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गुरुवार, 24 अगस्त 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अंकित गुप्ता अंक की नज़्म....चंदा मामा दूर नहीं हैं


ख़ास पुरानी बात नहीं है

सपनों की नाज़ुक टहनी पर

इक आशा का फूल खिला था

उसकी ज़्यादा उम्र नहीं थी

खिलते खिलते सूख गया था

उम्मीदों के पंख जले थे

दिल भी ग़म में डूब गए थे

उड़ने में कुछ देर हुई थी

पर मन में  विश्वास प्रबल था

चंदा मामा दूर नहीं हैं

जल्दी उनकी गोद में होंगे

और लो, वक़्त नहीं बीता है

जीत फुदक कर पास आई है

रक्षा पर्व को भारत माँ ने

भाई का घर ढूँढ लिया है

माँ थाली में दिखला देती

पर तुमको छूने का मन था

अब सपना साकार हुआ है

बंद सिरे खुलने वाले हैं

सदियों से जो राज़ दबे हैं

उनसे पर्दा जल्द उठेगा

सब हिन्दी तुमसे पूछेंगे

क्यों इतने उखड़े रहते हो

खोज निकालेंगे उसको भी

तुम पर जो इक दाग़ लगा है

आज तुम्हारे पहलू में हम

अपने बचपन को ढूँढेंगे

कात रही हो सूत अभी भी

शायद वो बुढ़िया मिल जाए

✍️अंकित गुप्ता 'अंक'

सूर्यनगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज, 

लाइनपार, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत


सोमवार, 31 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अंकित गुप्ता अंक के सात दोहे....


हिन्दी-उर्दू में चले, अगर अदब की बात

 प्रेमचन्द के नाम से,  ही होगी शुरुआत ।।1।।


परियों-जिन्नों से किया, कहानियों को मुक्त 

प्रेमचन्द ने सब रचा,निज अनुभव से युक्त ।।2।।


जो रचकर 'सोज़े-वतन', छेड़ दिया संग्राम

अंग्रेज़ों के भाल पर, बल पड़ गए तमाम ।।3।। 


इस समाज का हूबहू, गए चित्र वे खींच

अब भी 'होरी' मर रहे, घोर अभावों बीच ।।4।।


'होरी', 'घीसू', 'निर्मला', ये जो रचे चरित्र  

 इस समाज का वास्तविक, प्रस्तुत करते चित्र ।।5।। 


बापू जब आगे बढ़े, लेकर क्रांति-मशाल

खड़े हुए संग्राम में,  प्रेमचन्द तत्काल ।।6।।


प्रेमचन्द की ज़िन्दगी,  बीती बीच अभाव 

उनका मगर समाज पर,  गहरा पड़ा प्रभाव ।।7।।

✍️अंकित गुप्ता 'अंक'

सूर्यनगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज, 

लाइनपार, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल नंबर- 9759526650


बुधवार, 8 मार्च 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार अंकित कुमार अंक की रचना ...अबकी ऐसे रंगना हमको होली का दिन याद रहे


 रंगों  के  चटकीलेपन  से   ये जीवन  आबाद  रहे

अबकी  ऐसे  रंगना हमको होली का दिन याद रहे


ऐसा रंग लगाना जो हर दिल का  सूनापन भर  दे 

ऐसा  रंग लगाना जो सहमी इच्छाओं को पर  दे

ऐसा रंग लगाना जो अहसासों तक को तर कर दे

उम्मीदों  के  कल्ले  फूटें, मन की बगिया शाद रहे


ऐसा  रंग लगाना दिशा-दिशा  की मांगें  भर जाएँ

ऐसा  रंग  लगाना  चूनर  ओढ़  बालियाँ  मुस्काएँ

ऐसा   रंग  लगाना  पवनें    भी  मस्ती  में बौराएँ

धरती  जब अँगड़ाई ले तो नस-नस में उन्माद रहे


ऐसा रंग लगाना जिसमें अपनेपन  की चाहत हो

ऐसा रंग लगाना जिसकी रग-रग में ही मिल्लत हो

ऐसा   रंग   लगाना  जो   भाईचारे  की  राहत हो

आपसदारी  का  ये  जज़्बा  देखो  ज़िन्दाबाद  रहे


✍️ अंकित गुप्ता 'अंक'

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर के ग़ज़ल संग्रह....‘ये सब फूल तुम्हारे नाम' की अंकित गुप्ता "अंक" द्वारा की गई समीक्षा.. महकती है भारतीयता की भीनी-भीनी ख़ुशबू

ग़ज़ल का अपना एक सुदीर्घ इतिहास रहा है । अमीर ख़ुसरो,  कबीर, वली दक्किनी, मीर तक़ी 'मीर', मिर्ज़ा मज़हर, सौदा, मीर दर्द, ज़ौक़, मोमिन, ग़ालिब, दाग़, इक़बाल, जिगर मुरादाबादी जैसे सुख़नवरों से होती हुई यह फ़िराक़ गोरखपुरी, फ़ैज़, अहमद फ़राज़, दुष्यंत कुमार के हाथों से सजी और सँवरी । ग़ज़ल को पारंपरिक तौर पर इश्क़ो- मोहब्बत की चाशनी में पगी सिन्फ़ समझा जाता था और एक हद तक यह धारणा गलत भी नहीं थी । धीरे-धीरे ग़ज़ल बादशाहों के दरबार से नज़र बचाकर समाज की ओर जा पहुँची । तल्ख़ हक़ीक़तों की खुरदुरी ज़मीन से इसका पाला पड़ा, तो ज़िंदगी की कशमकश के नुकीले काँटों ने भी इसके कोमल हाथों को लहूलुहान किया । इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि इसने अपने पैकर में रहते हुए भी अपनी आत्मा को परिमार्जित और परिष्कृत किया तथा यह शोषित-पीड़ित मन की आवाज़ बनने लगी ।

मोहम्मद अल्वी का कहना था—

"क्यूँ सर खफा रहे हो मज़ामीं की खोज में

 कर लो जदीद शायरी लफ़्ज़ों को जोड़ कर"

    ज़िया ज़मीर जदीद शायरी की इस मशाल को आगे बढ़ाने वाले शोअ'रा में से एक है़ं । उनका ग़ज़ल-संग्रह 'ये सब फूल तुम्हारे नाम'  इस कथन पर मुहर लगाने के लिए काफ़ी है । संग्रह में 92 ग़ज़लें, 9 नज़्में, 16 दोहे और 6 माहिये संकलित हैं । ज़िया साहब को शायरी का फ़न विरासत में मिला । वालिदे-मुहतरम जनाब ज़मीर दरवेश के मार्गदर्शन में उनकी शायरी क्लासिकी और आधुनिकता दोनों का कॉकटेल बन गई । ज़िया ज़मीर अपनी हर ग़ज़ल में ग़ज़ल के स्वाभाविक और 'क्विंटनसेंशियल' हिस्से मोहब्बत और इश्क़ को नहीं भूलते । इस पतवार का सहारा लेकर वे आधुनिक जीवन की हक़ीक़त और सच्चाइयों और बुराइयों के पहलुओं को छूते हैं और एक नए दृष्टिकोण की स्थापना करते हैं । 

 "उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम

  बैठेंगे    कभी    साथ    तो  तन्हाई बनेगी"

उपरोक्त शे'र के ज़रिए वे आज की एकांत और बेहिस ज़िंदगी की तस्वीर खींचते हैं, तो वहीं

 " जो एक तुझको जां से प्यारा था 

 अब भी आता है तेरे ध्यान में क्या"

 शे'र में तेज़ी से बदलते रिश्तों के प्रतिमान की पड़ताल कराते हैं कि कैसे इस सो कॉल्ड 'आधुनिक' समाज में रिश्ते और संबंध पानी पर उठे बुलबुले जैसे क्षणभंगुर हैं ।

बाहुबलियों के हाथों दीन-हीनों पर अत्याचार कोई नई बात नहीं रही है;  नई बात तो उनका हृदय-परिवर्तन होना है । ज़िया साहब का एक शे'र देखें—

 " लहर ख़ुद पर है पशेमान के उसकी ज़द में

  नन्हे हाथों से बना रेत का घर आ गया है "

बालपन किसी घटना को पहले से सोचकर क्रियान्वित नहीं करता । वह तो गाहे-बगाहे वे कार्य कर डालता है जिसे बड़े चाह कर भी नहीं कर पाते । ज़िया ज़मीर कुछ यूँ फ़रमाते हैं— 

"किसी बच्चे से पिंजरा खुल गया है

 परिंदों   की   रिहाई   हो  रही  है"

फ़िराक़ गोरखपुरी के अनुसार, "ग़ज़ल वह बाँसुरी है; जिसे ज़िंदगी की हलचल में हमने कहीं खो दिया था और जिसे ग़ज़ल का शायर फिर कहीं से ढूँढ लाता है और जिसकी लय सुनकर भगवान की आँखों में भी इंसान के लिए मोहब्बत के आँसू आ जाते हैं ।" प्रेम की प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं हो सकती । बाइबिल में अन्यत्र वर्णित है— "यदि मैं मनुष्य और स्वर्ग दूतों की बोलियाँ बोलूँ और प्रेम न रखूँ; तो मैं ठनठनाता हुआ पीतल और झनझनाती हुई झांझ हूँ ।"  ज़िया ज़मीर की शायरी इसी प्रेम का ख़ाक़ा खींचती है और वे कहते हैं—

 "देख कर तुमको खिलने लगते हैं

  तुम गुलों से भी बोलती हो क्या "

.............

"इश्क़ में सोच समझ कर नहीं चलते साईं

जिस तरफ़ उसने बुलाया था, उधर जाना था"

हालांकि उन्होंने मोहब्बत में हदें क़तई पार नहीं कीं और स्वीकार किया—

"हमने जुनूने- इश्क़ में कुफ़्र ज़रा नहीं किया

 उससे मोहब्बतें तो कीं, उसको ख़ुदा नहीं किया"

आज हालांकि मानवीय संवेदना में कहीं न कहीं एक अनपेक्षित कमी आई है ।  हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । एक शायर भी इससे अछूता नहीं रह सकता । उसकी शायरी हालात का आईना बन जाती है । इस बाबत मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद का शे'र मुलाहिज़ा करें—

 "कुुछ ग़मे-जानां, कुछ ग़मे-दौरां दोनों मेरी ज़ात के नाम 

 एक ग़ज़ल मंसूब है उससे एक ग़ज़ल हालात के नाम"

ज़िया का मन भी आहत होकर कहता है—

“कुछ दुश्मनों की आँख में आँसू भी हैं; 

मगर कुछ दोस्त सिर्फ लाश दबा देने आए हैं“

..........

"पत्थर मार के चौराहे पर एक औरत को मार दिया

 सबने मिलकर फिर ये सोचा उसने गलती क्या की थी"

...........

"दानाओं ने की दानाई, मूंद ली आँखें 

चौराहे पर क़त्ल हुआ पागल ने देखा"

आले अहमद सुरूर ग़ज़ल को 'इबादत, इशारत और अदा की कला' कहते हैं । ज़िया ज़मीर इस रवायत को बड़े सलीक़े से निभाते चलते हैं ।  अपने भोले माशूक़ से ज़िया साहब की मीठी शिकायत है—

 "तुमने जो किताबों के हवाले किए जानां

वे फूल तो बालों में सजाने के लिए थे"

ख़्यालात की नाज़ुकी  उनके यहाँ कहीं-कहीं इतनी 'सटल' हो जाती है कि क़ारी के मुँह से सिर्फ़ "वाह" निकलता है—

  "मेरे हाथों की ख़राशों  से न ज़ख़्मी हो जाए

   मोर के पंख से इस बार छुआ है उसको"

शायरी का फ़न ऐसा है कि उसमें सोच की नूतनता, शिल्प की कसावट और 'अरूज़  का पालन सभी तत्वों का समावेश होना अत्यावश्यक है अन्यथा कोई भी तख़्लीक़ सतही लगेगी । जिया ज़मीर फ़रमाते हैं—

"शौक यारों को बहुत क़ाफ़िया पैमाई का है

 मस'अला है तो फ़क़त शे'र में गहराई का है"

विचारों के सतहीपन को वे सिरे से नकारते हैं— 

"शे'र जिसमें लहू दिल का शामिल ना हो

वो लिखूँ भी नहीं, वो पढ़ूँ  भी नहीं "

...............

  “चौंकाने की ख़ातिर ही अगर शे'र कहूँगा

 तख़्लीक़ फ़क़त क़ाफ़िया पैमाई बनेगी"

प्रोफ़ेसर वसीम बरेलवी का इस संबंध में एक शे'र कितना प्रासंगिक है—

 " कभी लफ़्ज़ों से ग़द्दारी न करना

   ग़ज़ल पढ़ना अदाकारी न करना"

आज जब रिश्तो को बनाए रखने की जद्दोजहद में हम सभी लगे हैं।  ऐसे में अना का पर्दा हर बार हमारे संबंधों की चमक पर पड़कर उसे फीका कर देना चाहता है; जबकि रिश्तों को बचाए, बनाए और सजाए रखना उतना कठिन भी नहीं है। बक़ौल ज़िया—

"बस एक बात से शिकवे तमाम होते हैं

बस एक बार गले से लगाना होता है"

ग़ज़लों के बाद यदि नज़्मों पर दृष्टि डालें तो वे भी बेहद असरदार और अर्थपूर्ण बन पड़ी हैं । क्योंकि नज़्मों में अपने विचारों से पाठक को अवगत कराने के लिए अपेक्षाकृत अधिक फैलाव मिल जाता है; इसलिए इस विधा का भी अपना अलग रंग है । 'बिटिया' शीर्षक नज़्म में कन्या भ्रूण हत्या की त्रासदी को बड़ी असरपज़ीरी से उन्होंने हमारे सामने रखा है । 'राष्ट्रपिता' नज़्म महात्मा गांधी के योगदान व बलिदान पर सवालिया और मज़ाक़िया निशान लगाने वाली भेड़चाल को बड़ी संजीदगी से व्यक्त करती है । मेट्रोपॉलिटन, कॉस्मोपॉलिटन, मेगा सिटी, स्मार्ट सिटी इत्यादि विशेषणों से सुसज्जित आधुनिक शह्रों में गुम हुई भारतीयता की असली पहचान हमारी भूल-भुलैया नुमा, टेढ़ी-मेढ़ी पतली गलियों और उनमें बसने वाले मासूम भारत का सजीव अंकन करती है नज़्म 'गलियाँ' ।  'चेन पुलिंग' बतकही शैली में रची गई एक और नज़्म है जो सुखांत पर समाप्त होती है; तो 'कॉफ़ी' शीर्षक नज़्म नाकाम और बेमंज़िल प्यार की ट्रेजेडी को बयान करती है । 'माँ का होना' नज़्म में ज़िया ज़मीर दुनिया की हर माँ के प्रति श्रद्धावनत होते हुए उसके संघर्षों और आपबीती को ख़ूबसूरत ढंग से व्यक्त करते हैं ।

   ग़ज़लों, नज़्मों की भांति ज़िया साहब के दोहों में भी एक गहरी प्रभावशीलता है । निदा फ़ाज़ली, मंसूर उस्मानी, वसीम बरेलवी, शहरयार, बेकल उत्साही आदि मॉडर्न शो'अरा ने भी दोहों में बख़ूबी जौहर आज़माए हैं और ज़िया भी इन सुख़नवरों की राह पर पूरी तन्मयता से बढ़ते नज़र आते हैं— 

"इतनी वहशत इश्क़ में होती है ऐ यार

 कच्ची मिट्टी के घड़े से हो दरिया पार"


 "उसकी आँखों में दिखा सात झील का आब

  चेह्रा पढ़ कर यह लगा पढ़ ली एक किताब"


"जाने कब किस याद का करना हो नुक़सान

जलता रखता हूँ सदा दिल का आतिशदान"


 एक माहिये में कितनी सरलता से वे इतनी भावपूर्ण बात कह जाते हैं—

   "आँसू जैसा बहना

     कितना मुश्किल है

    उन आँखों में रहना"

ज़िया ज़मीर ने भाषायी दुरूहता को अपने शिल्प के आड़े नहीं आने दिया । इन सभी 'फूलों' को हमारे नाम करते हुए उन्होंने यह बख़ूबी ध्यान रखा है कि इनकी गंध हमें भरमा न दे । बल्कि इनमें भारतीयता और उसकी सादगी की भीनी-भीनी ख़ुशबू महकती रहे । आशय यह है कि भाषा छिटपुट जगहों को छोड़कर आमफ़हम ही रखी गई है ।प्रचलित अंग्रेज़ी  शब्दों इंसुलिन, इंटेलिजेंसी,  सॉरी,  मैसेज,  लैम्प-पोस्ट, रिंग,  सिंगल, जाम, टेडी आदि के स्वाभाविक प्रयोग से उन्होंने परहेज़ नहीं किया । वहीं चाबी, पर्ची, चर्ख़ी, काई, टापू, चांदना जैसे ग़ज़ल के लिए 'स्ट्रेंजर' माने जाने वाले शब्दों का इस्तेमाल भी सुनियोजित ढंग से वे कर गए हैं । तत्सम शब्दों गर्जन, नयन, संस्कृति, पुण्य आदि भी सहजता से निभाए गए हैं ।  ज़िया ज़मीर के यहाँ मुहावरों /लोकोक्तियों का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिल जाता है । कान पर जूं न रेंगना, डूबते को तिनके का सहारा, जान पर बन आना आदि का इस्तेमाल प्रशंसनीय है।

संक्षेप में, कहा जा सकता है कि ज़िया ज़मीर ने जो ये फूल अपने संग्रह में सजाए हैं; उनकी ख़ुशबू पाठक के ज़ह्न और दिल में कब इतनी गहराई तक उतर जाती है उसे ख़ुद पता नहीं चलता । संग्रहणीय संग्रह के लिए वे निश्चित तौर पर बधाई के पात्र हैं और 'ये सब फूल हमारे नाम' करने के लिए भी ।



कृति-
‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ (ग़ज़ल-संग्रह)  ग़ज़लकार - ज़िया ज़मीर                                        प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद। मोबाइल-9927376877

प्रकाशन वर्ष - 2022  

मूल्य - 200₹

समीक्षक -अंकित गुप्ता 'अंक'

सूर्यनगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज, 

लाइनपार, मुरादाबाद

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल नंबर- 9759526650



शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अंकित गुप्ता अंक का हिन्दी को समर्पित गीत

 

मातृभाषा स्नेह-आँचल है,

जो हमें अपने तले महफ़ूज़ रखता है! 


बोल ये पहला हमारा है,

डूबते का ये सहारा है,

शेष सब हैं तुच्छ जुगनू-से

ये चमकता ध्रुव सितारा है;

मातृभाषा वो धरातल है-

बिन न जिसके सोच का हर वृक्ष टिकता है ।


मातृभाषा है न पिछड़ापन,

संस्कारों का यही दरपन,

ये हवा-सा शुद्ध कर देती-

देश का हर एक मन-आँगन;

मातृभाषा धार अविरल है-

देश का इतिहास जिसके साथ बहता है ।


दूसरों से जब जुड़ें संबंध,

क्या सगी माँ से मिटें संबंध?

कीजिए ये प्रण हमेशा ही-

मातृभाषा से रहें संबंध;

मातृभाषा सघन पीपल है-

छाँव में जिसकी हमारा कल ठहरता है ।

  

 ✍️ अंकित गुप्ता 'अंक'

मुरादाबाद 244001

शनिवार, 30 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अंकित गुप्ता "अंक" की दस ग़ज़लें और उन पर मुरादाबाद लिटरेरी क्लब द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा ----


वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक ग्रुप  'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' माध्यम से 28/29 मई 2020 को ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा की गई जिसमें 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत युवा साहित्यकार अंकित गुप्ता "अंक"  की गजलों पर स्थानीय साहित्यकारों ने  विचारों का आदान प्रदान किया। सबसे पहले अंकित गुप्ता "अंक" द्वारा निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत की गयीं
*(1)*
किसी को इश्क़ में हासिल हुआ है क्या
मगर इसके बिना जग में रखा है क्या

हक़ीक़त में तुम्हें पाना है नामुमकिन
तो सपने देखना भी अब ख़ता है क्या

हर इक शै में तो तुम भी हो नहीं सकते
मुझे इस बात का धोखा हुआ है क्या

सवेरे से बहुत बेजान सी है धूप
उदासी आपकी इसको पता है क्या

बहुत मुद्दत से ख़ुद को ढूँढता हूँ मैं
तुम्हें मुझसा कहीं कोई मिला है क्या

मिरे बारे में दुनिया कुछ कहे लेकिन
मिरा अच्छा-बुरा तुमसे छुपा है क्या

तनावों के हैं दिन, तन्हाइयों की रात
नई तहज़ीब में इसके सिवा है क्या

*(2)*
फूल,  ख़ुशबू, तितलियाँ,  बादे-सबा कुछ भी नहीं
आपके बिन ज़िंदगी में अब बचा कुछ भी नहीं

कर लिया ऐसे मुक़य्यद ख़ुद को उसके प्यार में
सोचकर उसको मुझे अब सोचना कुछ भी नहीं

मौत आए तो ज़रा आज़ादियों की रह खुले
ज़िंदगी तो क़ैदख़ाने के सिवा कुछ भी नहीं

आपके जाने से दिल का गाँव वीरां हो गया
यों जला कुछ भी नहीं लेकिन बचा कुछ भी नहीं

इक हवा ज़ुल्फ़े-परीशां आपकी सुलझा गई
आप धोखे में हैं मैंने तो किया कुछ भी नहीं

आँख बंद करता हूँ तो दिखती नहीं नाकामियाँ
जाग जाने से बड़ी अब बददुआ कुछ भी नहीं

*(3)*
ये  जो  तुझसे  दूर  हूँ  मैं
थोड़ा-सा  मजबूर  हूँ  मैं

सुब्ह, ज़रा-सा सब्र तो कर
ख़ाब में उनके चूर हूँ मैं

तेरी नज़र में कुछ न सही
अपनी नज़र में तूर हूँ मैं

बज़्मे-रक़ीब में मेरा ज़िक्र
क्या इतना मशहूर हूँ मैं

मैं हालात का  मारा  हूँ
तुमको लगा मग़रूर हूँ मैं

रोज़ मिलूँ नींदों के पार
फिर तुझसे कब दूर हूँ मैं

अंदर आँसू का सैलाब
बाहर से मसरूर हूँ मैं

*(4)*
यूँ भी सफ़र का लुत्फ़ उठाया जा सकता है
हर मंज़िल को राह बनाया जा सकता है

तुमसे दिल का रोग लगाया जा सकता है
मन को ऐसे भी बहलाया जा सकता है

आओ, बैठें, बात करें, रिश्ते सुलझाएँ
चुप्पी से बस बैर बढ़ाया जा सकता है

माना हमसे खुलकर मिलना है अब मुश्किल
पलकोंं के उस पार तो आया जा सकता है

देखूँ हूँ जब तुमको अकसर सोचूँ हूँ मैं
क्या ऐसा गौहर भी बनाया जा सकता है

फिर से ये अरमां जागे हैं तुमसे मिलकर
फिर से कोई ख़ाब सजाया जा सकता है

जब हम ही आधी कोशिश करके हारे तो
क़िस्मत पर क्या दोष लगाया जा सकता है

*(5)*
मेरा बिगड़ा हुआ हर काम बना करता है
कोई तो है जो मेरे हक़ में दुआ करता है

झिड़कियाँ बाप की और माँ का दुलारा करना
ये वो सरमाया है जो कुछ को मिला करता है

मुझे तन्हाइयों की धूप का डर कुछ भी नहीं
तेरी यादों का शजर साथ चला करता है

कब टिकता है बुरा वक़्त ज़ियादा दिन तक
सूखे पेड़ों को कोई फिर से हरा करता है

ये तो है अश्क छुपाने का तरीक़ा वर्ना
कौन इस दौरे-परेशां में हँसा करता है

ज़िंदगी किसके चले जाने से रूकती है यहाँ
हर एक  रात ये बाज़ार सजा करता है

*(6)*
उन्हें हर बात मेरी भा रही है
ख़ुदाई नेअमतें बरसा रही है

वो अब जो देखता है मुस्कुरा कर
मुझे उम्मीद बँधती जा रही है

भरे बाज़ार के इन क़हक़हों में
'ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही है'

दिखे हुब्बुल-वतन पर भी सियासत
ये 'आज़ादी' कहाँ ले जा रही है

चला है ज़िक्र महफ़िल में मेरा और
तेरे चेहरे पे' रंगत आ रही है

तुझे नफ़रत है मुझसे मान तो लूँ
तेरी सूरत तुझे झुठला रही है

मैं वो हिन्दोस्तां हूँ ठीक से देख
रवादारी मेरा विरसा रही है

ज़रा पेचीदगी रख शख़्सियत में
ये आसानी मुझे उलझा रही है

*(7)*
दुख से यारी कर लो तुम
जीवन भारी कर लो तुम

मर्द से आगे वो निकली
फ़तवे जारी कर लो तुम

मन है चंचल, भटकेगा
पहरेदारी  कर लो तुम

सच से, वफ़ा से तुमको क्या
'दुनियादारी' कर  लो  तुम

होगा जल्द हिसाबे-ज़ुल्म
बस तैयारी कर लो तुम

'अंक' लगाके प्यार का रोग
रातें भारी कर लो तुम

*(8)*
रूह की तह को छुए,  दिल की ज़ुबां तक पहुँचे
ऐसा कोई तो हो जो दर्दे-निहां तक पहुँचे

बस ज़रा वक़्त ही में सुब्ह हुई जाती है
पंछी धूप के पैरों के निशां तक पहुँचे

मैं तो बैठा हूँ मज़ारों पे' वफ़ा की अब तक
ज़रा अपनी भी कहो आप कहाँ तक पहुँचे

तेरे जीवन में ख़ुदा इतनी मसर्रत भर दे
कभी उसमें न मेरी आहो-फ़ुग़ां  तक पहुँचे

अहले उल्फ़त तो इशारों को समझ लेते हैं
क्या ज़रूरी है जो दिल में है ज़ुबां तक पहुँचे

हमने भर दी है बहरहाल मुहब्बत में उड़ां
देखिए नन्हा परिन्दा ये कहाँ तक पहुँचे

सोचती रहती है हर दौर की ग़ज़लों की शुआअ
किस तरह 'मीर' के उस ऊँचे मकां तक पहुँचे

*(9)*
ख़ुद ही को इस तरह से सज़ा दे रहा हूँ मैं
दुश्मन को ज़िंदगी की दुआ  दे रहा हूँ मैं

अबकी न होगी चूक मेरे क़त्ल में कोई
क़ातिल को फिर से घर का पता दे रहा हूँ मैं

मिलने की चाह में तुम्हें रुसवाई का है डर
आओ के आफ़ताब बुझा दे रहा हूँ मैं

यादों की गर्द ओढ़ के राहों में इश्क़ की
तुझ संग बीते पल को सदा दे रहा हूँ मैं

पहलूए- मौत जिस्म ज़रा चैन से रहे
लो, ज़िंदगी की छाँव बिछा दे रहा हूँ मैं

तेरी अना की रात मिटाने के वास्ते
फिर-फिर वफ़ा के दीप जला दे रहा हूँ मैं

*(10)*
ज़रा ज़िंदगी का नज़रिया बदलिए
कभी तो किताबों से बाहर निकलिए

मज़ा लीजिए ज़िंदगी का मुसलसल
अना भूलकर बारिशों में टहलिए

मोहब्बत की राहें बड़ी आत्शी  हैं
सँभलिए, सँभलिए, सँभलिए, सँभलिए

ये दिल आपका शर्तिया होगा रौशन
कभी शम्अ की सम्त इक बार जलिए

रिवायत की बेड़ी न रस्मों के बंधन
मैं पगली पवन हूँ मेरे साथ चलिए

यहाँ अब भी रुककर अदब का चलन है
दयारे-ग़ज़ल से ठहर कर निकलिए

जवानी की रुत तो सँभलने की रुत है
ये किसने कहा है इसी में फिसलिए।
      अंकित की इन ग़ज़लों पर विचार व्यक्त करते हुए प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने कहा कि "अंकित ने गीत, दोहे, ग़ज़लें आदि सभी रूपों में लिखा है। उनमें अपने समकाल की आहटों को बुनने की कोशिश की है।"
     विख्यात व्यंग कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "अंक की ग़ज़लों में कथ्य मज़बूत है। अंक में रचनात्मकता भरी हुई है तथा क्षमताओं की भी कोई कमी नहीं है"।
     वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि "अंकित की ग़ज़लों में कहने का सलीका भी है और कहन के साथ प्रकृति से मनुष्य का भावात्मक रिश्ता जोड़ने की सफल कोशिश भी है।"
      मशहूर शायरा डॉ मीना नकवी ने कहा कि "अंकित ने कम उम्र में ही साहित्य के बड़े कैनवास पर शब्दों के मनभावन रंगों से ग़ज़ल के इंद्रधनुषी चित्र अंकित किए हैं"।
      वरिष्ठ कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि "अंकित के कथ्य में जहां नयापन है वहीं उनका शिल्प भी काफी मजबूत है"।
      नवगीत कवि योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि "यहां प्रस्तुत अंकित की ग़ज़लें परंपरागत मिज़ाज की ग़ज़लें हैं। उनकी ग़ज़लों में इश्क़ और महबूब की बात बहुत सलीक़े से कही गई है।"
     वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि "प्रस्तुत ग़ज़लों से ऐसा लगता है कि अंकित गुप्ता अंक स्वयं को एक ग़ज़लकार के रूप में स्थापित करना चाहते हैं"।
      युवा शायर राहुल शर्मा ने कहा कि "प्रतीकों बिंबो उपमानों को नए तरीके से प्रस्तुत करना अंकित की वह खूबी है जो बड़े शायरों में भी ढलती उम्र में ही दिखाई देनी शुरू होती है"।
     युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि "अंकित गुप्ता अंक की ग़ज़लें कहीं न कहीं अंतर्मन को स्पर्श अवश्य करती हैं और उनका उत्कृष्ट व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में भी झलकता है।"
    युवा शायर फरहत अली खान ने कहा कि "अंकित में असीमित इमकानात मौजूद हैं खासकर इसलिए क्योंकि वह एक बढ़िया लर्नर और बहुत संजीदा क़ारी हैं"।
    युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि "अंकित जी की ग़ज़लों में कहन प्रभावी है। कई शेर स्तरीय हैं और लगता है कि अंकित जी के कदम सही राह पर हैं"।
    युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि "यहां प्रेषित सभी ग़ज़लें अंकित जी के अध्ययन को प्रमाणित करती हैं। कुल मिलाकर अंकित अंक एक संभावनाशील और प्रेरक रचनाकार हैं"।
     ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि "नौजवान शायर होने के बावजूद अंकित का इश्क़ बड़ा ठहराव लिए हुए है। यह उसकी शख्सियत का हिस्सा है। वो जिंदगी और शायरी दोनों में बहुत शालीन है।"

::::::::प्रस्तुति::::::

✍️  ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
मुरादाबाद लिटरेरी क्लब
मोबाइल- 8755681225

शनिवार, 16 मई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीना नकवी के रचना कर्म पर अंकित गुप्ता अंक का आलेख -----"दर्द से त्रस्त लोगों के ज़ख़्मों पर रुई के फाहे की तरह हैं डॉ मीना नकवी की ग़ज़लें " यह आलेख उन्होंने वाट्स एप समूह मुरादाबाद लिट्रेरी क्लब की ओर से 10 मई 2020 को आयोजित कार्यक्रम एक दिन एक साहित्यकार के तहत प्रस्तुत किया था ।



अंग्रेज़ी के एक बहुत बड़े कवि पी. बी. शैली ने भावों की अभिव्यक्ति के संदर्भ में एक जुमला दिया था कि "हमारे मधुरतम गीत वे होते हैं जो विचारों की अथाह गहराइयों से उपजते हैं ।"
एहसास की मिट्टी में जब शब्दों का बीजारोपण किया जाता है तभी डॉ. मीना नक़वी जैसा 'सायबान' 'दर्द पतझड़ का' झेलकर भी उफ़ुक़ पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है । उनकी शाइरी 'किरचियाँ दर्द की' हैं; जिनका फैलाव इन्द्रधनुषी है । यह शाइरी विरोधी तेवरों को भी उस शिद्दत से ओढ़ती है कि शाइरी की रूह भी ज़ख़्मी नहीं होती, शब्द अपनी लक्ष्मण-रेखा भी नहीं लाँघते; किंतु फिर भी लक्षितों को असहनीय तपिश भी महसूस होती है ।
भाषा को विशुद्ध संयमित रखते हुए भी वे जितने प्रभाव से अपनी बात कहती हैं; इससे सहज ही उनके मे'यार का पता चलता है । डॉ. मीना नक़वी बदलते हुए मानवीय संबंधों के प्रतिमानों के बारे में कह उठती हैं —

"इसलिये तेरे तअल्लुक़ से हैं हम सहमे हुये
इब्तेदा से पहले हम को फ़िक्र है अंजाम की"

कोई भी तख़्लीक़ तब तक मुकम्मल नहीं कही जा सकती जब तक उसमें फ़िलैन्थ्रॉपी (मानवप्रेम) का समावेश न हो । मीना नक़वी समाज में व्याप्त वैमनस्यता को यकजह्ती से 'रिप्लेस' करना चाहती हैं । वे आपसी सौहार्द्र की हिमायती हैं—


"है अज़ां अल्लाह की और आरती है राम की
गूँज है दोनों में लेकिन प्यार के पैग़ाम की“

'लव इज़ दि इटर्नल एंड अल्टिमेट ट्रूथ' अर्थात्  प्रेम को शाश्वत मानते हुए वे क्या ख़ूब रक़म करती हैं—

"प्रेम की मदिरा से भर दो, मन के आँगन का कलश
सच ये है क़ीमत नहीं होती है ख़ाली जाम की"

शिल्प के मुआमले में भी डॉ. मीना नक़वी एक बेहतरीन शाइरा हैं । ग़ज़ल तो  उनकी मूल विधा है ही, इसके अलावा गीत, दोहे, मुक्तकों के सृजन में भी वे परिणत हैं । ग़ज़लों के प्रवाह व प्रभाव की कसौटी पर वे किस क़दर खरी उतरती हैं इसकी बानगी उनकी रदीफ़ और क़ाफ़ियों की बेहतरीन जुगलबंदी से मिलती है । रवानी के हवाले से एक उदाहरण द्रष्टव्य है—

"पता है हम को कि उसकी आँखों,  में भावनाओं का जल नहीं है
इसीलिये प्रेम की दिशा में ,  हमारी कोशिश सफल नहीं है“

लगभग सभी प्रचलित बह्रों में उन्होंने अपना क़लम आज़माया है । बड़ी बह्रें सामान्य व स्वाभाविक रूप से प्रयोग में लाने में कम दुष्कर मानी जाती हैं जबकि छोटी बह्रों में यदि बात को प्रभावी ढंग से पहुँचाना हो तो यह हाथी का पाँव है । डॉ. मीना नक़वी इस इम्तिहान में भी अव्वल आती हैं—

"दिल का रिश्ता ख़त्म हुआ
दर्द पुराना ख़त्म हुआ

उसने नाता तोड़ लिया
एक सहारा ख़त्म हुआ

लम्हे भर की तल्खी़ से
रब्त पुराना ख़त्म हुआ"

और

"रुत में है कैसी सरगम
आँखें हैं पुरनम पुरनम

आँधी ने क्या ज़ुल्म किया
शाख़ें करती हैं मातम

उसके आने की आशा।
शम्अ की लौ मद्धम मद्धम

दस्तक आहट कुछ भी नहीं
फ़िर भी एक गुमाँ पैहम"

डॉ. नक़वी की शायरी फ़लसफ़ियाना सोच से मुज़य्यन है । वे तसव्वुफ़ की भी बात करती हैं और ऐस्थेटिक सेंस भी लिए रखती हैं । वे तशबीह(दृष्टांत) भी देती हैं और ज़िंदगी के 'यूनिवर्सल ट्रुथ' के प्रति सचेत भी करती हैं—


"आएगी एक दिन ज़ईफ़ी भी
सोचता कौन है जवानी में"

"उस से मिलते ही बात जान गये
हम नमक रख चुके है पानी में"

इश्क़े-मजाज़ी के साथ-साथ वे 'चरैवेति-चरैवेति' का कॉन्गलोमरेशन(सघन मिश्रण) भी बनाती हैं—

"मंज़िल नहीं मिल सकती कि तू साथ नहीं है
हो बाद-ए-मुखा़लिफ़*(विपरीत हवा), तो दिया कैसे जलेगा"


 'पाषाण',  'तरल', 'पटल', 'विटप', 'वेग', 'अधर' जैसे तत्सम शब्दों का स्थानानुरूप और लयबद्ध इस्तेमाल वे जिस तरह करती हैं; उससे देवनागरी के उनके विपुल भण्डार की भी सहज जानकारी मिलती है । जैसा पहले ही उल्लेख किया गया है कि डॉ. मीना नक़वी हिन्दी और उर्दू दोनों की मुख़्तलिफ़ तसानीफ़ में बराबर अधिकार रखती हैं । वे गीतों में भी वही असरपज़ीरी ला पाने में सक्षम हैं जो कि उनकी ग़ज़लों में झलकती है । उनके गीत श्रृंगार के रस में तो पगे हुए लगते ही हैं, साथ ही; उम्मीदों के वन में कलोल करते हुए हिरणों की तरह मासूम भी हैं ।
पी. बी. शैली अपने एक ओड में  कहते हैं, "ओ विंड!  व्हेन विंटर कम्स, कैन स्प्रिंग बि फ़ार बिहाइंड?" डॉ. मीना नक़वी ने भी अपने गीतों में इसी प्रकार की सकारात्मकता के बंदनवार लटकाए हैं  और आशा का स्वागत किया है—

"संध्या ने उजियार बुना है, दीप जले , तो सुन लेना।
मैने , प्रिय..!  इक गीत लिखा है समय मिले तो सुन लेना"

प्रस्तुत गीत भाव, छन्द और शिल्प की दृष्टि से एक श्रेष्ठ गीत है और डॉ. मीना नक़वी के गीतों के ज़ख़ीरे  में जमा'  सुंदर  रत्नों की नुमाइंदगी करता है । इस गीत की ही  "अंगनाई में यादों की जब बर्फ़ गले तो सुन लेना" पंक्ति में 'यादों की बर्फ़' का सुंदर प्रयोग हुआ है; जोकि गीत में विशिष्टता पैदा करता है ।  मैस्कुलिज़्म, पैट्रिआर्कल सोच से ग्रस्त तथाकथित एमसीपी समाज को ताक़ीद करते हुए वे अपनी दोहानुमा ग़ज़ल में क्या ख़ूब कटाक्ष करती हैं—

"मनसा वाचा कर्मणा मानव है वह दीन
महिला के किरदार पर जिसकी भाषा हीन"

इस प्रकार, डॉ. मीना नक़वी हिंदी-उर्दू अदब का वह नाम है; जिसके बिना दोनों ही भाषाओं में किसी भी तहरीर की कल्पना नहीं की जा सकती । उनकी ग़ज़लें दर्द से त्रस्त लोगों के ज़ख़्मों पर रूई के फाहे की तरह हैं तो वहीं उनके गीत आशा का उजास बिखेरते 'हारबिंजर' हैं । अपने निजी जीवन में वे जिन विकट स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही हैं; उसके बावजूद उनका सतत्, विराट एवं उत्कृष्ट लेखन नई पीढ़ी के लिए निश्चित ही प्रेरणादायी है ।

✍️ अंकित गुप्ता 'अंक'
सूर्य नगर, निकट कृष्णा पब्लिक इंटर कॉलिज लाइनपार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9759526650