शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ राकेश चक्र द्वारा किया गया श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय एक का काव्यानुवाद ------


ईश्वर प्रार्थना 

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ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथ श्रीमद्भगवतगीता
अथ प्रथम अध्याय
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कोटि-कोटि वंदन करूँ, वीणावादिनि तोय।
ज्ञान, बुद्धि वरदायिनी, पूर्ण काम सब होय।।

परमपिता श्रीकृष्ण हैं, उनको कोटि प्रणाम।
ओम नाम में विश्व सब, अनगिन तेरे नाम।।

हे गणपति! होकर सखा, करना चिर कल्याण।
नितप्रति ही हरते रहो, जीवन के सब त्राण।।

कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण
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धृतराष्ट्र उवाच
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संजय से हैं पूछते ,धृतराष्ट्र कुरुराज।
कुरुक्षेत्र रण भूमि में, क्या गतिबिधियां आज।।1

संजय उवाच
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राजन सुनिए आप तो, सेनाएँ तैयार।
दुर्योधन अब कह रहा, सुगुरु द्रोण से सार।। 2

पाण्डव सेना है बली, नायक धृष्टद्युम्न।
व्यूह- सृजन है अति विषम, दुर्योधन  अवसन्न ।। 3

बलशाली हैं भीम-से, अर्जुन से अतिवीर।
महारथी युयुधान हैं, द्रुपद, विराट सुवीर।। 4

धृष्टकेतु चेकितान हैं, पुरजित, कुंतीभोज।
शैव्य सबल से अतिरथी, बढ़ा रहे हैं ओज।। 5

उत्तमौजा सुवीर है, अभिमन्यु महावीर।
युधामन्यु सुपराक्रमी, पुत्र द्रोपदी वीर।।6

मेरी सेना इस तरह, सुनिए गुरुवर आप।
महाबली गुरु आप हैं, भीष्म पितामह नाथ।। 7

कर्ण-विकर्ण पराक्रमी, गुरुवर कृपाचार्य।
भूरिश्रवा महारथी, कभी न माने हार।। 8

अनगिन ऐसे वीर हैं, लिए हथेली जान।
अस्त्र-शस्त्र से लैस हैं, करते हैं संधान।। 9

शक्ति अपरिमित स्वयं की, भीष्म पिता हैं साथ।
पांडव सेना है निबल, दुर्योधन की बात।। 10

सेनानायक भीष्म के, बनें  सहायक आप।
महावीर हैं सब रथी , सेना व्यूह प्रताप।। 11

दुर्योधन ने भीष्म का, किया बहुत गुणगान।
बजा शंख जब भीष्म का, कौरव मुख मुस्कान।। 12

शंख, नगाड़े बज गए, औ' तुरही, सिंग साथ।
कोलाहल इतना बढ़ा, खिले कौरवी गात।। 13

पांडव सेना ने सुना, भीष्म पितामह घोष।
अर्जुन, केशव ने किए , दिव्य शंख उद्घोष।। 14

कृष्ण ईश का शंख है, पाञ्चजन्य विकराल।
पार्थ का  है देवदत्त , भीम पौंड्र भूचाल।। 15

विजयी शंख अनन्त है, राज युधिष्ठिर धर्म।
नकुल शंख सुघोष है, सहदेव मणी पुष्प।। 16

परम् वीर धृष्टद्युम्न , जेय सात्यकि वीर।
शंखनाद सुन वीर के , कौरव हुए अधीर।। 17

शंखों की घन विजय-ध्वनि, गूँजी भू, आकाश।
दुर्योधन सेना हुई, उर में गहन हताश।। 18

शंखों की जब ध्वनि बजी, कोलाहल है पूर्ण।
दुर्योधन के भ्रात सब, उर में हुए विदीर्ण।।19

कपि-ध्वज- सज्जित रथ चढ़े, अर्जुन हुए प्रचेत।
धनुष बाण कर ले लिए, कहा कृष्ण समवेत। 20

अर्जुन उवाच
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अर्जुन बोले कृष्ण प्रिय, तुम हो कृपानिधान।
सेनाओं के मध्य में, रथ को लें श्रीमान।। 21

अभिलाषी जो युद्ध के, कौरव सेना साथ।
लूँ उनको संज्ञान में, करने दो-दो हाथ।। 22

देखूँ सेना कौरवी, धृत के देखूँ पुत्र।
कौन- कौन दुर्बुद्धि हैं, कौन-कौन हैं शत्रु।। 23

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा
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संजय ने धृतराष्ट्र से, कहा सैन्य आख्यान।
माधव ने रथ को दिया,सैन्य मध्य स्थान ।। 24

पृथा पुत्र अर्जुन सुनें, ईश कृष्ण उपदेश।
योद्धा जग के देख लो, बचा न कोई शेष।। 25

सेनाओं के मध्य में, अर्जुन डाले दृष्टि।
संबंधी हैं सब खड़े , खड़े मित्र और शत्रु।। 26

सब अपनों को देखकर, अर्जुन है हैरान।
करुणा से अभिभूत है, कोमल हो गए प्राण।। 27

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से भावविभोर होकर इस तरह अपने भाव प्रकट किए
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अर्जुन बोला हे सखे, सब ही मेरे प्राण।
अंग-अंग है कांपता,  मुख है मेरा म्लान ।। 28

रोम-रोम कम्पित हुआ, विचलित ह्रदय शरीर।
गाण्डीव भी हो रहा, कर में विकल अधीर।। 29

सिर मेरा चकरा रहा, तन भी छोड़े साथ।
सखे कृष्ण सब देखकर, हुआ अमंगल ताप।। 30

कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, मुझे न भाए युद्ध।
राज्य विजय न चाहिए, जीवन बने अशुद्ध।। 31

गोविंदा मेरी सुनो, क्या सुख है,क्या लाभ।
सब ही मेरे मीत हैं, सब ही मेरे भ्रात।। 32

हे मधुसूदन आप ही, मुझे बताएँ बात।
गुरुजन, मामा, पौत्रगण, सब ही मेरे तात।। 33

कभी न वध इनका करूँ, सब ही अपने मीत।
मुझको चाहे मार दें, या लें मुझको जीत।। 34

तुम ही कृपानिधान हो,ना चाहूँ मैं लोक।
धरा- गगन नहिं चाहिए, भोगूँगा मैं शोक।। 35

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, यद्यपि सारे दुष्ट।
फिर भी पाप न सिर मढूं, जीवन हो जो क्लिष्ट।। 36

हे अच्युत!मेरी सुनो, यद्यपि सब ये मूढ़।
लोभ, पाप से ग्रस्त हैं, प्रश्न बड़ा ये गूढ़।। 37

हम पापी क्योंकर बनें, हम तो हैं निष्पाप।
वध करके भी क्या मिले, भोगें हम संताप।। 38

नाश हुआ कुल का अगर, दिखे न कोई लाभ।
धर्म लोप हो जाएगा, बढ़ें अधर्मी पाप।। 39

कृष्ण सखे सच है यही, कुल में बढ़ें अधर्म।
धर्म नाश हो जगत में, पाप दबाए धर्म।। 40

पाप बढ़ें कुल में अगर, नारी करें कुकर्म।
वर्णसंकरित कुल बने , क्षरित मान औ' धर्म।। 41

कुलाघात यदि हम करें, हो जीवन नरकीय।
पितरों को भी कष्ट हो, पिंडदान दुखनीय।। 42

कुल परम्परा नष्ट हो, मिटें धर्म सदकर्म।
मनमानी सब ही करें, रहे लाज ना शर्म।। 43

कुलाघात यदि हम करें, मिट जाते कुल धर्म।
वर्णसंकरी दोष से, नष्ट जाति औ' धर्म।। 43

गुरु परम्परा ये कहे, सुनो कृष्ण तुम बात।
जिसने छोड़ा धर्म है, मिले नरक- सौगात।। 44

घोर अचम्भा हो रहा, मुझको कृपानिधान।
राजभोग के वास्ते, क्या है युद्ध निदान।। 45

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, चाहे दें ये मार।
नहीं करूँ प्रतिरोध मैं, मानूँ अपनी हार।। 46

महाराजा धृतराष्ट्र से ये सब वर्णन संजय सारथी ने कहकर सुनाया
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बाण-धनुष अर्जुन तजे, शोकमना है चित्त।
केशव सम्मुख हो रहा, विकल भाव- अनुरक्त ।। 47

इति श्रीमद्भागवतरूपी उपनिषद एवं ब्रह्माविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में " अर्जुन विषादयोग " नामक अध्याय 1 समाप्त


क्लिक कीजिये और पढ़िये पांचवे अध्याय का काव्यानुवाद

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क्लिक कीजिये और पढ़िये तेरहवें अध्याय का काव्यानुवाद 

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✍️ डॉ राकेश चक्र

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नंबर 9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह वृजवासी की कहानी ----- आँचल


बेटा खाना खा ले, भूख नहीं है माँ,चल थोड़ी देर बाद खा लेना।लगभग एक घंटे बाद माँ ने पुनः खाना खाने को कहा बेटे ने फिर वही,भूख नहीं है माँ।ऐसा क्या खा लिया तूने जो भूख ही मिट गई तेरी,,,,

 मां तो आखिर माँ है।उसे देखकर माँ की भूख भी जाती रही।परंतु मन नहीं माना बेटे के पास जाकर कहा बेटा देख, मैने तेरी पसंद की मूली की भुज्जी,काला नमक और भुने जीरे की लस्सी तथा चना- गेहूं की रोटी बनाई है।पका पपीता भी काटकर रखा है।जल्दी आ खाना ठंडा हो रहा है।

      बेटा नाक मुंह सिकोड़ता हुआ आया और बोला यह भी कोई खाना है।मूली की भुज्जी घास-फूस,चना गेहूं की रोटी।ऐसे खाने को तो बीमार लोग ही खा सकते हैं मैं नहीं।माँ ने थोड़ा डांटते हुए कहा और तू जो खाता वह बहुत अच्छा है क्या? रोजाना

       मीट-मुर्गा,कवाब,बिरियानी,

 अंडा,मछली ही तुझे अच्छा लगता है।पर तुझे कौन समझाए कि जो बात शाक-सब्ज़ी में है वह किसी में नहीं।मुझे तो ऐसा लगता है कि इन्हें खा-खाकर तेरा लिवर ही तो खराब नहीं हो रहा कहीं।जब देखो तब यही कहता रहता है मुझे भूख नहीं है।

      चल मेरे साथ चल अभी, तुझे नुक्कड़ वाले वैद्यजी कृपा शंकर को दिखाकर लाती हूँ।बड़े नामी-ग्रामी वैद्य हैं।काफी ना नुकर का बाद माँ बेटे को वैद्य जी की दुकान पर ले गई और सारा हाल बताकर अच्छी दवा देने को कहा।वैद्य जी ने लड़के का हाथ पकड़ कर नब्ज़ देखते ही बता दिया कि इसके भूख न लगने का कारण इसका कमज़ोर होता लिवर है।अगर इसका सही उपचार न किया गया तो यह मर्ज लाइलाज भी हो सकता है।अच्छा किया जो तुम सही समय पर यहां ले आईं।

          मैं एक माह की दवा दे रहा हूँ।समय से खिलाना,इसके साथ-साथ ज्यादा मिर्च-मसाले बहुत तली-भुनी चीज तथा मीट मुर्गे से भी से दूर ही रखना ।

 इसे केवल और केवल हरी शाक-सब्ज़ी,जिनमें मूली की भुज्जी,मट्ठा,गुड़ चना-गेहूं की रोटी के साथ-साथ गन्ने का ताजा रस पपीता,अमरूद फायदा करेगा।एक बात और गौर से सुन लो किसी भी प्रकार का नशा करना तो इस बीमारी में अपने आप को ज़हर देने के बराबर है।मेरा कहना सौ प्रतिशत सही है।इस पर पूरा ध्यान देना।घबराने की कोई बात नहीं है।

      माँ ने माथे से पसीना पौंछते हुए ठंडी सांस ली और वैद्य जी को पैसे देकर घर आ गई।घर आकर बेटे से बोली। बेटा माँ कभी गलत नहीं हो सकती,तुम्हारी आदतें गलत हो सकती हैं। जिन्हें केवल माँ ही पहचान सकती है।

       बेटे ने माँ की बात मानते हुए  उचित इलाज लिया और कुछ ही दिनों में भला चंगा हो गया।अब तो वह खुद ही माँ से बोलता माँ जोरों की भूख लगी है।मां खुशी-खुशी खाना परोसा देती और बेटे को खाना खाते देख मन ही मन खुश होकर दुनियाँ की सारी खुशियां अपने आँचल में समेट लेती।

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद , मोबाइल फोन नम्बर --9719275453

                

                 08/02/2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा ------- मिस यू उषा ......

 


सुबह सुबह शर्मा जी ने आंखों पर लगे चश्में को झुकाकर अखबार को थोडा एक तरफ करते हुए कुर्सी के नीचे रखी चाय को उठाकर चुस्की ली , चाय ठंडी हो चुकी थी। हमेशा ही उनकी चाय ठंडी ही जाती थी। 

रसोई के बर्तनों की भी कयामत थी, जब उषा  उन्हे साफ़ करती तो ऐसी आवाज़ आती थी जैसे बर्तन भी कह रहे हो,  शर्मा जी चाय गर्म ही पी लिया करो ,क्यो हमारा रूप रंग बिगड़वा रहे हो।

उषा रानी की रोज सुबह रसोई से यही आवाज आती ,''अखबार तो पूरे दिन पढा जा सकता है,कौनसा आपको नौकरी पर जाना है। अदरक की चाय है गरम गरम पी लो , आराम करेगी।''

चाय हाथ में लेकर शर्मा जी उठ गये,अखबार को कुर्सी पर रखा और सूखे तुलसी के पौधें के पास जाकर धीरे से कहा,मिस यू उषा  .........

 ✍️ प्रीति चौधरी ,गजरौला, अमरोहा

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा की लघुकथा ---देह की यात्रा


तू छोड़ यह सब ।अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे ।हां दीदी ! मैं तो बहुत ध्यान से पढ़ रही हूं आप कभी कभी कैसी बाते करती हो

दीदी मुझे समझ नही आती ।मेरे स्कूल में आज 'मिशन शक्ति' अभियान चल रहा है रोज प्रोग्राम होता है ।मैडम ने आज 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' के बारे में हम सबको बहुत समझाया कि हमारी बेटियां किसी से कम नही हैं ।पढ़ लिख कर वह चांद पर भी पँहुच सकती हैं ,सेना में भर्ती होकर हमारे देश की सुरक्षा कर सकती हैं ।वह जोश में बोले जा रही थी ।

'बस अपनी सुरक्षा ही नही कर पातीं हैं .'...सबसे आसान और क्या है? और सबसे मुश्किल भी यही है ..।इस देह की यात्रा बड़ी लम्बी लगने लगी है ऐसा लगता है कि हर रोज एक नई कहानी शुरू होती है हर कहानी पिछली कहानी से अलग । कराहट से भरी महक बुदबुदा कर बोली।सारे पैसे खत्म हो गए आज ,कल सुबुक की फीस भी जानी है ।क्या करूं ? चार दिन से कोई ग्राहक भी नहींं आया । मां, बाबा के गुजरने के बाद से लेकर आज तक की सारी यातनाएं उसकी आंखों के सामने एक रील की तरह दौड़ गयीं ।

✍️ मनोरमा शर्मा, अमरोहा 

मुरादाबाद के साहित्यकार दुष्यन्त बाबा की कहानी -----साहब का कुत्ता


बात उन दिनों की है, जब भोला राम आरक्षी के रूप में बड़े साहब के कार्यालय में तैनात था पुराने साहब के ट्रान्सफर के बाद नये साहब की तैनाती हुई। नये साहबछोटे से कद थे परन्तु बडे चटपटे थे। साहब ने अपने थोड़े से सामान के साथ कार्यालय में आगमन किया चूंकि कार्यालय तथा आवास एक ही परिसर में था साहब के आते समस्त कार्यालय स्टाफ शिष्टाचार भेंट के लिए इकट्ठा हो गया सभी के परिचय के साथ भोला राम ने भी साहब को सलाम ठोंक दिया। साहब कभी ए.एस.पी. से सीधे आई.जी. बने थे बडे़ साहब में पूरी हनक थी बात-बात पर अपने कन्धे पर लगे स्टार और अन्य साज सज्जा की ओर देखते हुए स्टाफ को कहते थे कि "जमीनी अफसर रहा हूँ कभी कोई गड़बडी़ की तो छोडूंगा नही"समस्त स्टॉफ एक शब्द में “जी सर” कहकर साहब की तारीफ में कसीदे लगाने लग जाता।

          कुछ ही समय बीता था कि साहब की मैडम का मय सामान के बंगले पर आगमन हुआ। सभी कर्मचारियों ने बडे़ उत्साह के साथ सामान उतरवा दिया। कर्मचारियों का धन्यवाद करने साहब हाथ में जंजीर थामे एक कुत्ता साथ में लिए आ गये। साहब सभी को 'धन्यवाद' कहने वाले ही थे कि सभी ने चापलूसी भरे एक ही स्वर में कहा "साहब आपका कुत्ता बहुत अच्छा है कहा से मंगाया है" इतना सुनते ही साहब का पारा सातवें आसमान पर हो गया। समय की नजाकत को कोई भाप न सका, सभी मूकदर्शक बने साहब की खरी-खोटी सुन रहे थे। जब साहब का गुस्सा कुछ ठण्डा हुआ तब साहब ने कुत्ते के परिचय देते हुए बताया कि इसका नाम “बाबूजी” है कर्मचारियों द्वारा इस नाम के पीछे छिपे तथ्य को जानने की जिज्ञासा को भांपते हुए साहब ने बताया कि जब यह लगभग तीन माह का था तब हमारे ससुर जी की ससुराल से भेंट किया गया था ससुर के ससुर यानि कि बाबूजी की याद में इसका नाम ”बाबूजी“ रखा गया है तथा इन्हें परिवार के सदस्यों की तरह सम्मान दिया जाता है अगले ही दिन से एक कर्मचारी को विशेष रूप से उसकी देखभाल करने के लिए नियुक्त किया गया। जब भी कोई अपनी पत्रावलियां साइन कराने जाता तो बाबूजी की तारीफ में एक दो कसीदे पड़ देता इससे उसकी डाक समय से साइन हो जाती थी साथ ही साहब भी अच्छे मूड़ में दिखाई देते थे। परन्तु कभी-कभी टेलीफोन डयूटी के साथ एक विशेष समस्या आ जाती थी, कि जब भी साहब कहते थे कि 'बाबूजी को बुलाओ!' तो यह समझ नही आता था की कुत्ते को बुलाना है या लिपिक को क्यूंकि दोनों ही बाबूजी हैं इसी वजह से आये दिन टेलीफोन डयूटि की डांट पड़ जाती थी। चूंकि बडे साहब थे बडे़-बडे़ लोग उनसे मिलने आते थे परन्तु सभी "बाबूजी" का नाम बडे अदब से लिया करते थे “बाबूजी” के तारीफ करके ही बडे़-बड़े काम यूं ही निकाल लिया करते थे।

      एक दिन कर्मचारी जब बाबूजी को बाहर घुमाने ले गया था तभी आठ-दस बाहरी कुत्तों ने "बाबूजी" की जमकर नुचाई कर दी किन्तु देखभाल वाले कर्मचारी ने जैसे-तैसे बचाकर, बाहर ही नहला-धुलाकर ठीक कर दिया जिससे इस घटना का कानों-कान किसी को पता नही लगने दिया किन्तु कार्यालय के कुछ लोग इस दृश्य को देख चुके थे। भोला राम भी जिनमें से एक था। एक दिन जब साहब कार्यालय परिसर का भ्रमण कर रहे थे कि भोला राम साहब के सामने आते हुए उत्साह पूर्वक बताया कि “साहब अपने बाबूजी को तो बाहरी कुत्ता ने बहुत बुरी तरह धोया है” इतना सुनते ही साहब बौखला गये और तुरन्त हैड क्लर्क को बुलाया गया तथा भोला राम को सात दिन की फटीक/दलील के साथ सात दिवस अर्थदण्ड सजा बतौर दिया गया। "बाबूजी" से ईर्ष्या रखने वालों की कडी़ में एक नाम और जुड़ गया भोला राम का। 

       कुछ ही दिन बीते थे कि पुराने साहब कि मैडम शहर आई थीं सोचा जब शहर आये ही है तो बडे़ साहब से शिष्टाचार भेंट करते चलें। चूंकि उनके पति तो डी.आई.जी. रहे थे, सोचा बड़े साहब मिलकर अच्छा लगेगा। मैडम का आगमन हुआ तो कर्मचारियों द्वारा पुराने साहब की मैडम होने के नाते सीधे साहब के कार्यालय कक्ष में बैठा दिया गया तथा टेलीफोन द्वारा साहब को मैडम के आगमन की सूचना दे दी, चूंकि भोला राम भी मैडम से पुराना परिचित था इस नाते पता चलने वह भी वहां आ चुका था। भोला राम मैडम का अभिवादन कर कुशलक्षेम पूछ ही रहे थे कि “बाबूजी” का आगमन हो गया मैडम को पूर्व से ही साहब का "बाबूजी" के प्रति स्नेह का पता था अतः मैडम ने बाबूजी पुचकारते हुए जैसे ही हाथ बढ़ाया कि बाबूजी ने अनजान समझकर मैडम पर हमला कर दिया। जब तक भोला राम 

मैडम को बाबूजी से बचा पाते तब-तक बाबूजी दो दांत मैडम के बाजू में गड़ा चुके थे। जिससे मैडम का ब्लाउज बाजू से कुछ फट गया था जब तक साहब का आगमन 

हुआ तब तक भोला राम बाबूजी को भगा चुके थे।

        साहब आकर बैठे अभिवादन हुआ ही था कि मैडम ने "बाबूजी" की शिकायत न करते हुए उसकी तारीफ में कसीदे पढ़ दिये कि "साहब! अपने ये जो बाबूजी बहुत अच्छे है बहुत अच्छा काटते है मुझे भी काटा, बहुत अच्छा लगा और गुद-गुदी सी हुई" चिलमबाजी की परकाष्ठा को भोला राम हतप्रभ बना निर्जीव सा खड़ा देख रहा था। भोला राम मन ही मन सोच रहा था कि 'हे प्रभु! चिलम बाजी की भी हद होती है' थोडी देर खडे़ रहने के पश्चात चुप-चाप बाहर निकल आया। भेंटवार्ता खत्म हुई। बडे साहब भी शिष्टाचार दिखाते हुए मैडम को बाहर तक छोड़ने आये। भोला राम पुनः मैडम से मिला और एन्टी-रैबीज के इजैक्शन लगवाकर मैडम को गंतव्य तक छोड़ आया।

          जब यह बात कार्यालय में पता लगी तो साहब के गोपनीय सहायक (स्टैनो) ने नम्बर बनाने में बिल्कुल देरी नही की और तुरन्त साहब को बताया कि “साहब! अपने बाबूजी ने मैडम को दांत मार दिये है जिसके इन्फैक्शन का खतरा बाबूजी को भी बराबर है” साहब "बाबूजी" के प्रति सहायक जिम्मदारी और तत्परता का भाव देख बहुत खुश हुए। तथा कर्तव्य के प्रति संवेदनशीलता को देखते हुए तुरंत सहायक को रिवार्ड दिये जाने की घोषणा की गयी। सहायक की बात मानते हुए तत्काल “बाबूजी” को अस्पताल भेजने की तैयारियां की जाने लगी। जिप्सी कार मंगायी गयी उसमें रंगीन कालीन बिछाकर "बाबूजी" को बैठा दिया गया। देख-रेख करने वाले कर्मचारी को साथ बैठाकर अस्पताल जाने के लिए रवाना कर दिया गया। अन्य कोई स्टाफ इसलिए साथ नही भेजा गया था कि साहब के पी.आर.ओ. ने इस सम्बंध में पहले ही डॉक्टर को अवगत करा दिया गया था।

      जिप्सी कार कार्यालय से कुछ दूरी पर ही मुख्य मार्ग पर पहुंची ही थी कि "बाबूजी" को सड़क पर “बाबूजिन” (कुतिया) दिखाई पड़ गयी, "बाबूजिन" को देखकर वानप्रस्थ काट रहे "बाबूजी" अपने संयम को साध न सके, और चलती कार से ही छलांग दी। कर्मचारी कुछ प्रयास करता उससे पहले ही सामने से आ रहे एक ट्रक ने ”बाबूजी“ को सड़क पर चिपका दिया। बस अब क्या था! कर्मचारी और जिप्सी का ड्राईवर अवाक् खडे़ एक दूसरे का मुँह देख रहे थे, कुछ समझ नही आ रहा था कि क्या करें! फिर भी उन्होने मार्ग पर चलते ट्रैफिक को रोककर "बाबूजी" के गले में बंधा पट्टा व जंजीर खोल ली और बापस आ गये।

       किसी तरह हिम्मत जुटाते कार्यालय पहुंचे वहाँ पहुँच कर दोनों ने पी.आर.ओ. तथा टेलीफोन डयूटी से बाबूजी की मृत्यु की सूचना साहब को देने का अनुरोध किया। परन्तु बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधता। जब कोई उपाय न सूझा तो दोनों स्वयं ही सीधे हिम्मत जुटाते हुए साहब के सामने पहुँचे। साहब तभी मध्यान्ह भोजन कर कार्यालय में बैठे ही थे। दोनो ने हाथ जोड़कर जंजीर दिखाते हुए कहा कि “साहब! बाबूजी अब नही रहे” फिर क्या था साहब का आक्रोश देखते ही बनता था। तुरन्त साहब की गाड़ी लगवायी गयी और तत्काल घटनास्थल पर पहुंचे परन्तु तब तक देर हो चुकी थी राष्ट्रीय राजमार्ग होने के कारण न जाने कितने ही वाहन "बाबूजी" के ऊपर से गुजर चुके थे "बाबूजी" के रूप में अब केवल सड़क से चिपकी "बाबूजी" की खाल ही शेष बची थी। खाल को खुरपी मंगाकर खुर्चा गया। बाल्टी में रखकर कार्यालय लाया गया पूरे विधि-विधान से "बाबूजी" का अन्तिम संस्कार किया गया। साथ ही मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्राह्मण भोज भी कराया गया।

        समस्त कार्यालय में आज "बाबूजी" की मौत की सुगबुगाहट थी। एक कुत्ते की मौत के रूप में प्रत्येक कर्मचारी की संवेदनाएं थी। परन्तु "बाबूजी" की मौत का सुखद अहसास प्रत्येक स्टाफ कर्मी के चेहरे पर साफ दिखाई पड़ रहा था क्योंकि शायद ही कोई बचा हो जिसे "बाबूजी" की वजह से किसी न किसी रूप में डांट न पड़ी हो।

✍️दुष्यन्त 'बाबा', मुरादाबाद

मो0न0-9758000057

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा --बदचलन-

 


अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में पुत्र को सन्तान रूप में पाकर अवनि फूली नही समा रही थी कि अचानक उसके पति ने उसको आँखें दिखाते हुए कहा , " अरे बदचलन ! यह बच्चा नौ माह से पहले कैसे पैदा हो गया ? "क्षण भर में अवनि की सारी खुशियों को ग्रहण लग गया ।

✍️ डॉ प्रीति हुंकार ,मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ----घुटन


सतीश जी एक बड़े अधिकारी थे,लेकिन हर समय किसी ना किसी बात को लेकर तनाव में रहते थे।पत्नी के समझाने पर आज वह एक नामी गिरामी संत का प्रवचन सुनने आए थे और भीड़ के बीच,जमीन पर बैठ कर,आराम से प्रवचन का आनंद ले रहे थे। उनको बहुत शांति का अनुभव हो रहा था। तभी उसकी निगाह पास बैठे व्यक्ति परगई। अरे-- ये तो बड़े बाबू हैं।ऑफिस में पास बैठना तो दूर,निगाह तक मिलाने की हिम्मत नहीं कर पाते।उन्होंने पीछे मुड़कर देखा - उनके ऑफिस का चपरासी,बैठे बैठे मुस्करा रहा था।उनका मन खट्टा हो गया। उन्हें लगा कि वे थोड़ी और देर तक रुके तो उनका दम घुट जाएगा।उन्होंने बीबी को इशारा किया और चुपचाप नज़रे बचा कर बाहर निकल गए।

✍️ डॉ पुनीत कुमार

T 2/505 आकाश रेसीडेंसी

मुरादाबाद 244001

M 9837189600

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा -----समय

 


" मारो ! इनको पता नहीं, कहाँ- कहाँ से से चले आते हैं परेशान करने----। मगर हजूर यह तो आप की प्रजा है रामू ने कहा।" 

        " वो क्या होती है रे-----?" 

   " हजूर वहीं जिसके बल पर आप राज कर रहे हैं---।" 

       एक कटु मुस्कान के साथ " हूँ ------राज  कर रहे हैं। सुनो रामू , हम राज इनके बल पर नहीं, चाटुकारिता के बल पर कर रहे हैं, समझे।" 

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद, मो० 9411809222

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा ----करप्शन


रीता की हाल ही में विधवा पेंशन बनने वाली थी ।जैसे तैसे उसने अपने परिचित काम वाले वर्मा जी से जुगाड़ लगा कर पेंशन बनवाने का फॉर्म भरा था ।चार पाँच घरों में काम करके रीता अपने व बच्चों के गुजारे लायक ही तो कमा पाती थी ।सोचा था ,विधवा पेंशन बन जाने पर थोड़ा सहारा मिल जायेगा।सो फॉर्म भर दिया ,पता चला कि इसमें आधार कार्ड लगेगा ,सो वर्मा जी ने आधार कार्ड बनवा दिया ।रीता एक दिन सब कामों से निबट कर फॉर्म जमा करने ऑफिस पहुँची।पता चला कि फॉर्म जमा करने से पहले हजार -हजार रुपए जमा कराये जा रहे है ।कहाँ से लाये वह हजार रुपए ,जैसे तैसे तो वह घर का गुजर बसर कर रही है ।बचता ही कहाँ है ,जो वह आज हजार रुपए ला सके और अपनी विधवा पेंशन बनवा सके।वह ऑफिस के बाहर खड़ी सोचती रही ,कि क्या रिश्वत ,पेंशन जो कि एक बेसहारा के लिये उसकी जरूरत है उससे बड़ी है ।भारी मन लिये वापस अपने कामों पर आ जाती है ।

 ✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा)की साहित्यकार रेखा रानी की लघुकथा ----दूरी


कोविड ही-19 के चलते  सरकार द्वारा तो शारीरिक  रूप से दूरी बनाने वाली बात कही गई थी , किंतु सामाजिक दूरी आज इतनी बढ़ गई थी, कि पड़ोस वाले घर में मौत हो जाने पर चीख पुकार सुनते हुए भी सीमा घर की सीढ़ियों पर  खड़ी होकर कह रही थी ,कि "यार डिनर पर कहां चलोगे ?.. "और जब मैं डांस करूं तो मेरी पसंद का सॉन्ग  ही बजाना।" 

रेखा रानी, विजयनगर, गजरौला, जनपद अमरोहा

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ----क्षोभ


"हमारे लिए कितने कम हो जाएँगे ? "

"तुम जो चाहे दे दो ! "

"आप ही बता दीजिए । "

"अरे नहीं ! मैं दिल से कह रहा हूँ। तुम जितने चाहे दे दो।"

 "नहीं ,आप ही बता दीजिए  । "

          ...और फिर जीवनदास जी ने रुपए बता दिए ।

"मैं कल आपको रुपए दे जाऊँगा ।" -- महेश ने कहा ।

               अगले दिन महेश ने सारी रकम जीवन दास जी को दे दी । अब केवल इतना रह गया था कि लॉकडाउन समाप्त होने के पश्चात बैंक जाकर सुविधानुसार जीवन दास जी लॉकर में रखी हुई कलाकृति को निकालकर उसे महेश को सौंप दें ।

         कलाकृति अद्भुत और बहुमूल्य थी । केवल अद्भुत और बहुमूल्य ही नहीं बल्कि जीवन दास जी के पिताजी की भी एक निशानी कही जा सकती है । जीवन दास जी के पिताजी जाने-माने चित्रकार थे । न जाने कितनी पेंटिंग उन्होंने बनाई थीं। लेकिन जिस कलाकृति की चर्चा चल रही थी और जिसकी बिक्री का सौदा जीवन दास जी ने अपने रिश्ते के भतीजे महेश के साथ तय किया था ,वह उनकी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति मानी जाती है । इसी नाते जीवन दास जी को भी उस कलाकृति से बहुत लगाव था । वह उसे बेचना तो नहीं चाहते थे लेकिन अब परिवार में पहले जैसी न तो धन - दौलत थी और न ही आमदनी के साधन रह गए थे। मजबूर होकर जीवन दास जी ने कलाकृति के खरीदारों की तलाश की लेकिन किसी अनजान व्यक्ति को रुपए लेकर कलाकृति सौंपने का उनका मन नहीं कर रहा था। महेश के पास पैसा ही पैसा था । वह जीवन दास जी के पिताजी के खानदान का था और इस नाते उसकी रगों में भी वही खून बह रहा था ,जो जीवनदास में था । महेश ने कलाकृति खरीदने की इच्छा प्रकट की है, तो अपना जानकर सौदा काफी कम धनराशि में जीवन दास जी ने महेश के साथ तय कर दिया । परस्पर विश्वास था ,इसीलिए तो कलाकृति लिए बगैर ही पूरी धनराशि महेश ने जीवन दास जी के हाथों में सौंप दी थी।

             धीरे-धीरे दिन बीतते गए । लॉकडाउन समाप्त हो गया , लेकिन जीवन दास जी ने कलाकृति महेश के पास नहीं पहुँचाई । जब समय ज्यादा बीता तो महेश ने एक दिन जीवन दास जी के घर पर आकर कहा " चाचा जी ! आप इतनी देर क्यों लगा रहे हैं ? कलाकृति अब मुझे दे दीजिए ।"

          जीवन दास जी ने मुरझाई आँखों से कहा " महेश ! मैं कलाकृति नहीं बेचना चाहता । तुम अपने रुपए ले जाओ । "-इतना कहकर जीवन दास जी रुपयों की पोटली उठाकर महेश को देने के लिए अपने कमरे की ओर बढ़े ही थे कि महेश ने कहा " इस तरह से बिके हुए सौदे वापस नहीं किए जाते हैं । हम ने आप पर विश्वास करके पूरी धनराशि आपको सौंप दी और अब आप सौदे से मुकर रहे हैं । यह अच्छी बात नहीं है। बाजार का सिद्धांत होता है कि अगर कोई सौदे से इंकार करे और अपनी बात से पलट जाए ,तब उसे दुगनी धनराशि 

देनी पड़ती है । आप मुझे दुगनी धनराशि दीजिए । "

   "क्या कह रहे हो महेश ?  आखिर तुम मेरे भतीजे हो । मेरे पास दुगनी धनराशि कहाँ से आएगी ? अगर दुगना पैसा होता ,तो मैं बेचने की सोचता ही क्यों ? सच तो यह है कि कलाकृति न बेचने पर और तुम्हें धनराशि वापस लौटाने के बाद मेरे सामने फिर वही पुराना आर्थिक संकट खड़ा हो जाएगा । " --यह बात कहते हुए जीवन दास जी जल के बाहर निकाली गई मछली की तरह तड़प रहे थे। वह समझ चुके थे कि अब बात घर की नहीं रह गई है।

 रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफ़ा, रामपुर (उत्तर प्रदेश), मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा ......'आवारा जानवर '


"शर्मा जी गली में बहुत आवारा कुत्ते हो गए हैं |"गुप्ता जी ने सामने बालकनी में खड़ी मिसेज खन्ना की तरफ धूर्त मुस्कान फैंकते हुए शर्मा जी से कहा ।

"हाँ बंदर भी बहुत हैं |"शर्मा जी ने पास से गुजरती एक विद्यालय जाने वाली लड़की की तरफ घूरते हुए कहा ।

"हाँ इन सबको तो नगरपालिका वाले ले जायेंगे मगर यह यहाँ वहाँ खड़े होकर औरतों को ताकने लड़कियों को छेड़ने वालों का क्या हो....?"पीछे से पान के खोखे वाला पीक मारते हुए बोला ।

✍️ राशि सिंह ,मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश 


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी ------रैन भई चहुं देश

 


 ... विश्वास को जैसे ही पता लगा कि जसवन्त सिंह की तबीयत बिगड़ती ही

जा रही है वह तुरंत ही उनसे मिलने पहुंच गया जसवंत सिंह को अक्सीजन लगी थी आंखें खुली हुई थी प्रणाम का उन्होंने इशारों से ही  प्रत्युत्तर दिया । बहुत कोशिश करने के बाद भी कंठ से कोई आवाज नहीं निकल पायी ।

      .....  उन्होंने हाथ जोड़े और दो आंसू उनकी आंखों से ढुलक पड़े..  मानो कह रहे हों.... मुझसे जीवन में जो भी गलतियां हो गई हैं  ....कृपया अब उन्हें क्षमा कर देना .....

         हम  छोटी-छोटी बातों पर लड़ते रहते हैं परंतु जब यमराज लेने आते हैं और जिन्दगी अपना दामन समेटती है तो बोलने का मौका भी छीन लेती है। 

.........बहुत सारी अनकही बातें उनकी आंखों और चेहरे के हाव भाव से सुनी और समझी जा सकती थीं ...........भगवान ने उनकी जुबान से आवाज को छीन कर आंखों की और चेहरे के हाव-भाव की भाषा ही  दे दी......थी............ दुखद स्थिति में थोड़ी संवेदनशीलता अंतिम समय के लिए बचा कर रखनी ही चाहिए ..... थोड़ी देर पास बैठकर विश्वास घर के नंबर पर लोड करना

   ........ विश्वास के मस्तिष्क वही सारी बातें घूम रही थी रोजमर्रा की जीवन  ..की।

...... मंदिर में आने पर  आरती के बाद ₹1 का सिक्का जसवंत सिंह जी जोर से गिराते थे ......जसवन्त सिंह  पर इसका कोई भी असर नहीं होता था कि लोग क्या कहेंगे मैंने सिक्का गिरा दिया....बस!  

       उन्होंने इशारों में कहां मझे माफ कर देना.....

     भगवान जिसकी आवाज छीन लेते हैं उन्हें दूसरी शक्ति दे देते हैं ! चेहरे के हाव-भाव और आंखों की भाव भंगिमा  यही सब दिखा रहा था..

 जीवन भर हर कोई सोचता रहता हैं कि पता नहीं जीवन कितना लंबा है परंतु जब उम्र पूरी हो जाती है तो फिर  आदमी कुछ भी साथ नहीं लेजा पाता.....

           विश्वास ने बहुत बार कहा था अंकल जी थोड़ा धर्म-कर्म में खर्च कर दिया करो ! जसवंत सिंह ने कभी भी  यह नहीं सोचा कि दुनिया से जाना भी है।

       आज जसवंत सिंह का अंतिम समय आ गया था उन्होंने जीवन में दो तीन मकान बनाए बाग खरीदें  पर मोह कभी नहीं  त्याग पाए...... कभी किसी के मरने में शामिल नहीं हुए ।

    विश्वास के पास आधे घंटे बाद फोन आया अंतिम संस्कार के लिए 4 लोग भी नहीं इकट्ठे हो पा रहे हैं....!.... लोगों को बुलाइए जिससे अंतिम यात्रा शुरू हो सके.... 

....... आज विश्वास को अपने ही शब्द याद आ रहे थे जो उसने बहुत बार जसवंत सिंह जी से गए थे........

 ...कर्म करले अच्छे जग में,

              वर्ना फिर पछताएगा!

   इस धरा का ,इस धरा पर,

              सब धरा रह जाएगा।।

✍️ अशोक विद्रोही 

 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद 244001

मोबाइल फोन नम्बर 82 18825 541

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 23 फरवरी 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों राजीव प्रखर, रवि प्रकाश, विवेक आहूजा, प्रीति चौधरी, डॉ शोभना कौशिक, अशोक विद्रोही, रेखा रानी, ज्ञान प्रकाश राही, वैशाली रस्तोगी की कविताएं और रेखा रानी की कहानी .....


चिड़िया रानी, मन है मेरा,

साथ तुम्हारे डोलूँ।

जबसे आंगन में तुम चहकीं,
सूनापन घबराया।
नित्य तुम्हारा कलरव करना,
हम बच्चों को भाया।
मनभावन यह प्रीत तुम्हारी,
किन शब्दों में तोलूँ।
चिड़िया रानी, मन है मेरा,
साथ तुम्हारे डोलूँ।

नन्हें-मुन्नों के मुख में तुम,
जब रखती हो दाना।
ममता की महिमा बतलाता,
ऐसा ताना-बाना।
चहक-चहक कर, उछल-उछल कर,
मैं भी मुख को खोलूँ।
चिड़िया रानी, मन है मेरा,
साथ तुम्हारे डोलूँ।

तिनका-तिनका एक घरौंदा,
तुमने यहाँ बनाया।
कष्ट उठाकर भी बच्चों को,
उड़ना खूब सिखाया।
बनकर एक चिरौंटा प्यारा,
चीं-चीं-चीं-चीं बोलूँ।
चिड़िया रानी, मन है मेरा,
साथ तुम्हारे डोलूँ।

✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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पढ़ने  के  दिन आ गए ,खोलें चलो किताब
खेलकूद  काफी   हुआ , पूरा  साल  खराब
पूरा  साल  खराब , महामारी   अब   भागी
कक्षा  की  तकदीर ,साल  में जाकर  जागी
कहते रवि कविराय ,चलें किस्मत को गढ़ने
मोबाइल  घर  छोड़ ,  पाठ  कक्षा  में  पढ़ने

✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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बचपन के दिन याद है मुझको ,
याद नहीं अब , कुछ भी तुझको ।
तेरा मेरा वो स्कूल को जाना ,
इंटरवल में टिक्की खाना ,
भूल गया है ,सब कुछ तुझको ।
कैसे तुझको याद दिलाऊ ,
स्कूल में जाकर तुझे दिखाऊ ,
याद आ जाए ,शायद तुझको ।

भूला नहीं हूं , सब याद है मुझको ,
मैं तो यूं ही ,परख रहा तुझको ।
तेरा मेरा वो याराना ,
स्कूल को जाना , पतंग उड़ाना ,
कैसे भूल सकता हूं , मैं तुझको ।
याद है तेरी सारी यादें ,
बचपन के वो कसमे वादे ,
आज मुझे कुछ , बताना है तुझको ।
"तू सबसे प्यारा है मुझको"

✍️विवेक आहूजा
बिलारी
जिला मुरादाबाद
@9410416986
Vivekahuja288@gmail.com 
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उज़ड़े हुए इक घर में
आज भी ढूँढती हूँ खुशियाँ
मिल जाये खिली कहीं
किसी कोने में सुन्दर कलियाँ
सूखे पत्तों से अटे नीम पर
मधुर गीत सुनाती चिडियाँ
जहाँ उतरती हो आज भी
आगंन में  रात को परियाँ
वो गुड्डे-गुड़िया खेलती
मिल जाये मुझे फिर सखियाँ
जिन्दगी ले चल उस मोड़ पर
दिखें जहाँ से बचपन-गलियाँ

✍️ प्रीति चौधरी
गजरौला,अमरोहा
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 मैं बालक नादान
मैं बालक नादान ।
हूँ हर किसी से अनजान ।
करता हर दम मौज -मस्ती ।
बस यही है मेरा काम ।
       दौड़ -भाग कर शोर मचाना ।
        शोर मचा कर डांट खाना।
       भाता है बस यही काम ।
       मैं बालक नादान ।
       हूँ हर किसी से अनजान ।
पकड़म -पकड़ाई ,अकड़म - अकडाई।
बस यही मेरे शस्त्र हैं।
माँ की डांट के आगे ही ।
ये शस्त्र मेरे पस्त हैं।
       जिंदगी की मौज में मैं,
       भरपूर डूबा रहा।
       बचपन इसको कहते हैं ये ,
       याद यूँ ही करता रहा ।
मैं बालक नादान।
हूँ हर किसी से अनजान ।

✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद
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धूप छांव से इस जीवन में
           सुख दुख आते जाते हैं।
किंतु मेल से प्यारे बच्चों,
‌         काम कठिन बन जाते हैं।।

मधुमक्खी सा छोटा प्राणी,
                फूलों से रस लाती हैं।
और सभी मिलकर उस रस से
                मीठा शहद बनातीं हैं।। 
शहद यदि चाहो चखना तो ,
         ‌‌     मधुमक्खी से नहीं डरो !
ऊंचा हो आदर्श तुम्हारा ,
            जग में अच्छे काम करो!!
मेल मोहब्बत करने वाले,
             सबके मन को भाते हैं।

धूप छांव से इस जीवन में
           सुख दुख आते जाते हैं।
किंतु मेल से प्यारे बच्चों,
         काम कठिन बन जाते हैं।।

छोटी-छोटी ईंटें मिलकर ,
          भव्य इमारत बन जाती।
बिना जुड़े बिखरी सब ईंटें,
       कुछ भी काम नहीं आती।।
छोटी ईंटों ने ही मिलकर,
        रचा  कुतुबमीनार   को ।
मिलजुल कर हम रहें गिरायें,
         नफ़रत  की  दीवार को ।।
रंग बिरंगे फूल सभी मिल,
         अनुपम  हार  बनातें   हैं ।।

धूप छांव से इस जीवन में
           सुख दुख आते जाते हैं।
किंतु मेल से प्यारे बच्चों,
         काम कठिन बन जाते हैं।।

✍️ अशोक विद्रोही
412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
82 188 25 541
---------------------------------------



चित्रों वाली पुस्तक प्यारी मुझको बहुत लुभाती है।
इसमें लिखी हर एक कविता मेरे मन को  भाती है।

इस पुस्तक में  बंदर  मामा करतब नए दिखाते हैं।
नित करते हैं नई शरारत उछल पेड़ पर जाते हैं।
छीन- छीन कर फल ,मेवे सब झट से चट कर जाते हैं।
टोपी पहन के देखके शीशा  जम कर वो इतराते हैं।
तभी तो बच्चों बंदर मामा नकलची कहलाते हैं।
बंदर मामा जी की टोपी सबको बहुत सुहाती है।
इसमें लिखी हर एक कविता मेरे मन को भाती है।

इस पुस्तक में भालू राजा सर्कस में जब आते हैं।
अपनी दुम हिला -हिला साईकिल खूब चलाते हैं।
दो पैरों पर नाच -नाच कर मन को बड़ा रिझाते हैं।
पिछली ओर लटक कर बस में फिल्म देखने जाते हैं।
मगर सिंह राजा से देखो मन ही मन घबराते हैं।
भालू जी की लाचारी पर दया मुझे भी आती है।
इसमें लिखी हर एक कविता मेरे मन को भाती है।

एक कविता बिल्ली मौसी की  जब वो तीरथ जाती हैं। 
बड़े प्यार से चूहे ,कपोत, और मुर्गे  संग ले जाती हैं।
आंधी बारिश आने पर जब घर में रुक जाती हैं।
घात लगाकर बड़े प्यार से सब  को खाना चाहती हैं।
सब चौकस थे ,जान बचाई बिल्ली मौसी पछताती हैं।
इसमें लिखी हर एक कविता मेरे मन को भाती है।

रेखा यह पुस्तक निराली नित नई सीख सिखाती है।
चित्रों वाली पुस्तक प्यारी मुझको बहुत लुभाती है।

✍️रेखा रानी, गजरौला
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बाल कहानी : जैसे को तैसा
  नंदन वन में बड़ी ही चहल पहल सी दिखाई पड़ रही है। वन का कोना कोना सजा हुआ है "आख़िर हो भी क्यों न? शादी जो होने वाली है.......  चीकू खरगोश की। बड़ा ही होनहार समझ दार है चीकू। पढ़ाई लिखाई में भी अपनी कक्षा में सबसे होशियार रहा है । चीकू अपने घर में सबसे छोटा है सो प्यारा है। बेचारा बस एक ही बात से लाचार है। बचपन से ही शरारती रहा है, जिस वजह से उसकी एक आंख की रोशनी चली गई थी।
    चीकू के पिता को उसके ब्याह की चिंता खाए जाती थी। उनके सारे बच्चे घर परिवार में मस्त हैं, किन्तु चीकू जीवन के रास्ते पर अभी तक अकेले ही चल रहा था, उसने सोचभी लिया था कि "कोई नहीं वह अकेले ही मां बाबा की सेवा में जीवन गुजार लेगा"।
    कुछ दिनों बाद खरगोश दम्पत्ति ने चतुराई से  चीकू की आंख वाली बात को छुपा कर उसकी शादी तय कर दी ।
     वन के सब  जीव खुश हैं। चीकू भी बहुत खुश है, बस... एक ही बात उसे अंदर अंदर खाए जा रही है, कि उसकी जीवन संगिनी उस सच्चाई को स्वीकार करेगी या नहीं ।
     मन ही मन बुदबुदाता हुआ चीकू अंत में सोचता है कि उसे शादी से पहले ही सच्चाई बता दूं । कई बार फ़ोन करने को भी सोचता है , किन्तु सब मना कर देते हैं।
    ....  शादी वाला दिन आ ही  गया।
     बारात सज धज कर तैयार हो गई है चीकू राजा भी ग़ज़ब लग रहे हैं । ढोल बाजे बज रहे हैं सब नाच रहे हैं।.....          ...
     पड़ौस के चंपक वन में ही दुल्हन की गलियां हैं वहां तक बारात नाचते- गाते उछल कूद करते हुए ही जाएगी क्योंकि सभी उत्सुक हैं । बन्दर मामा ने भी ख़ुद दर्जी के पास बैठकर अपनी शेरवानी सिलवाई है।
       इसी बीच बारात नंदिनी (दुल्हन खरगोश) के द्वारे आ पहुंची। सखियों के साथ नंदिनी वरमाला हाथों में लेकर स्वागत में आंखे बिछाए खड़ी हुई है।
       अपने दोस्तों के साथ चीकू भी जयमाल के लिए स्टेज पर पहुंच जाता है । दोनों ही एक दूसरे को वरमाला पहनाते हैं। दोनों ही ख़ुश हैं।
       जयमाल के बाद फेरों की रस्म पूरी हो जाती है। विदाई के समय चीकू के पिता चालाकी से प्रेरित होकर कहते हैं कि                                          क्यों समधी जी....
       कैसी रही हमारी चतुराई      
       हमने का‌णे  चीकू की भवर कराई।।
इस पर नंदिनी के पिता कहते हैं ....
    "इसे कहते हैं नहले पे दहला
चीकू तो केवल काणा है,
नंदिनी निपट सूरदास  है।
इतना सुनते ही चीकू के पिता खिसियाकर माथा पीटने लगते हैं। पिता को संभालते हुए चीकू कहता है कि ,"पापा हम हमेशा ख़ुद को सबसे चालक और होशियार समझते रहते हैं ,और यह सोचते हैं कि हम जो चालाकी दूसरों के साथ कर रहे हैं ,उसे कोई नहीं समझता या जानता ,जबकि दूसरे भी हमसे कई गुना अधिक  चालाकी से हमें "टिट फॉर टेट "करते हुए सबक सिखा देते हैं ।
"अब इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए ..."हम दोनों एक दूसरे को हमेशा ख़ुश रखने की कसम खाकर नव जीवन की शुरुआत करते हैं।"

✍️ रेखा रानी, विजय नगर, गजरौला
जनपद अमरोहा

बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) से डॉ अनिल शर्मा अनिल द्वारा संपादित अनियतकालीन ई-पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का अंक 26 (रविवार 9-08-2020)। इस अंक में मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई के 75वें जन्मदिवस पर विशेष सामग्री प्रकाशित की गई है ।

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मुरादाबाद से आशीष कुमार के सम्पादन में प्रकाशित ई-पत्रिका 'साहित्य लोक' का प्रवेशांक दिसम्बर 2020

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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर से जितेंद्र कमल आनन्द के सम्पादन में प्रकाशित ई पत्रिका "स्वर्णाक्षरा आनन्द काव्यधारा" का अंक जुलाई 2020

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मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद( जनपद बिजनौर) की साहित्यकार रश्मि अग्रवाल की काव्य कृति - 'अरी कलम ! तू कुछ तो लिख' की राजीव प्रखर द्वारा की गई समीक्षा ---

एक रचनाकार की साधना व परिश्रम  का कृतियों के रूप में समाज तक पहुँचना उस रचनाकार के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव होता है, और जब उसकी कृति पाठकों के अंतस को स्पर्श करने की क्षमता भी प्रमाणित कर दे तो निश्चित ही उस रचनाकार द्वारा किया गया सृजन सार्थक हो जाता है।

नजीबाबाद (उ. प्र.) की लोकप्रिय कवयित्री  रश्मि अग्रवाल की उत्कृष्ट लेखनी से साकार होने वाली 'अरी क़लम ! तू कुछ तो लिख' ऐसी ही उल्लेखनीय काव्य-कृतियों में से एक है। संक्षिप्त, परन्तु चिंतन-मनन पर विवश कर देने वाली इस काव्य रूपी सुगंधित माला के सभी 74 पुष्प एक सरलता, तन्मयता तथा सार्थकता लिए पाठक को एक अनोखी सुगंध का अनुभव करा जाते हैं।

कृति की प्रथम रचना 'नववर्ष' से ही कवयित्री का गंभीर चिंतन पाठकों के सम्मुख आ जाता है। सभी के मंगल की कामना करती इस प्रेरक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें - 

'विगत वर्ष के आँचल से,

अनेक उपलब्धियाँ समेटे,

नया वर्ष .....

देशवासियों के दामन में,

नई उमंगें/आशाएँ/ विश्वास जगाएगा...."

    कवयित्री चाहतीं तो सीधी-सरल भाषा के स्थान पर क्लिष्ट/गूढ़ शब्दों का प्रयोग करते हुए भी इस तथ्य को रख सकती थीं परन्तु नहीं,  सरल शब्दों का सार्थक प्रयोग करते हुए वह संदेश को पूरी तरह स्पष्ट करने में सफल रही हैं।

पृष्ठ 14 पर कवयित्री की बहुमुखी प्रतिभा को प्रमाणित करती रचना ' 'अरी क़लम ! तू कुछ तो लिख'  पाठकों के सम्मुख आती है जिसमें आपने एक रचनाकार के मनोभावों को बहुत ही सुंदरता से पिरो दिया है। इस रचना की अन्तिम पंक्तियों में पूरी रचना का निचोड़ सिमट आया है।पंक्तियाँ देखें - 

''मौन व्रत खुलने की

जिसमें छटपटाहट हो,

जिसमें मन को ना चैन

किसी भी करवट हो,

क़लम मेरा सन्देश तू

उस तक पहुँचा देना

और

कवि स्वर शँख बनाकर

यह ब्रह्मण्ड गुँजा देना !

यह ब्रह्मण्ड गुँजा देना !''

     निश्चित ही ये पंक्तियाँ एक रचनाकार को सहज भाव से बेहतर सोचने व लिखने के लिए प्रेरित कर जाती हैं।

इसी क्रम में पृष्ठ 16 पर एक अन्य रचना 'माँ और मैं' शीर्षक से है जिसमें कवयित्री ने माँ एवं बेटी दोनों माध्यमों  से ममता को साकार कर दिखाया है। नेत्रों को नम कर देने वाली इस रचना की कुछ पंक्तियों का उल्लेख करने से मैं स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ -

".....माँ !

आज तू नहीं है मेरे पास

मगर मैं महसूसती हूँ तुझे,

और स्वयं को अपनी कोख में।

मैं भी तेरी डगर पर चल रही हूँ

देख माँ !

मैं भी तेरी ही तरह माँ बन रही हूँ।"

   उत्कृष्ट रचनाओं के इस क्रम में पृष्ठ 23 पर भी एक अन्य रचना 'पत्थर भी अर्थ ले लेते हैं' मिलती है। जीवन के शाश्वत सत्य को कितनी सुंदरता से कवयित्री ने सामने रख दिया है, इन पंक्तियों में देखें -

"बालक जानना चाहता है जगत को,

और बूढ़ा सिखाना चाहता है जगत को,

एक अनुभव करना चाहता है,

दूसरा अनुभव कराना चाहता है,

मगर जगत

अनुभव नहीं है एहसास है,

खुली किताब का अध्याय है।"

       जिस विषय को स्पष्ट करने में अनगिन  रचनाकार क्लिष्ट भाषा का आवरण प्रयोग में ले आते हैं, उसी गंभीर विषय को इतनी सुंदरता से कवयित्री ने सर्वग्राह्य बना दिया है, यह रचना  इसी का एक उदाहरण है।

    मनोहरी रचनाओं के इस सागर में गोते लगाते हुए पृष्ठ 92 पर एक अन्य रचना 'रोटियाँ' शीर्षक से है जिसमें कवयित्री ने एक आम व्यक्ति की वेदना को जीवंत कर दिखाया है। पंक्तियाँ देखने लायक हैं -

"क्या क्या रंग, दिखाती है रोटियाँ,

आदमी को रुलाती है रोटियाँ।

चिपके पेट याद, आती है रोटियाँ।

किस तरह नाच नचाती हैं रोटियाँ। "

हृदयस्पर्शी, सरल व सार्थक रचनाओं से सजी यह काव्य-माला पृष्ठ 108 पर उपलब्ध 'अन्त में' शीर्षक रचना के साथ विश्राम लेती है। मात्र 5 पंक्तियों में बहुत कुछ समेट लेने वाली यह अद्भुत रचना भी देखिये -

"अन्त में बस यही समझा है, अन्त कभी नहीं होता।

जिस पे उसकी इनायत उसे, रन्ज कभी नहीं होता।

ज़रूरी है जीवन के लिए, कुछ तो बातें जान लेना,

सिखाने वाला कोई भी शब्द, तन्ज़ कभी नहीं होता।"

       यद्यपि कुछ भाषा विज्ञानी हिंदी एवं उर्दू शब्दावली के संयुक्त प्रयोग की बात भी इस कृति के संदर्भ में कर सकते हैं परन्तु, कृति अपने उद्देश्य में सफल है इसमें संदेह नहीं होना चाहिये। कॄति की भाषा-शैली इतनी सरल व मनोहारी है कि इस स्थिति से पार पाते हुए प्रत्येक रचना अपने उद्देश्य को स्पष्ट करने में सफल रही है।

       कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि रश्मि अग्रवाल जी की उत्कृष्ट लेखनी एवं परिलेख प्रकाशन  नजीबाबाद व न्यू शिवा प्रिन्टिंग प्रेस के सुंदर संगम के चलते, आकर्षक त्रि-आयामी कवर एवं आकर्षक छपाई से सजी एक ऐसी कृति साहित्य समाज तक पहुँची है, जिसमें  जीवन के विभिन्न आयाम सफ़लता के साथ जीवंत हुए हैं। इस सारस्वत अभियान के लिए कवयित्री, प्रकाशन एवं मुद्रण संस्थान तीनों ही बहुत-बहुत साधुवाद के पात्र हैं।




कृति : अरी कलम ! तू कुछ तो लिख

कवयित्री  : श्रीमती रश्मि अग्रवाल

प्रथम संस्करण : 2019

मूल्य : ₹ 150/-

प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन ,नजीबाबाद ,जिला बिजनौर (उ. प्र.) 

मुद्रक: न्यू शिवा प्रिन्टिंग प्रैस, (मेरठ)


समीक्षक
: राजीव 'प्रखर',डिप्टी गंज, मुरादाबाद244001, उ. प्र.



सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष कैलाश चन्द्र अग्रवाल का प्रथम काव्य संग्रह 'सुधियों की रिमझिम' । यह कृति सन 1965 में आलोक प्रकाशन मंडी बांस मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित और प्रतिभा प्रेस मुरादाबाद द्वारा मुद्रित की गई थी । इस कृति की भूमिका लिखी है डॉ शिव बालक शुक्ल ने । इस कृति में उनके सन 1947 से 1965 तक के 64 गीत हैं । उनकी यह कृति मुझे डॉ मंजुला सिंहल ने प्रदान की थी -------

 


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::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दुर्गादत्त त्रिपाठी की काव्यकृति 'कल्पदुहा' की यशभारती माहेश्वर तिवारी द्वारा लिखी गई भूमिका ---आर्त एवं पीड़ित जन का प्रार्थना गीत


 महाकवि दुर्गादत्त त्रिपाठी, हिन्दी के उन रचनाकारों में हैं जिन्हें अन्यान्य अनेक सर्जकों की तरह हिन्दी-जगत की चिर-परिचित उपेक्षा और विस्मृति का शिकार होना पड़ा। अत्यन्त विनम्र, मृदुभाषी तथा सहज सरल स्वभाव के धनी त्रिपाठी जी ने आज के तमाम रचनाकारों की तरह आत्मविज्ञापन और प्रायोजित मूल्यांकन से अपने को विरत रखा। यह उनके रचनाकार तथा व्यक्तिगत स्वभाव के अविपरीत ही था, सृजन उनके लिए कर्म और सहज मानवीय धर्म दोनों का पर्याय था। यह विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि न केवल छायावाद की वृहत्त्रयी के प्रमुख स्तम्भ जयशंकर प्रसाद का आत्मीय स्नेहभाव उन्हें भरपूर प्राप्त था वरन् विनोद शंकर व्यास, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र', लक्ष्मी नारायण मिश्र, डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, डॉ. शान्ति प्रिय द्विवेदी, कमलापति त्रिपाठी, रामनाथ सुमन, शिव पूजन सहाय, जनार्दन झा 'द्विज', शिवदास गुप्त 'कुसुम' जैसे हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण स्तम्भों का सख्य भाव तथा रामानन्द चटर्जी, रामचन्द्र शर्मा, जैनेन्द्र कुमार, भगवती प्रसाद वाजपेयी, चतुर सेन शास्त्री, नन्द किशोर तिवारी, शिवमंगल सिंह 'सुमन' तथा ज्वालादत्त शर्मा सरीखे महत्वपूर्ण पत्रकारों और साहित्यकारों का परिचित परिकर भी उन्हें आत्म विज्ञापन के प्रति गहरे संकोच भाव की कन्दरा से बाहर नहीं निकाल सका । चार महाकाव्य, दो खण्डकाव्य, बयालिस फुटकर कविताओं का संग्रह, पाँच उपन्यास तथा पाँच कथा-संग्रह, उन्हें इतिहास में अंकित करवाने के लिए पर्याप्त हैं लेकिन आज तक हिन्दी साहित्य के किसी भी इतिहास लेखक ने उन्हें अपने द्वारा लिखित इतिहास में शामिल कर उसके अधूरेपन को कम करने का प्रयास नहीं किया। इसे इतिहास लेखन की विडम्बना कहा जाए. आपाधापी अथवा और कुछ लेकिन यह एक निर्मम सत्य है।

        महाकवि दुर्गादत्त त्रिपाठी से मेरा परिचय इक्का-दुक्का 'अन्तरा' की गोष्ठियों तक ही सीमित रहा लेकिन उनकी सृजन समृद्धि की चर्चा प्रो. महेन्द्र प्रताप, स्व. मदन मोहन व्यास के सानिध्य में होती रही। स्व. कैलाश चन्द्र अग्रवाल के मन में उनके प्रति गहरा आदरभाव था और काफी कुछ अर्थों में वे उन्हें अपना काव्य गुरु मानते रहे लेकिन वास्तविकता यह है कि वे जितने अपरिचित हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन और आलोचना जगत में रहे, उससे शायद कुछ ही कम स्थानीय स्तर पर आज भी है। सम्भव है उनकी प्रकाशित कृतियों की अनुपलब्धता भी उसके पीछे एक प्रमुख कारण ही हो लेकिन वही एकमात्र कारण नहीं हो सकती। अपने को इतिहासविद् और हिन्दीसेवी घोषित करवाने वालों की संख्या यहाँ भी कम नहीं है लेकिन किसी ने उन पर गम्भीर मूल्यांकनपरक लम्बा आलेख तैयार करने की जरूरत महसूस नहीं की। स्व. सुमित्रानन्दन पंत उन्हें उच्चकोटि का कवि स्वीकार करते थे तो भवानी प्रसाद लिखते हैं कि-'आज की बिखरी हुई कविता धारा का विचार करते हुए, कई बार दुर्गादत्त त्रिपाठी का ध्यान आता है और लगता है कि यदि वे निरन्तर प्रकाशित होती रहतीं तो धारा के प्रवाह की कुछ न कुछ रक्षा तो होती ही' ।
      त्रिपाठी जी का प्रकाशकों के पास न जाने का औचित्य है उनका अपने लेखन के विषय को लेकर सोच । लेखन उनके लिए सृजनात्मक आत्मतुष्टि का माध्यम रहा। आत्म प्रचार या विज्ञापन नहीं लेकिन प्रकाशकों का उनके पास न आने का औचित्य समझ में नहीं आता। यह मान भी लें कि कविता उनकी दृष्टि में बिकाऊ माल नहीं है लेकिन वे उनके उपन्यास तथा कथा-संग्रह तो छाप ही सकते थे, कम से कम 'मंटो मिला था' जैसा उपन्यास लेकिन उसे भी राजनारायण मेहरोत्रा ने स्थानीय स्तर पर प्रकाशित किया। इन्हीं सब कारणों से जब प्रिय बन्धु श्री अनुकाम त्रिपाठी ने 'कल्पदुहा' की भूमिका के लेखन का आग्रह किया तो उसे मैंने सहज रूप में स्वीकार कर लिया। त्रिपाठी जी पर लिखना मेरे लिए एक चुनौती भी रही और कुछ लिखकर उनके पूर्वज-ऋण से किसी सीमा तक मुक्त होने का कृतज्ञ भाव भी मन में रहा।

कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि भूमिका लेखन के लिए रचनाकार से परिचित होना आवश्यक है। मेरा मत उनसे भिन्न है। मेरी दृष्टि में रचना में पैठ कर हम स्वयं रचनाकार से गहरा आत्मीय भाव बना सकते हैं। रचनाकार और व्यक्ति तथा उसकी रुचियाँ एवं स्वभाव बाहर से दिखने पर अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन मूल रूप से एक-दूसरे से गुथे हुए परस्पर अभिन्न होते हैं। त्रिपाठी जी के व्यक्तित्व एवं कृतिकार के विषय में विचार करते हुए शमशेर बहादुर सिंह की ये पंक्तियाँ बार-बार मन में उभरती रहीं
मुझको मिलते हैं अदीव और कलाकार बहुत
लेकिन इन्सान के दर्शन हैं मुहाल।
दर्द की एक तड़प
हल्के से दर्द की एक तड़प
मैंने अगलों के यहाँ देखी है;

      त्रिपाठी जी जितने बड़े रचनाकार थे, उतने ही बड़े इन्सान भी। उनमें दर्द की सच्ची और गहरी तड़प थी। अपने लिए कम, दूसरों के प्रति ज्यादा।            'कल्पदुहा' त्रिपाठी जी की गीतिकाओं का संग्रह है जिनका रचनाकाल 14 मई 1970 से 28 दिसम्बर 1970 के बीच की अवधि है। त्रिपाठी जी के रचनाकाल में मुझे निराला जैसी व्यापकता मिलती है।

'बांधो न नाव इस ठांव बन्धु,
पूछेगा सारा गाँव बन्धु ।

जैसी रचनाओं से-

मानव जहाँ बैल घोड़ा है,
कैसा तन-मन का जोड़ा है।
अथवा
वेश रूखे, केस सूखे,
भाव भूखे लोग आए।

- तक जैसा जीवन का व्यापक फलक निराला जी की रचनाओं में मिलता है, वैसा ही जीवन का वैविध्य और व्यापकता त्रिपाठी जी में भी मिलती है। आध्यात्म, सहज जीवन, सामाजिकता और सांस्कृतिक सरोकार उनके विस्तृत रचना जगत् में सहजता से ढूँढे जा सकते हैं। 'कल्पदुहा' ऐसी रचनाओं का संग्रह है जिसमें वर्तमान घड़कता
हुआ दिखाई पड़ता है। इस संग्रह की पहली रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं-
तुम रखो कर्म-क्रम को भविष्य-भय से अजान ।
मेरे विधान तुम, तुम जानो अपना विधान ।
तुम तूम-तूम कर दो मुझको मेरा भविष्य ।
मैं कात कात कर देता जाऊँ वर्तमान।"

यह वर्तमान क्या है जिसे वह कात-कात कर देना चाहते हैं! इसकी ओर संकेत करते हुए वे इसी कविता में आगे लिखते हैं

हो चुका बहुत मानव द्वारा मानव-विनाश।
जीवन सुख से हो चला सर्वहारा निराश ।
जो कई युगों तक उपजाए सन्तति अपंग,
हम को न चाहिए ऐसा वैज्ञानिक विलास।
अब बरसायी जा चुकी व्योम से बहुत आग।
बन जाँय भावना-यान सुधा-वर्षक विमान।'

त्रिपाठी जी का जन्म 1906 में हुआ और सम्भवतः 1920-21 में उन्होंने अपनी रचनात्मक यात्रा आरम्भ की। इस बीच विश्व के दो महायुद्ध हुए और पूँजीवाद ने अपने पंजे फैलाना आरम्भ किया। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इन दोनों मानव विरोधी स्थितियों से अपनी चिन्तना को मुक्त कैसे रख सकता था। बाबा नागार्जुन कहा करते थे कि 'शाश्वत' वर्तमान से ही जन्म लेता है क्योंकि वही इतिहास का दस्तावेज बनता है। त्रिपाठी जी ऐसे चाक्षुस वर्तमान से अपने को कैसे अलग कर सकते थे जो व्यापक विनाश का पर्याय बन चुका हो। जब वे यह कहते हैं-

जो कई युगों तक उपजाए सन्तति अपंग
हमको न चाहिए ऐसा वैज्ञानिक विलास।'

तो क्या उनका आशय हिरोशिमा और नागासाकी पर अमरीका द्वारा बमबारी से नहीं जुड़ता। यह सभी जानते हैं कि हिरोशिमा पर बम गिरने के बाद वहाँ क्या हुआ। इसीलिए वे व्योम से बरसती आग की जगह भावना-यान से सुधा-वर्षण की आकांक्षा करते हैं। चार्ली चैपलिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बड़े साहित्यकार वे होते हैं 'जो अपनी आँखों को आँसुओं में डुबाकर जीवन की सच्चाइयों के विषय में लिखते हैं।
    ये आँसू में डूबी हुई सच से उपजी संवेदनाएँ ही तो अमृत तत्व है जिसकी वर्षा कवि पीड़ित मनुष्यता पर करना चाहता है। चैपलिन ने कविता की परिभाषा करते हुए लिखा है 'एक अच्छी कविता विश्व को लिखा गया प्रेम पत्र है'। मेरी दृष्टि में न केवल 'कल्पदुहा' की सारी रचनाएँ विश्व को लिखा गया प्रेम पत्र हैं वरन् त्रिपाठी जी का समस्त साहित्य इसी कोटि में आता है, भले ही उसके रूप और प्रस्तुति में परस्पर भिन्नता दिखलाई पड़े।

त्रिपाठी जी के साहित्य का केन्द्रीय स्वर मानवतावादी है। वे स्वयं अपने को 'वाद' से मुक्त मानते थे, मानवतावाद से नहीं। इस सन्दर्भ में हरबर्ट मरक्यून ने 'सोसलिस्ट ह्यूमनिज्म' में लिखा है-"मानव वास्तव में एक खुला निकाय है। मार्क्सवादी या कोई अन्य सिद्धांत समाधान आरोपित नहीं कर सकता, इतिहास का आसंग जो आज मानव को नकारता है, एक दिन 'नकार' को भी नकार सकता है। बन्धन-प्रस्त लोगों को तो अभी अपनी मुक्ति मिलनी चाहिए। उनकी चेतना को विकसित करना, जो कुछ हो रहा है, उससे उन्हें अवगत कराना, भावी विकल्पों के लिए अस्थिर-सी भी भूमिका तैयार करना-यह हमारा कार्य है। 'हमारे' से अर्थ मार्क्सवादियों से ही नहीं, बुद्धिजीवियों से है, उन सबसे जो अभी स्वतंत्र हैं और जो स्वयं सोच सकते हैं, बिना साम्यवादी या गैर साम्यवादी दीक्षा का अवलम्बन लिए।" इसलिए त्रिपाठी जी जब यह लिखते हैं

'मत्यों को दो अभिबोध अमरता का पुनीत। सद्भाव-सूत्र से बंधे रहें जन सार्वभौम।
हों जनहितकामी भाव अभावों से अतीत ।
तुम दो शब्दों को नित्य निराले छन्द-मान।
पहले जीवन को स्वर दो, पीछे शब्द-दान।

मत्यों को अमरता का अभिबोध, सबका सद्भाव-सूत्र में बँधना, जनहितकारी भावों का उदय और अभावों का अतीत होना क्या स्वाधीनता का स्वर नहीं लगता। कवि इसीलिए पहले 'स्वर' और बाद में शब्द-दान की बात करता है।

कर्म का सर्वहित में होना, मनुष्यता का ही सम्मान है। कर्म की महत्ता को स्वीकार करते हुए कवि ने लिखा है

'कर्म कालातीत संस्कृति का सुरक्षक,
विश्व-तनु का प्राण होता है।
प्राण-वाद्यों की सुसंगत गीति-लय में
सृष्टि का सहगान होता है।

लेकिन अलग-अलग खानों में मनुष्य का बँटवारा कर्म को सृष्टि के सहगान में परिवर्तित होने से रोकता है। बाँटने वाले कारकों में, सम्भवतः सबसे बड़ा कारण उन्हें साम्प्रदायिकता लगती है इसीलिए 'कल्पदुहा' में जगह-जगह इस साम्प्रदायिकता और मानवीय विभाजन पर चिन्ता व्यक्त करते हुए चोट की गई है कवि मानता है कि 'मानवता' हिंसा से बड़ी है फिर वह आर्थिक हो, राजनीतिक या साम्प्रदायिक

कठिन हुई हिंसा को मानवता नापनी।
उघड़ गई बादल की चादर से चाँदनी।'

महादेवी वर्मा ने एक बार साम्प्रदायिकता पर विचार करते हुए कहा था-"सत्ता साम्प्रदायिकता की जननी है।" त्रिपाठी जी इसी सत्य को अपने ढंग से अभिव्यक्ति देते हैं

यह कैसा पागलपन! सोचा है क्या कभी
इनको लड़ाता जो देगा क्या साथ भी?
स्वार्थों की देख पड़ी सभी ओर छावनी,
नेता को भूमि पड़ी लोथों से पाटनी।'

धार्मिक दंगे और साम्प्रदायिकता से अनुप्राणित राजनीति त्रिपाठी जी को बार-बार आन्दोलित तथा आलोड़ित करती रही है। 'कल्पदुहा' की कई रचनाओं में इस संदर्भ में उनकी तड़प अभिव्यक्त हुई है।
मानवता विरोधी इस साम्प्रदायिकता पर वार करते हुए एक अन्य गीतिका में लिखा है

घोंसलों की चहक बन्द है,
बालकों की किलक बन्द है।
आज गोली चली है कहीं,
आज दंगा हुआ है कहीं!

बन रहे धर्म-नेता धनी, हिंस्र समुदाय के अग्रणी।
यह सुरक्षित खड़े हैं मगर व्यक्ति की जान पर आ बनी।
चाहते यह कि कुछ दिन अभी रक्त का फाग जारी रहे।
जो बचे, इस घड़ी की उन्हें, उम्र भर यादगारी रहे।

दूर तक आग ही आग है।
आज गोली चली है कहीं,
आज दंगा हुआ है कहीं।'

साम्प्रदायिकता की चर्चा करते हुए डॉ. कृष्ण लाल 'हंस' ने अपनी कृति 'प्रगतिवादी काव्य साहित्य' में लिखा है- भारत के वर्ण-भेद, जाति-भेद और धर्म-भेद से अंग्रेजी शासन ने सदैव ही अनुचित लाभ उठाने का प्रयत्न किया। यह साम्प्रदायिकता की प्रवृत्ति हमारी राष्ट्रीय एकता के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा आज भी बनी हुई है।" 'कल्पदुहा' की कई रचनाओं में त्रिपाठी जी ने इस पर अपनी रचनात्मक चिन्ता व्यक्त की है। वर्ण तथा जाति भेद पर त्रिपाठी जी ने लिखा है कि भले ही कोई अपने को उच्च या वैभवशाली तथा सर्वशक्तिमान समझने का भ्रम पाले, लेकिन तथाकथित छोटों की कार्य-कुशलता उसकी सम्पन्नता और बड़प्पन का आधार ही नहीं, उसकी दैनन्दिनी के वे अपरिहार्य सहायक हैं।

नापित का आश्रय दशकर्म-समापन तक,
भंगी के आश्रय में हम सबकी काया।
चर्मकार के आश्रय में पनही-प्रेमी
कुम्भकार-आश्रय में जल-जीवी काया।
भले मनुज वैभव में छोटों को भूले,
निर्वाहित छोटों से विभव-पराभव है।

वर्ण-भेद तथा कर्म-भेद के बावजूद सब एक धागे में गुथे हुए है और सब के प्रति समभाव हीसामाजिकता को गति देता है क्योंकि बनाने वाले ने भी सबमें अभेद की स्थिति को ही स्वीकृति दी है।

धाता सबको पास बिठा दुलराता है।
उसे सुखी से अधिक दुखी जन भाता है।
करता वंचित वह न किसी को सत्ता से,
जन को छोटा-बड़ा-भेद खा जाता है
  मंच बना सकना धाता के स्वागत को,
  दोनों की सहमति के बिना असम्भव है।

साम्राज्यवाद की बढ़ती प्रवृत्ति युद्ध को जन्म देती है। एक देश दूसरे देश से टकराता है। विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों की लपट में असंख्य जनों की आहुति चढ़ाई जाती है और सम्पूर्ण वसुधा को ही एक कुटुम्ब मानने की उदात्त अवधारणा जन-बल के अनेक खण्डों-उपखण्डों में विभाजित होकर अपना मूलार्थ खो देती है। साम्राज्यवाद की इस मानव विरोधी युद्ध-लिप्सा का विरोध करते हुए त्रिपाठी जी ने लिखा है

'हो अरब या यहूदी कि कम्बोदियाई,
हो वियतकांग या हो वियतनाम भाई,
रक्त अमरीकनों का हो कि कोरियाई,
हो कम्यूनिस्ट, लाओशियन हो कि थाई,
हम गिराने न देंगे किसी देश में,
यह हमारा रुधिर है, हमारा रुधिर।

साम्राज्यवाद तथा युद्धों का विरोध हिन्दी की अनेक प्रगतिशील रचनाओं में मिलता है। वीरेन्द्र मिश्र के एक युद्ध विरोधी गीत की पंक्तियाँ हैं
कंधों पर धरे हुए
खूनी यूरेनियम
गाती है तम
युद्धों के मलबों से
उठते हैं प्रश्न और गिरते हैं हम।

त्रिपाठी जी इसी प्रकार की चिन्तना को आगे बढ़ाते हुए 'युद्ध होने न देंगे किसी देश में' की उद्घोषणा करते है क्योंकि वे मानते हैं कि

'सार्वभौमिक रुधिर, एकभौमिक नहीं है।
विश्ववंशी रुधिर आनुवंशिक नहीं है।

उनकी दृष्टि सही अर्थों में विश्व-बिरादरी की भावना में डूबी हुई है इसीलिए इन पंक्तियों में 'विश्ववंशी रुधिर आनुवंशिक नहीं है-कहकर निजत्व ही नहीं, कई सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं।

हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने संघर्ष करते हुए एक सपना देखा था कि विदेशी दासता से मुक्ति के बाद यहाँ की शासन व्यवस्था अपने लोगों के पास होगी, वह एक ऐसा सुशासन होगा जो वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म के विभाजनकारी तत्वों से मुक्त एक समाजवादी समाज की स्थापना हो सकेगी जिसमें न कोई राजा होगा और न कोई प्रजा वरन् शासन में सबकी बराबर की हिस्सेदारी होगी। सामन्ती अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाएंगे। लेकिन सन् 1952 से धीरे-धीरे स्वदेशी शासकों के प्रति लोगों का मोहभंग होने लगा एक-एक कर सपने टूटने लगे। नए शासकों की काया में पुरानों के प्रेत प्रवेश कर गए। उनका पुरानी राजसी ठाट-बाट लौट आया और आम जन तथा सत्ता-पुरुषों के बीच निरन्तर दूरी बढ़ती गई। वॉयसराय राष्ट्रपति हो गए, मंत्री नए सामन्त । स्वाभाविक है कि इस बदलाव से त्रिपाठी जी का संवेदनशील मन आहत होकर कह उठा

राज्य के महोत्सव सब राजसी रहेंगे
और जन अभावों की यातना सहेंगे ।
राज्य के अतिथियों की राजसी सवारी
देख-देख भूखे ही रात काट देंगे।
आतों को जाड़े का शीत जकड़ लेगा।
क्रन्दित शिशु आँखों की नींद चुरा लेंगे।

इसी को और अधिक विस्तार देते हुए उन्होंने आगे लिखा है -
नित्य राजनैतिक दल फूकेंगे जन-धन।
ठाट से सभाओं के होंगे आयोजन ।
विपुल धन चुनावों में दुरुपयुक्त होगा।
नव नेता आएंगे करने को शोषण।
जगमग द्युति-सज्जा से कहीं भवन होंगे,
औषध के बिना कहीं आदमी मरेंगे।'

इन पंक्तियों को पढ़ते हुए किसी के भी मन में आज का जीवन्त परिदृश्य घूम जाएगा। ये पंक्तियाँ 1970 में लिखी गई है लेकिन इनका सत्य तीस वर्षों बाद सन् 2000 में भी जस का तस है, वरन् काफी कुछ अर्थों में और भी अधिक विकृतिजन्य। वर्तमान की शाश्वतता, जिसकी चर्चा पहले की गई है, क्या इन पंक्तियों से सहज सिद्ध नहीं हो जाती। कवि का विश्वास तो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः !।' वाली वैश्विकता में है। वह चाहता है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच की विभाजक रेखाएं समाप्त हों, सब-सबक सुख-दुःख के सहभागी बनें क्योंकि यह विश्व किसी एक का नहीं सबका है

दूर किसी कोने में विश्व के
विग्रह का स्वर न सुना जा सके।
सार्वभौम जनता के कष्ट को
जन-जन मन-प्राण से बँटा सके।
व्यक्ति-सुख समष्टि का विकास है।
सबका यह विश्व एक का नहीं।

समाज में आर्थिक रूप से इतना वैषम्य है कि कुछ अरबपति हैं तो चालीस प्रतिशत के आसपास लोग गरीबी रेखा से नीचे के स्तर पर जीवनयापन कर रहे हैं । सत्ता व्यक्ति तथा समाज विमुख है इस असमान बँटवारे के कारण।

पड़े कहीं रीते जन-भवनों में ताले।
सौंधों में कहीं चार जन रहने वाले।
विस्तृत भू-खण्डों का कहीं एक स्वामी।
खेती को कहीं एक बीघे के लाले।
व्यक्ति विमुख सत्ता है कल्मष की पुतली।
कौन समझ सकता है उसे दूध-धोयी?"

इस असमान आर्थिक विभाजन से ही सर्वहारा के बीच से क्रान्तिकारी शक्तियाँ जन्म लेती हैं और इसे समाप्त या आधिकाधिक कम करने के बाद ही शान्त होती हैं-

क्रान्ति सर्वहारा की शान्त तभी रहती,
जब उसकी माँगों की शान्ति से निबहती।

वसुधा की निधियों को जो न बँटा पाती
रहती वह नीति सदा रक्त में डुबोयी।'

जब तक यह पूँजी का असमान विभाजन है, सत्ता के दमन के बावजूद शोषित-पीड़ित जन क्रान्तिधर्मी पथ का वरण करते रहेंगे। यदि स्वविवेक और परस्पर सहकार से सम बंटवारा सम्भव नहीं होगा, समाज में शान्ति-सहयोग और भाईचारे की नींव मजबूत नहीं होगी। दमन किसी भी प्रकार का हो अन्ततः वह संघर्ष को ही जन्म देता है

'त्याग जागेगा न यदि मनुहार से,
तो जगाया जाएगा तलवार से ।
घन बरसता जो न निज जल-भार से,
वह बरसता बिजलियों की मार से ।
है अपेक्षा से अधिक जो सम्पदा,
व्यर्थ-संग्रह-वश वही है आपदा।
छीन लेंगे जीव जीने के लिए,
क्योंकि जीना भाग्य में सबके बदा।

'कल्पदुहा' में केवल सामाजिक, राजनैतिक चिन्तनपरक रचनाएं ही नहीं हैं, इनमें प्रकृति के मनोरम छवि-चित्र भी हैं और मानवीय राग-बोध से जुड़ी रचनाएं भी। इस संदर्भ में प्रकृति का एक छवि चित्र है

हिमगिरि के कन्धों पर झूलती हिमानी
निरख रही यौवन-सम्भार।
उलट-पलट हिमनद की आरसी निरखती
अपना मद-दाता श्रंगार

उत्तर मध्यकालीन हिन्दी कविता में ऐसी अनेक रचनाएं पढ़ने को मिलती है जिसमें परस्पर गहरे राग-बोध के फलस्वरूप कभी नायिका नायक को रिझाने के लिए कभी स्वयं सजती-संवरती है और कभी नायक स्वयं अपनी प्रिया का श्रृंगार करता है। प्रस्तुत अंश में यह दूसरा पक्ष शब्दांकित हुआ है।

पहनाया सूरज ने स्वर्णिम परिधान,
द्रवित कर हिमानी का रूपस अभिमान।
आलिङ्गित ऊष्मा से वाहित सित देह
और किसी लोक को सिधारी अम्लान।
दबे हुए पौधों के हिमकण को धोती,
उमड़ चली वसुधा के पार।

पंत ने लिखा है ---
'कहाँ बता हे बाल विहाँगिनि
सीखा तूने यह गाना।'

त्रिपाठी जी अपने बाल-खग से कोई प्रश्न, कुतूहल व्यक्त नहीं करते। वे भली प्रकार जानते हैं 'पक्षी में गाने का गुन' है।

बाल खग, तुम इस विजन बन के,
इस अंधेरे के उजाले हो।
गगन के इस  मूक मंडप में
तुम अकेले कण्ठ वाले हो।

त्रिपाठी जी का काव्य-स्वर किसी-किसी रचना में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के काव्य-स्वर को अपने में पिरोता दृष्टिगोचर होता है जब वे इस तरह अपनी अभिव्यक्ति को स्वर देते हैं

तुम जैसे कहो, कहूँ मैं।
तुम जैसे रखो, रहूँ मैं।
किन्तु रहे संग लगा आजीवन,
प्राण, स्वर तुम्हारा, मेरा चिन्तन।
पल भर को रुके न यह गायन-क्रम।

अथवा
"पास पहुँचू, न पहुँचू तुम्हारे,
किन्तु यों ही बुलाते रहो तुम।
दृष्टि-मन-प्राण की डोर मेरी
उँगलियों से नचाते रहो तुम।

त्रिपाठी जी 'कल्पदुहा' की एक रचना में अपनी सृजन-प्रक्रिया का भी बारीक संकेत देते हैं

'प्रक्षेपण शब्दों के काल के कुलिश-शर।
कम से कम शब्दों का सेवन ही सुखकर।
शब्द पूर्ण परिचय हो सूक्ष्म भावना का।
सूक्ष्म वस्त्रधारी हो सत्य का कलेवर।
शब्दों से दबा न दो रूप का निरूपण ।
रत्नों को रत्नों के काँटों पर तोलो।

अथवा
शब्द का अपव्यय है अहंभाव लाता।
सत्य भी असत्यों-सा वातुल बन जाता।
मर्म-व्यथा मौन के सहारे झिल जाती।
शब्द का मितव्यय है आत्म-बल-प्रदाता।'

'कल्पदुहा' की रचनाओं को पढ़ने-गुनने के बाद एक महत्वपूर्ण बात जो उभरकर आती है वह यह है कि तमाम वैषम्य, दारुणता के वावजूद रचनाकार के भीतर गहरा आशावाद झिलमिलाता दिखता है

जन को जन मोल ले सका नहीं।
बिक गया शरीर, सिर बिका नहीं
मानव तन आयु भर चला किया
  क्षत विक्षत पाँव भी थका नहीं।'

यहीं आशावाद, यही विश्वासभाव, मनुष्य की तमाम विषमताओं, अमानवीयताओं के विरुद्ध जय-यात्रा का संदल है। त्रिपाठी जी की रचनाओं के सुधी पाठकों को कल्पदुहा' की रचनाओं में एक नए आस्वाद का अनुभव होगा। आशा की जा सकती है कि उनकी पूर्व प्रकाशित कृतियों की तरह पाठक, गुणीजन इसे पाकर सन्तुष्ट होंगे। इतना ही नहीं, यह कृति त्रिपाठी जी के पूर्ण कवि व्यक्तित्व का परिचय करान में सहायक सिद्ध होगी।

कवि जहाँ अपने समय के समाज को सम्बोधित करता है वहीं आने वाली कवि पीढ़ियों के लिए भी कुछ सन्देश छोड़ जाता है। इस सन्दर्भ में इस संग्रह की एक पूरी रचना को उद्धृत करने का मोह संवरण ऐसा करने को उत्प्रेरित कर रहा है क्योंकि यह पूरी रचना कवि-कर्म अथवा कवि-धर्म को सम्बोधित है। यह सन्देश कवि को कलावीथियों, वातानुकूलित कक्षों तथा कॉफी हाउस की तथाकथित सम्भ्रान्तता की जड़ताग्रस्त होती सीमाओं से बाहर निकाल कर जन सम्बोधित करने और होने का कर्तव्यबोध जगाता है

"कविकर्मा, कमों का कलुष हरो।
ज्योतिष्पथ जीवन का प्रखर करो।
अधिकाधिक रसमय जन-गीतों की
ऊर्जित जय-यात्रा को मुखर करो।
                              मुखर करो।
मुखर करो आत्तों का मूक नाद ।
मुखर करो हिंसा के प्रति विषाद।
प्रखर करो संस्कृति का म्लान तेज।
प्रखर करो धूमिल जनतंत्रवाद।
                            प्रखर करो।
रूपों में संचारित स्वरस करो।
रंगों की जड़ता में रुधिर भरो।
                           रुधिर भरो।
नींव धरो अवबोधी कविता की।
बंजर है भाव-भू अकविता की।
करना रचनाओं से काम-गान,
अतिमांसल वृत्ति है रचयिता की।
विरह और विलपन की धरती में
जनवाची गीतों की शिला धरो।
                           शिला धरो।"

यह रचना जितनी स्वयं को सम्बोधित है उतनी ही अन्यों को भी। उत्तर-मध्यकालीन छायावादोत्तर काव्य के अनेक गीतों में यथार्थ के नाम पर देह-भोग का जो मनोविलास मिलता है त्रिपाठी जी की दृष्टि में वह मात्र काम-गान है। उसमें भावनायान की उदात्तता नहीं, मांसलता का कीच है। इसलिए वे देहजन्य विरह और विलपन की धरती में 'जनवाची' गीतों की शिला रखना चाहते हैं। क्योंकि 'कामगान' से नहीं, जनबोधी गीतों से ही मूकों का आर्त्तनाद मुखर होगा। वे संस्कृति के म्लान तेज को इसलिए पुनःप्रखर करने की बात करते हैं क्योंकि उसी से जनतंत्रवाद की धूमिलता नष्ट होगी।
      त्रिपाठी जी के सम्पूर्ण लेखन की केन्द्रीय चेतना है यही चिन्तन जो उन्हें अपने ही समानधर्मा कुछ लोगों से जोड़ता है तो अनेक स्वनामधन्यों से उन्हें अलग ले जाकर खड़ा करता है। जहाँ वे अधिकाधिक प्रखर-मानवतावादी ही नहीं -मशाल की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं।
      मुझे विश्वास है कि 'कल्पदुहा' का स्वागत हिन्दी जगत् में ऐसी बयार की तरह होगा जिसके ठहर जाने से गहरी उमस भरा वातावरण घुटन पैदा करने लगा था। 'कल्पदुहा' की रचनाओं को में आत्तपीड़़ित जनों का प्रार्थना गीत कहना पसन्द करूँगा।





✍️ माहेश्वर तिवारी, 'हरसिंगार', बी/1-48,
नवीन नगर, मुरादाबाद 244001

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा का गीत ----- लिखे काली करतूतों की गाथा,ऐसी लेखनी चाहिए, व्यवस्थाओं को जो बदल डाले,ऐसी जवानी चाहिए....


 विश्व में लहराए पताका, ऐसी राजधानी चाहिए,

व्यवस्थाओं को जो बदल डाले, ऐसी जवानी चाहिए।

सत्य हराने को रिश्वत में जो नोट होता है, हर नोट पर ''सत्यमेव-जयते'' लिखा होता है।

''सत्यमेव-जयते'' का अपमान अब बंद हो,

हर भ्रष्टाचारी के मुंह पर, घोर प्रतिबंध हो।

लिखे काली करतूतों की गाथा,ऐसी लेखनी चाहिए,

व्यवस्थाओं को जो बदल डाले,ऐसी जवानी चाहिए।।


पवित्र गंगाजल भी जब गंदा होने लगे, जोरों पर गौकशी का धंधा होने लगे।

युवा रोजगार को त्रस्त हो, 

फिर भी बुक छोड़, फेसबुक पर मस्त हो।

लिखे जो प्रेमिका के किस्से केवल,ना ऐसी कहानी चाहिए,

व्यवस्थाओं को जो बदल डाले,ऐसी जवानी चाहिए।।


वृद्ध जब अनाथालय में सिसकने लगे,

सत्य जब न्यायालय में तड़फने लगे।

तब हमारी गीता भी ,आंसू छलकाएगी,

कलिकाल की मूरत भी, जोरों से खिलखिलाएगी।

ऐसे में युवाओं के, रुधिर की रवानी चाहिए,

व्यवस्थाओं को जो बदल डाले,ऐसी जवानी चाहिए।।

✍️ अतुल कुमार शर्मा, निकट प्रेमशंकर वाटिका,

संभल, मो०9759285761, 8273011742


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष कैलाश चन्द्र अग्रवाल के 52 गीत । ये गीत उनके प्रथम काव्य संग्रह 'सुधियों की रिमझिम' में संगृहीत हैं । यह कृति सन 1965 में आलोक प्रकाशन मंडी बांस मुरादाबाद द्वारा प्रकाशित और प्रतिभा प्रेस मुरादाबाद द्वारा मुद्रित की गई थी । इस कृति की भूमिका लिखी है डॉ शिव बालक शुक्ल ने । इस कृति में उनके 64 गीत हैं -----


 





















































::::::::प्रस्तुति::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822