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शनिवार, 1 जनवरी 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार (वर्तमान में फरीदाबाद निवासी ) सीमा वर्मा का कहना है --"नए साल" ने फिर से हमको , नई राह से मिलवाया


 समय का ख़जाना

              वक्त का नजराना 

   एक साल का आना

              और एक साल का जाना

   सदियों की नुमाइश 

               जीवन जीने की ख़्वाहिश 

   मोहताज हम पलों के 

               और जीवन बीत जाना

   लम्हों से हमने सीखा

                और वक्त को चौंकाया 

   हर पल को जी लेने का

                हमने भी मन बनाया 

   छिटका दिए सब ग़म हैं 

               जो बीता वो बिसराया

   आने वाले समय में 

               भविष्य में और कल में 

   पाना नया क्षितिज है

                सजने नए स्वप्न हैं 

   उगते हुए दिनकर ने 

                उम्मीदों को सहलाया

   वो "था" था जो बीता है 

           अब "है" और जो  भी  "होगा"

   चलना या रुकना जो हो

            थकना संभलना जो हो

   "नए साल" ने फिर से हमको 

              नई राह से मिलवाया  ।।।।। 

  ✍️ सीमा वर्मा ,फरीदाबाद

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा के कहानी संग्रह-ये कहानी नहीं की अशोक विश्नोई द्वारा की गई समीक्षा----- जीवन की सच्चाई है -ये कहानी नहीं

 "ये कहानी नहीं " कहानी संग्रह की लेखिका सीमा वर्मा जी ने इस पुस्तक के आरंभ  में ही बता दिया है कि उनका यह लेखन जो उन्होंने जिया है, भोगा है और समाज में जो अनुभव किया है उसी का प्रतिबिंब है। पूरा संग्रह का अवलोकन करने के उपरांत उनका यह कथन सत्य प्रतीत होता है। वास्तव में प्रत्येक कहानी स्वयं बोल रही है कि वह कोई काल्पनिक पात्रों से गढ़ी कोई कथा नहीं है बल्कि  एक भोगा हुआ सत्य है। समाज में व्याप्त अनैतिकता, विद्रूपता, भृष्टाचार, अनाचार तथा राजनैतिक गिरावट किसी व्यक्ति विशेष तथा परिवारों पर किस प्रकार प्रभाव डालते हैं उन्हीं के परिणाम को व्यक्त करता हुआ यह कहानी संग्रह वर्तमान समाज की वास्तविक स्थिति को पाठकों के सम्मुख रखता है। कहीं भी कोई कृत्रिमता नहीं और न ही बोझिल शब्दों का आडम्बर। सीधी, सपाट ,सरल भाषा कहानियों को अत्यंत ह्रदय ग्राही बनाती हैं। कहते हैं कि हर चीज़ की एक सीमा होती है पर इन कहानियों को पढ़ने के बाद यह महसूस होता है कि सीमा वर्मा जी के विचारों के फलक की  सीमा अंतहीन है। 

      कहानी संग्रह की पहली कहानी "कुत्ते " पुरुष वादी समाज की उस कुत्सित मानसिकता के दर्शन कराती है जिसे समाज में हर स्त्री किसी न किसी रूप में अवश्य भोगती है जबकि "पेमेंट " कहानी वर पक्ष की दहेज के लिए लपलपाती जीभ और काइयाँ पन को उजागर करती है। "मोहभंग " में महिलाओं की उस प्रवृति को उजागर किया है कि चाहे कैसा भी अवसर हो महिलाएं चुप नहीं बैठ सकती। उनकी खुसुर - फुसुर और चुगल खोरी बंद नहीं होती। 

  " कर्तव्यनिष्ठा " कहानी में स्त्री के अपने पति के प्रति कर्तव्य परायणता के लिए कुछ भी कर सकने के भाव को दिखाया गया है चाहे उसे मजबूरी में  कोई गलीज़ काम क्यों न करना पड़े। इसमें समाज की विद्रूपता को सामने लाया गया है। "दूसरी " में सौतेली माँ की व्यथा को लेकर चिंता व्यक्त की गयी है। जन सेवक कहलाने वाले राजनैतिक नेताओं के  घृणित आचरण को "रंगा सियार " में उघाड़ा गया है। "किराये दार " में कारपोरेट कल्चर में रंगे बेटों की मानसिकता और आचरण के वास्तविक दर्शन कराये गये गये कि वे रक्त सम्बन्धों को भी किस उपेक्षित दृष्टि से देखते हैं। "मंथरा " में यह बताने की कोशिश की गयी है कि बिना सत्य जाने सुनी सुनाई बातों पर विश्वास करने का क्या परिणाम होता है। 

  " नये साल का जश्न " में उन लोगोँ को  समझाने का प्रयास किया गया है जो पैसे की फ़िज़ूल खर्ची करते हैं जबकि उस पैसे से किसी जरूरत मंद की सहायता की जा सकती है। "शरीफों का मुहल्ला " कहानी में मोहल्लों में होनी वाली पड़ोसियों की बेमतलब की आपसी लड़ाइयों , पुरानी पीढ़ी के दोहरे चरित्र तथा नई पीढ़ी पर बिना सोचे समझे इल्जाम लगाने की मानसिकता की अच्छी खबर ली गई है। संकलित सभी कहानियाँ कोई न कोई संदेश देकर समाज को सावधान करती नज़र आती है जो कि साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है। 

    कहानियों के अतिरिक्त पुस्तक में "ये कहानी नहीं " नाम से एक लघु उपन्यास भी है जिसका ताना बाना परिवार में पति - पत्नी के बीच कटु सम्बन्ध, शक -शुबहा, प्रेम, समर्पण आदि  दैनिक समस्याओं पर आधारित है। 

     कुल मिलाकर यह पुस्तक पाठकों , विशेष कर महिला पाठकों के लिए अत्यंत रुचिकर, संदेश प्रद व प्रेरणा दायक सिद्ध होगी। मुझे पूरा विश्वास है कि इस पुस्तक का साहित्य जगत में भरपूर स्वागत होगा । 

     अंतर्मन को छूती संवेदन शील कहानियों के लेखन के लिए सीमा वर्मा जी वास्तव में धन्यवाद की पात्र हैं ।पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए सहित्यपीडिया पब्लिशिंग को साधुवाद।


कृति : "ये कहानी नहीं" (कहानी संग्रह )

लेखिका : सीमा वर्मा

प्रकाशन वर्ष : 2021

मूल्य : ₹ 150, पेज़ : 109

प्रकाशक : सहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा, भारत

समीक्षक : अशोक विश्नोई, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत

               

रविवार, 28 मार्च 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा का गीत -------ये जीवन होली सा हो जाए ,बस हँसी , खुशी और ठिठोली हो


 

    उड़ने लगे जब सतरंगी रंग

              मन भी पहने प्रीत का रंग

    खुशियों की बाजे मृदंग

         

        "समझो जग की होली है" 

    

     सांझे हो जब सुख सबके

              और पीड़ा सबकी सांझी हो 

    "मैं"-"तुम" जब  "हम"  बन जाएंँ 

              हर इक जब हमजोली हो 

          

       "समझो जग की होली है" 

     

     जीवन के रंग बदरंग ना हों 

             मन में द्वेष की भंग ना हो

    कपट कलेश का संग ना हो 

            बस प्रेम की मिश्री घोली हो" 

         

         "समझो जग की होली है" 

    

    "मैं" हँसूंँ तो सारे मुस्कुराएँ

            "सब" हँसें तो मैं भी इतराऊँ

    जब सबने एक दूसरे में 

           इक-दूजे की सारी खुशियों में 

    अपनी ही जन्नत पा ली हो 

          

       "समझो जग की होली है" 

   

    कुछ भूलो भी , कुछ माफ़ करो 

            ये जीवन है , आगे तो बढ़ो 

    कोई पल इसका बरबाद ना हो 

            हर क्षण को बस रंगों से भरो 

     ग़र  इंद्रधनुष बन जाओ सब 

          

        "समझो जग की होली है" 

    

    "इस बार अबीर ना बरसाओ" 

          "ना गुलाल की मुझको चाहत है" 

   "इस बार दिलों में रंग घुले" 

         "और हर दिल पर कुछ ऐसा चढ़े" 

   "ये जीवन होली सा हो जाए" 

        "बस हँसी , खुशी और ठिठोली हो" 

       

       "तो समझो जग की होली है 

        तो समझो जग की होली है"

  ✍️ सीमा वर्मा, मुरादाबाद

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की रचना----नव वर्ष तुम्हारी आहट ने ,मेरी मुस्कान लौटाई है


 जो बीत गया उसे जाने दो

             कुछ नया उभर कर आने दो

    कुछ लम्हे बेशक घायल थे

             अब वक्त को मरहम लाने दो

   जो गुजरा है वो गुजर गया

              सन्नाटा था पर बिसर गया

  अब दस्तक कल की आई है 

                फिर जोश ने ली अंगड़ाई है 

   नव वर्ष तुम्हारी आहट ने 

                मेरी मुस्कान लौटाई है

   मैं फिर उमंग से सज्जित हो

               कस कमर खड़ा हूँ चौखट पर

   नूतन प्रभात की किरणों से

               आरती तुम्हारी गाऊँगा

  नव वर्ष तुम्हारे वंदन को

               अपने कल के अभिनंदन को

  मैं फिर जीवंत हो जाऊँगा 

               मैं स्वप्न नए फिर पाऊंँगा

  मैं निर्भय यशस्वी मानव हूँ 

               जो हर लम्हे पर विजयी है

  नव वर्ष  "नव प्रयास , नव कर्मों की" 

         नव श्रंखला मैं पुनः सजाऊँगा ।। 

✍️सीमा वर्मा, मुरादाबाद

    

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की लघुकथा -----कर्तव्य निष्ठा



" कित्ते में "  मोहन बाबू ने इशारे से पूछा । सड़क पर खड़ी औरत ने उँगलियों से बताया -- पाँच  !!!
  मोहन बाबू मोल भाव पर उतर आए । फिर से इशारा किया -- " तीन "
  औरत शायद जल्दी में थी । उसने पास आकर कहा " ठीक है बाबू , पर घ॔टे भर में छोड़ देना ।"         
   " क्यों और कित्ते निपटाएगी रात भर में ।" मोहन बाबू निर्लज और संवेदनहीन होकर बोले । 
      "जितने बन पड़ें "   " ज्यादा से ज्यादा " औरत ने बिना बुरा माने तटस्थ भाव से कहा और दोनों ने पास के होटल की राह पकड़ी ।
      औरत के इतने संयमित और दो टूक उत्तर को मोहन बाबू हजम नहीं कर पा रहे थे । कदाचित उनके मन में ये भाव था कि वो औरत उनके सामने रोएगी या गिड़गिड़ाएगी या दो चार तीखे कटाक्ष ही करेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ था ।
     घंटे भर बाद मोहन बाबू के मन में जाने क्या आया कि तीन की जगह पाँच पकड़ा दिए । बोले   " चल जा ऐश कर "   
     "नहीं कर सकती " औरत ने साड़ी लपेटते हुए फिर सपाट सा उत्तर दिया ।
      अब तो मोहन बाबू भन्ना गए , चिढ़ कर बोले   " तो रात भर रकम बटोर कर क्या सुबह आचार डालेगी ?" 
     इस बार औरत ने थोड़ी सी हिचकिचाहट से बड़ी दर्दीली मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया    "नहीं साब"  कल मेरे पति की आखिरी    "कीमो"  है ( कैंसर के मरीजों को दी जाने वाली थैरेपी )   "मैं चाहती हूँ इस करवा चौथ तक तो वो मेरे साथ रह ही जाए" ,  "अगले बरस का क्या भरोसा"    "फिर तो आप बाबू लोगों का ही सहारा है ।"
    किंकर्तव्यविमूढ़ से मोहन बाबू उसकी कर्तव्य निष्ठा के आगे नतमस्तक हो गए थे ।

✍️ सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद ।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी ------ - "नास्तिक"


  "अरे ssss"   "भाभीजी , छोड़िए आप ।"    "आप लोगों का क्या ?"    "भई , आप ठहरे नास्तिक लोग ।"    "आपका धर्म और आस्था से क्या लेना - देना ।"
शर्मा जी ने वाणी में मिश्री तो घोली , पर विष तो विष ही होता है । चाहे मीठी जुबान से ही क्यों ना उगला गया हो ।  सुनंदा और अभिषेक अवाक से खड़े रहे , कुछ कह नहीं पाए । वैसे भी जो-जो साथ खड़े थे उनमें हमउम्र कम ही थे  ज्यादातर उनसे बड़े ही थे ।
             सुनंदा और अभिषेक की यह तीसरी पीढ़ी थी जो इस मौहल्ले में रह रही थी ।  अभिषेक के दादा जी इस जगह को लेकर बहुत भावुक थे ।  इसलिए उनके जाने के बाद भी अभिषेक और उसके पिता ने यह घर नहीं बेचा था और सभी अभी तक यहीं रह रहे थे ।
             मौहल्ला क्या था बस यूँ समझिए नन्हा भारत था ।  सभी जातियों और धर्मों के लोग थे वहाँ । पीढ़ियों का साथ था एक दूसरे से ।  अभिषेक के दादा जी सर्जन थे  और पिता भी । वह खुद भी शहर का एक जाना- माना डॉक्टर था  और उसकी पत्नी भी डाॅक्टर थी ।  पूरे शहर में यह मशहूर था कि जिस किसी को इलाज के लिए पैसों की तंगी हो वो बस इनके परिवार से संपर्क कर ले उसका मुफ्त इलाज हो जाता था । किसी को भी दर्द में देख नहीं सकता था यह परिवार ।  ऐसे में पूरे मौहल्ले का मुफ्त इलाज तो होना ही हुआ ।  वैसे भी अभिषेक के पूरे परिवार ने जैसे एक प्रण लिया हुआ था कि वे सभी अपने पेशे से समाज को जितना सेवा दान दे सकते हैं देंगे और वो दे भी रहे थे  ।
        बस पीढ़ियों से इस खानदान पर एक ही बट्टा (इल्ज़ाम) लगा हुआ था कि इन का परिवार किसी भी तरह के धार्मिक अनुष्ठान में हिस्सा नहीं लेता था , जिसका कारण शायद इतना निजी था कि कभी किसी ने इस बात का खुलासा भी नहीं किया  ।
      पिछले कुछ हफ्तों में शहर में कुछ अलग तरह की हलचल थी ।  मौहल्लों में भी यही माहौल था  ।  हर कोई मंदिर निर्माण की बातों को बढ़ा-चढ़ा कर बतियाता दिखाई पड़ता था ।  कई जगहों पर चंदा आदि भी इकट्ठा किया जा रहा था ।  अभिषेक के मौहल्ले में भी चन्दा इकट्ठा करने कुछ लोग आज एक जगह एकत्रित थे ।  वहीं पर अचानक हास्पिटल से लौटते हुए सुनंदा और अभिषेक भी पहुंँच गए । उन्हें पूरी बात पता नहीं थी तो उत्सुकतावश  सुनंदा पूछ बैठी कि चंदा किस प्रक्रिया के लिए है ।
       बस प्रश्न के उत्तर ने उसे निरुत्तर कर दिया ।  और वो और अभिषेक एक दूसरे में अपने   "नास्तिक"  रूप को ढूंढने लगे  ।।

✍️ सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद

शनिवार, 15 अगस्त 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी-------- गटर

पूरी गली दुर्गंध से परेशान थी ।  पर इस दुर्गंध से छुटकारा पाने का उपाय करने की चिंता शायद ही किसी को सता रही थी । असल में गली का गटर भर गया था । बदबूदार पानी बह - बह कर पूरी गली को सुशोभित कर रहा था । म्यूनिसपालिटी में शिकायत कौन लिखवाए  ,  इस के लिए हर कोई आँखें बंद किए था । बदबू सहन करना आसान था पर जो सफाई कर्मचारी आएँगे उनका सत्कार करने के लिए रोकड़ा कौन खर्च करे ।  और बिना चढ़ावा चढ़ाए सरकारी देवता तो प्रसन्न होने से रहे ।  तो सार ये रहा कि हर कोई नाक पर रुमाल रखकर काम चलाए जा रहा था ।
               अखबार का पहला पन्ना आज बड़ी बूरी खबर लाया था ।  मिलावटी दूध के कारण प्रांत के आठ सौ बच्चे एक साथ स्वर्ग सिधार गए थे ।  और जो बचे थे , अस्पतालों में कतार में थे । चिल्लाते बिलखते माँ बापों की तस्वीरें देख गले में कुछ अटक रहा था । "शुक्र है हमारे सही सलामत हैं" या "शुक्र है हमारे बच्चे ही नहीं हैं"  ,  के भाव अखबार पढ़ने वालों के दिल को संताप के साथ-साथ तसल्ली से भी भर रहे थे । "ऐसी खुदगर्ज़ी"  "ऐसा छल कपट" ,  पर कोई कर क्या सकता है ।  बुरा करने वाले को तो भगवान ही समझे अब । लाचार और पंगु बने हुए सब अफसोस की मिसाल बने हुए थे ।
            टेलीविजन पर बहस छिड़ी हुई थी कि न्यायालय की प्रक्रिया इतनी लचर और बेढंगी है कि न्याय की गुहार लगाने वाला इंतज़ार करते - करते भू-लोक से इहलोक पहुँच जाता है ।  कितने हजार केस हैं  ? कितने न्यायालय हैं  ?  कितने जज  हैं  ? कौन सा वकील कैसे जनता को मूंड-मूंड कर अमीर बन गया है ।  फिर भी जनता न्याय की गुहार लगाने वहीं पहुँच जाती है जहाँ उसे न्याय कब मिलेगा इसका कोई जवाब देश के किसी न्यायालय के पास नहीं है । पर टेलीविजन पर चर्चा कर रहे बुद्धिमान व्यक्तियों के "कंठ स्वर" और "अक्रामक तेवर" ऐसे लग रहे थे मानों आज की चर्चा में ही दो - तीन लाख केस रफा-दफा कर दिए जाएँगे ।  अरे छोड़िए बेवकूफ़ हैं लोग तो  "चिल्लाने दीजिए"  "निकालने दीजिए कैंडिल मार्च"   हम चर्चा पर आमंत्रित हैं तो बस टेलीविजन पर चेहरा दिखाइए  और चलते बनिए ।
              दफा एक सौ चौआलिस लगी पड़ी थी पूरे शहर में ।  मरघट का सा सन्नाटा पसरा पड़ा था । पुलिस की गश्ती गाड़ियों की आवाज़ें ही थीं जो यदा-कदा सुनाई पड़ जाती थीं । स्कूल तक नहीं छोड़े थे नासपीटों ने । मासूमों तक को भून डाला ।  धुआँधार गोलियाँ चलीं चश्मदीदों का कहना था ।  सैंकड़ों दुकानें आग की भेंट चढ़ गईं  । बम विस्फोट में कटी फटी लाशों में कौन सा हिस्सा किसका है  ये पता लगाने के लिए तो धर्म के ठेकेदारों की नई कमेटियाँ बनानी पड़ेंगी  ,  वरना तो "जलाए जाने वाले का हाथ दफन हो जाएगा" और  "दफन होने वाले की टाँग" आग के सुपुर्द हो जाने का खतरा है । 
              नई कमेटियाँ इस लिए क्योंकि पुरानी तो दंगों की रूपरेखा बनाने , उसके लिए चंदा इकट्ठा करने में , असला इकट्ठा करने में  और सबसे बढ़कर दंगे को अंजाम देने में पस्त हो गई थीं और कुछ को  "स्वर्ग और जन्नत" की सैर भी मिली थी । "खुशनसीब थे सभी" ।  "आपको क्या ?"     "घर में बैठिए चुपचाप ।"    "दंगाई किसी के सगे नहीं होते ।" 
               "हद कर साहब आपने  तो ।"   "आपके लिए जान दी है ।"   "आपके धर्म की रक्षा के लिए  ।"     "और आप कह रहे हैं हम आपके नहीं ।"
                पिछले महीने आठ लड़कियों से बलात्कार हुआ ।  पाँच नाबालिग थीं । सबसे छोटी तीन बरस की और सबसे बड़ी सत्तर की थी । दोनों ही मौका ए वारदात पर खत्म  ।  करें क्या  ??
           जाली नोटों (करेंसी) के चलते एक फाइनेंस कंपनी के घोटाले की वजह से  पाँच परिवारों ने सामूहिक खुदकुशी कर ली ।  "मियां बीबी बच्चों समेत" ।  भई पीछे रोने के लिए किस के सहारे छोड़ा जाए  ।
               कई छात्र संगठन इन दिनों बड़ी बेबाकी से स्वतंत्रता का ढोल पीट रहे हैं । "स्वतंत्रता चाहिए"   "धुएँ में डूबने की"  "नंगे होकर घूमने की"    "गालियों को भौंकने की"    "पिशाचों की तरह एक दूसरे को नोचने की"  "स्वतंत्रता चाहिए हमें  , स्वच्छंदता चाहिए हमें मनमानी करने की" ।  "दे दीजिए , मानेंगे नहीं ये ।"
           "तो साहब वापस चलें"   इन सबके पचड़ों के बीच में  "गली के गटर" की बात और बदबू तो आप भूल ही गए ।  नाक से रुमाल तक हट गया ।  "अरे - रे - रे ये क्या  ??"    आपने फिर से नाक ढक ली । 
    पता है-पता है आप ऐसे ही , इन्हीं हालातों में ही काम चला लेंगे और जी भी लेंगे  ।   "गटर चाहे कोई भी , कहीं भी भर कर बह रहा हो , बदबू मार रहा हो ।"

✍️सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद

बुधवार, 5 अगस्त 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी ----------दूसरी

 
      बीस साल हो गए थे कविता को इस घर में आए हुए ।  क्या नहीं किया था उसने । सास ससुर की सेवा , पति को भरपूर प्रेम ,  तीनों बच्चों की  दिल से परवरिश और इन छह प्राणियों की गृहस्थी की कुशल गृहणी की तरह देखभाल । पर जब भी कानों में कुछ सुनने को पड़ता तो यही कि जब से यह दूसरी आई घर की चाल ही बदल गई ।
       कविता की शादी जब नरेश से हुई तब कविता तो कुँवारी थी परंतु नरेश अपनी पहली पत्नी खो चुके थे और पहली पत्नी से उनके तीन बच्चे थे जो बहुत छोटे और मासूम थे ।  माँ बाप बूढ़े थे और बच्चे बहुत नादान ।  ना चाहते हुए भी नरेश को आनन-फानन में दूसरे विवाह का सेहरा सजाना पड़ा था । कौन संभालता उसकी बिखरी हुई गृहस्थी को ।
            कविता नरेश के दूर के रिश्तेदार की भांजी थी ।  माँ बाप गरीब थे अतः जब नरेश का रिश्ता कविता के लिए आया तब कविता की भावनाओं का ध्यान रखें बिना उन्होंने झटपट हाँ कह दी क्योंकि नरेश की दहेज ना लेने की बात ने उन्हें कविता के ब्याह की और दहेज की चिंता से मुक्ति दिला दी थी ।
          कविता नरेश की दूसरी पत्नी बन कर आई थी ।  माँ बाबूजी की दूसरी बहू और बच्चों की दूसरी माँ । "दूसरी" शब्द कविता के नाम का पर्यायवाची बन गया  था । सोते जागते कोई ना कोई बात ऐसी बात हो ही जाती थी जिससे कविता को यह अहसास दिला दिया जाता था कि वह "दूसरी" है ।  कविता कौन सा फूलों की सेज पर जीवन गुजार कर आई थी उसे भी किसी ताने का या ठिठोली का असर ही नहीं होता था ।
           समय पंख लगा कर उड़ रहा था । बच्चे बड़े हो रहे थे । खुद माँ बनने की इच्छा का भी कविता ने यह सोच कर गला घोंट दिया कि दूसरी की औलाद का नामकरण ना जाने क्या हो ? और फिर गृहस्थी भी एक और नया बोझ उठाने में असमर्थ थी ।  वैसे उसने बच्चों को और बच्चों ने उसे दिल से अपनाया था और उनके निश्छल प्रेम में कविता बार-बार दिलाए जाने वाले "दूसरी" के अहसास को  नजरअंदाज कर देती थी ।
           आज बड़े बेटे का तिलक था । घर मेहमानों से अटा पड़ा था । लड़की वाले समय पर आ गए थे । ढोलक की थाप पर बन्ने गाए जा रहे थे कि अचानक तिलक की रस्म करते लड़की के भाई को रोकते हुए पंडित जी ने कहा कि पहली रस्म लड़के की माँ की है ।  सभी एकसाथ बोल पड़े  "हाँ भई पहली रस्म तो माँ की" कोई इधर से बोला कोई उधर से । 
           "पहली"   "पहली"   "पहली" कविता के कान गुंजायमान हो रहे थे । बेटे के सिर पर माँ ने आँचल बिछाया तो बलैया लेती वृद्ध दादी की आँखों में खुशी की नमी आ गई पर ज़ुबान का क्या करें ?
मुँह खोला ही था कि  "आज अगर पहल"  आधे वाक्य को बीच रास्ते में ही रोकते हुए बड़े पोते के हाथ उनके मुँह को बंद कर दिया था ।  "माँ ही अब सब कुछ हैं दादी"
दूल्हा मुस्कुरा कर दादी का हाथ दाब रहा था ।  और कविता आज "पहली" और "दूसरी" के बंधन से मुक्त हो गई थी ।

सीमा वर्मा
मुरादाबाद


बुधवार, 29 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की लघुकथा ------ मोहभंग


       राधा ने रिटायर्ड होते ही सोच लिया था कि अब बस ,  बहुत हुआ काम - धाम , अब थोड़ा ध्यान प्रभु सेवा में लगाएगी । सुबह पाँच बजे उठकर हड़बड़ - हड़बड़ सारे घर का काम निपटा कर , जब वो दौड़ती भागती स्कूल बस पकड़ती थी तो सामने के मंदिर से पूजा करके लौट रही पड़ोस की औरतें हाथ में पूजा की डलिया लटकाए उसे देख यूँ  मुस्कुरातीं थीं मानो वो नौकरी के लिए नहीं सिनेमा देखने के लिए निकली हो ।कोई - कोई तो कह भी देती थी भई  तुम्हारे तो मजे हैं सुबह - सुबह तैयार होकर निकल पड़ती हो , एक हम हैं सारा दिन वही चूल्हा - चौका ।   
         बस की सीट पर पीठ टिकाते हुए उसकी आँखें छलक जातीं चूल्हा - चौका क्या उससे छूट गया है । घर - बाहर की दोहरी जिम्मेदारी कभी - कभी कमर तोड़ कर रख देती थी ।अब बस , कुछ नहीं करेगी वो , बहु है , बेटियाँ हैं , उन पर कुछ जिम्मेदारियाँ डाल वो भी सुबह नहा - धोकर मंदिर जाएगी । भजन - कीर्तन करेगी , कथाएँ सुनेगी ।
        दो - चार दिन में ही नई दिनचर्या उसे बेहद सुकून देने लगी । चाहे बच्चे और पतिदेव कनखियों से उसे देख मुस्कुरा उठते थे । पर उसने परवाह नहीं की वो तो परम आनंद से अभिभूत हो रही थी । पहले अगर किसी के घर से कथा - कीर्तन का बुलावा आता तो थकान के कारण वह टाल जाती थी पर अब शाम का इंतजार बेसब्री से करती ।
       मंगलवार का दिन था , पड़ोस में सुंदर कांड का पाठ था तत्पश्चात कुछ भजन कीर्तन था । बड़े मनोयोग से तैयार हो वो समय से पहुँच गई । पाठ के मध्य कई बार पंडित जी ने झुंझलाते हुए कई महिलाओं को बातें ना करने और शांत हो पाठ करने के लिए कहा । पर पाठ के बाद तो उस वाक्पटु मंडली ने सारी हदें पार कर दीं । साड़ी से लेकर गहनों तक , बहुँओं से लेकर सासों तक उन्होंने कोई क्षेत्र नहीं छोड़ा । कथा की तरफ़ किसका ध्यान जाता  ,   परनिंदा का जो अमृत रस कानों को तृप्ति दे रहा था  उस की तुलना पंडित जी के प्रवचन से हरगिज़ नहीं की जा सकती थी ।
राधा ने अपने कान बंद कर आँखें मींच भरसक प्रयत्न किया कि वह अपना ध्यान पंडित जी की बातों में लगाए पर विघ्नकर्ताओं के प्रयासों पर पानी नहीं फेर पाई । एक घंटे के अंदर ही राधा के कान और दिमाग दोनों थक गए । घर जाने के बाद भी उन बातों का असर दिमाग पर छाया रहा ।
      अगले दिन से मंदिर में भागवत सप्ताह शुरू हुआ ।  कथा वाचक ने बड़े ही सुंदर ढंग से कई प्रसंग सुनाए पर रंग में भंग डालने वाली मंडली यहाँ भी थी । कई बार टोके जाने पर भी ये नहीं मानी और आपस में तू - तू मैं - मैं और शुरू हो गई । राधा अब ऊबने लगी , कीर्तन  में बैठ भजन सुनने के बजाए घर में बैठ भजन गाने का निर्णय ले वो घर की ओर लौटने लगी ।
   

सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद


बुधवार, 22 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की लघुकथा -----पेमेंट


शादी निपट चुकी थी और टैंट वाले , कैटरिंग वाले , मिठाई वाले सभी अपनी - अपनी पेमैंट के लिए वर्मा जी को घेरे हुए थे । वर्मा जी यथा शक्ति सभी को संतुष्ट कर भुगतान (पेमेंट) करते जा रहे थे ।
        अंदर जनाने से बार - बार बुलावा आ रहा था कि बिदाई की कुछ रस्मों के लिए श्रीमती जी को उनकी जरूरत थी और बिटिया भी एक बार उनसे अच्छे से मिल लेना चाहती थी । उनका हृदय भी अपनी प्यारी बेटी से होने वाले वियोग को स्मरण करके व्यथित हो रहा था पर वो फिर भी मुस्कुराहट का आवरण सजाए सभी कार्य निपटा रहे थे ।
       लगभग सभी की पेमेंट  चुकता कर वो घर के अंदर जाने के लिए जैसे ही मुड़े कि अचानक जनवासे में से समधीजी निकल के
सामने आ गए और पूरी बत्तीसी फैला कर बोले  "हुजूर हमारी पेमेंट  कब तक करेंगे  ? "   " हमारी पेमेंट  भी निपटा दें ताकि  बिदाई निर्विध्न संपन्न हो ।"   
           नई-नई रिश्तेदारी की बेशर्मी को नज़रअंदाज कर वर्मा जी ने फौरन घर के भीतर से एक बड़ा बैग लाकर समधीजी के हाथ में पकड़ाया और हाथ जोड़कर कहा  " पूरे पचास लाख हैं ।" समधीजी हँस कर बोले  "अरे हमें पता है हुजूर  , हिसाब - किताब के आप बहुत पक्के हैं ।"   
 "हमें भरोसा है ।"    "आप बस अब बिदा की तैयारी करें ।"  और वर्मा जी इस आखिरी पेमेंट  को निपटा निश्चिंत हो बेटी से मिलने घर के अंदर चल पड़े ।

सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद । 

शनिवार, 18 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी-------दाग


" छोड़ दो मुझे , छोड़ दो , छोड़ो , छोड़ो " मधुरिमा की चीखें छत फाड़ रहीं थीं । दो - दो डाॅक्टर  चार नर्सें माता - पिता ,भाई - भाभी सब मिलकर भी उसे संभाल नहीं पा रहे थे । उसके शरीर में दर्जनों घाव थे पर वो खुद पर काबू नहीं पाने दे रही थी । बार - बार उठकर बाहर की तरफ भागती थी । डाॅक्टर्स उसे नींद के इंजैक्शन्स दे - देकर थक गए थे । चारों नर्सों को सख्त हिदायत थी कि हर वक्त चौकन्ना रहें वरना जरा  सा भी होश आते ही मधुरिमा फिर वहीं दोहराती थी । उसका बेहोश रहना ही फिलहाल सबको सही लग रहा था । पुलिस के दो कांस्टेबल पहरे पर थे । खुद कमिश्नर साहब चक्कर काट गए थे । अन्य पुलिसकर्मियों को सख्त हिदायत थी कि जब तक डाॅक्टर ना कहें बयान लेने की हड़बड़ी ना की जाए । मामला संगीन था और लड़की की हालत सुधर नहीं पा रही थी । माता - पिता , भाई - भाभी सब दो दिन से निराहार सूजी हुई आँखें लेकर अस्पताल में बैठे हुए थे ।
      मैडिकल काॅलेज के फाइनल इयर की होनहार छात्रा थी मधुरिमा । जितना प्यारा नाम उतनी ही प्यारी शक्ल । विधाता ने रूप भी भरपूर दिया था । चुलबुली इतनी कि आते - जातों को हँसाती थी । कोमल ऐसी के हर किसी के दुख - दर्द को अपना कर उसे दिलासा देने लगती । पूरे घर की लाडली थी मधुरिमा । पर आज जिस हाल में थी आईना भी पहचानने से मना कर रहा था ।
       शाम के लैक्चर के बाद थोड़ा सा धुंधलका हो गया था । बादल घिरते देख मधुरिमा ने बस की जगह आज आॅटो ले लिया । पाँच मिनट के अन्दर ही बारिश ने विकराल रूप ले लिया था । सड़कों की रौशनी गुल थी । मधुरिमा मोबाइल से लगातार घर पर बात कर रही थी । बताती जा रही थी कि वो जल्दी ही घर पहुँच जाएगी कि अचानक बात करते - करते उसे लगा कि आॅटो ड्राइवर भी फोन पर किसी से बात कर रहा था । कुछ दूर चलने के बाद आॅटो एक झटके से सड़क के किनारे रुका और दो आगे , दो पीछे एकसाथ चार पाँच लोग उसमें चढ़े । मधुरिमा के विरोध की आवाज बारिश के शोर में दब गई । जब तक वो संभलती आॅटो रफ्तार पकड़ चुका था और उसके दोनों तरफ बैठे आदमियों में से एक ने उसके मुँह पर अचानक रुमाल रख दिया था ।
      अगली सुबह सड़क के किनारे पर औंधे मुँह बेहोश पड़ी मधुरिमा को कैसे किसी ने उठाया , अस्पताल पहुँचाया कुछ नहीं पता । कैसे रात भर अचानक उसके मोबाइल के डिस्कनैक्ट होते ही बेचैन माँ , पापा , भइया भाभी ने रात बिताई  बयां करना बड़ा मुशकिल है । भइया दो चक्कर पुलिस चौकी के भी काट चुके थे पर कोई सुनवाई हो तब ना । और अब दो दिन से पुलिस पीछा ही नहीं छोड़ रही थी । जिसने बयान देना था वो तो बेहोश पड़ी थी तो उन्होंने परिवार की जान खा रखी थी । वो तो भला हो डाॅक्टर्स का जिन्होंने वार्ड के पास किसी के भी आने पर रोक लगा रखी थी ।
             शरीर के घाव गहरे और पीड़ादायी थे पर अब मन पर जो घाव लगा था वो शायद नासूर बन जाने की हद तक भयानक और खतरनाक था ।
        पर पाँचवें दिन मधुरिमा ने अपने डाॅक्टर से मिलने की इच्छा जाहिर की । वो और डाॅक्टर कमरे में करीब एक घंटे तक अकेले कुछ बातें करते रहे । बाहर आकर डाॅक्टर साहब ने सिर्फ इतना कहा  " कोई डर नहीं , वो बहुत हिम्मती है ।"  " बस आप लोग कोशिश करके थोड़ा नार्मल बिहेव ( बर्ताव ) करें । " और मधुरिमा को डिस्चार्ज मिल गया । घर आए अब उसे एक महीना हो गया था ।
     मधुरिमा के परिवार वाले समझ ही नहीं पा रहे थे कि वो खुद का बर्ताव नार्मल कैसे रखें । जिनके घर की बेटी के साथ एक - दो नहीं कई दानवों ने दरिंदगी की हो वो सिर उठा कर बाहर कैसे निकलें ? समाज की नुकीली नजरों का सामना कैसे करें ? भइया आॅफिस नहीं जा पा रहा था । कोशिश करता पर तैयार होकर फिर घर बैठ जाता । पापा भी अब शाम को दूध लेने नहीं जाते थे । माँ ने मन्दिर जाना बन्द कर दिया था ।
        पर एक दिन सुबह मधुरिमा तैयार होकर कमरे से बाहर आई और बोली  " माँ - पापा मैं काँलेज जा रही हूँ । " तो सारा परिवार सन्न रह गया । किसी को भी ये उम्मीद नहीं थी कि इतने बड़े हादसे के बाद मधुरिमा काॅलेज  जाएगी । उसकी माँ सुबक उठी " बच्चे अब जीवन भर का दाग लग गया तुझ पर , क्या मुँह लेकर बाहर निकलेगी । " " कैसे सामना करेगी दुनिया का ।"  "  तेरी  इज्जत की तो धज्जियाँ उड़ा दीं हैं उन दरिंदों ने ।" 
          " नहीं माँ , कुछ नहीं हुआ है ऐसा ।" मधुरिमा ने बड़े शांत भाव से जवाब दिया  " माँ मुझपर कोई दाग नहीं लगा है । "  " मैं अब भी वैसी ही हूँ जैसी पहले थी ।"  " मेरे साथ जो हुआ वो एक दुर्घटना थी बस ।"  " जैसे बाकियों के साथ ऐक्सिडैंट होता है मेरे साथ भी हुआ " " जैसे सबका शरीर जख्मी होता है वैसे ही मेरा भी हुआ "  " फर्क क्या है माँ  ? "  " जैसे सबके घाव भरते हैं मेरे भी भर गए । "  " रही बात उन दरिंदों की तो पुलिस अपना काम कर रही है ।"

  " किसी इन्सान की इज्जत उसकी शख्सियत से होती है माँ,  उसके संस्कारों और परवरिश में  छुपी होतीं है ।"  " किसी भी दुर्घटना में हुए   अंग-भंग  से इज्जत का कोई लेना- देना नहीं है ।"
    " मेरा फाइनल इयर है माँ , बचपन से लेकर आज तक  मैंने जो मेहनत करी है , एक सफल डाॅक्टर बनने का जो सपना देखा है उसे मैं एक हादसे की वजह से मिट्टी में नहीं मिला सकती । "  " चन्द पाशविक पुरुषों का शारीरिक अत्याचार मेरे अन्तर्मन की प्रेरणा को हरा नहीं सकता , मुझे अपने सपने को हर हाल में पूरा करना  है ।"  " दाग तो समाज की मानसिकता पर लगा हुआ है माँ , मुझपर नहीं ।"  " और समाज की मानसिकता पर लगे दाग तभी मिटेंगे जब हम खुद को दोषी ना मान कर आगे बढ़ेंगे ।"
          मधुरिता का चेहरा उत्तेजना से लाल हो गया था । तभी उसके पिता ने उठकर उसका कंधा थपथपा दिया और बोले  " जाओ बेटा वरना क्लास के लिए लेट हो जाओगे ।"

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी------ - कुत्ते


               वो चार थे । बड़े - बड़े , भारी बदन के , रोज  चौराहे के पास खड़े मिलते थे । दूर से आते जाते  दिख जाते थे , अक्सर मैं कतरा कर निकलने की कोशिश करती पर सामना हो ही जाता था । नज़र पड़ते ही पूरे शरीर में एक अजीब सी कंपक॔पी सी छिड़ जाती थी । उनकी लाल - लाल आँखों से हर वक्त वहशत टपकती रहती थी । ऐसे घूरते थे मानों मौका पाते ही झपट पड़ेंगे ।
          मैं बेज़ार आ चुकी थी , दिन - रात ऐसे दहशत के साथ भी कोई  कैसे जी सकता था । बाहर आना - जाना तो लगा ही  रहता था ,  पर हर बार अगर खौफ ही मन पर छाया रहे तो हिम्मत टूट जाती थी । अक्सर मैं काम टाल जाती , कुछ बहाने बनाती , कभी - कभी तो झूठ का भी सहारा लिया की बाहर जाने से बच जाऊँ  । पर मजबूरी थी , इस मोहल्ले में आए अभी कुछ ही वक्त हुआ था । पति सुबह के निकले रात गए घर घुसते थे । पीछे रह जाते मैं , माँ जी और मेरा छोटा सा बेटा । अब घर बाहर की सारी जिम्मेदारी मेरे ही ऊपर थी । ऐसे में इन चारों का , हर वक्त का सामना मेरी नींदें उड़ा रहा था ।
       पति बेचैनी से करवट बदलते देखते तो पूछते - " क्या परेशानी है ?"    "क्या नए घर में मन नहीं लग रहा ?"      "अब तुम्हारी ही ज़िद थी इस मौहल्ले में आकर रहने की , थोड़ा वक्त गुज़र जाने दो , अभ्यस्त हो जाओगी ।" ऐसे में मैं उन्हें क्या बताती ।
       पर एक दिन मैं हिम्मत हार गई , राशनवाले से रोजमर्रा का सामान लेकर घर की तरफ बढ़ी ही थी कि उनमें से एक पीछे - पीछे चल पड़ा , मैंने कदम तेज़ कर दिए । दो चार कदम बाद लगा कि सारे के सारे हैं , बस मेरी घिग्घी बँध गई । तेज़ - तेज़ चलने के कारण साँसें उखड़ रहीं थीं , टाँगें काँप रहीं थीं पर घर की चौखट आने तक मैं थमी नहीं । माँ जी दरवाज़ा खोलने को आईं  तो उन्हें लगभग ढकेलते हुए अंदर किया और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया । वो मेरी हालत देखकर बाहर झाँकने को हुईं तो मैंने चिल्लाकर कहा  "नहीं माँ दरवाजा मत खोलना बाहर वो चारों  ...........।" बेचारी माँ जी मेरी घबराहट को देख सकपका कर रुक गईं । गहरी आँखों से मुझे देखती हुई मेरे  लिए पानी लेने चली गईं । मैंने सोफे पर बैठ सिर पीछे टिका लिया ।
     "पानी ले - ले बिटिया ", माँ  का स्पर्श कंधे पर पाते ही सब्र का बाँध टूट गया । मैं रोती रही और वो सहलातीं रहीं । ना कोई प्रश्न किया,  ना ही कुछ पूछा , मानो स्वयं ही सबकुछ समझ गईं ।
        रात को पतिदेव कुछ पल माँ जी के साथ जरूर बिताते थे , उनके कमरे से लौटे तो चिंतित स्वर में बोले - " तुम्हें मुझे जरूर बताना चाहिए था ।"  "जानती तो हो आजकल शहर का हाल ।"    "कोई भी जगह शरीफों के रहने लायक नहीं रह गई ।"  "अब अपनी इज्जत अपने हाथ है ।"   "ये कुत्ते तो हर जगह फैले पड़े हैं ।"   मेरी आँखों में प्रश्न देख , वो दिलासा देते हुए बोले -"कल ही प्रधानजी से बात करता हूँ कि मोहल्ले में बहु - बेटियाँ हैं "    "ऐसे में इन वहशी जानवरों का यहाँ क्या काम "   "इन्हें तो सीधा पुलिस के हवाले कर देना चाहिए ।"   आक्रोश से हाँफने लगे थे वो ।
  "पर कुत्तों को तो मवेशी खाने  (पशुओं की सुरक्षा केलिए बना सरकारी विभाग) वाले लेकर जाते हैं ना? "
 मेरे प्रश्न पर उन्होंने कुछ अचरज से मेरी तरफ देखा और बोले "तुम कौन से कुत्तों से डर रही थी ?" और पूरी बात समझ आते ही वो राहत की साँस लेकर बोले "अरे वो कुत्ते!!!  उन्हें तो एक- दो बार रोटी डाल दोगी तो वो ना ही पीछा करेंगे ना भौंकेंगे । मैं तो किन्हीं और कुत्तों की सोच कर डर गया था।"  पल भर में ही चिंता और  आक्रोश की जगह उनके चेहरे पर सुकून छा गया और उन्होंने आँखें बंद कर लीं । मैं भी आँखें मूँद कर अगले दिन की योजना के लिए हिम्मत जुटाने लगी ।।   

सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद

बुधवार, 1 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की लघुकथा----छुट्टी


        दो बार चक्कर काट चुका था वो पर दोनों बार ही बाॅस उसे नहीं मिले । बार - बार काम बीच में छोड़ बाॅस के कमरे के चक्कर लगाना उसे पसंद नहीं है पर आज कुछ मजबूरी ही ऐसी थी कि उसे ऐसा करना पड़ रहा था । परसों उसके इकलौते साले साहब के इकलौते पुत्र की वर्षगाँठ है और श्रीमतीजी ने पिछले सप्ताह ही वारंट निकाल दिया था कि सपरिवार सुबह - सुबह पहुँचने का आग्रह क्रमशः उनके मायके का प्रत्येक प्राणी कर चुका है ।
 मार्च का महीना , आॅफिस में आॅडिट चल रहा था ।कई महत्वपूर्ण डाॅक्यूमैंट्स ( काग़ज़ पत्र ) उसकी निगरानी में थे । बाॅस ने इशारों - इशारों में उसे समझा दिया था कि उसकी उपस्थित आॅफिस में अनिवार्य है ।वैसे वो स्वयं भी अनावश्यक छुट्टियों के पक्ष में नहीं रहता  था । आॅफिस में उसका ओहदा बहुत सम्माननीय था । हर कोई उसकी कार्य कुशलता की प्रशंसा करता । ऐसे में बाॅस के पास छुट्टी माँगने जाने का मतलब था बिना बात के पंगा लेना पर इधर कुआँ उधर खाई जैसी परिस्थिति में मरता क्या ना करता ।
            चपरासी ने आकर बाॅस की उपस्थिति की सूचना दी तो हिम्मत जुटा उसने कदम आॅफिस की तरफ बढ़ाए , लाॅबी में  लगे टी वी पर समाचार प्रसारित हो रहे थे । देश की सबसे  ऊँची चोटी सियाचिन ग्लैशियर और  तिब्बती सीमा पर रहने वाले सैनिकों पर कोई विशेष प्रसारण आ रहा था । किसी अनिश्चित खतरे की बात जानकर सुरक्षा एजेंसियों और सेना ने जवानों की छुट्टियां कैंसिल कर दीं थीं । इनमें से कई जवान ऐसे भी थे जो लंबे समय से घर नहीं गए थे ।संवाददाता बता रहा था कि कैसे एक जवान के बीमार पिता ने आई सी यू से वीडियो बना कर अपने बेटे से हिम्मत बनाए रखने और देश सेवा में डटे रहने की अपील की थी । कुछ जवानों के इंटरव्यू भी आ रहे थे जो बता रहे थे कि छुट्टी से ज्यादा उन्हें देशसेवा आनंद देती है ।
        वो बाॅस के आॅफिस के दरवाजे पर खड़ा था , समाचार अब भी चल रहे थे । असमंजस में पड़ा हुआ था कि अंदर जाए या नहीं । उसके दिल और दिमाग में जंग चल रही थी । कुछ मन में ठान उसने कदम वापस लौटा लिए ।

 ✍️   सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद 

बुधवार, 24 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार सीमा वर्मा की कहानी -- अन्तर्वेदना


                आज सुबोधजी की आँखें सूख ही नहीं पा रहीं थीं । कभी अश्रु आँखों के किनारे का संबल पा ठहर जाते , कभी झरना निर्बाध रूप से छलाँग लगा स्वयं ही पलकों के घेरे को तोड़ बहने लगता था ।
           बड़ी मुश्किल से दो बार खुद से जबर्दस्ती करके उन्होंने चाय पी और नाश्ता खाया । शाम ढल आई थी , फोन  चार  बार बज चुका था ।  पर आज उन्हें किसी से बात ना करना ही बेहतर लगा था ।   उन्होंने नौकर को हिदायत दे दी थी कि अगर कोई बच्चा आए तो कह देना तबियत खराब है कुछ दिन आराम करेंगे । 
                 किस - किस से छुपाते  , किस - किस को बताते । हृदय के भीतर दर्द की कई परतें थी जिन्हें वो अपनी निजी धरोहर मानते थे । हाँ मधुलिका होती तो बात अलग थी  । अब तो उसे गए भी चार साल हो गए थे । बच्चों के सामने वो हमेशा मुस्कुराहट के साथ ही प्रस्तुत हुए थे और आज भी वैसे ही होते हैं ।
              पचपन की उम्र भी तो इंसान को त्रिशंकु सा लटका देती है । उदास या थके हों तो सब कहते हैं  " अरे अभी उम्र ही क्या है ।"  और अगर कभी थोड़ा सा ज्यादा हँस - बोल लिया तो कहते हैं  " थोड़ा उम्र का तो लिहाज करते ।"  उसपर से विधुर , मानो जीवन जीने का हक ही खो दिया हो । हालाँकि सुबोध जी तो अभी भी किसी भी अच्छे - खासे जवान बंदे को हीन - भावना से भर देते थे ।
            समय के पाबंद , मृदुल व्यवहार के धनी , कार्य कुशल और मितभाषी सुबोध जी घर बाहर सबके प्रिय थे । मधुलिका और उनका जोड़ा तोता - मैना का नामकरण पा ही चुका था । बच्चों ने जैसा चाहा उन्हे वैसा जीवन जीने की आजादी उन्होने सहर्ष दे दी थी । चाहे अब दोनों विदेश में थे पर स्नेह की डोर कहीं से भी ढीली नहीं पड़ी थी ।
            उनका कहना था जो काम आसानी से हल हो सकते हैं उन्हें जबरदस्ती जटिलता का आवरण नहीं पहनाना चाहिए । दफ्तर में बाॅस से लेकर चपरासी तक सभी से एक सा व्यवहार करते थे । सब उनके प्रिय थे और वो सबके प्रिय थे । पर पिछले चार सालों में जिंदगी ने कुछ ऐसी पलटी मारी थी कि सुबोध जी की सारी खूबियाँ ही मानो उनकी दुश्मन बन गईं थीं ।
          मधुलिका को अचानक हुए कैंसर ने पूरे घर की नींव हिला दी थी । बेटे - बहुएँ  पोते - पोतियों से घर भर गया था । जी भर कर सबसे हँस - बोलकर , खुद  को तृप्त कर , पूरे घर को निहारती मधुलिका दो महीने भी नहीं रुकी । उसका जाना मानो उन्हें भी जीवन से बेदखल कर गया ।
            दुनिया भर के लोग , नाते - रिश्तेदार  , दोस्त  , पड़ोसी और उतनी ही बातें , सलाहें ।  वो अवाक से बस सिर हिलाते रहे । अपने साथ लेके जाने की बच्चों की लाख कोशिशों के बावजूद उन्होंने धीरे से बस यही कहा  " अभी तो तुम्हारी मम्मी यहीं पर ही महसूस हो रहीं हैं । " " अभी कुछ दिन मैं यहीं ठीक हूँ । "  " आगे देखते हैं । "
            जीवन की गाड़ी अकेले पहिए से चलाते - चलाते अब चार साल हो गए थे । सारे काम हो ही रहे थे  , रुका क्या था ??   पर जिस समाज में हम रहते हैं ,  जिन लोगों से घिरे रहते हैं ,  जिन लोगों के साथ काम करते हैं  , उनकी सोच एक खास धुरी पर आकर अटक जाती है , रुक जाती है ।  और ये रुकी हुई , अटकी हुई सोच अन्तर्वेदना का चिरस्थाई कारण है ।
              सालों से काम कर रही बाई ने एक दिन धीरे से कहा  " साहेब अब आप कोई चऊबीस घंटे वाला छोरा रख लो । " आपका काम भी करेगा और मन भी लगा रहेगा । "  " पर मुझे चौबीस घंटे कोई क्या करना है । " उनकी आवाज में आश्चर्य था ।  " नही मई तो आपके भले कू ही बोली ।" बाई थोड़ा शर्मिन्दा सी होकर बोली ।  " साफ - साफ बोलो क्या बात है ? " उन्होंने जोर देकर पूछा तो  जवाब आया    "  वो साहेब अब आप अकेले है ना तो मेरा मरद और आस - पास वाले सौ सवाल पूछते हैं  ? "  "  तो मेरे कू डर लगता है साहेब  "  " आप और मेमसाब के पास मई इतने साल काम करी , आप हमेशा मुझे अपनी बेटी जइसा रखे , पन साहेब दुनिया बहुत खराब है  , अगर कल कू मेरे मरद कू कोई भड़का दिया तो मैं तो सह लेगी पन आपका नाम खराब होता मई नही देख पाएगी । "   उसके जुड़े हुए हाथ और रूँघा हुआ गला उसके सच्चे बयान की गवाही दे रहे थे । मन में कुछ अजीब सा महसूस हुआ मानो किसी ने कसकर मसल दिया हो । बाई के सिर पर हाथ रख कर उसे विदा कर दिया ।
             वो तो भला हो उनके दोस्त परिवार का जिन्होंने अपने नौकर का बेटा उनके पास रखवा दिया । गाड़ी फिर से चलने लगी ।
           कुछ दिनों से मन कर रहा था कि कुछ लोग आसपास हों । दिन तो अॉफिस में निकल जाता था पर शाम होते ही दिल को उदासी घेर लेती । पास,पड़ोस के कई घरों में स्कूल कॉलेज जाने वाले बहुत से बच्चे थे  ।  वो बाहर बैठे उन सब को निहारते रहते ।  जाने क्यों एक दिन उनको ऐसा लगा कि उन्हें अपनी परेशानी और अकेलेपन के लिए एक संबल मिल गया है  ।  शाम होते ही बाहर पार्क में खेल रहे दो तीन बच्चों को उन्होंने आवाज दी  ।  सभी परिचित थे वे दौड़कर उनके पास आए और बोले   "नमस्ते अंकल कुछ काम हो तो बताइए  ।"   उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा   " मुझे तो कोई काम नहीं है ,  लेकिन अगर तुम लोगों में से किसी को भी मेरे साथ कैरम खेलना हो या फिर और कोई गेम तो आ जाना मेरे पास बहुत बड़ा कैरम बोर्ड है  ।"   
            बस फिर क्या था अगली कई शामें बच्चों के साथ आराम से गुजरने लगी कभी कोई आ जाता तो कभी कोई ।  एक दिन  पास वाले शर्मा जी का बेटा अपनी मैथ्स की नोटबुक उठा लाया और बोला   " अंकल पापा तो आज ऑफिस से लेट आएंँगे क्या आप मुझे यह सम सॉल्व करने में हेल्प कर सकते हैं ?"   उन्होंने सहर्ष उसे सारे सवाल मिनटों में समझा दिए ।  इसके बाद  तो जैसे एक नया सिलसिला चल पड़ा ।  अब तो जिस भी बच्चे को पढ़ाई में जो भी मुश्किल होती वह उनके पास आ जाता  ।  वो भी खुशी - खुशी उनकी समस्याओं का समाधान कर देते।
        उनकी शामें अब खुशनुमा हो चली थीं । इन बच्चों से घिरे रहने के कारण वह अपने बहू-बेटों और पोते-पोतियों से दूर होने के गम को थोड़ा कम महसूस करने लगे थे । पर एक दिन अचानक दो आँखों ने उन्हें ऐसा डराया कि वह सहम कर रह गए । उनका अंतर्मन गहन पीड़ा से भर गया ।
       हुआ यूँ कि पड़ोस की शालिनी जो शायद छठी कक्षा में पढ़ती थी उस दिन अचानक आई और बोली अंकल मुझे इस पोयम का मीनिंग समझा दीजिए । मतलब समझाते- समझाते कविता में आए किसी हास्य प्रसंग की वजह से वह दोनों जोर जोर से हंँसने लगे  । हंँसते हुए शालिनी के गले में अचानक धस्का लग गया । खांँसी आने की वजह से उसकी आंँखों में आंँसू आ गए  ।  उन्होंने घबराकर शालिनी की पीठ को मलना शुरू कर दिया ।  वह घबरा गए थे  ।  तभी अचानक उनकी निगाह द्वार की तरफ पड़ी जहांँ शालिनी की मांँ खड़ी हुई थी और अजीब सी गुस्से  भरी नजरों से उन्हें देख रही थी  ।   उसकी आंँखों और चेहरे के भावों ने उन्हें असमंजस में डाल दिया ।   वह बोले  "इसे हंँसते हुए अचानक जोर से खाँसी आ गई थी ।"   शालिनी की मांँ ने उनके शब्दों की तरफ ध्यान ना देते हुए जोर से शालिनी से कहा  "घर में नहीं पढ़ सकती हो ,  उठो चलो यहाँ से। "    शालिनी तो बच्चा थी । अवाक रह गई । पर फिर पता नहीं क्यों किताबें उठाकर वहांँ से चल दी ।
           जाते-जाते  शालिनी की मांँ ने पलट कर एक बार फिर उन्हें अजीब सी नजरों से घूरा ।  वह अपनी सफाई में बहुत कुछ कह सकते थे पर जाने क्या सोचकर चुप रह गए ।   पर इस तरह से शालिनी की माँ का उन्हें वितृष्णा से देखना  उनके अंतर्मन को असीमित पीड़ा से भर गया ।       
                 वह जानते थे  और समझते भी थे कि आज के परिपेक्ष में माता-पिता आए दिन होने वाले हादसों की वजह से  बेहद असुरक्षित महसूस करने लगे हैं और किसे अपना समझें और किसे पराया ? कौन उनका भला सोच रहा है और कौन उन्हें नुकसान पहुंँचा रहा है ?   यह असमंजस उन्हें भी पता था  ।  पर जाने क्यों अपने प्रति किसी के मन में उठी इस तरह की भावना को लेकर और सोच को लेकर उनका मन सहम गया । वह जानते थे कि अब शाम के इस सिलसिले को उन्हें यहीं रोकना पड़ेगा ।   व्यर्थ में ही वह किसी दूसरे को और अपने आप को और चोट नहीं पहुँचाना चाहते थे ।  पर इस अंतर्वेदना से मुक्ति पाने का, अन्य क्या उपाय होगा यह वह चाहकर के भी नहीं समझ पा रहे थे   ।।।।
 ✍️सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद ।