आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 4 अगस्त 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का आलेख- सादगी के साथ ताज़गी के बड़े शायर : ज़मीर दरवेश


    माता शाकुम्भरी देवी के सिद्धपीठ स्थल और लकड़ी की नक्काशी के लिए दुनिया भर में मशहूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर सहारनपुर में मरहूम अमीरउद्दीन एवं श्रीमती लतीफन बेगम के आँगन में 8 दिसम्बर, 1943 को जन्में ज़मीरउद्दीन को अदबी दुनिया में उस्ताद शायर ज़मीर ‘दरवेश’ के नाम से जाना जाता है। सरल और सहज दरवेश साहब की शायरी भी बेहद सादगी लेकिन ताज़गी भरी है। उनकी शायरी से होकर गुजरना मतलब ज़िन्दगी की बारीकियों से रूबरू होना और उन्हें महसूस करना है। उनकी ग़ज़ल का शेर देखिए-

 'मैं घर का कोई मसअला दफ़्तर नहीं लाता, 

अन्दर की उदासी कभी बाहर नहीं लाता, 

तन पर वही कपड़ों की कमी, धूप की किल्लत,

 मेरे लिए कुछ और दिसम्बर नहीं लाता।'

          मण्डल रेल प्रबंधक कार्यालय मुरादाबाद में दूरभाष अधीक्षक के पद से वर्ष 2003 में सेवानिवृत्त हुए दरवेश साहब की शायरी के विभिन्न चित्र मिलते हैं, कभी वह अपनी समसामयिक विसंगतियों को अपनी शायरी का मौज़ू बनाते हैं तो कभी फलसफ़े उनके शे’रों की अहमियत को ऊचाईयों तक ले जाते हैं। उनका एक शे'र देखिए-

 'आदमी को इतना ख़ुदमुख़्तार होना चाहिए,

 खुलके हँसना चाहिए, जी भरके रोना चाहिए।'

सेवानिवृत्ति उपरान्त पूर्णतः साहित्य सृजन को समर्पित दरवेश जी की ग़ज़लें फ़ारसी की इज़ाफ़त वाली उर्दू के मुकाबले आज की आम बोलचाल की भाषा को तरजीह देती हैं। उनके अश्’आर मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को झकझोरती रहती है। साधारण सी बात भी वह असाधारण रूप में कह देते हैं- 

'घर के दरवाज़े हैं छोटे और तेरा क़द बड़ा, 

इतना इतराके न चल चौखट में सर लग जायेगा।'

             इतिहास विषय में परास्नातक दरवेश साहब ने पिछले लगभग साठ वर्षों से साहित्य सृजन में रत रहकर ख़ूबसूरत ग़ज़लें तो कही ही हैं, बाल साहित्य के क्षेत्र में भी बहुत काम किया है।  उनकी अब तक 22 पुस्तकें प्रकाशित होकर चर्चित हो चुकी हैं जिनमें 'अंकुर'(ग़ज़ल संग्रह), 'जो दिल पे गुज़रती है'(ग़ज़ल संग्रह), 'अलअतश'(ग़ज़ल संग्रह), 'हाशिया'(ग़ज़ल संग्रह), ‘क़लम काग़ज़ के बोसे’(नात संग्रह) के साथ-साथ उर्दू में बाल कविताओं के संग्रहों में 'अबलू बबलू की नज़्में', 'खेल-खिलौनों जैसी नज़्में', 'प्यारी-प्यारी नज़्में', 'प्यारे नबी जी', 'तराना ए नौनिहालाने मिल्लत', 'गुंचा नज़्मों का', 'शाही चीलों के जज़ीरे पर', 'आदमज़ात परीलोक में' आदि चर्चित रही हैं तथा उनकी कुछ बाल कविताएँ महाराष्ट्र में पाठ्यक्रम में भी शामिल हैं। उनकी तीन कृतियों की पांडुलिपियाँ प्रकाशनाधीन हैं।

           दैनिक जागरण मुरादाबाद की ओर से 2019 में सम्मानित होने के साथ-साथ साहित्यिक संस्था ‘अक्षरा’ से 2013 में समग्र साहित्यिक साधना के लिए ‘देवराज वर्मा उत्कृष्ट साहित्य सृजन सम्मान’ व संस्था 'हरसिंगार' की ओर से 'माहेश्वर तिवारी गज़ल साधक सम्मान' व साहित्यिक संस्था 'हम्दो नात फाउंडेशन' व 'हस्ताक्षर' से सम्मानित होने वाले ज़मीर दरवेश साहब के ग़ज़ल संग्रह 'हाशिया' और नात संग्रह ‘क़लम काग़ज़ के बोसे’ के लिए बिहार उर्दू अकादमी द्वारा दरवेश जी को पुरस्कृत किया जा चुका है। दरवेश जी पर समूचे मुरादाबाद को गर्व है। 


✍️ योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

ए.एल.-49, उमा मेडिकल के पीछे,दीनदयाल नगर-।, काँठ रोड, मुरादाबाद , उत्तर प्रदेश, भारत  चलभाष- 9412805981

मंगलवार, 3 जून 2025

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में गुरुग्राम निवासी) के साहित्यकार डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल के बाल गीत संग्रह सपनों को उड़ान दो पर लखनऊ के बाल साहित्यकार डॉ सुरेन्द्र विक्रम का समीक्षात्मक आलेख....

 


डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल
बहुआयामी व्यक्तित्त्व के धनी हैं। उनके द्वारा संपादित लिखित एवं प्रकाशित पुस्तकों की संख्या शताधिक है। उन्होंने बड़ों के लिए जहाँ कविताएँ, कहानियाँ शोध आलेख तथा व्यंग्य रचनाओं का सृजन किया है, वहीं बच्चों के लिए भी मनोहरी रचनाएँ लिखी हैं। विशेष रूप से बाल नाटकों, बाल कहानियों के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियाँ प्रशंसनीय हैं।उन्होंने डॉ. अग्रवाल जहाँ बच्चों को मानव सभ्यता का इतिहास बताते हुए उन्हें अतीत में ले चलते हैं, वहीं महापुरुषों के विचारों को वर्तमान से जोड़ते हुए इनसे प्रेरणा लें नामक पूरी श्रृंखला ही भावी पीढ़ी को सौंप देते हैं। 

        हिन्दी के वरिष्ठ प्राध्यापक, शोध अध्येता, सैकड़ों पुस्तकों के लेखक, संपादक, प्रकाशक और कुल मिलाकर एक सहज व्यक्तित्त्व के धनी डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल से मिलना हर बार न‌ई ऊर्जा से भर देता है। यह मेरा सौभाग्य है कि लगभग तीन दशकों से मैं उनका स्नेहभाजन रहा हूँ। हिन्दी बालसाहित्य शोध का इतिहास पुस्तक लिखते समय मैंने उनके सुदीर्घ अनुभव का बराबर लाभ उठाया है। बार-बार मोबाइल से उनसे संदर्भ पूछता रहता था। उनके संपादन में प्रकाशित शोध संदर्भ के मोटे-मोटे क‌ई खंड मेरे पास हैं। 
    मेरे बालसाहित्य सृजन पर हुए पहले शोध प्रबंध को उन्होंने ही अपने प्रकाशन से पुस्तकाकार प्रकाशित करके पूरे देश में पहुँचाया है। उसकी प्रतियाँ विभिन्न पुस्तकालयों में आज भी उपलब्ध हैं। क‌ई शोधकर्ताओं ने अपने -अपने शोध प्रबंधों में उसे उद्धृत किया है।
        साहित्य की हर विधा में अपनी मजबूत पकड़ बनाना इतना आसान नहीं होता है। एक को पकड़ो तो दूसरा छूटने का खतरा बराबर बना रहता है।, लेकिन माँ वीणापाणि सरस्वती की जिसके ऊपर कृपा हो, उसके लिए सब आसान हो जाता है। डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल अपने विपुल लेखन के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी बराबर रुचि लेते रहे हैं। रोटरी क्लब में भी उनकी सक्रिय साझेदारी रही है। एक सफल रोटेरियन के रूप में आज भी उनकी पहचान बनी हुई है। 
        इतनी सक्रियता के बावजूद फोन पर लंबी साहित्यिक चर्चा करते हैं और अपने सुझावों से हमारा मार्गदर्शन करते हैं। इन तीन दशकों में ऐसा कभी नहीं हुआ है कि उन्होंने मेरा फोन नहीं उठाया। कभी अगर नहीं लगा तो पलटकर देखते ही फोन किया। पिछले दिनों न‌ई दिल्ली की एक बैठक में पुस्तक प्रकाशन की चर्चा आते ही उन्होंने उसके प्रकाशन का जिम्मा अपने ऊपर लेते हुए कहा था कि मैं हिन्दी साहित्य निकेतन से उसे प्रकाशित कर दूँगा। दुर्भाग्यवश वह योजना ही फ्लॉप हो गई।
         इधर बच्चों की कविताओं को लेकर उन्होंने बड़े अद्भुत प्रयोग किए हैं। उनकी पुस्तक सपनों को उड़ान दो में कुल 40 बालगीतों को संकलित किया गया है। 
       गाँव और शहर के अंतर को स्पष्ट करता हुआ उनका यह बालगीत संवेदना के धरातल पर सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। गाँव से बड़े-बड़े सपने लेकर चला हुआ व्यक्ति शहर की भागमभाग में ऐसा उलझता है कि उसे अपना ही ख्याल नहीं रहता है। निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए -----

जब से यहाँ गाँव से आया
नहीं किसी से मैं मिल पाया।
जब भी मिले पड़ोसी अंकल 
बाय-बाय कर पिंड छुड़ाया। 
संबंधों में खाना पूरी 
दीदी ऐसी क्या मजबूरी?
अपना गाँव याद है आता 
जहाँ सभी से अपना नाता। 
खेल-खेल में सब दुख भूलें 
सब हैं दोस्त सभी हैं भ्राता। 
शहरों में क्यों होती दूरी 
दीदी ऐसी क्या मजबूरी।

नदियों से मानव जीवन जुड़ा हुआ है। सच्चाई तो यह है कि बिना नदियों के स्वस्थ और सार्थक समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इसलिए हमारा दायित्त्व है कि नदियाँ स्वच्छ रहें, उनमें कूड़ा -करकट इकट्ठा न होने पाए। कभी-कभी नदियों का उद्गमस्थल हमें पता नहीं चलता कि इनकी यात्रा कहाँ से शुरू होकर कहाँ पर समाप्त होती है। एक ऐसा ही प्रेरणादायक बालगीत इस पुस्तक में दिया गया है -----

नदी कहाँ से तुम आती हो
नदी कहाँ तक तुम जाती हो। 
तुम्हें देख लगता है ऐसा 
जीवन क्या है बतलाती हो। 
ऊँचे पर्वत की चोटी से
तुम बनाकर धारा आती हो। 
सूखी धरती को संचित कर 
सागर में तुम मिल जाती हो।
नदियाँ जल का अगम स्रोत हैं। 
सबकी प्यास बुझतीँ पल-पल।
लेकिन हम लालच में आकर 
दूषित कर देते निर्मल जल।
नदियों के तट पर ऋषियों ने 
पाया अद्भुत ज्ञान जगत का। 
तीर्थ बने नदियों के तट पर 
पाया हमने ज्ञान विगत का।

प्रकृति -पर्यावरण, मौसम, पेड़ -पौधे सब मानव के लिए जरूरी हैं, लेकिन हम इनके प्रति कितना जागरुक हैं, यह प्रश्न विचारणीय है। पेड़ों को लगाना तो आवश्यक है ही, उनका संरक्षण और समय-समय पर कटाई-छटाई भी बहुत जरूरी है। पेड़ रहेंगे तो पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा-----
हम सब पेड़ लगाएँ मिलकर 
पर्यावरण बचाएँ मिलकर।
इमली, जामुन, नीम लगाएँ 
पक्षी मिल घोसले बनाएँ। 
पेड़ लगाकर भूल न जाएँ
गफलत में ये सुख न जाएँ। 
प्राणवायु मिलती पेड़ों से 
खुशहाली बढ़ती पेड़ों से। 
पेड़ हमारे जीवनदाता 
इनसे हर प्राणी का नाता। 
जहाँ पेड़ हैं, वन- जंगल हैं 
वर्षा वहीं, वहीं पर जल है।

हमें आए दिन भूकंप आने की खबरें मिलती रहती हैं। कुछ भूकंप की तीव्रता इतनी अधिक होती है है, उससे अपार धन-जन की हानि हो जाती है। हमें भूकंप के बारे में विस्तार से जानकारी इसलिए भी आवश्यक है ताकि हम अपने को उससे सुरक्षित रखने का उपाय कर सकें। प्रस्तुत संग्रह की भूकंप कविता सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करती है ---

क्यों आता भूकंप बताया 
पापा जी ने मुझको।
 धरती के नीचे चट्टानें, आपस में टकरातीं। 
इसी केन्द्र से शक्ति तरंगें, कंपन को फैलातीं। 
बिल्कुल जैसे शांत सरोवर, में तुम पत्थर फेंको 
और उसी क्षण पानी के, ऊपर लहरें उठ आतीं। 
धरती भी तो बँधी हुई है , इन परतों की डोर से। 

आता जब भूकंप हिला, करती है धरती सारी। 
बड़े-बड़े भवनों को उस, क्षण होती है क्षति भारी। 
आग कहीं लगती है तो फिर आती कहीं सुनामी। 
टूटे बाँध और पुल टूटे, मानव की लाचारी। 
टूटी-फूटी दीवारों को देख रहे हम भोर से।

        अद्विक प्रकाशन प्रा. लि. दिल्ली ने इस पुस्तक को बड़े आकर्षक ढंग से रंगीन चित्रों सहित प्रकाशित किया है। अच्छा कागज, सुंदर छपाई और मनमोहक आवरण पुस्तक में चार चाँद लगा रहे हैं। 



कृति : सपनों को उड़ान दो (बाल गीत संग्रह )
रचनाकार : डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल 
संस्करण :2023
मूल्य : 250₹
प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशंस, दिल्ली

समीक्षक
: डॉ सुरेन्द्र विक्रम
             सी 1245, एम आई जी
              राजाजीपुरम 
              लखनऊ 226017
               उत्तर प्रदेश, भारत 

बुधवार, 16 अप्रैल 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख । यह प्रकाशित हुआ है उत्तर केसरी मुरादाबाद संस्करण के 16 अप्रैल 2025 के अंक में

 



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित आलेख । यह प्रकाशित हुआ है अमृत विचार मुरादाबाद संस्करण के 16 अप्रैल 2025 के अंक में

 



रविवार, 13 अप्रैल 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख ।यह प्रकाशित हुआ है दैनिक जागरण मुरादाबाद संस्करण के 13 अप्रैल 2025 के सबरंग पेज पर

 


मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का संस्मरणात्मक आलेख .... ठहाके भी गूंजते थे दादा माहेश्वर तिवारी के



  'धूप में जब भी जले हैं पांव, घर की याद आई...' नवगीत दादा माहेश्वर तिवारी की लेखनी से शायद तब सृजित हुआ होगा जब दूर दराज़ इलाकों में आयोजित कवि सम्मेलनों और साहित्यिक आयोजनों में उन्हें कई-कई दिन घर से बाहर रहना पड़ा होगा, यह अलग बात है कि उनके इस नवगीत को तब 1970 के दशक में आपातकाल के परिणामस्वरूप आम जनमानस की पीड़ा की अति संवेदनशील अभिव्यक्ति कहा गया। दादा पास बैठना-बतियाना, मतलब साहित्य के एक युग से बतियाना होता था। उनके पास साहित्यकारों के, कविसम्मेलनों के, साहित्यिक आयोजनों के इतने संस्मरण थे कि जब भी बातचीत होती थी तो समय कब गुजर जाता था, पता ही नहीं चलता था। इसके साथ-साथ वह अपनी विशेष वाकशैली से उन किस्सों, घटनाओं और संस्मरणों को और अधिक रोचक बना देते थे।

            एक बार उन्होंने सुल्तानपुर (उ.प्र.) के राजकीय इंटर कॉलेज में कविसम्मेलन का संस्मरण सुनाया था। कविसम्मेलन के संयोजक कथाकार स्व. गंगाप्रसाद मिश्र थे। कविसम्मेलन में देर से पहुँचने के कारण वह जिन कपड़ों में थे उन्हीं में सीधे मंच पर पहुँच गए। मंच पर पहुँचते ही उन्हें काव्यपाठ करना पड़ा। कविसम्मेलन में उन्होंने अपना याद वाला गीत पढ़ा- 'याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे / जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे...'। गीत पढ़कर मंच से उठकर चाय पीने के लिए आये, चाय पी ही रहे थे तभी एक वयोवृद्ध सज्जन उनके पास आए और ऐसा सवाल कर बैठे कि उनकी आयु और प्रश्न सुनकर तिवारी जी चौंक गए। उन सज्जन ने बड़ी गंभीरता से कहा- 'तिवारीजी, एक बात बताईए कि यह घटना कहाँ की है और यह किरन कौन है? क्या वह आपके साथ नहीं थी उस पहाड़ पर...?' जैसे-तैसे उन्हें टाला और जब कवि मित्रों से उसकी चर्चा की तो सभी ठहाका मारकर हँस पड़े। यह सुनकर उन्हें भी हँसी आ गई और इस ठहाके के साथ ही उठना ठीक लगा।

            इसी गीत को लेकर उन्होंने एक और रोचक संस्मरण सुनाया था। शायद 1980 के दशक की बात है कि वाराणसी में एक कवि सम्मेलन में वह गये थे, कविसम्मेलन की अध्यक्षता उस समय के शीर्ष गीतकार भवानी प्रसाद मिश्र कर रहे थे। तिवारी जी ने वहाँ 'डायरी में उंगलियों के फूल से / लिख गया है नाम कोई भूल से...' और 'डबडबाई है नदी की आंख / बादल आ गए हैं...' सुनाए, किन्तु तभी अध्यक्षता कर रहे भवानी दादा वोले- 'माहेश्वर, वो याद वाला गीत और सुनाओ'। दरअसल, भवानी प्रसाद मिश्र को यह गीत बहुत प्रिय था। तिवारी जी ने अपने सुरीले अंदाज में सुनाया- 'याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे / जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे...'। कवि सम्मेलन समाप्त हो जाने के बाद भवानी दादा ने कहा- 'माहेश्वर कल को मेरे साथ इलाहाबाद (अब प्रयागराज) चलना, गांधी जयंती पर कविसम्मेलन है।' इलाहाबाद पहुंचकर भवानी दादा से तिवारी जी बोले- 'दादा, लेकिन मेरे पास गांधीजी के संदर्भ में गीत नहीं है, फिर मैं क्या सुनाऊंगा'। भवानी दादा बोले- 'वो याद वाला गीत सुनाओ'। तिवारी जी ने फिर से उसी अंदाज में सुनाया- 'याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे...।' देर रात समाप्त हुए कविसम्मेलन के बाद पत्रकारों ने भवानी दादा से पूछा- 'आपने गांधी जयंती पर आयोजित कविसम्मेलन में प्रेम गीत- याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे... कैसे पढ़वा दिया?' भवानी प्रसाद मिश्र बोले- 'गांधीजी की याद भी कंचन कलश भरवा सकती है।' 

            दादा माहेश्वर तिवारी जी के गीत जितने लोकप्रिय और प्रसिद्ध थे, उससे भी अधिक उनके ठहाके चर्चित रहते थे। उनसे जब भी कोई मिलता था, बातचीत के दौरान उनके ठहाकों की उन्मुक्तता में डूबे बिना नहीं रहता था। इन ठहाकों की गूँज तब और बढ़ जाती थी जब तिवारी जी के साथ इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के कवि कैलाश गौतम और होशंगाबाद (म.प्र.) के कवि विनोद निगम होते थे। एक बार दादा तिवारी जी ने बताया था कि बात 1983 की है, जब डा. शम्भूनाथ सिंह के संपादन में 'नवगीत दशक-1' आया था, तय हुआ कि इसका लोकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के हाथों होगा। प्रधानमंत्री कार्यालय से स्वीकृति मिल जाने के बाद लोकार्पण की तिथि को निर्धारित समय पर डा. शम्भूनाथ सिंह, देवेंद्र शर्मा इन्द्र, नचिकेता, उमाकांत मालवीय, माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, कैलाश गौतम, नईम, श्रीकृष्ण तिवारी, विनोद निगम सहित लगभग 20 नवगीतकार प्रधानमंत्री आवास के प्रतीक्षा कक्ष में बैठकर इंतजार कर रहे थे, प्रोटोकॉल के तहत कक्ष के भीतर एक गहरी चुप्पी पसरी हुई थी, तभी शम्भूनाथ सिंह तिवारी जी गीत गुनगुनाते हुए बोले- 'यह तुम्हारा मौन रहना, कुछ न कहना सालता है...', तुरंत बाद ही सुरक्षा बल के जवान धड़धड़ाते हुए प्रतीक्षा कक्ष में आ गए। सभी कुछ सामान्य देखकर वे वापस चले गए, उनके जाते ही कैलाश गौतम, विनोद निगम और तिवारी जी ठहाके मारकर हँसने लगे।

              ऐसा ही एक और किस्सा दादा तिवारी जी ने सुनाया था, जब बुद्धिनाथ मिश्र और कैलाश गौतम के साथ वह एक कवि सम्मेलन से रात 2 बजे वापस लौट रहे थे और सड़क पर बस का इंतजार कर रहे थे। चारों ओर सुनसान सड़क पर सन्नाटा पसरा हुआ था। तीनों ही लोग कविसम्मेलन में अन्य कवियों के कवितापाठ पर टिप्पणी करते हुए ठहाके मारकर हँस रहे थे, तभी वहाँ पुलिस की गश्ती जीप आ गई। पूछा- 'आप लोग कौन हैं और कहाँ जाएंगे? दादा तिवारी जी बोले- 'हम कवि लोग हैं, जहाँ ले जाना चाहो वहीं चले जाएंगे' और बहुत जोर से ठहाका लगा कर हंसने लगे। पुलिस के लोग बोले- 'चलो, ये सब पिए हुए हैं।' यह सुनकर तीनों ही ठहाके मारकर जोर जोर से हंसने लगे।

     इसी प्रकार वर्ष 2019 में पावस गोष्ठी में आमंत्रण देने के लिए दादा तिवारी जी ने कवि राजीव प्रखर को फोन किया, मैं भी उस समय वहां उपस्थित था। दादा फोन पर बोले- 'राजीव प्रखर बोल रहे हैं?' उधर से आवाज आई- 'जी, राजीव प्रखर बोल रहा हूं, लेकिन आप कौन बोल रहे हैं?' दादा बोले- 'मैं माहेश्वर तिवारी का पड़ोसी बोल रहा हूं' इतना सुनते ही मैं और दादा ठहाका मारकर हंसने लगे। ऐसे अनगिनत किस्से, प्रसंग और संस्मरण हैं जो आज भी किसी चलचित्र की तरह जीवंत हैं यादों में। 

✍️योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

शनिवार, 12 अप्रैल 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी पर केंद्रित उनकी पत्नी बाल सुंदरी तिवारी का संस्मरणात्मक आलेख... वे मेरे उत्सव थे...





कैसे और कहाँ से शुरू करूँ, जिनके साथ 48 वर्ष बिताए हों, यात्रा पर जाने के अलावा कभी अकेली नहीं रही, खाने का पहला कौर मैंने कभी अपने हाथ से नहीं खाया, ना ही उन्होंने। हम मित्र अधिक पति पत्नी कम थे, कभी मैं कुछ सोचती, वे बोल पड़ते और वो कुछ सोचते तो मैं बात कह पड़ती, ऐसा अद्भुत संबंध था हमारा। खिलखिलाहट से भरा कोमल मन, मीठी वाणी, मीठा स्वर, हर किसी के अपने थे वे। उनकी रचना की प्रथम श्रोता भी प्रायः मैं ही रहती थी। मैं संगीत-साहित्य से जुड़े परिवार में जन्मी थी अतः कविता को अच्छे से समझती और हर पंक्ति में डूब जाती। वे लिखते तो मैं उसका संगीत तैयार करती, वे मधुर मुस्कान से प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे। हमारा उनका  साहित्य तथा संगीत से जुड़ा संबंध रहा है। वे विदिशा, मध्य प्रदेश में महाविद्यालय में कार्यरत थे। दो दिन का अवकाश लेकर बंबई मुझे देखने आये। यह मेरी शर्त थी पहले मुझे देखें तभी शादी करूंगी। अतः 29 जून 1975 को आये और 30 जून 1975 में मात्र एक दिन में ही हम एक दूसरे के हो गए। अतः उत्तर प्रदेश की मैं महाराष्ट्र (बंबई) में विवाह और विदा हो कर मध्य प्रदेश गयी। उनसे मिलन के पहले दिन ही मुझे तीन बच्चो की मां बनने का सौभाग्य मिला। तीनों को हम दोनों का प्यार मिले। मेरे बहुत कहने पर भी उन्होंने मेरी सर्विस नहीं छुड़वाई, वरन अपनी सर्विस छोड़कर हमेशा के लिए मुरादाबाद आ गए। एक पुरुष के लिए यह बहुत बड़ा कदम था। वे यहां मुरादाबाद में रहते अवश्य थे किंतु वे देश विदेश हिंदुस्तान के अधिक से अधिक परिवारों से जुड़े थे सबके प्रति स्नेह अपनापन था। जब यात्राओं पर चले जाते तो मैं उनके आने के दिन गिनती थी, उनसे उनके नये-नये अनुभव सुनती फिर दोनों हँसते, ऐसा हमारा लगाव था।

     वो मेरे उत्सव थे, मैं संकोची थी उन्होंने मुझे साहस दिया। उन्होंने ही मुझे कविता लिखने की प्रेरणा दी। हमने मुरादाबाद में गोकुलदास रोड पर स्थित 'प्रकाश भवन' (किराये के घर) में सत्रह वर्ष बिताए फिर हम नवीन नगर में अपने घर 'हरसिंगार' में आ गए और लगभग तीस साल के बाद पिछले साल ही गौर ग्रीशियस के निवासी हो गए। अपनी पुस्तकों-'हर सिंगार कोई तो हो', 'नदी का अकेलापन', 'सच की कोई शर्त नहीं', 'फूल आये हैं कनेरो में' में वह सदैव जीवित रहेंगे। उनकी ही पंक्ति 'इन शरीरों से परे क्या है हमें जो बाँधता हैं' याद आती है, सच ही है कि हम दोनों केवल शरीरों से ही नहीं, मन प्राणों से जुड़े हुए रहे।

आज वे उर्धगामी यात्रा पर निकल गए, अब मैं उनके लौटने की प्रतीक्षा नहीं कर पा रही हूँ, अब केवल बस केवल मेरी उनकी यादों की यात्रा शुरू हो गयी है। क्या क्या याद करूँ असीमित यादें हैं, एक-एक क्षण जो मैंने उनके साथ जिया, उन पलों की यादों को शब्द देना कठिन है। आज उनका अमूल्य धन असंख्य पुस्तकें मेरे पास है। इस धन को कोई मुझसे नहीं छीन सकता, गुलजार साहब की लाइनें याद आ रही हैं- 'बंद अलमारी के शीशों से झाँकती हैं किताबें, बड़ी हसरतों से ढूँढ़ती हैं। उन कोमल हाथों को जो पलटते थे उनके सफों को, अब बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें अब उन्हें नींद में चलने की आदत हो गयी है।

✍️ बालसुंदरी तिवारी

 मुरादाबाद

सोमवार, 7 अप्रैल 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सतीश फ़िग़ार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख। यह प्रकाशित हुआ है संभल से प्रकाशित दैनिक राष्ट्रीय सिद्धांत के 7 अप्रैल 2025 के अंक में

 


मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सतीश फ़िग़ार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख। यह प्रकाशित हुआ है दैनिक जागरण मुरादाबाद संस्करण के 7 अप्रैल 2025 के अंक में

 


रविवार, 16 मार्च 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख ।यह प्रकाशित हुआ है दैनिक जागरण मुरादाबाद संस्करण के 16 मार्च 2025 के सबरंग पेज पर

 


अतीत में दबे साहित्य को खोजा सुरेन्द्र मोहन मिश्र ने 

 

पुण्यतिथि 22 मार्च पर विशेष आलेख 


      पंडित सुरेंद्र मोहन मिश्र ने न केवल साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त की बल्कि इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता के रूप में भी विख्यात हुए। उन्होंने अतीत में दबे साहित्य को खोज कर उजागर किया।

     साहित्य, इतिहास और पुरातत्व को अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले सुरेन्द्र मोहन मिश्र का जन्म 22 मई 1932 को चंदौसी के लब्ध प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ। आपके पिता पंडित रामस्वरूप वैद्यशास्त्री रामपुर जनपद की शाहबाद तहसील के अनबे ग्राम से चंदौसी आकर बसे थे। उनकी आयुर्वेद जगत में अच्छी ख्याति थी। उनके द्वारा स्थापित धन्वतरि फार्मसी द्वारा निर्मित औषधियाँ देश भर में प्रसिद्ध हैं । उनका निधन 22 मार्च 2008 को मुरादाबाद में अपने दीनदयाल नगर स्थित आवास पर हुआ ।

    बचपन से ही साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने में उनकी रुचि थी। साहित्य अनुराग के कारण ही आप कविता लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उधर, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में गाये जाने वाले कोरसों का भी मन पर पूरी तरह प्रभाव पड़ा। 

     आपकी प्रथम कविता दिल्ली से प्रकाशित दैनिक सन्मार्ग में वर्ष 1948 में प्रकाशित हुई । उस समय आपकी अवस्था मात्र सोलह वर्ष की थी। इसके पश्चात् आपकी पूरी रुचि साहित्य लेखन की ओर हो गयी। प्रारम्भ में आपने छायावादी और रहस्यवादी कवितायें लिखी। वर्ष 1951 में जब वह मात्र 19 वर्ष के थे उनकी प्रथम काव्य कृति मधुगान प्रकाशित हुई। इस कृति में उनके 37 गीत हैं। दूसरी कृति वर्ष 1955 में 'कल्पना कामिनी शीर्षक से पाठकों के सन्मुख आई। इस श्रृंगारिक गीतिकाव्य में उनके वर्ष 1951-52 में रचे 51 गीत हैं। लगभग 27 वर्ष के अंतराल के पश्चात उनकी तीसरी काव्य कृति कविता नियोजन का प्रकाशन वर्ष 1982 में हुआ। प्रज्ञा प्रकाशन मंदिर चन्दौसी द्वारा प्रकाशित इस कृति में उनकी वर्ष 1972 से 1974 के मध्य रची 26 हास्य-व्यंग्य की कविताएं हैं। वर्ष 1993 में उनकी चौथी कृति 'बदायूं के रणबांकुरे राजपूत' का प्रकाशन हुआ। प्रतिमा प्रकाशन चन्दौसी द्वारा प्रकाशित इस कृति में बदायूँ जनपद के राजपूतों का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया गया है। पाँचवीं कृति इतिहास के झरोखे से संभल का प्रकाशन वर्ष 1997 में प्रतिमा प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा हुआ। इसका दूसरा संस्करण वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ । वर्ष 1999 में उनकी छठी कृति कवयित्री सम्मेलन का प्रकाशन हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर द्वारा हुआ। इस कृति में उनको 42 हास्य-व्यंग्य कविताएं हैं। वर्ष 2001 मैं सातवीं कृति के रूप में ऐतिहासिक उपन्यास 'शहीद

मोती सिंह' का प्रकाशन प्रतिमा प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा हुआ।

     वर्ष 2003 में उनकी तीन काव्य कृतियों- पवित्र पंवासा, मुरादाबाद जनपद का स्वतन्त्रता संग्राम तथा मुरादाबाद और अमरोहा के स्वतन्त्रता सेनानी का प्रकाशन हुआ । इसी वर्ष उसकी एक कृति मीरापुर के नवोपलब्ध कवि' का प्रकाशन हुआ। उनके देहावसान के पश्चात उनकी बारहवीं कृति आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं का प्रकाशन उनके सुपुत्र अतुल मिश्र द्वारा वर्ष 2009 में किया गया।

     उनकी अप्रकाशित कृतियों में महाभारत और पुरातत्व, मुरादाबाद जनपद की समस्या पूर्ति, स्वतंत्रता संग्रामः पत्रकारिता के साक्ष्य, चंदौसी का इतिहास, भोजपुरी कजरियां, राधेश्याम रामायण पूर्ववर्ती लोक राम काव्य, बृज के लोक रचनाकार, चंदौसी इतिहास दोहावली, बरन से बुलन्दशहर, हरियाणा की प्राचीन साहित्यधारा, स्वतंत्रता संग्राम का एक वर्ष, दिल्ली लोक साहित्य और शिला यंत्रालय, रूहेलखण्ड की हिन्दी सेवायें, भूले-बिसरे साहित्य प्रसँग, रसिक कवि तुलसी दास, हिन्दी पत्रों की कार्टून- कला के दस वर्ष उल्लेखनीय हैं।

   वर्ष 1955 में ही उनकी रुचि पुरातत्व महत्व की वस्तुएं एकत्र करने में हो गयी। इसी वर्ष उन्होंने चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय' की नींव डाल दी जो बाद में कई वर्ष तक मुरादाबाद के दीनद‌याल नगर में हिन्दी संस्कृत शोध संस्थान, पुरातत्व संग्रहालय के रूप में संचलित होता रहा। पुरातत्व वस्तुओं की खोज के दौरान उन्होंने प्राचीन युग के अनेक अज्ञात कवियों प्रीतम, ब्रह्म, ज्ञानेन्द्र मधुसूदन दास, संत कवि लक्ष्मण, बालक राम आदि की पाण्डुलिपियाँ खोजी । हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इनमें से अनेक ग्रंथ दुर्लभ थे।

   उनकी समस्त पुरातात्विक धरोहर वर्तमान में उनके सुपुत्र अतुल मिश्र के अलावा बरेली के पांचाल संग्रहालय, स्वामी शुकदेवानन्द महाविद्यालय, शाहजहांपुर में 'पं. सुरेन्द्र मोहन मिश्र संग्रहालय'  तथा रजा लाइब्रेरी में संरक्षित है। 

    ✍️ डॉ मनोज रस्तोगी, वरिष्ठ साहित्यकार