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मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार दुष्यन्त कुमार पर केंद्रित मुरादाबाद के साहित्यकार एवं पुरातत्ववेत्ता सुरेन्द्र मोहन मिश्र का संस्मरणात्मक आलेख... यह प्रकाशित हुआ है कन्हैया लाल नंदन के संपादन में नयी दिल्ली से प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका सारिका के संस्मरण विशेषांक 1 जनवरी, 1982 के पृष्ठ 26- 27 पर


चंदौसी का परदेसी : दुष्यंत कुमार

अलस्सुबह चना पीसते मुलायम हाथ

✍️सुरेंद्र मोहन मिश्र

(कोई भी रचनाकार जब पाठकों के बीच जाना जाने लगता है तब तक वह काफी परिपक्व हो चुका होता है. लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए उसे किन रास्तों से गुजरना पड़ा, यह जानकारी भी पाठक के लिए उसकी रचनाओं से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती. दुष्यंत कुमार के बारे में ऐसी ही कुछ जानकारियां दे रहे हैं उनके छात्र जीवन के एक साथी.)

बात लगभग सन् '48 की है. मैं तब चंदौसी के एस. एम. कालेज की आठवीं कक्षा का छात्र था. उन्हीं दिनों पुलिस और छात्रों का संघर्ष बरेली में हुआ. साइकिल पर दो सवारियां बैठने पर प्रतिबंध लगाया गया था. इसी प्रतिबंध को लेकर पुलिस छात्र संघर्ष हुआ. सहानुभूति में चंदौसी के छात्रों ने हड़ताल की, नगर के सभी बाजार बंद कराये गये. पांच छात्र स्थिति का निरीक्षण करने बरेली गये. कालेज के प्रांगण में सैकड़ों छात्र बरेली के समाचार पाने के लिए एकत्रित थे. तभी घोषणा हुई कि कवि दुष्यंत कुमार 'परदेसी' बरेली का विवरण कविता में सुनायेंगे, अभी थोड़ी प्रतीक्षा करें. फिर घोषणा हुई कि दुष्यंत कुमार 'परदेसी' अपनी कविता सुनाने आ रहे हैं.

     सारी सभा की नजरें हैली हॉस्टल के मुख्य द्वार की ओर उठ गयीं. मैं भी उस सभा में था. तब तक मेरे काव्य-जीवन का आरंभ नहीं हुआ था. बड़ी जिज्ञासा थी कि कवि नाम का प्राणी कैसा होता है?

    तभी शोर मचा 'कविजी आ रहे हैं'. मैंने देखा - गौर वर्ण का एक तरुण खद्दर का कुर्ता - पाजामा और जवाहर-कट पहने बड़ी मस्ती से भीड़ चीरता हुआ मंच की ओर बढ़ रहा है.

      कविता आरंभ हुई. उस कविता में पुलिस के अत्याचारों का अतिशयोवित-पूर्ण विवरण था.

    कविता कैसी थी, यह मुझे अब स्मरण नहीं है पर कवि का व्यक्तित्व और उसका प्रभाव मेरे जीवन पर अमिट छाप छोड़ गये. इसी वर्ष मेरे काव्य-जीवन का भी आरंभ हुआ और मेरी प्रथम कविता दैनिक 'सन्मार्ग' (दिल्ली) में छपी.

    चंदौसी से इसी वर्ष एक मासिक पत्रिका 'पुकार' का प्रकाशन आरंभ हुआ. संपादक थे स्वर्गीय रामकुमार राजपूत. यह पत्रिका एक वर्ष चली. दुष्यंत कुमार इसमें लिखते भी थे और संपादन में भी सहयोगी थे. मैं प्रायः पत्रिका के कार्यालय में जाता. मेरी आयु उस समय तेरह वर्ष की रही होगी. उन दिनों 'परदेसी' की लोक-प्रियता भी चंदौसी में खूब थी. स्थानीय आर्य-समाज मंदिर में गोष्ठियां होतीं. मैं तो उन दिनों अपने पारिवारिक बंधनों के कारण किसी भी गोष्ठी में सम्मिलित नहीं हो पाता था पर मित्रों से इतना पता मिलता रहता था कि 'परदेसी' पर मुग्ध होनेवाली लड़कियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है.

    दुष्यंत चंदौसी में उस समय नायक का जीवन जी रहे थे. उनके पास आने वाले प्रेम-पत्रों की संख्या काफी बड़ी थी. दुष्यंतजी के दूसरे मित्र महावीर सिंह उन दिनों बड़ी अच्छी कविता कर रहे थे. ये दोनों घंटों बैठे-बैठे अपने प्रेम-प्रसंगों की चर्चा करते रहते थे. मैं तब तक प्रेम की पीर से परिचित नहीं था. मुझे इन दोनों की बेचैनी समझ में नहीं आती थी. दोनों ही कवि विवाहित थे. घर पर सुशील और सुंदर पत्नियां होते हुए भी प्रेमिकाओं के प्रति उनका आकर्षण आज मुझे जितना स्वाभाविक लगता है, तब नहीं लगता था.

    मुझे ठीक याद है कि दुष्यंतजी की एक प्रशंसिका इन पर इतना अधिक पागल हो गयी थी कि इनके साथ भागने को तैयार हो गयी थी. सारी योजना बन गयी. प्रातः 4 बजे की गाड़ी से दोनों को मुरादाबाद होकर कहीं निकल जाना था. रात्रि को महावीर सिंह ने देर तक दुष्यंतजी को समझाया. पत्नी के प्रति ही कर्तव्य की भावना को सजग किया. दुष्यंतजी तो मान गये पर इस घटना के दो वर्ष बाद ठा. महावीर सिंह ने अपनी एक प्रेमिका के द्वार पर सत्याग्रह कर ही दिया.

    कई हजार उत्सुक दर्शकों के बीच ठा. महावीरजी धरना दिये हुए थे. एक तो कन्या ब्राह्मणों की थी, दूसरे ठा. महावीरजी विवाहित थे, अतः उनके इस कृत्य में कोई भी सहयोगी नहीं हो सकता था. मैं इस दृश्य को प्रत्यक्ष देखना चाहकर भी प्रत्यक्ष न देख सका था पर इतना पता लगा कि लड़की पर जब मां-बाप ने बहुत दबाव डाला तो उसने द्वार की झिरखी के पीछे खड़े होकर कह दिया, "मेरा आपसे कोई संबंध नहीं है, न मैं आपके साथ जाना ही चाहती हूं, आप यहां से चले जायें." ठाकुर साहब उस समय यह कहकर चले गये, "प्रिय, मैं जानता हूं, ये सारे शब्द तुमसे बलात कहलवाये जा रहे हैं. तुम मेरी हो और मेरी ही रहोगी."

   उसी रात को 2 बजे के लगभग ठाकुर साहब घोड़ा-तांगा लेकर आये. कन्या को शायद किसी माध्यम से सूचना दे दी गयी थी. वह छत पर खड़ी प्रतीक्षा में थी. कन्या को छत से ही तांगे पर उतार लिया था. वह कन्या आज भी उनकी पत्नी है. कई बच्चों की मां है. दोनों पत्नियां साथ-साथ रह रही हैं.

  ..ठाकुर साहब छात्र-जीवन में अच्छे कवि थे. उनकी एक कविता कभी बड़ी प्रसिद्ध रही :

यौवन क्षणिक खुमार

कामिनी, करो न इतना मान.

दुष्यंतजी के एक कवि-मित्र थे-अभिमन्यु कुमार, आज भी हैं पर कविता नहीं लिखते.

      चंदौसी का एस. एम. इंटर कॉलिज हिंदी के अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों, कवियों और पत्रकारों का आरंभिक साधना-स्थल रहा है. हिंदी के मूर्धन्य आलोचक डा. नगेंद्र जब यहां छात्र थे तो नगेंद्र नागायच 'अमल' के नाम से कविता करते थे.

    स्व. श्री भारतभूषण अग्रवाल और डा. रामानंद तिवारी की आरंभिक साधना-स्थली चंदौसी ही रही. पत्रकारों में श्री महावीर अधिकारी का नाम लिया जा सकता है. दुष्यंत कुमार के काल में ही हिंदी के वरिष्ठ और अपने ढंग के अकेले ही गीतकार रामावतार त्यागी भी अपने गीतों की भूमिका तैयार कर रहे थे. कवि सम्मेलनों के अलावा बालीबाल  टूर्नामेंट में भी उनकी आशु-कविता जो खिलाड़ियों से संबंधित होती थी, सुनने को मिल जाती थी.

     दुष्यंतजी चंदौसी में गीत लिखते थे. पूरा नाम था दुष्यंत कुमार सिंह त्यागी. यों उनका 'परदेसी' उपनाम ही अधिक लोकप्रिय रहा.

     चंदौसी से दुष्यंत कुमार प्रयाग विश्वविद्यालय पहुंचे और वहां से "विहान' नामक पत्रिका का एक अंक निकाला जिसमें कमलेश्वर और मार्कडेय भी सहयोगी थे. आगे चलकर ये तीनों ही संपादक अपनी विधाओं के अग्रणीय लेखक बने.

    दुष्यंत कुमार की मुक्तछंद की कविता प्रथम बार 'विहान' में ही देखने को मिली. कविता कुछ यों थी :

पौ फूटी है

दर्द टीसने लग गया, 

अलस्सवेरे बहुत मुलायम हाथ 

चना पीसने लग गया.

चंदौसी के साथ दुष्यंतजी की अनेक मधुर स्मृतियां जुड़ी हुई हैं. जब भी कभी चंदौसी आते थे, अपनी पूर्व प्रेमिकाओं के कुशलक्षेम अवश्य पूछ लेते थे. पीने का शौक प्रयाग की ही देन रहा जिसने मृत्युपर्यंत दुष्यंत को नहीं छोड़ा. यही शौक हिंदी गजलों के इस अकेले मनचले सम्राट को हमारे बीच से असमय उठा ले गया.

    हिंदी संसार का दुष्यंत कुमार, पर चंदौसी का 'परदेसी' इतनी शीघ्र हम सबसे 'परदेसी' हो जायेगा, यह किसे कल्पना थी.

:::: प्रस्तुति::::

 डॉ मनोज रस्तोगी

 संस्थापक

 साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

 8, जीलाल स्ट्रीट

 मुरादाबाद 244001 

 उत्तर प्रदेश, भारत

 वाट्स एप नम्बर 9456687822

मंगलवार, 25 मार्च 2025

साहित्यिक मुरादाबाद और विजयश्री वेलफेयर सोसाइटी की ओर से पं सुरेन्द्र मोहन मिश्र की पुण्यतिथि 22 मार्च 2025 को आयोजित सम्मान समारोह व काव्य गोष्ठी में अमरोहा के इतिहासकार सुरेश चंद्र शर्मा को सुरेन्द्र मोहन मिश्र स्मृति सम्मान से किया गया सम्मानित







मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार, इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की पुण्यतिथि शनिवार 22 मार्च 2025 को  मुरादाबाद मंडल के साहित्य के प्रसार एवं संरक्षण को पूर्ण रूप से समर्पित संस्था साहित्यिक मुरादाबाद और विजयश्री वेलफेयर सोसाइटी की ओर से आयोजित समारोह में अमरोहा के वरिष्ठ इतिहासकार (वर्तमान में गाजियाबाद निवासी) सुरेश चंद्र शर्मा को पं सुरेन्द्र मोहन मिश्र स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया। सम्मान स्वरूप उन्हें मान पत्र, श्रीफल,अंग वस्त्र और सम्मान राशि प्रदान की गई। समारोह की अध्यक्षता साहित्यकार एवं पुरातत्ववेत्ता अतुल मिश्र ने की तथा संचालन डॉ मनोज रस्तोगी एवं विवेक निर्मल ने किया। 

     नवीननगर स्थित मानसरोवर कन्या इंटर कॉलेज में मनोज वर्मा मनु द्वारा प्रस्तुत मां सरस्वती वंदना से आरंभ समारोह के प्रथम चरण में साहित्यकारों ने स्मृतिशेष पं सुरेन्द्र मोहन मिश्र तथा सम्मानित इतिहासकार सुरेश चंद्र शर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला। साहित्यिक मुरादाबाद के संस्थापक डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा 22 मई 1932 को चंदौसी में जन्में पंडित सुरेंद्र मोहन मिश्र ने न केवल साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त की बल्कि इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता के रूप में भी विख्यात हुए। उन्होंने अतीत में दबे साहित्य को खोज कर उजागर किया। आपकी मधुगान, कल्पना कामिनी, कविता नियोजन, कवयित्री सम्मेलन, बदायूं के रणबांकुरे राजपूत, इतिहास के झरोखे से संभल,शहीद मोती सिंह, पवित्र पंवासा, मुरादाबाद जनपद का स्वतन्त्रता संग्राम,  मुरादाबाद और अमरोहा के स्वतन्त्रता सेनानी ,मीरापुर के नवोपलब्ध कवि तथा आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं का प्रकाशन हो चुका है तथा अनेक पुस्तकें अप्रकाशित हैं। आपका देहावसान 22 मार्च 2008 को हुआ।

    सह संयोजक आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने कहा कि 22 दिसंबर 1941 को अमरोहा में जन्में सुरेश चन्द्र शर्मा का जनपदीय इतिहास लेखन के क्षेत्र में सुरेशचन्द्र शर्मा का उल्लेखनीय योगदान रहा है। हिन्दू धर्मग्रंथों का सारतत्व कोश, अमरोहा नगर का प्राचीन इतिहास, मातृस्वरूपा सरस्वती और सारस्वत समाज, सनातन धर्म ग्रंथों में गया श्राद्ध माहात्म्य, सम्भल नगर का प्राचीन इतिहास और सनातन धर्म विषयक शब्द नाम परिचय  आपकी उल्लेखनीय पुस्तकें हैं। इसके अतिरिक्त महाभारत का संख्यावाची कोश पुस्तक अप्रकाशित है।

    सम्मानित इतिहासकार सुरेश चंद्र शर्मा ने जनपदीय इतिहास के पुनर्लेखन और प्रकाशन की आवश्यकता पर बल दिया। 

    कार्यक्रम में स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र की रचनाओं का पाठ भी हुआ। उनके सुपुत्र अतुल मिश्र ने उनके गीत का सस्वर पाठ करते हुए कहा....

जीवन भर ये खारे आंसू ही बेचे हैं

 सपन मोल लेने को

कनक कन गला बेचे, मिट्टी के, पत्थर के

रतन मोल लेने को 

नये पथ बनाने में सुनो, वंशधर मेरे

 कुटिया का तृण-तृण बिक जाये, 

तो क्षमा करना !!

    कार्यक्रम के दूसरे चरण में आयोजित काव्य गोष्ठी में योगेन्द्र वर्मा व्योम ने कहा ....

चलो करें मिलकर सखे, नूतन एक उपाय। 

पुनः लिखें सौहार्द की, खुशबू का अध्याय।।

दुष्यंत 'बाबा' ने कहा ...

देखा  मैंने   गर्त  में,  जाता  हुआ   समाज।

सबका  नायक  बन  गया, तस्कर  पुष्पा राज।।

श्री कृष्ण शुक्ल का कहना था ...

इन जगमग करती सड़कों के पीछे,

कुछ अंधियारी बस्ती भी पसरी हैं,

उस अंधकार में जलते दीपों का,

कोटि-कोटि अभिनंदन करता हूॅं।

नित्य होम श्वासों का करता हूॅं,

नित्य ही जीता, नित्य ही मरता हूॅं

सरिता लाल का कहना था ....

आस्मां छूने की तमन्ना है गर 

कुछ फासले तय करने ही होंगें,

जिन्दगी का कोई जुनून  है गर 

हौंसले तो बुलन्द  करने ही होंगें,

गर ख्वाहिश  है समुन्दर से

सीपियों को खोज लाने की,

तो उस खुदा की इबादत के साथ

गहरे में गोते तो लगाने ही होंगें...

सत्येंद्र धारीवाल ने कहा ....

मैं सदियों से सदियां जी आया, 

सदियां जी लूं सदियों तक।

धरती पर लोगों की सोच चली बस,  

अपने घर से नदियों तक।

हरि प्रकाश शर्मा ने कहा ...

कवि की लेखनी में, 

विद्रोही, कंटीले,जंगल है, 

कहाँ से शब्द चुराने है, 

बस यही उसका चिंतन है

डॉ राकेश चक्र ने कहा ....

सदा स्वस्थ रहना है तो फिर ,

नियमित रह पुरुषार्थ करो।

लो आहार संतुलित नित-दिन,

भाव-कर्म परमार्थ करो।।

श्रम से ही मिलती है मंजिल,

सदा आलसी रोते रहते।

आत्ममुग्धता अतिशय घातक,

दुख जीवन में बोते रहते।।

पूजा राणा ने कहा ....

तुम हो मेरे मन प्राण प्रिय 

 एक बार मिलन को आ जाओ

 बनकर मेरा मधुर गीत

 इस अधर प्रांत पर छा जाओ

डॉ मीरा कश्यप ने कहा

पीत पात पेड़ों के झर रहें हैं डाल से 

सरसराते पत्तों सा झर रहा बसंत है।

फूल सरसों के नये नये फूलों संग 

नई-नई कोपलों में दिख रहा बसंत है ।

डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा ....

कोई तो है, जो बुराई से लड़ना चाहता है

मिज़ाज शहर का जब भी बिगड़ना चाहता है

हवाओ! तुम ही निकालो कोई नई तरकीब

कि ज़र्द पत्ता शजर से बिछड़ना चाहता है 

राहुल शर्मा ने कहा ....

अगर लिखोगे वसीयत अपनी 

तो जान पाओगे ये हकीकत

तुम्हारी अपनी ही मिल्कियत में 

तुम्हारा हिस्सा कहीं नहीं है

ओंकार सिंह ओंकार ने कहा ...                       

भूल जा तू  तूल देना, दोस्तों की भूल को।

 दोस्तों से हाथ अपना, और भी बढ़कर मिला 

 डॉ पुनीत कुमार ने कहा ....

कोई फेसबुक,कोई व्हाट्सएप,

कोई व्यस्त है गेम में

बच्चे बूढ़े सब पागल हैं

मोबाइल के प्रेम में

अलग अलग सबके कमरे हैं

पड़ोसियों से रहते हैं

दिखती है एक साथ फैमिली

केवल फोटोफ्रेम में

कमल शर्मा ने कहा ....

ना कोई पहले मेरे

ना किसी के बाद हूं मैं

आती जाती हर घड़ी में

शाद हूं , आबाद हूं मैं

नाम पीतल का मगर सोना हूं मैं

देख लो मुझको , मुरादाबाद हूं मैं

अशोक विश्नोई ने कहा...

मन में सुंदर स्वप्न सजाएं

हर असमंजस दूर भगाएं

घोर निराशा के तम में सब

आओ ! आशा के दीप जलाएं।

   इनके अतिरिक्त डॉ प्रेमवती उपाध्याय, राजीव सक्सेना, प्रत्यक्ष देव त्यागी, डॉ धनंजय सिंह, रवि चतुर्वेदी, मूलचंद राजू ,इशांत शर्मा इशू , मनोज कुमार मनु, राशिद मुरादाबादी, संजीव आकांक्षी, डॉ ममता सिंह, डॉ अर्चना गुप्ता, राशिद हुसैन, मयंक शर्मा, प्रीति अग्रवाल आदि ने भी काव्य पाठ किया। आभार आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ ने व्यक्त किया ।