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बुधवार, 1 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी जी की अठारह ग़ज़लें -



(1)

इश्क मत करना किसी से बावला हो जायगा

 तू जवानी के दिनों में, पिलपिला हो जायगा 

 

यह तो पानी का असर है, तेरी ग़लती कुछ नहीं 

बम्बई में जो रहेगा बेवफा हो जायगा 


दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटों के लिए 

इसको जब कुर्सी मिलेगी, भेड़िया हो जायगा 


हर तरफ हिंसा डकैती, हो रहे हैं अपहरण

 रफ्ता रफ्ता मुल्क सारा माफिया हो जायगा 

 

जनवरी छब्बीस अब तो तब मनेगी देश में 

जब यहाँ हर भ्रष्ट नेता गुमशुदा हो जायगा 


लीडरों के इस नगर में, है तेरी औकात क्या

अच्छा खासा आदमी भी सिरफिरा हो जायगा

 

है बहुत रिस्की ये विस्की, रोज़ पीना छोड़ दे 

 चार हफ्तों में नहीं तो पीलिया हो जायगा 

 

शख्स वो जो टुल्ल होकर बक रहा है गालियाँ 

चाहे दिल्ली में रहे पर आगरा हो जायगा


 पेलकर पन्द्रह लतीफे मंच पर तो जम गया 

 गोष्ठी में हूट लेकिन शर्तिया हो जायगा 

 

पैंट का कपड़ा न लेना बौम्बे वी० टी० से कभी 

धीरे धीरे यह सिकुड़कर जाँघिया हो जायगा 


बोझ लादे फिर रहा है जो दुखों का हर समय 

आदमी होते हुए भी वह गधा हो जायगा 


क्या पता था शायरी में आयँगे ऐसे भी दिन

हर गज़ल का शे'र हुल्लड़ मर्सिया हो जायगा


(2)

शायरों को मिल रहे हैं ढेरों पत्थर आजकल 

क्योंकि महँगे हो गये अंडे टमाटर 


आजकल गीत चोरी का छपाया, उसने अपने नाम से

 रह गया है शायरा का, यह करैक्टर आजकल 

 

गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले 

रो रहा है मंच पर ह्यूमर सटायर आजकल 


इन कुँए के मेंढकों ने पी लिया पानी तमाम 

डूब कर मरने लगे हैं सब समंदर आजकल 


काटने को दौड़ता है, हर दिवस सप्ताह का 

जब से सर पे चढ़ गया है यह शनीचर आजकल


 पालने का शौक है तो आप कुत्ता पालिये 

 गोद मत लेना किसी का, कोई पुत्तर आजकल 

 

आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी 

हँस रहे हैं आदमी पर सारे बंदर आजकल


(3)


रहते देहरादून हमारे नेता जी 

देश का पीते खून हमारे नेता जी


 संविधान भी इन्हें नमस्ते करता है 

 खुद ही हैं कानून हमारे नेता जी 

 

हम तो केवल तारे हैं वह भी टूटे 

सरकारी फुल मून हमारे नेता जी 


धोती कुर्ता तो भाषण का चोला है 

घर पर हैं पतलून हमारे नेता जी 


इनके चमचे कातिल हैं पर बाहर हैं 

कर देते हैं फून हमारे नेता जी 


किसी बात पर इनसे पंगा मत लेना 

रखते हैं नाखून हमारे नेता जी 


आम आदमी हो तुम गर्मी में झुलसो 

जायेंगे रंगून हमारे नेताजी 


छठी फेल हैं फिर भी आज मिनिस्टर हैं

सूरत से पीयून हमारे नेता जी


'हुल्लड़' तुम तो दो कौड़ी के शायर हो 

लेकिन अफलातून हमारे नेता जी


(4)


हर तरफ  भेडचाल है दद्दा

कुर्सियों का कमाल है दद्दा 


पहले होता था दाल में काला 

अब तो काले में दाल है दद्दा 


डाकुओं का भी कुछ करैक्टर है 

पर ये नेता दलाल है दद्दा 


कोई घोड़ा हो या कि अफसर हो 

चलता फिरता बवाल है दद्दा 


जो कि भरता है जख्म दिल के भी 

वक्त ही वह डिटॉल है दद्दा


बात करते हो तुम सियासत की 

वो तो पक्की छिनाल है दद्दा


मेरे शेरों में आग है 'हुल्लड़' 

उनकी लकड़ी की टाल है दद्दा

(5)



मसखरा मशहूर है आँसू छिपाने के लिए 

बाँटता है वह हँसी, सारे ज़माने के लिए


घाव सबको मत दिखाओ, लोग छिड़केंगे नमक 

आयेगा नहीं कोई मरहम लगाने के लिए 


देखकर तेरी तरक्की खुश नहीं होगा कोई 

लोग मौका ढूँढते हैं, काट खाने के लिए


फलसफा कोई नहीं है और ना मकसद कोई 

लोग कुछ आते जहाँ में हिनहिनाने के लिए


ज़िन्दगी में ग़म बहुत हैं, हर कदम पर हादसे 

रोज़ कुछ टाइम निकालो मुस्कराने के लिए


मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का 

मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए


(6)


गरीबी ने किया गंजा, नहीं तो चाँद पर जाता 

तुम्हारी माँग भरने को सितारे तोड़कर लाता


बहा डाले तुम्हारी याद में, आँसू कई क्विंटल 

अगर तुम फोन ना करती, यहाँ सैलाब आ जाता


तुम्हारे नाम की चिट्ठी, तुम्हारे बाप ने खोली 

उसे उर्दू अगर आती मुझे कच्चा चबा जाता


बुढ़ापा आ गया लेकिन सिपाही का सिपाही हूँ 

कि मैं चालू अगर होता तो थानेदार हो जाता


हमारे जोक सुनकर भी वहाँ मज़दूर रोते थे 

कि जिसका पेट खाली हो, कभी भी हँस नहीं पाता


तुम्हारी बेवफाई से ही मैं डिप्टी कलैक्टर हूँ 

तुम्हारे इश्क में फँसता तो चौकीदार हो जाता


खुदा नाखून गंजों को नहीं देता कभी 'हुल्लड़ ' 

अगर देता तो यह नेता समूचा देश खा जाता


(7)


लाख तू तदबीर कर ले कुछ नही फल पायगा 

इस मुकद्दर की पहेली का नहीं हल पायगा 


पाँव खुद के हैं जरूरी हर सफर के वास्ते 

सिर्फ जूतों की मदद से किस तरह चल पायगा 


टूट जाएगी वो हँडिया जो कि होगी काठ की 

यार पानी में पकौड़ी किस तरह तल पायगा 


भाग्य की ठोकर लगेगी जब तुम्हारी पीठ पर 

मूँग तेरे पास होगी, तू नहीं दल पायगा 


साज़िशें करने से पहले, वक्त से तो पूछ ले 

वह मुखालिफ हो गया तो तू स्वयं जल जायगा 


नफरतों की आग दिल में मज़हबी चिंगारियाँ 

चंद वोटों की ही खातिर क्या वतन जल जायगा 


नाम वाले नाज़ मत कर, देख सूरज की तरफ 

यह सवेरे को उगेगा, शाम को ढल जायगा


(8)


मुल्क में ऐसा भी कानून बनाया जाये 

जो भी मनहूस हो सूली पे चढ़ाया जाये 


भूख से कोई भी मुफलिस जो मरे बस्ती में 

सारी बस्ती के अमीरों को जलाया जाये 


ना तो बिजली है, न पानी है, ना पाकीज़ा हवा 

भ्रष्ट नेताओं को मच्छर से कटाया जाये 


दाम साबुन के सुने हैं तो पसीना आया 

क्यों न अब रोज़ पसीने से नहाया जाये 


जो ये कहते हैं गरीबी का नहीं नामो-निशाँ 

उनको ताज़ा कोई अखबार पढ़ाया जाये 


हमने विस्की के लिए पूछा तो लीडर बोला 

हमको दंगों का गरम खून पिलाया जाये 


जिनको इस मुल्क की मिट्टी से कोई प्यार नहीं 

ऐसे गद्दारों को मिट्टी में मिलाया जाये 


जिसके बच्चे हों यहाँ पाँच से ज़्यादा हमदम 

उस गधे को तो गधे पर ही बिठाया जाये 


सिर्फ गीता को सुनाने से भला क्या होगा 

आचरण में भी किसी श्लोक को लाया जाये 


आके अमरीका में इस जिस्म को आराम मिला 

रूह प्यासी है इसे कुछ तो पिलाया जाये 


देश के भाग्य पे झुर्री ना कहीं पड़ जाये 

वक्त की माँग है बुड्ढों को हटाया जाये 


देश के वास्ते जीते नहीं जो भी नेता 

ऐसे नेताओं को गंगा में डुबाया जाये 


भीड़ अँगड़ाइयाँ लेती है, चली जायेगी 

क्यों न अब मंच पे 'हुल्लड़' को बुलाया जाये


(9)


तुम ढूँढ रहे चूहे, बिल्ली के घराने में 

कंधे नहीं मिलते हैं, गंजों के ठिकाने में 


घर हमने बनाया है, मंदिर के ही पिछवाड़े 

कितनी सुविधाएँ हैं, जूतों को चुराने में 


लकड़ी बड़ी महँगी है, रह लो बिन दरवाज़े 

नानी मर जाती है, सागौन लगाने में 


कालिख पुतवा दी है, मुल्क के माथे पर 

सदियाँ लग जायेंगी, यह दाग मिटाने में 


यह भीड़ निरंकुश है, हुशियार ज़रा रहना 

प्रह्लाद ना जल जाए, होली को जलाने में 


ढाँचा था कि मंदिर था, तय होगा खुदाई से 

जल्दी न मचा देना, इसे फिर से बनाने में 


बुश्शर्ट गरीबी की, तन ढाँप नहीं पाई 

काटी हैं उमर हमने, पैबंद लगाने में 


इस अर्थ-व्यवस्था की, तारीफ में क्या कहिये 

छ: - सात कटोरे हैं, भारत के खज़ाने में 


बेटी की विदाई पर, छुप-छुप के न रोया हो 

ऐसा कोई जोकर, दिखला दो ज़माने में 


इन वोट के खेतों में, कुछ प्यार भी बो देते तुम 

व्यस्त रहे केवल, लाशों को उगाने में 


मस्जिद से नहीं मतलब, मंदिर से है लेना क्या

 सब-के-सब पागल हैं, कुर्सी हथियाने में 


 श्री राम ! अयोध्या से, न्यूयार्क चले जाओ 

 सौ साल लगेंगे इन्हें, जजमैंट सुनाने में


(10)


वोट दे दो वोट दे दो, बड़बड़ाने आ गये

 फिर हमारे लाश को कंधा लगाने आ गये


देश से मतलब नहीं है, देश जाये भाड़ में 

चंद नारे रट लिये औ' हिनहिनाने आ गये


नाव को रक्खा है गिरवी, नाखुदा को मारकर 

तोड़कर पतवार को, लुटिया डुबाने आ गये


प्यास से हम तप रहे थे, दोपहर की धूप में 

उनकी किरपा देखिये, भाषण पिलाने आ गये


भीड़ तो जुटती नहीं है, अब किसी भी नाम पर 

लोग कहने लग गये हैं, कान खाने आ गये


हमने समझा टल गये हैं, पाँच बरसों के लिए 

उपचुनावों के बहाने, फिर सताने आ गये


बुझ गया वोटों का हुक्का, हो गयी ठंडी चिलम 

फिर भी ताऊ जी हमारे, गुड़गुड़ाने आ गये


(11)


लगता नहीं है भीख में नम्बर कभी कभी 

खिलवाती है यह लाटरी, लंगर कभी कभी


करना है हार्ट फेल तो शेयर खरीद ले 

नंगा तुझे करायेगा बम्पर कभी कभी


जुल्फों को भूल गाने भी चोली पे आ टिके 

यूँ भी पड़े हैं अक्ल पे पत्थर कभी कभी


शर्मों-हया का दौर तो गड्ढे में घुस गया 

ऊपर चढ़ा हुआ है कबूतर कभी कभी


बेरोज़गार भूख से मरते हैं इसलिये 

लगता है उनके शहर में, लंगर कभी कभी


जो भी बचा था खून वो दंगों ने पी लिया 

गुज़रा है इस तरह भी दिसम्बर कभी कभी


बच्चों को दूध मिल न सका, मौत मिल गयी 

देखे हैं हमने ऐसे भी मंज़र कभी कभी


 गणतंत्र संविधान भला बेचते हैं क्या? 

 इनसे बड़े हैं मस्जिदो-मंदर कभी कभी


हड़ताल, बंद, रैलियाँ, नारों के नाम पर 

पूरे नगर ने खाये हैं पत्थर कभी कभी


चमचागिरी ना पाओगे, शेषन के खून में 

आते हैं इस तरह के भी अफसर कभी कभी 


नेताओं की तो नींद भी शेषन ने छीन ली 

चढ़ता है इस तरह भी शनीचर कभी कभी


दुल्हिन भगा के ले गई दूल्हे को कार में 

होते हैं इस तरह भी स्वयंवर कभी कभी 


वो क्या चुनाव है, जहाँ कपड़े नहीं फटे

बनते हैं लीडरान भी बंदर कभी कभी


बरबादियों पे बुश की ये सद्दाम ने कहा 

सड़कों पे आ गया हैं सिकंदर कभी कभी


दुख तो सभी के साथ हैं, घबरा रहा है क्यों? 

होती है मरसीडीज़ भी पंचर कभी कभी


हमने सुनाये व्यंग्य तो फूटी है खोपड़ी 

होते हैं कहकहे भी सितमगर कभी कभी


(12)


नाम में शहीदों के डिग्रियाँ नहीं होती 

बदनसीब हाथों में चूड़ियाँ नहीं होती


सबको उस रजिस्टर पर हाज़िरी लगानी है 

मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होती 


बेकसूर मरते हैं आजकल के दंगों में 

उस जगह पे नेता की अर्थियाँ नहीं होती 


कुछ गरीब कर्फ्यू में भूख से भी मरते हैं

मौत का सही कारण गोलियाँ नहीं होतीं


जो ज़मीर रख आये जेब में पड़ोसी की 

उनसे देशभक्ती की गलतियाँ नहीं होती


मत करो बुढ़ापे में, इश्क की तमन्नाएँ 

क्योंकि फ्यूज़ बल्बों में बिजलियाँ नहीं होती


रोज़ क्यों नहाते हो वज़न मत घटाओ तुम 

वो बदन भी क्या जिसमें खुजलियाँ नहीं होती 


जब से ये पुलिसवाले गश्त पर नहीं आते 

तब से इस मुहल्ले में चोरियाँ नहीं होती


कब तलक बताओगे तुम कज़िन कवित्री को 

बेवकूफ इतनी तो बीवियाँ नहीं होतीं


हो गई बहुत महँगी यार बेतुकी कविता 

दस हज़ार से कम में पंक्तियाँ नहीं होती 


कर्म के मुताबिक ही फल मिलेगा इन्साँ को 

आम वाले पेड़ों पर लीचियाँ नहीं होतीं


ये तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना 

फिक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होती


वो भरी जवानी में खुदकशी नहीं करता 

काश! उसके कुनबे में बेटियाँ नहीं होतीं


मार खाके सोता है रोज़ अपनी आया से 

सबके भाग्य में माँ की, लोरियाँ नहीं होतीं


जो तलाश में खुद की, चल रहे अकेले हैं 

यार उनके पाँवों में, जूतियाँ नहीं होतीं


बूँद में समंदर को, जिसने पा लिया 'हुल्लड़' 

साहिलों से फिर उसकी, दूरियाँ नहीं होतीं


(13)


बरबादियों पे अपनी, कोई नहीं गिला है 

मालूम है ये मुझको, इसमें भी कुछ भला है


दुनिया में दुख ही दुख है, रोना है सिर्फ रोना

 गम में भी मुस्कराना, सबसे बड़ी कला है 

 

यूँ बिजलियाँ चमन पर, तुमने बहुत गिराईं 

वह फूल क्या जलेगा, पत्थर पे जो खिला है 


प्रारब्ध है या संचित, मुझको पता नहीं है 

जितना बड़ा है लोटा, उतना ही जल मिला है 


सुख जाते-जाते बोला दुख से ये बात कहना 

वो भी नहीं रहेगा, ऐसा ही सिलसिला है 


जीना पड़ा है मुझको, इस हाल में भी हमदम 

हर दिन है युद्ध का दिन, हर रात कर्बला है 


मैयत पे मेरी आकर, कुछ लोग यह कहेंगे 

सचमुच मरा है 'हुल्लड़', या ये भी चुटकला है ?


(14)


दोस्तों को आज़माना चाहता है ? 

चोट पर फिर चोट खाना चाहता है ?


आज के इस दौर में ईमानदारी 

चील से तू मांस खाना चाहता है


क्या मिलेगा इन उसूलों से तुझे अब 

उम्र-भर क्या घास खाना चाहता है ?


बिन सिफारिश ढूँढता है नौकरी को 

क्यों नदी में घर बनाना चाहता है ?


जा रहा बाज़ार में थैला लिये तू 

रोज़ ही क्यों सर मुँडाना चाहता है


यह व्यवस्था खून पी लेगी तुम्हारा 

शेर को कॉफ़ी पिलाना चाहता है


व्यंग के ये शेर सुनकर लोग बोले 

क्यों हमारे कान खाना चाहता है


(15)

अरी मौत ! तुझ पर फ़िदा हो रहा हूँ 

मैं इस ज़िन्दगी से जुदा हो रहा हूँ 


बहुत बोझ ढोया है जीने की खातिर

 मैं शायर हूँ लेकिन गधा हो रहा हूँ 

 

ज़माने ने मुझको सताया है इतना 

 मैं पत्नी से पहले सता हो रहा हूँ 

 

अरे कर्ज़ वालो बहुत रोओगे तुम 

 बिना बिल चुकाये विदा हो रहा हूँ 


 जो चाहो तो कुर्की करा लीजियेगा 

 मेरा क्या है मैं तो हवा हो रहा हूँ 


 नहीं मैं ही जब, तो ये ग़म क्या करेंगे

  मैं अब आदमी से खुदा हो रहा हूँ


(16)



ज़िन्दगी तो इक जुआ है भानजे

 वक्त नोकीला सुआ है भानजे 


 आजकल क्यों द्रौपदी नंगी हुई 

 कृष्ण को अब क्या हुआ है भानजे 

 

खो गया ईमान हिन्दुस्तान का

 रंग उसका गेहूँआ है भानजे


 जुल्म पर भारी पड़ी है राजनीति

  यह तो उसकी भी बुआ है भानजे 

 

 अच्छे-अच्छे को भिखारी कर दिया 

  यह शेयर ऐसा मुआ है भानजे 

 

 बोलता है सच इसे बाहर करो 

  कह दो यह तो बुर्जुआ है भानजे 


आफ़तों को क्यों पसीना आ गया 

साथ में माँ की दुआ है भानजे


(17)


लौटकर फिर पास मेरे ग़म पुराने आ गये 

लग रहा है शायरी के दिन सुहाने आ गये 


मुश्किलें जिसमें न हों, वह ज़िन्दगी बेकार है 

फूल पत्थर पर खिलाने के ज़माने आ गये 


मैं ही अपना मित्र भी हूँ और दुश्मन भी स्वयं

 इसलिए निज आत्मा को आज़माने आ गये

 

 पीर दरिया-सी बहा दी आँसुओं की शक्ल में 

  खुद बहुत रोये मगर तुमको हँसाने आ गये


हमने तुमको दिल दिया था, तूने हमको ग़म दिया

 गीत तेरे हैं, तुझी को हम सुनाने आ गये


(18)


खो गया जाने कहाँ ईमान मेरे देश का 

ग़र्क़ है क्यों नींद में दरबान मेरे देश का 


इनको अपने दाँव-पेंचों से नहीं फुरसत मिली 

जल रहा कश्मीर में खलिहान मेरे देश का


टालने की नीतियाँ गर इस तरह चलती रही 

हो न जाये यह चमन शमशान मेरे देश का

 

 संत की दरगाह को भी जो बचा पाये नहीं 

 वो सुरक्षित क्या रखेंगे मान मेरे देश का


:::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

रविवार, 21 अप्रैल 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की चार कुण्डलियाँ

 


सोना, सोनू सोनिया, तीन हैं इसके नाम

ज्यों ज्यों बढ़ती जायेगी, कृपा करेंगे राम

 कृपा करेंगे राम, राम की माया न्यारी 

 राज करेगी शक्ति बनकर शील दुलारी

 कह 'हुल्लड़' कविराय, के अब काहे का रोना

 दुर्गा का अवतार यही है हीरा, सोना ।


एक मनीषी को हुआ, पुत्री पाकर हर्ष 

नाम मनीषा रख उम्र भई कुछ वर्ष 

उम्र भई कुछ वर्ष कि बोले मां की वानी 

बातचीत में लगती है यह मेरी नानी 

कह 'हुल्लड़' कविराय, बनाती मन को नेक

इतना कह सकता हूं कृष्णा है लाखों में ऐक ।


कृष्णा मेरी बावरी, दिया हमेशा साथ 

इस पारो को मिल गया, एक द्वारकानाथ 

एक द्वारका नाथ, ढूंढता फिरता कंकर

यह कहती है इसे मिले हैं भोले शंकर 

कह 'हुल्लड़' कविराय जगत है माया तृष्णा 

कब समझेगी बात हृदय की मेरी कृष्णा ।


सरला, शशि या वन्दना, शब्द हुए खामोश 

बहुत पुरानी बात है, नहीं था मुझको होश 

नहीं था मुझको होश, नेह की माया न्यारी 

नहीं उतरती जनम जनम तक नेह खुमारी 

कह हुल्लड़ कविराय, बनाया मुझको बिरला 

बहुत सरल हैं मेरी तीनों, दीदी सरला ।


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डॉ मनोज रस्तोगी

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शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी जी के 43 दोहे


आत्म मार्ग ही श्रेष्ठ है, सहज मार्ग हर्षाय 

भक्ति दिखाता रास्ता, भक्ति पार लगाय ।


समय करे सो ठीक है, सहले देर अबेर 

साधो साधो समय को, समय समय का फेर ।


काल चक्र तो चल रहा, कछुए वाली चाल 

तू बुद्ध था बुद्ध बन, तोड़ जाल जंजाल ।


राजकमल संसार में, कर ले खुद से युद्ध 

शर्त एक ही है मेरी, रहे आत्मा शुद्ध ।


सिर्फ सत्य ही सत्य है, सत्य ओम का सार 

जीवन एक सराय है, रहना है दिन चार ।


बहुत सफलता बुरी है, भेजा करे खराब 

जो कांटों में खिला है, असली वही गुलाव |


देरी कर दो क्रोध में, टल जाता है क्रोध 

खुद अपनी ही आग में, जल जाता है क्रोध ।


बात बात में बात से, जग जाता है क्रोध 

मन बैरागी मौन हो, भग जाता है क्रोध ।


राम राज स्वीकार है, सत्य राज मंजूर 

कर्म किये जा कृष्ण सा, बन अशोक सा शूर ।


शब्द स्वर्ण है शब्द ही, हीरा पन्ना लाल

शब्द कोयला खान है, और शब्द है काल । 


शतरंजी चौपड़ नहीं, खेल जान का खेल

जीत गये तो विक्रमी, हार गये तो खेल ।


सौ बातों की बात सुन, एक अरब की ऐक 

आनंदित मन पा गया, जिसने रखा विवेक ।


शक संशय को पालकर, व्यर्थ जलाये हाड़ 

भ्रम के मृत चूहे मिले, खोदे बहुत पहाड़


मिटते संशय आत्मा, फलदायक, विश्वाश 

कैसी भी हो स्थिति, होना नहीं निराश ।


जो रावण है मरेगा, राम हृदय पुलकाय 

हिरणाकश्यप शकुनि मामा, अपनी करनी पाय ।


तुलना मत कर किसी से, तुलना करना पाप 

संस्कार सबके अलग अलग सत्य का जाप ।


अति कल्पना रोग है, कह लो इसे बुखार 

अति भावुकता साथ हो. पागल पन साकार ।


कवि संवेदन शील है, कवि में दया अपार 

कवियों ने ही किया है, अश्रु कणों से प्यार |


जब तक मन में अहम है, गायब है भगवान 

जिसने जाना स्वयं को वह खुद है भगवान ।


दोष तो होगा किसी का, कौन यहाँ निरदोष

 जगा रहा था जगत को, खुद ग़म से बेहोश ।


घुटन, दुःख वा वेदना, आँसू के त्यौहार 

गंगा, जमना के बिना आंखें हैं बेकार ।


वर्तमान में जी मना, सच है केवल आज 

जो जीते हैं आज में, उनके सर पर ताज ।


बिना पीड़ा के छन्द क्यों, लिखते हो बेकार 

पहले भोगो फिर लिखो, काव्य कर्म साकार ।


हर मानव अर्जुन यहाँ, और आत्मा कृष्ण 

आत्म ज्ञान से हल हुए मन के सारे प्रश्न ।


मुख्य चीज है आत्मा, उसके बाद शरीर 

केवल सुख पर मर मिटे, वो नर बड़े शरीर ।


भाई भी भंगी भये, साफ किया आकाश

 ऐसी झाड़ू मार दी. मुझको मिला प्रकाश ।


दानवता के नयन ने, अश्रु किये आबाद 

मां आंचल से पोंछकर, देती आशिरवाद ।


बिना नाम ओ अर्थ के, रचना भी है व्यर्थ 

यश आदर बिन धन स्वयं, खो देता है अर्थ ।


जनम-जनम से चल रही, लीला तेरी अनन्त 

तू ही बनता इन्दिरा, तू ही है बेअन्त ।


छली प्रपंची कौन था, कौन राम का दास 

समय स्वयं निर्णय करे, तू क्यों होत उदास ।


ज्योतिष भी विद्या बड़ी, मत कहना बकवास 

जो अच्छा है ग्रहण कर मत करना विश्वास ।


शनि का नीलम रत्न हैं, माणिक सूरज रत्न 

मूंगा मंगल के लिये, पन्ना है बुध रत्न |


जिसको जो सुखकर लगे, और संवारे काज 

रत्नों में सबसे बड़ा, रत्न कहो पुखराज़ |


रत्नों में पुखराज ही, नहीं करे नुकसान 

कम हो चाहे अधिक हो, निश्चित है कल्यान ।


हीरे में भी गुण बहुत, अगर रहे अनुकूल 

रत्न परख कर पहनिये, ना हो उसमें भूल ।


रत्न पहनने से अगर, बढ़ता दुख का भार 

तुरत उतारो रत्न को, छोड़ो सोच विचार ।


कलाकार हो जायेगा, बली शुक्र के साथ

 ले ले करुणा शनि से बने हृदय का नाथ ।


उच्च गुरू हो, शुक्र भी, और केन्द्र में बुद्ध

 विश्व प्रसिद्धि के लिये, सूर्य उच्च का शुद्ध


कुजवत केतू जान ले, शनि राहू हैं ऐक

 सूर्य मेष का लग्न में, करवाता अभिषेक |


वृहस्पति भी मुख्य है, सूर्य बुद्ध भी खास 

अगर कलंकित भावना, फिर क्या रहता पास ।


यदि उच्च का गुरू हो, मंगल चंदर साथ

 बुध दसवें हो मेष का, बने विश्व का नाथ ।


राहू केतू पूँछ हैं, मंगल है सरदार 

कर छाया से दोस्ती, होगा बेड़ा पार ।


सूर्य मेष में उच्च का, शुक्र कुम्भ में होय 

यदि कन्या का बुद्ध हो, कवि रवि, चिन्तक होय |


::::::प्रस्तुति:::::;;

 

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट 

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गुरुवार, 19 मई 2022

'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 12 मई से 14 मई 2022 तक तीन दिवसीय ऑन लाइन कार्यक्रम का आयोजन

 


मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 12 मई से 14 मई 2022 तक तीन दिवसीय ऑन लाइन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। 

      मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ  की सोलहवीं कड़ी के तहत आयोजित इस कार्यक्रम में संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि 29 मई 1942 को गुजरांवाला (जो अब पाकिस्तान में है ) में जन्में हुल्लड़ मुरादाबादी का परिवार भारत के आजाद होने से पहले ही मुरादाबाद आकर बस गया था। आप का वास्तविक नाम सुशील कुमार चड्ढा था। उनकी  प्रमुख कृतियों में इतनी ऊंची मत छोड़ो, मैं भी सोचूं तू भी सोच, अच्छा है पर कभी कभी, तथाकथित भगवानों के नाम,सत्य की साधना, त्रिवेणी , हज्जाम की हजामत, सब के सब पागल हैं , हुल्लड़ के कहकहे ,हुल्लड़ का हंगामा,   हुल्लड़ की श्रेष्ठ हास्य व्यंग रचनाएं ,हुल्लड़ सतसई, हुल्लड़ हजारा, क्या करेगी  चांदनी, यह अंदर की बात है,जिगर से बीड़ी जला ले  मुख्य हैं । एचएमबी द्वारा उनकी हास्य रचनाओं के अनेक रिकॉर्ड्स एवं कैसेट्स रिलीज हो चुके हैं। उनका निधन 12 जुलाई 2014 को मुम्बई में हुआ ।

       ए टी ज़ाकिर (आगरा), प्रदीप गुप्ता(मुम्बई), डॉ मक्खन मुरादाबादी,  आमोद कुमार अग्रवाल (दिल्ली), इंदिरा रानी(दिल्ली), चुन्नी लाल अरोड़ा(दिल्ली), अशोक विश्नोई ने उनके संस्मरण प्रस्तुत किये।

     रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा  हुल्लड़ मुरादाबादी की गजलों में उनके भीतर के व्यंग्यकार का शिल्प खुलकर सामने आया है । इनमें सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र के अनेक चित्र पैनेपन के साथ उभर कर सामने आते हैं ।              वैशाली रस्तोगी (जकार्ता, इंडोनेशिया)  ने कहा हुल्लड़ मुरादाबादी ने न केवल हास्य व्यंग्य की रचनाएं लिखी बल्कि आध्यात्मिक दोहे भी लिखे ।

     डॉ पुनीत कुमार ने कहा कि व्यंग्य के तीखे तेवरों को,हास्य की चाशनी में पगा कर,स्वादिष्ट व्यंजनों के रूप में,श्रोताओं/पाठकों के सम्मुख परोसने की कला, हुल्लड़ मुरादाबादी को बखूबी आती थी। अल्फाज,अंदाज और आवाज,तीनों में, उनकी रचनाओं का कोई सानी नही था। 

      सम्भल के साहित्यकार त्यागी अशोका कृष्णम ने कहा कि  बहुत सरलता के साथ गंभीर से गंभीर विषय को रखने की  मनमोहक महारत उन्हें हासिल थी।

  श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि  उनके गीतों को पढ़कर उनके ह्रदय की पीड़ा और मन के अंतर्द्वंद की झलक मिलती है । अशोक विद्रोही ने कहा  हुल्लड़ मुरादाबादी हास्य व्यंग्य की प्रतिमूर्ति थे। हास्य में ग़ज़ल को उन्होंने नया ही रूप दिया । राजीव प्रखर ने कहा हुल्लड़ मुरादाबादी आम व्यक्ति के जीवन को कविता से जोड़ने में सफल रहे।   हेमा तिवारी भट्ट  ने कहा हुल्लड़ मुरादाबादी हास्य की शेरवानी पहने एक गम्भीर चिंतक हृदय थे। 

मोनिका शर्मा मासूम ने कहा फूहड़पन रूपी गर्त से परे , विशुद्ध हास्य की गंगा में स्नान कराती हुल्लड़ मुरादाबादी जी की कविता, तन और मन दोनों में ही स्फूर्ति और ताज़गी भर देती है। सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक विद्रूपताओं के बोझ तले दबा आदमी जब इन विषमताओं को हुल्लड़ जी के नज़रिये से देखता है तो अपने आप को हल्का महसूस करने लगता है मानो उसका बोझ किसी ने बांट लिया हो और उस पर हुल्लड़ जी का चुटीला अंदाज, एक खिलखिलाती मुस्कान स्वत: ही श्रोता के होठों पर चली आती है। मीनाक्षी वर्मा ने कहा उनकी रचनायें कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी मनुष्य को सकारात्मकता से जीवन जीने की प्रेरणा भी देती हैं। विवेक आहूजा  ने कहा हास्य रचनाओं के माध्यम से  उन्होंने  सामाजिक मुद्दों को भी उठाया। 

    डॉ अजय अनुपम, डॉ अर्चना गुप्ता , अखिलेश वर्मा, नकुल त्यागी, डॉ शोभना कौशिक ,मनोरमा शर्मा (अमरोहा),दुष्यन्त बाबा , एस के सेठी, सुधा आनन्द, नीलम सेठी लवी आनन्द, डॉ नीरू कपूर, वन्दना श्रीवास्तव आदि ने भी विचार व्यक्त किये । आभार उनकी सुपुत्री मनीषा चड्ढा ने व्यक्त किया।












शनिवार, 14 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की कृति ' इतनी ऊंची मत छोड़ो' में प्रकाशित गाजियाबाद के साहित्यकार( मूल निवासी मुरादाबाद जनपद ) स्मृतिशेष डॉ कुँअर बेचैन का आलेख --- 'कविवर हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़लें अर्थात् मानवता की पहरेदारी'। यह कृति पुस्तकायन नयी दिल्ली द्वारा वर्ष 1996 में प्रकाशित हुई ।


इन दिनों हिन्दी कविता के क्षेत्र में ग़ज़ल ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया है। इधर हिन्दी में अनेक कवि ग़ज़लें कह रहे हैं। किंतु हास्य कवियों में बहुत ही कम ऐसे कवि हैं, जिन्होंने ग़ज़ल विधा में अपनी बात को पूरी शिद्दत के साथ महसूस करके और ग़जल में 'ग़ज़लियत' को सुरक्षित रखते हुए कहा हो; किंतु हास्य रचनाकार हुल्लड़ मुरादाबादी ने हिन्दी कविता की अन्य विधाओं और रूप-पद्धतियों में तो अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल भारत में वरन् भारत के बाहर भी लोगों के मन को गुदगुदाया है और प्रफुल्लित किया है, वरन् अपनी ग़ज़लों के माध्यम से भी उन्हें आनन्दित किया है। उन्हें ग़ज़ल की अच्छी पकड़ है। 'शे'रियत' पैदा करना उनके बाएँ हाथ का खेल है। वे हास्य और व्यंग्य के कवि हैं, अतः वे व्यंग्य को मीठी चाशनी में लपेटकर अपने अशआर को कुछ उस ढंग से सौंपते हैं, जिसे पाकर कोई भी आनन्दित और उल्लसित हो उठे।

       गंभीर रूप से ग़ज़ल-लेखन से जुड़े ग़ज़लकारों ने सामान्यतः अपनी शायरी को 'प्रेम' पर ही केन्द्रित रखा या फिर वह 'इश्क मिज़ाजी' से होते हुए 'इश्क हक़ीक़ी' की तरफ बढ़ी, किंतु बाद के ग़ज़लकारों ने आम ज़िन्दगी की समस्याओं को भी अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया, जिनमें राजनीति, धर्म और संस्कृति, समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और साहित्यिक वातावरण भी मुख्य हैं। दुष्यन्त और उनसे पहले भी हिन्दी-ग़ज़ल में प्रेम की आँच के साथ-साथ उस आग का भी जिक्र हुआ जिसकी लपटें आम आदमी को किसी-न-किसी प्रकार से झुलसा रही हैं। 'ग़मे जानाँ' से 'ग़मे दौरां' तक ग़ज़ल की यात्रा हुई। विभिन्न सोपानों एवं राहों से निकलते हुए ग़ज़ल का अनुभव बढ़ा। उसने अनेक दशाओं एवं दिशाओं को आत्मसात किया। हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़ले भी भारतीय समाज की मनः स्थितियों में प्रवेश करके, उनमें टहलकर, घूम फिरकर और 'फिक्र' से जुड़कर अपनी बात कहती है।

       वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की बड़ी दुर्दशा हुई है। राजनीतिज्ञ राजनीति में से नीति को निकालकर बाहर फेंक चुके हैं। नैतिकता ढूँढे नहीं मिलती। इसी कारण राजनेता जो कभी आदर के पात्र थे, अब व्यंग्य के विषय बन गये हैं। उनकी फ़ितरत में धोखेवाजी और स्वार्थपरता आकर समा गई हैं। हुल्लड़ मुरादाबादी ने यों तो बहुत-से अशआर वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों पर कहे हैं, किंतु जो शे'र यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, वह व्यंग्य-विधा की दृष्टि से बड़ा ही पुष्ट और अनूठा है

"दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटरों के लिए

इसको कुर्सी मिलेगी भेड़िया हो जायगा" 

       उक्त शेर में दो बातें दृष्टव्य है। एक तो 'दुम हिलाने की प्रक्रिया और दूसरी "भेड़िया हो जाने की बात 'दुम हिलाने की प्रक्रिया से जो चित्र उभरता है, वह कुत्ते का है और भेड़िया तो भेड़िया है ही -खुंखार और कपटपूर्ण व्यवहार करने का प्रतीक। जो लोग चित्रकला में 'कार्टून विधा से परिचित हैं, वे लोग जानते होंगे कि 'कार्टूनिस्ट' जब किसी व्यक्ति का कार्टून बनाता है तो उसके भीतरी स्वभाव को पशुओं की आकृति को सांकेतिक छवियों से भी चित्रित करता है। अच्छे व्यंग्यकारों को भी इसकी समझ होती है। हुल्लड़ मुरादाबादी व्यंग्य के इस साधन से भलीभाँति परिचित है। इसी कारण उन्होंने इस शेर में राजनीतिज्ञों का शाब्दिक 'कार्टून बनाने का प्रयास ही नहीं किया, वरन बड़ी ही सफलता से उसे चित्रित भी किया है। राजनीतिज्ञों के चेहरे में भेड़ियों का चेहरा उभर आना, अपने आप में इस बात का प्रमाण भी है। राजनीतिज्ञों और राजनीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कुछ और भी अच्छे शेर कहे है

"लीडरों के इस नगर में है तेरी औकात क्या

अच्छा खासा आदमी भी सिरफिरा हो जायेगा"


बात करते हो तुम सियासत की 

वो तो पक्की छिनाल है दद्दा

       राजनीतिज्ञों द्वारा आम जनता के शोषण की बात को जिस ढंग से और जिस शब्दावली में हुल्लड़ जी ने कहा है वह भी अत्यंत रोचक, किंतु गंभीर है। व्यंग्य के साधनों में अच्छे व्यंग्यकार श्लेष से भी काम लेते हैं। हुल्लड़ जी ने इस एक शेर में इसी पद्धति से अच्छा काम लिया है। वे कहते हैं

"यह तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना

 फ़िक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होतीं"

       यहाँ 'आम जनता' में 'आम' शब्द का प्रयोग दुतरफा है। 'आम' फल भी है जिसे चूसा जाता है और 'आम जनता' भी जिसे चूसा जा रहा है। यहाँ श्लेष प्रयोग की पद्धति से हुल्लड़ जो ने इस शेर को व्यंग्य की दृष्टि से बहुत ऊँचाई दे दी है। शब्दावली ऐसी जो हंसाए और शब्दों के अर्थ में ऐसी करुणा कि आदमी भीतर-ही भीतर रो उठे। यहीं यह बात भी कहना चाहूँगा कि व्यंग्य का वास्तविक आधार करुणा है। वह तो आंसू को हंसी बनाकर पेश करता है, या यों कहें कि हँसी के भीतर आँसू को इस तरह से विठाता है कि हंसी का पर्दा हटते ही आँसू दिखाई दे जाये। आज के समय में देश की अर्थव्यवस्था भी चरमरा रही है। महँगाई फन फैलाए खड़ी है। आम आदमी ठीक से पेट भी नहीं भर पा रहा कवि हुल्लड़ का काम केवल हंसाना ही नहीं है, वरन मर्मस्पर्शी स्थितियों का साक्षात्कार कराना भी है। आज के आम आदमी या निम्न-मध्यवर्गीय परिवार को संबोधित करते हुए वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें कितनी अधिक अनुभव को सच्चाई और विवशतापूर्ण छटपटाहट है

"जा रहा बाज़ार में थैला लिये तू

रोज़ ही क्यों सर मुंडाना चाहता है।"

      यहाँ सर मुंडाने के प्रचलित मुहावरे से कवि ने आर्थिक शोषण को समझाने का प्रयास किया है। यह व्यवस्था मांसाहारी है, शाकाहारी नहीं। यह खून पीने में विश्वास रखती है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए हुल्लड़ जी इस प्रकार शेर कहते हैं

"यह व्यवस्था खून चूस लेगी तुम्हारा

शेर को ककड़ी खिलाना चाहता है" 

     यहाँ भी वही बात। उन्होंने 'व्यवस्था' शब्द में 'मानवीकरण' का प्रयोग किया है और इस प्रकार व्यवस्था को एक इनसान का रूप दिया गया है, और बाद में उस व्यवस्था के चेहरे में 'शेर' के चेहरे का भी रेखांकन किया गया है। यहाँ भी कार्टून शैली में ही अभिव्यक्ति हुई है। इतना ही नहीं, उन्होंने यहाँ एक नये मुहावरे का भी गठन किया है-'शेर को ककड़ी खिलाना'। अच्छे रचनाकार बात-बात में ही नये मुहावरे गढ़ जाते हैं और उन्हें स्वयं पता भी नहीं चलता कि वह नया मुहावरा गढ़ गए। इस शेर के साथ भी यही हुआ है।

     हुल्लड़ जी का ध्यान आज की व्यवस्था (Administration) और उसकी विद्रूपताओं पर भी गया है। आजकल समाज व्यवस्था को 'माफिया' व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट कर रही है। अर्थव्यवस्था, राजनीति तथा शासन व्यवस्था भी धीरे-धीरे माफियाओं के हाथों में आती जा रही है। इस सम्बंध में हुल्लड़ जी का एक शे'र देखें

"हर तरफ हिंसा, डकैती, हो रहे हैं अपहरण

रफ्ता-रफ्ता मुल्क सारा माफिया हो जायगा" 

     पूरे समाज में 'रिश्वतखोरी', 'भाई भतीजावाद' का बोलबाला है। इस सच्चाई की ओर भी कवि का ध्यान गया है और वह साफ शब्दों में कह उठता है

"बिन सिफारिश ढूंढता है नौकरी को

 क्यों नदी में घर बनाना चाहता है"

ग़ज़ल के शे'र में शे रियत तब पैदा होती है जब उसे सही मिसाल (उपमा) मिल जाय-ऐसी उपमा जो कथ्य को उभारकर बाहर ले आये। सिफ़ारिश के बिना नौकरी मिलने की नामुमकिन कहानी को नदी में घर बनाने की मिसाल देकर स्पष्ट किया है। साहित्यिक क्षेत्र में होने वाली अवमाननाओं और अवमूल्यनों पर दृष्टिपात करते हुए संकेत से उधर भी इशारे किए गए हैं। आजकल कवि-सम्मेलनों में अधिकतर हास्य कवि घिसे-घिसाए पुराने चुटकुलों के सहारे जमे बैठे हैं, जबकि कविता से उनका दूर-दूर का भी सम्बंध नहीं है। हुल्लड़ जी ऐसे कवियों पर और ऐसे मंचों पर सीधी चोट करने हुए कहते हैं

"गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले 

रो रहा है मंच पर ह्यूमर, सेटायर आजकल"

यह तो रही अलग-अलग परिस्थितियों की बात किंतु हुल्लड़ जी ने मानव-मात्र पर भी व्यंग्य किए हैं जो कहने को तो बहुत सभ्य हो गया है, किंतु आज भी उसकी फितरत वही है जब वह बंदर था। क्योंकि आदमी जितना आदमी के खून का प्यासा हुआ है, जानवर भी नहीं है। हुल्लड़ जी कहते हैं—

“आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी 

है हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल"

       हुल्लड़ जी ने, वर्तमान समाज में जो मूल्य-विघटन हुआ है, नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है, उसे भी अच्छी प्रकार से देखा और समझा है और इसलिए । और आह के साथ वो कह उठते हैं कराह

"क्या मिलेगा इन उसूलों से तुझे 

उम्रभर क्या घास खाना चाहता है"

     आज के समय में सिद्धांत किसी का पेट नहीं भरते। उल्टे उसे मूर्ख साबित करते हैं। यदि हुल्लड़ जी चाहते तो उक्त शे'र में कहीं भी 'गधे' शब्द का प्रयोग करके गधे का लाक्षणिक अर्थ 'मूर्ख' व्यक्त करने में सफल हो जाते, किंतु जगह-जगह पर 'गधा', 'उल्लू' आदि कहने से एक बड़ा घिसा-पिटापन आ जाता है। अतः उन्होंने इस शब्द का प्रयोग न करके ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जिससे 'गधे' का ही अर्थ निकलता है। 'उम्रभर क्या घास खाना चाहता है' में घास खाने की प्रक्रिया विशेष रूप से 'गधे' से जुड़ी है, अतः कवि का अभिप्राय समझ में आ जाता है कि क्या तू हमेशा "गधा' ही बना रहना चाहता है ? साथ ही घास खाने वाली बात के माध्यम से अनजाने ही एक प्रसंग जुड़ जाता है और वह है महाराणा प्रताप का प्रसंग, जिन्होंने अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए घास की रोटी खाना स्वीकार किया था। इस कथा से भी यही व्यंजना निकलती है। जब कवि सिद्ध हो जाता है तब ही इस प्रकार की शब्दावली और व्यंजनाओं का प्रयोग कर पाता है। और यह सत्य है कि कविवर हुल्लड़ में यह सिद्धहस्तता है।

     ग़ज़ल के शेर जितने ही अनुभव के करीब होते हैं, उतने ही वे बड़े और महान होते जाते हैं तथा उद्धरण देने योग्य भी। हुल्लड़ की ग़ज़लो में अधिकतर अशआर उन्हें अनुभव की विरासत से ही मिले हैं। कुछ उदाहरण देखें

दोस्तों को आजमाना चाहता हैं

घाव पर फिर घाव खाना चाहता है।


जो कि भरता है ज़ख्म दिल के भी

 वक्त ही वो 'डिटॉल' है दद्दा


 घाव सबको मत दिखाओ तुम नुमाइश की तरह

यह अकेले में सही है गुनगुनाने के लिए। 


 देखकर तेरी तरक्की, खुश नहीं होगा कोई 

 लोग मौका ढूंढते हैं काट खाने के लिए


इतनी ऊँची मत छोड़ो गिर पड़ोगे धरती पर 

क्योंकि आसमानों में सीढ़ियाँ नहीं होतीं। 

हुल्लड़ मुरादाबादी ने ग्रामीण बोध से हटते हुए लोगों और महानगरीय संवेदनाओं में फंसे हुए इनसानों एवं उनकी फितरतों पर भी टिप्पणी की है

“यह तो पानी का असर है तेरी ग़लती कुछ नहीं 

बम्बई में जो रहेगा बेवफा हो जायगा "

  यहाँ 'बम्बई' महानगर सम्पूर्ण महानगरों की परिस्थितिजन्य विवशताओं की ओर संकेत करता है और उसी में महानगरीय संस्कृति पर भी व्यंग्य करता है। हुल्लड़ जी ने यों तो बहुत से अच्छे शेर कहे हैं, किंतु जो शेर शायद लोगों की जुबान से कभी नहीं हटेगा और लोगों के ज़ेहन में हमेशा रहेगा वह यह दार्शनिक शे'र है 

  "सबको उस रजिस्टर में हाज़िरी लगानी है। 

  मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं"

        लगता है जैसे कि यह शेर कोई हास्य का कवि नहीं, वरन् कोई ‘फ़िलॉसफर कह रहा है। ऐसे अशआर सुनकर या इसी प्रकार की कविताओं को पढ़ या सुनकर हो शायद कवि के बारे में यह कहा गया है वह फ़िलॉसफ़र भी होता है। हुल्लड़ के व्यक्तित्व में खुद्दारी का गुण अपना एक विशेष गुण है। अतः उनको खुद्दारी से जुड़ा हुआ एक और शे'र भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है

 “मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का

  मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए"

   हुल्लड़ जी मूलतः हास्य-व्यंग्य के कवि हैं। अतः उन्होंने शिल्प की दृष्टि से अपने कथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए ग़ज़ल का चुनाव करने पर भी, ऐसी शब्दावली को नहीं छोड़ा है जो स्वतः हास्य की प्रेरणा देती है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में यों तो स्थान-स्थान पर ऐसे शब्द सहज रूप से आने दिए हैं, जिनमें से हास्य की किरणें फूटती हैं, किंतु मुख्यतः रदीफ़ तथा काफ़िया के स्थान पर ऐसे शब्दों के प्रयोग से यह हास्य की छटा और भी अधिक निखरी है; उस दृष्टि से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-- 


 "जोकि भरता है जख्म दिल के भी 

 वक्त ही वो डिटॉल है दद्दा "


 “आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी

हँस रहे हैं आदमी पर सारे बंदर आजकल "


मेरे शेरों में आग है हुल्लड़ 

उनकी लकड़ी की टाल है दद्दा'


इसी प्रकार उपर्युक्त शेरों में रेखांकित( बोल्ड ) शब्दों पर गौर कीजिये। निश्चय ही ये शब्द ऐसे हैं जिन्हें सुनकर और पढ़कर रसिकों को हँसी आ जाएगी। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी ऐसा हुआ है। एक ग़ज़ल में 'भानजे' शब्द का रदीफ़ लेकर महाभारत 'शकुनि' का चित्र और उसकी चालों की ओर संकेत किया है और हँसी हंसी में व्यंग्य की पैनी धार को भी आने दिया है।

इस प्रकार कविवर हुल्लड़ मुरादाबादी की ग़ज़लें एक ओर ग़ज़लों के व्याकरण उनके क़ायदे-कानूनों पर खरी उतरती हैं तो दूसरी ओर वे व्यंग्य की दृष्टि से बहुत सफल और सार्थक हैं। वे कभी 'कैरिकेचर' द्वारा व्यंग्य की सृष्टि करती हैं, तो कभी 'उपहास-शैली' की सशक्त परम्परा का निर्वाह करके उसे नये आयाम देती हैं, कभी विडम्बन (irony) द्वारा किसी सामाजिक या अन्य विषयक विकृति को उकेरती हैं, कभी 'श्लेष-पद्धति' द्वारा हास्य पैदा करके व्यंग्य के विभिन्न सोपानों पर ऊँचाइयाँ पा रही हैं। व्यंग्य के शिल्प से हुल्लड़ जी भलीभांति परिचित हैं, अतः उन्होंने जहाँ जिस प्रकार की व्यंग्य-शैली और व्यंग्य-भाषा की आवश्यकता है, वहाँ वैसी ही भाषा और शैली प्रयोग किया है और यह प्रयोग बड़ी सफलता से किया है। इन ग़ज़लों द्वारा कवि हुल्लड़ जी ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। एक ओर इन ग़ज़लों के द्वारा वे अच्छे ग़ज़लकारों में अपना नाम लिखवा रहे हैं तो दूसरी ओर इन ग़ज़लों द्वारा एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार की छवि भी बनाने में सफल हुए हैं। उनकी ग़ज़लें आज के समाज व यथार्थ चित्र हैं—ऐसा यथार्थ चित्र जो एक ओर तो हमारे हृदय को भीतर-ही-भीतर उद्वेलित करता है तो दूसरी ओर हमें यह प्रेरणा भी देता है कि हम अपने-आप सुधारें और पूरा समाज से उन विकृतियों को हटाएँ जो हमारी सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को रोग-ग्रस्त कर रही हैं। कविवर हुल्लड़ की ये ग़ज़लें सचमुच ही अंधकार में टहलती हुई चिंगारी की तरह हैं; वे मानवता की पहरेदारी करते हुए उसे जीवित रखने संकल्प हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसी श्रेष्ठ और उद्देश्यपूर्ण ग़ज़लों का पाठक भरपूर स्वागत करेंगे।



✍️ कुँअर बेचैन 

 2 एफ-51 नेहरूनगर

 ग़ाज़ियाबाद


:::::::::::प्रस्तुति:::::::::


डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शुक्रवार, 13 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की कृति ' इतनी ऊंची मत छोड़ो' में प्रकाशित बदायूं के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ उर्मिलेश का आलेख --- 'अपने समय से संवाद करती ग़ज़लें ।' यह कृति पुस्तकायन नयी दिल्ली द्वारा वर्ष 1996 में प्रकाशित हुई ।

 


पद्मश्री काका हाथरसी के बाद हिन्दी कवि सम्मेलनों, एच० एम० वी० कम्पनी के रिकार्डो, रेडियो, दूरदर्शन, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, कैसिटों, फिल्मों और अपने काव्य-संग्रहों के माध्यम से लोकप्रियता के शिखर छूनेवाले हास्य-व्यंग्य कवियों में श्री हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम आता है। हुल्लड़ जी के बाद कई नाम कवि-सम्मेलनों में स्थापित हुए और हास्य कवि के रूप में आज भी स्थापित हैं, लेकिन हुल्लड़ जी की लोकप्रियता का बहुआयामी ग्राफ आज भी नीचे नहीं गया है। यों बीच-बीच में व्यक्तिगत परिस्थितियों ने इस ग्राफ को थोड़ी-बहुत क्षति ज़रूर पहुँचाई, लेकिन हुल्लड़ जो की सृजनेच्छा, सक्रियता और रचनात्मक जिजीविषा ने तमाम दैहिक, दैविक और भौतिक संघर्ष झेलते हुए, उनको कहीं चुकने नहीं दिया। कवि सम्मेलनीय मंचों पर एक पैरोडी-किंग के रूप में अपना सफर शुरू करनेवाले हुल्लड़ जी देखते-देखते शिष्ट हास्य के विशिष्ट कवि और फिर एक सधे किन्तु धारदार व्यंग्यकार के रूप में हिन्दी कविता के मंचों पर प्रतिष्ठित हो गये। उनकी इस गतिशील और जैवन्ती यात्रा पर उनके नज़दीक के लोगों का मुग्ध होना स्वाभाविक है। उनकी इसी सृजन-यात्रा की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है. उनका ग़ज़लकार रूप जो 'इतनी ऊँची मत छोड़ो' ग़ज़ल-संग्रह के रूप में निबद्ध होकर उनके प्रिय पाठकों के सामने प्रस्तुत है।

फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिन्दी में अवतरित होते हुए ग़ज़ल ने एक ख़ासा सफर तय किया है। कई पड़ाव और कई मंज़िलें हैं इस सफ़र की। यहाँ उस सबकी पड़ताल न करते हुए यह कहना अभीष्ट लग रहा है कि हिन्दी-ग़ज़ल ने उर्दू- ग़ज़ल जैसी कसावट और बुनावट भले ही (कुछ रूपों में) हासिल न की हो, किन्तु हिन्दी - ग़ज़ल का विषय-क्षेत्र उर्दू-ग़ज़ल से कहीं ज्यादा विस्तृत और अपनीत होकर सामने आया है। आज के उर्दू शायर भी विषय विस्तार की इस अपेक्षा को शिद्दत के साथ महसूसने लगे है। साकी, शराब, मयखाना, गुलो-बुलबुल के बासी प्रतीकों से ग़ज़ल को निजात दिलाने में हिन्दी के ग़ज़ल-गो कवियों के प्रदेय को किसी भी तरह अवहेलित और उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हुल्लड़ जी की ग़ज़लें इसी दिशा में एक पहल करती हुई लगती । उनकी ग़ज़लों का कैनवास आज की समयगत सच्चाइयों से रंगायित है। इन ग़ज़लों में आज की राजनीतिक विद्रूपताएँ, धार्मिक कटुताएँ, सामाजिक विषमताएँ, आर्थिक विरूपताएँ, साहित्यिक वंचनाएँ, शैक्षिक-सांस्कृतिक कुटिलताएँ और मानवीय विवशताएँ जहाँ पूरी भास्वरता के साथ अंकित हुई हैं, वहीं हुल्लड़ जी का भावुक और संवेदनशील रचनाकार गम्भीर दार्शनिक मुद्रा में अपनी चिन्तनशील छवि को प्रस्तुत करने में पूरी कामयाबी के साथ उपस्थित है।

आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था सत्तालोलुप नेताओं की कारगुज़ारियों की वजह से कितनी घिनौनी हो गई है, इसे हुल्लड़ जी ने अपनी तंज़िया ग़ज़लों में बखूबी उभारा है। एक सजग लोकतांत्रिक नागरिक के रूप में उनका आक्रोश भी अनेक शे'रों में फूट पड़ा है

जनवरी छब्बीस अब तो तब मनेगी देश में 

जब यहाँ हर भ्रष्ट नेता गुमशुदा हो जायगा 

दुम हिलाता फिर रहा है चन्द वोटों के लिए 

इसको जब कुर्सी मिलेगी भेड़िया हो जायगा


ये तो आम जनता है, चाहे चूस लो जितना

फिक्र मत करो इनमें, गुठलियाँ नहीं होतीं।

राजनीतिक व्यवस्था के इसी नंगे नाच के चलते आज का पढ़ा-लिखा नौजवान शोषण के जो कसैले घूँट पीने पर विवश है, उसकी विडम्बना पर हुल्लड़ जी के ये अशआर कितने मार्मिक बन पड़े हैं—

बिन सिफारिश ढूंढता है नौकरी को

क्यों नदी में घर बनाना चाहता है


डिगरियाँ हैं बैग में पर जेब में पैसे नहीं

नौकरी क्या चाँद देगा, क्या करेगी चाँदनी ?

आज की मतलबपरस्त निर्मम राजनीति ने मानवीय सम्वेदना के सूत्र भी तार-तार कर दिए हैं। यथा राजा तथा प्रजा' के अनुसार आज का आदमी कितना स्वार्थी, बेईमन, लम्पट और आत्मकेन्द्रित हो गया है, इसकी व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के प्रमाणस्वरूप ये अशआर द्रष्टव्य हैं

दोस्तों को आजमाना चाहता है

चोट पर फिर चोट खाना चाहता है


आदमी के खून का प्यासा हुआ है आदमी

हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल


दोस्त तो मिलते रहेंगे हर गली, हर मोड़ पर

सोचते हैं जख्म अपने रोज़ सीकर क्या करें 

और तो और, कविता का मंच भी इस राजनीतिक प्रदूषण से अछूता नहीं रहा। हुल्लड़ जी ने मंच पर रहते हुए और इस व्यवस्था में पूरी तरह शामिल होते हुए भी, इसकी खामियों को नज़रअन्दाज नहीं किया है। ऐसे स्थलों पर उनकी वक्रोक्तियाँ कितनी प्रामाणिक हो उठी हैं, केवल तीन शेर देखिए 

गद्य में भी चुटकुले हैं, पद्य में भी चुटकुले 

रो रहा है मंच पर ह्यमर सटायर आजकल

 इन कुएं के मेंढकों ने सारा पानी पी लिया 

 डूबकर मरने लगे हैं सब समन्दर आजकल

गीत चोरी का छपाया उसने अपने नाम से

रह गया है शायरा का ये करैक्टर आजकल 

यों तो हुल्लड़ जो की इन ग़ज़लों में अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज से लेकर राष्ट्रीय सरोकारों को अपनी तरह से सम्प्रेषित करनेवाली ग़ज़लें मिल जायेंगी, किन्त व्यक्ति और समाज के संघर्ष को रेखांकित करनेवाले स्वर इन ग़ज़लों में बहुल के साथ अनुभव किये जा सकते हैं। चूँकि हुल्लड़ जी गाँव से लेकर नगरों महानगरों, यहाँ तक कि अमरीका के कई महानगरों में काव्य-पाठ कर चुके हैं और समाज के हर वर्ग के साथ उठे बैठे हैं, इसलिए पूरी ईमानदारी से उन्होंने जहाँ हर तबके की पोल इन ग़ज़लों में खोली है, वहाँ वह यह बताने में भी नहीं चूके हैं कि आदमी के भीतर और बाहर दिखाई देने वाली दूरियों के लिए दोषी कौन है।

      इस संग्रह की वे ग़ज़लें जिनमें दर्शन और अध्यात्म का पुट है, निस्संदेह उन पाठकों को एक सुखद अहसास से भर देंगी जो हुल्लड़ जी को अब तक एक हास्य-व्यंग्य कवि के रूप में ही जानते रहे हैं। ऐसे एक नहीं अनेक शेर इस संग्रह में हैं, जो हुल्लड़ जी की हँसोड़ छवि की तह में छिपे एक गम्भीर, उदास किन्तु जीवन्त दार्शनिक को प्रस्तुत करने में पूर्ण सक्षम हैं। इस सन्दर्भ में कुछ शेर जो मेरी तरह आपको भी अच्छे लगेंगे, यहाँ दे रहा हूँ

दुनिया में दुख ही दुख हैं, रोना है सिर्फ रोना

 गम में भी मुस्कराना सबसे बड़ी कला है


सबको उस रजिस्टर पर हाज़िरी लगानी है 

मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं 

बूँद को समन्दर में जिसने पा लिया 'हुल्लड़'

साहिलों से फिर उसकी दूरियाँ नहीं होतीं


कोई सुख-दुख आपको तब छू नहीं सकता 

कभी ज़िन्दगी को एक अभिनय-सा निभाना सीख लो

इस संग्रह की ग़ज़लों का सर्वाधिक सशक्त पक्ष है इन ग़ज़लों की भाषा। कवि-सम्मेलनों से सम्बद्ध रहने के कारण सम्प्रेषणीयता के मुहावरे से हुल्लड़ जी बखूबी परिचित हैं। यही कारण है कि इन गजलों की भाषा अपने समय और जीवन से जुड़ी भाषा है। इनमें समाहित प्रतीक भी ज़िन्दगी से जुड़े हुए हैं। अपने गिर्द फैले परिवेश को चित करने में इन ग्रहों का शैल्पिक सन्दर्भ पूर्ण समर्थ है। मुझे विश्वास है. हुल्लड़ जी के पाठक, श्रोता और दर्शक ही नहीं, ग़ज़ल के सुधी पाठक भी इस संग्रह का जानदार और शानदार स्वागत करेंगे।


✍️ डा० उर्मिलेश

रीडर एवं शोध-निर्देशक

हिन्दी-विभाग

नेहरू मेमोरियल शि० ना० दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बदायूँ (उ० प्र०)

:::::::::प्रस्तुति::::::::::


डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी ने अपनी साहित्य यात्रा 'दिवाकर' उपनाम से वीर रस की कविताएं लिखने से की थी। 2 दिसम्बर 1962 को भारत चीन महायुद्ध के संदर्भ में राष्ट्रीय रक्षा कोष सहायतार्थ एक अखिल भारतीय वीर रस कवि सम्मेलन लालकिला दिल्ली में आयोजित किया गया था जिसकी अध्यक्षता महाकवि रामधारी सिंह दिनकर कर रहे थे । उक्त कवि सम्मेलन में उन्होंने अपनी एक वीर रस की रचना पढ़ी थी ----- तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहां गया ......। उनकी यह रचना सन 1964 में हिंदी साहित्य निकेतन द्वारा प्रकाशित साझा काव्य संग्रह 'तीर और तरंग ' में भी प्रकाशित हुई थी। मुरादाबाद जनपद के 39 कवियों के इस काव्य संग्रह का संपादन किया था गिरिराज शरण अग्रवाल और नवल किशोर गुप्ता ने । भूमिका लिखी थी डॉ गोविंद त्रिगुणायत ने । प्रस्तुत है पूरी रचना -


भारत के नौजवानों से.....

तुम वीर शिवा के वंशज हो, फिर रोष तुम्हारा कहाँ गया ? 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?


पहिले।   तो   तुम्हारे   क़दमों से, सारी।  धरती  थर्राती  थी, 

सागर का दिल हिल जाता था, पर्वत की धड़कती छाती थी । 

अब चाल में सुस्ती कैसी है, क्यों पांव हैं डगमग डोल रहे ? 

कुछ करके नहीं दिखाते हो, केवल अब मुँह से बोल रहे ॥


दुश्मन को मार गिराने का आक्रोश तुम्हारा कहाँ गया ? 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?


जाकर देखो सीमाओं पर, जो आज कुठाराघात हुआ,

 जाकर देखो भारत माँ के माथे पर जो आघात हुआ । 

 गर अब भी खून नहीं खौला, गर अब तक जाग न पाये हो,

  मुझको विश्वास नहीं आता, तुम भारत माँ के जाये हो ।


दुनियाँ को दिव्य दृष्टि देते, वह होश तुम्हारा कहाँ गया 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ? 


आँखों की मस्ती दूर करो, यह संकट में कैसी हाला ? 

टक्कर से तोड़ो प्याले को, अब बन्द करो यह मधुशाला। 

गर तुम को कुछ पीना ही है, तो फिर दुश्मन का खून पियो,

 या तो स्वदेश पर मिट जाओ, या भारत माँ के लिये जियो ।

दुश्मन की फौजें दहल उठें, वह रोष तुम्हारा कहाँ गया ? 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?


हे वीरों तुम हो महाकाल, फिर काल जो आये डरना क्या ?

 जब चला सिपाही लड़ने को, तो जीना क्या या मरना क्या ? 

 यदि मिटे तो फिर इतिहासों में, बलिदान अमर हो जायेगा,

  यदि जीवित रहे तो हर मानव, आदर से शीश झुकायेगा ।


माटी का हर कण पूछेगा, वह घोष तुम्हारा कहाँ गया ? 

बोलो राणा की सन्तानों, वह जोश तुम्हारा कहाँ गया ?



::::::;प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी, 8, जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश, भारत,मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी की रचना ----भूल जा शिकवे, शिकायत, ज़ख्म पिछले साल के साथ मेरे मुस्कुरा ले, साल आया है नया । यह रचना हमें भेजी है उनकी सुपुत्री मनीषा चड्डा ने



यार तू दाढ़ी बढ़ा ले, साल आया है नया 

नाई के पैसे बचा ले, साल आया है नया 


तेल कंघा पाउडर के खर्च कम हो जाएँगे 

आज ही सर को घुटा ले, साल आया है नया 


जो पुरानी चप्पलें हैं उन्हें मंदिरों पर छोड़ कर

कुछ नए जूते उठा ले, साल आया है नया 


मैं अठन्नी दे रहा था तो भिखारी ने कहा

तू यहीं चादर बिछा ले, साल आया है नया


दो महीने बर्फ़ गिरने के बहाने चल गए

आज तो "यार" नहा ले, साल आया है नया


भूल जा शिकवे, शिकायत, ज़ख्म पिछले साल के 

साथ मेरे मुस्कुरा ले, साल आया है नया


दौड़ में यश और धन की जब पसीना आए तो 

'सब्र' साबुन से नहा ले, साल आया है नया


मौत से तेरी मिलेगी, फैमिली को फ़ायदा

आज ही बीमा करा ले, साल आया है नया 

✍️ हुल्लड़ मुरादाबादी

::::प्रस्तुति:::::

मनीषा चड्डा सुपुत्री स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एटा की संस्था "प्रगति मंगला" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक परिचर्चा

   
           एटा के वरिष्ठ साहित्यकार बलराम सरस द्वारा वाट्स एप पर गठित साहित्यिक समूह " प्रगति मंगला " की ओर से प्रत्येक  शनिवार को "साहित्य के आलोक स्तम्भ" शीर्षक से देश के प्रख्यात दिवंगत साहित्यकारों   के व्यक्तित्व और कृतित्व पर  साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया जाता है । इसी श्रृंखला में शनिवार 29 अगस्त 2020 को हास्य व्यंग्य के प्रख्यात साहित्यकार हुल्लड़ मुरादाबादी पर ऑन लाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन किया गया। मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी के संयोजन में हुए इस आयोजन की अध्यक्षता आचार्य डॉ प्रेमी राम मिश्र ने की । पटल प्रशासक नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा उदघाटन व दीप प्रज्ज्वलन के  साथ कार्यक्रम का आरम्भ हुआ।
  स्मृतिशेष हुल्लड़ मुरादाबादी  का विस्तृत जीवन परिचय, साहित्यिक योगदान और उनकी रचनाएं प्रस्तुत करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि हास्य व्यंग्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी एक ऐसे रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल श्रोताओं को गुदगुदाते हुए हास्य की फुलझड़ियां छोड़ीं बल्कि रसातल में जा रही राजनीतिक व्यवस्था पर पैने कटाक्ष भी किए। सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया तो आम आदमी की जिंदगी को समस्याओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया। हिंदी के हास्य कवियों की जब कभी चर्चा होती है तो उसमें हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है । जी हां , एक समय तो ऐसा था जब हुल्लड़ मुरादाबादी  अपनी हास्य कविताओं से पूरे देश मे हुल्लड़ मचाते फिरते थे। कवि सम्मेलन हो या किसी पत्रिका का हास्य विशेषांक छपना हो तो हुल्लड़ मुरादाबादी का होना जरूरी समझा जाता था । रिकॉर्ड प्लेयर पर अक्सर उनकी रचनाएं बजती हुई सुनने को मिलती थीं ।दूरदर्शन का कोई हास्य कवि सम्मेलन भी हुल्लड़ जी के बिना अधूरा समझा जाता था। इस तरह अपनी रचनाओं के माध्यम से हुल्लड़ मुरादाबादी ने पूरे देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की ।
एटा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं जे एल एन कालेज के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ प्रेमी राम मिश्र ने कहा कि हुल्लड़ मुरादाबादजी का नाम स्मरण होते ही चेहरे पर  मुस्कुराहट आ जाती है -जादू वह जो सिर पर चढ़कर बोले !कौन जानता था कि श्रीसरदारी लाल चड्ढा, बर्तन व्यापारी का लाड़ला पुत्र सुशील कुमार चड्ढा एक दिन हुल्लड़ मुरादाबादी बनकर मुरादाबाद की शान बन जाएगा! 29 मई 1942 में गुजरांवाला पाकिस्तान में जन्मे हुल्लड़ जी यहां आकर मुरादाबादी संस्कारों में रस बस गए थे। यहीं उन्होंने एम ए हिंदी तक की शिक्षा ग्रहण की। धन्य है पारकर इंटर कॉलेज के हिंदी अध्यापक पंडित मदन मोहन व्यास जी ,जिन्होंने अपनी साहित्य और संगीत कला से सुशील कुमार चड्ढा को तराश कर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहचान बनाने में मार्गदर्शन दिया।संत कबीर ने उचित कहा है- गुरु ज्ञाता परजापति गढले कुंभ अनूप। हुल्लड़ जी ने इस कथन को चरितार्थ करा दिया। वर्ष 1962 के लालकिला कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि  रामधारी सिंह दिनकर जी की अध्यक्षता में उन्होंने ओज और राष्ट्रीय चेतना की रस वर्षा कर जो प्रशंसा अर्जित की थी ,उसके बाद कौन सोच सकता था कि वह हास्य रस की कविता के शिखर पुरुष बन जाएंगे! उनकी जुझारू मनोवृत्ति और बहुमुखी प्रतिभा ने उन्हें फिल्म जगत में सम्मान प्रदान कराने में योगदान दिया था। अपनी प्रतिभा के बल पर वे अनेक फिल्मों में गीत लेखन और अभिनय के द्वारा चर्चित हुए ।उनमें  अभिनय के संस्कार  तो  विद्यार्थी जीवन में ही पल्लवित  और पुष्पित हो गए थे ,जहां उन्होंने  अनेक नाटकों में  नायक की भूमिका  में भूरि भूरि प्रशंसा  प्राप्त की थी।  फिल्म जगत के सियाह पक्ष से समझौता न कर पाने के कारण वे पुनः मुरादाबाद आ गए और फिर से अपनी कवि सम्मेलनों की यात्रा पर उत्तरोत्तर आरूढ़ होते चले गये। आगे चलकर उनका नाम  कवि सम्मेलनों की प्रतिष्ठा और सफलता का पर्याय बन गया । भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में हास्य रस को एक सुखात्मक रस कहा है ।उनके अनुसार इसकी उत्पत्ति श्रृंगार रस से हुई है। साहचर्य भाव से हास्य रस श्रृंगार ,वीर, अद्भुत, करुण आदि  रसों का भी  पोषक है ।आपकी कविताओं ने इस सत्य का प्रमाण प्रस्तुत किया है।     हिंदी साहित्य में हास्य रस का शुभारंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र के काल से हो गया था।उन्होंने हास्य रस पर पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। यह परंपरा निरंतर गतिशील है ।हुल्लड़जी की हास्य रस की श्रेष्ठता का यह प्रमाण है कि साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उनकी रचनाओं को विशेष स्थान प्राप्त होता था। उनके 10 से अधिक कविता संग्रह अनेक सीडी, कैसेट आदि आज भी देश विदेश में लोगों को गुदगुदाती रहती हैं ।
समूह के संस्थापक वरिष्ठ साहित्यकार बलराम सरस ने कहा कि वह भी क्या जमाना था जब मंच पर चार नाम हास्य व्यंग्य और फुलझड़ियों के लिए कवि सम्मेलनी श्रोताओं के दिल और दिमाग में छाये रहते थे। काका हाथरसी,बाबा निर्भय हाथरसी,शैल चतुर्वेदी और हुल्लड़ मुरादाबादी। हुल्लड़ जी के सानिध्य में मंच साझा करने का अवसर तो मुझे नसीब नहीं हुआ लेकिन एटा प्रदर्शनी के कवि सम्मेलनों में श्रोता की हैसियत से बहुत बार सुना। एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में बहुत पढ़ा। साप्ताहिक हिन्दुस्तान का होली विशेषांक तो हुल्लड़ जी के बिना पूरा होता ही नहीं था। मंच पर बोलते हुल्लड़ कवि की छवि आज भी जहन में जिन्दा है।
बदायूं के वरिष्ठ कवि उमाशंकर राही ने कहा कि स्वस्थ हास्य के सिद्धहस्त अंतरराष्ट्रीय कवि हुल्लड़ मुरादाबादी जी एक ऐसा व्यक्तित्व थे  जो लोगों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । गोरा चिट्टा बदन, चेहरे पर हर समय मुस्कुराहट, जिससे भी मिलते थे खुले दिल से मिलते थे कविताओं में भी उनके व्यवहार की झलक दिखलाई देती थी मुझे भी उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला है उनकी आत्मीयता उनका आत्मीय व्यवहार सदैव स्मरणीय रहने वाला रहता था । आदरणीय डॉ उर्मिलेश शंखधार, डॉ विजेंद्र अवस्थी जी उनको बदायूं में होने वाले कवि सम्मेलन पर बुलाते थे । पूज्य गुरुदेव डॉ बृजेंद्र अवस्थी जी को वह अपना गुरु मानते थे । वह अनेक बार उनके घर भी आए । मेरी भी वहां अक्सर उनसे मुलाकात होती थी । उनसे बात करके मन प्रसन्न हो जाता था । ऐसे व्यक्तित्व को भला कैसे भुलाया जा सकता है। हुल्लड़ जी को मैंने सुना तो अनेक बार था लेकिन उनको पढ़ने का अवसर प्रथम बार मिला है ।
नई दिल्ली की कवियत्री आशा दिनकर आस ने कहा कि  उनके व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में खूब पढ़े हैं । उनकी रचनाएं इतनी कुशलतापूर्वक और आम भाषा में रची हुई होती थी कि आम आदमी को भी वह अपनी जैसी बात लगती है, ये है हुल्लड़ मुरादाबादी जी के लेखनी का जादू जो सबके सर चढ़कर बोलता है | तालियों और दाद के ज़रिए उन तक पहुंचता था | यही कारण है उन्होंने हिंदुस्तान में और हिंदुस्तान के बाहर भी अपने हास्य और व्यंग्य की कविताओं से खूब धूम मचायी । मैं भी हुल्लड़ मुरादाबादी जी को हास्य और व्यंग्य कवि के रूप में जानती थी लेकिन जब ये जानकारी हुई कि हुल्लड़ जी ने ग़ज़लें भी खूब लिखीं हैं तो उन्हें पढ़कर जानने की जिज्ञासा हुई कि उनका गजलकार वाला अवतार कैसा होगा । उनकी ग़ज़लों को कम आंकना हमारी भूल होगी सरल कहना और सहज लिखना केवल हुल्लड़ मुरादाबादी जी ही कर सकते हैं  सरलता और सहज लेखन के कारण ही हुल्लड़ मुरादाबादी जी जन-जन में मशहूर हुए । उनकी रचना एक अनपढ़ आदमी और गैर साहित्यिक पारखी आदमी को भी भली प्रकार समझ में आती है | सबकी बात को अपनी कलम से पन्नों पर उतार देना एक अद्भुत स्मरणीय सृजन है ।
कानपुर के साहित्यकार जयराम जय  ने कहा कि
हुल्लड़ मुरादाबादी हास्य रसावतार थे। मैंने देखा है वह जिस मंच पर होते थे वहां उनको सुनने के लिए लोग प्रतीक्षा में सुबह तक बैठे रहते थे। हुल्लड़ मुरादाबादी साहब की हास्य व्यंग की रचनाएं सीधे लोगों के दिलों तक उतरती थी और लोग आनंद लेकर ठहाके लगाते थे ।उनके कविता   पढ़ने का अंदाज अलहदा था। वह अपनी प्रस्तुति बड़े ही नाटकीय शैली में देते थे जिससे वह और प्रभावी हो जाते थे । हुल्लड़ मुरादाबादी कभी हूट नहीं हुए। वह हास्य व्यंग्य की रचनाओं के अतिरिक्त  गीत और कविता की अन्य विधाओं पर भी अपनी कलम चलाने में सफल रहे हैं ।
कवियत्री नूपुर राही (कानपुर) ने कहा कि हुल्लड़  जी मेरे पिता  पं.देवीप्रसाद राही जी के परममित्र थे ज्यादातर मंच दोनों ने साथ में साझा किए। पिता जी अक्सर उनको कानपुर अपने संयोजन में होने वाले कवि सम्मेलनों में बुलाते थे और वह हमारे घर पर ही ठहरते थे। ज्यादातर लोग हुल्लड़ जी को हास्य कवि समझते हैं , पर उनकी ग़ज़लें और कुन्डलियां कमाल की होती थी। जब हुल्लड़ जी घर में आते थे उस समय मैं बहुत ही छोटी थी पर मुझे उनकी एक कविता आज तक याद है जो कुछ इस तरह थी "एक टूटी खाट और हम पाँच"।
मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि बचपन से ही टी.वी.में कवि सम्मेलन आने पर उसे तल्लीनता से देखने वाली घर भर में मैं अकेली दर्शक होती थी।पर टीवी पर हुल्लड़ जी के आने पर दर्शकों की संख्या बढ़ जाती थी,जिसमें मेरे डैडी भी होते।तब शायद मैं मुरादाबाद से भी परिचित नहीं थी लेकिन तब कहाँ पता था कि हुल्लड़ मुरादाबादी जैसे जिस कवि को हम इतने चाव से सुन रहे हैं,कभी उनके ही मुरादाबाद में बसना होगा । हुल्लड़ जी को सुनना,पढ़ना चेहरे पर मुस्कान ला देता था,लेकिन यह हास्य फूहड़ नहीं था और न ही केवल मनोरंजन मात्र।वे समाज की विद्रुपताओं को हास्य की कोटिंग में लपेटकर इस तरह पेश करते कि जब यह कोटिंग उतरती तो  विद्रुपताओं का नग्न स्वरूप मस्तिष्क को कचोटने लगे और हम सोचने को मजबूर हों।वे निश्चित ही हास्य व्यंग्य के बड़े रचनाकार थे और उनके द्वारा प्रयुक्त हर विधा में हास्य व्यंग्य का पुट यत्र तत्र मिल ही जाता है।
जयपुर के वरिष्ठ साहित्यकार वरुण चतुर्वेदी ने अपने संस्मरण साझा करते हुए कहा बात  सन् १९६८ की है। उस समय मैं १८ वर्षीय आयु का कालेज विद्यार्थी हुआ करता था। यह बात भरतपुर में प्रतिवर्ष दशहरे पर लगने वाले जशवंत प्रदर्शनी के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन की है जिसमें भरतपुर के केवल तीन कवियों को काव्यपाठ का अवसर दिया गया था जिनमें स्व.धनेश 'फक्कड़',स्व.मूल चंद्र 'नदान' और मैं मंच पर उपस्थित थे। उस कवि सम्मेलन की टीम में देश के सिरमौर गीतकारों व सिरमौर हास्य-व्यंग्य कवियों का जमघट था।गीतकारों‌ में, स्व.नीरज जी,स्व.शिशु पाल निर्धन जी, आदरणीय बड़े भाई सोम जी, हास्य-व्यंग्य कवियों में स्व.काका हाथरसी जी, स्व.निर्भय हाथरसी जी, जैमिनी हरियाणवी जी,स्व.अल्हड़ बीकानेरी जी,स्व. मुकुट बिहारी 'सरोज' जी, स्व.विश्वनाथ विमलेश जी,स्व. हुल्लड़ मुरादाबादी जी व वीर रस के कवियों में स्व.देव राज दिनेश जी,स्व.राजेश दीक्षित जी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन सुविख्यात मंच संचालक स्व.बंकट बिहारी जी पागल कर रहे थे।कवि सम्मेलन निरंतर यौवन की ओर बढ़ रहा था। जब स्व. हुल्लड़ जी को काव्यपाठ के लिए बुलाया गया तो उनका नाम सुनते ही‌ करीब २५/३० हजार श्रोताओं ने तालियों से जो स्वागत किया वह अविस्मरणीय है।तत्पश्चात उनके काव्यपाठ का जादू मैंने मंचस्थ कवि के रूप में देखा वह अद्भुत था। हुल्लड़ जी से सान्निध्य का यह पहला अवसर था।चूँकि वह हास्य-व्यंग्य के कवि थे और मैं भी हास्य-व्यंग्य की पैरौडियाँ लेकर मंच पर आया था तो उनके साथ कितने कवि सम्मेलन शेयर किये यह अब याद नहीं।
सब टी वी के बहुत खूब और वाह वाह क्या बात है ‌सैट‌ पर भी मिलना भी होता रहता था।
उनके जीवन काल में ही‌ उनके सुपुत्र स्व.नवनीत ने भी हास्य कवियों में अच्छा स्थान बना लिया था। लेकिन क्रूर काल ने उसे अल्पायु में ही ग्रस लिया।
उसके साथ किया मथुरा का अखिल भारतीय कवि सम्मेलन आज भी स्मृतियों में घूमता है।उस कवि सम्मेलन के करीब एक महीने बाद ही उसका स्वर्गवास हो गया था।
हास्य व्यंग्य के प्रख्यात साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि मैं , सन् १९७० में ही अपनी मित्र मंडली के साथ हुल्लड़ जी के संपर्क में आ गया था।श्रद्धावनत उनके प्रति यही कह सकता हूं कि यदि सुशील कुमार चड्ढा हुल्लड़ मुरादाबादी न हुए होते तो कारेन्द्र देव त्यागी मक्खन मुरादाबादी न हुआ होता। हुल्लड़ जी को जीने के लिए प्रसिद्धि का चरम मिला है साथ ही इसी दुनिया में पीने के लिए वह भी,जो उन्हें नहीं मिलना चाहिए ।
आगरा की ऋचा गुप्ता नीर ने कहा कि कवि सम्मेलन के बड़े कवि मंच पर वही सुनाते हैं जो श्रोता सुनना चाहता है। इससे उनकी मूल रचनाओं से श्रोता वंचित रह जाता है। धन्यवाद प्रगति मंगला परिवार जो ऐसे कवियों से परिचित कराता है जिनकी रचनाओं से हम अब तक वंचित रहे हैं। हुल्लड़ जी के व्यंग्य, कुन्डलियां, गजलें पढ़ कर बहुत कुछ ज्ञान लाभ हुआ।         
मुरादाबाद के युवा ग़ज़लकार जिया जमीर ने कहा कि मैं  हुल्लड़ मुरादाबादी जी को हास्य और व्यंग्य कवि के रूप में जानता था। मगर जब जानकारी हुई कि हुल्लड़ जी ने ग़ज़लें भी कहीं हैं तो उन्हें पढ़ा। दो चार जगहों को छोड़ कर उन ग़ज़लों में कहीं भी कोई कमी नहीं है, अगर व्याकरण की बात की जाए। हैरत होती है कि क्या आसान ज़बान, क्या आम बोलचाल की हिंदुस्तानी ज़बान का इस्तेमाल हुल्लड़ जी ने अपने यहां किया है। अगर कोई यह देखना चाहिए और सवाल पूछना चाहे कि हुल्लड़ मुरादाबादी इतने मशहूर क्यों हुए। तो उसका सबसे अच्छा जवाब उनकी ग़ज़लें हैं और ग़ज़लों की यह ज़बान है। बिल्कुल सामने के बोलचाल वाले बल्कि कहना चाहिए जिन्हें हम साहित्यकार गैर साहित्यिक अल्फ़ाज़ कहते हैं उनको उठा कर उन्होंने साहित्यिक अल्फ़ाज़ बना दिया। उनके मक़बूले-आमो-ख़ास होने की सबसे बड़ी वजह मुझे लग रही है कि उनकी साहित्य और व्यंग पर पकड़ तो थी ही, इसके अलावा उन्होंने जितनी सादा ज़बान में उन्होंने अपने एहसासात को शायरी और कविता बनाया, वो कमाल किया। यह बड़ा मुश्किल काम है। सड़क पर चलने वाला एक आम आदमी जिसे सिर्फ़ आम ज़बान आती है उस तक उनकी रचनाएं पहुंचती थीं और वह आनंदित होता था और उसका आनंद तालियों और दाद के ज़रिए उन तक पहुंचता था। यही सबब है कि उन्होंने हिंदुस्तान में और हिंदुस्तान के बाहर भी अपने हास्य और व्यंग्य की कविताओं और रचनाओं से धूम मचायी।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि हुल्लड़ जी की रचनाएं पढ़ने के बाद अंदाजा होता है कि हुल्लड़ जी की मकबूलियत का राज उनकी भाषा में छिपा हुआ है। उन्होंने आम आदमी के दुख दर्द को समझा और उसी की भाषा में पेश करके यह सिद्ध कर दिया कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
उनकी रचनाएं बताती है कि उन्होंने बड़ा बनने के लिए शायरी नहीं की बल्कि उन्होंने बुनियाद के उन पत्थरों को देखा जिस पर समाज की नींव टिकी होती है, उनकी पीड़ा को समझा जो समाज के कर्णधार होते हैं, उन्होंने समाज को हर दृष्टि से देखा समझा और उसे आत्मसात किया फिर उन तमाम कड़वाहटों को हास्य व्यंग की चाशनी लगाकर पेश किया क्योंकि उनकी शायरी बामकसद थी, सिर्फ हंसना हंसाना , व्यंग के तीर चला ना ही उनका मकसद नहीं था बल्कि समाज को सही दिशा देना भी उनका मकसद था। अतः जो बात उन्होंने कही वह दिल से कही लिहाजा दिलों तक पहुंची, जिस दिल तक भी पहुंची उस दिल में उनके लिए घर बनता चला गया और वह हर दिल की आवाज बन गए। उन्होंने समाज को एक सही दिशा में ले जाने का काम किया जो एक सच्चे साहित्यकार की पहचान है। अतः वह अपने इस कार्य के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे,जब जब हास्य व्यंग का इतिहास लिखा जाएगा वह उसमें अवश्य ही जगह पाएंगे।
मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा कि आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी का मुझे बहुत स्नेह मिला। बात 1990-91 की है। मैं अमर उजाला में सर्विस करता था। ड्यूटी रात की होती थी, दोपहर में फ़्री होता था। उस समय हुल्लड़ जी का मकान बन रहा था। मोबाइल तो उस समय थे नहीं। शाम के समय अमर उजाला में ही हुल्लड़ जी का फोन मेरे पास पहुंच जाता था- "नाज़ भाई, कल हमारी तरफ़ आइएगा। मैं पहुंचता था और घंटों तक साहित्य पर चर्चा होती रहती थी। हुल्लड़ जी का सान्निध्य मुझे लगातार मिला। एक-दूसरे की रचनाएं सुनते-सुनाते रहते थे। उस समय हुल्लड़ जी का ग़ज़ल लेखन आरंभ हुआ। बातचीत के दौरान उनसे ग़ज़ल पर चर्चा भी होती थी। मुझे उनसे सदैव बड़े भाई का प्यार मिला। मैं उनके पारिवारिक सदस्य की तरह था। हुल्लड़ जी मंच के स्टार थे। लोग उनको सुनने के लिए देर रात तक बैठे रहते थे। महानगर में विशेष अवसरों पर आयोजित होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों में वह मुझे अपने साथ ले जाते थे। मैं भी उस समय मुरादाबाद में नवागत था। हुल्लड़ जी मुझे बाहर भी कई कार्यक्रमों में अपने साथ ले गए। उनकी एक विशेषता मैंने बड़ी शिद्दत के साथ महसूस की। यह उनका प्यार ही था कि अन्य शहरों में आयोजित कार्यक्रमों में ले जाते समय भी वह मुझे ख़र्च नहीं करने देते थे। एक सुंदर घटना याद आ रही है। अक्टूबर 1992 में मेरे जुड़वां पुत्र पैदा हुए। उनमें जन्म के बाद ही एक बच्चा अत्यंत बीमार पड़ गया, तो मैंने उसे डॉक्टर वी.के. दत्त के क्लीनिक में भर्ती करा दिया। हुल्लड़ जी को पता चला तो वे क्लीनिक में आए, मुझसे मिले और ₹1000 मेरी जेब में डाल दिए। मैंने पूछा भाई साहब यह किसलिए, तो बोले कोई बात नहीं, बाद में मुझे लौटा देना। उसके बाद वह चले गए। तीन-चार दिन तक अस्पताल में रहने के बाद जब डिस्चार्ज होने के समय बिल बना तो वह बहुत मामूली था। दत्त जी जैसे महंगे डॉक्टर का बिल इतना कम देखकर मुझे हैरत हुई। मुझे लगा कि इसमें कुछ जोड़ने से शेष रह गया है। मैंने कंपाउंडर से कहा कि भाई पूरा बिल लेकर आइए। उसने कहा कि आपका पूरा बिल यही है। मैं जब डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो राज़ खुला। डॉक्टर साहब बोले कि हुल्लड़ मुरादाबादी जी आए थे और आपके बारे में कह रहे थे कि यह मेरे छोटे भाई हैं, ख़याल रखना। तब मुझे समझ मे आया कि मेरा बिल इतना कम क्यों है।

 जयपुर की साहित्यकार डॉ सुशीला शील ने कहा कि
मैं 12 वीं कक्षा में पढ़ती थी,तब सुनी थीं उनकी कविताएं टेपरिकार्डर के माध्यम से अपने मामाजी के यहाँ ।नहीं मालुम था कि ईश्वर सौभाग्य देगा सुनाने वाले से न सिर्फ मिलने का,अपितु  उनके साथ बहुत से मंचों पर काव्य-पाठ करने का और उनके आमंत्रण पर मुरादाबाद में कविसम्मेलन पढ़ने का,उनके घर आतिथ्य प्राप्त करने का । मुझे पहली बार कहाँ मिले ये तो याद नहीं,परन्तु उनके स्नेहिल निमंत्रण पर मुरादाबाद उनके घर रुकना,जिसमें श्रद्धेय कृष्णबिहारी नूर जी ,सोम ठाकुर जी,कुँवर बैचैन जी,सुरेन्द्र चतुर्वेदी जी,सुरेन्द्र सुकुमार भी थे। दोपहर का भोजन हुल्लड़ जी के घर में ही था । मैंने भी रसोईघर में सहयोग किया और सबने मिलकर भोजन का आनंद लिया । रात्रि में कविसम्मेलन बहुत शानदार रहा। उनकी बहुत सी कविताओं में से  एक प्रसिद्ध कविता थी- अच्छा है पर कभी-कभी
  निम्बाहेड़ा के कविसम्मेलन में उन्होंने यह कविता पढ़ी,तुरंत मेरा नाम पुकारा गया और मेरे आशु रचनाकार मन ने दो पंक्तियाँ सृजित कर हास्य के लिए सुनाईं-
  बहुत बार सुन ली ये कविता,अब तो नया सुनाओ जी
श्रोताओं से पंगा लेना अच्छा है पर कभी-कभी ।।
   हँसी के फुहार उठी और मैंने अपना वास्तविक काव्यपाठ के बाद मंच पर बैठकर उनसे क्षमा याचना की। बड़े सरलता से उन्होंने कहा-अरे कोई बात नहीं,ये तो चलता है,चलता रहना चाहिए पर मुझे अच्छी लगी तुम्हारी पँक्तियाँ,खूब लिखो और आगे बढ़ो ।
डॉ रंजना शर्मा, कोलकाता ने कहा कि पटल पर उनकी कविताएं पढ़ कर सचमुच आनंद से भर उठी । कई साल पहले घर में दो पत्रिकाएं धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान आती थीं। हिंदी प्रदेश से बंगाल पिताजी के तबादले के कारण चले आने से पत्रिकाएँ  बमुश्किल मिलती थी। उनमें हुल्लड़ जी की कविता हम मजे लेकर पढ़ते थे, आपने पुरानी याद ताजी कर दी।
गुना( मध्य प्रदेश) की साहित्यकार नीलम कुलश्रेष्ठ ने कहा कि मुझे भी बस उन्हें टी वी कार्यक्रमों में सुनने और समाचार पत्रों में पढ़ने का ही अवसर मिला था। इस पटल पर उनकी रचनाएं एवं साहित्य कीर्ति को पढ़कर आज उनकी रचनाधर्मिता से खासा परिचय हो गया। उनकी रचनाएं वास्तव में ऐसी हैं जिन्हें लोग आज भी  सुनकर या पढ़ कर ठहाके लगाने पर विवश हो जाते हैं।
साहित्यकार  डॉ प्रतिभा प्रकाश , रोपड़ (पंजाब) ने प्रगति मंगला पटल की सराहना करते हुए कहा कि इस आयोजन के माध्यम से  मैंने आज पहली बार हुल्लड़ मुरादाबादी के बारे में गम्भीरता से सोचा समझा और जान सकी । इसके लिए मै सभी प्रस्तुति कर्ताओं का आभार व्यक्त करती हूं ।
जयपुर की साहित्यकार प्रशंसा श्रीवास्तव ने कहा कि हुल्लड़ जी मेरे पिता स्व० कवि बंकट बिहारी "पागल" जी के परममित्रों मे से एक थे , ज्यादातर मंच दोनों ने साथ में साझा किए।  उनके दोहे सुनकर श्रोता हंसते हंसते लोटपोट होने लगते थे। हुल्लड़ चाचा के कुछ ऐसे ही दोहों पर नजर डालिए-
कर्जा देता मित्र को वो मूरख कहलाय
महामूर्ख वो यार है
जो पैसे लौटाय
पुलिस पर व्यंग्य करते हुए लिखा है-
बिना जुर्म के पिटेगा
समझाया था तोय
पंगा लेकर पुलिस से
साबित बचा न कोय
उनका एक दोहा- पूर्ण सफलता के लिए, दो चीजें रख याद, मंत्री की चमचागिरी, पुलिस का आशीर्वाद।’ राजनीति पर उनकी कविता- ‘जिंदगी में मिल गया कुरसियों का प्यार है, अब तो पांच साल तक बहार ही बहार है, कब्र में है पांव पर, फिर भी पहलवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं...।’ उन्होंने कविताओं और शेरो शायरी को पैरोडियों में ऐसा पिरोया कि बड़ों से लेकर बच्चे तक उनकी कविताओं में डूबकर मस्ती में झूमते रहते थे ।
नोएडा की साहित्यकार
नेहा वैद का कहना था कि हुल्लड़ जी की लेखनी को एक साथ इतने रुपों में पढ़ना जानना, बड़ी सुखद अनुभूति है। चंदौसी की वार्षिक छपने वाली स्मारिका 'विनायक' में मेरे गीतों को भी छपने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। 1982-83 में इगलास में उनके साथ मंच पर होना बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उनके सुपुत्र नवनीत जी के साथ कुछ वर्ष पहले जब मैं भी  मुंबई गोरेगांव ही रहती थी, स्थानीय मंचों पर कई बार गीत पढ़ें। आज आदरणीय हुल्लड़ मुरादाबादी जी को समर्पित पटल सचमुच धन्य हो रहा है। आप सभी विद्वान-साहित्यकारों द्वारा संचालित/सांझा की जा रही उनकी रचनाओं और संस्मरणों से मन अभिभूत हो रहा है।
गुना (मध्य प्रदेश) की रानी शक्ति भटनागर ने अतीत की स्मृतियां साझा करते हुए कहा कि हुल्लड़ मुरादाबादी जी  उनके भाई श्री ज्ञान स्वरूप भटनागर जी की  के सहपाठी व मित्र रहे । उन्होंने उनके कॉलेज के समय का एक संस्मरण भी प्रस्तुत किया ।
हुल्लड़ मुरादाबादी जी की सुपुत्री मनीषा चड्डा ने कहा कि ऐसा कोई समय नही होता था कि पापा लिख न रहे हों।चाहे रात के 2 बजे हों अगर उन्हें कोई पंक्ति सूझ गयो तो उठ कर पूरी कविता पूरी करते थे।ट्रैन की टिकट हो या कोई रसीद जो जेब में होता था उसपर भी लिख देते थे।मंच पर बैठे बैठे भी उसी वक़्त कविता बना लेते थे। उनका जन्म ही लेखन के लिए हुआ था। उनका प्रस्तुतिकरण बहुत अच्छा था।अंत समय तक वो लिखते रहे और ज़िद करते थे कविसम्मेलन में जाने के लिए। घर में ठहाकों की गूंज होती थी उनकी और भैया की।वो हमारे बीच में अपनी अनगिनत कविताओं ,गीतों,और ग़ज़लों के रूप मे हमेशा जीवित रहेंगे।