क्लिक कीजिए
शुक्रवार, 18 अगस्त 2023
बुधवार, 8 मार्च 2023
मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा की ग़ज़ल ....अबकी होली में किसी खास को रंगना है मुझे
टूटी उम्मीद बुझी आस को रंगना है मुझे.
और फीके पड़े उल्लास को रंगना है मुझे.
मैं हूँ वासंती हवा रंग हैं सारे मुझमे.
सरसों टेसू को अमलतास को रंगना है मुझे.
कौन सा रंग है बेहतर मेरे रंगरेज बता.
एक बेरंग से विश्वास को रंगना है मुझे.
सात रंगों से अलग रंग की मुझको है तलाश.
अबकी होली में किसी खास को रंगना है मुझे.
नाम है भक्ति मेरा खुद मे अलग रंग हूँ मै.
सूर को मीरा को रैदास को रंगना है मुझे.
जिस्म से रंग तो एक रोज उतर जाएंगे.
तेरी फितरत तेरे एहसास को रंगना है मुझे.
मैं चितेरा हूँ मेरा काम बहुत बाकी है .
भूख गढ़नी है अभी प्यास को रंगना है मुझे.
चाहता हूँ कि इन्हें दूर से पहचान सकूँ.
पीर को दर्द को संत्रास को रंगना है मुझे.
✍️ राहुल शर्मा
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
गुरुवार, 20 जनवरी 2022
मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा का योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों पर केंद्रित आलेख -- नवगीत वृक्ष को पुष्पित-पल्लवित करने वाली एक मजबूत शाखा हैं योगेंद्र वर्मा व्योम
आधुनिक हिंदी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में पूरे देश के भीतर मुरादाबाद शहर को पहचान दिलाने वाले योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों से गुज़रना मतलब एक ताज़गी भरे नगर से गुज़रना है। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि एक ही कार्यालय में कार्यरत होने के कारण मैं उनके काव्य सृजन की प्रक्रिया का साक्षी रहा हूँ। वह इतनी खूबसूरती से और बड़ी बारीकी से ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतीक और प्रतिमान ढूँढ लाते हैं जिन्हें सामान्य कवि/ गीतकार की दृष्टि खोज ही नहीं पाती। यही उनके नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है।
नवगीत की सबसे प्रमुख और प्रथम शर्त ही नयापन है।योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों में इस नयेपन की मिठास मिलती ही है। गीत और ग़ज़ल काव्य की अलग अलग विधाएँ हैं, दोनों का कथ्य और शिल्प बिल्कुल अलग है। ग़ज़ल के छंद विधान यानि कि क़ाफ़िया, रदीफ़, बहर आदि का अभिनव प्रयोग कर नवगीत 'जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए' रचा गया है जिसमें ग़ज़ल विधा के व्याकरण का मानवीकरण करते हुए कथ्य का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण किया गया है-
जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए
जोड़-जोड़कर रखे क़ाफ़िये सुख-सुविधाओं के
और साथ में कुछ रदीफ़ उजली आशाओं के
शब्दों में लेकिन मीठापन बोना भूल गए
सुबह-शाम के दो मिसरों में सांसें बीत रहीं
सिर्फ़ उलझनें ही लम्हा-दर-लम्हा जीत रहीं
लगता विश्वासों में छन्द पिरोना भूल गए
अनेक कवियों ने बरसात के मौसम पर केन्द्रित अनेक गीतों, ग़ज़लों, दोहों का सृजन किया है लेकिन बूँदों की आकाश से धरती तक की यात्रा और बूँदों का आपस में बतियाना व्योमजी के नवगीतों में ही मिलता है। उनके एक नवगीत 'मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है' पर दृष्टि पढ़ते ही महाकवि बाबा नागार्जुन के कालजयी गीत "बादल को घिरते देखा है" की स्मृति ताज़ा हो जाती है। इस नवगीत में वे बाबा नागार्जुन का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं-
मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है
इठलाते बल खाते हुए धरा पर आती हैं
रस्ते-भर बातें करती हैं सुख-दुख गाती हैं
संग हवा के खुश हो शोर मचाते देखा है
कभी झोंपड़ी की पीड़ा पर चिंतन करती हैं
और कभी सूखे खेतों में खुशियाँ भरती हैं
धरती को बच्चे जैसा दुलराते देखा है
वे चीजों को रूपांतरित करने में सिद्धहस्त हैं। रूपांतरित कर देने के पश्चात रूपांतरण के मानकों का सटीक उपयोग करना बहुत ही कुशलता का कार्य है जो उनके नवगीतों में सहज रूप से दिखता है। मन को गाँव की संज्ञा में रूपांतरित कर देने जैसा प्रयोग पहले कभी कहीं देखने को नहीं मिलता। गाँव भले ही मन का हो लेकिन गाँव है तो चौपालें भी होंगी और गाँव है तो पंचायत भी होगी और चुनाव भी होंगे। मन के भाव और गाँव के वातावरण को शानदार अभिव्यक्ति दे रहा है उनका नवगीत-
तन के भीतर बसा हुआ है मन का भी इक गाँव
बेशक छोटा है लेकिन यह झांकी जैसा है
जिसमें अपनेपन से बढ़कर बड़ा न पैसा है
यहाँ सिर्फ़ सपने ही जीते जब-जब हुए चुनाव
चौपालों पर आकर यादें जमकर बतियातीं
हँसी-ठिठोली करतीं सुख-दुख गीतों में गातीं
इनका माटी से फ़सलों-सा रहता घना जुड़ाव
रिश्तों के खोखलेपन या उनकी मर्यादा के चटक जाने का मार्मिक वर्णन उनके एक अन्य गीत "मुनिया ने पीहर में आना-जाना छोड़ दिया" में भी देखने को मिलता है जिसमें मायके से मिलने वाली उपेक्षा से दुखी एक विवाहित लड़की के मनोभावों का हृदयस्पर्शी वर्णन है। दरअसल रिश्ते हमारे जीवन की सबसे अनमोल पूँजी होते हैं उन्हें सहेज कर रखना सबसे बड़ी उपलब्धि है। किसी भी कारण से यह पूँजी व्यर्थ न जाए इसकी कोशिश लगातार रखी जानी चाहिए। रिश्तों को बनाए रखने के अनुरोध को बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में अभिव्यक्त करते हुए वे खानदान के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति की भूमिका में नज़र आते हैं-
चलो करें कुछ कोशिश ऐसी रिश्ते बने रहें
बंद खिड़कियाँ दरवाज़े सब कमरों के खोलें
हो न सके जो अपने, आओ हम उनके हो लें
ध्यान रहे ये पुल कोशिश के ना अधबने रहें
यही सत्य है ये जीवन की असली पूँजी हैं
रिश्तों की ख़ुशबुएँ गीत बन हर पल गूँजी हैं
अपने अपनों से पल-भर भी ना अनमने रहें
वर्तमान समय में सामान्य रूप से देखने में आता है कि चिट्ठियाँ आनी-जानी बंद हो गई हैं। इसके लिए लोगों द्वारा अब चिट्ठियाँ लिखना बंद कर दिया जाना भी जिम्मेदार है और डाक विभाग द्वारा साधारण डाक के वितरण में बरती जा रही लापरवाही भी। इस सरकारी व्यवस्था की अव्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए मन की पीड़ा को नवगीत में वर्णित करने का प्रयोग विलक्षण है। बहुत ही खूबसूरत एकदम नए किस्म का नवगीत है यह। मैं इसको व्यंग्य-नवगीत की संज्ञा देना चाहूँगा-
अब तो डाक-व्यवस्था जैसा अस्त-व्यस्त मन है
सुख साधारण डाक सरीखे नहीं मिले अक्सर
मिले हमेशा बस तनाव ही पंजीकृत होकर
फिर भी मुख पर रहता खुशियों का विज्ञापन है
गूगल युग में परम्पराएँ गुम हो गईं कहीं
संस्कार भी पोस्टकार्ड-से दिखते कहीं नहीं
बीते कल से रोज़ आज की रहती अनबन है
कोई भी कवि अपनी कविता की विषयवस्तु अपने आसपास के वातावरण से ही खोजता है और उसे अपने ढंग से अपनी कविता में ढालता भी है। समाज में कभी मुहल्ला-संस्कृति भी थी जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल रहते थे, फिर कॉलोनी-संस्कृति और अब अपार्टमेंट-संस्कृति प्रचलित है जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना तो दूर एक दूसरे से परिचित तक नहीं होते। क्या कॉलोनी के लोग भी किसी गीत की विषयवस्तु हो सकते हैं? मैं कहूँगा कि हाँ। ऐसा सिर्फ़ उनके यहाँ ही देखने को मिल सकता है। सिमटे हुए स्वार्थी जीवन की विद्रूपता का जैसा चित्रण इस नवगीत में हुआ है अन्यत्र दुर्लभ है-
अपठनीय हस्ताक्षर जैसे कॉलोनी के लोग
सम्बन्धों में शंकाओं का पौधारोपण है
केवल अपने में ही अपना पूर्ण समर्पण है
एकाकीपन के स्वर जैसे कॉलोनी के लोग
ओढ़े हुए मुखों पर अपने नकली मुस्कानें
यहाँ आधुनिकता की बदलें पल-पल पहचानें
नहीं मिले संवत्सर जैसे कॉलोनी के लोग
यह कॉलोनी-संस्कृति संवादहीनता की वाहक बनकर कहीं न कहीं हम सबको ही प्रभावित कर रही है। और यही संवादहीनता आज के समाज की बड़ी समस्या बन गई है जिसका कुप्रभाव अवसाद के रूप में देखने को मिल रहा है। शब्दों को केंद्रबिंदु बनाकर लिखा गया व्योमजी का यह नवगीत बहुत मार्मिक बन पड़ा है-
अब संवाद नहीं करते हैं मन से मन के शब्द
हर दिन हर पल परतें पहने दुहरापन जीते
बाहर से समृद्ध बहुत पर भीतर से रीते
अपना अर्थ कहीं खो बैठे अपनेपन के शब्द
आभासी दुनिया में रहते तनिक न बतियाते
आसपास ही हैं लेकिन अब नज़र नहीं आते
ख़ुद को ख़ुद ही ढूँढ रहे हैं अभिवादन के शब्द
1970 के दशक में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों ने व्यवस्था विरोध के लिए नारों का काम किया, आज भी आम आदमी की ज़बान पर दुष्यंत का कोई न कोई शेर ज़रूर रहता है। दुष्यंत कुमार की मशहूर ग़ज़ल- 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए/इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए' को उन्होंने अपने नवगीत की विषयवस्तु बनाया है। पहली बार किसी कवि के द्वारा दूसरे कवि और उसकी कविता को नवगीत जैसी विधा की विषयवस्तु बनाया जाना अपने आप में चमत्कृत कर देने जैसा प्रयोग है। जनवाद की पैरोकारी करता दुष्यंतजी के आगमन का आवाहन समेटे उनका यह नवगीत भी अपने आप में अनूठा है-
बीत गया है अरसा, आते अब दुष्यंत नहीं
पीर वही है पर्वत जैसी पिघली अभी नहीं
और हिमालय से गंगा भी निकली अभी नहीं
भांग घुली वादों-नारों की जिसका अंत नहीं
हंगामा करने की हिम्मत बाक़ी नहीं रही
कोशिश भी की लेकिन फिर भी सूरत रही वही
उम्मीदों की पर्णकुटी में मिलते संत नहीं
कोरोना काल में उपजीं भीषण विद्रूपताओं से आम आदमी आज भी रोज़ाना लड़ाई लड़ रहा है। इस कोरोना काल में लोग बीमारी से तो मरे ही भूख से भी मरे और बहुत लोगों का रोजगार भी खत्म हुआ। उस समय कड़ी धूप में पैदल अपने गांव की ओर चलते जा रहे प्रवासी मजदूरों का दृश्य आँखों में उतर आता है। इसी मंज़र को बेहद भावुक रूप में उन्होंने अपने नवगीत में अभिव्यक्त किया है, भूख जब रोटी के नाम खत लिखती है तो एक बेहद संवेदनशील दृश्य पैदा होता है। मेरी दृष्टि में इस कोरोना काल की व्यथा को समेटे इससे मार्मिक नवगीत कोई दूसरा नहीं हो सकता-
आज सुबह फिर लिखा भूख ने ख़त रोटी के नाम
एक महामारी ने आकर सब कुछ छीन लिया
जीवन की थाली से सुख का कण-कण बीन लिया
रोज़ स्वयं के लिए स्वयं से पल-पल है संग्राम
ख़ाली जेब पेट भी ख़ाली जीना कैसे हो
बेकारी का घुप अँधियारा झीना कैसे हो
केवल उलझन ही उलझन है सुबह-दोपहर-शाम
'रिश्ते बने रहें' नवगीत-संग्रह के रचनाकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों को पढ़कर मैं यह बात दावे से कह सकता हूंँ कि हिंदी साहित्य के इतिहास का चित्र बनाने वाला चित्रकार जब कभी नवगीत के वृक्ष का चित्रण करेगा तो मुरादाबाद का नाम दो विशेष कारणों से चित्र में प्रकाशित दिखाई देगा। प्रथम तो नवगीत वृक्ष की जड़ों में से एक साहित्य-ऋषि दादा माहेश्वर तिवारी और दूसरा नवगीत वृक्ष को पुष्पित पल्लवित करने वाली सबसे मजबूत शाखाओं में से एक योगेंद्र वर्मा व्योम।
✍️ राहुल शर्मा
आफीसर्स कालोनी, रामगंगा विहार-1
काँठ रोड, मुरादाबाद- 244105
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल- 9758556426
शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021
रविवार, 20 जून 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा की ग़ज़ल -----नकली कठोरता के मुखौटे से झाँकती आँखों से फूटती हुई मुस्कान है पिता
हिम्मत है हौसला है समाधान है पिता
हर एक कठिन प्रश्न का आसान है पिता
दुनिया में जिसके नाम से जाना गया तुम्हें
अस्तित्व से जुड़ी वही पहचान है पिता
नकली कठोरता के मुखौटे से झाँकती
आँखों से फूटती हुई मुस्कान है पिता
सागर है मौन प्रेम का पर्वत है त्याग का
अनबोले समर्पण का यशोगान है पिता
सर पर पिता के हाथ से बढ़कर नहीं दुआ
रक्षा कवच के साथ अभयदान है पिता
कांधे पे बैठे बच्चे का आकाश भी है और
सारे खिलौने खेल का सामान है पिता
सब देखभाल कर भी नज़र फेरता रहा
बच्चे समझ रहे हैं कि नादान है पिता
दुनिया में उसके जैसा कोई दूसरा नहीं
ईश्वर का सबसे कीमती वरदान है पिता
✍️ राहुल शर्मा , R-2, रंगोली ऑफ़िसर कालोनी, रामगंगा विहार, मुरादाबाद
शनिवार, 6 जून 2020
मुरादाबाद के साहित्यकार राहुल शर्मा की दस ग़ज़लों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा आनलाइन साहित्यिक चर्चा -----
*(1)*
यकीं लाज़िम है रिश्तों में वफादारी ज़रूरी है
मगर ए दिल मोहब्बत में भी खुद्दारी ज़रूरी है
मियाँ सादाबयानी झूठ सी है दौरे-हाज़िर में
भले सच बोलिए लेकिन अदाक़ारी ज़रूरी है
हमेशा आलिमों से ही नहीं मिलते सबक सारे
कभी कुछ ज़ाहिलों से भी मग़ज़मारी ज़रूरी है
परायों का भी दुनिया साथ देती है भलाई में
अगर अपना ग़लत भी हो तरफ़दारी ज़रूरी है
सियासत के घने जंगल में ज़िंदा रहना है तो फिर
तआल्लुक लोमड़ी से गिद्ध से यारी ज़रूरी है
जहां केवल समर्पण ही समर्पण हो वहाँ "राहुल"
न चालाकी मुनासिब है न हुशियारी ज़रूरी है
*(2)*
हम दोनों में से क्या मद हैं
सचमुच हैं या फिर शायद हैं
हमसे मत इतराया कीजे
रजधानी जी हम सरहद हैं
पनपो तो इनसे दूर रहो
पौधों संभलो ये बरगद हैं
दोनों की तुलना बेमानी
तुम ऊंचाई हो वो क़द हैं
ये लोकतंत्र का हासिल है
छोटे हैं लोग बडे़ पद हैं
किस दुनिया के दस्तूर हैं ये
हम लोगों पर क्यूँ आयद हैं
*(3)*
भेजा है क्या सवाल छुपाकर जबाब में
पैवस्त है महीन सा कांटा गुलाब में
इस ज़िंदगी ने मूल भी वापस नहीं किया
हमने तो सूद जोड़ रखा था हिसाब में
पाया जो ठोकरों से वही ठीक था सबक
आया न काम कुछ जो लिखा था किताब में
नाकामियां, उदासियां, तन्हाई, ज़िल्लतें
क्या क्या मिलाके पी गए हम भी शराब में
जीवन की भागदौड़ ने छोड़ा कहाँ है वक़्त
आराम से मिलेंगे कभी आओ ख्वाब में
*(4)*
कुछ अंधेरा हैं कुछ उजास हैं हम
दोस्त कड़वी सी एक मिठास हैं हम
दर्द को दिल में दी शरण हमने
आंसुओं का नया विकास हैं हम
बस हमें टूटने नहीं देना
कितनी आंखों की एक आस हैं हम
सौंपना मत हमें बदन अपना
चिथड़ा चिथड़ा हुए लिबास हैं हम
एक पर्दा तो कायनात उठा
हैं हकीक़त कि फिर क़यास हैं हम
जाने कब किसके रूबरू निकलें
दिल के भीतर दबी भड़ास हैं हम
प्यास जिसने बुझाई है सबकी
अनबुझी उस नदी की प्यास हैं हम
*(5)*
वो लोग और थे कि गिरे और संभल गए
हम ख्वाहिशों की भीड़ के नीचे कुचल गए
खाली थी मेरी जेब परेशान तो मैं था
ये क्या हुआ कि आपके तेवर बदल गए
सूरज को एहतियात बरतने की राय दो
कुछ लोग सुब्ह ओस की बूंदों से जल गए
वो झूठ थे कि जिनको रटाना पड़ा तमाम
सच हैं कि अपनेआप ज़ुबां से निकल गए
जब ये लगा कि वक़्त मेरी मुट्ठियों में है
लम्हे तमाम रेत के जैसे फिसल गए
दुनिया तेरे निज़ाम की गफलत अजीब है
खोटे तमाम सिक्के सरेआम चल गए
हासिल नहीं है शायरी पैदायशी हमें
आँसू हमारे शेरों की सूरत में ढल गए
*(6)*
अपने बारे में कुछ इस तरह बताती है मुझे
एक सबक ज़िंदगी हर रोज सिखाती है मुझे
ख्वाब होते तो निगाहों में संजो लेता मै
तुम हक़ीक़त हो यही बात डराती है मुझे
एक अनजान डगर खींच रही है मुझको
कोई खामोश सदा पास बुलाती है मुझे
मै किसी हुक्म की तामील समझता हूँ उसे
वो किसी फ़र्ज़ के मानिंद निभाती है मुझे
एक दो वार तेरे और भी सह सकता हूँ
जान बाकी है अभी साँस भी आती है मुझे
*(7)*
ख़ुद को ही ढूंढने में कहीं मुब्तला हैं हम
यारो हमें तलाश करो गुमशुदा हैं हम
मौका मिला तो हाथ से जाने नहीं दिया
कितना गुरूर था कि बड़े पारसा हैं हम
सर चढ़ के बोलती हैं हमारी अलामतें
दूरी बनाए रखिए जुनूं हैं नशा हैं हम
सारी सजाएँ काट लीं अब फैसला तो दे
सचमुच कसूरवार हैं या बेख़ता हैं हम
मानो तो ठीक और न मानो है तब भी ठीक
हुक्मे अमल नहीं हैं फकत मशविरा हैं हम
कुछ दूर तक तो साथ हमारे भी चल के देख
मंज़िल भी हैं पड़ाव भी हैं रास्ता हैं हम
*(8)*
अपने बारे में समझा गईं रोटियाँ
आख़िरी सच हैं बतला गईं रोटियाँ
भूख ने मार डाले बहुत फिक्रो फन
जाने कितने हुनर खा गयीं रोटियाँ
ज़र्द चेहरे पे कौंधी चमक कह उठी
आ गईं रोटियाँ आ गईं रोटियाँ
किससे कब कैसी क़ीमत वसूली कहो
मैंने पूछा तो शर्मा गयीं रोटियाँ
पेट की आग ठंडी न बेशक हुई
पर सियासत तो गर्मा गयीं रोटियाँ
आख़िरश भूख ईमान पर छा गयी
हर हिदायत को ठुकरा गयीं रोटियाँ
जब भरे पेट वालों के हिस्से पड़ीं
अपनी हालत पे झुंझला गईं रोटियाँ
*(9)*
दोनों की हो रही है गुजर जिन्दगी के साथ
हम तीरगी के साथ हैं वो रोशनी के साथ
करती है एक मौत कई ज़िंदगी खराब
मरते हैं लोग कितने ही एक आदमी के साथ
आंखों में अश्क भर के मुझे रोकने की ज़िद
ये क्या मज़ाक है मेरी आवारगी के साथ
मंज़िल कहाँ है वैसे भी मालूम है नहीं
उसपे भी चल दिए हैं किसी अजनबी के साथ
तेरे लिए जो शौक है मेरे लिए गुनाह
तू मालो ज़र के साथ है मै मुफलिसी के साथ
एक दूसरे से आंख बचा कर निकल गए
वो भी किसी के साथ था मै भी किसी के साथ
*(10)*
कोशिशें औरों की बेशक दिल तो बहलाती रहीं
रौनकें जिससे थीं उसके साथ ही जाती रहीं
साथ मिलकर काम करने का मज़ा कुछ यूँ रहा
तालियाँ साझा रहीं और गालियाँ ज़ाती रहीं
चैन सारा पी गयी मेरा ज़रूरत की नदी
और हिस्से का सुकूं दो रोटियाँ खाती रहीं
ज़िल्लतें, रुसवाईयां, बदनामियां और तोहमतें
जिनसे बचते थे वही सब सामने आती रहीं
झोंपड़ी हर आपदा के सामने जूझी, लडी़
कोठियां तो बस ज़बानी फिक्र फरमाती रहीं
ज़ोर कोई हल नहीं है जल्द बाज़ी है फिज़ूल
गिरहें नादां उंगलियों को सब्र सिखलाती रहीं
रोशनी क़ायम रहेगी बस दियों की शक्ल में
आंधियां सूरज से अपनी शर्त मनवाती रहीं
बावरा मन बुद्धि से कहता रहा अपनी व्यथा
कल्पनाएं भावना को शब्द पहनाती रहीं
इन गजलों पर चर्चा करते हुए प्रख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि "राहुल शर्मा अपनी पहली ग़ज़ल से ही पाठक से जो रिश्ता बनाते हैं वह उन्हें एक प्रगतिशील शायर के रूप में सामने लाता है, उनकी ग़ज़लें पढकर लगता है कि उनके भीतर शमशेर बहादुर सिंह और दुष्यंत कुमार का ग़ज़लकार तो मौजूद है ही नागार्जुन जी का तेवर भी है "।
विख्यात व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "राहुल शर्मा की कहन में सफलता-असफलता के दर्शन के साथ ईमानदारी की तराजू पर किया गया आत्मनिरीक्षण भी मौजूद है"।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय अनुपम ने कहा कि "राहुल जी की गजलें इंसानी तहज़ीब का आईना सामने लेकर आयी हैं"।
वरिष्ठ शायर डॉ. कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि "राहुल शर्मा के शेर ज़िन्दगी की हकीकत को स्वयं में समेटे हुए होते हैं। उन्होंने जो देखा और महसूस किया वहीं अपने अशआर में ढाला है"।
नवगीत कवि योगेन्द्र वर्मा व्योम ने उनकी ग़ज़लों के बारे में कहा कि "राहुल जी की ग़ज़लें परंपरागत ग़ज़लों और आधुनिक ग़ज़लों की संधिबिंदु की ग़ज़लें हैं. इनमें एक अलग तरह की मिठास भी है और अपने समय का कसैलापन भी"।
युवा कवि राजीव 'प्रखर' ने कहा कि "भाई राहुल शर्मा जी की ग़ज़लें आम ज़िन्दगी को गहराई से छूती हुई श्रोताओं व पाठकों से सीधे बात करती हैं"।
कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि "राहुल जी की गजलें परंपरा को निभाते हुए प्रगतिवाद की ओर कदम बढ़ाती दिखती हैं"।
युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि "राहुल जी की गजलें आम जिंदगी की पशोपेश को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से पाठकों के सामने रखती हैं"।
डॉ. अजीमउल हसन ने कहा कि "राहुल जी आम जनमानस के दर्द और पीड़ा को अनुभव करते हैं और उसे गजलों के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं"।
युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि "राहुल साहब के भीतर एक खुद्दार शायर मौजूद है जो अपनी खुद्दारी से सौदा नहीं करता और जिंदगी की बारीकियों को अपने अनोखे अंदाज में बयां करता है"।
युवा शायर फरहत अली खान ने कहा कि "राहुल जी की ग़ज़लों में कल्पनाओं का दखल कम हकीकत का कब्जा ज्यादा है"।
युवा गीतकार मयंक शर्मा ने कहा कि "आमतौर पर ग़ज़ल का कोई एक या दो शेर ही दिल को छूता है लेकिन यहां प्रस्तुत राहुल जी का एक-एक शेर शानदार है"।
ग्रुप एडमिन और संचालक ज़िया ज़मीर ने कहा कि "राहुल शर्मा ने दोनों ज़ुबानों को एक साथ एक जैसा इस्तेमाल करके अपनी शायरी में एक गाढ़ा रंग पैदा कर लिया है"।
::::::: प्रस्तुति ::::::::
✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मो० 7017612289