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सोमवार, 31 मार्च 2025
मंगलवार, 11 मार्च 2025
बुधवार, 18 सितंबर 2024
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का बाल एकांकी....गुनगुन - गिन्नी
(शहर के बीचों- बीच बने एक छोटे से से घर के अंदर कुछ गौरैये घोंसले बनाकर रह रही हैं। उन्हीं में से एक हरे रंग के काग़ज़ वाले डिब्बे नुमा घोंसले पर गिन्नी नाम की गिलहरी ने कब्जा कर लिया है। जो न जाने किस तरह से गेट के ऊपरी किनारे से होते उस घोसलें में आ घुसी थी। उस घर की मालकिन ने यह देखकर दो -तीन घोंसले और टांँग दिये , जिससे गौरैयों को रहने की जगह कम न पड़े। आज गौरैयों की सरदार गुनगुन की बाहरी सहेलियाँ भी उस घर में गुनगुन व उसके परिवार से मिलने आ पहुँची हैं। बाहर भारी बारिश हो रही है और मौसम विभाग के अनुसार अभी अड़तालीस घंटे ऐसे ही बरसात होने की भारी संभावना है। )
(प्रथम अंक)
( गिन्नी गिलहरी और गौरैये एक ही प्लेट में खा रही हैं और साथ ही दिन भर की बातें भी कर रही हैं।)
गिन्नी : हम्मम..! (गौरैयों के घोंसलों की ओर देखते हुए) तुम्हारे घोंसलों की इस घर की मालकिन ने अच्छी तरह से व्यवस्था कर रखी है। काफी समय से रह रही हो न तुम लोग यहाँ पर....!!
गौरैये : (समवेत स्वर में) हाँ बहन!! हमारी मालकिन बहुत दयालु हैं। अब देखो न...!!. उन्होंने तुम्हें भी नहीं भगाया। और तो और हमारे लिए प्रतिदिन चावल और पानी भी रख देती हैं।
गिन्नी : हम्ममम... ये तो सच है। आज प्रातः भी कुछ बिस्किट और पूड़ी रख गयी थीं वह...! बड़े ही स्वादिष्ट लगे मुझे तो...! (चावल खाते हुए)
गौरैये : (आश्चर्य से) बिस्किट.....! पूड़ी....! और तुम अकेले चट कर गयीं!! हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ा...!
गुनगुन : मत भूलो गिन्नी यह घर हमारा पहले है, तुम्हारा बाद में। हम यहाँ बीस वर्षों से रह रहे हैं और तुम्हें छ:महीने भी नहीं हुए यहाँ आये...! चोर कहीं की....!
गिन्नी : ( हँसते हुए)अररररर...! तुम सब तो क्रोधित हो गयीं। साॅरी बाबा..( अपने कान पकड़ते हुए) आगे से ऐसा नहीं होगा। हम सब मिल बाँटकर खायेंगे।(तनिक चहकते हुए) सुनो.....!तुम लोगो ने अखरोट खाया है कभी...??
गौरैये :(समवेत स्वर में) अखरोट!!!!! नहीं तो..! हमारी चोंच से तो उसका मोटा छिलका टूटेगा भी नहीं,तो खायेंगे कैसे?
गिन्नी : कोई बात नहीं सखियों आज से हम सब मित्र हुए। अखरोट..मैं तुम्हें खिलाऊंगी । मिलाओ हाथ...!(अपना अगला सीधा पंजा आगे बढ़ाते हुए)
गुनगुन : बिलकुल...!!!.(फिर गौरैयों की सरदार गुनगुन गौरैया अपने एक पंजे को गिलहरी के आगे बढ़े हुए पंजे से मिलाकर मित्रता पक्की कर देती है।) मगर मित्रता का एक सिद्धांत है गिन्नी जी ...!( हँसते हुए)
गिन्नी: वो क्या.....?
गुनगुन: न धन्यवाद देना .....! न क्षमा माँगना..!
गिन्नी: जी मैडम, स्वीकार है। ( हंँसती है)चलो अब जल्दी- जल्दी चावल खा लेते हैं। मालकिन का छोटा बेटा स्कूल से आता ही होगा। वह बड़ा ही शरारती है .! हमें देखते ही पकड़ने को दौड़ेगा।
गुनगुन : हांँ- हांँ जल्दी खा लो सखियों। बाहर बारिश तेज होने वाली है। हमारी जो सखियाँ बाहर से आयी हैं उन्हें भी बहुत दूर जाना है।
गिन्नी: आज तुम्हारी सखियाँ यहाँ चावल खाने क्यों आयी हैं?
गुनगुन : क्योंकि भारी बारिश में हम लोगो को हमारा प्रमुख भोजन कीड़े नहीं मिलते हैं। इसलिए हमारी सखियाँ भी हमारे साथ यहाँ रोटी- चावल खाने आ जाती हैं। मालकिन कुछ नहीं कहतीं, बल्कि हमारी प्लेट में खुब सारे खाद्य- पदार्थ रख देती है।
गिन्नी: ओह......! यह बात है....!खाओ... खाओ...! ( कुछ सोचते हुए)तुम लोगो को एक बहुत ज़रूरी बात भी बतानी है।
गुनगुन : अच्छा.....!क्या बात है गिन्नी? बताओ... बताओ... !
गिन्नी : ( गंभीर होकर) आज सुबह मैने गेट के ऊपर एक गिरगिट देखा । वह तुम लोगो के अंडे चुराने वाला था, तभी मैने उसे भगा दिया। तुम लोग सावधान रहना....!
गुनगुन : ओहहह.....! बहुत अच्छा किया गिन्नी..!वह गिरगिट बहुत शातिर बदमाश है ...!जब हम बाहर भोजन की तलाश में जाते हैं तब वह अक्सर हमारे अंडे चुरा कर खा लेता है। सच कहूँ तो तुमने यहाँ आकर हम सब पर बहुत उपकार किया है गिन्नी...! ( गुनगुन का गला भर आया था)
गिन्नी: (अपनी गोल- गोल आँखों में आँसू भरकर) उपकार तो तुम सबने किया है मुझपर ...!.अपने बीच....मुझे भी इस घर में शरण देकर...! और उस दिन........उस खुले मैदान में तो वो भूरी बिल्ली मुझे कब की खा गयी होती यदि तुम सबने चींचींचीं का शोर मचाकर मुझे सतर्क न किया होता ....!!
गुनगुन: नही.... नहीं....हमने तुम्हें शरण कब दी ....? तुम तो खुद ज़बरदस्ती आयी हो हमारे बीच ( ज़ोर से हँसते हुए) हा हा हा...!
गिन्नी: (तनिक झेंपते हुए ) जो भी है, अब तो हम सब मित्र हुए न....! ( मुस्कुराती है)
तुमने मुझे बिल्ली से बचाया और मैं गिरगिट और छिपकली से तुम्हारे अंडों की रक्षा करुँगी। वैसे भी इस घर में हम सब अधिक सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। काफी आरामदायक है यह।
गुनगुन : हाँ ,ठीक कहा तुमने गिन्नी,अबसे हम एक दूसरे के सुख: दुख में बराबर के हिस्सेदार होंगे। ( तनिक चौंक कर) अरे... ! देखो ......मकान मालकिन अपना फोन लेकर इधर ही आ रही हैं। इन्हें भी हमारी फोटो और वीडियो बनाने का बड़ा ही शौक है। हा! हा! हा..!. हा! अच्छा हुआ हम सब फोन नहीं चलाते। सुना है इंसानों में फोन चलाने की बड़ी बुरी बीमारी है। ( सब हँसते हैं) .....हा हा हा ही ही ही....! चलो निकलो ....अब सब लोग!!!!
बाहरी गौरैये : (समवेत स्वर में ) चलते हैं गुनगुन -गिन्नी हम कल फिर आयेंगे !! तुम अखरोट ज़रूर ले आना.... !बाय- बाय...!
गिन्नी: ( अपने घोंसले में जाते हुए) अवश्य...!अवश्य.!.... कल शीघ्र आना... ! मैं तुम सबकी प्रतीक्षा करुँगी। बाय-बाय..मित्रों..!
गुनगुन:(अपने घोंसले में जाते हुए) बाय- बाय सखियों....! ठीक से जाना...!
✍️मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
रविवार, 14 जुलाई 2024
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का रेखाचित्र ....गौरेया
नन्ही हल्की भूरे रंग वाली काली चित्ती दार गोरैयौं ने एक अरसे से मेरे छोटे से मकान में घोंसले बना रखे हैं..शुरुआत में गौरैया का एक ही जोड़ा छत में पंखा टाँगने के लिए बने फैन बाक्स के सुराख में रहता था। शहरों मे खुले आंगन न रखने का रिवाज या बाध्यता कह लो मुझे कभी अच्छा न लगा,परंत जगह की मजबूरी कह लो या बजट , मेरे घर में भी इसी क्रम में छोटा सा मकान, जिसमें सुविधानुसार कमरे, बैठक, लाबी और प्रवेश द्वार के समीप ही थोड़ी सी जगह है, जहाँ बच्चे अपनी साइकिलें और स्कूटी आदि खड़ी करते हैं। मकान के इसी हिस्से में गौरैयों ने अपना डेरा जमा रखा है..कुछ वर्ष पूर्व मैं दीपावली पर दो प्लास्टिक वाले हैंगिंग फूलदान ले आयी थीं,और उन्हें प्रवेश द्वार के समीप छत में लगे लोहे के कुंडो में टाँग दिया था उन फ़ूलदानों पर प्लास्टिक के बने अनार,आम आदि फल व बेल लटक रहे हैं, जो बिल्कुल असली फलों जैसे दिखते हैं, संभवतः उन्हीं से आकर्षित होकर गौरैया के दो अन्य जोडो़ ने भी उन्हीं फूलदानों में अपना ठिकाना बना कर हमारे घर को और हमें अनुग्रहीत किया होगा। मकान में अंदर आने के लिए गौरैयों ने मकान के गेट के ऊपरी हिस्से में बने क्रासनुमा लोहे के जाली दार डिजाइन को अपना आवागमन का साधन बना रखा है.मुझे बड़ा आश्चर्य होता है जब गौरैये उन छोटे- छोटे क्रास में से होकर फुर्र से आती जाती रहती हैं,अब धीरे- धीरे गौरैया के नौ दस जोड़े मेरे छोटे से घर की शोभा बढ़ाये हुए हैं, गौरैयों के मूक आग्रह को देखकर मैनै अपने बच्चों से गत्ते के कुछ डिब्बे बनवा कर दीवार पर टँगवा दिए जिसमें गौरैया रहने लगीं हैं। मैने उसी जगह उनके खाने-दाने के लिए कच्चे चावल व पानी की व्यवस्था कर रखी है जिसे खाने उनकी बाहरी सहेलियाँ जो कालोनी के खाली प्लाटों मे उगी झाड़ियों में रहती हैं, वे भी आती रहती हैं।
इतने अरसे से गौरैयों को अपने घर में चहकता देखना वास्तव में बहुत ही सुखद व आनंददायक है। प्रातःकाल चार बजे से ही इन नन्ही -नन्ही चिड़ियों की चहचहाहट शहर में बने मेरे घर को प्राकृतिक वातावरण प्रदान करने के साथ साथ, भोर के आगमन की सहज सूचना भी दे देती है। इतने वर्षों में साथ रहते -रहते, ये नन्ही चिड़ियाँ कभी मुझे मेरी सखी- सहेली लगती हैं तो कभी लगता है कि ये मेरे छोटे -छोटे बच्चे हैं जो भगवान ने मुझसे प्रसन्न होकर मेरे घर रहने भेज दिये, वैसे भी मुझे छोटे बच्चों से इतना प्रेम है कि मैं उस प्रेम को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकतीं।
इनके साथ रहते हुए मैंने अनुभव किया कि इनकी सामाजिक रचना काफी कुछ हम इंसानों जैसी ही होती है। नर चिड़ा, मादा चिड़िया से थोड़ा बड़ा और सुंदर होता है।उसके पंख काली चित्तियों वाले होते हैं तथा सिर से गले तक काली कंठी बनी होती है।चिड़ा थोड़ा अकड़ू व आलसी किस्म का होता है। यहाँ भी पुरुष प्रधान समाज जान पड़ता है। चिड़े को संभवतः अपनी सुंदरता और शक्ति का घमंड होता है ,और वह चिड़िया पर हुक्म चलाना कदाचित अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है, वह घोंसला बनाने में मादा चिड़िया का ज्यादा सहयोग नहीं करता,और यदि कभी कोई बड़ी सी घास का तिनका या धागा अपनी चोंच में पकड़ कर कहीं से ले भी आता है तो बड़े गर्व से चिडिया को अपने पंख फड़फड़ा कर दिखाता है मानो कह रहा हो ..देखा! तू इतने तिनके दिन भर में लायेगी जितने मैं दो बार में ही ले आया, फिर मुँह फुला कर अपना सिर पंखों में रखकर ऐसे बैठ जाता है जैसे कितने अहसान बेचारी चिड़िया पर कर दिये हों। अरे भाई! तेरा भी तो घर है,अगर तू दो तिनके ले भी आया तो कौन से पहाड़ के पत्थर ढो लिए..पर नहीं..साहब..वह तो चिड़ा है। शायद, चिड़चिड़ा भी है, खैर.!!.चिड़िया अंडे देने से कुछ दिन पहले ही साइकिल के पास रखी मेरे घर की झाड़ू की सींक तोड़- तोड़ कर अपने घोंसले का निर्माण प्रारंभ कर देती है, साथ ही छत पर फैले हुए कपड़े जो मैं धोकर उल्टे अर्थात सिलाई की ओर से फैलाती हूँ,उन कपड़ों के धागे अपनी चोंच से खींचने का प्रयास करती है और अक्सर वह इस कार्य में सफल भी हो जाती है । कभी- कभी घर के बाहर या छत पर पड़ा पतंग के मांझे का टुकड़ा भी उसके काम का होता है जिसे उठाकर वह बड़े यत्न से अपने सपनों का घर बनाती है। गौरैयों की इतनी मेहनत देखकर मुझे उनपर बहुत तरस आता है। एक बार गौरैया के एक नव जोड़े को दीवार पर टँगे गत्ते के नये डिब्बे में घोंसला बनाता देख मैनै सोचा कि चलो आज मैं इनका घोंसला स्वयं बना देती हूँ.यह पिछली सर्दियों की बात है . तब मैने एक घोंसले में थोड़ी रुई व घास व सूखे तिनके गत्ते के डिब्बे में बिछाकर सुंदर घोंसला बना दिया और यह सोचकर मन ही मन प्रसन्न होने लगी कि चलो आज नन्ही गौरैया भी प्रसन्न हो जायेगी।आखिर उसका भी तो मन है! जीवन में कभी तो आराम मिले , परंतु यह क्या?? उस दिन उस घोंसले का हक़दार गौरैया का वह जोड़ा पूरा दिन और पूरी रात घोंसले में नहीं आया। बस डिब्बे के आसपास पंख फड़फड़ा कर घूमते रहे। शायद वे इंसानी गंध से भयभीत हो गए थे या फिर स्वाभिमान था! बिना परिश्रम किए किसी और के द्वारा बनाया घर उनका अपना घर कैसे हो सकता है..!! शायद घोंसला बुनते वक़्त उन धागों में ये नन्हें पक्षी हम इंसानो की तरह सपने भी बुनते हैं.. फिर किसी और के हाथों का स्पर्श क्यों स्वीकार किया जाए..? उस दिन उन्हें घोंसले से बाहर बैठा देख मुझे बहुत दुख हुआ और निर्णय किया कि आज के बाद इनकी गृहस्थी में मैं कोई हस्तक्षेप नहीं करूँगी. मन ही मन कहा.."तुम स्वछंद ही रहो, नन्हीं चिड़ियों"और उस डिब्बे को हटाकर नया डिब्बा दीवार पर टाँग दिया। इतने सारे घोंसलों में प्रायः किसी न किसी घोंसले में छोटे-छोटे गुलाबी अंडों से चूजे बाहर निकलते ही रहते हैं तब मेरे घर में उस दिन गौरैयों का कलरव बढ़ जाता है, लगता है मानो वे आज कोई उत्सव मनाने जा रही हों. उस दिन उनकी बाहरी मित्र उनके बच्चों को देखने आती हैं, पूरा झुंड आकर उस घोसलें के अंदर -बाहर सब जगह बाकायदा मुआयना करता है और बहुत ज्यादा शोर मचाता है. फिर शुरू होती है चिड़ियों की दावत। हमारी गौरैये बड़े गर्व से अपनी सहेलियों को प्लेट में रखे चावल खिलवाती हैं जो मैंने उनके घोंसले के नीचे रखी एक अलमारी पर रखी है, लेकिन उस झुंड में से कुछ शैतान चिड़ियाँ प्लेट को अपनी चोंच से नीचे फर्श पर गिरा देती हैं और फिर दाना चुगती हैं, संभवतः वे घर से बाहर रहकर बिलकुल घर के कायदे कानून न जानती हों और उन्हें प्लेट में रखे चावलों की औपचारिकता पसंद नहीं आती हो और प्राकृतिक तरीके से ही दाना चुगती हैं, यह भी हो सकता है कि प्लेट में उनकी चोंच सहज रूप से चावल न चुग पाती हो।
चार पाँच दिन उन बाहरी गौरैयों का बहुत आना जाना लगा रहता है, और इतना कलरव होता है कि कई बार तो बाहर सड़क पर आते -जाते लोग भी कौतूहल वश हमारे घर के आगे एक दो पल ठहर से जाते हैं।
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जून का उमस भरा महीना है, तकरीबन सुबह के आठ बजे हैं और सूर्य की किरणें गेट के ऊपरी हिस्से से होती हुई हरे रंग के कागज़ वाले गत्ते के बने हैंगिंग घोंसले पर तिरछी पड़ रही हैं । आज चिड़ा और चिड़िया की गहमागहमी बढ़ गयी है चिड़िया बहुत बोल रही है, शायद चिडे़ को कुछ निर्देश दे रही है. मुझे गौरैया का यह जोड़ा कुछ परेशान जान पड़ता है, चिड़िया बार बार घोंसले में अंदर -बाहर जा रही है. शायद गुलाबी अंडों से चूज़े बाहर निकलने वाले हैं या निकल गये हैं यह चिड़ा अन्य चिड़ों के मुकाबले मुझे ज्यादा भावुक, मेहनती और समझदार लग रहा है.कुछ चिड़े तो अंडे फूटने पर घोंसले में जाते ही नहीं, बस घोंसले के बाहर चौधरी बने बैठे रहते हैं , या चिड़िया जब बच्चों के लिए दाना चुगने जाती है तो चिड़ा घोंसले में झाँककर,चूजों पर एक नज़र डालकर अपनी कर्तव्य की इति श्री कर लेता है, परंतु यह अपवाद भी यहाँ देखने को मिल रहा है। इस हरे रंग के डिब्बे वाले घोंसले का युगल आधुनिक दंपत्तियों जैसा लग रहा है।दोनों मिलजुल कर बच्चों की देखभाल में व्यस्त हो गये हैं। यह चिड़ा एक ज़िम्मेदार बाप का पूरा दायित्व अपने कंधों पर उठाये मादा गौरैया की मदद कर रहा है घोंसले में से नवजात बच्चों की महीन घुंघरू जैसी छन- छन -छन -छन की आवाज़ आने लगी है। मैं उत्सुकता वश उचक- उचक कर बच्चों को नीचे से ही देखने का भरसक प्रयत्न कर रही हूँ, यह जानते हुए भी कि मैं इतने नीचे से इन्हें नहीं देख पाऊँगी।अचानक चिड़ा अपने पंख फड़फड़ाता हुआ घोंसले से बाहर अपनी चोंच में कुछ लेकर निकला है, मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह घोंसले में कुछ लाने के बजाय घोंसलें से बाहर क्या लाया है ?मेरी आँखे उसका पीछा करने लगीं । उसने गेट के ऊपरी किनारे पर बाहर की ओर मुँह करके बैठे- बैठे , इधर उधर देखते हुए अपनी चोंच से वह वस्तु नीचे गिरा दी. मुझे फिर से कौतूहल हुआ, बाहर जाकर देखा तो वह कुछ- कुछ फूटे हुए अंडे के अवशेष जैसा था.मैं हतप्रभ रह गयीं... यह तो बिलकुल हम इंसानो जैसा बर्ताव करते हैं। नवजात चूजों के नीचे सफाई कार्य इतनी कुशलता से करते हुए, प्रथम बार किसी पक्षी को देखा था। वह चिड़ा कुछ देर इसी प्रकार घोंसलें से सूखी हुई बीट व अन्य कचरा उठा -उठा कर बाहर फेंक रहा था.बच्चे भूखे हो चले थे, अत: चिड़ा और चिड़ी दोनो उनके भोजन की व्यवस्था में जुट गये.मुझे अभी तक यह पता था कि हमारी गौरैया.. हमारे द्वारा रखे चावलों को ही बस पानी में भिगो कर नवजात चूजों को खिलाती है. कीड़े अभी उनके लिए नहीं हैं, लेकिन अभी इस घोसलें से और रहस्य बाहर आने थे.. सो आने लगे..
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आज चूजों को निकले छठा दिन हो गया था, घुंघरूओं की महीन आवाज़ अब थोड़े मोटे घुंघरू जैसी होने लगी है .चिड़ा उड़कर गया और कुछ ही पल में एक छोटा सा कीड़ा अपनी चोंच में पकड़ लाया था, यह चिड़ा चिड़िया की अपेक्षा ज्यादा मेहनत क्यों कर रहा है? मेरा जिज्ञासु मन विचलित होता जा रहा था.. !अचानक घर की किचन में गैस पर रखे कूकर की सीटी ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया पर बावला मन तो गौरैया के घोसलें में अटक गया था.उसे भी तो उस घोंसलें से नीचे उतारना था, अतः मैने गैस का चूल्हा सिम करके अपने बड़े लड़के को आवाज़ दी और कहा कि लोहे की स्टैंड वाली सीढ़ी तुरंत घोसलें के पास ले आये। लड़का सीढ़ी तो ले आया, पर अब प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी ओर देखने लगा कि इसका क्या करोगी?मैनै उसकी शंका भाँपते हुए कहा, "सुन! तू सीढ़ी पर चढ़कर ज़रा मेरे फोन से घोंसले के अंदर की फोटो और वीडियो बना दे! " वाक्य में आदेश कम और मनुहार ज्यादा देख वह आलस में भरकर उपदेश देता हुआ कहने लगा, "अरे मम्मी! क्या हो गया आपको, पता नहीं क्या कि गौरैये डर जायेंगीं और भाग जायेंगीं...!अपने बच्चों को छोड़कर .....फिर ज़रूरी नहीं कि वापस आये या नहीं.... बच्चों को कौन देखेगा फिर? और बच्चे ...!वे भी तो डर जायेंगे" उसकी बात सुनकर मुझे सुखद अनुभूति हुई कि यह लड़का बाहर से ही कट्टर दिखता है.. लेकिन भीतर से पक्षियों से बहुत प्रेम करता है. मगर फिर लगा कि यह काम करने में अक्सर ही टालमटोल करता रहता है अत: मैने कहा, "तू ज्यादा लीडर मत बन।अगर नहीं चढ़ना तो रहने दे...! मैं खुद ही सीढ़ी पर चढ़ जाती हूँ, बस तू पकड़े रहना।"
अब उसके चेहरे पर क्रोध मिश्रित हैरानगी थी।मानो कहना चाह रहा हो, कि अपने वज़न का तो ख़याल करो पर शायद इसलिए नहीं बोला कि बोलता तो खुद सीढ़ी पर चढ़ना पड़ता। मैं भी ढीठ की तरह सीढ़ी पर ,अपने हाथ -पैर टूटने की चिंता किये बिना लड़के को खरी खोटी सुनाते हुए, एक हाथ में फोन और दूसरे हाथ से सीढ़ी पकड़ चढ़ती चली गयी.....
गौरैया का जोड़ा मुझे सीढ़ी पर चढ़ता देख भयभीत होकर घर के बाहर बिजली के तार पर जा बैठा था ।मुझे भी भीतर से भय लग रहा था कि अगर लड़के की बात सही साबित हुई और गौरैये वापस न लौटीं तो इन छ: दिन के चूजों का क्या होगा? मैं खुद को कभी माफ न कर पाऊँगी...! पर मेरे स्वार्थी मन ने चूज़ों को नज़दीक से देखने के लालच में मेरी एक न सुनी और कहा,"कुछ नहीं होगा...!ये गौरैये मेरी गंध से भली- भाँति परिचित हैं और फिर ये अपने चूज़ों को यूँ कभी अकेला नहीं छोड़ सकतीं" . अतः मै सीढ़ी के अंतिम छोर से तीसरी पायदान पर पहुँच कर ही रुकी, वहाँ से हल्का सा उचकने पर ही घोंसले के भीतर का दृश्य साफ दिख रहा था.भीतर का नज़ारा बड़ा ही अद्भुत व चौंकाने वाला निकला,घोंसले मे एक बच्चा कुछ तंदरुस्त सा हल्के भूरे रंग में चिड़िया की आकृति वाला था और अपनी छोटी सी चोंच खोलकर हतप्रभ सा शून्य में देख रहा था । वह घोंसलें की पिछली दीवार से सटकर सहमा हुआ बैठा था, जबकि दूसरा चूजा गहरा गुलाबी रंग लिए, गत्ते के उस आयताकार घोंसले के आयताकार आकार के प्रवेश द्वार की बगल वाली दीवार से सटकर निढाल सा पड़ा था.।उसकी आँखे अधखुली थीं और , शरीर पर सिर्फ गुलाबी खाल ही दिख रही थी, मेरे लिए यकीन कर पाना मुश्किल था कि चिड़ियों के अंडो में से भी प्री मैच्योर बेबी( चूजा) निकल सकता है..मुझे सीढ़ी पर चढ़े हुए आधा मिनट हो चुका था,बाहर तार पर बैठी गौरैयों के सब्र का बाँध टूट रहा था और..अब वे आक्रामक अंदाज में शोर मचाने लगीं, मैने जल्दी- जल्दी वीडियो बनानी शुरू ही की थी कि गौरेये अंदर आ गयीं और शोर मचाती हुई मेरे और लड़के के पास गोल -गोल चक्कर काटने लगीं
चिड़िया घोंसले में जाकर शोर मचाने लगी और चूजों की चोंच से अपनी चोंच मिलाकर पुचकारने लगी परंतु चिड़ा अब भी गोल चक्कर काट रहा था. संकट के समय गौरैयों की एकता और शक्ति देखते ही बनती है और ये अक्सर भय और संकट की स्थिति में अपने पंखों को तेजी से फड़फड़ाते हुए गोल- गोल चक्कर काटने लगती हैं, खासतौर पर उस वक़्त जब मामला इनकी संतति से जुड़ा हो
इसी क्रम में चिड़ियों की सूझबूझ और बहादुरी से जुड़ा एक मजेदार किस्सा मुझे याद आ गया,पिछली गर्मियों में हमारे गेट के ठीक बगल की दीवार पर अंदर की ओर गेट से सटे एक लकड़ी के बाॅक्स वाले घोंसले में गौरैया ने अंडे दिये लेकिन उनमें से एक अंडा मैने अपने घर की बाहर वाली पैड़ी पर फूटा हुआ देखा.अब मुझे बड़ा ताज्जुब हो रहा था कि ये अंडा बाहर कैसे पड़ा हुआ है, बच्चों की पहुँच से तो घोंसला दूर था और दूर न भी होता तो वे कदापि ऐसा न करते क्योंकि वे जानते हैं कि इन गौरैयों में मेरे प्राण बसते हैं, चिड़िया अपना अंडा खुद फोड़ेगी नहीं और अंडा यहाँ बंद गेट से उड़कर बाहर जायेगा नहीं। अत:जासूसी के सारे प्रपंच शुरू हुए, मैं और मेरे बच्चे लगातार घोसलों पर निगरानी बनाए हुए थे, परंतु हाथ कुछ न लग रहा था, अगले दिन फिर एक अंडा घर के बाहर फूटा हुआ मिला.उधर गौरैयों ने भी पूरा दिन करूण क्रंदन किया तो अंडे चोर का पता लगाना तो अब जीवन -मरण का प्रश्न बन चुका था, धैर्य अपनी सीमाएँ लांघ चुका था,लिहाज़ा मैनै अपनी दोपहर की प्रिय निद्रा का त्याग किया और अंडे चोर का पता लगाने में जी जान लगा दी,अगले तीन घंटे में ही वह अनोखा चोर हाथ आ चुका था, जो लगातार रंग बदल -बदल कर चोरी कर रहा था।
यह एक शातिर गिरगिट था, जो मेन गेट पर किये गये काले और सुनहरे रंग जैसा दोरंगा होकर चुपके से गेट के ऊपरी किनारे से होता हुआ घोंसले में घुसकर अंडे चुरा रहा था. उसने अपना मुख काला और पूँछ सुनहरी कर रखी थी.खैर बड़ी मुश्किल से चोर पकड़ा गया.... बच्चों ने हल्के ढेलों और एक डंडे से की सहायता से उसे हटाकर दूर भगा दिया मगर उसके मुँह अंडे लग चुके थे.अत: दो दिन बाद फिर आ धमका. परंतु हमारे द्वारा उसे भगाने की चेष्टा में अब गौरैये भी उसका भेद जान चुकी थीं, इस बार उन्होंने खुद ही चोर को सबक सिखाने का निश्चय किया और एक साथ पाँच छ गौरैयों ने मिलकर जो उसके शरीर पर ठूंँगें मारी तो गिरगिट सिर पर पैर रखकर ऐसा भागा कि फिर दोबारा नहीं लौटा।
अत: मुझे लगा कि गौरैयों ने अगर अपनी चोंच से ठूँग मारनी शुरू कर दी तो यह लड़का तो सीढ़ी छोड़कर भाग जायेगा और फिर न सोचेगा कौन माँ और कैसा बेटा? ,हालांकि सीढ़ी स्टैंड वाली थी, फिर भी संतुलन बिगड़ने का डर था, लिहाज़ा मैं भी फुर्ती से नीचे उतर गयीं.
खैर...उस प्री मैचयोर चूजे को देखकर चिड़े का इतना कठिन परिश्रम करने का रहस्य समझ आने लगा था, साथ ही घोर आश्चर्य भी हो रहा था कि इनके पास कौन सा डाक्टर है जिसने इन्हें बताया होगा कि इस अपरिपक्व चूजे को जन्म के तुरंत बाद प्रोटीन की सख्त़ ज़रूरत है. हालाँकि गौरैये भी अन्य पक्षियों की तरह सर्व हारी जीव हैं, परंतु बिगड़ते पर्यावरण में प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने से कीड़े- मकौड़े अब इन्हें सर्वसुलभ नहीं रह गये हैं.
अमूनन मेरे घर की गौरैये बच्चों को जन्म के तुरंत बाद घर में उपलब्ध कच्चे चावल पानी में भिगो कर या पके हुए चावल ही खिलाती हैं, और कीड़े लाने में अधिक परिश्रम नहीं करती है ,परंतु गौरैया का ये वाला जोड़ा प्री मैच्योर बच्चे को अधिक शक्ति शाली बनाने हेतु जन्म के तुरंत बाद अथक परिश्रम से कीड़े ला -लाकर खिला रहा था।
इन पंद्रह वर्षों के अनुभव में मैनै पाया कि हर घोंसले के जोड़े का व्यवहार परिस्थितियों के अनुरूप भिन्न था.परंतु अंडे फूटने पर प्रत्येक गौरैया माँ का कठोर परिश्रम एक समान ही होता है। वह अपनी छोटी सी चोंच में एक साथ बहुत सारे दाने लाती है और पानी भी अपनी चोंच में एक साथ भर लेती है, फिर अपने बच्चों को खिलाती है.वह नन्ही सी जान पूरा दिन अनवरत यही उपक्रम करती रहती है।
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चिड़िया के ये चूजे बड़े ही शैतान और नखरे बाज़ हो चले हैं, शाम हो चुकी है, मानसूनी हवा चल रही है.आसमान में डूबते सूरज की लाली उतरने में अभी समय है. गौरैया घर में रखे अनाज के दानों को छोड़कर, घर से बाहर कुछ लेने गयी है, कदाचित रात्रि के भोजन की व्यवस्था करने गयी है और चिड़ा अपने घोंसले के ठीक सामने की दीवार पर टँगे दूसरे ( गत्ते के )घोंसले की छत पर बैठा बच्चों की निगरानी कर रहा है. लगभग दो -तीन मिनट बाद चिड़िया अपनी चोंच मे एक बड़ा सा हल्के लाल रंग का कीड़ा पकड़े हुए आयी और कीड़े को चोंच में दबाये हुए ही चींचीं की विचित्र आवाज़ निकालते हुए घोंसले में घुस गयी,उसे देखते ही बच्चे एक दूसरे को धकियाते हुए अपना छोटा सा मुँह चिड़िया के आगे खोल कर *छन छन छन छन छन*का शोर मचाने लगे हैं, मानो कह रहे हैं *पहले मुझे... पहले मुझे*..! चूज़ों की यह आपाधापी कई बार उनके लिए जानलेवा सिद्ध हो जाती है.अक्सर एकाध चूजा नीचे गिरकर मर जाता है या घायल हो जाता है। वह स्थिति मेरे लिए बहुत ही कष्टकारी हो जाती है। बहरहाल.. चिड़िया ने जब पहले वाले चूजे के मुँह में कीड़ा दिया तो या तो ज्यादा बड़ा होने के कारण उससे खाया नही गया या उसका स्वाद उसे पसंद नहीं आया लिहाज़ा चिड़िया ने दूसरे चूजे को वह कीड़ा ऑफर किया तो उसने भी मुँह फेर लिया है, इस बार मैं कुर्सी पर खड़े होकर दूर से ही यह अद्भुत नज़ारा देख रही हूँ..और भावविभोर हो रही हूंँ.
लेकिन चिड़िया को अपने बच्चों का यह नखरा ज़रा भी अच्छा नहीं लग रहा है, वह कीड़ा लिए- लिए ही चिड़े की बगल में जा बैठी है और ज़ल्दी जल्दी कुछ कह रही है,"चिंचिंचि चिंचिंचिं चिंचिंचिं... देख लो भई...और क्या खिलाऊँ इन्हें मैं..?"चिड़े ने चिड़चिड़ाते हुए हल्का सा चींचीं किया .मानो कह रहा हो, ""नहीं खा रहे हैं तो मैं क्या करूँ... ?कुछ और ले आ फिर...!! " मगर चिड़िया बहुत गुस्से में है और बड़बड़ाती हुई फिर से घोंसले मे घुस गयी... बच्चों ने फिर इंकार कर दिया... " इस बार चिड़िया गुस्से में चिल्लायी "*चींssssssss*" आज यही मिला है.!चुपचाप खा लो!" लेकिन बच्चे शायद बहुत मुँह ज़ोर हो गये हैं, और शोर मचाते हुए कह रहे हैं, "छनछनछनछनछनछन.... नहीं खाना... !नहीं खाना..!. " पर चिड़िया भी कीड़े को छोड़ना नहीं चाह रही है संभवतः सोच रही है कि इतनी मुश्किल से तो आज यह तगड़ा शिकार मिला है... और इनके नखरे तो देखो..! ".मैनै इस अद्भुत नज़ारे को भी अपने फोन के कैमरे में कैद कर लिया है..
मुझे कुरसी पर खड़े लगभग आधा घंटा हो चुका है... चिड़िया अब तक कीड़ा चोंच में दबाए घोंसले के तीन चक्कर काट चुकी है...इस बीच मेरे तीनो लड़के मेरे पीछे खड़े हुए धीरे धीरे आपस में कह रहे हैं " "लग रहा है मम्मी चिड़ियों के पीछे पागल हो गयी हैं ...! परसों सीढ़ी पर चढ़ गयी थीं और अब कुरसी पर खड़ी हो गयीं हैं जब नीचे गिरेंगीं तब पता चलेगा... !"तभी छोटा ज़ोर से चिल्लाया "अरे मम्मी!अब उतर भी जाओ..!..गिरोगी क्या?" उसकी यह बात सुनकर इस बार मैने उसे डाँटा नहीं,बस धीरे से मुस्कुराते हुए, कुर्सी से उतर गयी और हौले से बुदबुदायी,"हम्म... !"और सोचने लगी सही तो कह रहा हैं शायद! पागलपन और अति भावुकता में बहुत थोड़ा सा ही तो अंतर होता है। घोंसले से आती छनछनछन की तीव्र आवाज़ से पूरे घर में गूँजने लगी है...
✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
सोमवार, 8 जुलाई 2024
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर के चार नवगीत
एक
सावन -भादों ने देखी फिर,
बूँदो की मनमानी।
हाथ -पांँव फूले सड़कों के,
छपक- छपक जब चलतीं ।
बढ़े बाढ़ के पानी में सब,
आशाएँ भी गलतीं।
सहम गए छप्पर के तिनके,
दरकी नींव पुरानी।
कंगाली में गीला आटा,
सीला चूल्हा -चौका।
चतुर सियासत इसमें भी तो,
ढूँढ रही है मौका।
कुछ तो गलती पानी की, कुछ.. !
प्रायोजित शैतानी।
मटमैली आँखों से घूरे,
पीली नदिया धारा।
लोकतंत्र में देख रही है ,
लूटतंत्र का गारा,
डूबे वैभव के कंगूरे,
डूब रही रजधानी।
दो
जले जेठ ने जाने अबके
क्या करने की ठानी।
रौब झाड़कर सोख लिए हैं,
सारे ताल तलैया।
तेज धूप भी काट रही है,
मानो बनी ततैया ।
बना लिया गरमी को इसने,
अपने मन की रानी।
जले जेठ ने जाने अबके
क्या करने की ठानी ।।
वरदहस्त सूरज का इस पर,
लंपट लू से यारी।
ठनी हुई बरखा से इसकी,
पड़ता उस पर भारी।
स्वेद छिड़कता ऐसे भर-भर,
जैसै छिड़के पानी।
जले जेठ ने जाने अबके
क्या करने की ठानी ।।
भून दिए सब चिड़िया- तीतर,
हिरण कर दिये काले।
इसके डर से लोग लोगनी
निकलें घूँघट डाले।
हाय आदमी ! पेड़ काटकर
कर बैठा नादानी।
जले जेठ ने जाने अबके
क्या करने की ठानी ।।
तीन
सोच रहा है आम आदमी
वह भी होता खास आदमी।
भाग रहा रोटी के पीछे,
खुद को आगे ठेल रहा है।
सुबह- शाम की चिंताओं से
अक्कड़-बक्कड़ खेल रहा है।
घिसी- पिटी सी वही कहानी,
मजबूरी का दास आदमी।
ताक रही हैं आसमान को,
सूनी आँखें, ज़र्द पनीलीं।
चौमासे में बैठ गयीं घर,
उम्मीदें सब , होकर गीलीं।
भूरे, मटमैले बोरे में,
ढोता फिर भी, आस आदमी।
किस्मत के सौतेलेपन से,
बुझा- बुझा सा रहता चूल्हा।
महंँगाई से टूट गया है,
छोटे से वेतन का कूल्हा।
पूछ रहा है, क्या हो जाता,
खा लेता यदि घास आदमी?
चार
पीत- वसन, सुरभित आभूषण
ठाठ बड़े ऋतुराज के !
नर्म हुआ दिनमान गुलाबी,
मधुमास संग मुस्काया।
पूस ठिठुरता चला गया है,
माघ बावरा मदमाया।
पीली सरसों नाच रही है
मस्त मगन बिन साज के।
छेड़ी कोयल ने मृदु सरगम,
बौर आम की इतरायी।
बैरागी वृक्षों के तन पर,
अनुरागी रंगत छायी।
वासंती वसुधा का वैभव
क्या कहने हैं आज के !
लीप लिए केसर हल्दी से
खेतों ने अपने आंगन,
फूलों के खिलते यौवन पर,
अलियों के रीझे हैं मन।
कलियों ने सकुचा कर खोले,
घूंघट- पट अब लाज के।
✍️मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
रविवार, 12 मई 2024
शुक्रवार, 3 मई 2024
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता मीनाक्षी ठाकुर का गीत ....
एक तुम्हारे जाने भर से
सूनापन उतरा मन में ।
गीत थमा, संगीत थमा है,
शब्द अचंभित मौन खड़े।
धूल- धूसरित भाव हो गये,
व्याकुलता के भरे घड़े।
फूल कनेरों के सूखे हैं,
सन्नाटा है आँगन में।
एक तुम्हारे जाने भर से
सूनापन उतरा मन में ।।
उखड़ गया वट वृक्ष पुराना,
कुटिल -काल के अंधड़ में।
डाली से टूटा है पत्ता,
इस मौसम के पतझड़ में।
हरसिंगारों के मुँह उतरे
क्रंदन करते हैं वन में।
एक तुम्हारे जाने भर से
सूनापन उतरा मन में।।
आज अकेली नदी हो गयी
चला गया जो था अपना।
मंद हुई चिड़िया की धड़कन
टूट गया सुंदर सपना।
पर्वत कोई गिरा यहाँ पर
हलचल सी है इस वन में।
एक तुम्हारे जाने भर से
सूनापन उतरा मन में ।।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
सोमवार, 29 जनवरी 2024
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा..... "मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार"
चार चरणों वाला तथा दो पंक्तियों वाला दोहा हिन्दी साहित्य का वह पहला छंद है, जिसे हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं के मध्य सर्वाधिक यश प्राप्त हुआ। सूर, कबीर, तुलसी, बिहारी की दोहा-लेखन परंपरा को अनेक प्राचीन कवियों ने आगे बढ़ाया और वर्तमान में भी अधिकांश कवियों ने दोहा लेखन को सर्वप्रिय बनाये रखा है।
हाल ही में मुरादाबाद के वरिष्ठ व यशस्वी नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" के दोहे पढ़ते हुए महसूस हुआ कि उन्होंने दोहा-लेखन में "नवदोहे" के रूप में एक नये काव्यरूप का सृजन कर एक बड़ी उपलब्धि पा ली है। नवगीत की ही भांँति व्योम जी के दोहे परंपरागत शैली से हटकर नये कथ्य, नये बिम्ब गढ़ते हुए आधुनिक युग की बात करते हैं। इस दौरान आपने दोहे की मूल अवधारणा को भी पूर्णतः सुरक्षित रखा है। आपके दोहों में नवगीत के सभी आवश्यक तत्व यथा-जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व बोध, प्रीति आदि स्वत: ही दोहे की दो पंक्तियों में समा गये हैं। कोरे उपदेशात्मक रवैये को त्यागकर आपके दोहे आम आदमी की बात करते हैं, जो कल्पना लोक की कोमल बिछावन से उतरकर यथार्थ के खुरदरे धरातल पर चलकर पाठकों के बीच पहुँचते हैं। उनके दोहों के भीतर कथ्य और शिल्प दोनों में नवगीत का मूल तत्व- 'नवता' प्रमुख रूप से उभर कर सामने आता है, फलतः मेरे दृष्टिकोण से व्योमजी के दोहों को 'नवदोहे' कहना ही अधिक श्रेष्ठ होगा।
मांँ शारदे की वंदना से प्रारंभ होकर, यह उत्कृष्ट नवदोहा-संग्रह, भारतीय संस्कृति-संस्कार, जीवन-मूल्यों व सामाजिक सरोकारों की पैरवी करता हुआ भारत के जयघोष पर आकर रुकता है। एक कुशल नवगीतकार की लेखनी से जब नवदोहे प्रसूत हुए तो चुप के ऊसर में उगे हरे संवाद, मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार करने हेतु तत्पर हो उठे और कृति को शीर्षक प्रदान करता उनका यह दोहा अत्यंत उत्कृष्ट बन गया-
मिट जायें मन से सभी, मनमुटाव-अवसाद।
चुप के ऊसर में अगर, उगें हरे संवाद।।
व्योमजी के दोहों की व्यंजना-शक्ति चमत्कृत करती है तो भाषा की भव्यता, भावों को निर्मलता प्रदान करती है। रूपक-यमक, अनुप्रास और मानवीकरण आदि अलंकारों से श्रृंगारित दोहे, बेहद सरल व सहज बन पड़े हैं। नव्यता के बावजूद भी आपके शब्द कहीं से भी आरोपित नहीं लगते। गंभीर विषयों के सागर को आपने जिस सहजता व कुशलता से दो पंक्तियों वाले दोहे की गागर में उड़ेल दिया है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। जीवन का सारांश प्रस्तुत करता यह दोहा पाठकों की अंतरात्मा को झकझोर देता है-
धन-पद-बल की हो अगर, भीतर कुछ तासीर।
जीकर देखो एक दिन, वृद्धाश्रम की पीर।।
कवि के भीतर की आत्मीयता से भरे दोहों ने जब कल्पना की झील में नहाकर, अनूठे विम्बों को धारण किया तो आपके नव दोहे प्रत्यक्ष होकर, "नभ पर स्वर्ण सुगंधित गीत" लिखने लगे। इसकी एक बानगी देखिए-
मन ने पूछा देखकर ,अद्भुत दृश्य पुनीत।
नभ पर किसने लिख दिए, स्वर्ण सुगंधित गीत।।
व्योमजी के दोहे यथार्थ के धरातल पर उगे हैं, अतः अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं ताकि क्षरित होते हुए मूल्यों को बचाया जा सकें। तभी तो व्योमजी लिखते भी हैं-
मूल्यहीनता से रही, इस सच की मुठभेड़।
जड़ से जो जुड़कर जिए, हरे रहे वे पेड़।।
और आभासी युग में संस्कार व संस्कृति की दुर्गति देखकर कवि के व्यथित कोमल हृदय से भावनाओं का लावा दोहों के रूप में बह निकलता है और व्योमजी लिखने पर विवश हो जाते हैं-
ऐसे कटु परिदृश्य का, कभी न था अनुमान।
सूली पर आदर्श हैं, संस्कृति लहूलुहान।।
साथ ही उन्होंने आधुनिक समय के पीढ़ीगत मतभेदों को भी अपने दोहों में बड़ी कुशलता से चित्रित किया है-
देख-देखकर हैं दुखी, सारे बूढ़े पेड़।
रोज़ तनों से टहनियाँ, करती हैं मुठभेड़।।
आजकल मंच पाने की होड़ में कविता लेखन के नाम पर बाहुबली लफ्फाजियों ने अधिक स्थान घेरा हुआ है तथा स्वाभिमानी कविता को हाशिये पर धकेल दिया है। कविता में इस जुगाड़बाजी का व्योमजी ने बड़ी निर्भीकता से चित्रण किया है-
दफ़्न डायरी में हुए, कविता के अरमान।
मंचों पर लफ्फाज़ियाँ, पाती हैं सम्मान।।
कविता के इतर, आज हिंदी साहित्य के अन्य सृजन यथा- कहानी, नाटक व अन्य विधाओं के लेखन के प्रति साहित्यकारों की उदासीनता को भी आपने पूरी ईमानदारी के साथ सशक्त दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इसका एक उदाहरण देखिए-
नाटक गुमसुम चुप खड़ा, भर नयनों में नीर।
शून्य सृजन की है घुटन, किसे सुनाये पीर।।
साथ ही चाटुकारिता को मुँह चिढ़ाता हुआ, आपका यह दोहा आज के समय में बिलकुल उपयुक्त जान पड़ता है-
लगन ,समर्पण और श्रम, सारे ही हैरान।
चाटुकारिता को मिला, श्रेष्ठ कर्म सम्मान।।
पाठक की अंतरात्मा को झकझोरते, सीधी-सच्ची बात करते आपके दोहे, सीधे हृदय को स्पर्श करते हैं। इसी क्रम में, अधोलिखित समसामयिक दोहे का अप्रतिम काव्यात्मक सौंदर्य, शिल्प और कथ्य देखते ही बनता है-
बदल रामलीला गयी, बदल गए अहसास।
राम आजकल दे रहे, दशरथ को वनवास।।
व्योमजी समाज को आईना भी दिखाते हैं और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ पारिवारिक रिश्तों में मिठास और सामाजिक-संबंधो में उल्लास बनाये रखने की पैरवी भी करते हैं, यही आपके दोहों की आत्मा है। इसकी झलक पूरे संग्रह में देखने को मिलती है। एक बानगी देखिए-
आशा के अनुरूप हो, आपस का व्यवहार।
फिर हर दिन परिवार में, बना रहेगा प्यार।।
नयी बहू ससुराल जब, पहुँची पहली बार।
स्वागत में सब बन गए, रिश्ते तोरणद्वार।।
सजग कवि देश हित में ही सोचता और लिखता है। किसी भी देश की राजनीति का उस देश के उत्थान-पतन में महत्वपूर्ण स्थान होता है और एक सजग व निर्भीक कवि सदैव अपनी लेखनी के माध्यम से राजनीतिक विद्रूपता को वास्तविकता का दर्पण दिखाता रहा है। इसी क्रम में आप लिखते हैं कि-
लोकतंत्र में भी बहुत, आया है बदलाव।
आये दिन होने लगे, अब तो आम चुनाव।।
सारे ही दल रच रहे, सत्ता का षडयंत्र।
अब तो अवसरवादिता, राजनीति का मंत्र।।
आम आदमी की पीड़ा और गरीब की भूख आपको भीतर तक झंझोड़ती है और आपकी कलम लिखने पर विवश हो जाती है-
मिले हमें स्वाधीनता, बीते इतने वर्ष।
ख़त्म न लेकिन हो सका, "हरिया" का संघर्ष।।
सपनो के बाज़ार में, "रमुआ" खड़ा उदास।
भूखा नंगा तन लिए, कैसे करे विकास।।
परंतु साथ ही देश के नागरिकों से कर्तव्यनिर्वहन का आह्वान करना भी नही भूलते, तभी तो लिखते हैं-
तुम विरोध बेशक करो, किंतु रहे यह ध्यान।
राष्ट्रगर्व के पर्व का, क्षरित न हो सम्मान।।
आज के भागदौड़ भरे जीवन में पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति में सुख हमसे कोसों दूर हैं, परंतु मानसिक तनाव स्थायी होते जा रहे हैं, इस स्थिति को अद्भुत विम्बों में पिरोना एक श्रेष्ठ नवदोहाकार के लिए अत्यधिक सरल जान पड़ता है। तभी तो आपने लिखा है-
सुख साधारण डाक से, पहुंँच न पाये गांँव।
पर पंजीकृत मिल रहे, हर दिन नये तनाव।।
प्रकृति चित्रण के तो कहने ही क्या हैं। चाहे वो "तानाशाह सूरज" हो या, "मंचासीन बूंँदे", "मेघों का अखबार" हो या "बारिश में नहायी बूंँदे"। "वासंती नवगीत गाती कोयल" हो या "पीली सरसों का ख़त"। सभी के चित्र नवदोहाकार व्योमजी एक फ्रेम में रखने में सक्षम हो गये हैं। यह कवि का कोमल हृदय ही है जो बूंँदों की उद्दंडता को सहने में असमर्थ गरीब की पीड़ाभरी मनुहार को बड़े ही मार्मिक और विनीत भाव से लिखता है-
बरसो! पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध।।
तीज-त्योहार मनाने में भी कवि की कलम पीछे नहीं है। अद्भुत विम्ब जब त्योहारों की मस्ती में रंँगे, तो "पिचकारी रंगो से संवाद करने लगी" और दीपशिखाओं के उजास में एक और नया अध्याय जुड़ गया। एक दोहा देखिए-
मन के सारे त्यागकर, कष्ट और अवसाद।
पिचकारी करने लगी, रंगों से संवाद।।
वर्तमान समय की एक बड़ी समस्या प्रदूषण भी है जिसके कारण अनेक विसंगतियाँ भी उत्पन्न हुईं और जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यक साँसों पर संकट। पर्यावरण प्रेमी कवि विकास के नाम पर विनाश देखकर व्यथित हो उठता है और लिखता है-
जब शहरों की गंदगी, गयी नदी के पास।
फफक-फफककर रो उठी, पावन जल की आस।।
समसामयिक संदर्भों पर आपकी लेखनी ने खूब सम्मान पाया है फिर चाहे वो समाजिक घटनाएँ हों या देशभक्ति से जुड़े ऐतिहासिक पल-
भारत की उपलब्धि से ,बढ़ी जगत में शान।
मूक-बधिर से हो गये, चीन -रूस-जापान।।
आज तिरंगे की हुई, जग में जयजयकार।
मिशन चंद्रमा का हुआ, सपना जब साकार।।
व्योमजी की यह कृति उन्हें देश के प्रथम नवदोहाकार की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है। और उनके पूरे संकलन की समीक्षा केवल एक दोहे से ही की जा सकती थी, परंतु जिस प्रकार हांँडी का एक चावल चखने के पश्चात संपूर्ण भोज किये बिना नहीं रहा जा सकता, उसी प्रकार एक दोहा पढ़ने के पश्चात, आपका संपूर्ण "नवदोहा-संग्रह" पढ़े बिना नहीं रहा जा सका। पंक्तियाँ देखिएगा-
मिलजुलकर हम तुम चलो, ऐसा करें उपाय।
अपनेपन की लघुकथा,उपन्यास बन जाये।।
मुझे विश्वास है कि यह कृति "उगें हरे संवाद" निश्चित रूप से हिंदी साहित्य में नवदोहों की लघुकथाओं के अपनत्व से भरा एक सार्थक उपन्यास सिद्ध होगी।
कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)
कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'
प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद
प्रकाशन वर्ष - 2023
पृष्ठ संख्या- 104
मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)
समीक्षक - मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार, दिल्ली रोड,
मुरादाबाद- 244001
शुक्रवार, 29 सितंबर 2023
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का एकांकी ....अपराधी कौन
पात्र परिचय
धरती माता
वन देवी
जल देवी
पर्वत राज
गंगा देवी
मानव
प्रथम अंक
(प्रथम दृश्य)
(खुले आसमान के नीचे, एक बड़ी सी पत्थर की शिला पर ,एक अति सुंदर स्त्री धरती माता, सर पर सुंदर मुकुट सजाए, सोच विचार की मुद्रा में बैठी है, उनके वस्त्र हरे व नीले रंग के हैं ।तभी एक मानव दौड़ता हुआ उस ओर आता है,और उनके चरणों में गिर पड़ता है।)
मानव ( रुंँआसा होकर) मुझे बचाओ!! मुझे बचाओ! हे धरती माता !मुझे बचा लो, मेरी रक्षा करो...!माँ रक्षा करो..!
धरती माता : (चौंक कर सर ऊपर उठाती हैं, और खड़े होकर उस मानव को उठाती हैं) उठो पुत्र! उठो! तुम क्यों रो रहे हो?
मानव : (हाथ जोड़कर बिलखते हुए) माँ . .!मेरा और मेरी समस्त प्रजाति का अस्तित्व बहुत बड़े संकट में है ,मुझे आपकी सहायता चाहिए (अपना गला दोनों हाथों से पकड़ते हुए) मेरा दम घुटा जा रहा है माता, मुझे बचा लो !!
धरती माता : ओह!! शांत हो जाओ पुत्र, सब ठीक होगा.
मानव: शीघ्रता करिये माता!! मैं मर रहा हूँ (खांसता है) न मेरे पास प्राणदायक आक्सीजन है और न ही शुद्ध जल बचा है.आपकी नदियाँ अपनी मर्यादा लांघकर मेरे घर में घुसकर तबाही ला रही हैं माता... और... और!! (खाँसता है)!!!
धरती माता : और... और क्या वत्स?? (उसे एक पत्थर की शिला पर बैठाती हैं ) संभालो खुद को!!
मानव : (तनिक संयत होते हुए, खड़ा हो जाता है, और हाथ जोड़कर कहता है ) और माता... आपके शक्तिशाली पुत्र महान पर्वतराज हमारे घरों को क्षति पहुँचा रहे हैं, हमारे रास्ते रोक लिए हैं माता, और.....चारों ओर विनाश लीला कर रहे हैं !
धरती माता : (तनिक क्रोध में भरकर) अच्छा, मैं अभी सबको बारी बारी से बुलाकर पूछती हूँ (तीन बार ताली बजाकर) वन देवी, जल देवी प्रकट हों!
(तभी हरे रंग के सुंदर वस्त्र व गले में फूलों का हार पहने, वन देवी और नीले रंग के वस्त्र पहने, गले में मोतियों का हार पहने, जल देवी प्रकट हो जाती हैं, दोनों देवियां शीश झुकाकर धरती माता को समवेत स्वर में प्रणाम करती हैं।)
जल देवी और वन देवी (समवेत स्वर में) : कहिए धरती माता , क्या आज्ञा है ? हमें आपने किसलिए याद किया है ?
धरती माता : (क्रोधित होकर मानव की ओर तर्जनी से संकेत करते हुए) हे वन देवी ! यह मानव प्राणशक्ति वायु न मिल पाने से अत्यधिक कष्ट में है. क्या तुमने इसे अपने वनों द्वारा प्रवाहित होने वाली शुद्ध वायु देना बंद कर दिया है?? यदि तुमने ऐसा किया है तो तुम्हे इसका दण्ड अवश्य मिलेगा!!
वन देवी : क्षमा करें धरती माता! परंतु मैंने ऐसा कदापि नहीं किया है । अपितु मेरे शरीर में जब तक एक भी हरा पत्ता जीवित है, मैं तब तक समस्त प्राणियों में शुद्ध वायु का संचार करती रहूँगी।
धरती माता : तब यह मानव कष्ट में क्यों है पुत्री? कारण स्पष्ट करो? इसका आरोप है कि तुमने इसे मरने के लिए छोड़ दिया है!
वन देवी : (क्रोध में भरकर,, मानव की ओर लाल- लाल नेत्रों से देखते हुए) इसका आरोप मिथ्या है माता!..(क्रोध में काँपती है) इस दुष्ट ने स्वयं मेरे वनों को उजाड़ कर तथाकथित विकास नाम के पर्यावरण भक्षी जीव को जन्म दिया है!!
धरती माता : (आश्चर्य से) अच्छा..!
वन देवी : इससे पूछिए माता... क्या इसने मेरी हरियाली को उजाड़ कर कंक्रीट का जंगल नहीं तैयार किया है ? क्या इसने वनों में रहने वाले लाखों जंगली जीवों को बेघर करके उन्हें मृत्यु के घाट नहीं उतारा है? क्या इसके द्वारा वनों के उजड़ने से वर्षा चक्र नहीं बिगड़ा!!! यह दुष्ट अपने दुष्कर्मों के कारण ही इस दुर्गति को प्राप्त हुआ है माता... !
धरती माता (क्रोध में भरकर मानव की ओर देखते हुए) ओहहह तो यह बात है..!
( कुछ सोचते हुए जल देवी की ओर उन्मुख होती हैं, जो अब तक हाथ जोड़े शांत मुद्रा में सब वार्तालाप ध्यान पूर्वक सुन रही थीं )
धरती माता : और तुम जल देवी !! क्या तुमने अपने कर्तव्य से विमुख होकर धरती के जीवों को शुद्ध जल देना बंद कर दिया है.. ..... ! और यह मैं क्या सुन रही हूँ !! तुम्हारी नदियाँ अपनी सीमा -रेखा लांँघकर मानवों के घरों में घुसकर विनाश लीला कर रही हैं... क्या यही व्यवस्था है तुम्हारी ? कदाचित तुम्हें हमारे दण्ड का भी भय नहीं..!(क्रोध से काँपती है)
जल देवी : नहीं ..नहीं माता ! ऐसा कदापि नहीं है मेरी नदियों ने कोई अतिक्रमण नहीं किया है.. ! अपितु इस स्वार्थी मनुष्य ने ही मेरी नदियों के आंँगन में अपने अवैध घर बना लिए हैं और अब यह दुष्ट उन नदियों पर ही बाढ़ का आरोप लगाकर उन्हें कलंकित करने का प्रयास कर रहा है. अब आप ही बताइये माता, मेरी असंख्य नदियाँ कहाँ जाएँ?? उनके रास्ते और आंँगन इस मानव ने बंद कर दिए हैं....
धरती माता : ( बीच में ही रोककर ) अच्छा तो क्या तुम यह कहना चाहती हो जल देवी, कि मानव विकास न करे..... ! अपने घर न बनाये...!!!
जल देवी :जी नहीं, धरती माता ! मेरा ऐसा तात्पर्य कदापि नहीं है, परंतु विकास का अर्थ यह तो नहीं कि मानव उस पर्यावरण को ही क्षति पहुचाएँ, जिसके कारण वह जीवित है...!
धरती माता :अर्थात...!! स्पष्ट कहो पुत्री... ! क्या कहना चाहती हो..!
जल देवी : माता इस मानव की दुष्टता महान पर्वत राज से अधिक और कौन जान सकता है? और जहाँ तक शुद्ध जल की बात है माता ...,तो पर्वतराज की बड़ी पुत्री और हम सबकी लाडली पतित- पावनी ,गंगा देवी इस तथ्य पर और अधिक स्पष्टता से प्रकाश डाल सकती हैं . माता ! (दोनों हाथ जोड़कर, विनय पूर्वक)आप उन्हें बुलाकर स्वयं ही पूछ लीजिये!
धरती माता : उचित है जल देवी..!हम अभी पर्वतराज और गंगा देवी को भी यहाँ बुला लेते हैं (तीन बार ताली बजाकर) पर्वत राज और पावन गंगा देवी शीघ्र ही प्रकट हों ...!
(तभी पर्दे के पीछे से कत्थई व श्वेत रंग के चमकीले वस्त्र पहने पर्वतराज आते हैं, उनके गले में हरे पत्तों का हार है, साथ ही अत्यंत गौरवर्ण और धवल वेशधारी गंगा देवी आकर धरती माता को शीश झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं)
पर्वतराज और गंगा माता : (समवेत स्वर में) कहिए धरती माता ..! क्या आज्ञा है ? आपने हमें किस लिए याद किया है ?
धरती माता : पुत्र पर्वत राज हिमालय! पुत्री गंगा !! इस मानव का आरोप यह है...कि तुम सबके कारण उसका जीवन खतरे में पड़ गया है..!!
पर्वतराज : (मानव की ओर क्रोध से देखकर गर्जना करते हुए) अरे यह दुष्ट अभी तक जीवित है!! मैं अभी इसे अपने मुष्ठि प्रहार से चकनाचूर कर दूंगा ..! (अपने बांये हाथ की हथेली पर दांये हाथ से घूंसा मारते हुए, आगे बढ़ते हैं)
(तभी धरती माता पर्वतराज के मार्ग में आ जाती हैं और दोनों हाथों को दोनों ओर फैला कर रोकती हैं। )
धरती माता :( लगभग चीखते हुए ) रुक जाओ पर्वतराज!! तुम इस प्रकार प्रकृति के विरुद्ध जाकर मनमानी नहीं कर सकते ..!
पर्वत राज : क्षमा करें माता , मेरी तो प्रवृत्ति ही धीर- गंभीर है, परंतु यह दुष्ट मानव अपनी प्रजनन- दर कीट पतंगों की भाँति बढ़ाते हुए, कुकरमुत्तों की भांति दुर्गम पर्वतों पर भी उग आया है और वहां जाकर अतिक्रमण कर दिया है।
धरती माता : कैसा अतिक्रमण पुत्र ? स्पष्ट कहो!
पर्वतराज : माता यह मानव हजारों - लाखों की संख्या में अब पर्वतों पर पर्यटन के बहाने समूहों में आने लगा है। इस दुष्ट मानव ने अपने स्वार्थवश मेरे शरीर को जगह- जगह से तोड़- फोड़ कर मेरे पैरों को शक्तिहीन बना दिया है, जिस कारण मैं ठीक से अपने स्थान पर खड़ा भी नहीं हो पा रहा हूँ ..माता!
धरती माता : (आश्चर्य से )तुम्हारे पैर कैसे शक्तिहीन हो सकते हैं पुत्र? वह तो हज़ारों मील तक फैले हुए हैं..!
पर्वतराज: पूछिए माता इस दुष्ट से! यह मुझतक पहुँचने के लिए , मार्गों को चौड़ा करने हेतु, प्रतिदिन बड़ी -बड़ी मशीनो की सहायता से मेरी शिलाओं को नीचे से काटता जा रहा है, जिस कारण मैं शक्तिहीन होकर गिर रहा हूँ.. माता!
धरती माता : (चिंतित स्वर में )ओहहहहह!! यह तो वास्तव में बड़ी चिंता का विषय है ..!
धरती माता :(गंगा देवी की ओर उन्मुख होते हुए, स्नेहिल भाव से ) हे महान देवी !आप इस विषय पर मौन क्यों हैं? आप भी अपने विचार रखिए.. !
गंगा देवी : हे वसुंधरा देवी ! इस मानव प्रजाति की मूर्खता के कारण इसे पोषित करने वाला,मेरा पावन जल, मलीन होने लगा है, यह मुझमें और मेरी सहायक नदियों के जल में प्रतिदिन लाखों टन कचरा और प्रदूषित पदार्थ डाल रहा है... मैं जीवनदायिनी गंगा, धीरे- धीरे मर रही हूँ ! यदि मैं ही नहीं रहीं,तब यह मानव भी समाप्त हो जायेगा ! (एक गहरी साँस भरती हैं )
धरती माता : बोलो मानव तुम अपने पक्ष में कुछ कहना चाहते हो ? क्या तुम प्रकृति के इन तत्वों के बिना जीवित रह सकते हो ? क्या तुम्हारे पास जीवित रहने का कोई अन्य विकल्प है? असली अपराधी कौन है? ये प्राकृतिक तत्व या तुम...???
(मानव बिलखता हुआ धरती माता के चरणों में गिर जाता है।)
धरती माता :( उसे उठाती हैं )मुझे तुम्हारे आंसू नहीं उत्तर चाहिए, यदि तुम यही विनाश लीला करते रहे तो एक दिन मैं भी समाप्त हो जाऊंगी और तुम भी ..!
मानव : क्षमा करें माता ..!क्षमा करें ..!मैं ही असली अपराधी हूँ..! मैं स्वयं अपने विनाश का कारण हूँ, परंतु...मैं वचन देता हूँ माता..आज से मैं अपनी धरती माता को स्वर्ग से भी सुंदर बनाने के लिए हर संभव प्रयास करूँगा। अपनी प्रजाति की प्रजनन दर संसाधनो के अनुपात में रखूंगा, जल के अमूल्य खजाने को भी स्वच्छ व सुरक्षित रखूंगा तथा किसी भी प्रकार का अतिक्रमण नहीं करुंगा ... ! आपका आँचल पुनः हरा -भरा कर दूँगा माता..!
धरती माता: ( प्रसन्नता पूर्वक) उचित है पुत्र..! प्रातः का भूला संध्या को अपने घर आये तो वह भूला नहीं कहलाता...! जाइए आप सब लोग अब अपने -अपने कर्तव्य पालन में फिर से लग जाइए..! (अपना सीधा हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठाती हैं।)
( मानव, वन देवी, जल देवी, पर्वतराज व गंगा देवी सहित सभी धरती माता को प्रणाम कर समवेत स्वर में :धरती माता की जय ....धरती माता की जय ...! कहते हुए प्रस्थान कर जाते हैं।)
(परदा गिरता है)
✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
गुरुवार, 14 सितंबर 2023
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या बुधवार 13 सितंबर 2023 को आयोजित समारोह में साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर को हिन्दी साहित्य गौरव सम्मान
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से हिन्दी दिवस सम्मान समारोह आकांक्षा विद्यापीठ मिलन विहार पर आयोजित हुआ। हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या बुधवार 13 सितंबर 2023 को आयोजित इस सम्मान समारोह में महानगर की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर को, हिन्दी भाषा के प्रति उनके समर्पण एवं साहित्यिक सक्रियता के लिए हिन्दी साहित्य गौरव सम्मान से सम्मानित किया गया। मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. अजय अनुपम ने की। मुख्य अतिथि डॉ. मक्खन मुरादाबादी और विशिष्ट अतिथि के रूप में ओंकार सिंह ओंकार मंचासीन रहे। कार्यक्रम का संयुक्त संचालन राजीव प्रखर एवं प्रशांत मिश्र ने किया।
सम्मान स्वरूप मीनाक्षी ठाकुर को अंग वस्त्र, मान पत्र, प्रतीक चिह्न एवं श्रीफल अर्पित किए गए। सम्मानित रचनाकार मीनाक्षी ठाकुर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित आलेख का वाचन राजीव प्रखर एवं अर्पित मान-पत्र का वाचन जितेन्द्र जौली ने किया। उल्लेखनीय है कि मुरादाबाद के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार कीर्तिशेष राजेंद्र मोहन शर्मा शृंग द्वारा स्थापित इस संस्था की ओर से प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस पर, हिन्दी के लिए उल्लेखनीय योगदान करने वाले वरिष्ठ/कनिष्ठ रचनाकारों को सम्मानित किया जाता रहा है। इस अवसर पर उपस्थित विभिन्न साहित्यकारों/ रचनाकारों ने अपनी शुभकामनाएं एवं बधाइयां प्रेषित करते हुए कहा कि कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने अल्प समय में मुरादाबाद एवं मुरादाबाद से बाहर अपनी एक विशेष साहित्यिक पहचान बनाई है जो अन्य उभरते हुए रचनाकारों के लिए भी प्रेरणा बनेगी।
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय के संस्थापक डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा मीनाक्षी ठाकुर बहुआयामी साहित्यकार हैं। काव्य की विभिन्न विधाओं के साथ साथ उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं एकांकी, लघुकथा, कहानी, बाल साहित्य, रेखा चित्र, समीक्षा में लेखन कार्य किया है। उन्होंने भी शोधालय की ओर से मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी और डॉ सरोजिनी अग्रवाल की कृतियां सम्मान स्वरूप प्रदान कीं।
इस अवसर पर सम्मानित साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर ने कहा उनके रचनाकर्म में साहित्यिक मुरादाबाद पटल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने रचना पाठ करते हुए कहा.....
हिन्दी की बिंदी अब चमचम चमकेगी।
भारती के गीत सब हिन्दी मे ही गाइये।
हिन्दी हिन्दुस्तानी रंग, ओढ़ हिन्दी अंग अंग,
हिन्दी से ही प्रीत कर, गले से लगाइए।
इसके अतिरिक्त अन्य उपस्थित रचनाकारों में डॉ. महेश 'दिवाकर', डॉ. अर्चना गुप्ता, हेमा तिवारी, अंकित गुप्ता अंक, योगेन्द्र वर्मा व्योम, दुष्यंत बाबा, अशोक विद्रोही, अशोक विश्नोई, डॉ. कृष्ण कुमार नाज़, राहुल शर्मा, कमल सक्सेना, अनुराग सुरूर, सुनील ठाकुर, डॉ सोनम पुंडीर, श्रीकृष्ण शुक्ल, योगेन्द्र पाल विश्नोई, नकुल त्यागी, रामेश्वर वशिष्ठ, रघुराज सिंह निश्चल, मनोज मनु, रामगोपाल, प्रदीप विरल, रमेश गुप्त, अतुल जौहरी, रिशिपाल आदि ने भी अपनी-अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से हिन्दी की महिमा एवं महत्व तथा जीवन की विभिन्न अनुभूतियों को रेखांकित करने के साथ मीनाक्षी ठाकुर को अपनी शुभकामनाएं प्रेषित कीं। संस्था अध्यक्ष श्री रामदत्त द्विवेदी द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा।