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रविवार, 28 जनवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी द्वारा लिखित संस्मरण ....यू परवतिया मरेगी



     मैं भी देश के उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से हूँ, जो 26 जनवरी 1950 के बाद अपने स्वाधीन भारत में पैदा हुए।परिजनों की याददाश्त के आधार पर मेरा जन्म 12 फरवरी 1951 को हुआ। जब मैं छ: वर्ष का होने को था,तभी पड़ोस के गाँव रझा के प्राथमिक  विद्यालय में मुझे प्रवेश दिला दिया गया।12 फरवरी 1951 को पैदा हुआ मैं,विद्यालय में प्रवेश लेते ही 10 नवंबर 1951 को पैदा हुआ दर्ज़ हो गया।उस समय ऐसा ही होता था। विद्यालय न जाने वाले बच्चों की जन्मतिथियाँ तो किसी को याद ही नहीं रहती थीं,उम्र का हिसाब-किताब सिर्फ अंदाज से चलता रहता था और विद्यालय जाने वाले बच्चों की जन्मतिथियाँ प्रवेश के समय हेड मास्टर साहब अपने हिसाब से तय करके प्रवेश रजिस्टर में दर्ज कर दिया करते थे।अस्तु! विद्यालय में मेरा प्रवेश हो गया और विद्यालय आना-जाना शुरू।इस प्रकार मेरी विद्या का श्रीगणेश हो गया।

     ‌     विद्यालय जाने में नानी मरती थी,जाने का मन ही नहीं होता था।मन तो गाँव के बाल सखाओं के साथ खेलने- कूदने में ही मग्न रहता था। मेरे बाल मन में स्कूल आते-जाते समय रास्ते भर स्कूल गोल करने की बातें स्वत: ही ध्यान में आने लगीं और इसके लिए भाँति-भाँति की युक्तियाँ भी सूझने लगीं,जाने क्यों? अंततः स्कूल गोल करने का विचार दिन पर दिन हावी होने लगा और एक दिन जब मैं स्कूल जाने के लिए घर से निकला तो देखा बाहर सामने वाली बैठक खाली पड़ी थी। वहाँ पर चार-पांच बैठने वाले मूढ़े पड़े हुए थे। मुझे पता नहीं क्या सूझा कि मैं एक मूढ़े को तिरछा करके उसके नीचे घुस गया और उसे अपने ऊपर सीधा कर लिया।अब मैं मूढ़े के नीचे और मूढ़ा मेरे ऊपर। मैं छुप तो गया पर यह सोचकर मेरे भीतर बड़ी धुकर-पुकर थी कि मेरे स्कूल गोल करने का ऊँट जाने आज किस करवट बैठेगा। इतने में ही गाँव के ही एक सज्जन वहाँ पर आए और उन्होंने बैठक वालों को ताऊ जी कहकर आवाज़ लगाई। आवाज़ लगाकर उत्तर की प्रतीक्षा में वह उसी मूढ़े पर टिक लिए जिसके नीचे मैं छुपा हुआ था।मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे। मैं अपनी साँसों को पी गया। मुझमें लेशमात्र भी जुंबिस नहीं ,बस पत्थर होकर जैसे-तैसे बैठा रहा। गनीमत रही कि उन सज्जन को अंदर से जवाब मिल गया कि घर पर कोई नहीं है।यह सुनकर वह उठ लिए और उठकर एकदम चल दिए। मुझे वह जगह सुरक्षित नहीं लगी।कोई दूसरी मुसीबत आकर                                              मूढ़े पर न बैठ जाए,इस विचार से मेरे मन में आया कि अब यहाँ से निकल लो,पर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ?मेरा घर तो सामने ही था,पर घर जाऊँ तो पिटने का डर और गाँव के किसी भी अन्य रास्ते से इधर-उधर जाऊँ तो अवश्य ही कोई न कोई रास्ते में मिल जाएगा।मिल जाएगा तो सारी पोल-पट्टी भी खुल जाएगी। पोल-पट्टी खुल जाएगी तो घर पर भी मार जमकर ही पड़नी है।आज तो आगे कुँआ है और पीछे खाई।बहुत सोच- विचार कर मैं अपने घर को ही लौट लिया।घर में घुसते ही दादी और बीबी (मैं माता जी को बीबी ही कहता था) को नमस्ते की। बीबी ने कहा - स्कूल नहीं गया क्या? मैंने तत्काल बहाना बना दिया कि मुझे उलटी हो गई और पेट में दर्द है, इसलिए रास्ते से ही लौट आया। बहाना सफल रहा।लल्लो चप्पो भी हुई और पड़ने वाली मार से भी बच गया। दोपहर को पिताजी जंगल से लौटे। उन्होंने पूछा तो बीबी ने उन्हें भी यही बता दिया। उन्होंने भी लाड़ जताते हुए सिर पर हाथ फेरकर खूब पुचकारा। मैंने मन ही मन शुक्र मनाया कि आज तो बच गए, बच्चू।ऐसी सफलताओं का भीतर ही भीतर जो आनन्द होता है, उसके लिए शब्द मुझ पर क्या किसी के पास नहीं होते।बस सोचते रहिए और आनन्द में गोते लगाते रहिए,सो मैंने भी आनन्द में मन भरकर डुबकियाँ लगाईं। बचपन इसी का नाम है।बालपन ने ही तो पूरे घर को छका दिया न।

         अगले दिन से नियमित स्कूल जाना शुरू। समय से जाना और समय से लौट कर घर आना।घर वाले सब बहुत खुश कि बालक पढ़ाई की लाइन पर पड़ गया।पर मेरे भीतर तो कुछ और ही पक रहा था। अगले दिन जब मैं स्कूल जाने के लिए गाँव के जिस रास्ते से निकला उसपर ताऊ बसंत ठेकेदार की ढुंड पड़ी खुली जगह में एक बड़ (बरगद)का खूब बड़ा पेड़ था। उसके तने की बनावट कुछ ऐसी थी कि बालक भी उसपर आसानी से चढ़ जाते थे और ऊपर ऐसी बनाबट उसके गुद्दों की भी थी कि कोई भी आराम से बैठ सकता था और कमर टिका कर लेट भी सकता था। मैं उसी पर चढ़ लिया। आराम से बैठा और लेट भी लगाई। स्कूल मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी पर ही था। स्कूल के इंटरवल और छुट्टी की घंटी की सुनाई वहाँ तक खूब तेज आती थी।उन दिनों स्कूल जाने के अपने अलग ही मजे थे। सुबह घर से मक्खन से रोटी और साथ में दूध या छाछ से खूब छककर स्कूल जाते थे और स्कूल में इंटरवल में खाने के लिए घी में तर गेंचनी की दो रोटियाँ आम के अचार के साथ एक छन्ने में बाँध कर बस्ते में रख दी जाती थीं और सख्त हिदायत दी जाती थी कि इंटरवल में जरूर खा लेना, भूखे मत रहना बेटा। उन रोटियों को खाकर पूरे दिन भी पानी पीने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती थी। स्कूल में जब इंटरवल की घंटी बजती तो मै बँधी रोटियाँ खोल लेता और पेड़ पर बैठे-बैठे खाना शुरू कर देता और जब स्कूल की छुट्टी की घंटी बजती तो गाँव के बालकों को पेड़ पर से ही गाँव की ओर आता हुआ देख देखभाल कर नीचे उतरता तथा अपने घर पहुँच जाता। वह बरगद का पेड़ मेरा पिकनिक स्पॉट बन चुका था।

          स्कूल जाते हुए किसी भी दिन मैं स्कूल गोल कर दिया करता और अपने मनोरम उस बरगद के पेड़ के पिकनिक स्पॉट का भरपूर आनंद लेता,यद्यपि उस समय यह पता ही नहीं था कि पिकनिक भी कुछ होती है। आज सोचता हूँ तो उस बचपन में उससे बढ़िया पिकनिक और क्या हो सकती थी? अपना यह क्रम लगभग दो-तीन महीने से चल रहा था।स्कूल भी जाते रहना और जिस दिन मन हुआ - स्कूल गोल करके बरगद के पेड़ को नानी का घर समझकर खूब मस्तियाँ करना।

         बरगद का वह पेड़ नानी का घर तो था नहीं।वह तो अपने ही गाँव का पेड़ था।वहाँ से तो गाँव की आने -जाने वाली कोई न कोई दादी,ताई,चाची,बुआ ,भावी, बहन अथवा कोई न कोई दादा,ताऊ,चाचा,भाई आदि अपने नित्य कार्यों से गुजरते ही रहते थे।यह डर भी बना रहता था कि किसी को तनिक भी भनक लग गई तो हमेशा के लिए पिकनिक-विकनिक सब रिल जाएगी। कहानी बना तो ली, पर कही न जाएगी।घर का कोई भी कुछ कहने की तो नौबत ही नहीं आने देगा, वह तो ठीक से कर्रा पड़कर जमकर खबर ही लेगा। पर,यह दिन तो आना ही था। सो,एक दिन उस दिन की वह घड़ी आ ही गई कि जब अपनी पोल-पट्टी खुलनी ही थी। अपने आप को बरगद के पेड़ के धोखे के जो कपड़े पहनाए थे,वह उतरने ही थे और अपुन को सरेआम नंगा होना ही था।

          गाँव के रिश्ते से मेरी दादी लगने वाली पार्वती जी का घेर उसी बरगद के पेड़ वाले ढुंड के बराबर में ही था।

गाँव में उन्हें परवतिया नाम से पुकारा जाता था। वह स्कूल के इंटरवल के कुछ समय बाद नियमित रूप से अपने ढोर-डंगरों के कार्य को निपटाने उधर से ही अपने पथनवाले जाती थीं-यानिकि पशुओं का गोबर घेर से उठाकर पथनवाले में डाल कर उपले पाथने। मैं उन्हें रोज़ इसलिए निहारता था कि वह मुझे निहार न लें। वैसे तो उधर से आने-जाने वाले अन्य सभी तो इधर-उधर देखे बिना फर्राटे से सीधे निकल जाते थे,पर दादी! चारों ओर देखती हुई और ताड़ती हुई ही निकलती थी। यद्यपि मैं उनसे छुपा रहा और मेरी परछाईं तक की भी भनक उन्हें महीनों तक न लग सकी।पर,होनी तो होने के लिए ही होती है और वह हो ही गई। आखिर उन्होंने मुझे एक दिन देख ही लिया और देखते ही झट से दौड़ कर पेड़ के नीचे आ धमकीं।डाँट कर बोलीं- 'उतर नीचे।' मैं सकपकाया सा डर से भरा हुआ नीचे उतर आया और उनके सामने हाथ जोड़ कर उनके पैरों में गिर पड़ा कि दादी घर पर मत कहना।आज के बाद रोज़ स्कूल जाऊँगा। दादी कहाँ मानने वाली थीं।न उन्हें मानना था और न ही वह मानीं।मेरा कान पकड़ा और खींचकर मुझे मेरे घर की ओर लेकर चल पड़ीं।मेरे घर के दरबाजे पर पहुँचते ही मेरी बीबी को जोर की आवाज लगाई।अरी,ओ बहू ऊऊऊऊ!ले थाम अपने छैला को। ठेकेदार के बड़ के पेड़ पर चढ़ा बैठा था।यू स्कूल-विस्कूल ना जाता दीखै है,उस पेड़ पर चढ़ा रहबै है।एक दिन मुझे और धोखा सा लगा था,पर मैं टाल गई थी।आज जब मुझे इसकी झपक पड़ी तो मैंने पेड़ के पास जाकर देखा तो यू उसपे छुपा बैठा था। मेरी बीबी उस समय नल पर बर्तन माँज रहीं थीं।उनके हाथ में पीतल का भारी लोटा था। उन्होंने दादी के हाथ में से मुझे लपकते हुए लोटा मेरे सिर में दे मारा।एक बार नहीं तीन बार। मेरे मन में उनके प्रति गुस्सा भर गया था। रोते-रोते मेरे मुँह से जोर से निकला -'यू परवतिया मरेगी।' एक लोटा और पड़ा धड़ाम से। और भी पड़ते,पर परवतिया दादी ने ही बीबी के हाथ में से मेरा हाथ छुड़ा कर मुझे बचा लिया। दोपहर को पिताजी जंगल से आए और इस कथा की जानकारी होने पर उन्होंने भी मुझे बहुत कर्रा लिया। पीटते-पीटते एक संटी तोड़ डाली।दूसरी संटी उनके हाथ ही नहीं आई, नहीं तो उस दिन उसका भी टूटना तय था।

        यह पिकनिक का दूसरा हिस्सा था। पहले हिस्से ने मौज मस्ती दी और इसने सबक।उस दिन के बाद मैं घर से स्कूल गया तो स्कूल ही गया। कक्षा एक से लेकर स्नातकोत्तर तक कभी क्लास गोल नहीं की।ऐसा परवतिया दादी की बजह से ही हो पाया। परवतिया दादी न होती तो मैं भी जाने क्या होता? परवतिया दादी की जय हो।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर

काँठ रोड, मुरादाबाद -244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल:9319086769

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) से अमन कुमार के संपादन में प्रकाशित राष्ट्रीय साप्ताहिक पत्र ओपन डोर का 28 दिसंबर 2023 का अंक प्रख्यात साहित्यकार मक्खन मुरादाबादी विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है। इस अंक में डॉ मक्खन मुरादाबादी की एक कहानी, 58 दोहे और 35 चर्चित रचनाओं के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सर्वश्री शंकर क्षेम, अतुल कुमार शर्मा, ए टी ज़ाकिर, डॉ जगदीश शरण, डॉ मनोज रस्तोगी, योगेंद्र वर्मा व्योम, डॉ अनिल शर्मा अनिल, डॉ प्रदीप जैन, हर्षवर्धन शर्मा और राजीव प्रखर के आलेख/संस्मरण/पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हुईं हैं । इसके अतिरिक्त उनकी प्रथम काव्य कृति कड़वाहट मीठी सी का आत्म कथ्य भी प्रकाशित हुआ है।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरा विशेषांक

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बुधवार, 12 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के नौ गीत ...…


1. अभिमन्यू है चक्रव्यूह में

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पता नहीं पल कैसे होंगे 

आने वाले कल के।

अभिमन्यू है चक्रव्यूह में 

कपटी कौरव दल के।


धरती अम्बर एक करेंगे

झूठ पुलिंदे मिलकर।

रेबड़ियों की ले आए हैं 

नई थैलियाँ सिलकर।।

अंकित हैं माथें पर ठप्पे 

जबकि पुराने छल के।


जिनके घर के कोने-कोने

अटे पड़े हैं धन से।

करी कमाई कैसे इतनी

पूछें अपने मन से।।

पिला पिलाया चले पेलने 

हाल न जाने खल के।


तरह-तरह के नाटक इनपर

नाटक में नौटंकी।

जन रोगों की एक दवा बस

राजनीति की फंकी।।

दे खैरात उन्हें क्या पाई 

जो प्यासे थे जल के।


शब्दकोश से बाहर की जिन

अधरों पर हर गाली।

छोड़ेगी तस्वीर बनाकर  

काली से भी काली।।

चुभे पुराने कंटक अबतक

निकल न पाए गल के।


एका है पर खबर नहीं है 

कौन रहेगा आगे।

लोक चदरिया बुनने निकले 

जले-भुने सब धागे।।

रात दिवस गरियाकर इच्छुक

लोकतंत्र के फल के।


गीता प्रेस बहाना भर है 

कुरक रही है गीता।

जल स्रोतों की निन्दा करके

सागर समझो रीता।।

रामचरित मानस पर हमले

सिर्फ सियासी मल के।


आया मौसम अब वैसे तो 

लौट पुनः वोटों का।

स्वर्ण काल पर निकल गया है

सब खारिज नोटों का।।

अब तो रण में जाना होगा

सच्चाई में ढल के।


2. थक जाती थी जब माँ मेरी

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करते-करते काम दिवस भर

थक जाती थी जब माँ मेरी।

कहती! पहले घर सुनना है

उसके बाद सुनूँगी तेरी।।


भले नहीं वह फिर भी मुझसे

अब भी बात वही कहती है।

घर चिंता में मैं रहता हूँ

इस चिंता में वह रहती है।

घर को ख़ुशी सुखी रखने में 

सदा मुसीबत उसने पेरी।


अथक परिश्रम उसका ही तो

आसपास में रँग लाया था।

एक जून जो खा न सका था

उस घर ने छक कर खाया था।।

सबके संकट काट दिए थे

खोल गाँव में उसने डेरी।


परधानी जीती तो उसने

घर के सँग-सँग गाँव सँभाला।

सूरत बदल गाँव की रखदी 

बिना पढ़ी ने लिखा खँगाला।।

सामूहिकता सींच-सींचकर

दूर भगा दी तेरी मेरी।


नियम गाँव को समझाकर वह

सौ नंबर से पास हुई थी।

पुरस्कार पा महामहिम से

दूर-दूर की खास हुई थी।।

उसने ही सिखलाया था यह 

अच्छी नहीं काम में देरी।


नहीं सोचता कोई भी जो

वही सोचती है माँ सबकी।

माँ चिंताओं से लड़-भिड़कर 

जिंदा अबतक,मरकर कब की।।

गाँव-गाँव जब सोते मिलते

वह देती फिरती है फेरी।


3. कोशिश है खरपतवारों की 

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कोशिश है खरपतवारों की 

मटियामेट फसल हो।


नए सृजन पर असमंजस में

तुलसी सूर कबीरा।

गान आज का गाने में सुन 

दुखी हो उठी मीरा।।

देख निराला भी कह उठते 

नव की नई शकल हो।


बचा-खुचा इस मोबाइल ने

जकड़ लिया अब सारा।

दुखती रग को पकड़ सभी की

परस दिया है चारा।।

जिसमें ख़तरा छुपा हुआ सा 

बैठा अगल-बगल हो।


बूँद-बूँद से भर इठलाए

बची नहीं वह गागर।

पोखर झील नदी नद नाले

आज सभी हैं सागर।।

जिनके दर्शन कर आभारी 

हुआ हरेक पटल हो।


कोई बड़ा न कोई छोटा 

अब तो सभी बराबर।

सभी मियां मिट्ठू अपने मुँह 

बनते फिरें परापर।।

हाथी के कद पर ज्यों चींटी 

लेने चली दखल हो।


इसी तरह तो खंड-खंड सब

अपना होता आया ।

सदा जिए अति विश्वासों में 

हमने गोता खाया।।

मौज मस्तियाँ पागल जैसे  

मौसम गया बदल हो।


4. उधड़ा!रफू इसी से होता 

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झोला छाप जमे हैं अबतक

झोलों के दम पर।


चर्चित हैं,सँग बीमारों के

ये खिलवाड़ करें।

अपना ठिया जमाकर उनसे 

पैसा झाड़ धरें।।

उधड़ा! रफू इसी से होता 

मोलों के दम पर।


आए दिन अखबारों का भी 

मुद्दा बना रहे।

उरे परे होते रहने का

किस्सा कौन कहे।‌।

भारी भरकम मसले निबटे

बोलों के दम पर।


यह भी सच है बिन इनके भी

काम नहीं चलना।

ये जानें बिगड़े से बिगड़ा 

हर रोग पकड़ना।।

गाड़ी कभी न चलती देखी 

चोलों के दम पर।


5. सबको गले लगाने की 

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शान्त भाव की धुन में यह तो 

आदत मंगल गाने की।

जुर्म नहीं है धमकी धड़ से

शीश उतारे जाने की।।


मंगल यही अमंगल जमकर 

सदियों से करता आया।

पता सभी को अब इसका भी

क्या खोकर क्या है पाया।।

आदत फिर भी पड़ी हुई है

सबको गले लगाने की।


दया भाव के सभी आचरण

मकसद अच्छा गढ़ने के।

बुरा भला भी सुन-सुन लक्षण

क्षमा दिशा में बढ़ने के।।

सीख न पाए लड़ना-भिड़ना

और जुगत लड़वाने की।


अनेकांत में भाव एकता

पीढ़ी दर पीढ़ी पहना।

करी विविधता आत्मसात फिर

उसको बना लिया गहना।।

आज जरूरत इसी भाव पर

आगम के इतराने की।


इस धरती पर मिसरी जैसी

कहीं न कोई वाणी है।

फसलें मीठी रहा उगाता

खारा भी यदि पानी है।।

ऊपर से नीचे तक फिर भी

चली सदा उकसाने की।


इस धरती ने मान दिया है

सूफी पीर मजारों को।

फिर भी घायल करते रहते

कुछ हैं लोग बहारों को।।

असली कथा छुपाकर अपनी 

गाते रहे ज़माने की।


रातों में खुल दरवाजों ने

बड़े-बड़े उपकार किए।

उलटे पाँव प्रार्थना लौटी

अबकी तो फटकार लिए।।

भूल समझ में आई जल्दी 

याची को हड़काने की।


6. बता अकेले कबतक ढोएँ 

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गंगा जमुनी चलन तुझे हम

बता अकेले कबतक ढोएँ।


धार अलग गंगा यमुना की

संगम तक ही तो रहती है।

आगे फिर सागर तक यमुना

गंगा होकर ही बहती है।।

इसी सत्य को समझा-समझा

आँसू-आँसू कबतक रोएँ।


भाव घिरा निरपेक्ष धर्म से

हुआ व्यथित सा खुद लगता है।

तथाकथित सब पहले जैसा 

तथाकथित ही अब लगता है।।

शुद्ध भाव की रोटी को हम

एक हाथ से कबतक पोएँ।


लिबरल खेती के खेतों में

बुए पड़े हैं बस उकसावे।

कारोबार झूठ की खेती 

उगते रहते खुक्खल दावे।।

कड़ी नींद से घिरे हुए हम

खुली आँख से कबतक सोएँ।


एक पिता की संतानें सब

इन ऋतुओं के सारे मौसम।

यही सत्य समझाने भर में

अपनों से ही हारे मौसम।।

मौसम के सद्भाव घाव हम

और बताओ!कबतक धोएँ।


7. गीतों में नानी लिखना

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झुलस रहे हैं बाग बगीचे

गीतों में पानी लिखना।


तपे दिनों में बच्चे व्याकुल

गर्मी से उकताए हैं।

ननिहालों से उन्हें बुलाने

कई बुलावे आए हैं।।

इस मौसम में खुश रखने को

गीतों में नानी लिखना।


चले छतों से बरसे पत्थर

दिन हों जैसे दंगल के।

गंगा जमुनी के धोखे में

पल गायब हैं मंगल के।।

तर कर दे जो बादल को भी

गीतों में वानी लिखना।


इधर-उधर से चली हवाएँ

आकर हममें पसर गईं।

कल ही तो थी आग लगाई

आज सबेरे मुकर गईं।।

सुनो!ठीक से इनके रुख को

गीतों में ज्ञानी लिखना।


8. सबको पानी दो

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अर्थहीन हो चुका बहुत सा

उसको मानी दो।

प्यासे झील नदी नद पोखर

सबको पानी दो।।


जल जीवन है तो उसका भी

जीवन बचा रहे।

और धरा पर जो-जो हमने

खोया,रचा रहे।।

मूक पड़ा जो ज्ञान ध्यान है

उसको बानी दो।


पंचतत्व में घोली हमने

एकमात्र विषता।

अपना इससे जाने क्या-क्या

रोज़ रहा रिसता।।

उजड़ रहे से इस मौसम को

रंगत धानी दो।


जिनसे भू पर मानवता के

उपवन मुस्काएँ।

हमें बचाओ!बोल रहीं सब

मिटती धाराएँ।।

मन से इन्हें पोसने वाले

राजा रानी दो।

=9. गौरैया गीत

========

लुप्त हुईं गौरैया

कुछ तो ठीक नहीं।


उनकी फुदक-फुदक से

घर-आंगन फुदके

बिखरे मिल जाते थे

कुछ लक्षण शुभ के

पुनः बुला लाने की

दिखती लीक नहीं।


नीड़ बना रहती थीं

घर के खोडर में

घर ही होते थे तब

गांव औ' शहर में

लुप्त घरौंदे, घर भी

उठती चीक नहीं।


तप्त रेत मल-मल कर

जेठ दुपहरी में

नहा, मेघ ले आतीं

एक फुरहरी में

ज्ञान जगत पर ऐसी

कुछ तकनीक नहीं।


खेत फदोरा करतीं

खेल दिखाती थीं

छिटक गये बीजों को

खुद बो जाती थीं

देखे गये न पंछी

इतने नीक, नहीं।


कीट-पतंगे घर के

और खेत के भी

चुग, संवार देती थीं

भाग्य रेत के भी

बिन उनके,जीवन का

सुख निर्भीक नहीं।


चीं चीं चूज़े करके

सूनापन हरते

निर्जन में भी जैसे

वो हलचल भरते

होते आये बखान

हुए सटीक नहीं।


चहक-चहक से उतरा

उत्सव सा लगता

जन-जीवन में पसरा

सन्नाटा भगता

लुटी सम्पदा सारी

सदियां ठीक नहीं।


✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी

     झ-28, नवीन नगर

     काँठ रोड, मुरादाबाद-244001

     मोबाइल:9319086769


  





बुधवार, 3 मई 2023

यादगार चित्र : मुरादाबाद कलक्ट्रेट कर्मचारी संघ की ओर से वर्ष 1986 में आयोजित कवि सम्मेलन व मुशायरे में रचना पाठ करते हुए ठाकुरद्वारा के हास्य कवि शरीफ भारती ।


  इस चित्र में  मंचासीन हैं पदमश्री गोपाल दास नीरज, बराबर में बैठी मुरादाबाद की शायरा तसनीम सिददीकी से बात करते हुए ,सफेद शॉल ओढ़े हुए लखनऊ के शायर कृष्ण बिहारी नूर साहब ,बराबर में बैठे  मक्खन मुरादाबादी जी ओर उनके पीछे माहेश्वर तिवारी जी ,काले सूट में बदायूं के उर्मिलेश शंखधार साहब, उर्मिलेश जी के दाहिने तरफ चश्मा लगाए मशहूर हास्य के शायर सागर ख़य्यामी । यह चित्र हमें मिला है हास्य कवि शरीफ भारती जी की फेसबुक वॉल से ।

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के तेरह दोहे


शिक्षा वह जो मनुज को, रखे कूप मण्डूक।

दी जाती खम ठोक के, हुई बड़ी है चूक।।1।।


लगता शायद हो चुका, भाईचारा नष्ट।

ध्यान सभी का तब गया, लगे सताने कष्ट।।2।। 

                  

आता रहता है सदा, नफ़रत को ही ताव।

तार-तार इसने किया, सामाजिक सद्भाव।।3।।


धुले कहाँ हैं आजतक, अभी पुराने घाव।

समरसता फिर लूटकर, धन्य हुए अलगाव।।4।।


माँ दुर्गा कल्याणिनी, सिद्ध करो सब काम।

सभी बढ़ाएँ देश का, गौरव बिना विराम।।5।।

                

दुनिया में बस कोख ही, सर्वश्रेष्ठ है काव्य।

लिखे पुत्र से भाग्य को, बेटी से सौभाग्य।।6।।


जिनके अब हो ही चुके, लाइलाज सब रोग। 

बचा सकें केवल उन्हें, योग और संयोग।।7।।


वर्तमान भटकाव में, धुँधला जहाँ भविष्य।

युवा बने कब तक रहें, उस भाषा के शिष्य।।8।।


होती अच्छी अति नहीं, जितनी लो कर देख।

स्वच्छ भाव ही लिख सके,पढ़ने लायक लेख।।9।। 


ओछे फिर-फिर पीटते, बस अपना ही ढोल। 

जब निकली आवाज तो, खुली ढोल की पोल।।10।।


चीते आए देश में, लगे भड़कने लोग।

शायद ऐसे द्वेष से, मिटते कुछ के रोग।।11।।


नफ़रत नफ़रत जाप से, कर सबको बदनाम।

फिर होता मिलकर इसे, फैलाने का काम।।12।।


यदि अपने ही पास में, रसद न हो भरपूर।

मंज़िल फिर है भागती, यात्राओं से दूर।।13।।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

 झ-28, नवीन नगर

 काँठ रोड, मुरादाबाद -244001

 उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल:9319086769


मंगलवार, 30 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ...... तर्पण करके पितरों का हम, आश्विन मास कनागत में / मनोयोग से लग जाते हैं त्योहारों के स्वागत में ......


तर्पण करके पितरों का हम

आश्विन मास कनागत में ।

मनोयोग से लग जाते हैं

त्योहारों के स्वागत में ।।


इठला उठते हैं घर-द्वारे

जब पहनें साफ-सफाई ।

घर से विदा दलिद्दर होते

जी भर ले नेग विदाई ।।

फिर भी मन अनमना, सोचता 

रही कमी कुछ लागत में ।


नवरात्र शुभम् पूजा-अर्चन

शुद्ध मनों को कर देते ।

अहंकार हो सभी पराजित

पुरुषोत्तम को बल देते ।।

यहीं राम की लीलाओं का

मिलता मर्म परागत में ।


जगमग होकर दीवाली में

मोती मन के बिखरें सब ।

घर-घर के कोने-कोने भी

उपवन जैसे निखरें जब ।।

गान उभर कर आ बैठे फिर

अपने आप अनाहत में ।


धूम-धाम से देवठान को

देव उठाये जाते हैं ।

गंग घाट पर नहा-नहा कर

आसन देव लगाते हैं ।।

कर्म हमारे तब हैं ,तोले

जाते दिव्य अदालत में ।


अपने-अपने कर्म-धर्म में 

जब-जब दोष भरे देखे ।

शरण यज्ञ की हम पहुंचे हैं

ले, लेकर अपने लेखे ।।

तब कस्तूरी बस जाती है

आकर सोच तथागत में ।

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

 झ-28, नवीन नगर

 काँठ रोड, मुरादाबाद

 मोबाइल:9319086769

सोमवार, 8 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का एक गीत ......सावन से ही आशा


बीत गया आषाढ़ बची अब 

सावन से ही आशा।


बरस बरस कर शायद भर दे 

बर्तन खाली सारे।

मोर नाच कर पंख पसारे

अपने न्यारे न्यारे।।

आप स्वयं टल जाए शायद 

घर में रुकी निराशा।


बरस-बरस कर कहीं-कहीं तो 

ला दो घनी तबाही।

कहीं बरसने के आवेदन  

चुसकें शुष्क कड़ाही।।

भेदभाव का ऐसा भी तो 

अच्छा नहीं तमाशा।


रहो बरसते नियम धरम से 

निश्चित ही हल बरसे।

तुम पर निर्भर जो कुछ भी है

उसका भी कल सरसे।।

झुलसे मुरझे त्रासद मन की

शायद मिटे दुराशा।  


इधर उधर की ठहर हवाएँ

मिलें खूब बरसाएँ।

झींगुर अपना स्वर आलापें

दादुर मिल टर्राएँ।

पानी में खुद घुलमिल लेगी

पसरी हुई हताशा।


नहीं बरस कर रत्ती भर भी 

बरखा धर्म बखाने। 

डींग मारकर गाती फिरना 

समरसता के गाने।।

हाहाकार मचे पर सुनना 

कारण,बूँद बताशा।


✍️  डॉ. मक्खन मुरादाबादी

      झ-28, नवीन नगर

      काँठ रोड, मुरादाबाद

      मोबाइल:9319086769

शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ.मक्खन मुरादाबादी के आठ दोहे ....


सत्ता में जब तक रहे,लगा सभी कुछ ठीक।

अब सत्ता को कोसते,स्वयं भटककर लीक।। 1।।


सत्ता जब-जब पास थी,जिनके भी थे ठाठ।

खिसकी तो भाए उन्हें, मन्दिर पूजा पाठ।। 2।।


लंका जैसे जो हुए,कवि चिंतक विद्वान।

लंका होता दीखता,उनको हिन्दुस्तान।। 3।।


खेलों और चुनाव में,जीत मिले या हार।

नहीं हारना चाहिए,खेल भाव संसार।। 4।।


रह सत्ता में यदि किया,लूटपाट का भोग।

मन में उठता देखिए,रोज़ नया फिर सोग।। 5।


पान फूल जो भी चढ़े,जब थे सत्ताधीश।

बच्चों को भी थे मिले,कहाँ गए आशीष।। 6।।


कुर्सी जब थी पास में,बने बहुत तब फैंस।

चश्में का पर आपके,धुंधल गया था लैंस।। 7।


पहले तो लगता रहा,पानी है सब रेत।

मन मसोसना व्यर्थ है,बचा नहीं जब खेत।। 8।।


✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी

      झ-28, नवीन नगर

      काँठ रोड, मुरादाबाद -244001

      उत्तर प्रदेश, भारत

      मोबाइल:9319086769

बुधवार, 22 जून 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत .... साज़िश में बैठी है साज़िश साज़िश गहरी है ,और हमारी भलमनसाहत गूंगी बहरी है।।


साज़िश में बैठी है साज़िश

साज़िश गहरी है।

और हमारी भलमनसाहत

गूंगी बहरी है।।


आगबबूला हर कोशिश का

पता नहीं चलता।

तार गया सौहार्द हमें जो

आज नहीं फलता।।

घर में आकर समरसता के

माचिस ठहरी है।


मकसद सारे लगे ताक में

करते निगरानी।

शुभम् शिवम् पर जैसे भी हो

फिर जाए पानी।।

रोग निरंतर बढ़ता जाता

मौसम ज़हरी है।


हुई अराजक दुष्ट हवाएँ

उधम मचाती हैं।

महक रहे इस चन्दन वन में

आग लगाती हैं।।

और दखल देने में लगती

विफल कचहरी है।


✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी

      झ-28, नवीन नगर

      काँठ रोड, मुरादाबाद-244001

      उत्तर प्रदेश, भारत

     संपर्क:9319086769

शनिवार, 28 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के दस दोहे ----


भारत वंश सुभाग था, मुगलकाल दुर्भाग।

पाँव पड़े गोरे यहाँ , गया राग अनुराग।। 1


मनमाफिक निर्णय मिले,तभी कहेंगे न्याय।

मिले न मन का फैसला,तो बोलें अन्याय।। 2


सब झूठे मिलकर यहाँ,ढूँढें सच की काट।

ताकि पुराने झूठ की, बिछी रहे हर खाट।। 3


एक बार फिर क्या खुली,अन्य झूठ की पोल।

अपनी सी पर आ गए,सारे लिबरल ढोल।। 4


शब्द ज्ञानवापी नहीं, खाता जिनसे मेल।

उसको अपना कह वही,हैं मकसद में फेल।। 5


झूठ तनिक तू सोचकर,मेरी पीड़ा तोल।

डरा-डरा सा सहमकर,सत्य रहा है बोल।। 6


बन्धक बनकर सच रहा,अबतक उम्र तमाम।

उसने लीं जब करवटें, हुईं साजिशें आम।। 7


घर तो सबका है यही,यही राग अनुराग।

घर में फिर वह कौन है,लगा रहा जो आग।। 8


छंदमुक्त को जब मिले, छंदों में भी दोष।

शीश पटककर हो गया, मुक्तछंद बेहोश।। 9


नवता पाती नव्य से,भले नए आयाम।

गीत अनन्तिम रूप से,सब गीतों का धाम।। 10


✍️  डॉ.मक्खन मुरादाबादी

      झ-28, नवीन नगर

      काँठ रोड, मुरादाबाद-244001

      संपर्क:9319086769


शुक्रवार, 20 मई 2022

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद (जनपद बिजनौर) से अमन कुमार त्यागी के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका शोधादर्श का मार्च- मई 2022 अंक प्रख्यात साहित्यकार रामावतार त्यागी विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है। इस अंक के विशेष संपादक प्रो ऋषभ देव शर्मा और अतिथि संपादक डॉ कारेंद्र देव त्यागी मक्खन मुरादाबादी हैं। इस अंक में स्मृतिशेष रामावतार त्यागी की चर्चित रचनाओं के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सर्वश्री बालस्वरूप राही, क्षेमचंद्र सुमन, रामधारी सिंह दिनकर, शेरजंग गर्ग, रमेश गौड़, डॉ मक्खन मुरादाबादी, अमन कुमार त्यागी,महेंद्र अश्क, डॉ अनिल शर्मा अनिल, त्यागी अशोका कृष्णम, डॉ डीएन शर्मा, डॉ अजय अनुपम, डॉ विनय, डॉ वीणा गौतम, प्रोफेसर निर्मला एस मौर्य, डॉ शंकर लाल क्षेम, प्रोफेसर आनंद कुमार त्यागी, के एस तूफान, गिरीश पंकज, डॉ गुर्रकोंडा नीरजा, डॉ सुशील कुमार त्यागी, डॉ अरविंद कुमार सिंह, अरविंद जय तिलक, डॉ चंदन कुमारी, स्नेह लता, डॉ निरंकार सिंह त्यागी, रश्मि अग्रवाल, डॉ डॉली, डॉ शैलजा सक्सेना, विजय प्रकाश भारद्वाज, डॉ मृदुला त्यागी, डॉ मंजू रुस्तगी, डॉ अरुण कुमार त्यागी, आचार्य संजीव कुमार त्यागी के महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त डॉ मनोज रस्तोगी द्वारा साहित्यिक मुरादाबाद के तत्वावधान में अप्रैल 2022 में स्मृतिशेष रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित तीन दिवसीय आयोजन की विस्तृत रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरा विशेषांक

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शनिवार, 7 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ----दंगा कैसे भड़का....


वाक् युद्ध में लगा रहे सब

अपना-अपना तड़का।

पता झूठ को भी है सच का

दंगा कैसे भड़का।


हमसे कथा कहानी में यह

कहा करे थी दादी।

सच होता है शांत भाव का

और झूठ उन्मादी।।

गलियों में उत्पात मचाता

फिरता किसका लड़का ।


मुश्किल से तो विदा हुआ है

भेदभाव का लफड़ा।

पहुँच रही निर्धन घर रोटी

इसका सदमा तगड़ा।।

डाल-डाल तू पात-पात मैं

ध्यान किसे है जड़ का।


आते हैं,सद्भाव बचाने

चले छतों से पत्थर।

इनमें भी अवसर ही ढ़ूँढे

राजनीति की चद्दर।।

उल्लू सीधा हो सबकी ही

अपनी-अपनी फड़ का।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

 झ-28, नवीन नगर

 काँठ रोड, मुरादाबाद

बातचीत: 9319086769

गुरुवार, 17 मार्च 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के होली के रंगों में रंगे दोहे ---होली की ये मस्तियां, अद्भुत इनके सीन। मीठी-मीठी भाभियां,दीख रहीं रंगीन।।



होली मन से खेल ली,खिलकर आया खेल।

ऊपर हैं सकुचाहटें , भीतर चलती रेल।


तन मन होली खेलते, निकले इतनी दूर।

वापस मन लौटा नहीं, कोशिश की भरपूर।।


मठरी बर्फ़ी सेब की,रही न तब औकात।

गुझिया जब करने लगी,मथे दही से बात।।


उसने उसके रंग दिए, रंग में सारे गात।

तुम पर पत्थर फिर पड़े,दिन से बोली रात।।


हाथों के सौभाग्य ने, मसले रंग गुलाल।

अधर फड़कते रह गए,लगी न उनकी ताल।।


होली है त्योहार भी,जीने का भी मंत्र।

बचे नहीं यदि प्रेम तो,भटके सारा तंत्र।।


होली की ये मस्तियां, अद्भुत इनके सीन।

मीठी-मीठी भाभियां,दीख रहीं रंगीन।।


भाभी के हों भाव या, फिर देवर के राग।

होली रंग पवित्र हैं, नहीं छोड़ते दाग।।


रंग चढ़ों के सामने,फीके सब पकवान।

रिश्तों की सब गालियां, होली का मिष्ठान।।

✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर
कांठ रोड, मुरादाबाद
पिनकोड: 244001
मोबाइल: 9319086769
ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com

बुधवार, 28 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के सात गीत ......

 


एक-----
ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
==================

ऋतुएँ! निकल किधर जाती हैं
साल, साल में घर आती हैं।

नहीं एक का, साझे का है
छह बहनों का पुस्तैनी घर।
जो भी इसमें रहती आई
वह, देखी गई अकेली पर।।
रहन-सहन इस ढब का हो तो
शंकाएँ घर कर जाती हैं।

बतलाए जाते हैं, इनके
और कहीं भी ठौर-ठिकाने।
चली वहीं जाती हैं क्रम से
अपना-अपना अर्थ कमाने।।
कमा-कमाकर गर्मी, ठिठुरन
और कमा जलधर लाती हैं।

जाती एक दूसरी लौटे
निज मान सुरक्षित रखने को।
घर की बात बना रक्खी है
आते जिसको सब लखने को।।
जोड़-जमाकर जी की ठंडक
हँसने को,पतझर लाती हैं।

दो-----
खेत जोत कर जब आते थे
================

खेत जोत कर जब आते थे
थककर पिता हमारे।
कहते! बैलों को लेजाकर
पानी जरा दिखाना।
हरा मिलाकर न्यार डालना
रातब खूब मिलाना।।
बलिहारी थे, उस जोड़ी पर
हलधर पिता हमारे।

स्वर से लेकर वर्णों तक के
जो भी पाठ पढ़ाए।
इस जीवन में उत्कर्षों तक
ले, जो हमको आए।।
परम शास्त्र के मंदिर जैसे
गुरुवर पिता हमारे।

इसी लोक से अपर लोक को
जाने वाला रस्ता।
इसपर पड़कर चलने वाला
बाँधे बैठा बस्ता।।
इसी मार्ग से मिल जाते हैं
ईश्वर! पिता हमारे।

तीन-----
काम बोलता है
=========

शोर मचा है! सबका
काम बोलता है।

सच का पता न पाया
पूछ-पूछ कर हारे।
किस मुँह से बतलाएँ
जो, उसके हत्यारे।।
पर, मदिरालय में कुछ
जाम बोलता है।

चुप रहती है कुर्सी
उस पर बैठा भी चुप।
रेंग रही है फाइल
खेल-खेलकर लुकछुप।।
आगे आकर केवल
दाम बोलता है।

सुस्ती में दिन सारे
ताल ठोकती रातें।
छंद विफल हो बैठे
पास हो गईं बातें।।
जिस पर होवे, उसका
राम बोलता है।

रुष्ट देवता इतने
सुनती नहीं देवियाँ।
घाटे पर घाटा है
उस पर नई लेवियाँ।।
लिखा मुकद्दर ऐसा
धाम बोलता है।

चार----
पीले पत्ते रड़क लिए
============

नव का स्वागत करते-करते
पीले पत्ते रड़क लिए।

खींच हमें ले जाता बरबस
मधुशाला का अपनापन।
वहाँ बैठकर कलुषित में भी
दिख जाता है उजलापन।।
झूठे सच्च बोलने लगते
घूँट तनिक जो कड़क लिए।

जितना सोचो, उतना दुष्कर
हवा महल के घर जाना।
गुनी-धुनी भी सीख न पाए
खूब तैरकर तिर पाना।।
बटिया-रस्ते थक हारें तो
चल पड़ती है सड़क लिए।

अच्छे-अच्छे सपने देखे
और दिखाए औरौं को।
पके फलों का सदा टपकना
भाग्य मिला है बौरों को।।
जितनी साँसें थीं, दिल उतने
रह सीने में धड़क लिए।

पांच--------------------------
फुदक रही हैं खीलें
===========

गिद्ध और सब चीलें
लगी हुई हैं, लाशें
गिर जायें तो छीलें।

प्रोपेगैंडा के सब
अक्षर लगे चीखने।
पास हमारे आओ
हमसे कला सीखने।।
लूट घरों को,उनपर
लगा रहे खुद सीलें।

गाँव-गाँव अब भुरजी
भाड़ झोंक हर्षाए।
आये जो भुनवाने
सबने उधम मचाए।।
जली-भुनी जितनी भी
फुदक रही हैं खीलें।

चढ़ मंचों पर गरजें
भटिये इधर-उधर के।
मूषक मक़सद पूरे
गन्ने कुतर-कुतर के।।
भेड़ भेड़िए खाएँ
हुई पड़ी हैं डीलें।

अगुआ हलधर सारे
लगे देखने धन्धे।
चौपट फसल करा दी
यूज़ हो गए कंधे।।
लुटिया भरी डुबाकर
अब गंगाजल पीलें।

छह------------------------
चलो! एक हम भी होलें
==============

रोग-व्याधियों के कुनबे
एक हो गए मिलकर।
चलो! एक हम भी होलें
फटा-पुराना सिलकर।।

पाँचों उंगली अलग-अलग
सिर्फ विवशता जीतीं।
मिल बैठैं तो मिली जुली
सार शक्तियाँ पीतीं।।
सीख ग़लतियों से मिलती
दर्द दुखों में बिल कर।

दुरुपयोग शक्तियाँ जियें
तो चिंता हो पुर को।
भस्मासुर की अतियाँ ही
डहतीं भस्मासुर को।।
एक हुआ था, लेकिन सच
देवलोक भी हिलकर।

विविध धर्म भाषाएँ मिल
मानव मर्म बचाएँ।
महल, मड़ैया, घेर सभी
संजीवन हो जाएँ।।
राम हुए ज्यों पुरुषोत्तम
मर्यादा में खिलकर।

सात-----
डर बैठाते हैं
=======

गरज-गरज कर काले बादल
डर बैठाते हैं।
ज़िद पर उतर हवा आए तो
दौड़ लगाते हैं।।

ख़बर बुरी है! पर, जीने को
हरगिज़ जीना है।
सुख-दुख जीवन के साजिंदे
समय हसीना है।।
दिवस-रात ही विषम चक्र में
शुभ ले आते हैं।

भाग्य बुरा है तो मिल-जुलकर
उसे सँवारेंगे।
पास-दूर के सब ही अपने
उन्हें पुकारेंगे।।
निष्ठाओं के दम पर ही, घर
भगवन् आते हैं।

विपदाओं का गुण ही सबको
दुख पहुँचाना है।
हमने सीखा खुद को, कैसे
पार लगाना है।।
पंख खुलें तो उड़ धरती का
अम्बर छाते हैं।

✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
कांठ रोड, मुरादाबाद
पिनकोड: 244001
मोबाइल: 9319086769
ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com

गुरुवार, 22 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ---जुल्मों से भी आँख मिलाकर नहीं आँख है मींची। संस्कृतियों के गले न काटे मुरझी थिरकन सींची।।


माल नहीं हम औने-पौने

लगी-उठाई फड़ के।

पेड़ पुरातन सभ्य समाजी

नस्से देखो जड़ के।।


इन साँसों में बसी न हिंसा

मुनिजन इनमें रहते।

धड़कन और शिराओं में बस

वेद-मंत्र ही बहते।।

पावन शब्द-दूत ही भेजे

जब भी दुश्मन कड़के।


रौंदी नहीं सभ्यता कोई

सदा उद्धरण बोये।

जब-जब भी मानवता सिसकी

परवत हमने ढोये।।

आहत धड़कन कहीं मिली तो

हम भी भीतर फड़के।


जुल्मों से भी आँख मिलाकर

नहीं आँख है मींची।

संस्कृतियों के गले न काटे

मुरझी थिरकन सींची।।

बीन-बान कर सदा पिरोये

मोती बिखरी लड़ के।


कभी व्यवस्था करी न बंधक

कभी न उल्लू साधे।

लोकतंत्र की निर्मलता के

बने नहीं हम बाधे।।

छाया देते सड़ी तपन को

ठहरे वंशज बड़ के।


✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी, झ-28, नवीन नगर

कांठ रोड, मुरादाबाद,पिनकोड: 244001

मोबाइल: 9319086769

ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ---- आग बबूला हो लूओं ने हाल बुरा कर छोड़ा तन का। पुरवाई भी डरी पड़ी है आया देख, पसीना घन का।।


आग बबूला हो लूओं ने

हाल बुरा कर छोड़ा तन का।

पुरवाई भी डरी पड़ी है

आया देख, पसीना घन का।।


आग टिकी आकर पेड़ों पर

छाया लगे खौलता पानी।

भुनने में कुछ कसर नहीं है

ज्वर में सब मौसम विज्ञानी।।

स्वयं रगड़ से धधकी ज्वाला

हाल न देखा जाये वन का।


भाप हो गई कूप सम्पदा

संकट है पर्वत से भारी।

लड़ी नदी भी कुछ दिन लेकिन

लगी सूखने जब थक हारी।।

पी चोहे ने चिह्न न छोड़ा

धार नदी के धारीपन का।


पशुओं तक की पीठ हुई है

चूल्हे पर रक्खा गर्म तवा।

नहा गरम बालू में चिड़ियां

जब चलीं खोजने दबी दवा।।

बही पूरबा, पछुवा भागी

आओ, घन बरसाने मन का।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत, मोबाइल : 9319086769

ईमेल: makkhan.moradabadi@gmail.com