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रविवार, 16 मार्च 2025

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ आर सी शुक्ल की काव्य कृति ....एक छोटा आदमी बड़ा हो ही नहीं सकता की राजीव सक्सेना द्वारा की गई समीक्षा ....कविताओं के जरिए बिखरे सामाजिक यथार्थ की पड़ताल

 पुरुष कितना भी बड़ा हो जाये

  स्त्री से छोटा ही रहेगा

  स्त्री उसकी माँ है .....

  इन कालजयी पंक्तियों के रचनाकार हैं मुरादाबाद  के वरिष्ठ कवि -   डॉ राजेश चन्द्र शुक्ल। हिंदी -अंग्रेजी में अनक़रीब बीस कविता संग्रहों के  रचनाकार  शुक्ल जी केवल पीतल नगरी के ही नहीं बल्कि देश के उन चुनिंदा कवियों में से हैं जो अपने विशद रचनाकर्म के जरिये एक बड़े कैनवास पर 'यथार्थ की रचना  और पुनर्रचना ' करते हैं। इसका जीवंत प्रमाण है उनका सद्य प्रकाशित कविता संकलन --'एक छोटा आदमी कभी बड़ा हो ही नहीं सकता'

  संकलन की कविताओं में शुक्ल जी एक 'जेनुइन' अथवा खाँटी कवि के तौर पर हमारे आसपास के यानी समाज के बिखरे हुए और प्रायः अनचीन्हे यथार्थ की व्यापकता और गहनता से  ही नहीं बल्कि क्वांटम स्तर पड़ताल करते हैं। दरअसल,कविता केवल यथार्थ की पड़ताल ही नहीं हैं बल्कि उसकी रचना और पुनर्रचना भी है।प्रस्तुत संकलन  में  सर्वत्र यही प्रयत्न कवि शुक्ल जी ने पूरी ईमानदारी से किया है। तभी उन्होंने  अपनी अधिकांश कविताओं के विम्ब अपने आसपास के परिवेश और सामान्य जनजीवन से उठाए हैं।प्रस्तुत संकलन की कविताओं के विम्ब और विषय किसी वायवी या रहस्यलोक की सृष्टि नहीं है बल्कि हमारे सामने के यथार्थलोक की सृष्टि ही अधिक हैं। संकलन की भूमिका में कवि शुक्ल जी स्वयं कहते हैं --"कवि के रूप में मैंने चील की तरह ऊँचे आकाश में उड़ने का प्रयास कभी नहीं किया है..."

  कवि शुक्ल कविता संकलन की एक कविता में समाज की विसंगतियों , विद्रूपों  और मनुष्य की नियति पर निर्ममतापूर्वक प्रहार करते हुए कहते हैं --

 कथावाचक खूब सुनाते हैं ऐसी कहानियां

 कि पूजा --पाठ करने से

बदल सकती है आदमी की हैसियत

किन्तु यह सच नहीं है

अंधविश्वासों की मदिरा 

पिलाई जा रही है गरीबों को सदियों से....

  संकलन की संभवतया सबसे तीखी कविता--'रिक्शावाला ' में शुक्ल जी एक विचलित कर देने वाले यथार्थ को उद्घाटित करते हुए कहते हैं--

  तुम हर वक्त

  जूझते रहते हो ऐसे प्रश्नों से

  जिनका कोई हल

  नहीं है तुम्हारे पास

  रिक्शावाला प्रश्न नहीं करता

  किसी मुसीबत के आने पर .....

  अगर कवि शुक्ल जी ने निरंतर क्षरणशील समाज और उसके छिन्न -भिन्न  हो रहे ताने -बाने को अपनी कविताओं का विषय बनाया है तो  अपनी स्त्री विषयक कविताओं में'पछाड़ खाती स्त्री ' को  एक नए आलोक और जीवन संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर स्त्री विमर्श और उसकी मूल संवेदना की अनदेखी भी नहीं की है।स्त्री को लेकर कवि शुक्ल जी ने सचमुच अनूठे विम्ब रचे हैं।

  कभी कथाकार राजेन्द्र यादव ने 'कविता के अंत ' की घोषणा की थी किन्तु प्रभात प्रकाशन प्रकाशन बरेली से प्रकाशित कवि राजेश चन्द्र शुक्ल का यह कविता संकलन न केवल कविता की जययात्रा में सृजनात्मकता के नए प्रस्थान बिंदु उपस्थित करता है अपितु कविता में एक आम पाठक की रुचि और उसके विश्वास को भी  बहाल करता है।कुछ नया पढ़ने और  कुछ क्षण ठहरकर सोचने की दृष्टि से यह काव्य संकलन  पाठकों को निराश नहीं करेगा।



कृति :  एक छोटा आदमी बड़ा हो ही नहीं सकता (काव्य संग्रह)

कवि : आर सी शुक्ल

प्रकाशन वर्ष : 2024

मूल्य : 550₹ 

प्रकाशक : प्रकाश बुक डिपो, बड़ा बाजार, बरेली 243003 

समीक्षक: राजीव सक्सेना, डिप्टी गंज, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत। मोबाइल फोन नंबर 94126 77565 ई - मेल -rajjeevsaxenaa @ gmail.com

बुधवार, 9 अक्टूबर 2024

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से छह अक्टूबर 2024 को साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा के दोहा-संग्रह 'उगें हरे संवाद' पर चर्चा-गोष्ठी का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से रविवार छह अक्टूबर 2024 को  साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा के दोहा-संग्रह 'उगें हरे संवाद' पर  चर्चा-गोष्ठी का आयोजन किया गया। यह आयोजन मिलन विहार स्थित आकांक्षा इंटर कॉलेज में हुआ।

    मीनाक्षी ठाकुर द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ. अजय अनुपम ने कहा- "व्योमजी का दोहा-संग्रह 'उगें हरे संवाद' हमें नए स्वस्थ वैचारिक समाज का सशक्त घटक बनाने का पौष्टिक च्यवनप्राश है। उज्ज्वल भविष्य के प्रेरक दोहे समाज को सही दिशा दिखाने में पूर्णतया सक्षम हैं।" 

मुख्य अतिथि राजीव सक्सेना का कहना था - "दोहा जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण छंद को आम व्यक्ति की समस्याओं से जोड़ने में 'उगें हरे संवाद' एक दस्तावेज़ सिद्ध होगी। आने वाले समय में वह इस छंद को और भी अधिक ऊंचाई तक ले जायेंगे।" 

  विशिष्ट अतिथि के रूप में अशोक विश्नोई ने कहा  "व्योम  जी के दोहे वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण करते हैं।" विशिष्ट अतिथि ओंकार सिंह ओंकार ने भी दोहा संग्रह को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि बताया।

 कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजीव प्रखर  का कहना था - "समस्या मूलक इन सभी दोहों की यह विशेषता है कि ये समस्या के मात्र तात्कालिक स्वरुप को ही इंगित नहीं करते अपितु कालांतर में वह समस्या क्या एवं कितना विस्तार ले सकती है, इस ओर भी संकेत कर जाते हैं। यही कारण है कि उच्च-स्तरीय बिंबों में गुॅंथा यह दोहा-संग्रह वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की हलचल को भी पाठकों के सम्मुख रख देता है।" 

  ज़िया ज़मीर ने कहा- "व्योमजी के यहां नवगीतों की अपेक्षा दोहों में मुखरता और कटाक्ष अधिक दिखाई देता है और विषयों की विविधता भी। यहां उनका लहजा तीखा भी है और धारदार भी। कहीं-कहीं भाषा शैली क्लिष्ट होने के बावजूद ये दोहे अपना अर्थ स्पष्ट कर जाते हैं।"  

मीनाक्षी ठाकुर ने कहा - "व्योम जी इन दोहों में समाज को आईना भी दिखाते हैं और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ पारिवारिक रिश्तों में मिठास और सामाजिक-संबंधो में उल्लास बनाये रखने की पैरवी भी करते हैं, यही उनके दोहों की आत्मा है।" 

    मनोज मनु ने कहा - "इंटरनेट के इस त्वरित युग में, जहाँ सभी को शीघ्र ही बात के सार तक पहुंचने की तत्परता रहती है, ऐसे समय में व्योम जी का नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में स्थापित होते हुए भी 'गागर में सागर' भरती विधा "दोहा" द्वारा अपनी सारगर्भित बात को नई पीढ़ी तक कम शब्दों में पहुंचाने का माध्यम बनाना उनके दूरदर्शी नज़रिए से भी साक्षात्कार करवाता है।"    

     अंकित गुप्ता अंक ने कहा - "व्योम जी अपनी रचनाओं में सदैव ही दुरूह और भारी-भरकम शब्दों के प्रयोग से बचते रहे हैं और उनकी यह विशेषता पुस्तक में सर्वत्र परिलक्षित होती है‌"।        

    हेमा तिवारी भट्ट द्वारा लिखित समीक्षा का पाठ करते हुए मीनाक्षी ठाकुर ने कहा - "प्रस्तुत दोहा संग्रह में लगभग सभी समकालीन विषयों यथा भ्रष्टाचार, राजनैतिक पतन, गरीबी, मातृभाषा हिन्दी की स्थिति, मंचीय लफ्फाजी, कविता की स्थिति, पारिवारिक विघटन, आभासी सोशल मीडिया युग, चाटुकारिता और स्वार्थपरता जैसे विविध विषयों पर कवि द्वारा अपने उद्गार अपनी विशिष्ट दृष्टि के पैरहन पहनाकर प्रस्तुत किये गये हैं।" 

     विवेक निर्मल ने उक्त कृति पर आधारित सुंदर दोहों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति की‌। उपरोक्त वक्ताओं के अतिरिक्त जितेन्द्र जौली, राहुल शर्मा, पदम बेचैन, फक्कड़ मुरादाबादी, नकुल त्यागी, डॉ. पूनम गुप्ता, योगेन्द्र पाल विश्नोई, रामदत्त द्विवेदी आदि ने भी संग्रह की उपयोगिता तथा श्री व्योम के दोहा-सृजन पर प्रकाश डाला।       

      कार्यक्रम  में दोहा-पाठ करते हुए चर्चित कृति के रचनाकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने कहा - 

मिल-जुलकर हम-तुम चलो, ऐसा करें उपाय। 

अपनेपन की लघुकथा, उपन्यास बन जाय।। 

धन-पद-बल की हो अगर, भीतर कुछ तासीर। 

जीकर देखो एक दिन, वृद्धाश्रम की पीर।। 

कथनी तो कुछ और पर, करनी है कुछ और। 

इस युग का सिरमौर है, दुहरेपन का दौर।। 

बदल रामलीला गई, बदल गये अहसास।

 राम आजकल दे रहे, दशरथ को वनवास।। 

जितेन्द्र जौली ने आभार अभिव्यक्त किया। 

































सोमवार, 19 अगस्त 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी के ग़ज़ल संग्रह “धूप पर कुहरा बुना है" की प्रयागराज के साहित्यकार यश मालवीय द्वारा लिखी भूमिका.....आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए । यह संग्रह श्वेतवर्णा प्रकाशन,नई दिल्ली ने वर्ष 2024 में प्रकाशित किया है।


अभी-अभी हिन्दी नवगीतों का एक भरा-पूरा प्रतिमान रचकर माहेश्वर तिवारी जी नेपथ्य में गए हैं। अभी उनके बहुत कुछ लिखे हुए की स्याही भी नहीं सूखी है। उनकी सागर मुद्राएँ याद आ रही हैं और याद आ रहा है निर्मल नदी का झरना। आत्मा का अनंत उजास याद आ रहा है। सिर पर धवलकेशी बर्फ़ सजाए हिन्दी की गीत कविता का यह पर्वत क्या कभी भुलाया जा सकेगा? अपनी सज-धज में वह एकदम कविवर सुमित्रानंदन पंत जैसे दिखने लगे थे। वैसा ही बालसुलभ अंतर्मन को भिगो देने वाला व्यवहार और वैसा ही सराबोर कर देने वाला वात्सल्य। मैं और योगेंद्र वर्मा व्योम तो उनके बेटे जैसे ही रहे, उनकी दुआओं की बारिश में तर-ब-तर रहे।

माहेश्वर जी बड़ी संजीदगी के साथ नवगीत की सर्जना करते हुए, ख़ामोशी पहने ग़ज़लें भी कहते रहे। ये ग़ज़लें उनके नवगीतों के महासागर में उग आए नन्हे-नन्हे द्वीपों जैसी हैं और हैरत में डालती हैं। भरपूर कथ्य, सामाजिक और मानवीय सरोकार, संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन से लबरेज़ यह ग़ज़लें अपने शिल्प में भी अद्भुत रूप से कसी हुई हैं। कथ्य के गहरे दबाव के बाद भी उन्होंने कहीं भी शिल्प से समझौता नहीं किया है, बल्कि उसके व्याकरण की तह में भी उतरे हैं। यह सब कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि अधिकांश नवगीतकारों की तरह वो किसी फैशन के तहत ग़ज़लें नहीं कह रहे थे। उन्हें इन ग़ज़लों को प्रकाश में लाने की न कोई हड़बड़ी थी और न ही अधैर्य। वो इन ग़ज़लों को मद्धिम आँच में, बहुत धीरज के साथ पका रहे थे। उन्हें इनसे मंच भी नहीं लूटना था, इस काम के लिए उनके गीत ही काफ़ी थे। उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम था कि जिस शहर में रहकर वो रचनाकर्म कर रहे हैं, वहाँ शायरे आजम जिगर मुरादाबादी भी क़याम करते थे।

कैसी प्यारी-सी बात है, आज मुरादाबाद अगर जिगर मुरादाबादी के नाम से जाना जाता है, तो माहेश्वर तिवारी भी उसकी पहचान से जुड़ते हैं। वो इस शहर के पर्याय भी हो गए थे। मुरादाबाद का नाम आने के साथ उँगली के पोरों पर सबसे पहला नाम माहेश्वर जी का ही आता है। यह बात एक बार फिर प्रमाणित हो गई, उनके महाप्रयाण से। पूरा शहर ही विह्वल हो उठा था उनके जाने पर। गलियाँ, सड़कें तक उदास लग रही थीं। समाचारपत्रों के पृष्ठ के पृष्ठ रंग उठे थे। टी.वी. चैनल, दूरदर्शन, रेडियो सभी पर माहेश्वर जी का रेशमी लेकिन मेघमंद्र स्वर गूँज रहा था। सारा शहर बिलख रहा था अपने इस लाडले कवि को खोकर। ऐसा तो होना ही था, निराला का वंशज, नवगीत का अधिष्ठाता, एक बड़ा अनुगायक मौन हो गया था, वाणी का वरदपुत्र शांत हो गया था। पीतलनगरी का स्वर्णकलश समय के जल में तिरोहित हो, कण-कण में व्याप्त हो गया था।

माहेश्वर जी जीवन भर घूमते ही रहे, कहते थे कि कवि तो आप अपने कमरे में बैठकर भी हो सकते हैं, पर छंद की कविता के लिए आपको जंगल, नदी, तालाब, पर्वत, समंदर, मरुस्थल हर जगह की आवारगी करनी होती है। स्वयं माहेश्वर जी बस्ती, इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस, विदिशा, होशंगाबाद होते हुए मुरादाबाद पहुँचे थे। बहुत दिनों तक उनका पता शनीचरा, होशंगाबाद वाला विनोद निगम का जो पता था, वही पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा। वहाँ वह भवानीप्रसाद मिश्र, शलभश्रीराम सिंह, विजयबहादुर सिंह सरीखों के अन्यतम रहे। इसी बीच उनका अपने उपनाम शलभ से मोहभंग हुआ और उन्होंने उसे त्याग दिया। कवि सम्मेलनों में वो छंद की अलख जगाते रहे। पत्र-पत्रिकाओं और काव्य मंचों के बीच आवाजाही करते रहे, एक पुल की तरह ही झूलते रहे। धर्मयुग के पृष्ठों से लेकर कविता के मंचों तक उनकी धूम रही। कवि सम्मेलनों और गंगाजमुनी मुशायरों के लिए हमेशा उनकी अटैची तैयार रहती थी। शायद इसीलिए कैलाश गौतम उन्हें हिन्दी कविता का राहुल सांकृत्यायन कहा करते थे।

माहेश्वर जी अपने नवगीतों के साथ समानांतर रूप से लगातार ग़ज़लें भी कहते रहे थे। एक दिन में ही तो ये इक्यानवे ग़ज़लें हो नहीं गईं। उनके लिए हमेशा कथ्य महत्वपूर्ण रहा, फार्म भले ही कोई हो लेकिन वह समय नवगीत की स्थापना का समय था और वो फोकस भी उसी पर रखना चाह रहे थे। एक रचनाकार की छटपटाहट के चलते बस वो ग़ज़लें भी कह कहकर चुपचाप सँजोते जा रहे थे। नवगीत की स्थापना और इस विधा विशेष में अपनी सिद्धि के बाद इधर के दिनों में उन्हें लगने लगा था कि अब वो सारी ग़ज़लें भी आ ही जाएँ। बीच-बीच में मैं भी ग़ज़लें कहता था और उन्हें सुनाकर संतुष्ट हो जाता था। एक बार उन्होंने कहा था कि देखो पिचकारी दो तरह की होती है, एक तो बड़े से छिद्र वाली होती है, जिससे धार के साथ रंग निकलते हैं और एक होती है, जिसमें कई छिद्र होते हैं, उससे फुहार की शक्ल में रंग निकलते हैं। अब ये तुम्हें तय करना है कि धार बनना है कि फुहार बनकर बिखर जाना है। कितनी क़ीमती बात थी यह। वो अपने संदर्भ में भी जब नवगीत की पूरी तरह से धार बन गए तो फिर सहज ही उनका ध्यान धारदार कही गई अपनी ग़ज़लों की तरफ़ गया।

माहेश्वर जी की सृजनात्मक अनिवार्यता रही, उनकी सहधर्मिणी बालसुंदरी जी। शिव-पार्वती समान दंपति का साहित्य और संगीत का मणिकांचन योग रहा। नवगीतों की ही तरह ग़ज़लों की प्रेरणा भी बालसुंदरी जी ही रहीं। अक्सर वो ही माहेश्वर जी की रचनाओं की प्रथम श्रोता हुआ करती थीं। बहरहाल! अब उन्हें इन ग़ज़लों के माध्यम से नए सिरे से जानना, अनुभव करना और जीना एक नितान्त भिन्न आस्वाद दे रहा है। इन ग़ज़लों में प्रखर राजनैतिक तेवर के साथ, गहरी सामाजिक चिंताओं का निरूपण आंदोलित-उद्वेलित कर रहा है। हताशाओं-निराशाओं के बीच भी कवि उम्मीद की टिमटिमाती हुई लौ जगाए रखता है। उनकी बेहद मक़बूल हुई इस ग़ज़ल का मतला और यह शेर देखिए-

सिर्फ़ तिनके-सा न दाँतों में दबाकर देखिए

इस सदी का गीत हूँ मैं गुनगुनाकर देखिए

एक हरकत पर अँधेरा काँप जाएगा अभी

आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए

वास्तव में माहेश्वर जी इस सदी का गीत ही हैं और अब इस ग़ज़ल संग्रह के मंज़रे-आम पर आने के बाद यह भी बेझिझक कहा जा सकता है कि इस सदी की ग़ज़ल भी उनकी क़लम में पनाह माँगती है। एक जुझारू आवाज़, एक लड़ती हुई रचना-भंगिमा ही उनकी सर्जना का सच है। एक तरफ़ यह आक्रामक तेवर है तो दूसरी तरफ़ सांद्र संवेदना की यह विरल अभिव्यक्ति भी है, सरापा ग़ज़ल ही मन की शाखें हिलाकर रख देती है-

आप भी क्या गए दिन अँधेरे हुए

काम जो थे सवेरे-सवेरे हुए


टूटती थी हमीं पर सभी बिजलियाँ

डाल के फूल-पत्ते लुटेरे हुए


रेत पर तिलमिलाती रही देर तक

याद मछली हुई दिन मछेरे हुए


एक तिनका हवा में उड़ा देर तक

रात वीरानियों में बसेरे हुए


शाम तक होंठ में बंद थीं हिचकियाँ

चाँद-तारे सवालात मेरे हुए

माहेश्वर जी के जाने से सचमुच लग रहा है जैसे दिन अँधेरे हुए लेकिन इसी भारी समय में उनके ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशन से यह भी महसूस हो रहा है कि दबे पैरों से उजाला आ रहा है और यह भी लग रहा है जैसे तीन सवा तीन महीनों की लम्बी यात्रा से जैसे वो घर लौट रहे हैं, फूल फिर कनेरों में आ रहे हैं। नवगीतों की बिंबधर्मिता से अलग है, इन ग़ज़लों का सीधा संवाद, वैसे रेत और मछली उनके मन के बहुत करीब के बिम्ब हैं, उनके गीत का एक मुखड़ा भी याद आता है-

रेत के स्वप्न आते रहे

और हम मछलियों की तरह

नींद में छटपटाते रहे

यह सब लिखते हुए उनकी याद भी मछली हुई जा रही है। पिता उमाकांत मालवीय के जाने के बाद, माहेश्वर जी का जाना, मेरे लिए दुबारा अनाथ होने जैसा है। माहेश्वर जी के रचनाकर्म में घूम फिर कर घर आता है, अपने एक नवगीत में वो कहते हैं- ‘धूप में जब भी जले हैं पाँव, घर की याद आई’, तो ग़ज़ल में कहते हैं-

बैठे हुए नक्शे में नगर ढूँढ रहे हैं 

इस दौर में हम अपना ही घर ढूँढ रहे हैं 

मकते तक आते आते यह ग़ज़ल और भी मार्मिक हो उठती है, जब वो कहते हैं-

जंगल को जलाया था जिन्होंने वही सब लोग

अब झुलसी हुई चिड़िया के पर ढूँढ रहे हैं

माहेश्वर जी की ग़ज़लों में ढूँढे से भी यथार्थ का सरलीकरण नहीं मिलता, अलबत्ता वो जटिल अनुभूतियों की सरल अभिव्यक्ति ही देते आए हैं। अपने सर्जक के प्रति प्रारम्भ से ही एक वीतराग उनमें लक्षित किया जा सकता है। एक ग़ज़लगो के रूप में उन्हें देखना एक सुखद एहसास से भर देता है, अपने नवगीतकार की छाया वो अपने ग़ज़लकार पर नहीं पड़ने देते। जब वो नवगीत रचते हैं तो नवगीत रचते हैं और जब ग़ज़ल कहते हैं तो बस ग़ज़ल कहते हैं। अधिकतर नवगीतकारों की तरह वो ग़ज़ल में नवगीत नहीं रचते। अपना रचना शिल्प ही तोड़ते चलते हैं। किसी कवि के लिए अपना खांचा और सांचा तोड़ना ही बहुत दुश्वार होता है।

माहेश्वर जी ने यह काम बख़ूबी किया है। एक फ़क़ीराना ठाठ और ठेठ कवि की ठसक उनमें क्रमशः गहराती चली गई है। भाषा में एक सधुक्कड़ी मिज़ाज आता चला गया है। एक जेनुइन रचनाकार की परिभाषा अगर देनी हो तो माहेश्वर जी का नाम ही ले लेना काफ़ी होगा। वो सिर से पाँव तक कवि थे। एक कवि को कैसा लिखना चाहिए और कैसा दिखना चाहिए, इन दोनों मामलों में वो अपने आप में एक नज़ीर थे। उन्हें कोई एक नज़र देखकर ही कवि समझ लेता था, हालांकि उन्होंने कभी कवि होने का लाइसेंस नहीं लिया। वो जन्मना कवि थे। कविता ही ओढ़ते-बिछाते थे। छंदों की नई-नई गलियाँ अन्वेषित करते थे। जिस तरह उन्होंने अपने नवगीतों में छंदों के विविध प्रयोग किए हैं, उसी तरह अपनी ग़ज़लों में छोटी बड़ी-कई तरह की बहरों का इस्तेमाल किया। उनकी ग़ज़लों में रदीफें पूरी तरह से चस्पा होकर आती हैं, कहीं भी हैंग नहीं करतीं, तिलभर भी लटकती नहीं, उनका अपना जस्टिफिकेशन होता है। तुक या काफ़िए भी पूरे तर्क के साथ मौजूद मिलते हैं, तभी तो उनकी ग़ज़लों का अपना एक मुहावरा बन पाया है, वो कहते हैं- 

हमको बातों से बहलाना मुश्किल है

निहुरे निहुरे ऊँट चुराना मुश्किल है


समझ गए हम क्या होता है सूरज का

हमको जगनू से बहलाना मुश्किल है

यह उस्तादना रंग संग्रह की बेशतर ग़ज़लों में है, जहाँ वह समय की एक कुशल चिकित्सक की तरह शल्य क्रिया कर रहे होते हैं, पड़ताल कर रहे होते हैं दुनिया जहान की और कविता और जीवन के बीच की खाई पाट रहे होते हैं, जीवन और जगत को नए अर्थ दे रहे होते हैं। ऐसी ही सघन अर्थवत्ता से जुड़े, उनकी ग़ज़लों के कुछ ख़ास शेर इस तरह से हैं-

भर गई है आँख रो लें हम चलो

घाव सारे आज धो लें हम चलो


आँधियों की जाँघ पर दो पल ज़रा 

सिर टिकाए आज सो लें हम चलो 

चिड़िया भी उनके गीतों और ग़ज़लों में रह रहकर फेरा लगाती है, यह मार्मिक शेर देखें -

ख़ून आँखों में भर गई चिड़िया 

काम चुपचाप कर गई चिड़िया


फिर किसी हुक्मरां के पाँवों में 

कार से दब के मर गई चिड़िया 

और यह बेकली भी काबिले गौर है-

हर ओर सुलगते हुए अंगारे बिछे हैं 

कोई तो मिले पानी के बरताव का हामी 

तेंदुआ रदीफ़ से सजी इस ग़ज़ल का विलक्षण मतला और यह दो शेर भी देखें। पूरी ग़ज़ल, ग़ज़ल क्या एक मुकम्मल पेंटिंग है-

सरसराहट घास की पहचानता है तेंदुआ 

और इकदम जिस्म अपना तानता है तेंदुआ

 

घनी झाड़ी में कहीं चुपचाप दुबका हो मगर

तेज़ चौकन्नी निगाहें छानता है तेंदुआ


किस तरह छिपकर कहाँ किसको दबोचा जाएगा

यह बहुत अच्छी तरह से जानता है तेंदुआ 

यह कमाल अपने एक नवगीत में भी माहेश्वर जी ने पूरी शिद्दत के साथ अंजाम दिया है, वो कहते हैं-

अगले घुटने मोड़े 

झाग उगलते घोड़े

जबड़ों में कसती वल्गाएँ हैं, मैं हूँ

भोपाल के नवगीत समारोह में स्वयं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कलाकार स्वामीनाथन जी ने इन पंक्तियों को एक ख़ूबसूरत पेंटिंग की संज्ञा दी थी।

निश्चित ही उनकी ग़ज़लों के संग्रह का प्रकाशन एक बड़ी परिघटना है और समकालीन ग़ज़ल विधा में एक बड़ा इज़ाफ़ा है। अफसोस कि यह कारनामा देखने के लिए स्वयं माहेश्वर जी ही अब हमारे बीच नहीं हैं। बावजूद इस तकलीफ़ के मैं प्रसिद्ध कथालेखिका कृष्णा सोबती के इस कथन पर गहरा यक़ीन रखता हूँ, जिसमें वह कहती हैं कि ‘लेखक की एक ज़िन्दगी उसकी मौत के बाद शुरू होती है।’ माहेश्वर तिवारी इस ग़ज़ल संग्रह के माध्यम से जैसे फिर हमारे बीच लौट रहे हैं, नए सिरे से ज़िन्दा हो रहे हैं। अभी तो बस यही लगता है कि कल ही शाम तो उनका फोन आया था, पूछ रहे थे- बेटा कैसे हो ? अहमद फराज़ का एक शेर बहुत देर से ज़ेहन पर दस्तक दे रहा है-

दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे

जैसे अब भी तेरी आवाज़ मेरे कान में है

 


✍️ यश मालवीय

‘रामेश्वरम’

ए-111, मेंहदौरी कॉलोनी,

प्रयागराज- 211004, उ0प्र0

मोबाइल- 6307557229

मंगलवार, 2 जुलाई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के अभिनव गीत-संग्रह “गीतों के भी घर होते हैं” की डॉ काव्य सौरभ जैमिनी द्वारा की गई समीक्षा .... संवेदनशीलता को बचाने की मुहिम में सशक्त आवाज

  आभासी दुनिया के इस युग में गीत की गरिमा को जीवित रखना एक दुष्कर कार्य है। समय की मांग के अनुसार चल कर ही गीत को बचाया जा सकता है। नवगीत की परंपरागत  शैली से कुछ इतर प्रयोग कर डॉ मक्खन मुरादाबादी ने अभिनव गीत के माध्यम से सरलता व कोमलता के साथ यथार्थ को समाविष्ट कर एक अभिनव पहल की है। "गीतों के भी घर होते हैं" में विषय की विविधता एवं संवेदनाओं का विस्तार है। बौ‌द्धिक चेतना से ओतप्रोत इन गीतों में वैचारिक गांभीर्य है। जीवन की विषमताओं एवं कठोरता के चित्रण के साथ लालित्य भी है। संग्रह के गीतों मे आन्तरिक एवं बाह्य संवेदनाओं का एक संतुलित रूप दिखाई देता है। कुछ पंक्तियाँ अनायास ही आनंदित कर देती हैं:

स्वरलिपियों से गति दे दो

ठहरे लगते पानी को

मधुर ताल लय में कर दो

पड़ी बेसुरी बानी को

अस्वीकृत मूल्यों प्रति विद्रोहात्मक रवैया एवं आक्रोश बेहद शांत रूप में प्रदर्शित किया है मक्खन जी ने :

संविधान की आड़ लिए जो

साजिश पहने ढोंग खड़ी है

सिद्ध यही उसको है करना

इस पुस्तक से बहुत बड़ी है

क्योंकि अकेले आज़ादी का

उसका कुनबा युद्ध लड़ा है

समसामयिक और संवेदनशील मु‌द्दों पर बेबाकी से लिखा है:

फंसी धर्म में जो थी गाड़ी

अटकी है अब जाति -पाँति पर

कुटिल सियासत प्रश्न पूछती

अपने घर की बढ़ी ख्याति पर

जग है लट्टू, पर ना खुश है

चुकी हुई धुन का साजिन्दा

मक्खन जी की सत्यान्वेषी दृष्टि मानव को दिशा-बोध करा रही है:

बुरे-भले को ठोंक-बजाकर

उसका सत्व निकालें

अच्छे को तो सभी निभाते

थोड़ा बुरा भी निभा लें

चलकर ही तो सत्यपथ मिलता

जीवन चलते जाना

मक्खन जी के इन गीतों में बाल मन की व्याकुलता भी है। शैली बरबस सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की याद दिलाती है:

तपते दिन हैं बच्चे व्याकुल

गर्मी से उकताए हैं

उन्हें बुलाने ननिहालों से

कई बुलावे आए हैं

उनका मन भी खुश रखना है

गीतों में नानी लिखना

ग्रामीण अंचल में मानवीय संवेदनाओं की मौजूदगी को कुछ इस तरह बयां किया है:

आंखें रूखी-रूखी

घर भी रीता-रीता

खटका जाता कुंडी

आकर रोज फजीता

मान गाँव ने रक्खा

निर्धन की कुटिया का

सरकारी भ्रष्टाचार पर तंज कसने मे मक्खन जी कतई नहीं पिघलेः

बने योजना तो कितने ही 

उसमें पड़ते कूद 

गाय दुखी है हर खूँटे पर 

देना पड़ता दूध 

शिष्टाचारित मन से होती 

भ्रष्टाचारित जीत 

यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ये अभिनव गीत हमारी संवेदनशीलता को बचाने की मुहिम में सशक्त आवाज हैं। भाषा डॉ कारेंद्र देव त्यागी के उपनाम मक्खन की भांति सरल, सहज व संप्रेषणीय है। सामाजिक यथार्थ तथा उसमें व्यक्ति की भूमिका को परखने का एक सफल प्रयास किया गया है। कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता सिद्ध करती है कि इन अभिनव गीतों में किसी विचारधारा विशेष का दबाव नहीं है। सुधारवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए कुछ बेहतर के लिए अन्वेषण इस संग्रह में प्रतीत होता है। हालांकि कुछ पंक्तियों को जबरन विस्तार दिया गया है परंतु मक्खन जी ने सम्पूर्ण संग्रह में मन की बात कही है और मन के विस्तार को रोका और मापा नहीं जा सकता। बिंबों और प्रतीकों का अधिक सहारा लिए बिना बात की तरह बात कह देने का हुनर मक्खन जी में ही है। संग्रह की पंक्ति जो 'खत' को लेकर लिखी गई है-'सफल कहाँ गूगल भी उनकी सकल समीक्षा में', खत की जगह इस अप्रतिम संग्रह पर चरितार्थ होती दिखाई देती है। नवगीत के परिष्कृत रूप इन अभिनव गीतों के माध्यम से मक्खन जी ने नव काव्यान्दोलन का बिगुल बजाया है। हास्य व्यंग्य के स्थापित हस्ताक्षर मक्खन जी का गीत में साहसपूर्ण पदार्पण स्तुत्य है। इस अतुलनीय संग्रह से मक्खन जी ने  धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना सरीखे स्वनामधन्य रचनाकारों की श्रेणी में स्थापित होने के लिए कदम बढ़ा दिया है। यह अभिनव गीत-संग्रह हिन्दी साहित्य जगत में न केवल अपनी अलग पहचान बनाये वरन् शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो, ऐसी कामना है।


कृतिगीतों के भी घर होते हैं (अभिनव गीत संग्रह)

कवि : डॉ. मक्खन मुरादाबादी

प्रकाशन वर्ष : 2023

मूल्य : 300₹ 

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, सी 130, हिमगिरि कॉलोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद 244001


समीक्षक
:डॉ. काव्य सौरभ जैमिनी

अध्यक्ष-जैमिनी साहित्य फाउंडेशन एवं प्रबंधक-महाराजा हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत ,मोबाइल फोन नंबर  9837097944

मंगलवार, 7 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ काव्य सौरभ जैमिनी द्वारा डॉ मुजाहिद फ़राज़ के ग़ज़ल संग्रह की समीक्षा....जीवन की विसंगतियों से लड़ने की ताकत देता है "ख़्वाब समन्दर के"

'ख़्वाब समन्दर के' दूसरा संग्रह है डॉ मुजाहिद फ़राज़ की ग़ज़लों और नज्मों का, जो सोलह साल के इंतजार के बाद आया है। इकहत्तर ग़ज़लों, आठ नज्मों और दोहों को समेटे यह संग्रह न केवल वीरान और बदहाल जिन्दगी की दुश्वारियों को बयां करता है वरन् वर्तमान जीवन की विसंगतियों से लड़ने की ताकत भी देता है।अपनी गज़लों में डॉ फ़राज़ मानवीय संवेदनाओं में आई गिरावट का बारीकी से मुआयना करते हैं। ऐसा लगता है मानो उन्होंने इन ग़ज़लों, नज्मों और दोहों को जिया ही नहीं उसे भोगा भी है। उन्होंने जो भी लिखा है, साफगोई और मज़बूती के साथ लिखा है....

खुली हवा न मिली, अस्ल रौशनी न मिली 

नये मकानों में सब कुछ था, जिन्दगी न मिली

हसद की आग में जलने से क्या मिला उसको 

तमाम उम्र तरसता रहा, खुशी न मिली

किसी-किसी को ये ऐज़ाज़ बख्शता है खुदा 

हर एक को तो जहाँ में सिंकदरी न मिली

इसी तलाश में सदियां गुजार दीं हमने 

सुकून जिसमें मयस्सर हो वो घड़ी न मिली

डॉ फ़राज़ न केवल उच्च कोटि के शायर हैं वरन् एक मोटीवेशनल स्पीकर भी हैं। वह दुष्यंत की तरह मेहनत और लक्ष्य प्राप्ति का हौसला भरते हैं...

मैं ऐसी धूप से गुज़रा हूँ आकर

हिरन भी जिसमें काले पड़ गये हैं

तो समझो मंजिलों की जुस्तजू है 

अगर पैरों में छाले पड़ गए हैं

इसी तरह युवा दिलों में जोश भरने और कुछ नया कर दिखाने को प्रेरित भी करते हैं ....

हमें बताओं न दुश्वारियां मसाफ़त की 

जो हौसला हो तो तूफां भी रूख बदलते हैं

अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजियत नहीं गयी। दिल के इस दर्द को कुछ इस तरह बयां किया है डॉ. फ़राज़ ने.…..

आज़ादी-ए- गुलशन को ज़माना हुआ लेकिन

ज़हनों से गुलामी की यह काई नहीं जाती

हर नक़्श मिटा डाला है नफरत के जुनूँ ने 

ये कोट, ये पतलून, ये टाई नहीं जाती

शरीफ़ों की शराफ़त को क्या खूब बेपर्दा किया है उन्होंने ....

शराबखानों की रौनक अब उनके दम से है 

शरीफ लोग सुना था घरों में रहते हैं

डॉ फ़राज़ के शेरों के 'शेड्स' बहुआयामी हैं। खद्दर पर क्या बेहतरीन वार किया है.....

तू नादाँ क्या समझेगा इस खद्दर का ऐज़ाज़ है क्या 

ये बँगला वो कार खड़ी है, लंबी चादर तान के सो

उनका लेखकीय कैनवास वृहद है। उन्होंने रंगीन और खुशनुमा पलों को भी समाहित किया है। अपनी नज़्म के कैनवास में तितली की आमद को कुछ यूं उकेरा है....

शोख, रंगीं हसीन वो तितली

मेरे आंगन में जबसे आई है 

ऐसा लगता है जैसे रूठी हुई 

इस चमन की बहार लाई है

'ख़्वाब समंदर के' के लेखक डॉ फ़राज़ इंसान में संघर्ष के जज्बे को जलाए रखने में यकीन रखते हैं। बरबस अल्लामा इकबाल की याद आ जाती है। डाक्टर साहब की गज़लें बातें करती हैं, संवाद करती हैं, जिन्दगी जीने का सलीका सिखाती हैं। डॉ फ़राज़ का चिंतन मौलिक है सो ग़ज़लों में बनावटीपन नज़र नहीं आता। तुकांत की कोशिश में कहीं-कहीं कुछ अशआर हल्के मालूम देते हैं, परन्तु कुल मिलाकर डॉ साहब ने इतना उम्दा लिख दिया है कि उनकी स्वतः क्षतिपूर्ति हो गई है। गज़ल संग्रह में कम संख्या में दोहे उचित प्रतीत नहीं हो रहे। दोहे स्तरीय हैं, उनका पृथक प्रकाशन उनके साहित्यिक अवदान को और समृद्ध करेगा। उर्दू लेखक होने के बावजूद डॉ फ़राज़ ने हिन्दी साहित्य की तमाम खूबियों और छंदों की रस्मों को निभाने का सार्थक प्रयास किया है जिससे संग्रह पठनीय, असरदार और शानदार हो गया है। इन ग़ज़लों को देवनागरी में लिखकर उन्होंने एक अलग पहचान बनाने की कामयाब कोशिश की है। एक हुनरमंद कारीगर की भांति एक-एक पत्थर को करीने से तराश कर ग़ज़ल की यह आलीशान इमारत खड़ी करना, एक साधना है। साहित्य साधक डॉ मुजाहिद फ़राज़ साहब को इस अनूठे संग्रह के लिये दिली मुबारकबाद।



कृति : ख़्वाब समन्दर के (ग़ज़ल संग्रह)

लेखक : डॉ मुजाहिद फ़राज़ 

संस्करण: 2024 

मूल्य : 200 रुपए

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद


समीक्षक 
: डॉ काव्य सौरभ जैमिनी

अध्यक्ष, जैमिनी साहित्य फाउंडेशन एवं प्रबंधक, एम०एच०पी०जी० कालेज मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

 मो०-9837097944

रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा...मन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे.

    योगेन्द्र वर्मा व्योम आज के साहित्यिक परिदृश्य में एक जाना पहचाना नाम हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहे, कहानी, समीक्षा, लघुकथा, आलेख आदि विभिन्न विधाओं में लिख रहे व्योमजी की अब तक चार कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और अपनी हर कृति के साथ क्रमशः उन्होंने अपनी उत्तरोत्तर निखरती साहित्यिक प्रतिभा को और अधिक समृद्ध किया है और आज वे किसी परिचय के लिए पराश्रित नहीं हैं।

          काव्य-संग्रह "इस कोलाहल में" से आरंभ हुई उनकी यह साहित्यिक यात्रा "उगें हरे संवाद" की हरितिमा लिए आज हमारे सामने है। समकालीन समय और संबंधों से संवाद करना व्योमजी की प्रमुख लेखन शैली है और इसी शैली में उनका वर्तमान दोहा-संग्रह समय और सम्बन्धों से न केवल संवाद कर रहा है वरन् इनमें हरेपन की आशा भी कर रहा है। स्वयं व्योम जी के व्यवहार की यह एक बड़ी विशेषता है कि वे कनिष्ठ-वरिष्ठ, नवोदित-स्थापित, युवा-वयोवृद्ध और महिला-पुरुष सभी को समान महत्व देते हैं, सबका सम्मान करते हैं और सभी के विचारों का स्वागत करते हैं। एक साहित्यकार का यह एक महत्वपूर्ण गुण होता है कि वह उदार हृदय का स्वामी हो, अपनी संवेदनशीलता के साथ वह किसी भी ओर से आए सारगर्भित विचारों को आत्मसात करने का बड़ा हृदय रखता हो, बड़ों का अतिशय सम्मान करता हो और नवांकुरों को भी प्रोत्साहित करता हो, यही उदारता लेखन को समृद्ध करती है।

       व्योम जी के समृद्ध लेखन की कड़ी में "उगें हरे संवाद" दोहा-संग्रह की बात मैं यहांँ करने जा रही हूँ। "उगें हरे संवाद" योगेंद्र वर्मा व्योम जी की चौथी प्रकाशित कृति है। इस दोहा-संग्रह का आवरण पृष्ठ नैराश्य की ऊसर मृदा में सदाशयता के दो हरित पत्र पल्लवित होते हुए दिखा रहा है,जो कि संग्रह के आशय और महत्व को प्रतिपादित करते हुए आवरण पृष्ठ हेतु इमेज के सटीक चयन को प्रमाणित करता है। प्राय: हम पत्तियों के त्रिकल या विषम कल्लों का गुच्छ चित्र रूप में देखते हैं,लेकिन यहाँ द्वि कल का चित्र प्रयोग किया गया है, मुझे नहीं ज्ञात कि यह सायास है अथवा अनायास, लेकिन सायास हो अथवा अनायास इस दोहा संकलन हेतु यह बहुत ही सार्थक चुनाव है। दो हरी पत्तियां एक तरह से दोहे की दो पंक्तियों को इंगित कर रहीं हैं और ये हरी पत्तियांँ आश्वस्त कर रही हैं कि कहीं ना कहीं ये संवाद फलित होंगे और आशा का यह सफर नये कल्लों के प्रस्फुटन से निरंतर बढ़ता रहेगा।

        दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" की प्रस्तावना में प्रतिष्ठित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी, अशोक अंजुम, डॉ अजय अनुपम और डॉ मक्खन मुरादाबादी के आशीर्वचन और योगेन्द्र वर्मा व्योम  का आत्मकथ्य स्वयं में इतने समृद्ध, पुष्ट, सारगर्भित और विशिष्ट हैं कि इस पर कोई भी विशेषज्ञ अथवा विशिष्ट टिप्पणी किये जाने में मैं ही क्या कोई भी स्वयं को असमर्थ पायेगा, परंतु एक पाठक एक विशेषज्ञ से पूर्णतः पृथक होते हुए भी उसके समान ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अंततः कृति की संरचना एक पाठक हेतु होती है तो मैं इस कृति की समीक्षा कोई विशेषज्ञ अथवा साहित्यकार के तौर पर न करके एक पाठक की दृष्टि से करना चाहती हूंँ क्योंकि साहित्य के पल्लवन में एक पाठक की दृष्टि, एक पाठक का मत सदैव महत्वपूर्ण होता है।

          परम्परा के अनुसार यह दोहा-संग्रह भी माँ वीणापाणि को प्रथम नमन निवेदित करता है।शारदा मांँ की वंदना से आरंभ यह दोहा-संग्रह जैसे ही अगले पृष्ठ पर बढ़ता है तो-      

"उगना चढ़ना डूबना, सभी समय अनुरूप। 

सूरज सी यह ज़िन्दगी, जिसके अनगिन रूप।।"

     दोहे के साथ जीवन के विविध पहलुओं को खोलना शुरू करता है। दोहाकार जानता है कि वर्तमान में अवसाद जीवन पर हावी है और इसका एकमात्र उपाय प्रसन्न रहना यानि मुस्कुराहट की शरण में जाना है। अतः वह कहता है कि-

"चलो मिटाने के लिए, अवसादों के सत्र।

फिर से मिलजुल कर पढ़ें, मुस्कानों के पत्र।।"

     मुस्कान अगर झूठी हो तो फलित नहीं होती और मुस्कान झूठी इसलिए होती है क्योंकि मन में कहीं ना कहीं कटुता का दंश हावी है। आगे यही बताते हुए कवि कहता है -

"सहज नहीं फिर रह सकी, आती जाती सांँस।

मन में गहरे तक धंँसी, जब कटुता की फांँस।।"

और इसका परिणाम इस रूप में दोहाकार रखता है-

"नहीं रही वह भावना, नहीं दिखा सत्कार।

पतझड़-सा क्यों हो गया, आपस का व्यवहार।।"

लेकिन अगले ही पृष्ठों में हमें रिश्तों के खिल उठने के सुखद आधार मिलते हैं जो इशारा देते हैं कि किस तरह से हम सम्बन्धों में आई कटुताओं को दूर कर सकते हैं -

"छँटा कुहासा मौन का, निखरा मन का रूप।

रिश्तों में जब खिल उठी, अपनेपन की धूप।।"

        प्रायः आवेश में किए गए व्यवहार ही रिश्तों की आत्मीयता को पलीता लगाते हैं तभी दोहाकार लिखता है-    

"तेरे मेरे बीच जब, खत्म हुआ आवेश।

रिश्तो के अखबार में, छपे सुखद संदेश।।"

     रिश्तों के अतिरिक्त इस संग्रह में समय से भी संवाद है। यह समय जहाँ-    

"व्हाट्सएप औ' फेसबुक, ट्वीटर इंस्टाग्राम।

तन-मन के सुख-चैन को, सब ने किया तमाम।।

और-

समझ नहीं कुछ आ रहा, कैसे रहे तटस्थ।

मूल्यहीन इस दौर में, संस्कार अस्वस्थ।।"

               प्रस्तुत दोहा संग्रह में लगभग सभी समकालीन विषयों यथा भ्रष्टाचार, राजनीतिक पतन, गरीबी, मातृभाषा हिन्दी की स्थिति, मंचीय लफ्फाजी, कविता की स्थिति, पारिवारिक विघटन, आभासी सोशल मीडिया युग, चाटुकारिता और स्वार्थपरता जैसे विविध विषयों पर कवि द्वारा अपने उद्गार अपनी विशिष्ट दृष्टि के पैरहन पहनाकर प्रस्तुत किये गये हैं। समकालीन विषयों पर चिंतन करना आम बात हो सकती है पर इन दोहों में कवि द्वारा इन पर चिंतन विशिष्ट भाषा शैली, विविध शब्द चित्र और अद्भुत भाव व्यंजना के मोती पिरो कर किया गया है, जो इस चिंतन को विशिष्ट बना देता है।बानगी अग्रिम दोहों में देखें-

"स्याह विचारों की हुई, कुटिल साधना भंग।

मन-प्रांगण में जब हुआ, भावों का सत्संग।।

संदर्भों का आपसी, बदल गया व्यवहार।

शब्दों की जब-जब हुई, अर्थों से तकरार।।

अय्यारी मक्कारियाँ, छलछंदों की देख।

अधिकारों ने भी पढ़े, स्वार्थ पगे आलेख।।"

स्याह विचार की कुटिल साधना, मन प्रांगण में भावों का सत्संग, शब्दार्थ की तकरार और अधिकारों का स्वार्थ पगे आलेख पढ़ना जैसे अनुपम दृश्य उत्पन्न करना, कवि की विशिष्टता है। वह वर्तमान परिस्थितियों पर न केवल विशेष चिंतन करते दिखते हैं वरन् इन परिस्थितियों के हल भी अलंंकारिक तरीके से सुझाते हैं और नये रूपक प्रस्तुत करते हैं। मानवीकरण अलंकार का यत्र-तत्र अद्भुत प्रयोग इस संग्रह की विशिष्टता है। वर्तमान में मेरे द्वारा पढ़े गए दोहाकारों में लखनऊ की सुप्रसिद्ध कवियित्री संध्या सिंह जी के अद्भुत दोहों के बाद व्योमजी के दोहों ने मेरा मन आकृष्ट किया है। कुछ दोहें‌ देखें जैसे-

"मिट जाए मन से सभी, मनमुटाव अवसाद।

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरें संवाद।।

उम्मीदें, अपनत्व भी, कभी न होंगे ध्वस्त।

लहजा, बोली, सोच हो, अगर न लकवाग्रस्त।।"

      दोहाकार ने समय के हर पहलू को समेटा है, एक ओर समय का समकालीन समाज तो दूसरी ओर समय का प्राकृतिक स्वरूप जो विविध ऋतुओं के रूप में निरन्तर आगे बढ़ता है और वह स्वरूप भी जो समय की प्रकृति के अनुसार हमारा समाज विविध पर्वों के रूप में मनाता है, अर्थात समकालीन समय के साथ-साथ सर्दी, गर्मी, वर्षा, वसंत जैसी ऋतुएँ और होली, दीपावली, वसंतोत्सव जैसे पर्व सभी दृश्य इस दोहा-संग्रह में अपनी बहुरंगी आभा बिखेरते दिख जाएंगे। जैसे-

"रिमझिम बूंँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार।

स्वप्न सुनहरे धान के, हुए सभी साकार।।

महकी धरती देखकर, पहने अर्थ तमाम।

पीली सरसों ने लिखा, खत वसंत के नाम।।

आतिशबाजी भी नया, सुना रही संगीत।

और फुलझड़ी लिख रही, दोहा मुक्तक गीत।।"

       अपनी बात को समेटते हुए कहना चाहूँगी कि व्योमजी एक सम्भावनाओं से भरे हुए साहित्यकार हैं, उदार व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर उससे भी बढ़कर जो उनकी खूबी है वह है रिश्तों को जीने, सहेजने और उनके बिखराव पर चिंता करने की उनकी संवेदनशीलता और इस चिंतन को दो पंक्तियों के दोहे में उन्होंने जिस खूबसूरती और गहन निहितार्थ के साथ व्यक्त किया है, वह निस्संदेह अभिनंदनीय है। हालांकि एक दो स्थानों पर कुछ मात्रिक व शाब्दिक त्रुटियाँ तमाम सावधानी के बाद भी रह जाना सामान्य बात है जैसे-

"दोहे की दो पंक्तियांँ, एक सुबह, इक शाम।"

(एक और इक का प्रयोग)

अथवा

"कल बारिश में नहायी, खूब संवारा रूप।"

(प्रथम चरण के अंत में दो गुरु होना)

  परन्तु ये त्रुटियांँ धवल पटल पर पेंसिल की नोंक से बनी बिन्दी भर हैं और व्योमजी की प्रतिभा के सापेक्ष उनसे रखी जाने वाली अपेक्षाओं के फलस्वरूप ही इंगित की गई हैं,अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। 

    दोहा आकार में भले ही दो पंक्तियों का अस्तित्व रखता हो, परंतु एक सामर्थ्यवान दोहाकार अपने विशिष्ट शब्दसंयोजन और व्यंजना के प्रयोग से इन दो पंक्तियों को एक लम्बी कविता से अधिक सार्थक व मूल्यवान बना सकता हैमन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे व्योमजी के अधिकांश दोहे इस बात को सिद्ध करते हैं। तमाम अर्थ समेटे दोहे की दो पंक्तियांँ चमत्कार करने का सामर्थ्य रखती हैं और दोहाकार ने इस सामर्थ्य को पूरे मन से समर्थ किया है। "उगें हरे संवाद" आने वाले समय में विज्ञजनों के बीच संवाद का केन्द्रबिंदु बने और पाठकों का ढ़ेर सारा प्यार इस संग्रह को मिले, ऐसी शुभकामनाओं के साथ मैं अपने इस अग्रिम दोहे के रूप में अपनी भावनाएं समेटती हूँ।

"रिश्तों में जो खो गई, उस खुशबू को खोज।       

उगा हरे संवाद की, नित नव कोपल रोज।।"



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष 2023

पृष्ठ संख्या104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षिका
- हेमा तिवारी भट्ट

मकान नं०- 194/10, (एमजीआर के निकट), 

बुद्धि विहार (फेज-2) सेक्टर-10,

मुरादाबाद-244001, (उ०प्र०)

मोबाइल- 7906879625