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सोमवार, 31 मई 2021
शुक्रवार, 28 मई 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य --विशेषज्ञता की हद
वो ज़माना गया जब हमारे घर में कोई बीमार पड़ जाता था तो हम सीधे अपनी गली मोहल्ले के डाक्टर के पास जाये थे . इसे फ़ैमिली डाक्टर भी कहा जाता था. यह एक ऐसा बंदा होता था जिसे परिवार के हर सदस्य के स्वास्थ्य के बारे में बारीक से बारीक जानकारी होती थी , उसे यह भी पता होता था कि अम्मा जी को शुगर रहती है , पापा जी के घुटनों में दर्द रहता है इसलिए वो इलाज के दौरान वही दवाई लिखता या देता था जिससे उनकी मेडिकल कंडिशन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न हो .
अब तो हाल यह है कि मुहल्ले के नुक्कड़ पर केवल वही डाक्टर बचे हैं जिनके नाम के आगे एबीसीडी , फिर आरएमपी या फिर जीएमपी क़िस्म की डिग्रियाँ लगी होती हैं . बाक़ी लोग इलाज कराने के लिए या तो सीधे पाँच सितारा अस्पताल जाते हैं नहीं तो फिर किसी स्पेशलिस्ट के पास. इलाज शुरू होने से पहले ही ये डाक्टर कई सारे टेस्ट करवाने के लिए लिख देते हैं , उनका सीधा तर्क रहता है कि जब तक वे बीमारी के बारे में मुतमयीन नहीं हो जाएँगे तब तक दवा नहीं देंगे . डाक्टर की फ़ीस मात्र एक हज़ार और टेस्टों की लागत यही कोई दस हज़ार . मरीज इस बात से संतुष्ट हो जाता है कि डाक्टर बेफ़जूल दवाई देने के पक्ष में नहीं है . लेकिन डाक्टर और टेस्टिंग लैब का सही सही रिश्ता क्या होता है यह मुझे कुछ महीने पहले ही पता लगा . मेरे पैर में दर्द था और पाँच सितारा अस्पताल के डाक्टर भास्कर ने मुझे हार्ट का कलर डापलर करने की पर्ची थमा दी थी. जिस लैब की पर्ची थी वह मेरे घर से काफ़ी दूर थी , मेरे घर के क़रीब एक नई लैब खुली थी मैंने सोचा क्यों न वहीं से टेस्ट करवा लिया जाए , लैब में पहुँचा , मेरी पर्ची पढ़ कर कर काउंटर पर बैठी रिसेप्शनिस्ट सीधे अपनी लैब के स्वामी के चेम्बर में पहुँच गयी . वो बहुत ही इक्सायटेड लग रही थी . वहाँ का पूरा सेट-अप छोटा सा ही था, चेम्बर में हो रही उन दोनों की बात आराम से सुन पा रहा था , लैब स्वामी कह रहा था ,’ जूली , डाक्टर भास्कर को फ़ोन लगाओ , उनको बोलो सर आपका खाता खोल दिया है , हम अभी नए हैं हम तीस परसेंट के साथ दस परसेंट बोनस भी दे रहे हैं. तब समझ में आया कि स्पेशलिस्ट डाक्टर क्यों कई क़िस्म के टेस्ट की परची बना कर देता है. मेरे एक जनरल फिज़िशियन मित्र तो उस पर्ची को देख कर कई मिनट तक पेट पकड़ कर हंसते रहे , कहने लगे मुझे आज ही पता चला कि पैर के दर्द के कारण का पता हार्ट के कलर डोपलर से चल सकता है.
इन दिनों चिकित्सा विज्ञान में इतनी तरक़्क़ी हो गयी है कि शरीर के छोटे छोटे भागों के विशेषज्ञ बन चुके हैं मसलन दांत को ही लीजिए , दांत में इंप्लांट का विशेषज्ञ अलग है , रूट कैनाल का अलग. एक दिन तो हद ही हो गई , मेरे एक मित्र एक सितारा हास्पिटल में ईएनटी विभाग में गए , वहाँ बैठे डाक्टर को कान देखने के लिए कहा , डाक्टर बोला ‘सॉरी मैं तो नाक का विशेषज्ञ हूँ ‘ हमारे मित्र उस सितारा अस्पताल में घूम घूम कर और विभाग में बैठे बैठे परेशान हो चुके थे डाक्टर से मुख़ातिब हुए कहने लगे, ‘ठीक है सर मेरा कान मत देखिए पर इतना बता दीजिए आप नाक के बाएं छेद के विशेषज्ञ हैं या फिर दाएँ के ‘.
सच कहूँ तो ऐसे डाक्टर ज़्यादा ज़रूरी हैं जो आपके पूरे शरीर को समझ कर आप का निदान कर सकें .
✍️ प्रदीप गुप्ता
B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ? -
जब बच्चा दूसरी या तीसरी कक्षा में आ जाता है ,तब रिश्तेदार घर पर आने के बाद बच्चों को पुचकारते हुए उससे पहला सवाल यही करते हैं " क्यों बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ? "
यह सवाल कुछ इस अंदाज में किया जाता है ,जैसे प्रश्न पूछने वाले के हाथ में वरदान देने की क्षमता है अथवा बच्चे को खुली छूट मिली हुई है कि बेटा आज जो चाहो वह मांग लो तुम्हें मिल जाएगा ।
कक्षा चार में बच्चों को अपने जीवन की न तो नई राह पकड़नी होती है और न ही विषयों का चयन कर के किसी लाइन में जाना होता है । हमारे जमाने में कक्षा नौ में यह तय किया जाता था कि बच्चा विज्ञान-गणित की लाइन में जाएगा अथवा वाणिज्य - भूगोल - इतिहास पढ़ेगा ? कक्षा 8 तक सबको समान रूप से सभी विषय पढ़ने होते थे । लेकिन बच्चों से बहुत छुटपन से यह पूछा जाता रहा है और वह इसका कोई न कोई बढ़िया-सा जवाब देते रहे हैं ।
दुकानदारों के बच्चे कक्षा आठ तक अनेक संभावनाओं को अपने आप में समेटे हुए रहते हैं । जिनकी लुटिया हाई स्कूल में डूब जाती है ,वह स्वयं और उनके माता-पिता भी यह सोच कर बैठ जाते हैं कि अब तो बंदे को दुकान पर ही बैठना है। उसके बाद इंटर या बी.ए. करना केवल एक औपचारिकता रह जाती है ।
ज्यादातर मामलों में प्रतियोगिता इतनी तगड़ी है कि जो व्यक्ति जो बनने की सोचता है ,वह नहीं बन पाता । एक लाख लोग प्रतियोगिता में बैठते हैं ,चयन केवल दो हजार का होता है । बाकी अठानवे हजार उन क्षेत्रों में चले जाते हैं ,जहां जाने की वह इससे पहले नहीं सोचते थे ।
ले-देकर राजनीति का बिजनेस ही एक ऐसा है ,जिसमें कुछ सोचने वाली बात नहीं है । नेता का बेटा है ,तो नेता ही बनेगा । इस काम में हालांकि कंपटीशन है ,लेकिन नेता जब अपने बेटे को प्रमोट करेगा तब वह सफल अवश्य रहेगा । अनेक नेता अपने पुत्रों को कक्षा बारह के बाद नेतागिरी के क्षेत्र में उतारना शुरू कर देते हैं । कुछ नेता प्रारंभ में अपने बच्चों को पढ़ने की खुली छूट देते हैं ।
"जाओ बेटा ! विदेश से कोई डिग्री लेकर आओ । अपने पढ़े लिखे होने की गहरी छाप जब तक एक विदेशी डिग्री के साथ भारत की जनता के ऊपर नहीं छोड़ोगे ,तब तक यहां के लोग तुम्हें पढ़ा-लिखा नहीं मानेंगे !"
नेतापुत्र विदेश जाते हैं और मटरगश्ती करने के बाद कोई न कोई डिग्री लेकर आ जाते हैं । यद्यपि अनेक मामलों में वह डिग्री भी विवादास्पद हो जाती है । नेतागिरी के काम में केवल जींस और टीशर्ट के स्थान पर खद्दर का सफेद कुर्ता-पजामा पहनने का अभ्यास करना होता है। यह कार्य बच्चे सरलता से कर लेते हैं । भाषण देना भी धीरे-धीरे सीख जाते हैं ।
जनता की समस्याओं के बारे में उन्हें शुरू में दिक्कत आती है । वह सोचते हैं कि हमारा इन समस्याओं से क्या मतलब ? हमें तो विधायक ,सांसद और मंत्री बन कर मजे मारना हैं । लेकिन उनके नेता-पिता समझाते हैं :- "बेटा समस्याओं के पास जाओ। समस्याओं को अपना समझो । उन्हें गोद में उठाओ । पुचकारों ,दुलारो ,फिर उसके बाद गोद से उतारकर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो और वापस आकर प्रीतिभोज से युक्त एक बढ़िया - सी प्रेस - कॉन्फ्रेंस में जोरदार भाषण दो । चुने हुए पत्रकारों के, चुने हुए प्रश्नों के ,पहले से याद किए हुए उत्तर दो । देखते ही देखते तुम एक जमीन से जुड़े हुए नेता बन जाओगे ।"
यद्यपि इन सारे कार्यों के लिए बहुत योजनाबद्ध तरीके से काम करना पड़ता है । फिर भी कई नेताओं के बेटे राजनीति में असफल रह जाते हैं । इसका एक कारण यह भी होता है कि दूसरे नेताओं के बेटे तथा दूसरे नेता-पितागण उनकी टांग खींचते रहते हैं। यह लोग सोचते हैं कि अगर अमुक नेता का बेटा एमएलए बन गया तो हमारा बेटा क्या घास खोदेगा ? राजनीति में प्रतियोगिता बहुत ज्यादा है । कुछ गिनी-चुनी विधानसभा और लोकसभा की सीटें हैं । यद्यपि आजकल ग्राम-प्रधानी का आकर्षण भी कम नहीं है । पता नहीं इसमें कौन-सी चीनी की चाशनी है कि बड़े से बड़े लोग ग्राम-प्रधानी के लिए खिंचे चले आ रहे हैं । खैर ,सीटें फिर भी कम हैं। उम्मीदवार ज्यादा है ।
कुछ लोग अपने बलबूते पर नेता बनते हैं । कुछ लोगों को उनके मां-बाप जबरदस्ती नेता बनाते हैं । कुछ लोगों को खुद का भी शौक होता है और उनके माता-पिता भी उन्हें बढ़ावा देते हैं । आदमी अगर नेता बनना चाहे तो इसमें बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं है। हालांकि टिकट मिलना एक टेढ़ी खीर होता है । फिर उसके बाद चुनाव में तरह-तरह की धांधली और जुगाड़बाजी अतिरिक्त समस्या होती है । पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है ,जो नेता-पुत्रों के लिए आमतौर पर कोई मुश्किल नहीं होती । आदमी एक-दो चुनाव हारेगा ,बाद में जीतेगा । मंत्री बन जाएगा । फिर उसके बाद पौ-बारह। पांचों उंगलियां घी में रहेंगी । पीढ़ी दर पीढ़ी धंधा चलता रहेगा। समस्या मध्यम वर्ग के सामने आती है। बचपन में उससे जो प्रश्न पूछा जाता है कि बेटा ! बड़े होकर क्या बनोगे ,वह बड़े होने के बाद भी उसके सामने मुँह बाए खड़ा रहता है। नौकरी मिलती नहीं है ,बिजनेस खड़ा नहीं हो पाता ।
✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर [उत्तर प्रदेश], मोबाइल 99976 15451
मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार रंजना हरित जी लघुकथा ----- संवेदना
आज पड़ोसन नीलम के पति की कोरोना बीमारी से चले जाने की खबर सुनकर .... अंजना के पैरो तले ,...जैसे जमीन खिसक गई।
वह जल्दी किचन से निकलकर
हाथ में मास्क ....लेकर नीलम के घर जाने के लिए निकली।
तभी ट्रिन.... ट्रिन..... ट्रिन .... फिर ... घंटी सुनते ही बेटी ने फोन उठाते हुए कहा-
मम्मी ...! दिल्ली से अनीता मौसी.. का ...फोन है ।
(बचपन की सहेली अनीता का फोन सुनने के लिए .... रूक जाती है।)
हे भगवान... क्या कह रही होगी?
(मन ही मन सोचती है,ये कैसा अनर्थ ...।)
हां ! !!!!बोल ...अनीता
कैसी है?
क्या बोलूं ....अंजना..
भाभी हॉस्पिटल में है। (रोते हुए बोली) सांस लेने में काफी दिक्कत हो रही थी , और अब डॉ....ने...
अरे!!!... कैसे... हो गया .? कैसे... हो आप सब ?
क्या भाभी कोरोना पॉजिटिव है?
हां ....अंजना ।
उनको ...कैसे हो गया ?
वह ...तो...कभी कही आती ....जाती... ही नहीं .?
(उधर से सहेली अनीता ने जो बताया )
क्या बताऊं ? बहन अंजना !...
भाभी.... पड़ोस में ही कोरोना पेशेंट की मृत्यु होने पर उनके घर संवेदना व्यक्त करने और उन्हें सभालने चली गई थी ।
बस .......भाभी जब से ही..
कोरोना पॉजिटिव हो गई।.
अंजना को अनीता का फोन.. सुनते -सुनते ...लगा... शरीर में जैसे जान ही न हो।
अंजना के हाथ से मास्क और मोबाइल गिर ही गया ।
और..पड़ोस में ,.बाहर नीलम के घर से जोर - जोर से ... रोने की आवाज तेज होती जा रही थी।
फोन सुनते- सुनते अंजना सोच में पर पड़ गई।
बाहर .... नीलम के घर.जाऊं ..
या नहीं जाऊं ..
सहेली अनीता की भाभी की तरह संक्रमित होकर अस्पताल में एडमिट होने के खौफ ने दरवाजे से बाहर नहीं जाने दिया।
✍️ रंजना हरित, बिजनौर, उत्तर प्रदेश
मुरादाबाद की साहित्यकार इंदु रानी की कहानी ----महान पिता
"रेलवे की मामूली सी प्राइवेट नौकरी और माँ-पिता से लेकर छोटे भाई,बीमार बड़े भाई के बेटे व खुद के तीन बच्चों की पूरी पूरी जिम्मेदारी ऐसे में एक पिता के नाते किस तरह मैं घर की गाड़ी चला पा रहा हूँ ये तो सिर्फ ईश्वर या मेरा दिल जानता है तनु की माँ.."! एक पिता कराहते हुए पास में सर दबाती अपनी पत्नी से।
"हां जी वो तो मैं खुद समझ रही हूँ आप खुद के लिए कम और औरों के लिए ज्यादा जी रहे हैं और अब बिटिया भी ग्रेजुएशन कर चुकी उसका मन आगे की पढ़ाई को है..!"पत्नी बोली।
"हां पर मुझे तो जिम्मेदारी निपटाने की सूझ रही बिटिया को दायरे मे रह कर सामान्य सी पढ़ाई करने की सलाह देते हुए उसे समझा बुझा दिया है मैंने । आखिर, अपने दोनों लड़कों को भी तो लैब टेक्नीशियन और एक्सरा टेक्नीशियन बनाना है और दहेज के लिए धन भी एकत्र करना है फिर छोटी बेटी भी बड़ी हो रही ,बहुत बहुत जिम्मेदारी हैं भाग्यवान"!
बिटिया पल्ले की आड़ से सुन कर मायूस हो गयी...
पर बिटिया को तो धुन थी हट के पढ़ाई करने की सो उसने चुपके से एक पत्र अपने चाचा को लिखा जिसकी अंतिम पंक्तियां थी- "आप कृपा कर मुझ पर भरोसा रखिये,पढ़ाई पूरी होने पर जब जॉब लगेगी तो मैं सब उधार चुका दूँगी.."! तभी इत्तेफाक से उसके पिता उसे लिखते हुए पकड़ लेते हैं और हाथों से ले कर पढ़ने लगते हैं। उनकी आँख डबडबा जाती है। मन भर आता है। खुद को सम्भालते हुए वो पत्र हाथ में मोड़ते हुए रख लेते और शाम को पत्नी से सारे वाकये का जिक्र करते हुए कह उठते हैं - "जब इतनी ही लगन है हमारी बिटिया को तो क्यों न हम दहेज के सारे पैसे रुपए बिटिया की खुद की ही पढ़ाई पर ही लगा के देखें,अरे क्या पता वो हमारे इन्हीं दोनों लड़कों सी निकले। भाग्यवान, कम से कम उसका दिल तो रह जाएगा..!चल बाबली कोई बात नहीं भले हम एक टाइम की सब्जी दोनों टाइम चला लेंगे पर बच्चों के शौक तो पूरे हो सकेंगे..."!
पिता ने बस यही सोच बिटिया पे भरोसा करते हुए अपने से बहुत दूर दाखिला करवा के छात्रावास में रहने और पढ़ने लिखने को छोड़ दिया और खुद जिम्मेदारियों में दब कर एक टाइम की सब्जी दोनों टाइम पत्नी के साथ खुशी-खुशी बाँट के जीता रहा। इस सोच के साथ के यही बच्चे तो आगे चल के सहारा होंगे। भले अंत समय कुछ पास हो न हो बच्चों की ये दौलत तो कम से कम होगी।
✍️ इंदु रानी, मुरादाबाद
मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा निवासी साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा ---रिश्तों का महत्व
'हम दोनो ही कोरोना पॉजिटिव हैं, राजेश। अब कैसे होगा । घर पर क्वारनटीन...........रोहित को कौन सम्भालेगा। माँ जी भी तो हैं......'।उषा परेशान हो राजेश से कहे जा रही थी। ' देखते हैं , पहले घर चलो ।' राजेश ने गाड़ी घर की तरफ मोड़ दी। उसने फोन पर माँ को बता दिया कि हम दोनो..........
जैसे ही गाड़ी की आवाज सुनी , माँ ने कहा बेटे-बहू, मैनें दोनो अलग अलग कमरों में तुम्हारी जरूरत का सब सामान रख दिया है। गरम पानी अभी रखा है। जाओ सीधे अपने अपने कमरे में जाओ। सब सही हो जायगा, चिंता मत करो। रोहित अपने कमरे में है।
माँ ने 14 दिन तक कोरोना प्रोटोकाल का पूरा अनुपालन करते हुए, बहू बेटे का ध्यान रखा। रोहित को भी संभाल लिया।
उषा और राजेश धीरे -धीरे सही होने लगे।
माँ के प्रयास से दोनो 14 दिन में बिलकुल सही हो गये।
सही होकर उषा माँ के गले लगकर बहुत रोई। उसे याद आया कि वह अभी कुछ दिन पहले ही राजेश से लड़ रही थी कि माँ को गाँव छोड दो। आज इस बुरे समय से उषा को रिश्तों का महत्व समझ आ गया।
✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा
मुरादाबाद की साहित्यकार ( वर्तमान में नोएडा निवासी ) सपना सक्सेना दत्ता की कहानी ---भलाई हमेशा वापस आती है
सुधा कार्यालय में अकेले बैठी थी। लगभग साढ़े छः बजे पति से बात हुई थी । वे उसे लेने कार्यालय आने वाले थे परंतु तेज आँधी बारिश के चलते रास्ते में एक पेड़ गिर जाने से वे रास्ता खुलने का इंतजार कर रहे थे और सुधा ढलती हुई शाम में अपने पति का ।
अधिकांश स्टाफ या तो बीमार था या घर में किसी के बीमार होने पर क़वारन्टीन। कोरोना की तीसरी लहर और तेज़ आँधी तूफान से मौसम ने भयावह रूप ले लिया था ।यह देखते हुए उसने अपनी चार माह पश्चात सेवानिवृत्त होने वाले इंचार्ज एवं अपनी पियोन को जिद करके घर भेज दिया था । उसकी संतोष आंटी बार-बार कह रही थी बिटिया अकेले कैसे बैठोगी आफिस में ? वह हँस कर बोली- कोई बात नहीं ये हमेशा समय पर आ जाते हैं। अभी मेट्रो भी नहीं चल रही है। आप समय रहते निकल जाओ। कार्यालय प्रथम तल पर था। थोड़ी देर के बाद उसने कार्यालय के बाहर कॉरीडोर में चहल कदमी करते हुए देखा कि आसपास के सभी कार्यालय बंद हो चुके थे। सामने बस सुनसान सड़क दिखाई दे रही थी। वह वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गई तभी अचानक बिजली की फुर्ती से कई बंदर गुस्से में खों खों चिल्लाते हुए उसके ऑफिस में घुस आये । सुधा तेजी से अंदर की ओर भागी और अंदर वाले चेंबर में जाते ही उसने दरवाजा बंद कर लिया। चेम्बर भी क्या था बस एक आठ फुट की दीवार मात्र थी जिसके ऊपर छत तक खुला था। एक छलांग में ही बन्दर अंदर चले आते। वह साँस रोककर दरार में से देख रही थी। वे तीन बन्दर बुरी तरह से लड़ रहे थे। सुधा का फोन भी सामने टेबल पर पड़ा था वह चाह कर भी बंदरों के बीच में अपना फोन लाने की स्थिति में नहीं थी उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। तभी उसे शोर मचाते हुए किसी के आने की आवाज सुनाई दी वह समझ गई कि यह तो वह भिखारी है जिसको प्रतिदिन अपने खाने में से दो रोटियाँ दे देती है । थोड़ी देर बाद वह एक लोहे की रॉड पीटता हुआ आया और उसने उन बंदरों को भगा दिया वह बाहर से बोला मैडम जी अब घर जाओ हमने बंदरों को भगा दिया है ।
सुधा बाहर आई तब तक वह भिखारी लोहे की रॉड को जमीन पर घसीटता हुआ कॉरिडोर में दूर चला जा रहा था। और सामने से उसके पतिदेव आ रहे थे। सुधा के माथे पर पसीना व चेहरे पर मुस्कान थी । उसके दिल ने कहा कि भलाई हमेशा ही वापस आती है।
✍️ सपना सक्सेना दत्ता, सेक्टर 137, नोएडा
गुरुवार, 27 मई 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कहानी --नौकरानी
.... "मालकिन आपने तो 1200 रुपए ही दिये हैं..... मेरे 1500 रुपए होते हैं।"".....
"अबकी तो मुझे बच्चों की फीस भी भरनी है।दूसरे मालिकों ने और भी मेरे पैसे कम कर दिए मैडम ऐसा मत करो हम गरीब लोग बिना पैसों के गुजारा कैसे करेंगे.."
"तुमने जो लॉकडाउन में छुट्टी करी थी उसी के पैसे मैंने काट लिये हैं।"
"मैडम इतने कम पैसों में हमारा पूरा नहीं पड़ता "।
"तुम्हारा पूरा नहीं पड़ता है तो काम छोड़ दो" मीरा मैडम ने कहा।
... हार कर सावित्री मन मार कर 12 00 रुपए ही ले कर चली गई........।
...... अगले दिन कामवाली के न आने पर दीप्ति ने कहा ,"बिना कामवाली के मैं काम नहीं करूंगी "।
........इस बात को लेकर घर में बहुत हंगामा हो गया । सास बहू में झगड़ा बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ गई कि दीप्ति घर छोड़कर चली गई साथ में बैग में भरकर अपना सामान ले गई "अब आपसे मै अदालत में मिलूंगी.... मैंने भी एक एक को जेल न करा दी तो मेरा नाम दीप्ति नहीं.।"
...... शाम हो चुकी थी शहर से जाने वाली आखरी बस भी चली गई थी । सारे घर वाले परेशान हो गए ।सब जगह ढूंढा मगर जिद्दी दीप्ति कहीं नहीं मिली दीप्ति के घरवालों को फोन किया उनसे पूछा "दीप्ति घर पहुंची ?...... उन्होंने कहा नहीं घर तो नहीं पहुंची क्या बात है......? क्या हुआ?.... क्यों चली गई?? .... क्या हुआ ?"
आखिर पुलिस मैं रिपोर्ट लिखवाई पुलिस ने बहुत ढूंढा.... परंतु कहीं पता नहीं चला....... घर वाले बहुत परेशान हो गये हैं गंभीर सोच में पड़ गए कि यदि....... नहीं मिली तो क्या होगा
....."दीप्ति के मायके वालों ने केस लगा दिया तो लाखों रुपए के नीचे आ जाएंगे" मीरा ने कहा और बैठ कर रोने लगी।
....... सारे घर वाले एक जगह बैठे थे और यही विषम चल रहा था कि तभी देखा सावित्री बहू का बैग लिए चली आ रही है पीछे पीछे दीप्ति भी थी ।
सावित्री ने कहा "मैडम मैं शाम को बस स्टैंड से निकल रही थी सारी वसें जा चुकीं थी और दीप्ति मैडम बस स्टैंड पर अंधेरे में बैठे हुईं थीं...... कुछ गुंडे वहां पर इकट्ठे हो गए और मैडम के साथ बदतमीजी करने लगे ".....वो तो अच्छा हुआ मैं वहां पहुंच गई मैंने सारे गुंडों को धमकाया और दीप्ति मैडम को साथ लेकर अपने घर चली गई मैं रात तो रात को ही आना चाहती थी मगर दीप्ति मैडम किसी भी कीमत पर लौटने को तैयार नहीं हुईं कहने लगी मैं सुबह ही निकल जाऊंगी रात भर समझाने बुझाने से मैडम की समझ में आया।
... अब मैडम बहू को प्यार से रखो यहां का माहौल अच्छा नहीं है....
यह कहकर सावित्री लौटने लगी
तभी मीरा मैडम ने ... आगे बढ़कर सावित्री को गले लगा लिया बोलीं...."आज से तू इस घर की नौकरानी नहीं बेटी की तरह है ....कल से काम पर आ जाना......!"
✍️ अशोक विद्रोही,412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद, मोबाइल फोन 8218825541
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की लघुकथा------ चमचे
आज घर में समारोह था।मंगलगीत गाये जा रहे थे।स्वादिष्ट व्यंजनों से पात्र भरकर पंडाल में रखे जा रहे थे। पात्रों से भीनी -भीनी सुगंध आ रही थी।
जैसे ही भोजन प्रारंभ हुआ,एक साथ बहुत से चमचे खीर के पात्र में डाले जाने लगे।खीर का पात्र यह देख बाकी व्यंजनों वाले पात्रों की ओर देख कर गर्व से मुस्कुराया..और बोला,"देखा तुमने! कितने चमचे मेरे साथ हैं...!तुममें से बहुतों को तो एक भी चमचा नसीब नहीं हुआ...!!"
लेकिन कुछ ही देर में अचानक इतने सारे चमचे खीर के पात्र में होने के कारण पात्र की खीर जल्दी समाप्त होने लगी थी।खीर जैसे- जैसे खत्म हो रही थी चमचों की रगड़ से पात्र की दीवारें क्षतिग्रस्त होने लगीं और अंततः खीर के पात्र का संतुलन बिगड़ा और वह धरती पर औंधा लुढ़क गया।
खीर का पात्र गिरने से मालिक को अतिथियों के सामने बहुत अपमान महसूस हुआ ।उसने तुरंत नौकरों को बुलाया और झेंप मिटाने के लिए गुर्रा कर बोला,"यह खराब तली का पात्र यहाँ किसने रखा था...?जाओ!इस बेकार पात्र को कबाड़ में डाल दो!!....और दूसरा पात्र यहाँ रखो ।जल्दी करो..!!"
यह देख बाकी व्यंजनों वाले पात्र, अब खीर वाले पात्र की हँसी उड़ाने लगे...।और चमचे..!! वे अब अन्य व्यंजन वाले पात्रों की ओर तेजी से लपक रहे थे।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
बुधवार, 26 मई 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानंद गुप्त की कहानी --- न मंदिर न मस्जिद । यह कहानी उनके कहानी संग्रह 'मंजिल' में संगृहीत है। हमने इसे लिया है दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका भारती के श्री दयानन्द गुप्ता स्मृति विशेषांक से ...
गोधूलि की वेला हो चुकी थी। पूरब से नीलिमा का एक परदा उठकर सूर्यास्त के स्वर्णिम मेघों को ढकने के लिये पश्चिम की ओर बढ़ रहा था । संसार के दीपक कुल के स्नेहाकुल अधर स्निग्ध होकर हास्य-आलोक विकीर्ण करने को सम्प्रति सजीव हो चुके थे। दिन कुछ ही देर का अतिथि था। उसकी प्रवास यात्रा की शहनाई वन से लौटती हुई विहग-बालिकाएँ बजा रही थीं।
मन्दिर में शंख और मस्जिद में अज़ान का स्वर सुनाई दिया। हिन्दू और मुस्लिम भक्त अपने-अपने उपास्य देव के चरणों की शरण ग्रहण करने को गृहों से निकले । इसी समय एक मुसलमान भिक्षुक एक आबनूस का सोटा, उसी का भिक्षा-पात्र तथा काला कम्बल कन्धे पर लादे धीरे-धीरे रामानुज गली से गुज़रा। वह सूफ़ी था और बहुत दूर से इस नगर में पहली बार आया था। थकान भिक्षु की शक्तियों पर आधिपत्य जमा चुकी थी और अब वह आगे एक भी क़दम उठा नहीं सकता था। उसने कितने ही बालवयोवृद्धों से प्रश्न किया कि अभी नगर की मस्जिद कितनी दूर और है, किन्तु लोगों ने उसकी बात को सुनी अनसुनी करके टाल दिया। वह कुछ कदम आगे और बढ़ा चारों ओर उसके नेत्र किसी स्वच्छ स्थान की ओर दौड़ रहे थे। राधा-कृष्ण का विशाल मन्दिर सामने खड़ा हुआ था । उसके सिंह द्वार के दोनों ओर स्फटिक शिलाओं का दुग्ध धवल शीतल-वक्ष प्रस्तार चबूतरा था । भिक्षक ने एक तरफ के चबूतरे पर अपना कम्बल बिछा कर काबे की ओर मुख करके इबादत शुरू कर दी ।
मन्दिर में अभी आरती आरम्भ ही हुई थी। पुजारी मन्त्र पढ़ता हुआ प्रदीप्त आरती-दान लिये हुये मन्दिर की देहरी पर विशाल घृत दीप धरने आया। दीप रखकर वह फिर अन्दर अपने उपास्यदेव के पास जाने ही को था कि उसकी दृष्टि घुटने और कुहनियों के सहारे नमाज़ में झुके हुए मुस्लिम साधु की ओर गई । वह अवाक् रह गया। साधु अपनी वन्दना में तल्लीन था। आरती का रव उसे सुनाई नहीं दिया । म्लेच्छ के मन्दिर पर चढ़ आने के विचार ही से पुजारी की नस-नस में आग लग गई। वह अपने मन्त्र भूल गया और उसने डांट बताते हुए साधु से कहा -
"यह मन्दिर है। क्या तुम्हें इतना भी दिखाई नहीं देता ? "
"दिखाई क्यों नहीं देता इसी वजह से तो मैं यहां खुदा की इबादत करने बैठ गया। इससे ज्यादा पाक जगह और कौन-सी हो सकती है ?" मुस्लिम साधु ने उत्तर में कहा ।
"लेकिन तुम्हारे यहां बैठ जाने से यह अपवित्र और भ्रष्ट हो गई। यह स्थान म्लेच्छों के लिये नहीं हैं। "
"जनाब खुदा के सभी बन्दे हैं। सभी का खुदा एक है । चाहे आप उसे भगवान कहें या मैं उसे अल्लाह कहूं, लेकिन वह एक है। फिर उसी के बन्दों में ऐसी नापाक तफरीक क्यों ? आप भी तो पूजा ही कर रहे हैं और मैं भी नमाज पढ़ रहा हूं, तो यह जगह मेरे ही उसी काम के करने से नापाक क्यों हो जायगी ?".
"चाहे आप कुछ भी क्यों न कहें, हम अपने मन्दिर पर किसी भी यवन को चढ़ने नहीं दे सकते । आप मस्जिद में जाकर नमाज पढ़िये । "
" ऐ पुजारी ! तुम अपने बुतों को क्या इतना कमजोर समझते हो कि मेरे चबूतरे पर चढ़ आने से घबरा गये ? यहां नजदीक कोई मस्जिद नहीं वरना मैं तुम्हें वहां ले चलता और दिखला देता कि तुम भी वहां शौक से अपनी पूजा कर सकते हो।"
" तो यह मन्दिर और मस्जिद अलग अलग क्यों ?"
सिर्फ इन्सान की नासमझी की वजह से, जैसे हिन्दू और मुस्लिम अपने को अलग-अलग समझते हैं। अगर मन्दिर और मस्जिद का कोई मतलब है तो सिर्फ इतना ही कि हमें खुदा को याद करने के लिए साफ जगह मिल सके। हम सब वहाँ इकट्ठे होकर मुहब्बत भरे दिल से पाक परवरदिगार को याद कर सके। मन्दिर और मस्जिद मुहब्बत के मकतब है, न कि फसाद के क्लब।"
"हमारे आपके खाने-पीने रहने-सहने व आदर्श विश्वासों में इतना अधिक अन्तर है कि यह असम्भव है कि मन्दिर और मस्जिद एक हो सके।"
"तो हम दोनों ही को क्यों न छोड़ दें ? खुदा को आप भी मानते हैं और हम भी अगर इब्तिलाफ़ है तो सिर्फ उस जगह पहुंचने के रास्ते पर क्या दो मुख्तलिफ रास्तों के चलने वाले मुसाफिर को एक ही जगह पहुंचने पर भी आपस में झगड़ना चाहिये ? हरगिज नहीं रही खाने-पीने व रहने-सहने की बात यह तो महज ऊपरी बाते हैं। ये चीजें मुल्क मुल्क के साथ आबो-हवा के साथ कौम-कौम के साथ तब्दील होती रहती है। आप ही रोजमर्रा न एक-सा खाते हैं, न पहनते हैं। यह तो साबित ही है कि एक मालिक के खादिमों में बाहमी मुहब्बत रहनी ही चाहिए।"
"मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास हो रहा है लेकिन यह बताओ कि तुम्हारे यहाँ भी यह कमजोरी है या नहीं। मस्जिद में क्या मुझे आरती और पूजा करने की आज्ञा होगी?"
"होनी चाहिए अगर नहीं है तो यह इंसानी फितरत और कमजोरी है ।"
" तो आप नमाज पढ़िये , तब तक मैं भी पूजा समाप्त कर लूं।"
पुजारी भीतर चला गया। अब भक्त पर्याप्त संख्या में आने लगे थे। उनका एक झुण्ड मुस्लिम साधु को घेर कर खड़ा हो गया और उसे वहाँ से चले जाने के लिए आग्रह व धमकियाँ देने लगा। बाहर कोलाहल बढ़ता जा रहा था। एक बार फिर पुजारी की आराधना में बाधा आ खड़ी हुई। बाहर आकर उसने क्रोधित जनसमुदाय को अभी अभी सीखे हुए मनोगत तर्कों से शान्त करने की चेष्टा की, लेकिन किसी ने उसे 'पागल', किसी ने 'विधर्मी' व 'धोकेवाज़' व 'भ्रष्ट आदि सम्बोधनों से पुकारा। पुजारी की भीड़ के आगे एक न चली। भीड़ ने मुस्लिम साधु को धक्का देकर नीचे उतार दिया और उसका सामान इधर उधर फेंक दिया। पुजारी से यह सब न देखा गया । उसने भी मन्दिर की सेवा से तिलांजलि दे दी और वह उसके साथ-साथ हो लिया ।
दोनों चुपचाप चले जा रहे थे। वे लगभग बीस मिनट चले होंगे कि उन्हें एक मस्जिद दिखाई दी। दोनों वहीं रुक गये। पुजारी ने साधु की ओर देखा और साधु ने पुजारी की ओर। साधु मस्जिद की तरफ बढ़ा और पीछे पीछे पुजारी भी। अभी तक नमाज चल ही रही थी। शायद समाप्त होने का समय आ गया था। साधु मस्जिद की देहरी पर पहुंचकर खड़ा हो गया और उसने पुजारी से कहा----
"अन्दर आ जाओ पुजारी, और उस खुदा की, जिस तरह मिजाज चाहे, पूजा करो।"
उपस्थित व्यक्तियों में यह सुनकर एक सनसनाहट-सी दौड़ गई। उसके कान और ध्यान इधर ही थे।
पुजारी धीरे-धीरे बढ़ा और नमाजियों की कतार पार करके वह सबसे आगे करबद्ध खड़ा हो गया, ठीक इमाम के आगे, जो पूरी कतार के आगे खड़ा हुआ था। पुजारी ने उच्च स्वर में उच्चारण आरम्भ किया
" वामांके च विभाति भूधरसुता देवापगे मस्तके भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसिव्यालराट् । सोयं भूति विभूषण: सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातुमाम्।"
अचानक अपरिचित भाषा को सुनकर पहिले तो इमाम को आश्चर्य हुआ और पुजारी जी सुख से श्लोक पढ़े चले गये, लेकिन फिर सबसे पहिला हाथ इमाम का ही उसके ऊपर पड़ा। फिर तो सब ने उसे मारना शुरू कर दिया। लात घूंसे थप्पड़ सभी कुछ लगे। 'काफिर- काफिर' की आवाजों से मस्जिद का वातावरण गूंज उठा। मुस्लिम साधु ने भरसक उसे बचाने का प्रयत्न किया। बहुत-सी चोटें जो पुजारी के लगतीं, वे उसके लगीं ।पुजारी को नमाज़ियों ने इमाम की आज्ञा पाकर मस्जिद से इतनी अधिक उद्दंडता नृशंसता व बर्बरता के साथ निकाल दिया, जितनी कि मुस्लिम-साधु को निकालने में हिन्दू भक्तों ने भी व्यवहार में नहीं लाई थी।
दोनों एक जीवन-नौका में सवार हो चुके थे। फिर भविष्य में न कभी पुजारी को मन्दिर की ओर न फ़क़ीर को ही मस्जिद की जाने की जरूरत पड़ी । उनका ध्येय इन दोनों से बहुत ऊपर था। जहाँ न मन्दिर की ही जरूरत होती है, न मस्जिद की। उनका सन्देश दोनों ही को दूर करने का था ।
मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य --- टाइम हो तो पढ़ लेना : हम तो पेलेंगे
शीर्षक से यह ग़लतफ़हमी मत पाल लीजियेगा कि आगे आप कोई X - Rated रचना पढ़ने जा रहे हैं. वैसे अगर ऐसा भी होता तो भी अब डरने की बात नहीं रह गयी है , इन दिनों तो X - Rated फिल्मों के कलाकारों (जी हाँ इशारा सही समझ रहे हैं ) को भी महिमामंडित किया जाने लगा है , सन्नी लियोन को बालीबुड के पत्रकार अब एडल्ट फिल्म एक्टर कह कर सम्मानित करने लगे हैं.
पर हमारा मंतव्य तो बिलकुल नई विधा को लेकर है। यह विधा है सोशल मीडिया की, जिस ने बिलकुल अपने छोटे कस्बों के पुराने दिनों की याद दिला दी है. उन दिनों हमारे मोहल्ले में शर्मा चाचाजी के साले साहब की बला की खूबसूरत बेटी किट्टी के आगमन से मोहल्ले वालों का ईमान डिग गया था। हमारे पूरे फत्तू गैंग के मेम्बरान रोजाना उन पोशाकों में नज़र आने लगे थे जिसे पहन कर शादी व्याह या फिर कालेज की पिकनिक पर जाया करते थे. हमारा दोस्त कल्लू जो महीने में कभी कभार नहाता था रोजाना ख़ास फ़िल्मी सुंदरियों के पसंदीदा साबुन लक्स से नहा कर शर्माजी के घर के सामने ही बैठा नज़र आता था। हमारे एक और दोस्त रमणीक जिन्होने पैसे बचाने के लिए सालों साल तक बाल न कटाने का संकल्प लिया था और जिनके इस ऊलजलूल संकल्प के साये में जुओं ने उनके बालों को अभयारण्य बना लिया था, अचानक वे रातों रात ठीक जितेंदर शैली के हेयर स्टाइल में नज़र आने लगे थे। लौंडो की बात छोड़ो , पके बालों वाले भी टिप टाप नज़र आने लगे थे. बस कुछ ही दिनों के बाद किट्टी की वर्चुअल मोहब्बत में दोस्तों के बीच चक्कू छुरियां चलने की नौबत आ निकली। चढ्ढी बढ्ढी दोस्त अचानक एक दूसरे के खूंखार दुश्मन बन गए।
तो भाई लोगों, जैसे ही फेस बुक और वाट्स एप शुरू हुए हमने इन पर अपना खाता बना लिया। अतीत में तो हमारे छोटे से मोहल्ले में शर्मा चाचाजी के साले साहब की बेटी किट्टी ने ही हलचल मचा दी थी , यहाँ वर्चुअल स्पेस में तो हलचल ही हलचल थी रोज नये से नये खूबसूरत परी चेहरों से फ्रेंडशिप के अनुरोध हमारे खाते में आने शुरू हो गए , इन्हे देख कर सबसे पहले तो हमने शहर के बेहतरीन फोटोग्राफर कक्क्ड़ से अपनी तस्वीर खिंचवा ली। कक्क्ड़ खाली पीली फोटोग्राफर ही नहीं था फोटोशॉप विशेषज्ञ भी था. उसने हमें तस्वीर में फोटोशॉप करके रणवीर कपूर से भी बेहतर बना दिया था । धीरे धीरे हमारी मित्र संख्या का ग्राफ तेजी से ऊपर उठने लगा। पहले सेंचुरी पूरी हुई, फिर डबल सेंचुरी , भाई लोग आठ महीने में यह आंकड़ा चार डिजिट को पार कर गया जब की हकीकत की दुनिया में फत्तू गैंग , कलीग, बीबी की सहेलियों और रिश्तेदारों को भी जोड़कर जान पहचान के लोगों की तादाद बमुश्किल तमाम पैंतालीस से अधिक नहीं थी। हमारा समय अब समाचार पत्र, मैगजीन पढ़ने , टहलने , खेलने, दोस्तों से गप बाज़ी करने से भी ज्यादा डेस्क टाप, लैपटॉप, स्मर्टफ़ोन के फेसबुक आइकॉन को दबाने में लगने लगा। अपने नए वर्चुअल दोस्तों को प्रभावित करने के लिए महापुरुषों, खिलाडियों, बिज़नेस टायकून, के हाई फंडू किस्म के कोटेशन खोजता , यही नहीं फोटोशॉप विशेषज्ञ कक्कड़ नियमित रूप से मुझे अनेकों जानी अनजानी लोकेशन में चिपकाए मेरे चेहरे वाले फोटो बनाता, इन फोटो में कभी मैं गोवा के बीच पे दिखाई देता तो कभी केरल के रेन फारेस्ट में दीखता। और मैं इन सब को दनादन पेल रहा था। उसके बाद मैं सांस रोक कर इंतजार करता गिनता कि मेरे वर्चुअल दोस्तों खास तौर पर परीशां चेहरों में से कितनों ने इन्हे लाइक किया , अगर मेरे पोस्ट को उनमें से कोई फॉरवर्ड करता तो मेरा दिन बन जाता। यह सिलसिला एक खूबसूरत ख्वाब की तरह से चलता ही रहता, लेकिन इसमें अचानक जबरदस्त ब्रेक लग गया। हुआ कुछ यूँ कि हमारे सबसे बड़े सालारजंग साहब अपने टूर के सिलसिले में हमारे शहर में आये हुए थे जाहिर सी बात है हमारे घर ही रुके हुए थे , कसम से वे बड़े संजीदा किस्म के इंसान थे घंटे भर बैठते तो मुश्किल से कोई बोल फूटता था. उसदिन मेरे कमरे में ही बैठे हुए थे , उन्हें जरा दो नम्बर की काल आयी हुई थी तो मेरे कमरे के वाश रूम में चले गए , इससे पहले उनकी उँगलियाँ ठक ठक उनके स्मार्टफोन पर चल रही थीं , ऐसे ही उत्सुकतावश मैंने उनका मोबाइल उठाया , देखा फेसबुक ऐप खुला हुआ था। भाई लोग बारी मेरे गश खा कर गिरने की थी , जिस फेसबुक महिला मित्र से दिन में कम से कम चार पांच बार शब्द सन्देश, फोटो आदान प्रदान करता था, जिनकी तस्वीरों में मुझे परी नज़र आती थीं , वो आई डी हमारे इन्ही सालारजंग ने क्रिएट की थी ! जब उनकी फ्रेंडलिस्ट देखी तो पाया 4950 मित्र थे जो ज्यादातर पुरुष थे। अब तो अपना फेसबुक के महिला मित्रों की जात से भरोसा ही उठ गया है , क्या पता मेरे कितने ही बॉस लोग और अधीनस्थ भी ऐसी ही फेक महिला आई डी के जरिए मुझको उल्लू बना रहे होंगे !
यही नहीं इन दिनों सोशल मीडिया पर रातों रात अनगिनित डाक्टर, वैद्य , हकीम , नैचुरोपैथ , योगगुरु उग आये हैं, इनके पास कैंसर से ले के बबासीर और डायबिटीज की बीमारियों को रातों रात ठीक करने का नुस्खा मौजूद है। जैसे ही ऐसा कोई नुस्खा अपने पेज पर दिखाई दिया , यार लोग दनादन पेलना शुरू कर देते हैं , इससे भी खतरनाक यह कि कई बार डाक्टर द्वारा दी गयी दवाई छोड़ कर इन नुस्खों पर अमल करना शुरू कर देते हैं , बाद में बीमारी और घातक बन जाती है। कल तो गज़ब हो गया घर के पास वाले बाजार में पाइनएप्पल बेचने वाला भय्या अपने ठेले पर पाइनएप्पल छील छील कर बेचने की लिए रख रहा था , छिलके एक बोरे में भर रहा था. मेरे पडोसी रंगनाथन वहीँ खड़े थे और बोरे में से थोड़े से छिलके निकाल कर अपने थैले में डाल रहे थे। मेरी प्रश्नवाचक मुद्रा को देख कर कहने लगे मैंने कल ही व्हाट्सप पर पढ़ा है कि अगर पाइनएप्पल के छिलकों को रात भर पानी में भिगो कर गुदा पर रगड़ा जाय तो बबासीर ठीक हो जाती है अब आपसे क्या छिपाना मुझे बबासीर है। आज सुबह सबेरे मेरे घर की घंटी बजी , देखा रंगनाथन खड़े हैं चेहरा ऐसा जैसे किसी भूत ने निचोड़ लिया हो , कहने लगे ,' गुप्ताजी गाड़ी निकालो कोकिलाबेन हॉस्पिटल चलना है.' मैंने पूछा क्या हुआ ? कहने लगे क्या बताऊं अभी पाइनएप्पल के छिलके रगड़े थे बहुत गड़बड़ हो गया, रगड़ने से खून निकलने लगा बंद ही नहीं हो रहा है।
इन दिनों सोशल मीडिया पर इस पेलम पेल वाले खेल का सबसे ज्यादा फायदा राजनीतिक दल उठा रहे हैं , हर दल के अपने अपने आईटी सेल हैं , जिनके संचालक अब ज़मीन से जुड़े नेताओं से भी ज़्यादा सम्मान पाते हैं, इन सेल में बैठे हुए लोगों का काम इतिहास के गढ़े मुर्दे उखाड कर छीछालेदर करना या फिर अपने तरीके से राजनैतिक नैरेटिव गढ़ना होता है , हमारे सालारजंग साहब की तरह से इन लोगों ने हज़ारों आईडी बना ली हैं उनसे लाखों लोगों को फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजते रहते हैं , और तो और हमारी सोसाइटी जैसी बाक़ी सोसाइटियों में लाखों लोग ठलुआगिरी करने वाले वैठे हुए हैं, जैसे ही कोई नया अधसच्चा अधपक्का शिगूफा छोड़ा जाता है ये ठलुए लपक कर दनादन अपनी फ्रेंड लिस्ट में पेलना शुरू कर देते हैं। मजे की बात यह कि इससे अच्छे अच्छे दोस्तों की दोस्तियां खटाई में पड़ गयी हैं, उसकी वजह यह कि अगर कोई वास्तविक जगत का मित्र उन्हें उनके द्वारा पेली गयी पोस्ट की हकीकत के बारे में बताता है तो वे इसे सीधे सीधे दुश्मनी में बदल लेते हैं राजनैतिक प्रचार या दुष्प्रचार का इतना सस्ता और कोई तरीका नहीं है। मजे की बात यह है कि इन्ही अधकचरे सच को कई बार समाचारपत्रों के आलसी रिपोर्टर भी उठा लेते हैं फिर जरा हमारे आपके जैसे अलर्ट पाठक के ध्यान दिलाये जाने पर समाचारपत्र के किसी अंदर के पेज पर मुश्किल से ढूंढी जाने वाली जगह में क्षमा याचना कर लेते हैं।
यह पेलम पेल का जो खेल सोशल मीडिया पर चालू है, अच्छे भले लोगों को बॉट (Bots) में बदल रहा है और हकीकी जिंदगी के दोस्तों को दुश्मनों में बदल रहा है , हम तो यही कहेंगे कि यह और कुछ नहीं वरन बीमार होते समाज का लक्षण है।
✍️ प्रदीप गुप्ता
B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065
मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार की नज़्म ------आदमी ने ही किया ख़ुद को अकेला अब तो , कर लिया अपने ही रिश्तों से किनारा अब तो , दिल के दरवाजे पे जड़ डाला है ताला अब तो , ख़ुद अंधेरों को गले से है लगाया अब तो ,
जाने हम कौन सी दुनिया में जिया करते हैं ।
खिड़की दरवाज़े सभी बंद रखा करते हैं ।।
आदमी ने ही किया ख़ुद को अकेला अब तो ,
कर लिया अपने ही रिश्तों से किनारा अब तो ,
दिल के दरवाजे पे जड़ डाला है ताला अब तो ,
ख़ुद अंधेरों को गले से है लगाया अब तो ,
सिर्फ़ अपने में ही घुट-घुट के रहा करते हैं ।।
एक बेचैनी हर-इक शख़्स पे हावी है यहां ,
आजकल धोखा-धड़ी सबको डराती है यहां ,
ज़िंदगी अब न सरल जितनी थी पहले वो कभी ,
आदमी इतना अकेला न था पहले तो कभी ,
लोग ख़ुद पर भी भरोसा न किया करते हैं ।।
भीड़ में खोये हैं सब लोग अकेले पन की ,
पूछता कोई नहीं बात किसी के मन की ,
अब जुटाने की अधिक चिंता है सब को धन की ,
फ़िक्र करता है भला कौन किसी जीवन की ,
लोग शंकाओं से भयभीत रहा करते हैं ।।
अपने भाई से अधिक चाह है धन पाने की ,
और धन के लिए रिश्तों से भी टकराने की ,
दोस्ती टूटती जाती है बिखरते रिश्ते ,
ख़ून के रिश्ते भी विश्वस्त नहीं हैं लगते ,
अब तो अपनों को यहां लोग ठगा करते हैं ।।
मशविरा मेरा है मिल-जुलके सभी साथ चलो ,
भूलकर शिकवे-गिले मिल के सभी बात करो ,
फ़ासला दरमियां अपनों के ज़रा कम कर दो ,
ज़ालिमों की सभी चालों पे ज़रा ध्यान रखो ,
चाल वो काट दो ज़ालिम जो चला करते हैं ।।
✍️ ओंकार सिंह'ओंकार'
1-बी-241बुद्धि विहार, मझोला,
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश) 244001
मंगलवार, 25 मई 2021
वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 18 मई 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों डॉ रीता सिंह, वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी', चन्द्रकला भागीरथी, उमाकांत गुप्त, दीपक गोस्वामी 'चिराग' , मीनाक्षी ठाकुर, रमेश 'अधीर', अशोक विद्रोही, डाॅ ममता सिंह, रेखा रानी, श्रीकृष्ण शुक्ल, कंचन खन्ना, ज्ञान प्रकाश राही और राजीव प्रखर की रचनाएं .....
चीं चीं चीं चीं गाती चिड़िया
दाना चुगकर खाती चिड़िया
ज्यों ही छूना चाहे मुन्नी
फुर से है उड़ जाती चिडिय़ा ।
चुन चुन तिनका लाती चिड़िया
अपना नीड़ बनाती चिड़िया
उड़ती फिरती कसरत करती
सबके मन को भाती चिड़िया ।
सुबह सवेरे आती चिड़िया
आसमान में छाती चिड़िया
अब उठ जाओ राजू कहकर
हाथ नहीं आ पाती चिड़िया ।
✍️ डॉ रीता सिंह, आशियाना , मुरादाबाद
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चकित हुए बच्चे सभी,
देख मोर का नृत्य,
कितने सुंदर पंख हैं,
कितना सुंदर कृत्य।
बादल आए झूमकर,
पड़ती मंद फुहार,
पीहू-पीहू के बोल की,
छाई मस्त बहार।
पंखों को झखझोर कर
होकर खुद में मस्त,
घूम - घूम हर ओर ही,
करे मयूरा नृत्य।
चुप होकर देखें सभी,
इसका अद्भुत नृत्य,
करें सराहना ईश की,
देख-देख यह दृश्य।
हम सबभी मिलकर करें,
ऐसा सुंदर नृत्य,
सारी कटुता त्यागकर,
बोलें मीठा सत्य।
रखें बदलकर आज हम,
जीवन के परिदृश्य,
केवल अपनापन बचे,
हो कटुता अदृश्य।
✍️ वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी', मुरादाबाद/उ,प्र, मोबाइल फोन नम्बर 9719275453
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देखो गुब्बारे वाला आया ।
रंग बिरंगे गुब्बारे लाया ।।
पापा मुझको भी दिला दो ।
मै भी इन्हें उडाऊगा।।
खिलौने नहीं है मेरे पास।
सारे दिन रहता मैं उदास ।।
आप तो चले जाते ड्यूटी पर।
मम्मी करती घर के काम।।
बाहर कहीं जाने नहीं देते।
कहते गंदे बच्चों में मत खेलों।।
तो फिर मै क्या करू देखो ।
पापा मुझको गुब्बारे दिलादो।।
✍️ चन्द्रकला भागीरथी, धामपुर जिला बिजनौर
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मेरा घोड़ा बड़ा निराला
दूर दूर तक उड़कर जाता।
भैया के संग मुझे बिठाकर
दुनिया की यह सैर कराता,
कभी हमें कश्मीर घुमाता,
कभी हमें यह रूस घुमाता।
पल में हम अमरीका होते,
बुआ से अपनी लाड लड़ाते।
दादी आओ बैठो इसपर
तुमको भी मैं सैर कराऊं
लकड़ी का मत समझो इसको
अरबी घोड़ा, उड़न खटोला।
जहाँ कहोगी वहीं चलेंगे
मस्ती हम भरपूर करेंगे,
मिलना गर तुमको मामा से
देर नहीं, बस यूँ पहुचेगे।
नाम रखा है इसका चेतक
नहीं माँगता दाना-पानी
मेरा घोड़ा इतना अच्छा
नहीं कोई है इसका सानी।
सव-रचित
✍️ उमाकांत गुप्त, मुरादाबाद
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अध्यापक जी ने कक्षा में, पूछा एक सवाल।
चांद और पृथ्वी में संबंध, बतलाओ तत्काल।
सारे बच्चे थे भौचक्के, क्या है यह जंजाल?
सर जी ने पूछा है हमसे, कैसा आज सवाल।
सर जी मैं बतलाऊं उत्तर, उठकर गप्पू बोला।
कक्षा में तो आता नहीं तू ,खबरदार! मुंह खोला।
सब बच्चों के कहने पर फिर, सर ने दे दिया मौका।
देखो! प्यारे गप्पू ने फिर, मारा कैसे चौका।
चांद और पृथ्वी का रिश्ता, हमको दिया दिखाई।
पृथ्वी तो है प्यारी बहना और चांद है भाई।
अध्यापक गुस्से में बोले, पूरी बात बताओ।
भाई और बहिन का रिश्ता, कैसे है समझाओ।
पप्पू बोला बतलाता हूँ, ओ! गुरुदेव हमारे।
समझाता हूंँ, सुनो ध्यान से, तुम भी बच्चे सारे।
जब चन्दा है मामा अपना,धरती अपनी मैया।
फिर क्यों नहीं होगा धरती का, चंदा प्यारा भैया ।
फिर क्या था पूरी कक्षा ने, खूब बजाईं ताली।
रहे ताकते अध्यापक जी, कक्षा हो गई खाली।
✍️ दीपक गोस्वामी 'चिराग' , शिव बाबा सदन, कृष्णाकुंज बहजोई -244410(संभल )
उत्तर प्रदेश
मो. 9548812618
ईमेल-deepakchirag.giswami@ gmail.com
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रिमझिम- रिमझिम बारिश आयी
ठंडी हवा का झोंका लायी
उमड़ -घुमड़ कर बादल आये
मौसम ने भी ली अँगड़ाई।
नाचा मोर, पपीहा बोला
चातक ने भी तान लगायी,
मेंढक बोला टर्र -टर्र टर्र
कोयल ने भी कूक सुनायी।
भीगें पत्ते,भीगें डाली
भीगी भीगी है अमराई
भीगे राजू , भीगे गुड़िया
पिंकी छाता लेकर आयी।
✍️मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद
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पर्वत से ऊपर उड़ते ही
एक परिंदा बोला
मुझसे ऊपर कोई नहीं है
जग भर में, मैं डोला
ऊपर बैठे चंदा ने तब
अपना मुख यूँ खोला-
मुझसे भी ऊँचा है पगले
सूरज का वह गोला,
इस प्रकार चंदा ने उसको
ऊँचाई दिखलाई !
सदा समझना छोटा ख़ुद को
गुर की बात सिखाई !!
✍️ रमेश 'अधीर', चन्दौसी
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गिल्लू और गिलहरी चिंकी
मेरी छत पर आते हैं
चिड़ियों को जो दाना डालूं
उसको चट कर जाते हैं
गोपू और बंदरिया कम्मो
खो-खो बोला करते हैं
खाने पीने की तलाश में
घर-घर डोला करते हैं
गोपू बन्दर ने गिल्लू से
पूछा एक दिन बातों में
"तुम चिंकी संग कहां चले
जाते हो ! हर दिन रातों में"?
हमने श्रम और बड़े जतन से
घर एक यहां बनाया है !
कपड़ों की कतरन, धागों से
मिलकर उसे सजाया है !!
गोपूऔर कम्मो दोनों को
तनिक बात ये न भायी
खिल्ली लगे उड़ा ने दोनों
उनको बहुत हंसी आई !!
किंतु ये क्या ! काली काली
नभ घनघोर घटा छाई
गरज गरज कर बरस उठे घन
चली बेग से पुरवाई
भीग रहे थे गोपू कम्मो
रिमझिम सी बरसातों में
बड़े चैन से गिल्लू चिंकी
बैठे थे अपने घर में
बच्चों ! कर्म करो तो जग में
बड़े काम हो जाते हैं
गोपू जैसे बने निठल्ले
समय चूक पछताते हैं !!
✍️ अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
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दाना चुगने चिड़िया रानी,
फुदक फुदक जब आती है।
मेरी प्यारी छोटी गुड़िया,
फूली नहीं समाती है।।
थोड़ा सा ही दाना चुग कर,
झट से वो उड़ जाती है।
फिट रखती है सदा स्वयं को,
दवा कहाँ वो खाती है।।
पढ़ने जाती कहीं नहीं है,
फिर भी जल्दी उठती है।
सर्दी बारिश या हो गर्मी,
श्रम से कभी न ड़रती है।।
तिनका तिनका जोड़ जोड़ कर,
घर वह एक बनाती है।
छोटी सी है पर बच्चों को,
जीना ख़ूब सिखाती है।।
✍️ डाॅ ममता सिंह
मुरादाबाद
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खनकेंगी दौलत की फसलें,
फूल खिलेंगे तब रुपयों के।
मां की बातों से हो असहमत,
मैं भिड़ाने चली अब तो जुगत।
मैंने अपनी गुल्लक से ,
सिक्के अनगिनत निकाले।
पहले से तैयार भूमि में ,
चुपके से सारे बो डाले।
प्रतिपल तत्पर सेवा में,
खाद ,पानी भर भर डाले।
भूले से भी बंध्य धरा में,
कोई न अंकुर कोंपल वाले।
जो सिक्के अंदर थे माटी में,
ऊपर से बस घास जमी थी।
हाय हताशा बाबरिया सी ,
होकर अब तो रोने लगी थी।
मुंह लटकाए घूम रही थी
पापा से तब ग्रंथि खोली,
चिपक हिय से मन भर रोली।
तब पापा ने सब समझाया ।
मेहनत का प्रतिफल समझाया।
सजीव निर्जीव का भेद बताया।
रेखा तब मैंने तब यह माना,
श्रम से सुंदर बीज पनपते।
सपनों की फसलें महकेंगी।
बस तुम श्रम करते जाना,
जीवन में नित बढ़ते जाना।
✍️ रेखा रानी
विजयनगर
गजरौला
जनपद अमरोहा।
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कब तक घर में बंद रहूँगा।
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छोटू पापा से ये बोला, कब तक घर में बंद रहूँगा
बैठे बैठे ऊब गया हूँ, कब जाकर के मैं खेलूंगा।
पापा ने उसको समझाया, बाहर जाने में खतरा है।
बाहर कोरोना का संकट, जाने कहाँ कहाँ पसरा है।
कुछ दिन घर में बंद रहेंगे, इसकी कड़ी टूट जाएगी।
बाहर आने जाने पर से, पाबंदी भी हट जाएगी।
तो क्या मैं घर के अंदर ही, निपट अकेला पड़ा रहूँगा।
बैट बॉल, से दूर बताओ, घर में कब तक सड़ा रहूँगा।
घर में कहाँ अकेले हो तुम, मैं भी तो हूँ, मम्मी भी हैं।
घर में रहकर खेल खेलने, के कितने ही साधन भी हैं।।
कुछ दिन हमको दोस्त समझ लो, लूडो, बिजनैस, कैरम खेलो।
जब चाहे साथी बच्चों से, तुरत वीडियो चैटिंग कर लो।।
मान गया छोटू फिर बोला, अच्छा घर में ही खेलूँगा।
रोज हराऊँगा दोनों को, घर में तो मैं ही जीतूँगा।
✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG-69,
रामगंगा विहार, मुरादाबाद।
मोबाइल नं.9456641400
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मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ मीरा कश्यप का गीत ---काल है निर्मम बना ,नित रक्तबीज सा बढ़ रहा, साँसों का कोई मोल नहीं , चीखते हर ओर ऑंसू -
मौन रहकर कब तलक
गीत अधरों पर सजेंगे
वेदना मन की सिसकती
विकल ,क़ुछ कह न पाती ।
काल है निर्मम बना ,नित
रक्तबीज सा बढ़ रहा
साँसों का कोई मोल नहीं
चीखते हर ओर ऑंसू ।
देखकर अब दृश्य दारुण
थिर नहीं मन ,काँपता है
मन विकल अब हो रहा
है कयामत की रात आयी ।
सो गये आँखों के सपने
अपने सभी के खो गये
यादों में रह गये शेष
वे दूर इतने हो गये ..।
जिनके सहारे अब तक
जिंदगी जीती है हमने
आस्था ,सेवा ,समर्पण के
प्रेम मय बीज बो गये वे ।
आस का था दीप जलता
पर हवा का रूख है तेज
व्यथा से भर टूटता मन
दर्द का है शोर ,हर ओर ।
संवेदनाएं मौन हैं अब
भाव सारे रो रहे हैं ..
उलझे सवालों में सब ऐसे
मिलता नहीं उत्तर कहीं ।
वेदना की आँधियों में
तूफानों से घिर रहें हम
अब व्यथा को देखकर
गीत कैसे गा मिलेगा ।
वेदना मन की सिसकती
कह नहीं अब क़ुछ पाती ।
✍️ डॉ मीरा कश्यप, हिन्दी विभागाध्यक्ष, केजीके महाविद्यालय, मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु का गीत ----भाई ! केवल भाई नहीं तुम रीढ़ सकल परिवार की,
भाई ! केवल भाई नहीं तुम
रीढ़ सकल परिवार की,
वरद हस्त अग्रज का सिर धर
हो निश्चिंत विचरते,
क्या पहाड़ सी मुश्किल सम्मुख
तनिक न चिंता करते,
हर कठिनाई भाई के संग
नतमस्तक संसार की,,
भाई ! केवल भाई नहीं तुम..
अनुज भ्रात बाहुबल अपना
हर पौरुष की परिणति,
सदा चहकता आंगन तुमसे
सुख वैभव धन सम्मति,
तुम भविष्य के कीर्तिमान
तुम भव्य ध्वजा विस्तार की,,
भाई ! केवल भाई नहीं तुम..,
एक सूत्र में पिरो पिता ने
जब तक हमें संवारा,
सभी अंगुलियां बन मुष्टिक सम
जीत लिया जग सारा,
वंश वृद्धि को शिला तदंतर
रखी नवल घरद्वार की ,,..
भाई ! केवल भाई नहीं तुम
रीढ़ सकल परिवार की...
✍️ मनोज मनु, मुरादाबाद
सोमवार, 24 मई 2021
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----रामभरोसे तुम कौन हो ?
तुलसीदास जी ने एक दोहा लिखा था जो इस प्रकार है:-
एक भरोसो एक बल ,एक आस विश्वास
एक राम घनश्याम हित ,चातक तुलसीदास
अर्थात एक राम के भरोसे यह तुलसीदास है । यह रामभरोसे अपने आप में आस्था का परिचायक था । न जाने कितनी शताब्दियों से रामभरोसे ईश्वर के प्रति जनता के गहरे विश्वास को प्रतिबिंबित करता रहा । कब यह हास्य और व्यंग्य में बदल गया ,कुछ समझ में नहीं आता । राम पर भरोसा करना बुरी बात नहीं होती है । इसकी तो प्रशंसा होनी चाहिए । आदमी राम पर भरोसा करे और यह सोचे कि राम के भरोसे हम चल रहे हैं ,राम के भरोसे हमारा काम अवश्य होगा ,राम के भरोसे हम जीवित रहेंगे ,राम के भरोसे हम इस संसार में धन-संपत्ति सुख संपदा एकत्र करेंगे तो इसमें बुरा नहीं है ।
रामभरोसे का मतलब है एक आस्थावान व्यवस्था ,आस्था पर आधारित समाज ,ईश्वर के प्रति गहरी समर्पण भावना का परिचायक तंत्र । मगर अब रामभरोसे का मतलब अस्त-व्यस्त होने लगा । जो चीज जर्जर है उसे रामभरोसे कह दिया जाता है । जिस चीज में हजारों छिद्र हों, वह रामभरोसे कहलाती है । जहाँ कोई नियमबद्धता न हो ,वह रामभरोसे हो गया । जहाँ कुछ अता-पता न मिले वह रामभरोसे है । जिस के डूबने की आशंका ज्यादा है ,उसे रामभरोसे कहा जाता है । गरज यह है कि एक जमाने में जिसके साथ जीवन की आशा जुड़ती थी अब वह रामभरोसे शब्द मरण के साथ जुड़ कर रह गया है ।
किसी को अगर किसी के आलसीपन को उभार कर टिप्पणी करनी है ,तो वह कह देता है कि भाई साहब ! आप तो रामभरोसे लग रहे हैं । सबसे बड़ी मुश्किल तो उन लोगों की आ गई जिनका नाम ही रामभरोसे है । वह बेचारे क्या करें ? सड़क पर जा रहे हैं और किसी ने बुला लिया कि "रामभरोसे ! जरा इधर तो आइए ! "
अब सबकी नजरें उनकी तरफ उठ गईं और लोग देखने लगे कि अरे ! यही रामभरोसे हैं ! इन्हीं के ऊपर सारी व्यवस्थाओं का बोझ टिका हुआ है ! वह बेचारे अपनी सफाई देते फिरते हैं कि हम वह राम भरोसे नहीं है ,जो आप समझ रहे हैं । हम सही मायने में सही वाले रामभरोसे हैं। लेकिन कौन ,किसको ,कहाँ तक ,कितना समझाए ! रामभरोसे दुखी है । वह कोने में सिर झुकाए बैठा हुआ है । कह रहा है - "हमारे तो नाम का बंटाधार हो गया ! अब कौन अपना नाम रामभरोसे रखेगा ! " एक अच्छा - भला नाम देखते - देखते कुछ सालों में कितना बिगड़ जाता है ,यह रामभरोसे के उदाहरण से समझा जा सकता है ।
✍️रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451
मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की कविता ----चुनाव
आज फिर चुनाव था,
चुनाव होना था
राहत और आफ़त के बीच
ज़िंदगी और मौत के बीच
हमेशा की तरह आज भी
बहुत तेज हवाएँ थीं
अड़ियलपन पर ख़ताएँ थीं
अचानक हवाओं ने तेजी पकड़ी
एक आँधी आयी तगड़ी
और सबकुछ समेटने लगी
मानवता तार- तार होने लगी
लाख लगाये मौत पर पहरे
मगर तबाही की थी लहरें
लीलने लगी अचानक ही गाँव के गाँव
लो आखिर हो ही गया था चुनाव!!!
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मुरादाबाद
मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की कविता --देशद्रोही नेता
एक देशद्रोही नेता को
जिंदा शेर के सामने डालने
की सज़ा सुनाई गई
नेता जी घबरा गए,
जोर जोर से चिल्लाए ।
बोले
माई बाप मुझे क्षमा करें
अब कोई गलत काम नहीं करूंगा,
जैसा आप चाहेंगे
वैसा ही काम करूंगा।
देश के प्रति बफादार रहूंगा।
परन्तु
उसकी एक न सुनी गई
नेता जी को शेर के पिंजरे
में डाल दिया गया,
शेर दहाड़ा,
नेता जी के पास दौड़ा।
उसी क्षण वापस लौट गया,
एक ओर बैठ गया।
नेता जी की जान में जान आई,
बोले
मुझे क्यों नहीं खाया भाई।
शेर बोला,
तेरे खून से मिलावटों ,
घोटालों तथा मासूमों की
हत्याओं की बू आ रही है।
तुझको
खाने में मुझे शर्म आ रही है।
अरे,
तेरे शरीर को तो गिद्ध भी
नहीं खायेंगे।
खायेंगे तो खुद ही मर जायेंगे।
मैं तो, फिर भी जंगल
का बादशाह हूँ,
तू ,न बादशाह है न वज़ीर
बस धरती पर बोझ है
अरे,
धिक्कार है तेरे जीवन को
तूने देश को खा लिया
मैं,
तुझे क्या खाऊंगा ।
और यदि खा भी लिया तो
कैसे पचा पाऊंगा ।।
✍️ अशोक विश्नोई , मुरादाबाद
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर ' की ओर से शनिवार 22 मई 2021 को ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया । गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों दुष्यंत बाबा, डॉ. रीता सिंह, डॉ. ममता सिंह, मयंक शर्मा, मीनाक्षी ठाकुर, मोनिका 'मासूम', हेमा तिवारी भट्ट , राजीव 'प्रखर', डॉ. अर्चना गुप्ता, मनोज 'मनु', श्रीकृष्ण शुक्ल , ओंकार सिंह 'विवेक, योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', शिशुपाल 'मधुकर', वीरेन्द्र 'ब्रजवासी' , डाॅ. मनोज रस्तोगी , डाॅ. पूनम बंसल , डाॅ. अजय 'अनुपम', डाॅ. मक्खन 'मुरादाबादी' और अशोक विश्नोई द्वारा प्रस्तुत रचनाएं -------
रात के बाद जब दिन ही आना है
तब दूर तमस सब हो ही जाना है
साथ मे लेकर सुबह की लालिमा
फिर से दिवाकर उग ही आना है
जो उदय हुआ वह अस्त भी होगा
जो जीत गया कल पस्त भी होगा
चिर स्थायी कुछ नही रह पाना है
तो उदय अस्त से क्या घबराना है
पतझड़ आने पर पत्ते झड़ जाते
फिर भी क्या तरु व्याकुल जाते ?
आनी नई कोपलें कलिया फिर से
आशा कि हरा भरा हो ही जाना है
हम सभी यहाँ पर किराएदार हैं
नही हमारे मकान यहाँ जातीय
तुम्हें मंजिल पर बढ़ते ही जाना है
जीवन मृत्यु से नही घबराना है
✍️ दुष्यन्त बाबा, मुरादाबाद
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आशाओं के दीप जलाएँ
पीड़ित मन की पीर मिटाएँ
घन उदासियों के छटेंगे
ऐसी सबको धीर दिलाएँ ।
मनुज मदद को हाथ बढ़ाएँ
एक दूजे का साथ निभाएँ
फैल गया जो कोरोना से
सभी वह अंधकार मिटाएँ ।
✍️डॉ रीता सिंह, आशियाना , मुरादाबाद
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कोरोना की ये बीमारी, आपदा बनी है भारी।
पूर्ण करके तैयारी, इसको हराना है।।
ज़िंदगी रही है हार, मच रहा हाहाकार।
लाशों के लगे अम्बार, टूट नहीं जाना है।।
माना अभी है अन्धेरा, मुश्किलों ने हमें घेरा।
जल्द आयेगा सबेरा, जीत के दिखाना है।।
छोड़ो नहीं तुम आस, खुद पे रखो विश्वास।
बात सबसे ये ख़ास, ड़र को भगाना है।।
✍️ डाॅ ममता सिंह , मुरादाबाद
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ख़ुद पर रख विश्वास एक दिन नया सवेरा होगा,
द्वार-द्वार पर दीप जलेंगे दूर अँधेरा होगा।
धैर्य परीक्षित होता है जब समय कठिन आ जाए,
मनुज नहीं विपरीत परिस्थिति के आगे झुक जाए।
लड़ना होगा दीपक जैसे आँधी से लड़ता है,
घोर अमावस का अँधियारा भी पानी भरता है।
दुख के दिन बीतेंगे निश्चित, सुख का डेरा होगा।
द्वार-द्वार पर दीप चलेंगे दूर अंधेरा होगा।
✍️ मयंक शर्मा, मुरादाबाद
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रो रही ज़िंदगी अब हँसा दीजिये,
फूल ख़ुशियों के हर सू खिला दीजिये।
इश्क़ करने का जुर्माना भर देंगे हम,
फै़सला जो भी हो वो सुना दीजिये।
ढक गया आसमां मौत की ग़र्द से,
मरती दुनिया को मालिक़ दवा दीजिये।
बंद कमरो में घुटने लगी साँस भी,
धड़कनें चल पड़ें वो दुआ दीजिये।
जाल में ही न दम तोड़ दें ये कहीं,
कै़द से हर परिंदा छुड़ा दीजिये ।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर,मिलन विहार
मुरादाबाद
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इस तरह ग़म के अंधेरों में उजाले रखिये
दीप छोटा सही उम्मीद का बाले रखिये
भीङ में दुनिया की रहना है दो कदम आगे
अपने अंदाज़ ज़माने से निराले रखिये
देखना छोङिये ग़ैरों के ग़रेबानों में
आप अपने बड़े किरदार संभाले रखिये
ज़ायका सफर ए मंज़िल को चखाने के लिए
ज़ख्म ताज़ा कि हरे पाँव के छाले रखिये
✍️ मोनिका "मासूम", मुरादाबाद
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ईश्वर का संदेश
दिनकर पुनः नव,
मैं देता हूँ तुझको।
तू पाल्य मेरा,
मैं तेरा पिता हूँ।
तू भी है आश्वस्त,
पिता से मिलेगा।
इच्छाएँ मैं भी
कुछ रख रहा हूँ।
हर बार धुंधला,
तू लौटाता रवि को,
हर प्रातः उज्जवल,
मैं तुझ पर लुटाता।
माना असीमित
मेरा कोष दिखता।
मगर सच ये है कि
अमर बस विधाता।
संभल जा संंभल जा
समय तोलता है?
जग में मिला क्या
ये क्यों बोलता है?
ये रवि खिलौना,
नहीं ऐसा वैसा।
यदि दृश्य तुझको,
ये नत मुख कैसा?
अहो!पुत्र तुम हो
बड़े भाग्यशाली।
पढो़ बस सुबह-शाम,
दिनकर की लाली।
✍️हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद
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मृगतृष्णा से खुद को मत छलने देना
मन कभी निराशा को मत पलने देना
अपनी हर मंजिल को पाना है हमको
आशा का ही दीप जलाना है हमको
है यदि दुख,कल सुख की बदरी छाएगी
राग सुरीले फिर से कोयल गाएगी
करनी हमको काँटों की परवाह नहीं
फूलों से हर चमन सजाना है हमको
आशा का ही दीप जलाना है हमको
अभी रात काली है सुबह मगर होगी
कृपा सुनहरी किरणों की सब पर होगी
चाल समय की सदा बदलती रहती है
साथ समय के कदम मिलाना है हमको
आशा का ही दीप जलाना है हमको
मार पड़े कुदरत की या हो बीमारी
चाहें टूट पहाड़ पड़ें हम पर भारी
करना होगा हमें सामना हिम्मत से
हार मानकर बैठ न जाना है हमको
आशा का ही दीप जलाना है हमको
✍️ डॉ अर्चना गुप्ता , मुरादाबाद
---------------------------–--- -
(1)
माना समय बड़ा दुष्कर है,
जीवन तक खोने का डर है,,
सामाजिकता छिन्न-भिन्न है,
बीच में कोरोनाई जिन्न है,,
कुछ सटीक उपचार नहीं है,
पर खर्चे का पार नहीं है,,
औषधि को मारामारी है,
तिस पर कालाबाजारी है,,
फिर भी कुछ तो करना होगा,
यूं ही नहीं ठहरना होगा,,
वेंटिलेटर नहीं मिला तो,
सीना ही थपकाना होगा,,
आशा दीप जलाना होगा.... ,,
(2)
....आगे जाने राम.....
अब तक तो ऐसे ही बीती
आगे जाने राम,
आड़े तिरछे क्षेत्र फलों का
मिश्रण यह जीवन,
फेल हो रहे सूत्र गणित के
सीधे साधारण,
समाकलन अवकलन सरीखे
संतुष्टि को नाम,,
अब तक तो ऐसे ही बीती.....
कभी ज्यामिति निर्मेय जैसी
व्यूह रचे सांसें,
पर त्रिकोणमिति सम चर
उत्तर अक्सर बांचें,
आवश्यकता रख लेती है
एक नया आयाम,,
अब तक तो ऐसे ही बीती....
शून्य कोरोना गुणा स्वयं से
करने अड़ा हुआ,
लॉक डाउन का बड़ा कोष्टक
घेरे हुए खड़ा,
व्यूह और आव्यूह कौन सा
कब कर जाए काम,,
अब तक तो ऐसे ही बीती
आगे जाने राम,
✍️ मनोज मनु ,मुरादाबाद
--------------------------------
आओ आशा दीप जलाएं
---------------–------------
माना चहुँ दिशि अंधकार है।
सांसों पर निष्ठुर प्रहार है।।
आओ आशा दीप जलाएं,
दूर भगाना अंधकार है।
रात भले हो घोर अँधेरी,
उसकी भी सीमा होती है।
रवि के रथ की आहट से ही,
निशा रोज ही मिट जाती है।
आशा दीपों की उजास से,
बस करना तम पर प्रहार है।
लेकिन देखो हार न जाना।
आशा को तुम जीवित रखना।।
आशा का इक दीप जलाकर,
अंधकार से लड़ते रहना।
केवल एक दीप जलने से,
ठिठका रहता अंधकार है।
रात अंततः ढल जाएगी।
भोर अरुणिमा ले आएगी।।
सूर्य रश्मियों के प्रकाश से,
कलुष कालिमा मिट जाएगी।।
तब तक आशा दीप जलाएं,
आशा है तो दूर हार है।
✍️श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
------------------------------
अब है बस कुछ देर की,दुःख भरी यह रात,
आने वाला शीघ्र ही,सुख का नवल प्रभात।
मज़बूती से थामकर , साहस की पतवार,
विपदा-बाधा का करें , आओ दरिया पार।
यह दुनिया की शांति को, किए हुए है भंग,
आओ सब मिलकर लड़ें, कोरोना से जंग।
कोविड से उपजे हुए , इस संकट में आप,
अपने- अपने इष्ट का , करते रहिए जाप।
कोरोना के ख़ौफ़ से , सहमें हैं इंसान,
मिटा दीजिए राम जी,इसका नाम-निशान।
✍️ ओंकार सिंह विवेक, रामपुर
--------------- ---------
चिंताओं के ऊसर में फिर
उगीं प्रार्थनाएँ
अब क्या होगा कैसे होगा
प्रश्न बहुत सारे
बढ़ा रहे आशंकाओं के
पल-पल अंधियारे
उम्मीदों की एक किरन-सी
लगीं प्रार्थनाएँ
बिना कहे सूनी आंखों ने
सबकुछ बता दिया
विषम समय की पीड़ाओं का
जब अनुवाद किया
समझाने को मन के भीतर
जगीं प्रार्थनाएँ
धीरज रख हालात ज़ल्द ही
निश्चित बदलेंगे
इन्हीं उलझनों से सुलझन के
रस्ते निकलेंगे
कहें, हरेपन की खुशबू में
पगीं प्रार्थनाएँ
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद
-----------------------------
आओ सुख- दुःख से बतियाएँ
सुख से बोलें मत इतराना
दुःख से बोलें मत घबराना
जीवन है संघर्ष सरीखा
यही सभी को है समझाना
सबको जीवन- गीत सुनाएँ
बोलो दुःख कैसे जाओगे
बोलो सुख कैसे आओगे
अनगिन प्रश्न हमारे भीतर
कब तक हमको बहलाओगे
मन की हर गुत्थी सुलझाएं
काल वेदना वाला आया
घोर निराशा का तम लाया
मिलकर इसको दूर करेंगे
मन में है संकल्प जगाया
आओ आशा दीप जलाएं
✍️शिशुपाल "मधुकर ", सी - 101 हनुमान नगर, लाइन पार, मुरादाबाद Mob- 9412237422
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हर मन में उजियार भरेगा
यह आशा का दीप
सबके सारे कष्ट हरेगा
यह, आशा का दीप।
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कबतक भटकेंगे दुनियांमें
जन - मानस बेकार
कब तक टूटेगी रूढ़ी की
घृणित यह दीवार
अंधियारों को दूर करेगा
यह, आशा का दीप।
विश्वासों का तेल भरा है
संकल्पों के साथ
दृढ़ निश्चयसे जली वर्तिका
हरने सब संताप
जीवन को हर्षित कर देगा
यह, आशा का दीप।
हाथ-हाथ को काम मिलेगा
मिट जाएगा त्रास
घर-घर में खुशियां लौटेंगी
होगा जी भर हास
खुशियां लेकर ही लौटेगा
यह, आशा का दीप।
आंखें कभी नहीं रोएंगी
मिले सभी का साथ
गिरते को बढ़कर थामेगा
जब अपनों का हाथ
अंतस में उजियार भरेगा
यह, आशा का दीप।
सबकी नैया पार लगेगी
होगा बेड़ा पार
अभिशापों का दंश मिटेगा
कहता हूँ सौबार
आशा का संचार करेगा
यह, आशा का दीप।
✍️वीरेन्द्र सिंह ,"ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र 9719275453
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घर से बाहर न निकलिए साहिब ।
चेहरे पर मास्क लगा मिलिए साहिब ।।
अपना घर परिवार ही है जन्नत । कैदखाना इसे न समझिये साहिब ।।
यह न मौका है इल्जाम लगाने का ।
कुछ दिन तो मुंह को सिलिए साहिब ।।
एक दूसरे से बनाकर रखें फासला ।
दिल में अपने दूरी न रखिए साहिब ।।
जलाएं मोहब्बत के दिये हर तरफ ।
नफरत का जहर न भरिए साहिब ।।
हम एक थे, एक हैं, एक ही रहेंगे ।
मिलकर कोरोना से लड़िये साहिब ।।
✍️डॉ मनोज रस्तोगी
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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राहें भी ये पथरीली हैं गहन अँधेरा है।
आशा का इक दीप जला फिर हुआ सवेरा है।।
माना पतझर है लेकिन मौसम ये जाएगा।
मुस्काता ऋतुराज पुष्प झोली भर लाएगा।
छोड़ निराशा का आँचल मावस का फेरा है।।
आशा का इक दीप जला.....
दुख के बादल बरस चुके अब क्या तरसाएंगे।
साहस की जब हवा चली तो ये उड़ जाएंगे।
सपनीली रातों में अब चंदा का डेरा है।।
आशा का इक दीप जला.....
तट से टकराकर लहरें देखो इतराती हैं।
बीच भँवर में घिरी हुई ये गीत सुनाती हैं।
अवसादों से निकल जरा ये रैन बसेरा है।।
आशा का इक दीप जला.....
समय बड़ा बलवान हुआ कर्मों का है मेला।
बना मदारी नचा रहा वो, है उसका सब खेला।
सदभावों से सजा इसे जो जीवन तेरा है।।
आशा का इक दीप जला फिर हुआ सवेरा है।
✍️डॉ पूनम बंसल , 10, गोकुल विहार, कांठ रोड मुरादाबाद उ प्र , मोबा 9412143525
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जनमानस का मलिन रंग है
दुखती आंखों में उमंग है
अब कर्तव्य सभी का, हम
संदेश कर्म का दें
सफल चिकित्सक, देह निरोगी
चिन्तन में लालित्य
अश्रुधार पी जाता,मन को
बहलाता साहित्य
हों कृतज्ञ हम
सांस सांस से
भर दें ममता की
सुवास से
सूनी आंखों को सहलाता
भाव मर्म का दें
नागफनी के साथ
बबूलों का तो रिश्ता है
बेरी के कांटे सहता
जो मौन फरिश्ता है
चौराहे पर अपने
दुख का रोना छोड़ें
बना सहायक अपने
थके हाथ को मोड़ें
पर दुःख में हों मित्र चलो
संदेश धर्म का दें
गीध-वंश ही हमें
बचाता है बीमारी से
प्रकृति दंड देती उबार
देती लाचारी से
आस्तीन के सांपों को
मतलब है डसने से
दांत कुंद होंगे उनके भी
गर्दन फंसने से
आवश्यक है उनको भी
संकेत शर्म का दें
✍️डा.अजय 'अनुपम', मुरादाबाद
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रोग-व्याधियों के कुनबे
एक हो गए मिलकर
चलो! एक हम भी होलें
फटा-पुराना सिलकर
पांचों उंगली अलग-अलग
सिर्फ विवशता जीतीं
मिल बैठैं तो मिली जुली
सार शक्तियां पीतीं
सीख गलतियों से मिलती
दर्द दुखों में बिल कर
दुरुपयोग शक्तियां जियें
तो चिंता हो पुर को
भस्मासुर की अतियां ही
डहतीं भस्मासुर को
एक हुआ था, लेकिन सच
देवलोक भी हिलकर
विविध धर्म भाषाएं मिल
मानव मर्म बचाएं
महल मड़ैया घेर सभी
संजीवन हो जायें
राम हुए ज्यों पुरुषोत्तम
मर्यादा में खिलकर
✍️डॉ. मक्खन मुरादाबादी, झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड, मुरादाबाद
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मन में सुन्दर स्वप्न सजाएं
हर असमंजस दूर भगाएं
घोर निराशा के तम में सब
आओ !आशा दीप जलाएं
(2)
रिश्तो में अब प्यार का एहसास होना चाहिए
हर जुबां मीठी रहे विश्वास होना चाहिए
हो उदासी अलविदा,ज़िन्दगी में अब तो बस
हास होना चाहिए परिहास होना चाहिए
✍️अशोक विश्नोई, मुरादाबाद