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सरल व सुबोध भाषा-शैली एवं कहन में रची गई बाल कविताएं साहित्य जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इस क्षेत्र में इनकी हमेशा से मांग भी रही है। बड़े होकर बच्चों की बात तो सभी कर लेते हैं परन्तु, जब एक बड़े के भीतर छिपा बच्चा कविता के रूप में साकार होकर बाहर आ जाये तो यह स्वाभाविक ही है कि वह कृति बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी पर्याप्त लोकप्रियता पाती है। कवयित्री डॉ. अर्चना गुप्ता की समर्थ व सशक्त लेखनी से निकला बाल कविता-संग्रह 'नन्ही परी चिया' ऐसी ही उत्कृष्ट श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में साहित्यिक समाज के सम्मुख है। चार-चार पंक्तियों की अति संक्षिप्त परन्तु बाल मन को साकार अभिव्यक्ति देती कुल इक्यावन उत्कृष्ट रचनाओं का यह संग्रह इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि कवयित्री ने मन के भीतर छिपे बैठे इस बच्चे को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए बिल्कुल खुला छोड़ दिया है। यही कारण है कि इन सभी रचनाओं में, बड़ों के भीतर छिपा बच्चा मुखर होकर अपनी बात रख सका है। अध्यात्म, पर्यावरण, मानवीय मूल्य, बच्चों का स्वाभाविक नटखटपन, देश प्रेम इत्यादि जीवन से जुड़े सभी पक्षों को चार-चार पंक्तियों की सरल एवं सुबोध रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त कर देना, देखने व सुनने में जितना सरल प्रतीत होता है उतना है नहीं परन्तु कवयित्री ने ऐसा कर दिखाया है। कृति का प्रारंभ पृष्ठ 9 पर चार पंक्तियों की सुंदर "प्रार्थना" से होता है। सरल व संक्षिप्त होते हुए भी वंदना हृदय को सीधे-सीधे स्पर्श कर रही है, पंक्तियाॅं देखें -
"ईश्वर ऐसा ज्ञान हमें दो
बना भला इंसान हमें दो
कुछ ऐसा करके दिखलायें
जग में ऊंचा नाम कमायें"
इसी क्रम में पृष्ठ 10 पर उपलब्ध रचना "कोयल रानी" में बच्चा एक पक्षी से बहुत ही प्यारी भाषा में बतियाता है, पंक्तियाॅं पाठक को प्रफुल्लित कर रही हैं -
"ज़रा बताओ कोयल रानी
क्यों है इतनी मीठी बानी
कुहू-कुहू जब तुम गाती हो
हम सबके मन को भाती हो"
इसी क्रम में एक अन्य महत्वपूर्ण रचना "नन्ही परी चिया" शीर्षक से पृष्ठ 11 पर उपलब्ध है जो मात्र चार पंक्तियों में बेटियों के महत्व को सुंदरता से स्पष्ट कर रही है। मनोरंजन के साथ यह रचना समाज को एक संदेश भी दे जाती है -
"नन्ही एक परी घर आई
झोली भर कर ख़ुशियां लाई
चिया नाम से सभी बुलाते
नख़रे उसके खूब उठाते"
इसी सरल व सुबोध भाषा शैली के साथ बिल्ली मौसी (पृष्ठ 12), हाथी दादा (पृष्ठ 13), गधे राम जी (पृष्ठ 14), कबूतर (पृष्ठ 15), बकरी (पृष्ठ 16), बादल (पृष्ठ 17), इत्यादि रचनाएं आती हैं जो बाल-मन को अभिव्यक्ति देती हुई कहीं न कहीं एक सार्थक संदेश भी दे रही हैं। इक्यावन मनोरंजक परन्तु सार्थक बाल रचनाओं की यह मनभावन माला पृष्ठ 59 पर उपलब्ध "15 अगस्त" नामक एक और सुंदर बाल कविता के साथ समापन पर आती है। देश प्रेम व एकता से ओतप्रोत चार पंक्तियों की यह संक्षिप्त रचना भी पाठक-हृदय का गहराई से स्पर्श रही है -
"स्वतंत्रता का दिवस मनायें
आओ झंडे को फहरायें
राष्ट्रगान सब मिलकर गायें
भारत माॅं को शीश नवायें"
कुल मिलाकर एक ऐसा अनोखा एवं अत्यंत उपयोगी संग्रह, जिसकी रचनाओं को बच्चे सरलतापूर्वक कंठस्थ भी कर सकते हैं। यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कवयित्री ने इन हृदयस्पर्शी चतुष्पदियों को मात्र रचा ही नहीं अपितु, मन में छिपे उस भोले भाले परन्तु जिज्ञासु बच्चे से वार्तालाप भी किया है। मुझे यह कहने में भी कोई आपत्ति नहीं कि परिपक्व/अनुभवी पाठकगण भले ही इस सशक्त कृति का मूल्यांकन छंद/ विधान इत्यादि के पैमाने पर करें परन्तु, यह भी सत्य है कि बच्चों के कोमल मन अथवा मनोविज्ञान को समझना सरल बात बिल्कुल नहीं है। इसे तो बच्चा बनकर ही समझा जा सकता है। जब हम उनकी कोमल भावनाओं की बात करें, तो हमें अपना "बड़प्पन" एक तरफ उठाकर रखते हुए, बच्चों की दृष्टि से ही उन्हें देखना चाहिए। चूंकि कवयित्री ने इस संग्रह में स्वयं एक अबोध बच्चा बनते हुए अपनी सशक्त लेखनी चलाई है, यही कारण है कि यह संग्रह बिना किसी लाग-लपेट के, मनमोहक लय-ताल के साथ, बच्चों व बड़ों सभी के हृदय को भीतर तक स्पर्श करने में समर्थ सिद्ध हुआ है, ऐसा मैं मानता हूॅं।
कुल मिलाकर अत्यंत सरल व सुबोध भाषा-शैली सहित आकर्षक छपाई एवं साज-सज्जा के साथ, पेपरबैक संस्करण में उपलब्ध यह कृति अपने उद्देश्य में मेरे विचार से पूर्णतया सफल तथा स्तरीय बाल-विद्यालयों के कोर्स एवं स्तरीय पुस्तकालयों में स्थान पाने के सर्वथा योग्य है।
कवयित्री : डॉ. अर्चना गुप्ता
प्रकाशक: साहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा
प्रकाशन वर्ष : 2022
मूल्य: 99₹
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
ओ हुरियारे ।
मर्यादा का मुख इस युग में,
इतना काला ।
खुलने से ही कतराता है,
कुण्डी - ताला ।
तुम ही बोलो, चहकें कैसे,
घर - चौबारे ।
रंग पुराने लेकर आना,
ओ हुरियारे ।
मीठी चिक-चिक- हुल्लड़बाजी,
या बतियाना ।
होगा कब चौका सखियों का,
फिर मस्ताना ।
पूछ रहे हैं गुझिया मठरी,
पापड़ - पारे ।
रंग पुराने लेकर आना,
ओ हुरियारे ।
आस लगाए सोच रही है,
प्यारी होली ।
वापस झूमे चौपाई पर,
घर-घर टोली ।
रहें न गुमसुम ढोल-मजीरे,
या इकतारे ।
रंग पुराने लेकर आना,
ओ हुरियारे ।
✍️ राजीव प्रखर
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मुरादाबाद के तीन रचनाकारों डॉ. मनोज रस्तोगी, श्रीकृष्ण शुक्ल एवं राजीव प्रखर को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए, प्रतिष्ठित द ग्राम टुडे प्रकाशन समूह (देहरादून) द्वारा टी.जी.टी. साहित्यरत्न सम्मान से सम्मानित किया गया। मुरादाबाद के जीलाल मोहल्ला स्थित साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय में गुरुवार 16 फरवरी 2023 को आयोजित हुए एक संक्षिप्त समारोह में इन तीनों रचनाकारों को यह सम्मान प्रदान किया गया। इस अवसर पर उपरोक्त प्रकाशन समूह की ओर से वरिष्ठ पत्रकार एवं समूह संपादक शिवेश्वर दत्त पांडे उपस्थित रहे। अपने उद्बोधन में श्री पांडे ने कहा - "ऐतिहासिक मुरादाबाद की धरती सदैव ही साहित्यिक विभूतियों से भरी पूरी रही है जिनकी प्रेरणा से मुरादाबाद को निरंतर उत्कृष्ट साहित्यकार/रचनाकार मिल रहे हैं, जो अत्यंत हर्ष का विषय है।" उन्होंने साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय को मील का पत्थर बताते हुए कहा कि इस शोधालय में संरक्षित साहित्य शोधार्थियों के लिए बहु उपयोगी सिद्ध होगा।
इस अवसर पर एक संक्षिप्त काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन किया गया जिसमें डॉ. मनोज रस्तोगी, श्रीकृष्ण शुक्ल एवं राजीव 'प्रखर' ने अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की।
एक रचनाकार अपने मनोभावों को पाठकों/श्रोताओं के समक्ष प्रकट करता ही है परन्तु, जब पाठक/श्रोता उसकी अभिव्यक्ति में स्वयं का सुख-दु:ख देखते हुए ऐसा अनुभव करें कि रचनाकार का कहा हुआ उनके ही साथ घट रहा है, तो उस रचनाकार की साधना सार्थक मानी जाती है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय 'अनुपम' की प्रवाहमयी लेखनी से होकर साहित्य-जगत् के सम्मुख आया गीत-संग्रह - 'दर्द अभी सोये हैं' इसी तथ्य को प्रमाणित करता है।
एक आम व्यक्ति के हृदय में पसरे इसी दर्द पर केन्द्रित एवं उसके आस-पास विचरण करतीं इन 109 अनुभूतियों ने यह दर्शाया है कि रचनाकार का हृदय भले ही व्यथित हो परन्तु, उसने आशा एवं सकारात्मकता का दामन भी बराबर थामे रखा है। यही कारण है कि ये 109 अनुभूतियाॅं वेदना की इस चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करते हुए, उजली आशा का मार्ग तलाश लेती हैं।
पृष्ठ 17 पर उपलब्ध गीत - 'दर्द अभी सोये हैं' से आरम्भ होकर वेदना के अनेक सोपानों से मिलती, एवं उनमें प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान आशा की किरणों में नहाती हुई यह पावन गीत-माला, जब पृष्ठ 126 की रचना - 'मैं तो सहज प्रतीक्षारत हूॅं' पर विश्राम लेती है, तो एक संदेश दे देती है कि अगर एक और ॲंधेरे ने अपनी बिसात बिछा रखी है तो उसे परास्त करने में उजली आस भी पीछे नहीं रहेगी। साथ ही दैनिक जीवन की मूलभूत समस्याओं तथा पारिवारिक व अन्य सामाजिक संबंधों पर दृष्टि डालते हुए, उनके यथासंभव हल तलाशने के प्रयास भी संग्रह को एक अलग ऊॅंचाई प्रदान कर रहे हैं। अतएव, औपचारिकता वश ही कुछ पंक्तियों अथवा रचनाओं का यहाॅं उल्लेख मात्र कर देना, इस उत्कृष्ट गीत-संग्रह के साथ अन्याय ही होगा। वास्तविकता तो यह है कि ये सभी 109 गीत पाठकों के अन्तस को गहनता से स्पर्श कर लेने की अद्भुत क्षमता से ओत-प्रोत हैं, ऐसा मैं मानता हूॅं। निष्कर्षत: यह गीत-संग्रह मुखरित होकर यह उद्घोषणा कर रहा है कि दर्द भले ही अभी सोये हैं परन्तु, जब जागेंगे तो आशा के झिलमिलाते दीपों की ओर भी उनकी दृष्टि अवश्य जायेगी।
मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि सरल व सहज भाषा-शैली में पिरोया गया एवं आकर्षक साज-सज्जा व छपाई के साथ, सजिल्द स्वरूप में तैयार यह गीत-संग्रह गीत-काव्य की अनमोल धरोहर तो बनेगा ही, साथ ही वेदना व निराशा का सीना चीरकर, उजली आशा की धारा भी निकाल पाने में सफल सिद्ध होगा।
कृति : दर्द अभी सोये हैं (गीतसंग्रह)
संपादक : डा. कृष्णकुमार 'नाज़'
कवि : डा. अजय 'अनुपम'
प्रथम संस्करण : 2022
मूल्य : 200 ₹
प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन
सी-130, हिमगिरि कालोनी, काँठ रोड, मुरादाबाद (उ.प्र., भारत) - 244001
समीक्षक : राजीव 'प्रखर'
डिप्टी गंज,
मुरादाबाद
8941912642, 9368011960