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गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार के 19 मुक्तक


हर कोलाहल का अंत एक,सूनापन ही होता,

हर बसंत पतझर का, अभिनंदन ही होता,


बिटिया के नेह का,जीवन कितना सीमित ये,


तनिक देर के बाद पिता,अपने आँगन ही रोता ।।1।।


लोकतंत्र का कत्ल हुआ है, आज़ादी भी खतम हुई,

मीसातंत्र चलाकर सत्ता पागल और बेशरम हुई।

अन्याय और शोषण का अब राज न चलने पायेगा,

ठैर सकी कब रैन अंधेरी तरुणाई जब गरम हुई।। 2।।


बहुत याद आती हैं तुम्हारी बातें वो सारी,

ज़िन्दगी ही बदल दी जिन्होंने हमारी।

जब मंज़िल जुदा हों तो मुड़ना ही बेहतर,

कुछ इस तरह से रहना,न याद आए हमारी।।3।।

         

उषा की पहली किरणों, खिलते शाखसारों में,

बादलों के संग आता सावनी फुहारों में,

मन्दिरों के घंटों की ध्वनियाँ यादें लाती,

कोई झिलमिलाता है रात को सितारों में ।4।।


नेह की बतियाँ रात रात भर, कहने वाला कोई नहीं,

एक दिन भी अपनो के घर, रहने वाला कोई नहीं,

सबकी अपनी अपनी मंज़िल, अपनी अपनी कश्ती हैं,

मेरी तरह यूँ पानी के संग, बहने वाला कोई नहीं ।।5।।


रोज़ चेहरे पे नया चेहरा लगाने वाले,

खुद गुमराह हैं मुझे राह दिखाने वाले,

ये होते हैं कुछ और दिखते हैं कुछ,

झूठे वादों से मेरा दिल बहलाने वाले ।।6।।


बिताया खेल कर बचपन जहाँ,वह आँगन नहीं था,

न वह पेड़ पर झूला कहीं,वह सावन  नहीं था,

पता पूछतीं है आज भी गलियाँ गाँव की,

जहाँ छोड़ा था वह बचपन वहाँ यौवन नहीं था ।।7।।


जान जाती है तो हम जाने देंगे

ऐ वतन तुझपे आँच न आने देंगे

यूँ तो सदा से अहिंसा के पुजारी हैं हम

वक्त पड़ा तो बम भी बरसाने देंगे।।8।।

     

कौन जाने किस घट की बूंदें किस प्यासे की प्यास बुझाएं, 

निराश मन के घोर तिमिर में आलोक का विश्वास दिलाएं, 

शासन, सत्ता,हमसफर सब, राह में तन्हा छोड़ गए जब, 

जाने किस कवि के गीत, मंज़िल की फिर आस जगाएं।।9।।


दिन गए तो चली गईं संग, प्यार की वो कहानियाँ, 

कौन, कब, कहाँ मिला था, शेष अब हैं निशानियाँ, 

गुरबत में भी कैसा हम में एक अज़ब सा आकर्षण था, 

सुन्दरता वो मासूम कितनी, लाज में थीं जवानियाॅं।।10।।

                        

कोई औरों की खुशियों के वास्ते ही जी रहा है, 

और कोई दूसरों के रक्त की मय पी रहा है, 

हम ही सुख हैं, हम ही दुख हैं, हम ही अपने दोस्त-दुश्मन, 

आदमी ही ज़ख्म देता, आदमी ही सी रहा है।।11।।


अस्त होता वो सूरज गोल, बोल रहा है अवसान के बोल, 

संध्या चुपके चुपके पूछे, दामन में हैं कितने झोल, 

कितने ज़ख्म मिले हैं तुझको, कितने ज़ख्म दिए हैं तूने, 

क्या पाया,क्या खोया जग में, तराजू में ये कभी तू तोल ।।12।।


लम्हा, लम्हा ज़िन्दगी को जी तो लिया, 

कांच पिघला हुआ जैसे पी तो लिया, 

सैंकड़ों सर्प दंश की पीड़ा हो ज्यों, 

ज़ख्म रिसते रहे, यूँ सी तो लिया ।।13।।


तुम्हारे विलुप्त प्यार की प्रतिध्वनि हूँ मैं, 

जादू से उस रूप की करतल ध्वनि हूँ मैं, 

बेझिझक हॅसी वो और बोलती आंखें तुम्हारी, 

सिमटी हुई यादों की अंर्तध्वनि हूँ मैं ।।14।।

    

रुग्ण मन, जर्जर तन

एक सत्य, परिवर्तन

बुझता दीपक शनै:शनै:

धुंआ पहन, ताप सहन।।15।।


कैसा धुंधला उदासी का घेरा, 

शाम लगता है आज सवेरा, 

एक रात हस्ती की बितानी, 

न होंगे जो कल होगा सवेरा।।16।।


वह तो तुम थे, तुम ही थे वह जिसको चाहा हर पल हमने, 

देख अकेला गम ने हमको, घेर लिया हमको कल गम ने, 

गर खंडहर ही जब होना था, क्यों सपनों के महल बनाए, 

मुस्कान अधर से दूर फिर भी, पी लिया सब अश्रु जल हमने।।17।।


वह जीवन था, जीवन था वह,अपना पराया भान नहीं था, 

अजनबी संग मन लगता था, किसी मे कोई मान नहीं था, 

भूख लगी तो किसी पड़ोसी या दोस्त के घर खा लेते, 

जिस दिन कालेज दोस्त न आता, पढ़ाई में भी ध्यान नहीं था।।18।।


दिल रोता है पहले फिर आंख रोती है, 

हर रिश्ते की यहाँ एक उम्र होती है, 

हम मरते नहीं,रिश्ते मरते यहाँ, 

बाद उसके तो ज़िन्दगी लाश ढोती है।।19।।


✍️ आमोद कुमार

दिल्ली, भारत


सोमवार, 10 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) आमोद कुमार की रचना ...आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर जहरीले साँपों का पहरा है


निकल पड़े घर-बार छोड़कर अपनी क्षमता, प्रतिभा को लेकर 

राजपथ के आह्वान पर कब किसका तन-मन ठहरा है 

आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर जहरीले साँपों का पहरा है।

घूम-फिरकर चंद वे ही लोग सत्ता में आ जाते हैं।

कभी इस दल से, कभी उस दल से, हम दलदल में फँसते जाते हैं

बेटा मुख्यमंत्री, बाप मंत्री, भाई का संसद में आसन है

ये लोकतंत्र नहीं केवल कुछ परिवारों का शासन है।

अरबों-खरबों के घोटाले इनके साए में पलते हैं।

न्याय और धर्म भी इशारों पर इनके चलते हैं।

साज़िशों का ताना-बाना देखो कितना गहरा है

आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर जहरीले साँपों का पहरा है

नोटों के हार पहनकर हैलीकाप्टर में उड़ते

ये उन लोगों के मसीहा हैं 

जो भूख से खुदक़शी करते

लंबी-लंबी लाइनें बेरोजगारों की लग जाती हैं।

नौज़वान बेटियाँ अपनी पुलिस के डंडे खाती हैं

झूठे वादे, झूठी कसमें, झूठे इनके भाषण हैं

वोटों के व्यापार के लिए ही करते ये आरक्षण है।

सत्ता के गलियारों में हर चेहरा नकली चेहरा है।

आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर ज़हरीले सौाँपों का पहरा है

पाँच हजार करोड़ का एक उद्योगपति घर बनाता है।

घर की छत पर फिर देखो हैलीपैड बनवाता है

कहने को आज़ाद हैं हम, पर दासता की वही कहानी

लाखों-करोड़ों को नहीं मयस्सर पीने का पानी है।

कितनी ही रैलियाँ निकालो या फिर तुम करो रैला

गंगा का पानी अब सब जगह हो गया मैला

कोई नहीं कुछ सुनने वाला शासन गूँगा-बहरा है।

आगे बढ़ने के सभी रास्तों पर ज़हरीले साँपों का पहरा है।

✍️ आमोद कुमार, दिल्ली

शनिवार, 4 मार्च 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार का गीत ....वो अपने थे कितने पराए.....


वो अपने थे कितने पराए, 

मिलना चाहा तो मिल भी न  पाए

अपनी मर्ज़ी से दिल के सफर  में, 

कब मिलते हैं आंचल के साए ! 


उस पार के सपने दिखा कर, 

नाखुदा ने ही लूटा मेरा घर

जिसके कहने पर निकले सफर में, 

वही कश्ति भंवर में डुबाए!  

वो अपने थे कितने पराए

मिलना चाहा तो मिल भी न पाए


दिल की बातें लोगों से कर के

फरेब खाते रहे मर-मर के

शामिल थे उनमें तुम भी, 

ये भी हम समझ न पाए  ! 

वो अपने.......... 


जो घर गुरबत में पले हैं, 

दंगों में वो ही  जले हैं, 

अंधेरी इन गलियों में, 

कोई जाकर शमा एक जलाए 

वो अपने थे....... 


पैगाम न कोई खबर, 

आंख देखे है सूनी डगर, 

"आमोद" आज उनसे मिलेंगे, 

कल ये शाम आए, न आए 

वो अपने थे कितने पराए, 

मिलना चाहा तो मिल भी न पाए 

✍️ आमोद कुमार, दिल्ली


मंगलवार, 31 जनवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार की ग़ज़ल.....बेझिझक हंसी वो, बोलती आंखें भी, सम्हाल कर रखो इन्हें, प्यार के सरमाए हैं.


ये शऊर, ये  सादगी आप जो लेकर आए हैं, 

किस जगह मिलते हैं ये, कहाँ से आप पाए हैं.


अभी अभी एक कारवां चांद की रहनुमाई मे, 

बादलों मे छुप गया, आप से शरमाए हैं.


बेपनाह हुस्न ये, गज़ब का खुलूस भी, 

दिल खुश तो हो गया मगर आंसू निकल आए हैं.


बेझिझक हंसी वो, बोलती आंखें भी, 

सम्हाल कर रखो इन्हें, प्यार के सरमाए हैं.


आंसुओं से जो लिखा, एक गीत तुमने गा दिया, 

मुद्दत के बाद किसी के लव आज मुस्कुराए हैं.


"आमोद" प्यार से यहाँ, महरूम जो रह गए

मुश्किल से सांस जिस्म से अपनी जोड़ पाए हैं.

✍️ आमोद कुमार

दिल्ली

गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार की व्यंग्य कविता ...बदलाव.


हमारी शायरी सुनकर

या हमारी कविता पढ़कर,

अगर किसी का ज़हन नहीं बदला

मौहब्बत ने नफरत की 

और, नेकी ने बदी की जगह नहीं ली,

 तो ये सब हमारे खुद के दिल बहलाने का

 ही एक ज़रिया हो सकता है

इससे किसी और का बसेरा नहीं होता,

सोच बदलने से भी नया दिन निकलता है,

सिर्फ सूरज के चमकने से ही सवेरा नही होता।

कब तलक खाली जेब भूखे  पेट ,

डिग्री हाथ मे लेकर

हम आपके गीत  गायेंगे 

हम कोई साधु तो हैं नहीं

जो गंगा तट पर जा कर धूनी रमायेंगे

वैसे सचमुच युग बदल गया है, 

अब साधु महात्मा जंगल या

हिमालय की कन्दराओं में जाकर

एकान्त में

तपस्या नहीं करते ,

अब आप सन्यासी वाले कपड़ेे पहन कर

सियासत भी कर सकते हैं"

और बिजनेस भी

आप भी ज़माने  के इस बदलाव को

स्वीकार कर लीजिए,

विज्ञापनों और भाषणों से

अपना पेट भर लीजिए।

✍️ आमोद कुमार 

दिल्ली

रविवार, 28 नवंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) आमोद कुमार की ग़ज़ल ----चापलूसी की पुरानी प्रथा के सहारे भवसागर तर गये बहुत से लोग माना कि मुश्किल है विपरीत चलना धार के संग बहने को मन नहीं करता


फरेब और स्वार्थ से भरे ये लोग

साथ इनके रहने को मन नहीं करता

बहुत जख्म खाये हैं सीने पे हमने

अब और दुःख सहने को मन नहीं करता


तेरी दुनिया तो बहुत खूबसूरत है लेकिन

आदमी को न जाने क्या हो गया है

दरख्तों-पहाड़ों से हैं हम बात करते

आदमी से कुछ कहने को मन नहीं करता


चापलूसी की पुरानी प्रथा के सहारे

भवसागर तर गये बहुत से लोग

माना कि मुश्किल है विपरीत चलना

धार के संग बहने को मन नहीं करता


झूठ, दौलत और ताकत का संगम

सदियों से ये साजिश कामयाब है

मानते हैं सच को दिल में सभी

ज़ुबाँ से पर कहने को मन नहीं करता


सुविधाओं के लिए ऐसी दौड़ भी क्या

रिश्ते नातों का प्यार ही न रहे.

हर कोई व्यस्त है घन के लिए

इसके सिवा कुछ कहने को मन नहीं करता


तुम दबाने की कोशिश चाहे जितना करो

लड़ते रहेंगे "आमोद" न्याय के वास्ते

कोई अमर तो नहीं हम भी मर जायेंगे

यूँ खड़े-खड़े ढहने को मन नहीं करता

✍️ आमोद कुमार, दिल्ली


सोमवार, 6 सितंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार अग्रवाल की ग़ज़ल ---साँस की मशीन कब रुक जाये कोई जानता नहीं , 'आमोद' सामान मगर सौ साल के रखता है


अपना पता ठिकाना जेब में डाल के रखता है।

ढलान का मुसाफ़िर कदम सम्हाल के रखता है।


मुफ़लिस सिर्फ़ देखता रहे कुछ ले न सके

वो कीमती चीजें भीतर जाल के रखता है।


उसका कोई भी ख़्वाब कभी पूरा नहीं होता

बदनसीब फिर भी उम्मीद पाल के रखता है।


वक्त तो नहीं बदलता, बदल जाते हैं हम

पुराने फोटो अक्सर वो निकाल के रखता


शख़्सीयत की पहचान दौलत से नहीं होती

,गरीब तो स्वागत में कलेजा निकाल के रखता है।


साँस की मशीन कब रुक जाये कोई जानता नहीं

'आमोद' सामान मगर सौ साल के रखता है।

✍️ आमोद कुमार अग्रवाल, सी -520, सरस्वती विहार, पीतमपुरा, दिल्ली -34, मोबाइल फोन नंबर  9868210248

शनिवार, 24 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी)आमोद कुमार का गीत ---बीत जायेगी पीड़ा रजनी, सुखद सवेरा फिर आयेगा


मत रो साथी मृदु हास से अधरों का श्रंगार करो तुम,

बीत जायेगी पीड़ा रजनी,सुखद सवेरा फिर आयेगा।


बिन विछोह के सफ़र अधूरा,

रह जाता है प्यार के पथ मे,

एक सुख और एक दुःख है,

दो पहिए जीवन के रथ मे,

नयन तुम्हारे दुख आयेंगे,अश्रु को मुस्कान बना लो,

थकन मिटेगी सूने पथ की,मिलन बसेरा फिर आयेगा।


ये सच है कि बीते दिनो की,

याद पग पग पर आ जाती,

न जीवन ही जी पाते हम,

न कभी मृत्यु आ पाती,

पर जो पथ अपनाया उसके, फूल भी अपने शूल भी अपने,

पतझर स्वयं चला जायेगा,बसंत सुनहरा फिर आयेगा।


आँसुओं को आँचल दे दो,

हर दुखी को चूम लो तुम,

नेह की ज्योत जगाकर,

नेह मे ही झूम लो तुम,

मत निराश हो मीत मेरे,सागर की लहरों से खेलो,

पतवार चलाते ही जाना तुम,पास किनारा फिर आयेगा।

 ✍️ आमोद कुमार अग्रवाल, सी -520, सरस्वती विहार, पीतमपुरा, दिल्ली -34, मोबाइल फोन नंबर  9868210248

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) आमोद कुमार की काव्य कृति परिणति की राजीव प्रखर द्वारा की गई समीक्षा ----पाठकों से संवाद करता गीत-संग्रह - परिणति

मुरादाबाद का ऊर्जावान एवं उर्वरा साहित्यिक पटल अनगिनत ओजस्वी एवं ऐतिहासिक पड़ावों को स्वयं में समाहित किये हुए है। इन पड़ावों का भरपूर समर्थन करती अनमोल कृतियाँ भी रचनाकारों की उत्कृष्ट लेखनी से होकर समाज के आम जनमानस के हृदय में स्थान बनाती रही हैं। मानवीय संवेदना के कुशल शिल्पी एवं वरिष्ठ गीतकार श्रद्धेय आमोद कुमार जी की साहित्य-साधना का पर्याय उनका परिणति नामक गीत-संग्रह ऐसी ही अनमोल कृतियों में से एक है।सामान्यतः यह कहा जाता है कि अमुक रचनाकार ने कुछ लिखा परन्तु, श्रद्धेय आमोद कुमार जी के गीत-संग्रह परिणति का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका लिखा हुआ मात्र लिखा अथवा प्रकाशित हुआ ही नहीं अपितु इससे भी कहीं अधिक ऊपर उठकर वह एक आम पाठक से हृदयस्पर्शी वार्तालाप भी कर रहा है। कुल 88 काव्य रूपी मनकों से सजी इस माला का प्रत्येक मोती यह दर्शाता है कि रचनाकार ने ज्ञात जगत से भी परे जाकर, अज्ञात के गर्भ में उतरते हुए अपने भावों को शब्द दिये हैं। कृति का प्रारंभ पृष्ठ 11 पर उपलब्ध परिणति शीर्षक गीत से होता है। कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कह देने वाली इस रचना की कुछ पंक्तियाँ देखिये -

"मोह कैसा

किससे राग द्वेष

कोई न बचेगा

अवशेष

शेष

एक सत्य परिवर्तन

बुझता दीपक।"

निश्चित ही यह गीत जीवन के आरम्भ से अंत तक का पूरा चित्र खींच देता है।

इसी क्रम में पृष्ठ 12 पर आत्म-ज्योति शीर्षक से एक अन्य  रचना मिलती है। अंतस में छिपी वेदना को साकार करने वाली इस रचना की निम्न पंक्तियाँ भी देखिये  -

"तृष्णा ऐसी जगी

ज़िन्दगी को पी गया

सौ-सौ बार मरकर भी

फिर-फिर जी गया।"

इसी क्रम में प्रश्न 19 पर सुखद सवेरा फिर आयेगा शीर्षक से एक गीत उपलब्ध है जो विशेष रूप से वर्तमान विश्वव्यापी परिस्थिति में जीवन के प्रति आशा व उल्लास का संचार करता हुआ पाठकों में एक नई ऊर्जा का संचार कर रहा है। इस ह्रदयस्पर्शी व प्रेरक गीत की भी कुछ पंक्तियाँ -

"मत रो साथी मृदु हास से,

अधरों का श्रृंगार करो तुम।

बीत जायेगी पीड़ा रजनी,

सुखद सवेरा फिर आयेगा।

बिना विछोह के सफर अधूरा,

रह जाता है प्यार के पथ में

एक सुख और एक दुःख है,

दो पहिए जीवन के रथ में।"

रचना में  कोई क्लिष्टता नहीं, कोई बाज़ीगरी अथवा लाग-लपेट नहीं, फिर भी सीधी, सरल व मनमोहक भाषा-शैली में जीवन का दर्शन गहराई से निकालकर सामने रख देने में रचनाकार पूर्णतया सफल रहा है।

आत्मा को भीतर तक स्पर्श करती हुई यह अनमोल काव्य-श्रृंखला अनेक मनमोहक सोपानों से होती हुई, पृष्ठ  112 पर यूं आने-जाने का दौर हुआ करता है शीर्षक रचना के साथ विश्राम पर पहुँचती है। जीवन की अनिश्चितता को साकार करती इस अत्यंत उत्कृष्ट रचना की कुछ पंक्तियाँ -

"मत छेड़ो बेवक्त बेसुरा राग तुम, 

गीत सुनाने का एक दौर हुआ करता है,

तन लाख व्याह रचाए मोती से, मानक से,

मन भरमाने का एक दौर हुआ करता है।"

निःसंदेह, इस पूरी कृति के अवलोकन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में रचनाकार द्वारा किया गया यह सृजन मात्र सृजन होने तक ही सीमित नहीं है अपितु, कहीं न कहीं उन्होंने इसे स्वयं के भीतर जीते हए अनुभव भी किया है। यही कारण है कि कृति सरल, सुबोध व मनभावन  भाषा-शैली के साथ कालजई बनने के मानकों पर भी पूरी तरह खरी उतरती है।

यद्यपि इस कृति की उत्कृष्टता को चंद शब्दों में समेट पाना मुझ अकिंचन के लिये संभव नहीं, फिर भी इतना अवश्य कहूंगा कि रचनाकार की उत्कृष्ट लेखनी एवं लिटरेचर लैंड जैसे उत्कृष्ट प्रकाशन संस्थान से, आकर्षक सजिल्द स्वरूप में तैयार होकर एक ऐसी अनमोल कृति साहित्य समाज तक पहुँची है, जो पाठकों के हृदय को झंकृत करती हुई जीवन के गहन दर्शन को उनके सम्मुख स्पष्ट कर रही है अतएव इस कारण यह कृति किसी भी स्तरीय पुस्तकालय में स्थान पाने के सर्वथा योग्य भी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिये रचनाकार एवं प्रकाशन संस्थान दोनों ही बारम्बार अभिनंदन एवं साधुवाद के पात्र हैं। हार्दिक मंगलकामना।


कृति : परिणति ( गीत संग्रह)

रचनाकार : आमोद कुमार

मूल्य : ₹ 295.00, पृष्ठ : 112

प्रकाशन संस्थान : लिटरेचर लैंड ,नई दिल्ली

समीक्षक : राजीव प्रखर, डिप्टी गंज, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत 

रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) आमोद कुमार अग्रवाल का मुक्तक ---


हर कोलाहल का अंत एक,सूनापन ही होता,
हर बसंत पतझर का, अभिनंदन ही होता,
बिटिया के नेह का,जीवन कितना सीमित ये,
तनिक देर के बाद पिता,अपने आँगन ही रोता ।
 ✍️ आमोद कुमार अग्रवाल, दिल्ली






रविवार, 23 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी)आमोद कुमार का गीत ----तुम जो मिले

दिन बीते तुम जो मिले,
तम मे सौ-सौ दीप जले,
सुख-दुख जीवन मे जो मिले,
लगते थे सब हमको भले।
             तुम जो मिले

तुम जो उस दिन मुस्कुराए,
हम अपने गम भूल गए,
अभावों की सूनी बगिया मे
मुरझाए फूल फिर से खिले
                  तुम जो मिले

चंदा से मधु माँग पिया,
फिर क्यों जीवन विषमय हुआ,
यूँ तो सफर मे साथ थे हम,
फिर क्यों तन्हा तन्हा चले
              तुम जो मिले

अब तो सब कुछ बदल गया,
शाम हो गई और दिन ढल गया,
अलग-अलग क्यों उड़ते हैं
पंछी जो एक डाल पले
                  तुम जो मिले

मन्दिर के घंटों की ध्वनि,
खुश होते अम्बर-अवनि,
सर्द हवाएं चलती हैं
याद आई, तारे निकले
              तुम जो मिले
   
✍️ आमोद कुमार अग्रवाल, सी -520, सरस्वती विहार, पीतमपुरा, दिल्ली -34
मोबाइल फोन नंबर  9868210248

 

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी )आमोद कुमार अग्रवाल की रचना ----दिल में हिंदुस्तान बसाए रखना


चेहरे पर मुस्कान बनाए रखना,

और अपना ईमान बनाए रखना,

पटल पर बिताई मीठी यादों का ,

टेबुल पर गुलदान सजाए रखना, 

कोई मज़हब, कोई जात हो हमारी,

दिल मे हिन्दुस्तान बसाए रखना ।

✍️ आमोद कुमार अग्रवाल

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी) आमोद कुमार अग्रवाल की कविता .........तो खुशियाँ लेकर लौटूँगा

 


जहाँ हम तुम मिले थे पहली बार

वह घर तो छूट गया

और कोई निशान भी बाकी नहीं है उसका अब

ये रिश्ते-नातों के बन्धन

रीति-रिवाज़

परम्पराएँ

और ये समाज की स्थापित मान्यताएँ

सब कुछ मिलकर कर देते हैं ऐसा कुछ

कि मन को बिना साथ लिए ही

तन चलता रहता है।

चलता रहता है दिनों, महीनों और सालों

किन्तु बिना मन के इस सफ़र का कोई गाम

क्या कभी उसको छू पाता है।

या हमारा भी कभी कोई हमसफ़र बन पाता है।

नहीं न!

तो फिर इस तनहा सफ़र का मतलब क्या है।

मुझे बताओ कि ज़िन्दगी की हक़ीक़त क्या है।

सुबह को जो प्यार करते हैं।

दिन ढलते-ढलते

अलग-अलग रास्तों पर मुड जाते हैं।

और रातों का क्या

रातें महफिलों की रंगीनियों में भी गुजरती हैं।

और जंगलों के अन्धरों में भी

यहाँ ज़िन्दगी हँसती है

नाचती झूमती गाती है

और वहाँ मारे खौफ के

थर-थर काँपती है।

तुमने तो दुःखों के जंगल में

धकेल ही दिया है मुझे

अगर मैं जंगल के सफर से लौटा

तो ढेर सारी ख़ुशियाँ लेकर लौटूँगा

तुम्हारे लिए।


✍️ आमोद कुमार अग्रवाल

सी -520, सरस्वती विहार

पीतमपुरा, दिल्ली -34

मोबाइल फोन नंबर  9868210248

सोमवार, 23 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी ) आमोद कुमार अग्रवाल का गीत ------------ ये प्यार तुम्हेंं दे सकता हूँ


जीवन के चौराहों पर आ मिलने वाली,

हर साँस -साँस की राहों से,

मृत्यु की सीमाओं पर फैली हर डाली की

 फाँस -फाँस की आहों से,

विशवास दिला दो किंचित भी तो,

जीवन के मंजुल सपनो का

बलिदान तुम्हेंं दे सकता हूँ,

ये प्यार तुम्हेंं दे सकता हूँ।


आशाओं के दीपों पर आ घिरने वाली,

रजनी की निश्छल बाहों का,

शत -शत जन्मों तक भी न मिलने वाली

अव्यक्त अधूरी चाहों का,

व्यवधान हटा दो इतना सा भी तो,

चिड़ियों के चंचल गीतों का,

मृदु गान तुम्हेंं दे सकता हूँ,

ये प्यार तुम्हेंं दे सकता हूँ।


भँवरों के गुंजन से ही क्यों

खिल उठती मुरझाए फूलों की लाली,

प्रियतम के वन्दन चिन्तन से ही क्यों

प्रिया हो जाती मतवाली, 

यह रहस्य बता दो मुझको तुम तो,

सान्ध्य गगन पर फैली अरुणा का

परिधान तुम्हेंं दे सकता हूँ,

ये प्यार तुम्हेंं दे सकता हूँ।

✍️ आमोद कुमार अग्रवाल

सी -520, सरस्वती विहार
पीतमपुरा, दिल्ली -34
मोबाइल फोन नंबर  9868210248