कल्पनाएं


एक दिया हाथ पर

रोशनी मुझमें कैद

प्रकाश का वह घेरा

और तुम्हारी अर्चनाएं


दीप्त प्रदीप्त सी तुम

समक्ष जो मेरे खड़ीं

उच्छवास था गहरा मगर

गूंजती मंगल कामनाएं


दर पर प्रतीक्षित चांद सा

मैं नभ दृष्टिपात करता

लाने उसको आँगन यहां

करता नित अभ्यर्थनाएं..


है परस्पर प्रीत का पर्व

आलिंगन में विश्वास बेला

तैरते नैनों ने देखी फिर

सदा यूँ ही  ज्योत्स्नाएं..

(4)

जब जब ढलके शाम, गूंजता मन का क्रंदन

कैसे कह दूं कोई कर रहा,  हमारा वंदन।।


आई पीर कहने लगी, सागर बूंदों का 

डरना क्या तूफानों से, तन तो नींदों का  

बन अगस्त्य हैं पी जाते, लहरें सागर की 

बादल बनते हैं हमसे,  आशा गागर की 

ठहरो-ठहरो चली वेग है, खिलता उपवन।।  

कैसे कह दूं कोई कर रहा,  हमारा वंदन।।


हर मौसम की नई फसल, इन खलिहानों की 

जब जब फूटती बालियां, कह बलिदानों की 

रह रहकर फिर आ जाती, कथा सावन की

आसमां पर टिकी निगाहें, व्यथा आंगन की

नागफनी सम ख्वाब हमारे,  तन-मन चंदन।

कैसे कह दूं कोई कर रहा,  हमारा वंदन।।


आओ करते गुणा-भाग, अपनी बदरी का 

छाता ओढे खड़े हुए जन, अपनी नगरी का

बीत गई लो उम्र अपनी, किस्सा पानी सा

नापतोल कर लिखा हमने, हिस्सा रानी का

ज्यूं कर रही कोई अप्सरा, छम-छम नर्तन।।

कैसे कह दूं कोई कर रहा,  हमारा वंदन।।

✍️ सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ






गुरुवार, 22 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी दस गीत

 


(1)

मन का केवल भेद चाहिए 

षड्यंत्रों की कमी नहीं है  


चौसर पर हैं हम सब यारों

शकुनि पासा फेंक रहा है

कह द्रोपदी लाज की मारी

कलियुग आंखें  सेंक रहा है 

कहे क्या मन का दुर्योधन

षड्यंत्रों की कमी नहीं है। 


दूं क्या परिचय तुमको

क्या मैं इतिहास सुनाऊं

नाम, पता, आयु, शिक्षा

संप्रति की आस जगाऊं

पड़े हैं  सांसों पर ताले

षड्यंत्रों की कमी नहीं है।


इस बस्ती में अंगारों की 

निंदा, छल, कपट खड़े हैं

आग, आग है इस सीने में 

तन कर सभी तन खड़े हैं

रक्त सभी के खौल रहे हैं

षड्यंत्रों की कमी नहीं है।। 


(2)

कैसे कहें घनघोर तम है

सुनें व्यंजना मन है पल है

कौंध रहीं जो बिजली सारी

गरजा, बरसा, बिखरा जल है। 


प्रतिध्वनि में ये गूंज किसकी

देख,भर रहा है कौन सिसकी

थाल आरती  का लाई बदरी

फिर भी यहाँ उथल पुथल है। 


बजती घण्टी, नाद शँख का

अंग अंग प्रतिदान अंक का

कह रही क्यों चारों दिशाएं

रिक्त आचमन, तल ही तल है।। 


लबों पर सजी है अर्चना

तोड़ दी हैं सारी वर्जना

देख रहा यूँ हरि भी नभ से

धरती पर तो कल ही कल है।।


कोलाहल में फिर क्यों कौंधे

बिजलियाँ यहाँ मन की तन की

सबकी अपनी, यही  व्यथा है

प्यासी धरती, नयन सजल है।।


(3)

मत पूछो किस तरह जिया हूं ।

कदम-कदम पर गरल पिया हूं


इस दीपक के दस दीवाने 

सबकी चाहत ओ’ उलाहने 

जर्जर काया, पास न माया 

कैसे कह दे धूप न साया 

घर कहता है नई  कहानी

बूढ़ी आंखें,  सुता सयानी


मत पूछो किस तरह जिया हूं

कदम-कदम पर गरल पिया हूं


मेरे राज़ हवा ही जाने

मेरे काज दवा पहचाने

नापी धरती, देखे सपने

उखड़ी सांसें, रूठे अपने

अब पैरों पर जगत खड़ा है

देखो तो,  बीमार पड़ा है


मत पूछो किस तरह जिया हूं

कदम-कदम पर गरल पिया हूं


गंगा मेरे तट पर आई

देख मुझे, रोई बलखाई

बोली-बोली हे ! गंगाधर

उलझे-उलझे क्यों ये अक्षर

मुझसे ले तू  छीन रवानी

जीवन तो  है बहता पानी


मत पूछो किस तरह जिया हूं। 

कदम-कदम पर गरल पिया हूं।।


(4)

क्या कर लेगा कोई तुम्हारा, अड़े रहो

आकाशी बूँदों का, अस्तित्व नहीं होता


रात रात भर, जाग जाग कर

नयन क्यों खोवै

पल दो पल की नींद तुम्हारी

सपन क्यों बोवै

लेनी है यदि साँस धरा पर, अड़े रहो

रातों में सूरज का, तेजत्व नहीं होता।


जीती तुमने जंग हजारों

अपने कौशल से

अब क्यों हारा थका बैठा है

भीगे आँचल से

यही मिली है सीख हमें तो, डटे रहो

रण में कभी भीरु का, वीरत्व नहीं होता


छोड़ भी दे तू अब यह कहना

प्रभु की इच्छा

क्या गीता क्या रामायण, बस

मन की इच्छा

क्या कर लेगा काल तुम्हारा, खड़े रहो

आकाशी बूँदों का, सतीत्व नहीं होता।


(5)

स्वर लपेटे व्यंजना के, गीत नहीं भाते

चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते


लेकर नागफनियां हमने, पीर बहुत गाई

गए जहां भी हम बंजारे, नीर बहुत पाई

उदासी के द्वार सजे हैं, मीत नहीं आते

चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।


आंसू भूले नैन की भाषा,  कैसी बदरी है

चादर खींचे लाज-धर्म, कैसी गठरी है

मर्यादा के जंगल में अब, रीत नहीं  बातें

चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।.


लघु बहुत है तेरा-मेरा, नाता दुनिया का

भूल गये सब छंद यारा, गाना मुनिया का

गर्म-गर्म हैं सांसे अपनी, शीत नहीं रातें

चंदन वन में सर्प कभी, प्रीत नहीं गाते।।


(6)

अंकपत्र सा है यह जीवन

अंक सभी तो तोल रहे हैं

यहीं कमाया यहीं गंवाया

कोष सभी के बोल रहे हैं। 


कॉपी में जीरो जब आया 

ठिठका माथा, मन घबराया 

अम्मा का था दूध बताशा

फिर क्या था, तू देख तमाशा

बनें यहीं जीरो से हीरो 

पर अब कुछ भी याद नहीं है

जयति जयति बोल रहे हैं।।


अंकों की सब माया जननी

धन दौलत वो और चवन्नी

दो आने के दही बड़े थे

हलवा पूरी सभी पड़े थे

अब कार्ड में जीवन सारा

क्रेडिट क्रेडिट खोल रहे हैं। 


अंक सभी अंकों से रूठा

घर का खाना, रूखा रूखा

इनकम सबकी बड़ी बड़ी है

फिर भी मुश्किल आन पड़ी है

आओ अपनी उम्र लगाएँ

थोड़ा तो हिसाब लगाएँ

रहा पहाड़ा सौ का जीवन

सब अपने में डोल रहे हैं।।


(7)

फट गया लो मेघ सावन 

आ गया लो मेघ आंगन 

कह रही चारों दिशाएं 

यह कभी टिकता नहीं है


रूपसी तो रूप की है

यह कली तो धूप सी है

आज है पर कल नहीं है

कल भी एक पल नहीं है

पकड़े रहना आशाएं

वक़्त फिर मिलता नहीं है


बरसेगा इक दिन सावन

बोलेगा  तुझको साजन

बूँद का इतिहास मन है

सर सर सर बहता तन है

भीगी भीगी  अलकाएँ

जल वहाँ रुकता नहीं है।


देख ले तू चाँद यारा

मेघ में भी और प्यारा

यात्रा रुकती नहीं है

मात्रा गिनती नहीं है

तोड़ दे तू वर्जनाएं

मन कभी मरता नहीं है।।


(8)

कभी कभी तो आया कर

कभी कभी तो जाया कर

कहती विपदा, रात गई

नग़मे अपने गाया कर।।


अपने में ही मस्त रहा

सपने में ही त्रस्त रहा

दाना पानी, घर दफ्तर

जीवनभर यूँ व्यस्त रहा।।

खुद को भी समझाया कर

नग़मे अपने गाया कर।। 

 

कुछ पाना ,कुछ खोना क्या

समय समय को रोना क्या

 रात कहे, तू सो जा री

तारों का फिर जगना क्या

जी को भी बहलाया कर

नग़मे अपने गाया कर।।


छोड़ उदासी आगे बढ़

अपने हाथों क़िस्मत गढ़

जैसे रवि लिखे कहानी

 ढूंढे शशि अमर जवानी

सागर सा लहराया कर

नग़मे अपने गाया कर।।


(9)

जब मन्दिर में दीप कोई, आशा का भरता है

तेल, बाती, घी नहीं जी, भावों से डरता है।।


थाल लेकर चले आस्था, वर्जित तन अभिमान

मैं बन जाऊं दीप शिखा, ज्योति ज्योति का दान

एक यही तो दीपक अपना, रोज मरता है

तेल बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।


शुक्ल कृष्ण पक्ष मेरे द्वारे अतिथि बन ठहरे

उजले उजले वसन थे उनके, घाव बहुत गहरे

कौन समझाए इस दीप को, रोज बिखरता है

तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।


अर्चना के जंगल में, शंख ध्वनि कैसी

मोर पंख ले नज़र उतारें, ग्रह दशा कैसी

धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का, बाजार संवरता है

तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।


(10)

लिख लेते हैं थोड़ा थोड़ा

कह लेते हैं थोड़ा थोड़ा

मत मानो तुम हमको कुछ भी

जी लेते हैं थोड़ा थोड़ा।।


दीप शिखा सी जले जिंदगी

खोने कभी और पाने को

बाहर बाहर करे उजाला

अंधियारा सब पी जाने को 

मत मानो तुम उसको कुछ भी

जल लेते हैं थोड़ा थोड़ा


बस्ती बस्ती है शब्दों की

पढ़ी इबारत, मंजिल देखी

कुछ अंगारी, कहीं उदासी

आते जाते नस्लें देखीं

मत मानो तुम उनका कहना

पढ़ लेते हैं थोड़ा थोड़ा ।। 


अभी वक्त है, थोड़ा सुन लो

अभी वक्त है, थोड़ा बुन लो

पल दो पल की प्राण प्रतिष्ठा

चली चांदनी, चंदा रूठा

मत मानो तुम इसको गहना

सज लेते हैं थोड़ा-थोड़ा ।।


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी

मेरठ

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 7 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की पांच व्यंग्य क्षणिकाएं


 1

तन ने बाजार

में

कीमत लगाई

हाथों-हाथ

बिक गया।।

मन तो पागल

था

बिना कीमत

लुट गया।


2

सभ्यताओं के 

स्टॉल पर कोई

नहीं आता 

अब गाय को रोटी

नहीं डाली जाती


3

उधार की संस्कृति

कब तक चलेगी..?

जब तक जाने जहाँ

यह बहार चलेगी।। 


4

अंदर से कुछ

बाहर से कुछ..हो

यह सियासत भी..

मियां!

कहॉं से कहाँ

पहुँच गई।। 


5

सब नाच रहे हैं

तुम भी नाच लो

अस्मिता ने घूंघट

छोड़ दिया है।। 


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी 

मेरठ 

उत्तर प्रदेश, भारत


सूर्य   कांत द्विवेदी 

मेरठ 

उत्तर प्रदेश, भारत 



सोमवार, 4 जुलाई 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी के अस्सी दोहे -----

 


दिल से दिल की बात सुन, दिल से कर विश्वास। 

दिल से बड़ा न बावरा, दिल से बड़ी न आस।। 1।।


माना मुद्दा है बड़ा, अफवाहें भी तेज़। 

दिल थामे पढ़ते रहो, बदल बदल कर पेज।।2।।


अपनी-अपनी कह रहे, चूहे, बिल्ली शेर।

आया गीदड़ पढ़ गया, और किसी के 'शेर'।।3।।


लोरी सुनकर सो गये, सभी बुरे हालात।

देखे विपदा नींद में, सपनों की हर रात।। 4।।


सुख सूने इस गाँव में, दुःख नदिया उस पार। 

चले राम वनवास को, कहने को  अवतार।। 5।।


सावन बोला नैन से,  तू  कितनी चितचोर।

मैं तो बरसूं  कुछ घड़ी,  तू हर दिन घनघोर।।6।।


छोड़ वसीयत जा रही, अब पीढ़ी गुमनाम।

आंगन, तुलसी, वंदना,  हाथ जोड़ प्रणाम।।7।।


क्या चिंता अवसान की, लिख जीवन के गीत। 

बूँद भला कब सोचती, धरती, सावन, मीत।।8।।


आती जाती है हवा, आता जाता रूप। 

पल दो पल की सांस है, पल दो पल की धूप।। 9।।


बाग़ी जंगल हो गया, ठंडी पड़ी दहाड़। 

पदवी छीनी शेर से, चींटी चढ़ी पहाड़।। 10।।


युग युग की यह सीख है, रच अपनी तस्वीर।

बढ़ना है तो खींच ले, तू भी बड़ी लकीर।। 11।।


धन, दौलत, यशगान में, समझा जिसे अमीर। 

हाथ पसारे वो चला, बनकर एक फ़कीर।। 12।।


बहुत बड़ी यह साधना, घर है जिसका नाम। 

इसे अवध काशी कहूँ, या वृन्दावन धाम।। 13।।


खुशहाली घर में रहे, हरियाली मन मोर ।

है जीवन की कामना, वृंदावन चहुं ओर।। 14।।


लिखा हुआ क्या भाग्य में, यह जाने करतार।

कर्म-मार्ग पर बढ़ चलो, खुल जाएंगे द्वार।। 15।।


सूने इस संसार में, कौन किसी के संग।

बड़ी मित्र है लेखनी, फूटे क़ाग़ज़ रंग।। 16।।


सागर मन की सुन ज़रा, बढ़ती जाये पीर।

आँसू सूखे नयन से, भाप उड़े सब नीर।। 17।।


शब्द सरीखी भावना, शब्द सरीखा प्यार। 

शब्द शब्द अनमोल है, अद्भुत ये संसार।। 18।।


किसी तीर से कम नहीं, शब्दों की ये मार ।

सोच समझकर बोलिये, इसके दर्द अपार।।19।।


लिख-लिखकर कागज धरे, पढी सुनी कब बात।

अपना दिल कहता रहा,  बंद ज़िल्द जज़्बात।। 20।।


रोते-हँसते आ गई, जीवन की लो शाम ।

मधुर-मधुर संगीत है, अधरों  पर हे राम।।21।।


पास पास सब दूर हैं, दूर दूर सब पास।

इस आभासी जगत में, जुमलों में उल्लास।। 22।।


बस्ती अपनी छोड़कर, भोगा यूँ वनवास।

घट घट जल पीते रहे, बुझी नहीं वो प्यास।।23।।


अंबर से आँचल गिरा, गई नैन से लाज।

मौन हवा कहने लगी, धरती के सब राज़।। 24।।


तुम तो सावन सी रही, मेघों की मल्हार।

दिल अपना भादो रहा, राधे राधे प्यार।। 25।।


लिखा कील के भाग में, सहे हथौड़ा छेद।

दीवारें यह सोचती,खुले सभी अब भेद।। 26।।


आई चाभी ले गई, मन का सब विश्वास।

खुले खुले तब द्वार थे, ताले पड़े उदास।। 27।।


कोई भी टिकता नहीं, बदले सबका रूप।

बचपन, यौवन कह गये, अब क़ाग़ज़ की धूप।।28।।


अपनी अपनी वेदना, अपना ही संताप।

बाहर बाहर सब हँसें, अंदर रोवें आप।। 29।।


एक कली मासूम सी, करती क्या वो बैर।

फूलों के है हाथ में, खुद अपनी ही ख़ैर।। 30।।


आई रात तो सो लिये, दिन निकले ही काम। 

घट घट सागर पी गया, नदिया का आराम।। 31।।


मन मंदिर के सामने, खुद ही हम करतार।

मगर जानते ही नहीं,क्या अपना किरदार।। 32।।


आंगन टेढ़ा सब कहें, नाचन को संसार। 

दिखे कमी खुद में नहीं, औरन में भरमार।। 33।।


जो भोगा सो कह दिया, कह दी अपनी रीत। 

छोटा सा है ये सफ़र, रखिये सबसे प्रीत।। 34।।


जब तक है जाने जहाँ, करते रहिये काम। 

बोझ बनी ज्यूँ ज़िन्दगी, घर के घर नीलाम।। 35।।


शीशी भरी गुलाब थी, और मित्र थे इत्र

गंध कहीं वो उड़ गई ,रहे नहीं  वो चित्र।। 36।।


यह बस्ती है संत की, देता किसको सीख

चलो कबीरा घर चलें, मांगें सुख की भीख।। 37।।


मीर कहो ग़ालिब कहो, तुलसी या फिर सूर।

चमचों के है हाथ में, शहंशाहे हुज़ूर।। 38।।


क़ाग़ज़ पर लिखते रहे, सभी यहाँ पर फूल।

देखी जो बगिया कभी, नफरत के थे शूल।। 39।।


ये उदासी शाम लिए, जाता कहाँ किशोर। 

धीरज रख तू राम सा, माधव सा मन मोर।। 40।।


शोध किये बाहर सभी, भूले घर परिवार।

घर है मीठी चाशनी, इससे सब त्योहार।।41।।


बदल गई आबो हवा, बदले सभी उसूल। 

वर्जित चीजें हो गई, सब की सब अनुकूल।। 42।।


वनवासी संसार में, कौन किसी का राम।

चले अकेले अवधपति, लड़ने को संग्राम।। 43।।


मुद्दत से जाना नहीं, क्या अपना क़िरदार।

एक रूप में सब बसें, फूल शूल ओ' प्यार।। 44।।


क्या लिखते क्या सोचते, क्या कहते हैं आप।

नज़र उठाकर देखिये, सभी यहाँ पर 'बाप' ।। 45।।


जाने किसके भाग से, साँसें हैं अवशेष। 

अभिशापों से क्यों डरें, हाथों में लग्नेश।। 46।।


मधुर मधुर वाणी भली, मधुर मधुर संसार।

क्यों फिर मन के द्वार पर, नफ़रत पहरेदार।। 47।।


ढाई अक्षर प्रेम का, लिखते सौ-सौ बार।

नफ़रत के बस चार ही, सीने के उस पार।।48।।


बिना बीज होती नहीं, कभी फसल तैयार।

माँ क़ुदरत का नूर है, धरती पर अवतार।। 49।।


हर पल चिंता वो करे, सांसें करे उधार। 

कागज, कलम दवात से, माँ है मीलों पार।। 50।।


हर दिन साँसों में चढ़े, जिसका क़र्ज़ अपार।

खिली खिली वह धूप है, ममता की बौछार।। 51।।


दिल सबका है जानता, अंदर कितनी खोट। 

पोल खुले दीवार की, कील करे जब  चोट।। 52।।


क्या देखें हम क्या पढ़ें, यही समय का लोच।

सारा जग ज्ञानी भया, अब आगे की सोच।। 53।। 


मकड़ी ने जाला बुना, चींटी चढ़ी पहाड़। 

गिरा आँख से आदमी, नकली सभी दहाड़।। 54।।


सूरज तब नादान था, चंदा भी शैतान।

संग संग मेरे चले, भूले सभी जहान।। 55।।


माँ से बड़ा श्रम नहीं, और पिता से ताप। 

मजदूरी ऐसी मिली, जीवनभर संताप।। 56।।


चार चार में चार हैं, धर्म, वर्ण निष्काम।

चार पलों में कह गए, चार चरण सुख धाम।। 57।।


आँखों-आँखों में हुये, सब गुनाह मंजूर।

घर चौखट को देखिये, हम कितने मजबूर।। 58।।


धूल भरी हैंआँधियाँ, उड़ते छप्पर ताज।

कब किसके टिकते यहाँ, राज,काज,ओ साज।।59।।


आभासी संसार में, आँगन आँगन शोर।

कोयल खींचे सेल्फी, करता लाइव मोर।। 60।।


मर्यादा के कान में, पिघला शीशा रात।

नया नया परिवेश है, आँचल ढूँढे वात।। 61।।


पिघल पिघल कर मोम ने, कह दी अपनी पीर।

ठंडा ठंडा जिस्म है, पल दो पल के नीर।। 62।।


बैठ जा कभी दो घड़ी, कर ले खुद से  बात। 

धन दौलत ये नौकरी, पल दो पल की रात।। 63।।


एकाकी जीवन हुआ, घर में अब वनवास

कलयुग में भी देखिए, त्रेता सम उपवास।। 64।।


घर से बड़ी दवा नहीं , तन से बड़ा न काम।

मन से बड़ा न राज़ है,  सेहत चारों धाम।। 65।।


साँसों से होती रही, तन की जब तकरार।

तभी सामने आ गया, जिस हाथों पतवार।। 66।।


तन से बड़ी न नौकरी, मन से बड़ा न बॉस

कहे सूर्य  संसार से,  कभी न छोड़ो आस।। 67।।


हुरियारी हर दिन रहे, बरसे रंग गुलाल।

होली कहती ज़िन्दगी, रखना इसे सँभाल।। 68।।


फीके फीके रंग हैं, फीकी फ़ाग फुहार।

बस कविता में रह गए, होली के क़िरदार।। 69।।


ओह जानकी भाग में, क्या तेरे संताप।

हर युग में तूने सहा, ताप ताप बस ताप।। 70।।


उबल रहा था दूध भी, घुमड़ रहे थे भाव।

संकट में दो जान थीं, कौन न खाए ताव ।।71।।


कौन न खाए ताव, बड़ी थी मन में दुविधा।

कवि युगल परेशान, कहीं से आये सुविधा।।72।।


कहे सूर्य कविराय, वीर-गीत का रस प्रबल।

कह देते दूध से, अरे सीमा पार उबल।। 73।।


प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते, हरा भरा परिवार।

छोटी सी है यही जिंदगी, सब अपना संसार।। 74।।


टप-टप-टप ओले गिरे, कांपे थर-थर गात।

सब दलों में द्वंद्व है, तू ने की बरसात।। 75।।


जुमलों की इस जंग में, हार गए अल्फ़ाज़

काँव काँव कोयल करे,कौओं के सर ताज।। 76।।


आये चुनाव हो लिए, हम तो उनके साथ।

अब तो भगवन आप हैं, लोकतंत्र के नाथ।। 77।।


सबके सब चलते रहे, शकुनी जैसी चाल।

गौण हुए मुद्दे सभी, चौपड़ पर सुर-ताल।। 78।।


वेश बदलते जो यहाँ, लेते नव-अवतार।

आज उन्हीं की जेब में, टिकटों का संसार।। 79।।


बन दूल्हा मेंढक चला, कह मौसम का हाल। 

आ रही है तेज घटा, लोकतंत्र की चाल।। 80।।


 ✍️ सूर्यकांत द्विवेदी

 मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 17 जून 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य _----कारण के आगे कारण


कारण के आगे भी कारण होते हैं। कारण के पीछे  भी कारण होते हैं। कारण कभी कारण नहीं होता। कारण कभी अकारण नहीं होता। कारण न जानने के लिए कितने कारण होते हैं। कारण को न जानने के भी कई कारण होते हैं। कारण करुणा है। यह हर हृदय में पाई जाती है। पूरा जीवन कारण जानने में निकल जाता है। हम क्यों आये? किसलिए आये? क्या किया? यही सवालों का उत्तर हमको नहीं मिल पाता। इसके पीछे भी दो कारण हैं। एक-या तो घर में जरूरत थी। या हमारे बिना संसार नहीं चल रहा था। तीसरा कारण अज्ञात है। यानी हम जबरदस्ती आये। घर में चाह नहीं थी। उमंग नहीं थी। लेकिन हमारा धरती पर अवतार हो गया। हम बड़े हुए, फिर इसी खोज में लग गये, हम क्यों आये। स्कूल गये तो कारण ही कारण थे। हजारों सपने थे। ये बनेगा...वो बनेगा। यानी कारण ही कारण थे। नौकरी लगी तो कारण ही कारण थे। अकारण प्रश्न थे और हम उनका कारण  जानने के लिए सिर धुन रहे थे। जिनका हमसे मतलब नहीं। उनका कारण जानने में जुटे थे। यानी कारण के पीछे कारण थे। घर चलाना था। पेट भरना था। सो कारण ढूंढने में जुट गये। सेंसेक्स से लेकर सांसों तक के कारण हमारी टिप्स पर थे। हाथों में मोबाइल था। हमारी आंखों में सपने थे। उत्सुकता थी। हम कारण जानने में जुटे थे।

कारण न होता तो क्या होता। कारण तलाश करने के लिए पूरी मशीनरी काम करती है। सरकारी महकमे तो इसी वजह से चलते हैं। हजारों कर्मचारियों-अधिकारियों को पगार इसलिए ही मिलती है। पूरी सर्विस में कारण अज्ञात ही रहते हैं। जैसे किसी की हत्या हुई। कारण अज्ञात थे। यह बरसों तक अज्ञात रहते हैं। फिर केस होता है। पैरोकारी होती है। अधिवक्ता अपने बुद्धि-विवेक-तर्क से कारण का कारण जानने का प्रयास करते हैं। कभी कारण का कारण पता लग जाता है। कभी नहीं। कारण पता भी लग जाये तो कारण अंतिम नहीं होता। उसके पीछे और भी कारण होते हैं। तह में जाकर अनेक कारण मिलते हैं। अणुओं की मानिंद। सूर्य की किरणों की मानिंद। सिर में इतने बाल क्यों हैं? नाक का बाल भी अकारण नहीं है। नाक में बाल का भी कारण है। यह कारण आज तक अज्ञात है। यानी कितने आये और चले गये...मुहावरा बन गया लेकिन नाक का बाल नाक में रहा। यह कान तक नहीं आया। तफ्तीश भी नहीं हुई। हुक्मरान ने कभी नहीं विचारा...यह मुहावरा क्यों रचा गया। न आयोग बना। न जांच समिति बनी। न रिपोर्ट आई। सरकारी मशीनरी भी बिना कारण, कारण नहीं ढूंढती। उसके पीछे भी कारण होते हैं। कारण का पता करने के लिए बाकायदा एक पीठ काम करती है। वह यह पता करती है कि कारण क्यों कारण है? कारण पता भी चल जाये तो इसके क्या कारण होंगे। शोध पीठ न जाने कितने कारण रोज ढूंढती है। पीएचडी अवार्ड उनको मिलता है जो शोध करते हैं कि यह कारण पता नहीं लगा। यह शोध यहीं पूरा नहीं होता। जहां पर बात खत्म मान ली जाती है, उससे आगे बढ़ती है। दूसरा शोध करता है। फिर तीसरा। यानी शोधकर्ता कारण-दर-कारण बढते जाते हैं और कारण के पीछे कारण चलते रहते हैं।

हम अपने इर्द-गिर्द देखें। रोजाना कारण ही कारण हैं। सुबह हम कारण जानने निकलते हैं। शाम को मुंह लटकाए आ जाते हैं। पत्नी पूछती है...कारण पता लगा? हम क्या जवाब दें। कारण तो अकारण है। कारण ने एक बार कारण से पूछा...तुम कारण क्यों हो। तुममें ऐसा क्या है जो कोई नहीं जान सका। कारण बोला...मैं ही सच हूं। सत्य सनातन हूं। आगे-पीछे मेरे कोई नहीं। अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कारण बताये। अर्जुन ने किसी को नहीं बताये। वह युद्ध लड़ा। कारण....? यही तो कारण था जो इतने साल से चला आ रहा है। हमारे नेता, अफसर, पत्रकार, कर्मचारी,कवि, लेखक सब इसी में जुटे हैं...कारण को कारागार में डालो। कोई क्या बताये...हर चीज का कारण नहीं होता। कारण अकारण भी होता है। ठीक वैसे ही, जैसे घर में पत्नी ही भूल जाती है कि हम क्यों लड़ रहे थे। नेता भूल जाते हैं कि हम फलां क्यों आये हैं। वहां क्या कहना है। क्या बोलना है। कारण अनेक होते हैं। कारण स्वतंत्र होते हैं। यह एक फाइल की तरह है। लाल फाइल। हरी फाइल। पीली फाइल। इन सभी में कारण अनेक होते हैं। फाइल क्यों लौटी...इसके पीछे भी कारण होते हैं। फाइल स्वीकृत हुई, इसके पीछे भी कारण होते हैं। कारण एक बांध की तरह हैं। बह जाते हैं। कारण एक सतत प्रक्रिया है। जब तक सांस है। चलती रहती है। कारण कभी अकारण नहीं होते। कारण के पीछे भी कारण होते हैं। लिखने के पीछे भी कारण होते हैं। बिकने के पीछे भी कारण होते हैं। आने के भी कारण होते हैं। जाने के पीछे भी कारण होते हैं। कारण नाक का बाल है। जो हर इंसान में पाया जाता है। चूंकि अरबों की आबादी है। आबादी की गणना में यह निकले नहीं। पता नहीं....क्या कारण रहे????

✍️सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

रविवार, 8 मई 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी के मां को समर्पित तीन दोहे ....


1

बिना बीज होती नहीं, कभी फसल तैयार।

माँ क़ुदरत का नूर है, धरती पर अवतार।।

2

हर पल चिंता वो करे, सांसें करे उधार। 

कागज, कलम दवात से, माँ है मीलों पार।।

3

हर दिन साँसों में चढ़े, जिसका क़र्ज़ अपार।

खिली खिली वह धूप है, ममता की बौछार।।


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी

मेरठ

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत --मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से


क्या होगा लिखने से भैया, क्या होगा छपने से 

मौन  पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से 

 

रखते थे किताब में हम, मोरपंख भी यादों में 

रहे चूमते विद्या रानी, खाते कस्में बातों में 

दही बताशा खा-खा कर, देते रहे परीक्षा जी 

जाने कैसा स्वाद था वो, अम्मा की उस दीक्षा में 

भूल गए हैं सब परम्परा, क्या होगा रटने से 

मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से 


बंद-बंद हैं सभी किताबें,  खुली नहीं बरसों से 

यूं रखने का चाव सभी को, पैशन है अरसों से 

नहीं पता है हमको साथी, क्या लिखना क्या गाना 

हम तो ठहरे उस पीढ़ी के, जिसका मधुर तराना 

कह रहा है सूरज अब तो, क्या होगा रोने से 

मौन पड़े जब शब्द यहां तो, क्या होगा कहने से।।    


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी

मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 24 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत ---आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को



आप सुनो तो तान छेड़ दूं, मन के गीत सुनाने को

सर सर सर बहती है सरिता, मन के भाव जताने को 


चंदा ने चुनरी फहराई, तारों का मस्तक चूमा

इठलाई बलखाई नदिया,  देख नज़ारा मन झूमा 

कौन सुने अब मन की बातें, घर सागर के जाने को

आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।


पोर-पोर में पीर समाई, सुबक- सुबक नैना रोये

जब जब बरसे मेघा पागल, बैठे बैठे दिल खोये

बड़ी है आकुल मन की कश्ती, खुद ही मर मिट जाने को

आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।


मेरा जीवन उसका जीवन, किसका जीवन क्या कहना

रास रंग की देख तरंगे, अद्भुत हैं दिल में रखना

लहर लहर फिर लहर लहर है, सागर गंगा जाने को 

आप सुनो तो तान छेड़ दूँ, मन के गीत सुनाने को।।


✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी

मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 10 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में सम्भल निवासी ) साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी की व्यंग्य कविता ---गधों ने गधों से कहा

 


सड़क पर खड़े

गधों को गधों ने

देखा...

सभी के कंधे

जिम्मेदारी के

बोझ से दबे थे

फिर भी सड़क पर

सीधे और तने थे। 

इस बीच कितने

गधे वहाँ से गुजरे

वही नाज़  नखरे

कोई गधा मानने

को तैयार नहीं था

हम गधे है।

गधे हैं तो फिर

क्यों गधे हैं। 

गधे गणेश जी के पास पहुंचे..

गधे: क्या हम गधे हैं?

गणेश: पूरे गधे हो

गधे: आधे कब थे

गणेश: पता चल जाएगा

 गधों ने वही सवाल 

कवि से किया.

.क्या हम गधे हैं..?

कवि: तुम तो फिर भी ठीक हो, मगर वो...

गधे: वो कौन...? 

कवि: अरे वही, जो मेरी रचना पढ़ गया।

गधे सोच में/ रचना..?

हम गधों की क्या रचना?

खर-खर-खर: खराक्षरी?

बात बुद्धि की थी

गधे हार गए...!

 तभी सामने से..

धवल वेषधारी नेताजी

का पदार्पण हुआ...

आकाश से 

पुष्प वर्षा होने लगी...

कानों में 

अपने आप शंख

बजने लगे....?????

लंबे-लंबे कान गधों

के हिलने लगे...? 

सड़क पर सधे/तने

गधे हटने लगे...! 

मुद्दा जस का तस रहा

हम क्यों गधे हैं..!!


✍️ सूर्यकांत द्विवेदी