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शुक्रवार, 14 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डा. रमेश कृष्ण के साहित्य पर केंद्रित राजीव सक्सेना का आलेख । यह आलेख प्रकाशित हुआ है डा रमेश कृष्ण की वर्ष 2006 में प्रकाशित पुस्तक "मैं और मेरी साहित्य साधना " में ।


 महान् कृष्णानुरागी एवं कृष्ण विद्या-विशारद के रूप में आचार्य डा. रमेश 'कृष्ण' समूचे भारत ही नहीं, बल्कि विदेश में भी ख्यात है। युगों से जन-जन में लोकप्रिय भारत के कालपुरुष भगवान कृष्ण के यह मानस-पुत्र आज कलयुग में उनकी कीर्ति-पताका को शाब्दिक एवं वाचिक रूप से दिग्-दिगन्त तक फहरा रहे हैं। कृष्ण भावना के जिस कार्य को गोलोकवासी अभय चरण भक्ति वेदान्त श्रील प्रभुपाद अधूरा छोड़ गए हैं, उसे आचार्य कृष्ण अपने ढंग से सम्पादित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 'श्रीकृष्ण पराक्रम- परिक्रमा' और 'श्रीकृष्ण कीर्तिकथा' जैसे कालजयी ग्रन्थ उनकी इस प्रतिबद्धता के जीवंत प्रमाण हैं। कृष्ण भावना से आपाद मस्तक ओतप्रोत एवं अद्वितीय सृजनात्मक प्रतिभा के धनी डा. रमेश कृष्ण ज्ञानमूर्ति डा. वासुदेव शरण अग्रवाल से प्रेरित रहे हैं। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल की तरह ही डा. रमेश 'कृष्ण' की भी प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं शोधवृत्ति में गहरी रुचि रही है। शोधवृत्ति के कारण ही डा. साहब ने ऐसे विलक्षण ग्रन्थों की रचना की है, जो काल का अतिक्रमण करते हुए समकालीन साहित्य की निधि बन चुके हैं। इस दृष्टि से वे अपने प्रेरणास्रोत डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के समरूप और कहीं-कहीं उनसे भी आगे जान पड़ते हैं।

     अपने मौलिक चिन्तन के ज़रिये डा. रमेश 'कृष्ण' ने अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत कर अनेक नई स्थापनायें प्रस्तुत की हैं। डा. कृष्ण की यह दृढ़ मान्यता है कि इस्राइल के यहूदी मूलतया भारत की संतान हैं और यदुवंशी हैं। 'श्रीकृष्ण कीर्तिकथा' (भाग प्रथम- पंचम अध्याय) में वे बाबू उमेशचन्द्र विद्यारत्न एवं 'मेदिनीकोष' का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 'राजा सगर की आज्ञा से यवनों ने जिस पल्ली स्थान में निवास किया था, वही पेलेस्टाइन हो गया और यवन शब्द का ही विकास (यवन जोन) 'जू' है। इस वर्णन से यह सिद्ध होता है कि यदुवंशी क्षत्रिय ही राजा सगर के द्वारा यवन करके निकाले गये, जो पेलेस्टाइन में जा बसे। यही बात बाइबिल और पोकाक के वचनों से भी सिद्ध होती है। बाइबिल का नूह का वर्णन भी मनु के तूफान की सूचना देता है। अतएव यहूदियों के आर्य होने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि वे भारत से ही जाकर वहाँ बसे हैं।

    नन्द भवन के नाम पर 'निनबीह', वृन्दावन के नाम पर बेबीलोन, गोकुल के नाम पर गालील, मगध के नाम पर मैगीडो या मैगडाला, यमुना (जमुना) के नाम पर जमनिया, मथुरा के नाम पर बैथेल, नन्दघर के नाम पर नाजरथ, यमुना के नाम पर यरदन और गोवर्धन के नाम पर गबर के स्रोत भी भारतीय हैं। 'श्रीकृष्ण कीर्ति कथा' में डा. कृष्ण लिखते हैं 'महाराज ययाति के पुत्रों यदु तुवर्सु, अनु, दहयु तथा पुरु ने सम्पूर्ण भारत में तथा भारत से बाहर चीन, जापान, यूनान, अमेरिका आदि में अपने राज्य स्थापित किए तथा भारतीय सभ्यता संस्कृति को विश्वव्यापी बनाया।'

    डा. रमेश यादव 'कृष्ण' के केवल पौराणिक तथ्यों या सन्दर्भों के आधार पर ही मौलिक उद्भावनायें / स्थापनायें प्रस्तुत नहीं करते हैं, बल्कि इनकी पुष्टि भौगोलिक एवं भाषा वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर भी करते हैं। ये सारे सूत्रों को संजोकर कुछ इस तरह तारतम्य स्थापित करते हैं कि यहुदियों के भारत के पहले एवं मान्यताओं को कपोलकल्पित मानकर  अस्वीकार नहीं किया जा सकता, न ही उनसे असहमत हुआ जा सकता है। डा. रमेश यादव 'कृष्ण' ने तार्किक आधार पर महाभारत की अनेक भ्रांत धारणाओं का जोरदार खण्डन किया. है। उदाहरणार्थ, उन्होंने यह सिद्ध किया है कि द्रोपदी केवल अर्जुन की भार्या थीं न कि पांचों पांडवों की। आगे चलकर उन्हें इसमें भी परिवर्तन करना पड़ा और द्रौपदी महाराज युधिष्ठिर की पत्नी सिद्ध हुई। डा. यादव लिखते हैं कि युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के साथ पत्नी के रूप में द्रौपदी का भी अभिषेक हुआ तथा वे ही सम्राज्ञी बनीं और उन्होंने ही अवभृथ स्नान किया। इसी अधिकार से युधिष्ठिर ने द्रौपदी को जुए में दाँव पर लगाया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि डा. यादव अपनी मान्यताओं को स्वयं भी समय-समय पर इतिहास एवं न्याय की तुला पर तोलते रहते हैं। इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण और विष्णु पुराण के सन्दर्भों के आधार पर उन्होंने प्रमाणित किया है कि कृष्ण के जीवन में राधा का कोई अस्तित्व नहीं था और यदि वे थी भी तो कृष्ण की प्रेयसी तो बिल्कुल नहीं थीं। डा. साहब ने श्रीकृष्ण द्वारा विदुरजी के यहाँ केले के छिलके चाटने एवं रूखा साग खाने की घटना को भी कपोल-कल्पित बताया है और ऐसा कहने के पीछे ठोस आधार भी है। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि विदुर जी तत्कालीन भारत के एक प्रभावशाली साम्राज्य के मंत्री पद पर आसीन थे। अतः वे निश्चित ही साधन सम्पन्न थे और उनके दीन-हीन या निर्धन होने का प्रश्न ही नहीं उठता। उक्त तथ्यों के आलोक में यह स्वीकार करना कि भगवान कृष्ण ने विदुरजी के घर केले के छिलके या रूखा साग खाया होगा, सचमुच कठिन है।

  'श्रीकृष्ण कीर्तिकथा' के षष्ठक भाग में डा. रमेश कृष्ण ने महाभारत के कालजयी पात्रों का सविस्तार उल्लेख किया है। अतिरथी अभिमन्यु, पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, महात्मा विदुर, शकुनि, अश्वत्थामा, युधिष्ठिर, भीमसेन, दुर्योधन, दानवीर कर्ण और अर्जुन के उदात्त चरित्र और जीवन प्रसंगों का उन्होंने रोचक वर्णन किया है। पितामह भीष्म का उल्लेख करते हुए डा. रमेश कृष्ण एक रोचक तथ्य का उद्घाटन करते हैं। वे लिखते हैं कि एक बार विश्ववन्द्य स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था- 'अपने सारे जीवन में बुद्ध का प्रशंसक रहा हूँ, किन्तु मैं उनके चरित्र का प्रशंसक हूँ, उनके सिद्धान्तों का नहीं। यही बात श्रीकृष्ण और भीष्म पर चरितार्थ होती है। श्रीकृष्ण भीष्म पितामह के चरित्र, अथाह ज्ञान एवं महिमामय व्यक्तित्व के प्रशंसक हैं, किन्तु ये उनके सिद्धान्तों के प्रशंसक नहीं है। श्रीकृष्ण के ही शब्दों में हम भीष्म जी की आलोचना सुनें- 'कुरुकुल के सभी बड़े-बूढ़े लोगों का यह बहुत बड़ा अन्याय है कि आप लोग इस मूर्ख दुर्योधन को राजा के पद पर बैठाकर अब इसका बलपूर्वक नियंत्रण नहीं कर रहे हैं। कुछ ऐसी ही बात गुरु द्रोणाचार्य के सन्दर्भ में

कही गई है- दुर्योधन के अनुचित कार्यों का मौखिक विरोध भले ही द्रोण करते थे, किन्तु क्रियात्मक रूप से वे उसके कार्यों में सहयोग देते थे। द्रोणाचार्य पुरुष को अर्थ का दास बताते हुए अपने को दुर्योधन के अर्थ से बंधा हुआ असहाय प्राणी बताते हैं। अपने को नपुंसक कहते हैं। उस समय उनका चरित्र श्रद्धा का पात्र नहीं रह जाता। आचार्य द्रोण ने साधारण सैनिकों पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके युद्ध के नियमों का उल्लंघन किया और अनैतिकता का मार्ग प्रशस्त किया। महर्षियों ने उनकी भर्त्सना की और स्पष्ट कहा कि तुमने अधर्मपूर्वक युद्ध किया है। जब हम पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के चरित्र के इन पहलुओं से अवगत होते हैं, तब निश्चित ही इन विभूतियों के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाता है।

   जो स्त्री-विमर्श आज समकालीन साहित्य का मुख्य स्वर है, वह डा. रमेश कृष्ण के साहित्य में सर्वत्र परिलक्षित होता है। डा. रमेश कृष्ण ने प्राचीन भारत या महाभारत के प्रमुख स्त्री पात्रों को नये आयामों का स्पर्श देकर उत्कर्ष तक पहुँचाया है और उन्हें वैभव प्रदान किया है। यह डा. कृष्ण की स्वर्ण लेखनी का ही सुफल है कि शर्मिष्ठा, देवयानी, शकुन्तला, कुन्ती और द्रौपदी जैसे मिथकीय पात्र हमें वायवीय नहीं, बल्कि वास्तविक प्रतीत होते हैं। आचार्य जी ने अपनी 'कृष्ण कथा में महाभारत के स्त्री पात्रों का कुछ ऐसी कुशलता और प्रामाणिकता के साथ चित्रण किया है कि उनकी इयत्ता और ऐतिहासिकता पर तनिक भी सन्देह नहीं किया जा सकता। डा. राममनोहर लोहिया ने लिखा है- 'भारतीय साहित्य (इतिहास) में द्रोपदी जैसी तेजस्विनी नारी अन्य नहीं है। वे विदुषी हैं। धीर-गम्भीर वीर हैं। विपत्तियों का आलिंगन करने और उन्हें पराजित करने में सक्षम हैं। उनका सारा जीवन दुख-कष्ट और चुनौतियों से भरा है। डा. रमेश कृष्ण अपने स्त्री पात्रों को 'ग्लोरीफाई' अवश्य करते हैं, किन्तु कुछ इस तरह कि उनमें आम भारतीय नारी के बिम्ब भी सरलतापूर्वक रेखांकित किए जा सकते हैं।

    डा. रमेश कृष्ण आद्यगुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द और दयानन्द सरस्वती सरीखे भारत के प्रज्ञा पुरुषों से भी ख़ासे प्रभावित रहे हैं। इनके दर्शन चिन्तन की छाप डा. कृष्ण पर साफ परिलक्षित होती है। शिकागो की धर्मसंसद में भारत की कीर्ति पताका फहराने वाले स्वामी विवेकानन्द से डा. रमेश कृष्ण विशेष रूप से प्रभावित हैं। तभी वे अपने ग्रन्थ 'ज्ञानपयोधि स्वामी विवेकानन्द' में लिखते हैं- स्वामी दयानन्द का कार्य वेद प्रतिपादित धर्म का रक्षण एवं पोषण करना था, किन्तु स्वामी विवेकानन्द का कार्य अधिक व्यापक था। उन्हें सृष्टि से अब तक चले आने वाले सम्पूर्ण हिन्दुत्व की रक्षा करना था। विधाता ने इस कार्य को सम्पादित करने के लिए ही धरती पर नरों में 'इन्द्र' नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को भेजा था, जिनमें इस गुरुतर भार को उठाने के लिए विवेक भी था और आनन्द (उत्साह) भी।

    डा. रमेश कृष्ण स्वयं प्रज्ञा-पुरुष हैं- घनीभूत वैचारिक ऊर्जा के जीते-जागते पुंज। भारत के महापुरुषों पर रचे गए अनकरीब दर्जनभर मौलिक ग्रन्थ उनकी विलक्षण मेघा के परिचायक हैं। इस बात पर सहसा विश्वास नहीं होता कि उनके भीतर ज्ञान का महासागर लहराता हैं। किन्तु वे इस ज्ञान को केवल अपने भीतर ही नहीं संजोये रहते, बल्कि इसे उड़ेलने को सदैव तत्पर रहते हैं। बस, पात्र के भीतर इसे समेटने की सामर्थ्य होनी चाहिए।

   डा. रमेश 'कृष्ण' का एक और रूप भी है- वह है उनका छवि भंजक रूप। डा. रमेश 'कृष्ण' ने स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा हिन्दू शब्द के अपमानजनक पर्याय बताने को अनुचित कहा है। स्वामी दयानन्द ने कवि कालिदास, संत कबीर, नानक, तुलसी, सहजानन्द, आचार्य वल्लभ जैसे महापुरुषों पर अशोभनीय कटाक्ष किया है, इनके ग्रन्थों को भी पढ़ना निषिद्ध घोषित किया। यद्यपि डा. कृष्ण ने स्वामी जी की सायास निन्दा या भर्त्सना नहीं की है, तथापि कतिपय आर्यसमाजी उनसे खासे कुपित हो गये हैं, क्योंकि इससे स्वामी जी की पूर्व निर्मित छवि को संभवतया आघात पहुँचा है। डा. रमेश कृष्ण बड़े सत्यान्वेषी हैं। दरअसल, उनका समूचा साहित्य ही सत्य का अन्वेषण है। अपने अन्वेषण में वे जहाँ भी कुछ अनुचित पाते हैं, उस पर तर्जनी उठाने से नहीं चूकते। ऐसा करते हुए वे न केवल अपनी रचनाधर्मिता का, बल्कि लेखकीय दायित्व का भी निर्वाह कर रहे होते हैं। अतः शुचितावादियों को इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

  अपने आदर्श, आराध्य एवं उपास्य श्रीकृष्ण की चर्चा करते हुए डा. रमेश कृष्ण ने अद्भुत वाङ्मय का सृजन किया है, जिसे सहज ही 'कृष्ण पुराण' की संज्ञा दी जा सकती है। स्वयं डा. कृष्ण आधुनिक पुराणकार हैं। उनके द्वारा सृजित 'कृष्ण वाङ्मय' का अवगाहन करने पर एक अनिर्वचनीय आनन्द या आहलाद की अनुभूति होती है। कोई सुधी पाठक इसमें बार-बार उतरना पैठना चाहेगा, दरअसल, डा. कृष्ण के अंतस में प्राचीन भारतीय संस्कृति को पुनर्स्थापित करने की चिर अभिलाषा रही है। इस दृष्टि से उनका साहित्य गौरवमयी भारतीय संस्कृति का बखान ही नहीं, बल्कि शब्दों में रची गयी मानवीय उत्कर्ष की महागाथा है।


✍️ राजीव सक्सेना

 मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत