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शनिवार, 2 सितंबर 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर के साहित्यकार स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों पर ओंकार सिंह ओंकार का विस्तृत आलेख ---



 समाज की ज़मीनी सच्चाइयों को स्पष्टता से बयान करने वाले शायर/कवि दुष्यंत कुमार ने कहा था कि मैं उर्दू नहीं जानता परन्तु मैं शह्र और शहर के वज़्न और वजन के फ़र्क़ से वाक़िफ था। परंतु मैं उस भाषा में लिखना चाहता था जिस भाषा में मैं बोलता था । इसलिए मैंने जानबूझकर शहर की जगह नगर नहीं लिखा। 

        वे कहते थे," उर्दू और हिन्दी जब अपने अपने सिंहासन से उतर कर आम आदमी के पास आती है तो दोनों भाषाओं में अन्तर करना मुश्किल हो जाता है। मेरी नियत और कोशिश यही रही है कि मैं इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूं। इस लिए ये ग़ज़लें उसी भाषा में कही गई हैं जिसे मैं बोलता हूं।" वे अपने एक शेर में कहते हैं कि-

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं।

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं।।

   हिन्दी के बहुत से पुराने कवियों ने ग़ज़लें कही हैं। जिनमें निराला जैसी हस्तियां शामिल हैं। लेकिन कवि दुष्यंत ने परंपरागत ग़ज़ल की धारा को मोड़कर जनसंघर्ष की धारा में परिवर्तित कर दिया तथा समय की आवश्यकता के अनुसार उसे नवीनता प्रदान कर दी। राजनीतिज्ञों ने आज़ादी के समय जो जनता से वादे किए थे, दुष्यंत ने राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी के अंतर को बड़े व्यंगात्मक और चुटीले अंदाज़ में बयान किया है। उन्होंने कहा-

कहां तो तय था चिराग़ां हर एक घर के लिए।

कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।।

न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढंक लेंगे,

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।।

आदमी की परेशानियों, ग़रीबी, भुखमरी, बेरोजगारी तथा अन्य सामाजिक सरोकारों का उल्लेख करने वाले बहुत से शेर दुष्यंत कुमार ने अपनी ग़ज़लों में दिये हैं जिनमें से से दो शेर पाठकों की सुगमता के लिए प्रस्तुत हैं-

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा।

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।।

कई फ़ाक़े बिताकर मर गया जो उसके बारे में,

वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा।।

प्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार ने ग़रीबों और ज़रूरत मंदों को सरकार से दी जाने वाली आर्थिक सहायता या अन्य सहयोग उन तक पहुंचने से पहले  ही समाप्त हो जाती है।इसी का बहुत सुन्दर चित्र अपने एक बहुत सुन्दर शेर में कवि दुष्यंत ने दिया है । उस समय के सरकारी योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार को व्यक्त करने का इतना अच्छा व्यंग्य शायद ही किसी अन्य कवि / शायर की रचनाओं में मिल पाए।

यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां,

हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा ।।

इसी प्रकार कवि दुष्यंत कुमार के बहुत से शेर याद करने और समय समय-समय पर उदाहरण के तौर पर उल्लेख करने लायक़ हैं। जिनमें से कुछ शेर प्रस्तुत हैं :-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए।

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग तो फिर आग जलनी चाहिए।।

 दुष्यंत कुमार जनकवि थे ।वे ग़रीबों और कमज़ोरों की तकलीफ़ों को सत्ता के शीर्ष पदाधिकारियों तक पहुंचाना चाहते थे तथा जनता को भी अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते थे। संघर्ष का एक प्रतिरोधी स्वर उनकी शायरी /कविताओं में मिलता है। यही स्वर उनकी शायरी को दीर्घायु बनाता है तथा  उन्हें अन्य कवियों से श्रेष्ठता प्रदान करता है। उनकी शायरी सहज और सरल भाषा में है जिसे आम आदमी समझ सकता है। उनका प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह "साये में धूप" बार बार पढ़ने योग्य है। उनकी शायरी को जनता लम्बे समय तक याद रखेगी। 


✍️ओंकार सिंह 'ओंकार' 

1-बी/241 बुद्धि विहार, मझोला,

मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244103

शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

मुरादाबाद मंडल के धामपुर (जनपद बिजनौर) निवासी साहित्यकार गजेंद्र सिंह एडवोकेट का आलेख .....बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रोफेसर महेंद्र प्रताप। उनका यह आलेख अमरोहा से प्रकाशित दैनिक आर्यावर्त केसरी के गुरुवार 24 अगस्त 2023 के अंक में प्रकाशित हुआ है ।

 



दैनिक आर्यावर्त केसरी के 22 अगस्त 2023 के अंक में स्वर्गीय प्रोफेसर महेंद्र प्रताप जी के विषय में डॉ मनोज रस्तोगी जी का आलेख पढते ही, मैं उनसे संबंधित मधुर, स्मृतियों के अतीत में खो गया । वह समय 55 वर्ष पीछे रह गया लेकिन मनोज जी का लेख पढते ही उनकी स्मृतियाँ सजीव हो उठी। 
हिन्दू कालेज मुरादाबाद से बी ए की कक्षा उत्तीर्ण करके मैंने के जी के कालेज मुरादाबाद में एम ए अर्थशास्त्र में प्रवेश लिया । आदरणीय गुरुदेव प्रोफेसर महेंद्र प्रताप उस समय हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष थे । महाविद्यालय की कालेज मैगजीन वर्ष 1968–69 के प्रकाशन के लिए गठित संपादक मंडल में मुख्य संपादक प्रोफेसर महेंद्र प्रताप ही थे तथा उनके नेतृत्व में प्रो नंदलाल मोइत्रा प्रवक्ता अंग्रेजी विभाग,तथा संपादक अंग्रेजी, डाक्टर शिव बालक शुक्ल प्रवक्ता हिंदी विभाग तथा संपादक हिंदी खंड तथा छात्र संपादकों में मेरे अतिरिक्त कुमारी वंदना वर्मा बी ए प्रथम वर्ष तथा छात्र संपादक हिंदी खंड स्नातक स्तर, विजय प्रताप सिंह बी ए द्वितीय वर्ष , छात्र संपादक अंग्रेजी खंड स्नातक स्तर, कुमारी यशोधरा जोशी एम ए द्वितीय वर्ष अंग्रेजी तथा छात्र संपादक अंग्रेजी खंड परास्नातक स्तर थे । उक्त मैगजीन में मेरा भी एक लेख प्रकाशित हुआ था यह स्मारिका मेरी जानकारी के अनुसार डॉ मनोज रस्तोगी के साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय में सुरक्षित है ।



  वे कटरा नाज के गेट के पास एक दुमंजिले भवन में, जिसे शायद हर गुलाल बिल्डिंग कहते थे, में निवास किया करते थे । मैगजीन की सामग्री के चयन के लिए अनेक बार उनके निवास पर जाना हुआ करता था । वंदना और यशोधरा के साथ मिलकर रचनाओं की जांच पड़ताल की जाती थी तदुपरान्त उनके सामने सामग्री रखी जाती थी जिनके बारे में वे महत्त्वपूर्ण सुझाव और परामर्श दिया करते थे । उस समय उनका व्यवहार पूर्णतया मित्रवत होता था । विचार विमर्श के पश्चात अंत में वे अंतिम चयन किया करते थे । उस क्षण उनके परामर्श का वह अपनापन आज भी मेरी यादों में सुरक्षित है तथा गर्व की अनुभूति देता है। उनका आभामंडल इतना दैदीप्यमान रहता था, हर क्षण चेहरे पर तेज चमकता था उनकी समझाने की शैली भी अद्वितीय रहती थी ।
1969 में, मैं एम ए अर्थशास्त्र के द्वितीय वर्ष का छात्र था। मेरे साथी शर्मेन्द्र त्यागी भी थे, जो कालांतर में वर्ष १९८९ में मुरादाबाद पश्चिम से जनता दल के विधायक निर्वाचित हुए थे और मुलायम सिंह की सरकार में विधि राज्य मंत्री बने थे, मैं और शर्मेन्द्र त्यागी दोनों ही जनपद बिजनौर की धामपुर तहसील क्षेत्र के निवासी थे छात्र संघ का चुनाव घोषित हो चुका था हमने बिजनौर जनपद के छात्रों को संगठित करके अध्यक्ष पद के लिए शर्मेन्द्र त्यागी का नामांकन करा दिया तथा चुनाव प्रचार में लग गये इसकी सूचना प्रो महेंद्र प्रताप जी को हुई तो उन्होंने हम दोनों को बुलवाया और निर्देश दिए कि चुनाव शांति पूर्वक और कालेज की प्रतिष्ठा के अनुरूप ही होना चाहिए उनके निर्देशों का पालन करते हुए शालीनता से चुनाव संपन्न हुआ और शर्मेन्द्र त्यागी को विजय मिली।

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उस समय बी ए कक्षाओं की फीस 15 रूपये और एम ए तथा एल एल बी की कक्षाओं की फीस 18 रुपये प्रतिमाह कालेज में जमा कराई जाती थी लेकिन अनेक छात्रों की आर्थिक स्थिति इस फीस को जमा करने की नहीं होती थी और इस कारण छात्रों को पढा़ई बीच में रोकनी पड़ती थी, ऐसे समय प्रोफेसर महेंद्र प्रताप जी देवदूत बनकर ऐसे छात्रों के जीवन में आते थे उस समय प्रवेश के समय प्रत्येक छात्र को एक रुपया पुअर ब्वायज फंड में जमा करना होता था ऐसे छात्र की फीस प्रोफेसर साहब की संस्तुति पर उस फंड से करा दी जाती थी तथा तैयारी करने के लिए वे अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करके लाईब्रेरी से पुस्तकें भी जारी करा दिया करते थे। इस सब के पीछे एक ही उद्देश्य रहता था कि कोई छात्र अध्ययन से वंचित न रह जाए। 
आर एस एम कालेज धामपुर जिला बिजनौर के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष डाक्टर शंकर लाल शर्मा ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ में हिंदी में पी एच डी करने के लिए अपना नामांकन कराया था और काफी कार्य भी हो चुका था इसी बीच डाक्टर शर्मा की नियुक्ति आर एस एम कालेज धामपुर के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के रूप में हो गयी जिसके कारण पी एच डी कार्य के लिए अलीगढ़ जाना संभव नहीं हो पा रहा था। डाक्टर शर्मा ने मुरादाबाद में प्रोफेसर महेंद्र प्रताप से मिलकर अपनी समस्या बताई। इस पर सहानुभूति पूर्वक प्रोफेसर साहब ने उनका निर्देशक बनना स्वीकार किया और इस प्रकार पी एच डी नामांकन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से रूहेलखंड यूनिवर्सिटी बरेली में स्थानांतरित हो गया तथा शेष कार्य अपने निर्देशन में कराया फलस्वरूप डाक्टर शर्मा को पी एच डी की उपाधि प्राप्त हो सकी।

बिजनौर जनपद के अनेक छात्र प्रतिदिन नजीबाबाद, नगीना, धामपुर, स्योहारा तथा मुरादाबाद जनपद के कांठ क्षेत्र से जम्मू तवी से सियालदाह जाने वाली एक्सप्रेस यात्री गाड़ी से मुरादाबाद के विभिन्न कालेजों में पढ़ने के लिए आया करते थे। एक बार जम्मू तवी सियालदाह एक्सप्रेस में रेलवे मजिस्ट्रेट ने भारी पुलिस बल के साथ चैकिंग अभियान चलाया और अनेक लोगों को बिना टिकट यात्रा करते हुए धर दबोचा। इनमें छात्र भी शामिल थे। यह समाचार मुरादाबाद के कालेज क्षेत्रों में तुरंत फैल गया। हिन्दू कालेज और के जी के कालेज के ही अधिकतर छात्र इस घटना से प्रभावित हुए थे इसलिए फौरन दोनों महाविद्यालयों के जिम्मेदार प्रोफेसर एक्शन में आ गये। मैं उस समय  ‌‌‌वकालत करते हुए ही मुरादाबाद डिवीजनल सुपरिटेण्डेन्ट उत्तर रेलवे की ओर से रेलवे एडवोकेट नियुक्त हो चुका था। प्रोफेसर महेंद्र प्रताप का अधिकार पूर्वक संदेश मुझे प्राप्त हुआ कि तुरंत प्रभावी कार्रवाई कराकर छात्रों को जेल से मुक्त कराया जाए। उस आज्ञा की अवज्ञा का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। अत: संदेश मिलते ही फौरन आवश्यक कार्यवाही करते हुए जुर्माने की राशि की व्यवस्था कराकर जमा कराई गई और नियमानुसार रिहाई संभव हो सकी यदि वो रुचि न लेते तो अनेक छात्रों का कैरियर बर्बाद हो ही जाता यह एक आदर्श गुरु वाला आचरण था अपने शिष्यो के प्रति।
  स्मृतियों के झरोखे में एक स्मृति यह भी है कि अपने गुरु का मान किस प्रकार किया जाता है प्रोफेसर महेंद्र प्रताप की शिक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हुई थी इस विश्वविद्यालय में धर्म और दर्शन विभाग में डा बीएल अत्रे कार्यरत थे यद्यपि प्रोफेसर प्रताप हिंदी के छात्र थे तथापि दोनों के संबंध गुरु शिष्य वाले थे डाक्टर बीएल अत्रे भारत के पूर्व राष्ट्रपति डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के समकालीन थे । उनके पुत्र डा जगत प्रकाश आत्रेय के जी के कालेज मुरादाबाद में दर्शन शास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष थे। डाक्टर जगत प्रकाश आत्रेय की पत्नी प्रकाश आत्रेय गोकुलदास हिन्दू गर्ल्स कालेज मुरादाबाद में मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्षा थीं और मैं भी इसी कालेज में कार्यरत था । 1972  में एक दिन डाक्टर जगत प्रकाश आत्रेय की ओर से निमंत्रण मिला कि अमुक समय पर मेरे आवास पर पहुंचना है चूंकि उनकी धर्मपत्नी डाक्टर प्रकाश आत्रेय गोकुलदास हिन्दू गर्ल्स कालेज में कार्यरत थीं इसलिए मुझे भी वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज करानी थी। वहाँ डा आत्रेय के पिता डाक्टर बीएल आत्रेय आए हुए थे वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन तथा धर्म शास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए थे । शिक्षा जगत में उनकी बड़ी महत्ता थी ।धीरे धीरे वहाँ प्रो बदन सिंह वर्मा, अध्यक्ष राजनीति शास्त्र विभाग, प्रो आर एम माथुर अध्यक्ष भूगोल विभाग, पीएनटंडन चीफ प्रोक्टर तथा अध्यक्ष समाज शास्त्र विभाग, प्रो आर एन मेहरोत्रा प्रवक्ता अर्थशास्त्र विभाग, जय मोहन लाईब्रेरी विभाग, डाक्टर शिव बालक शुक्ल प्रवक्ता हिंदी विभाग के जी के कालेज मुरादाबाद भी आ गये थे वहाँ प्रो महेंद्र प्रताप पहुँच गये थे । मुरादाबाद के शिक्षकों की ओर से प्रो महेंद्र प्रताप ने डाक्टर बीएल आत्रेय को कश्मीरी दुशाला ओढाकर आदरपूर्वक सम्मानित किया वह क्षण वास्तव में दुर्लभ तथा दर्शनीय था ।

 


राजनीति के क्षेत्र में वे डा राम मनोहर लोहिया की राजनीति के पक्षधर थे तथा मुरादाबाद सीट पर आमोद कुमार अग्रवाल को चुनाव लडा़या करते थे। आमोद कुमार अग्रवाल उस समय मुरादाबाद के एच एस बी इंटर कालेज में अध्यापन कार्य किया करते थे । चुनाव संबंधी बैठकों में पंडित मदनमोहन व्यास( हिंदी अध्यापक पारकर इंटर कालेज मुरादाबाद)  कठघर  क्षेत्र निवासी हिंदी अध्यापक रामप्रकाश शर्मा, प्रो पी एन टंडन, अंग्रेजी टीचर बीवी शर्मा आदि बुद्धि जीवी सम्मिलित हुआ करते थे और यदाकदा मैं भी अपने कुछ साथियों के साथ बैठकों के अतिरिक्त चुनाव प्रचार संबंधी कार्यों के निष्पादन के लिए चला जाया करता था।
 उस समय मीडिया की सक्रियता आज जैसी नहीं थी। केवल प्रिंट मीडिया का ही दौर हुआ करता था। साहित्यिक गतिविधियों, राजनैतिक हलचलों और कालेज संबंधी समाचारों के लिए उनके मुरादाबाद की उस समय की मीडिया से मधुर संबंध रहते थे।

 ‌दैनिक जय जगत हिंदी समाचार पत्र के संपादक पंडित सत्यदेव उपाध्याय, दैनिक मुरादाबाद टाईम्स के संपादक ठाकुर शिवराम सिंह तथा पत्रकारिता जगत के अनेक बंधुओं से उनके आत्मीयता पूर्ण संबंध हुआ करते थे। प्रोफेसर महेंद्र प्रताप बहुत विशाल और बहु आयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे मुझे लगता है कि स्मृतियों के झरोखों से मैं बहुत कुछ निकाल चुका हूँ लेकिन शायद अभी भी प्रोफेसर महेंद्र प्रताप की सेवा में कहने को बहुत कुछ शेष है प्रोफेसर महेंद्र प्रताप को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि...


✍️ गजेन्द्र सिंह, एडवोकेट

धामपुर

जनपद बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

( लेखक धामपुर प्रेस क्लब के संरक्षक तथा जिला अधिवक्ता एसोसिएशन धामपुर के संस्थापक अध्यक्ष हैं) 

गुरुवार, 20 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दिग्गज मुरादाबादी के संदर्भ में ए टी ज़ाकिर का संस्मरणात्मक आलेख..... "आ, लौट के आजा मेरे मीत "


शायद वर्ष 1972 था या 1973, उन दिनों मैं मुजफ्फरनगर से स्टेट बैंक की अपनी नौकरी छोड़ के मुरादाबाद  लौट चुका था और शायद "साईको" उपन्यास के अनुवाद की तैयारी में व्यस्त था।  परंतु , साहित्यिक गोष्ठियों व सम्मेलनों में गाहे-बगाहे जाता रहता था। एक शाम हमारे साहित्यिक मित्र और मेरे वरिष्ठ कवि डा विनोद गुप्त जी के निवास, सब्जी मंडी पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन था। मैं भी आमंत्रित था। वहीं लम्बे चौड़े गोरे से चश्मा लगाये एक नवीन साहित्यकार से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने अपना नाम प्रकाश चन्द्र सक्सेना ’दिग्गज’ बतलाया। वे सफेद पाजामें– कुर्ते में बड़े प्रभावशाली लग रहे थे, और काफी हंसमुख भी थे।

बोले, "अरे, जाकिर साहब, मैंने आपका बहुत नाम सुन रखा है। आज आपसे मिल कर तबियत खुश हो गयी, मेरी।"

मैं हंसा, " श्रीमन तबियत तो मेरी भी खुश क्या डबल खुश हो गयी आपसे मिल के !"

वे बोले, "मतलब, डबल खुश कैसे ? " मैंने समझाया, " सादर प्रणाम ! श्रीमन मेरे श्वसुर महोदय का भी यही नाम है, श्री प्रकाश चन्द्र सक्सेना ! उपस्थित सभी लोग हँसने लगे।

 ‌‌यही थी मेरी 'दिग्गज जी' से पहली मुलाकात की बानगी !

 ‌उन्होंने बड़े ऊंचे स्तर की उर्दू नज़्में में सुनाई ।

बस, उस शाम के बाद उनका बारादरी स्थित मेरे निवास पर आना-जाना होने लगा और हम अक्सर मिलने लगे।

 जब मिलते थे, तो सुनना-सुनाना भी हो जाता था। पर उस समय तक वो शायर

 " दिग्गज' थे, "दिग्गज मुरादाबादी 'नहीं! और सिर्फ उर्दू में कलम चलाया करते थे। एक शाम को अपने साथ एक अन्य वरिष्ठ साहित्यकार को मेरे घर ले आये, परिचय कराया श्री बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी'! प्रवासी जी उच्च कोटि के कवि थे और तहसीली स्कूल में अध्यापन कार्य करते थे। वह" मैढ़ बालक" नामक एक बाल पत्रिका का संचालन भी करते थे। 

 अब हमारी काव्य गोष्ठियों में दिग्गज जी प्रवासी जी के साथ ही आने लगे। दिग्गज जी बहुत उच्च कोटि को नज़्मकार थे और मंच को जीत लेने वाली अनेक नज़्में कह चुके थे। मुझे उनका कलाम बहुत पसंद आता था और हम दोनों एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। उन्ही दिनों मुझे पता चला कि दिग्गज जी, मुरादाबाद कचहरी में अर्जी नवीस का काम करते थे।

शायद, एक बार मैं किसी काम से कचहरी के पोस्ट आफिस गया तो, कचहरी में जाकर उनके बस्ते पर बैठ कर  एक प्याला चाय भी पी आया। वहीं बातचीत में उनसे पता चला कि वे कटघर में पचपेड़ा नामक स्थान पर रहते थे। इसके बाद तो साहित्यक गोष्ठियों में वे हुल्लड़ मुरादाबादी, ललित मोहन भारद्वाज, पुष्पेन्द्र वर्णवाल, डा० विनोद गुप्ता, ओम प्रकाश गुप्ता, प्रवासी जी, कौशल शलभ और मक्खन जी के साथ मुझे मिल ही जाते थे। वैसे, उन्होंने बहुत कुछ कहा था, कहते ही रहते थे मगर उनकी एक नज़्म "झांसे वाली रानी" बहुत प्रसिद्ध हुई थी, मुझे भी पसंद थी। उसकी प्रारंभ की कुछ  पंक्तियां मुझे आज 52-53 वर्षों के बाद भी याद है?

सरल,सौम्य आकृति, मगर कुछ थोड़ी सी अभिमानी है ,

है प्रयाग से प्यार, कि जिससे इसकी जुड़ी कहानी है। 

सब लोगों,कुल अखबारों में खबर यही छपवानी है, 

कि एक थी झांसी वाली,पर यह झांसे वाली रानी है।

सैकुलर नारों की सारी शेखी  चकनाचूर हुयी, 

बाईस वर्षों में भी तुमसे नहीं गरीबी दूर हुयी। 

कुछ भी तुमसे हो न सका, पर इतनी बात ज़रूर हुयी, 

कि भूखी-नंगी भारत माता दूर-दूर मशहूर हुयी ।

 इस पर भी तू अपने मन में फूली नहीं समानी है। 

 एक थी झाँसी वाली पर ये झांसे वाली रानी है । (रचना काल 1969)

इसी प्रकार उनकी एक और नज़्म थी.. " मेहतर की बेटी ", उसे भी वो बड़े चाव से पढ़ते थे।

असल में उन दिनों कविता ' लुहार की लली' काफ़ी प्रसिद्धि पा रही थी, उसी से प्रभावित होकर दिग्गज जी ने यह कविता या नज़्म जो कुछ भी यह थी उसे लिखा। 

 प्रोफेसर एन० एल० मोयात्रा के घर पर होने वाली मासिक हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमनी काव्य गोष्ठी " बज़्मे मसीह" में दिग्गज जी हमेशा भाग लेते थे और खूब सराहे जाते थे।

परन्तु, इस सारे समय में वे जो डायरी अपने साथ लाते थे, उसमें  जो कुछ भी उनकी हस्तलिपि में होता था, वो सब उर्दू में ही होता था।

  इन कुछ महीनों के  साथ के बाद मेरा उनसे ही क्या मुरादाबाद से ही साथ छूट गया, जब मैं मुरादाबाद से प्रस्थान कर गया। पर उन्हें और उनके साहित्य और अपनत्व को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा । इसी लिये चाहता हूं, वो एक बार फिर हमारे बीच लौट आएं और अपने  क़लाम से हमें नवाज़ें !


✍️ ए टी ज़ाकिर 

 फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001  मोबाइल फ़ोन नंबर 9760613902, 847 695 4471

 मेल- atzakir@gmail.com

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर राजीव सक्सेना का आलेख ...बाल मन के चितेरे : 'दिग्गज' मुरादाबादी । यह आलेख श्री दिग्गज जी के जीवन काल में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2006 में प्रकाशित मेरी कृति ’समय की रेत पर’ में प्रकाशित हुआ है।



बाल मन के चितेरे : 'दिग्गज' मुरादाबादी

मुख्य धारा के प्रसिद्ध कवि डा० हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है कि अच्छा बाल साहित्य वह रच सकेगा जो बच्चा बन सके यानी बाल मन में प्रविष्ट हो सके। बाल साहित्य की इस कसौटी पर जो बाल कवि खरे उतरते है वे हैं 'दिग्गज' मुरादाबादी ।
'दिग्गज' जी को न केवल बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ है बल्कि उनके मनोजगत या कल्पना जगत में भी गहरी पैठ है। वयस्क होने के बावजूद स्वयं 'दिग्गज' जी के भीतर  बालपन अभी विद्यमान है।उनके भीतर का यह बालपन या बालक जब सक्रिय होता है तभी किसी अन्त: प्रेरणा के वशीभूत हो उनका बाल कवि वाला व्यक्तित्व भी सक्रिय हो जाता है। दरअसल, 'दिग्गज' मुरादाबादी स्वयं को बालकवि सिद्ध करने के लिए नहीं बल्कि बच्चों के कल्पना जगत में झांकने की कौतूहलता के कारण बालगीत या कविताएं रचने के लिए विवश होते हैं।
    5 जनवरी सन् 1930 को जिला बुलन्दशहर की तहसील अनूपशहर में जन्मे 'दिग्गज' मुरादाबादी का वास्तविक नाम प्रकाशचन्द्र सक्सेना है। उनके पिता मुन्शी रामचन्द्र सहाय सक्सेना एक रियासत के दीवान थे। 'दिग्गज' जी ने काव्य शास्त्र का ज्ञान अपने समय के प्रसिद्ध शायर अब्र हसन गुन्नौरी से प्राप्त किया। 'दिग्गज' जी की उर्दू साहित्य पर भी गहरी पकड़ है और उन्होंने बाल कविताओं के अलावा बहुत से गीत, नज्म और गज़लें भी लिखी है। आध्यात्मिक रूझान के कारण दिग्गज जी ने 'सीता का अन्तर्द्वन्द' और 'करवा चौथ' शीर्षक से काव्य प्रबन्धों की रचना भी की है।
    बाल कविताएं रचने की प्रेरणा 'दिग्गज' जी को प्रसिद्ध बाल कवि निरंकार देव 'सेवक' से प्राप्त हुई। यद्यपि सेवक जी से साक्षात्कार होने के पहले ही 'दिग्गज' जी बाल काव्य के क्षेत्र में निष्णात हो चुके थे तथा एक बाल कवि के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे। तथापि 'सेवक' जी का सान्निध्य प्राप्त होने पर 'दिग्गज' जी को उनसे बाल काव्य की अनेक बारीकियां समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सरसता, प्रवाहमयता और विलक्षण शब्द चयन के कारण 'दिग्गज' जी अपने समकालीन बाल कवियों से ही नहीं बल्कि अपने पूर्ववर्ती कवियों से भी श्रेष्ठतर जान पड़ते है तथापि वे विनम्रता पूर्वक अपने को निरंकार देव 'सेवक' का शिष्य स्वीकार करते है।

निरंकार 'देव' सेवक ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'बालगीत साहित्य' (इतिहास एवं समीक्षा) में 'दिग्गज' मुरादाबादी का उल्लेख बड़े आदर के साथ किया है 'सेवक' जी का यह ग्रन्थ आज बालगीत साहित्य के प्रामाणिक शोध ग्रन्थ के रूप में समादृत है और ऐसे ग्रन्थ में उल्लेख मात्र भी सचमुच किसी बाल कवि के लिए गौरव का विषय है। 'सेवक' जी ने 'दिग्गज' जी की बाल कविता 'दीवाली' का उल्लेख विशेष रूप से अपनी पुस्तक में किया है।

"लो फिर से दीवाली आई,
साथ अनेकों खुशियां लाई ।
खीलें और बताशे लाई,
बढ़िया खेल तमाशे लाई ।
छूट रही हैं आतिशबाजी,
सब प्रसन्न है सब है राजी ।
घर बाहर की हुई सफाई,
कहीं रंगाई कहीं पुताई ।
हर घर में पकवान बनें हैं,
बड़े बड़े सामान बने है ।
आज कहीं भी नही अंधेरा,
हुआ रात में दिन का फेरा ।
दीवाली की रात सुहानी,
है सारी रातों की रानी ।

'दिग्गज' जी की शब्दों और छंद पर गहरी पकड़ होने के कारण ही 'सेवक' जी ने यह टिप्पणी की है कि 'दिग्गज' जी को छंद में कहने की आदत सी बन गयी है। 'दिग्गज' जी की निर्विवाद काव्य प्रतिभा को सिद्ध करने के लिए यह टिप्पणी पर्याप्त है। सरल और छंदबद्ध होने के कारण उनकी बाल कविताओं / गीतों में अद्भुत गेयता है और बच्चे उन्हें सहज ही गुनगुना सकते है।

"दिग्गज' जी की बाल कविताएं बाल मनोभावों और संवेदना की अभिव्यक्ति साथ-साथ चित्रात्मकता की दृष्टि से भी अद्भुत है। दरअसल 'दिग्गज' जी बच्चों के मनोजगत से एक ऐसा अन्तवैयक्तिक तादात्म्य स्थापित करने में सफल रहते है कि उनकी बाल कविताएं / बालगीत, भाषा एवं शिल्प के स्तर पर भी अनोखे जान पड़ते है। 'दिग्गज' जी की बाल कविताओं में भाषा विषय के अनुरूप स्वयं को गढ़ती हुई चलती है। बालपन से उनका यह विलक्षण तादात्म्य या विशिष्ट भाषा शैली ही उन्हें समकालीन बाल कवियों से पृथक एक पहचान प्रदान करती है। विज्ञापन शैली में लिखी उनकी लोकप्रिय और लम्बी बालकविता "सरकस' की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य है
ये तो थे जलथल के प्राणी,
आगे है इस तरह कहानी।
दस हाथी, बाईस घोड़े हैं।
सत्रह बाघों के जोड़े है।
पन्द्रह ऊँट, रीछ है ग्यारह,
बबर शेर हैं पूरे बारह ।
शुतरमुर्ग है अफ्रीका का
अड़ियल गैडा अमरीका का ।
कंगारू, जिराफ, जेबरा ।
मगरमच्छ, घड़ियाल कोबरा ।

'दिग्गज' जी ने बाल कवियों के परम्परागत और प्रिय विषयों के अलावा सोच के स्तर पर मौलिक एवं आधुनिक विषयों पर केन्द्रित बाल
कविताओं की रचना भी की है। उनकी कविता 'तारे' सचमुच बालकवि 'दिग्गज' के आधुनिक दृष्टिकोण का परिचय हमें कराती है।
ये असंख्य टिमटिमा रहे जो ।
तारे नभमण्डल में ।
ये धरती से भी विशाल हैं।
निज स्वरूप निज बल में।
किन्तु आज तक की खोजों में।
जीवन कहीं न पाया।
यह सुख यह अनुभव केवल ।
अपने हिस्से में आया।

'दिग्गज' जी ने छोटी बड़ी दो सौ से भी अधिक बाल कविताओं / बालगीतों की रचना की है। इनमें से अनेक का प्रकाशन बच्चों की प्रसिद्ध 'नंदन', 'बाल भारती' 'पराग' और 'सुमन सौरभ' सरीखी पत्रिकाओं में हो चुका है। बाल साहित्य में उनका स्थान हेंस क्रिश्चियन एंडरसन, इनिड ब्लाइटन या आर्कादी गाइदार जैसा भले ही न हो लेकिन वे हिन्दी के अप्रतिम बाल कवि तो है ही।


✍️ राजीव सक्सेना
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित नई दिल्ली की साहित्यकार डॉ कीर्ति काले का संस्मरणात्मक आलेख...... विद्वत्ता, विनम्रता एवं विचारशीलता का अद्भुत समन्वय थे डॉ कुंअर बेचैन ....


तुम ही भरी बहार से आगे निकल गए

तुम मेरे इन्तजार से आगे निकल गए

विद्वत्ता, विनम्रता एवं विचारशीलता का अद्भुत समन्वय थे डॉ कुंअर बेचैन जी। बहुत सारे लोग बहुत विद्वान होते हैं। विद्वत्ता का दर्प उन्हें विनम्र नहीं रहने देता और वे अहंकारी हो जाते हैं। कुछ विनम्र तो होते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश वे विद्वान नहीं होते। विरले ही होते हैं जो विद्वान और विनम्र दोनों एक साथ हों। विद्वान एवं विनम्र होने के साथ साथ व्यक्ति विचारशील भी रहे ऐसा तो दुर्लभ से भी दुर्लभतम है। गीत के शलाका पुरुष और ग़ज़ल के उस्ताद आदरणीय डॉ कुंअर बेचैन जी इसी तीसरी अति विशिष्ट श्रेणी में आते थे। अत्यन्त विद्वान,अति विनम्र एवं सतत् विचारशील।

     डॉ कुंअर बेचैन जी ऐसे चंद कवियों में से एक हैं जो कवि सम्मेलनों मे जितने सक्रिय एवं लोकप्रिय थे, प्रकाशन की दृष्टि से भी उतने ही प्रतिष्ठित थे। इनके साहित्य पर पन्द्रह से भी अधिक पी एच डी के शोधग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक गीत, नवगीत, ग़ज़ल, बाल कविता संग्रह, महाकाव्य, उपन्यास आपके प्रकाशित हो चुके हैं। आपने हिन्दी छन्दों के आधार पर ग़ज़ल का व्याकरण लिखा। यह डॉ कुंवर बेचैन जी की हिन्दी एवं उर्दू के नवोदित लेखकों के लिए महत्वपूर्ण देन है।

     मैंने जबसे कविता का कखगघ समझा तब से डॉ कुंअर बेचैन जी से परिचय है। कवि सम्मेलन जगत में आने के पश्चात हजारों यात्राएँ साथ में कीं। लाखों मंचों पर आपका सान्निध्य प्राप्त हुआ। देश विदेश में आपके साथ जाना हुआ।कवि सम्मेलनों से इतर भी सदा मार्गदर्शन और आशीर्वाद मिलता रहा। जब आपके न होने का दुखद समाचार मिला था तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ।आपके परम शिष्य चेतन आनन्द जी को फोन किया तो उनकेे हिचकियों भरे रुदन ने दुखद सूचना पर मुहर लगा दी।आप तो ठीक हो रहे थे न ! दो एक दिन में आपको अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी और अचानक !

बहुत सारे दृश्य आंखों के सामने उमड़ घुमड़ रहे हैं ।

दुबई यात्रा पर जब हम साथ गए थे तब वहां इंडियन स्कूल में कवि सम्मेलन था। कवि सम्मेलन के मंच पर जब सारे कवियों के साथ मैं और डॉ कुंअर बेचैन जी पहुंचे तब स्कूल की प्रिंसिपल साहिबा दौड़ कर हमारे पास आईं और उन्होंने सबके सामने डॉ कुंअर बेचैन जी के चरण स्पर्श किए और बोला आज हमारा अहोभाग्य है कि आप के चरण हमारे विद्यालय में पड़े। शायद आपको मालूम है या नहीं, आपकी कविताएं हमारे विद्यालय के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। कई बच्चे आप की कविताएं खूब मन से गाते हैं। इतना बड़ा व्यक्तित्व डॉ कुंअर बेचैन जी का और इतने सहज कि क्या कहूं।कोई भी अच्छा काम करने पर ₹10 इनाम  देते थे। मंच पर भी इतने सरल इतने सहज। 

  कभी किसी की निंदा करते हुए मैंने देखा ही नहीं डॉ कुंवर बेचैन जी को। सदा अपने से छोटों की और अपने से बड़ों की प्रशंसा ही करते थे। छोटों का मार्गदर्शन भी करते थे तो प्रोत्साहित करते हुए। उनकी गलतियां बताते थे तो वह भी ऐसे जिससे वह हतोत्साहित ना हों। 

    एक घटना का स्मरण और हो रहा है ।अभी कुछ दिनों पहले मैं प्रेरणा दर्पण साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के सिलसिले में उनसे बात कर रही थी ।बातचीत के दौरान डॉक्टर साहब ने बताया कि बहुत सारी चीजें उन्होंने शुरू कीं। जैसे पुस्तकें प्रकाशित कराईं तो पुस्तकों के प्रत्येक पृष्ठ पर कवि एवं प्रकाशक का उल्लेख अवश्य किया। इसके पीछे का कारण यह है कि पुस्तके तो कई सालों तक रहती हैं। कालांतर में पुस्तकों के पृष्ठ अलग-अलग हो जाते हैं। तब बिखरे हुए पृष्ठों पर प्रकाशित सामग्री के रचयिता कौन है इस बारे में पता करना कठिन हो जाता है । हम से पूर्व अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं  जिनके पृष्ठों पर कवि का नाम प्रकाशित नहीं था। इसलिए वे रचनाएं विवादास्पद रहीं। हमने बहुत विचार करने के बाद अपनी पुस्तकों के प्रत्येक पृष्ठ पर अपना नाम मुद्रित करवाया। कई लोगों ने इस बात का उपहास भी किया लेकिन बाद में इसी प्रक्रिया को उन्होंने भी अपनाया। मुझे याद आया कि जब मेरी पुस्तक  "हिरनीला मन" डॉ कुंअर बेचैन जी के मार्गदर्शन में प्रकाशित हुई थी तब उसके प्रत्येक पृष्ठ पर मेरा एवं प्रकाशक का नाम अंकित हुआ था। यह डॉ कुंअर बेचैन जी की दूरदर्शिता एवं विचार शीलता का एक उदाहरण है। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो डॉक्टर साहब की विचार शीलता को उद्घाटित करते हैं। 

    सन 2018 को भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से 6 कवि जिनमें कुंअर बेचैन जी एवं मैं भी सम्मिलित थे 15 दिन की इंग्लैंड काव्य यात्रा पर गए थे। वहां डॉक्टर साहब के इतने चाहने वाले श्रोता थे कि मत पूछिए ।प्रत्येक शहर में प्रत्येक कवि सम्मेलन के बाद बहुत बड़ी संख्या में श्रोता  कुंअर बेचैन जी को घेर कर खड़े हो जाते थे और उनके ऑटोग्राफ लेने लगते थे। डॉक्टर साहब इतने सरल इतने सहज कि आकाश की ऊंचाई पर होते हुए भी सदा हमारे साथ बड़ी विनम्रता से व्यवहार करते थे। हम उनसे मजाक भी कर लेते थे साथ में खूब कविताएं सुनते सुनाते थे । आज वे दिन बहुत याद आ रहे हैं ।

बहुत कम लोग जानते हैं कि कुंअर जी बहुत अच्छे चित्रकार भी थे।उनकी प्रकाशित अधिकांश पुस्तकों पर उनके द्वारा बनाए गए रेखा चित्र हैं।जब भी डॉ साहब अपनी पुस्तक किसी को भेंट करते थे तो प्रथम पृष्ठ पर शुभकामनाओं के साथ हस्ताक्षर करने से पहले बहुत सुन्दर चित्र बनाकर विशेष आशीर्वाद देते थे।

   एक बात और बताना चाहूंगी। डॉ कुंअर बेचैन जी को कोई भी लेखक, रचनाकार पुस्तक भेंट करता था तो डॉक्टर साहब उस पुस्तक की राशि लेखक को अवश्य देते थे ।वह ना लेना चाहे तब भी जबरदस्ती उसकी जेब में रख देते थे ।इसके पीछे बहुत ठोस कारण था। वे कहते थे कि आजकल कोई भी प्रकाशक बिना पैसे लिए लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित नहीं करता। पुस्तक प्रकाशन में कितना परिश्रम एवं धन लगता है यह मैं भली-भांति जानता हूं। इसलिए किसी की भी पुस्तक मैं बिना मूल्य चुकाए नहीं लेता।और हाँ, मैं अपनी पुस्तक बिना मूल्य लिए देता भी नहीं हूं। मुझे याद आया जब डॉक्टर साहब ने अपना महाकाव्य "पांचाली" मुझे दिया तब अधिकार पूर्वक आदेशात्मक स्वर में मुझसे ₹500 मांगे यह कहते हुए की यह राशि मैं आपसे इसलिए ले रहा हूं जिससे आपको पुस्तकें खरीद कर पढ़ने का अभ्यास रहे।

पिछले पचास,पचपन वर्षों से डॉ कुंअर बेचैन जी हिन्दी कवि सम्मेलनों का इतिहास लिखने के लिए सामग्री एकत्रित कर रहे थे। प्रत्येक मंच पर वे कागज कलम लेकर मंच पर होने वाली हर गतिविधि को लिखते थे। जैसे शहर एवं स्थान का नाम, संयोजक, संचालक आयोजक एवं अध्यक्ष का नाम ,मंचासीन कवियों का नाम, किस कवि ने कौन सी कविता सुनाई उसकी प्रमुख पंक्तियां, कवि सम्मेलन में घटित होने वाली महत्वपूर्ण घटनाएं आदि आदि। पिछले 55 वर्षों से निरंतर लिखकर बहुत बड़ी संख्या में सामग्री एकत्रित कर ली थी डॉक्टर साहब ने ।अब समय था उस एकत्रित सामग्री पर मनन करके उसे ऐतिहासिक रूप देने का। लेकिन ईश्वर ने इतना अवकाश कुंवर जी को नहीं दिया। उनके लिखे इतने सारे पृष्ठ किसी न किसी फाइल में सुरक्षित होंगे। किसी न किसी डायरी में "कवि सम्मेलन का इतिहास" की रूपरेखा अंकित होगी। हमारा दायित्व है कि हम हमारी संपूर्ण सामर्थ्य के साथ डॉक्टर साहब के अधूरे कार्य को पूर्ण करें। ईश्वर हमें शक्ति दे कि हम यह कार्य कर पाएँ। 

   हॉस्पिटल में एडमिट होने के तीन-चार दिन पहले मैंने डॉ कुंवर बेचैन जी को फोन किया और उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली। दूरदर्शन द्वारा मेरे व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक कार्यक्रम बनाने की योजना थी जिसमें कुछ व्यक्तियों को मेरे बारे में बोलने के लिए कहा गया था ।जब मैंने यह बात डॉक्टर साहब को बताई तो वह बोले देखो न कीर्ति जी मेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि मैं आप पर बहुत कुछ बोलना चाहता हूं लेकिन आज मेरा स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। गला बहुत खराब हो गया है। मैं अभी आपसे बातें भी बहुत मुश्किल से कर पा रहा हूं। मैंने कहा कोई बात नहीं डॉ साहब आप ठीक हो जाइए उसके बाद  वीडियो बना दीजिएगा ।मैं दूरदर्शन वालों को बता देती हूं। अगले दिन फिर डॉक्टर साहब का फोन आया और वे भारी मन से क्षमा मांगते हुए कहने लगे की मेरा बुखार अभी तक नहीं उतरा है ।मैं और आपकी चाचीजी अब अस्पताल में भर्ती होने जा रहे हैं ।वापस आ गए तो सबसे पहला काम आपका ही  करूंगा ।देखो ना आज कहने को बहुत कुछ है लेकिन कह नहीं पा रहा ।इतना विवश, इतना असहाय मैंने स्वयं को कभी भी महसूस नहीं किया ।मैंने बोला नहीं डॉक्टर साहब ऐसा मत कहिए। आप बिल्कुल ठीक हो कर आएंगे। हम साथ में बैठकर गोष्ठी करेंगे फिर आप जी भर कर बोलिएगा। बस डॉ कुंवर बेचैन जी से यही अंतिम बातचीत थी मेरी। आज अत्यन्त द्रवित ह्रदय से मैं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रही हूं ।

    डॉक्टर साहब के  दुनिया भर में अनेक शिष्य हैं जिसने भी डॉ कुंअर बेचैन जी को सुना है अथवा पढ़ा है अथवा जो उनसे मिला है वो उनके आकर्षण से बच नहीं सका है। 

आपकी अनेक काव्य पंक्तियां याद आ रही हैं जैसे-


जितनी दूर नयन से सपना

जितनी दूर अधर से हँसना

बिछुए जितनी दूर कुंआरे पाँव से

उतनी दूर पिया तुम मेरे गाँव से।


नदी बोली समुन्दर से

मैं तेरे पास आई हूँ

मुझे भी गा मेरे शायर

मैं तेरी ही रुबाई हूँ।


मीठापन जो लाया था मैं गाँव से

कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।


कल स्वयं की व्यस्तताओं से निकालूंगा समय कुछ

फिर भरूंगा कल तुम्हारी माँग में सिन्दूर

मुझको माफ करना

आज तो सचमुच बहुत देर ऑफिस को हुई है।


ज़िन्दगी का अर्थ मरना हो गया है

और जीने के लिए हैं

दिन बहुत सारे।


जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने

दादी की हँसुली अम्मा की पायल ने

उस पक्के घर की कच्ची दीवारों पर

मेरी टाई टँगने से कतराती है।


जिस दिन ठिठुर रही थी,कुहरे भरी नदी में,

माँ की उदास काया,लेने चला था चादर, मैं मेजपोश लाया


सूखी मिट्टी से कोई भी मूरत न कभी बन पाएगी

जब हवा चलेगी ये मिट्टी खुद अपनी धूल उड़ाएगी

इसलिए सजल बादल बनकर बौझार के छींटे देता चल

ये दुनिया सूखी मिट्टी है तू प्यार के झींटे देता चल।


ऐसी अनेक गीत पंक्तियाँ हैं डॉ साहब की जो कवि सम्मेलन में श्रोताओं को मंत्रबिद्ध कर देती थीं।

ग़ज़लें भी एक से बढ़कर एक थीं।आपकी ग़ज़लों में भी गीत जैसी तन्मयता थी,गीत जैसा तारतम्य था।


पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है

पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है

चलने को एक पाँव से भी चल रहे हैं लोग

पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है


दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना

जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना


दो चार बार हम जो कभी हँस हँसा लिए

सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

संटी तरह मुझको मिले ज़िन्दगी के दिन

मैंने उन्हीं को जोड़ के कुछ घर बना लिए।


ज़िन्दगी यूं भी जली,यूँ भी जली मीलों तक

चाँदनी चार कदम धूप चली मीलों तक


ये सोचकर मैं उम्र की ऊँचाईयाँ चढ़ा

शायद यहाँ,शायद यहाँ,शायद यहाँ है तू

पिछले कई जन्मों से तुझे ढ़ूढ़ रहा हूँ

जाने कहाँ,जाने कहाँ,जाने कहाँ है तू


ग़मों की आँच पे आँसूं उबालकर देखो

बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो

तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी

थेकिसी के पाँव से काँटा निकालकर देखो


साँचे में हमने और के ढ़लने नहीं दिया

दिल मोम का था फिर भी पिघलने नहीं दिया

चेहरे को आज तक भी तेरा इंतज़ार है

हमने गुलाल और को मलने नहीं दिया।


असंख्य पंक्तियाँ हैं, असीमित स्मृतियाँ हैं। क्या लिखूं और क्या छोड़ूं।


1जुलाई 1942 को मुरादाबाद जिले के उमरी नामक गाँव में जन्में डॉ कुंअर बेचैन जी ने अपने जीवन में अनेक कष्ट सहे।इनका पूरा जीवन संघर्षों का महासमर रहा।बचपन में ही सिर से माता पिता का साया उठ गया था।बड़ी बहन और जीजाजी ने  पालन-पोषण किया। फिर बहन भी स्वर्ग सिधार गई। जीजाजी इन्हें लेकर चन्दौसी आ गए।चन्दौसी में ही आगे की शिक्षा ग्रहण की।

प्रकाशित पुस्तकें

गीत/नवगीत संग्रह - पिन बहुत सारे,भीतर साँकल बाहर साँकल,उर्वर्शी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख,एक दीप चौमुखी,नदी पसीने की, दिन दिवंगत हुए

ग़ज़ल संग्रह - शामियाने कांच के, महावर इंतजारों का ,रस्सियाँ पानी की, पत्थर की बांसुरी, दीवारों पर दस्तक, नाव बनता हुआ कागज, आग पर कंदील, आंधियों में पेड़, आठ सुरों की की बांसुरी, आंगन की अलगनी, तो सुबह हो, कोई आवाज देता है, 

कविता संग्रह -नदी तुम रुक क्यों गई, शब्द एक लालटेन, 

महाकाव्य - पांचाली 

ललित उपन्यास : मरकत द्वीप की मणि

बाल कविताएँ,हायकू,दोहे, अनेक पुस्तकों की भूमिकाएँ



✍️ डॉ कीर्ति काले 

बी702,न्यू ज्योति अपार्टमेंट सैक्टर 4 प्लॉट नंबर 27, द्वारका, नई दिल्ली, भारत

E mail : kirti_kale@yahoo.com

मोबाइल फोन नंबर 9868269259

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

मुरादाबाद जनपद के मूल निवासी साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ कुंअर बेचैन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित कानपुर के साहित्यकार डॉ सुरेश अवस्थी का संस्मरणात्मक आलेख


" सबकी बात न माना कर
                                        
खुद को भी पहचाना कर।  

दुनियां से लड़ना है तो-                                               
अपनी ओर निशाना कर।" 

        जीवन संघर्ष के लिए ये प्रेरक पंक्तियां कोमलतम संवेदनाओं को सहजतम अभिव्यक्ति देने वाले गीतकार कीर्तिशेष डॉ कुँअर बेचैन की हैं। क्रूर कोरोना से संघर्ष में भले ही डॉ बेचैन हार गए हों पर उन्होंने अपनी गीत व ग़ज़ल रचनाओं से प्रेम, दर्शन, जीवन संघर्ष के जो सन्देश  दिये हैं वे अक्षुण्य व अमर रहेंगे। यूँ तो उनकी बहुत सी रचनाओं से मैं भरपूर परिचित हूँ पर इस गीत की शक्तिमत्ता को मुझे अमेरिका के 18 शहरों में हुए कवि सम्मेलनों में देखने व आत्मसात करने का पुण्य अवसर मिला है।

 

  मेरी अमेरिका की तीसरी साहित्यिक यात्रा में 4 अप्रैल 2013 से 5 मई 2013 के मध्य अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति की ओर से श्री आलोक मिश्र के सौजन्य से विभिन्न शहरों में 18 कवि सम्मेलनों का संचालन व काव्यपाठ का अवसर मिला। यूँ तो यह यात्रा कई कारणों से विशेष रही पर डॉ कुँअर बेचैन जी के सानिध्य व संरक्षण से विशेषतम हो गयी।
    व्यंग्य कवि दीपक गुप्ता आरम्भिक काव्य पाठ कर रहे थे और समापन श्री बेचैन जी। मध्य में मैं काव्यपाठ करता था। पहले दो कवि सम्मेलनों में कुँवर जी ने हिंदी की महिमा पर केंद्रित गीत को समापन का गीत बनाया। तीसरे दिन कवि सम्मेलन मंच पर जाने से पूर्व उन्होंने मुझसे एकांत में बात की। अपने अनुभवों के अनन्त महासागर से निकाले कुछ मोतियों की चर्चा करते हुए उन्होंने
मुक्त मन से मन्त्रणा करके फैसला दिया हिंदी का समापन गीत समापन को उतनी ऊंचाइयां नहीं दे पा रहा जितनी अपेक्षित है। उन्होंने मेरा अभिमत जानना चाहा। सच तो यह है कि मैं भी महसूस कर रहा था कि उनके गीत-ग़ज़ल पाठ पर सुधी श्रोतागण जिस उल्लास और ऊर्जा के साथ अपनी अन्तस् खुशी प्रकट करते थे इस गीत पर वह किंचित कमजोर पड़ जाती थी। मैं इस पर पहले ही चिंतन कर चुका था पर मेरे संकोच ने मुझे जकड़ रखा था इसलिए मैं कह नहीं पाया।
      उन्होंने मेरी दोनों हथेलियां अपने हाथों में लीं तो उनकी स्नेहिल ऊष्मा से मेरा संकोच पिघल गया। मैंने प्रस्ताव रखा कि क्यों न आप समापन ' सबकी बात न माना कर ' गीत से करें। उन्होंने सहमति दी और फिर उस दिन समापन इसी गीत से किया। इस गीत की प्रस्तुति पर श्रोताओं का उल्लास ऐसा बिखरा की हम सभी मंत्रमुग्ध थे। गीत की अंतिम पंक्ति  " दुनिया बहुत सुहानी है इसको और सुहाना कर " तक पहुंचते पहुंचते प्रेक्षागार
के सभी श्रोताओं ने खड़े होकर विपुल तालियों के साथ कुँवर जी के स्वर से समवेत स्वर मिलाते हुए अभिनन्दन किया तो मैं हिंदी कविता की सामर्थ्य पर धन्य धन्य हो गया। यह सिलसिला आगे के कवि सम्मेलनों में भी चलता रहा। वे पल याद करता हूँ तो अन्तस में वही तालियां गूंज उठती हैं।
     
सच यह है कि डॉ कुँअर बेचैन ने हिंदी ग़ज़ल को स्थापित करने के लिए ग़ज़ल के मान्य शिल्प का पूर्ण निर्वहन करते हुए उसमें गीतात्मकता, गीत के विम्ब विधान, प्रस्तुति कला और रागात्मक भाषा को प्रतिष्ठापित किया है वह अलग से शोध का विषय हो सकता है। बाद में उन्होंने ही बताया कि ' सबकी बात न माना कर' ग़ज़ल ही थी जिसे उन्होंने बाद में गीत बनाया।
    इस यात्रा में उनके कुछ प्रसंशकों की प्रशंसा का अंदाज ही अलग मिला। मुझे शहर तो नहीं याद है पर याद है कि एक काव्यप्रेमी कार्यक्रम समाप्त होने पर कुँअर जी समीप आ कर बोले, तो बेचैन साहब जी"झूले पर उसका नाम लिखा और झूला दिया।" एक अन्य व्यक्ति ने दो उंगलियां उठा कर कहा," आती जाती सांसे दो सहेलियां हैं, वाह क्या गज़ब की बात कही। " एक महिला ने यूँ तारीफ की, डॉक्टर साहब" नदी बोली समंदर से में तेरे पास आई हूं, मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ," की नदी को साथ नहीं लाये। मैंने देखा कुँअर जी ऐसे क्षणों में बस किसी मासूम बच्चे की तरह मुस्करा देते।
 
   

विस्मित करने वाली रेखांकन कला


  डॉ कुँअर बेचैन जी की रेखाचित्र बनाने की कला में भी सिद्धहस्त थे। इस कला प्रत्यक्ष प्रदर्शन इसी अमेरिका यात्रा में देखने को मिला। 8 अप्रैल 2013 को हम लोग सिद्ध प्रसिद्ध कथाकार दीदी सुधा ओम ढींगरा के आतिथ्य में उनके शहर राले नार्थ कैरोलिना पहुंचे। हमें दो दिन इसी शहर में रहना था। इसी शहर में मेरा चचेरा भाई संकल्प अवस्थी है। हम लोग खाली दिन संकल्प के बुलावे पर उनके आवास पर गए। कुंअर जी कुछ ही समय में संकल्प , किरण (पत्नी) व उनकी बेटी (अपेक्षा) व बेटे (अथर्व) के संग आत्मीयता के साथ ऐसे घुलमिल गए कि मानों लंबे अर्से से परिचित हों। उन्होंने बेटी की कापी पर अपने पेन से आड़ी तिरछी रेखाएं खींच कर एक चित्र  उंकेरा और उस पर सुंदर हस्तलेख में तुरन्त रचा हुआ एक दोहा - (किरन,अपेक्षा,और नव प्रिय संकल्प अथर्व।यू.यस. में इनसे मिले, हुआ हमें अति गर्व) लिखा और कलात्मक हरस्ताक्षर करके  मुझसे व दीपक गुप्ता से भी हस्ताक्षर कर आशीर्वाद स्वरूप  बच्चों को थमा दिया। रेखांकन में  मुस्कराते हुए  चार चेहरे बने हुए थे। उनकी इस रेखांकन कला को देख कर हम सभी आश्चर्यचकित रह गए।
  

 

मॉरीशस में मस्ती

डॉ कुँअर बेचैन के सानिध्य में मेरी दूसरी विदेश यात्रा विश्व हिंदी सम्मेलन, मॉरीशस (18 से 20 अगस्त 2020) की हुई।संयोग से समुद्र तट के बहुत करीब बने खूबसूरत होटल हैल्टन में मेरा और डॉक्टर साहब का कमरा आमने सामने था। हम  साथ साथ ही जाते। उस दिन मैं तैयार होने के लिए पैन्ट, शर्ट, सदरी, रुमाल, व प्रयोग किये मोजे बेड पर इधर उधर फेंक कर अभी बाथरूम में घुस ही रहा था कि समय के बेहद पाबंद कुंअर जी रूम में मुझे बुलाने आ गए। बोले, ' अरे अभी तैयार नहीं हुए?' मैं ' सिर्फ दो मिनट' कह कर बाथरूम में घुस गया। दो मिनट में लौटा तो देखा कि कुँअर जी मेरी खुली अटैची से मेरे लिए अपनी पसंद की पोशाक निकाल चुके थे। मैने उनके द्वारा चयनित पोशाक पहनी। उन्होंने तुरंत मोबाइल से एक फोटो क्लिक किया।
मुझे अपनी अस्त व्यस्तता पर खुद से शर्मिंदगी हुई। मैने उस दिन समय का पाबंद रहना सीखा।वहाँ हम लोगों ने उनके साथ खूब आनंद उठाया।


मेरा पहला कवि सम्मेलन कुँअर जी के सानिध्य में...


यह सुखद संयोग है कि काव्य साहित्य की वाचिक परम्परा कवि सम्मेलन से जिस कार्यक्रम से मेरा परिचय हुआ, वही मेरा पहला कवि सम्मेलन बना जिसमे मैने काव्यपाठ किया। सुखद है कि पहले ही कवि सम्मेलन में मुझे डॉ कुंअर बेचैन जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। जहां तक मुझे स्मरण है कि सितंबर 1979 में कानपुर में गीतकार श्री शिव कुमार सिंह कुँवर के संयोजन में रोडवेज वर्कशाप में कवि सम्मेलन हुआ था जिसका सन्चालन श्री उमाकांत मालवीय जी कर रहे थे। मैं पहली बार कवि सम्मेलन सुन रहा था। मैंने साथ बैठे मित्र अनुपम निगम से कहा कि जैसे ये लोग कविता पढ़ रहे हैं, मैं भी पढ़ सकता हूँ। उन्होंने मेरा नाम आयोजक मंडल के पास भेज दिया। चमत्कार हुआ और दूसरे चक्र में डॉ कुँअर बेचैन के बाद मुझे बुलाया गया। चूंकि मैं उन दिनों रामलीला में वाणासुर का पाठ करता था और कविताएं लिखा करता था, इसलिए मुझे मंच व माइक का भय नहीं था। मैंने उन दिनों स्वतंत्रता दिवस पर कविता लिखी थी। वही कविता मैने पूरे तेवर के साथ प्रस्तुत की। खूब वाह वाह हुई। कार्यक्रम खत्म होने पर जिस कवि ने सबसे पहले मुझे नोटिस में लेकर पीठ थपथपाई वह कुँअर जी थे। सिर पर रखा उनका आशीर्वाद का हाथ मैं अभी भी महसूस करता हूँ। ' मानस मंच ', राष्ट्रीय पुस्तक मेला, दैनिक जागरण के कवि सम्मेलनों, लाल किला, देश के कई शहरों सहित तमाम कवि सम्मेलनों व पुस्तक लोकार्पण समारोहों में उनके साथ मंच साझा करने के पुण्य अवसर मिले। मानस मंच,कानपुर के आयोजन में उन्होंने मेरे आग्रह पर सम्मान भी स्वीकार किया।डॉ कुअँर बेचैन ने एक अन्य आत्मीय यात्रा में बताया कि बचपन में ही माता पिता को खो देने के बाद बड़ी बहन के संरक्षण व निर्देशन मे उन्होंने कितने संघर्षों से इस मुकाम तक पहुंचा हूं। मैंने सीखा कि साधन ' से नहीं 'साधना' से मिलती है सफलता।

आज भी प्रेरणा देता है मेरे जन्मदिन पर लिखा प्रत्येक शब्द 


डॉ कुँअर बेचैन ने अमेरिका यात्रा के बाद मेरे जन्मदिन 15 फरवरी को उन्होंने मेरे लिए जो लिखा उसका शब्द शब्द में स्नेह से पगा हुआ और प्रेरक है...
"आज प्रसिद्ध पत्रकार, कवि,संचालक , संयोजक एवं चिंतक डॉ. सुरेश अवस्थी जी का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं । सुरेश जी के साथ मुझे कई कविसम्मेलनों में जाने का अवसर मिला। विशेष रूप से उस यात्रा का ज़िक्र करना चाहूंगा जो अमेरिका की यात्रा थी। अमेरिका के 18 नगरों में हम लोगों का काव्य-पाठ था। कहा जाता है कि अगर किसी के स्वभाव की मूल प्रवृति की पहचान करनी हो तो उसके साथ कुछ दिनों यात्रा करो। डॉ. सुरेश ने इस यात्रा के दौरान जिस आत्मीयता का परिचय दिया, जितना मेरा ध्यान रखा,  जितना मुझे प्रेम और सम्मान दिया वह अविस्मरणीय है। उनकी प्रबंधन-क्षमता भी अनुकरणीय है।
      मैं उनके जन्मदिन के सुअवसर पर उनके उत्तम स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि की कामना करता हूँ। वे दीर्घजीवी हों। - कुँअर बेचैन


काश! उनके हाथों में सौंप पाता पुस्तकें...

डॉ कुंअर बेचैन जी ने मेरे ग़ज़ल संग्रह " दीवारें सुन रही हैं" व दोहा संग्रह " बन कर खिलो गुलाब " में मेरी रचनाधर्मिता पर उदारतापूर्वक आलेख लिखे। कोरोना महामारी के चलते ये दोनों पुस्तकें समय पर न आ सकीं। अब जब कि दोनों पुस्तकें आ गईं हैं तो जीवन भर मलाल रहेगा कि काश! मैं ये पुस्तकें उनके हाथों में सौंप पाता?
  

 शिष्यों की लंबी सूची

डॉ  बेचैन जी के रचनाधर्मी शिष्यों की लंबी सूची है। उन्हीं में से एक गीतकार ग़ज़लकार मेरे अनुजवत डॉ दुर्गेश अवस्थी हैं । उन्होंने कई बार अपने गुरुदेव डॉ कुँअर जी के गुरुत्वभाव, सदाशयता, स्नेह , उदारता, सहयोग आदि की मुझसे कई बार चर्चा की। मुझे याद है कि जब मैंने डॉ दुर्गेश को मानस मंच, कानपुर के कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया तो उन्होंने काव्यपाठ से पूर्व अपने गुरुदेव का स्मरण करके उनकी ही पंक्तियों से उन्हें प्रणाम किया और फिर अपनी रचनाएं पढ़ीं। उनके महाप्रस्थान से बेहद भावुक व दुखी दुर्गेश जी ने बताया कि हाल ही में डॉ बेचैन जी ने उनकी पुस्तक की भूमिका लिखी है। उनके द्वारा लिखी यह भूमिका अंतिम भूमिका है। जाते जाते वह मुझे आशीर्वाद का महाप्रसाद दे गए। उनके प्रति वह जीवनपर्यंत ऋणी रहेंगे।
    

मेरा मानना है कि कालजयी रचनाओं के रचनाकार देह से भले ही हमारे बीच से चले जाएं पर अपनी रचनाओं से हमेशा रहते हैं क्योंकि उनकी मृत्यु नहीं होती, रूपांतरण होता है। डॉ कुंअर बेचैन अपने प्रसंशकों व अपने दुर्गेश जी जैसे प्रतिभासंपन्न शिष्यों में रूपांतरित हुए हैं।इसलिए अनन्त स्मृतियां, अपार स्नेह, अप्रतिम रचनाधर्मिता, आनंदकारी प्रस्तुति, अभिभूत करने वाली लोकप्रियता, अद्भुत शालीनता, अपार बड़प्पन, अक्षुण्य धैर्य, अभूतपूर्व वाणी संयम, अलौकिक रागात्मकता, अमर काव्य साधना, अगम सकारात्मकता व अनन्तिम सौहार्द्र ।

✍️ डॉ.सुरेश अवस्थी    
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