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मंगलवार, 8 मार्च 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ मीना नकवी की लघु कहानी ---मां । यह उन्होंने वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' की ओर से बुधवार 6 मार्च 2019 को आयोजित लघुकथा/कहानी गोष्ठी में प्रस्तुत की थी ।


 "साहब मुझे दो सौ रूपये दे दीजिये"...

उसने बड़े दबे दबे स्वर मे कहा।

              मैने लैपटाप में काम करते हुये उसको दृष्टि उठा कर देखा। 

              हमारे घर मे काम करते हुये आठ महीने हो चुके थे।.आठ माह पहले जब वह मेरे घर काम माँगने आई थी।दीन हीन सी लगभग  पचास पचपन  की आयु । देखने मे शरीफ़ सी लगने वाली औरत। 

मैं और मेरी पत्नी दोनो नौकरी करते हैं । आठ वर्ष का एक बेटा भी है। 

         "क्यों काम करना चाहती हो ?  तुम्हारे घर कोई नहीं है क्या ? "

           मैने इन्क्वायरी सैट अप की।  मेरे पूछते ही वह उबल पड़ी ....." है एक नालायक बेटा । ईश्वर मुझे बे औलाद ही रखता तो अच्छा था। उसी के कारण तो मेरा ये हाल हुआ है । नासपीटा मर जाये तो अच्छा। "

वह फ़फ़क के रो पड़ी। फ़िर कुछ संभलते हुये बोली.....

......"मेरा एक कमरे और एक बरामदे का  घर है इस बेटे कमबख़्त की शादी की ,तो कमरा छोड़ कर बरामदे मे आ गयी। बेटा बहू मुझे रोज़ प्रताड़ित करते हैं और  वृद्धाश्रम जाने की बात करते हैं। आज तो हद हो गयी जब मेरी बेटे की पत्नी ने मुझे घर से निकल जाने को कहा और मेरी जवान मरा बेटा खड़ा देखता रहा और सुनता रहा। "

            "मैने घर छोड़ दिया और अब मै कभी उस घर नहीं जाऊँगी।" ये कह कर वह अपने बेटे को दामन फैला कर कोसने लगी। 

            .....हमें भी एक काम वाली की तलाश थी । मेरी पत्नी को भी वह ठीक सी लगी सो हमने उसे काम पर रख लिया।घर का छोटा कमरा उसे दे दिया। वह वास्तव मे अच्छी औरत निकली और उसने घर के काम काज के साथ मेरे बेटे मुदित को भी संभाल लिया । मैं और मेरी पत्नी घर की ओर से लगभग चिन्ता मुक्त हो गये । वह बहुत कम बोलती थी परन्तु वह जब भी बोलती अपने बेटे को कोसने से बाज़ न आती।

........एक महीना काम करते हुये बीता तो मैने उसे पगार देनी चाही तो उसने इन्कार कर दिया। 

...."क्या करूँगी पैसे का? आप  मेरा सारा ख़्याल रखते  तो हैं।"

       मैने उसके पैसै अलग जमा कर दिये।सोच लिया जब चाहेगी ..ले लेगी।

.......और  आज वह मुझ से दो सौ रूपये माँग रही थी। मैने सर उठा के पूछा.....राधा...!!! क्या करोगी पैसों का? "

            "साहब एक दरगाह पर मनौती का चढ़ावा चढ़ाना है हर साल  चढ़ाती हूँ "

......अरे...!!!  एेसी क्या मन्नत मान ली राधा जी? "...मैने  पर्स से पैसे निकालते हुये मज़ाक़ में पूछा। 

....अरे साहब जी क्या बताऊँ उसी अभागे बेटे के लिये मन्नत माँगी थी। हर वर्ष उसकी सलामती के लिये मन्नत का चढ़ावा चढ़ाती हूँ। कहते कहते उसकी आवाज़ भर्रा  गयी

              "भगवान न करे,  कहीं सचमुच बुरा हो गया तो........!!!!!"

........और मैं नि:शब्द .. माँ की ममता के आगे नतमस्तक हो गया

     ✍️ डॉ मीना नक़वी

रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ मीना नकवी की ग़ज़ल --ये मेरा लिखना،ये पढ़ना، ये आदतें सारी। नगर ये अब्बू के हैं बस्तियाँ है अब्बू की।।

 


मौहब्बतों से भरी दास्ताँ हैं अब्बू की।

 वो ख़ुद दरख़्त थे हम पत्तियाँ  है अब्बू की।।


हमारा दिल जो कुशादा है सब की चाहत में।

हमारे ज़़ेह्न मे अंगनाइयाँ  है अब्बू की।।


थकन को अपनी कहाँ वो बयान करते थे।

हमारी आँखों में परछाइयाँ है अब्बू की।।


गले से हम को लगाते थे नाज़ उठाते थे।

वो हम से कहते थे सब बेटियाँ है अब्बू की।।


ये मेरा लिखना،ये पढ़ना،  ये आदतें सारी।

नगर ये अब्बू के हैं बस्तियाँ  है अब्बू की।।


ख़ुलूस ,प्यार, लताफ़त मिली है विरसे में।

मिज़ाज में भी मेरे गर्मियाँ हैं अब्बू की।।


ये फ़िक्र-ए-फ़न ये तख़य्युल, ये शायरी 'मीना'।

कि मुझ में इल्म की सब वादियाँ है अब्बू की।।

  ✍️ डॉ.मीना नक़वी

सोमवार, 16 नवंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ मीना नक़वी की शायरी पर केंद्रित योगेंद्र वर्मा व्योम का आलेख -------"ख़ुशबू के सफ़र की शायरा : डॉ. मीना नक़वी"

   


15 नवम्बर 2020 को सुबह-सुबह जब डॉ. मीना नक़वी जी के निधन का अत्यधिक दुखद समाचार सुना तो दिल धक से रह गया। सहसा विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन सच तो सच होता है। मीना नक़वी जी एक उत्कृष्ट रचनाकार होने के साथ साथ एक बहुत अच्छी इंसान भी थीं। उर्दू में शानदार और विशिष्ट अंदाज की शायरी करने वाली मीना जी का हिन्दी में भी महत्वपूर्ण सृजन रहा। उनकी आत्मीयता जीवनपर्यन्त शब्दातीत रही।  डॉ. मीना नक़वी के नाम से अदबी दुनिया में बखूबी पहचानी जाने वाली ज़िला बिजनौर की तहसील नगीना में 20 मई,1955 को जन्मी और वर्तमान में ज़िला मुरादाबाद के अग़वानपुर कस्बे में चिकित्सकीय वृत्ति से जुड़ी डॉ. मुनीर ज़ह्रा की शायरी के ज़र्रे-ज़र्रे में बसने वाली तहजीब और हिन्दुस्तानियत उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। दरअस्ल उनके अश’आर में ना तो अरबी-फारसी की इज़ाफ़त वाले अल्फ़ाज़ घुसपैठ करतेे हैं और ना ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती। ग़ज़ल एक मुश्किल काव्य विधा है जिसमें छंद का अनुशासन भी ज़रूरी है और कहन का सलीक़ा भी। इसे इशारे की आर्ट भी कहा गया है। डॉ. मीना जी का शे’र देखें-

‘यूँ तो कुछ भी नहीं अयां मुझमें

है मगर कहक निहां मुझमें

रब्त रखते हुए ज़मीन के साथ

जज़्ब है सारा आसमां मुझमें’

ग़ज़ल की विशेषता ही यही है कि उसमें मुहब्बत की कशिश और कसक के कोमल अहसास की ज़िन्दादिली से परंपरागत अभिव्यक्ति के साथ-साथ पारिवारिक-सामाजिक सरोकार और समकालीन यथार्थ भी पूरी संवेदनशीलता से अभिव्यक्त होता रहा हैे। डॉ. मीना नक़वी की शायरी में भी इश्क, जुदाई, अना, फलसफा, मश्वरे और फ़िक्र-ओ-फ़न इस अहसास की चाशनी में पगकर अपनी विलक्षण मिठास के साथ मौजूद रहते हैं। शायद इसीलिए कराची (पाकिस्तान) के प्रसिद्ध लेखक जनाब अली मुजम्मिल डॉ. मीना नक़वी को साक्षात शायरी मानते हुए कहते हैं कि ‘उनकी शायरी के कलापक्ष और भावपक्ष दोनों ही मजबूत हैं, परम्परा में आधुनिकता का समावेश है....पाठक को हर मिसरा अपने दिल तक पहुंचता हुआ महसूस होता है।’ इन अश’आर में उनका अंदाज़-ए-बयाँ काबिल-ए-ग़ौर है-

‘बुलंदी टूट जाती है ज़रा से ज़लज़ले से ही

 ज़मीं जब आसमानों पर पलटकर वार करती है’

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‘कामना अब याचना से यातना तक आ गई

 रक्तरंजित देह को उपचार तक लाएगा कौन

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वक़्त के जलते हुए सूरज की तपती धूप में

 उसकी यादों के शज़र हैं साएबानी के लिए’

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‘तेरी वफ़ाओं पे इतना यक़ीन हो मुझको

 तू झूठ बोले  मुझे  एतबार आ  जाए’

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अच्छे अश्आर मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को झकझोरती रहती है। डॉ. मीना नक़वी की शायरी भी अपनी ऐसी ही ख़ूबसूरत आहटों की गूँज के लिए जानी जाती है। उर्दू के मशहूर शायर निदा फाज़ली कहते हैं - ‘ग़ज़ल मीनाकारी की कला है जिसमें केवल शब्दों से ही नहीं, शब्दों में शामिल अक्षरों की ध्वनियाँ, क़ाफ़ियों की ताल, छंद की चाल के माध्यम से भी बात की जाती है। यह एक ऐसी विधा है जो ख़ामोशियों की ज़ुबान में बोलती है और फ़िक्र को जज़्बे की तराज़ू में तोलती है।’ उर्दू शायरों की लम्बी फेहरिस्त में चंद लोग ही हैं जो ग़ज़ल को कहने में इन शर्तों का निर्वहन ईमानदारी से करते हैं। डॉ. मीना नक़वी का नाम ग़ज़ल-लेखन परंपरा के ऐसे ही चंद रचनाकारों में अदबी अहमियत के साथ शुमार होता है जिन्होंने छंद के अनुशासन का निर्वाह करते हुए ख़ूबसूरत कहन के साथ ग़ज़ल को नई पहचान दी। उनकी ग़ज़लों में कथ्य की ताज़गी, ग़ज़लियत की ख़ुशबू और भाषाई मिठास एक साथ गुंथी हुई मिलती ही हैं, कहीं-कहीं प्रतिरोध का स्वर भी मुखरित होता हुआ दिखाई देता है। एक शे’र देखिए-

‘हमें ही बेवफ़ा कहकर किनारा कर लिया उसने

 हमारी ज़ात पर इससे बड़ा इल्ज़ाम क्या होगा’

डॉ. मीना नक़वी की शायरी में काव्य के विविध रंग मिलते हैं, वह कभी ज़िन्दगी का फलसफ़ा समझाती हैं और कभी प्रेम की अनुभूतियाँ। नारी-मन की व्यथा को भी उन्होंने अपनी अलग ही शैली में अभिव्यक्ति दी है। दहेज की समस्या और कन्या भ्रूण हत्या जैसे अतिसंवेदनशील मुद्दे नारी अस्मिता से तो जुड़े हुए हैं ही साथ ही आज के तथाकथित रूप से विकसित व शिक्षित समाज के मुंह पर एक तमाचा भी हैं, कन्या भ्रूण हत्या के संदर्भ में समाज की भूमिका पर कटाक्ष करते हुए बड़ी बेबाक़ी से वह कहती हैं-

‘यह तो अच्छा हुआ कलियों का गला घोंट दिया

 वरना  ख़ुशबू  भी हवाओं में बिखर सकती थी’

वर्तमान में समाज चाहे कितना ही विकसित क्यों ना हो गया हो लेकिन कुछ सन्दर्भों में समाज आज भी कुंठित मानसिकता और वही पुरानी दकियानूसी रूढ़िवादिताओं के चक्रव्यूह में फँसा हुआ है, उसकी सोच में बदलाव नहीं हो सका। दहेज की समस्या भी आज उसी मजबूती के साथ समाज में बनी हुई है जितनी दशकों और सदियों पहले अपने विद्रूप रूप में थी। आज भी दहेज के कारण अनेक परिवार बिखर रहे हैं, अनेक बेटियाँ दहेज-हत्या का शिकार हो रही हैं। दहेज हत्या की पीड़ा को मीना जी की संवेदनशील लेखनी कुछ इस तरह से बयां करती है-

‘बहू ज़िन्दा जला दी जाती है इस बात को सुनकर

 मेरी  मासूम  बेटी  शादी  से  इंकार  करती है’

साथ ही तथाकथित आधुनिकता का लबादा ओढे आज के समाज की स्याह मानसिकता को उजागर करते हुए एक संवेदनशील रचनाकार की अनुभूति और कडुवी सच्चाई को अपने शे’र में ढालकर वह कहती हैं-

‘तअल्लुक़ हो न हो, ज़रदार से फिर भी तअल्लुक़ है

 हो मुफ़लिस भाई  तो  रिश्ता बताना  भूल जाते हैं’

वहीं दूसरी ओर आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता सांप्रदायिक-सद्भाव की बात को वह बिल्कुल अनूठे अंदाज़ में अभिव्यक्त करती हैं-

‘है अज़ाँ अल्लाह की और आरती है राम की

 गूँज है दोनों में लेकिन प्यार के पैग़ाम की’

डॉ. मीना नक़वी के रचनाकर्म के संदर्भ में अपनी टिप्पणी के माध्यम से जहाँ एक ओर मशहूर शायर बड़े भाई श्री कृष्ण कुमार ‘नाज़’ ने उनको दर्द को थपकियाँ देकर सुलाने का हुनर जानने वाली शायरा बताया है वहीं दूसरी ओर वरिष्ठ नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी उन्हें भारत की परवीन शाकिर मानते हैं। दरअस्ल डॉ. मीना नक़वी की शायरी अलग अंदाज़ की शायरी है, ख़ुशबू के सफ़र की शायरी है। ज़िन्दगी के ऊँचे-नीचे रास्तों पर चलते हुए उनकी अनुभूतियाँ अपने आप शायरी में ढलती गईं और ये शे’र यथासमय उनकी ग़ज़लों के अंग बनते गए। तीन विषयों- हिन्दी, अंग्रेज़ी और संस्कृत में परास्नातक डॉ. नक़वी की अब तक नौ कृतियाँ- ‘साएबान’, ‘बादबान’, ‘जागती आँखें’ (तीनों उर्दू में), ‘दर्द पतझड़ का’, ‘धूप-छाँव’, ‘किरचियाँ दर्द की’ (देवनागरी और उर्दू दोनों में) तथा ‘आईना’ प्रकाशित, पुरस्कृत और साहित्य जगत में पर्याप्त चर्चित हो चुकीं हैं। अपनेे महत्वपूर्ण कृतित्व के लिए मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी, बिहार उर्दू अकादमी, बज़्मे अदब जालंधर, नज़र अकादमी मुरादाबाद, रामकिशन सिंघल ट्रस्ट शिवपुरी, साहित्यिक संस्था ‘अक्षरा’ मुरादाबाद, क़ैफ मैमोरियल सोसाइटी मुरादाबाद, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद सहित अनेक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर सम्मानित तथा भारत-भर ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मुशायरों के मंचों पर अपनी बेशक़ीमती शायरी से प्रतिष्ठा पाने वाली डॉ. मीना नक़वी की महत्वपूर्ण रचनाधर्मिता अपने इंद्रधनुषी रंगों वाले कथ्यों और भावों से समृद्ध है, उनकी ग़ज़लें जहाँ मन को गहरे तक छूती हैं वहीं मस्तिष्क को झकझोरती भी हैं। गंभीररूप से अस्वस्थ रहने बाबजूद भी अपने अंतिम समय तक अपनी रचना-यात्रा को प्रवाहमान  रखने वाली शायरा डा. मीना नक़वी का समग्र सृजन उर्दू साहित्य के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में भी अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ईश्वर उनके रचनाकर्म को रामकथा की आयु दे।

✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’                            

मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल- 94128.05981

रविवार, 20 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नक़वी की ग़ज़ल ---- ये और बात , सुन के वो ख़मोशियों पे टाल दे। सवाल तो है मुन्जमिद जवाब के बग़ैर भी।

वो दर्स-ए-इश्क़ दे गया निसाब के बग़ैर भी। 

पढ़ेंगे उसको हम मगर, किताब के बग़ैर भी। 


ये और बात , सुन के वो ख़मोशियों पे टाल दे।

सवाल तो है मुन्जमिद जवाब के बग़ैर भी। 


हज़ार रंग फ़ूल जब हैं, जा बजा खिले हुये।

महक रहा है गुल्सिताँ, गुलाब के बग़ैर भी। 


वो दश्त दश्त आँख, वो भरी भरी सी इक नदी।

बरस न जाये आसमाँ, हुबाब के बग़ैर भी। 


न जाने कौन भूले बिसरे ,गीत है सुना रहा।

बजा रहा है धुन कोई, रबाब के बग़ैर भी। 


मिला न उनमें बचपना, मिली तो मुफ़लिसी मिली।

कटी है जिनकी ज़िन्दगी शबाब के बग़ैर भी। 


ये और बात रतजगों से ' मीना' रब्त हो गया।

गुज़र रही है शब हमारी, ख़्वाब के बग़ैर भी।


   ✍️ डॉ.मीना नक़वी



 

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नकवी की ग़ज़ल ----


रोक सकता था मुझे, उसने मगर ... जाने दिया

मुझे कोई मरना नहीं था, वह ... मर रहा था

शाम मेरे दिल से हो कर जा रही थी आफताब

उन्होंने इक नज़र और देख कर जाने को दिया

ज़िन्दगी को ख़र्च करके साँस जब रुकने लगी

क़फ़ला रुक दिया और रहबर जाने दिया

उसकी ज़िम्मेदारियों का यह क़दर एहसास था

हमने उस को लौटते हुए ख़ुद को अपने घर जाने दिया

घर बनाओ किस तरह "मीना" किसी बस्ती में हम

ज़ेह न के बंजारे ने दिल का नगर जाना दिया


✍️ डॉ मीना नकवी


सोमवार, 1 जून 2020

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था ‘कैफ़ मैमोरियल सोसाइटी’ के तत्वावधान में नौ फरवरी 2014 को साहित्यकार डॉ मीना नकवी के छठे ग़ज़ल-संग्रह ‘जागती आँखें’ का लोकार्पण

 मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था ‘कैफ़ मैमोरियल सोसाइटी’ के तत्वावधान में नगर निगम के सभागार में  नौ फरवरी 2014 को लोकार्पण-समारोह का आयोजन हुआ जिसमें सुप्रसिद्ध शायरा डा.मीना नक़वी के छठे ग़ज़ल-संग्रह ‘जागती आँखें’ का लोकार्पण मुरादाबाद के पूर्व मेयर डा. एस.टी.हसन, मुख्य अतिथि साहित्य अकादमी म.प्र. की उप निदेशक श्रीमती नुसरत मेंहदी, डा. हसन अहमद निज़ामी, शायरा श्रीमती अलीना इतरत रिज़वी और संस्था के अध्यक्ष श्री अनवर कैफ़ी द्वारा किया गया। 

     नात-ए-पाक से आरंभ हुए लोकार्पण-समारोह में हिंदी और उर्दू के महानगर मुरादाबाद और बाहर से आए अनेक साहित्यकार- सर्वश्री गगन भारती, नासिर मंसूरी, योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, अशोक विश्नोई, विवेक निर्मल, जाहिद टांडवी, डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’, योगेन्द्रपाल सिंह विश्नोई, शबाब मैनाठेरी, उदय ‘अस्त’, विकास मुरादाबादी, राजीव सक्सेना, डा. जेबा नाज़, डा. जगदीप कुमार, शहाब मुरादाबादी आदि उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन मशहूर शायर डा. मुज़ाहिद फराज़ ने किया।





शनिवार, 16 मई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नकवी के रचना कर्म पर अंकित गुप्ता अंक का आलेख -----"दर्द से त्रस्त लोगों के ज़ख़्मों पर रुई के फाहे की तरह हैं डॉ मीना नकवी की ग़ज़लें " यह आलेख उन्होंने वाट्स एप समूह मुरादाबाद लिट्रेरी क्लब की ओर से 10 मई 2020 को आयोजित कार्यक्रम एक दिन एक साहित्यकार के तहत प्रस्तुत किया था ।



अंग्रेज़ी के एक बहुत बड़े कवि पी. बी. शैली ने भावों की अभिव्यक्ति के संदर्भ में एक जुमला दिया था कि "हमारे मधुरतम गीत वे होते हैं जो विचारों की अथाह गहराइयों से उपजते हैं ।"
एहसास की मिट्टी में जब शब्दों का बीजारोपण किया जाता है तभी डॉ. मीना नक़वी जैसा 'सायबान' 'दर्द पतझड़ का' झेलकर भी उफ़ुक़ पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है । उनकी शाइरी 'किरचियाँ दर्द की' हैं; जिनका फैलाव इन्द्रधनुषी है । यह शाइरी विरोधी तेवरों को भी उस शिद्दत से ओढ़ती है कि शाइरी की रूह भी ज़ख़्मी नहीं होती, शब्द अपनी लक्ष्मण-रेखा भी नहीं लाँघते; किंतु फिर भी लक्षितों को असहनीय तपिश भी महसूस होती है ।
भाषा को विशुद्ध संयमित रखते हुए भी वे जितने प्रभाव से अपनी बात कहती हैं; इससे सहज ही उनके मे'यार का पता चलता है । डॉ. मीना नक़वी बदलते हुए मानवीय संबंधों के प्रतिमानों के बारे में कह उठती हैं —

"इसलिये तेरे तअल्लुक़ से हैं हम सहमे हुये
इब्तेदा से पहले हम को फ़िक्र है अंजाम की"

कोई भी तख़्लीक़ तब तक मुकम्मल नहीं कही जा सकती जब तक उसमें फ़िलैन्थ्रॉपी (मानवप्रेम) का समावेश न हो । मीना नक़वी समाज में व्याप्त वैमनस्यता को यकजह्ती से 'रिप्लेस' करना चाहती हैं । वे आपसी सौहार्द्र की हिमायती हैं—


"है अज़ां अल्लाह की और आरती है राम की
गूँज है दोनों में लेकिन प्यार के पैग़ाम की“

'लव इज़ दि इटर्नल एंड अल्टिमेट ट्रूथ' अर्थात्  प्रेम को शाश्वत मानते हुए वे क्या ख़ूब रक़म करती हैं—

"प्रेम की मदिरा से भर दो, मन के आँगन का कलश
सच ये है क़ीमत नहीं होती है ख़ाली जाम की"

शिल्प के मुआमले में भी डॉ. मीना नक़वी एक बेहतरीन शाइरा हैं । ग़ज़ल तो  उनकी मूल विधा है ही, इसके अलावा गीत, दोहे, मुक्तकों के सृजन में भी वे परिणत हैं । ग़ज़लों के प्रवाह व प्रभाव की कसौटी पर वे किस क़दर खरी उतरती हैं इसकी बानगी उनकी रदीफ़ और क़ाफ़ियों की बेहतरीन जुगलबंदी से मिलती है । रवानी के हवाले से एक उदाहरण द्रष्टव्य है—

"पता है हम को कि उसकी आँखों,  में भावनाओं का जल नहीं है
इसीलिये प्रेम की दिशा में ,  हमारी कोशिश सफल नहीं है“

लगभग सभी प्रचलित बह्रों में उन्होंने अपना क़लम आज़माया है । बड़ी बह्रें सामान्य व स्वाभाविक रूप से प्रयोग में लाने में कम दुष्कर मानी जाती हैं जबकि छोटी बह्रों में यदि बात को प्रभावी ढंग से पहुँचाना हो तो यह हाथी का पाँव है । डॉ. मीना नक़वी इस इम्तिहान में भी अव्वल आती हैं—

"दिल का रिश्ता ख़त्म हुआ
दर्द पुराना ख़त्म हुआ

उसने नाता तोड़ लिया
एक सहारा ख़त्म हुआ

लम्हे भर की तल्खी़ से
रब्त पुराना ख़त्म हुआ"

और

"रुत में है कैसी सरगम
आँखें हैं पुरनम पुरनम

आँधी ने क्या ज़ुल्म किया
शाख़ें करती हैं मातम

उसके आने की आशा।
शम्अ की लौ मद्धम मद्धम

दस्तक आहट कुछ भी नहीं
फ़िर भी एक गुमाँ पैहम"

डॉ. नक़वी की शायरी फ़लसफ़ियाना सोच से मुज़य्यन है । वे तसव्वुफ़ की भी बात करती हैं और ऐस्थेटिक सेंस भी लिए रखती हैं । वे तशबीह(दृष्टांत) भी देती हैं और ज़िंदगी के 'यूनिवर्सल ट्रुथ' के प्रति सचेत भी करती हैं—


"आएगी एक दिन ज़ईफ़ी भी
सोचता कौन है जवानी में"

"उस से मिलते ही बात जान गये
हम नमक रख चुके है पानी में"

इश्क़े-मजाज़ी के साथ-साथ वे 'चरैवेति-चरैवेति' का कॉन्गलोमरेशन(सघन मिश्रण) भी बनाती हैं—

"मंज़िल नहीं मिल सकती कि तू साथ नहीं है
हो बाद-ए-मुखा़लिफ़*(विपरीत हवा), तो दिया कैसे जलेगा"


 'पाषाण',  'तरल', 'पटल', 'विटप', 'वेग', 'अधर' जैसे तत्सम शब्दों का स्थानानुरूप और लयबद्ध इस्तेमाल वे जिस तरह करती हैं; उससे देवनागरी के उनके विपुल भण्डार की भी सहज जानकारी मिलती है । जैसा पहले ही उल्लेख किया गया है कि डॉ. मीना नक़वी हिन्दी और उर्दू दोनों की मुख़्तलिफ़ तसानीफ़ में बराबर अधिकार रखती हैं । वे गीतों में भी वही असरपज़ीरी ला पाने में सक्षम हैं जो कि उनकी ग़ज़लों में झलकती है । उनके गीत श्रृंगार के रस में तो पगे हुए लगते ही हैं, साथ ही; उम्मीदों के वन में कलोल करते हुए हिरणों की तरह मासूम भी हैं ।
पी. बी. शैली अपने एक ओड में  कहते हैं, "ओ विंड!  व्हेन विंटर कम्स, कैन स्प्रिंग बि फ़ार बिहाइंड?" डॉ. मीना नक़वी ने भी अपने गीतों में इसी प्रकार की सकारात्मकता के बंदनवार लटकाए हैं  और आशा का स्वागत किया है—

"संध्या ने उजियार बुना है, दीप जले , तो सुन लेना।
मैने , प्रिय..!  इक गीत लिखा है समय मिले तो सुन लेना"

प्रस्तुत गीत भाव, छन्द और शिल्प की दृष्टि से एक श्रेष्ठ गीत है और डॉ. मीना नक़वी के गीतों के ज़ख़ीरे  में जमा'  सुंदर  रत्नों की नुमाइंदगी करता है । इस गीत की ही  "अंगनाई में यादों की जब बर्फ़ गले तो सुन लेना" पंक्ति में 'यादों की बर्फ़' का सुंदर प्रयोग हुआ है; जोकि गीत में विशिष्टता पैदा करता है ।  मैस्कुलिज़्म, पैट्रिआर्कल सोच से ग्रस्त तथाकथित एमसीपी समाज को ताक़ीद करते हुए वे अपनी दोहानुमा ग़ज़ल में क्या ख़ूब कटाक्ष करती हैं—

"मनसा वाचा कर्मणा मानव है वह दीन
महिला के किरदार पर जिसकी भाषा हीन"

इस प्रकार, डॉ. मीना नक़वी हिंदी-उर्दू अदब का वह नाम है; जिसके बिना दोनों ही भाषाओं में किसी भी तहरीर की कल्पना नहीं की जा सकती । उनकी ग़ज़लें दर्द से त्रस्त लोगों के ज़ख़्मों पर रूई के फाहे की तरह हैं तो वहीं उनके गीत आशा का उजास बिखेरते 'हारबिंजर' हैं । अपने निजी जीवन में वे जिन विकट स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही हैं; उसके बावजूद उनका सतत्, विराट एवं उत्कृष्ट लेखन नई पीढ़ी के लिए निश्चित ही प्रेरणादायी है ।

✍️ अंकित गुप्ता 'अंक'
सूर्य नगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज लाइनपार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9759526650

शनिवार, 2 मई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नकवी की गजल ------ दिन का वध करने वालों ने रात की हत्या कर दी है। चाँद खरीदे धनवानों ने ,आज अमावस घर घर है।।


धूप के कपड़ो पर सिलवट है, मैला मैला  दिनकर है।
उपवन सारा मुरझाया है,  जंगल जंगल पतझर है।।

जाने कैसा जादू टोना,डाल दिया है ऋतुओं ने।
हरियाली का जो वाहक था, छाँव-रहित वह तरुवर है।।

लेखन के स्वर मौन हुये हैं, ध्वनि हीन  हैं अक्षर तक।
एक कोलाहल मन के बाहर, एक कोलाहल भीतर है।।

दिन का वध करने वालों ने रात की हत्या कर दी है।
चाँद खरीदे धनवानों ने ,आज अमावस घर घर है।।

ऊब के एकाकीपन से जब , झाँका है उसके मन में।
ऐसा लगा आँखों में उसकी निर्मल प्रेम का सागर है।।

त्याग की वर्षा तिरोहित है, और मेघ घिरे हैं निज हित के।
कुंठित है संवेदन शक्ति, भूमि भाव की बंजर है।।

लेखन धर्म है भक्ति-भाव से , पूर्ण समर्पण है कविता।
शब्द मेरे रह जायें 'मीना' यह काया तो नश्वर है।।
 
✍️ डा. मीना नक़वी

गुरुवार, 19 मार्च 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नकवी की गजल --दिन ढले रोज बहा देती हैं काजल यादें....

बन के एहसास पे छा जाती हैं बादल यादें।
और फि़र आँखों को कर देती हैं जल-थल यादें।।

खुशबू माजी़ की मुझे रखती है महकाये हुये।
दिल के गुलशन में यूँ आती हैं मुसलसल यादें।।

रोज़ आँखों से मेरी नींद उडा़ देती थीं।
इसलिये कर दी हैं मैने भी मुक़फ़्फ़ल यादें।।

कितनी तस्वीरें सिमट आती हैं भूली बिसरी।
मुझ को तन्हाई में कर देती हैं पागल यादें।।

सुब्ह ता शाम तसव्वुर में सजा करती हूँ।
दिन ढले रोज़ बहा देती हैं काजल यादें।।

क़तरा क़तरा  लहू जज़्बों में उतर आता है।
जैसे एहसास का बन जाती हैं मक़तल यादें।।

सच बताऊँ तो हैं जीने का सहारा 'मीना'।
जेह् न के गोशों में आबाद मुकम्मल यादें।।
       ***डॉ मीना नक़वी


मंगलवार, 17 मार्च 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नकवी की गजल

कोई तस्वीर दरपन हो गयी है
ज़माने भर से उलझन हो गयी है

वो पत्थर का ख़ुदा जब से हुआ है
मेरी पूजा बिरहमन हो गयी है

ज़रा सा छू लिया क्या चाँद मैैने
सभी तारों से अनबन हो गयी है

हुयी है फूल से जब से मौहब्बत
हवा सहरा में जोगन हो गयी है

अन्धेरे मुह छुपाये फिर रहे हैं
नई क़न्दील रोशन हो गयी है

बहुत मुश्किल है "मीना" साथ रहना
वफ़ा चाहत से बदज़न हो गयी है

**मीना नकवी