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रविवार, 18 अगस्त 2024

उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान और कला भारती की ओर से 14 अगस्त 2024 को स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारों का योगदान विषय पर संगोष्ठी का आयोजन

 उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान और कला भारती की ओर से स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारों का योगदान विषय पर बुधवार 14 अगस्त 2024 को संगोष्ठी का आयोजन मुरादाबाद के स्वतंत्रता सेनानी भवन में हुआ। वक्ताओं ने कहा कि आजादी के आंदोलन में मुरादाबाद मंडल के साहित्यकारों ने न केवल अपने लेखन के माध्यम से देशभक्ति की भावना का संचार किया बल्कि स्वतन्त्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया और जेल की कठोर यातनायें भी सहीं।

      संगोष्ठी के संयोजक प्रख्यात कवि सौरभ कांत शर्मा ने कार्यक्रम की रूपरेखा पर प्रकाश डाला।

चर्चित नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के संचालन में हुई संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए  कला भारती के राष्ट्रीय महामंत्री बाबा संजीव आकांक्षी ने कहा कि समूचे प्रदेश में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अनेक साहित्यकारों द्वारा लिखीं रचनाएं अतीत के पन्नों में दबी हुई हैं जिन्हें खोज कर उजागर करने की आवश्यकता है। इस कार्य में भाषा संस्थान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

     प्रख्यात साहित्यिक इतिहासवेत्ता डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा मुरादाबाद के सूफी अंबा प्रसाद,  छदम्मी लाल विकल, पंडित शंकर दत्त शर्मा, भगवत शरण अग्रवाल मुमताज, जीवाराम एडवोकेट, चंदौसी के रामकुमार कमल, संभल के रामकुमार गुप्त, अमरोहा के दिवाकर राही और उनकी पत्नी प्रेम कुमारी दिवाकर ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने विभिन्न आंदोलनों में हिस्सा लिया और गिरफ्तार हुए। 

  नजीबाबाद से आए साहित्यकार अमन कुमार त्यागी ने कहा कि स्वतंत्रता आंदोलन में जनपद बिजनौर के साहित्यकार भी पीछे नहीं रहे। इन साहित्यकारों में पं रुद्रदत्त शर्मा संपादकाचार्य, पंडित पदमसिंह शर्मा, फतेहचंद शर्मा आराधक, इंद्रवाचस्पति, ठाकुर संसार सिंह, महावीर त्यागी, बाबू सिंह चौहान आदि उल्लेखनीय हैं।

तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी) डॉ पूनम चौहान ने कहा कि सन 1857 की क्रांति के उपरांत अनेक हिंदी  साहित्यकार क्रांति चेतना के अग्रदूत बनकर आगे आए और तलवार  के स्थान पर अपनी कलम को उठाकर भारत वासियों के हृदय में ऐसी ज्वाला भड़काई कि उनके रक्त में देश प्रेम का उबाल आ गया।

  प्रख्यात साहित्यकार राहुल शर्मा ने कहा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस समय पत्रिकाएं प्रकाशित की जो स्वाधीनता की चेतना जागृत करने में रामबाण सिद्ध हुईं। 

    युवा साहित्यकार मयंक शर्मा ने कहा कि जगदंबा प्रसाद मिश्र 'हितैषी', बालकृष्ण शर्मा'नवीन' , सुभद्रा कुमारी चौहान, जयशंकर प्रसाद, कामता प्रसाद गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, प्रेमचंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र समेत अनेक साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को धार दी। 

  इस अवसर पर धवल दीक्षित, हरी प्रकाश शर्मा, डॉ कृष्ण कुमार  नाज, राजीव प्रखर, दुष्यंत बाबा, मनोज कुमार मनु, श्री कृष्ण शुक्ल, फरहत अली, चंद्र हास कुमार हर्ष, अमर सक्सेना, अभिव्यक्ति सिन्हा, आकृति सिन्हा,अनुराग मेहता आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम के समन्वयक अचल दीक्षित ने इस प्रकार के आयोजनों की आवश्यकता पर बल देते हुए आभार व्यक्त किया। 















































बुधवार, 8 मार्च 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा की ग़ज़ल ....अबकी होली में किसी खास को रंगना है मुझे

 


टूटी उम्मीद बुझी आस को रंगना है मुझे. 

और फीके पड़े उल्लास को रंगना है मुझे. 


मैं हूँ वासंती हवा रंग हैं सारे मुझमे. 

सरसों टेसू को अमलतास को रंगना है मुझे. 


कौन सा रंग है बेहतर मेरे रंगरेज बता. 

एक बेरंग से विश्वास को रंगना है मुझे. 


सात रंगों से अलग रंग की मुझको है तलाश. 

अबकी होली में किसी खास को रंगना है मुझे. 


नाम है भक्ति मेरा खुद मे अलग रंग हूँ मै. 

सूर को मीरा को रैदास को रंगना है मुझे. 


जिस्म से रंग तो एक रोज उतर जाएंगे. 

तेरी फितरत तेरे एहसास को रंगना है मुझे. 


मैं चितेरा हूँ मेरा काम बहुत बाकी है .

भूख गढ़नी है  अभी प्यास को रंगना है मुझे. 


चाहता हूँ कि इन्हें दूर से पहचान सकूँ. 

पीर को दर्द को संत्रास को रंगना है मुझे. 


✍️ राहुल शर्मा 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा का योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों पर केंद्रित आलेख -- नवगीत वृक्ष को पुष्पित-पल्लवित करने वाली एक मजबूत शाखा हैं योगेंद्र वर्मा व्योम

     


आधुनिक हिंदी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में पूरे देश के भीतर मुरादाबाद शहर को पहचान दिलाने वाले योगेन्द्र वर्मा व्योम  के नवगीतों से गुज़रना मतलब एक ताज़गी भरे नगर से गुज़रना है। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि एक ही कार्यालय में कार्यरत होने के कारण मैं उनके काव्य सृजन की प्रक्रिया का साक्षी रहा हूँ। वह इतनी खूबसूरती से और बड़ी बारीकी से ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतीक और प्रतिमान ढूँढ लाते हैं जिन्हें सामान्य कवि/ गीतकार की दृष्टि खोज ही नहीं पाती। यही उनके नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है।

         नवगीत की सबसे प्रमुख और प्रथम शर्त ही नयापन है।योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों में इस नयेपन की मिठास मिलती ही है। गीत और ग़ज़ल काव्य की अलग अलग विधाएँ हैं, दोनों का कथ्य और शिल्प बिल्कुल अलग है। ग़ज़ल के छंद विधान यानि कि क़ाफ़िया, रदीफ़, बहर आदि का अभिनव प्रयोग कर नवगीत 'जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए' रचा गया है जिसमें ग़ज़ल विधा के व्याकरण का मानवीकरण करते हुए कथ्य का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण किया गया है-

जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए 

जोड़-जोड़कर रखे क़ाफ़िये सुख-सुविधाओं के

और साथ में कुछ रदीफ़ उजली आशाओं के

शब्दों में लेकिन मीठापन बोना भूल गए

सुबह-शाम के दो मिसरों में सांसें बीत रहीं

सिर्फ़ उलझनें ही लम्हा-दर-लम्हा जीत रहीं

लगता विश्वासों में छन्द पिरोना भूल गए

     

अनेक कवियों ने बरसात के मौसम पर केन्द्रित अनेक गीतों, ग़ज़लों, दोहों का सृजन किया है लेकिन बूँदों की आकाश से धरती तक की यात्रा और बूँदों का आपस में बतियाना व्योमजी के नवगीतों में ही मिलता है। उनके एक नवगीत 'मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है' पर दृष्टि पढ़ते ही महाकवि बाबा नागार्जुन के कालजयी गीत "बादल को घिरते देखा है" की स्मृति ताज़ा हो जाती है। इस नवगीत में वे बाबा नागार्जुन का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं-

मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है

इठलाते बल खाते हुए धरा पर आती हैं

रस्ते-भर बातें करती हैं सुख-दुख गाती हैं

संग हवा के खुश हो शोर मचाते देखा है

कभी झोंपड़ी की पीड़ा पर चिंतन करती हैं

और कभी सूखे खेतों में खुशियाँ भरती हैं

धरती को बच्चे जैसा दुलराते देखा है

         वे चीजों को रूपांतरित करने में सिद्धहस्त हैं। रूपांतरित कर देने के पश्चात रूपांतरण के मानकों का सटीक उपयोग करना बहुत ही कुशलता का कार्य है जो उनके नवगीतों में सहज रूप से दिखता है। मन को गाँव की संज्ञा में रूपांतरित कर देने जैसा प्रयोग पहले कभी कहीं देखने को नहीं मिलता। गाँव भले ही मन का हो लेकिन गाँव है तो चौपालें भी होंगी और गाँव है तो पंचायत भी होगी और चुनाव भी होंगे। मन के भाव और गाँव के वातावरण को शानदार अभिव्यक्ति दे रहा है उनका नवगीत-

तन के भीतर बसा हुआ है मन का भी इक गाँव

बेशक छोटा है लेकिन यह झांकी जैसा है

जिसमें अपनेपन से बढ़कर बड़ा न पैसा है

यहाँ सिर्फ़ सपने ही जीते जब-जब हुए चुनाव

चौपालों पर आकर यादें जमकर बतियातीं

हँसी-ठिठोली करतीं सुख-दुख गीतों में गातीं

इनका माटी से फ़सलों-सा रहता घना जुड़ाव

   

  रिश्तों के खोखलेपन या उनकी मर्यादा के चटक जाने का मार्मिक वर्णन उनके एक अन्य गीत "मुनिया ने पीहर में आना-जाना छोड़ दिया" में भी देखने को मिलता है जिसमें मायके से मिलने वाली उपेक्षा से दुखी एक विवाहित लड़की के मनोभावों का हृदयस्पर्शी वर्णन है। दरअसल रिश्ते हमारे जीवन की सबसे अनमोल पूँजी होते हैं उन्हें सहेज कर रखना सबसे बड़ी उपलब्धि है। किसी भी कारण से यह पूँजी व्यर्थ न जाए इसकी कोशिश लगातार रखी जानी चाहिए। रिश्तों को बनाए रखने के अनुरोध को बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में अभिव्यक्त करते हुए वे खानदान के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति की भूमिका में नज़र आते हैं-

चलो करें कुछ कोशिश ऐसी रिश्ते बने रहें

बंद खिड़कियाँ दरवाज़े सब कमरों के खोलें

हो न सके जो अपने, आओ हम उनके हो लें

ध्यान रहे ये पुल कोशिश के ना अधबने रहें

यही सत्य है ये जीवन की असली पूँजी हैं

रिश्तों की ख़ुशबुएँ गीत बन हर पल गूँजी हैं

अपने अपनों से पल-भर भी ना अनमने रहें

       वर्तमान समय में सामान्य रूप से देखने में आता है कि चिट्ठियाँ आनी-जानी बंद हो गई हैं। इसके लिए लोगों द्वारा अब चिट्ठियाँ लिखना बंद कर दिया जाना भी जिम्मेदार है और डाक विभाग द्वारा साधारण डाक के वितरण में बरती जा रही लापरवाही भी। इस सरकारी व्यवस्था की अव्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए मन की पीड़ा को नवगीत में वर्णित करने का प्रयोग विलक्षण है। बहुत ही खूबसूरत एकदम नए किस्म का नवगीत है यह। मैं इसको व्यंग्य-नवगीत की संज्ञा देना चाहूँगा-  

अब तो डाक-व्यवस्था जैसा अस्त-व्यस्त मन है

सुख साधारण डाक सरीखे नहीं मिले अक्सर

मिले हमेशा बस तनाव ही पंजीकृत होकर

फिर भी मुख पर रहता खुशियों का विज्ञापन है

गूगल युग में परम्पराएँ गुम हो गईं कहीं

संस्कार भी पोस्टकार्ड-से दिखते कहीं नहीं

बीते कल से रोज़ आज की रहती अनबन है

   

  कोई भी कवि अपनी कविता की विषयवस्तु अपने आसपास के वातावरण से ही खोजता है और उसे अपने ढंग से अपनी कविता में ढालता भी है। समाज में कभी मुहल्ला-संस्कृति भी थी जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल रहते थे, फिर कॉलोनी-संस्कृति और अब अपार्टमेंट-संस्कृति प्रचलित है जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना तो दूर एक दूसरे से परिचित तक नहीं होते। क्या कॉलोनी के लोग भी किसी गीत की विषयवस्तु हो सकते हैं? मैं कहूँगा कि हाँ। ऐसा सिर्फ़ उनके यहाँ ही देखने को मिल सकता है। सिमटे हुए स्वार्थी जीवन की विद्रूपता का जैसा चित्रण इस नवगीत में हुआ है अन्यत्र दुर्लभ है-

अपठनीय हस्ताक्षर जैसे कॉलोनी के लोग

सम्बन्धों में शंकाओं का पौधारोपण है

केवल अपने में ही अपना पूर्ण समर्पण है

एकाकीपन के स्वर जैसे कॉलोनी के लोग

ओढ़े हुए मुखों पर अपने नकली मुस्कानें

यहाँ आधुनिकता की बदलें पल-पल पहचानें

नहीं मिले संवत्सर जैसे कॉलोनी के लोग

      यह कॉलोनी-संस्कृति संवादहीनता की वाहक बनकर कहीं न कहीं हम सबको ही प्रभावित कर रही है। और यही संवादहीनता आज के समाज की बड़ी समस्या बन गई है जिसका कुप्रभाव अवसाद के रूप में देखने को मिल रहा है। शब्दों को केंद्रबिंदु बनाकर लिखा गया व्योमजी का यह नवगीत बहुत मार्मिक बन पड़ा है-

अब संवाद नहीं करते हैं मन से मन के शब्द

हर दिन हर पल परतें पहने दुहरापन जीते

बाहर से समृद्ध बहुत पर भीतर से रीते

अपना अर्थ कहीं खो बैठे अपनेपन के शब्द

आभासी दुनिया में रहते तनिक न बतियाते

आसपास ही हैं लेकिन अब नज़र नहीं आते

ख़ुद को ख़ुद ही ढूँढ रहे हैं अभिवादन के शब्द

       

      1970 के दशक में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों ने व्यवस्था विरोध के लिए नारों का काम किया, आज भी आम आदमी की ज़बान पर दुष्यंत का कोई न कोई शेर ज़रूर रहता है। दुष्यंत कुमार की मशहूर ग़ज़ल- 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए/इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए' को उन्होंने अपने नवगीत की विषयवस्तु बनाया है। पहली बार किसी कवि के द्वारा दूसरे कवि और उसकी कविता को नवगीत जैसी विधा की विषयवस्तु बनाया जाना अपने आप में चमत्कृत कर देने जैसा प्रयोग है। जनवाद की पैरोकारी करता दुष्यंतजी के आगमन का आवाहन समेटे उनका यह नवगीत भी अपने आप में अनूठा है-

बीत गया है अरसा, आते अब दुष्यंत नहीं

पीर वही है पर्वत जैसी पिघली अभी नहीं

और हिमालय से गंगा भी निकली अभी नहीं

भांग घुली वादों-नारों की जिसका अंत नहीं

हंगामा करने की हिम्मत बाक़ी नहीं रही

कोशिश भी की लेकिन फिर भी सूरत रही वही

उम्मीदों की पर्णकुटी में मिलते संत नहीं

        कोरोना काल में उपजीं भीषण विद्रूपताओं से आम आदमी आज भी रोज़ाना लड़ाई लड़ रहा है। इस कोरोना काल में लोग बीमारी से तो मरे ही भूख से भी मरे और बहुत लोगों का रोजगार भी खत्म हुआ। उस समय कड़ी धूप में पैदल अपने गांव की ओर चलते जा रहे प्रवासी मजदूरों का दृश्य आँखों में उतर आता है। इसी मंज़र को बेहद भावुक रूप में उन्होंने अपने नवगीत में अभिव्यक्त किया है, भूख जब रोटी के नाम खत लिखती है तो एक बेहद संवेदनशील दृश्य पैदा होता है। मेरी दृष्टि में इस कोरोना काल की व्यथा को समेटे इससे मार्मिक नवगीत कोई दूसरा नहीं हो सकता-

आज सुबह फिर लिखा भूख ने ख़त रोटी के नाम

एक महामारी ने आकर सब कुछ छीन लिया

जीवन की थाली से सुख का कण-कण बीन लिया

रोज़ स्वयं के लिए स्वयं से पल-पल है संग्राम

ख़ाली जेब पेट भी ख़ाली जीना कैसे हो

बेकारी का घुप अँधियारा झीना कैसे हो

केवल उलझन ही उलझन है सुबह-दोपहर-शाम

      'रिश्ते बने रहें' नवगीत-संग्रह के रचनाकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों को पढ़कर मैं यह बात दावे से कह सकता हूंँ कि हिंदी साहित्य के इतिहास का चित्र बनाने वाला चित्रकार जब कभी नवगीत के वृक्ष का चित्रण करेगा तो मुरादाबाद का नाम दो विशेष कारणों से चित्र में प्रकाशित दिखाई देगा। प्रथम तो नवगीत वृक्ष की जड़ों में से एक साहित्य-ऋषि दादा माहेश्वर तिवारी और दूसरा नवगीत वृक्ष को पुष्पित पल्लवित करने वाली सबसे मजबूत शाखाओं में से एक योगेंद्र वर्मा व्योम। 


✍️ राहुल शर्मा

आफीसर्स कालोनी, रामगंगा विहार-1

काँठ रोड, मुरादाबाद- 244105

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 9758556426