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रविवार, 8 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की रचना ----


मां शुभे स्नेह की आदि स्रोत,

अविरल अस्वार्थ, निर्मल अजस्त्र

आदर्श भावना भाव भूति

कल्याण मूर्ति, वरदान हर्ष।

***

जीवन पयस्विनी जगज्जननी,

मुद मोद मंगले मनननीय!

महिमावलीय प्रति चरण-चरण

लुंठित गुण गण ,ओ वंदनीय।

**

उज्ज्वल उदार उर से तेरे

वात्सल्य धवल सुरसरि फूटी

छूटी सन्तति से जग डाली

तेरी न कभी डाली छूटी।


रे जगत जननी जग अर्चनीय हे!

बार बार नित वर्णनीय हे !

संसृति शून्य असार स्नेह में

अतुल सर्व शुभ गणननीय है।

*********

रचयिता: स्व.दयानन्द गुप्त

रविवार, 5 दिसंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानंद गुप्त के रचना समग्र --कारवां का लोकार्पण समारोह

 मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के समस्त रचनाकर्म का संकलन “कारवाँ-श्री दयानन्द गुप्त-समग्र” का लोकार्पण रविवार पांच दिसम्बर 2021 को किया गया। सिविल लाइन स्थित दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय के सभागार में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने की, मुख्य अतिथि के रूप में बाल संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष  डा. विशेष गुप्ता तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में विख्यात ग़ज़लकार डा. कृष्ण कुमार नाज़  रहे। कार्यक्रम का संचालन नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा किया गया।

        कार्यक्रम का आरंभ माँ सरस्वती के सम्मुख दीप प्रज्ज्वलन तथा संदीप सक्सेना द्वारा प्रस्तुत मां सरस्वती वन्दना से हुआ। इसके पश्चात कीर्तिशेष दयानन्द गुप्त के चित्र पर पुष्पहार चढ़ाये गये। कीर्तिशेष दयानन्द गुप्त के सुपुत्र और पुस्तक के संपादक उमाकांत गुप्त ने दयानन्द गुप्त जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए उनकी कुछ रचनाओं का वाचन भी किया।

      मुख्य वक्ता के रूप में डा.मक्खन मुरादाबादी, डा.मनोज रस्तोगी, डा.अजय अनुपम, डा. चंद्रभान सिंह यादव एवं सूर्यकांत द्विवेदी ने लोकार्पित पुस्तक कारवाँ काव्य संकलन पर अपनी समीक्षा व विचार रखते हुए कहा कि दयानन्द जी की अधिकांश रचनाएँ 1930 से 1970 के बीच की हैं, उस समय की चर्चित पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित भी हुईं, इसके अलावा उनके कहानी संग्रह की भूमिका महान साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखी। 

      इस अवसर पर महाविद्यालय की छात्राओं द्वारा दयानन्द गुप्त जी की कुछ रचनाओं की संगीतबद्ध प्रस्तुति दी गई। नवोदित साहित्यकारों मीनाक्षी वर्मा एवं इला सागर को प्रतीक चिह्न भेंट कर सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में  बाल सुन्दरी तिवारी, सुधीर गुप्ता, वाई.पी. गुप्ता, राजीव प्रखर, डॉ काव्यसौरभ रस्तोगी, डा. कंचन सिंह, अशोक विद्रोही, डा. विनोद कुमार, डा. श्वेता, अनवर कैफी, मनोज मनु, शिशुपाल मधुकर, राहुल शर्मा, रघुराज निश्चल, अशोक रस्तौगी, डॉ.रीता सिंह, श्रीकृष्ण शुक्ल, फरहत अली, मनोज मनु, शिवओम वर्मा, स्वीटी तलवाड़, डॉ मीरा कश्यप सहित अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे। आभार अभिव्यक्ति कार्यक्रम की आयोजिका संतोष रानी गुप्ता ने प्रस्तुत की। 





































::::प्रस्तुति::::::

उमाकांत गुप्त

प्रबंधक

दयानंद डिग्री कालेज

मुरादाबाद

शनिवार, 31 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की काव्यकृति नैवेद्य की डॉ स्वीटी तलवाड़ द्वारा की गई समीक्षा--- छायावाद का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है दयानन्द गुप्त के काव्य में

   दयानन्द गुप्त जी मुरादाबाद के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ अधिवक्ता थे। सन 1943 में प्रकाशित उनके काव्य संकलन "नैवेद्य" को पढ़ कर आश्चर्य होता है कि एक भावी अधिवक्ता की हिन्दी साहित्य में कितनी गहरी पैठ थी। 1943 के आसपास का समय वह समय था, जब हिन्दी साहित्य में छायावाद के तिरोभाव के पश्चात, प्रगतिवाद जन्म ले चुका था। यद्यपि श्री गुप्त जी ने स्वयं "नैवेद्य"  के भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि "मुझे आप 'छायावादी' या 'प्रगतिवादी' कवियों की श्रेणी में बिठलाने की अनधिकार चेष्टा न करें " , परंतु फिर भी उक्त काव्य संग्रह में कवि की भाव, अनुभूति, भाषा, अभिव्यक्ति में छायावाद का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। नैवेद्य काव्य संग्रह में 52 गीतों/ कविताओं का संकलन है, जो खड़ी बोली व गेय शैली में लिखे  गए हैं।परम्परागत अलंकारों के साथ ही पाश्चात्य अलंकारों, मानवीकरण, विशेषण विपर्यय और ध्वन्यर्थ व्यंजना का भी प्रयोग देखने को मिलता है।भाषा में लाक्षणिकता और कोमलकान्त पदावली का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।

    गुप्त जी छायावादी कवियोँ की ही तरह व्यक्तिवादी कवि हैं, जिन्होंने भाव, कला और कल्पना के माध्यम से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इन गीतों में की है। “तुम क्या”, “स्मृति”, “प्रेयसी” जैसी रचनाओं में गुप्त जी के प्रेमी का उसकी प्रियतमा के प्रति  प्रेम स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है, इनमें बाह्य  सौंदर्य की नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाओं की अभिव्यक्ति की गयी है-

 तुम क्या जानो प्रिय तुम क्या हो ?

    सुषमा की भी प्रिय उपमा हो ।

     कितनी भावतिरेकित करने वाली पंक्तियाँ हैं, देखिये-

  प्रिय को क्या न दिया, हृदय ओ ।

            प्रिय को क्या न दिया ?

   उर सिंहासन पर आसन दे

   फिर दृग जल अभिषेक किया ।

ये पंक्तियां अनायास ही राज्याभिषेक का दृश्य मूर्त कर देती हैं। कवि ने अपने हृदय सिंहासन पर अपनी प्रियतमा को आसीन कर दृग जल से उसका अभिषेक किया है, अब वही उसके हृदय की मल्लिका है।

     छयावादी कवियों की प्रणय कथा असफलता में पर्यवसित होती है, अतः उनके विरह में सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं का हृदय विदारक चित्रण मिलता है। गुप्त जी की रचनाओं में भी प्रेम का चित्रण मानसिक स्तर पर होने के कारण मिलन की अनुभूतियों की अपेक्षा विरहानुभूति का व्यापक चित्रण मिलता है।

“ विरहगान”, “मिलन”, “प्रेयसी से”, “प्रश्न” जैसी रचनाओं में विरह की इसी प्रकार की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की गई है-

 विरह करता झुलस मरु सा

 प्राण की निर्जीव निधियाँ,

 मिलन भर देती उन्हीं में

 स्रोत सुखमय सुरँग सुधियाँ

× × × × × × × × × × ×

प्रीति यहाँ सखि फूस तापना

क्षण में लगी, बुझी क्षण में फिर।

    विरह की अग्नि मरु भूमि की तरह झुलसा देती है, तो मिलन जीवन को खुशियों से सतरंगी बना देता है, फूस का स्वभाव ही है क्षण भर में आग पकड़ना और तुरंत ही बुझ जाना ।

कुछ क्षण का संयोग शाप है,

लगता विरह समान खटकने,

किस तरंग ने हमें मिला कर

छोड़ उदधि में दिया भटकने।

      क्षणिक संयोग के फलस्वरूप विरह के समुद्र में असहाय भटकना कितना मर्मान्तक होता है । जैसे प्यासे को दिया गया एक घूँट पानी उसकी प्यास और बढ़ा देता है, उसी प्रकार क्षण भर का मिलन विहाग्नि और अधिक उद्दीप्त कर देता है।

हे प्रिय, 

यौवन के कितने मर्मों को

छल विनोद में समझाती तू।

तप पर वर देने वाली सी

आती तू, फिर छिप जाती तू ।

     प्रेमी का प्रेम एक तपस्या से कमतर नहीं है, जैसे किसी तपस्वी के तप से प्रसन्न हो उसका आराध्य उसे वर दे कर विलुप्त हो जाता है और साधक अपने आराध्य की स्मृति में व्यथित होता है, वैसे ही हे प्रिय तुम भी यौवन की उद्दात भावनाओं को जागृत कर विलुप्त हो जाती हो।

एक और प्रयोग देखिये-

 बाँधो , भागा जाता यौवन।

    समय, जरा का देख आगमन।

         कब तक रुके ऋणी का वैभव

         ब्याज सहित होगा चुकता सब

      मानो यौवन ऋण है, जिसे ब्याज सहित चुकाते चुकाते व्यक्ति बुढ़ापे के द्वार तक पहुँच जाता है।

     इस काव्य संग्रह में प्रकृति की भी अद्भुत छटाएँ देखने को मिलती हैं। गुप्त जी के प्रकृति चित्रण पर भी छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे प्रकृति का मानवीकरण हो या कोमलकान्त पदावली का प्रयोग या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग या सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमान या स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान।

     छायावादी कवियों की ही भाँति गुप्त जी भी प्रकृति में नारी रूप देखते हैं और उसमें सम्भवतः प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का भी अनुभव करते हैं। प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों में उन्हें किसी नवयौवना की विभिन्न चेष्टायें दृष्टिगत होती हैं। प्रकृति पर नारी चेतना का आरोप करते हुए गुप्त जी ने रात्रि व्यतीत होने व उषा के आगमन इस प्रकार चित्रण किया है-

उन्मुक्त गगन के चरण तले

अर्चन कर पल्लव पुष्प चढ़ा,

लुक छिप तुहीनों की लघुता में

निशि चली, आरती दीप बढ़ा,

     घबरा डगमग पग बसन हिले।

बाजे नूपुर रुन रणन कणन,

संकुचित तन स्वेदित शरम शिथिल,

छूटी    चंगेरी      कुसुमों     की

दोलित उरोज, द्रुत श्वास अनिल,

      सौरभ के संयत खुले केश।

   उपरोक्त छंद में “बाजे नूपुर रुन रणन कणन” अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण विशेष सौंदर्य लिए हुए है।

  उन्मुक्त गगन में चारों ओर सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश प्रकृति को सराबोर कर रहा है। रात्रि में गिरी ओस की बूँदेँ उगते सूर्य के ललिमा युक्त किरणों का स्पर्श पाकर जैसे हिमकण में परिवर्तित हो चमकने लगती हैं।उषा रूपी नायिका नया सवेरा नई आशायें ले कर आती है। 

   नभ का कवि कल कण्ठ खुला,

    कहती दिशि दिशि गा कोकिला,

    उठ, उर उर की प्रिय कमला,

         देखी प्राची ने लिया पहन,

         तुङ्ग शुभ्र शारद शिखरों पर,

         किरणों का कंचन हार निकर।


अम्बर के सीमान्त देश में,

शुभ सुहाग की रेखा सी,

मृदुल कपोलों पर लज्जा के

शत शत चुम्बन लेखा सी

× × × × × × × × × × 

सजनि! सुषुप्त विश्व के मुख ओर

अंकित कर तुहिनिल चुम्बन,

छिटकाती त्रिभुवन-अंचल में 

हिमकन सी निज शुचि छविकन।

× × × × × × × × × ×

ऐ प्रभात सन्ध्ये! नव आशे!

उस अनन्त की छाया सी,

मौन सिन्धु के नील अंक में 

सांध्य सुनहरी माया सी ।

   शिशिर ऋतु की प्रातः  में उदित सूर्य की हल्की गर्माहट लिए भीनी भीनी स्वर्णिम किरणें मानों प्रकृति को पीले रेशमी वस्त्र से आवृत कर देती हैं , देखिये--

अयि रस रंगिणि! शिशिर प्रात में

डाल घना   मानिक ,   घूँघट,

रंगरलियाँ   करती,    निदाघ में

पहन   रेशमी    पीला    पट।

सन्ध्या हो चुकी है, रात्रि का अवतरण हो रहा है, सन्ध्या की ललिमा मानों रात्रि रूपी नायिका की मेहँदी है और धीरे धीरे घिरने वाला अंधकार उसकी नीली साड़ी है, सुन्दर चित्रण--

प्राची में मन्द मन्द चुप चुप

घन नील  आवरण रजनी,

लख सन्ध्या तन नूतन मेहँदी

बौरी सी उठी अनमनी।

× × × × × × × × ×

हंसता आया नव वयस इन्दु

मानिनी यामिनी विमना

नमित नयन, अखिली कलिका 

निश्छल छवि सी मौन मना ।

    वर्षा ऋतु की काली मेघमयी रात्रि , मानों वर्षा  रूपी नायिका अपने काले मेघ रूपी सर्पों जैसे केशों को खोल कर अभिसार कर रही हो और वे विषधर सर्प इस ऋतु में यदा कदा दिखने वाले सुधामय चन्द्र से सुधा का पान करने हेतु अग्रसर हों ---

व्योम छाए मेघ काले

यामिनी ने खोल कुन्तल

आज विषधर नाग पाले

 कर रहे शशि पात्र से पय सुधा का सुख पान ।

     शरद ऋतु सबसे सुहानी ऋतु होती है। वर्षा ऋतु के चार मास बीत जाने पर सारी प्रकृति साफ सुथरी दिखती है, धूल कहीं दिखाई नहीं देती, चारों ओर पुष्प खिल उठते हैं। शरद ऋतु की रात्रि भी सुहानी हो उठती है, चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से युक्त हो कर पृथ्वी पर श्वेत चाँदनी बिखेरने लगता है। उस दुग्ध धवल शारदीय रात्रि का चित्रण गुप्त जी ने निम्न प्रकार से किया है --

उग उठे शत श्वेत सरसिज,

हँसी राका शारदीया,

अंग उपजा रजत मनसिज,

दुग्ध की सित सीप से निशि आज धोइ जान ।

     उषाकाल व रात्रिकाल के अतिरिक्त कुछ ऋतुओं का वर्णन भी गुप्त जी ने किया है। ग्रीष्म के लम्बे, लू से तपते दिन, धरती पर अंगारे बरसते हैं और पृथ्वी के जीवन - रस जल को सोख लेते है--

तपते धूमिल भू, दीर्घ दिवस,

लेते लपेट लू केश-विवश,

सूखी काया औ जीवन रस

जल उठा वर्ष का विगत विभव

कर जेठ चिता पर हा हा रव,

   नभ में अंगार ज्वार धाये।

     ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु का आगमन होता है, नभ जो ग्रीष्म में अंगारे बरसा रहा था, पूरी धरती को जलमय कर देता है, चारों ओर हरियाली छा जाती है, ऐसा लगता है, जैसे वर्षा रूपी नायिका हरित पताका ले कर भ्रमण पर निकली हो। ऐसी पावस ऋतु का मनोहारी दृश्य देखिये-

वायु उपद्रव आज रच रहा,

बिछी सजल रपटन मग री

हरित केतु ले चली रूपसी,

फिसल न जाये कहीं पग री,

  अनिल प्रकम्पित तन थर थर।

  पावस पुलकित गात न कर।

     मृत्यु सृष्टि का चिरन्तन सत्य है, इस संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दिन मृत्यु के आगोश में सोना ही पड़ता है, मृत्यु बिना किसी भेदभाव के सभी को अपने अंतर में समेट ही लेती है, इसी भाव को गुप्त जी ने “मृत्यु के प्रति” कविता में व्यक्त किया है-

इसके सम्मुख सबकी समता, 

हो निर्धनता या हो प्रभुता

योगी, भोगी, सबसे ममता।

× × × × × × × × × × 

शत द्वार द्वार पर पा कर भी

भरती न कभी इसकी झोली,

कैसी भिक्षुका हठीली यह

टलती न कभी इसकी टोली।

    जीवन के कुछ अन्य चिरंतन सत्यों को भी इस काव्य संग्रह में स्थान मिला है। एक विधवा के एकाकी व शापित जीवन का हृदयविदारक चित्रण “विधवा के प्रति” कविता में मिलता है-

सुख का प्रकरण परित्यक्त हुआ,

दुख परिधि बढ़ी, परलोक बसा,

उजड़ी नगरी उर की सुन्दर,

पतझर चिर घेरा डाल हंसा ।

× × × × × × × × × × × 

एकाकी जीवन, बिन सम्बल,

यात्रा सुदुर, पर घाट नहीं,

पतवार नहीं, रखवार नहीं,

नभ का तारक आधार नहीं।

        माँ का स्थान हम सभी के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व रखता है, माँ प्रेम का स्रोत है, माँ प्रथम गुरु है, माँ संतान को संस्कारित करती है आदि आदि। इन्हीं सब भावनाओं को गुप्त जी ने भी अपनी रचना “माँ के प्रति”  में व्यक्त किया है-

माँ शुभे स्नेह की आदि स्रोत

अविरल अस्वार्थ, निर्मल अजस्त्र,

आदर्श भावना भाव भूति

कल्याण मूर्ति, वरदान हर्ष।


माँ श्रेष्ठ प्रथम गुरु शिशु जग की

नव प्रकृति प्रगतियों की धात्री।

शिशु मन की चेतन रचना के

चित्रों के रंगों की दात्री।

     गुप्त जी अपनी मातृभाषा हिन्दी का बहुत सम्मान करते थे। यद्यपि वे अंग्रेजी के भी प्रकांड पण्डित थे, परन्तु हिन्दी का उनके जीवन में विशिष्ट स्थान था, उनकी साहित्यिक रचनाएँ, काव्य व कहानी, इस तथ्य का प्रमाण हैं। गुप्त जी के छयावादी मूर्धन्य कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से गहरे सम्बन्ध थे।गुप्त जी के कहानी-संग्रह “मंजिल” की भूमिका निराला जी ने ही लिखी थी। उन्होंने लिखा-

    “दयानन्द जी गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद हैं, आज के सुपरिचित कवि और कहानी लेखक; मुझ से मिले थे, तब कवि और कलाकार के बीज में थे। …….बीज आज लहलहाता हुआ पौधा है। वकालत के पेशे की जटिलता में इनके हृदय की साहित्यिकता नहीं उलझी, यह अंतरंग प्रमाण बहिरंग कहानियों के संग्रह के रूप में मेरे सामने है।”

    निराला जी के पत्र व चित्र आज भी गुप्त जी के सुपुत्र श्री उमाकान्त गुप्त जी के पास संरक्षित हैं। उसी माँ भारती के प्रति अपने उद्गार गुप्त जी ने इस प्रकार प्रकट किए हैं-

गीतों के मुक्ता बिखरा कर

माँ अंचल तेरा मैं भर दूँ

  जीवन के मंजुल प्रभात में।


कर्ण -विवर में मद निर्झर भर,

माँ ओतप्रोत तुम को कर दूँ,

स्वर लहरी के मधु -प्रपात में

       गुप्त जी के समय में संदेशों के आदान-प्रदान के लिए प्रचुर संख्या में टेलीफोन व मोबाइल तो थे नहीं, पत्र व्यवहार ही वन साधन था, जिसके माध्यम से अपनों की कुशल- क्षेम ज्ञात हो पाती थी। प्रेम- संदेश भेजने व प्राप्त करने का भी एकमात्र साधन डाकिया ही था। डाकिये की  सभी को प्रतीक्षा रहती थी और डाकिया भी पूरी ईमानदारी से सभी के पत्रों को उन तक पहुंचाता था। गुप्त जी की दृष्टि भी तत्कालीन समाज के ऐसे महत्त्वपूर्ण किरदार पर पड़ी और उन्होंने उस पर भी एक कविता की रचना कर दी। प्रगतिवाद के प्रभाव को रेखांकित करती गुप्त जी की यह रचना है “डाकिया”, जिसमें उन्होंने डाकिये का जैसे शब्द-चित्र ही उकेर दिया है, साथ ही भाव- व्यंजना भी अद्वितीय है-

कितने उर के उद्गार लिए,

कितने रहस्य आभार लिए,

सन्देशों के ऐ नित वाहक!

तुम मेघदूत का कार्य किये!

× × × × × × × × × ×

सुरमई आँख, खाकी वर्दी,

आँखों पर लगी एक ऐनक,

हो कलम कान पर रखे हुए,

चमड़े का थैला लटकाये

घुटनों तक तुम पट्टी बाँधे,

पहने रहते देशी जूता,

भय से न तुम्हें छेड़े कोई,

लख उड़ जावे साहस बूता ।

       गुप्त जी ने अपने यौवनकाल में जिस प्रकार के जीवन की कामना की थी, ईश्वर ने उनकी “विनय” सुन कर उन्हें उसी प्रकार का जीवन प्रदान किया । आज भी वे यश रूपी शरीर से हम सब के बीच जीवित हैं और उनके आत्मीयजन आज भी उन्हें अश्रुपूरित नेत्रों से स्मरण करते हैं-

प्रभु हो मेरा ऐसा जीवन।

रोता आया मैं इस जग में

हर्षित हँसते थे प्रियवर,

हँसता जाऊँ इस जीवन से

रोवे स्नेह अधीर जगत भर,

 रहूँ विश्व की स्मृति में पावन।


कृति : नैवेद्य (काव्य)

प्रकाशक : प्राविंशियल बुक डिपो, चौक, इलाहाबाद

प्रथम संस्करण : वर्ष 1943

समीक्षक :  डॉ. स्वीटी तलवाड़, पूर्व प्राचार्या, दयानन्द आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

रविवार, 25 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का आलेख ---दयानंद गुप्त जी की कहानियों में जीवन के विविध पक्ष

 


रचना रचनाकार के व्यक्तित्व का परिचायक होती है, मुरादाबाद के ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में श्री दयानंद गुप्त जी का साहित्य अविस्मरणीय है ।वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे ,साहित्य सृजन के साथ ही उन्होंने समाज सेवा व शिक्षा जगत को अपने औदात्य व्यक्तित्व से उज्ज्वल और प्रशस्त किया है।जीवन की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार कर उनका सामना करने को निरंतर तत्पर रहते थे  । उनके व्यक्तित्व पर तत्कालीन परिवेश का गहरा प्रभाव पड़ा ,जिससे गांधी जी के आवाहन पर स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति में अपने जीवन की आहुति देने को तैयार हो गये  । पेशे से वकील होते हुए भी साहित्यिक अभिरुचि रखते थे  । "नैवेद्य" उनकी कविताओं का संकलन है, जिसमें जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं ।हिंदी साहित्य की दृष्टि से देखा जाय तो गुप्त जी का लेखन काल छायावाद ,प्रगतिवाद से गुजरते हुए प्रयोगवाद के समानांतर चलता रहा है जबकि उनका स्पष्ट मानना था कि मुझे किसी वाद में न बाँधा जाय ,परन्तु इन सभी रूपों का प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान निराला जैसे प्रतिष्ठित कवि के छत्रछाया में रहकर उनका कृपा प्राप्त करना किसी भी व्यक्ति के लिए गौरव का पल हो सकता है निराला जी का आशीर्वाद उनको निरन्तर मिलता रहा । उनके काव्य कृति की भूमिका निराला जी ने लिखकर उनके साहित्य को और भी प्रधान बना दिया ।

'कारवां ' ,'शृंखलाएँ ''मंजिल' उनके कहानी संग्रह हैं ,जिसकी कुछ कहानियां पाठकों पर अपना अमिट छाप छोड़ती हैं ।' नेता' कहानी राजनीतिक परिपेक्ष्य को लेकर लिखी गयी कहानी है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति के पंकिल जीवन में व्यक्ति देश सेवा के नाम पर कितना स्वार्थी हो सकता है, वह राष्ट्र ,समाज और यहां तक कि परिवार के साथ भी छल करता रहता है  ,सेठ दामोदर दास जैसे पात्र जिनके लिए परिवार और स्वार्थ से ऊपर और कुछ भी नहीं है ,देश काल की दृष्टि से वह काल राजनीतिक उथल- पुथल और आजादी की क्रांतिकारी चेतना से भरा पड़ा था ,व्यक्ति और समाज के लिए राष्ट्र हित सर्वोपरि था परिवार गौण हो गया था, अपना पूरा जीवन राष्ट्रहित में समर्पण करते हुए हमारे महापुरुषों और राजनेताओं ने अपने जीवन की आहुति दे दी थी ।सेठ दामोदरदास गांधीवादी विचार धारा से प्रभावित थे ,अपनी पार्टी में प्रभावशाली   स्थान रखते थे, उनकी व्यस्तता व दैनिक क्रियाकलाप उनके देशप्रेमी होने के प्रमाण देते हैं ,यहाँ तक कि अपनी पत्नी और पुत्री के लिए भी उनके पास समय नहीं होता था ,उनका कहना था कि - " हमें मानव में विभिन्नता पैदा करने का अधिकार कहाँ ? अपने सम्बन्धियों  को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं ।" इस सम्वाद से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन परिवेश में ईमानदारी और सच्चरित्र कितना मायने रखता था, उनका पूरा जीवन देशहित व सामाजिक उत्थान के लिए होम हो जाता है।सेठ दामोदरदास अपने परिवार में पत्नी व छोटी बच्ची से प्रेम तो बहुत करते हैं ,पर उसे प्रकट करने का उनके पास समय न होता था, उनके इस व्यवहार से उनकी पत्नी का हृदय बहुत ही आहत होता था । गीत सुनने का आग्रह करना, और उस भावनात्मक वक़्त में भी, उन्हें अपने भाषण के लिए नोट तैयार करते देख पत्नी को चोट पहुंचती है -- गीत तो आप कहीं भी सुन सकते थे, मेरी ही क्या जरूरत थी .....उनके अपमानित स्त्रीत्व की ज्वाला निकल रही थी । 

' विद्रोही ' कहानी में  गुप्त जी ने एक कलाकार की सौंदर्यात्मक दृष्टि पर प्रकाश डाला है, कि कैसे एक कलाकार सौंदर्य के कल्पना लोक में विचरता रहता है और रूप के मादकता में डूबा रहता है।सौंदर्य प्रिय कलाकार अपने निर्मित छायाचित्र में इतना तल्लीन रहता है कि उसका सामाजिक यथार्परक जीवन से कोई वास्ता नहीं रह जाता है, वह चाहता है कि इस सौंदर्य साधना को समाज का हर व्यक्ति समझे ,उपेक्षित दुराग्रह से वह कुंठित मानसिकता से ग्रस्त हो जाता है, क्योंकि जिस तरह की कला को वह श्रेष्ठ समझता है वह सामाजिक धरातल पर अश्लीलता की श्रेणी में आता है।धीरे -धीरे कुंठित होता हुआ कलाकार की चेतना ,अवचेतन मन मे संग्रहित होती विचारधारा में अपने जीवन का स्वर्णिम पल हारने लगता है, क्योंकि जीवन में हर व्यक्ति के लिए सौंदर्य की अलग -अलग सत्ता होती है, हतोत्साहित कलाकार विद्रोही हो समाज से कटने लगता है ।

'नया अनुभव ' कहानी लेखक की गांधीवादी विचारधारा को स्पष्ट करती है ,कहानी का मुख्य पात्र रामजीमल अनेक बुराइयों से ग्रस्त है, चोरी के इल्जाम में उसे जेल भी जाना पड़ता है ,जेल से लौटने के बाद उसे कोई नौकरी या काम धंधा देने को तैयार नहीं होता है, थका हारा ,भूखा -प्यासा एक मन्दिर में शरण लेता है ,पर उसकी लोलुप दृष्टि मंदिर में रुपयों से भरी थैली पर रहती है और रात में सबके सो जाने के बाद मौका देख कर उसे लेकर भाग जाता है, महंत के शिष्यों द्वारा पकड़े जाने पर, उसे जब महंत के पास लाया जाता है तो महंत उसका पक्ष लेते हुए कहते हुए कहते हैं कि यह थैली मैंने स्वयं ही इस को दिया है, यह सुनते ही रामजीमल के जीवन में नवीन चेतना जन्म लेती है ,उसको लगता है कि जिस समाज में अभी तक उसे उपेक्षित होना पड़ रहा था ,महंत जी के बदले हुये व्यवहार ने उसके अंदर एक नया अनुभव जागृत किया ,ग्लानि और आत्मविश्वास से भरा एक नये जीवन का जन्म होता है, जैसे लेखक यह कहना चाहता हो कि - पाप से घृणा करो ,पापी से नहीं ,महंत उसे सुधरने का एक मौका देता है । 

'न मंदिर न मस्जिद ' कहानी में लेखक को धार्मिक उन्माद में आशावाद और सकारात्मक चेतना का स्पष्ट दर्शन दिखता है ,लगातार कम हो रहे एहसास और अपनेपन के प्रति गुप्त जी चिंतित तो हैं ही,हमारे सामाजिक परिवेश में छिन्न - भिन्न होती नैतिकता को लेकर अशांत है, आज की विद्रूप व्यवस्था, जहां समस्याओं का अंबार तो है, लेकिन समाधान नहीं है ।आज हम समस्याओं से दुखी नहीं, बल्कि समस्या हमारी मूर्खताओं से दुखी है, जहां हम समस्या को समस्या की तरह न लेकर उसका समाधान केवल धर्म या राजनीति में ही खोजते हैं, जिससे समस्या दुखी होती है और समाधान नदारद । धार्मिक उन्माद किस तरह समाज को खोखला बनाकर, व्यक्ति को सामाजिक जीवन मूल्यों से दूर कर देती है। धर्म के ठेकेदार धर्म के आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं और आम आदमी को हिंदू-मुस्लिम या मंदिर-मस्जिद के नाम पर मतभेद पैदा करते हैं,इस कहानी के माध्यम से गुप्त जी के विचार हिंदू-मुस्लिम एकता के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए देखा जा सकता है, आज वर्तमान में इस कहानी की प्रासंगिकता सिद्ध होती दिखती है, क्योंकि आज धर्म के नाम पर ओछी राजनीति समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है ।

' परीक्षा ' कहानी भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक छाप छोड़ती है ,बनारस के गौरवशाली संगीत परम्परा में नृत्य का एक स्वर्णिम अतीत रहा है एक नर्तकी जिसके लिए धन -दौलत और रूप का लावण्य ही सर्वोपरि है। एक भिक्षु के निवेदन पर सशर्त अपना जीवन नये दृष्टि कोण से जीना चाहती है। नर्तकी कनक की सभा में एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली व वैभव सम्पन्न संगीत प्रेमियों का तांता लगा रहता है, वहाँ पर एक भिक्षुक का आना अप्रत्याशित सा लगता है, परन्तु कनक उसकी चुनौती को सहर्ष स्वीकार करती है और भिक्षुक के बनाये शर्तों के अनुरुप जीवन यापन करने को तैयार हो जाती है, किस प्रकार वासना पूरित जीवन कुछ ही दिनों में वैरागी हो जाता है ,जो नर्तकी नाच - गाने को अपने जीवन का श्रेष्ठतम मानती हो ,वहीं उन सबसे दूर रहकर भक्ति में तल्लीन हो जाती है और उसका हृदय परिवर्तन हो उठता है, अन्ततः उस भिक्षु को अपना गुरु मानते हुए सारा ऐश्वर्य छोड़कर विलासिता के जीवन से विमुख हो जाती है, सारा राग -रंग विलुप्त होने लगता है, इस प्रकार मोह -माया का जीवन त्याग कर भक्ति- मार्ग पर निकल पड़ती है ,यह कहानी गौतम बुद्ध और आम्रपाली की यादों को ताजा कर देती है गुप्त जी की यह कहानी स्त्री जीवन के सुधारात्मक पक्ष को प्रस्तुत करती है । वास्तव में जो लोग सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठकर जीवन जीते हैं के सामान्य स्थिति व असमान्य स्थिति दोनों में ही अलग दिखाई देते हैं ।

 गुप्त जी भी सामान्य जीवन व आचार- विचार का समर्थन करते हुए दिखते हैं जो उनके वैचारिक रूप से सम्पन्न भाव व आम आदमी की पीड़ा को कोरी कल्पना शीलता से अधिक मानते हैं, यथार्थ जीवन से लगाव ,उनका स्वभाव बन चुका था, उनकी कहानियां सीधी -सरल भाषा में हमारे नैराश्य जीवन के अन्तस् में झांककर हमें नई आशा के प्रति एक आश्वस्ति- बोध भरती है जो कि एक अनूठापन है। जीवन का आपाधापी और अंधापन ,जहां हर व्यक्ति इतनी जल्दी में हो कि वह हर लक्ष्य पर नैराश्य ही अनुभव कर रहा है ,आज प्रेम महज औपचारिकता के कुछ भी नहीं है, हमारा अनुभव चूक चला है और भरोशे प्रायः खत्म हो चुके हैं, ऐसे में उनकी सीधी -सरल भाषा कहानी में सपाट बयानी की एकता का रूपक गढ़ रही है ।एक सच्चे साहित्यकार का जीवन कबीर का जीवन है जो कर्तव्य के साथ -साथ समाज को दिशा देने का संकल्प लेकर निरन्तर चलता रहता है और ये कार्य गुप्त जी अपनी प्रखर चेतना से कर रहे थे ,इस प्रकार उनकी कहानियों में जीवन अनेक रूपों में रूपांतरित हुआ है  ।

✍️ डॉ मीरा कश्यप, विभागाध्यक्ष हिंदी, के .जी .के .महाविद्यालय, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत 

रविवार, 27 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानियों के संदर्भ में डॉ कंचन सिंह का आलेख ---मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से परिचित कराती हैं दयानंद गुप्त की कहानियां

 


मानव जिस समाज में जन्म लेता है उस समाज का प्रभाव अविच्छिन्न रूप से उसके व्यक्तित्व को गढ़ता है। सामाजिक विषमताएं उसके व्यक्तित्व को निरंतर उद्वेलित करती रहती हैं, फलस्वरूप वह अपने भावी जीवन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए तत्पर हो उठता है। एक साहित्यकार का कर्तव्य बोध उसे उसके अनुभवों के आधार पर संचित मान्यताओं के आलोक में समाज का पथ प्रदर्शन के लिए निरंतर प्रेरित करता रहता है। कोई रचनाकार अपने तत्कालीन देशकाल. वातावरण से निर्लिप्त रहकर साहित्य सर्जना नहीं कर सकता, इसलिए साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने भी कहा था " साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़ परिमार्जित व सुंदर हो तथा जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो । साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सच्चाईयां और अनुभूतियां व्यक्त की गई हो।

      उपर्युक्त वक्तव्य के सन्दर्भ में श्रद्धेय श्री दयानन्द गुप्त जी के साहित्य अनुशीलन में हम पाते हैं कि उनका समग्र साहित्य अनुभवजन्य सत्य का ही दस्तावेज है। कोई भी रचना सिर्फ रचने के लिए नहीं लिखी गयी वरन देश समाज व्यक्ति कि समस्याओं को उजागर कर आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करने हेतु की गयीं। श्री गुप्त जी का आविर्भाव उस समय हुआ ( 12.12.1912 - 25.3.1982) जब राष्ट्र पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा मुक्ति के लिए छटपटा रहा था। भारत के तमाम क्रान्तिकारी गाँधीवादी , रचनाकार तथा अन्य राष्ट्र भक्त अपने-अपने तरीके से देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थे। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े श्री गुप्त जी का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा संपन्न था। एक साथ अनेक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए वो साहित्य सर्जना में भी निरंतर संलग्न रहे। एक कुशल राजनेता, जिम्मेदार अधिवक्ता, समर्पित समाजसेवी व सचेत पत्रकारिता से मिले अपने अनुभवों को साहित्य में रचते बसते रहे। फलस्वरूप तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व धार्मिक सन्दर्भ उनके साहित्य में स्वत उद्घाटित होते गए।

श्री गुप्त जी की रचनाओं में तीन कहानी संग्रह कारवां सन 1941, श्रृंखलाएं सन 1943 , "मंजिल"  सन 1956 में प्रकाशित हुआ । एक काव्य संग्रह "नैवेद्य " सन 1943 में प्रकाशित हुआ । एक नाटक का भी सृजन " यात्रा का अंत कहाँ " गुप्त जी ने सन् 1946 में किया। एक साप्ताहिक पत्र “ अभ्युदय का प्रकाशन व संपादन] सन 1952 में प्रारंभ किया, जो साहित्यिक व समसामयिक विषयों के कारण लोकप्रिय पत्र प्रतिष्ठित हुआ।
     जिस समय श्री गुप्त जी का साहित्य हिंदी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था, उस समय के अद्वितीय कवि महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने भी उनकी रचनाशीलता से प्रभावित हो उनके प्रथम कहानी संग्रह "कारवां" की भूमिका में अपना हृदयोद्गार इस प्रकार उद्घाटित किया -
" श्री दयानन्द गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद है। आज के सुपरचित कवि एवं कहानी लेखक, मुझसे मिले थे तब कवि एवं कथाकार के बीज में थे बीज आज लहलहाता हुआ पौधा है वकालत के पेशे की जटिलता में इनके हृदय की साहित्यिकता नहीं उलझी, यह अंतरंग प्रमाण बहिरंग कहानियों के संग्रह के रूप में मेरे सामने है। "
वस्तुतः श्री गुप्त जी का सम्पूर्ण साहित्य अपनी सरल संप्रेषणशीलता के कारण सहज ही पाठक से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। मैं इनकी रचनाओं से अत्यंत अभिभूत हूँ और तनिक आश्चर्यचकित भी इन रचनाओं का वैसा प्रचार-प्रसार नहीं हुआ जिसकी अधिकरणी ये रचनाएं हैं।
    श्री गुप्त जी की कहानी" नेता" मेरी प्रिय कहानी है। यह कहानी तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि पर रची गई है। यह वह समय था जब पूरे राष्ट्र में देशभक्ति की लहर दौड़ रही थी। तत्कालीन राजनेता अपने पार्टी के विचारों से इस प्रकार बंधे थे कि देश व समाज के समक्ष परिवार हित गौण हो गया था। यदि मैं ऐसे लोगों को गृहस्थ बैरागी की संज्ञा दूं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। वे तन मन धन पूरी तरह राष्ट्र को समर्पित थे। कहानी के प्रारंभ में ही पता चल जाता है कि कहानी का नायक सेठ दामोदर दास दामले गांधी जी की विचारधारा से प्रभावित हैं। वह कांग्रेस पार्टी के साधन संपन्न प्रतिष्ठित प्रभावी राजनेता हैं, जो देश हित में निरंतर सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। एक दिन में कई कई जगह व्याख्यान देने जाते हैं अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में उन्हें यह मान ही नहीं होता कि उनका परिवार उनके सान्निध्य के लिए कितना तरस रहा है। उनके परिवार में पत्नी व छः साल की पुत्री है, जो पिता के स्नेह के लिए अहर्निश व्याकुल रहती है। जब सेठ जी का सेक्रेटरी उनसे कहता है कि परिवार के प्रति भी हमारे कुछ कर्तव्य हैं तब सेठ दामले कहते हैं" हमें मानव में विभिन्नता और अंतर पैदा करने का अधिकार कहां ? अपने संबंधियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं। "
     इस संभाषण से पता चलता है कि तत्कालीन समय के नेता जो वास्तव में समाज का नेतृत्व करने के अधिकारी थे अपने दल की नीतियों से बंधे ये लोग असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी थे। इनका पूरा जीवन देश व समाज के उत्थान के लिए समर्पित था, दरअसल वह दौर ही ऐसा था अपनी छोटी सी बच्ची की कहानी सुनने की अभिलाषा भी वह पूरी नहीं कर पाते। लेखक यहां यह भी स्पष्ट संकेत करते हैं कि सेठ दामले अपने परिवार से स्नेह तो बहुत करते हैं परंतु स्नेह प्रदर्शित करने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। वह अहर्निश देश सेवा में कार्यरत रहते हैं। पिता-पुत्री के संवाद पाठक को मार्मिक संवेदना से भर देते हैं।
  एक अन्य घटना से भी लेखक सेठ दामले के व्यक्तित्व को उद्घाटित करते हैं। जब सेठ दामले को एक संगीत सभा में व्याख्यान देने जाना होता है, तो चूंकि उन्हें संगीत शास्त्र का अल्प ज्ञान भी नहीं था लिहाजा उनके सेक्रेटरी के सुझाव पर कि आप कोई गीत सुने और वही भाव अपने व्याख्यान में बोल दें। उस दिन सेठ दामले  ने पत्नी के पास जा बड़े ही प्रेम से एक गीत सुनाने का अनुरोध किया क्योंकि उनकी पत्नी बहुत मधुर गाती थी, पति के अप्रत्याशित इस प्रेम भरी मनुहार से अभिभूत होकर वह एक मधुर गीत सुनाने लगीं। इधर सेठ जी गीत सुनते और अपने विचारों को एक कागज पर लिपिबद्ध करते जाते। अचानक उनकी पत्नी ने जब उन्हें ऐसा करते देख मर्मान्तक पीड़ा से आहत हो गीत बंद कर अपने पति से कहती है यदि आपको अपना काम ही करना था तो झूठे प्रेम का स्वांग करने की क्या आवश्यकता थी। सेठ जी उतनी ही इमानदारी से बोलते हैं मैं तो अपने भाव लिख रहा था आज के व्याख्यान के लिए इस कथन से उनकी पत्नी को अपने आत्मसम्मान पर चोट महसूस होती है। वो कहती हैं गीत तो आप कहीं और भी सुन सकते थे। उन्हें ऐसा लगता है कि पति उनसे प्रेम नहीं छल करते हैं। सेठ जी यंत्रवत वस्त्र बदलकर व्याख्यान देने चले जाते हैं, बिना यह समझे कि उनकी पत्नी व पुत्री पर उनके ऐसे बर्ताव से कितनी पीडा हो रही होगी।
    लेखक यहाँ पति-पत्नी के संवाद के माध्यम से यह भी स्पष्ट करते हैं कि सेठ दामले आधुनिक विचारधारा के होने के कारण स्त्री-पुरुष समानता के पोषक है तभी तो वो पत्नी को कहते हैं कि तुम भी बाहर निकलो, देश सेवा करो जिस समाज में स्त्री को घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी उस समय यह संवाद लेखक की प्रगतिशील विचारधारा को प्रदर्शित करता है। प्रस्तुत कहानी मुझे कहानीकार के जीवन से अधिक प्रभावित जान पड़ती

" वे पत्र " यह कहानी एक रचनाकार की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालती है। वस्तुतः जिस साहित्य रचना पर लोग सम्मान व पुरस्कार प्राप्त करते हैं क्या वे सचमुच इसके अधिकारी हैं या नहीं ? लेखक के अनुसार इस सत्यता का सत्यापन होना आवश्यक है। एक अन्य सामाजिक विद्रुपता को यह कहानी रेखांकित करती है भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अपने क्षुद्र लाभ के लिए सत्य को उद्घाटित न होने देना जो उक्त कहानी में आनंद का भतीजा करता है। वह अपने लाभ के लिए सत्य छुपाने के एवज में मूल्य भी अदा करता है। आज भी हमारे समाज में इस बुराई की जड़ें इतनी गहरी हैं, जिन्हें आसानी से नष्ट करना मुश्किल जान पड़ता है।

" तोला" यह कहानी पारिवारिक पृष्ठभूमि के अंतर्गत स्नेह, प्यार, ममता, त्याग, क्षमा, ईर्ष्या. द्वेष जैसे भावों को अभिव्यंजित करती एक सशक्त कहानी है। कहानी का नायक तोला निःसंतान होने के कारण अपना सारा स्नेह बैलों पर लुटाता है। उसका छोटा भाई रामबोला ईर्ष्यावश तोला के एक बैल को विष दे देता है। पुत्रवत बैल की आकस्मिक मृत्यु से आहत तोला का जीवन घोर नैराश्य में डूब जाता है। फिर भी वह अपने छोटे भाई के जेल जाने पर दोनों परिवारों का गुजारा अकेले करता है। छोटा भाई पितातुल्य बड़े भाई के सदव्यवहार से आत्मग्लानि में डूबकर उसके गले लग जाता है। निःसंतान तोला आह्लादित हो उससे अपने गले से लगा बोल उठता है आज मेरा लाल मुझे मिल गया " सहज और सरल भाषा में लिखी यह कहानी पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करने में पूरी तरह सफल है।
" नया अनुभव " यह कहानी लेखक के गाँधीवादी विचारधारा को प्रतिबिंबित करती है। कहानी
का मुख्य पात्र रामजीमल अनेक बुराइयों के साथ ही साथ चोर भी है। एक बार पकड़े जाने पर उसे जेल हो जाती है। जेल से छूटने के बाद उसके अनथक प्रयत्न के बाद भी समाज के लोग उसे अपने यहां कोई काम नहीं देते। थका हारा भूखा-प्यासा, एक रात वो मंदिर में शरण लेता है। रात्रि में पैसों से भरी थैली पर उसकी क्षुब्ध निगाहें जैसे ही पड़ती हैं वह मचल उठता है उसे लेकर भागता है पर महंत के शिष्यों द्वारा पकड़ कर महंत के सामने लाया जाता है। किन्तु महंत उसका पक्ष लेते हुए यह कहते हैं कि यह थैली मैंने ही इसे दी थी। यह सुनते ही रामजीमल को जीवन का आत्मबोध होता है। समाज के ठोकर के कारण सत्य के प्रति डगमगाता उसका आत्मविश्वास महंत के व्यवहार से सदा के लिए स्थिर हो गया।

" न मंदिर न मस्जिद " धार्मिक उन्माद किस तरह व्यक्ति को सामान्य जीवन मूल्यों से दूर कर देता है। धर्म के ठेकेदार तत्कालीन समय से लेकर आजतक धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं। इस कहानी में लेखक हिन्दू मुस्लिम के बीच सामंजस्य स्थापित करने का सुदृढ़ प्रयास करते हैं। आज के समाज में भी यह कहानी अत्यंत प्रासंगिक हैं क्योंकि आज भी धर्म के नाम पर ओछी राजनीति एक बड़ी समस्या है ।

" अंधविश्वास " जैसा शीर्षक से ही प्रतीत होता है कि यह कहानी हमारे समाज की आदिम बीमारी को प्रतिबिंबित करती है। मानव सभ्यता की विस्मयकारी उन्नति के बावजूद, पुरातन काल से लेकर आज तक हमारे समाज में अन्धविश्वास की बीमारी खत्म नहीं हुई। आज भी न जाने कितने ढोंगियों की गुजर बसर इस अंधविश्वास के पिष्टपेषण से ही होती है।

" ऐसी दुनिया " यह कहानी एक ऐसे अभिजात्य पुरुष की है जो दोहरी मानसिकता से ग्रसित है। समाज को दिखने के लिये उसके आदर्श का पैमाना बहुत महान है। किन्तु अंदर से वह नितांत पतित और चरित्र भ्रष्ट, दोगले व्यक्तित्व का स्वामी है। सहशिक्षा के विरोध में भाषण तो देता है परन्तु अपने विद्यालय की ही प्राचार्य के साथ उसके अंतरंग सम्बन्ध उसकी दोहरी मानसिकता को प्रदर्शित करते हैं। लेखक बड़े ही बेबाकी से व्यंगात्मक शैली में समाज के ऐसे कापुरषों पर करारा चोट किया है। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है।
   उपर्युक्त कहानियों की भाषा तत्सम युक्त खड़ी बोली है शब्दों का चयन बड़े ही कलात्मक ढंग से भावों की सृष्टि करने में समर्थ है। कहीं-कहीं गद्य में भी पद्य के सामान काव्य प्रवाह देखने को मिलता है, जो लेखक के भाषा ज्ञान पर मजबूत पकड़ को दर्शाता है। मुहावरों से अलंकृत भाषा में अंग्रेजी शब्दों का भी सहज प्रयोग श्री गुप्त जी के अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को भी प्रदर्शित करता है। शैली की दृष्टि से कहानियां अपने समकालीन कहानीकारों की तरह ही पाठक पर यथेष्ट प्रभाव डालने में समर्थ हैं।
    उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि श्री दयानंद गुप्त जी की कहानियां मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से पाठक को परिचित कराती है। उनके लेखन का वैशिष्ट्य है कि वह समाज केंद्रित है इसीलिए ये हमारा आज भी मार्ग दर्शन करने में समर्थ हैं। इनकी प्रासंगिकता इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी आज भी वैसी ही हैं जैसी तत्कालीन समय में थीं। ये कहानियां लेखक के आधुनिक प्रगतिशील सोच एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व को पाठक के समक्ष विभिन्न स्तरों पर प्रतिबिंबित करती हैं।


✍️ डॉ. कंचन सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभागाध्यक्ष
दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज
मुरादाबाद ( उ. प्र) 244001

सोमवार, 14 जून 2021

साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन



 मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 11 एवं 12 जून 2021 को दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन किया गया। चर्चा के दौरान साहित्यकारों ने कहा कि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी दयानन्द गुप्त का मुरादाबाद के हिन्दी कहानी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान रहा । उनकी कहानियां जहां सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों पर पैने प्रहार करती हैं वहीं नैतिक मूल्यों के पतन, दोहरे चरित्र और मानवीय सम्वेदनाओं को भी बखूबी अभिव्यक्त किया है ।


मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तंभ के तहत संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने  स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा कि 12 दिसम्बर 1912 को जन्में दयानन्द गुप्त की कहानियों का पहला संग्रह 'कारवां ' वर्ष 1941 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह की भूमिका सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी थी।  सन 1943 में उनके 52 गीतों का संग्रह 'नैवेद्य' नाम से प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष उनका दूसरा कहानी संग्रह 'श्रंखलाएं' प्रकाशित हुआ। वर्ष 1956 में 'मंजिल' कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ । वर्ष 1946 में आपका एक नाटक 'यात्रा का अन्त कहाँ' प्रकाशित हुआ। 'माधुरी', 'सरस्वती', 'वीणा', 'अरुण' आदि उच्च कोटि की मासिकों में आपकी रचनाएँ विशेष सम्मान के साथ छपती रहीं । दयानन्द गुप्त की रूझान पत्रकारिता की ओर भी था। वर्ष 1952 में उन्होंने 'अभ्युदय' साप्ताहिक का प्रकाशन व संपादन भी किया । 25 मार्च 1982 की अपराह्न वह इस संसार से महाप्रयाण कर गये।

   

उनके सुपुत्र एवं दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकान्त गुप्त ने उनके अनेक संस्मरण, चित्र  तथा रचनाएं प्रस्तुत कीं । उन्होंने कहा कि दयानन्द गुप्त एक साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे ।अपनी किशोरावस्था में आपने महात्मा गाँधी के आह्वान पर हाई स्कूल पास करने के उपरान्त वर्ष 1930 में आन्दोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया था। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे। सन 1945 में मजदूर आंदोलन में भाग लिया। अनेक श्रमिक संगठनों से आप जुड़े रहे। सन् 1951 में जिनेवा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। वर्ष 1972 से 1980 तक मुरादाबाद नगर की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर भी रहे।

     

 दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्या डॉ स्वीटी तलवाड़ ने उनके गीत संग्रह नैवेद्य का विश्लेषण करते हुए कहा कि गुप्त जी छायावादी कवियों की ही तरह व्यक्तिवादी कवि हैं, जिन्होंने भाव, कला और कल्पना के माध्यम से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इन गीतों में की है। “तुम क्या”, “स्मृति”, “प्रेयसी” जैसी रचनाओं में गुप्त जी के प्रेमी का उसकी प्रियतमा के प्रति  प्रेम स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है, इनमें बाह्य  सौंदर्य की नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाओं की अभिव्यक्ति की गयी है। गुप्त जी के प्रकृति चित्रण पर भी छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे प्रकृति का मानवीकरण हो या कोमलकान्त पदावली का प्रयोग या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग या सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमान या स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान। वह प्रकृति में नारी रूप देखते हैं और उसमें सम्भवतः प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का भी अनुभव करते हैं। प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों में उन्हें किसी नवयौवना की विभिन्न चेष्टायें दृष्टिगत होती हैं।     

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की प्राचार्या डॉ० अनुपमा मेहरोत्रा ने कहा कि दयानन्द गुप्त  बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, उनका जीवन संघर्ष ही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। समाजसेवी व साहित्यकार के रूप में उन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया है। शिक्षा जगत में गुप्त जी का योगदान अविस्मरणीय है। खासकर स्त्रियों के लिए विद्यालय, महाविद्यालय की स्थापना करना, स्त्री शिक्षा की ओर बढ़ाया गया चुनौतीपूर्ण कदम है जो उनके प्रगतिशील व्यक्तित्त्व को इंगित करता है। साहित्य उनके अंतर्मन में रचा-बसा था। 

केजीके महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप ने कहा कि हिंदी साहित्य की दृष्टि से देखा जाय तो गुप्त जी का लेखन काल छायावाद ,प्रगतिवाद से गुजरते हुए प्रयोगवाद के समानांतर चलता रहा है जबकि उनका स्पष्ट मानना था कि मुझे किसी वाद में न बाँधा जाये ,परन्तु इन सभी रूपों का प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । ' नेता' कहानी राजनीतिक परिपेक्ष्य को लेकर लिखी गयी कहानी है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति के पंकिल जीवन में व्यक्ति देश सेवा के नाम पर कितना स्वार्थी हो सकता है, वह राष्ट्र ,समाज और यहां तक कि परिवार के साथ भी छल करता रहता है।  , ' विद्रोही ' कहानी में  गुप्त जी ने एक कलाकार की सौंदर्यात्मक दृष्टि पर प्रकाश डाला है।'नया अनुभव ' कहानी लेखक के गांधीवादी विचारधारा को स्पष्ट करती है , 'न मंदिर न मस्जिद ' कहानी  के माध्यम से गुप्त जी के विचार हिंदू-मुस्लिम एकता के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए देखे जा सकते हैं,वर्तमान में इस कहानी की प्रासंगिकता सिद्ध होती दिखती है, क्योंकि आज धर्म के नाम पर ओछी राजनीति समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है ।' परीक्षा ' कहानी भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक छाप छोड़ती है।

   

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. कंचन सिंह ने कहा कि श्री दयानंद गुप्त जी की कहानियां मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से पाठक को परिचित कराती है। उनके लेखन का वैशिष्ट्य है कि वह समाज केंद्रित है इसीलिए ये हमारा आज भी मार्ग दर्शन करने में समर्थ हैं। इनकी प्रासंगिकता इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी आज भी वैसी ही हैं जैसी तत्कालीन समय में थीं। ये कहानियां लेखक के आधुनिक प्रगतिशील सोच एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व को पाठक के समक्ष विभिन्न स्तरों पर प्रतिबिंबित करती हैं।

वरिष्ठ कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने कहा दयानन्द गुप्त के लेखन में जहाँ मानवीय संवेदनाएं झंकृत होती हैं वहीं सामाजिक विसंगतियों पर भी तीखा व्यंग और प्रहार परिलक्षित है। धार्मिक मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए वो जहाँ एक समाज सुधारक की भूमिका निभाते हैं तो वहीं धीरे धीरे आध्यात्मिक यात्रा की राह पर चलते हुए एक दर्शानिक के रूप में नज़र आते हैं। उनका समृद्ध साहित्य समाज को दिशा देने वाली एक अमूल्य धरोहर है। इस अवसर पर उन्होंने श्री गुप्त को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कहा----

जीवन में जो दे गए, नये नये प्रतिमान।

समय करे चर्चा यही, उन पर है अभिमान।।


दयानन्द था नाम सरीखा। पूत पाँव पलने में दीखा।।

माता ने थी नज़र उतारी। दादा दादी सब बलिहारी।।


बचपन बीता खाते पीते। खेल खेल में हँसते जीते।।

शिक्षा को झोली में भरकर। नहीं रहे विघ्नों से डरकर।।


मेहनत ने था रंग दिखाया। धीरे धीरे सब कुछ पाया।।

दिनकर से ये ओज मिला था। सपनों का फिर सुमन खिला था।।


आकर्षक व्यक्तित्व धनी थे। अधिवक्ता वे सुधी जनी थे।।

पौरुष हर दम साथ हुआ था। अभिलाषा ने गगन छुआ था।।


इंसा को मिलता सदा, यश वैभव सम्मान।

पर सेवा का साथ में, जब चले अभियान।।

ईश्वर से जो कुछ मिला, समझा उसे उधार।

वापस किया समाज को, बहा प्रेम रस धार।।


राजनीति को भी अजमाया। उसमे भी था नाम कमाया।।

न्याय प्रक्रिया के थे ज्ञाता। देख देख हर्षित थीं माता।।


शिक्षा की थी अलख जगाई। करी समाज की देख भलाई।।

नारि शक्ति को और बढ़ाया। स्वाभिमान का पाठ पढ़ाया।।


सदभावों की राह दिखाई। लेखन में भी कलम चलाई।।

जीवन का दर्शन करवाते। पद्य, गद्य में थे समझाते।।


नाटक, कथा कहानी कविता। प्रखर बही भावों की सविता।।

शारद का वरदान अपारा। नाम ईश का एक अधारा।।

महक रहा है देखिये, शिक्षा का संसार।

संवर रही हैं बेटियां, है अनुपम उपहार।।

साँसों का दर्शन लिखा, लिखा हास परिहास।

जीत लिया मानव हृदय, मिला अटल विश्वास।।


कुशल प्रबंधक प्रखर विचारक, राजनीति प्रतिमान।

सामाजिक समरसता लेकर, शिक्षा का अभियान।

अति कानूनी ज्ञान साहित था, वाणी पर अधिकार

सजा हुआ साहित्य सृजन से, जीवन था गतिमान।।


उमाकांत से पुत्र मिले, पुण्य किये हज़ार।

पिता विरासत सींच रहे, फर्ज करें साकार।।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष डॉ रीना मित्तल ने कहा उनकी साहित्यिक रचनाओं का अगर हम अवलोकन करें तो साफ पता चलता है कि उनका कविता संग्रह नैवेद्य, कहानी संग्रह 'मंजिल' की रचनाऐं उनको एक मानव से ऊपर का दर्जा देती है। सभी साहित्यिक रचनाऐं धर्म, कर्म, जाति व रंगभेद से ऊपर उठकर समाज के उत्थान का सन्देश देती हैं। उन्होंने उनकी कहानी 'परीक्षा' का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रस्तुत किया।

रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कविताओं को दयानंद गुप्त  अपने हृदय के उद्गारों को अभिव्यक्त करने का माध्यम मानते थे । वह न छायावाद के फेर में पड़े ,न प्रगतिवाद के बंधन में बंधना उन्हें स्वीकार था । वह स्वतंत्र थे।कहानीकार के रूप में उन्होंने जहां विभिन्न समस्याओं की ओर  समाज का ध्यान आकृष्ट किया वहीं जीवन की जटिलताओं को भी उजागर किया।

हिंदू कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी विभाग, डॉ. उन्मेष कुमार सिन्हा ने दयानंद गुप्त की कहानी नेता की समीक्षा करते हुए कहा कि कहानी के नायक सेठ दामोदर दास के माध्यम से कहानीकार ने नेताओं के पाखंड पूर्ण व्यक्तित्व  को उजागर किया है । 

कवयित्री
हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि उनकी कहानियाँ निरे उपदेश या निरी मनोरंजन या कला के लिए कला जैसे किसी एक उद्देश्य के सांचे में नहीं ढलती बल्कि उनकी कहानियाँ विविध विषयों,विविध सरोकारों या उद्देश्यों का एक बुके हैं,जहाँ कई रंग हमें नजर आते हैं।उनकी कहानियों में जहाँ संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली का बाहुल्य है तो वहीं आम जन जीवन की भाषा और पात्र के अनुरूप उर्दू शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने किया है। चित्रकारिता,संगीत,राजनीति अथवा किसी भी विषय पर उनकी गहरी समझ व पकड़ उनकी कहानियों को जीवन्त बना देती है।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ शोभा गुप्ता ने कहा श्रद्धेय श्री दयानंद गुप्त जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।आपकी रचनाएं पढ़कर मुझे लगा कि आप ने उस समय की सामाजिक समस्याओं को अपनी रचनाओं में भली भांति उकेरा  तथा समाज में व्याप्त समस्याओं का समाधान भी समाज के समक्ष रखा। आपकी रचनाएं आज भी हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं।

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर का कहना था दयानन्द गुप्त सच्चे अर्थों में माँ वीणापाणि के उपासक रहे हैं। आपकी कहानियों में अनेक विम्बों से अलंकृत वाक्य व भाषा शैली के धागों से , किसी सुघड़ बुनकर की तरह कथानक को बुनते हुए जब आप आगे बढ़ते हैं तो दृश्यों का सजीव ताना- बाना बनकर तैयार हो जाता है। वे समाज के  दोहरे आवरण की परत उधेड़ते  हैं। कल्पना और यथार्थ दोनो के चित्रण में आपको  महारथ हासिल थी।समाज में होती उथल पुथल व बदलाव भी आपकी कहानियों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। आप समाज की संकीर्णता पर भी प्रहार करने से नहीं चूकते।

युवा साहित्यकार राजीव प्रखर ने कहा कि उनके कहानी-संग्रह 'मंज़िल' में संगृहीत कहानियां  तत्कालीन परिस्थितियों के साथ-साथ वर्तमान एवं भविष्य की सुगबुगाहट को भी स्वयं में समेटे हुए है। सत्य-असत्य के संघर्ष को सार्थक अभिव्यक्ति देती 'वे पत्र', सहानुभूति  का आवरण ओढ़ कर एक आम व्यक्ति के साथ किये जाने वाले खिलवाड़ का चित्र 'पागल', राह भटकती राजनीति को दर्शाती 'नेता', मानवीय मूल्यों को विभिन्न कोणों से देखती 'तोला', सामाजिक एकता और सद्भाव को अभिव्यक्ति देती 'न मन्दिर न मस्ज़िद' एवं इसी क्रम में विभिन्न संवेदनाओं व परिस्थितियों के संघर्ष को साकार करती हुई 'नारी हॄदय', 'परीक्षा', 'अर्ध परिणीता', 'शोभा', 'दर्पण की कथा', 'विद्रोही' व 'तुम्हारा प्रेम' तक आते-आते यह अनमोल कहानी-संग्रह, वर्तमान समाज के सम्मुख अनेक प्रश्न छोड़ता हुआ उसे यह सोचने पर भी बाध्य कर देता है कि स्वयं में अपेक्षित सुधार न करने पर उसके भविष्य की तस्वीर क्या होगी। भले ही हम आधुनिक युग में जी रहे हो परन्तु यह कड़वा सत्य है कि आज भी सामाजिक असमानता, रसातल में जाती नैतिकता, वर्ग-संघर्ष जैसी अनेक समस्याएं नये स्वरूप में हमारे समाज के सम्मुख बनी हुई हैं। आज की तथाकथित प्रगतिशीलता के सामने इसी तथ्य को रखता यह कहानी-संग्रह 'मंज़िल' निश्चित रूप से प्रत्येक आयु वर्ग के पाठक को विचार शीलता के साथ सोचने पर विवश कर देने में सक्षम है।

     

दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर गृह विज्ञान विभाग, डॉ शुभा गोयल ने कहा कि दयानन्द गुप्त का पेशे से वकील होना तथा साहित्य में अभिरुचि होना एक अनूठा संगम था। उनकी रचनाओं में विविधता के दर्शन होते हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक  विसंगति एवं विषमताओ  का चित्रण मिलता है।

     

उनकी पुत्रवधु सन्तोष रानी गुप्ता ने कहा वर्ष 1952 में आपने नगर में वर्षों से बन्द चली आ रही बल्देव आर्य संस्कृत पाठशाला को पुनः आरम्भ किया। जिसमें संस्कृत की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी। उसी वर्ष बल्देव आर्य कन्या विद्यालय की स्थापना की जो बाद में बल्देव आर्य कन्या इंटर कालेज हो गया। वर्ष 1960 में दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अतिरिक्त आपने अपने पैतृक ग्राम सैदनगली में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की भी स्थापना की। उन्होंने उनका गीत भी प्रस्तुत किया।

दयानन्द आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर स्नेहा कुमारी ने  उनकी कहानी तोला के संदर्भ में कहा कि इस कहानी के माध्यम से लेखक दयानंद गुप्त ने पारिवारिक संबंधों में व्याप्त आपसी प्रेम, सौहार्द, द्वेष, ईर्ष्या की ही बात नहीं की,अपितु सामंती समाज में पिस रहे समाज, कृषक जीवन में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, ऋण, गुलाम भारत में असमान, महंगी न्याय व्यवस्था का दारुण वर्णन किया है।

वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि  दयानन्द गुप्त की अनेक कहानियाँ  वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिक है। विद्रोही का कथानक भी स्वयं में विशेषता रखता है और समाज के दोहरे मापदंड को दर्शाता है। 

साहित्यकार फरहत अली खान ने कहा कि दयानंद गुप्त मुरादाबाद के श्रेष्ठ कहानीकार थे। इन की कहानियों में जुज़यात-निगारी(डिटेलिंग) बे-जोड़ है और सब से ज़्यादा आकर्षित करती है। संवाद सहजता के साथ आते हैं।  इस ख़ूबी से वातावरण की तस्वीर खींचते हैं, ऐसे ऐसे बिंब बनाते हैं कि पढ़ने वाला मुरीद हो जाए। भाषा संस्कृतनिष्ठ है, जो आम बोलचाल की भाषा से कुछ अलग होने की वजह से कहानी की पहुँच और मक़बूलियत को सीमित करती है। फिर भी ये कोई ख़ामी नहीं, हर लेखक की भाषा की अपनी विशिष्टता होती है। 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजय अनुपम ने कहा   गुप्त जी की कहानी 'न मन्दिर न मस्जिद' लिखे जाने के समय भी समकालीन थी और आज भी समकालीन है।इसकी सार्थकता आज भी बनी हुई है। आदरणीय श्री उमा कान्त गुप्त जी के पास मुरादाबाद के साहित्य की अमूल्य धरोहर संरक्षित है, आने वाला कल इसका मूल्यांकन करेगा।     

वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने कहा भाई मनोज जी  को एक अच्छे कार्य हेतु बहुत बहुत साधुवाद। साहित्यिक मुरादाबाद के माध्यम से स्मृति शेष दयानंद गुप्ता जी के विषय में सारगर्भित जानकारी प्राप्त हुई है।जो मुझे ज्ञात नहीं थी। उनकी कहानी भी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त कर सका।

   

वरिष्ठ कवयित्री डॉ इंदिरा रानी ने कहा कि स्मृति शेष श्रद्धेय श्री दयानंद गुप्त एक प्रतिष्ठित एडवोकेट होने के साथ-साथ वह साहित्यकार, शिक्षाविद और समाज सेवक थे. उनकी बहुमुखी प्रतिभा आश्चर्य जनक है। गुप्त जी के कहानी संग्रह 'कारवां' में संकलित कहानी 'विद्रोही' को पढ़ कर अंग्रेजी के रोमान्टिक कवि कीट्स की याद आ गयी। विद्रोही कहानी में भी कलाकार की सौंदर्य चेतना अद्भुत है।    

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा  गुप्त जी की रचनाओं में तत्कालीन समाज का स्पष्ट चित्रण दिखाई देता है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के सुपुत्र आदरणीय श्री उमाकांत गुप्ता जी का स्नेह और आशीर्वाद मुझे निरंतर प्राप्त होता रहता है। 

   

वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि दयानन्द गुप्त बहुआयामी व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी थे। जाने-माने प्रतिष्ठित एडवोकेट तो थे ही, साथ ही साहित्यिक कर्म में भी निर्लिप्त थे। शिक्षा के क्षेत्र में कई संस्थाएं नगर-देहात को उन्होंने दी हैं। इसके इतर भी समाज को दिशा देने वाले उल्लेखनीय कार्य भी उन्होंने अपनी प्रतिबद्धताओं से आगे जाकर किए हैं।

साहित्यकार दुष्यन्त बाबा ने कहा कि  गुप्त जी स्त्री शिक्षा के प्रति उतने ही जागरूक और संवेदनशील थे जितने  अपने समय में श्री राजराम मोहनराय। आपने बालिकाओं के लिए बलदेव  आर्य कन्या इंटर कॉलेज तथा दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना का सराहनीय कार्य किया। साथ अमरोहा जनपद के सैदनगली में भी एक इंटर कॉलेज का निमार्ण कराया। 

   

वरिष्ठ अधिवक्ता मुहम्मद जुनैद एजाज ने कहा कि दयानंद गुप्त ने अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धता के बावजूद सामाजिक सरोकारों से अपना गहरा रिश्ता कायम किया। शिक्षा व साहित्य के क्षेत्र में उनका गहरा योगदान है जब देश लंबी गुलामी के बाद गहरे अंधकार से प्रकाश के लिए  लालायित था तब उन्होंने शिक्षा की ज्योति से मुरादाबाद  को आलोकित किया। उनकी रचनाओं में मानवता के प्रति उनकी  संवेदना  गहराई से झलकती है ।

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी डॉ छाया रानी ने कहा की मंजिल कहानी संग्रह में संग्रहित कहानी 'न मंदिर न मस्जिद' सर्व धर्म समन्वय की भावना को पोषित करने वाली है। यह कहानी एक विलक्षण कहानी है इस के लिखने के पीछे उनका  उद्देश्य  वसुधैव कुटुंबकम की भावना को लेकर था आज उसकी बहुत आवश्यकता है। यदि सब इसे समझ जाएं तो सब लड़ाई झगड़े छोड़ कर एक सूत्र में बंध कर सुखचैन से जीवन जी सकते हैं।

साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक ने कहा कि  श्रद्धेय कीर्तिशेष श्री दयानंद गुप्त जी वे साहित्य जगत के ऐसे चमकते हुए सूर्य के समान थे ,जिसके प्रकाश से साहित्य जगत एक नई व अलौकिक रोशनी से प्रकाशित हुआ । उन्होंने हिंदी साहित्य का इतनी गहनता से अवलोकन किया ,कि उसकी हर दिशा को अपनी लेखनी का अंग बनाया ।चाहे मानवीय संवेदना हो या सामायिक विसंगतियाँ उन्होंने अपनी रचनाओं में तत्कालीन समाज की बहुत ही स्पर्श तस्वीर उकेरी है । इसके साथ ही उन्होंने श्रृंगार ,वियोग एवं प्राकृतिक सौंदर्य को बड़ी दक्षता से अपनी रचनाओं में दर्शाया है ।यद्दपि वे पेशे से वकील थे ,तथा राजनीति बहुत निकटता से जानते थे ,परंतु उन्होंने अपनी अभिरुचि साहित्य की ओर ही रखी ,और यथार्थ का आँचल पकड़ समसामयिक स्थितियों ,परिस्थितियों का इतना विषद चित्रण किया है ,जो आज के समय में भी प्रासंगिक है ।

साहित्यकार एवं दयानन्द आर्य कन्या डिग्री महाविद्यालय की पूर्व छात्रा मीनाक्षी वर्मा ने काव्यमय श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा -------

 नाम से ही परिलक्षित होते गुण अनंत,

दया के अवतार शिरोमणि श्री दयानन्द गुप्त, 

शिक्षा की ज्योति जलाकर किया सर्व उद्धार , 

जनमानस में किया प्रकाशित ज्ञान शक्ति का पुंज, 

श्री गुप्त जी की कृतियां बता रही मानवता का मर्म, 

सभी जाति,प्राणी समान,समान है सभी पंथ,

नैवेद्य, श्रृंखलाये,मंजिल संग्रह देती सीख अनन्त,

प्राणिमात्र से प्रेम करो मानवता का करो न अंत,

स्वतंत्रता के लिये भी किये कितने ही प्रयत्न,

 ऐसे थे महान श्री दयानंद गुप्त, 

श्रमिक वर्ग के मर्म को समझ किया उत्थान, 

हर क्षण जिनके बसा था दयासिन्धु कर्म प्रधान,

 दीप सा जीवन उत्तम मृत्यु जीवन का मेल,

तम हरण करते रहे सदा जला प्राणों का तेल,

 सामाजिक,प्राकृतिक रंग,श्रृंगार वियोग भाव उन्मुक्त,

जीवन के मूल्य व संवेदना की सरल भाषा में व्यक्त, 

आशीर्वाद रूपी अमृत सी कृतियां दे रही जीने का मर्म 

अक्षर अक्षर में है बसें चैतन्य श्री दयानंद चंदन

अर्णव के अद्भुत मोती, पारसमणि व्योम अनन्त,

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ अर्चना राठौर ने उनकी कहानी न मस्जिद न मंदिर का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि उनकी कहानियों में यह कहानी उन्हें सर्वाधिक प्रिय है।

साहित्यकार इंदु रानी ने स्मृति शेष दयानंद गुप्ता को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कविता प्रस्तुत की --------

 है धन्य भाग्य धरती पीतल की नगरी के

फिर गुप्त दयानंद जना क्यों नही देते


हम धन्य हुए जान के अमृत है ये शहर

इक बार हमे फिर से जता क्यों नही देते


श्री गुप्त दयानंद की जय बोलता जगत

शिक्षा की फिर से ज्योत जगा क्यों नही देते


ये भाग्य मेरा शिक्षा मिली आपकी शरण

भटकूं न फिर से राह दिखा क्यों नही देते


नारी की राहें रौशनी से सींचते हुए

एक बार फिर अलख को जगा क्यों नही देते


इतरा रहा मन सोच के सब आपकी उपज

ऐसे ही पौध और लगा क्यों नही देते


व्यक्तित्व-कृत्य आपका चमकेगा सूर्य सम

छाए हैं जो बादल वो हटा क्यों नही देते


सक्षम नही कलम जो करे आपका बखान

बाधाओं को फिर इसकी मिटा क्यों नही देते


दूषित हुई है राजनीती, विद्या नगरी भी

अच्छाइयों की धूप लगा क्यों नही देते

साहित्यकार अशोक विद्रोही ने कहा कि  कीर्तिशेष परम श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के दर्शन करने का मुझे भी सौभाग्य 1970 में आर्यकन्या इंटर कॉलेज बुद्धबाजार में संभाषण करते हुए प्राप्त हुआ  तब मैं हाईस्कूल का छात्र था । अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी  डॉ मनोज रस्तोगी जी जिनके अथक प्रयासों से परम श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के विशाल और विराट व्यक्तित्व की जानकारी  साहित्यिक मुरादाबाद पटल के माध्यम से हम सभी को प्राप्त हुई है यही नही हमें वे कहानियां पढ़ने को मिली जो हमारे लिए दुर्लभ थीं । इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।

गजरौला की साहित्यकार रेखा रानी ने कहा कि कीर्ति शेष आदरणीय दयानंद गुप्त जी  के साहित्य में जब डूबना प्रारम्भ किया तब मन डूबता ही गया और मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया।  आपके द्वारा नया अनुभव और  विद्रोही कहानी बहुत ही बेहतरीन हैं और स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि आप की कल्पना शक्ति गजब की है।

अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा ने कहा कि मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ के अंतर्गत स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त जी व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आयोजित इस कार्यक्रम में सभी की प्रस्तुतियां सराहनीय हैं । इससे हमें बहुत कुछ जानकारी मिली ।

साहित्यकार विवेक आहूजा ने कहा कि दयानन्द जी के गीतों में  हमें जीवन दर्शन मिलता है। सुख दुःख, आशा निराशा , अपना पराया, छल ,उत्पीड़न ,धोखा  सभी भावो को वह अपने गीतों में अभिव्यक्त करते हैं । मै इस मंच के माध्यम से ऐसी महान विभूति श्रद्धेय  दयानंद गुप्त जी को नमन करता हूँ  ।

दयानन्द गुप्त की पुत्री अम्बाला निवासी श्रीमती इला गुप्ता ने कहा कि साहित्यिक मुरादाबाद  पटल पर  आयोजित इस कार्यक्रम मेंमेरे पिता के बहु-आयामी व्यक्तित्व की झलक देखने को मिली, साथ ही उनकी कहानियों व कविताओं का सुन्दर विश्लेषण भी पढ़ने को मिला।  पिताजी की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ मेरे स्मृति पटल पर आज भी अंकित हैं:

शबनम से  कहो  धीरे से गिरे ,

कलियों की आंख न खुल जाये !