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बुधवार, 2 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ जगदीश शरण का व्यंग्य ------"तमाकू पर प्रवचन "


          अपने कॉलेज जाने के लिए घर से निकलकर जैसे ही मैं नुक्कड़ पर स्थित पान के खोखे के करीब पहुँचा, अपने पोपले मुख के सींक से भी पतले होठों में सुरती दबाए मेरे जाहिल भतीजे लल्ला ने मेरा रास्ता रोक लिया। मैंने उसे तत्काल घुड़का लेकिन रेल-ड्राइवर के बार-बार सीटी बजाने पर भी रेललाईन से न हटनेवाले गधे की तरह वह बेग़ैरत अपनी जगह से टस-से-मस न हुआ। आखिर मैंने रुक जाना ही उचित समझा।

       मैंने देखा, लल्ला आज पूरे राजसी ठाठ में दिखाई दे रहा है। मैंने पूछा, 'लल्ला, इतना बनठन कर आज कहाँ बिजली गिराने जा रहा है ?'

      मेरे इस सवाल पर वह जैसे वायदा करनेवाले किन्तु बाक़ायदा वायदा न निभानेवाले आधुनिक प्रपंची अँगूठाछाप नेताओं के द्वारा छली गई पढ़ी-लिखी गंवार जनता के दिमाग़ी 'स्टैंडर्ड' पर बू-हू-बू-हू कर हँसने लगा । उसके इस तरह रस और अलंकारविहीन हँसने पर उसे कम, मुझे ज्यादा लज्जा का अनुभव हुआ। मैं अतिउच्चशिक्षित जो ठहरा !

       अपना थोबड़ा गगनोन्मुख किए, ताकि होठों में दबी सुरती से प्राप्त उसके मुख का कहीं  स्वाद न बिगड़ जाय, वह मुझसे बोला, 'चच्चा ! तुम परोफेसर हो या घनचक्कर ?' मिडिल एजुकेशन के पहले सोपान पर ही चार बार चित्त अपनी ' चाणक्येबिल' बुद्धि से रेलवे का ठेकेदार बनने से लेकर यूनियन का अगुआ बन जाने तक का सफर तय करनेवाले लल्ला के मुखारविंद से ऐसे सरस शब्द सुनकर मैं किंचित बौखला-सा गया, ' मतलब ?'

     'मतबल जे परोफेसर साब ! भाषण देने जा रहा हूँ नरक...ऊँह, नगर निगम में । तमाकू निषेध दिवस है न आज, इसलिए'--लल्ला ने सुरती की पहली पीक थूककर कहा ।

        प्रोफेसर होने के कारण अब मुझे दूसरी बार घोर लज्जा का अनुभव हुआ फिरभी साहस बटोरकर मैंने उससे पूछ ही लिया, 'लल्ला, तू खुद तम्बाकू का सेवन करता है, तू ही उसका सेवन न करने का लोगों को भाषण देगा...!' कमबख्त सुरती को खाये बिना उसे जैसे कोई फ़लसफ़ा न सूझता हो, अपने होठों में दबी सुरती को थूक तथा पुनः नवीन सुरती को रगड़ मुँह में फाँकते हुए मेरे कान में, तनिक निकट आकर वह बोला, 'चच्चा ! सब ढोंग है, ढोंग ! निरी नौटंकी ! दिखावा ! ! कबीर कहते -कहते मर गए । जरा बताओ, मस्जिदों में ऊँची आवाज़ में अजान देना बंद हुआ, क्या ? मन्दिरों में जोर-जोर से घण्टे-घड़ियाल बजने बन्द हुए, क्या ?' 

     मैंने देखा, लल्ला निरन्तर सीरियस होता जा रहा है । सुरती को थूक अंगोछे से मुँह को साफ करते हुए करीब तीस सेकेंड का इंटरवेल लेने के बाद उसने स्टेशन पर किसी ट्रेन के आने की सूचना देनेवाली कम्प्यूटराइज़्ड लेडी एनाउंसर की तरह लगातार बोलना जारी रक्खा, 'देखो, चच्चा ! सीधी और सपाट बात है। तमाकू बेचने और बिकवाने का धंधा जब सरकार खुद करवा रही है तो तमाकू खाने से नुकसान पर बेहूदा प्रवचन क्यों ? चच्चा, कोई ऐसा भी है जिसका खुले माल पर जी न ललचाए ? यह तो किसी को गड्ढ़े में धकेल फिर बाहर निकालनेवाली मसल हुई न ? या तो गड्डा खोदो मत। खोदोगे, कोई-न-कोई उसमें गिरेगा तो जरूर।'

       किसी शोध-प्रबंध का समाहार लिखनेवाले अनुसन्धितसु  की भांति मैंने निष्कर्ष निकाला कि लल्ला ने जो कुछ कहा उसमें सौ फीसदी सच्चाई है। पिछले बाईस सालों से प्रतिवर्ष अतंर्राष्ट्रीय तम्बाकू निषेध दिवस पर तम्बाकू के ख़तरों के प्रति लोगों को जागरूक करने के बाद भी हर साल करीब सत्तर लाख लोग तम्बाकू की कब्र में दफन होने पर अब आम लोगों को नहीं, सरकारों को जागरूक करने की गहरी आवश्यकता है।

   ....मैं अपने चिंतन को और विस्तार देता, सहसा  मेरे कन्धे पर किसी ने हाथ रक्खा। देखा, मेरा वही ज़ाहिल भतीजा लल्ला अपने श्रीमुख पर फैली हँसी की आड़ी-तिरछी तरंगों से उद्भूत शब्दों से जैसे मेरी प्रोफेसरी पर व्यंग्य कर रहा हो ! बोला, 'अच्छा, चलता हूँ। तुम्हारे चक्कर में चाय-समोसों से भी हाथ धो बैठूंगा ।'

       और, वह पुनः सुरती को होठों में ठूंसते तम्बाकू निषेध दिवस पर प्रवचन देने के लिए चल पड़ा । 

       ✍️ डॉ जगदीश शरण,  217, प्रेमनगर, लाइनप, माता मंदिर गली, मुरादाबाद-- 244001, उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल :  983730 8657 


 

रविवार, 6 दिसंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ जगदीश शरण के खण्डकाव्य "जय मुक्ति-दूत" से कुछ अंश -----। डॉ भीमराव आंबेडकर के दर्शन पर केंद्रित उनकी यह कृति वर्ष 2012 में नवभारत प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुई है ।


वह दुष्काल सन् छप्पन का था
      तीव्र  शमन  की     सन्धि- बेला,
विश्व समोद  रश्मियों  से जब
       शिशु-सा  खेलता था   अकेला ।

क्रूर  काल  की  तम आँधी में
       वह  दीपक - ज्योति क्षीण हुई,
नवयुग की नवसृष्टि   ललाम
         हा ! पंचभूत  में विलीन   हुई ।

रोये  खेत,  खलिहान,  किसान
         रोये पशु -पक्षी  सकल  विस्मित,
रोये  वृक्ष  नव  किसलय  त्याग
          रोये   भारत   के  नेत्र   थकित !

वह  तापस धुनी त्राणक प्रवर
      पार्श्व  असंख्य  पग भू  के  बल,
प्रेरित  स्वर्गिक   मुहुर्त  अक्षर
       धँसता  वर्ण  भू   तमस  दलदल !

मुक्त  शब्दों  की करो घोषणा
       मुक्त  गति, लय, कविता और छंद,
मुक्त   देश के  मुक्त सभी  जन
         विचरण   करें  नित  हो स्वच्छंद  !
      
धन्य, समता तापस धुनी वर
        जटाजूट  शुचि  गंग  बहाकर,
प्रक्षालित पंक दलित पंगु चरण
         अज्ञ शठ हठि मुनि मान ढहाकर !

विजय नरता की कहिए,अथवा
      खल  मानव  की  अंध   पराजय,
जड़ -चेतन-मुक्ति-समर कहिए,
       युग  आग्रह या धर्म  का निश्चय  !

शीतल  हुई  रे त्रसित धरती
    भीष्म  ग्रीष्म  आतप  से  तपकर,
युग नभ रवि तन भस्म रमाये
      तापस  मुक्ति  नव  भासित प्रवर !

 ✍️ डॉ जगदीश शरण,  217, प्रेमनगर, लाइनप, माता मंदिर गली, मुरादाबाद-- 244001, उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल :  983730 8657 

शनिवार, 28 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ जगदीश शरण का व्यंग्य -------चुनाव: एक प्रत्याशी की भावभीनी प्रार्थना

   


  "हे आदरणीय मतदाताजी ! मेरे प्रभु ! हे मेरे भाग्य-विधाता ! अन्नदाता ! मेरे परिवार के रक्षक ! हे मेरी तकदीर के निर्माणकर्ता ! मैं तुमसे पूरे पाँच साल दूर रहा । तुमसे मिलने का औसर ही न मिला । तुम जानते हो, प्रभु ! इस लम्बे गैप में मेरे दिल पर क्या बीती ? एक-एक पल तुमसे मिलने को आतुर रहा; पर कमबख्त इस शरीर में घुसे पंचविकारों ( काम, क्रोध, माया, मद, मत्सर ) ने तुमसे मिलने न दिया । जब भी तुमसे मिलने का प्रयास करता, ससुरा 'काम'  रोक लेता । वैसे, मैंने समाज में 'काम' खूब किया । इस 'काम' में मैंने, सच पूछो तो, न छोटा देखा न बड़ा । आयु, लिंग व धर्मनिरपेक्ष रहा तथापि 'काम-वृत्ति' और 'निवृत्ति' के परस्पर द्वन्द्व से उपजे 'क्रोध' को कुछ कम करने का सद्प्रयास करता तो 'माया' के 'जम-जाल' में फँस जाता । कबीर के लिखेनुसार, 'माया'  "महाठगिनी'' तो है पर ससुरी को खुद हमने ही ठग लिया । हम 'महाठग' जो ठहरे ! अपने 'परमपद'  के 'परममद' ( तीव्र अहंकार ) में कमबख्त हम इतने 'मत्सरी' ( लालची ) हो गये कि स्वदर्शन में मगन हम तुम्हारे दर्शनों से चिरलाभान्वित होने के बजाय चिरवंचित होकर चिरनुकसानन्वित हो गये ! किन्तु , हे परन्तप ! मैं अब इन पंच चोरों से मुक्त होकर तुम्हारी शरण में आया हूँ ।

   "हे मेरी पंचवर्षीय कुसफलीभूत कुयोजना के निर्माता ! पूरे पाँच साल बाद मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ । अपने आराध्य के दर्शनों की इतनी लम्बी अवधि के उपरान्त अपने भक्त के हृदय में छिपी गहरी लालसा को तो तुम समझते ही हो, प्रभु ! संसार जानता है कि तुम कितने गुणी हो और मैं कितना अवगुणी ! बार-बार गलतियाँ करने पर भी तुम मुझे छिमा कर देते हो । तुम कितने दयालु हो ! बस, एक बार और छिमा कर दो, भगवन् !

  "अंई....क्या कहा, प्रभु ? छिमा कर दिया ? ओह, धन्य हो तुम ! धन्य है तुम्हारी महादयालुता और धन्य है तुम्हारा महाज्ञान ! !


 ✍️ डॉ. जगदीश शरण

 डी- 217, प्रेमनगर, लाइनपार, माता मंदिर गली, मुरादाबाद-- 244001, उत्तर प्रदेश ,भारत

मोबाइल :  983730 8657  

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ जगदीश शरण की पंद्रह कुंडलियां -----


               ( 1)

गुन के तांई सब नवैं,  जो   पै  अवगुन होय।
गाय दुधारू मरखनी, लात सहैं सब  कोय ।।
लात   सहैं सब कोय ,ध्यान न अवगुन जावै।
अवगुन होयं  हजार, गुन  दस  तिन्हैं दबावैं।।
कहै 'सरन'  कविराय , सुनो  हो  भैया बुनके।
गाय   दुधारू लात, सहैं  सब तांई  गुन  के ।।

                 ( 2 )

गाढ़े दिना बिताइये,  न सदा एक - सा कोय।
सूखा तरुवर भी फलै ,एक दिन   ऐसा होय।।
एक दिन  ऐसा होय, प्रभु  का सुमिरन कीजै।
 पर काजनि  के हेत, सीस आगै  धरि  दीजै।।
कह 'सरन' कविराय , विपत   में  रहिये ठाढ़े ।
बहा लै जाय बहुरि , सुख नदिया दिनहुं गाढ़े।।

           ( 3 )

अन्यायी   राजा   मरै,    मंत्री  गुनाहगार।
दगाबाज सेवक मरै, मरै मतलबी  यार ।।
मरै  मतलबी यार,  मरै  वह  पूत निगोड़ा।
मरै बैल गरियार, मरै वह अड़ियल घोड़ा।।
कहै 'सरन' कविराय ,मरै बदजात लुगाई ।
बेवफा खसम मरै,  राजा मरै  अन्यायी ।।

          ( 4 )

चदरी   थोड़े दाम की,  देय  बहुत आराम।
सदा राखिये  साथ मैं, आवै  बिगड़े काम।।
आवै   बिगड़े   काम,  तपै  जो   देही घामै।
तरुवर होय न पास, रहिए चदरी की छां मैं।।
कह 'सरन' कविराय, घिरै जो काली बदरी।
जंह लौं पार बसाय, बचावै तन  को चदरी।।

                         ( 5)

दीजै  सीस  उतारि कर, सकल उधारी चाम।
 जीवै   सोई  जगत  मैं, आवै  दूजे   काम ।।
आवै   दूजे काम, गरब  क्या    देही  करिए ।
तरुवर होय निपात, यहु दण्ड देह का भरिए।।
 कहै 'सरन' कविराय, भलाई सबकी कीजै।
परमारथ के हेत,  सीस   आगै  धरि  दीजै।।

              ( 6 )

गोरे मुख मत जाइये, लखिये  गुन जो होय।
जैसे बगुला कोकिला, रूप लखैं सब कोय।।
रूप लखैं सब कोय, कोकिला मन को मोहै।
बगुला तो बंचक भए, नित स्वारथ को जोहै।।
कहै  'सरन'  कविराय, धूप  के पीछे    बौरे।
तजिये अवगुन होयं,  रूप  के  मुखड़े गोरे।।

              ( 7 )

साईं ! दौलत  के  सगे, दौलत के हैं यार ।
बिनु दौलत  कब बोलते, बेटा ,बेटी, नार।।
बेटा,  बेटी, नार,  भए  स्वारथ  के   संगी।
छोड़ैं एक  दिन साथ, हाथ जब होवै तंगी।।
कहै 'सरन' कविराय, सुनो ! मतलब के ताईं।
बनत -बनत बहु मीत, धन -दौलत हेतु, साईं।।

               ( 8 )

थाना बसिए  निकट नहीं,  फोकट मिलै जमीन।
 जीवन सकल नरक बनै, मिलै नहीं तसकीन।।
 मिलै नहीं तसकीन,  चैन कब  दिन को आवै ।
 रक्षक ही भक्षक बनै, फिर चोर नजर न आवै।।
 कहै 'सरन' कविराय, तजुर्बा  यहु अजमाना ।
मरिए पर बसिए नहीं,  होयै   जहां भी थाना।।

           ( 9 )

पैसा  सों  सब  होति  है, बिनु पैसा सब जाय।
जब लगि पैसा हाथ मैं, तब लगि चिंता नाय।।
तब लगि  चिंता नाय, पैसा   सब   रंग  तोलै।
मुख तो भया  निबोल, पैसा  सब  ढंग बोलै।।
कहै 'सरन'  कविराय, करिश्मा   यामै  ऐसा ।
मन के मते न जाय, जब मति  चलावै पैसा।।

               ( 10 )

गोरी  मूरख  तै भली , चतुरी   कारी  नार।
चतुर संवारै कुटुम को, मूरख देय उजार ।।
 मूरख देय उजार , गुन तै  हु   कारी  भावै।
 निरगुन  गोरी नार, यार कब चित पै आवै।।
कहै 'सरन' कविराय, रूप की दुनियां बौरी।
तजि गुन कारी नार, गहै जो अवगुन  गोरी।।

         ( 11 )

बोली  करकश भी  भली, समया  बोलै कोय।
जैसे  कागा  भोर का, सबद  सुहावन   होय।।
 सबद सुहावन होय, समय पर काम सुहावत ।
बेसमया मधु राग,  कबै  कोकिल का भावत।।
कहै 'सरन' कविराय, समय की भली ठिठोली।
 जैसा    समया   होय, बोलिये   वैसी   बोली।।

                ( 12 )

सीधा   पैंडे  चालिये, भले  मिलै   बहु  फेर ।
चंगा   घर  मैं  पहुंचिये,  ऐसी   भली अबेर।।
 ऐसी  भली  अबेर , गहे    जो  भूले बटिया ।
उतै मिलैं  बटमार, छिनै  जर जोरू लुटिया।।
कहै 'सरन'  कविराय,  पकड़िये   पैंडा छीदा।
जीवन बहु अनमोल, तौलि कै चलिये सीधा।।

           ( 13 )

संगत तिसकी  बैठिये,  अवगुन  देवै काढ़।
जैसे सूप अनाज का, कर दे दूर  कबाड़ ।।
कर दे दूर कबाड़, तन कंचन ज्यों विकसै ।
जग मैं होवै  मान ,बोल ज्ञानी -सा निकसै।।
कहै 'सरन' कविराय,जगत की सिगरी रंगत।
जो चाहत तो गहिये, भले लोगनि की संगत।।

         ( 14 )
साईं, दौलत के  बिना, झूठे  सब  ब्यौहार ।
दौलत होय तु डोलि है, संग मतलबी यार।।
संग  मतलबी  यार, नार  सब  पीछै  डोलैं।
 दौलत  रहै न  पास, बेई मुख से न  बोलैं।।
 कहै 'सरन' कविराय, जन दौलत हु के तांई।
 असनाई सब जात, बिन दौलत हु के, सांई।।

           (  15 )
चेला धुर मूरख मरै, अरु मरिए गुरु लबार ।
प्रपंची   साधू    मरै,  गरजी     साहूकार ।।
गरजी   साहूकार,  मरै  वह  कुलटा  नारी।
मरै  छिछोरा  पूत, पुरुष  मरै व्यभिचारी ।।
कहै 'सरन' कविराय, मरै वह कंत  गहेला।
गुरु को दाग लगाय, मरै धुर मूरख चेला।।


पाद टिप्पणी :   बुनके = बुनकर, जुलाहा। गाढ़े = बुरे, दुख के।  गरियार= सुस्त  ।  निपात = पतझड़।  धूप = चमक। तसकीन = शांति।

   
 डॉ. जगदीश शरण
 डी- 217, प्रेमनगर, लाइनपार, माता मंदिर गली, मुरादाबाद-- 244001
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