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शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश की कहानी ......जमाना बदल गया

 


हरप्रसाद जी अपने पुत्र को कुछ इस प्रकार समझा रहे थे "बेटा! तुम बेकार ही ब्रांडेड जूतों का शोरूम या रेडीमेड कपड़ों का शोरूम खोलने की जिद पर अड़े हुए हो। मेरी तो यही राय है कि इंटर कॉलेज खोलकर मान्यता ले लो। इस समय सबसे अच्छा मुनाफे का काम यही है।"

         " पिताजी! मेरी शिक्षा क्षेत्र में कोई रुचि नहीं है। वैसे भी मैंने रो-झींककर इंटर पास किया है। इंटर कॉलेज खोलते हुए क्या अच्छा लगेगा ?"-पुत्र रमेश ने बुझे हुए मन से अपने पिताजी को जवाब दिया ।

              " बेटा इसमें अच्छा-बुरा लगने की क्या बात है ? अध्यापक बनने के लिए योग्यता जरूरी है लेकिन विद्यालय खोलने के लिए किसी कानून में न्यूनतम योग्यता कहॉं लिखी हुई है? इंटर पास कर लिया, अच्छी बात है।फेल होकर भी खोल लेते तो कौन रोकने वाला था ? बात बिजनेस की है। मेरी बात को समझो। इंटर कॉलेज खोलने से ज्यादा मुनाफेदार काम दूसरा कोई नहीं है ।"

          लेकिन पिताजी! जूतों का शोरूम भी तो अच्छा रहेगा ?"- रमेश हार नहीं मान रहा था। वास्तव में उसकी दिलचस्पी स्कूल खोलने-चलाने में नहीं थी। पढ़ाई से हमेशा चार कोस दूर भागता रहा था। अब पढ़ने-पढ़ाने के झमेले में वह भला क्यों पड़ने लगा।

        " देखो बेटा! शोरूम खोलने के लिए तुम्हें मेन रोड पर बढ़िया-सी दुकान खरीदनी पड़ेगी। खर्च बहुत बड़ा होगा। ब्रांडेड कोई भी दुकान खोलो ! जूतों की, कपड़ों की, ज्वेलरी की, महंगे आइटम, दुकान में रखे हुए सामान की कीमत; यह सब धनराशि का जुगाड़ करना काफी मुश्किल बैठेगा। फिर यह भी है कि बिजनेस चले न चले। दूसरी तरफ इंटर कॉलेज खोलने के लिए हमारे पास जमीन ही जमीन है। उसी में से एक छोटी-सी जमीन पर खोल दिया जाएगा। जितने कमरे बनवाने जरूरी होंगे, बनवा लेंगे। धंधा चल निकलेगा तो काम को बढ़ाते रहेंगे।"- हर प्रसाद जी ने अपने पुत्र को योजना के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए तो रमेश को भी इंटर कॉलेज खोलने की योजना में दिलचस्पी होने लगी।

            " एक बात है पिताजी ! मैंने तो पढ़ा था कि विद्या दान का विषय है, व्यापार का नहीं है?"

                   पुत्र के मुख से यह बात सुनकर हरप्रसाद जी गंभीर हो गए। बोले " यह सब किताबों की बातें हैं। जो तुमने इंटर तक पढ़ा, उसे भूल जाओ। अब दुनिया को साक्षात देखो। विद्या दान का विषय नहीं है। विद्या पैसा कमाने या धंधे का विषय है। चारों तरफ मुंह उठा कर देखो ! इससे अच्छा बिजनेस कोई नहीं है। फिर इस क्षेत्र में कोई रोक-टोक भी तो नहीं है । जितनी चाहे फीस लो, जैसे चाहे खर्च करो।"

       " लेकिन सरकार का हस्तक्षेप भी तो कुछ होता होगा ?"

               - पुत्र के मुंह से सुनकर हरप्रसाद जी इस बार गंभीर नहीं हुए बल्कि खिलखिला कर हंसने लगे। उनकी हॅंसी में अट्टहास था। भयावहता और वीभत्सता थी। कहने लगे -"पचास-बावन साल से तो हम देख रहे हैं। धड़ाधड़ इंटर कॉलेज तो क्या डिग्री कालेज तक पैसा कमाने के लिए खुल रहे हैं। सरकार ने रत्ती-भर उन पर कोई नियंत्रण नहीं बिठाया।"

                 पिता की बातें सुनकर पुत्र आनंदित होकर बोला "जब पचास साल से इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज पैसा कमाने के लिए ही खुल रहे हैं और सरकार उनकी तरफ टेढ़ी आंख करके देखने का साहस नहीं कर पा रही है तो इससे अच्छा बिजनेस और क्या हो सकता है ? ठीक है पिताजी! आप अपनी जमीन के एक हिस्से पर इंटर कॉलेज खोलने की शुरुआत कीजिए । सचमुच आजादी के बाद के पिचहत्तर वर्षों में जमाना बदल गया"।

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सराफा

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 25 मई 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य......टेलीफोन की याद


अचानक पुराने जमाने के टेलीफोन की याद आ गई । काला कलूटा था । मोटा थुलथुल शरीर । एक बार जहां टिका दिया ,सारी जिंदगी वहीं पर टिका रहा । एक इंच इधर से उधर नहीं हिलने वाला । जब कपड़ा हाथ में लेकर झाड़ने का काम होता था, तो उसको उठा दिया जाता था और फिर धूल झाड़ कर अपनी जगह रख दिया जाता था। न कहीं कोई लेकर जाता था ,न उससे चला जाता था । एक *रिसीवर* था ,जिसे मुश्किल से दो फीट दूर बात करने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता था । इस पर भी इतराना ऐसा कि जैसे कहां के राजकुमार हों ! विश्व सुंदरी का पुरस्कार जीती हुई कोई स्त्री भी ऐसा गर्व न करेगी ,जैसे हमारे कालिया साहब किया करते थे ।

यह तो मानना पड़ेगा कि श्रीमान जी जहां विराजमान होते थे ,वहां की शोभा बन जाते थे । किसी – किसी के घर ,दफ्तर और दुकान में फिक्स-टेलीफोन हुआ करते थे । दस जगह जाओ तो एक जगह श्रीमान जी के दर्शन हुआ करते थे । आज की तरह थोड़े ही कि हर आदमी के हाथ में मोबाइल रखा हुआ है और एक आदमी भी बाजार में ऐसा न मिले जिसके पंजे में मोबाइल नहीं होगा । उस समय जिसके पास टेलीफोन होता था ,वह एक विशिष्ट स्थान रखता था । उसका टेलीफोन नंबर न केवल उसके काम आता था बल्कि आस-पड़ोस के निवासियों के काम भी आता रहता था । वह अपने लेटर-पैड पर पड़ोसी का टेलीफोन नंबर *पी-पी.* लिखकर अंकित कर देते थे । इसका अर्थ यह होता था कि पड़ोसी से टेलीफोन पर बात करनी है तो अमुक नंबर पर आप टेलीफोन मिला सकते हैं । जब पड़ोसी का टेलीफोन आता था ,तब टेलीफोन करने वाले को कहा जाता था कि पड़ोसी को हम बुला कर ला रहे हैं । तब तक आप इंतजार करिए और दो मिनट के बाद टेलीफोन करने का कष्ट करें । बहुत से लोग टेलीफोन पर बात करने से हिचकते थे । वह कहते थे “आप ही बात कर लीजिए।” बड़ी मुश्किल से उनसे कहा जाता था और समझाया जाता था कि टेलीफोन पर बात करने में कोई मुश्किल नहीं होती । आसानी से यह कार्य संपन्न हो जाता है।

कुछ लोग टेलीफोन पर इतनी जोर से बोलने के आदी होते थे कि उनकी आवाज पड़ोस के घर तक जाती थी । पड़ोसी को पता चल जाता था कि इस समय हमारे पड़ोसी की टेलीफोन पर बातचीत चल रही है । पड़ोसी समझता था कि हमारे घर पर टेलीफोन नहीं है ,इसलिए हमें चिढ़ाने के लिए यह महोदय ऊंची आवाज में बात कर रहे हैं । लेकिन ऐसा नहीं होता था । कुछ की आदत ही चीख – चीख कर बात करने की होती थी। सामने की दुकान पर अगर कोई बात कर रहा है तो सड़क – पार की दुकानों तक बातचीत का स्वर पहुंच जाता था ।

स्थानीय स्तर पर टेलीफोन मिलाने के लिए टेलीफोन पर एक गोल चक्कर बना रहता था । उसमें 1 से 9 तक के अंक तथा शून्य लिखा होता था । हर अंक के बाद गोल चक्कर घुमाना पड़ता था । उस जमाने में टेलीफोन – नंबर छोटे होते थे । उदाहरण के लिए शहर में किसी का नंबर 302 है किसी का 318 ,किसी का 412 । अतः तीन बार चक्कर घुमाने से टेलीफोन मिल जाता था और बात आसानी से हो जाती थी । शहर से बाहर टेलीफोन मिलाने के लिए *ट्रंक कॉल बुकिंग* करानी पड़ती थी । टेलीफोन एक्सचेंज का नंबर घुमा कर उनसे आग्रह किया जाता था “हमें दिल्ली बात करनी है । टेलीफोन नंबर इस प्रकार है । कृपया बातचीत कराने का कष्ट करें ।”

टेलीफोन ऑपरेटर का अस्त – व्यस्त आवाज में उत्तर मिलता था “एक मिनट इंतजार करो । बात कराते हैं ।”

एक-दो मिनट के बाद टेलीफोन की घंटी बोलती थी । उधर से आवाज आती थी ” लीजिए ,दिल्ली बात करिए ।”

अब हमारा संपर्क दिल्ली के टेलीफोन नंबर से जुड़ गया । जैसे ही बातचीत के तीन मिनट पूरे हुए , टेलीफोन ऑपरेटर महोदय बीच में टपक पड़ते थे । हमसे कहते थे “तीन मिनट हो गए ।”

इसका तात्पर्य यह था कि अगर हमें आगे भी बात करनी है ,तो पैसे ज्यादा देने पड़ेंगे । ऐसे में दो ही विकल्प होते थे । या तो ऑपरेटर महोदय से आग्रह किया जाए कि तीन मिनट और दे दीजिए या फिर टेलीफोन नमस्ते करके रख दिया जाए ।

टेलीफोन में “डायल टोन” का चला जाना एक आम समस्या रहती थी । डायल टोन एक प्रकार का स्वर होता था, जो टेलीफोन के तारों में प्रवाहित होता था ।इसमें एक हल्की सी गुनगुन जैसी आवाज टेलीफोन उठाते ही रिसीवर को कान पर रखकर बजने लगती थी । इसका अभिप्राय यह होता था कि टेलीफोन सही ढंग से काम कर रहा है । कई बार “टेलीफोन डेड” हो जाता था । इसका अर्थ था कि टेलीफोन में अब करंट का आना भी समाप्त हो गया । *टेलीफोन का डेड होना* बड़ी दुखद स्थिति मानी जाती थी । एक प्रकार की रोया-पिटाई मच जाती थी । टेलीफोन मृत पड़ा है और सब उसे देखे जा रहे हैं । अब किससे बात हो पाएगी ? कहां बात होगी ? कौन हम से बात कर पाएगा ? लाइनमैन इसी दिन के लिए अच्छे संबंध बनाकर रखा जाता था ।

*लाइनमैन* के अपने जलवे होते थे। जिस बाजार से निकल जाए ,ज्यादातर बड़े-बड़े लोग उसे पहल करके नमस्कार करते थे । लाइनमैन से सभी का काम पड़ता था । बड़े-बड़े दुकानदार तथा समाचार पत्रों के संवाददाता ,अधिकारीगण अपने टेलीफोन में *एस टी डी* . रखते थे अर्थात सीधे शहर से बाहर नंबर डायल करके टेलीफोन मिला सकते थे । उन्हें लाइनमैन से काम पड़ना ही पड़ना था । वैसे तो नियमानुसार टेलीफोन एक्सचेंज में शिकायत दर्ज करा कर टेलीफोन की किसी भी परेशानी को हल करने का प्रावधान होता था ,लेकिन लाइनमैन का महत्व सुविधा शुल्क – प्रधान व्यवस्था में अपनी जगह था।

जब तक मोबाइल नहीं आया ,टेलीफोन की तूती बोलती रही । जब मुट्ठी में समा जाने वाला छोटा – सा मोबाइल आया होगा ,तब इस भारी – भरकम ,विशालकाय ,काले- कलूटे आकार के प्राणी ने सोचा होगा कि यह छम्मकछल्लो हमारा क्या बिगाड़ लेगी ? हम तो लोगों के दिलों पर पचास साल से शासन कर रहे हैं । हमारी हस्ती कभी नहीं मिटेगी । लेकिन एक दशक में ही छोटे से मोबाइल ने विशालकाय टेलीफोन के राज – सिंहासन को पलट दिया। इस तरह घर ,दुकान और दफ्तर सब जगह टेलीफोन के लिए जो स्थाई सिंहासन का स्थान दशकों से सुरक्षित रखा हुआ था ,वह समाप्त हो गया ।

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

बुधवार, 1 मार्च 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य......क्या बताऍं शुगर हो गई



 क्या बताऍं, जब से शुगर की जॉंच हुई है और उसमें पता चला है कि हमारी शुगर सौ से ऊपर है ,जीवन का सारा रस समाप्त हो गया। जिंदगी का मजा ही जाता रहा। बस यों समझिए कि जी रहे हैं और जीने के लिए खा रहे हैं ।अब तक जो मन में आया खाते रहे। अब मन को एक तरफ रखा हुआ है और खाना सिर्फ वह खा रहे हैं जो शुगर के हिसाब से खाना चाहिए।

             मिठाईयां बंद हो गईं। कितने दुख की बात है कि अब तरह-तरह की मिठाइयां जो इस संसार की शोभा बढ़ाती रही हैं और आज भी बढ़ा रही हैं ,हमारे मुंह की शोभा नहीं बढ़ा पाएंगी। बुरा हो उस मनहूस सुबह का जब हमने हॅंसी-हॅंसी में अपना भी ब्लड शुगर टेस्ट करा लिया। हम समझते थे कि हमें आज तक शुगर नहीं हुई है, इसलिए अभी भी नहीं होगी । सोचा चलो एक सर्टिफिकेट मिल जाएगा कि तुम ठीक-ठाक हो । हाथ आगे बढ़ाया । जॉंचने वाले ने उंगली में सुई चुभाई। ब्लड की जॉंच की और शुगर सौ से ऊपर थी। बिना कुछ खाए फास्टिंग में सौ से ऊपर। सच कहूॅं हमारी तो सॉंस ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे रह गई। यह क्या हो गया !

         बस उसी समय से जीवन में अंधकार छाया हुआ है। सब लोग मीठा खाते हैं और हम गम खाते हैं ।आखिर बचा ही क्या है जिन्दगी में! फलों में मिठास है, खाने की हर चीज में मिठास है, अब जब मिठास ही खाने की वस्तुओं से चली गई तो फिर जीवन में मिठास कहॉं बची ? बड़ा कड़वा हो गया है जीवन ! मेरी समझ में नहीं आता कि यह शुगर की बीमारी कहॉं से आती है ? आदमी अच्छा भला है ।एक दिन उसे कह दिया जाता है कि तुम्हारे ब्लड में शुगर है। तुम शुगर के मरीज हो।

    परहेज इतने कि कुछ पूछो मत। दहीबड़ा भी खाओ तो बगैर सोंठ के ! क्या खाए ? आदमी मुँह लटकाए हुए कुर्सी पर बैठा हुआ है । आने वाला पूछता है “क्यों भाई ! मुॅंह लटकाए कैसे हो ? “जवाब देना पड़ता है “भाई साहब, शुगर हो गई है ”

   कुछ लोग दिलासा दिलाते हैं। कहते हैं, “मन छोटा न करो । हर तीसरे आदमी को शुगर है।”

        हमारा कहना है कि वह तीसरा आदमी हम ही क्यों हैं ? जो बाकी दो रह गए हैं, वह क्यों नहीं हैं ? भगवान किसी के साथ ऐसा अन्याय न करे । जिंदगी दी है तो मिठास भी दे। अब परहेज में जिंदगी गुजरेगी।

     शुगर के चक्कर में व्यवहार बदल गया। कल मैं एक फल वाले के पास गया। अंगूर देखे ,पूछा” कैसे हैं ? “वह उत्साह में भर कर बोला “बहुत मीठे हैं।” मैंने कहा “ज्यादा मीठे नहीं चाहिए “और मैं आगे बढ़ गया। वह बेचारा सोचता ही रह गया कि आखिर उसने ऐसा क्या कह दिया कि ग्राहक ने अंगूर नहीं खरीदे ।

     लोग कहते हैं कि दुनिया में केवल दो ही प्रकार के लोग हैं ,एक गरीब -दूसरे अमीर । लेकिन मेरा कहना है कि दुनिया में केवल दो ही प्रकार के लोग हैं ,एक वे जिनको शुगर है, दूसरे वे जिनको शुगर नहीं है ।शुगर वालों का एक अलग ही संसार है। वास्तव में सच पूछो तो “शुगर पेशेंट यूनियन “की आवश्यकता है ।और अगर सारे शुगर के मरीज मिल जाए बहुत बड़ा परिवर्तन समाज में जा सकते हैं।

     हमारा सबसे पहला काम इस मानसिकता को बदलना होगा कि उपहार में केवल मिठाई का डिब्बा ही देना चाहिए । मैं मिठाई के डिब्बों को देखता हूं , उनमें कितनी मिठाई ही मिठाई भरी हुई रहती है। इसके स्थान पर अगर मठरियाँ, मट्ठी, काजू के समोसे , खस्ता और दालमोठ रखी जाए तो कितना अच्छा होगा। शगुन के लिए अगर मिठाई देना जरूरी है तो डिब्बे के कोने में नुकती के चार लड्डू बिठाए जा सकते हैं । इसी तरह दावत में देखिए ! छह – छह मिठाई के स्टालों का क्या औचित्य है ? एक तरफ जलेबी,इमरती गरम गरम निकल रही है, दूसरी तरफ गुलाब जामुन, रसगुल्ला , मालपुआ है । “एक दावत एक मिठाई” इस सिद्धांत को व्यवहार में बदलना चाहिए। एक दावत में छह छह मिठाईयां शुगर वालों को चिढ़ाना नहीं तो और क्या है ?

निवेदन है:-

मर्ज शुगर का लग गया, अब हम हैं बीमार

रसगुल्ला सब खा रहे , टपकाएं हम लार

एक जगत में वे हुए , मीठा खाते लोग

दूजे उनको जानिए , मीठा जिनको रोग


✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर स्थित राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय, पीपल टोला में बुधवार 8 फरवरी 2023 को टैगोर पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर स्थित राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल) पीपल टोला में बुधवार 8 फरवरी 2023 को टैगोर पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। प्रदर्शनी में रामपुर के साहित्यकारों की पुस्तकें  तथा प्राचीन दुर्लभ समाचार पत्र अवलोकनार्थ रखे  गए थे।

      प्रदर्शनी का उद् घाटन मुरादाबाद से पधारे साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय के संस्थापक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मनोज रस्तोगी ने किया। उन्होंने प्रदर्शनी में 1952 तथा 1955 के साप्ताहिक पत्रों की मूल प्रतियों को देखकर कहा कि प्राचीन समाचार पत्रों को देखकर हमें अपने अतीत के इतिहास की जानकारी मिलती है। उन्होंने जनपद के दुर्लभ साहित्य संरक्षण की आवश्यकता पर बल देते हुए साहित्यकारों से आगे आने का आह्वान किया।

       प्रबंधक रवि प्रकाश ने प्रदर्शनी में रखी गई विभिन्न पुस्तकों, साप्ताहिक अखबारों तथा महापुरुषों के पत्रों के बारे में विस्तार से बताया । प्रदर्शनी में रामपुर से प्रकाशित सर्वप्रथम हिंदी साप्ताहिक ज्योति के 26 जून 1952 के प्रथम पृष्ठ की मूल प्रति तथा श्री रघुवीर शरण दिवाकर राही के साप्ताहिक पत्र प्रदीप के 26 जनवरी 1955 के प्रवेशांक के संपादकीय पृष्ठ की मूल प्रति भी थी।

       इसके अतिरिक्त बृजराज शरण गुप्त की पुस्तक कैलास मानसरोवर यात्रा , भगवान सवरूप सक्सेना मुसाफिर की पुस्तक नर्तकी, प्रो ईश्वर शरण सिंघल का उपन्यास जीवन के मोड़ तथा डॉ मनमोहन शुक्ल व्यथित के काव्य संकलन भी इस संग्रह में रखे गए थे। ओमकार शरण ओम के काव्य संग्रह धड़कन , संत कवि रविदेव रामायणी की पुस्तक श्रीराम रसमंजरी  भी दर्शकों के आकर्षण का केंद्र रही।

             प्रदर्शनी में मुख्य रूप से वरिष्ठ कवि शिवकुमार चंदन, ओंकार सिंह विवेक, अनमोल रागिनी चुनमुन, नवीन पांडेय तथा सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक की पूर्व संपादक नीलम गुप्ता की उपस्थित रही। 



































गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार शिव कुमार चंदन की काव्य कृति शारदे-स्तवन की रवि प्रकाश द्वारा की गई समीक्षा .... सरल हृदय से लिखी गई सरस्वती-वंदनाऍं

सहस्त्रों वर्षों से सरस्वती-वंदना साहित्य के विद्यार्थियों के लिए आस्था का विषय रहा है । भारतीय सनातन परंपरा में देवी सरस्वती को ज्ञान का भंडार माना गया है । वह विद्या की देवी हैं । सब प्रकार की कला, संगीत और लेखन की आधारशिला हैं।  उनके हाथों में सुशोभित वीणा जहॉं एक ओर सृष्टि में संगीत की विद्यमानता के महत्व को उन के माध्यम से दर्शाती है, वहीं एक हाथ में पुस्तक मानो इस बात का उद्घोष कर रही है कि संपूर्ण विश्व को शिक्षित बनाना ही दैवी शक्तियों का उद्देश्य है । केवल इतना ही नहीं, एक हाथ में पूजन के लिए प्रयुक्त होने वाली माला भी है जो व्यक्ति को देवत्व की ओर अग्रसर करने के लिए एक प्रेरणादायक प्रस्थान बिंदु कहा जा सकता है । 

       हजारों वर्षों से सरस्वती पूजा के इसी क्रम में रामपुर निवासी कवि शिवकुमार चंदन ने एक-एक करके 92 सरस्वती-वंदना लिख डालीं और उनका संग्रह 2022 ईस्वी को शारदा-स्तवन नाम से जो प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों में आया तो यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है । सामान्यतः कवियों ने एक-दो सरस्वती वंदना लिखी होती हैं, लेकिन 92 सरस्वती वंदनाऍं लिख देना इस बात का प्रमाण है कि कवि के हृदय में मॉं सरस्वती की वंदना का भाव न केवल प्रबल हो चुका है, अपितु जीवन में भक्ति का प्रादुर्भाव शीर्ष पर पहुॅंचने के लिए आकुल हो उठा है । इन वंदनाओं में एक अबोध और निश्छल बालक का हृदय प्रतिबिंबित हो रहा है । कवि ने अपने हृदय की पुकार पर यह वंदनाऍं लिखी हैं और एक भक्त की भॉंति इन्हें मॉं के श्री चरणों में समर्पित कर दिया है।

   प्रायः यह वंदनाऍं गीत-शैली में लिखी गई हैं । कुछ वंदना घनाक्षरी छंद में भी हैं, जो कम आकर्षक नहीं है । एक घनाक्षरी वंदना इस प्रकार है :-

शारदे मॉं चरणों में चंदन प्रणाम करे 

अंतस में ज्ञान की मॉं ज्योति को जगाइए

रचना विधान काव्य शिल्प छंद जानूॅं नहीं 

चंदन को छंद के विधान को सिखाइए

विवश अबोध मातु आयके उबारो आज 

जगत की सभी नीति रीति को निभाइए 

प्रकृति की प्रीति रीत पावस बसंत शीत

चंदन के गीत छंद स्वर में गुॅंजाइए (पृष्ठ 127)

एक गीत में कवि जन्म-जन्मों तक भटकने के बाद मॉं की शरण में आता है और जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य "ध्यान" की उपलब्धता को प्राप्त हो जाता है । गीत के प्रारंभिक अंश इस प्रकार हैं :-

जन्म-जन्मों का चंदन पथिक हो गया

मोह अज्ञान तम में कहॉं खो गया

थाम ले बॉंह को टेर सुन आज मॉं 

कर कृपा शारदे,पूर्ण कर काज मॉं

छोड़कर पंथ चंदन शरण आ गया 

मॉं तुम्हारा सहज ध्यान गहरा गया (पृष्ठ 25) 

     जीवन में वैराग्य भाव की प्रधानता अनेक गीतों में प्रस्फुटित होती हुई दिखाई पड़ रही है । यह सहज ही उचित है कि कवि अनेक जन्मों की अपनी दुर्भाग्य भरी कहानी को अब मंजिल की ओर ले जाना चाहता है । ऐसे में वह मॉं सरस्वती से मार्गदर्शन भी चाहता है । एक गीत कुछ ऐसा ही भाव लिए हुए है । देखिए :-

जब इस जग में आए हैं मॉं

निश्चित इक दिन जाना है

अनगिन जन्म लिए हैं हमने

अपना कहॉं ठिकाना है 

यह सॉंसें अनमोल मिली हैं 

ज्यों निर्झर का झरना है 

करूॅं नित्य ही सुमिरन हे मॉं 

मुझे बता क्या करना है ?(पृष्ठ 104) 

        वंदना में मुख्य बात लोक-जीवन में प्रेम की उपलब्धता हो जाना मानी गई है । सरस्वती-वंदना में कवि ने इस बात को ही शब्दों में आकार देने में सफलता प्राप्त की है । एक वंदना गीत में कवि ने लिखा है :-

ज्ञान की ज्योति दे दो हमें शारदे 

नेह मनुहार से मॉं हमें तार दे

अर्चना में हमारी यही आस हो 

मन में भक्ति जगे श्रद्धा विश्वास हो

भाव के सिंधु में प्रीति पतवार दे 

ज्ञान की ज्योति दे दो हमें शारदे (पृष्ठ 34)

         अति सुंदर शुद्ध हिंदी के शब्दों से अलंकृत यह सरस्वती-वंदनाऍं सदैव एक नतमस्तक भक्त के मनोभावों को अभिव्यक्त करती रहेंगी । सामान्य पाठक इनमें अपने हृदयोद्गारों को प्रकट होता हुआ देखेंगे तथा भीतर से परिष्कार की दिशा में प्रवृत्त हो सकेंगे।

     पुस्तक की भूमिका में डॉक्टर शिवशंकर यजुर्वेदी (बरेली), हिमांशु श्रोत्रिय निष्पक्ष (बरेली) तथा डॉक्टर अरुण कुमार (रामपुर) की भूमिकाऍं वंदना-संग्रह की गुणवत्ता को प्रमाणित कर रही हैं । डॉ शिव शंकर यजुर्वेदी ने ठीक ही लिखा है कि इस वंदना-संग्रह का जनमानस में स्वागत होगा तथा यह पूजा-घरों की शोभा बढ़ाएगी, मेरा विश्वास है । ऐसा ही इस समीक्षक का भी विश्वास है। कृतिकार को ढेरों बधाई।





कृति : शारदे-स्तवन ( मां सरस्वती वंदना-संग्रह)

कवि : शिव कुमार चंदन, सीआरपीएफ बाउंड्री वॉल, निकट पानी की बड़ी टंकी, ज्वालानगर, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 6397 33 8850 

प्रकाशक : काव्य संध्या प्रकाशन, बरेली 

मूल्य : ₹200 

प्रथम संस्करण : 2022

समीक्षक : रवि प्रकाश,

बाजार सर्राफा

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

शनिवार, 21 जनवरी 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का एकांकी ....रामपुर के राजा रामसिंह


काल : लगभग अठारह सौ ईसवी

पात्र परिचय 

पंडित रामस्वरूप जी : आयु लगभग साठ वर्ष

भगवती : पंडित रामस्वरूप जी की पत्नी, आयु लगभग 60 वर्ष

सुलोचना : पंडित रामस्वरूप जी एवं भगवती की पुत्री, आयु लगभग तेरह वर्ष

स्थान : रामपुर रियासत

पर्दा खुलता है।


पंडित रामस्वरूप गीता पढ़ रहे हैं:

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:

मामका: पांडवाश्चैव किमकुर्वत संजय

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में, रण की इच्छा पाल

क्या करते संजय कहो, पांडव मेरे लाल

सुलोचना : पिताजी ! आपने संस्कृत गीता का हिंदी दोहा किस पुस्तक से पढ़ा है ?

पंडित रामस्वरूप जी : बेटी तुम तो जानती हो, मुझे भूत और भविष्य सब अक्सर दिखाई पड़ते हैं । यह उन्हीं में से कोई एक रचना है ।

सुलोचना : पिताजी ! आप इतने विद्वान हैं, लेकिन हमारे राधा-कृष्ण और उनकी गीता इस घर की परिधि में छुपकर ही हम क्यों पढ़ते हैं ? घर के बाहर जो बड़ा-सा चौराहा है और जहॉं बहुत सुंदर वृक्ष स्थापित है, उसके नीचे हम राधा-कृष्ण की मूर्ति स्थापित करके वहॉं गीता क्यों नहीं पढ़ते? कई बार मैं आपसे कह चुकी हूॅं।

पंडित रामस्वरूप जी : बेटी ! हर बार मैंने तुम्हें समझाया है कि हमें ऐसी स्वतंत्रता रामपुर रियासत में रहते हुए प्राप्त नहीं है ।

सुलोचना : आज तो मैं अपने राधा-कृष्ण की मूर्ति ले जाकर पेड़ के नीचे रखकर वही गीता पढ़ूंगी।

भगवती देवी (अपने पति पंडित रामस्वरूप जी से):अरे भाग्यवान! सुलोचना तो बच्ची है। वह तो कुछ भी कह सकती है। लेकिन आप तो समझदार हो। उसे क्यों नहीं रोकते ? अर्थ का अनर्थ क्यों करने जा रहे हो ? घर पर बैठकर भी तो गीता पढ़ी जा सकती है ।

सुलोचना : मॉं ! तुम हर बार हमें रोक देती हो और बीच में पड़कर हमें सार्वजनिक रूप से राधा-कृष्ण की उपासना करने से मना कर देती हो ।

पंडित रामस्वरूप जी : बेटी ! समझने की कोशिश करो। तुम्हारी भलाई के लिए ही मॉं ऐसा कह रही हैं ।

(सुलोचना एकाएक राधा-कृष्ण की मूर्ति और गीता हाथ में उठाकर चौराहे पर पेड़ की तरफ दौड़ पड़ती है। भौंचक्के हुए पंडित रामस्वरूप जी और उनकी पत्नी भगवती सुलोचना …सुलोचना पुकारते हुए उस बच्ची के पीछे दौड़ने लगे । पेड़ के पास जाकर सुलोचना रुक गई । उसने राधा-कृष्ण की मूर्ति पेड़ के नीचे रख दी । गीता हाथ में लेकर बैठ गई और पढ़ने ही वाली थी कि दोनों माता-पिता पीछे-पीछे आ गए । पंडित रामस्वरूप जी सुलोचना के हाथ से गीता छीनते हुए तथा राधा कृष्ण की मूर्ति पर अपने कंधे पर पड़ा हुआ अंगोछा डाल कर रखते हुए कहने लगे )

पंडित रामस्वरूप जी: सुलोचना ! अभी यह समय नहीं आया है।

सुलोचना : कब आएगा समय ? आप तो भूत-भविष्य सब जानते हैं, फिर बताइए ?

पंडित रामस्वरूप जी :  बेटी ! अभी लंबा समय बीतेगा । मेरा और तुम्हारा दोनों के जीवन का जब अंत हो जाएगा, तब एक उदार, धर्मनिरपेक्ष शासक रामपुर रियासत में राजसिंहासन पर आसीन होंगे । उनका नाम नवाब कल्बे अली खॉं होगा । उसी समय पंडित दत्त राम नामक एक अलौकिक शक्तियों से संपन्न सत्पुरुष अपनी प्रेरणा से नवाब कल्बे अली खां को रामपुर रियासत में सर्वप्रथम सार्वजनिक मंदिर बनवाने के लिए उत्साहित करेंगे और तब नवाब साहब द्वारा आधारशिला रखकर रामपुर के पहले शिवालय का निर्माण संभव हो सकेगा ।

सुलोचना : इस कार्य में तो पचास साल से भी ज्यादा लग जाएंगे ।तो क्या तब तक हम अपने राधा-कृष्ण की मूर्ति को घर के अंदर ही पूजने के लिए अभिशप्त होंगे ?

पंडित रामस्वरूप जी : हां, जब तक पंडित दत्त राम और नवाब कल्बे अली खॉं का युग नहीं आ जाता, स्थिति आज के समान ही अंधकारमय रहेगी । सत्पुरुष तो प्रायः एक सदी बाद ही होते हैं।

सुलोचना (दुखी होकर): ऐसा कैसा रामपुर है, जहॉं राम और कृष्ण के नाम लेने के लिए सौ साल बाद नवाब कल्बे अली खां की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ! फिर इसका नाम रामपुर क्यों है ?

(इतना कहकर सुलोचना अपने पिता के हाथ से गीता और राधा-कृष्ण छीन लेती है तथा उन्हें अपने सीने से चिपका कर घर की तरफ दौड़ जाती है । पीछे-पीछे माता-पिता भी घर पर आ जाते हैं। घर पर सुलोचना उदास और निढाल होकर खटिया पर लेट जाती है । माता-पिता उसके पास जाते हैं और उसके बालों को सहलाते हैं । सुलोचना सुबक उठती है।)

सुलोचना : पिताजी! आप तो भूत और भविष्य दोनों जानते हैं। आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया कि यह स्थान रामपुर क्यों कहलाता है ?

पंडित रामस्वरूप जी : बेटी ! यह शताब्दियों पुरानी कहानी है, जो राजा राम सिंह के अतुलनीय पौरुष, बल और वीरता से भरी हुई है । राजा राम सिंह का राज्य रामपुर, मुरादाबाद और ठाकुरद्वारा इन तीनों क्षेत्रों तक फैला हुआ था । तब यह स्थान “कठेर खंड” कहलाता था।

सुलोचना : कठेर-खंड का क्या तात्पर्य है पिताजी ? आखिर किसे कहते हैं ?

पंडित रामस्वरूप जी : बेटी ! मैं इतिहास में बहुत दूर तक तो नहीं देख पा रहा हूं, लेकिन अंतर्दृष्टि से मुझे एक ऋषि का भी दर्शन हो रहा है । इसका संबंध वेद और उपनिषद के ज्ञान से भी जान पड़ता है । लेकिन इतने पुराने इतिहास के बारे में देखते समय मेरी दृष्टि धुंधला जाती है।

सुलोचना : तो फिर जरा निकट का ही इतिहास आप देखकर हमें बताइए ?

पंडित रामस्वरूप जी : (उत्साहित होकर) हां, वह तो स्पष्ट दिख रहा है । कोई राजा रामसिंह थे,जिनका शासन महान राजाओं में सर्वश्रेष्ठ था । वह प्रजा पालक, वात्सल्य से भरे हुए तथा न्याय और नीति के मार्ग पर चलने वाले महान शासक थे । उनके राज्य में पूजा-अर्चना और हवन की सुगंध चारों ओर फैलती थी ।

सुलोचना : (हर्षित होकर) तो क्या रामपुर रियासत में भी राजा राम सिंह के यज्ञों की सुगंध प्रवाहित होती थी ?

पंडित रामस्वरूप जी : भूतकाल को देखने पर मुझे तो कुछ-कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा है ।

सुलोचना : कुछ और बताइए पिताजी ! इतने महान शासक के बारे में कुछ और जानने की इच्छा है ।

पंडित रामस्वरूप जी : बेटी ! अधिक तो प्रतीत नहीं हो रहा । मैं देखने का प्रयत्न करता हूं , लेकिन पटल पर धुंध और धूल छा जाती है । बस इतना दिख पाता है कि किसी ने धोखे से एक महा प्रतापी राजा रामसिंह के जीवन का अंत कर दिया था । उसी के साथ सनातन जीवन मूल्यों से जुड़े आचार-विचार की क्षति इस कठेर-खंड में चारों तरफ छा गई।

सुलोचना : फिर मुरादाबाद का क्या हुआ पिताजी ?

पंडित रामस्वरूप जी : वह तो अभी हाल का ही इतिहास है । उस पर मुगलों का शासन स्थापित हो गया । बस रामपुर वाला हिस्सा बचा । उसका नाम रामपुर रख दिया गया ।

सुलोचना : रामपुर का नामकरण रामपुर कैसे पड़ा ? यह किसके नाम पर है ?

पंडित रामस्वरूप जी : राम का नाम तो सर्वविदित है । हजारों-लाखों वर्षों से यही तो परमेश्वर का सत्य स्वरूप है । इस नाम का संबंध उस परम ब्रह्म परमात्मा से अवश्य ही बनता है। लेकिन हां, जब तुम कठेर-खंड के पतन के बाद निर्मित रामपुर रियासत के बारे में पूछ रही हो, तो इसका अभिप्राय राजा रामसिंह से है । राजा रामसिंह की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने इस बचे-खुचे कठेर-खंड का नाम राजा राम सिंह के नाम पर रामपुर रखना अधिक उचित समझा।

सुलोचना : रामपुर कितना धन्य है, जिसका नामकरण भगवान राम और उनके भक्त राजा रामसिंह के नाम पर अनुयायियों द्वारा किया गया है । अब हम उस समय की प्रतीक्षा करेंगे, जब फिर से इस क्षेत्र में उदार विचारों की प्रधानता होगी और सबको अपने मन के अनुरूप पूजा-अर्चना का अधिकार और अवसर मिल सकेगा ।

पंडित रामस्वरूप जी : हां बेटी ! मैं भविष्य के पटल पर और भी बहुत कुछ देख रहा हूॅं। न केवल नवाब कल्बे अली खां और पंडित दत्त राम के परस्पर सहयोग और उदार विचारों के फलस्वरुप रियासत में एक मंदिर की स्थापना के महान कार्य को इतिहास के पृष्ठों पर अंकित होते हुए मुझे दिखाई पड़ रहा है, बल्कि यह भी दिख रहा है कि राजे-रजवाड़े अतीत का हिस्सा बन जाएंगे। समूचे भारत में जनता का शासन होगा । लोकतंत्र स्थापित हो जाएगा तथा फिर शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार और शासक वर्ग की स्वेच्छाचारिता इतिहास का भूला-बिसरा अध्याय बन जाएगी ।

(सुलोचना अपने पिता के मुॅंह से यह सुनकर तालियॉं बजाने लगती है । उसकी मॉं की ऑंखों से भी ऑंसू निकल आते हैं । वह भी बेटी के साथ मिलकर तालियॉं बजाती हैं। पार्श्व में स्वर गूंजता है कि हमारी एकता अमर रहे ….हम सब भारतवासी आपस में भाई-बहन हैं..)

इसके बाद पर्दा गिर जाता है।

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, 

रामपुर

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की लघु कथा ....आर या पार

 


सावित्री का चेहरा सूजा हुआ था। जगह-जगह लाल- नीले निशान पड़े हुए थे ,जो बता रहे थे कि कुछ देर पहले क्या हुआ होगा।

    मायके से सावित्री का भाई आया था और अपनी बहन के चेहरे पर यह निशान देखकर भौचक्का रह गया। बहुत गुस्सा आया। पूछा" यह क्या है ? कैसे हुआ ? किसने किया?"

    सावित्री ने कोई जवाब नहीं दिया। पानी का गिलास भाई की तरफ बढ़ाया ।

       कहा" पानी पियो "

भाई बोला "मेरी बात का जवाब दो !"

    सावित्री बोली "बात बढ़ाने से कोई फायदा नहीं । कल तुम्हारे जीजा जी जब खाने बैठे तो उन्हें खाने में नमक कुछ ज्यादा लगा । बस इसी बात पर मार- पिटाई शुरू कर दी ।"

     भाई भड़क गया "आजकल के जमाने में क्या कोई औरतों से ऐसे सलूक करता है?"

      बहन बोली "आजकल के जमाने में ही यह सब हो रहा है। मर्दों का कहना है  कि औरतें पिटाई की भाषा ही समझती हैं। ऐसे ही ठीक रहती हैं ।"

     "तुम विद्रोह क्यों नहीं करती ?"

             "क्या होगा इससे ?-"सावित्री का जवाब था।

    "तुम पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं करती?"

          " परिवार टूट जाएगा ?"

"और अब क्या बिखरा हुआ नहीं है ?अब क्या कम टूटा हुआ है ? अपने चेहरे के निशान देखो ! क्या जिंदगी भर इन्हीं को लिए हुए रोती रहोगी ?"

     सावित्री ने कोई जवाब नहीं दिया। रसोई में चली गई ।भाई गुस्से में तमतमाता रहा। जीजा आए तो सीधा सवाल दाग दिया-" मेरी बहन को अगर हाथ भी लगाया तो ठीक नहीं होगा।"

      सुनते ही जीजा भड़क गए "ओह !अब बहन के भाई के पर निकलने लगे ! क्या कर लोगे मेरा ! जाओ बहन को उठाकर ले जाओ ।"

     "जीजा आपने सही नहीं समझा। मेरी बहन कहीं नहीं जाएंगी। वह इसी घर में रहेंगी, क्योंकि वह घर की मालकिन हैं।  हां ! आपको जरूर जेल जाना पड़ेगा ।सोच लीजिए ! आप तो समझदार हैं । पढ़े लिखे हैं। सरकारी नौकरी करते हैं।"

      " मुझे धमका रहे हो ।"

              "बिल्कुल धमका रहा हूँ। आपकी सरकारी नौकरी चली जाएगी ।"

        जीजा समझदार था ।थोड़ी ही देर में उसने हथियार डाल दिए। बोला "अपनी बहन को समझाओ । घर गृहस्थी में ध्यान दे। मैं जानबूझकर थोड़े ही मारता हूँ।"

            "चाहे जानबूझकर मारो ,चाहे बगैर जानबूझकर  मारो ,लेकिन अब आज से हाथ नहीं उठना चाहिए । वादा करते हो तो मैं जाऊँ, वरना यहीं रह कर आगे की कार्यवाही करूँ।"

       जीजा डर गया ।बोला "अब हाथ नहीं उठाऊँगा ।"

            रसोई के दरवाजे की आड़ में खड़ी सावित्री ने जब यह सुना, तो खुशी से उसकी आँखों में आँसू आ गए ।लेकिन थोड़ी सी धुकर-पुकर भी मन में बढ़ रही थी कि देखो आगे क्या होता है । फिर सोचने लगी, चलो ठीक ही हो रहा है। जो होगा,अच्छा ही रहेगा। या तो आर या फिर पार। इस रोज-रोज की मार- पिटाई वाली जिंदगी से तो बेहतर रहेगा ।

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा,

रामपुर

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी रवि प्रकाश का व्यंग्य ...जाड़ों की धूप में मूॅंगफली खाना मौलिक अधिकार

   


हुआ यह कि एक सरकारी संस्थान था और उसमें पदासीन गेंदा बाबू रोजाना एक घंटा लेट आते थे । संस्थान के प्रभारी ने इस बात को तो सहन किया क्योंकि उसकी बुद्धि कहती थी कि इन छोटी-छोटी बातों में टॉंग अड़ाना अच्छी बात नहीं होती। लेकिन जब से जाड़ा शुरू हुआ गेंदा बाबू एक घंटा लेट तो आते ही थे, अब उन्होंने आने के बाद कोई कार्य करने के स्थान पर धूप में कुर्सी डालकर बैठना और मूॅंगफली खाने का कार्य और आरंभ कर दिया । 

        हफ्ते-दो-हफ्ते तो प्रभारी ने चीजों को नजरअंदाज किया लेकिन एक दिन उसकी चेतना जागृत हो गई अथवा यूं कहिए कि साठ वर्ष का होने से पहले ही उसकी बुद्धि सठिया गई और उसने गेंदा बाबू को टोक दिया -"यह आप कार्य करने के स्थान पर रोजाना धूप में कुर्सी डालकर मूंगफली खाने का कार्य नहीं कर सकते । आपको कार्य के लिए वेतन दिया जाता है।"

          बस  प्रभारी के इस भारी अपराध को गेंदा बाबू न तो क्षमा कर पाए और न ही सहन कर पाए। तत्काल उन्होंने अपने मौलिक अधिकारों की दुहाई लगाई तथा संस्थान के सभी सहकर्मियों को एकत्र कर लिया। संस्थान-प्रभारी के विरुद्ध हाय-हाय के नारे लगने लगे । 

           गेंदा बाबू ने सबके सामने खड़े होकर जोरदार भाषण दिया । अपने भाषण में उन्होंने कहा कि यह पूंजीवादी व्यवस्था है तथा निजीकरण की ओर बढ़ता हुआ प्रयास है, जिसमें किसी गरीब का धूप में बैठना और मूंगफली खाना व्यवस्था को सहन नहीं हो पा रहा है । गेंदा बाबू ने सबको बताया कि ईश्वर ने सेंकने के लिए ही धूप बनाई है तथा मूंगफली खाने की ही वस्तु है । अतः धूप में मूंगफली खाना हर कर्मचारी का मौलिक अधिकार है। इससे उसे रोका नहीं जा सकता।

              प्रभारी ने अब एक और बड़ी भारी गलती कर दी । उसने अनुशासनहीनता के आरोप में गेंदा बाबू को निलंबित कर दिया। प्रभारी की इस कार्यवाही ने आग में घी डालने का काम किया । वैसे तो मामला सुलझ जाता। थोड़ा-बहुत गेंदा बाबू कार्य करते रहते और थोड़ी-बहुत धूप सेंकते हुए मूंगफली भी खाते रहते। लेकिन कठोर कार्यवाही से मामला एक संस्थान के हाथ से निकल कर जिले-भर के सभी संस्थानों तक फैल गया ।

         मौलिक अधिकारों का प्रश्न अब मुख्य हो चला था । कार्य तो संस्थानों में होता ही रहता है, कभी कम-कभी ज्यादा । लेकिन धूप सेंकना और मूंगफली खाना -यह तो ईश्वर प्रदत्त मौलिक अधिकार है । इससे किसी को वंचित कैसे रखा जा सकता है -अब यह तकनीकी प्रश्न सबके सामने था । आंदोलन जोर पकड़ने लगा । जिले-भर के सभी संस्थानों के समस्त स्टाफ ने जिले के 'वेतन वितरण अधिकारी' को पत्र लिखकर जिले-भर के सभी संस्थानों के समस्त कर्मचारियों को निलंबित करने की मांग कर डाली और कहा कि रोज-रोज के शोषण और उत्पीड़न को सहने की अपेक्षा अच्छा यही है कि एक बार में ही सब को निलंबित कर दिया जाए । 

            अब मामला गंभीर था। 'जिला वेतन वितरण अधिकारी' ने पूरे जिले के समस्त संस्थानों के कर्मचारियों की भीड़ को देखते हुए आनन-फानन में निर्णय लिया और संबंधित समस्याग्रस्त संस्थान के प्रभारी को पत्र लिखकर चौबीस घंटे के अंदर अपने संस्थान में असंतोष को समाप्त करने का अल्टीमेटम दे डाला -"अगर आप अपने संस्थान में कर्मचारियों के असंतोष को दूर नहीं करते हैं तो आप के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाएगी ।" 

                 'जिला वेतन वितरण अधिकारी' के कठोर पत्र को पढ़कर समस्याग्रस्त संस्थान का प्रभारी चक्कर खाकर गिर पड़ा । उसकी समझ में दो मिनट में यह बात आ गई कि जाड़ों के दिनों में धूप इसीलिए निकलती है कि सब लोग उसका सेवन करें तथा मूंगफलियां तो खाने के लिए ही बनाई जाती हैं । यह एक प्रकार से परमात्मा का अलिखित आदेश है । उसने तुरंत अपनी भूल को सुधारा और गेंदा बाबू से कहा -"आपने हमें जो गहरा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया है, वह तो हमें नौकरी से रिटायरमेंट के करीब आते-आते भी कहीं से नहीं मिल पाया था । अब हम अपने चक्षु खोल सके हैं और आप धूप के सेवन तथा मूंगफली खाने के लिए स्वतंत्र हैं।" यह सुनकर गेंदा बाबू ने प्रभारी से कहा कि आप चिंता न करें, हम धूप के सेवन और मूंगफली खाने के अतिरिक्त भी कुछ न कुछ कार्य संस्थान के लिए अवश्य करेंगे। आखिर हमें वेतन वितरण अधिकारी के कर-कमलों से वेतन इसी कार्य के लिए तो प्राप्त होता है ।

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा,

 रामपुर 

उत्तर प्रदेश ,भारत

मोबाइल 99 97 61 5451

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की लघु कथा ....खुशियों की दीपावली



           "अरी बहू !  क्या बात है ,तीन बज गए ।अभी तक दोपहर का खाना खाने कुंदन नहीं आया कहां चला गया है"। चिंतित होते हुए अम्मा जी ने अपनी पुत्रवधू विनीता से कहा । 

          विनीता ने शांत भाव से जवाब दिया "अम्मा जी ! आज तो दीपावली है ।रात से बैठकर पटाखे और आतिशबाजी की लिस्ट तैयार कर रहे थे। वही लेने गए होंगे। मैं तो समझा - समझा कर हार गई "।

   अम्मा जी थोड़ा गुस्से में आ गईं। बोलीं" इतनी बार इसे समझाया कि पैसे को आग मत लगा लेकिन हर साल दस बीस हजार की आतिशबाजी लेकर आता है । यह भी तो नहीं देखता कि कमाई कितनी है। बस दो-चार इसके साथ के यार दोस्त हैं जो इसको चढ़ाते रहते हैं और 2 घंटे में सारा रुपया फूंक कर चले जाते हैं"।

       विनीता ने कहा " अम्मा जी! मैं हर साल समझाती हूं लेकिन कोई असर नहीं होता"।

        अब अम्मा जी थोड़ी उदास होने लगीं। खाट पर बैठ गयीं। घुटनों को सहलाने लगीं और बोलीं"-" कई साल पहले की बात है, इसने आंगन में ही सारी आतिशबाजी जला दी थी. नतीजा यह हुआ कि 2 घंटे में जाकर धुआं थोड़ा कम हुआ. मैं तो सांस लेने तक से मुश्किल में आ गई थी. बस यह समझो कि दम घुटने से बची"।

     फिर कहने लगीं कि आतिशबाजी नीचे छोड़ो, ऊपर छोड़ो ,बाहर छोड़ो !  क्या फर्क पड़ता है! धुँआ तो सब जगह हवा में फैला रहता है । आज दिवाली है लेकिन मैं तो कई दिन पहले से सांस लेने में मुश्किल महसूस कर रही हूं ।जब सारे लोग ही पटाखे छोड़ते रहेंगे और माहौल को जहरीला करते रहेंगे तो हम बूढ़े सांस लेने कहां जाएंगे "।

      यह बातें हो ही रही थीं कि दरवाजे पर कुछ आहट हुई । अम्मा जी ने विनीता के साथ जाकर बाहर देखा तो पता चला कि कुंदन खड़ा हुआ है और ठेले पर से कुछ उतरवा रहा है। विनीता ने देखा तो उसकी आंखों में चमक आ गई । मुंह से अचानक निकाला -"अरे वाह ! वाशिंग मशीन ! क्या बात है ! आज वाशिंग मशीन ले आए । मैं तो पिछले छह-सात साल से बराबर इसी  के लिए कह रही थी"।

    कुन्दन ने कहा-" आज देखो ! दीपावली के शुभ अवसर पर मैं घर में वाशिंग मशीन लेकर आया हूं । अब इसका उपयोग पूरे घर को मिलेगा , फायदा सबको मिलेगा।"

      वाशिंग मशीन घर में क्या आई, खुशी की लहर दौड़ पड़ी। अम्मा जी ने  कुंदन को सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया। थोड़ी देर बाद जब मशीन रखकर ठेलेवाला चला गया। मशीन फिट हो गई । शाम होने लगी तो कुंदन के पास फोन आया।

     " क्यों भाई सुना है, इस साल आतिशबाजी नहीं होगी"

   कुंदन ने जवाब दिया "हां यार ! इस बार वाशिंग मशीन खरीद ली "।

   उधर से जवाब आया "अब तेरी जिंदगी में उत्साह नहीं रहा ।"

   कुंदन ने फोन बंद कर दिया लेकिन दोस्तों की संख्या 1 से ज्यादा थी .थोड़ी देर बाद फिर फोन की घंटी बजी। कुंदन ने फोन उठाया"- अरे भाई क्या बात है ? आज उदासी में दीपावली मनाओगे ? कोई आतिशबाजी नहीं, पटाखे नहीं!"

    कुंदन ने फोन रख दिया । फिर एक फोन आया "अरे यार! दीवाली तो साल में एक ही बार आती है । घर गृहस्थी  तो रोजाना चलाते रहोगे । यह क्या! वॉशिंग मशीन ले आए। पटाखे सुना है, एक भी नहीं लाये "।

    कुंदन बोला "हां सही सुना है "

    और फोन उसने काट दिया ।

               फिर जब शाम ढ़ली तो कुंदन ने विनीता से कहा-" इस बार मैंने आज सुबह ही सोच लिया था कि पटाखे और आतिशबाजी में पैसा बर्बाद नहीं करूंगा। कितनी मुश्किल से हम कमाते हैं और सचमुच हमारी हैसियत दस बीस हजार खर्च की नहीं है। पटाखों में खर्च करके वातावरण भी प्रदूषित होता है । अम्मा जी को सांस लेने में कितनी तकलीफ होती है। इसके अलावा पिछले साल सड़क पर जो हम जा रहे थे तो तुम्हें याद होगा किसी ने पैर के पास पटाखा  फोड़ दिया था और तुम्हारी साड़ी में आग लगते लगते बची । फिर भी पैर में जख्म हो गया था , जो तीन-चार दिन में जाकर भरा।... आज हम सचमुच खुशियों की दीपावली मना रहे हैं"।


✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य...... बुरे फँसे टिकट माँगकर


 जब हमने साठ-सत्तर कविताएं लेख आदि लिख लिए तो हमारे मन में यह विचार आया कि एमएलए के चुनाव में खड़ा होना चाहिए। पत्नी से जिक्र किया। सुनते ही बोलीं" कौन सा भूत सवार हो गया ?"

     हमने कहा "भूत सवार नहीं हुआ है। वास्तव में चुनाव उन लोगों को लड़ना चाहिए जो देश और समाज के बारे में चिंतन करते हैं और देश समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।"

       पत्नी ने कहा "देश और समाज की चिंता तो केवल नेता लोग करते हैं। तुम तो केवल कवि और लेखक हो।"

       हमने कहा" कवि और लेखक ही तो वास्तव में देश के सच्चे नेता होते हैं ।"

      इसके बाद पत्नी बोलीं" जो तुम्हारे दिल में आए, तुम करो। लेकिन चुनाव लेख और कविताओं से नहीं लड़े जाते । इसके लिए नोटों की गड्डियों की आवश्यकता होती है।"

      हमने कहा "यह पुराने जमाने की बातें हैं। अब तो विचारधारा के आधार पर समाज में जागृति आती है। वोट बिना डरे वोटर देता है और जो उसे पसंद आता है उसे वोट दे देता है। इसमें पैसा बीच में कहां से आता है?"

     पत्नी बोलीं" ठीक है, जो तुम समझो करो । लेकिन मेरे पास एक पैसा भी चुनाव में उड़ाने के लिए नहीं है। तुम भी ऐसा मत करना कि घर की सारी जमा पूँजी उड़ा दो, और बाद में फिर पछताना पड़े ।"

    हमने कहा "ऐसा कुछ नहीं होगा । हमारे पास अतिरिक्त रूप से छब्बीस हजार रुपए हैं। इतने में चुनाव सादगी के आधार पर बड़ी आसानी से लड़ा जा सकता है।"

        लिहाजा हमने एक प्रार्थना पत्र तैयार किया और उसमें अपनी 60-65 कविताओं और लेखों की सूची बनाकर संलग्न की तथा पार्टी दफ्तर में जाने का विचार बनाया । टाइप करने- कराने में सत्तर रुपए खर्च हो गए फिर उसकी फोटो कॉपी बनाई उसमें भी बीस रुपए खर्च में आए । पार्टी दफ्तर के जाने के लिए ई रिक्शा से बात की ।

               "कहाँ जाना है ?"

     हमने कहा " पुराने खंडहर के पास जाना है ।"

       सुनकर रिक्शा वाले ने हमारे चेहरे को दो बार देखा और कहा "वहाँ न रिक्शा जाती है , न ई रिक्शा । वहां तो कार से जाना पड़ेगा आपको।"  

   हमें भी महसूस हुआ कि हम जो सस्ते में काम चलाना चाहते थे , वह नहीं हो सकता। खैर, एक हजार रुपए की आने -जाने की टैक्सी करी और हम पार्टी- दफ्तर में पहुंच गए  ।वहाँ पहुंचकर कार्यालय में नेता जी से मुलाकात हुई। बोले" क्या काम है ?"

   हमने कहा" चुनाव लड़ना है ! टिकट चाहते हैं।"

          नेताजी मुस्कुराने लगे। बोले" चुनाव का टिकट कोई सिनेमा का टिकट नहीं होता कि गए और खिड़की पर से तुरंत ले लिया। इसके लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है ।और फिर आपके पास तो जमा पूंजी ही क्या है ?"

   हमने कहा" यह हमारा प्रार्थना पत्र देखिए। हम ईमानदार आदमी हैं । चुनाव जीत कर दिखाएंगे । छब्बीस हजार रुपए हमारे पास कल तक थे ।आज पच्चीस हजार रुपये रह गए हैं।"

      पच्चीस हजार रुपए की बात सुनकर नेताजी का मुँह कड़वा हो गया लेकिन फिर भी बोले "आप प्रार्थना पत्र दे जाइए। जैसे और प्रार्थना पत्रों पर विचार होता है, वैसे ही आपके प्रार्थना पत्र पर भी विचार हो जाएगा।"

    हम समझ गए, यह टालने वाली बात है। हमने कहा "इंटरव्यू कब होगा ? "

     बोले" इंटरव्यू नहीं होता। जब आवश्यकता होगी, आपको बुला लिया जाएगा ।"

      नेता जी से मिलकर बाहर आकर हम थोड़ी देर घूमते रहे । फिर हमें दो छुटभैये मिले। उन्होंने इशारों से हमें एक कोने में बुलाया और पूछा" टिकट की जुगाड़ में आए हो?"

   हमने कहा " हाँ...लेकिन जुगाड़ में नहीं आए हैं ।"

       "कोई बात नहीं। हम आपको टिकट दिलवा देंगे। 2 पेटी का खर्च है। टिकट हम आपके हाथ में रख देंगे"

      हमने कहा "हमारे पास तो कुल पच्चीस हजार रुपए बचे हैं। छब्बीस हजार रुपये थे। इसमें से  एक हजार रुपए आने - जाने में खर्च हो गए"

     उन दोनों ने हमारे चेहरे की तरफ देखा और कहा" आप भले आदमी लगते हो। हम आपका काम पच्चीस हजार रुपए में ही कर देंगे।"

                       हमने कहा" पच्चीस हजार रुपए  खर्च करके अगर टिकट मिलेगा तो फिर उसके बाद हम चुनाव कहाँ से लड़ेंगे? चुनाव लड़ने के लिए भी तो हमें कार में आना- जाना पड़ेगा ?"

       दोनों छुटभैयों ने माथे पर हाथ रखा और बोले "आप कितने रुपए खर्च करना चाहते हैं?"

    हमने कहा "हम आधा पैसा टिकट लेने पर खर्च कर सकते हैं ।"

      वह.बोले "बहुत कम है, कुछ और बढ़ाइए ?"

                इसी बीच नेताजी ने हमें बुला लिया । कहा"आज ही टिकट  की मीटिंग होगी। उसमें प्रति व्यक्ति के हिसाब से बारह जनों की  तीन सौ रुपये की स्पेशल थाली आएगी । तीन हजार छह सौ रुपये का पेमेंट कर दीजिए ।"

     हमने कहा "अगर हमारा आवेदन पत्र नहीं आता ,तो क्या आप लोग भूखे रहते?"

     नेताजी बोले "आपको तो अभी टिकट भी नहीं मिला और आप इतना रूखा व्यवहार कर रहे हैं ।"

      हमने बात बिगड़ती हुई देखी तो छत्तीस सौ रुपये नेताजी के हाथ में रख दिए। कहा "हमारा टिकट पक्का जरूर कर देना "

   वह बोले "आपका ध्यान क्यों नहीं रखेंगे? जब आप स्पेशल थाली के लिए खर्च करने में पीछे नहीं हट रहे हैं, तो हम भी आपको टिकट दिलवाने का पूरा- पूरा ख्याल रखेंगे।"

      नेताजी को छत्तीस सौ रुपये  सौंपकर हम बाहर आए तो वही दोनों छुटभैये खड़े हुए थे । हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे । हमें एकांत में ले गए और बोले "नेताजी के स्तर से कुछ नहीं होगा । सारा जुगाड़ हम लोगों के माध्यम से ही होना है ।"

    हमने कहा "अब तो हमारे पास छब्बीस हजार रुपये की बजाय केवल इक्कीस हजार रुपये बचे हैं ।"

     वह बोले "कोई बात नहीं । आधे अपने पास रखो तथा आधे अर्थात साढ़े दस हजार रुपये की धनराशि आप हमें दे दो । हम आप का टिकट पक्का करने की गारंटी लेते हैं।"

        हम खुश हो गए और हमने अपनी जेब से साढ़े दस हजार रुपये निकालकर दोनों छुटभैयों के हाथ में पकड़ा दिए । दोनों छुटभैये बोले" ठीक है ,अब आप परसों आ जाना। आपको हम टिकट की खुशखबरी सुना देंगे ।"

     बचे हुए साढ़े दस हजार रुपये लेकर हम अपने घर वापस आ गए। उसके बाद फिर पार्टी कार्यालय में जाकर नेताजी से  अथवा दोनों छुटभैयों से मुलाकात करने की हिम्मत नहीं हुई । कारण यह था कि छुटभैयों से तो पता नहीं मुलाकात हो या न हो, लेकिन नेताजी मिलने पर फिर यही कहेंगे " भाई साहब !  बारह  लोगों की स्पेशल थाली के तीन हजार छह सौ रुपये  जमा कर दीजिए ।आप के टिकट के लिए प्रयास जारी हैं।"

     जब एक-दो दिन हमने चुनाव न लड़ पाने का शोक मना लिया तब पत्नी ने समझाया "देखो ! तुम्हारे पास केवल छब्बीस हजार रुपये थे, जबकि चुनाव छब्बीस लाख रुपए से कम में नहीं लड़ा जाता ।  छब्बीस हजार रुपये जेब में लेकर भला कोई चुनाव लड़ने के लिए निकलता है ? यह तो वही कहावत हो गई कि घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने । साठ-सत्तर साल तक जोड़ना और जब छब्बीस लाख रुपये फूँकने के लिए इकट्ठे हो जाएं तब चुनाव लड़ने की सोचना।"

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा, 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश , भारत

मोबाइल 999 761 5451

रविवार, 2 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश की रचना .. गांधी जी ने दिया जगत को

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ट्रस्टीशिप-उपहार है (गीत) 

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गॉंधी जी ने दिया जगत को, ट्रस्टीशिप-उपहार है 

                          (1)

समझें हम यह मिला हुआ धन सब ईश्वर की माया 

नाशवान है दीख रही सुंदर बलशाली काया 

चार दिवस के लिए हाथ में, सबके यह संसार है 

                                (2)

मालिक नहीं धनिक समझें उस धन का जो है पाया 

यह समाज की सिर्फ अमानत जो हाथों में आया 

नहीं धनिक को कुछ विलासिता, करने का अधिकार है 

                             (3)

ट्रस्टीशिप के पथिक राष्ट्र-श्री जमनालाल बजाज थे 

भामाशाह बने आजादी के मानो सरताज थे 

कर्मयोग यह है गीता का, प्रेरक एक विचार है 

गॉंधी जी ने दिया जगत को, ट्रस्टीशिप-उपहार है

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा, 

रामपुर

 उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

गुरुवार, 15 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य .... लाइसेंस का नवीनीकरण

         


कार्यालय में प्रवेश करके मैंने बाबू के हाथ में दस रुपए पकड़ाए और कहा " दस वर्ष के लिए मेरे लाइसेंस का नवीनीकरण कर दो।"

     बाबू ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से आया हूँ। बोला "आपको नहीं पता, अब सारा काम ऑनलाइन हो रहा है। नवीनीकरण शुल्क भी ऑनलाइन ही जमा होगा और साथ ही यह भी सुन लीजिए अब दस वर्ष का नवीनीकरण नहीं होगा। प्रत्येक वर्ष नवीनीकरण हुआ करेगा । अतः आपको केवल एक रुपया ऑनलाइन जमा कराना होगा ।"

        मैं अवाक रह गया । बोला "भाई साहब ! यह ऑनलाइन की पद्धति रुपया जमा करने के मामले में कब से शुरु हो गई ? पहले हम अच्छे - भले आते थे ,आपके हाथ में दस साल के दस रुपए पकड़ा देते थे । आप रसीद काट देते थे ..."

     बाबू ने बीच में ही बात काटी । बोला" वित्तीय मामलों में पूरी पारदर्शिता रखी जा रही है। इसी दृष्टि से सरकारी पैसा ऑनलाइन जमा होगा । बाकी चीजें मेज पर ऊपर - नीचे चलती रहेंगी । "

      मैंने कहा "चलो ठीक है ! ऑनलाइन ही जमा कर देंगे लेकिन दस साल का क्यों नहीं ?  हर साल क्यों ? "

          बाबू ने अपनी बत्तीसी निकाली और मुस्कुराते हुए कहा "हमारे घर की पुताई क्या दस साल बाद हुआ करेगी ? वह तो हर साल होनी चाहिए ? अब हम "आत्मनिर्भर" बनना चाहते हैं ।"

         मैंने कहा " आत्मनिर्भर से तुम्हारा क्या तात्पर्य है ? "

           वह बोला "अब जब प्रतिवर्ष आप का नवीनीकरण होगा , तब हमारा खर्चा- पानी हर साल निकलता रहेगा और हम सरकारी वेतन पर निर्भर न होकर आप से प्राप्त चाय-पानी के खर्चे से अपना गुजर-बसर करते रहेंगे ।"

       मैंने कहा "तुमने तो आत्मनिर्भरता की परिभाषा ही बदल दी । हम लोग कितने परेशान होते हैं ,क्या तुमने कभी सोचा ?"

         बाबू गुस्से में बोला "बहस मत करो। सरकारी दफ्तर आप लोगों की परेशानियों को सुलझाने के लिए ही तो है । अगर परेशानी नहीं होगी तो फिर हम उनका समाधान कैसे करेंगे और आपसे मेज पर बैठकर किसी निष्कर्ष पर कैसे पहुँचेंगे ?"

         मैंने कहा "अब मुझे क्या करना है?"

                 वह बोला "सबसे पहले तो आप ऑनलाइन पैसा जमा करिए ताकि नवीनीकरण आवेदन - पत्र आपके द्वारा भरा जा सके।"

      मैं भी गुस्सा गया । मैंने कहा "आप का दफ्तर दूसरी मंजिल पर है । मुझे दो जीने चढ़ने पड़ रहे हैं । मेरे घुटने बदलने का ऑपरेशन आठ महीने पहले हुआ था । जीना चढ़ना कठिन है ।"

     इस बार फिर बाबू का तेवर गर्म था । बोला "आप तो केवल दो जीने चढ़ने को ऐसे समझ रहे हैं ,जैसे स्वर्ग तक जाना और आना पड़ रहा हो । अरे ! सरकारी दफ्तर अनेक स्थानों पर तीसरी मंजिल पर हैं। वहाँ आप से ज्यादा बूढ़े और बीमार लोग जैसे-तैसे चलकर जाते हैं ।आप तो फिर भी हट्टे-कट्टे हैं । चलने में आपको क्या परेशानी है ? जीना चढ़ना तो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है । सरकार को धन्यवाद कहिए कि उसने आपको जीना चढ़ने की व्यवस्था करने के लिए दूसरे और तीसरे या चौथे तल पर सरकारी दफ्तर बना रखे हैं।"

            मैंने बहस करना उचित नहीं समझा और ऑनलाइन प्रक्रिया के द्वारा एक वर्ष का एक रुपया जमा कराने के लिए ऑटो में बैठ कर किसी कंप्यूटर केंद्र पर जाना उचित समझा। एक रुपया जमा करने में कितने पापड़ बेलने पड़े ,यह तो मैं ही जानता हूँ। अंततः रसीद लेकर सरकारी दफ्तर के नवीनीकरण कार्यालय में पहुंचा । उनको अपने पत्राजात  दिए तथा ऑनलाइन जमा करने की रसीद थमाई। कहा" अब नवीनीकरण कर दीजिए ।"

       इस बार दफ्तर पर बाबू की कुर्सी खाली थी , जो कि मैं जल्दबाजी में देख नहीं पाया था । एक दूसरे सज्जन जो थोड़ा बगल में कुर्सी डालकर बैठे हुए थे, कहने लगे "आप हमसे क्यों ऐसी बातें कर रहे हैं ? हम क्या आपको बाबू नजर आते हैं ? बाबू हमारे मित्र थे । वह चले गए हैं ।अब तो आपको कल या परसों मिलेंगे ।" मैंने उन सज्जन से क्षमा माँगी कि मैं आपको पहचान नहीं पाया क्योंकि दरअसल मैं बाबू से दस वर्ष बाद मिला हूँ। वह सज्जन बोले "इसीलिए तो सरकार ने हर वर्ष के नवीनीकरण की पद्धति निकाली है ताकि आप बाबू से मिलते - जुलते रहें और उसको पहचान जाएँ तथा किसी अन्य व्यक्ति को बाबू समझने की गलती कभी न करें।"

        खैर ,मरता क्या न करता । मैं ऑटो में बैठ कर फिर घर आया। शहर के एक छोर पर हमारा घर था तथा दूसरे छोर पर नवीनीकरण कार्यालय था। चालीस रुपए ऑटोवाला जाने के एक तरफ के लेता था तथा चालीस रुपए दूसरी तरफ के लेता था। इस तरह शुल्क का एक रुपया जमा करने के चक्कर में मेरे अस्सी रुपए बर्बाद हो गए । अगली तारीख पड़ गई।

         हम अगले दिन फिर पहुँचे । बाबू बैठे हुए थे । हम प्रसन्न हो गए। हमने कहा "लीजिए ! हमारे नवीनीकरण से संबंधित सारे पत्राजात आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं । अब नवीनीकरण सर्टिफिकेट हमें दे दीजिए।"

      बाबू ने हमें आश्चर्य से देखा और कहा "आप तो जब भी आते हैं ,बुलेट ट्रेन की रफ्तार से आते हैं । जबकि आपको पता है कि यह सरकारी कार्यालय है । यहाँ पैसेंजर के अतिरिक्त और कोई गाड़ी नहीं चलती। थोड़ा हल्के बात करिए । फाइल छोड़ जाइए। आपके कागजों का अध्ययन करके हम आपको सूचित कर देंगे ।"

         मैंने कहा "इसमें अध्ययन में रखा क्या है ? मेरा नाम है, पता है, दुकान का व्यवसाय है। नवीनीकरण में दिक्कत क्या है ?"

     वह बोले "जो भी दिक्कत है ,सब आपको बता दी जाएगी । आप हफ्ता -दस दिन बाद आकर मिल लीजिए।"

       मजबूर होकर मुझे घर लौटना पड़ा। बैरंग वापस आते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा था । मगर बहस करने का मतलब था, सरकारी कार्य में बाधा पहुंचाना और इसके लिए भारतीय दंड संहिता की अनेक धाराएँ मेरा इंतजार कर रही थीं। अतः मैं शांतिपूर्वक अपने घर आ गया ।

      दस दिन बाद मैं फिर नवीनीकरण कार्यालय में बाबू के पास उपस्थित हुआ। अब हमारी जान - पहचान काफी बढ़ने लगी थी।

   वह मुझे देख कर मुस्कुराया बोला "आप आ गए ?"

    मैंने कहा "मुझे तो आना ही था"

         वह बोला "आपके कागजों में बड़ी भारी कमी है। आपने कहीं भी अपने जिले का नाम नहीं लिखा । इन्हें दोबारा से मेरे सामने प्रस्तुत कीजिए ताकि जब भी मैं कागज खोलूँ, तब आपका जिला मेरी समझ में आ जाए।"

     मैंने कहा "आप केवल हमारे जिले का ही कार्यालय का काम सँभालते हैं । अतः जिला नहीं लिखा है तो कौन सा आसमान टूट पड़ा !  लाइए , मैं अपने हाथ से जिला लिख देता हूँ।"

       बाबू ने मेरा हाथ  पकड़ लिया, बोला  "साहब ! कैसी बातें कर रहे हैं ? टाइप किए हुए कागज में भला हाथ से कोई जिला लिख सकता है ? आप दोबारा टाइप कर के आइए। फिर से अपने हस्ताक्षर करिए और फिर मेरे पास जिला लिखवा कर कागज प्रस्तुत करें।"

           मैंने भी भन्नाकर कहा" ठीक है ,अब आप जिले को इतना महत्व देते हैं ,तब यह काम भी पूरा कर लिया जाएगा । कब आऊँ? "

        वह बोला "अभी दो-तीन दिन तो मैं व्यस्त रहूँगा ,उसके बाद आप किसी भी दिन आ जाइए।"

       मैंने कागजों को दोबारा टाइप करवाया उसमें जिला लिखवाया और अगले सप्ताह नवीनीकरण कार्यालय जाने के लिए ऑटो पकड़ा । संयोगवश ऑटो वाला पुराना था। देखते ही बोला"नवीनीकरण दफ्तर जाना है?"

      मैंने कहा "तुम्हें कैसे पता ?"

           वह बोला "हमने धूप में बाल सफेद नहीं किए । दुनिया देखी है । जो वहाँ एक बार चला गया ,समझ लीजिए दस-बारह बार  जाता है ,तब जाकर लाइसेंस का नवीनीकरण होता है ।"

     मैं उससे क्या कहता ? मैंने कहा "चलो "।दफ्तर में गए । मगर बाबू नहीं था। एक दूसरे सज्जन ने बताया "बाबू आजकल कम आ रहे हैं । आप दोपहर को साढ़े तीन बजे के करीब एक चक्कर लगा लीजिए । शायद मिल जाएँ।" 

           मैंने मूड बिगाड़ कर कहा " यहीं पर कोई होटल का कमरा किराए पर मिल जाए तो मैं यहीं पर रहना शुरू कर दूँ। बार बार क्या घर आऊँ- जाऊँ।"

             वह सज्जन मेरे जवाब को सुनकर क्रोधित हुए । कहने लगे "क्या सरकारी बाबू को और कोई काम नहीं होता ?" सज्जन के तेवर गर्म थे । मजबूर होकर मुझे फिर घर वापस लौटना पड़ा ।

      इसी तरह से बार- बार आने- जाने में छह महीने लग गए। मैं जाता था ,दफ्तर में बाबू से अपने कार्य के बारे में जानकारी लेता था , उसकी आपत्तियों का निराकरण करता था और फिर नए कागज बनाकर उसके पास पहुँचाता था । 

          एक दिन बाबू बोला "आपके कार्यों में  मुख्य आपत्ति  यह पाई गई है  कि आपने निर्धारित प्रपत्र पर  अपना विवरण जमा नहीं किया है  । बाकी चीजें तो सही हैं लेकिन प्रपत्र तो निर्धारित ही होना चाहिए  ।"

           मैंने कहा "निर्धारित प्रपत्र क्या होता है  ? कृपया मुझे  उपलब्ध करा दीजिए ? "

          वह बोला " यह तो छह नंबर वाले बाबू जी की दराज में रखे रहते हैं  । वह फिलहाल छुट्टी पर हैं। आप उनसे मिलकर निर्धारित प्रपत्र ले लीजिए और जमा कर दीजिए । आप का नवीनीकरण हो जाएगा ।" 

         मैंने कई चक्कर काटकर मेज नंबर छह के बाबू को तलाश किया, उससे निर्धारित प्रपत्र मुँहमाँगे दाम पर अपने कब्जे में लिए , लिखा, भरा और संबंधित बाबू को उसके हाथ में देकर आया । पूछा "अब तो नवीनीकरण सर्टिफिकेट दे दो भैया ! "

        उत्तर में वही ढाक के तीन पात रहे। नवीनीकरण नहीं हो कर दिया । उसके बाद से दसियों  बार नवीनीकरण कार्यालय गया लेकिन हर बार यही जवाब मिलता है -" आपके कागजों की उच्च स्तरीय जाँच की जा रही है तथा आपत्तियाँ भेज दी जाएँगी।"

          स्टेटस-रिपोर्ट यह है कि धीरे-धीरे एक साल बीतने लगा है । एक वर्षीय नवीनीकरण शुल्क का एक रुपया सरकार के खाते में मेरे द्वारा जमा हो चुका है । मेरे सैकड़ों रुपए आने- जाने तथा दफ्तर के चक्कर काटने में बर्बाद हो गए हैं । न जाने कितने कार्य-दिवस मैं खर्च कर चुका हूँ। दो जीने उतरते -चढ़ते  अब  जीने की इच्छा ही समाप्त हो चुकी है । अभी तक नवीनीकरण नहीं हुआ ।

 ✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा 

 रामपुर

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल 9997615451

बुधवार, 7 सितंबर 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य .....फीता काटने की कला


 फीता काटना एक कला है । जब कोई दस-बीस जगह जाकर तरह-तरह के लोगों को फीता काटते हुए देखता है और केवल देखता ही नहीं है, गहराई से उसका निरीक्षण करता है तथा अपना सारा चिंतन फीता काटने में लगा देता है, तब उसे फीता काटने के वास्तविक महात्म्य का पता चलता है । अन्यथा ज्यादातर लोग फीता काटने के लिए जाते हैं और कैंची हाथ में जैसे ही उन्हें पकड़ाई जाती है, वह फीता काट देते हैं । जबकि यह इतनी सरल और सीधी-सादी प्रक्रिया नहीं होती है ।

                 फीता काटने से पहले आदमी को चारों तरफ गर्व से सिर उठाकर देखना चाहिए । एक नजर फीते की ओर, दूसरी नजर चारों तरफ उपस्थित भीड़ की ओर । अगल-बगल-पीछे सब को देखने के बाद उसे कैंची हाथ में लेने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए अर्थात कैंची को बहुत नाजुक तरीके से हाथ में उठाना होता है । इसमें कभी भी अपनी उतावलेपन की भावना को प्रकट नहीं होने देना चाहिए । वरना मामला बिगड़ जाता है । भीतर भले ही कैंची को झटपट प्लेट से उठाकर फीता काटने की ऑंधियॉं चल रही हों, लेकिन व्यक्ति की कलात्मकता इसी में है कि वह मंद मंद मुस्कुराते हुए धीरे-धीरे कैची को प्लेट से उठाए और हल्के-हल्के फीते तक ले जाए।

          बस यहॉं आकर थोड़ा-सा रुकने की जरूरत है । अभी आपको फीता नहीं काटना है। कुछ लोग इसी समय अपना हाथ आपकी कैंची की तरफ बढ़ाने के उत्सुक होंगे । उन्हें जबरन पीछे धकेलने की कला आपको आनी चाहिए । यह बात सुनिश्चित कर लीजिए कि कैंची अकेले आपके हाथों में ही सुशोभित होनी चाहिए। अगर अगल-बगल के दो लोगों ने भी कैंची को स्पर्श कर लिया, तो समझ लीजिए कि आप का श्रेय एक तिहाई रह जाएगा। कल को जब इतिहास लिखा जाएगा, तब फोटो को सबूत के तौर पर कोई भी प्रस्तुत करके यह कह सकता है कि फीता तीन लोगों ने काटा है । तब आप क्या करेंगे ? सिवाय हाथ मलने के कुछ नहीं बचेगा ? 

            इसलिए कैंची को अपने शरीर के बीचो-बीच बिल्कुल सुरक्षित पोजीशन में रखिए । कैमरे की तरफ ध्यान अवश्य दें, लेकिन कैंची को चिंतन की धारा से बाहर न जाने दें। परोक्ष रूप से ध्यान पूर्णतः फीते पर ही रहना चाहिए । जरा सोचिए ! कितने उखाड़-पछाड़ के बाद फीता काटने का सौभाग्य जीवन में आता है ! कितने पापड़ बेले ! कितनी सिफारिशें पड़वाईं ! क्या-क्या सौदे नहीं किए ! न जाने कितने वायदों के बाद फीता काटने की मंजूरी मिल पाती है ! फीता काटने की दौड़ में अनेक प्रतियोगी लगे रहते हैं । एक अनार, सौ बीमार । जिसे फीता काटने का सौभाग्य मिल जाता है, सचमुच अपने आप को धन्य मानता है । दौड़ में एक को ही विजयश्री प्राप्त होती है । बाकी मन-मसोसकर रह जाते हैं कि यह जो फीता काटने का सौभाग्य अमुक को मिला है, काश हमें मिल जाता ! अगर दांव लग जाता तो हम भी फीता काट रहे होते! 

✍️ रवि प्रकाश

बाजार सर्राफा 

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

मुरादाबाद मण्डल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----अधिकारी की जय हो

 


बिना अधिकारी के मंत्री की क्या मजाल कि एक फाइल भी तैयार करके आगे बढ़ा दे ! जब मंत्री पदभार ग्रहण करता है तब अधिकारी उसे अपने कंधे का सहारा देकर मंत्रालय की कुर्सी  पर बिठाता है । झुक कर प्रणाम करता है और कहता है "माई बाप ! आप जो आदेश करेंगे ,हमारा काम उसका पालन सुनिश्चित करना है ।"

     मंत्री इतनी चमचामय भाषा को सुनकर अपने आप को डोंगा समझने लगता है और इस तरह अधिकारी चमचागिरी करके मंत्री रूपी डोंगे के भीतर तक अपनी पहुँच बना लेता है । 

           मंत्रियों की टोपी का रंग नीला , पीला ,हरा ,लाल बदलता रहता है लेकिन अधिकारी का पूरा शरीर गिरगिटिया रंग का होता है । जो मंत्री की टोपी का रंग होता है, वैसा ही अधिकारी के पूरे शरीर का रंग हो जाता है । पार्टी में दस-बीस साल तक धरना - प्रदर्शन - जिंदाबाद - मुर्दाबाद कहने वाला कार्यकर्ता भी अधिकारी के मुकाबले में नौटंकी नहीं कर सकता । कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा टोपी पहन लेगा लेकिन अधिकारी का तो पूरा शरीर ही टोपी के रंग में रँगा होता है । अधिकारी मंत्री को यह विश्वास दिला देता है कि हम आप की विचारधारा के सच्चे समर्थक हैं और हम आपकी पार्टी को अगले चुनाव में विजय अवश्य दिलाएंगे । 

             मंत्री को क्या पता कि कानून कैसे बनता है ? वह तो केवल फाइल के ऊपर लोक-लुभावने नारे का स्टिकर चिपकाने में रुचि रखता है । भीतर की सारी सामग्री अधिकारी बनाता है । मंत्री के सामने मंत्री के मनवांछित स्टिकर के साथ फाइल प्रस्तुत करता है । इसलिए फाइलों में स्टिकर बदल जाते हैं ,नारे नए गढ़े जाते हैं ,महापुरुषों के चित्रों में फेरबदल हो जाती है लेकिन सभी नियमों का प्रारूप अधिकारियों की मनमानी को पुष्ट करने वाला ही बनता है । अधिकारी अपने बुद्धि चातुर्य से कानून का ऐसा मकड़ी का जाल बनाते हैं कि जनता रूपी ग्राहक उनके पास शरण लेने के लिए आने पर मजबूर हो जाता है और फिर उनकी मनमानियों का शिकार बन ही जाता है। मंत्रियों को तो केवल उस झंडे से मतलब है जो अधिनियम की फाइल के ऊपर लहरा रहा होता है । अधिकारी घाट-घाट का पानी पिए हुए होता है । उसे मालूम है कि यह झंडे -नारे सब बेकार की चीजें हैं । इन में क्या रखा है ? 

      असली चीज है अधिनियम की ड्राफ्टिंग अर्थात प्रारूप को बनाना । उसमें ऐसे प्रावधानों को प्रविष्ट कर देना कि लोग अफसरशाही से तौबा-तौबा कर लें । अधिकारियों की तानाशाही और उनकी मनमानी के सम्मुख दंडवत प्रणाम करने में ही अपनी ख़ैरियत समझें । परिणाम यह होता है कि मंत्री जी समझते हैं कि रामराज्य आ गया ,समाजवाद आ गया ,सर्वहारा की तानाशाही स्थापित हो गई । लेकिन दरअसल राज तो अधिकारी का ही चलता है । अधिनियम में जो घुमावदार मोड़ उसने बना दिए हैं , वहाँ रुक कर अधिकारी को प्रसन्न किए बिना सर्वसाधारण आगे नहीं बढ़ सकता। अधिकारी इस देश का सत्य है । मंत्री अधिक से अधिक अर्ध-सत्य है । अर्धसत्य फाइल का कवर है । सत्य फाइल के भीतर की सामग्री है ,जो अंततः विजयी होती है । इसी को "सत्यमेव जयते" कहते हैं ।

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा

 रामपुर

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल 99976 15451