बुधवार, 3 अप्रैल 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण .... बचपन वहीं रमण जाता है



 मैंने पड़ोस के गाँव रझा से सन् 1962 में कक्षा पाँच पास करके अपने गाँव से पश्चिम में पाँच किमी दूरी पर स्थित गाँव सतूपुरा के जनता राष्ट्रीय विद्यालय में छठी कक्षा में प्रवेश ले लिया था। पढ़ाई के इसी सत्र की वार्षिक परीक्षा से पहले ही मेरे पिताजी का अपने तीन भाइयों से बँटबारा हो गया था अर्थात मेरे तीन चाचाओं ने मेरे पिताजी को न्यारा कर दिया था। उसी वर्ष मेरी बीबी (माँ) को टीबी की बीमारी होने का पता हम लोगों को एक वैद्य जी को दिखाने पर लगा था। चिंता पर चिंता सवार होकर मेरे पिताजी के सामने मुँह बाये खड़ी थी। न्यारे कर दिए जाने पर घर गृहस्थी के आवश्यक सामान जुटाना और बीबी की बीमारी का इलाज कराना पिताजी की उस समय की क्षमता से परे था। मुसीबत पर मुसीबत यह थी कि उन दिनों टीबी बेहद खतरनाक बीमारियों में शुमार थी और उसका इलाज भी मुश्किल ही था।आर्थिक हालात विपरीत होते हुए भी पिताजी मुझे और मेरी बीबी को अपने ऊपर आई आफ़त पर आफ़त का आभास तक नहीं होने देना चाहते थे। मुझे स्वयं को तो बीबी की इस बीमारी और पिताजी की मन:स्थिति का लेशमात्र भी आभास वैसे भी इसलिए नहीं था,क्योंकि उस आयु में न तो इतनी समझ होती है और न ही घर-परिवार के किसी इफ एण्ड बट से कोई लेना-देना होता है।बस, खाया-पीया, खेले-कूदे और मौज उड़ाई।यही तो बचपन है जिसमें बचपना ही सब कुछ होता है। माता-पिता की उन गंभीर परिस्थितियों में भी बचपन कितना निश्चिंत और उन्मुक्त रह लेता है, इसे आजतक जब-जब सोचा है तब-तब मेरी आँखें से तब तक के जमा आँसू बह निकले हैं।

       मैंने संघर्ष देखा भी है, किया भी है और जीया भी है। इसलिए मैंने तुलसी दास की "लाभ हानि जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ" पंक्ति की पूँछ तभी से पकड़ रखी है जब यह पंक्ति कहीं से भी मेरे संज्ञान में नहीं थी। तभी तो पिताजी के सम्मुख आई विकट समस्या के समाधान की किरण तब दिखाई देने लगी,जब मंडी धनौरा के गाँव पेली वाली मेरी बड़ी मौसी ने पिताजी को यह सूचना भिजवाई कि रूपदेई (मेरी माँ) को यहाँ ले आओ। धनौरा सघन क्षेत्र के अस्पताल में नए डॉक्टर आए हैं, उनसे बात हुई है। उन्होंने कहा है,यहाँ भर्ती करा दीजिए। ईश्वर ने चाहा तो बिल्कुल ठीक हो जाएँगी।

      बीस मई को मेरा छठी कक्षा का परीक्षा परिणाम मिलना था। परीक्षा परिणाम मिला। कक्षा में मेरा पाँचवाँ नंबर था। बीबी और पिताजी के अंदर बैठी चिंता के बाबजूद भी मेरे परीक्षा परिणाम ने उनके चेहरों पर प्रसन्नता के भाव ला दिए थे।उन दिनों घर का बालक पढ़ने जाए और पढ़ने लायक निकल आए,यह किसी भी परिवार के लिए अपार खुशी की बात हुआ करती थी। मेरे परीक्षा परिणाम आने के दो-चार दिन बाद ही पिताजी इधर-उधर से कुछ पैसों का जुगाड करके बीबी और मुझे लेकर मौसी के गाँव पेली को चल दिए।आज तो मेरे गाँव से पेली एक-सबा घंटे में ही पहुँच जाते हैं, लेकिन तब? सुबह से शाम हो जाती थी। मेरे गाँव से पाँच किमी पहले दहपा जाना पड़ता था और दहपा घंटों इंतजार करके सम्भल से हसनपुर जाने वाली बस में बैठकर हसनपुर पहुँचना तथा हसनपुर से जुगाड़ू साधन से गजरौला पहुँचकर रेलवे स्टेशन तक पहुँचना और वहाँ पर दो बजे तक ट्रेन का इंतजार करना। दो बजे ट्रेन से चलकर धनौरा पहुँचना और धनौरा से पैदल या स्टेशन से सवारी लेने अथवा छोड़ने आए किसी की बैलगाड़ी या ताँगा जैसे साधन के मिल जाने पर पाँच किमी चलकर पेली पहुँचना। इस रास्ते और इन साधनों से हम शाम तक दिन-दिन में ही पेली पहुँच गए। रेल तो धनौरा आधा घंटे में ही पहुँच जाती थी।पर गर्मियों में लोग स्टेशन पर ही पेड़ों की छाँव में कुछ खा-पीकर आराम करके दुपहरी ढले ही गन्तव्य के लिए प्रस्थान करते थे। जिन्हें कुछ आवश्यक कार्य या कोई विवशता होती वे ही उस रास्ते की तपती रेत की यात्रा पर दोपहरी में ही चल पड़ते थे। रास्ते में धनौरा से पेली तक रेत ही रेत और रेत के टीले थे। मैदानी भागों में रहने वालों के लिए तो वही रास्ता सचमुच में थार का मरुस्थल ही था। चलते हुए पाँव उस तपते हुए रेत में अंदर धँसने और बाहर निकलने में और तेज से गति से क्रियाशील होकर मंजिल शीघ्र तय करने में खूब मदद करते थे।

          आज तो धनौरा से पेली को चलें तो धनौरा से अमरोहा जाने वाली सड़क पेली के एक किलोमीटर दाँई ओर से गुजरती है और एक सड़क पेली के बाँई ओर से होती हुई नौगांवा सादात को जाती है। इन दोनों ही सड़कों पर प्राइवेट बस सेवा उपलब्ध है। लेकिन,उस समय? उस समय पेली से धनौरा का रास्ता रेत की भूड़ों का ही रास्ता था। गर्मियों के दिनों में उन भूड़ों का रेत शाम ढले तक तपता ही रहता था और सुबह को भी आठ बजे से ही तपना शुरू हो जाता था। पाँव भुनते रहते थे और मंज़िल तय होती रहती थी।

         अस्तु!दो दिन बाद बीबी को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। चार-छह दिन पिता जी वहाँ रहे तो मैं और पिताजी दोनों ही बीबी के लिए दोनों समय का खाना सुबह को एक बार ही लेकर पेली से रोज़ धनौरा आते और शाम को वापस पेली लौट जाते। बीबी के इलाज के लिए पिताजी को और पैसों की व्यवस्था करने तथा  बँटबारे में थोड़ी-बहुत खेती की जो जमीन आई थी, उसे किसी को बटाई पर देने के लिए अपने गाँव जाना आवश्यक था। उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम अपनी बीबी के लिए रोज़ाना खाना ले जाया करोगे। मैंने उत्साह में भरकर ख़ुशी-खुशी कह दिया,हाँ।दो दिन बाद पिताजी गाँव चले गए और मैं रोज़ाना बीबी का खाना ले जाने लगा।सुबह आठ-नौ बजे तक पेली से चलता। एक-डेढ़  घंटे में अस्पताल पहुँचता और दिन ढले धनौरा से चलकर सूरज छिपने से पहले-पहले पेली पहुँच जाता। गर्मा-गर्म रेत का ठंडियाता वह सफ़र मेरे नन्हें पाँव तय करना दो-तीन दिन में ही सीख गए थे।

            बालपन की छोटी सी उस उम्र में न खेल-कूद और न ही बचपन की मटरगश्ती,बस पेली से धनौरा और धनौरा से पेली। बचपन की दिनचर्या इतने में ही सिमट कर रह गई थी। इतने दुखदाई समय में मन इसलिए प्रसन्न रहने लगा था कि बीबी की बीमारी में दिनों-दिन सुधार होने लगा था और वह शारीरिक रूप से सुधार के कारण मानसिक चिंता से प्रसन्नता की ओर लौट लगीं थीं।

           धनौरा अस्पताल 'सघन क्षेत्र' में स्थित था और सघन क्षेत्र धनौरा से चाँदपुर जाने वाली सड़क के बाँई ओर एक दम बाहर की साइड था। किसी भी चीज की आवश्यकता होने पर धनौरा की बजरिया तक जाना ही पड़ता था। और तो किसी चीज की आवश्यकता अस्पताल में पड़ती ही नहीं थी।हाँ,कपड़े धोने का साबुन या छोटा-मोटा कुछ सामान ले आने के लिए मैं अस्पताल से बजरिया दो-तीन बार जा चुका था। एक दिन बीबी ने मुझे एक चवन्नी देकर कहा जा बजरिया से तरबूज ले आ।मैं चवन्नी लेकर बजरिया को चल दिया। बजरिया में कई जगहों पर तरबूज के बड़े-बड़े ढेर लगे हुए थे।एक ढेर पर मैं रूक गया और अपनी पसंद का तरबूज छाँटने में लग गया। छोटे-बड़े कई तरबूजों के मैंने पैसे पूछे।कई तरबूज चार आने से अधिक के थे।तब तरबूज वाले ने ही मुझसे पूछा - "बेटा तुम्हें कितने पैसे वाला तरबूज चाहिए।" मैंने कहा - " मेरे पास तो एक चवन्नी है।" तरबूज वाले ने मुझे एक चार-पांच सेर का तरबूज निकाल कर दे दिया। मैंने तरबूज लिया और चवन्नी तरबूज वाले को देकर वापस चल दिया। तरबूज ले जाकर अस्पताल में बीबी को दे दिया। बीबी का ध्यान मेरे पाँव पर गया तो वह तपाक से बोलीं कि तेरे चप्पल कहाँ हैं? चप्पल पाँव में थे ही नहीं। मैं उदासी से भर गया। कंगाली में आटा जो गीला हो गया था। मैंने बीबी से कहा बीबी चप्पल तरबूज वाले के यहाँ ही रह गए। मुझे याद आ गया था कि मैं चप्पल उतार कर अपनी पसंद का तरबूज लेने के लिए तरबूजों के ढेर के चक्कर काट रहा था। मैं बीबी से कहकर बजरिया को अपने चप्पल ले आने के लिए चल दिया। तरबूज वाले के पास पहुँचा और उनसे मैंने कहा कि मेरे चप्पल यहाँ रह गए थे। उन्होंने कहा - देख लो बेटा! कहाँ रह गए थे? मैंने वहाँ अच्छी तरह से हर जगह देख लिया लेकिन चप्पल नहीं मिले और मैं वापस लौट आया। लौट कर बीबी की गोद में मुँह देकर लुढ़क गया और खूब रोया । बीबी भी मेरे रोने पर जी भर कर रोई।उस दिन चप्पलों का खो जाना, मेरे लिए मेरा तो बहुत कुछ खो जाना था।उस समय मेरे चेहरे पर घोर उदासी थी ही पर मेरे भीतर और भी घनघोर उदासी व्याप्त थी। मैं और बीबी दोनों ही तरबूज खाना भूलकर चप्पलों में ही खो गए। किसी चीज का किसी के लिए क्या महत्व होता है,वह ऐसे ही क्षणों में पता लगता है?उस दिन मुझे ऐसा लगा कि चप्पल क्या गए बड़ा सहारा चला गया। बड़ा सहारा इसलिए कि प्रतिदिन भूड़ो के गर्म रेत के रास्ते की यात्रा करने में ये चप्पल ही तो एकमात्र सहारा थे।अब जाने चप्पल कब नसीब होंगे,कैसे होंगे,कुछ भी पता नहीं।चप्पल मुझ पर नहीं थे पर मैं चप्पलों में ही पड़ा हुआ था। तरबूज न बीबी ने खाया और न ही मैंने । दोपहरी ढले मैं हर दिन की तरह रुआंसा सा पेली के लिए चल दिया। पेली पहुँचा तो मुझे उदास देख मौसी ने पूछा कारिनदर क्या बात है,बेटा। मैंने सारी कहानी सुनाई तो मौसेरे भाई-बहन और मौसी इतना हँसें कि उनकी उन्मुक्त हँसी ने मुझे भी हँसा दिया और मौसी ने ढाँढस बँधाया कि चिंता मत कर बाबले,चप्पल ही तो खोए हैं,मौसा-मौसी थोड़ी ही खोए हैं। तेरे मौसा जिस दिन धनौरा जाएँगे, तुझे चप्पल दिला देंगे या गाँव में फेरुआ आ गया तो मैं यहीं ले लुँगी तेरे नाप के। मैं अगले दिन नंगे पाँव बीबी का खाना लेकर गया तो मैंने बीबी को बताया कि मौसी ने कह दिया है कि वह मुझे चप्पल दिला देंगी। बीबी ने मुझे गले लगा लिया और तरबूज फाड़कर मुझे खिलाने लगीं साथ- साथ उन्होंने खुद भी खाया। मेरे पीछे-पीछे मौसा जी भी अस्पताल पहुँच गए और बजरिया ले जाकर मुझे चप्पल दिला लाए। शाम को मैं और मौसा जी पेली पहुँच गए और हमारे एक -डेढ़ घंटे बाद पिताजी भी अपने गाँव से अस्पताल होते हुए पेली पहुँच गए।

    पहले तो मेरे चप्पलों पर आपस में खूब बात हुई।मेरे खोए चप्पल मुझे गुदगुदाने की कहानी बन गए,

पर मेरी चिंता तो उड़नछू होकर नए चप्पलों का गौरव पाकर बल्लियों उछलने लगी थी। जुलाई आने को थी।मेरा स्कूल खुलने वाला था। मुझे अपने गाँव लौटना था। पिताजी ने पूछा - कारेन्द्र तुम अकेले गाँव चले जाओगे। मैंने उछल कह दिया,हाँ। और अगले दिन

पिताजी ने मुझे आधा टिकट लेकर धनौरा से गाड़ी

मैं बैठा दिया और खर्चे के लिए बीस रुपए देकर गाड़ी में बैठाकर घर के लिए विदा कर और मैं शाम को अपने घर पहुँच गया।

       घर पर दादी थीं और दो चाचा जी थे। न्यारे हो ही चुके थे। मुझे सभी का व्यवहार बदला-बदला लगा। मैं

सुबह को अपना बस्ता और कपड़े लेकर स्कूल चला गया। सतूपुरा स्कूल के एक किलोमीटर पर पेली नाम का ही एक गाँव है।वहाँ मेरी दो मौसियां थी। उनके घर भी बराबर-बराबर ही धे। दोनों घरों में कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता था। परस्पर मेल-जोल का अभूतपूर्व उदाहरण थे वह दोनों घर। मैं स्कूल की छुट्टी के बाद अपनी मौसियों के यहाँ पहुँच गया।मैं मौसी के घर से ही स्कूल आने-जाने लगा। उधर जुलाई के अंत तक पिताजी भी बीबी को लेकर गाँव पहुँच गए और इस सूचना को अपने गाँव के अन्य छात्रों से जानकर मैं भी अपने गाँव चला गया। बीबी बिल्कुल ठीक होकर घर पहुँची थीं। दवाई आगे भी चलनी थी।

         एक दिन पिताजी और बीबी दोनों ने पूछा कि तू यहाँ आकर मौसियों के यहाँ क्यों चला गया। मैं उन्हें उनके प्रश्न का उत्तर तो नहीं दे पाया, लेकिन उत्तर तो मेरे पास था कि उपेक्षा के दर से लाड़,प्यार और दुलार के घर चला गया था। बचपन को यही तो चाहिए।यह जहाँ भी मिल जाता है, बचपन वहीं रमण जाता है।

        

✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी

झ -28, नवीन नगर

काँठ रोड, मुरादाबाद - 2440011

मोबाइल: 9319086769

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