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मंगलवार, 7 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ काव्य सौरभ जैमिनी द्वारा डॉ मुजाहिद फ़राज़ के ग़ज़ल संग्रह की समीक्षा....जीवन की विसंगतियों से लड़ने की ताकत देता है "ख़्वाब समन्दर के"

'ख़्वाब समन्दर के' दूसरा संग्रह है डॉ मुजाहिद फ़राज़ की ग़ज़लों और नज्मों का, जो सोलह साल के इंतजार के बाद आया है। इकहत्तर ग़ज़लों, आठ नज्मों और दोहों को समेटे यह संग्रह न केवल वीरान और बदहाल जिन्दगी की दुश्वारियों को बयां करता है वरन् वर्तमान जीवन की विसंगतियों से लड़ने की ताकत भी देता है।अपनी गज़लों में डॉ फ़राज़ मानवीय संवेदनाओं में आई गिरावट का बारीकी से मुआयना करते हैं। ऐसा लगता है मानो उन्होंने इन ग़ज़लों, नज्मों और दोहों को जिया ही नहीं उसे भोगा भी है। उन्होंने जो भी लिखा है, साफगोई और मज़बूती के साथ लिखा है....

खुली हवा न मिली, अस्ल रौशनी न मिली 

नये मकानों में सब कुछ था, जिन्दगी न मिली

हसद की आग में जलने से क्या मिला उसको 

तमाम उम्र तरसता रहा, खुशी न मिली

किसी-किसी को ये ऐज़ाज़ बख्शता है खुदा 

हर एक को तो जहाँ में सिंकदरी न मिली

इसी तलाश में सदियां गुजार दीं हमने 

सुकून जिसमें मयस्सर हो वो घड़ी न मिली

डॉ फ़राज़ न केवल उच्च कोटि के शायर हैं वरन् एक मोटीवेशनल स्पीकर भी हैं। वह दुष्यंत की तरह मेहनत और लक्ष्य प्राप्ति का हौसला भरते हैं...

मैं ऐसी धूप से गुज़रा हूँ आकर

हिरन भी जिसमें काले पड़ गये हैं

तो समझो मंजिलों की जुस्तजू है 

अगर पैरों में छाले पड़ गए हैं

इसी तरह युवा दिलों में जोश भरने और कुछ नया कर दिखाने को प्रेरित भी करते हैं ....

हमें बताओं न दुश्वारियां मसाफ़त की 

जो हौसला हो तो तूफां भी रूख बदलते हैं

अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजियत नहीं गयी। दिल के इस दर्द को कुछ इस तरह बयां किया है डॉ. फ़राज़ ने.…..

आज़ादी-ए- गुलशन को ज़माना हुआ लेकिन

ज़हनों से गुलामी की यह काई नहीं जाती

हर नक़्श मिटा डाला है नफरत के जुनूँ ने 

ये कोट, ये पतलून, ये टाई नहीं जाती

शरीफ़ों की शराफ़त को क्या खूब बेपर्दा किया है उन्होंने ....

शराबखानों की रौनक अब उनके दम से है 

शरीफ लोग सुना था घरों में रहते हैं

डॉ फ़राज़ के शेरों के 'शेड्स' बहुआयामी हैं। खद्दर पर क्या बेहतरीन वार किया है.....

तू नादाँ क्या समझेगा इस खद्दर का ऐज़ाज़ है क्या 

ये बँगला वो कार खड़ी है, लंबी चादर तान के सो

उनका लेखकीय कैनवास वृहद है। उन्होंने रंगीन और खुशनुमा पलों को भी समाहित किया है। अपनी नज़्म के कैनवास में तितली की आमद को कुछ यूं उकेरा है....

शोख, रंगीं हसीन वो तितली

मेरे आंगन में जबसे आई है 

ऐसा लगता है जैसे रूठी हुई 

इस चमन की बहार लाई है

'ख़्वाब समंदर के' के लेखक डॉ फ़राज़ इंसान में संघर्ष के जज्बे को जलाए रखने में यकीन रखते हैं। बरबस अल्लामा इकबाल की याद आ जाती है। डाक्टर साहब की गज़लें बातें करती हैं, संवाद करती हैं, जिन्दगी जीने का सलीका सिखाती हैं। डॉ फ़राज़ का चिंतन मौलिक है सो ग़ज़लों में बनावटीपन नज़र नहीं आता। तुकांत की कोशिश में कहीं-कहीं कुछ अशआर हल्के मालूम देते हैं, परन्तु कुल मिलाकर डॉ साहब ने इतना उम्दा लिख दिया है कि उनकी स्वतः क्षतिपूर्ति हो गई है। गज़ल संग्रह में कम संख्या में दोहे उचित प्रतीत नहीं हो रहे। दोहे स्तरीय हैं, उनका पृथक प्रकाशन उनके साहित्यिक अवदान को और समृद्ध करेगा। उर्दू लेखक होने के बावजूद डॉ फ़राज़ ने हिन्दी साहित्य की तमाम खूबियों और छंदों की रस्मों को निभाने का सार्थक प्रयास किया है जिससे संग्रह पठनीय, असरदार और शानदार हो गया है। इन ग़ज़लों को देवनागरी में लिखकर उन्होंने एक अलग पहचान बनाने की कामयाब कोशिश की है। एक हुनरमंद कारीगर की भांति एक-एक पत्थर को करीने से तराश कर ग़ज़ल की यह आलीशान इमारत खड़ी करना, एक साधना है। साहित्य साधक डॉ मुजाहिद फ़राज़ साहब को इस अनूठे संग्रह के लिये दिली मुबारकबाद।



कृति : ख़्वाब समन्दर के (ग़ज़ल संग्रह)

लेखक : डॉ मुजाहिद फ़राज़ 

संस्करण: 2024 

मूल्य : 200 रुपए

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद


समीक्षक 
: डॉ काव्य सौरभ जैमिनी

अध्यक्ष, जैमिनी साहित्य फाउंडेशन एवं प्रबंधक, एम०एच०पी०जी० कालेज मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

 मो०-9837097944

रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा...मन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे.

    योगेन्द्र वर्मा व्योम आज के साहित्यिक परिदृश्य में एक जाना पहचाना नाम हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहे, कहानी, समीक्षा, लघुकथा, आलेख आदि विभिन्न विधाओं में लिख रहे व्योमजी की अब तक चार कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और अपनी हर कृति के साथ क्रमशः उन्होंने अपनी उत्तरोत्तर निखरती साहित्यिक प्रतिभा को और अधिक समृद्ध किया है और आज वे किसी परिचय के लिए पराश्रित नहीं हैं।

          काव्य-संग्रह "इस कोलाहल में" से आरंभ हुई उनकी यह साहित्यिक यात्रा "उगें हरे संवाद" की हरितिमा लिए आज हमारे सामने है। समकालीन समय और संबंधों से संवाद करना व्योमजी की प्रमुख लेखन शैली है और इसी शैली में उनका वर्तमान दोहा-संग्रह समय और सम्बन्धों से न केवल संवाद कर रहा है वरन् इनमें हरेपन की आशा भी कर रहा है। स्वयं व्योम जी के व्यवहार की यह एक बड़ी विशेषता है कि वे कनिष्ठ-वरिष्ठ, नवोदित-स्थापित, युवा-वयोवृद्ध और महिला-पुरुष सभी को समान महत्व देते हैं, सबका सम्मान करते हैं और सभी के विचारों का स्वागत करते हैं। एक साहित्यकार का यह एक महत्वपूर्ण गुण होता है कि वह उदार हृदय का स्वामी हो, अपनी संवेदनशीलता के साथ वह किसी भी ओर से आए सारगर्भित विचारों को आत्मसात करने का बड़ा हृदय रखता हो, बड़ों का अतिशय सम्मान करता हो और नवांकुरों को भी प्रोत्साहित करता हो, यही उदारता लेखन को समृद्ध करती है।

       व्योम जी के समृद्ध लेखन की कड़ी में "उगें हरे संवाद" दोहा-संग्रह की बात मैं यहांँ करने जा रही हूँ। "उगें हरे संवाद" योगेंद्र वर्मा व्योम जी की चौथी प्रकाशित कृति है। इस दोहा-संग्रह का आवरण पृष्ठ नैराश्य की ऊसर मृदा में सदाशयता के दो हरित पत्र पल्लवित होते हुए दिखा रहा है,जो कि संग्रह के आशय और महत्व को प्रतिपादित करते हुए आवरण पृष्ठ हेतु इमेज के सटीक चयन को प्रमाणित करता है। प्राय: हम पत्तियों के त्रिकल या विषम कल्लों का गुच्छ चित्र रूप में देखते हैं,लेकिन यहाँ द्वि कल का चित्र प्रयोग किया गया है, मुझे नहीं ज्ञात कि यह सायास है अथवा अनायास, लेकिन सायास हो अथवा अनायास इस दोहा संकलन हेतु यह बहुत ही सार्थक चुनाव है। दो हरी पत्तियां एक तरह से दोहे की दो पंक्तियों को इंगित कर रहीं हैं और ये हरी पत्तियांँ आश्वस्त कर रही हैं कि कहीं ना कहीं ये संवाद फलित होंगे और आशा का यह सफर नये कल्लों के प्रस्फुटन से निरंतर बढ़ता रहेगा।

        दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" की प्रस्तावना में प्रतिष्ठित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी, अशोक अंजुम, डॉ अजय अनुपम और डॉ मक्खन मुरादाबादी के आशीर्वचन और योगेन्द्र वर्मा व्योम  का आत्मकथ्य स्वयं में इतने समृद्ध, पुष्ट, सारगर्भित और विशिष्ट हैं कि इस पर कोई भी विशेषज्ञ अथवा विशिष्ट टिप्पणी किये जाने में मैं ही क्या कोई भी स्वयं को असमर्थ पायेगा, परंतु एक पाठक एक विशेषज्ञ से पूर्णतः पृथक होते हुए भी उसके समान ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अंततः कृति की संरचना एक पाठक हेतु होती है तो मैं इस कृति की समीक्षा कोई विशेषज्ञ अथवा साहित्यकार के तौर पर न करके एक पाठक की दृष्टि से करना चाहती हूंँ क्योंकि साहित्य के पल्लवन में एक पाठक की दृष्टि, एक पाठक का मत सदैव महत्वपूर्ण होता है।

          परम्परा के अनुसार यह दोहा-संग्रह भी माँ वीणापाणि को प्रथम नमन निवेदित करता है।शारदा मांँ की वंदना से आरंभ यह दोहा-संग्रह जैसे ही अगले पृष्ठ पर बढ़ता है तो-      

"उगना चढ़ना डूबना, सभी समय अनुरूप। 

सूरज सी यह ज़िन्दगी, जिसके अनगिन रूप।।"

     दोहे के साथ जीवन के विविध पहलुओं को खोलना शुरू करता है। दोहाकार जानता है कि वर्तमान में अवसाद जीवन पर हावी है और इसका एकमात्र उपाय प्रसन्न रहना यानि मुस्कुराहट की शरण में जाना है। अतः वह कहता है कि-

"चलो मिटाने के लिए, अवसादों के सत्र।

फिर से मिलजुल कर पढ़ें, मुस्कानों के पत्र।।"

     मुस्कान अगर झूठी हो तो फलित नहीं होती और मुस्कान झूठी इसलिए होती है क्योंकि मन में कहीं ना कहीं कटुता का दंश हावी है। आगे यही बताते हुए कवि कहता है -

"सहज नहीं फिर रह सकी, आती जाती सांँस।

मन में गहरे तक धंँसी, जब कटुता की फांँस।।"

और इसका परिणाम इस रूप में दोहाकार रखता है-

"नहीं रही वह भावना, नहीं दिखा सत्कार।

पतझड़-सा क्यों हो गया, आपस का व्यवहार।।"

लेकिन अगले ही पृष्ठों में हमें रिश्तों के खिल उठने के सुखद आधार मिलते हैं जो इशारा देते हैं कि किस तरह से हम सम्बन्धों में आई कटुताओं को दूर कर सकते हैं -

"छँटा कुहासा मौन का, निखरा मन का रूप।

रिश्तों में जब खिल उठी, अपनेपन की धूप।।"

        प्रायः आवेश में किए गए व्यवहार ही रिश्तों की आत्मीयता को पलीता लगाते हैं तभी दोहाकार लिखता है-    

"तेरे मेरे बीच जब, खत्म हुआ आवेश।

रिश्तो के अखबार में, छपे सुखद संदेश।।"

     रिश्तों के अतिरिक्त इस संग्रह में समय से भी संवाद है। यह समय जहाँ-    

"व्हाट्सएप औ' फेसबुक, ट्वीटर इंस्टाग्राम।

तन-मन के सुख-चैन को, सब ने किया तमाम।।

और-

समझ नहीं कुछ आ रहा, कैसे रहे तटस्थ।

मूल्यहीन इस दौर में, संस्कार अस्वस्थ।।"

               प्रस्तुत दोहा संग्रह में लगभग सभी समकालीन विषयों यथा भ्रष्टाचार, राजनीतिक पतन, गरीबी, मातृभाषा हिन्दी की स्थिति, मंचीय लफ्फाजी, कविता की स्थिति, पारिवारिक विघटन, आभासी सोशल मीडिया युग, चाटुकारिता और स्वार्थपरता जैसे विविध विषयों पर कवि द्वारा अपने उद्गार अपनी विशिष्ट दृष्टि के पैरहन पहनाकर प्रस्तुत किये गये हैं। समकालीन विषयों पर चिंतन करना आम बात हो सकती है पर इन दोहों में कवि द्वारा इन पर चिंतन विशिष्ट भाषा शैली, विविध शब्द चित्र और अद्भुत भाव व्यंजना के मोती पिरो कर किया गया है, जो इस चिंतन को विशिष्ट बना देता है।बानगी अग्रिम दोहों में देखें-

"स्याह विचारों की हुई, कुटिल साधना भंग।

मन-प्रांगण में जब हुआ, भावों का सत्संग।।

संदर्भों का आपसी, बदल गया व्यवहार।

शब्दों की जब-जब हुई, अर्थों से तकरार।।

अय्यारी मक्कारियाँ, छलछंदों की देख।

अधिकारों ने भी पढ़े, स्वार्थ पगे आलेख।।"

स्याह विचार की कुटिल साधना, मन प्रांगण में भावों का सत्संग, शब्दार्थ की तकरार और अधिकारों का स्वार्थ पगे आलेख पढ़ना जैसे अनुपम दृश्य उत्पन्न करना, कवि की विशिष्टता है। वह वर्तमान परिस्थितियों पर न केवल विशेष चिंतन करते दिखते हैं वरन् इन परिस्थितियों के हल भी अलंंकारिक तरीके से सुझाते हैं और नये रूपक प्रस्तुत करते हैं। मानवीकरण अलंकार का यत्र-तत्र अद्भुत प्रयोग इस संग्रह की विशिष्टता है। वर्तमान में मेरे द्वारा पढ़े गए दोहाकारों में लखनऊ की सुप्रसिद्ध कवियित्री संध्या सिंह जी के अद्भुत दोहों के बाद व्योमजी के दोहों ने मेरा मन आकृष्ट किया है। कुछ दोहें‌ देखें जैसे-

"मिट जाए मन से सभी, मनमुटाव अवसाद।

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरें संवाद।।

उम्मीदें, अपनत्व भी, कभी न होंगे ध्वस्त।

लहजा, बोली, सोच हो, अगर न लकवाग्रस्त।।"

      दोहाकार ने समय के हर पहलू को समेटा है, एक ओर समय का समकालीन समाज तो दूसरी ओर समय का प्राकृतिक स्वरूप जो विविध ऋतुओं के रूप में निरन्तर आगे बढ़ता है और वह स्वरूप भी जो समय की प्रकृति के अनुसार हमारा समाज विविध पर्वों के रूप में मनाता है, अर्थात समकालीन समय के साथ-साथ सर्दी, गर्मी, वर्षा, वसंत जैसी ऋतुएँ और होली, दीपावली, वसंतोत्सव जैसे पर्व सभी दृश्य इस दोहा-संग्रह में अपनी बहुरंगी आभा बिखेरते दिख जाएंगे। जैसे-

"रिमझिम बूंँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार।

स्वप्न सुनहरे धान के, हुए सभी साकार।।

महकी धरती देखकर, पहने अर्थ तमाम।

पीली सरसों ने लिखा, खत वसंत के नाम।।

आतिशबाजी भी नया, सुना रही संगीत।

और फुलझड़ी लिख रही, दोहा मुक्तक गीत।।"

       अपनी बात को समेटते हुए कहना चाहूँगी कि व्योमजी एक सम्भावनाओं से भरे हुए साहित्यकार हैं, उदार व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर उससे भी बढ़कर जो उनकी खूबी है वह है रिश्तों को जीने, सहेजने और उनके बिखराव पर चिंता करने की उनकी संवेदनशीलता और इस चिंतन को दो पंक्तियों के दोहे में उन्होंने जिस खूबसूरती और गहन निहितार्थ के साथ व्यक्त किया है, वह निस्संदेह अभिनंदनीय है। हालांकि एक दो स्थानों पर कुछ मात्रिक व शाब्दिक त्रुटियाँ तमाम सावधानी के बाद भी रह जाना सामान्य बात है जैसे-

"दोहे की दो पंक्तियांँ, एक सुबह, इक शाम।"

(एक और इक का प्रयोग)

अथवा

"कल बारिश में नहायी, खूब संवारा रूप।"

(प्रथम चरण के अंत में दो गुरु होना)

  परन्तु ये त्रुटियांँ धवल पटल पर पेंसिल की नोंक से बनी बिन्दी भर हैं और व्योमजी की प्रतिभा के सापेक्ष उनसे रखी जाने वाली अपेक्षाओं के फलस्वरूप ही इंगित की गई हैं,अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। 

    दोहा आकार में भले ही दो पंक्तियों का अस्तित्व रखता हो, परंतु एक सामर्थ्यवान दोहाकार अपने विशिष्ट शब्दसंयोजन और व्यंजना के प्रयोग से इन दो पंक्तियों को एक लम्बी कविता से अधिक सार्थक व मूल्यवान बना सकता हैमन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे व्योमजी के अधिकांश दोहे इस बात को सिद्ध करते हैं। तमाम अर्थ समेटे दोहे की दो पंक्तियांँ चमत्कार करने का सामर्थ्य रखती हैं और दोहाकार ने इस सामर्थ्य को पूरे मन से समर्थ किया है। "उगें हरे संवाद" आने वाले समय में विज्ञजनों के बीच संवाद का केन्द्रबिंदु बने और पाठकों का ढ़ेर सारा प्यार इस संग्रह को मिले, ऐसी शुभकामनाओं के साथ मैं अपने इस अग्रिम दोहे के रूप में अपनी भावनाएं समेटती हूँ।

"रिश्तों में जो खो गई, उस खुशबू को खोज।       

उगा हरे संवाद की, नित नव कोपल रोज।।"



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष 2023

पृष्ठ संख्या104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षिका
- हेमा तिवारी भट्ट

मकान नं०- 194/10, (एमजीआर के निकट), 

बुद्धि विहार (फेज-2) सेक्टर-10,

मुरादाबाद-244001, (उ०प्र०)

मोबाइल- 7906879625

सोमवार, 29 जनवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा..... "मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार"

    चार चरणों वाला तथा दो पंक्तियों वाला दोहा हिन्दी साहित्य का वह पहला छंद है, जिसे हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं के मध्य सर्वाधिक यश प्राप्त हुआ। सूर, कबीर, तुलसी, बिहारी की दोहा-लेखन परंपरा को अनेक प्राचीन कवियों ने आगे बढ़ाया और वर्तमान में भी अधिकांश कवियों ने दोहा लेखन को सर्वप्रिय बनाये रखा है। 

हाल ही में मुरादाबाद के वरिष्ठ व यशस्वी नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" के दोहे पढ़ते हुए महसूस हुआ कि उन्होंने दोहा-लेखन में "नवदोहे" के रूप में एक नये काव्यरूप का सृजन कर एक बड़ी उपलब्धि पा ली है। नवगीत की ही भांँति व्योम जी के दोहे परंपरागत शैली से हटकर नये कथ्य, नये बिम्ब गढ़ते हुए आधुनिक युग की बात करते हैं। इस दौरान आपने दोहे की मूल अवधारणा को भी पूर्णतः सुरक्षित रखा है। आपके दोहों में नवगीत के सभी आवश्यक तत्व यथा-जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व बोध, प्रीति आदि स्वत: ही  दोहे की दो पंक्तियों में समा गये हैं। कोरे उपदेशात्मक रवैये को त्यागकर आपके दोहे आम आदमी की बात करते हैं, जो कल्पना लोक की कोमल बिछावन से उतरकर यथार्थ के खुरदरे धरातल पर चलकर पाठकों के बीच पहुँचते हैं। उनके दोहों के भीतर कथ्य और शिल्प दोनों में नवगीत का मूल तत्व- 'नवता' प्रमुख रूप से  उभर कर सामने आता है, फलतः मेरे दृष्टिकोण से व्योमजी के दोहों को 'नवदोहे' कहना ही अधिक श्रेष्ठ होगा।

मांँ शारदे की वंदना से प्रारंभ होकर, यह उत्कृष्ट नवदोहा-संग्रह, भारतीय संस्कृति-संस्कार, जीवन-मूल्यों व सामाजिक सरोकारों की पैरवी करता हुआ भारत के जयघोष पर आकर रुकता है। एक कुशल नवगीतकार की लेखनी से जब नवदोहे प्रसूत हुए तो चुप के ऊसर में उगे हरे संवाद, मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार करने  हेतु तत्पर हो उठे और कृति को शीर्षक प्रदान करता उनका यह दोहा अत्यंत उत्कृष्ट बन गया-

मिट जायें मन से सभी, मनमुटाव-अवसाद। 

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरे संवाद।।

         व्योमजी के दोहों की व्यंजना-शक्ति चमत्कृत करती है तो भाषा की भव्यता, भावों को निर्मलता प्रदान करती है। रूपक-यमक, अनुप्रास और मानवीकरण आदि अलंकारों से श्रृंगारित दोहे, बेहद सरल व सहज बन पड़े हैं। नव्यता के बावजूद भी आपके शब्द कहीं से भी आरोपित नहीं लगते। गंभीर विषयों के सागर को आपने जिस सहजता व  कुशलता से दो पंक्तियों वाले दोहे की गागर में  उड़ेल दिया है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। जीवन का सारांश प्रस्तुत करता यह दोहा पाठकों की अंतरात्मा को झकझोर देता है-

धन-पद-बल की हो अगर, भीतर कुछ तासीर। 

जीकर देखो एक दिन, वृद्धाश्रम की पीर।।

        कवि के भीतर की आत्मीयता से भरे दोहों ने जब कल्पना की झील में नहाकर, अनूठे विम्बों को धारण किया तो आपके नव दोहे प्रत्यक्ष होकर, "नभ पर स्वर्ण सुगंधित गीत" लिखने लगे। इसकी एक बानगी देखिए-

मन ने पूछा देखकर ,अद्भुत दृश्य पुनीत। 

नभ पर किसने लिख दिए, स्वर्ण सुगंधित गीत।।

            व्योमजी के दोहे यथार्थ के धरातल पर उगे हैं, अतः अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं ताकि क्षरित होते हुए मूल्यों को बचाया जा सकें। तभी तो व्योमजी लिखते भी हैं-

मूल्यहीनता से रही, इस सच की मुठभेड़। 

जड़ से जो जुड़कर जिए, हरे रहे वे पेड़।।

और आभासी युग में संस्कार व संस्कृति की दुर्गति देखकर कवि के व्यथित कोमल हृदय से भावनाओं का लावा दोहों के रूप में बह निकलता है और व्योमजी लिखने पर विवश हो जाते हैं-

ऐसे कटु परिदृश्य का, कभी न था अनुमान। 

सूली पर आदर्श हैं, संस्कृति लहूलुहान।।

साथ ही उन्होंने आधुनिक समय के पीढ़ीगत मतभेदों को भी अपने दोहों में बड़ी कुशलता से चित्रित किया है-

देख-देखकर हैं दुखी, सारे बूढ़े पेड़। 

रोज़ तनों से टहनियाँ, करती हैं मुठभेड़।।

         आजकल मंच पाने की होड़ में कविता लेखन के नाम पर बाहुबली लफ्फाजियों ने अधिक स्थान घेरा हुआ है तथा स्वाभिमानी कविता को हाशिये पर धकेल दिया है। कविता में इस जुगाड़बाजी का व्योमजी ने बड़ी निर्भीकता से चित्रण किया है-

दफ़्न डायरी में हुए, कविता के अरमान। 

मंचों पर लफ्फाज़ियाँ, पाती हैं सम्मान।।

कविता के इतर, आज हिंदी साहित्य के अन्य सृजन यथा- कहानी, नाटक व अन्य विधाओं के लेखन के प्रति साहित्यकारों की उदासीनता को भी आपने पूरी ईमानदारी के साथ सशक्त दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इसका एक उदाहरण देखिए-

नाटक गुमसुम चुप खड़ा, भर नयनों में नीर। 

शून्य सृजन की है घुटन, किसे सुनाये पीर।।

साथ ही चाटुकारिता को मुँह चिढ़ाता हुआ, आपका यह दोहा आज के समय में बिलकुल उपयुक्त जान पड़ता है-

लगन ,समर्पण और श्रम, सारे ही हैरान। 

चाटुकारिता को मिला, श्रेष्ठ कर्म सम्मान।।

पाठक की अंतरात्मा को झकझोरते, सीधी-सच्ची बात करते आपके दोहे, सीधे हृदय को स्पर्श करते हैं। इसी क्रम में, अधोलिखित समसामयिक दोहे का अप्रतिम काव्यात्मक सौंदर्य, शिल्प और कथ्य देखते ही बनता है-

बदल रामलीला गयी, बदल गए अहसास। 

राम आजकल दे रहे, दशरथ को वनवास।।

व्योमजी समाज को आईना भी दिखाते हैं और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ पारिवारिक रिश्तों में मिठास और सामाजिक-संबंधो में उल्लास बनाये रखने की पैरवी भी करते हैं, यही आपके दोहों की आत्मा है। इसकी झलक पूरे संग्रह में देखने को मिलती है। एक बानगी देखिए-

आशा के अनुरूप हो, आपस का व्यवहार। 

फिर हर दिन परिवार में, बना रहेगा प्यार।।

नयी बहू ससुराल जब, पहुँची पहली बार। 

स्वागत में सब बन गए, रिश्ते तोरणद्वार।।

          सजग कवि देश हित में ही सोचता और लिखता है। किसी भी देश की राजनीति का उस देश के उत्थान-पतन में महत्वपूर्ण स्थान होता है और एक सजग व निर्भीक कवि सदैव अपनी लेखनी के माध्यम से राजनीतिक विद्रूपता को वास्तविकता का दर्पण दिखाता रहा है। इसी क्रम में आप लिखते हैं कि-

लोकतंत्र में भी बहुत, आया है बदलाव। 

आये दिन होने लगे, अब तो आम चुनाव।।

सारे ही दल रच रहे, सत्ता का षडयंत्र। 

अब तो अवसरवादिता, राजनीति का मंत्र।।

आम आदमी की पीड़ा और गरीब की भूख आपको भीतर तक झंझोड़ती है और आपकी कलम लिखने पर विवश हो जाती है-

मिले हमें स्वाधीनता, बीते इतने वर्ष। 

ख़त्म न लेकिन हो सका, "हरिया" का संघर्ष।।

सपनो के बाज़ार में, "रमुआ" खड़ा उदास। 

भूखा नंगा तन लिए, कैसे करे विकास।।

परंतु साथ ही देश के नागरिकों से कर्तव्यनिर्वहन का आह्वान करना भी नही भूलते, तभी तो लिखते हैं-

तुम विरोध बेशक करो, किंतु रहे यह ध्यान। 

राष्ट्रगर्व के पर्व का, क्षरित न हो सम्मान।।

आज के भागदौड़ भरे जीवन में पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति में सुख हमसे कोसों दूर हैं, परंतु मानसिक तनाव स्थायी होते जा रहे हैं, इस स्थिति को अद्भुत विम्बों में पिरोना एक श्रेष्ठ नवदोहाकार के लिए अत्यधिक सरल जान पड़ता है। तभी तो आपने लिखा है-

सुख साधारण डाक से, पहुंँच न पाये गांँव। 

पर पंजीकृत मिल रहे, हर दिन नये तनाव।।

          प्रकृति चित्रण के तो कहने ही क्या हैं। चाहे वो "तानाशाह सूरज" हो या, "मंचासीन बूंँदे", "मेघों का अखबार" हो या "बारिश में नहायी बूंँदे"। "वासंती नवगीत गाती कोयल" हो या "पीली सरसों का ख़त"। सभी के चित्र नवदोहाकार व्योमजी एक फ्रेम में रखने में सक्षम हो गये हैं। यह कवि का कोमल हृदय ही है जो  बूंँदों की  उद्दंडता को सहने में असमर्थ गरीब की पीड़ाभरी मनुहार को बड़े ही मार्मिक और विनीत भाव से लिखता है-

बरसो! पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध। 

रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध।।

          तीज-त्योहार मनाने में भी कवि की कलम पीछे नहीं है। अद्भुत विम्ब जब त्योहारों की मस्ती में रंँगे, तो "पिचकारी रंगो से संवाद करने लगी" और दीपशिखाओं के उजास में एक और नया अध्याय जुड़ गया। एक दोहा देखिए-

मन के सारे त्यागकर, कष्ट और अवसाद। 

पिचकारी करने लगी, रंगों से संवाद।।

           वर्तमान समय की एक बड़ी समस्या प्रदूषण भी है जिसके कारण अनेक विसंगतियाँ भी उत्पन्न हुईं और जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यक साँसों पर संकट। पर्यावरण प्रेमी कवि विकास के नाम पर विनाश देखकर व्यथित हो उठता है और लिखता है-

जब शहरों की गंदगी, गयी नदी के पास। 

फफक-फफककर रो उठी, पावन जल की आस।।

समसामयिक संदर्भों पर आपकी लेखनी ने खूब सम्मान पाया है फिर चाहे वो समाजिक घटनाएँ हों या देशभक्ति से जुड़े ऐतिहासिक पल-

भारत की उपलब्धि से ,बढ़ी जगत में शान। 

मूक-बधिर से हो गये, चीन -रूस-जापान।।

आज तिरंगे की हुई, जग में जयजयकार। 

मिशन चंद्रमा का हुआ, सपना जब साकार।।

             व्योमजी की यह कृति उन्हें देश के प्रथम नवदोहाकार की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है। और उनके पूरे संकलन की समीक्षा केवल एक दोहे से ही की जा सकती थी, परंतु जिस प्रकार हांँडी का एक चावल चखने के पश्चात संपूर्ण भोज किये बिना नहीं रहा जा सकता, उसी प्रकार एक दोहा पढ़ने के पश्चात,  आपका संपूर्ण "नवदोहा-संग्रह" पढ़े बिना नहीं रहा जा सका। पंक्तियाँ देखिएगा-

मिलजुलकर हम तुम चलो, ऐसा करें उपाय। 

अपनेपन की लघुकथा,उपन्यास बन जाये।।

मुझे विश्वास है कि यह कृति "उगें हरे संवाद" निश्चित रूप से हिंदी साहित्य में नवदोहों की लघुकथाओं के अपनत्व से भरा एक सार्थक उपन्यास सिद्ध होगी। 



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष - 2023

पृष्ठ संख्या- 104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षक
- मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार, दिल्ली रोड, 

मुरादाबाद- 244001





बुधवार, 20 सितंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष आनंद स्वरूप मिश्रा का कहानी संग्रह ..."टूटती कड़ियां" वर्ष 1993 में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत है मुरादाबाद के बाल साहित्यकार शिव अवतार सरस जी द्वारा लिखी गई इस संग्रह की भूमिका

कथा साहित्य को भाव-संप्रेषण का एक सशक्त माध्यम कहा जाता है । इसका इतिहास भी मानव सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना है जिसके प्रमाण हैं अजन्ता और ऐलोरा आदि गुफाओं के वे भित्तीचित्र जो आज भी उस समय की शिकार- गाथाओं का सम्यक संप्रेषण कर रहे हैं। साहित्य की इस सर्वाधिक चर्चित विधा को विश्व की सभी भाषाओं ने उन्मुक्त भाव से अपनाया है। कारण स्पष्ट है क्योंकि समय की दृष्टि से एक कहानी स्वल्प समय में ही सहृदय पाठक के अन्तस्तल को झकझोर कर एक नयी दिशा में सोचने के लिये विवश कर देती है। कहानी में विद्यमान जिज्ञासा का भाव रसग्राही पाठक को आस-पास के वातावरण से दूर ले जाता है। कहानी में प्रयुक्त अन्तर्द्वन्द्व उसे अपने जीवन से जोड़ने का प्रयास करते हैं और पात्रों का मनो- वैज्ञानिक चित्रण उसे अपने निकटस्थ प्रिय एवं अप्रिय लोगों की याद दिलाता है । इस दृष्टि से एक कहानी साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा मानव-मन के अधिक निकट प्रतीत होती है।

'टूटती कड़ियाँ' शीर्षक संकलन के रचनाकार श्री आनन्द स्वरूप मिश्रा स्वातन्त्र्योत्तर कथाकारों में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। जीवन के यथार्थ से सम्पृक्त चरित्र एवं घटनायें लेकर श्री मिश्र ने कथा और उपन्यास साहित्य में जो लेखनी अपने विद्यार्थी जीवन में चलाई थी वह आज ३५-४० वर्षों के उपरान्त भी अवाध गति से चल रही है। इस ग्रंथ में मिश्र जी की उन बारह कहानियों का संकलन है जो विगत ३२ वर्षों के अन्तराल में अरुण, साथी, हरिश्चन्द्र बन्धु एवं विभिन्न वार्षिक पत्र-पत्रिकाओं आदि में स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। ये सभी कहानियाँ प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से अत्यन्त सशक्त मार्मिक एवं हृदय-ग्राह्य हैं। श्रेष्ठ कहानी के लिये आवश्यक तत्व जिज्ञासा की भावना इन सभी कहानियों में पूर्णरूप से विद्यमान है । कहानी कला के सभी तत्वों का इनमें पूर्णरूपेण निर्वाह हुआ है तथा आदि और अन्त की दृष्टि भी ये सभी कहानियाँ स्वयं में पूर्ण एवं प्रभावोत्पादक हैं। इन सभी कहानियों के सभी पात्र पारिवारिक एवं अपने आस-पास के ही हैं । कहानियों का कथानक सरल, संक्षिप्त, सुगम, मार्मिक एवं प्रभविष्णुता हैं ।

    श्री मिश्र जी की प्रायः सभी कहानियाँ समय की धारा के अनुसार प्रेम एवं रोमांस पर आधारित हैं। अध्ययनकाल के चंचल मन का प्रेम जब यथार्थ की कठोर भूमि पर उतरता है तो हथेली से गिरे पारद (पारे) की भाँति क्षणभर में छिन्न-भिन्न हो जाता है। त्रिकोणात्मक संघर्ष पर आधारित इस संकलन की अधिकांश कहानियों में कहीं प्रेमी को तो कहीं प्रेमिका को अपने अमर प्रेम का बलिदान करना पड़ता है। यदि संकलन की प्रथम कहानी 'टूटती कड़ियां' को लें तो ज्ञात होता है कि उद्यमी अध्यवसायी एवं महत्वाकांक्षी डा अविनाश का डा आरती के प्रति अविचल प्रेम, अवसर मिलने पर भी फलीभूत नहीं हो पाता और अन्त में उसी के आंसुओं के मूल्य पर उसे सलिला के साथ विवाह करना पड़ता है। यथार्थ की मरुभूमि पर जब आदशों के स्वप्निल बादल सूख जाते हैं तब अविनाश जैसे प्रेमियों को यही कहना पड़ता है- "आरती तुम सब कुछ खोकर भी रानी हो और मैं सब कुछ पाकर भी आज भिखारी हूँ ।"

    संकलन की दूसरी कहानी 'सुख की सीमा' की परिणति भी नारी के त्याग पर आधारित है। पति प्रमोद की बगिया हरी भरी रहे इस ध्येय से अध्ययन-काल की सहपाठिनी और बाद में धर्म-पत्नी के पद पर अभिषिक्त जिस रागिनी से स्वयं उमा को सपत्नी के रूप में चुना था उसी उमा के उपेक्षित व्यवहार एवं  एकाधिकार से क्षुब्ध होकर रागिनी को पुनः उसी पैतृक परिवेश  में लौट जाना पड़ता है जहाँ उसके इन साहसिक कृत्यों का कदम- कदम पर विरोध हुआ था ।

    'त्रिभुज का नया विन्दु' शीर्षक कहानी निश्चय ही एक  अप्रत्याशित अन्त लेकर प्रस्फुटित हुई है। कहानी का नायक डा अविरल अपनी चचेरी बहन की शादी में सोलह वर्षीया मानू से मिलता है और उसकी बाल-सुलभ चपलताओं को भुला नहीं पाता है। इधर दिल्ली विश्वविद्यालय में विज्ञान का प्रोफेसर बनकर वह अन्तिम वर्ष की छात्रा सुवासिनी के चक्कर में फँस जाता है। सुवासिनी होस्टल के वार्डन की पुत्री अनुपमा से मित्रता करके अविरल तक पहुंचने का मार्ग बना लेती है। उधर अविरल के माता-पिता चाहते हैं कि ऊँचे घराने की सुन्दर सुशील कन्या उनके घर वधू के रूप में पदार्पण करे। मगर सीनियर प्राध्यापकों की दृष्टि में सीधा-सादा, पढ़ाकू, दब्बू और लज्जालु अविरल इस त्रिभुज के मध्य एक नया विन्दु खोज लेता है और एम० एस-सी (प्रथम वर्ष) की एक हरिजन छात्रा 'ऋतु राकेश' के साथ प्रेम- विवाह कर सब को हतप्रभ कर देता है ।

    इसी संकलन में संकलित 'कोई नहीं समझा' शीर्षक कहानो बाल मनोविज्ञान पर आधारित है जो इस तथ्य पर चोट करती है कि प्रति वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण विद्यार्थी ही महापुरुष बन सकता है । नायक शोतल बाबू का अनुज सुरेश हाई स्कूल में लगातार ५ बार फल होकर घर से भाग जाता हैं और फिर एक चुनौती भरा पत्र लिखकर भेजता है कि "मैं हाईस्कूल में पाँच साल फेल होकर भी बड़ा बनकर दिखलाऊँगा ।"

संकलन की एक कहानी 'उम्मीद के सितारे के तीनों पात्र- किशन, प्रमोद और मालती भी एक त्रिभुज के तीन कोण हैं जो भारत सेवक समाज के एक शिविर में एक ही मंच पर उपस्थित होकर परिणाम को एक अप्रत्याशित मोड़ दे देते है । एक पत्रिका के उपसम्पादक के रूप में मध्य प्रदेश चले जाने के कारण प्रेमी किशन और प्रेमिका मालती के मध्य दूरियां बढ़ जाती हैं और मालती हताश होकर समाज सेविका बन जाती है। इधर इसी समाज में प्रमोद नाम का एक भारत सेवक भी है जो स्वयं प्रेम का भूखा है। भावसाम्य के कारण प्रमोद और मालतो में परस्पर मित्रता हो जाती है और प्रमोद उसके साथ शादी कर के भविष्य की योजनायें बनाने लगता है। मगर शिविर की गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिये जब किशन इन दोनों के मध्य आता है तो इस कामना से चुप-चाप भाग जाना चाहता है कि भारत सेवक और समाज सेविका की जोड़ी खूब जंचेगी। मगर वेश बदलने पर भी जब वह मालती की निगाह से बच नहीं पाता है तो उसे मालती का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना पड़ता है ।"

संकलन की अन्य कहानी 'कालिख' में डा० सत्येन्द्र का हृदय परिवर्तन कर कथासार ने एक आदर्श प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही इस कहानी में उन दुर्दान्त प्रबन्धकों के मुख पर लगी उस कालिख को भो उजागर किया गया है जो भोली-भाली कन्याओं की विवशता का लाभ उठाकर उनका देह शोषण करते हैं और फिर समाज में हत्या और आत्म-हत्या जैसे अपराधों को बढ़ावा देते हैं । इस मार्मिक कहानी का अन्त पूर्णतः अप्रत्याशित है । डा सत्येन्द्र ने यह स्वप्न में भी न सोचा होगा कि जिस मालवी के भाई अभय को गुनाह से बचाने के लिये उन्होंने मालती के एवारशन की व्यवस्था की थी वही मालती उनकी पुत्र वधू बनकर उनके घर आ जायेगी। मगर नई विचार धारा का उनका पुत्र रवि जब मालती को अपनी सहधर्मिणी बना लेता है तो वह चाहते हुए भी उसका विरोध नहीं कर पाते हैं ।

   श्री आनन्द स्वरूप मिश्र की सभी कहानियाँ पाठकों के अन्तस्तल को झकझोर देने में पूर्णरूपेण समर्थ है। आशा-निराशा, उत्थान-पतन, आदर्श और यथार्थ के हिण्डोले में झूलते हुए इन कहानियों के सभी पात्र अपने ही निकट और अपने ही बीच के प्रतीत होते हैं। विद्वान कथाकार ने पात्रानुकूल और बोल-चाल की प्रचलित भाषा का प्रयोग करके इन कहानियों को यथार्थ के निकट खड़ा कर दिया है। वाक्य विन्यास इतना सरल और स्पष्ट है कि कहीं भी कोई अवरोध नहीं आ पाता - यथा 'यह सुवासिनी भी बड़ी तोप चीज है। आती है तो मानो तूफान आ जाता है । बोलती है तो जैसे पहाड़ हिल जाते हैं और जाती है तो सोचने को छोड़ जाती है ढेर सारा ।'( त्रिभुज का नया बिन्दु ) 

वातावरण के निर्माण में भी कथाकार को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है । यथा "बाहर दृष्टि दौड़ी-चारों ओर खेत ही खेत दिखाई देते थे । गेहूँ के नवल पत्ते सकुचाते हुए से अपना शरीर इधर उधर हिला रहे थे। कोमल कलियाँ अपनी वय: सन्धि की अवस्था में अँखुड़ियों के वस्त्रों से तन ढकती हुई अपने ही में सिमिट रही थी "...." (उम्मीद के सितारे)


श्री मिश्र ने अपने कथा शिल्प में अन्तर्द्वन्द के साथ फ्लैशबैक का भी पर्याप्त सहारा लिया है। इसी कारण आपकी कहानियों में जिज्ञासा को पर्याप्त स्थान मिला है। शैली की दृष्टि से वर्णनात्मकता के साथ इन कहानियों में संवाद शैली का भी यथेष्ठ उपयोग हुआ है। कुछ संवाद तो इतने सरल, सरस और सटीक है कि सूक्ति वाक्य ही बन गये हैं यथा - "एक आदर्श पति

तो बनाया जा सकता है पर आदर्श प्रेमी नहीं ।"

"नारी बिना सहारे के जीवित नहीं रह सकती ।" "एक नारी क्या कभी पराजित हुई है पुरुष के आगे ?"( शाप का अन्त)


श्री मिश्र एक सिद्ध हस्त लेखक हैं। अलग-अलग राहें, प्रीत की रीत, अंधेरे उजाले , कर्मयोगिनी शीर्षक उपन्यासों के प्रकाशन के उपरान्त आपका यह प्रथम कहानी संग्रह पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है । आशा है कि जिस प्रकार हिन्दी जगत ने आपके उपन्यासों को सराहा और सम्मान दिया है उसी प्रकार यह कहानी संग्रह भी समादर और सम्मान प्राप्त करेगा ।



✍️ शिव अवतार 'सरस' 

मालती नगर

मुरादाबाद


::::::::प्रस्तुति::::::

, डॉ मनोज रस्तोगी

मंगलवार, 27 जून 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता के गीत संग्रह "मेघ गोरे हुए सांवरे" की मीनाक्षी ठाकुर द्वारा की गई समीक्षा ....सांस्कृतिक मूल्यों को समेटे ,प्रेम के आभूषणों से सुसज्जित, समाज में जागृति की ज्योति जलाते गीत

 सृष्टि के आरंभ में जब चारो ओर मौन था, नदियों का जल मूक होकर बह रहा था. पक्षी गुनगुनाते न थे.भँवरे गुंजन न करते थे .पवन भी मौन होकर निर्विकार भाव से बहती थी, प्रकृति के सौंदर्य के प्रति मानव मन में भावनाएँ शून्य थीं , तब सृष्टि के प्रति  मानव की यह उदासीनता देखकर भगवान शिव ने अपना डमरू  बजाकर नाद की उत्पत्ति  की,  और फिर ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार माँ शारदे ने  अपनी वीणा को बजाकर  मधुर वाणी को जन्म दिया.जिसके फलस्वरूप नदियाँ कलकल करने लगीं ,पक्षी चहचहाने लगे. बादल गरजने लगे, पवन सनन- सनन  का शोर मचाती इधर से उधर बहने लगी. हर ओर गीत - संगीत बजने लगा. मानव मन की भावनाएँ मुखरित होकर शब्दों का आलिंगन करने लगीं तथा स्वर और ताल की लहरियों पर नृत्य करते गीत का अवतरण हुआ. तबसे लेकर आज तक गीत लोकजीवन का अभिन्न अंग  बने हुए हैं. गीत मानव मन की सबसे सहज व सशक्त अभिव्यक्ति है ही, इसके अतिरिक्त    काव्यपुरुष की कंचन काया से उत्पन्न विभिन्न विधाओं की रश्मियों में  सबसे चमकदार व अलंकृत विधा भी  गीत ही है.गीत  का उद्देश्य केवल मानव मन को आनंदित  करना ही नहीं है,अपितु  लोक कल्याण भी है. लोककल्याण हेतु ज्ञान का रूखा टुकड़ा पर्याप्त नहीं था .अतः  जनमानस के स्मृति पटल पर  ज्ञान को चिर स्थायी रखने हेतु , रूखे ज्ञान को विभिन्न रसों व छंदो में डुबोकर गीत के रूप में प्रस्तुत किया गया . इसी क्रम में डॉ अर्चना गुप्ता जी का यह गीत संग्रह " मेघ गोरे हुए साँवरे" इस उद्देश्य  की पूर्ति मे सफल जान पड़ता है.

आपका यह गीत संग्रह ,शिल्प की कसी हुई देह में छंदो के आकर्षक परिधान पहने, पूरी  सजधज के साथ  आपको  गीतकारों की अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर  रहा है.गीतमाला का आरंभ पृष्ठ 17 पर  माँ शारदे की वंदना से होता है

कर रही हूँ वंदना दिल से करो स्वीकार माँ

लाई हूँ मैं भावनाओं के सुगंधित हार मांँ

ओज भर आवाज में तुम सर गमों का ज्ञान दो

गा सकूँ गुणगान मन से भाव में भर प्रान दो

कर सकूँ अपने समर्पित मैं तुम्हें उद्धार माँ

कर रही हूँ वंदना दिल से करो स्वीकार माँ

गीत कवयित्री डॉ अर्चना गुप्ता जी अपने शीर्षक गीत पृष्ठ संख्या 21 गीत नं. 2  "मेघ गोरे हुए सांवरे" से ही पाठकों के हृदय को स्पर्श कर जाती हैं. जब एक प्रेयसी के कोरे मन पर प्रियतम  की सांँवरी छवि अंकित होती है, तब मन की उमंगें मादक घटाएँ बन कर बरस- बरस  कर गाने लगती हैं.. 

मेघ गोरे हुए सांवरे

देख थिरके मेरे पांव रे

बह रही संदली सी पवन

आज बस मे नही मेरा मन

झूमकर गीत गाने लगीं

स्वप्न अनगिन सजाने लगी

कल्पनाओं में मैं खो गयी

याद आने लगे गाँव रे

देख थिरके मेरे पाँव रे.

डॉ अर्चना गुप्ता जी की पावन लेखनी जब भावों के रेशमी धागों में शब्दों के  मोती पिरोकर ,गीतों का सुकोमल हार तैयार करती है ,तब एक  श्रृंगारिक कोमलता अनायास ही पाठकों के हृदय को स्पर्श कर जाती है... पृष्ठ नं.22पर  "प्यार के हार फिर मुस्कुराने लगे" गीत की पंक्तियाँ  देखिएगा.. 

पोरुओं से उन्हें हम उठाने लगे

अश्रु भी उनको मोती के दाने लगे

जब पिरोया उन्होंने प्रणय डोर में

प्यार के हार फिर मुस्कुराने लगे

संयोग  और वियोग , दोनो ही परिस्थितियों में कवयित्री ने प्रेम की उत्कंठा को बड़े यत्नपूर्वक संजोया है.प्रेम की मार्मिक अभिव्यक्ति, जब होठों के स्थान पर आंखों से निकली तो दुख और बिछोह  की पीड़ा के खारेपन  ने आपकी लेखनी की  व्यंजना शक्ति   को और भी अधिक मारक बना  दिया है.पृष्ठ नं. 55 पर  गीत संख्या 32 के बोल इस प्रकार हैं.

बह रहा है आंख से खारा समंदर

ज़िन्दगी कुछ इस तरह से  रो रही है

रात की खामोशियाँ हैं और हम हैं

बात दिल की आँसुओं से हो रही है

नींद आंखों मे जगह लेती नहीं है

स्वप्न के उपहार भी देती नहीं है

जग रहे हैं हम और दुनिया सो रही है

बात दिल की आंसुओं से हो रही है

मगर श्रृंगार लिख कर ही आप ने अपने कर्तव्य की इति श्री नहीं की है.. आपकी लेखनी जीवन की  सोयी हुई आशा को झंझोड़ती है और उसे उठकर,कर्तव्य पथ पर चलने का आह्वान भी करती है . पृष्ठ संख्या 47 पर गीत सं.25 की पंक्तियाँ देखिएगा... 

पार्थ विकट हालात बहुत है मगर सामना करना होगा

अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनों से लड़ना होगा

समझो जीवन एक समर है, मुख मत मोड़ो सच्चाई से

लड़ना होगा आज समर में, तुमको अपने ही भाई से

रिश्ते- नाते, संगी- साथी, आज भूलना होगा सबको

और धर्म का पालन करने, सत्य मार्ग पर चलना होगा

अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनो से लड़ना होगा

डॉ. अर्चना गुप्ता जी का नारी सुलभ मन  कभी प्रेयसी बन कर लाजवंती के पौधे सा सकुचाया तो , कभी मां बनकर बच्चों को दुलारता दिखता  है . कभी पत्नी बनकर गृहस्थी की पोथी बांँचता  है, तो कभी बहन बनकर भाई के साथ बिताये पल याद कर भावुक हो उठता है और जब यही मन बेटी बना तो पिता के प्रति प्रेम, स्नेह, आदर, और कृतज्ञता की नदी बन भावनाओं के सारे तटबंधों को तोड़ , गीत बनकर बह चला.पृष्ठ संख्या 65 पर  गीत संख्या 38 हर बेटी के मन को छूती रचना अति उत्कृष्ट श्रेणी में रखी जायेगी .गीत की पंक्तियाँ बेहद मार्मिक बन पड़ी हैं... 

मेरे अंदर जो बहती है, उस नदिया की धार पिता

भूल नहीं सकती जीवन भर, मेरा पहला प्यार पिता

मेरी इच्छाओं के आगे, वे फौरन झुक जाते थे

मगर कभी मेरी आँखों में, आँसू देख न पाते थे

मेरे ही सारे सपनों को देते थे आकार पिता

भूल नहीं सकतीं जीवन भर मेरा पहला प्यार पिता 

आपकी कलम ने जब देशभक्ति की  हुंकार भरी तो भारतीय नारी के आदर्श मूल्यों का पूरा चित्र ही गीत के माध्यम से खींच दिया, जब वो अपने पति को देश सेवा के लिए  हंँसते- हँसते  विदा करती है..तब. पृष्ठ संख्या 113 ,गीत संख्या 76 पर ओजस्वी कलम बोल उठती है

जाओ साजन अब तुम्हे कर्तव्य है अपना निभाना

राह देखूंगी तुम्हारी शीघ्र ही तुम लौट आना

सहचरी हूँ वीर की मै , जानती हूँ धीर धरना

ध्यान देना काम पर चिंता जरा मेरी न करना

भाल तुम माँ भारती का, नभ तलक ऊंचा उठाना

जाओ साजन अब तुम्हे कर्तव्य है अपना निभाना

 इसी क्रम में एक नन्ही बच्ची के माध्यम से एक सैनिक के परिवार जनो की मन: स्थिति पर लिखा गीत पढ़कर तो आंखे स्वयं को भीगने से नहीं रोक पायीं.... पृष्ठ संख्या 121 ,गीत संख्या 82..

सीमा पर रहते हो पापा, माना मुश्किल है घर आना

कितना याद सभी करते हैं, चाहूँ मै बस ये बतलाना

दादी बाबा की आंखों में, पापा सूनापन दिखता है

मम्मी का तकिया भी अक्सर मुझको गीला मिलता है

देख तुम्हारी तस्वीरों को, अपना मन बहलाते रहते, 

गले मुझे लिपटा लेते ये, जब मैं चाहूँ कुछ समझाना

कितना याद सभी करते हैं, चाहूँ मैं बस ये बतलाना

इसी क्रम में आपकी लेखनी ने जब तिरंगे के रंगों को मिलाकर माँ भारती का श्रृंगार किया तो अखंड भारत की तस्वीर जीवंत हो उठी .पृष्ठ संख्या 117 पर .हिंदुस्तान की शान में  लिखा ,भारत सरकार द्वारा दस हजार रूपये. की धनराशि से पुरस्कृत  गीत नं. 79 आम और खास सभी पाठकों से पूरे सौ में सौ अंक प्राप्त करता प्रतीत होता है.गीत के बोल हैं... 

इसकी माटी चंदन जैसी, जन गन मन है गान

जग में सबसे प्यारा है ये अपना हिंदुस्तान

है पहचान तिरंगा इसकी, सबसे ऊंची शान

जग में सबसे प्यारा है ये अपना हिंदुस्तान

सर का ताज हिमालय इसका, नदियों का आँचल है

ऋषियों मुनियों के तपबल से, पावन इसका जल है

वेद पुराणों से मिलता है, हमें यहाँ पर ज्ञान

जग में सबसे प्यारा है ये, अपना हिंदुस्तान

इसके अतिरिक्त वक्त हमारे भी हो जाना, ये सूर्यदेव हमको लगते पिता से, कुछ तो अजीब हैं हम, ओ चंदा कल जल्दी आना, पावन गंगा की धारा, मैं धरा ही रही हो गये तुम गगन. आदि गीत आपकी काव्यकला का उत्कृष्ट प्रमाण देते हैं.

डा. अर्चना जी के गीतों की भाषा -शैली सभी मानकों पर खरी उतरती हुई,आम बोलचाल की भाषा है,शब्द कहीं से भी जबरन थोपे  हुए प्रतीत नहीं होते हैं. आपकी लेखनी पर- पीड़ा की सशक्त अभिव्यक्ति करने में भी सफल रही है. सांस्कृतिक मूल्यों को समेटे सभी गीत गेयता, लय, ताल व संगीत से अलंकृत हैं.प्रेम के आभूषणों से सुसज्जित, समाज में जागृति की ज्योति जलाते, उत्सवों को मनाते, प्रकृति के सानिध्य में अध्यात्म की वीणा बजाते और देश सेवा को समर्पित गीतों का यह संग्रह , सुंदर छपाई, जिल्द कवर पर छपे मनभावन वर्षा ऋतु के चित्र के साथ रोचक व प्रशंसनीय बन पड़ा है . मेरा विश्वास है कि  डा. अर्चना गुप्ता जी के ये साँवरे सलोने गीत हर वर्ग के  पाठकों का मन मोह लेंगे.


कृति
: मेघ गोरे हुए सांँवरे (गीत संग्रह) 

कवयित्री : डॉ अर्चना गुप्ता

प्रकाशक : साहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा 201301

प्रकाशन वर्ष : 2021

मूल्य : 299₹


समीक्षक
: मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 



मंगलवार, 20 जून 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ के ग़ज़ल संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ की इंजी. राशिद हुसैन द्वारा की गई समीक्षा .…..समाज को आईना दिखाती ग़ज़लें

      सरज़मीने-लखनऊ में जन्मे मशहूर व मारूफ़ शायर जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’ जिनको अदब की दुनिया में इज्ज़तदाराना मुक़ाम हासिल है। वो जब किसी मुशायरे में मंचासीन होते, तो ऐसा लगता था, मानो पूरा लखनऊ मंच पर बैठा हो।उन्होंने अपने जीवनकाल में कई शिष्य बनाए या यूं कहें कि उनका शिष्य बनकर युवा शायर खु़द पर फ़ख्र महसूस करता था। नूर साहब की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है, जिसमें उन्होंने पूरी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयान कर दिया है, उसका एक शेर यूं है-

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

और क्या जुर्म है पता ही नहीं

यह शेर सीधे दिल पर दस्तक देता है। सामाजिक परिवेश को बड़ी खू़बसूरती से अपने शेरों में कह देने का हुनर रखने वाले जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’ की अदब की रोशनी की किरण जब मुरादाबाद पर पड़ी, तो एक नाम सामने आया- डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ जिनकी लेखनी पर नाज़ किया जा सकता है। कृष्णकुमार ’नाज’ का जन्म मुरादाबाद से चंद मील दूर कुरी रवाना गांव में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा वहीं हुई। उसके बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए जब वह शहर आए तो यहीं के होकर रह गए। जीविका की खोज में कब साहित्य से प्रेम हुआ, पता ही नहीं चला और उसमें रमते चले गए। उनकी साहित्यिक  यात्रा आज भी बदस्तूर जारी है। यूं तो नाज़ साहब की कई किताबें मंजरे-आम पर आ चुकी हैं और वह अपनी लेखनी का लोहा मनवा चुके हैं। अभी हाल ही में उनका ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ का विमोचन हुआ, जिसका मैं भी साक्षी बना।

      आइए बात करते हैं नाज़ साहब के नये ग़ज़ल-संग्रह ’दिये से दिया जलाते हुए’ की। नाम ही पूरे संग्रह का सार है, क्योंकि नूर साहब के शागिर्द हैं तो नाज़ साहब ने भी अपने शेरों के ज़रिए समाज को आईना दिखाया है। नाज़ साहब परिपक्व ग़ज़लकार हैं। वैसे तो उन्होंने भी अपनी ग़ज़लों में इश्क़ और मुहब्बत की बात की है, लेकिन उनकी शायरी में समाज में फैली विसंगतियों पर चिंतन ज़्यादा नज़र आता है। बचपन से लेकर जवानी और बुढ़ापे तक का जीवन दर्शन भी उनकी ग़ज़लों में मिलता है। जैसा कि किताब का शीर्षक ’दिये से दिया जलाते हुए’ अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।

आइए शुरूआत बचपन से करते हैं, जब वो किसी बच्चे को हंसता हुआ देखते हैं, तो शेर यूं कहते हैं-

बच्चा है ख़ुश कि तितली ने रक्खा है उसका ध्यान

तितली भी ख़ुश कि नन्हीं हथेली है मेज़बान

फिर वो बचपन को याद करते हुए अपनी चाहत का इज़हार कुछ यूं करते हैं-

ज़हन का हुक्म है मुझको कि मैं दुनिया हो जाऊं

और दिल चाह रहा है कोई बच्चा हो जाऊं

नाज़ साहब ने जब बचपन की बात की, तो मां की ममता का ज़िक्र भी बड़ी ईमानदारी से अपनी ग़ज़ल में कर दिया। उन्हें मां की ममता कुछ इस तरह से बयां की है कि पढ़ने-सुनने वाले का दिल भर आए-

कलियां, फूल, सितारे, शबनम, जाने क्या-क्या चूम लिया

जब मैंने बांहों में भरकर उसका माथा चूम लिया

दुनिया के रिश्ते-नातों की नज़रें थी धन दौलत पर

लेकिन मां ने बढ़कर अपना राजदुलारा चूम लिया

कोई शायर इश्क़-मुहब्बत और हुस्न की बात न करे, ये हो नहीं सकता। नाज़ साहब ने भी अपनी ग़ज़लों में इश्क़ में डूबे आशिक़ के दिल के जज़्बात को बड़ी ख़ूबसूरती से कह दिया है-

जबसे देखा है तेरे हुस्न की रानाई को

जी रही हैं मेरी आंखें तेरी अंगड़ाई को

+   +

आंखों से उनकी जाम पिए जा रहा हूं मैं

क्या ख़ूब ज़िंदगी है जिए जा रहा हूं मैं

उन्होंने आज के नौजवानों की हक़ीक़त को दिखाता क्या ख़ूब शेर कहा है-

हमने यूं भी वक़्त गुज़ारा मस्ती में याराने में

जब जी चाहा घर से निकले बैठ गए मयखाने में

जब मुहब्बत होती है तो बेवफ़ाई भी होती है, जुदाई भी होती है और यादें भी होती हैं, तनहाई भी होती है। प्यार में चोट खाए इंसान के दिल के दर्द को बड़े सलीके़ से अपनी शायराना अंदाज में कहते हैं-

बुझा-बुझा रहता है अक्सर 

चिड़ियों की चहकार भी अब तो

शोर शराबा सी लगती है 

जाने दिल की क्या मर्जी है।

+   +

दूर है मुझसे बहुत दूर है वो शख्स मगर

बावजूद इसके कभी आंख से ओझल न हुआ

+   +

ख्वाब मेरा जो कभी आपको छू आया था

अब उसी ख्वाब की तस्वीर बनाने दीजे

एक पिता मुफ़लिसी के दौर में अपने बच्चों का किस तरह लालन-पालन करता है, इस शेर को देखें-

एक बूढ़े बाप के कांधों पे सारे घर का बोझ

किस क़दर मजबूर है ये मुफ़लिसी की ज़िंदगी

और फिर वही बच्चे बड़े होकर नाफ़रमान हो जाते हैं। तब मां-बाप की बेबसी यूं बयां होती है-

बेटों ने तो हथिया लिए घर के सभी कमरे

मां-बाप को टूटा हुआ दालान मिला है

आज के समय में जब रिश्तों में मुहब्बत की कमी हो गई है, तब नाज़ साहब ने रिश्ते निभाने के लिए समर्पण को अहमियत दी है। वो कहते हैं-

सिमट जाते हैं मेरे पांव ख़ुद ही

मैं जब रिश्तों की चादर तानता हूं

+   +

उससे हार के ख़ुद को बेहतर पाता हूं

लेकिन जीत के शर्मिंदा हो जाता हूं

आज इक्कीसवीं सदी में थोड़ा-सा पैसा किसी के पास आ जाए तो उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते। ऐसे मग़रूर के लिए लिखते हैं-

सरफिरी आंधी का थोड़ा-सा सहारा क्या मिला

धूल को इंसान के सर तक उछलना आ गया

शायर आने वाले वक़्त में हालात और क्या हो सकते हैं, उसकी फ़िक्र करते हुए लिखते हैं-

कभी अंधेरे, कभी रोशनी में आते हुए

में चल रहा हूं वजूद अपना आज़माते हुए

कौन करेगा हिफ़ाज़त अब इनकी मेरे बाद

ये सोचता हूं दिये से दिया जलाते हुए

इसी संग्रह की एक ग़ज़ल जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया, उसके लिए क्या लिखूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं। बस एक बात समझ आई कि नाज़ साहब ने यह साबित कर दिया कि वो ही नूर साहब के सच्चे और पक्के शागिर्द हैं। उस ग़ज़ल के ये दो शेर प्रस्तुत हैं-

पेड़ जो खोखले पुराने हैं

अब परिंदों के आशियाने हैं

जिंदगी तेरे पास क्या है बता

मौत के पास तो बहाने हैं

नाज़ साहब का यह ग़ज़ल-संग्रह पूरा जहान समेटे हुए है। यह समाज के हर पहलू को बड़ी ख़ूबसूरती से उकेरते हुए एक मुकम्मल किताब लगती है।  इसको पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि इसे बार-बार पढ़ा जाए।





कृति : दिये से दिया जलाते हुए (ग़ज़ल संग्रह)

ग़ज़लकार : डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’

प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

मूल्य : 200 रुपये पृष्ठ : 104 हार्ड बाउंड

संस्करण : वर्ष 2023


समीक्षक
: इंजी. राशिद हुसैन

मकान नंबर 4, ढाल वाली गली,मुहल्ला बाग गुलाब राय, नागफनी,मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत 

मंगलवार, 13 जून 2023

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता के बाल कविता संग्रह "नन्ही परी चिया" की राजीव प्रखर द्वारा की गई समीक्षा---बाल मन को साकार अभिव्यक्ति देती इक्यावन कविताएं

 

सरल व सुबोध भाषा-शैली एवं कहन में रची गई बाल कविताएं साहित्य जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इस क्षेत्र में इनकी हमेशा से मांग भी रही है। बड़े होकर बच्चों की बात तो सभी कर लेते हैं परन्तु, जब एक बड़े के भीतर छिपा बच्चा कविता के रूप में साकार होकर बाहर आ जाये तो यह स्वाभाविक ही है कि वह कृति बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी पर्याप्त लोकप्रियता पाती है। कवयित्री डॉ. अर्चना गुप्ता की समर्थ व सशक्त लेखनी से निकला बाल कविता-संग्रह 'नन्ही परी चिया' ऐसी ही उत्कृष्ट श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में साहित्यिक समाज के सम्मुख है। चार-चार पंक्तियों की अति संक्षिप्त परन्तु बाल मन को साकार अभिव्यक्ति देती कुल इक्यावन उत्कृष्ट रचनाओं का यह संग्रह इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि कवयित्री ने मन के भीतर छिपे बैठे इस बच्चे को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए बिल्कुल खुला छोड़ दिया है। यही कारण है कि इन सभी रचनाओं में, बड़ों के भीतर छिपा बच्चा मुखर होकर अपनी बात रख सका है। अध्यात्म, पर्यावरण, मानवीय मूल्य, बच्चों का  स्वाभाविक नटखटपन, देश प्रेम इत्यादि जीवन से जुड़े सभी पक्षों को चार-चार पंक्तियों की सरल एवं सुबोध रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त कर देना, देखने व सुनने में जितना सरल प्रतीत होता है उतना है नहीं परन्तु कवयित्री ने ऐसा कर दिखाया है। कृति का प्रारंभ पृष्ठ 9 पर चार पंक्तियों की सुंदर "प्रार्थना" से होता है। सरल व संक्षिप्त होते हुए भी वंदना हृदय को सीधे-सीधे स्पर्श कर रही है, पंक्तियाॅं देखें -

"ईश्वर ऐसा ज्ञान हमें दो 

बना भला इंसान हमें दो 

कुछ ऐसा करके दिखलायें

जग में ऊंचा नाम कमायें"

इसी क्रम में पृष्ठ 10 पर उपलब्ध रचना "कोयल रानी" में  बच्चा एक पक्षी से बहुत ही प्यारी भाषा में बतियाता है, पंक्तियाॅं पाठक को प्रफुल्लित कर रही हैं -

"ज़रा बताओ कोयल रानी 

क्यों है इतनी मीठी बानी 

कुहू-कुहू जब तुम गाती हो

हम सबके मन को भाती हो"

इसी क्रम में एक अन्य महत्वपूर्ण रचना "नन्ही परी चिया" शीर्षक से पृष्ठ 11 पर उपलब्ध है जो मात्र चार पंक्तियों में बेटियों के महत्व  को सुंदरता से स्पष्ट कर रही है। मनोरंजन के साथ यह रचना समाज को एक संदेश भी दे जाती है -

"नन्ही एक परी घर आई 

झोली भर कर ख़ुशियां लाई 

चिया नाम से सभी बुलाते 

नख़रे उसके खूब उठाते"

इसी सरल व सुबोध भाषा शैली के साथ बिल्ली मौसी (पृष्ठ 12), हाथी दादा (पृष्ठ 13), गधे राम जी (पृष्ठ 14), कबूतर (पृष्ठ 15), बकरी (पृष्ठ 16), बादल (पृष्ठ 17), इत्यादि रचनाएं आती हैं जो बाल-मन को अभिव्यक्ति देती हुई कहीं न कहीं एक सार्थक संदेश भी दे रही हैं। इक्यावन मनोरंजक परन्तु सार्थक बाल रचनाओं की यह मनभावन माला पृष्ठ 59 पर उपलब्ध "15 अगस्त" नामक एक और सुंदर बाल कविता के साथ समापन पर आती है। देश प्रेम व एकता से ओतप्रोत चार पंक्तियों की यह संक्षिप्त रचना भी पाठक-हृदय का गहराई से स्पर्श रही है -

"स्वतंत्रता का दिवस मनायें 

आओ झंडे को फहरायें 

राष्ट्रगान सब मिलकर गायें

भारत माॅं को शीश नवायें"

कुल मिलाकर एक ऐसा अनोखा एवं अत्यंत उपयोगी संग्रह, जिसकी रचनाओं को बच्चे सरलतापूर्वक कंठस्थ भी कर सकते हैं। यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कवयित्री ने इन हृदयस्पर्शी चतुष्पदियों को मात्र रचा ही नहीं अपितु, मन में छिपे उस भोले भाले परन्तु जिज्ञासु बच्चे से वार्तालाप भी किया है। मुझे यह कहने में भी कोई आपत्ति नहीं कि परिपक्व/अनुभवी पाठकगण भले ही इस सशक्त कृति का मूल्यांकन छंद/ विधान इत्यादि के पैमाने पर करें परन्तु, यह भी सत्य है कि बच्चों के कोमल मन अथवा मनोविज्ञान को समझना सरल बात बिल्कुल नहीं है। इसे तो बच्चा बनकर ही समझा जा सकता है। जब हम उनकी कोमल भावनाओं की बात करें, तो हमें अपना "बड़प्पन" एक तरफ उठाकर रखते हुए, बच्चों की दृष्टि से ही उन्हें देखना चाहिए। चूंकि कवयित्री ने इस संग्रह में स्वयं एक अबोध बच्चा बनते हुए अपनी सशक्त लेखनी चलाई है, यही कारण है कि यह संग्रह  बिना किसी लाग-लपेट के, मनमोहक लय-ताल के साथ, बच्चों व बड़ों सभी के हृदय को भीतर तक स्पर्श करने में समर्थ सिद्ध हुआ है, ऐसा मैं मानता हूॅं। 

कुल मिलाकर अत्यंत सरल व सुबोध भाषा-शैली सहित आकर्षक छपाई एवं साज-सज्जा के साथ, पेपरबैक संस्करण में उपलब्ध यह कृति अपने उद्देश्य में मेरे विचार से पूर्णतया सफल तथा स्तरीय बाल-विद्यालयों के कोर्स एवं स्तरीय पुस्तकालयों में स्थान पाने के सर्वथा योग्य है।




कृति
: नन्ही परी चिया (बाल कविता-संग्रह)

कवयित्री : डॉ. अर्चना गुप्ता

प्रकाशक: साहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा

प्रकाशन वर्ष : 2022

मूल्य: 99₹


समीक्षक
: राजीव प्रखर

डिप्टी गंज

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत




गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार शिव कुमार चंदन की काव्य कृति शारदे-स्तवन की रवि प्रकाश द्वारा की गई समीक्षा .... सरल हृदय से लिखी गई सरस्वती-वंदनाऍं

सहस्त्रों वर्षों से सरस्वती-वंदना साहित्य के विद्यार्थियों के लिए आस्था का विषय रहा है । भारतीय सनातन परंपरा में देवी सरस्वती को ज्ञान का भंडार माना गया है । वह विद्या की देवी हैं । सब प्रकार की कला, संगीत और लेखन की आधारशिला हैं।  उनके हाथों में सुशोभित वीणा जहॉं एक ओर सृष्टि में संगीत की विद्यमानता के महत्व को उन के माध्यम से दर्शाती है, वहीं एक हाथ में पुस्तक मानो इस बात का उद्घोष कर रही है कि संपूर्ण विश्व को शिक्षित बनाना ही दैवी शक्तियों का उद्देश्य है । केवल इतना ही नहीं, एक हाथ में पूजन के लिए प्रयुक्त होने वाली माला भी है जो व्यक्ति को देवत्व की ओर अग्रसर करने के लिए एक प्रेरणादायक प्रस्थान बिंदु कहा जा सकता है । 

       हजारों वर्षों से सरस्वती पूजा के इसी क्रम में रामपुर निवासी कवि शिवकुमार चंदन ने एक-एक करके 92 सरस्वती-वंदना लिख डालीं और उनका संग्रह 2022 ईस्वी को शारदा-स्तवन नाम से जो प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों में आया तो यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है । सामान्यतः कवियों ने एक-दो सरस्वती वंदना लिखी होती हैं, लेकिन 92 सरस्वती वंदनाऍं लिख देना इस बात का प्रमाण है कि कवि के हृदय में मॉं सरस्वती की वंदना का भाव न केवल प्रबल हो चुका है, अपितु जीवन में भक्ति का प्रादुर्भाव शीर्ष पर पहुॅंचने के लिए आकुल हो उठा है । इन वंदनाओं में एक अबोध और निश्छल बालक का हृदय प्रतिबिंबित हो रहा है । कवि ने अपने हृदय की पुकार पर यह वंदनाऍं लिखी हैं और एक भक्त की भॉंति इन्हें मॉं के श्री चरणों में समर्पित कर दिया है।

   प्रायः यह वंदनाऍं गीत-शैली में लिखी गई हैं । कुछ वंदना घनाक्षरी छंद में भी हैं, जो कम आकर्षक नहीं है । एक घनाक्षरी वंदना इस प्रकार है :-

शारदे मॉं चरणों में चंदन प्रणाम करे 

अंतस में ज्ञान की मॉं ज्योति को जगाइए

रचना विधान काव्य शिल्प छंद जानूॅं नहीं 

चंदन को छंद के विधान को सिखाइए

विवश अबोध मातु आयके उबारो आज 

जगत की सभी नीति रीति को निभाइए 

प्रकृति की प्रीति रीत पावस बसंत शीत

चंदन के गीत छंद स्वर में गुॅंजाइए (पृष्ठ 127)

एक गीत में कवि जन्म-जन्मों तक भटकने के बाद मॉं की शरण में आता है और जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य "ध्यान" की उपलब्धता को प्राप्त हो जाता है । गीत के प्रारंभिक अंश इस प्रकार हैं :-

जन्म-जन्मों का चंदन पथिक हो गया

मोह अज्ञान तम में कहॉं खो गया

थाम ले बॉंह को टेर सुन आज मॉं 

कर कृपा शारदे,पूर्ण कर काज मॉं

छोड़कर पंथ चंदन शरण आ गया 

मॉं तुम्हारा सहज ध्यान गहरा गया (पृष्ठ 25) 

     जीवन में वैराग्य भाव की प्रधानता अनेक गीतों में प्रस्फुटित होती हुई दिखाई पड़ रही है । यह सहज ही उचित है कि कवि अनेक जन्मों की अपनी दुर्भाग्य भरी कहानी को अब मंजिल की ओर ले जाना चाहता है । ऐसे में वह मॉं सरस्वती से मार्गदर्शन भी चाहता है । एक गीत कुछ ऐसा ही भाव लिए हुए है । देखिए :-

जब इस जग में आए हैं मॉं

निश्चित इक दिन जाना है

अनगिन जन्म लिए हैं हमने

अपना कहॉं ठिकाना है 

यह सॉंसें अनमोल मिली हैं 

ज्यों निर्झर का झरना है 

करूॅं नित्य ही सुमिरन हे मॉं 

मुझे बता क्या करना है ?(पृष्ठ 104) 

        वंदना में मुख्य बात लोक-जीवन में प्रेम की उपलब्धता हो जाना मानी गई है । सरस्वती-वंदना में कवि ने इस बात को ही शब्दों में आकार देने में सफलता प्राप्त की है । एक वंदना गीत में कवि ने लिखा है :-

ज्ञान की ज्योति दे दो हमें शारदे 

नेह मनुहार से मॉं हमें तार दे

अर्चना में हमारी यही आस हो 

मन में भक्ति जगे श्रद्धा विश्वास हो

भाव के सिंधु में प्रीति पतवार दे 

ज्ञान की ज्योति दे दो हमें शारदे (पृष्ठ 34)

         अति सुंदर शुद्ध हिंदी के शब्दों से अलंकृत यह सरस्वती-वंदनाऍं सदैव एक नतमस्तक भक्त के मनोभावों को अभिव्यक्त करती रहेंगी । सामान्य पाठक इनमें अपने हृदयोद्गारों को प्रकट होता हुआ देखेंगे तथा भीतर से परिष्कार की दिशा में प्रवृत्त हो सकेंगे।

     पुस्तक की भूमिका में डॉक्टर शिवशंकर यजुर्वेदी (बरेली), हिमांशु श्रोत्रिय निष्पक्ष (बरेली) तथा डॉक्टर अरुण कुमार (रामपुर) की भूमिकाऍं वंदना-संग्रह की गुणवत्ता को प्रमाणित कर रही हैं । डॉ शिव शंकर यजुर्वेदी ने ठीक ही लिखा है कि इस वंदना-संग्रह का जनमानस में स्वागत होगा तथा यह पूजा-घरों की शोभा बढ़ाएगी, मेरा विश्वास है । ऐसा ही इस समीक्षक का भी विश्वास है। कृतिकार को ढेरों बधाई।





कृति : शारदे-स्तवन ( मां सरस्वती वंदना-संग्रह)

कवि : शिव कुमार चंदन, सीआरपीएफ बाउंड्री वॉल, निकट पानी की बड़ी टंकी, ज्वालानगर, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 6397 33 8850 

प्रकाशक : काव्य संध्या प्रकाशन, बरेली 

मूल्य : ₹200 

प्रथम संस्करण : 2022

समीक्षक : रवि प्रकाश,

बाजार सर्राफा

रामपुर 

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451