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रविवार, 16 मार्च 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष सुरेन्द्र मोहन मिश्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख ।यह प्रकाशित हुआ है दैनिक जागरण मुरादाबाद संस्करण के 16 मार्च 2025 के सबरंग पेज पर

 


अतीत में दबे साहित्य को खोजा सुरेन्द्र मोहन मिश्र ने 

 

पुण्यतिथि 22 मार्च पर विशेष आलेख 


      पंडित सुरेंद्र मोहन मिश्र ने न केवल साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त की बल्कि इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता के रूप में भी विख्यात हुए। उन्होंने अतीत में दबे साहित्य को खोज कर उजागर किया।

     साहित्य, इतिहास और पुरातत्व को अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले सुरेन्द्र मोहन मिश्र का जन्म 22 मई 1932 को चंदौसी के लब्ध प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ। आपके पिता पंडित रामस्वरूप वैद्यशास्त्री रामपुर जनपद की शाहबाद तहसील के अनबे ग्राम से चंदौसी आकर बसे थे। उनकी आयुर्वेद जगत में अच्छी ख्याति थी। उनके द्वारा स्थापित धन्वतरि फार्मसी द्वारा निर्मित औषधियाँ देश भर में प्रसिद्ध हैं । उनका निधन 22 मार्च 2008 को मुरादाबाद में अपने दीनदयाल नगर स्थित आवास पर हुआ ।

    बचपन से ही साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने में उनकी रुचि थी। साहित्य अनुराग के कारण ही आप कविता लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उधर, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में गाये जाने वाले कोरसों का भी मन पर पूरी तरह प्रभाव पड़ा। 

     आपकी प्रथम कविता दिल्ली से प्रकाशित दैनिक सन्मार्ग में वर्ष 1948 में प्रकाशित हुई । उस समय आपकी अवस्था मात्र सोलह वर्ष की थी। इसके पश्चात् आपकी पूरी रुचि साहित्य लेखन की ओर हो गयी। प्रारम्भ में आपने छायावादी और रहस्यवादी कवितायें लिखी। वर्ष 1951 में जब वह मात्र 19 वर्ष के थे उनकी प्रथम काव्य कृति मधुगान प्रकाशित हुई। इस कृति में उनके 37 गीत हैं। दूसरी कृति वर्ष 1955 में 'कल्पना कामिनी शीर्षक से पाठकों के सन्मुख आई। इस श्रृंगारिक गीतिकाव्य में उनके वर्ष 1951-52 में रचे 51 गीत हैं। लगभग 27 वर्ष के अंतराल के पश्चात उनकी तीसरी काव्य कृति कविता नियोजन का प्रकाशन वर्ष 1982 में हुआ। प्रज्ञा प्रकाशन मंदिर चन्दौसी द्वारा प्रकाशित इस कृति में उनकी वर्ष 1972 से 1974 के मध्य रची 26 हास्य-व्यंग्य की कविताएं हैं। वर्ष 1993 में उनकी चौथी कृति 'बदायूं के रणबांकुरे राजपूत' का प्रकाशन हुआ। प्रतिमा प्रकाशन चन्दौसी द्वारा प्रकाशित इस कृति में बदायूँ जनपद के राजपूतों का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया गया है। पाँचवीं कृति इतिहास के झरोखे से संभल का प्रकाशन वर्ष 1997 में प्रतिमा प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा हुआ। इसका दूसरा संस्करण वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ । वर्ष 1999 में उनकी छठी कृति कवयित्री सम्मेलन का प्रकाशन हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर द्वारा हुआ। इस कृति में उनको 42 हास्य-व्यंग्य कविताएं हैं। वर्ष 2001 मैं सातवीं कृति के रूप में ऐतिहासिक उपन्यास 'शहीद

मोती सिंह' का प्रकाशन प्रतिमा प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा हुआ।

     वर्ष 2003 में उनकी तीन काव्य कृतियों- पवित्र पंवासा, मुरादाबाद जनपद का स्वतन्त्रता संग्राम तथा मुरादाबाद और अमरोहा के स्वतन्त्रता सेनानी का प्रकाशन हुआ । इसी वर्ष उसकी एक कृति मीरापुर के नवोपलब्ध कवि' का प्रकाशन हुआ। उनके देहावसान के पश्चात उनकी बारहवीं कृति आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं का प्रकाशन उनके सुपुत्र अतुल मिश्र द्वारा वर्ष 2009 में किया गया।

     उनकी अप्रकाशित कृतियों में महाभारत और पुरातत्व, मुरादाबाद जनपद की समस्या पूर्ति, स्वतंत्रता संग्रामः पत्रकारिता के साक्ष्य, चंदौसी का इतिहास, भोजपुरी कजरियां, राधेश्याम रामायण पूर्ववर्ती लोक राम काव्य, बृज के लोक रचनाकार, चंदौसी इतिहास दोहावली, बरन से बुलन्दशहर, हरियाणा की प्राचीन साहित्यधारा, स्वतंत्रता संग्राम का एक वर्ष, दिल्ली लोक साहित्य और शिला यंत्रालय, रूहेलखण्ड की हिन्दी सेवायें, भूले-बिसरे साहित्य प्रसँग, रसिक कवि तुलसी दास, हिन्दी पत्रों की कार्टून- कला के दस वर्ष उल्लेखनीय हैं।

   वर्ष 1955 में ही उनकी रुचि पुरातत्व महत्व की वस्तुएं एकत्र करने में हो गयी। इसी वर्ष उन्होंने चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय' की नींव डाल दी जो बाद में कई वर्ष तक मुरादाबाद के दीनद‌याल नगर में हिन्दी संस्कृत शोध संस्थान, पुरातत्व संग्रहालय के रूप में संचलित होता रहा। पुरातत्व वस्तुओं की खोज के दौरान उन्होंने प्राचीन युग के अनेक अज्ञात कवियों प्रीतम, ब्रह्म, ज्ञानेन्द्र मधुसूदन दास, संत कवि लक्ष्मण, बालक राम आदि की पाण्डुलिपियाँ खोजी । हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इनमें से अनेक ग्रंथ दुर्लभ थे।

   उनकी समस्त पुरातात्विक धरोहर वर्तमान में उनके सुपुत्र अतुल मिश्र के अलावा बरेली के पांचाल संग्रहालय, स्वामी शुकदेवानन्द महाविद्यालय, शाहजहांपुर में 'पं. सुरेन्द्र मोहन मिश्र संग्रहालय'  तथा रजा लाइब्रेरी में संरक्षित है। 

    ✍️ डॉ मनोज रस्तोगी, वरिष्ठ साहित्यकार

शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी जी को याद करते हुये भोपाल के साहित्यकार मनोज जैन का विस्तृत आलेख ...कहाँ तुम चले गए : दादा । उनका यह आलेख हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती के अप्रैल 2024 अंक में प्रकाशित हुआ है ।

     


      कुछ सत्य ऐसे होते हैं जो भले ही अकाट्य क्यों न हों पर उन्हें अपना भावुक मन मानने को जरा भी तैयार नहीं होता। यथार्थ और वस्तु स्थिति से अवगत होते हुए भी मनः स्थिति सत्य को जानते समझते हुए भी बार-बार झुठलाना चाहती है। ऐसा ही एक सत्य हमारे सामने दिनांक 16, अप्रैल 2024 को घटित हुआ जिसकी पहली सूचना मुझे देश के यशश्वी कवि और दादा के मन के अत्यंत निकट रहने वाले यश मालवीय जी के माध्यम मोबाइल फोन पर मिली " मनोज भाई एक बुरी खबर है, शायद आपको मालूम नहीं माहेश्वर जी अब हमारे बीच नहीं रहे!

     यह वही अकाट्य सत्य था जिसे जिसे मन मानने को कतई तैयार नहीं था। मैंने सबसे पहले दादा के मानस पुत्र अग्रज योगेन्द्र वर्मा व्योम जी की वाल स्क्रॉल की उनकी स्क्रीन पर यह दुखद समाचार देख कर मन बैचेन और अशांत हो गया।चित्त में उनके एक नवगीत की पंक्ति रह रह कर अंतरमन  को मथने लगी। 

       "एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है। बेजुवान छत दीवारों को घर कर देता है। ख़ाली शब्दों में/ आता है/ ऐसे अर्थ पिरोना/ गीत बन गया-सा/ लगता है/ घर का कोना-कोना/ एक तुम्हारा होना/ सपनों को स्वर देता है/ आरोहों-अवरोहों से/ समझाने लगती हैं/ तुमसे जुड़ कर चीज़ें भी/बतियाने लगती हैं/ एक तुम्हारा होना/ अपनापन भर देता है ।

              अकेला मुरादाबाद ही क्या पूरा देश ही दादा का घर था। इस नवगीत के मूल में दादा के ना होने की कसक हर उस मन को सालती है जो उनसे किसी न किसी बहाने एक बार मिला भर हो। दादा माहेश्वर तिवारी जी अब हमारे बीच नही हैं। यों तो मैं दादा के छोटे-छोटे मीटर के छोटे अधिकतम दो या तीन बंद के नवगीतों को उनसे मिलने के, एक दशक पहले से परिचित रहा हूँ, आज भी बहुत से उनके नवगीत अक्षरशः कंठस्थ हैं। दादा माहेश्वर तिवारी से मेरी पहली भेंट के बाद, यह दूसरी भेंट थी जो दिनाँक 21, फरवरी 2016 को, आरोही कला संस्थान, मुरादाबाद के एक आयोजन में हुई थी। अग्रज योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के आमंत्रण पर मुझे आरोही कला संस्थान के भव्य कार्यक्रम में दादा के साथ मंच पर बैठने, पाठ करने, और उन्हें जी भरकर सुनने के साथ-साथ यहाँ के वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलने का सुअवसर मिला था। यह यात्रा कई मायनों में यादगार साबित हुई। कहते हैं की यात्रा हमारे जीवन में बहुत से अनुभवों को जोडती है। बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मुरादाबाद की इस यात्रा से जुड़ा दादा के सन्दर्भ में कत्थई कलर का वह बहुत प्यारा श्वेटर याद आ रहा है, जिसमें दादा के मन की स्नेहासिक्त तरलता और संवेदनशीलता की विराटता के दर्शन होते हैं। सचमुच यह प्रसङ्ग हम सब के लिए भावुक करने के लिए काफी है साथ ही अनुकरणीय उदाहरण भी है।

   अग्रज आदरणीय योगेन्द्र वर्मा व्योम जी ने कार्यक्रम के कुछ दिन बाद मेरे पास कुछ फोटोग्राफ्स भेजे जिनमें से एक फोटो ने इस लेख को लिखते समय मुझे रुला दिया। दरअसल  कत्थई कलर के श्वेटर से जुड़ा प्रसङ्ग है जो मैंने स्वयं को फोटोग्राफ में पहने देखा जो, दादा माहेश्वर तिवारी जी ने मुझे जिद करके पहनाया था। उस दिन अचानक मौसम बदल गया। मुझे कँपकपाते देख यह बात मन ही मन ताड़ ली दादा उठे और सीधे ऊपर वाले हॉल में ले गये, जहाँ दादा ने अपनी एक अलमारी में बहुत सारे श्वेटर सम्हालकर रखे थे। दादा ने अलमारी खोली और मेरे सामने श्वेटरों का ढेर सारा अम्बार लगाते हुये कहा, "पहले अपना बचाव फिर कविता! चलो, इनमें से कोई सा भी श्वेटर जल्दी से पहनो लो मौसम ठंडा है और तुम्हें कार्यक्रम के ठीक बाद निकलना भी है।" लौटने की जल्दी इसलिए थी की ठीक अगले दिन मुझे अपने एक रिलेटिव के यहाँ समारोह में पहुचना था और इस दृष्टि से मेरे पास समय बहुत कम था।

    दादा की तरल संवेदना से जुड़ा यह संस्मरण, मुझे प्रसंगवश अग्रज योगेंद्र वर्मा व्योम जी ने आज फिर, सात साल बाद याद दिला दिया। आरोही कला संस्थान मुरादाबाद के इस आयोजन का, आमन्त्रण आदरणीय योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के माध्यम से ही मेरे पास आया था। मुरादाबाद के अनेक चर्चित साहित्यकारों सर्वश्री कृष्णकांत नाज़ साहब , आनन्द गौरव जी, जिया ज़मीर साहब सहित अनेक गणमान्य जिन्हें पत्र पत्रिकाओं सहित मुरादाबाद की साहित्यिक गतिविधियों में पढ़ने का सौभाग्य समय समय पर मिलता रहा उन सभी विभूतियों से मिलने का सुयोग यहीं बना।

                 कार्यक्रम के उपरान्त भोपाल वापसी के लिए, देर रात बस तक ड्राप करने हमारे एक और अनन्य आत्मीय साहित्यिक मित्र डॉ.अवनीश सिंह चौहान जी से कार्यक्रम स्थल से बसअड्डे तक की वार्ता आज भी जस की तस स्मृतियों में बनी हुई है। एक तरलता ही तो है, जो हमें परस्पर जोड़े रहती है। यह तरलता हमारे मध्य आज भी जस की तस है। अब दादा सशरीर हमारे मध्य भले ही न हों पर उनकी अनन्त स्मृतियां जस की तस हैं।

          माहेश्वर तिवारी जी का फोन अक्सर आता और वे सबकी खबर लेते हाल-चाल पूछते। मीठे स्वर में उनकी वार्ता के नवगीत का अक्सर पहला मुखड़ा यही होता था।  "बहु बच्चे कैसे हैं?"

 "और सब ठीक तो है न" 

  और फिर अगले अंतरों में 

भोपाल साहित्य जगत के क्या हाल चाल हैं? 

डॉ.रामवल्लभ आचार्य जी कैसे हैं कभी कभार तांतेड़ जी का भी पूछते ? 

       बगैरह बगैरह, वार्ता क्या पूरा गीत का माधुर्य होता था उनकी बातचीत में।

            सिर्फ मेरे ही नहीं, पूरे परिवार के, और पूरा परिवार ही क्या पूरे भोपाल की खैर खबर लेते दादा की वार्ता 'थीक है' वाक्य की चार-पाँच बार की पुनरावृति पर समाप्त होती।

   एक बड़ा रचनाकार वही होता है जो निष्प्रह भाव से परवर्ती, पूर्ववर्ती और अपने समकालीनों यानी तीन पीढ़ियों के त्रिकोण में स्वाभाविक सम्यक संतुलन साधने की कला में निष्णात हो। दादा के व्यक्तित्व में यह बात थी। नवगीत के मामले में वे ट्रेन्ड सैटेर नवगीतकार थे,जो लिखा पुख्ता लिखा, और ऐसा लिखा कि लिखे का विस्तार सैकड़ों रचनाकारों की पंक्तियों मिल जाएगा।

              यह बात प्रसंगवश नहीं कह रहा हूँ बल्कि इसे पुख्ता प्रमाण के तौर पर भी कहना चाह रहा हूँ। फेसबुक पर आज के चर्चित वागर्थ समूह और वागर्थ ब्लॉग के आरम्भिक रूप चित्र में, मैंने (दादा के साथ कॉफी पीते हुए) तस्वीर जोड़ी थी। यह विशेष क्लिप हमें योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के मोबाइल से मिली थी। वागर्थ के इस रूप चित्र को मैं दादा का आशीर्वाद ही मानता हूँ।आज समूह वागर्थ के स्तर की धमक पूरे देश में है यहाँ तक की देश से बाहर अनेक देशों में वागर्थ समूह पढ़ा जाता है। दादा वागर्थ के अनन्य प्रशंसकों में से एक थे। हमनें दादा के नवगीतों के साथ साथ समकालीन दोहों की कुछ पोस्ट समूह में जोड़ी जिनको मुक्तकण्ठ से सराहा गया। सोशल मीडिया पर दादा की उपस्थिति उनके स्वस्थ्य रहने तक बनी रही। वे निरन्तर अपनी वाल से लेकर विभिन्न समूहों में आवाजाही करते और अच्छा लगने पर टिप्पणियाँ भी करते थे उनकी सघन टिप्पणियाँ संग्रहनीय है और अब तो धरोहर भी वागर्थ उनका प्रिय समूह था जिसकी प्रसंशा वे मुक्तकण्ठ से किया करते थे। मुझे याद है जब उन्होंने वागर्थ समूह में उन्हीं के शहर मुरादाबाद की युवा कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर के नवगीत पढ़े और उन गीतों की सराहना की।निःसन्देह इस सराहना ने मीनाक्षी ठाकुर को और बेहरत रचने के लिए प्रेषित किया है।

      ऐसा ही एक प्रसङ्ग मुझे कुछ वर्षों पहले का आता है जब जागरण में माहेश्वर जी का एक साक्षात्कार पढा था जिसमें एक उन्होंने नवगीत के क्षेत्र में उभरने वाली नई सम्भावनाओं में चार छह नाम लिए थे जो आज नवगीत के क्षेत्र में अपना श्रेष्ठ प्रदान कर रहे हैं। इन नामों में हमारे शहर के युवा नवगीतकार चित्रांश बाघमारे भी एक हैं जिन्हें दादा का आशीर्वाद मिला सिर्फ चित्रांश ही अनेक नवोदितों और स्थापितों का नाम माहेश्वर जी लिया करते थे प्रकारान्तर से कहें तो उनके के सृजन को सम्मान दिया करते थे। इसीलिए दादा बड़े थे।

                          दो

       संचारक्रांति के चलते सोशल मीडिया पर साहित्यिक उपस्थिति पिछले दो ढाई दशकों में बहुत ज्यादा बढ़ी है। हम में से हर एक के पास एंड्रॉइड फोन और टच स्क्रीन पर सॉफ्ट साहित्य का अनन्त रंगीन संसार उपलब्ध है। मैंने भी लोगों की साहित्यिक  अभिरुचि और सक्रिय उपस्थित पर मंथन किया और दो समूहों की स्थापना ठीक आज से दस से पहले की ।

   पहले साहित्यकारों को वाट्स एप समूह से जोड़ कर उन्हें सद्साहित्य परोसा फिर उन दोनों समूहों को पाठकों की अभिरुचि और बढ़ती सँख्या को देखकर उन्हें 'वागर्थ' और 'अंतरा' समूह से जोड़ दिया आज दोनों समूहों में पाठक सदस्यों की संख्या पाँच अंकों में है और जोड़ी जाने वाली पोस्ट को देखने पढ़ने वालों की संख्या देश विदेश में लाखों से ऊपर है। अकेले ब्लॉग वागर्थ में ही 50,000 पृष्ठों की सामग्री इन दोनों समूहों से उठाकर हमनें जोड़ी है। इन दोनों समूहों हमें और ब्लॉग वागर्थ को दादा माहेश्वर तिवारी जी का प्रत्यक्ष और परोक्ष आशीर्वाद था।

उनकी सैकड़ों टिप्पणियाँ इस बात का पुख़्ता प्रमाण हैं। द्रष्टव्य है दादा माहेश्वर तिवारी जी द्वारा समूह वागर्थ में जोड़ी गई एक महत्वपूर्ण टिप्पणी

       प्रिय मनोज जैन, वागर्थ में श्रद्धेय अग्रज स्मृतिशेष उमाकांत मालवीय के गीतों को प्रस्तुत करके एक और उल्लेखनीय कार्य किया है। डॉक्टर शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह ,वीरेंद्र मिश्र और उमाकांत मालवीय जैसे लोगों को छोड़कर नवगीत की कोई पीठिका ही नहीं होती। ये लोग नवगीत की जययात्रा के रथ की वे धुरी और पहिए हैं जो एक तरफ उसकी अनवरत गति के आधार और विजययात्रा के नायक भी रहे अपनी अपनी रचनाधर्मिता के साथ ।

     उमाकांत मालवीय जी की जो अपार स्नेहयुक्त कुटुम्बवत आत्मीयता मिली उसने हम जैसे कई लोगों को अपनी रचनाधर्मिता के लिए नई ऊर्जा मिली । उनके व्यक्तित्व की यह विशिष्टता रही की किसी नये रचनाकार को सुनते और कुछ अच्छा लगता तो वह उनके स्मृतिकोष में जमा हो जाता और मिलने पर उसके अंश हमें सुनाते ।

       मेहंदी और महावार के गीतों से अलग थी उनके दूसरे संग्रह सुबह रक्त पलाश की भाषा और गीतों में शामिल सरोकार ।मेहंदी और महावार में एक अलग तरह की सौंदर्य दृष्टि और भाषा है तथा सुबह रक्त पलाश में अलग ।इसी तरह मेहंदी और महावार में लोक संस्कृति के प्रति लगाव है तो मेहंदी और महावार में एक वयस्क सामाजिक,राजनीतिक चिंतक का रूप सामने आता है । एक बात ध्यान में रखने की है की मालवीय जी शासकीय सेवा में थे और देश में प्रजातंत्र एक आंधी में घिरा था वे प्रजातंत्र पर चोट करने वालों को वैचारिक प्रतिरोध से भरे गीत लिख रहे थे एक जोखिम उतार हुए और उसके लिए उनके वार्षिक वेतन में होने वाली वृद्धि रोक दी गई लेकिन वे रुके नहीं और झूले एमबीएचआई नहीं क्योंकि वे तनी रीढ़ के व्यक्ति थे इसीलिए मैंने उनके लिए लिखा था हिंदी नवगीत का पौरूषेय बोध। वागर्थ में प्रस्तुत उनके गीतों में यह पढ़ा जा सकता है। यह उमाकांत मालवीय ही थे जो खबरों जैसी घटनाओं को गीतकविता बना देते थे 

        आ गया प्यारा दशहरा

        भेंट लाया हूं तुम्हारे लिए बेटे,

        पुलिस की मजबूत बूटों से

        अभी कुचला गया 

        ताजा ककहरा

       यामेज साफ करने को

       रह गईं ध्वजाएं

                        माहेश्वर तिवारी

(वागर्थ की वाल से साभार, माहेश्वर तिवारी जी की टिप्पणी)

     दादा की टिप्पणियाँ बहुत कुछ कहती हैं और इसमें कहने से ज्यादा अनकहा रह जाने की कसक भी स्पष्ट देखी जा सकती है। 

इसी क्रम में हम दादा के नवगीत पाठकों के लिए जोड़ते गए और ब्लॉग में संग्रहित भी करते गए।

1जून 2020 को हमनें दादा के गीत जोड़े। इन गीतों पर उनके पाठकों ने सैकड़ों टिप्पणियाँ जोड़ी और उनको पोस्ट को 88 लोगों ने अपनी अपनी वाल पर शेयर किया।

  यहाँ पाठकों के लिए हम उनकी चयनित पोस्टों को पाठकों की चयनित टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं

 एक

  माहेश्वर तिवारी जी के नवगीतों के बहाने

_____________________________

       समूह वागर्थ प्रस्तुत करता है अपने समय के सबसे ज्यादा चर्चित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 

            प्रस्तुत नवगीतों में कवि की पंक्ति-पंक्ति में कविता है जिसे ढूँढना नहीं पड़ता। जबकि हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे धुरन्धर विराजमान हैं, जिनके कहने को तो छह दर्जन संग्रह हैं, लेकिन उनके यहाँ ढूँढने से भी उनकी पूरी नवगीत यात्रा में बमुश्क़िल से 15 पँक्तियाँ भी नहीं है। ऐसे फर्जी गुरुओं के सक्रिय चेलों नें उन्हें तमाम साहित्य के  विभूषणों से घोषित कर रखा है।

   बहरहाल ऐसे गुरु और शिष्य दोनों को माहेश्वर तिवारी जी को पढ़ना चाहिए। प्रस्तुत है अपने समय के सबसे ज्यादा चर्चित और चमकदार नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 


प्रस्तुति

वागर्थ

सुनो सभासद

__________


सुनो सभासद

हम केवल

विलाप सुनते हैं

तुम कैसे सुनते हो अनहद


पहरा वैसे

बहुत कड़ा है

देश किन्तु अवसन्न पड़ा है


खत्म नहीं

हो पाई अब तक

मन्दिर से मुर्दों की आमद


आवाजों से

बचती जाए

कानों में है रुई लगाए


दिन-पर-दिन है

बहरी होती जाती

यह बड़ बोली संसद


बौने शब्दों के

आश्वासन

और दुःखी कर जाते हैं मन


उतना छोटा

काम कर रहा

जिसका है जितना ऊँचा कद

2

घर जैसे


खुद से खुद की

बतियाहट

हम, लगता भूल गए ।


डूब गए हैं

हम सब इतने

दृश्य कथाओं में

स्वर कोई भी

बचा नहीं है

शेष, हवाओं में


भीतर के जल की

आहट

हम, लगता भूल गए ।


रिश्तों वाली

पारदर्शिता लगे

कबंधों-सी

शामें लगती हैं

थकान से टूटे

कंधों-सी


संवादों की

गरमाहट

हम, लगता भूल गए।

दिन पर दिन है

बहरी होती जाती

यह बड़बोली संसद।।।

और

संवादों की 

गरमाहट हम 

लगता भूल गए।।

माहेश्वर तिवारी 

     दोनों ही महत्वपूर्ण बहुत उल्लेखनीय और विचारणीय नवगीतों की यह अभिनव प्रस्तुति पटल के वातावरण को और भी ज्यादा सार्थक बनाती है। बहुचर्चित बहुप्रशंसित गीतकार आदरणीय श्री माहेश्वर तिवारी जी सहज सरल शब्दों की जादूगरी से लाजवाब बहुत विचारणीय और मर्मस्पर्शी गीत रचना करने में सिद्ध हस्त हैं। उनके महत्वपूर्ण नवगीतों में सहज सरल शब्दों का भरपूर इस्तेमाल हुआ है फिर भी उनकी प्रभावशीलता प्रशंसनीय और विचारणीय हैं। इन गीतों को प्रस्तुत करने के लिए मैं वागर्थ के  प्रमुख संस्थापक आदरणीय मनोज जैन जी का आभार और धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूँगा।

     मुकेश तिरपुड़े

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           वैसे नहीं, ऐसे गीतों से नवगीत समृद्ध हुआ है । वागर्थ का आभार अग्रज माहेश्वर जी के इन गीतों की प्रस्तुति के लिए।

        विनोद श्रीवास्तव, कानपुर

दो

6 दिसम्बर 2020

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कल तलक सुनते रहे जो आज बहरे हैं..... 

यशस्वी कवि दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो गीत

 यश के महत्व को प्रतिपादित करती हुई एक सूक्ति पर कल मेरा ध्यान गया उस समय गया जब मैं भोपाल के भेल औद्योगिक क्षेत्र से अपनी गाड़ी की सर्विसिंग कराने के उपरान्त घर लौट रहा था। सूक्ति का सार कुछ इस तरह था मनुष्य को यश की प्राप्ति बड़े पुण्यों से होती है, और पुण्य सद्कर्म और साधना का ही परिणिति है। दादा माहेश्वर तिवारी जी नवगीत के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उनकी विचार धारा जन तक सम्प्रेषित होती है। विचारधारा के स्तर पर वे असमानता को जड़ से मिटा देने के पक्ष में हैं उनकी कविता जनधर्मी है यहाँ प्रस्तुत दादा के दोनों नवगीतों में प्रतिरोध के मद्धम नही अपितु तीखे स्वर हैं।

        प्राकृतिक प्रतीकों और बिम्बों से जनपक्षधरता उकेरना दादा माहेश्वर जी के बूते की ही बात हो सकती है। बेजोड़ प्रतीकों और बिम्बों के नायाब रचनाकार को प्रणाम नमन अपनी रचनाधर्मिता को जनपक्ष में समर्पित करके दादा अनायास ही अक्षय पुण्य के कोष से सदैव भरे रहते हैं और यही कोष उनके यश का एकमात्र राज है आइये पढ़ते हैं यशभारती सम्मान से विभूषित दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत

प्रस्तुति

मनोज जैन


हँसो भाई पेड़ 

__________

कहती है दूब

हँसो भाई पेड़ 

बाहर जितना देखते हो 

धरती में 

धसो भाई पेड़ ।


जड़ें बहुत गहरे ले जाओ 

यहाँ वहाँ उनको फैलाओ

चील की तरह बाहों पंजों में 

आंधी को 

कसो भाई पेड़


चील किसे देती है सोचो 

आसमान गुर्राए तो नोचो 

गीत की तरह हरियाली पहनो 

जन-जन में 

बसो भाई पेड़।

2

चीख बनते जा रहे

हम सब खदानों की 

हो गए हैं शोकधुन 

बजते पियानो की


कल तलक सुनते रहे जो 

आज बहरे हैं 

आँसुओं के बोल जिनके-

पास ठहरे हैं

जिंदगी अपनी हुई है 

मैल कानों की 

देखते जब शब्द के 

बारीक  छिलके खोल 

देश लगता रह गया 

बनकर महज भूगोल 


एक साजिश है खुली

ऊंचे मकानों की।

माहेश्वर तिवारी


आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी के नवगीतों में तरलता, सरलता और उत्कृष्टता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। उनके नवगीत सीधे दिल में उतर जाने का हुनर रखते हैं। उन्हें सादर प्रणाम।

मृदुल शर्मा,  लखनऊ

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श्रद्धेय दादा माहेश्वर तिवारी जी वर्तमान में नवगीत के हिमालय हैं.दादा को पढ़ना और सुनना हमेशा मन को सुख देता है.दादा को सादर प्रणाम.लेख और गीत साझा करने हेतु आपका हार्दिक आभार.

रघुवीर शर्मा, खंडवा

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दोनों गीत मर्मस्पर्शी भीतर तक आन्दोलित करते हैं दादा को चरणवन्दन। मनोज जी आपकी इस 

काव्य प्रस्तुति परम्परा को प्रणाम।

    रमेश गौतम,  बरेली उत्तरप्रदेश

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       नवगीत विधा में देश के  सबसे सशक्त और वरिष्ठ हस्ताक्षर आ.माहेश्वर तिवारी जी के दोनों ही गीत आज के समय की त्रासद  सामाजिक व्यवस्था का प्रतिबिम्ब भी हैं और उनके खिलाफ सशक्त स्वर भी। 

    तिवारी जी के गीत अपने शिल्प, कथ्य भाषा और छंद से अपनी अलग पहचान रखते हैं। उन्हें पढ़ने और विशेषकर दादा तिवारी जी से साक्षात सुनने का आनन्द और अनुभूति ही कुछ और है। आदरणीय तिवारी जी की लेखनी को प्रणाम। 

          और मनोज जी को साधुवाद इतनी अच्छी पोस्ट के लिए


        माहेश्वर जी के नवगीत पढ़ने के बाद मुझको घरबाहर का परिसर  सामान्य ही नहीं, कोमल और मोहक भी दिखने लगा। माहेश्वर नवगीत  लिखकर मनःस्थिति और परिस्थिति भी बनाते हैं इनके गीत मनुष्यता के पर्याय हैं। ऐसा गीत लिखना सामान्य बात नहीं है। इन.गीतों से नवगीत का मान बढ़ा है

शांति सुमन


:::::: ्तीन :::::


7 जून 2021

 समकालीन दोहा चौदहवीं कड़ी

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दादा माहेश्वर तिवारी 

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समकालीन दोहा में आज दूसरे पड़ाव की चौथी कड़ी में प्रस्तुत हैं प्रख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के चुनिन्दा दोहे

             बहुत कम लोग ऐसे होते हैं  जिनकी लेखनी का परस पाकर सृजन सोने में बदल जाता है। दादा माहेश्वर तिवारी जी उनमें से एक हैं, जिनका सारा सृजन चमकदार है। चाहे नवगीत हों या दोहे उनके यहाँ क़्वान्टिटी की अपेक्षा क़्वालिटी वर्क ज्यादा है। प्रस्तुत समकालीन दोहे भी आज के लिखे नहीं हैं परन्तु आज जो लिखा जा रहा है उन दोहाकारों को, अपने सृजन को मापने का पैमाना जरूर हैं। अस्सी के दशक में दोहा कितनी ऊँचाईयों पर था इसका अंदाजा कम से कम इन दोहों को पढ़कर लगाया जा सकता है। दादा माहेश्वर तिवारी जी अपने आपको मूलतः गीत कवि ही मानते हैं और इस बात को लेकर स्वधर्मे निधनं श्रेयः की हद तक प्रतिबद्धता उनके यहाँ देखी जा सकती है।

हाँ, यदि उन्हें आस्वाद परिवर्तन के लिए गीत के अलावा कुछ लिखना भी हो तो वे स्तर से कम्प्रोमाइज नहीं करते। हम सब उनकी इस प्रस्तुति से यही प्रेरणा ले सकते हैं।

        दोहा छन्द को लेकर यश मालवीय जी के कथन को दोहराना समीचीन होगा वे कहते हैं कि " दो पंक्तियों में बड़ी बात कहना छोटे फ्रेम में आसमान मढ़ने जैसा है "। आइए पढ़ते हैं दो पंक्तियों के कैनवास में सुरमई आसमान जड़े दोहे।


   प्रस्तुति

 मनोज जैन

   वागर्थ


  उधर साजिशों के नये, बुने जा रहे जाल

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वस्त्र पहनकर गेरुआ, साधू सन्त फकीर ।

नये मुकदमों की पढ़ें, रोज नयी तहरीर।।


परिवर्तन के नाम पर, बदली क्या सरकार ।

रफ्ता रफ्ता हो रहा ,पूरा देश बिहार ।।


चिन्तित हैं शहनाइयाँ, गायब हुई मिठास ।

बिस्मिल्ला के होंठ की,पहले जैसी प्यास ।।


रिश्तों  के बदले हुए, दिखते सभी उसूल ।

भैया कड़वे नीम- से,दादी हुई बबूल ।।


आँखों में दाना लिये, पंखों में आकाश ।

जाल उठाए उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास ।।


दाने -दाने के लिए,चिड़िया है बेहाल ।

उधर साजिशों के नये ,बुने जा रहे जाल।।


मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान ।

सूरज बाँटे रेवड़ी,चाँद चबाये पान।।


क्या सपने क्या लोरियाँ,खाली-खाली पेज ।

जिनकी नींदों को मिली,फुटपाथों की सेज ।।


लाकर पटका समय ने, कैसे औघट घाट।

अनुभव तो गहरे हुए, कविता हुई सपाट।।


शामें लौटीं शहर की,अंग लपेटे धूल।

सिरहाने रख सो गयीं, कुछ मुरझाये फूल।।


कैसे कैसे लोग हैं,कैसे कैसे काम ।

जाकर कुंज-करील में, ढूँढ रहे हैं आम।।


खुश है रचकर सीकरी,नया -नया इतिहास।

हैं उसके दरबार में,हाज़िर नाभादास।।


भोग रहे इतिहास का,हैं अब तक दुर्योग।

तक्षशिला को जा रहे,नालन्दा के लोग।।


पुल की बाँहों में नदी,मछली-सी बेचैन।

अनहोनी के साथ सब ,दे बैठी सुख-चैन।।


बरगद से लिपटी पड़ी, है बादल की छाँह।

घेरे बूढ़े बाप को, ज्यों बेटे की बाँह।।


तन की प्रत्यंचा खिंची, चले नज़र के तीर।

बच पाया केवल वही,मन से रहा फकीर।।


लाक्षागृह सबके अलग,क्या अर्जुन क्या कर्ण।

आग नहीं पहचानती, पिछड़ा दलित सवर्ण।।


सारंगी हर साँस में, मन में झाँझ मृदंग।

फागुन आते ही हुए, साज हमारे अंग।।


एक आँख तकती रही, दूजी रही उदास।

इन दोनों में ही बँटा, जीवन का इतिहास।।


खुली पीठ से बेंत का ,ऐसा हुआ लगाव।

लिये सुमरनी हाथ हम, गिनते कल के घाव।।

     सचमुच यह दोहे ख़ुशबू के शिलालेख हैं, मेरे समेत दोहों के उत्पादन में लगे तमाम दोहाकारों  को इन दोहों से सीखना चाहिए और दोहा नियोजन करना चाहिए ताकि इस विधा में लोगों की आस्था बनी रहे।कम लिखें और अच्छा लिखें का संकल्प लेना चाहिए,इन काल का अतिक्रमण करते दोहों से। आम आदमी के माथे की सलवटों-शिकनों से सीधा सरोकार रखते यह दोहे हमारी उजली परम्परा के संवाहक हैं।

यश मालवीय   

आदरणीय माहेश्वरी तिवारी जी वर्तमान में नवगीत के बड़े स्तंभ हैं। उनके नवगीतों में जो एक अलग सी महक है वही इन दोहों में भी रची-बसी है। यही तिवारी जी को आदर्श रूप में खड़ा करती है।जिन रचनाकारों की अपने भीतर की महक रचनाओं में महकने लगती है, वही बड़े रचनाकार कहाते हैं। क्या दोहे हैं? इनमें चमत्करण बैठा है। इन पर तो बस सोचते रहो, जब-तक सोच सको।

"मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान।

सूरज बांटे रेवड़ी, चांद चबाये पान।।"

          मैं तो इसी में जमा पड़ा हूं।

आदरणीय भाई साहब आपको और आपकी मारक लेखनी को प्रणाम।

 मक्खन मुरादाबादी

 जीवन में साधन चतुष्टय- धर्म अर्थ काम मोक्ष की सीढ़ियां चढ़ने पर जब धर्म के सार्थक निर्वहन से अर्थोपार्जन उपरान्त काम (कर्म) के प्रति समर्पित होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है तो जो आनंद आता है आज उसी आनंद की अनुभूति हो रही है मधुर दोहावली की चौदहवीं प्रस्तुति में। दोहा सृजन के परिप्रेक्ष्य में देखें तो उपर्युक्त विवेचन अपने मंतव्य को स्वत: ही प्रमाणित कर देता है। "एक तुम्हारा होना ही क्या से क्या  कर देता है, " यह पंक्ति आज की प्रस्तुति के मूलाधार में समाहित है।  आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी से प्रत्यक्ष भेंट शिवपुरी में आयोजित नवगीत पुरस्कार वितरण समारोह में हुई थी, उनके मुख से झरते गीत-नवगीत की वर्षा ने ऐसा रसविभोर किया था कि उसकी मिठास आजतक महसूस हो रही है। अग्रज यशमालवीय जी के कथन से मैं पूर्णतः सहमत हूं और दोनों हाथ उठाकर यह कहने मैं कोई संकोच भी नहीं कर रहा हूं कि सुरमयी आसमान में जड़े दोहे अपनी आभा से क्षितिज को दैदीप्यमान कररहे हैं। श्रध्देय तिवारी जी के दोहे धर्म के मर्म को बेधते हुए राजनैतिक परिदृश्य पर तीक्ष्ण दृष्टिपात करते हुए मानवीय रिश्तों में आई बदलाव की बयार से परिवार को न बचा पाने की पीड़ा को अभिव्यंजित करने में सफल रहे हैं। दोहा दृष्टव्य है-- रिश्तों के बदले हुए,दिखते सभी उसूल। भैया कड़वे नीम से,दादी हुईं बबूल। अपनी आस्था-विश्वास की सामर्थ्य को सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हुए उसे "श्रध्दा विश्वास रूपिणौ " परमसत्ता का मान दे दिया जो असंभव को भी संभव कर देता है-- आंखों में दाना लिए, पंखों में आकाश। जाल उठाये उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास।  मात्र दो पंक्तियों में अनूठा बिम्ब संयोजन जो व्यंजना शब्दशक्ति और वक्रोक्ति का अनुपम उदाहरण बन गया जिसे सिर्फ और सिर्फ माहेश्वर तिवारी जी ही सृजित कर सकते हैं-- मूल प्रश्न से हट गया जब से सबका ध्यान।  सूरज बांटे रेवड़ी, चांद चबाएं पान। , जबकि मुहावरा है अंधा बांटे रेवड़ी। श्रमिक वर्ग के असहनीय दर्द को अपनी लेखनी की शक्ति से अमर करने वाला दोहा- क्या सपने क्या लोरियां,खाली खाली पेज। जिनकी नींदों को मिली फुटपाथों की सेज। अविस्मरणीय है। ऐतिहासिक संदर्भ हों या प्रकृति का मानवीकरण, श्रृंगार का रसमय आकर्षण हो या मन फकीरी का साधन,अगड़े पिछड़े वर्ग की आरक्षण की तात्कालिक समस्या, रचनाकार ने अपनी लेखनी से अनछुआ नहीं रहने दिया। और फिर जीवन की सांध्यवेला का मार्मिक चित्रण कर मन के घावों को सहलाने तथा बेंत और सुमिरनी से साथ निभाने का मूल मंत्र भी दे दिया-- खुली पीठ से बेंत का , ऐसा हुआ लगाव, लिए सुमिरनी हाथ हम, गिनते कल के घाव। यह कहकर दोहाकार अपने लेखिकीय दायित्व से उऋण होने का प्रयास भी कर गया।  गीत ऋषि माहेश्वर तिवारी जी के सृजन सामर्थ्य को सादर प्रणाम करते हुए भाई मनोज जैन मधुर जी की मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा पूर्ति की शुभेच्छा है। वागर्थ पटल की टीम को साधुवाद। 

 डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

 परम आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी जितने समर्थ साहित्यकार हैं उससे बड़े वो नेक व संवेदनशील रचनाकार हैं जो हर समय साहित्य के नए रचनाकारों को दिशा दिखाने व उनकी हर अच्छी बात पर खुली तारीफ़ करके उनका उत्साहवर्धन करते हैं। आपके दोहे आपके गीत सभी कालजयी रचना हैं यहाँ पर (१)लाक्षागृह का दोहा(२)बरगद से लिपटी पडी(३)पुल की बाँहों में नदी(४)मूल प्रश्न से हट गया(५)वस्त्र पहनकर गेरुआ ये सभी दोहे  आप भुलाना चाहें तब भी आपकी मन की देहरी अपनी उपस्थिति दर्ज एक लम्बे समय तक कराते रहेंगे। ऐसे ही लेखन के कारण मुझ जैसे न कितने रचनाकारों के आप प्रेरणादायी हैं व सदैव रहेंगे 

 डॉ  अजय जनमेजय

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  बहुत अलग तरह के दोहे सच्ची कविता के आस्वाद में नहाए हुए। दोहों की ऐसी खुशबू केवल यश के दोहों में मिलती है। सच कहा  यश कह दें तो फिर कुछ और कहना बिना पेट्रोल की गाड़ी हांकना है। 

सचमुच यश जी ये दोहे खुशबू के शिलालेख हैं।

 डॉ ओम निश्चल

     आदरणीय तिवारी जी प्रयोगधर्मी कवि हैं और उनकी यह प्रयोगधर्मिता हर विधा मे परिलक्षित है बिम्बो प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करने मे वे सिद्धहस्त हैं सूरज बाटे रेवडी, चांद चबाये पान जैसे अनूठे प्रयोग करना आपका शगल है नई पीढी के प्रेरणास्रोत दादा को प्रणाम निवेदित कर मनोज जी को अप्रतिम दोहे प्रस्तुत करने के लिए कोटिशःसाधुवाद प्रेषित है।

  डॉ.विनय भदौरिया

 सूरज बांटे रेवड़ी चांद चबाए पान। क्या बात है...दादा माहेश्वर जी के शब्दों में छंद स्वयं अपनी पूरी संवेदना को समेटकर बिंध जाता है। 

भारतेंदु मिश्र 

   सभी दोहे श्रेष्ठ हैं। यह दोहा तो कमाल का है -- "ख़ुश है रच कर सीकरी..... हाज़िर नाभादास।।" 

आदरणीय माहेश्वर भाई साहब को प्रणाम!

  डॉ सुभाष वसिष्ठ 


            इन दोहों की प्रस्तुति पर माहेश्वर तिवारी जी अपनी ओर से वागर्थ के पाठकों के लिए अपनी तरफ से एक महत्वपूर्ण टिप्पणी वागर्थ के पटल पर जोड़ी थी जो यहाँ जस की तस चस्पा है।  "अपने सभी आत्मीय तथा स्नेह देकर मेरे लेखन को सराहने और प्रोत्साहित करने वालों के प्रति हार्दिक आभार। मनोज जैन को धन्यवाद देना उसे अपने से कुछ दूर खिसका देने जैसा है। यश और ओम निश्चल, भारतेन्दु मिश्र, सुभाष वशिष्ठ की टिप्पणियाँ आगे के लेखन के लिये चुनौतियों जैसी है कि अब आगे सीढ़ी से उतरने की सोची तो खैर0 नहीं। अन्य पारखी और प्रबुद्धजनों के प्रति भी आभार।"

              माहेश्वर तिवारी

 1, दिसम्बर 2022 को वागर्थ समूह में जोड़ी गई एक पोस्ट वागर्थ समूह  से साभार। 

माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत समय के प्रख्यात नवगीतकार दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 1964 में, बस्ती प्रवास के दौरान रचे इन नवगीतों में आज भी सौंधी मिट्टी की सुगन्ध जस की तस मौजूद है। अपनी बोली-बानी में बतियाते इन नवगीतों में आकुल मन की व्यथा के साथ-साथ समूचा परिवेश समाहित है। इन नवगीतों में एकाकीपन और ऊब की सहज और चित्ताकर्षक अभिव्यक्ति देखने मिलती है। दोनों नवगीत "हरसिंगार कोई तो हो" से साभार  हैं।

अकेलापन

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तना जाले-सा

अकेला पन

कहाँ, तक झेले 

अकेला मन


किसी ठहरी 

झील-सा

हिलता नहीं तिनका

साथ हम 

कब तक निभाएँ

अधमरे दिन का


कट नहीं पाता 

नसों में 

उगा नंगा पन


थक गया है

बाँस वन की

सीटियों का मौन

आहटों में 

चुप्पियों को

सिल गया है कौन


दिशाओं में 

झूलता है

क्षितिज का बन्धन


दो

सारे दिन

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सारे दिन 

पढ़ते अखबार

बीत गया 

यह भी इतवार


गमलों में 

पड़ा नहीं पानी

पढ़ी नहीं गई 

संत वाणी


दिन गुजरा 

बिलकुल बेकार

सारे दिन 

पढ़ते अखबार


पुँछी नहीं

पत्रों की गर्द

खिड़की-

दरवाजे बेपर्द


कोशिश की है 

कितनी बार

सारे दिन 

पढ़ते अखबार


मुन्ने का 

तुतलाता गीत

अनसुना गया

बिलकुल बीत


कई बार 

करके स्वीकार

सारे दिन 

पढ़ते अखबार

माहेश्वर तिवारी        

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बहुत खूब ! आदररणीय चाचा जी ( माहेश्वर तीवारी जी ) बस्ती ( मिश्रौलिया, बस्ती ) मेरे घर पर  लगभग 1662--19667 रहे है । प्रसिद्ध गीत " याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलस भरे  ---- । जैसे कई चर्चित गीत लिखे गये थे   कई संस्मरण  हैं ।  बस्ती की चरचा करने हेतु साधुवाद ।

बैंकटेश्वर मिश्र

        नवगीत के पुरोधा कवि है आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी अभिधा में होते हुए भी इन गीतों में सामुद्रिक गहराई है। लेकिन  कवि का मन तो सागर से भी अधिक गहरा होता है।स्वयं कवि के ही गीत की पंक्ति है----

        कितना गहरा है मेरा मन

        सागर क्या जाने!

इस स्तरीय प्रस्तुति के लिए कवि के साथ-साथ  मनोज जैन साहब को भी बधाई!

 उदय शंकर अनुज

      दादा तिवारी जी के नवगीत स्थूल से सूक्ष्म की ओर भावनात्मक संचरण होते हैं। शब्दलय और अर्थलय को साधते गीत रचनाकारों को प्रेरित करते हैं। दादा तिवारी जी को सादर नमन तथा वागर्थ समूह को श्रेष्ठ गीतों की प्रस्तुति के लिए आभार!

जगदीश पंकज

जब जब माहेश्वर तिवारी जी का नाम आता है, मुझे उनका "सुर्ख सुबह चंपई दुपहरी मोरपंखिया शाम, तरह तरह के लिख जाता मन पत्र तुम्हारे नाम" याद आता है।। कभी 72-73 में मुरैना के कवि सम्मेलन में उन्होंने यह गीत सुनाया था।। आठवें दशक के उत्तरार्ध में वे विदिशा भी रहे थे।

 उपेंद्र पुरुषोत्तम कुमार

      सीधी-सादी बोली-बानी का अप्रतिम बिम्ब,एकाकीपन का अनूठा रेखाचित्र प्रयोग धर्मिता का प्रतीकात्मक सौंदर्य एवं प्रतीकों का अनुशासित प्रयोग। दोनों गीतों में प्राण तत्व हैं ।

रचनाकार को प्रणाम मनोज जी को हार्दिक बधाई। 

 ईश्वर दयाल गोस्वामी

        उपर्युक्त सभी फेसबुक, ब्लॉग और वागर्थ से साभार प्रस्तुतियों से उनके विराट व्यक्तित्व और कृतित्व को पहचाना जा सकता है। निःसन्देह, वे बड़े और जमीन से जुड़े रचनाकार लोकप्रिय कवि थे। वाचिक परम्परा हो या पत्र- पत्रिकाएँ, उनकी दोनों जगह समान रूप से उपस्थिति अंत तक बनी रही। उन्होंने सदैव नई पीढ़ी के रचनाकारों का उत्साह वर्धन किया उन्हें सराहा और आगे बढ़ाया।

          4,अक्टूबर 2014 के गीतोत्सव के आयोजन गीत चाँदनी जयपुर राजस्थान में हुई पहली मुलाक़ात से लेकर भोपाल के दुष्यंत अलंकरण, अभिनव कला परिषद का श्रेष्ठ कला आचार्य, सहित अनेक समारोहों एवं गोष्ठियों सम्मेलनों में मुझे उनका आशीर्वाद मिलता रहा। 

            अब, जब दादा नहीं हैं तब उनसे जुड़ी यादें और और सघन हो चलीं। मेरी कृति "धूप भरकर मुट्ठियों में" उनका लिखा फ्लैप अब धरोहर है। दादा का इस तरह असमय जाना हम सब के लिए पीड़ादायक है। उनका जाना हम सबकी अपूर्णीय क्षति है। इस लेख को लिखने के कुछ माह पहले ही उनका एक कॉल आया था मुझे नहीं पता था अब इसके बाद नेह उड़ेलने वाला कॉल कभी नहीं आएगा।

     ठीक से तो याद नहीं पर हाँ, अन्तिम कॉल पर जो बात हुई तब उन्होंने शायद किसी शोध सन्दर्भ ग्रन्थ का जिक्र किया था जिसे वह पढ़ना और देखना चाहते थे पर वह उन तक पहुँच नहीं सका। 

       शायद इस ग्रन्थ में माहेश्वर तिवारी जी के नवगीत सम्मिलित किए गए पर उन तक ग्रंथ की प्रति नही पहुँची। काश ! मैं, उस ग्रंथ का नाम ठीक से  सुन पाता तो उन तक, उस ग्रन्थ की प्रति उन तक भेजने की कोशिश जरूर करता। अफ़सोस ! ऐसा कर नहीं सका।

        खैर,1998 में रिरीज हुई एक मूवी 'दुश्मन' का एक गीत जो आंनद बक्शी ने लिखा और जिसे जगजीत सिंह नें दिलकश अंदाज़ में में मखमली आवाज़ में अपना रेशमी स्वर दिया,

खासतौर से इस प्रसंग पर हमें बहुत रुलाता है।

       "चिट्ठी ना कोई संदेश,

        जाने वो कौन सा देस, 

        जहाँ तुम चले गए!

    मैं, यह भली भाँति जानता हूँ कि, कॉल पर ना मुखड़ा, ना अंतरा, और ना वह समापन की पुनरावृत्ति वाली, ठीक है ! ठीक है ! ठीक है ! की आवाज़ मेरे और मेरे जैसे अनेक उनके प्रसंशको के कानों में कभी नहीं आएगी।

       नम आँखों और भारी मन से उन्हें याद करते हुए पूछता तो हूँ पर कोई उत्तर ही नहीं देता ...

              कहाँ तुम चले गए..........।

अंत में पहले लंबे आलेख का श्रेय जाता है अत्यन्त प्रिय मेरे बड़े भाई मित्र योगेन्द्र वर्मा व्योम जी को उन्होंने ठीक उसी वेसे ही जैसे हनुमान जी उनकी प्रेरणा से जलधि लाँघ लंका जा पहुँचे।

       उसी तर्ज पर  मुझ जैसे अलाल से यह काम करवा लिया साथ ही समूह वागर्थ, समूह अंतरा और ब्लॉग वागर्थ में प्रस्तुत स्तरीय सामग्री की शक्ति अहसास भी करा दिया जिसका का मुझे  अभी तक भान ही नहीं था।

✍️मनोज जैन 

संस्थापक संपादक 

समूह / ब्लॉग वागर्थ 

106 विट्ठलनगर

गुफ़ामन्दिर रोड लालघाटी 

भोपाल 462030 

मध्य प्रदेश,भारत

सोमवार, 19 अगस्त 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी के ग़ज़ल संग्रह “धूप पर कुहरा बुना है" की प्रयागराज के साहित्यकार यश मालवीय द्वारा लिखी भूमिका.....आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए । यह संग्रह श्वेतवर्णा प्रकाशन,नई दिल्ली ने वर्ष 2024 में प्रकाशित किया है।


अभी-अभी हिन्दी नवगीतों का एक भरा-पूरा प्रतिमान रचकर माहेश्वर तिवारी जी नेपथ्य में गए हैं। अभी उनके बहुत कुछ लिखे हुए की स्याही भी नहीं सूखी है। उनकी सागर मुद्राएँ याद आ रही हैं और याद आ रहा है निर्मल नदी का झरना। आत्मा का अनंत उजास याद आ रहा है। सिर पर धवलकेशी बर्फ़ सजाए हिन्दी की गीत कविता का यह पर्वत क्या कभी भुलाया जा सकेगा? अपनी सज-धज में वह एकदम कविवर सुमित्रानंदन पंत जैसे दिखने लगे थे। वैसा ही बालसुलभ अंतर्मन को भिगो देने वाला व्यवहार और वैसा ही सराबोर कर देने वाला वात्सल्य। मैं और योगेंद्र वर्मा व्योम तो उनके बेटे जैसे ही रहे, उनकी दुआओं की बारिश में तर-ब-तर रहे।

माहेश्वर जी बड़ी संजीदगी के साथ नवगीत की सर्जना करते हुए, ख़ामोशी पहने ग़ज़लें भी कहते रहे। ये ग़ज़लें उनके नवगीतों के महासागर में उग आए नन्हे-नन्हे द्वीपों जैसी हैं और हैरत में डालती हैं। भरपूर कथ्य, सामाजिक और मानवीय सरोकार, संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन से लबरेज़ यह ग़ज़लें अपने शिल्प में भी अद्भुत रूप से कसी हुई हैं। कथ्य के गहरे दबाव के बाद भी उन्होंने कहीं भी शिल्प से समझौता नहीं किया है, बल्कि उसके व्याकरण की तह में भी उतरे हैं। यह सब कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि अधिकांश नवगीतकारों की तरह वो किसी फैशन के तहत ग़ज़लें नहीं कह रहे थे। उन्हें इन ग़ज़लों को प्रकाश में लाने की न कोई हड़बड़ी थी और न ही अधैर्य। वो इन ग़ज़लों को मद्धिम आँच में, बहुत धीरज के साथ पका रहे थे। उन्हें इनसे मंच भी नहीं लूटना था, इस काम के लिए उनके गीत ही काफ़ी थे। उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम था कि जिस शहर में रहकर वो रचनाकर्म कर रहे हैं, वहाँ शायरे आजम जिगर मुरादाबादी भी क़याम करते थे।

कैसी प्यारी-सी बात है, आज मुरादाबाद अगर जिगर मुरादाबादी के नाम से जाना जाता है, तो माहेश्वर तिवारी भी उसकी पहचान से जुड़ते हैं। वो इस शहर के पर्याय भी हो गए थे। मुरादाबाद का नाम आने के साथ उँगली के पोरों पर सबसे पहला नाम माहेश्वर जी का ही आता है। यह बात एक बार फिर प्रमाणित हो गई, उनके महाप्रयाण से। पूरा शहर ही विह्वल हो उठा था उनके जाने पर। गलियाँ, सड़कें तक उदास लग रही थीं। समाचारपत्रों के पृष्ठ के पृष्ठ रंग उठे थे। टी.वी. चैनल, दूरदर्शन, रेडियो सभी पर माहेश्वर जी का रेशमी लेकिन मेघमंद्र स्वर गूँज रहा था। सारा शहर बिलख रहा था अपने इस लाडले कवि को खोकर। ऐसा तो होना ही था, निराला का वंशज, नवगीत का अधिष्ठाता, एक बड़ा अनुगायक मौन हो गया था, वाणी का वरदपुत्र शांत हो गया था। पीतलनगरी का स्वर्णकलश समय के जल में तिरोहित हो, कण-कण में व्याप्त हो गया था।

माहेश्वर जी जीवन भर घूमते ही रहे, कहते थे कि कवि तो आप अपने कमरे में बैठकर भी हो सकते हैं, पर छंद की कविता के लिए आपको जंगल, नदी, तालाब, पर्वत, समंदर, मरुस्थल हर जगह की आवारगी करनी होती है। स्वयं माहेश्वर जी बस्ती, इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस, विदिशा, होशंगाबाद होते हुए मुरादाबाद पहुँचे थे। बहुत दिनों तक उनका पता शनीचरा, होशंगाबाद वाला विनोद निगम का जो पता था, वही पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा। वहाँ वह भवानीप्रसाद मिश्र, शलभश्रीराम सिंह, विजयबहादुर सिंह सरीखों के अन्यतम रहे। इसी बीच उनका अपने उपनाम शलभ से मोहभंग हुआ और उन्होंने उसे त्याग दिया। कवि सम्मेलनों में वो छंद की अलख जगाते रहे। पत्र-पत्रिकाओं और काव्य मंचों के बीच आवाजाही करते रहे, एक पुल की तरह ही झूलते रहे। धर्मयुग के पृष्ठों से लेकर कविता के मंचों तक उनकी धूम रही। कवि सम्मेलनों और गंगाजमुनी मुशायरों के लिए हमेशा उनकी अटैची तैयार रहती थी। शायद इसीलिए कैलाश गौतम उन्हें हिन्दी कविता का राहुल सांकृत्यायन कहा करते थे।

माहेश्वर जी अपने नवगीतों के साथ समानांतर रूप से लगातार ग़ज़लें भी कहते रहे थे। एक दिन में ही तो ये इक्यानवे ग़ज़लें हो नहीं गईं। उनके लिए हमेशा कथ्य महत्वपूर्ण रहा, फार्म भले ही कोई हो लेकिन वह समय नवगीत की स्थापना का समय था और वो फोकस भी उसी पर रखना चाह रहे थे। एक रचनाकार की छटपटाहट के चलते बस वो ग़ज़लें भी कह कहकर चुपचाप सँजोते जा रहे थे। नवगीत की स्थापना और इस विधा विशेष में अपनी सिद्धि के बाद इधर के दिनों में उन्हें लगने लगा था कि अब वो सारी ग़ज़लें भी आ ही जाएँ। बीच-बीच में मैं भी ग़ज़लें कहता था और उन्हें सुनाकर संतुष्ट हो जाता था। एक बार उन्होंने कहा था कि देखो पिचकारी दो तरह की होती है, एक तो बड़े से छिद्र वाली होती है, जिससे धार के साथ रंग निकलते हैं और एक होती है, जिसमें कई छिद्र होते हैं, उससे फुहार की शक्ल में रंग निकलते हैं। अब ये तुम्हें तय करना है कि धार बनना है कि फुहार बनकर बिखर जाना है। कितनी क़ीमती बात थी यह। वो अपने संदर्भ में भी जब नवगीत की पूरी तरह से धार बन गए तो फिर सहज ही उनका ध्यान धारदार कही गई अपनी ग़ज़लों की तरफ़ गया।

माहेश्वर जी की सृजनात्मक अनिवार्यता रही, उनकी सहधर्मिणी बालसुंदरी जी। शिव-पार्वती समान दंपति का साहित्य और संगीत का मणिकांचन योग रहा। नवगीतों की ही तरह ग़ज़लों की प्रेरणा भी बालसुंदरी जी ही रहीं। अक्सर वो ही माहेश्वर जी की रचनाओं की प्रथम श्रोता हुआ करती थीं। बहरहाल! अब उन्हें इन ग़ज़लों के माध्यम से नए सिरे से जानना, अनुभव करना और जीना एक नितान्त भिन्न आस्वाद दे रहा है। इन ग़ज़लों में प्रखर राजनैतिक तेवर के साथ, गहरी सामाजिक चिंताओं का निरूपण आंदोलित-उद्वेलित कर रहा है। हताशाओं-निराशाओं के बीच भी कवि उम्मीद की टिमटिमाती हुई लौ जगाए रखता है। उनकी बेहद मक़बूल हुई इस ग़ज़ल का मतला और यह शेर देखिए-

सिर्फ़ तिनके-सा न दाँतों में दबाकर देखिए

इस सदी का गीत हूँ मैं गुनगुनाकर देखिए

एक हरकत पर अँधेरा काँप जाएगा अभी

आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए

वास्तव में माहेश्वर जी इस सदी का गीत ही हैं और अब इस ग़ज़ल संग्रह के मंज़रे-आम पर आने के बाद यह भी बेझिझक कहा जा सकता है कि इस सदी की ग़ज़ल भी उनकी क़लम में पनाह माँगती है। एक जुझारू आवाज़, एक लड़ती हुई रचना-भंगिमा ही उनकी सर्जना का सच है। एक तरफ़ यह आक्रामक तेवर है तो दूसरी तरफ़ सांद्र संवेदना की यह विरल अभिव्यक्ति भी है, सरापा ग़ज़ल ही मन की शाखें हिलाकर रख देती है-

आप भी क्या गए दिन अँधेरे हुए

काम जो थे सवेरे-सवेरे हुए


टूटती थी हमीं पर सभी बिजलियाँ

डाल के फूल-पत्ते लुटेरे हुए


रेत पर तिलमिलाती रही देर तक

याद मछली हुई दिन मछेरे हुए


एक तिनका हवा में उड़ा देर तक

रात वीरानियों में बसेरे हुए


शाम तक होंठ में बंद थीं हिचकियाँ

चाँद-तारे सवालात मेरे हुए

माहेश्वर जी के जाने से सचमुच लग रहा है जैसे दिन अँधेरे हुए लेकिन इसी भारी समय में उनके ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशन से यह भी महसूस हो रहा है कि दबे पैरों से उजाला आ रहा है और यह भी लग रहा है जैसे तीन सवा तीन महीनों की लम्बी यात्रा से जैसे वो घर लौट रहे हैं, फूल फिर कनेरों में आ रहे हैं। नवगीतों की बिंबधर्मिता से अलग है, इन ग़ज़लों का सीधा संवाद, वैसे रेत और मछली उनके मन के बहुत करीब के बिम्ब हैं, उनके गीत का एक मुखड़ा भी याद आता है-

रेत के स्वप्न आते रहे

और हम मछलियों की तरह

नींद में छटपटाते रहे

यह सब लिखते हुए उनकी याद भी मछली हुई जा रही है। पिता उमाकांत मालवीय के जाने के बाद, माहेश्वर जी का जाना, मेरे लिए दुबारा अनाथ होने जैसा है। माहेश्वर जी के रचनाकर्म में घूम फिर कर घर आता है, अपने एक नवगीत में वो कहते हैं- ‘धूप में जब भी जले हैं पाँव, घर की याद आई’, तो ग़ज़ल में कहते हैं-

बैठे हुए नक्शे में नगर ढूँढ रहे हैं 

इस दौर में हम अपना ही घर ढूँढ रहे हैं 

मकते तक आते आते यह ग़ज़ल और भी मार्मिक हो उठती है, जब वो कहते हैं-

जंगल को जलाया था जिन्होंने वही सब लोग

अब झुलसी हुई चिड़िया के पर ढूँढ रहे हैं

माहेश्वर जी की ग़ज़लों में ढूँढे से भी यथार्थ का सरलीकरण नहीं मिलता, अलबत्ता वो जटिल अनुभूतियों की सरल अभिव्यक्ति ही देते आए हैं। अपने सर्जक के प्रति प्रारम्भ से ही एक वीतराग उनमें लक्षित किया जा सकता है। एक ग़ज़लगो के रूप में उन्हें देखना एक सुखद एहसास से भर देता है, अपने नवगीतकार की छाया वो अपने ग़ज़लकार पर नहीं पड़ने देते। जब वो नवगीत रचते हैं तो नवगीत रचते हैं और जब ग़ज़ल कहते हैं तो बस ग़ज़ल कहते हैं। अधिकतर नवगीतकारों की तरह वो ग़ज़ल में नवगीत नहीं रचते। अपना रचना शिल्प ही तोड़ते चलते हैं। किसी कवि के लिए अपना खांचा और सांचा तोड़ना ही बहुत दुश्वार होता है।

माहेश्वर जी ने यह काम बख़ूबी किया है। एक फ़क़ीराना ठाठ और ठेठ कवि की ठसक उनमें क्रमशः गहराती चली गई है। भाषा में एक सधुक्कड़ी मिज़ाज आता चला गया है। एक जेनुइन रचनाकार की परिभाषा अगर देनी हो तो माहेश्वर जी का नाम ही ले लेना काफ़ी होगा। वो सिर से पाँव तक कवि थे। एक कवि को कैसा लिखना चाहिए और कैसा दिखना चाहिए, इन दोनों मामलों में वो अपने आप में एक नज़ीर थे। उन्हें कोई एक नज़र देखकर ही कवि समझ लेता था, हालांकि उन्होंने कभी कवि होने का लाइसेंस नहीं लिया। वो जन्मना कवि थे। कविता ही ओढ़ते-बिछाते थे। छंदों की नई-नई गलियाँ अन्वेषित करते थे। जिस तरह उन्होंने अपने नवगीतों में छंदों के विविध प्रयोग किए हैं, उसी तरह अपनी ग़ज़लों में छोटी बड़ी-कई तरह की बहरों का इस्तेमाल किया। उनकी ग़ज़लों में रदीफें पूरी तरह से चस्पा होकर आती हैं, कहीं भी हैंग नहीं करतीं, तिलभर भी लटकती नहीं, उनका अपना जस्टिफिकेशन होता है। तुक या काफ़िए भी पूरे तर्क के साथ मौजूद मिलते हैं, तभी तो उनकी ग़ज़लों का अपना एक मुहावरा बन पाया है, वो कहते हैं- 

हमको बातों से बहलाना मुश्किल है

निहुरे निहुरे ऊँट चुराना मुश्किल है


समझ गए हम क्या होता है सूरज का

हमको जगनू से बहलाना मुश्किल है

यह उस्तादना रंग संग्रह की बेशतर ग़ज़लों में है, जहाँ वह समय की एक कुशल चिकित्सक की तरह शल्य क्रिया कर रहे होते हैं, पड़ताल कर रहे होते हैं दुनिया जहान की और कविता और जीवन के बीच की खाई पाट रहे होते हैं, जीवन और जगत को नए अर्थ दे रहे होते हैं। ऐसी ही सघन अर्थवत्ता से जुड़े, उनकी ग़ज़लों के कुछ ख़ास शेर इस तरह से हैं-

भर गई है आँख रो लें हम चलो

घाव सारे आज धो लें हम चलो


आँधियों की जाँघ पर दो पल ज़रा 

सिर टिकाए आज सो लें हम चलो 

चिड़िया भी उनके गीतों और ग़ज़लों में रह रहकर फेरा लगाती है, यह मार्मिक शेर देखें -

ख़ून आँखों में भर गई चिड़िया 

काम चुपचाप कर गई चिड़िया


फिर किसी हुक्मरां के पाँवों में 

कार से दब के मर गई चिड़िया 

और यह बेकली भी काबिले गौर है-

हर ओर सुलगते हुए अंगारे बिछे हैं 

कोई तो मिले पानी के बरताव का हामी 

तेंदुआ रदीफ़ से सजी इस ग़ज़ल का विलक्षण मतला और यह दो शेर भी देखें। पूरी ग़ज़ल, ग़ज़ल क्या एक मुकम्मल पेंटिंग है-

सरसराहट घास की पहचानता है तेंदुआ 

और इकदम जिस्म अपना तानता है तेंदुआ

 

घनी झाड़ी में कहीं चुपचाप दुबका हो मगर

तेज़ चौकन्नी निगाहें छानता है तेंदुआ


किस तरह छिपकर कहाँ किसको दबोचा जाएगा

यह बहुत अच्छी तरह से जानता है तेंदुआ 

यह कमाल अपने एक नवगीत में भी माहेश्वर जी ने पूरी शिद्दत के साथ अंजाम दिया है, वो कहते हैं-

अगले घुटने मोड़े 

झाग उगलते घोड़े

जबड़ों में कसती वल्गाएँ हैं, मैं हूँ

भोपाल के नवगीत समारोह में स्वयं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कलाकार स्वामीनाथन जी ने इन पंक्तियों को एक ख़ूबसूरत पेंटिंग की संज्ञा दी थी।

निश्चित ही उनकी ग़ज़लों के संग्रह का प्रकाशन एक बड़ी परिघटना है और समकालीन ग़ज़ल विधा में एक बड़ा इज़ाफ़ा है। अफसोस कि यह कारनामा देखने के लिए स्वयं माहेश्वर जी ही अब हमारे बीच नहीं हैं। बावजूद इस तकलीफ़ के मैं प्रसिद्ध कथालेखिका कृष्णा सोबती के इस कथन पर गहरा यक़ीन रखता हूँ, जिसमें वह कहती हैं कि ‘लेखक की एक ज़िन्दगी उसकी मौत के बाद शुरू होती है।’ माहेश्वर तिवारी इस ग़ज़ल संग्रह के माध्यम से जैसे फिर हमारे बीच लौट रहे हैं, नए सिरे से ज़िन्दा हो रहे हैं। अभी तो बस यही लगता है कि कल ही शाम तो उनका फोन आया था, पूछ रहे थे- बेटा कैसे हो ? अहमद फराज़ का एक शेर बहुत देर से ज़ेहन पर दस्तक दे रहा है-

दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे

जैसे अब भी तेरी आवाज़ मेरे कान में है

 


✍️ यश मालवीय

‘रामेश्वरम’

ए-111, मेंहदौरी कॉलोनी,

प्रयागराज- 211004, उ0प्र0

मोबाइल- 6307557229

रविवार, 14 जुलाई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेंद्र पाल सिंह विश्नोई पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख ....जीवन के सत्य और ज्ञान के साधक ....। यह प्रकाशित हुआ है डॉ महेश दिवाकर द्वारा संपादित कृति ...साहित्यकार योगेन्द्र पाल सिंह विश्नोई अमृत महोत्सव ग्रंथ में । इस कृति का लोकार्पण रविवार 14 जुलाई 2024 को पंचायत भवन में आयोजित भव्य समारोह में हुआ ।


शांति और सद्भाव के पक्षधर, सत्य के दर्शन के अभिलाषी, कर्मयोगी, साहित्य साधना में रत श्री योगेंद्र पाल सिंह विश्नोई का सम्पूर्ण काव्य सृजन सत्य और ज्ञान की साधना है जिसमें जीवन के विविध रंगों के दर्शन होते हैं। उनके गीतों में जीवन के सुख-दुख, हर्ष विषाद आशा निराशा की सहज अभिव्यक्ति है । उनकी रचनाओं में जहां जीवन का कटु यथार्थ है वहीं सामाजिक विषमताओं विसंगतियों को भी उन्होंने काव्य के माध्यम से उजागर किया है। राष्ट्रवाद भी उनकी अनेक रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है तो कहीं-कहीं वह जनवादी मूल्यों को भी उजागर करते हैं।

     जीवन की समस्याओं, दुख और पीड़ाओं को वह अभिव्यक्त तो करते हैं लेकिन निराश नहीं होते वह आशाओं के दीप जलाते हुए ईश्वर की परम सत्ता को स्वीकारते हैं और अध्यात्म की ओर उन्मुख हो जाते हैं। वह मन का संबल जुटाते हुए, जीवन में चुभने वाले प्रश्नों का हल खोजते हैं। वह कहते हैं दुख हमें इस नश्वर जग का सत्य स्वरूप दिखाता है। वह हमें बताता हैं कौन अपना है और कौन पराया है। वह आह्वान करते हैं पुण्य को संवारने का, अपने कर्म को सुधारने का, सेवा– भाव– समर्पण से मन के निर्मल भावों को जगाने का । उनका मानना है कि इस क्षणभंगुर जीवन का एक पल भी हमें बेकार न करते हुए खुश होकर जीना चाहिए। वह कहते हैं मनुष्य का जन्म तभी सार्थक है जब वह अपने मन का मैल धोकर सत्कर्मों की ओर प्रेरित हो और सद् व्यवहार से समरसता की पावन रसधार बहाता रहे क्योंकि सेवा, समर्पण और सद्भावना से परिपूर्ण जीवन जीना ही उसकी पहचान है। अपने काव्य सृजन के संबंध में वह स्वयं कहते हैं..... अपने काव्य सृजन के संबंध में श्री विश्नोई जी स्वयं कहते हैं

 

गीत नहीं ये समाधान है, 

 जन-जीवन की उलझन के। 

 ध्यान पूर्वक पढ़ो तो समझो,

 मानस मूल्य समर्थन के ।।


शब्द-शब्द में उस विराट की, 

भावभीनी है गंध भरी। 

जिसकी दया दृष्टि पाने को, 

भजते योगी, जपी- तपी ।।


उसी ज्योति की शुभ्र किरण

 पंक्ति-पंक्ति में बिखरी है। 

 अन्तर मन का तम हरने को 

 भावलोक से उतरी है ।।


भाव प्रसूनों की माला है, 

ज्ञान ध्यान से, जपी गई।

सहज पार करने भव सागर, को 

मोक्ष द्वार से लगी हुई ।।




✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

बुधवार, 22 मई 2024

मुरादाबाद के प्रख्यात इतिहासकार,पुरातत्ववेत्ता और साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी की जयंती 22 मई 2024 को उन पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का विशेष आलेख जो मुरादाबाद से प्रकाशित दैनिक परिवर्तन का दौर , दैनिक उत्तर केसरी, संभल से प्रकाशित दैनिक राष्ट्रीय सिद्धांत, लखनऊ से प्रकाशित दैनिक जनसंदेश और अमरोहा से प्रकाशित दैनिक आर्यावर्त केसरी में प्रकाशित हुआ है ......

 






अतीत में दबे साहित्य को खोजा सुरेन्द्र मोहन मिश्र ने
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी
     मैं सरस्वती का पुत्र हूँ, लक्ष्मी के आगे सिर नहीं नवाऊंगा । कह कर दीपावली की रात्रि को पूजा- गृह से बाहर निकल जाने वाले सुरेंद्र मोहन मिश्र ने न केवल साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त की बल्कि इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता के रूप में भी विख्यात हुए । 
     साहित्य, इतिहास और पुरातत्व को अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले सुरेन्द्र मोहन मिश्र की बचपन से ही साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने में रुचि थी। पं सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, डॉ हरिवंश राय बच्चन जैसे अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों का साहित्य आपने पन्द्रह-सोलह वर्ष की अवस्था में ही पढ़ लिया था ।साहित्य अनुराग के कारण ही आप कविता लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उधर, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में गाये जाने वाले कोरसों का भी मन पर पूरी तरह प्रभाव पड़ा। 
     आपकी प्रथम कविता दिल्ली से प्रकाशित दैनिक सन्मार्ग में वर्ष 1948 में प्रकाशित हुई । उस समय आपकी अवस्था मात्र सोलह वर्ष की थी। इसके पश्चात् आपकी पूरी रुचि साहित्य लेखन की ओर हो गयी लेकिन आपके पिता को यह सहन न था। वह चाहते थे कि उनका पुत्र अपने अध्ययन में मन लगाये व वैद्यक व्यवसाय में उनका सहयोग करें।  
    प्रारम्भ में आपने छायावादी और रहस्यवादी कवितायें लिखी। वर्ष 1951 में जब वह मात्र 19 वर्ष के थे उनकी प्रथम काव्य कृति मधुगान प्रकाशित हुई। इस कृति में उनके 37 गीत हैं। इस गीत संग्रह की भूमिका में साहित्यकार शील लिखते है– मधुसूदन भगवान की असीम कृपा से प्रस्तुत मधुगान में ऐसे मधुर गीतों का संकलन हुआ है जिनके मधुमय निनाद से एवं जिनकी मधुमयतान से प्रत्येक सहृदय मानव का मानस मधुमय हो जाता है। जिस मधुर काल में यौवन का विकास आरम्भ होता है, उसमें समस्त सृष्टि इसी प्रकार दृष्टिगोचर होती है। प्रस्तुत गीतों के लेखक सुरेन्द्र मोहन मिश्र अपने जीवन की ऐसी हो मधुमयी घड़ियों में से होकर अग्रसर हो रहे हैं। उनके लिए वेदनामयी कसक भी मधुमयी है और माधुर्य तो माधुर्य है ही।
    दूसरी कृति वर्ष 1955 में 'कल्पना कामिनी शीर्षक से पाठकों के सन्मुख आई। इस श्रृंगारिक गीतिकाव्य में उनके वर्ष 1951-52 में रचे 51 गीत हैं। लगभग 27 वर्ष के अंतराल के पश्चात उनकी तीसरी काव्य कृति कविता नियोजन का प्रकाशन वर्ष 1982 में हुआ। प्रज्ञा प्रकाशन मंदिर चन्दौसी द्वारा प्रकाशित इस कृति में उनकी वर्ष 1972 से 1974 के मध्य रची 26 हास्य-व्यंग्य की कविताएं हैं। इस कृति के संदर्भ में काका हाथरसी की काव्य पंक्तियां दृष्टव्य हैं- करते कविता नियोजन कविवर मिश्र सुरेन्द्र / प्रियदर्शी, सुंदर-सरस, हास्य व्यंग्य रस केन्द्र / हास्य व्यंग्य रस केन्द्र, कला में गहरी निष्ठा/काव्य जगत में दिन- दूनी बढ़ रही प्रतिष्ठा/ तुलना किससे करें, कहो कविराज तुम्हारी/ स्वीकारो प्रिय मंगलमय कामना हमारी ।
       वर्ष 1993 में उनकी चौथी कृति 'बदायूं के रणबांकुरे राजपूत' का प्रकाशन हुआ। प्रतिमा प्रकाशन चन्दौसी द्वारा प्रकाशित इस कृति में बदायूँ जनपद के राजपूतों का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया गया है। पाँचवीं कृति इतिहास के झरोखे से संभल का प्रकाशन वर्ष 1997 में प्रतिमा प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा हुआ। इसका दूसरा संस्करण वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ ।
      वर्ष 1999 में उनकी छठी कृति कवयित्री सम्मेलन का प्रकाशन हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर द्वारा हुआ। इस कृति में उनको 42 हास्य-व्यंग्य कविताएं हैं। वर्ष 2001 मैं सातवीं कृति के रूप में ऐतिहासिक उपन्यास 'शहीद
मोती सिंह' का प्रकाशन प्रतिमा प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा हुआ।
     वर्ष 2003 में उनकी तीन काव्य कृतियों- पवित्र पंवासा, मुरादाबाद जनपद का स्वतन्त्रता संग्राम तथा मुरादाबाद और अमरोहा के स्वतन्त्रता सेनानी का प्रकाशन हुआ । इसी वर्ष उसकी एक कृति मीरापुर के नवोपलब्ध कवि' का प्रकाशन हुआ। उनके देहावसान के पश्चात उनकी बारहवीं कृति आजादी से पहले की दुर्लभ हास्य कविताएं का प्रकाशन उनके सुपुत्र अतुल मिश्र द्वारा वर्ष 2009 में किया गया।
     उनकी अप्रकाशित कृतियों में महाभारत और पुरातत्व, मुरादाबाद जनपद की समस्या पूर्ति, स्वतंत्रता संग्रामः पत्रकारिता के साक्ष्य, चंदौसी का इतिहास, भोजपुरी कजरियां, राधेश्याम रामायण पूर्ववर्ती लोक राम काव्य, बृज के लोक रचनाकार, चंदौसी इतिहास दोहावली, बरन से बुलन्दशहर, हरियाणा की प्राचीन साहित्यधारा, स्वतंत्रता संग्राम का एक वर्ष, दिल्ली लोक साहित्य और शिला यंत्रालय, रूहेलखण्ड की हिन्दी सेवायें, भूले-बिसरे साहित्य प्रसँग, रसिक कवि तुलसी दास, हिन्दी पत्रों की कार्टून- कला के दस वर्ष उल्लेखनीय हैं।
   वर्ष 1955 में ही उनकी रुचि पुरातत्व महत्व की वस्तुएं एकत्र करने में हो गयी। इसी वर्ष उन्होंने चंदौसी पुरातत्व संग्रहालय' की नींव डाल दी जो बाद में कई वर्ष तक मुरादाबाद के दीनद‌याल नगर में हिन्दी संस्कृत शोध संस्थान, पुरातत्व संग्रहालय के रूप में संचलित होता रहा। पुरातत्व वस्तुओं की खोज के दौरान उन्होंने प्राचीन युग के अनेक अज्ञात कवियों प्रीतम, ब्रह्म, ज्ञानेन्द्र मधुसूदन दास, संत कवि लक्ष्मण, बालक राम आदि की पाण्डुलिपियाँ खोजी । हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इनमें से अनेक ग्रंथ दुर्लभ थे।
   उनकी समस्त पुरातात्विक धरोहर वर्तमान में उनके सुपुत्र अतुल मिश्र के अलावा बरेली के पांचाल संग्रहालय, स्वामी शुकदेवानन्द महाविद्यालय, शाहजहांपुर में 'पं. सुरेन्द्र मोहन मिश्र संग्रहालय'  तथा रजा लाइब्रेरी में संरक्षित है। 
उनके साहित्य सृजन के संदर्भ में यश भारती माहेश्वर तिवारी का कहना है- कीर्तिशेष पंडित सुरेन्द्र मोहन मिश्र ने साहित्य के क्षेत्र में एक गीतकार से अलग एक विशुद्ध हास्य कवि के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है।
    केजीके महाविद्यालय मुरादाबाद में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप कहती हैं- "उनमें इतिहासकार की भांति खरा यथार्थ है तो कल्पनाशीलता भी । इतिहास की वीथिका में विचरते हुए उनका कवि मन कभी भी थकता नहीं है, ऐसा एक विराटमना व्यक्ति अपने जीवन में निरंतर कालजयी रचनाओं के साथ हमारे बीच अपनी उपस्थिति बनाने में सफल हो सका है तो वे हैं - सुरेन्द्र मोहन मिश्र
 विज्ञान कथा लेखक राजीव सक्सेना का कहना है अपने सुदीर्घ रचना काल में मिश्र जी ने केवल हास्य रस की कविताएं ही नहीं रची हैं, काव्य की दूसरी विधाओं विशेषकर गीत को भी उन्होंने पर्याप्त समृद्ध किया है। काव्य रचना के अलावा मिश्र जी ने नाटक भी लिखे हैं। पुरातत्व और इतिहास पर भी उन्होंने काफी लिखा है। वे निरे कवि नहीं है बल्कि गद्य लेखन में भी खासे निष्णात हैं। सही बात तो यह है कि साहित्यकार के रूप में मिश्र जी के विविध रूप हैं।
   मिश्र जी का जन्म 22 मई 1932 को चंदौसी के लब्ध प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ। आपके पिता पंडित रामस्वरूप वैद्यशास्त्री रामपुर जनपद की शाहबाद तहसील के अनबे ग्राम से चंदौसी आकर बसे थे।उनकी आयुर्वेद जगत में अच्छी ख्याति थी। उनके द्वारा स्थापित धन्वतरि फार्मसी द्वारा निर्मित औषधियाँ देश भर में प्रसिद्ध है । आपके पितामह पंडित बिहारी लाल शास्त्री थे।
   आपकी प्रारम्भिक शिक्षा चंदौसी में पंडित गोकुलचन्द्र के विद्यालय में हुई। तदुपरान्त आपने एसएम इंटर कालेज में कक्षा तीन में प्रवेश ले लिया। वर्ष 1953 में आपने इसी विद्यालय से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1955 में आपने शिक्षाध्ययन त्याग दिया और साहित्य सेवा को पूर्ण रूप से समर्पित हो गये ।
   15 अप्रैल 1955 को उनका विवाह सोरों के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी पं दामोदर शर्मा की पुत्री और जिला सूचना अधिकारी ‘प्रियदर्शिनी’ महाकाव्य के अमर प्रणेता पंडित राजेंद्र पाठक की छोटी बहन विमला के साथ सम्पन्न हुआ | उनके दो सुपुत्र अतुल मिश्र व विप्र वत्स मिश्र तथा दो सुपुत्रियाँ प्रज्ञा शर्मा व प्रतिमा शर्मा हैं।
     उनका निधन 22 मार्च 2008 को मुरादाबाद में अपने दीनदयाल नगर स्थित आवास पर हुआ ।

संपर्क : संस्थापक
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