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रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा...मन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे.

    योगेन्द्र वर्मा व्योम आज के साहित्यिक परिदृश्य में एक जाना पहचाना नाम हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहे, कहानी, समीक्षा, लघुकथा, आलेख आदि विभिन्न विधाओं में लिख रहे व्योमजी की अब तक चार कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और अपनी हर कृति के साथ क्रमशः उन्होंने अपनी उत्तरोत्तर निखरती साहित्यिक प्रतिभा को और अधिक समृद्ध किया है और आज वे किसी परिचय के लिए पराश्रित नहीं हैं।

          काव्य-संग्रह "इस कोलाहल में" से आरंभ हुई उनकी यह साहित्यिक यात्रा "उगें हरे संवाद" की हरितिमा लिए आज हमारे सामने है। समकालीन समय और संबंधों से संवाद करना व्योमजी की प्रमुख लेखन शैली है और इसी शैली में उनका वर्तमान दोहा-संग्रह समय और सम्बन्धों से न केवल संवाद कर रहा है वरन् इनमें हरेपन की आशा भी कर रहा है। स्वयं व्योम जी के व्यवहार की यह एक बड़ी विशेषता है कि वे कनिष्ठ-वरिष्ठ, नवोदित-स्थापित, युवा-वयोवृद्ध और महिला-पुरुष सभी को समान महत्व देते हैं, सबका सम्मान करते हैं और सभी के विचारों का स्वागत करते हैं। एक साहित्यकार का यह एक महत्वपूर्ण गुण होता है कि वह उदार हृदय का स्वामी हो, अपनी संवेदनशीलता के साथ वह किसी भी ओर से आए सारगर्भित विचारों को आत्मसात करने का बड़ा हृदय रखता हो, बड़ों का अतिशय सम्मान करता हो और नवांकुरों को भी प्रोत्साहित करता हो, यही उदारता लेखन को समृद्ध करती है।

       व्योम जी के समृद्ध लेखन की कड़ी में "उगें हरे संवाद" दोहा-संग्रह की बात मैं यहांँ करने जा रही हूँ। "उगें हरे संवाद" योगेंद्र वर्मा व्योम जी की चौथी प्रकाशित कृति है। इस दोहा-संग्रह का आवरण पृष्ठ नैराश्य की ऊसर मृदा में सदाशयता के दो हरित पत्र पल्लवित होते हुए दिखा रहा है,जो कि संग्रह के आशय और महत्व को प्रतिपादित करते हुए आवरण पृष्ठ हेतु इमेज के सटीक चयन को प्रमाणित करता है। प्राय: हम पत्तियों के त्रिकल या विषम कल्लों का गुच्छ चित्र रूप में देखते हैं,लेकिन यहाँ द्वि कल का चित्र प्रयोग किया गया है, मुझे नहीं ज्ञात कि यह सायास है अथवा अनायास, लेकिन सायास हो अथवा अनायास इस दोहा संकलन हेतु यह बहुत ही सार्थक चुनाव है। दो हरी पत्तियां एक तरह से दोहे की दो पंक्तियों को इंगित कर रहीं हैं और ये हरी पत्तियांँ आश्वस्त कर रही हैं कि कहीं ना कहीं ये संवाद फलित होंगे और आशा का यह सफर नये कल्लों के प्रस्फुटन से निरंतर बढ़ता रहेगा।

        दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" की प्रस्तावना में प्रतिष्ठित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी, अशोक अंजुम, डॉ अजय अनुपम और डॉ मक्खन मुरादाबादी के आशीर्वचन और योगेन्द्र वर्मा व्योम  का आत्मकथ्य स्वयं में इतने समृद्ध, पुष्ट, सारगर्भित और विशिष्ट हैं कि इस पर कोई भी विशेषज्ञ अथवा विशिष्ट टिप्पणी किये जाने में मैं ही क्या कोई भी स्वयं को असमर्थ पायेगा, परंतु एक पाठक एक विशेषज्ञ से पूर्णतः पृथक होते हुए भी उसके समान ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अंततः कृति की संरचना एक पाठक हेतु होती है तो मैं इस कृति की समीक्षा कोई विशेषज्ञ अथवा साहित्यकार के तौर पर न करके एक पाठक की दृष्टि से करना चाहती हूंँ क्योंकि साहित्य के पल्लवन में एक पाठक की दृष्टि, एक पाठक का मत सदैव महत्वपूर्ण होता है।

          परम्परा के अनुसार यह दोहा-संग्रह भी माँ वीणापाणि को प्रथम नमन निवेदित करता है।शारदा मांँ की वंदना से आरंभ यह दोहा-संग्रह जैसे ही अगले पृष्ठ पर बढ़ता है तो-      

"उगना चढ़ना डूबना, सभी समय अनुरूप। 

सूरज सी यह ज़िन्दगी, जिसके अनगिन रूप।।"

     दोहे के साथ जीवन के विविध पहलुओं को खोलना शुरू करता है। दोहाकार जानता है कि वर्तमान में अवसाद जीवन पर हावी है और इसका एकमात्र उपाय प्रसन्न रहना यानि मुस्कुराहट की शरण में जाना है। अतः वह कहता है कि-

"चलो मिटाने के लिए, अवसादों के सत्र।

फिर से मिलजुल कर पढ़ें, मुस्कानों के पत्र।।"

     मुस्कान अगर झूठी हो तो फलित नहीं होती और मुस्कान झूठी इसलिए होती है क्योंकि मन में कहीं ना कहीं कटुता का दंश हावी है। आगे यही बताते हुए कवि कहता है -

"सहज नहीं फिर रह सकी, आती जाती सांँस।

मन में गहरे तक धंँसी, जब कटुता की फांँस।।"

और इसका परिणाम इस रूप में दोहाकार रखता है-

"नहीं रही वह भावना, नहीं दिखा सत्कार।

पतझड़-सा क्यों हो गया, आपस का व्यवहार।।"

लेकिन अगले ही पृष्ठों में हमें रिश्तों के खिल उठने के सुखद आधार मिलते हैं जो इशारा देते हैं कि किस तरह से हम सम्बन्धों में आई कटुताओं को दूर कर सकते हैं -

"छँटा कुहासा मौन का, निखरा मन का रूप।

रिश्तों में जब खिल उठी, अपनेपन की धूप।।"

        प्रायः आवेश में किए गए व्यवहार ही रिश्तों की आत्मीयता को पलीता लगाते हैं तभी दोहाकार लिखता है-    

"तेरे मेरे बीच जब, खत्म हुआ आवेश।

रिश्तो के अखबार में, छपे सुखद संदेश।।"

     रिश्तों के अतिरिक्त इस संग्रह में समय से भी संवाद है। यह समय जहाँ-    

"व्हाट्सएप औ' फेसबुक, ट्वीटर इंस्टाग्राम।

तन-मन के सुख-चैन को, सब ने किया तमाम।।

और-

समझ नहीं कुछ आ रहा, कैसे रहे तटस्थ।

मूल्यहीन इस दौर में, संस्कार अस्वस्थ।।"

               प्रस्तुत दोहा संग्रह में लगभग सभी समकालीन विषयों यथा भ्रष्टाचार, राजनीतिक पतन, गरीबी, मातृभाषा हिन्दी की स्थिति, मंचीय लफ्फाजी, कविता की स्थिति, पारिवारिक विघटन, आभासी सोशल मीडिया युग, चाटुकारिता और स्वार्थपरता जैसे विविध विषयों पर कवि द्वारा अपने उद्गार अपनी विशिष्ट दृष्टि के पैरहन पहनाकर प्रस्तुत किये गये हैं। समकालीन विषयों पर चिंतन करना आम बात हो सकती है पर इन दोहों में कवि द्वारा इन पर चिंतन विशिष्ट भाषा शैली, विविध शब्द चित्र और अद्भुत भाव व्यंजना के मोती पिरो कर किया गया है, जो इस चिंतन को विशिष्ट बना देता है।बानगी अग्रिम दोहों में देखें-

"स्याह विचारों की हुई, कुटिल साधना भंग।

मन-प्रांगण में जब हुआ, भावों का सत्संग।।

संदर्भों का आपसी, बदल गया व्यवहार।

शब्दों की जब-जब हुई, अर्थों से तकरार।।

अय्यारी मक्कारियाँ, छलछंदों की देख।

अधिकारों ने भी पढ़े, स्वार्थ पगे आलेख।।"

स्याह विचार की कुटिल साधना, मन प्रांगण में भावों का सत्संग, शब्दार्थ की तकरार और अधिकारों का स्वार्थ पगे आलेख पढ़ना जैसे अनुपम दृश्य उत्पन्न करना, कवि की विशिष्टता है। वह वर्तमान परिस्थितियों पर न केवल विशेष चिंतन करते दिखते हैं वरन् इन परिस्थितियों के हल भी अलंंकारिक तरीके से सुझाते हैं और नये रूपक प्रस्तुत करते हैं। मानवीकरण अलंकार का यत्र-तत्र अद्भुत प्रयोग इस संग्रह की विशिष्टता है। वर्तमान में मेरे द्वारा पढ़े गए दोहाकारों में लखनऊ की सुप्रसिद्ध कवियित्री संध्या सिंह जी के अद्भुत दोहों के बाद व्योमजी के दोहों ने मेरा मन आकृष्ट किया है। कुछ दोहें‌ देखें जैसे-

"मिट जाए मन से सभी, मनमुटाव अवसाद।

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरें संवाद।।

उम्मीदें, अपनत्व भी, कभी न होंगे ध्वस्त।

लहजा, बोली, सोच हो, अगर न लकवाग्रस्त।।"

      दोहाकार ने समय के हर पहलू को समेटा है, एक ओर समय का समकालीन समाज तो दूसरी ओर समय का प्राकृतिक स्वरूप जो विविध ऋतुओं के रूप में निरन्तर आगे बढ़ता है और वह स्वरूप भी जो समय की प्रकृति के अनुसार हमारा समाज विविध पर्वों के रूप में मनाता है, अर्थात समकालीन समय के साथ-साथ सर्दी, गर्मी, वर्षा, वसंत जैसी ऋतुएँ और होली, दीपावली, वसंतोत्सव जैसे पर्व सभी दृश्य इस दोहा-संग्रह में अपनी बहुरंगी आभा बिखेरते दिख जाएंगे। जैसे-

"रिमझिम बूंँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार।

स्वप्न सुनहरे धान के, हुए सभी साकार।।

महकी धरती देखकर, पहने अर्थ तमाम।

पीली सरसों ने लिखा, खत वसंत के नाम।।

आतिशबाजी भी नया, सुना रही संगीत।

और फुलझड़ी लिख रही, दोहा मुक्तक गीत।।"

       अपनी बात को समेटते हुए कहना चाहूँगी कि व्योमजी एक सम्भावनाओं से भरे हुए साहित्यकार हैं, उदार व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर उससे भी बढ़कर जो उनकी खूबी है वह है रिश्तों को जीने, सहेजने और उनके बिखराव पर चिंता करने की उनकी संवेदनशीलता और इस चिंतन को दो पंक्तियों के दोहे में उन्होंने जिस खूबसूरती और गहन निहितार्थ के साथ व्यक्त किया है, वह निस्संदेह अभिनंदनीय है। हालांकि एक दो स्थानों पर कुछ मात्रिक व शाब्दिक त्रुटियाँ तमाम सावधानी के बाद भी रह जाना सामान्य बात है जैसे-

"दोहे की दो पंक्तियांँ, एक सुबह, इक शाम।"

(एक और इक का प्रयोग)

अथवा

"कल बारिश में नहायी, खूब संवारा रूप।"

(प्रथम चरण के अंत में दो गुरु होना)

  परन्तु ये त्रुटियांँ धवल पटल पर पेंसिल की नोंक से बनी बिन्दी भर हैं और व्योमजी की प्रतिभा के सापेक्ष उनसे रखी जाने वाली अपेक्षाओं के फलस्वरूप ही इंगित की गई हैं,अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। 

    दोहा आकार में भले ही दो पंक्तियों का अस्तित्व रखता हो, परंतु एक सामर्थ्यवान दोहाकार अपने विशिष्ट शब्दसंयोजन और व्यंजना के प्रयोग से इन दो पंक्तियों को एक लम्बी कविता से अधिक सार्थक व मूल्यवान बना सकता हैमन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे व्योमजी के अधिकांश दोहे इस बात को सिद्ध करते हैं। तमाम अर्थ समेटे दोहे की दो पंक्तियांँ चमत्कार करने का सामर्थ्य रखती हैं और दोहाकार ने इस सामर्थ्य को पूरे मन से समर्थ किया है। "उगें हरे संवाद" आने वाले समय में विज्ञजनों के बीच संवाद का केन्द्रबिंदु बने और पाठकों का ढ़ेर सारा प्यार इस संग्रह को मिले, ऐसी शुभकामनाओं के साथ मैं अपने इस अग्रिम दोहे के रूप में अपनी भावनाएं समेटती हूँ।

"रिश्तों में जो खो गई, उस खुशबू को खोज।       

उगा हरे संवाद की, नित नव कोपल रोज।।"



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष 2023

पृष्ठ संख्या104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षिका
- हेमा तिवारी भट्ट

मकान नं०- 194/10, (एमजीआर के निकट), 

बुद्धि विहार (फेज-2) सेक्टर-10,

मुरादाबाद-244001, (उ०प्र०)

मोबाइल- 7906879625

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी-छोटी सी आशा.......


"सुनो ! कल कमल को छुट्टी कह दूँ क्या"

"नहीं,बुला लो।"

"अरे छोड़ो न, एक दिन रेस्ट कर लेगा।"

"उसने कौनसा पहाड़ खोदना है?आराम ही तो है,बैठ कर गाड़ी ही तो चलानी है।"

"फिर भी, मुझे ठीक नहीं लग रहा कल बुलाना।कल मुझे कॉलेज जाना नहीं है और हम सब लोग मूवी देखने जा रहै हैं।वहाँ के लिए तो आप ही ड्राइव कर लोगे।"

"जब मैं कह रहा हूँ तो कह रहा हूँ।बस तू कह दे उसे।भले ही कल 2 बजे बुला ले क्योंकि तीन बजे का शो है" 

"ठीक है..." रमा ने बेमन से कहा।उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि वह नये साल के दिन खुद तो परिवार के साथ एंजॉय करे और अपने ड्राइवर को बेवजह थोड़ी दूरी की ड्राइव करने के लिए भी बुला ले।उसने सोचा था कि वह कमल को कल की छुट्टी देकर उसे नये साल का जश्न मनाने को कहेगी तो उस गरीब के चेहरे पर भी एक छोटी सी मुस्कान आ जायेगी।

     'हम बड़ी चीजें न कर सकें पर अपने स्तर की छोटी छोटी खुशियां तो बाँट ही सकते हैं' रमा ने मन में बुदबदाया।उसे राघव पर झुंझलाहट आ रही थी,पर अपने पति की बात भी वह नहीं टाल सकती थी।

     कमल गैराज में गाड़ी पार्क कर चुका था और अंदर लॉबी में की-स्टेंड पर गाड़ी की चाभी टाँगने आया था।उसने रोज की तरह रमा से पूछा,

     "मैंने गाड़ी पार्क कर दी है,मैम।अब मैं जाऊँ....?और वो ...कल की तो छुट्टी रहेगी न मैम।आप कह रहे थे न कि कल कॉलेज नहीं जाना है।"

     "हाँ,कल कॉलेज तो नहीं जाना है पर सर बुला रहे हैं कल किसी काम से।तुम कल दो बजे आ जाना।" रमा ने सेन्टर टेबल पर फैली पड़ी मैग्जीन्स समेटने का उपक्रम करते हुए कहा।वह असहज महसूस कर रही थी क्योंकि उसने जो सोचा था वह हो नहीं पाया था।उसने चोर निगाह से कमल की ओर देखा।

     "ठीक है,मैम" कहकर कमल रोज की तरह गम्भीरता ओढ़े गर्दन झुका कर मेन गेट के पास खड़ी अपनी टीवीएस तरफ बढ़ गया।रमा के सिर पर उस उदास चेहरे का बोझ चढ़ गया था,वह जाकर अपने कमरे में लेट गयी।

        अगले दिन ठीक दो बजे कमल अपनी ड्यूटी पर था।

        "नमस्ते मैम,नमस्ते सर।आपको नये साल की बहुत बहुत मुबारकबाद।"

        "नमस्ते कमल,तुमको भी नया साल मुबारक।" राघव ने गर्मजोशी से कहा।

        रमा ने फीकी मुस्कान फैंकी।उसे राघव का कमल को छुट्टी के दिन भी काम पर बुलाना गलत लग रहा था।हालांकि महीने में चार-पाँच छुट्टियाँ कमल को आराम से मिल जाती थी क्योंकि सन्डे को तो रमा कॉलेज नहीं जाती थी।पर आज नया साल था और यही बात उसे खटक रही थी।

        रमा के दो बेटे थे जो युवा कमल से कुछ ही वर्ष छोटे किशोर वय के थे।वे दोनों भी तैयार होकर बाहर आ गये थे।कमल ने गैराज से गाड़ी बाहर निकाली और उसे साफ किया।राघव ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठा और रमा दोनों बेटों सहित पीछे की सीट पर।

        गाड़ी शहर के सबसे शानदार मॉल कम मल्टीप्लेक्स के मेन गेट पर पहुँच चुकी थी।

        कार पार्किंग में ले जाने से पहले कमल ने मालिक के परिवार को कार से उतारते हुए मालिक से पूछा," सर,कितनी देर की मूवी है?मैं सोच रहा था कार पार्क कर के मैं भी थोड़ी देर पास में ही अपने रिश्तेदार के घर हो आता।जब मूवी ख़त्म हो आप मुझे कॉल कर देना,मैं तुरन्त आ जाऊँगा।"

        "नहीं,तुम कहीं नहीं जाओगे।कार पार्क कर के सीधे यहाँ आओ।"

        कमल चुपचाप कार पार्किंग की ओर बढ़ गया।अब तो रमा को बहुत ही गुस्सा आया पर सार्वजनिक स्थान पर और वह भी जवान बेटों के सामने वह अपने पति से क्या कहे।उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर राघव ऐसा क्यों कर रहे हैं?राघव ने मुस्कुराकर रमा की ओर देखा लेकिन उसने गुस्से से मुंह फेर लिया।

        थोड़ी देर में कमल कार पार्क कर के लौटा तो राघव ने उसके कन्धे पर हाथ रखा और पूछा, "मूवी वगैरह देख लेते हो या नहीं।आज तुम्हें हमारे साथ मूवी देखना है,ठीक है।" कमल का चेहरा कमल की तरह खिल गया।रमा के दोनों बेटे भी पापा को देखकर मुस्कुराने लगे और रमा.... वह तो हक्की बक्की रह गयी थी।राघव ने प्यार से जब रमा की तरफ देखा तो वह मुस्कुरा उठी।रमा के बेटों ने कमल का हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ आगे बढ़ाया तो राघव ने रमा का हाथ पकड़ा।पाँच टिकट ऑनलाइन बुक कराये गये थे,थ्री डी मूवी थी जो रेटिंग्स में धूम मचाये हुए थी।ढाई घण्टे की मूवी देखकर हंसते खिलखिलाते सब हॉल से बाहर निकले।

        राघव पिज्जा कॉर्नर की तरफ बढ़ा और सबके लिए पिज्जा आर्डर किया।कमल के चेहरे पर संकोच मिश्रित प्रसन्नता के भाव थे।पाँच जगह पिज्जा सर्व  हुए।सबने खाना शुरू किया।लेकिन ये क्या कमल की आँखों में आंसू थे।राघव ने मज़ाक करते हुए पूछा,"क्या बात मूवी अच्छी नहीं लगी, कमल।"

"नहीं,सर नहीं,ऐसी बात नहीं है।बहुत अच्छी मूवी थी।पर.... मैंने अपने जीवन में आज तक कभी मल्टीप्लेक्स में मूवी नहीं देखी और थ्री डी मूवी भी पहली बार देखी।एक बात बताऊं ,सर।दो साल पहले मैंने इस पिज्जा कॉर्नर पर काम किया है।लेकिन मैंने कभी पिज्जा नहीं खाया।मैं बता नहीं सकता कि मैं आज कितना खुश हूँ।आप सचमुच बहुत बड़े दिल वाले हैं।वरना एक ड्राइवर को अपने साथ कौन बैठाता है,एक ड्राइवर के लिए इतना कौन सोचता है?" राघव ने कमल को गले से लगा लिया।

       रमा खुद पर शर्मिन्दा थी कि वह अपने ही पति की भलमनसाहत को आखिर क्यों नहीं पहचान पायी।पर उसे हल्का गुस्सा भी आया कि आखिर राघव ने उसे ये सब पहले क्यों नहीं बताया।? पर अगले ही पल उसने मन ही मन ढेर सारा प्यार राघव पर उड़ेला।दोनों बेटे बहुत खुश थे कि वे अपने व्यस्ततम माता पिता के साथ नये साल पर मूवी देखने आए।लौटते समय गाड़ी में बैठी सवारियों के भाव बिल्कुल बदले हुए थे।इस नये साल पर सबकी छोटी छोटी आशाएं जो पूरी हुई थीं।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 12 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल के कृतित्व पर केंद्रित हेमा तिवारी भट्ट का आलेख .... मृत्यु के भय के साथ ही जीवन को सार्थक बनाने की ओर प्रेरित करते हैं डॉ शुक्ल


 "Art is perfect when it seems to be nature and nature hits the mark when she contains art hidden within her"

Cassius Longinus

लोंजाइनस की उपरोक्त पंक्तियाँ मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ आर. सी.शुक्ल जी की रचनाओं के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती हैं।उनकी रचनाएँ उनके गहन अध्ययन,अथाह ज्ञान और हिन्दी और अंग्रेजी दोनों पर उनकी मजबूत पकड़ के साथ साथ उनके जीवन अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हैं।डॉ. शुक्ल की अंग्रेजी में लिखी कविताओं की 10 पुस्तकें व हिंदी में लिखी 5 पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं।उनकी पहली हिन्दी काव्य कृति *मृगनयनी से मृगछाला*, तत्पश्चात *मैं बैरागी नहीं* के अतिरिक्त *The Parrot shrieks-2, Ponderings-3,* "मृत्यु" शीर्षक युक्त कुछ अप्रकाशित कविताएं, *परिबोध* और 1-2 अप्रकाशित गीतों को पढ़ने का सुअवसर मुझे अद्यतन प्राप्त हुआ है।अपनी अल्प बुद्धि से इस पठित सामग्री के आधार पर डॉ शुक्ला जी की रचनाओं और एक रचनाकार के रूप में स्वयं शुक्ला जी के बारे में मेरा जो अवलोकन है,वह मेरी आरम्भ में कही गयी बात को पुष्ट करता है।

क्षणभंगुरता घूम रही है चारों तरफ हमारे

हरी घास पर बूँद चमकती आकर्षण हैं सारे।

 उपर्युक्त पंक्तियों के रचयिता डॉ शुक्ल जी गंभीर सोच और दार्शनिक प्रवृति के विद्वान लेखक हैं। भारतीय दर्शन, वेदों, उपनिषदों और आध्यात्म का उन पर गहरा असर है।ये संस्कार उन्हें अपने स्वजनों से बचपन से ही मिले हैं तथा उनके स्वभाव का हिस्सा हैं। पर स्वभाव भी दो तरह का होता है जन्मजात और अर्जित और हम पाते हैं कि डॉ शुक्ल के व्यक्तित्व में और उनकी रचनाओं में इन दोनों स्वभाओं का परस्पर द्वंद्व चलता है और अंत में श्रेष्ठता ही विजयी होती है। डॉ.शुक्ल जी की एक रचनाकार के रूप में उपलब्धि यह है कि वह सच का दामन नहीं छोड़ते।वे पूरी सच्चाई से अपनी कमियों को स्वीकारते हैं और पूरी तन्मयता से सच की तलाश में संघर्षरत रहते हैं।वे सहज स्वीकारते हैं-

  कामनाओं की डगर सीमा रहित है 

  कौन कह सकता यहांँ विश्राम होगा 

  एक इच्छा दूसरी से पूछती है

  किन शिलाओ पर तुम्हारा नाम होगा

  घूमती रहती सुई थकती नहीं है

  वासना दीवार पर लटकी घड़ी है।

    अपनी एक रचना में अपने ज्ञान व अनुभव के साथ वह मानव को चेताते हैं -

  मृत्युलोक के बाजारों में तृप्ति बिका करती है

  पर मरने से पहले मन की तृष्णा कब मरती है।

   अपनी कविता जीवन एक वस्त्र में वह स्पष्ट बताते हैं कि    

आकर्षण, क्रिया तथा क्रिया के पश्चात

 पैदा होने वाली वितृष्णा 

 यही वे तीन खूँटियांँ हैं

 जिन पर बारी-बारी से

 हम टाँगते रहते हैं

अपने जीवन के वस्त्र

उनकी दार्शनिक दृष्टि जो कि वैदिक ग्रंथों के सार धारण का परिणाम लगती है, हमें बार-बार सांसारिक बुराइयों से आगाह करती है और सही क्या है,की राह दिखाती है।कुछ उदाहरण देखें-

वासना से मुक्त होना ही तपस्या 

ज्ञान ही इंसान की अंतिम छड़ी है।

............................

 विक्रम के अग्रज का जीवन 

 हमें सामने रखना है 

 उसी तरह रागी,बैरागी बन

 यह जीवन चखना है

    श्री शुक्ल जी की रचनाओं का मुख्य प्रतिपाद्य आध्यात्म है। तृष्णा,वितृष्णा,असार जगत, क्षणभंगुर जीवन, मोक्ष और मृत्यु उनके प्रिय विषय रहे हैं। इनमें भी *मृत्यु* अपने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों स्वरूपों में उन्हेें कलम उठाने के लिए प्रेरित करती है।वह लिखते हैं कि-

मृत्यु ज्ञान की सबसे उत्कृष्ट पुस्तक है

जो व्यक्ति पढ़ लेता है 

इस पुस्तक को गंभीरता से 

आत्मसात कर लेता है इसका संदेश

वह बुद्ध हो जाता है।

   उनकी मृत्यु पर केन्द्रित रचनाएं बुद्ध होने की ओर बढ़ाती हैं।ज्ञान प्राप्त करने के लिए कवि निरंतर एक यात्रा पर है पर यह यात्रा उसके अंतर्मन में चल रही है।इस आन्तरिक यात्रा ने समय समय पर विभिन्न विद्वानों,अन्वेषकों, महापुरुषों के जीवन को प्रभावित किया है तो फिर श्री शुक्ला जी अद्वितीय क्या कर रहे हैं?इस प्रश्न का उत्तर वे स्वयं अपनी एक पूर्व प्रकाशित अंग्रेजी रचना के माध्यम से दे चुके हैं।-

        Poets and philosophers

        get overjoyed they are great 

        but they are not 

        They are just repeating 

        what is registered 

        there in the books 

        Still they write

        Still they deliberate

        because

        They are engaged in search

        Search for that something evading as all

      उनकी लम्बी कविता परिबोधन भी इसी खोज यात्रा का एक पड़ाव है।वह अपना मत प्रस्तुत करने से पहले एक संस्कृत के विद्वान,उपनिषदों के अध्येता विद्वान पुजारी के माध्यम से मृत्यु से निर्भयता का संदेश आम जन को दिलवाते हैं।मृत्यु सम्बन्धित यह विचार पूर्व में भी कई दार्शनिकों और विद्वानों द्वारा रखा गया है।स्वयं कवि ने कविता में इसका जिक्र किया है।ओशो रजनीश कहते हैं कि मृत्यु एक उत्सव है

       सुप्रसिद्ध साहित्यकार कुंवर बेचैन की प्रसिद्ध पंक्तियां हैं,       

   मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ

   पूर्व प्रधानमंत्री कीर्ति शेष श्री अटल बिहारी वाजपेई जी अपनी एक कविता में लिखते हैं,

"हे ईश्वर मुझे इतनी शक्ति देना कि अंतिम दस्तक पर स्वयं उठकर कपाट खोलूँ और मृत्यु का आलिंगन करूँ।"

 हमारे उपनिषदों में मृत्यु से निर्भयता की ओर अग्रसर करने वाले कई सूत्र वाक्य हैं। *अभयं वै ब्रह्म:* इस ओर ही इंगित करता है।भगवद्गीता का सार ही मनुष्य को मृत्यु विषयक चिन्ता से मुक्त कर सत्कर्म की राह दिखाना है।मृत्यु के विषय में सोचने अर्थात मृत्यु से भयभीत होने या उसका शोक करने को भगवान निरर्थक बताते हैं। क्योंकि-

 जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च।

 तस्मात् अपरिहार्य अर्थे न त्वम् शोचितुमहर्सि।।

 कवि ने प्रायः मृत्यु को अपनी कविताओं में विविध रूपकों से निरूपित किया है।यथा

मृत्यु ज्ञान की सबसे उत्कृष्ट पुस्तक है।

मृत्यु प्रकृति के रहस्य-विधान का सारांश है।

मृत्यु कठपुतली के तमाशे का उपसंहार है।

मृत्यु जीवन की संध्या है,

नश्वरता का सबसे अधिक डरावना चित्र है।

मृत्यु महाभारत के युद्ध की समाप्ति का सन्नाटा है।

जन्म भीतर वाली सांस है,मृत्यु बाहर आने वाली।

मृत्यु निस्पृह होती है।

मृत्यु एक अवस्था है शब्दहीन शरीर की

मृत्यु... ‌एक उड़ती हुई चील आकाश में

   उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कवि मृत्यु के प्रति द्वंद्व की स्थिति में है।

          वेदों,उपनिषदों,विविध ग्रन्थों और अंग्रेजी व हिन्दी में विपुल साहित्य का अध्येता होने के कारण कवि जानता है मृत्यु के प्रति शास्त्र प्रचलित अभिमत महाज्ञानी को वीतरागी होने की ओर बढ़ाते हैं परन्तु एक सामान्य मानव के लिए भय,शोक,लालसा के वशीभूत मृत्यु की अनिवार्यता भयभीत करने वाली होती है।एक अध्ययनशील मानव मन का यह द्वंद्व ही परिबोधन के रूप में रचा गया है। प्रसिद्ध साहित्यकार कुंवर नारायण के मृत्यु विषयक प्रबंध काव्य आत्मजयी से प्रेरित लगती यह लम्बी छंदमुक्त कविता परिबोधन सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देती है।जैसा कि आत्मजयी में पंक्ति है- 

 "केवल सुखी जीना काफी नहीं, सार्थक जीना जरूरी है।"

     कवि जानता है कि मृत्यु से निर्भयता प्राप्त करना सरल नहीं है।ज्ञानी,ध्यानी और तत्वज्ञानी ही मृत्यु के भय से मुक्त हो पाते हैं और वीतरागी होकर इस जीवन को सहर्ष जीते हुए सहर्ष ही मृत्यु का आलिंगन करते हैं। परन्तु सामान्य जन के लिए इस निर्भयता को प्राप्त करना सरल नहीं है।क्योंकि मृत्यु आकाश में उड़ती चील की तरह कभी भी,कहीं भी अपने शिकार को तलाश कर उसे नोंच डालती है।ओशो रजनीश द्वारा उत्सव कही गयी मृत्यु कभी स्वयं उत्सव नहीं मनाती।मृत्यु का यह भयावह सत्य सामान्य जनों को भयभीत किये रहता है।तत्वादि के दुर्बोध ज्ञान पर मृत्यु की भयानकता का यह नैसर्गिक भय सामान्य मेधा पर हावी रहता है।यदि अनेक प्रयासों के बाद कोई सामान्य जन मृत्यु के भय को जीतने में सफल भी हो सका तो वह जीवन के प्रति उतना उत्साही नहीं रह पायेगा।उसे जीवन निर्रथक लगने लगेगा क्योंकि उसे अब मृत्यु का कोई भय नहीं है।तब कवि इस भय के साथ ही मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ने ‌की राह बताते हैं।कवि जीवन के महत्व को समझने के लिए मृत्यु के भय को आवश्यक मानते हैं।और कहते हैं-

   भय के कारण लोग

   पुण्य के करते रहते कर्म

   त्रास मृत्यु का सदा

   छुपाए रहता है कुछ मर्म"

 मृत्यु का भय 

 एक शाश्वत सत्य है जगत का

कवि कहता है-

भय बहुत आवश्यक है

हमारे शुद्धिकरण के लिए

हमारे पाप रहित होने के लिए

और मृत्यु का भय 

यह तो एक परम औषधि है

सांसारिकता में लिप्त रोगियों के लिए।

मृत्यु के भय के कारण ही 

हम संयमित रख पाते हैं

अपने आपको

कुदरत के रहस्यों की कुंजी

छिपी है मृत्यु के भय में।

     सामान्य जनों के लिए मृत्यु का भय कितना फलदायी हो सकता है,यह परिबोधन के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है।क्योंकि मृत्यु से निर्भयता का पंथ आसान नहीं है,अतः मृत्यु के भय के साथ ही जीवन को सार्थक बनाने की ओर प्रेरित करना ही कवि का अभीष्ट है।

     परिबोधन में डॉ.आर सी शुक्ल जी ने सरल रोजमर्रा की शब्दावली का प्रयोग करते हुए गूढ़ दर्शन को प्रस्तुत किया है।इस गूढ़ ज्ञान के सरस और निर्बाध प्रवाह के लिए छंदमुक्त काव्य विधा का चयन सर्वथा उपयुक्त मालूम देता है।कविता का भाव पक्ष कला पक्ष की अपेक्षा अधिक सबल है। आरम्भिक अनुच्छेद अन्तिम अनुच्छेदों के अपेक्षा अस्पष्ट व कम आलंकारिक हैं।अस्पष्टता यह है कि इन पंक्तियों का वक्ता कौन है,स्वयं कवि,मृत्यु या कोई और। क्योंकि मेरा भय यहाँ दो बार प्रयुक्त हुआ है जो कि मृत्यु ही प्रथम पुरुष सर्वनाम में कह सकती है परन्तु अगले ही अनुच्छेद में मृत्यु के लिए उत्तम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग किया गया है।

     डॉ शुक्ल जी और उनकी कविता परिबोधन के प्रति अपने विचार प्रवाह की श्रृंखला को समेटते हुए यही कहना चाहूँगी कि श्री शुक्ल जी एक विशिष्ट दर्शन के विद्वान कवि हैं।उन्होंने एक गहन दर्शन को सरल शब्दों में प्रस्तुत करके पाठकों के हितार्थ रचा है।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट 

बैंक कॉलोनी, 

खुशहालपुर

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 21 नवंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ....गुरु चेला


एक दाता,

एक ग्राहक

एक सम्पन्न,

एक विपन्न

एक शीर्ष,

एक चरण,

एक मुखर,

एक मौन

बने रहेंगे 

जब तलक

मैं और तुम।

सब कुछ होगा 

केवल यन्त्रवत

या चित्रवत 

तात्कालिक

अथवा

सूक्ष्म कालिक।

तो चलो बदलें

परिदृश्य

मैं और तुम 

मिलकर

हों दोनों मुखर,

नव विचारों से 

हों दोनों सम्पन्न,

ज्ञान की आभा से

हों दोनों ग्राहक

सद्ज्ञान के

न चरण 

न शीर्ष

दोनों हों 

बस हृदय।

चरण और

शीर्ष के मध्य 

की दूरी जिस दिन

हृदय बन कर मिट जायेगी

पाट लिए जायेंगे,

अज्ञान के सब सागर

उसी दिन।

जी उठेंगी,

पत्थर व कागज की

पाठशालाएं,

हांं, उसी दिन।


✍️ हेमा तिवारी भट्ट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी-मोरल सपोर्ट

             श्यामा ड्यूटी से थकी हारी घर लौटी थी।उसका सिर बहुत जोरों से दर्द कर रहा था।हाथ मुंह धोकर और कपड़े बदलकर आज वह सीधे अपने कमरे में जाकर लेट गयी।तभी उसकी बुजुर्ग सास ने कमरे में आकर पूछा, "क्यों बेटा आज खाना नहीं खायेगी?" "नहीं, मम्मी जी!आज भूख तो नहीं लग रही,पर सिर में बहुत दर्द हो रहा है।सोच रही हूँ थोड़ा आराम कर लूं तो शायद ठीक हो जाये।" "ठीक है बेटा,तू आराम कर ले।" यह कहकर वह बाहर के कमरे में चली आयीं।

     श्यामा की आंख लगी ही थी कि उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी।उसने ध्यान दिया तो बाहर के कमरे से आवाज़ आ रही थी।उसकी 10 साल की बेटी रो रही थी और उसकी दादी उसे चुप करा रही थी।श्यामा झट से उठकर कमरे की ओर गयी तो सास की आवाज सुनकर ठिठक गयी,"चुप हो जा मेरे बच्चे।देख तेरी मम्मी अभी ड्यूटी से थकी घर लौटी है और थोड़ा आराम कर रही है।तू मुझे बता क्या बात हुई? दादी सुनेगी अपने बच्चे की बात।"

      दादी ने उसे अपनी गोद में बैठा लिया था और अब वह चुप होकर दादी के सीने से लगी अपनी किसी सहेली की शिकायत दादी से कर रही थी।श्यामा के सिर का दर्द मानो छू हो गया था।अचानक उसकी सहेली मीना की सालों पहले कही बातें उसके दिमाग में घूम गयी,"श्यामा,हर्षित से कह कर अपनी जेठानी की तरह तू भी अपना मकान अलग क्यों नहीं कर लेती।आखिर तेरी खुशियां,तेरी जिन्दगी,तेरी आजादी भी कुछ है या नहीं।अरे इन बूढ़े सास ससूर की सेवा करते करते ही तेरी जिन्दगी न बीत जाये तो कहना।मेरी एक बात गांठ बांध ले,कमान अपने हाथ में हो तभी जीवन के लुत्फ उठाये जा सकते हैं वरना... जी मम्मीजी...जी पापा जी... कहते हुए ही पूरी जिन्दगी कट जायेगी।हा हा हा....." किटी में शामिल सभी सहेलियों के ठहाकों के स्वर उसके कान में गूंजने लगे थे। अचानक उसका ध्यान टूटा और उसने कमरे में देखा कि अभिलाषा दादी के पिचके कपोलों पर अपने प्यार की मुहर लगा रही थी और कह रही थी,"आई लव यू दादी!आप कितनी अच्छी हो।सारी प्राब्लम ही साल्व हो गयी,अब मैं नताशा के चिढ़ाने पर रोऊंगी ही नहीं तो वह भी मुझे चिढ़ाएगी नहीं,है न।" 

      श्यामा दादी पोती के स्नेहिल आलिंगन को मंत्रमुग्ध हो देख रही थी कि तभी फिर किसी के सुबकने की आवाज उसके कानों में पड़ी।यह आवाज भूतकाल के एक वृतांत से थी जो सहसा श्यामा की आंखों के सामने से गुजर गया था।उसकी सहेली मीना घंटों जार जार रोने के बाद अब जोरों से सुबक रही थी।आखिर अपनी 12 साल की बेटी को फांसी के फन्दे पर लटका देखकर कौन मां इस तरह न रोयेगी? काश कोई एक बड़ा तो घर पर होता जो कामकाजी माता पिता के घर में न होने पर मोबाइल के जाल में फंसे इन मासूम बच्चों को मोरल सपोर्ट दे पाता,जो तिल भर की समस्या को ताड़ में न बदलने देता,जो प्यार की बाड़ से ऐसी तमाम घटनाओं को रोके रखता।लोगों की तरह तरह की ये सारी बातें अब मिश्रित होकर ज़ोर ज़ोर की भिन्नभिन्नाहट का रूप ले चुकी थी।

      श्यामा एक झटके से वर्तमान में लौटी।कमरे में दादी पोती अब भी मीठा मीठा कुछ बतिया रहे थे।दादा जी,पोते अमन के साथ मार्केट से सब्जियां लेकर आ चुके थे।"बहु! एक कप चाय मिल जाएगी क्या?" पापा जी ने श्यामा को आवाज दी। इससे पहले कि श्यामा कुछ कहती मम्मी जी ने पापा जी से कहा,"रूको मैं बना लाती हूं चाय।आज श्यामा की तबियत ठीक नहीं है।"

मम्मी जी कुर्सी से उठ ही रही थी कि श्यामा ने हर्ष मिश्रित आवाज में उन्हें आश्वस्त किया,"अब मैं ठीक हूं मम्मी जी।आप बैठो मैं चाय बना कर ला रही हूं।"

    किसी फिल्म की हैप्पी एंडिंग का मधुर संगीत फिर श्यामा की कल्पना में गूंजने लगा था।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की पांच बाल कविताएं .....


 1- आलसी सोनू

कुर्सी बोली चटर पटर,

"जल्दी जल्दी काम को कर।"

सोनू ऊंघ रहे थे भाई,

कैसे देता उसे सुनाई?

तभी मेज ने टॉप हिलाया।

"अब तक पाठ न क्यों दोहराया?

कछुए की जो चाल चलोगे

कैसे आगे,कहो रहोगे।"

कॉपी और रबर चिल्लाये,

"ये सोनू क्यों बाज न आये।"

कुर्सी,मेज,रबर,कॉपी संग,

बोले पेन्सिल सोनू है दंग।

तब सोनू ने ले जम्हाई,

आँखे पुस्तक पर जमाई। 

पड़ न जाये फिर से डाँट।

जल्दी याद किया सब पाठ।

2-नये जमाने की लोरी

लल्ला लल्ला लोरी

दूध की बोतल भरी

दूध न पीना मुन्ने को

गाना चाहे सुनने को

माँ गाना न जानती

मोबाइल में छानती

मोबाइल अब ऑन है

"राजा बेटा कौन है"

लल्ला लल्ला लोरी

दूध की बोतल भरी

दूध में है बोर्नवीटा।

पीने वाले हैरी,रीटा।

अव्वल हरदम आते हैं।

टीवी में दिखाते हैं।

देखो टीवी ऑन है,

"बोलो अव्वल कौन है"

3-नयी दुनिया

चंदा मामा दिन में होंगे,

रात को सूरज आयेंगे।

चिड़िया तैरेगी पानी में,

मगर पेड़ पर गायेंगे।

भैंसें पतली,मोटी बकरी,

गाय हरी,नीली होगी।

रेंगेगा घोड़ा जमीन पर,

कछुए दौड़ लगायेंगे।

आम खेत में बिछे उगेंगे,

शर्बत की बारिश होगी।

पेड़ों पर लटकी जलेबियाँ,

बच्चे तोड़ के खायेंगे।

गुड़िया गुड्डे बंटी के हैं,

बैट-बॉल मुनिया लेगी।

अदल बदल हम देंगे सब कुछ 

दुनिया नई बनायेंगे।

4-बिल्ली मौसी बिल्ली मौसी

बिल्ली मौसी बिल्ली मौसी

मेरे घर तुम आ जाना।

धमा चौकड़ी करते चूहे,

उनको सबक सिखा जाना।

कपड़े,खाना,कॉपी,पुस्तक

इन दुष्टों के साये हैं।

नहीं सलामत रहा यहाँ कुछ,

सब पर दाँत चलाये हैं।

चूहेदानी रखी हुई है,

शैतानी पर जारी है।

कुतर गये हैं टाई मेरी,

अब जूतों की बारी है।

रात भर बिस्तर में भी ये

उछल-कूद करने आते।

गहन नींद में सोते मुझको,

डरा,उठाकर छिप जाते। 

प्यारी मौसी अच्छी मौसी

अब जल्दी से आओ तुम।

पिद्दी चूहे शेर हो रहे,

इनको हद में लाओ तुम।

5-रेनी डे

"स्कूल आज न जाऊँ मम्मी,सूरज भी नहीं आया है।

काला बादल गश्त लगाता,डर से दिल थर्राया है।

छतरी की तीली निकली थी,ठीक नहीं करवायी हो।

रेनकोट भी फटा हुआ है,नया नहीं तुम लायी हो।

भीग गया जो मैं पानी में,आफत तुम पर आयेगी।

बैठे बिठाए फिर बीमारी,बिल पर बिल बढ़ाएगी।

देख कभी वह काले बादल,खतरा मोल न लेती है।

सूरज की माँ कितनी अच्छी,रेनी डे कर देती है।


✍️ हेमा तिवारी भट्ट 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


गुरुवार, 23 जून 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की लघुकथा-आंकड़े

     


विभागीय मीटिंग में वर्तमान वर्ष के नामांकन की समीक्षा चल रही थी। गत वर्ष की तुलना में 30 प्रतिशत नामांकन वृद्धि का लक्ष्य प्रत्येक विद्यालय को पूरा करना था।सभी विद्यालयों के गत नामांकन के सापेक्ष वर्तमान का नामांकन प्रतिशत निकाला गया था और उसी अनुसार वृद्धि प्रतिशत पूरा न करने वालों को स्पष्टीकरण का पत्र हाथों हाथ थमाया जा रहा था।

      इस वर्ष सात नये नामांकन करने वाले प्रधानाध्यापक राजेन्द्र कुमार आत्मविश्वास से लबरेज थे आखिर उन्होंने वांछित प्रतिशत से एक अधिक नामांकन किया था,पर वहीं 44 नये नामांकन करने के बावजूद प्रधानाध्यापक किशोर कुमार के दिल की धड़कनें बढ़ गयीं थीं क्योंकि अभी भी वांछित वृद्धि प्रतिशत से वह 22 नामांकन दूर थे। तभी मंच से लक्ष्य प्राप्त न करने वाले उनके विद्यालय का नाम पुकारा गया और वह मन ही मन सोच रहे थे काश, मैंने गत वर्षों में घर घर घूम कर और मेहनत करके नामांकन न बढ़ाया होता तो इस वर्ष यह कार्रवाई न होती.....

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 11 मई 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ----शक


"कलमुँही, चुड़ैल!खून पी के रख लिया है,इसने मेरा। रोज़ एक नया यार बुला कर बैठा लेती है घर में।मेरे बेटे की छाती पर मूंँग दलने को ही ब्याह कर ला गयी मैं इसे।पत्थर पड़ गये थे मेरी मति पर उस समय।सिर्फ सूरत दिखाई दी,सीरत न देखी।हे भगवान! क्या-क्या नीच हरकतें देखनी होंगी इस औरत की मुझे।कीड़े पड़े इसको,सड़ सड़ कर मरे।"

रितु की बूढ़ी दादी आँगन में बैठकर उस की मम्मी को कोस रही थी।लेकिन मम्मी ने तो उसके ट्यूशन की बात करने के लिए प्रभात सर को आज घर पर बुलाया है।घर के ऐसे सारे काम मम्मी को ही करने पड़ते हैं,क्योंकि डैडी तो पुलिस में हैं और दूसरे जिले में तैनात हैं।

     रितु को अपनी दादी पर गुस्सा आ रहा था।'दादी भी न,किसी की परवाह नहीं करती।कभी भी कुछ भी बोलती रहती है।क्या सोचेंगे प्रभात सर?' रितु मन में सोच रही थी।

     'लेकिन मम्मी कितनी कूल हैं।कितने सहज होकर प्रभात सर को कह रही हैं,"असुविधा के लिए माफी चाहते हैं,सर।रितु की दादी की तबियत ठीक नहीं है।इसलिए वह ऊल-जलूल बड़बड़ाती रहती हैं।आप नजरंदाज कीजिएगा।" प्रभात सर ने चेहरे पर मुस्कान के साथ उत्तर दिया,"कोई बात नहीं मैं समझ सकता हूँ।" और मम्मी भी मुस्कुरा दीं।तभी मम्मी ने रितु को प्रभात सर के लिए चाय बना कर लाने को कहा।

      रितु सीढ़ियों से उतर कर आँगन से होते हुए रसोई की ओर चाय बनाने के लिए जा रही थी कि दादी ने इशारे से उसे रोका।"और कोई भी साथ में हैं क्या उस मुए मास्टर के ?" "नहीं,पर इससे क्या फर्क पड़ता है दादी।मेरे ट्यूशन की बात करने आये हैं सर।आप हमेशा ग़लत ही क्यों सोचती हो,दादी?" "हाँ,हाँ,मैं तो गलत ही लगूँगी तुझे।अपनी मांँ की चमची है तू भी।अरे ये सोच जब भी कोई अकेला जवान मर्द घर में आता है,तेरी मांँ तुझे चाय बनाने नीचे क्यों भेज देती है।फिर उस आदमी का आना जाना घर में इतना क्यों बढ़ जाता है?पिछली बार बल्ली आया था,अपने घर से ज्यादा हमारे घर के काम करता है।न समय देखता है न पैसे।आखिर तेरी माँ के पास ऐसी क्या घुट्टी है कि सारे मर्द गुलाम बन जाते हैं उसके।जिस दिन इस पर गौर करेगी,दादी गलत न लगेगी।" "बस चुप करो,दादी।कुछ भी बोलते हो आप।मेरा दिमाग मत खराब करो।"कहकर रितु रसोई में चली गयी।

     गैस चूल्हे पर चाय खौल रही थी और रितु के दिमाग में दादी की बातें।रितु किशोरावस्था की दहलीज पर थी।दादी की बातों के बीज ने दिमाग में शक की जड़ पकड़ ली थी।वह सोचने लगी।"क्या पता दादी सच कहती हों।जब भी कोई पुरुष मेहमान आता है,मम्मी मुझे चाय बनाने नीचे भेज देती हैं यह बात तो सही है और उसके बाद की बातें भी काफी हद तक सच ही हैं।मुझे सच का पता लगाना ही चाहिए।" रितु ने चूल्हे की आंच मंद की और दबे पाँव पिछले दरवाजे से बैठक की खिड़की के नीचे जाकर दीवार से कान सटाकर कमरे में हो रही बातचीत सुनने की कोशिश करने लगी।उसकी मम्मी प्रभात सर की किसी बात पर खिला-खिला कर हँस रही थी,फिर अचानक उसे दोनों के ही स्वर मद्धम होते लगे।लेकिन इन मद्धम स्वरों ने रितु के दिल की धड़कनें बढ़ा दी थी।उसके दिमाग में चलचित्र की तरह उसकी दादी की गढ़ी हुई कहानियाँ चलने लगी थी।कल्पना उस भयावह चित्र को उसे दिखा रही थी कि जिसे देखकर रितु पसीना पसीना हो चुकी थी।

     तभी मम्मी ने बैठक से उसे चाय की बाबत आवाज दी।रितु घबराहट में तुरन्त वहाँ से लौट कर किचन में आ गयी।थोड़ी देर दीवार के सहारे खड़ी रहकर उसने खुद को इस बड़ी गलती के लिए मन ही मन फटकारा कि दादी की दी हुई शक की ऐनक पहनकर वह क्या-क्या देखने लगी थी।चूल्हे पर चढ़ी चाय सूखकर आधी हो गयी थी,फटाफट उसमें थोड़ा पानी और दूध मिलाकर रितु ने चाय की मात्रा को बढ़ाया।तौलिये से पसीना पोंछकर खुद को संयत करते हुए रितु ने ट्रे में चाय और नाश्ता लगाया और बैठक में ले चली।मेज पर चाय रख कर रितु एक ओर कुर्सी पर बैठ गयी।मम्मी ने ट्रे से चाय का कप उठाकर प्रभात सर को चाय देते हुए पूछा, "तो फिर आप कल से आ रहे रितु को पढ़ाने" प्रभात सर ने कप पकड़ते हुए मुस्कुरा कर जवाब दिया,"जी,बिल्कुल।" "क्यों रितु तैयार हो न क्लास टॉपर बनने के लिए...." रितु ने "जी,सर" कहते हुए प्रभात सर की ओर देखा।प्रभात सर तिरछी नज़र से मम्मी को देख रहे थे और मम्मी मंद मंद मुस्कुरा रही थीं।शक या सच.... रितु के दिमाग में विचार पेण्डुलम की तरह डोल रहे थे।

✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ---छोटी सी आशा.......


"सुनो ! कल कमल को छुट्टी कह दूँ क्या"

"नहीं,बुला लो।"

"अरे छोड़ो न, एक दिन रेस्ट कर लेगा।"

"उसने कौनसा पहाड़ खोदना है?आराम ही तो है,बैठ कर गाड़ी ही तो चलानी है।"

"फिर भी, मुझे ठीक नहीं लग रहा कल बुलाना।कल मुझे कॉलेज जाना नहीं है और हम सब लोग मूवी देखने जा रहै हैं।वहाँ के लिए तो आप ही ड्राइव कर लोगे।"

"जब मैं कह रहा हूँ तो कह रहा हूँ।बस तू कह दे उसे।भले ही कल 2 बजे बुला ले क्योंकि तीन बजे का शो है" 

"ठीक है..." रमा ने बेमन से कहा।उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि वह नये साल के दिन खुद तो परिवार के साथ एंजॉय करे और अपने ड्राइवर को बेवजह थोड़ी दूरी की ड्राइव करने के लिए भी बुला ले।उसने सोचा था कि वह कमल को कल की छुट्टी देकर उसे नये साल का जश्न मनाने को कहेगी तो उस गरीब के चेहरे पर भी एक छोटी सी मुस्कान आ जायेगी।

     'हम बड़ी चीजें न कर सकें पर अपने स्तर की छोटी छोटी खुशियां तो बाँट ही सकते हैं' रमा ने मन में बुदबदाया।उसे राघव पर झुंझलाहट आ रही थी,पर अपने पति की बात भी वह नहीं टाल सकती थी।

     कमल गैराज में गाड़ी पार्क कर चुका था और अंदर लॉबी में की-स्टेंड पर गाड़ी की चाभी टाँगने आया था।उसने रोज की तरह रमा से पूछा,

     "मैंने गाड़ी पार्क कर दी है,मैम।अब मैं जाऊँ....?और वो ...कल की तो छुट्टी रहेगी न मैम।आप कह रहे थे न कि कल कॉलेज नहीं जाना है।"

     "हाँ,कल कॉलेज तो नहीं जाना है पर सर बुला रहे हैं कल किसी काम से।तुम कल दो बजे आ जाना।" रमा ने सेन्टर टेबल पर फैली पड़ी मैग्जीन्स समेटने का उपक्रम करते हुए कहा।वह असहज महसूस कर रही थी क्योंकि उसने जो सोचा था वह हो नहीं पाया था।उसने चोर निगाह से कमल की ओर देखा।

     "ठीक है,मैम" कहकर कमल रोज की तरह गम्भीरता ओढ़े गर्दन झुका कर मेन गेट के पास खड़ी अपनी टीवीएस तरफ बढ़ गया।रमा के सिर पर उस उदास चेहरे का बोझ चढ़ गया था,वह जाकर अपने कमरे में लेट गयी।

        अगले दिन ठीक दो बजे कमल अपनी ड्यूटी पर था।

        "नमस्ते मैम,नमस्ते सर।आपको नये साल की बहुत बहुत मुबारकबाद।"

        "नमस्ते कमल,तुमको भी नया साल मुबारक।" राघव ने गर्मजोशी से कहा।

        रमा ने फीकी मुस्कान फैंकी।उसे राघव का कमल को छुट्टी के दिन भी काम पर बुलाना गलत लग रहा था।हालांकि महीने में चार-पाँच छुट्टियाँ कमल को आराम से मिल जाती थी क्योंकि सन्डे को तो रमा कॉलेज नहीं जाती थी।पर आज नया साल था और यही बात उसे खटक रही थी।

        रमा के दो बेटे थे जो युवा कमल से कुछ ही वर्ष छोटे किशोर वय के थे।वे दोनों भी तैयार होकर बाहर आ गये थे।कमल ने गैराज से गाड़ी बाहर निकाली और उसे साफ किया।राघव ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठा और रमा दोनों बेटों सहित पीछे की सीट पर।

        गाड़ी शहर के सबसे शानदार मॉल कम मल्टीप्लेक्स के मेन गेट पर पहुँच चुकी थी।

        कार पार्किंग में ले जाने से पहले कमल ने मालिक के परिवार को कार से उतारते हुए मालिक से पूछा," सर,कितनी देर की मूवी है?मैं सोच रहा था कार पार्क कर के मैं भी थोड़ी देर पास में ही अपने रिश्तेदार के घर हो आता।जब मूवी ख़त्म हो आप मुझे कॉल कर देना,मैं तुरन्त आ जाऊँगा।"

        "नहीं,तुम कहीं नहीं जाओगे।कार पार्क कर के सीधे यहाँ आओ।"

        कमल चुपचाप कार पार्किंग की ओर बढ़ गया।अब तो रमा को बहुत ही गुस्सा आया पर सार्वजनिक स्थान पर और वह भी जवान बेटों के सामने वह अपने पति से क्या कहे।उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर राघव ऐसा क्यों कर रहे हैं?राघव ने मुस्कुराकर रमा की ओर देखा लेकिन उसने गुस्से से मुंह फेर लिया।

        थोड़ी देर में कमल कार पार्क कर के लौटा तो राघव ने उसके कन्धे पर हाथ रखा और पूछा, "मूवी वगैरह देख लेते हो या नहीं।आज तुम्हें हमारे साथ मूवी देखना है,ठीक है।" कमल का चेहरा कमल की तरह खिल गया।रमा के दोनों बेटे भी पापा को देखकर मुस्कुराने लगे और रमा.... वह तो हक्की बक्की रह गयी थी।राघव ने प्यार से जब रमा की तरफ देखा तो वह मुस्कुरा उठी।रमा के बेटों ने कमल का हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ आगे बढ़ाया तो राघव ने रमा का हाथ पकड़ा।पाँच टिकट ऑनलाइन बुक कराये गये थे,थ्री डी मूवी थी जो रेटिंग्स में धूम मचाये हुए थी।ढाई घण्टे की मूवी देखकर हंसते खिलखिलाते सब हॉल से बाहर निकले।

        राघव पिज्जा कॉर्नर की तरफ बढ़ा और सबके लिए पिज्जा आर्डर किया।कमल के चेहरे पर संकोच मिश्रित प्रसन्नता के भाव थे।पाँच जगह पिज्जा सर्व  हुए।सबने खाना शुरू किया।लेकिन ये क्या कमल की आँखों में आंसू थे।राघव ने मज़ाक करते हुए पूछा,"क्या बात मूवी अच्छी नहीं लगी, कमल।"

"नहीं,सर नहीं,ऐसी बात नहीं है।बहुत अच्छी मूवी थी।पर.... मैंने अपने जीवन में आज तक कभी मल्टीप्लेक्स में मूवी नहीं देखी और थ्री डी मूवी भी पहली बार देखी।एक बात बताऊं ,सर।दो साल पहले मैंने इस पिज्जा कॉर्नर पर काम किया है।लेकिन मैंने कभी पिज्जा नहीं खाया।मैं बता नहीं सकता कि मैं आज कितना खुश हूँ।आप सचमुच बहुत बड़े दिल वाले हैं।वरना एक ड्राइवर को अपने साथ कौन बैठाता है,एक ड्राइवर के लिए इतना कौन सोचता है?" राघव ने कमल को गले से लगा लिया।

       रमा खुद पर शर्मिन्दा थी कि वह अपने ही पति की भलमनसाहत को आखिर क्यों नहीं पहचान पायी।पर उसे हल्का गुस्सा भी आया कि आखिर राघव ने उसे ये सब पहले क्यों नहीं बताया।? पर अगले ही पल उसने मन ही मन ढेर सारा प्यार राघव पर उड़ेला।दोनों बेटे बहुत खुश थे कि वे अपने व्यस्ततम माता पिता के साथ नये साल पर मूवी देखने आए।लौटते समय गाड़ी में बैठी सवारियों के भाव बिल्कुल बदले हुए थे।इस नये साल पर सबकी छोटी छोटी आशाएं जो पूरी हुई थीं।

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

शनिवार, 26 मार्च 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ----'यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते'

 


मुझे गर्व है भारत की संस्कृति पर

'यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते' की धरती पर

मेरी संस्कृति सिखाती है.... 

सम्मान माँ का......

फिर......

क्यों मूर्ति रूप में ही पूजी जाती है माँ केवल?

क्यों जन्मदायिनी माँ उपेक्षित है....

और एक वय के बाद.....

मूर्तिवत बैठे रहने को अभिशप्त भी।

मेरी धरती पर...

प्रत्येक षड्मास में....

नौ दिन नौ रात होते हैं,

स्त्री के विभिन्न रूपों की उपासना के|

परन्तु यही उपासक..... 

तदुपरान्त क्यों भूल जाते हैं स्त्री की महत्ता?

पूज्य स्त्री.....

क्यों बन जाती है......

कभी दया,कभी उपहास का पात्र?

मेरी इस संस्कृतिशीला धरती पर

नवरात्र का पारायण 

कन्या पूजन से होता है|

बड़े ही भाव विवह्ल होकर

कन्या पूजी जाती है,

जिंवायी जाती है,

आमंत्रित की जाती है, 

देवी के समान

लेकिन फिर....

नैसर्गिक अवतरण भी उनका

होता है बाधित।

मिलते हैं उन्हें उम्र भर

ताने,उलाहने और बंदिशे....

और एक बोझ की तरह.....

ढोते हैं अभिभावक उन्हें|

मेरी संस्कृतिशीला धरती पर 

मुझे गर्व है और.....

अफसोस भी कि...

यहाँ मातृपूजन, देवीपूजन अथवा

कन्यापूजन के दिवस षड्मास में केवल नौ ही क्यों हैं?

क्यों.....? 

आखिर क्यों नहीं मिलता.....

इन दिवसों को.....

वर्ष पर्यन्त का सीमा विस्तार......


हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 17 मार्च 2022

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट कह रही हैं--रंग गुलाबी साजना,हम पर दीन्हा डाल। हाय शरम से और भी, हुए गुलाबी गाल


सा रा रा रा आ गया,होली का त्योहार।

रूठे स्वजन मनाइए, जीवन है दिन चार।।

लाल रंग लेकर खड़ी,भावज घर के द्वार।

वाट्सएप पे देवरा,भेजे रंग फुहार।।

रंग वसंती तन सजा,चली छबीली नार।

हृदय सभी बस में किए,जैसे जादू डार।।

रंग गुलाबी साजना,हम पर दीन्हा डाल।

हाय शरम से और भी, हुए गुलाबी गाल।।

नीले रंग की देख के,रंगत औ' चमकार।

बच्चा-बच्चा झूमता,करे हर्ष किलकार।।

रंग बैंगनी ले लिया,जीजा ने है हाथ।

साली मुश्किल सा लगे,बचना तेरा आज।।

पीत रंग ले थाल से,अम्मा मलती भाल।

बोली सुखी रहो सदा,जुग जुग जीवो लाल।।

सतरंगी यह होलिका,रखनी हमें सँभाल।

कुत्सित मन फैंके कहीं,कालिख भीगे जाल।।

मन यदि  उजले रंग का,ग्राहक सब संसार।

हँसी -खुशी दुनिया रँगो, चोखा यह व्यापार।।


✍️हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

सोमवार, 29 नवंबर 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता -- फूल


फूल

बहुत प्यारा लगता है

मासूमियत उसकी

मोह लेती है

सबके हृदय

काँटों के बीच भी

वह है

एक सहज विजेता

ईश्वर प्रदत्त है

उसका यह सौन्दर्य

और भोलापन

किन्तु क्या

यह प्रदत्त ही है

उसकी समस्त पूंजी

उसकी जग विजय का

सम्पूर्ण मूल

कदापि नहीं

कभी ध्यान से देखना

फूल को

जानना फूल को

बारीकी से

तुम जानोगे

इसमें निहित है

उसका निस्वार्थ प्रेम

रूप, कुरूप सबके प्रति

हर याचक भाव को

सहज समर्पित

उसकी विनम्रता

भोर में

सूर्य के साथ

खिलना

सांझ में 

तारों की आगवानी में 

सिमट जाना

विपुल सौन्दर्य का धारक

और ये विनम्र अनुशासन

हाँ, ये ही अर्जित है

फूल का

बिल्कुल विपरीत गुण

उसके जन्मजात सौन्दर्य से

तो समझो

सुन्दरता नैसर्गिक हो सकती है

किन्तु उसका स्थायित्व

तुम्हें अर्जित करना पड़ता है

फूल यूँ ही फूल नहीं होता

उसे हर पल

फूल रहना पड़ता है


✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश ,भारत


मंगलवार, 9 नवंबर 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कविता ----यूज एंड थ्रो


 दहलीज के एक कोने पे...

मायूस खड़े दीये ने...

दूसरे कोने में लुढ़के पड़े...

दूसरे दीये से पूछा,

"ठीक तो हो,भाई!

ये पीठ चौखट पे....

टेढ़ी क्यों टिकायी?"

दूसरा दीया बड़ी मायूसी से बोला

दर्द-ए-दिल का जैसे दरवाजा खोला,

"क्या बताऊँ,भाई?

कल रात जब मैं....

लुटा चुका था....

अपना सारा खजाना,

जला चुका था....

अपने रक्त की....

आख़िरी बूँद को भी...

दुनिया की चमक के लिए....

कि खुशी से चहकते....

किन्हीं कदमों की....

अल्हड़ ठोकर ने....

मुझे यूँ ठुकराया... 

हाय,मैं दर्द में... 

कराह भी न पाया...

बहुत शुक्रिया,दोस्त!

जो तुमने मेरी सुध ली...

पर अफसोस.... 

इससे अधिक हम दोनों ही.... 

कुछ कर नहीं सकते हैं....

सहेज ले कोई यूँ ही....

बस राह तकते हैं।"

गमगीन था दूसरा दीया भी....

बोला,"ठीक कहते हो दोस्त!

ये दुनिया बड़ी मतलबी है,

इसे कब किसकी पड़ी है?

जब तक उजाले की गरज थी,

त्योहार पे घर झिलमिलाना था।

घर का खास कोना....

हमारा ठिकाना था।

संभाला गया हम को....

कितने प्यार से....

भरे गये हमारे अंतस

स्नेह की धार से....

पहन साफ वस्त्र ....

नये सूत की बाती के।

टिमटिमाते थे हम....

धरती की छाती पे....

सब कुछ कितना आकर्षक था,

चारों ओर झिलमिलाहट थी।

जलते दीयों के वजूद की....

होंठों पर खिलखिलाहट थी।

है नियति ये....

हम सब को समझ आती है।

लेकिन इंसान की....

फितरत रूलाती है।

पल पल इसका....

रंग बदलता है।

इसका स्वार्थीपन....

बहुत अखरता है।

ये बटोरेगा अब ऐसे....

जैसे कि कबाड़ है हम।

"यूज एण्ड थ्रो" के

असली शिकार है हम"

दूसरे दीये ने ढाँढस बँधाया,

बुझे मन से वह बुदबुदाया,

"न हो उदास और हताश,

मत मलाल कर,मेरे भाई

इंसान ने तो रिश्तों में भी,

नीति यही अपनायी।

रिश्ते नाते और दोस्ती

अब यूज किये जाते हैं... 

और निकलते ही मतलब,

फैंक दिये जाते हैं"


हेमा तिवारी भट्ट

मुरादाबाद 244001,

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 4 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ---- मुंहफट भिखारिन-

 


        माही को बाहर बाइक के पास छोड़ विक्रम मोबाइल रिपेयरिंग शॉप के ऊपरी तल पर अपना मोबाइल लेने गया हुआ था।माही बाइक से टेक लगाकर अपना मोबाइल देखने लगी।तभी एक आठ-दस साल का लड़का उसके सामने कटोरा फैला कर बड़ी मासूमियत से गिड़गिड़ाने लगा,"आंटी जी!दस रुपए दे दो। बहुत भूख लगी है।" माही ने मोबाइल से नज़र हटाकर उसे बड़े ध्यान से देखा।एक आम भिखारी की तरह ही उसका चेहरा कान्तिहीन और मैला था।लेकिन उसके भीख मांगने के लहजे में माही को कहीं भी दयनीयता नहीं दिखी।उसके कटोरे में दस-दस के दो नोट थे,माही के देखते ही लड़के ने जल्दी से वे नोट अपनी नेकर की जेब में ठूंस लिये और दूसरा हाथ जिसमें एक पॉलीथिन में बिस्किट और कुरकुरे का पैकेट था वह पीछे की ओर कर लिया।

                 माही ने सब कुछ अनदेखा करके बड़े प्यार से उस लड़के की तरफ देखा और अपनी आदत के अनुसार उस बच्चे को समझाने लगी,"तुम स्कूल क्यों नहीं जाते हो,बेटा? अब तो थोड़ी थोड़ी दूर पर सरकारी स्कूल हैं।वहाँ खाना,ड्रेस,बस्ता सब मिलता है।तुम्हें स्कूल जाना चाहिए,भीख मांगना गंदी बात होती है।" 

"आंँटी पहले मैं पढ़ता था गाँव में।अब हम अपना गाँव छोड़ के आ गये न तो अभी दाखला नहीं लिया।पर मैं जाऊँगा स्कूल कल से, सच्ची।तुम दस रुपए दे दो।" लड़का वाकपटु था।पड़ी लिखी आधुनिक महिला माही भीख देने के सख्त खिलाफ थी और उपदेश वह मुक्त कंठ से बाँटती थी।फिर भी उस लड़के के बातूनीपन से रीझकर वह उसे दस रूपए देने की सोच ही रही थी कि एक पंद्रह सोलह साल की लड़की डेढ़-दो साल के एक छोटे बच्चे को गोद में लिये और दूसरे हाथ से कटोरा पकड़े वहाँ आकर रुकी।ठीक उसी तरह का संवाद उसने भी दोहराया जो उस लड़के ने बोला था।माही ने भी फिर वहीं स्कूल जाने वाली बात दोहरायी तो लड़की उसे अजीब से घूरने लगी।इधर वह लड़का जल्दी में था उसने एक आखिरी कोशिश करनी चाही,"आंँटी दस रुपए दे दो न।"

                माही कुछ कहती या देती इससे पहले ही वह भिखारिन युवती उस लड़के को पीठ पर धौल देकर खदेड़ती हुई बोली,"चल रे लक्की,आगे बढ़।ये न देने की कुछ भी।पढ़ाई की बात कर री हैं।हमें नहीं पढ़ना।हम तो पढ़ाई छोड़ के आये हैं।हम तो भीख ही मांगेंगे।इनसे मलब।बड़ी आयी सिखाने वाली।पढ़ा के नौकरी दिला देंगी क्या?हमारे अब्बा पढ़ें हैं दसवें तक।भीख माँगते हैं,अब पढ़ाओ उन्हें भी।बात बतायेंगी बस।" इस तरह लताड़कर जाती हुई उस मुँहफट भिखारिन को माही अवाक देखती ही रह गयी।

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद