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शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह 'ओंकार' का बाल गीत ....खेल-खेल में कर लो मेल



समय मिले तो खेलो खेल ।

खेल-खेल में कर लो मेल ।।


खेल चुको तो पढ़ो किताब।

ऊंचे-ऊंचे देखो ख़्वाब।।


चित्र बनाओ सुंदर-सुंदर ,

जैसे झरने ,बाग़,  समंदर ,

गाय, भैंस या बैल बनाओ,

उन्हें रंगों से ख़ूब सजाओ,

हरी-भरी फ़सलें लहराओ, 

और पेड़ फलदार बनाओ,

 चित्रित करो फूलती सरसों 

जिससे बने पौष्टिक तेल ।।


लगे काम में रहो ज़रूर ।

चिंताएँ सब होंगी दूर ।।


काम बनें यदि शौक तुम्हारे,

हुनर बनेंगे ये फिर सारे, 

 जीवन के रस्ते पर प्यारे, 

ये देंगे  कल तुम्हें  सहारे, 

मार-पीट से बचो हमेशा, 

बढ़िया तो है यही संदेशा,

सुख के फल भी लगें वहीं पर

जहॉ प्यार की होती बेल  ।।


दुख देना होता है पाप ।

सबसे अच्छा मेल-मिलाप ।।


जिसने प्रेम लुटाना सीखा, 

प्यार सभी का पाना सीखा, 

सदा बुराई से कतराना, 

ख़ुशबू बनकर जग महकाना, 

जो औरों पर प्यार लुटाए, 

वह दुनिया में नाम कमाए,

बात पते की तुम्हें बताऊँ 

छोड़ दुश्मनी कर लो मेल ।।


✍️ओंकार सिंह 'ओंकार'

1-बी-241 बुद्धि विहार , मझोला, 

मुरादाबाद 244103

 उत्तर प्रदेश , भारत 

बुधवार, 18 सितंबर 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का बाल एकांकी....गुनगुन - गिन्नी



(शहर के बीचों- बीच बने एक छोटे से से घर के अंदर कुछ गौरैये घोंसले  बनाकर रह रही हैं। उन्हीं में से एक  हरे रंग के काग़ज़ वाले डिब्बे नुमा घोंसले पर गिन्नी नाम की गिलहरी ने  कब्जा कर लिया है। जो न जाने किस तरह से गेट के  ऊपरी किनारे से होते उस घोसलें में आ घुसी थी। उस घर की मालकिन ने यह देखकर दो -तीन घोंसले और टांँग दिये , जिससे गौरैयों को रहने की जगह कम न  पड़े।  आज गौरैयों की सरदार गुनगुन की बाहरी सहेलियाँ भी उस घर में गुनगुन व उसके परिवार से मिलने आ पहुँची हैं। बाहर भारी बारिश हो रही है और मौसम विभाग के अनुसार अभी अड़तालीस घंटे ऐसे ही बरसात होने की भारी संभावना है। ) 

 (प्रथम अंक)          

( गिन्नी गिलहरी और गौरैये एक ही प्लेट में खा रही हैं और साथ ही दिन भर की बातें भी कर रही हैं।) 

 गिन्नी : हम्मम..! (गौरैयों के घोंसलों की ओर देखते हुए) तुम्हारे घोंसलों की इस घर की मालकिन ने अच्छी तरह से व्यवस्था कर रखी है। काफी समय से रह रही हो न तुम लोग यहाँ पर....!!

गौरैये : (समवेत स्वर में) हाँ बहन!! हमारी मालकिन बहुत दयालु हैं। अब देखो न...!!. उन्होंने तुम्हें भी नहीं भगाया। और तो और हमारे लिए प्रतिदिन चावल और पानी भी रख देती हैं।

गिन्नी : हम्ममम... ये तो सच है। आज प्रातः भी कुछ बिस्किट और पूड़ी रख गयी  थीं वह...! बड़े ही स्वादिष्ट लगे मुझे तो...! (चावल खाते हुए) 

गौरैये : (आश्चर्य से) बिस्किट.....! पूड़ी....! और तुम अकेले चट कर गयीं!!  हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ा...! 

गुनगुन :  मत भूलो गिन्नी यह घर हमारा पहले है, तुम्हारा बाद में। हम यहाँ बीस वर्षों से रह रहे हैं और तुम्हें छ:महीने भी नहीं हुए यहाँ आये...! चोर कहीं की....! 

गिन्नी( हँसते हुए)अररररर...! तुम सब तो क्रोधित हो गयीं।  साॅरी बाबा..( अपने कान पकड़ते हुए) आगे से ऐसा नहीं होगा।  हम सब मिल बाँटकर खायेंगे।(तनिक चहकते हुए) सुनो.....!तुम लोगो ने  अखरोट खाया है कभी...?? 

गौरैये :(समवेत स्वर में) अखरोट!!!!! नहीं तो..! हमारी चोंच से तो उसका मोटा छिलका टूटेगा भी नहीं,तो खायेंगे कैसे? 

गिन्नी :   कोई बात नहीं सखियों आज से हम सब मित्र हुए। अखरोट..मैं तुम्हें खिलाऊंगी । मिलाओ हाथ...!(अपना अगला सीधा पंजा आगे बढ़ाते हुए) 

गुनगुन : बिलकुल...!!!.(फिर गौरैयों की सरदार गुनगुन गौरैया  अपने एक पंजे को गिलहरी के आगे बढ़े हुए पंजे से मिलाकर मित्रता पक्की कर  देती है।) मगर मित्रता का एक सिद्धांत है गिन्नी जी ...!( हँसते हुए) 

गिन्नी: वो क्या.....? 

गुनगुन: न धन्यवाद देना .....! न क्षमा माँगना..! 

गिन्नी:   जी मैडम,  स्वीकार है। ( हंँसती है)चलो अब जल्दी- जल्दी चावल खा लेते हैं। मालकिन का छोटा बेटा स्कूल से आता ही होगा।  वह बड़ा ही शरारती है .! हमें देखते ही पकड़ने को दौड़ेगा। 

गुनगुन : हांँ- हांँ जल्दी खा लो सखियों। बाहर  बारिश तेज होने वाली है। हमारी जो सखियाँ बाहर से आयी हैं उन्हें भी बहुत दूर जाना  है। 

गिन्नी: आज तुम्हारी सखियाँ यहाँ चावल खाने क्यों आयी हैं? 

गुनगुन : क्योंकि भारी बारिश में हम लोगो को हमारा प्रमुख भोजन कीड़े नहीं मिलते हैं। इसलिए हमारी सखियाँ भी हमारे साथ यहाँ रोटी- चावल खाने आ जाती हैं। मालकिन कुछ नहीं कहतीं, बल्कि हमारी प्लेट में खुब सारे खाद्य-  पदार्थ रख देती है। 

गिन्नी:  ओह......! यह बात है....!खाओ... खाओ...! ( कुछ सोचते हुए)तुम लोगो को एक बहुत ज़रूरी बात भी बतानी है। 

गुनगुन :   अच्छा.....!क्या बात है गिन्नी? बताओ... बताओ... ! 

 गिन्नी : ( गंभीर होकर) आज सुबह मैने गेट के ऊपर एक गिरगिट देखा । वह तुम लोगो के अंडे चुराने वाला था, तभी मैने उसे भगा दिया। तुम लोग सावधान रहना....! 

गुनगुन : ओहहह.....! बहुत अच्छा किया गिन्नी..!वह गिरगिट बहुत शातिर बदमाश है ...!जब हम बाहर भोजन की तलाश में जाते हैं तब वह अक्सर हमारे अंडे चुरा कर खा लेता है। सच कहूँ तो तुमने यहाँ आकर हम सब पर बहुत उपकार  किया है गिन्नी...! ( गुनगुन का गला भर आया था) 

गिन्नी: (अपनी गोल- गोल आँखों में आँसू भरकर) उपकार तो तुम सबने किया है  मुझपर ...!.अपने बीच....मुझे भी इस घर में शरण देकर...!  और उस दिन........उस खुले मैदान में तो वो भूरी बिल्ली मुझे कब की खा गयी होती यदि तुम सबने चींचींचीं का शोर  मचाकर मुझे सतर्क न किया होता ....!! 

गुनगुन: नही.... नहीं....हमने तुम्हें शरण कब दी ....? तुम तो खुद ज़बरदस्ती आयी हो हमारे बीच ( ज़ोर से हँसते हुए) हा हा हा...! 

गिन्नी: (तनिक झेंपते हुए ) जो भी है, अब तो हम सब मित्र हुए न....! ( मुस्कुराती है) 

तुमने मुझे बिल्ली से बचाया और मैं गिरगिट और छिपकली से तुम्हारे अंडों की रक्षा करुँगी। वैसे भी इस घर में हम सब  अधिक सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। काफी आरामदायक है यह। 

गुनगुन : हाँ ,ठीक कहा तुमने गिन्नी,अबसे हम एक दूसरे के सुख: दुख में बराबर के हिस्सेदार होंगे। ( तनिक चौंक कर)  अरे... ! देखो ......मकान मालकिन अपना फोन लेकर इधर ही आ रही हैं। इन्हें भी हमारी फोटो और वीडियो बनाने का बड़ा ही शौक है। हा! हा! हा..!.  हा! अच्छा हुआ हम सब फोन नहीं चलाते। सुना है इंसानों  में फोन चलाने की बड़ी बुरी बीमारी है। ( सब हँसते हैं) .....हा हा हा ही ही ही....!  चलो निकलो ....अब सब लोग!!!!  

 बाहरी गौरैये : (समवेत स्वर में  )  चलते हैं  गुनगुन -गिन्नी हम कल फिर आयेंगे !! तुम अखरोट ज़रूर  ले आना.... !बाय- बाय...! 

गिन्नी: ( अपने घोंसले में जाते हुए) अवश्य...!अवश्य.!.... कल शीघ्र आना... ! मैं तुम सबकी प्रतीक्षा करुँगी। बाय-बाय..मित्रों..! 

गुनगुन:(अपने घोंसले में जाते हुए) बाय- बाय सखियों....! ठीक से जाना...! 

✍️मीनाक्षी ठाकुर 

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़मीर दरवेश की बाल कविता ....यह मुंह और मसूर की दाल


 یہ منہ اور مسور کی دا

यह मुंह और मसूर की दाल


 پیارے بچو اک بلی تھی،

 کہلاتی تھی شیر کی موسی

प्यारे बच्चों इक बिल्ली थी,

कहलाती थी शेर की मौसी।


پڑھ کے نصیحت کی کچھ باتیں،

 کرتی پھرتی تھی تقریریں

पढ़  के नसीहत की कुछ बातें,

करती फिरती थी तक़रीरें।


اتنا چیختی تھی مائک پر،

اٹھ جاتے تھے بچے ڈر کر ۔

इतना चीख़ती  थी माइक पर,

उठ जाते थे बच्चे डर कर।


گھڑتی تھی ولیوں کی کہانی،

جھوٹی کی تھی جھوٹی نانی۔

घड़ती थी वलियों की कहानी ,

झूठी  की  थी  झूठी  नानी ।


یوں ہی چالاکی کی بدولت 

کھانے لگ گئی گھر گھر دعوت

यूं ही चालाकी की बदौलत,

खाने लग गई घर-घर दावत।


خوب اڑانے لگی وہ بھائی،

 دودھ ملائی چکن فرائی

ख़ूब उड़ाने लगी वह भाई,

दूध मलाई चिकन फ्राई ।


اک دن بولی بھائی بہنو،

 سادہ کھاؤ سادہ پہنو

इक दिन बोली,' भाई बहनो'

सदा खाओ सदा पहनो'


کھایا کرو تم دال مسور کی،

 ملا کرے گی بے حد نیکی

खाया कीजे दाल मसूर की

मिला  करेगी बेएहद नेकी ।


اس دن اس کی باتیں سن کر,

 اثر  ہوا  سننے  والوں  پر

उस दिन उसकी बातें सुनकर,

असर हुआ सुनने वालों पर।


 جہاں ملے تھا چکن فرائی،

 انہوں نے اس دن دال بنائی۔

जहां मिले था चिकन फ्रा़ई,उ

उन्होंने उस दिन दाल बनाई।


دال کو دیکھ کے بولی، 'بھائی 

 آج کہاں ہے چکن فرائی ؟'

दाल को देखके बोली,' भाई!

आज कहां है चिकन फ्रा़ई?'


اس پر گھر کا مالک بولا،

 موسی تم نے ہی تو کہا تھا

इस पर घर का मालिक बोला,

मौसी तुम ने ही तो कहा था ۔۔


 اسے ملے گی بے حد نیکی،

 جو کھائے گا دال مسور کی

मिलेगी उसको बेहद नेकी,

जो खाएगा दाल मसूर की


 بولی  بلی  تم   بُدھو  ہو،

 یہ تو نصیحت تھی اوروں کو

बोली बिल्ली,' तुम बुद्धू हो,

यह तो नसीहत थी औरों को।


میں بھی اگر کھاؤں گی دالیں،

 کیا لوں گی کر کے تقریریں

मैं भी अगर खाऊंगी दालें, 

क्या लूंगी करके तक़रीरें ?


 مرے   لیے   تو   لاؤ   مال،

' یہ منہ اور مسور کی دال!

मिरे लिए तो लाओ माल,

यह मुंह और मसूर की दाल ।

✍️ज़मीर दरवेश

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 14 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की आठ शिशु व बाल कविताएं । ये कविताएं हमने ली हैं उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

 


1. तोते राजा

तोते राजा, तोते राजा। 

सोने के पिंजड़े में आजा। 

तुझे बनाऊंगा मैं राजा ।।


मिर्च और अमरूद खिलाऊं। 

राम-राम कहना सिखलाऊं। 

सारी दुनिया तुझे घुमाऊं ॥


तोता: सोना-चांदी मुझे न भाता। 

मेरा है कुदरत से नाता। 

जो भी मिल जाये वह खाता ।


हम पक्षी हैं गगन बिहारी। 

है स्वतंत्रता हमको प्यारी । 

पराधीनता है दुख भारी ।।


2. मछली रानी

मछली रानी, मछली रानी। 

वैसे तो तुम बड़ी सयानी। 

धारण करतीं रूप सलौना ।

जल में जैसे चांदी सोना ।।


उछल-कूद कर कला दिखातीं। 

बच्चों के मन को हर्षातीं। 

लेकिन तुमको लाज न आती- 

छोटी मछली को खा जातीं।।


मछली-मछली को नहिं खाये । 

भय और भूख सभी मिट जाये। 

रंग - बिरंगी छवि छा जाये । 

हम हर्षित हों, जग हर्षाये।।


3. कबूतर

श्वेत-श्याम और लाल कबूतर। 

करते खूब धमाल कबूतर । 

तनिक हिला दी डाल, कबूतर। 

उड़ जाते तत्काल कबूतर ।।


हम लेते हर साल कबूतर । 

खुश होते हैं पाल कबूतर । 

करते नहीं वबाल कबूतर। 

मुदित रहें हर हाल कबूतर।।


जब खाते तर माल कबूतर। 

खूब फुलाते गाल कबूतर।

चलते मोहक चाल कबूतर। 

हमको भाते बाल कबूतर।।


4. बादल 

उमड़-घुमड़ कर आते बादल। 

आसमान में छाते बादल । 

हम सबको हर्षाते बादल ।

गर्मी दूर भगाते बादल ।।


बरसा करने आते बादल। 

हमको हैं नहलाते बादल। 

छुट्टी करवा जाते बादल। 

हमको हैं अति भाते बादल ।।


पोखर को भर जाते बादल। 

खेती को सरसाते बादल । 

मोरों को मदमाते बादल । 

सबको खुश कर जाते बादल।।


हम भी बादल से बन जायें- 

सबको सुख दें, खुद हर्षायें।


5. अच्छे-अच्छों से अच्छे हम!

भारत माता के बच्चे हम ।

सीधे-साधे हैं सच्चे हम। 

हैं नहीं अकल के कच्चे हम। 

अच्छे-अच्छों से अच्छे हम।।


यह भारत देश हमारा है। 

यह सब देशों से न्यारा है। 

बह रही प्रेम की धारा है।

यह तारों में ध्रुवतारा है।।


यह राम-कृष्ण की धरती है। 

इसमें मर्यादा पलती है। 

वीरता मचल कर चलती है। 

बैरी की दाल न गलती है।।


दुश्मन की नजर निराली है। 

हमको भड़काने वाली है। 

रिपु-सैन्य अकल से खाली है। 

पिटती उसकी नित ताली है।।


अति वीर हमारी सेना है। 

हथियारों का क्या कहना है? 

दुश्मन तो चना- चबैना है। 

पर हमें शांति से रहना है।।


यदि हम अपनी पर आ जाएं। 

चिबड़े की तरह चबा जाएं। 

घुड़की यदि दे दें दुश्मन को- 

भागें, पाताल समा जाएं।।


6. नेकी का अंजाम

ऊधमपुर में एक बेचारी, 

विधवा बसती, थी कंगाल। 

किसी तरह थी दिवस बिताती- 

बेच पुराना घर का माल।


एक दिवस वह ज्यों ही निकली, 

लेकर टूटे-फूटे थाल। 

तभी द्वार पर देखा उसने- 

घायल एक विहग बदहाल।


हृदय हो गया द्रवित, 

देखकर- बहती हुई खून की धार। 

किया तुरत उपचार, स्वस्थ हो- 

चला गया अपने घर-द्वार।


कुछ दिन बाद एक दिन आया, 

वह पक्षी ले दाना लाल। 

पा उसका संकेत माई ने- 

क्यारी में बोया तत्काल।


हर्षित होकर उस वृद्धा ने- 

समझ इसे विधना का खेल। 

देखभाल की उसकी निशिदिन- 

तो उसमें उग आई बेल।


उगा एक तरबूज बेल पर 

समझ उसे पक्षी का प्यार। 

तोड़ लिया वृद्धा ने उसको 

ज्यों ही पक कर हुआ तैयार।


लगी काटने बड़े चाव से, 

वृद्धा मन में भर उल्लास । 

स्वर्ण मुहर उसमें से निकलीं- 

जब माई ने दिया तराश।


हुई प्रसन्न अकिंचन वृद्धा, 

पाकर स्वर्ण मुहर अनमोल। 

देन समझकर परमेश्वर की, 

उसने वे सब रखीं बटोर।


नेकी करने का दुनिया में, 

कैसा अच्छा है अंजाम। 

उन्हें बेच करके वृद्धा ने 

चुका दिये निज कर्ज तमाम


7. हमको खूब सुहाती रेल

छुक-छुक करके आती रेल, 

हमको है अति भाती रेल,

प्लेटफार्म पर आकर रुकती, 

कोलाहल कर जाती रेल।


हलचल खूब मचाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


तीर्थ और मंदिर दिखलाती, 

गौरवमय इतिहास बताती, 

गिरि-कानन, नादियों-झरनों पर 

खुशी-खुशी सबको ले जाती।


सुखमय सैर कराती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


बिजली, तेल, कोयला खाती, 

पानी पी-पी शोर मचाती, 

भीमकाय इंजन से लगकर, 

आती, ज्यों बौराया हाथी।


हमको खूब डराती रेल। 

हमको नहीं सुहाती रेल।


हरिद्वार की हर की पैरी, 

या प्रयाग की संगम लहरी, 

शहर बनारस की धारा या, 

कलकत्ता की गंगा गहरी।


सबको स्नान कराती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


कोई चना, चाट ले आता, 

कोई गर्म पकौड़े खाता, 

चाय गर्म की आवाजों से- 

सोया प्लेटफार्म जग जाता।


तंद्रा दूर भगाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


कितनी सुंदर है, अति प्यारी, 

सभी रेल पर हैं बलिहारी, 

रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर 

चहक रहे सारे नर-नारी।


मंजिल पर पहुंचाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


इंजन कुछ डिब्बे बन जायें, 

हम बच्चों को सैर करायें, 

दीन-दुखी दिव्यांगों को हम- 

खूब घुमायें, खूब रिझायें।


हमको यह सिखलाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


सीमाओं पर विपदा आती, 

फ़ौजों को रण में पहुंचाती, 

आयुध और खाद्य सामग्री- 

सैनिक शिविरों में ले जाती।


हमको विजय दिलाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।।


8. गौरैया

सुबह-सुबह छत पर आ जाती गौरैया,

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


रात हुई जाकर सो जाती। 

प्रातः कलरव खूब मचाती, 

चीं-चीं, चीं-चीं, चीं-चीं करके 

हमें लुभाती, तुम्हें लुभाती।


धरती पर ऐश्वर्य लुटाती गौरैया! 

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया ?


पंखों में स्वर्णिम रंग भरा, 

वाणी में मृदुल मृदंग भरा, 

है रति के बच्चों सी लगती, 

अंगों में मुदित अनंग भरा।


यह कितना मीठा राग सुनाती गौरैया !

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


नीलगगन में उड़कर आती, 

शिशुओं का भोजन है लाती, 

चीं-चीं करते बच्चों को वह- 

खूब खिलाती, खूब पिलाती।


थपक-थपककर उन्हें सुलाती गौरैया।

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


नन्हीं परियों जैसी भाती, 

कलरव करती मन हर्षाती, 

छोटे बच्चों की खेल सखी, 

पल में आती पल में जाती ।


घर में उत्सव सा कर जाती गौरैया! 

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


जनम जनम का इससे नाता, 

इसे न देखे मन अकुलाता, 

देख अलिन्दों या वृक्षों पर 

अपना मन हर्षित हो जाता।


आती फिर फुर से उड़ जाती गौरैया।

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार राजीव कुमार भृगु का बाल गीत ....चलो मेला चलें

 


मेला एक लगा है भारी,

खेल खिलौने न्यारे।

मन को रोक न पाओगे तुम 

लगते हैं सब प्यारे।


चलो खरीदें ये लाला है,

इनका पेट बड़ा है।

ये किसान है काॅंधे पर हल,

बैलों बीच खड़ा है।


ये सैनिक, बंदूक हाथ में,

सीमा पार निहारे ।


चलो चलें आगे भी घूमें,

मेला रंग बिरंगा।

वहाॅं खड़े नेता जी देखो,

थामे हाथ तिरंगा।


उनके पीछे खड़ा भिखारी,

दोनों हाथ पसारे।


चलो वहाॅं पर चलें देख लें,

भीड़ लगी है भारी।

अपने तन को बेच रही है 

बेटी एक बिचारी।


चढ़ी बाॅंस पर नाच दिखाती

भूखे तन से हारे।


सब धर्मों के कैसे कैसे ,

प्यारे ग्रन्थ सजे हैं।

अलग अलग दूकानें इनकी,

न्यारे साज बजे हैं।


भला कौन इनको पढ़कर जो,

अपना भाग्य सॅंवारे।

✍️राजीव कुमार भृगु 

सम्भल 

उत्तर प्रदेश, भारत