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शनिवार, 1 जनवरी 2022

मुरादाबाद मडल के बहजोई (जनपद सम्भल )के साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा का कहना है ---सब प्यार में ही खो जाएं इस नए साल में


 कुछ बात ऐसी हो जाएं इस नए साल में 

सब मैल मन के धो जाएं इस नये साल में 


न फासले कोई रहें ना हो कोई तकरार ही

सब प्यार में ही खो जाएं इस नए साल में 


बागों में खिलते रहे फूल अपनी उम्र तक 

कुछ ऐसे बीज बो जाएं इस नए साल में 


महकी हो दूर तक फिजा जहां तक रसाई हो 

सब रंगो बू में सो जाएं इस नए साल में


✍️ धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

रविवार, 6 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल ) के साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा की रचना ---- वृक्ष धरा का आभूषण हैं इनको मत काटो प्यारे

 


वृक्ष धरा का आभूषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे 

हर लेते सारा प्रदूषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे


लकड़ी फूल  फल देते 

देते प्राणवायु हम सबको 

करते हम सबका पोषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे 


जनम से लेकर मृत्यु तक 

काम हमारे आते हैं ये 

ये सृष्टि का आकर्षण हैँ 

इनको मत काटो प्यारे 


वृक्ष ना होते अगर धरा पर 

सोचो क्या जीवन संभव था 

ये लाते शीतल वर्षण हैँ 

इनको मत काटो प्यारे 

✍🏻 धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा की लघुकथा ----नसीब

 


मुंह अंधेरे वो वो घर से निकल पड़ता । नदी के आंचल से रोज एक बुग्गी रेत  भरता और निकल पड़ता किसी गाँव की ओर । बरस के आठ महीने यही उसका रोजगार था ।इसके लिए उसे रोज सौ डेढ़ सौ रुपये चुकाने पड़ते पर परिवार का खर्चा चल ही जाता । चिंता में उसके आधे बाल सफेद हो गये थे।  वो औरों के पक्के घरों के लिए रेत मसाला ढोता लेकिन खुद रहता मिट्टी के कच्चे घर में, जिसका छप्पर भी पिछली बरसात में जवाब दे गया था। बड़ी बिटिया सयानी हो गयी थी। उसके हाथ कैसे पीले हो इसी फिक्र में वो आधा रह गया था ऊपर बैल भी बूढ़ा हो चला था ।

सुबह के धुंधलके में वो रेत की बुग्गी भरकर नदी की गहराई से कछार की ओर बढ़ रहा था/ बूढा बैल सहसा ठिठका । एक लाल पत्थर, जो कटान रोकने के लिए लगे थे एक पहिये के नीचे आ गया। वो झटके से बुग्गी से उतरा और बैल की नाथ पकड़ कर खींचने लगा लेकिन उस ऊचाई पर पहुँच कर बैल ने घुटने टेक दिए । क्षणभर में बुग्गी लुढ़क कर नदी की रेतीले मैंदान में जा गिरी । लाखन ने दौड़ कर बल्लियों में फंसे बैल की रस्सियाँ ढीली की लेकिन बैल के प्राण  पखेरू उड़ चुके। 

 वो घुटनों के बल गिर पड़ा । नयनों से अश्रुधारा फूट पड़ी। कौन था दुनिया में उसका । एक वही तो सुख दुःख का साझेदार था/ एक पल में उसकी रोजी रोटी छिन गयी थी/अब उसके सामने परिवार के भरण पोषण का भीषण संकट था।      

✍️धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल)के साहित्यकारधर्मेंद्र सिंह राजौरा की लघुकथा -----गंदगी


वो चौराहे पर अक्सर पायी जाती/ठेले वाले , खोमचे वाले , दुकानदार उसकी विक्षिप्तता पर तरस खाकर उसे कुछ न कुछ खाने को अवश्य दे देते/उसके  बाल उलझे हुए थे न जाने वो कितने दिनों से नहीं नहाई थी/कुछ लोग कहते हैं कि वो किसी अच्छे परिवार की बहु थी जिसका परित्याग कर दिया गया था और उसका कुसूर ये था कि शादी के कई साल बाद भी उसे कोई सन्तान न हुई थी/


कुछ  संभ्रांत लोग वहां खड़े हुए थे  और शाम के समय  एक ठेले पर खड़े केले खा रहे थे उनमें से एक ने उसे खाने को  तीन चार केले दे दिए/उसने केले खाये और अपने व उन लोगो के छिलके लेकर जाने लगी /  एक तेल टेंकर वहाँ से गुजर रहा था/ क्लीनर ने दरवाजा खोला और एक जोर की पीक सड़क पे मारी शायद उसने गुटखा खाकर पीका था/ उस विक्षिप्त अवस्था में भी उसे यह बात नागवार गुजरी /वो पलट कर टेंकर के पीछे दौडने लगी / टेंकर की रफ़्तार तेज़ थी लेकिन सौभाग्य से सड़क पर थोड़ा जाम था सो उसकी गति धीमी हो गई/  

औरत ने सारे छिलके टेंकर की छत पर दे मारे/ छिलके फैंकने के बाद उसके चेहरे पर परम संतोष के भाव उभरे/ कितना सटीक था उसका निशाना / वो खिलखिला कर हंसी और चौराहे की और मुड़ गयी किसी भाला फेंक विजेता की मानिन्द/

शायद वो गंदगी करने वाले क्लीनर को सबक सिखाने में सफल हुई थी/

✍️ धर्मेंद्र सिंह राजोरा, बहजोई,जिला सम्भल

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा की लघुकथा -----सत्ते पे अट्ठा

 


मध्यमवर्गीय परिवार के मुखिया शर्मा जी बाजार से घर का सामान लेकर लौटे तो देखा श्रीमती जी सास बहू सरीखा धारावाहिक देख रहीं थीं।

पति महोदय भड़क गये। "कूलर के साथ पंखा चल रहा है दिन में तीन तीन लाइट जल रहीं हैं, बिजली की बर्बादी हो रही है, इतना बिल भरना मेरे बस की बात नहीं।"

पत्नी , पति की बकवास बड़े शान्त भाव से सुनती रहीं।भड़ास निकाल कर शर्मा जी अपने कमरे में चले गए।

    करीब घण्टे भर बाद शर्मा जी उठे और सबमरसिबल चला कर अपनी बाईक धोने लगे। पानी थोड़ी देर चलकर बंद हो गया।तभी उनकी छ:वर्षीय पुत्री बाल्टी और जग लेकर आयी। शर्मा जी उसे आश्चर्य से देख रहे थे।उनकी नजर घूमी तो सामने दरवाजे पर पत्नी तनी खड़ी थी।

"पापा, ये आपके लिए। " बेटी एक कागज का पुर्जा उन्हें थमा कर चली गई। लिखा था---

"मिस्टर देवव्रत शर्मा जी

कितने लीटर पानी बरबाद करोगे? 

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

अब उपदेश तुम्हारे न मेरेे"

           आपकी राधा

पढ़कर शर्मा जी ने बाल्टी जग उठाये और अपने काम पर लग गए।

✍️ धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा की लघुकथा ----दारोगा

 


देश दुनिया भयंकर महामारी की त्रासदी से जूझ रहे थे ।गाँव नगर में तालाबंदी थी और संक्रामक रोग था कि कम होने का नाम नहीं ले रहा था। शहर की तीन बड़ी परचून दुकानें जो मुख्य बाजार में सड़क के एक ही ओर स्थित थी, भी यदा कदा चोरी छिपे खुलतीं। दुकानों के सम्मुख नमक की बोरियां पड़ी थी जिनपर एक विक्षिप्त युवक एक डंडा लेकर बैठा रहता। कहते हैं करीब दस ग्यारह वर्ष पूर्व एक पुलिस भर्ती घोटाले के चलते नियुक्त सिपाही जिनका प्रशिक्षण भी पूर्ण हो चुका था, की नौकरी चली गई थी, जिनमें से वो भी एक था।

नौकरी छूटने के सदमे से वो पागल हो गया था।अब उसने उन नमक की बोरियों की देखभाल का नया रोजगार तलाश लिया था, वो भी अवैतनिक। ये बात दीगर है कि बोरियां कल भी सुरक्षित थी और आज भी, क्योंकि हमारे समाज में नमक की चोरी वर्जित है।

हर  आते जाते लोगों को वह पास बुला कर कहता इस में नमक है, दीवाना जो ठहरा जो उसे नहीं जानते थे वो मुस्कुरा कर चले जाते । पास के एक अध्यापक महोदय,जिनकी साहित्य में विशेष रुचि थी, ने उसे नमक का दारोगा की उपाधि से नवाजा तभी से सभी उसे दारोगा कहकर पुकारते/उस विक्षिप्त अवस्था में वो अपने को प्रोन्नत होकर दारोगा समझता था । उस संबोधन से वो अति प्रसन्न रहता।

जब कोई नमक के पास आने की कोशिश करता तो वो ड़डा लेकर पीछे पड़ जाता। समय का खेला देखिए कि जहाँ अब तक आसमान से एक भी बूंद न फूटी थी, जबकि बारिश का मौसम बीतने में कोई कसर न थी , कई दिनों तक लगातार पानी गिरा। पास में बहने वाले नालों के तटबंध दरक गए ।शहर में बाढ़ जैसे हालात हो गये । पानी घरों को दाखिल चुका था और लोगों ने घरों की छत पर पनाह ले रखी थी।

एक तो पहले से प्रकृति का प्रकोप कम न था, ऊपर से ये आफत और आन पड़ी। बारह तेरह दिन बाद जब पानी का प्रवाह कम कम हुआ तो पता कि नमक की बोरियां बहती जलराशि की भेंट चढ़ चुकीं थीं। प्रकृति ने दरोगा का रोजगार छीन लिया था।आज वो फिर से बेरोजगार हो चुका था।पहली बार सरकारों की सियासत ने उसे बेरोजगार किया इस बार प्रकृति ने।

✍️ धर्मेंद्र सिंह राजौरा

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल) के साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा की लघुकथा ----धूल


नन्ही जया अपने घर के आंगन में खेल रही थी तभी बाहर से आती एक मधुर ध्वनि  उसके कानों में पड़ी| ध्वनि सुनकर जया मचल उठी|   गली में फेरीवाला 'आइसक्रीम वाला' कहकर आइसक्रीम बेच रहा था | बरामदे में उसकी दादी पुराने कपड़े सिल रही थीं| जया उनके पास गई और बड़े आतुर भाव से उनके कान में कुछ कहा|
" अपने बाप से जा कर ले" दादी ने कहा था|
 जया  मायूस हो गई बच्ची को उदास देखकर दादी उठी और खुंटी पर टंगे  अपने पति के कुर्ते को ले आईं जो उन्हें  सिलना भी था ,अचानक दादी ने जया को पुकारा और 10 का नोट दे दिया जो उन्हें कुर्ते से मिला था | जया खुशी से कूदती घर से बाहर चली गई और आइसक्रीम ले आई एक अपने लिए और एक अपने भाई के लिए |
थोड़ी देर बाद जया के दादाजी घर आए उन्होंने सिला कुरता देखा लेकिन जेब खाली देखकर व्यग्र हो  उठे
" इसमें कुछ पैसे थे "उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा
"10 का नोट निकला था उससे बच्चों ने आइसक्रीम ले ली " जया की दादी ने जवाब दिया
 "अब मैं बीड़ी किससे लाऊंगा मेरे पास एक पैसा भी नहीं  है|"
 " बच्चे जिद कर रहे थे मैंने पैसे दे दिए|"
"अच्छा किया ! मैं पूरे दिन खेतों में बैल की तरह कमाता हूं , एक दो बीड़ी पी लेता हूं तो क्या गुनाह  है? "
   "थूकते खांसते तो फिरते हो गली मोहल्ले में ,आज बच्चों ने कुछ खा लिया तो क्या गुनाह कर दिया ? बीड़ी पीने से क्या होता है ,कम से कम बच्चों ने कुछ  पेट में तो खाया|"
 बलधारी सिंह निरुत्तर थे और इससे पहले उन्होंने अपनी पत्नी को कभी इतना मुखर नहीं देखा वह  उदास होकर खटिया पर जा बैठे|
 पड़ोस के वकील चाचा उनके पास आए और उन्होंने दो बीड़ी  जलाकर एक बलधारी सिंह को दे दी |बलधारी जी ने एक दम लगाया लेकिन आज उन्हें बीड़ी का स्वाद कसैला लगा| उन्होंने  बीड़ी तोड़ कर फेंक दी , वकील चाचा आश्चर्य से देखते रह गए| बलधारी उठे और अपनी बैठक में चले गए | सामने की अलमारी में भगवान राम का चित्र लगा हुआ था और नीचे  मानस का गुटका रखा  था | बलधारी जी ने देखा गुटके पर धूल जमी हुई थी उन्होंने उस पवित्र पुस्तक को उठाया और अपने कुर्ते से साफ किया फिर उन्होंने गुटका यथा स्थान रख दिया और तस्वीर के सामने नतमस्तक हो गए| उनके अंतस से भी धूल हट चुकी थी गुटके की मानिन्द|
                   
 ✍️ धर्मेंद्र सिंह राजौरा
बहजोई