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रविवार, 19 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... शिकस्त । हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी।

सेठ साटनवाला ने जब मुझे अपनी एकमात्र सन्तान रेखा को ट्यूशन पढ़ाने का निमंत्रण दिया तो सारे दफ्तर की आंखें करुणाद्र होकर मेरे ऊपर इस प्रकार जा टिकीं मानो मैं कोई मासूम कैदी हूँ जिसे बिना किसी अपराध के बलपूर्वक बलिवेदी की ओर ले जाया जा रहा है।

      छत्तीसगढ़ के छोटा नागपुर क्षेत्र की सुरम्य किन्तु सुनसान पहाड़ियों पर अभ्रक की खानों में सुपरवाइजर पद पर मेरी नई-नई नियुक्ति हुई थी। खानों के स्वामी सेठ साटनवाला से मेरे एक मित्र के व्यक्तिगत संबंध थे। उन्हीं के आधार पर अपने नगर से सैकड़ों मील दूर हजारीबाग जिले के डोमचांच नामक स्थान पर मुझे यह काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। सेठ साटनवला भले ही तीखे स्वभाव के व्यक्ति रहे हों लेकिन मेरे साथ उनकी आत्मीयता प्रारम्भ से ही बढ़ गई थी। कह नहीं सकता मेरे अच्छे कार्य और स्वभाव के कारण अथवा मेरी सिफारिश से प्रभावित होकर। एक दिन जैसे ही सेठ जी को यह पता चला कि विगत वर्षों में मैं एक अध्यापक का जीवन व्यतीत कर चुका हूँ, उन्होंने तुरंत अपनी इकलौती बेटी रेखा को घंटा भर के लिए घर पर पढ़ाने का प्रस्ताव मेरे सामने रख दिया। इस प्रस्ताव से मुझे प्रसन्नता ही हुई। एक तो शिक्षण कार्य मुझे स्वभाव से ही प्रिय है दूसरे इस निर्जन पहाड़ी प्रदेश में रहकर कुछ ही दिनों में मैं पारिवारिक स्नेह पाने के लिए छटपटा उठा था। छोटी उम्र के नेक और मिलनसार व्यक्ति को यह स्नेह भले घर का ट्यूशन करने पर प्रायः मिल ही जाता है।

     मैंने रेखा को पढ़ाने का समय निर्धारित कर लिया लेकिन मेरे इस निश्चय से दफ्तर के बाबू लोगों में एक विचित्र सी हलचल प्रारम्भ हो गई। उनका विचार था कि सेठ जी के प्रस्ताव को स्वीकार करके स्वयं को फंसाने के लिए मैंने एक जाल अपने आप ही तैयार कर लिया है जिसमें पड़कर सहज में ही मेरी भावी उन्नति के मार्ग अवरुद्ध हो जाने की प्रबल सम्भावना है। हो सकता है एक दिन मुझे अपनी नौकरी से ही हाथ धोना न पड़ जाये।

     सभी लोगों की आंखों में मुझे ईर्ष्या के स्थान पर भय का भाव ही दृष्टिगोचर हुआ इसलिए उनकी बातों में मुझे कोई न कोई तथ्य अवश्य प्रतिभासित होने लगा था। उस दिन बड़े ही असमंजस में पड़कर मैंने सेठ जी के बंगले में प्रवेश किया, उनको एकमात्र संतान रेखा को पढ़ाने के लिए। एक वर्ष में आठ अध्यापक आये और शिकस्त खाकर वापस चले गए। कोई भी उसे दो माह से अधिक नहीं पढ़ा सका लेकिन मुझे रेखा में कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी। मेरे पहुँचते ही दोनों हाथ जोड़कर उसने मुझे 'प्रणाम, सर!' कहा और मेरे बैठ जाने पर बड़ी शालीनता और तरीके के साथ उसने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। उत्सुकता मिटाने के लिए सर्वप्रथम मैंने उसे अपना परिचय देना प्रारम्भ कर दिया। मैं एक अच्छा कवि भी हूँ- यह बात जानकर वह चौकी। उसके चेहरे के भाव-परिवर्तन से मुझे बल मिला और मैंने अपनी कविताओं की दो-एक पंक्तियाँ उसे सुनानी प्रारम्भ कर दीं। सहसा उसको त्योरियों में बल पड़ गए। वह चिल्ला उठी 'बस करिये, मुझे कविता से सख्त नफरत है।"

'कविता? निष्क्रियता की निकम्मी संतान!'

'कवि? आलसी, निकम्मा और दरिद्र जीव!'

   मेरे सम्मान के लिये यह एक ठेस थी लेकिन उसकी बात में एक तथ्य था, एक स्वतंत्र धारणा जो कटु भले ही हो, लेकिन आंशिक सत्य भी थी। थोड़ी प्रशंसा के अतिरिक्त और कौन सा वैभव है एक कवि के पास? इसलिये रेखा की बात में मुझे कोई उदडण्ता दिखायी नहीं दी, कोई ऐसी शोखी जिसके कारण एक वर्ष में आठ अध्यापक आये और शिकस्त खाकर वापस चले गए। कोई भी उसे दो माह से अधिक नहीं पढ़ा सका।

    तीन-चार दिन बीत गए। मैंने पढ़ाया। उसने पढ़ा। पूर्ण व्यवस्था के साथ। पांचवें दिन बैठते ही मैंने उससे प्रश्न किया 'तुम्हारे कोई भाई नहीं है न?'

उसने उपेक्षा से सर हिला दिया नहीं।

बहिन?

नहीं।

दूर की या निकट की?

नहीं। यह भी नहीं उसके स्वर में गंभीरता थी।

मेरे मन में करुणा जागृत हुई। सहानुभूति के स्वर में उससे पूछा- 'कोई भी ऐसा प्राणी है

जिससे तुम्हें प्यार हो?'

'जी हां, मेरा कुत्ता' और वह खिलखिलाकर हँसने लगी।

एक सहृदय की सहानुभूति का यह उत्तर। मेरे सम्मान के लिये यह एक ठेस थी लेकिन उसकी

बात में एक तथ्य था, एक स्वतंत्र धारणा, जो कटु भले ही हो लेकिन सत्य अवश्य थी। एक पूंजीपति के लिये इंसान की कीमत ही क्या है? दस-बीस रुपए में खरीदा हुआ एक कमजोर जानवर, जो कुत्ते से भी अधिक पूंछ हिलाता है और फटकारे जाने पर भी भौंकता नहीं, खीसें निपोर देता है। एक दिन पहुंचते ही अपनी मेज को मैंने नाना प्रकार के फलों और पकवानों से भरा पाया।

श' आर्यावर्त' की एक प्रति हाथ में लिए हुए रेखा इठलाती हुई वहाँ आ पहुंची। प्रसन्नता के उन्माद में झूम उठी थी वह-'सर.... मेरे नाम से छपा यह गीत कॉलेज जीवन में मेरी सबसे बड़ी जीत है.....। सर, मैं आपकी बड़ी कृतज्ञ हूँ।'

मेरी श्वासों में कुछ-कुछ उष्णता का स्पन्दन होने लगा। रेखा बेहद प्रसन्न थी। आज पहली बार सारे कॉलेज में उसकी प्रतिभा की धाक जम गई। सुनीता, संध्या या कल्पना, परीक्षा में किसी से भी अधिक अंक वह आज तक नहीं पा सकी। उसके स्वभाव में खोटापन निकालकर लड़‌कियों ने उससे बोलना तक छोड़ दिया किंतु आज उन सभी के चेहरे फीके पड़ गए। 'आर्यावर्त' में छपे हुए कु. रेखा साटनवाला के मनोहर गीत ने क्या शिक्षक, क्या शिक्षिका; लड़के और लड़‌कियों सभी के मन को जीत लिया और आज सैकड़ों के मुँह से सुना-

'रेखा? एक छिपी हुई काव्य प्रतिभा।'

'रेखा? अपने कॉलेज की गौरव गरिमा।'

रेखा का रोम-रोम प्रसन्न था। वह चहक उठी 'सर आपने मुझे नई जिंदगी दी है। एक और ऐसी ही कविता छपवा दीजिये मेरे लिए, प्लीज... सर। मैं आपका अहसान नहीं भूलूंगी।'

कविता? निष्क्रियता की निकम्मी संतान।

मेरे ओंठों पर व्यंग्य मुस्करा रहा था।

कवि? आलसी, निकम्मा और दरिद्र जीव।

वेदना ने व्यंग्य को झकझोर डाला-

'नहीं-नहीं रेखा, यह ठीक नहीं है। यह तो मेरी भूल थी।

सहसा मुझे लगा कि पुष्प मुरझा गए। पक्षियों का कलरव शांत हो गया। पादपों पर कुहरा छाने

लगा। चारों ओर सन्नाटा पसर गया। फलों और पकवानों से भरी मेज, मामूली सा अध्यापक और सामने बैठी हुई मिस साटनवाला। मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखायी नहीं दी।


रेखा के चेहरे पर एक मासूमी सी व्याप रही थी। मकड़ियों का जाला। मुझे बाबुओं की बात

याद आ गई वह जाल, जो स्वयं को फंसाने के लिए मैंने अपने आप ही तैयार कर लिया था। सहसा मैं चौंक उठा। मेघ उमड़ने लगे। वर्षा प्रारंभ हो गई। मूसलाधार। मुझे कंपकंपी हो आई। रेखा के नेत्रों से अश्रुओं को अविरल धारा प्रवाहित हो चली थी।

    मेरा हृदय द्रवित हो उठा तो मैंने उसे धैर्य का बांध बंधाया मैं छपवाऊंगा, एक नहीं दो नहीं सैकड़ों गीत, तब तक जब तक कि रेखा अपने आप लिखकर स्वयं ही न छपवाने लगे।

     आसमान साफ हो गया। प्रभातकालीन समीरण के मस्त झोंके का मादक स्पर्श प्राप्त कर वृन्त झूम उठे। वातावरण नितांत शान्त, शीतल और स्निग्ध हो चला था। उल्लास की मिठास पकवानों के व्याज मेरे मुख में अनायास ही समाहित होने लगी।सहसा रेखा को स्मरण हो आया।

'सर, साथ में चाय लेंगे या शरबत?'

'चाय'- मैंने कहा। मैं अपने हृदय की समस्त कालिमा को जला डालना चाहता था।

रेखा ने खानसामा को बुलाया और तुरंत चाय बना लाने का आदेश दिया।

खानसामा सकपका गया। डरते-डरते बोला- 'दूध खत्म हो गया है मैडम। सिर्फ कुत्तों के लिए बचा रखा है थोड़ा सा।'

'नानसैन्स!'- रेखा चीख उठी 'तुम्हें चाय बनाकर लानी ही होगी। दूध बचाकर क्यों नहीं रखा गया? कुत्तों के लिए दूध और मास्टर जी के लिये नहीं। नालायक कहीं का। मैं कहती हूँ तुझे चाय बनाकर लानी होगी अभी, इसी वक्त।'

रेखा गुस्से से पागल हो उठी थी लेकिन मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी।

कुत्ता, कवि, अध्यापक और इन्सान।

मैं गंभीरतापूर्वक मनन करने लगा। किंतु दो क्षण में ही मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ गई- 'रेखा, तुम्हें सबसे अधिक कुत्तों से प्रेम है न?'

रेखा की आंखें झुक गई 'मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ सर!'

दूसरे ही क्षण रेखा फफक-फफक कर रो रही थी और अगले वर्ष भी रेखा को मैं ही पढ़ा रहा हूं।


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... आघात। हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।



राकेश से जब भी मेरी किसी विषय पर बातचीत हुई, उसने सदैव मुझे दकियानूसी बताया। इससे पहले वह मुझे चार वर्ष पूर्व मिला था। उस समय एक जगह से मेरे रिश्ते को बातचीत चल रही थी। राकेश मेरे घर आया। और मुझसे लड़की की पसंदगी के बारे में पूछने लगा।
    मैंने कहा, 'लड़की तो अच्छी बताते हैं लेकिन मेरे पिताजी को यह रिश्ता जंच नहीं रहा है।' 'देखो सुधीर’– राकेश यह सुनते ही उबल पड़ा,– मेरा और तुम्हारा दस वर्ष तक साथ रहा लेकिन तुमने मेरे विचारों को समझने की कभी कोशिश नहीं की। मैंने तुमसे कितनी बार कहा होगा कि विवाह शादी में लेन-देन का बंधन वैवाहिक संबंधों को सदा के लिये खोखला बना देता है। तुम्हारे पिताजी जरूर दहेज में मोटी रकम चाह रहे होंगे। नकद रुपया और माल न देने वाले किसी भी घर की लड़की उन्हें कभी पसंद आयेगी ही नहीं।
 मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि मेरे पिता जी के विचार इस प्रकार के कदापि नहीं हैं। संबंध चाहे लड़की का हो अथवा लड़कों का, वे धन को महत्व न देकर उसके शील, स्वभाव और उत्तम खानदान का ही ख्याल रखते हैं।
   राकेश की प्रगतिशील विचारधारा में विवाह संबंधों में यह बंधन भी ढकोसले थे। इसलिये उसने पुनः अपनी प्रगतिशीलता बखाननी शुरू कर दी, 'शादी विवाह व्यक्तिगत जीवन का प्रश्न है। यदि लड़की देखने-भालने में अच्छी हो और तुम्हारे विचार उसकी मान्यताओं से मेल खा रहे हों तो फिर तुम्हें उसको अपना लेने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। कीचड़ में पड़ा हुआ सोना किसी भी व्यक्ति के लिए त्याज्य नहीं होता फिर यदि खानदान दुष्ट भी है तो उसमें से एक निरपराध कन्या को उबार कर नया जीवन दे देना क्या हमारे समाज का कर्तव्य नहीं?'
    राकेश की तर्कशक्ति से मैं भलीभांति परिचित था इसलिये मैंने बात आगे बढ़ाना उचित न समझकर यह कहकर उससे पीछा छुड़ाया 'मैं इन सब बातों को भलीभांति समझता हूं राकेश, किंतु अपने माता-पिता के आदेश का उल्लंघन करने का सामर्थ्य मेरे अंदर नहीं है।'
   और वास्तव में पिता जी की इच्छा के अनुसार मेरा संबंध वहां से नहीं हो सका बल्कि नगर के एक अच्छे खानदान की लड़की से मेरी शादी तय हो गई। भगवान ही जानता है कि मेरे विवाह में नकदी के नाम पर एक छोटा पैसा भी प्राप्त हुआ हो किंतु वधू के शील, सौंदर्य और व्यवहार की सभी देखने वालों ने प्रशंसा की।
   इसके बाद मुझे नौकरी मिल गयी। मैं आसाम चला गया और राकेश उसी नगर में रहकर अपने पिता के व्यवसाय में लग गया।
     सुदीर्घ अवधि के उपरान्त जब मैं आसाम से लौटा तो घर में घुसते ही सबसे पहले मैंने अपने मित्र राकेश की खैर-कुशलता के विषय में पूछताछ की। बड़ी भाभी जी मानों पहले से ही इस संबंध में वार्तालाप करने के लिए समुत्सुक बैठी थीं। विषय छिड़ते ही जोर से हंस पड़ीं। बोलीं- उनकी तो बड़ी दुर्दशा हुई पिछले वर्ष। निश्चिंत रहिए लालाजी, अब राकेश भाई साहब पहले जैसे नहीं रह गए हैं। उनकी समस्त मान्यतायें विपरीत हो गई हैं, विश्वास डिग गए हैं और तर्कशक्ति भी पहले जैसी नहीं रही है। आजकल तो वे बड़ा खोया खोया सा अनुभव करते रहते हैं।
    मैं असमंजस में पड़ गया। ऐसी कौन सी विचित्र शक्ति का प्रादुर्भाव हो गया मेरे पीछे, जिसके विचारों के हठात् राकेश बाबू के निश्चयों को डिगा दिया। मैं विस्मयपूर्ण दृष्टि से टकटकी लगाए हुए भाभीजी की ओर ताक रहा था कि उन्होंने स्वयं ही मेरा समाधान करने के लिए बड़े रोचक ढंग से राकेश की आपबीती सुनानी शुरू कर दी- एक दिन राकेश बाबू अकेले ही अपनी कोठी में बैठे हुए थे कि सहसा एक अपूर्व सुंदरी
नवयुवती ने उसमें प्रवेश किया। अचानक ही एक अज्ञात नवयौवना को अपने सामने देखकर वे सकपका गए लेकिन युवती संकोच रहित होकर राकेश बाबू के सामने वाले कोच पर बैठ गई। राकेश बाबू की प्रश्न सूचक दृष्टि उसके मुख पर जा टिकी।
    युवती ने कुटिलतापूर्वक होठों से मुस्कराते हुए एक बार कृत्रिम निःश्वास भरा और अपनी कहानी का बखान शुरू कर दिया- 'बाबू जी हम बाढ़ग्रस्त दक्षिणी क्षेत्र की विपदा की मारी कुलवती नारी हैं। भयंकर बाढ़ आ जाने के कारण हमारा धन, माल, जानवर, बच्चे सब कुछ बह गया। खुद हम भी पानी में बह निकले। चारों तरफ भयंकर वेग से उमड़ता हुआ जल ही जल दिखलाई पड़ता था। जानवरों की चिंघाड़ और बच्चों की चीत्कार सुनकर हम सिहर उठीं... फिर हमें होश नहीं कि क्या हुआ। सरकार के आदमियों ने हमें निकाल लिया। हम घर-बार विहीन होकर टक्करें खाने लगीं। अब हम अपने इलाके को वापस जाना चाहती हैं। बाबू, आप दो रुपए, चार रुपए देकर हमारी मदद करिएगा।
   राकेश बाबू युवती के अपरूप सौंदर्य को एक टक निहारते चले जा रहे थे। अंग-अंग से प्रस्फुटित उसके नवयौवन ने उन्हें सहज ही में विमोहित कर लिया। उनके हृदय की सुकोमल वृत्तियाँ जागृत हो उठीं। युवती की कुशल अभिव्यक्ति एवं करुण आत्म-कहानी ने भी राकेश बाबू के आदर्शवाद को एड़ लगा दी। वे मन मन बुदबुदा उठे- 'विपदा की मारी सुशिक्षित सुंदर नवयुवती। इसके द्वारा क्या अपने जीवन को सार्थक नहीं बनाया जा सकता ? वह अवश्य प्रयत्न करेगा। और इसलिए प्रकट में उन्होंने नवयुवती से प्रश्न किया-
'यहीं कहीं गृहस्थी बसाकर रहना प्रारंभ क्यों नहीं कर देतीं आप?'
युवती के अधरों पर हल्की सी मुस्कराहट बिखर उठी। उसने अपनी सलज्ज दृष्टि को राकेश बाबू के चेहरे पर टिका दिया और बोली-
 'हमारी पसंद ना पसंद का क्या मूल्य है बाबूजी? हम अज्ञात कुल वाली नारी को कौन व्यक्ति अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहेगा।'
   युवती के हावभाव से राकेश जी का धैर्य विखण्डित होता जा रहा था। तभी सहानुभूति और आकर्षण से अनुप्राणित उनका आदर्शवाद भी मुखरित हो उठा।
'ये सब दकियानूसी विचार हैं। लड़की यदि सुंदर, सुशिक्षित और सुशील हो तो केवल मात्र कुलीनता आदि की अज्ञातावस्था में उसको त्याज्य समझना बड़ा भारी अपराध माना जाना चाहिए।'
कुछ क्षण युवती की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए भावावेश में आकर वह पुनः बोल उठे - 'यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं तुम्हें इस घराने की वधू बनाने के लिए तैयार हूँ।'
'क्या यह सच है?' युवती ने सहसा आश्चर्य व्यक्त किया।
’एक दम सत्य! उतना ही जितने हम और तुम।'
'नि:संदेह आपके आदर्श महान् हैं।' लड़की बुदबुदा उठी।
'आप सदृश महान आत्मा की चरणदासी बनने के सौभाग्य से कौन अभागिन अपने को वंचित
रखना चाहेगी?'
और तबसे उस नवयुवती ने राकेश बाबू के घर में रहना प्रारम्भ कर दिया। दोनों के दिन बड़ी हंसी-खुशी से व्यतीत होने लगे। राकेश बाबू रात-दिन उसके प्रेम में सराबोर रहते और वह भी उसके प्रतिदान स्वरूप स्वयं को समस्त सौंदर्य प्रसाधनों से प्रसाधित करके नारी-सुलभ काम-कलाओं से उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किये रहती और एक माह के अंदर ही उस नवयुवती की मनोकामना पूर्ण होने को आ गई। वह गर्भवती हो चुकी थी।
  मित्रवर राकेश की यह कहानी मैं बड़ी उत्सुकता के साथ सुन रहा था। सहसा भाभीजी सुनाते-सुनाते रुक गईं और मुस्कराने लगीं।
मैं व्यग्रतापूर्वक बोला 'फिर क्या हुआ भाभी जी?'
'वह दुखदायी घटना जो हमारे लिए हँसी मजाक थी किंतु राकेश बाबू के लिए सबक सिखाने वाली वस्तु बन गई। भाभीजी पुनः गंभीर हो चली थीं।
'एक दिन राकेश बाबू कहीं बाहर गए हुए थे। वापस लौटे तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को कहीं जाने के लिए तैयार पाया। वे मुस्कराते हुए ज्यों ही उसके निकट पहुंचे उसने अपनी कुटिल दृष्टि ऊपर उठाई और बोल उठी- 'मेरे लिए इसी समय बीस हजार रुपए का प्रबंध कर दीजिए राकेश बाबू!' नवयुवती के स्वर में तीखापन था।
'ओह तो आप ऐक्टिंग करने में भी अत्यन्त निपुण हैं।' राकेश बाबू मुस्करा दिये- 'सच, इस
मुद्रा में कितनी खूबसूरत लगती हो तुम!'
'बकवास बंद कीजिए, बाबू जी, शराफत इसी में है कि बीस हजार रुपया चुपचाप मेरे हवाले कर दीजिए। युवती ने रोष से आँखें तरेर दीं।
राकेश बाबू का मुख विवर्ण होने लगा। बोले- 'कहीं पागल तो नहीं हो गई हो तुम?' 'पागल मैं हूँ या आप इसका पता शीघ्र ही चल जायेगा आपको, जब में पुलिस में जाकर रिपोर्ट लिखवाऊंगी कि मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर आपने बलात्कार किया है मेरे साथ और जब मेरी डाक्टरी परीक्षा कराई जाएगी तो दुनिया थूक उठेगी तुम्हारे मुँह पर और तुम्हारी लाखों की इज्जत क्षण मात्र में मिट्टी में लोटती दिखाई देने लगेगी.....।'
   ओफ! राकेश जी को जैसे काठ मार गया हो। उनके हृदय पर सैकड़ों बिच्छुओं ने एक साथ प्रहार कर दिया मानो। वे चीख उठे-
'धोखा? तुमने धोखा किया है मेरे साथ!'
'चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं बनता-बिगड़‌ता है राकेश बाबू! अच्छी तरह से सोच-समझ लीजिए। मैं आपसे अंतिम बार कह रही हूँ कि यदि आपको अपनी और अपने खानदान की इज्जत प्यारी है तो तुरंत बीस हजार रुपया लाकर मेरे हाथ पर रख दीजिए कहती हुई युवती जाने का उपक्रम करने लगी। ठहरो! राकेश बाबू चिल्ला उठे और चुपचाप तिजोरी की ओर मुड़कर उसमें से बीस हजार रुपए निकालकर उसके हाथ पर रख दिए।
रुपए हाथ में लेकर युवती ने एक बार नमस्ते किया उनको, और कुटिलतापूर्वक मुस्कराती हुई दरवाजे की ओर मुड़ गई।
   राकेश बाबू के आदर्शवादी चिंतन पर यह गहरा आघात था जिसे वे जीवनपर्यन्त विस्मृत न कर सके।

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... रंगपुर का बांका । हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

 


खेतों और खलिहानों के मध्य विचरण करती हुई यशोदा ने यौवन के द्वार में प्रवेश किया। उसके अप्रतिम सौंदर्य में निराली मादकता का विकास प्रारम्भ हो गया किंतु उसके हृदय और स्वभाव की शुद्धता एवं निष्कपटता में कोई अंतर नहीं आया। उसे न तो गांव भर में किसी से ईर्ष्या थी, न द्वेष और न ही किसी के प्रति विशेष आकर्षण। माता-पिता को उस पर विश्वास था और इसीलिए स्वच्छंदतापूर्वक वह कहीं भी घूम-फिर सकती थी। गांव में कोई उसका दादा था, कोई ताऊ तो कोई चाचा। समवयस्क और छोटे बच्चे सभी उसके भाई-बहन थे।


एक दिन अमराइयों में गुजरते हुए उसे किसी ने पुकारा- यशोदा!

यशोदा ठिठक गई। एक युवक उसकी ओर आ रहा था।

'जी, मैं आपको पहचानती नहीं।' यशोदा ने विनम्रतापूर्वक आगवानी की।

'अरे वाह, लखनऊ से आया हूं तुम्हारे दर्शन के लिए। जमींदार बाबू के लड़के ने तुम्हारे बारे में बताया था मुझको।'

'बताया होगा; बोलिये मैं आपको क्या सेवा कर सकती हूँ?'

’सेवा! सेवा तो मुझे करनी चाहिए तुम्हारी। भगवान ने तुम्हें कितना खूबसूरत बनाया है।’

'माफ कीजियेगा मेरे पास फिजूल की बातें करने का समय नहीं है' कहती हुई यशोदा चलने को उद्धत हो गई।

ऐसा न करो डियर! बांका युवक उसको भुजाओं में बाँधने के लिए आगे बढ़ा। यशोदा सावधान हो गई। उसके बलिष्ठ हाथों ने जोर का धक्का दिया। युवक चारों खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ा। सिर में गहरी चोट आई।

'समझे! भविष्य में कभी ऐसी हरकत करने की कोशिश मत करना' युवक की ओर कातरतापूर्ण दृष्टि से देखती हुई यशोदा बोली 'इस गांव के सभी युवक यहाँ की समस्त युवतियों के भाई होते हैं श्रीमानजी।"

बहन!.... बांका बुदबुदाया लेकिन यशोदा तब तक बहुत दूर जा चुकी थी। युवक यशोदा के साहस और शुचिता पर अभिभूत था। बहन के रिश्ते की मर्यादा को भी वह भलीभांति जानता था।

अतः लज्जावनत मुख किये वह अपने स्थान की ओर चला गया।

विवाह के बाद यशोदा ससुराल जा रही थी।

'गाड़ियां रोक दो!' हट्टे-कट्टे, सुगठित शरीर वाले एक नकाबपोश की कर्कश आवाज से सारा जंगल गूंज उठा।

गाड़ियां रुक गईं। सारे बाराती भयभीत हो गये।

'सब लोग हाथ ऊपर करके खड़े हो जाइये' नकाबपोश का दूसरा आदेश हुआ, सभी बाराती एक ओर जाकर चुपचाप खड़े हो गये। नकाबपोश रथ की ओर बढ़ा 'सारे जेवर ईमानदारी से उतार कर सौंप दो वरना तुम्हें और तुम्हारे पति सहित सारे बरातियों को मौत के घाट उतार दिया जायेगा।'

वधू ने अपूर्व धैर्य का परिचय दिया 'ईमानदारी? सज्जनों के आभूषण का अपहरण करने वाले बेईमान! मौत? ब्रह्मा के विधान को अपने हाथ में लेने वाले दुराचारी! कौन हो तुम? निर्जन वन प्रदेश में कायरों की तरह डरा-धमका कर लूटमार करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती।'

'मैं कतई बकवास सुनना नहीं चाहता। मुझे सिर्फ तुम्हारे जेवर चाहिए।' आवेग में आकर नकाबपोश ने रथ के परदे को फाड़ डाला।

'अयं यशोदा! उसके मुँह से हल्की सी चीख निकल पड़ी 'बहन! ओह, इस गाँव के सभी

युवक....।' उसने साथियों को आदेश दिया। सबके सब देखते ही देखते नौ दो ग्यारह हो गये। यशोदा को गाँव की अमराइयों के मध्य की घटना का स्मरण हो आया।

बाराती रथ की ओर बढ़े। वधु सकुशल थी। आश्चर्य है कि डाकू उसका एक भी जेवर नहीं ले गये।

बारात थोड़ी दूर पहुंची होगी कि फिर वही नकाबपोश आता हुआ दिखाई पड़ा। उसने अपना घोड़ा रथ के पास रोक दिया। हाथ में लाई हुई पोटली को रथ के भीतर फेंक कर वह तुरंत गायब हो गया।

सम्पूर्ण घटना सुनने से पूर्व ही सास का निश्चित मत प्रसारित हो गया जरूर कोई यार रहा होगा इस कुलच्छिनी का।

मौहल्ले की स्त्रियां एकत्र होतीं। वधू के रूप की सराहना करतीं तो सास के शरीर में चैंके लग जाते- मरे इस रूप ने ही तो सारा सत्यनाश कर डाला होता, वह तो भगवान की खैर कहो, नहीं तो यह डायन तो उसी दिन सबको भख लेने पर तुली थी।

विवाहित जीवन के सुखद स्वप्नों की परिकल्पना करने वाली नववधू भाग्य को दोष देकर सबकुछ चुपचाप सहन करती रहती। उसके पति किसी दूर के शहर में सरकारी नौकरी पर थे। कुछ दिवस उपरान्त वे अपने काम पर चले गये। गृहस्थी बसाने में बड़ा खर्च बैठेगा इसलिए बहू को सास के पास ही छोड़ दिया। कभी-कभी महीने, दो महीने में एकाध चक्कर लगा जाते। उनका आना यशोदा के रेगिस्तान में सदृश जीवन में मरुउद्यान के समान होता। बाद में पुनः रेत ही रेत! सास के ताने और नन्द देवरों की झिड़कियाँ।

समय व्यतीत होता गया। इन पंद्रह वर्षों के दीर्घ काल में यशोदा ने चार संतानों के अतिरिक्त अन्य कोई सुख न माना। चारों ओर से आघात सहन करता हुआ उसका हृदय भगवत भक्ति की ओर उन्मुख हो गया।

अन्य सोमवारों को भाँति यशोदा इस सोमवार को भी गंगा स्नान करने के लिए गई। लौटते समय उसकी दृष्टि एक अत्यन्त क्षीणकाय भिखारी पर पड़ी। आकृति कुछ परिचित सी लगी। ठिठक गई।

गौर से देखा तो स्तब्ध रह गयी। गाँव की अमराइयों और लौटती हुई बारात का चित्र आँखों के सम्मुख घूम गया। वह अधिक देर स्थित न रह सकी। पुकारा भैया!

भिखारी ने अपनी आँखें ऊपर उठाई ; फिर सहसा ही अपना मुँह घुटनों के बीच में छिपा लिया।

'तुम्हारी यह दशा कैसे हुई भैया?' यशोदा से रहा न गया।

भिखारी फिर भी शान्त भाव से मुख नीचा किये हुए बैठा रहा। किंतु यशोदा के अत्यधिक आग्रह

करने पर उसने अपनी आँखें ऊपर को उठाई। और अस्फुटित शब्दों में अपने पाप-पूर्ण अतीत का वर्णन प्रारम्भ कर दिया।

बाल्यकाल में ही बुरी संगति। घर छोड़कर भाग निकलना। वासनामय जीवन का प्रारम्भ। पैसे का अभाव इसलिए चोरी डकैती। रंगे हाथों गिरफ्तार होना। संगी-साथियों का बिछुड़ जाना। पंद्रह वर्षों का सश्रम कारावास। मुक्त होने पर वर्तमान दशा। रोमांचक घटनाओं का अ‌द्भुत क्रम। यशोदा काँप गई।

उसका हृदय द्रवित हो गया। बाँह पकड़कर उठाते हुए बोली- 'चलो, मेरे घर चलो भैया। जब तक तुम पूर्ण स्वस्थ न हो जाओ मेरे घर पर चलकर आराम करो।

ग्लानिवश मुख नीचा किये हुए भिखारी यशोदा के साथ हो लिया।

सास को अच्छा मौका मिल गया। यशोदा पर बुरी तरह फटकार पड़ी यह यारों का घर नहीं है बहुरानी। गृहस्थी है गृहस्थी। करम फूट गये हमारे तो! बाप ने शादी ही क्यों की थी, किसी यार के साथ बैठा दिया होता। तनिक चैन तो मिलता इसे!

यशोदा नित्यप्रति ऐसी बातें सुनने की अभ्यस्त हो चुकी थी। अतैव उसने उस ओर कोई ध्यान ही न दिया किंतु आगंतुक इन तीक्ष्ण कटाक्षों को सहन नहीं कर सका। मन ही मन भाग्य को कोसते हुए लड़खड़ाते कदमों से वह घर से निकलने लगा। पंद्रह वर्ष के कठोर कारावास ने उसे जर्जर बना दिया था। कहीं यशोदा न देख ले, इसीलिये जल्दी से चलना शुरू कर दिया। किंतु दरवाजे की चौखट नहीं लांघी गयी। पैर अटक गया। मुँह के बल औंधा गिर पड़ा। हल्की सी चीख निकल गई। यशोदा ने ऊपर से झांककर देखा। हतप्रभ सी दौड़ी नीचे आई। भैया के शरीर को झकझोरने लगी। सास भी आ पहुँची। भैया ने आंखें खोलीं। टूटे-फूटे शब्दों में बुदबुदाने लगा 'अपने पापों का फल मैंने यहीं पा लिया बहन! तुम एक काम करना। रंगपुर का कोई आदमी मिले तो कह देना...... सेठ नवलकिशोर......... के बेटे ने बड़े पाप किये थे....... और वह भिखारी का श्वांस छूट गया।

रंगपुर। नवलकिशोर! सास चौंक पड़ीं मेरे बहनोई। उसके मुख से चीख निकल पड़ी- शंकर! बेटा शंकर! वह खूब जोर-जोर से अलाप करने लगीं। चारों दिशायें गूंज उठीं लेकिन शंकर का शरीर सदा के लिए शान्त हो चुका था।

और यशोदा, मूर्तिवत खड़ी थी।

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की काव्य कृति ... मैं पद्यप। यह कृति जैमिनी साहित्य फाउण्डैशन द्वारा वर्ष 2022 में प्रकाशित हुई । डॉ काव्य सौरभ रस्तोगी के संपादन में प्रकाशित इस कृति की भूमिका डॉ डी एन शर्मा ने लिखी है । इस कृति में उनकी 37 काव्य रचनाएं हैं ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

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मंगलवार, 14 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की आठ शिशु व बाल कविताएं । ये कविताएं हमने ली हैं उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

 


1. तोते राजा

तोते राजा, तोते राजा। 

सोने के पिंजड़े में आजा। 

तुझे बनाऊंगा मैं राजा ।।


मिर्च और अमरूद खिलाऊं। 

राम-राम कहना सिखलाऊं। 

सारी दुनिया तुझे घुमाऊं ॥


तोता: सोना-चांदी मुझे न भाता। 

मेरा है कुदरत से नाता। 

जो भी मिल जाये वह खाता ।


हम पक्षी हैं गगन बिहारी। 

है स्वतंत्रता हमको प्यारी । 

पराधीनता है दुख भारी ।।


2. मछली रानी

मछली रानी, मछली रानी। 

वैसे तो तुम बड़ी सयानी। 

धारण करतीं रूप सलौना ।

जल में जैसे चांदी सोना ।।


उछल-कूद कर कला दिखातीं। 

बच्चों के मन को हर्षातीं। 

लेकिन तुमको लाज न आती- 

छोटी मछली को खा जातीं।।


मछली-मछली को नहिं खाये । 

भय और भूख सभी मिट जाये। 

रंग - बिरंगी छवि छा जाये । 

हम हर्षित हों, जग हर्षाये।।


3. कबूतर

श्वेत-श्याम और लाल कबूतर। 

करते खूब धमाल कबूतर । 

तनिक हिला दी डाल, कबूतर। 

उड़ जाते तत्काल कबूतर ।।


हम लेते हर साल कबूतर । 

खुश होते हैं पाल कबूतर । 

करते नहीं वबाल कबूतर। 

मुदित रहें हर हाल कबूतर।।


जब खाते तर माल कबूतर। 

खूब फुलाते गाल कबूतर।

चलते मोहक चाल कबूतर। 

हमको भाते बाल कबूतर।।


4. बादल 

उमड़-घुमड़ कर आते बादल। 

आसमान में छाते बादल । 

हम सबको हर्षाते बादल ।

गर्मी दूर भगाते बादल ।।


बरसा करने आते बादल। 

हमको हैं नहलाते बादल। 

छुट्टी करवा जाते बादल। 

हमको हैं अति भाते बादल ।।


पोखर को भर जाते बादल। 

खेती को सरसाते बादल । 

मोरों को मदमाते बादल । 

सबको खुश कर जाते बादल।।


हम भी बादल से बन जायें- 

सबको सुख दें, खुद हर्षायें।


5. अच्छे-अच्छों से अच्छे हम!

भारत माता के बच्चे हम ।

सीधे-साधे हैं सच्चे हम। 

हैं नहीं अकल के कच्चे हम। 

अच्छे-अच्छों से अच्छे हम।।


यह भारत देश हमारा है। 

यह सब देशों से न्यारा है। 

बह रही प्रेम की धारा है।

यह तारों में ध्रुवतारा है।।


यह राम-कृष्ण की धरती है। 

इसमें मर्यादा पलती है। 

वीरता मचल कर चलती है। 

बैरी की दाल न गलती है।।


दुश्मन की नजर निराली है। 

हमको भड़काने वाली है। 

रिपु-सैन्य अकल से खाली है। 

पिटती उसकी नित ताली है।।


अति वीर हमारी सेना है। 

हथियारों का क्या कहना है? 

दुश्मन तो चना- चबैना है। 

पर हमें शांति से रहना है।।


यदि हम अपनी पर आ जाएं। 

चिबड़े की तरह चबा जाएं। 

घुड़की यदि दे दें दुश्मन को- 

भागें, पाताल समा जाएं।।


6. नेकी का अंजाम

ऊधमपुर में एक बेचारी, 

विधवा बसती, थी कंगाल। 

किसी तरह थी दिवस बिताती- 

बेच पुराना घर का माल।


एक दिवस वह ज्यों ही निकली, 

लेकर टूटे-फूटे थाल। 

तभी द्वार पर देखा उसने- 

घायल एक विहग बदहाल।


हृदय हो गया द्रवित, 

देखकर- बहती हुई खून की धार। 

किया तुरत उपचार, स्वस्थ हो- 

चला गया अपने घर-द्वार।


कुछ दिन बाद एक दिन आया, 

वह पक्षी ले दाना लाल। 

पा उसका संकेत माई ने- 

क्यारी में बोया तत्काल।


हर्षित होकर उस वृद्धा ने- 

समझ इसे विधना का खेल। 

देखभाल की उसकी निशिदिन- 

तो उसमें उग आई बेल।


उगा एक तरबूज बेल पर 

समझ उसे पक्षी का प्यार। 

तोड़ लिया वृद्धा ने उसको 

ज्यों ही पक कर हुआ तैयार।


लगी काटने बड़े चाव से, 

वृद्धा मन में भर उल्लास । 

स्वर्ण मुहर उसमें से निकलीं- 

जब माई ने दिया तराश।


हुई प्रसन्न अकिंचन वृद्धा, 

पाकर स्वर्ण मुहर अनमोल। 

देन समझकर परमेश्वर की, 

उसने वे सब रखीं बटोर।


नेकी करने का दुनिया में, 

कैसा अच्छा है अंजाम। 

उन्हें बेच करके वृद्धा ने 

चुका दिये निज कर्ज तमाम


7. हमको खूब सुहाती रेल

छुक-छुक करके आती रेल, 

हमको है अति भाती रेल,

प्लेटफार्म पर आकर रुकती, 

कोलाहल कर जाती रेल।


हलचल खूब मचाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


तीर्थ और मंदिर दिखलाती, 

गौरवमय इतिहास बताती, 

गिरि-कानन, नादियों-झरनों पर 

खुशी-खुशी सबको ले जाती।


सुखमय सैर कराती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


बिजली, तेल, कोयला खाती, 

पानी पी-पी शोर मचाती, 

भीमकाय इंजन से लगकर, 

आती, ज्यों बौराया हाथी।


हमको खूब डराती रेल। 

हमको नहीं सुहाती रेल।


हरिद्वार की हर की पैरी, 

या प्रयाग की संगम लहरी, 

शहर बनारस की धारा या, 

कलकत्ता की गंगा गहरी।


सबको स्नान कराती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


कोई चना, चाट ले आता, 

कोई गर्म पकौड़े खाता, 

चाय गर्म की आवाजों से- 

सोया प्लेटफार्म जग जाता।


तंद्रा दूर भगाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


कितनी सुंदर है, अति प्यारी, 

सभी रेल पर हैं बलिहारी, 

रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर 

चहक रहे सारे नर-नारी।


मंजिल पर पहुंचाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


इंजन कुछ डिब्बे बन जायें, 

हम बच्चों को सैर करायें, 

दीन-दुखी दिव्यांगों को हम- 

खूब घुमायें, खूब रिझायें।


हमको यह सिखलाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


सीमाओं पर विपदा आती, 

फ़ौजों को रण में पहुंचाती, 

आयुध और खाद्य सामग्री- 

सैनिक शिविरों में ले जाती।


हमको विजय दिलाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।।


8. गौरैया

सुबह-सुबह छत पर आ जाती गौरैया,

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


रात हुई जाकर सो जाती। 

प्रातः कलरव खूब मचाती, 

चीं-चीं, चीं-चीं, चीं-चीं करके 

हमें लुभाती, तुम्हें लुभाती।


धरती पर ऐश्वर्य लुटाती गौरैया! 

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया ?


पंखों में स्वर्णिम रंग भरा, 

वाणी में मृदुल मृदंग भरा, 

है रति के बच्चों सी लगती, 

अंगों में मुदित अनंग भरा।


यह कितना मीठा राग सुनाती गौरैया !

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


नीलगगन में उड़कर आती, 

शिशुओं का भोजन है लाती, 

चीं-चीं करते बच्चों को वह- 

खूब खिलाती, खूब पिलाती।


थपक-थपककर उन्हें सुलाती गौरैया।

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


नन्हीं परियों जैसी भाती, 

कलरव करती मन हर्षाती, 

छोटे बच्चों की खेल सखी, 

पल में आती पल में जाती ।


घर में उत्सव सा कर जाती गौरैया! 

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


जनम जनम का इससे नाता, 

इसे न देखे मन अकुलाता, 

देख अलिन्दों या वृक्षों पर 

अपना मन हर्षित हो जाता।


आती फिर फुर से उड़ जाती गौरैया।

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?