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रविवार, 12 सितंबर 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ की आठवीं कड़ी के तहत 10 व 11सितंबर 2021 को मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर दो दिवसीय ऑनलाइन कार्यक्रम का आयोजन

मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर वाट्सएप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 10 व 11 सितंबर 2021 को दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन किया गया। चर्चा में शामिल साहित्यकारों ने कहा कि वीरेन्द्र कुमार मिश्र का मुरादाबाद के नाट्य साहित्य में उल्लेखनीय योगदान रहा है । राष्ट्र के प्रति समर्पण और हिंदुत्व का भाव जगाने के साथ साथ उन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से ऐतिहासिक चरित्रों और घटनाओं को भी प्रस्तुत किया । 
 मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ की आठवीं कड़ी के तहत आयोजित इस कार्यक्रम में संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने श्री मिश्र के जीवन एवं रचना संसार पर प्रकाश डालते हुए कहा कि  वर्ष 1958 में उनकी प्रथम नाट्य कृति छत्रपति शिवाजी प्रकाशित हुई। उनका कहानी संग्रह पुजारिन वर्ष 1959 में प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी 14 कहानियां संकलित हैं। इसके अतिरिक्त उनकी नाट्य कृतियां गुरु गोविंद सिंह, सम्राट हर्ष और आचार्य चाणक्य प्रकाशित हुईं । उनकी अप्रकाशित नाट्यकृतियों में शेरशाह सूरी और विक्रमादित्य उल्लेखनीय हैं । नाटक छत्रपति शिवाजी के लिए शारदा विद्यापीठ द्वारा उन्हें साहित्य वाचस्पति उपाधि से सम्मानित किया गया। उनका निधन 28 अप्रैल 1999 को हुआ । उन्होंने बताया कि इससे पूर्व स्मृतिशेष साहित्यकारों दुर्गादत्त त्रिपाठी, कैलाश चन्द्र अग्रवाल, पंडित मदन मोहन व्यास, दयानन्द गुप्त, बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी,डॉ भूपति शर्मा जोशी, ईश्वर चन्द्र गुप्त ईश जी पर कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैं ।

   

चर्चा में भाग लेते हुए  महाराजा हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ विश्व अवतार जैमिनी ने कहा स्मृति शेष वीरेंद्र कुमार मिश्र पर आयोजन देखकर  वर्षों पुरानी स्मृतियां सजीव हो गईं। मैं रस्तोगी इंटर कॉलेज जो उस समय रस्तोगी मंदिर अमरोहा गेट में संचालित होता था, में हिंदी का अध्यापक था और गुलाल गली में रहता था। वीरेंद्र कुमार मिश्र  कुछ ही दूर रेती स्ट्रीट में रहते थे और मुस्लिम इंटर कॉलेज में शिक्षक थे।  शिक्षक, पड़ोसी मुहल्ले और साहित्यकार होने के नाते हम दोनों में प्रगाढ़ संबंध थे। हमारे साथ डॉ ज्ञान प्रकाश सोती भी थे जो दिनदारपुरा में रहते थे । उनकी रुचि नाटक मंचन में अत्यधिक थी। वीरेंद्र मिश्र नाटक एवं एकांकी लिखते थे और हम दोनों  उनका मंचन कराते थे।  डॉ ज्ञान प्रकाश सोती  के साथ हमने उनके कई नाटकों का मंचन अपने विद्यालय में कराया। वीरेंद्र कुमार मिश्र स्वभाव से एक सरल व्यक्ति थे। उनमें बनावट की कोई बू नहीं थी।शिक्षक आंदोलन में भी वे सदा सक्रिय रहे।भारतीय संस्कृति, हिंदुत्व और राष्ट्रीयता की भावना से वह ओतप्रोत थे। यही भावना उनके संपूर्ण लेखन का आधार थी। भारत के गौरवशाली ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर उन्होंने अनेक नाटकों की रचना कर न केवल इतिहास के पन्नों को प्रस्तुत किया बल्कि आक्रमणकारी मुगलों की संस्कृति से भी वर्तमान पीढ़ी को अवगत कराया।  
 दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकांत गुप्त ने कहा कि मैंने स्मृतिशेष श्री वीरेन्द्र मिश्र जी की कविताएं व कहानियां एक पाठक की हैसियत से पढ़ीं । सहज और सरल ,अपने रचियता की भांति मुझ पाठक को अपने रस मेंं बहाती ले गयीं । ऐसे व्यक्तित्व को नमन । पटल संचालक श्री मनोज रस्तोगी जी को साधुवाद । उनका परिश्रम अतुलनीय है।

     

केजीकेमहाविद्यालय, मुरादाबाद की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप ने कहा मुरादाबाद के साहित्य की गौरवशाली परम्परा में वीरेंद्र मिश्र जी की कृतियों का अनुपम योगदान है, उन्होंने अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का अद्भुत प्रयास किया है। उनका नाटक" आचार्य चाणक्य" एक महत्वपूर्ण नाट्य कृति है  ,जिसमें ऐतिहासिक विषय वस्तु से एक पूरा कथानक तैयार कर हमारे समक्ष इतिहास को खंगालने का काम किया है।चाणक्य एक अत्यंत ही प्रभावशाली और राष्ट्रवाद से ओतप्रोत नाटक है ,इतिहास के गौरवपूर्ण परम्परा को नाटक रूप में ढालकर वीरेन्द्र मिश्र ने वर्तमान समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया है । पांच अंको में लिखा गया यह नाटक अपने पूरे कलेवर में सम्पूर्ण घटनाओं को लेकर रोचक बन पड़ा है ,जो नाटक के तत्वों  के आधार पर पूरी तरह से खरा उतरता है । अतः वीरेन्द्र मिश्र के सभी नाटक ऐतिहासिक कथावस्तु को लेकर लिखे गए हैं, प्रस्तुत नाटक यह दर्शाता है कि लेखक किस प्रकार वर्तमान के समस्याओं के निदान के लिए अपने अतीत के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ज्वलंत मुद्दों के साथ समायोजन करता है ।अपने राष्ट्र की अक्षुण्णता बनाये रखने में वीरेन्द्र मिश्र के नाटकों का हिंदी नाट्य साहित्य एवम परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान है ।
नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) की साहित्यकार दीपिका माहेश्वरी सुमन ने कहा कि वीरेंद्र कुमार मिश्र  की कहानियां सुंदर भावनाओं से ओतप्रोत, 'वेदना' पर आधारित हैं। वेदना का यह क्रम कहीं टूटा नजर नहीं आता। कहीं भक्ति में परिवर्तित होता है, कहीं देश भक्ति में तथा उस समय की सामाजिक संकीर्ण विचारधाराओं से होता हुआ, कभी आत्मदाह के दुखांत पर भी पहुंचता है, तो कहीं प्रणय वेदना को प्रबलता से दिखाया गया है। 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजय अनुपम ने वीरेन्द्र मिश्र जी से सम्बंधित संस्मरण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि वीरेन्द्र मिश्र जी ने जिससमय लेखन कार्य आरंभ किया उस समय राष्ट्रोत्थान की आहट हवा में थी । उसके लिए नैतिक भावना एवं संघर्ष पूर्ण जीवन की तैयारी का भाव जगाने वाले साहित्य की भी आवश्यकता थी। मुरादाबाद के साहित्य साधक भी अपनी शक्ति और सामर्थ्य भर सद्भाव से उसे पूरा करने के लिए कार्यरत थे। आज की पीढ़ी को उनके बारे में जानकारी हो या न हो किन्तु उनका स्मरण करना और कराना हमारा पुण्यकर्म है। हो सकता है कल कोई साहित्य-शोधक उनके रचे साहित्य को प्रकाश में लाने काम करने का साहस कर बैठे,आज की शिक्षा की दशा में यह कामना फलीभूत होने की संभावना कम ही प्रतीत होती है परन्तु अच्छे लोग और अच्छे काम हर काल खण्ड में होते ही हैं   
 रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कि  वीरेंद्र कुमार मिश्र ऐसे  कलमकार रहे जिनमें राष्ट्रीयत्व का भाव प्रबल था तथा साथ ही साथ भारत की सनातन हिंदू संस्कृति के प्रति गहरी निष्ठा और आदर विद्यमान था । आपने हिंदी साहित्य को जो नाटक प्रदान किए ,उनके विषय हमारे पुरातन गौरव बोध से भरे हुए हैं। छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह और  आचार्य चाणक्य आदि महापुरुषों के स्वाभिमानी व्यक्तित्व को अपनी रचनाओं का केंद्र बनाकर आपने नाटक रचे, यही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि आप की विचारधारा किस प्रकार से राष्ट्रीयत्व तथा हिंदुत्व से ओतप्रोत थी । आपका कहानी संग्रह पुजारिन की कुछ कहानियाँ मैंने पढ़ीं। तपस्विनी एक ऐसी ही कहानी थी जिसमें हिंदू राष्ट्र शब्द का प्रयोग करते हुए राष्ट्रीयत्व के भाव के पतन पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया गया था। साथ ही एक ऐसी तपस्विनी का चरित्र कहानीकार ने उपस्थित किया जो आजादी की अलख जगाने के लिए स्वयं को समर्पित कर देती है। वीरेंद्र मिश्र जी भारत की हिंदू संस्कृति के आराधक हैं । इस आराधना को नतमस्तक होकर प्रणाम करने की आवश्यकता है । इसी के गर्भ से वह स्याही हमें मिल सकेगी ,जिससे कलम कुछ स्वाभिमान से रससिक्त रचना रच पाएगी। उन्होंने एक कुण्डलिया भी प्रस्तुत की----

कहना   सिखलाया    हमें ,  हिंदू  -  हिंदुस्तान

धन्य  मिश्र  वीरेंद्र  जी , धन्य - धन्य  अवदान

धन्य - धन्य  अवदान , राष्ट्र  के  जागृत  प्रहरी

समझ  देश - अभिमान , विलक्षण  पाई  गहरी

कहते  रवि  कविराय ,सजग होकर सब रहना

झुके न माँ का शीश ,कलम का यह ही कहना 

     

 दिल्ली के साहित्यकार आमोद कुमार ने कहा मैने वीरेन्द्र मिश्र जी को उन दिनों लगभग प्रतिदिन शाम को अपने मित्र सक्सेना जी  के साथ स्टेशन रोड पर चाय की  दुकान पर माध्यमिक शिक्षक संघ की राजनीति की चर्चा मे मशगूल देखा है, लेकिन इस बात का मुझे पछतावा है कि उनकी साहित्यिक प्रतिभा से हम अपरिचित रहे और उनके राष्ट भक्ति की रचनाओं से वंचित। सम्राट हर्ष, आचार्य चाणक्य,छत्रपति शिवाजी,गुरु गोविन्द सिंह जैसे प्रतिष्ठित एतिहासिक चरित्रों पर नाटय रचना करना किसी सिद्धहस्त साहित्यकार के बस की ही बात है।
 वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि ऐतिहासिक पात्रों को केंद्र में रखकर नाटक की रचना अत्यधिक शोध और अध्ययन के बाद ही की जा सकती है। वीरेन्द्र कुमार मिश्र इसमें सफल हुए हैं। उनकी कहानियों का कथानक एवं शिल्प पाठक को अंत तक बांधे रखने में सक्षम है। सभी कहानियां स्वयं में विशिष्ट हैं और पढ़ते पढ़ते पाठक कहानी से भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है, जो किसी भी लेखक के रचनाकर्म की उत्कृष्टता को दर्शाता है!उनके साहित्यिक योगदान का महत्व इसी बात से आंका जा सकता है कि साहित्य शारदा विद्या पीठ द्वारा उन्हें साहित्य वाचस्पति की उपाधि प्रदान की गयी!

     

वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विद्रोही ने कहा कि स्मृति शेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र के कहानी संग्रह पुजारिन में संकलित कहानियों तपस्विनी, अनारकली, पुजारिन, अजय एवं तोरण दुर्ग का कथा शिल्प दुर्लभ एवं अद्भुत है। उनकी कहानियों में देश के प्रति त्याग देश प्रेम की उदात्त भावना के रूप में देखने को मिलता है। वहीं उनके नाटक छत्रपति शिवाजी ,सम्राट हर्षवर्धन, ,आचार्य चाणक्य, ,गुरु गोविंद सिंह उनके लेखन की उत्कृष्टता को चरम ऊंचाइयों पर ले जाता है। उनके लेखन को तप के रूप में देखा जाए तो अनुचित न होगा।  मुझे गर्व है साहित्यिक जगत की ऐसी महान विभूति पर कि मैं भी उसी नगर में निवास करता हूं जिसमें  स्मृति शेष वीरेंद्र कुमार मिश्र पले बढ़े हुए एवं कालजयी साहित्य की रचना की।
 युवा साहित्यकार राजीव प्रखर ने कहा कि उनका कहानी संग्रह पुजारिन मानवीय अन्तर्द्वंद्व की सशक्त शाब्दिक अभिव्यक्ति है। पुजारिन, तिरस्कृत, तोरण दुर्ग, अजय, तपस्विनी, चिताभस्म, अनारकली, आशा, सफल जीवन, ऐलान, सूखी हड्डियाँ, चलता रुपया, यह मानव हैं? तथा कागज़ के फूल, इन सभी कहानियों में छिपी सामाजिक व पारिवारिक उथल-पुथल, संघर्ष आज भी किसी न किसी रूप में हमारे चारों ओर व्याप्त है ।     
 साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक ने कहा कि वीरेंद्र कुमार मिश्र की रचनाओं में जीवन के प्रति कर्मठता, निष्ठा व समर्पण की भावना विशेष रूप से परिलक्षित होती है ।उनकी कहानियों कागज के फूल ,चलता रुपया ,और ऐलान में वर्तमान जीवन की विसंगतियों को बड़े ही मन मोहक ढंग से प्रस्तुत किया गया है ।स्मृतिशेष श्री मिश्र जी की कहानियों के कथानकों की भाषा व भाव अत्यंत भावपूर्ण होने के साथ -साथ अपनत्व की भावना से ओतप्रोत रहते है ।  
सम्भल के साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा ने कहा श्री मिश्र जी द्वारा लिखित "पुजारिन" संग्रह से अवतरित कहानी,"तपस्विनी" अपनी सजीवता के लिए जानी जाती है, बहुत अच्छी लगी। "तोरण दुर्ग " में शाहजी भोंसले के पुत्र वीर शिवाजी और शिवाजी की माताजी के साथ ही, उनकी प्रेरणास्रोत जीजाबाई ,की वार्ता को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है, जो किसी भी बच्चे में, एक प्रेरणा और उत्साह भरने का काम करेगी। और वास्तव में कवि का यह धर्म होना चाहिए कि उसकी लेखनी से जो भी शब्द निकलें या लिखे जाएं वह समाज को किसी ना किसी रूप में ,लाभान्वित अवश्य करें । साहित्य के क्षेत्र में श्री मिश्र जी का योगदान अविस्मरणीय व अतुलनीय है। जितनी शालीनता, संकल्पना और सजीवता आपके साहित्य में देखने को मिलती है, सही अर्थों में तो यह अद्वितीय ही है।

       

गुरविंदर सिंह ने कहा कि आदरणीय मिश्रा जी बहुत बड़े साहित्यकार थे तथा उन्हें नाटकों में लेखन में विशेष महारत हासिल थी नाटकों के प्रति उनकी अभिरुचि की पराकाष्ठा यह है कि जब मैं छठी कक्षा में था तो सिख धर्म अनुयाई होने के नाते मेरे सिर पर काफी घने केश (बाल) थे तो आपने मुझे गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखी भगवान् शंकर जी की स्तुति "शिव रुद्राष्टक" कंठ कराई और टाउन हॉल में उन दिनों चल रहे हरि विराट संकीर्तन सम्मेलन में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम जी की साज-सज्जा में धनुष बाण धारण कर उपरोक्त स्तुति पढ़ने के लिए चयनित किया और टाउन हॉल अपने साथ ले गए थे, जिसके कुछ अंश अभी भी मेरे मन मस्तिष्क में हैं। उन्होंने बहुत उच्च कोटि के नाटक लिखे जिनमें छत्रपति शिवाजी, सम्राट हर्ष विक्रमादित्य, गुरु गोबिन्द सिंह जी आदि महान व्यक्तित्वों पर नाटक लिखे, यहां एक बात स्पष्ट करना चाहता हूं हालांकि गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के व्यक्तित्व पर ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से उपरोक्त रचना बहुत खोज परक एवं उनका जीवन परिचय कराने हेतु उच्च कोटि की है, "परंतु सिख पंथ में श्रद्धेय गुरु साहिबान, उनके परिजनों एवं उनके समकालीन गुरु सिखों के जीवन पर कोई नाटक मंचन, फिल्म या किसी प्रकार का कोई अभिनय नहीं किया जा सकता" अतः जीवन परिचय के रूप में स्वीकार है ।

गजरौला की साहित्यकार रेखा रानी ने कहा कि मुझे उनकी तपस्विनी कहानी बहुत ही अच्छी लगी। तोरण दुर्ग कहानी में वीर शिवाजी और जीजाबाई  की वार्ता का सजीव चित्रण किया गया है। इसके अतिरिक्त नाटयकृति गुरुगोविंद सिंह  भी अपने आप में अनूठी है। कुल मिलाकर मैं यह कह सकती हूं कि श्री मिश्र सरीखे साहित्यकार आज की पीढ़ी के नव रचनाकारों के लिए मार्गदर्शक के रुप में रहेंगे। 

मुम्बई के साहित्यकार प्रदीप गुप्ता ने कहा कि साहित्यिक मुरादाबाद द्वारा मुरादाबाद के दिवंगत साहित्यकारों के संदर्भ में आयोजन किया जाना एक सराहनीय और ऐतिहासिक कार्य है । इसके लिए अनुज डॉ मनोज रस्तोगी जी की जितनी सराहना की जाए वह कम होगी ।   

नजीबाबाद( बिजनौर) की साहित्यकार रश्मि अग्रवाल ने कहा कि पटल पर मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में विशद जानकारी प्राप्त हुई । साहित्यिक मुरादाबाद इसके लिए बधाई का पात्र है ।

     

सुदेश आर्य ने कहा कि इसप्रकार के आयोजनों से हमें मुरादाबाद के गौरवशाली साहित्य और साहित्यकारों के विषय में जानकारी मिलती है । यह क्रम निरन्तर जारी रहे इसके लिए परमपिता परमेश्वर से मैं प्रार्थना करती हूं ।

बिजनौर की साहित्यकार रंजना हरित ने साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम की सराहना करते हुए शुभकामनाये व्यक्त कीं। उन्होंने कहा कि यह आयोजन सराहनीय है ।   

लखनऊ के रोहित मिश्र ने कहा कि स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र जी से दूर रह कर भी उनके काफी करीब था मैं । मेरा उनसे "मामा भांजे" का रिश्ता है, मैं कोई बहुत बड़ा साहित्यकार तो नहीं हूँ मगर साहित्य की थोड़ी समझ मुझमें जरूर है शायद इसी कारण वो मुझसे, (जब भी मेरा मुरादाबाद)जाना होता था तो चर्चा किया करते थे । अपने अंतिम समय से कुछ महीनों पहले उन्होंने मुझे मुरादाबाद बुलाया और अपनी लिखी चार किताबें मुझको दीं, तभी मुझे पता चला कि उनको वाचस्पति अवार्ड भी दिया गया था।     

स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र जी की सुपुत्री रीता शर्मा ने कहा कि मैं आप सबकी बहुत आभारी हूँ,आपने मुझे इस  समूह में सम्मिलित किया |  समूह द्वारा आयोजित कार्यक्रम में आप सभी के द्वारा मेरे पिता जी की कृतियों की सराहना और उन्हें जन समुदाय के बीच साझा करने के लिए आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद । 
वीरेंद्र कुमार मिश्र जी की सबसे छोटी पुत्रवधू रचना मिश्र(इटौंजा ,लखनऊ) ने कहा कि मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रही हूं कि ऐसे महान साहित्यकार के सान्निध्य में मुझे रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने उनके सम्पूर्ण साहित्य का अध्ययन किया है।उनकी व मेरी  साहित्यिक विचारधारा लगभग एक समान थी। इस कारण मेरा व उनका ज्ञानपूर्ण विषयों पर सदैव संवाद बना रहा।वे हिंदी ,अंग्रेजी, संस्कृत व अनेक विषयों के ज्ञाता थे।वे होम्योपैथी के भी विशेष जानकार थे जिसका लाभ जीवन में मैने बहुत उठाया।जीवन के अंतिम पड़ाव में भी उनमें असीम ऊर्जा व इच्छाशक्ति थी। इसी समय उन्होंने अपने सभी नाटक व कहानी संग्रह प्रकाशित करवाये। वे दृढ़ इच्छाशक्ति के धनी व साहसी व्यक्तित्व के स्वामी थे। काश! उनके रहते उनके साहित्य को पहचान मिली होती।
  स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की सुपौत्री  शिवानी मिश्रा (सुपुत्री मधुप मिश्र) ने कहा कि मेरे बाबा बहुत अच्छे साहित्यकार थे। वह होमियोपैथिक के अच्छे चिकित्सक भी थे। उनकी लगभग सभी पुस्तकों  का आवरण पृष्ठ का चित्रण करने का सौभाग्य मुझे मिला। उन्होंने हरिवंश राय बच्चन जी के साथ श्री मिश्र  जी का एक दुर्लभ चित्र भी पटल पर साझा किया।

       

लखनऊ के राजीव मिश्र ने कहा साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से आयोजित कार्यक्रम में मुझे आदरणीय वीरेन्द्र कुमार मिश्र जी बारे में जानने का सुअवसर मिला । इसके लिए मैं डॉ मनोज रस्तोगी को बधाई देता हूँ । 

        कार्यक्रम में स्मृतिशेष मिश्र जी के सुपौत्र पंकज मिश्र, नीरज मिश्र, अर्जुन मिश्र, सुपुत्री रेखा मिश्र और सुपौत्री नेहा मिश्र ने भी हिस्सा लिया ।

अंत में स्मृतिशेष वीरेंद्र कुमार मिश्र के सुपुत्र  मधुप मिश्र और महेंद्र मिश्र जी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ की आठवीं कड़ी के रूप में हमारे पिता श्री स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर किये गए आयोजन के लिए हम सभी परिजन आप सभी का हृदय से आभार व्यक्त करते हैं ।


डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


गुरुवार, 2 सितंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की कहानी --- तपस्विनी । यह कहानी उनके वर्ष 1959 में प्रकाशित कहानी संग्रह पुजारिन से ली गई है । इस कृति का द्बितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ था ।


         पंडित अनूप शर्मा ! तुम और इस वेष में ?" “क्यों, इसमें आश्चर्य का क्या कारण, जब देश और जाति को आवश्यकता हो तब क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्री और क्या वैश्य सभी को शस्त्र धारण करना चाहिये । पद्मा, अब मैं अनूप शर्मा नहीं अनूपसिंह हूँ ।”

"ओह, तो अब ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी है जो आपको शर्मा से सिंह बनना पड़ा । "
“पद्मा, तुम तो जानती ही हो सारा हिन्दू राष्ट्र छिन्न भिन्न हो छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हो चुका था । पूज्य राणा संग्राम सिंह ने उनको एक सूत्र में बांधा और फिर समय आया जब उनकी आज्ञा मेवाड़ के एक कोने से दूसरे कोने तक मानी जाने लगी । चारों दिशाओं में उनका यश फैल गया । बाबर शाह को राणा से भय हुआ और साथ ही द्वेष भी सुना है बाबर ने मेवाड़ हमारी मातृभूमि पर आक्रमण किया है.. " “तब, तब... उसी में तुम भी जा रहे हो अनूप ?”
"हां पद्मा, देश को वीरों की और पूर्वजों के मान को बलि की आवश्यकता जो है ।"
"परन्तु... "
"उदास न हो पद्मा, भगवान ने चाहा तो विजयी होकर शीघ्र आऊँगा और तभी शुभ कार्य भी होगा।”

“अच्छा, अनूप, यदि जाना ही है तो जाओ पर पीठ पर घाव न खाना, नहीं मुझे दुख होगा।"
सन् १५२८ में कार्तिक मास के पांचवे दिन खनुआ नामक स्थान में मुगल और राजपूत सेनाओं का सामना हुआ। राजपूत बड़ी वीरता से लड़े, मुग़लों के पैर उखड़ गये। पास खड़ी हुई मुग़ल सेना ने जब यह देखा तो भागते हुये व्यक्तियों के चारों ओर खाई खोदना आरम्भ कर दिया। बाबर ने भी.. उत्साह दिलाने के अनेक प्रयत्न किये। यहां तक कि अपनी प्रिय मदिरा के प्याले तोड़ फोड़कर फिर कभी पान न करने की शपथ खाई ।
फिर युद्ध प्रारम्भ हुआ। राणा शत्रु संहार करते आगे बढ़ते गये और थोड़े ही समय में वह शत्रुओं के मध्य जा पहुंचे। एक बार और, फिर राणा का अन्त था कि त्वरित गति से अनूप सहायता को जा पहुँचा। घमासान युद्ध हुआ, अनूप राणा की रक्षा करता हुआ घायल होकर गिर पड़ा और मूर्छित होगया ।
    दूसरे दिन सारे नगर में उदासी छाई हुई थी। घायलों की पालकियाँ शान्त भाव से लाकर उनके घर पहुंचाई जा रही थीं। पद्मा भी भीड़ में सशंकित नेत्रों से इधर उधर कुछ खोज रही थी। सहसा उसकी दृष्टि एक पालकी पर गई। उसमें अनूप था। प्रातः कालीन चन्द्रमा की भांति उसका मुख पांडु था। बिखरी हुई अलकों और मुख मंडल पर रक्त बिन्दु काले पड़ चुके थे। पद्मा के आदेश से पालकी रुक गई। पास जाकर पद्मा ने स्नेह का मृदु स्पर्श किया और धीमे स्वर में कहा, “अनूप ।
अनूप ने अर्द्ध मूर्छित अवस्था में आंखें खोलीं और फिर धीरे से कहा- “पद्... मा. देखो मेरे वक्ष पर ही घाव लगे हैं, मैंने पीठ नहीं दिखाई । पर कलंकित मुख लेकर देश को दासता की श्रृंखला में जकड़े देखने से तो मृत्यु अच्छी...”
अत्यन्त दुर्बलता और पीड़ा के कारण अनूप ने आंखें मींच लीं। पद्मा ने व्यग्रता से पुकारा, "अनूप | "
"प.. द्.. मा देखो मेरे वक्ष पर ही घाव लगे हैं। मैंने पीठ नहीं दिखाई" कहते कहते अपने हिचकी ली और संसार से ही मुँह मोड़ लिया ।
नगर से बाहर शमशान भूमि में अनेक चितायें जल रही हैं। पति परायण अनेक स्त्रियां सती हो रही हैं। अनूप को चिता पर रखा गया, पद्मा ने आगे बढ़कर उसका सिर उठा ज्यों ही गोद में रखना चाहा, उसी समय ब्राह्मण गुरु की कर्कश वाणी से वह ठिठक गई: “पद्मा का विवाह नहीं हुआ था अतः इसे सती होने का कोई अधिकार नहीं ।” फिर आदेशानुसार धर्म के रक्षकों में से कुछ ने जाकर पद्मा को घसीट कर अलग कर दिया। चिता में अग्नि दी गई पद्मा ने शीश झुका चिता को प्रणाम किया और अपने सारे आभूषण उतार कर प्रज्ज्वलित चिता में फेंक दिये।
    दूसरे दिन मनुष्यों ने देखा, पद्मा गेरुआ वस्त्र पहन शमशान की ओर गई ..  और फिर वहां से सघन वन मेंजाकर कहीं विलीन हो गई। सबने सोचा उसने आत्महत्या कर ली होगी परन्तु वह देश में अलख जगाती फिरी, यहां तक कि लोग उसके नाम को भी भूल गये और सारे मेवाड़ में वह तपस्विनी के ही नाम से विख्यात होगई । आज भी मेवाड़ के आस पास कथा प्रचलित है - वह तपस्विनी थी। उसने सब कुछ खोकर भी देश में स्वतन्त्रता का अलख जगाया। देश को जागृत किया जिसके फलस्वरूप माताओं को वीर पुत्र और राणा प्रताप को देशभक्त सैनिक मिले ।
✍️ वीरेन्द्र कुमार मिश्र

::::::: प्रस्तुति :::::::
डा. मनोज रस्तोगी , 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत  मो. 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की नाट्य कृति - आचार्य चाणक्य । इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ था।



 क्लिक कीजिए और पढ़िये पूरी कृति 

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::::::::::प्रस्तुति::::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


बुधवार, 1 सितंबर 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की कहानी ---तोरण दुर्ग । उनकी यह कहानी उनके वर्ष 1959 में प्रकाशित कहानी संग्रह पुजारिन से ली गई है । इस संग्रह का द्वितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ ।


      पूना से बीस मील की दूरी पर पहाड़ी प्रदेश है। इसी प्रदेश में एक पहाड़ी पर एक छोटी सी झोपड़ी  है । जीजाबाई संध्या समय अपनी कुटी के द्वार पर बैठी सामने की पहाड़ी पर स्थित दुर्ग के प्रकाशित स्तम्भ की ओर निर्निमेष पलकों से देखती हुई सोच रही हैं, "कभी इस पर हमारा अधिकार था, मैं इस पर नित्य संध्या समय दीपक जलाया करती थी, परन्तु आज... कालचक्र के विपरीत भ्रमण ने इसे पराया कर दिया। इसी को क्या स्वजन, मेरे पतिदेव को भी परन्तु इससे क्या मेरा, एक मात्र सहारा मेरा पुत्र तो मेरे पास है...

सहसा शिवाजी उस स्थान पर आये, खड़ग को कमर से बांधे, ढाल को कंधे से उतारते हुए और बाल सुलभ सरलता से पुकार कर मां से भोजन मांगा, परन्तु कोई उत्तर न पाकर कुछ क्रुद्ध हो कर बोले, “मां, जल्दी भोजन दो नहीं तो मैं फिर देर से लौटूंगा, मृगया को जाना है साथियों के साथ ।”
मां की तन्द्रा भंग हो गई। परन्तु बिना कुछ कहे सुने ही वह अन्दर से जाकर भोजन ले आई । एक पत्तल पर कुछ थोड़ा सा साग और मोटी मोटी दो रोटियाँ । परन्तु उनके मुख की मलिनता अभी वैसे ही बनी थी। शिवाजी ने बड़े ध्यान और आश्चर्य से उनके मुख की ओर देखा और फिर कहा,“मां, तुम तो सदैव हँसती ही रहती थीं और कहा करती थीं, विपत्ति हंसकर झेला करते हैं, फिर आज इतनी उदास क्यों " “बेटा, जब मनुष्य हृदय के लिये दुख झेलना असम्भव हो जाता है तब वह यदि रोता नहीं तो उदास अवश्य हो जाता है। आज बीते दिनों की स्मृति सजग हो उठी थी, और कुछ नहीं।"
   कुछ देर शिवाजी माता के मुख को निहारते रहे । पर जब उन्होंने आगे कुछ न कहा तो बोले, “मां बोलो, शीघ्र बताओ मां, वह कौन सी स्मृति है जो तुम को वेदना देती है, यदि न बताओगी तो मैं फिर भोजन न करूंगा । ”
    जीजाबाई उनके अनुरोध को न टाल सकीं, उन्होंने धीमे स्वर में कहना प्रारम्भ किया, “बेटा, जो बात आज तक तुझे न बताई वह सुन ले । तेरे पिता जिस समय तेरा जन्म हुआ था एक युद्ध में संलग्न थे और तेरे नाना उनके विरुद्ध लड़ रहे थे। तभी एक छोटी सी बात पर उनका मुझसे मनोमालिन्य हो गया। कुछ समय उपरान्त उन्होंने एक और युवती से विवाह कर लिया। मेरे एकमात्र आधार शिवा, तब तू छः वर्ष का अबोध बालक था। यवन आक्रमणकारियों से तुझे बनों और उपत्यकाओं में बचाती फिरी.... और अब देख रहा है वह सामने का दुर्ग, उसका प्रकाशित स्तम्भ । इस पर कभी हमारा अधिकार था। मैं इस पर नित्य संध्या समय दीपक जलाया करती थी। परन्तु आज...... ..जाने दो बेटा, वह दिन स्वप्न हो गये। सरिता का बहता जल फिरा नहीं करता। वह दिन भी नहीं फिरेंगे।
     शिवाजी ने बड़े ध्यान से सुना और खड़ग को संभाल ढाल को पीठ पर रख कर द्रुतगति से बाहर निकल गये। मां ने पुकारा, “शिवा-शिवा,” परन्तु शिवाजी जा चुके थे और उनकी परसी हुई पत्तल यों ही रक्खी थी ।
     सघन वन में वट वृक्ष के नीचे मादिली जाति के वीर बालक इक्ट्ठा हो रहे हैं। शिवाजी का उनके नेता का जो यही आदेश है। परन्तु शिवा स्वयं क्यों नहीं आये, समय तो हो गया।" आपस में सभी तर्क वितर्क कर रहे थे। सहसा शिवाजी अनेक साथियों के साथ आते दिखाई दिये उन साथियों के साथ जिनके आने में उन्हें सन्देह था उनको साथ लाते हुये । सब में हर्ष छा गया। अब मृगया में कुतूहल और क्रीड़ा होगी । परन्तु शिवाजी ने कुछ गम्भीर होकर कहा, “मादिली वीरों, बहुत कर चुके वन्य पशुओं का शिकार, बहुत खेल चुके प्रकृति मां की गोद में सुन्दर सुखद खेल, अब नर पशुओं के शिकार की बारी है। अब समरांगण में खड्ग कौशल के खेल खेलने का अवसर आया है। याद है तुम सब को अपनी गो-ब्राह्मण की तथा हिन्दुत्व की रक्षा करने की प्रतिज्ञा-परन्तु कभी यह भी सोचा है कि वह कैसे पूर्ण हो सकती है ? नहीं, कभी नहीं। तो सुनो, तुमको पूर्ण अवसर तभी प्राप्त हो सकता है जब तुम्हारे पास शक्ति हो । बिना शक्ति के मन में सोची हुई बात और भविष्य की विजय के लिये किये गये प्रस्ताव सब कोरी कल्पना मात्र रह जाते हैं। वीरों, प्रथम शक्ति ग्रहण करो और वह संगठन से प्राप्त होगी । मैं आज तुम्हें पथ-प्रदर्शित करूंगा। तुममें से जिसको अपने प्राण प्यारे हों, जिसको माता का स्तन्य लज्जित करना हो वह यहीं रह जाये। देश को वीरों की आवश्यकता है। बोलो, कौन कौन चलने को उद्यत है ?
चारों ओर से “हम सभी चलेंगे” की गगन भेदी आवाज़ आई। शिवाजी ने कहा, “ तो तुममें से एक भाग मेरे साथ चले और दो भाग सामने के दुर्ग द्वार पर चले जायें। संकेत पाते ही दुर्ग-द्वार में प्रवेश करना होगा।"
   पहाड़ी पर बना हुआ दुर्ग-भीमकाय राक्षस सा भयानक दुर्गम पथ उसके रक्षक परन्तु शिवाजी बड़ी सावधानी से आहट को बचाते हुये मादिली वीरों के साथ आगे बढ़ते ही गये। अंत में दुर्ग के पृष्ठ भाग में पहुंचकर अपने पशुपति नामक कमन्द को फेंका । सर्व प्रथम उस रज्जू के सहारे स्वयं दुर्ग को प्राचीर पर चढ़े और पीछे पीछे अन्य वीर मादिली-ऊपर मनुष्य की आहट पाकर सन्तरी रक्षक ने ज्यों ही पुकारना चाहा त्योंही एक हाथ में उसका रुण्ड मुण्ड लुढ़कता हुआ नीचे जा गिरा। शिवाजी ने अपने साथियों की सहायता से दुर्ग का मुख्य द्वार उन्मुक्त कर दिया और बाहर खड़ी हुई टुकड़ियां अन्दर आ गयीं । मशालों के प्रकाश में घोर युद्ध हुआ परन्तु दुर्गाध्यक्ष ने पराजय निश्चित जान आत्मसमर्पण कर दिया ।
अगले दिन प्रातः समय पुत्र के लिये चिंतित और उदास जीजाबाई ने देखा-दुर्ग पर यवन पताका के स्थान पर केसरिया ध्वज फहरा रहा था। उन्होंने पुत्र को आशीर्वाद दिया, “तेरी गति अबाध हो ।” थोड़ी देर बाद कुछ सैनिक सुसज्जित शिविका लेकर आये और जीजाबाई उसमें बैठकर दुर्ग को गयीं।
   संध्या समय जीजाबाई ने तोरण दुर्ग के उस स्तम्भ पर स्वयं दीपक जलाया। उपरान्त सारा दुर्ग दीपमालिकाओं के प्रकाश में जगमगा उठा। यही वह दुर्ग था जिसपर सर्व प्रथम शिवाजी का अधिकार हुआ और हिन्दू राष्ट्र की सुदृढ़ नींव शिवाजी ने रक्खी ।

:::::::::प्रस्तुति ::::::::
डा. मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो. 9456687822

रविवार, 29 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र की प्रथम नाट्य कृति - छत्रपति शिवाजी । इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 1958 में सफलता पुस्तक भंडार, रेती स्ट्रीट ,मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ था। द्वितीय संस्करण वर्ष 1990 में प्रकाशित हुआ । इस कृति की प्रशंसा प्रख्यात साहित्यकार राम कुमार वर्मा और वृन्दालाल वर्मा जी ने भी की है ।


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डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

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मंगलवार, 24 अगस्त 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र का कहानी संग्रह--- पुजारिन । इस संग्रह में उनकी 14 कहानियां हैं ।इस कृति का प्रथम संस्करण वर्ष 1959 में सफलता पुस्तक भंडार, रेती स्ट्रीट ,मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की भूमिका लिखी है गोविंद त्रिगुणायत जी ने । इस कृति का द्वितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ । इस कृति का जय प्रकाश तिवारी 'जेपेश' द्वारा किया गया समीक्षात्मक अध्ययन वर्ष 1995 में अहिवरण प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है ।


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डॉ मनोज रस्तोगी

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मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष वीरेन्द्र कुमार मिश्र पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख

 




श्री वीरेंद्र कुमार मिश्र
का जन्म मुरादाबाद में 3 फरवरी 1922 (शैक्षिक अभिलेखानुसार 1 जुलाई 1922) को हुआ। आपके पितामह डॉ मुन्नालाल उस समय के चर्चित चिकित्सक थे तथा पिता पंडित मुरारी लाल रेल विभाग में कार्यरत थे। आप की माता जी का नाम सावित्री देवी था।

 श्री मिश्र ने राजकीय हाई स्कूल नजीबाबाद (जिला बिजनौर) से कक्षा 3 व 4 की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद उन्होंने राजकीय इंटर कॉलेज मुरादाबाद में प्रवेश ले लिया। यहां से वर्ष 1938 में हाईस्कूल और वर्ष 1940 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1941 में अपने प्रयाग केंद्र से साहित्य रत्न की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 1945 में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में सीनियर कैंब्रिज की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके पश्चात एक विषय अंग्रेजी से इंटरमीडिएट की परीक्षा वर्ष 1946 में उत्तीर्ण की तथा वर्ष 1949 में एक विषय अंग्रेजी लेकर स्नातक किया। वर्ष 1950 में बलवंत राजपूत कॉलेज आगरा से तीन माह का रिफ्रेशर कोर्स किया और उसके पश्चात वर्ष 1951 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की । इतने अध्ययन के बाद भी आप को सन्तोष नहीं हुआ और आप ने वर्ष 1954 में केजीके महाविद्यालय में स्नातकोत्तर कक्षा अंग्रेजी में प्रवेश ले लिया परंतु एक अंग्रेजी प्रवक्ता जो ईसाई थे, से हिंदू धर्म की आलोचना करने पर विवाद हो गया। परिणाम यह हुआ कि उनकी उपस्थिति कम कर दी गई और वे परीक्षा में नहीं बैठ सके। बाद में वर्ष 1957 में उन्होंने संस्कृत विषय में स्नातकोत्तर उपाधि आगरा विश्वविद्यालय से प्राप्त की। वर्ष 1964 में डॉ गोविंद त्रिगुणायत के निर्देशन में हिंदी के नवीनतम नाट्यरूप- उद्भव विकास और शिल्प विधि विषय पर शोध हेतु आप की रूपरेखा स्वीकृत हुई परंतु विद्यालय से सेवा मुक्त कर दिए जाने से उत्पन्न विवाद में उलझ जाने के कारण आपका शोध कार्य पूर्ण न हो सका।

    वर्ष 1944 में आपकी अस्थाई नियुक्ति जूनियर हाई स्कूल मुरैना (ग्वालियर) में हो गई लेकिन तीन माह पश्चात वह नौकरी छोड़कर मुरादाबाद आ गए। फरवरी 1945 में आपके मामा श्री कैलाश चंद्र त्रिवेदी जो झांसी में डिप्टी कलेक्टर थे, ने झांसी में मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में ऑफिसर ट्रेनिंग के लिए भर्ती करा दिया। नौ  माह बाद द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के कारण यह ट्रेनिंग भी समाप्त हो गई । बाद में वर्ष 1946 में वह ऋषिकुल जूनियर हाई स्कूल कटघर मुरादाबाद में अध्यापक हो गए। वर्ष 1947 में उनकी नियुक्ति एच एस बी इंटर कॉलेज मुरादाबाद में अध्यापक के पद पर हो गई जहां से वर्ष 1948 में उनकी नियुक्ति हैविट मुस्लिम इंटर कॉलेज मुरादाबाद में हो गई। वर्ष 1964 में विद्यालय के तत्कालीन प्रबंधक ने रुष्ट होकर उन्हें निलंबित कर दिया जिसके खिलाफ वह उच्च न्यायालय चले गए । इसी समय उन्होंने लाला राम कीर्ति शरण सोशलिस्ट के कहने पर अपने अंतरंग मित्र  शिवशंकर सक्सेना तथा कुमार आनंद सिंह के सहयोग से लाइनपार में आचार्य नरेंद्र देव श्रमिक जूनियर हाई स्कूल की स्थापना की। वर्ष 1965 में उच्च न्यायालय के आदेश से उनका निलंबन समाप्त हो गया और उन्होंने पुनः हैबिट मुस्लिम इंटर कॉलेज में अध्यापक के पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया। वर्ष 1982 में वह सेवानिवृत्त हो गए।

     वर्ष 1948 जनवरी में श्री मिश्र का विवाह डॉ रामचंद्र शर्मा निवासी नवाबपुरा मुरादाबाद की पुत्री प्रकाश देवी से हुआ। आपके बड़े सुपुत्र मधुप मिश्र वर्तमान में रेती स्ट्रीट में ही निवास कर रहे हैं । छोटे सुपुत्र महेंद्र मिश्र इटौंजा (लखनऊ) में एक विद्यालय संचालित कर रहे हैं। एक पुत्र मनोज मिश्र का निधन हो चुका है। आपकी तीन पुत्रियों रेखा, पूर्णिमा और रीता में पूर्णिमा का निधन हो चुका है।

      छात्र जीवन में पंडित अंबिका प्रसाद जी, पंडित मूल चंद्र शर्मा तथा हिंदी शिक्षक पंडित रघुनंदन प्रसाद जी की प्रेरणा से साहित्य के प्रति रुचि जागृत हुई और वह लेखन कार्य करने लगे। वर्ष 1940 में उन्होंने विद्यालय के वार्षिक उत्सव में मंचन के लिए लघु नाटक 'उद्धार' की रचना की। इसके बाद उन्होंने अनेक कहानियों, कविताओं और नाटकों की रचना की। वर्ष 1958 में उनकी प्रथम नाट्य कृति छत्रपति शिवाजी प्रकाशित हुई । इस कृति का द्वितीय संस्करण वर्ष 1990 में प्रकाशित हुआ। उनका कहानी संग्रह पुजारिन वर्ष 1959 में प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी 14 कहानियां संकलित हैं। इस कृति का द्वितीय संस्करण वर्ष 1992 में प्रकाशित हुआ इस कृति की भूमिका डॉ गोविंद त्रिगुणायत ने लिखी। उनकी इस कृति का समीक्षात्मक अध्ययन वर्ष 1995 में (लेखक - जयप्रकाश तिवारी जेपेश) अहिवरण प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ। वर्ष 1990 में नाटक गुरु गोविंद सिंह, वर्ष 1992 में नाटक सम्राट हर्ष और आचार्य चाणक्य प्रकाशित हुए । उनकी अप्रकाशित नाट्यकृतियों में शेरशाह सूरी और विक्रमादित्य उल्लेखनीय हैं । उन्होंने हाई स्कूल, प्रथमा और अन्य समकक्ष परीक्षाओं के लिए उपयोगी पुस्तक विनोदिनी हिंदी साहित्य सफलता की भी रचना की।

       नाटक छत्रपति शिवाजी के लिए शारदा विद्यापीठ द्वारा उन्हें साहित्य वाचस्पति उपाधि से सम्मानित किया गया।इसके अतिरिक्त  साहू शिव शक्ति  शरण कोठीवाल स्मारक समिति मुरादाबाद समेत अनेक संस्थाओं द्वारा उन्हें समय-समय पर सम्मानित भी किया जाता रहा। उनका निधन 28 अप्रैल 1999 को हुआ।


 ✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

 8,जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद 244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल फोन नम्बर 9456687822