✍️अतुल मिश्र
श्री धन्वंतरि फार्मेसी
मौ. बड़ा महादेव
चन्दौसी, जनपद सम्भल
उत्तर प्रदेश, भारत
प्रोजेक्टर अपनी छाया डालकर चुप हो जाता है। ये है मुरादाबाद के प्रसिद्ध कवि सुरेन्द्र मोहन मिश्र। यद्यपि उनका निवास अधिकतर जनपद की तहसील चन्दौसी में ही रहा है किन्तु उनकी पहचान मुख्यतया मुरादाबाद के प्रमुख हास्य-कवि के रूप में ही है और 'हुल्लड़' मुरादाबादी की तरह काव्य मंच पर मुरादाबाद का प्रतिनिधित्व करते है।
किन्तु अपने सुदीर्घ रचनाकाल में मिश्र जी ने केवल हास्य-रस की कविताएं ही नहीं रची है, काव्य की दूसरी विधाओं विशेषकर गीत को भी उन्होंने पर्याप्त समृद्ध किया है। काव्य रचना के अलावा मिश्र जी ने नाटक भी लिखे है। पुरातत्व और इतिहास पर भी उन्होंने काफी लिखा है। वे निरे कवि नहीं है बल्कि गद्य लेखन में भी खासे निष्णात हैं। सही बात तो यह है कि साहित्यकार के रूप में मिश्र जी के विविध रूप है। 'पवित्र पंवासा' शीर्षक ऐतिहासिक खण्ड-काव्य की भूमिका में प्रख्यात गीतकार शचीन्द्र भटनागर, मिश्र जी के बारे में लिखते है " श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र के गीतकार, व्यंग्यकार, पुरातत्वविद, लेखक, नाटककार आदि रूपों से मेरा परिचय विगत तीस-पैतीस वर्षों में समय-समय पर होता रहा है उनकी समर्थ लेखनी जिधर मुड़ी उधर ही उसने नये प्रतिमान स्थापित कर दिए।" यूँ मिश्र जी की पहचान मुख्यतया एक व्यंग्य कवि के रूप में ही अधिक है किन्तु उनके अन्दर बैठा कवि वास्तव में तभी हमारे सामने अपनी पूरी ‘फार्म' में आता है जब वे 'पवित्र पंवासा' जैसे ऐतिहासिक खण्ड-काव्य में अपनी ओजपूर्ण भाषा में हुंकार लगाते हैं।
"है समर प्रयाण, वीर चल पड़े,
छोड़ के कमान तीर चल पड़े,
शत्रु- सैन्य थी जहाँ दहाड़ती,
रक्त पान को अधीर चल पड़े।
तेग चल पड़ीं, दुधार चल पड़े,
ढाल चल पड़ी, कुठार चल पड़े,
लौह के कवच, बदन सजे हुए,
राजपूत धारदार चल पड़े।
केसरी निशान हाथ में लिए,
आखिरी प्रयाण हाथ में लिए,
सिंह-पूत सिंह से निकल पड़े,
चंचला कृपाण हाथ में लिए । "
ऐसा कौन पाठक या श्रोता होगा जिसकी शिराओं में इन पंक्तियों के अवगाहन के बाद रक्त न खौल उठे। दरअसल, मिश्र जी जब वीर रस के काव्य की रचना कर रहे होते है तब वे जाने-अनजाने मध्ययुगीन चंदवरदाई, जगनिक या भूषण जैसे कवियों की परम्परा का अनुसरण ही नहीं कर रहे होते बल्कि उनके समीप खड़े दिखाई पड़ते है। मिश्र जी कथ्य की दृष्टि से ही नहीं बल्कि यति गति, लय या छन्द की दृष्टि से भी मध्ययुगीन कवियों से कमतर नहीं है। बल्कि कहीं-कहीं तो वे वीरगाथा काल के कवियों से भी ज्यादा मौलिक और विशिष्ट दिखाई पड़ते है। वीरगाथा काल के कवियों ने जहाँ अधिकांश काव्य रचना राज्याश्रय प्राप्त करने, आजीविका चलाने या अपने स्वामी शासक को प्रसन्न करने के लिए की है वही मिश्र जी ने ऐसी किसी बाध्यता के बिना निर्द्वन्द्व भाव से साहित्य रचना की है और उन्होंने स्थानीय इतिहास, लोक कथाओं या किवदंतियों को प्रश्नय दिया है।
मिश्र जी उन विरले हिन्दी साहित्यकारों में से है जिन्होंने स्थानीय इतिहास, विशेषकर जनपदीय इतिहास में काफी रुचि ली है। उनके 'चरित्र काव्य' का मुख्य आधार स्थानीय इतिहास रहा है। वृन्दावन लाल वर्मा जैसे महान साहित्यकारों ने जहाँ उपन्यासों के जरिये झांसी या बुन्देलखण्ड क्षेत्र के इतिहास को उजागर किया है वहीं मिश्र जी ने गंगा या राम गंगा के तीर पर बसे प्राचीन नगरों के इतिहास को अपने साहित्य सृजन का आधार बनाया है। ऐतिहासिक कथाओं पर साहित्य रचने वाले अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारों से मिश्र जी इस दृष्टि से भी बिल्कुल अलग है कि उनमें से अधिकांश ने गद्य और पद्य दोनों में से किसी एक विधा में ही साहित्य रचना की है। किन्तु मिश्र जी ने गद्य-पद्य दोनों ही विधाओं में पर्याप्त मात्रा में साहित्य रचा है। एक ओर जहाँ उन्होंने 'पवित्र पंवासा' और 'मुरादाबाद अमरोहा के स्वतंत्रता सेनानी' जैसी पुस्तकें काव्य में रची है वहीं 'शहीद मोती सिंह' गद्य में रचा ऐतिहासिक उपन्यास है। उपरोक्त कृतियों के अतिरिक्त उन्होंने "इतिहास के झरोखे से संभल' और 'मुरादाबाद का स्वतंत्रता संग्राम' जैसी कृतियां भी रची है।
स्थानीय इतिहास या जनपदीय इतिहास को मिश्र जी के समग्र लेखन के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। दरअसल, स्थानीय इतिहास, लोककथाएं, किवंदंतियां मिश्र जी के साहित्य की 'लाइफलाइन' हैं और इनके बिना उनके साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। स्थानीय इतिहास पर मिश्र जी का कार्य शोध के महत्व का है। अमर उजाला और दूसरी पत्र-पत्रिकाओं में लिखे उनके लेखों से न केवल रोचक ऐतिहासिक जानकारियां प्राप्त होती है बल्कि अतीत को खंगालने के मिश्र जी के एकल और भगीरथ प्रयासों और भीष्म संकल्प का भी हमें ज्ञान प्राप्त होता है।
यद्यपि मिश्र जी का इतिहास अधिकांशतया जनश्रुतियों पर आधारित है किन्तु उनका साहित्य असंदिग्ध रूप से प्रमाणित है। पंवासा के राजा कमाल सिंह और राग केसरी, कैथल के बड़गूजर, संभल के रुस्तम खाँ और शहीद मोती सिंह कोई मिथकीय या काल्पनिक पात्र नहीं है बल्कि इतिहास है। हाँ, जब मिश्र जी इस इतिहास में कल्पना का समावेश कर देते हैं तब यह अतिरंजित भले ही लगता हो किन्तु यह उत्कृष्ट साहित्य का रूप अवश्य ले लेता है। किन्तु इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि मिश्र जी का रचा साहित्य अतिरंजना है। दरअसल, इतिहास और कल्पना दो ऐसे सूत्र है जो मिश्र जी के साहित्य में कुछ इस तरह गुँथे हुए है कि उन्हें पृथक चिह्नित किया जाना संभव नहीं है।
महान अंग्रेज साहित्यकार सर वाल्टर स्काट का नाम आज विश्व साहित्य में यदि आदर के साथ लिया जाता है तो वह इसलिए कि उन्होंने अपनी कृतियों में स्काटलैंड और इंग्लैण्ड के इतिहास, समकालीन जनजीवन, लोककथाओं, लोकपरम्पराओं, किवंदंतियों को पूरी ईमानदारी और कलात्मकता के साथ दर्ज़ कर प्रस्तुत किया है। ठीक यही काम मिश्र जी भी व्यापक स्तर पर न सही क्षेत्रीय अथवा स्थानीय स्तर पर करते रहे हैं। अब यदि ऐतिहासिक कथाओं और आख्यानों के गायन के लिए विलियम शेक्सपियर को 'वार्ड आफ एवन' और सर वाल्टर स्काट को 'विजर्ड आफ द नार्थ' कहा जा सकता है तो सुरेन्द्र मोहन मिश्र को भी 'गंगा का गायक' कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य में गांगेय क्षेत्र का विशद वर्णन किया है।
तथ्य तो यह है कि लगभग दर्जन भर कृतियों के रचनाकार सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी का सही आकलन आज तक नहीं किया गया है। लोग उन्हें एक हास्य कवि के रूप में ही जानते हैं। एक इतिहासकार और पुराशास्त्री के रूप में उनका आकलन किया जाना बाकी है। यह हिन्दी जगत का दुर्भाग्य है कि इतने बड़े कद के रचनाकार का समुचित मूल्यांकन तक नहीं हुआ है। यदि मिश्र जी अंग्रेजी भाषा में साहित्य रच रहे होते तो निश्चित ही उनका स्थान टामस ग्रे सरीखे कवियों के समकक्ष होता और उन पर दर्जनों शोध हो गये होते। किन्तु मिश्र जी ने इन सब बातों की कभी परवाह नहीं की है। 'एकला चलो' की तर्ज पर वे निरन्तर सृजनरत हैं और नयी पीढ़ी को तकनीक के घटाटोप से बाहर लाकर एक बार अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों यानी अपने इतिहास से जोड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं।
( यह आलेख उस समय लिखा गया था जब श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र साहित्य साधना में रत थे )
✍️ राजीव सक्सेनाप्रभारी सहायक निदेशक (बचत)
मथुरा , उत्तर प्रदेश, भारत
इतिहास को जुनून की हद तक जीने की ये उन की ललक ही थी, जिस ने उन्हें एक ख़ास रचनाकार के तौर पर सँवारा और उन से वो सब लिखवाया जो अमूमन नहीं लिखा जाता है।
इंसानी तहज़ीब से मुहब्बत और उसे जानने-खोजने की चाहत ही ने उन्हें एक महान पुरातत्ववेत्ता बनाया।हमें उन से ये सब कुछ सीखने, अपने अंदर उतारने और सहेज कर रखने की ज़रूरत है।
✍️ फ़रहत अली ख़ान,
लाजपत नगर
मुरादाबाद 244001
दृग सम्मुख ये विशाल भूधर /ओढ़े है चांदी की चादर /**** झर-झर झरते शुचि निर्झर से / सरिता की लहरों के स्वर से /****** खग रव से मुझको गान मिला /मुझको मेरा उपहार मिला
अल्पावस्था से ही उनको कविता का उपहार मिला समय के साथ वह प्रौढ़ होता चला गया। प्रेम और श्रृंगार के गीत रचते -रचते कवि कब सांसारिक दुखों से बोझिल हो नैराश्य से भर उठा --
बनकर कितने स्वप्न मिटे हैं मेरे
जल -जलकर कितने दीप बुझे हैं मेरे
जग का ठुकराया प्यार तुम्हें मैं क्या दूँ
संसार के मिथ्या प्रेम और आडम्बर से ऊबकर कवि कब लौकिक से पारलौकिक हो गया कि वह ईश्वर को प्रिय मान उन्हीं में अपने जीवन के सौंदर्य को तलाशने लगा --
मेरे दुर्दिन में जब प्रियतम आते हैं
नयनों में आ आंसू बन बह जाते हैं
मेरे उर के कोमल छाले भी
नभ के तारे बनकर मुस्काते हैं
इस प्रकार जीवन के विविध रूपों को तलाशते हुए उदारमना कवि सुरेन्द्र मोहन जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं ,उनमें इतिहासकार की भांति खरा यथार्थ है तो कल्पनाशीलता भी । इतिहास की वीथिका में विचरते हुए उनका कवि मन कभी भी थकता नहीं है ,ऐसा एक विराटमना व्यक्ति अपने जीवन में निरंतर कालजयी रचनाओं के साथ हमारे बीच अपनी उपस्थिति बनाने में सफल हो सका है तो वे हैं सुरेंद्र मोहन मिश्र ,यहीं उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता भी है ---
तेरे रंगीन विश्व में मुझे बहुत छला गया
मिलन उम्मीद का विहग उड़ा कहीं चला गया
सभी तो स्वार्थ में पले न बन सका कोई मेरा
न जाने कौन विषमयी सुरा मुझे पिला गया
अपने विविध आयामों में आभा बिखेरता वह महान व्यक्तित्व अपनी रचनाओं के साथ चिरकाल तक अविस्मरणीय रहेगा ।
✍️ डॉ मीरा कश्यपअध्यक्ष हिंदी विभाग
के.जी.के. महाविद्यालय मुरादाबाद
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मैं थके हिरन सा डरा हुआ,
किसी राजधानी में खो गया,
मुझे क्या हुआ, मुझे क्या हुआ।
वहां लिख रहा था कहानियां,
वहां खोजता था निशानियां,
वहां कर रहा था खुदाइयां,
जहां ज्ञान-धन था दबा हुआ।
हैं पुरावशेष रखे जहां,
मृण्पात्र-शेष रखे जहां,
मुझे उस मकां का पता तो दो,
है बुतों से ही, जो सजा हुआ।
यह नया शहर भी अजीब है,
यहां हर शरीफ़ ग़रीब है,
यहां हर निगाह है अजनबी,
है सभी में ज़हर घुला हुआ।
वहां शब्द-शब्द का अर्थ था,
वहां शब्द-शब्द समर्थ था,
यहां आके सब ही भुला चुका,
वहां पुस्तकों का पढ़ा हुआ।
वहां मूर्ति थी किसी यक्ष की,
वहां यक्षिणी मेरे वक्ष थी,
यहां भग्न मूर्ति का भाग हूं,
ना जुड़ा हुआ, ना ढला हुआ।
वहां तितलियों को सुगंध दी,
वहां ज़िंदगी मेरी छंद थी,
यहां डाल-टूटा गुलाब हूं,
ना झरा हुआ, ना खिला हुआ।
वहां आंचलों ने सजा दिया,
यहां आंधियों ने हिला दिया,
मैं वो बदनसीब चिराग हूं,
ना धरा हुआ, ना जला हुआ।
✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र
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अतुल मिश्र
सुपुत्र स्मृतिशेष सुरेंद्र मोहन मिश्र
चन्दौसी, जिला सम्भल
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सारी ख़ुशियां न्यौंछावर कर आया हूं जिस गांव में,
लिखना क्या अब भी ठंडक है, पीपल वाली गांव में,
क्या पड़ोस का कलुआ अब भी, पीकर जुआ खेलता है,
मंगलसूत्र बहू का गिरवीं, रख आता था दांव में।
क्या बच्चों की टोली अब भी, मुझे पूछने आती है,
मैं बंदी था, जिनकी मुस्कानों के सरल घिराव में।
बिन दहेज के कई लड़कियां, क्वांरी थीं उस टोले में,
लिखना, बिछुए झनक रहे हैं, अब किस-किसके पांव में।
कभी तलैया में कागज की नाव चलाया करता था,
अब ख़ुद ही दिल्ली में बैठा हूं कागज की नाव में।
(22 मार्च 1983) (दिल्ली-प्रवास)
✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र
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यदि स्वांसों का ऋण चुक जाये, तो क्षमा करना !!
आधा ही गायन रुक जाये, तो क्षमा करना !!!!
जीवन भर ये खारे आंसू ही बेचे हैं
सपन मोल लेने को,
कनक कन गला बेचे, मिट्टी के, पत्थर के
रतन मोल लेने को !!
नये पथ बनाने में सुनो, वंशधर मेरे,
कुटिया का तृण-तृण बिक जाये, तो क्षमा करना !!
जब-जब भी पीड़ा से प्राण कसमसाते हैं
गान जन्म लेता है,
जब अपने पथ के ही, पत्थर ठुकराते हैं
ज्ञान जन्म लेता है !!
अनजाने ज्ञान को सुरक्षित रखने में ही,
पुरखों का आंगन बिक जाये, तो क्षमा करना !!
जो कुछ भी गा गये, यहां अनेक चातकगण
मेरा ही क्रंदन था,
यों तो मैं चंदा का चंदन भी छू लेता,
धरती का बंधन का !!
मेरे जीवन भर के कर्ज़ को चुकाने में,
विधवा का कंगन बिक जाये, तो क्षमा करना !!!!
✍️ सुरेंद्र मोहन मिश्र.
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