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शनिवार, 30 अक्तूबर 2021

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद सम्भल) के साहित्यकार डॉ मूलचन्द्र गौतम का व्यंग्य ---- सोना उछ्ला चांदी फिसली


 आज भी आम आदमी की समझ में सेंसेक्स और निफ्टी के बजाय प्याज , टमाटर की तरह सोने-चांदी की कीमतों से ही महंगाई का माहौल पकड़ में आता है। उसके लिये डालर और पौंड से रुपये की कीमत के बजाय सोने-चांदी का भाव ज्यादा प्रामाणिक है।सरकार भी जनता के मन में अपनी साख जमाने के लिये लगातार बताती रहती है कि उसके पास विदेशी मुद्रा के अलावा कितना सोना जमा है।

      पुराने जमाने के आदमियों के पास सोने का भाव ही भूत और वर्तमान को नापने का पैमाना होता है।घी,दूध,गेहूँ,चना,गाय ,बैल और भैंस का नम्बर इनके बाद आता है।आजकल चाय का रेट भी इस दौड़ में शामिल हो गया है। कारण सबको मालूम है।

       सोने पर अमीरों का एकाधिकार है बर्तन भले उन्हें चांदी के पसंद आते हों।उनके मंदिरों में भगवान भी अष्टधातु के बजाय  शुद्ध सोने के होते हैं क्योंकि वहाँ उन्हें किसी सीबीआई और ईडी के छापों का डर नहीं होता।गरीबों का सपना भी हकीकत में न सही लोकगीतों में सोने के लोटे में गंगाजल पानी का होता था और मेहमानों के लिये भोजन भी सोने की थाली में परोसा जाता था।अब तो स्टील के बर्तनों ने गरीब पीतल और ताँबे के बर्तनों को प्रतियोगिता से आउट कर दिया है और दावतें भी पत्तलों के बजाय प्लास्टिक के बर्तनों पर होने लगी हैं ।

    खरे सोने के नाम पर रेडीमेड जेवरों में मिलावट का पता ही नहीं चलता।जबसे सरकार ने हालमार्क छाप जेवरों की बिक्री अनिवार्य की है तब से मिलावटखोरों की नींद हराम है।ज्यादा अमीरों ने सफेद सोने के नाम पर प्लेटिनम खरीदना शुरु कर दिया है लेकिन पीले सोने को मार्केट में पीट नहीं पाये हैं।दो नम्बर का पैसा आज भी सोने में ज्यादा सुरक्षित रहता है भले बैंक के लाकरों में बंद पडा रहता हो ।

     जबसे सोने के जेवरों की छीन झपट शुरु हुई है तबसे नकली गहनों ने जोर पकड़ लिया है।अब झपट मार भी पछताते हैं कि क्या उनकी मति मारी गयी थी जो इस धंधे में आये।इसलिये उन्होंने हथियारों की तस्करी शुरू कर दी है।

नोटबंदी के बाद रियलिटी मार्केट डाऊन है जबकि सोने में निरंतर उछाल है। सौ दो सौ कम होते ही सोना अपने प्रेमियों के लिये धड़ाम हो जाता है। सटोरियों के चक्कर में शुगर और ब्लड प्रेशर की तरह सोना थोडा ऊपर नीचे होता रहता है लेकिन आयात में आज भी वह नम्बर वन है। एयर पोर्टों पर ड्रग्स के मुकाबले सोने की तस्करी की खबरें ज्यादा आती हैं।तस्कर भाई बहिन पता नहीं शरीर के किन किन गुप्तांगों में सोना छिपाकर ले आते हैं। सोना आखिर सोना है।


✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम 

शक्ति नगर,चंदौसी, सम्भल 244412

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल  8218636741

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी ( जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार डॉ मूलचंद्र गौतम का व्यंग्य विमर्श ---- तथाकथित व्यंयकारों को सादर सप्रेम--- नख दंत विहीन सरकारी और असरकारी व्यंग्य

 


जब से सत्ता की चाल ,चरित्र और चेहरे मोहरे में बदलाव हुआ है व्यंग्य की जमीन बंजर हो गयी है ।पता नहीं कब किस बात पर व्यंग्यकार और कार्टूनिस्ट को नक्सली बताकर उसकी सरकारी हत्या कर दी जाये ।अच्छा हुआ परसाईजी व्यंग्य की एवज में टाँग तुड़वाकर मामूली सी गुरुदक्षिणा देकर समय से विदा हो गये अन्यथा उनकी सद्गति कलबुर्गी जैसी ही होती ।

सत्ताधारी ताकतवर व्यक्ति और कट्टरपंथी समूह के पास व्यंग्य को बर्दाश्त करने की सहनशक्ति प्रायः नहीं होती ।तानाशाह को तो कतई नहीं ।हिटलर और चार्ली चैपलिन का द्वंद्व जगजाहिर है ।शार्ली एब्दो का उदाहरण तो एकदम समकालीन है ।

व्यंग्य वैसे भी व्यवस्था की विसंगतियों और बिडम्बनाओं से उपजता है जो शिकार में प्रतिहिंसा को जन्म देता है ,जिसका कोई भी दुष्परिणाम हो सकता है।जेल जाने से तथाकथित लेखक और बुद्धिजीवी भी नहीं डरता क्योंकि उसके बाद बाजार में उसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है ,सत्ता के बदलने से तो  पदम् सम्भावना भी ।

अमूमन हास्य व्यंग्य साथ साथ चलते हैं इसलिए उनके बीच का फर्क नजरअंदाज किया जाता है ।कविसम्मेलन तो अब हास्य व्यंग्य के ही पर्याय हो गये हैं जबकि दोनों के बीच बड़ा फर्क है ।हास्य जहाँ अपने हर रूप में गुदगुदाता है वहाँ व्यंग्य नश्तर चलाता है ,कई बार ख़ंजर भी ।कई बार व्यंग्य जब कटु उपहास और कटाक्ष का रूप ले लेता है तो उसके परिणाम भयंकर होते हैं ।इसीलिए व्यंग्य को केवल नकारात्मक न होकर सकारात्मक और सुधारात्मक होना चाहिए ।  हल्के फुल्के हास्य को लोग हँसकर झेल जाते हैं जबकि व्यंग्य को दुर्योधन की तरह दिल पर ले लेते हैं और मौका मिलते ही बदले की फ़िराक में रहते हैं।कितना ही लोग ऊपरी मन से  निंदक को नियरे रखने की उदारता दिखाएं लेकिन आलोचक की तरह व्यंग्यकार भी अझेल है।उसे हर जगह गालियां ही मिलती हैं ।यही उसका दुर्भाग्य है ।

जिन महापुरुषों ने साहित्य को सत्ता का स्थायी विपक्ष बताया था उन्हीं को बाकी कलाएँ गोल मोल नजर आती थीं, जिनकी न कोई प्रतिबद्धता थी ,न जोखिम।हर समय राग दरबारी जिसका नया नामकरण गोदी मीडिया हो गया है ।नख दंत विहीन कला की तुलना शालिग्राम से होती थी जिसमें कोई काँटा ही नहीं होता ।एकदम आशुतोष।उनकी स्प्रिंगदार जीभ इतनी घुमावदार थी कि उसमें अनेकान्तवाद की अपार संभावनाएं थीं ।वे ब्रह्म की तरह सर्वकालिक, होने के साथ ही कालातीत कला के पुरोधा थे ।वे साक्षात विरुद्धों के सामंजस्य थे ।उनके इशारों पर कलाओं के भूगोल खगोल बदलते थे ।प्रकाशकों की बत्ती जलती बुझती थी ।

व्यंग्य तो वैसे भी क्षत्रिय विधा है जो दीन हीन हो ही नहीं सकती ।व्यापारियों ने इसे भी सरकार की चापलूसी में लगा दिया है ।पता ही नहीं चलता कि व्यंग्यकार जूते चाट रहा है या जूते मार रहा है ।वह विषहीन डिंडिभ सर्प की तरह है जिसका अचार डाला जा सकता है ।सत्ता जब ऐसी कटु सत्यवाचक विधा को भी अपनी जरखरीद दासी बना ले तो फिर कहने को बचता ही क्या है ? एक वक्त था जब सत्ताधीश कार्टूनों के आप्तवाक्यों के पीछे जनमत के कूटार्थ बाँचते थे ।अब तो वे दम ही तोड़ चुके हैं ।

सरकारी ठप्पा लगते ही लेखक की हर रचना विज्ञापन और क्रांति विरोधी हो जाती है।तब क्या रचना के लिये जेल जाये बिना क्रांति सम्भव ही नहीं ?पुरस्कार वापसी गैंग इसीलिए अब प्रतिक्रान्तिकारी होने का लाभ नहीं उठा सकता ।यानी राष्ट्रवादी होने की सारी सम्भावनाएं हमेशा के लिये समाप्त।अब सरकार बदलने पर ही शहर की सम्भावना सम्भव है ।गाँव का जीवन यों भी कष्टकारी है ।अतीत में चिरगांव से  राज्यसभा जाना सम्भव था लेकिन अब वहाँ सिर्फ मनरेगा की मजदूरी मिल सकती है ।उसमें भी पत्ती तय है ।

जब से मीडिया में सम्पादक की जगह मालिक ने जबरिया छीन ली है तब से वह सरकारोन्मुख हो चुका है ।मालिक का शुभ लाभ सरकार से ही सधता है तो उसके विरुद्ध कौन मतिमन्द जाना चाहेगा? अब हर जगह सम्पादक नाम का एक रीढ़हीन जीव दिखावे के लिये रख लिया जाता है जो मालिक की इच्छा के अनुसार कठपुतली की तरह नाचता रहता है ।थोड़ी सी आजादी उसे मालिक दे देता है ताकि उसे जीवित होने का अहसास बचा रहे ।वह इतना आत्मानुशासित हो जाता है कि सत्ता विरोधी लोकतांत्रिक आलोचना और रचना को विमर्श से बाहर रखने में ही पूरी ताकत लगा देता है ।यही ऑटो दिमागी कंडीशनिंग बाकी व्यक्तित्वहीन पुतलियों की हो जाती है जो उसको सन्तुष्ट रखती हैं।कहीं से कोई संकट या आपत्ति आती है तो सबसे पहले इसी निरीह प्राणी की बलि चढ़ाई जाती है ।अपवादस्वरूप किसी के कुछ कील कांटे बचे हैं तो उन्हें सीबीआई और आईडी के छापों ने झाड़ दिया है और वह चुपचाप मुख्यधारा में घिस और घुस चुका है ।जिंदा रहने की शर्त ही जब सरकारी विज्ञापन हो तो विकल्प भी क्या हो सकता है ।यानी राजनीति की तरह विकल्पहीनता का संकट यहाँ भी है ।ऐसे में न असरकारी पत्रकारिता की गुंजाइश है ,न साहित्य की ।सब कुछ तात्कालिक  उत्पादन में बदल चुका है आदतन कि इसके सिवा कुछ कर नहीं सकते।

अब सबसे बड़ा संकट उन पत्रकारों ,रचनाकारों के सामने है जो अपने औज़ारों से क्रांतिकारी काम लेना चाहते हैं।उन्हें कोई मीडिया समूह झेलने को तैयार नहीं।पार्टियों की अपनी शर्तें हैं।सब कुछ ऐसे छद्म में तब्दील हो चुका है जहाँ कोई पहचान ही नहीं बची है ।कुल मिलाकर यह विचार और विचारधारा की निराशा का दौर है ।ईश्वर के साथ इतिहास की मौत काफी पहले हो चुकी है ।ऐसी उच्च नैतिकता में केवल शुध्द धंधा सम्भव है और कोई रास्ता नजर नहीं आता ।जो यह नहीं कर सकते वे मरने के लिये आजाद हैं।

प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के बाद की खाली जगह को सोशल मीडिया ने भर दिया है ।मोबाइल के डिजिटल कैमरे के वीडियो ने प्रत्यक्ष साक्षी की भूमिका अदा की है ।उसके आधार पर कार्रवाई  हो रही है और निर्णय भी दिये जा रहे हैं।दुष्कर दुनिया अब इतनी नजदीक हो चुकी है कि वाकई वह मुट्ठी में है ।अफवाहों और फेकन्यूज ने मीडिया का एक नया ही रूप खोल दिया है।साइबर क्राइम ने पारम्पिक अपराध को पीछे छोड़ दिया है ।अब तकनीक में पिछड़ा हुआ ही सही मायने में पिछड़ा है ।

साहित्य की दुनिया में साहित्यकारों की छवि का कोई ठिकाना नहीं ।उनके मूल्यांकन के लचीले अवसरवादी मूल्य कब बदल जाएंगे कोई ठिकाना नहीं ।एवरेस्ट पर बैठी महानता कब भूलुंठित हो जायेगी कह नहीं सकते।उसे गिराने उठाने में सम्पूर्ण पुरुषार्थ की इतिश्री हो रही है ।

साहित्य के राष्ट्रवादी उभार में आये बदलाव में यह देखा जा सकता है कि कैसे पुराने दौर में कीड़े मकोडों में शुमार लेखकों पर लक्ष्मी बरसने लगी है ।उनके अभिनंदन ,वंदन और चंदन की चर्चा चहुं ओर है ,जबकि पुराने प्रतिष्ठित महामानवों पर मक्खियाँ भी नहीं भिनक रहीं ।हां ,अचूक अवसरवादियों के दोनों हाथों में लड्डू हैं।

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम, शक्तिनगर, चंदौसी (जनपद सम्भल ) -244412, उत्तर प्रदेश,भारत , मोबाइल फोन नम्बर 9412322067


मंगलवार, 1 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल ) के साहित्यकार डॉ मूलचन्द्र गौतम का व्यंग्य ----बहुरूपिये वायरस की बेइज्जती

 


कोरोना वायरस किसी बहुरूपिये मायावी राक्षस से कम नहीं है।जिन्होंने राम रावण युद्ध का वर्णन पढा है वे जानते हैं कि इसे पराजित और परास्त करना कितना कठिन काम है।यह रक्तबीज है,कालिया नाग है ,मारीच है जो आसानी से नष्ट होने को तैयार नहीं।महामारियों के इतिहास में कोरोना ने प्लेग को बहुत पीछे छोड़ दिया है।लोग अपनों को कन्धा देने तक को तैयार नहीं।अस्थि चयन और विसर्जन तो दूर की बात है।कलिकाल   में समस्त आसुरी शक्तियां इसी में  समाहित हो गयी हैं।पहले एक मामूली सा राक्षस तैंतीस करोड देवताओं पर भारी पडता था तो मानुषों की तो कोई गिनती ही नहीं।कोरोना को भी अपनी बेइज्जती कतई बर्दाश्त नहीं।बेइज्जती से यह सुरसा के मुँह की तरह विशालकाय होता चला जाता है।बाबा ने पहले ही आगाह कर दिया था -खल परिहरइ  स्वान की नाईं।

       पूरी दुनिया के तमाम वैज्ञानिक,डाक्टर और विशेषज्ञ रातदिन इसकी काट  ढूंढने में लगे हुए हैं।तरह-तरह के टीके ईजाद किये जा रहे हैं।टोने टोटके अलग।ऊपर से नीम हकीमों के नुस्खे-काढे। हर तरह का धंधा चालू आहे ।इन  सब उपायों और उपचारों से इसका गुस्सा आसमान तक पहुँच गया है।कोरोना को कष्ट है कि जो गालियां देश के नेताओं के लिये फिक्स हैं वो उसे क्यों दी जा रही हैं?क्या इसलिये कि उसने विश्व की हर सत्ता और व्यवस्था की पोल खोल दी है?

      इसीलिए माबदौलत ने तय किया है कि बाबा की रणनीति के तहत इसे तरह-तरह की निंदा से नहीं प्रशंसा से मारा जाना चाहिये।बाबा ने भी सर्वप्रथम खल वन्दना करके इसके कोप से आत्मरक्षा की थी।इसीलिए चतुर सुजानों ने इसकी प्रशंसा और अभिनंदन -वंदन के ढेर लगा दिये हैं ताकि वे इसके प्राणघातक कहर से सुरक्षित रह सकें।कोरोना चालीसा में  इस बहुरूपिये को ब्रह्म ही स्थापित कर दिया गया है।चमगादड के इस वंशज की महिमा अपरंपार है।इसके मेहमानों तक को उल्टा लटकना पडता है तो दमघोंटू शिकारों का क्या कहिये?

      आज भी मोहल्ले का शार्प शूटर सबसे पहले उनसे हिसाब चुकता करता है जो उसे नमस्ते नहीं करते।हर आते-जाते से उसका सवाल होता है कितने भाई हो ,जबाब मिलते ही उनकी संख्या में एक बढाकर पूछता है ,इतने होते तो मेरा क्या कर लेते और उसकी ढिशूम ढिशूम चालू हो जाती है।बयरु अकारण सब काहू सौं।ऐसा नहीं कि यह गुण्डा आदर करने वालों पर कोई रहम दिखाता है बल्कि उनको बेगारी में पकड लेता है और जिन्दगी भर उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी से गुलामी कराता है।गिद्ध सबसे पहले अपने शिकार की आँखें नौंचता है ताकि उसे कुछ दिखाई न दे।यह बाली की तरह सबसे पहले जीव के फेफड़ों को जकड़ता है ताकि मरीज इसके सामने  बेदम हो जाय ।क्या कल्कि अवतार का यही सही समय है?

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम , शक्ति नगर,चंदौसी,जनपद संभल 244412, मोबाइल  8218636741

सोमवार, 3 मई 2021

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी ( जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार डॉ मूलचंद्र गौतम का व्यंग्य ---- कृपया हमेशा पाजिटिव होने से बचें


प्यारेलाल उम्र से पूरे पक चुके हैं लेकिन  आज तक समझ नहीं आया कि कब उन्हें पॉजिटिव होना चाहिए और कब निगेटिव।उन्हें तो  देव दानव ,जीवन और मृत्यु ,सत असत के द्वंद्व का ही पता है जो शाश्वत और सनातन है।सकारात्मकता और नकारात्मकता में वह बात नहीं। मोटी अकल और रटंत विद्या वालों की यही दिक्कत है कि अगर वे कहीं चौराहे पर फँस जायें तो उनकी  बाँये और दाँये की समझ ही गायब हो जाती है क्योंकि वे उल्टा और सीधा ही समझ पाते हैं या लेफ्ट और राइट ।वो तो भला हो ध्रुवतारे का जो हमेशा उत्तर में रहता है अन्यथा ज्यादातर लोग पूर्व और पश्चिम भी नहीं पहचान पाते जैसे कुछ भले आदमी ध्रुवतारे को ही नहीं चीन्ह सकते।उनके लिये मामूली सी दूरी भी बिल्लात यानी विलायत है।

प्यारेलाल को बचपन से सीधे रास्तों पर चलने की आदत है इसलिए वे कभी वृंदावन नहीं गये क्योंकि उन्हें कुंज गलियों में फँसने का डर है।उन्हें तो वसंत कुंज में अपने भाईसाब का घर ढूँढने में ही घण्टों लग जाते हैं क्योंकि वहाँ कोई भला आदमी पडौसी का नाम और नम्बर तक नहीं जानता।इन तमाम हालात के लिये कोई और नहीं वे खुद जिम्मेदार हैं।दरअसल उन्हें बचपन से ही जीवन के जो सूत्र और सुभाषित घुट्टी में पिलाये गये हैं युधिष्ठिर की तरह वे उनके दिमाग से निकलते ही नहीं।मसलन शिव संकल्प सूक्त सहित कृपया बाँये चलें,धीरे चलें, घर पर कोई आपका इन्तज़ार कर रहा है,सत्यं वद धर्मं चर,परहित सरिस धर्म नहिं भाई।वे शमशान में विवाह के गीत तो नहीं गा सकते।अब कोई कुछ भी कहे वे अपने मार्ग से डिगते नहीं।कोई कृष्ण ही उनका दुरुपयोग कर सकता है।

प्यारेलाल एकला चलो में परम विश्वास रखते हैं।साँयकालीन भ्रमण में जब सारे रिटायर्ड बुजुर्ग पेंशन,फंड,डीए ,बेटे बहुओं ,पडौसियों के सामूहिक निंदा रस में  तल्लीन रहते हैं तब वे अपने आध्यात्मिक आनंद में पेड़,पौधों,फूलों और चिडियों को एकटक निहारते रहते हैं।यह वैराग्यपूर्ण गैर दुनियादारी उन्हें घर में भी अजनबी बनाये रहती है।यों खुद को व्यस्त रखने के लिये उन्होंने पाजिटिव थिंकर्स फोरम और लाफ्टर क्लब की सदस्यता ले रखी है जहाँ वे निरंतर सादा जीवन उच्च विचारों का प्रचार करने में लगे रहते हैं लेकिन नकली ठहाके झेलना उनके बस का नहीं ।उन्हें संसार में विपक्ष तक निगेटिव नजर नहीं आता।विज्ञान और दर्शन के सामंजस्य से उन्होंने जो जीवन दर्शन गढा है उसमें बिजली की तरह पाजिटिव और निगेटिव सृष्टि के विकास के दो अनिवार्य तत्व हैं।

लेकिन जबसे प्यारेलाल को डाक्टरों ने कोरोना पाजिटिव घोषित किया है उनका यह विश्वास धराशायी हो गया है।जैसे पूरी दुनिया में उल्टी गंगा बहने लगी है।वे बाबा के सुर में गाने लगे हैं -अब लौं नसानी अब न नसैहों।जैसे यही उनकी आईसीयू, आक्सीजन और रेमीडिसिवर  है।अब उनका जिंदगी का  फलसफा बदल गया है।अब सन्दर्भ और प्रसंग के बिना वे कोई बात नहीं करते।अब तक वे थरूर की अंग्रेजी से ही परेशान थे लेकिन कोरोना और मनोविज्ञान की अजीबोगरीब भाषा के जंजाल ने उनका जीना हराम कर दिया है।डिक्शनरी भी फेल है ।वे समझ गये हैं कि जिंदगी में और मेडिकल की तरह अलग-अलग अनुशासनों की भाषा में जमीन आसमान का फर्क है।इस कलिकाल में खग जाने खग ही की भाषा और ठग जाने ठग ही की भाषा।अवसाद से बचने का यही एकमात्र मध्यमार्ग है।परधर्म में टाँग अडाने या उसमें खाहमखाह घुसाने से उसके टूटने का खतरा है।अंत में उनका निष्कर्ष कि हमेशा पाजिटिव होने से बचो ,जिन्दा रहने के लिये कभी कभार निगेटिव होना भी जरूरी है।यों भी इतिहास गवाह है कि निगेटिव ऊर्जा सदैव से पाजिटिव से ज्यादा ताकतवर होती आई है।जरा सी चींटी पहाड जैसे हाथी को हिला देती है और जरा सा नीबू क्विंटलों दूध को सेकेंड्स में फाड़ देता है।

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम
शक्ति नगर,चंदौसी,संभल 244412
मोबाइल  8218636741

रविवार, 18 अप्रैल 2021

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी ( जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार डॉ मूलचंद्र गौतम का व्यंग्य ---- मैया, मैं तो मोबाइल ही लैहों

 


सूरदास आज होते तो उन्हें कृष्ण की बाललीला में अनेक संशोधन करने पड़ते। अव्वल तो बालकृष्ण, मैया से चंद्र खिलौने की जगह मोबाइल की डिमांड करते, क्योंकि उन्हें मालूम होता कि चौदहवीं का चांद दूर से जितना खूबसूरत दिखता है, पास से उतना ही बदसूरत है। दूसरा, मैया को भी अब चंदा भैया उतने प्यारे नहीं लगते, जितने पहले थे। 'रक्षाबंधन' और 'भाई दूज' जैसे त्योहार सिर्फ दिखावे के लिए इसलिए चल रहे हैं, क्योंकि इस बहाने, बहनों को भी भाइयों से भात, छोछक की गारंटी बनी रहती है। आधुनिक युग में चंद्रमा और मोबाइल के तुलनात्मक विश्लेषण में मोबाइल का पलड़ा भारी पड़ता है।

   सुभद्रा के जमाने में मोबाइल होता तो चक्रव्यूह में फंसकर अभिमन्यु की हत्या न होती। सुभद्रा, चक्रव्यूह भेदन के बारे में अर्जुन की आवाज को रिकॉर्ड कर लेती और गर्भस्थ अभिमन्यु को बार-बार सुनाकर पक्का कर देती। यह इंटरनेट का ही कमाल है कि जो नीला-पीला ज्ञान पहले युवकों को गृहस्थाश्रम में प्रवेश पर भी उपलब्ध नहीं होता था, वह अब आंख खोलते ही थोक में मिल जाता है। गर्भावस्था में जब मां ही दिन-रात मोबाइल पर लगी रहती है तो बच्चे की डिमांड गलत नहीं।

        पुराने जमाने में गरीब मां-बाप, आठ-दस बच्चों को  एक-दूसरे की उतरन पहनाकर पाल लेते थे। एक ही हंसली पायल से सबके शादी-ब्याह निपटा लेते थे। अब बच्चों की डायरेक्ट जवानी में एंट्री से माता-पिता के तनाव में वृद्धि हो गई है। अब कानूनन उनकी पिटाई भी जुर्म है। ऐसे माहौल में अब पैदा होते ही वे ब्रांडेड माल की डिमांड करने लगे हैं। पूरे कुनबे के खर्च में अब एक बच्चा पलता है। मोबाइल प्रेम के विपरीत आधुनिक बच्चों को दुग्धपान और स्नान सख्त नापसंद है। कन्हैया जी को चोटी बढ़ने का लालच देकर मैया खूब दूध, दही और मक्खन का सेवन  करा देती थी। आज के जमाने में चोटी और लंगोटी, गुजरे जमाने के पिछड़ेपन की निशानियां हैं। संडे हो या मंडे, रोज खाओ अंडे के कल्चर में 'अमूल' ने मुश्किल से इज्जत बचा रखी है, क्योंकि 'चीता भी पीता' है कि तर्ज पर मरगिल्ला से मरगिल्ला बालक भी एक-आध बोतल पी ही जाता है।

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम

शक्तिनगर, चंदौसी (जनपद सम्भल ) -244412

उत्तर प्रदेश,भारत 

मोबाइल फोन नम्बर 9412322067


बुधवार, 25 नवंबर 2020

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी ( जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार डॉ मूलचंद्र गौतम का व्यंग्य -----अथ श्री गमछा माहात्म्य

 


वेद की करतल भिक्षा तरुतल वास की करपात्री संस्कृति से ही गमछा सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है ।शंकर जी का बाघम्बर और ऋषि मुनियों की मृगछाला गमछे के ही आदि रूप हैं।या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर कौ तजि डारौं की कामरिया गमछे का ही विराट रूप है ।
इसी तर्ज पर कलिकाल में गिरिधर कविराय की सलाह पर   गमछे के साथ लाठी भी जुड़ गयी।गांधीजी ने भी इसी के चलते लाठी को अपने व्यक्तित्व का अनिवार्य अंग बना लिया था ।बाद में बंजी वालों ने इसमें झोला और जोड़ दिया ,  लेकिन फिर भी गमछा भारतीय ग्राम जीवन का अपने आप में आत्मनिर्भर तत्व है जिसे कहीं कहीं अँगोछा भी कहा जाता है ,तौलिया उर्फ टॉवल इसी का शहरी आभिजात्य रूप है बाजरे की कलगी की तरह ।
प्रधानमंत्री ने कोरोना काल में पूरे विश्व में भइयों की स्थायी पहचान बन चुके  गमछे को सुरक्षा कवच की तरह धारण करके इसके सेंसेक्स को आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है ।अब पूरा विश्व समुदाय वायरस के खिलाफ इसे मास्क से बेहतर और सस्ता सुरक्षित उपाय मान चुका है ।बड़ी बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियों ने इसके उत्पादन और निर्यात के प्रबंध कर लिये हैं।लोकल ने ग्लोबल को मैदान में पछाड़ दिया है।
जिन्हें पुराने जमाने की बगीचियों की सांयकालीन दिनचर्या की थोड़ी भी याद बाकी है उन्हें मालूम है कि पहलवान और भंगड़ी वहाँ नियमित रूप से मिलते थे ।लंगोट से मुक्त होकर लाल और हरे गमछे लपेटकर नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के बाद बादाम ,किशमिश मिली भंग छनती थी और बतरस की फुहारें उड़ती थीं ।पहलवान टाइप लोग अखाड़े में जोर आजमाइश करते थे ।रात होते ही बगीची भूत प्रेतों के हवाले हो जाती थी ।
गमछा मालिक की बेफिक्री और मस्ती का प्रतीक चिन्ह होता था ।भगवा सरकार के दौरान भगवे गमछों का उत्पादन बढ़ गया है ।इसे देखते ही पुलिस और अफसरों की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है ।काँवड़ के दिनों में इसका शबाब चरम पर होता है ।गमछा सड़कों पर साक्षात ताण्डव प्रस्तुत करता है ।भले लोग रास्ते खाली कर देते हैं।कांवड़ियों में जब से बहनों ने भाग लेना शुरू किया है तब से भगवा गमछा और अधिक आक्रामक हो गया है ।जय श्रीराम और बम भोले के उद्घोष से इसकी शक्ति सहस्र गुनी हो जाती है ।
मॉडर्निटी के चक्कर में अब लाल ,हरे गमछे पिछड़ेपन में शुमार हैं।डिजायनर गमछों की बहार है ।अब गाँव तक में पाँच गजी धोती पहनने वाले गिने चुने रह गये हैं ।ढाई गज की अद्धी पहनने वाले मजदूर भी दिखाई नहीं देते ।अमेरिका के मजदूरों ने जीन्स का जो प्रचार किया है उससे भारतीय मजदूर भी प्रभावित हुआ है ।यही वजह है कि साबुत जीन्स के मुकाबले फ़टी हुई जीन्स ज्यादा कीमती है ।अमीरी का पैमाना अब फ़टी हुई चिन्दियों से भरी जीन्स है । गिरिमिटिया विश्व में जहां जहां गये हैं वहां गमछे में बंधा सत्तू ,भूजा ,नमक ,गुड़ और मिर्च उनकी विश्वविजय की पताका की तरह लहराते हैं।कोरोना काल ने इनके इस स्वाभिमान और परिश्रम को ध्वस्त कर दिया है ।बेचारे जान हथेली पर रखकर घर की ओर प्लेग के चूहों की तरह भाग रहे हैं और हर ऐरे गैरे द्वारा दुरदुराये जा रहे हैं।रेणु के हीरामन गाड़ीवान की तरह उन्होंने कभी वापस न लौटने की  तीसरी कसम पता नहीं ली है कि नहीं ?लेकिन प्यारे गमछे ने यहाँ भी उनका साथ नहीं छोड़ा है ।
हो सकता है अगले चुनाव तक गमछा किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह और झंडा ही बन जाय ।

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम
शक्तिनगर, चंदौसी (जनपद सम्भल ) -244412
उत्तर प्रदेश,भारत 
मोबाइल फोन नम्बर 9412322067