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सोमवार, 25 मार्च 2024

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' की ओर से 23 मार्च 2024 शनिवार को योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' के दोहा-संग्रह 'उगें हरे संवाद' का लोकार्पण एवं काव्य गोष्ठी आयोजित

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'हस्ताक्षर' की ओर से नवगीतकार माहेश्वर तिवारी के गौर ग्रीशियस स्थित आवास 'हरसिंगार' में शनिवार 23 मार्च 2024 को आयोजित गोष्ठी में साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' के दोहा-संग्रह 'उगें हरे संवाद' का लोकार्पण किया गया। कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट द्वारा प्रस्तुत माॅं शारदे की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम में डॉ.अजय 'अनुपम'  द्वारा लोकार्पित कृति पर समीक्षा प्रस्तुत की गई तथा लोकप्रिय शायर ज़िया ज़मीर द्वारा लिखित समीक्षा आलेख का वाचन राजीव प्रखर ने किया। 

      लोकार्पण के पश्चात् एक काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता करते हुए  माहेश्वर तिवारी ने अपने भावों को शब्द दिये- 

गीतों भरी सुबह लगती है, रंगों डूबी शाम।

याद बहुत आते हैं कल के रिश्ते और प्रणाम। 

मुख्य अतिथि डॉ.अजय अनुपम ने कहा- 

जिस पल से होने लगा, नेता का धन दून। 

लगे तभी से सूखने, छप्पर पर कानून।। 

जैसे बच्चे खेलते, कुर्ता पकड़े रेल।‌ 

कुनबेदारी ले गई, नेताजी को जेल।।  

विशिष्ट अतिथि विशाखा तिवारी ने होली का सुंदर चित्रण करते हुए कहा -

पैंया पड़ूं कर जोरी, 

श्याम मो से न खेलो होरी। 

संचालन करते हुए योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने कहा- 

मनके सारे त्याग कर, कष्ट और अवसाद। 

पिचकारी करने लगी, रंगो से संवाद।। 

गुझिया से कचरी लड़े, होगी किसकी जीत। 

एक कह रही है ग़ज़ल, एक लिख रही गीत।। 

  कवयित्री डॉ.पूनम बंसल के होली गीत ने सभी को वाह करने पर विवश कर दिया- 

फागुन का है मस्त महीना पिचकारी की धार लिए। 

रूठों को हम चलो मनाएं,रंगों का उपहार लिए।। 

जीवन में मस्ती की सरगम लेकर आई है होली। 

रंगों में यूं भीगा तन मन सजनी साजन की हो ली।। 

  डॉ.कृष्ण कुमार नाज़ के अशआर सभी को झूमने पर विवश कर गये - 

बादलों की सुरमई छतरी यहाँ तानी गई, 

तब कहीं तपते हुए सूरज की मनमानी गई। 

शुक्रिया तेरा, मेरी ख़ानाबदोशी शुक्रिया, 

तू मिली तो गर्दिशों की ज़ात पहचानी गई। 

डॉ. मनोज रस्तोगी का कहना था - 

घर-घर में करना आह्वान है।

मत का करना सही दान है।।

परिवार सहित चलें बूथ पर।

बाद में करना जलपान है।।

राजीव प्रखर ने अपने दोहों के रंग इस प्रकार छोड़े - 

बदल गई संवेदना, बदल गए सब ढंग। 

पहले जैसे अब कहाॅं, होली के हुड़दंग।। 

गुमसुम पड़े गुलाल से, कहने लगा अबीर। 

चल गालों पर खींच दें, प्यार भरी तस्वीर।। 

कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट का कहना था - 

टेसू शाखों पर खिले, घुली प्रेम की भंग। 

साजन ने जब आ सखी,मुझ को डाला रंग ।। 

हंसी ठिठौली नेह की,भरती सारे घाव। 

हास और परिहास का, बना रहें सद्भाव।। 

मीनाक्षी ठाकुर ने वर्तमान परिस्थितियों पर तीखा व्यंग्य किया - 

पुते चुनावी रंगों में फिर गिरगिटिया अय्यार।  

उल्लू और गधे आपस में, जमकर हिस्सेदार बने। 

दीन धर्म के ही सौदे को, जगह- जगह बाज़ार तने। 

लेकर लच्छे वाले भाषण  दल -बदलू तैयार।। 

मनोज मनु भी अपने गीत से सभी के हृदय को जीतते हुए चहके - 

होली पर हुरियारों देखो, कसर न दमभर रखना, 

रंगों का त्योहार है सबके तन संग मन भी रंगना। 

ठिठुरन भुला बसंत घोलता मन मादकता हल्की,

करती है किस तरह प्रकृति, रचना हर एक पल की, 

फिर मन भावन फागुन खूब खिलाता टेसू अंगना। 

      इस अवसर पर विशेष रूप से दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकांत गुप्त, संतोष रानी गुप्त, अक्षरा तिवारी, आशा तिवारी उपस्थित रहे। समीर तिवारी द्वारा आभार अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा।





































:::::प्रस्तुति:::::::

राजीव प्रखर

सह संयोजक- हस्ताक्षर, मुरादाबाद। 

मोबाइल- 9368011960


रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा...मन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे.

    योगेन्द्र वर्मा व्योम आज के साहित्यिक परिदृश्य में एक जाना पहचाना नाम हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहे, कहानी, समीक्षा, लघुकथा, आलेख आदि विभिन्न विधाओं में लिख रहे व्योमजी की अब तक चार कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और अपनी हर कृति के साथ क्रमशः उन्होंने अपनी उत्तरोत्तर निखरती साहित्यिक प्रतिभा को और अधिक समृद्ध किया है और आज वे किसी परिचय के लिए पराश्रित नहीं हैं।

          काव्य-संग्रह "इस कोलाहल में" से आरंभ हुई उनकी यह साहित्यिक यात्रा "उगें हरे संवाद" की हरितिमा लिए आज हमारे सामने है। समकालीन समय और संबंधों से संवाद करना व्योमजी की प्रमुख लेखन शैली है और इसी शैली में उनका वर्तमान दोहा-संग्रह समय और सम्बन्धों से न केवल संवाद कर रहा है वरन् इनमें हरेपन की आशा भी कर रहा है। स्वयं व्योम जी के व्यवहार की यह एक बड़ी विशेषता है कि वे कनिष्ठ-वरिष्ठ, नवोदित-स्थापित, युवा-वयोवृद्ध और महिला-पुरुष सभी को समान महत्व देते हैं, सबका सम्मान करते हैं और सभी के विचारों का स्वागत करते हैं। एक साहित्यकार का यह एक महत्वपूर्ण गुण होता है कि वह उदार हृदय का स्वामी हो, अपनी संवेदनशीलता के साथ वह किसी भी ओर से आए सारगर्भित विचारों को आत्मसात करने का बड़ा हृदय रखता हो, बड़ों का अतिशय सम्मान करता हो और नवांकुरों को भी प्रोत्साहित करता हो, यही उदारता लेखन को समृद्ध करती है।

       व्योम जी के समृद्ध लेखन की कड़ी में "उगें हरे संवाद" दोहा-संग्रह की बात मैं यहांँ करने जा रही हूँ। "उगें हरे संवाद" योगेंद्र वर्मा व्योम जी की चौथी प्रकाशित कृति है। इस दोहा-संग्रह का आवरण पृष्ठ नैराश्य की ऊसर मृदा में सदाशयता के दो हरित पत्र पल्लवित होते हुए दिखा रहा है,जो कि संग्रह के आशय और महत्व को प्रतिपादित करते हुए आवरण पृष्ठ हेतु इमेज के सटीक चयन को प्रमाणित करता है। प्राय: हम पत्तियों के त्रिकल या विषम कल्लों का गुच्छ चित्र रूप में देखते हैं,लेकिन यहाँ द्वि कल का चित्र प्रयोग किया गया है, मुझे नहीं ज्ञात कि यह सायास है अथवा अनायास, लेकिन सायास हो अथवा अनायास इस दोहा संकलन हेतु यह बहुत ही सार्थक चुनाव है। दो हरी पत्तियां एक तरह से दोहे की दो पंक्तियों को इंगित कर रहीं हैं और ये हरी पत्तियांँ आश्वस्त कर रही हैं कि कहीं ना कहीं ये संवाद फलित होंगे और आशा का यह सफर नये कल्लों के प्रस्फुटन से निरंतर बढ़ता रहेगा।

        दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" की प्रस्तावना में प्रतिष्ठित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी, अशोक अंजुम, डॉ अजय अनुपम और डॉ मक्खन मुरादाबादी के आशीर्वचन और योगेन्द्र वर्मा व्योम  का आत्मकथ्य स्वयं में इतने समृद्ध, पुष्ट, सारगर्भित और विशिष्ट हैं कि इस पर कोई भी विशेषज्ञ अथवा विशिष्ट टिप्पणी किये जाने में मैं ही क्या कोई भी स्वयं को असमर्थ पायेगा, परंतु एक पाठक एक विशेषज्ञ से पूर्णतः पृथक होते हुए भी उसके समान ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अंततः कृति की संरचना एक पाठक हेतु होती है तो मैं इस कृति की समीक्षा कोई विशेषज्ञ अथवा साहित्यकार के तौर पर न करके एक पाठक की दृष्टि से करना चाहती हूंँ क्योंकि साहित्य के पल्लवन में एक पाठक की दृष्टि, एक पाठक का मत सदैव महत्वपूर्ण होता है।

          परम्परा के अनुसार यह दोहा-संग्रह भी माँ वीणापाणि को प्रथम नमन निवेदित करता है।शारदा मांँ की वंदना से आरंभ यह दोहा-संग्रह जैसे ही अगले पृष्ठ पर बढ़ता है तो-      

"उगना चढ़ना डूबना, सभी समय अनुरूप। 

सूरज सी यह ज़िन्दगी, जिसके अनगिन रूप।।"

     दोहे के साथ जीवन के विविध पहलुओं को खोलना शुरू करता है। दोहाकार जानता है कि वर्तमान में अवसाद जीवन पर हावी है और इसका एकमात्र उपाय प्रसन्न रहना यानि मुस्कुराहट की शरण में जाना है। अतः वह कहता है कि-

"चलो मिटाने के लिए, अवसादों के सत्र।

फिर से मिलजुल कर पढ़ें, मुस्कानों के पत्र।।"

     मुस्कान अगर झूठी हो तो फलित नहीं होती और मुस्कान झूठी इसलिए होती है क्योंकि मन में कहीं ना कहीं कटुता का दंश हावी है। आगे यही बताते हुए कवि कहता है -

"सहज नहीं फिर रह सकी, आती जाती सांँस।

मन में गहरे तक धंँसी, जब कटुता की फांँस।।"

और इसका परिणाम इस रूप में दोहाकार रखता है-

"नहीं रही वह भावना, नहीं दिखा सत्कार।

पतझड़-सा क्यों हो गया, आपस का व्यवहार।।"

लेकिन अगले ही पृष्ठों में हमें रिश्तों के खिल उठने के सुखद आधार मिलते हैं जो इशारा देते हैं कि किस तरह से हम सम्बन्धों में आई कटुताओं को दूर कर सकते हैं -

"छँटा कुहासा मौन का, निखरा मन का रूप।

रिश्तों में जब खिल उठी, अपनेपन की धूप।।"

        प्रायः आवेश में किए गए व्यवहार ही रिश्तों की आत्मीयता को पलीता लगाते हैं तभी दोहाकार लिखता है-    

"तेरे मेरे बीच जब, खत्म हुआ आवेश।

रिश्तो के अखबार में, छपे सुखद संदेश।।"

     रिश्तों के अतिरिक्त इस संग्रह में समय से भी संवाद है। यह समय जहाँ-    

"व्हाट्सएप औ' फेसबुक, ट्वीटर इंस्टाग्राम।

तन-मन के सुख-चैन को, सब ने किया तमाम।।

और-

समझ नहीं कुछ आ रहा, कैसे रहे तटस्थ।

मूल्यहीन इस दौर में, संस्कार अस्वस्थ।।"

               प्रस्तुत दोहा संग्रह में लगभग सभी समकालीन विषयों यथा भ्रष्टाचार, राजनीतिक पतन, गरीबी, मातृभाषा हिन्दी की स्थिति, मंचीय लफ्फाजी, कविता की स्थिति, पारिवारिक विघटन, आभासी सोशल मीडिया युग, चाटुकारिता और स्वार्थपरता जैसे विविध विषयों पर कवि द्वारा अपने उद्गार अपनी विशिष्ट दृष्टि के पैरहन पहनाकर प्रस्तुत किये गये हैं। समकालीन विषयों पर चिंतन करना आम बात हो सकती है पर इन दोहों में कवि द्वारा इन पर चिंतन विशिष्ट भाषा शैली, विविध शब्द चित्र और अद्भुत भाव व्यंजना के मोती पिरो कर किया गया है, जो इस चिंतन को विशिष्ट बना देता है।बानगी अग्रिम दोहों में देखें-

"स्याह विचारों की हुई, कुटिल साधना भंग।

मन-प्रांगण में जब हुआ, भावों का सत्संग।।

संदर्भों का आपसी, बदल गया व्यवहार।

शब्दों की जब-जब हुई, अर्थों से तकरार।।

अय्यारी मक्कारियाँ, छलछंदों की देख।

अधिकारों ने भी पढ़े, स्वार्थ पगे आलेख।।"

स्याह विचार की कुटिल साधना, मन प्रांगण में भावों का सत्संग, शब्दार्थ की तकरार और अधिकारों का स्वार्थ पगे आलेख पढ़ना जैसे अनुपम दृश्य उत्पन्न करना, कवि की विशिष्टता है। वह वर्तमान परिस्थितियों पर न केवल विशेष चिंतन करते दिखते हैं वरन् इन परिस्थितियों के हल भी अलंंकारिक तरीके से सुझाते हैं और नये रूपक प्रस्तुत करते हैं। मानवीकरण अलंकार का यत्र-तत्र अद्भुत प्रयोग इस संग्रह की विशिष्टता है। वर्तमान में मेरे द्वारा पढ़े गए दोहाकारों में लखनऊ की सुप्रसिद्ध कवियित्री संध्या सिंह जी के अद्भुत दोहों के बाद व्योमजी के दोहों ने मेरा मन आकृष्ट किया है। कुछ दोहें‌ देखें जैसे-

"मिट जाए मन से सभी, मनमुटाव अवसाद।

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरें संवाद।।

उम्मीदें, अपनत्व भी, कभी न होंगे ध्वस्त।

लहजा, बोली, सोच हो, अगर न लकवाग्रस्त।।"

      दोहाकार ने समय के हर पहलू को समेटा है, एक ओर समय का समकालीन समाज तो दूसरी ओर समय का प्राकृतिक स्वरूप जो विविध ऋतुओं के रूप में निरन्तर आगे बढ़ता है और वह स्वरूप भी जो समय की प्रकृति के अनुसार हमारा समाज विविध पर्वों के रूप में मनाता है, अर्थात समकालीन समय के साथ-साथ सर्दी, गर्मी, वर्षा, वसंत जैसी ऋतुएँ और होली, दीपावली, वसंतोत्सव जैसे पर्व सभी दृश्य इस दोहा-संग्रह में अपनी बहुरंगी आभा बिखेरते दिख जाएंगे। जैसे-

"रिमझिम बूंँदों ने सुबह, गाया मेघ-मल्हार।

स्वप्न सुनहरे धान के, हुए सभी साकार।।

महकी धरती देखकर, पहने अर्थ तमाम।

पीली सरसों ने लिखा, खत वसंत के नाम।।

आतिशबाजी भी नया, सुना रही संगीत।

और फुलझड़ी लिख रही, दोहा मुक्तक गीत।।"

       अपनी बात को समेटते हुए कहना चाहूँगी कि व्योमजी एक सम्भावनाओं से भरे हुए साहित्यकार हैं, उदार व्यक्तित्व के स्वामी हैं पर उससे भी बढ़कर जो उनकी खूबी है वह है रिश्तों को जीने, सहेजने और उनके बिखराव पर चिंता करने की उनकी संवेदनशीलता और इस चिंतन को दो पंक्तियों के दोहे में उन्होंने जिस खूबसूरती और गहन निहितार्थ के साथ व्यक्त किया है, वह निस्संदेह अभिनंदनीय है। हालांकि एक दो स्थानों पर कुछ मात्रिक व शाब्दिक त्रुटियाँ तमाम सावधानी के बाद भी रह जाना सामान्य बात है जैसे-

"दोहे की दो पंक्तियांँ, एक सुबह, इक शाम।"

(एक और इक का प्रयोग)

अथवा

"कल बारिश में नहायी, खूब संवारा रूप।"

(प्रथम चरण के अंत में दो गुरु होना)

  परन्तु ये त्रुटियांँ धवल पटल पर पेंसिल की नोंक से बनी बिन्दी भर हैं और व्योमजी की प्रतिभा के सापेक्ष उनसे रखी जाने वाली अपेक्षाओं के फलस्वरूप ही इंगित की गई हैं,अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। 

    दोहा आकार में भले ही दो पंक्तियों का अस्तित्व रखता हो, परंतु एक सामर्थ्यवान दोहाकार अपने विशिष्ट शब्दसंयोजन और व्यंजना के प्रयोग से इन दो पंक्तियों को एक लम्बी कविता से अधिक सार्थक व मूल्यवान बना सकता हैमन-प्रांगण में भावों का सत्संग करते दोहे व्योमजी के अधिकांश दोहे इस बात को सिद्ध करते हैं। तमाम अर्थ समेटे दोहे की दो पंक्तियांँ चमत्कार करने का सामर्थ्य रखती हैं और दोहाकार ने इस सामर्थ्य को पूरे मन से समर्थ किया है। "उगें हरे संवाद" आने वाले समय में विज्ञजनों के बीच संवाद का केन्द्रबिंदु बने और पाठकों का ढ़ेर सारा प्यार इस संग्रह को मिले, ऐसी शुभकामनाओं के साथ मैं अपने इस अग्रिम दोहे के रूप में अपनी भावनाएं समेटती हूँ।

"रिश्तों में जो खो गई, उस खुशबू को खोज।       

उगा हरे संवाद की, नित नव कोपल रोज।।"



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष 2023

पृष्ठ संख्या104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षिका
- हेमा तिवारी भट्ट

मकान नं०- 194/10, (एमजीआर के निकट), 

बुद्धि विहार (फेज-2) सेक्टर-10,

मुरादाबाद-244001, (उ०प्र०)

मोबाइल- 7906879625

सोमवार, 29 जनवरी 2024

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर द्वारा योगेन्द्र वर्मा व्योम के दोहा संग्रह "उगें हरे संवाद" की समीक्षा..... "मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार"

    चार चरणों वाला तथा दो पंक्तियों वाला दोहा हिन्दी साहित्य का वह पहला छंद है, जिसे हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं के मध्य सर्वाधिक यश प्राप्त हुआ। सूर, कबीर, तुलसी, बिहारी की दोहा-लेखन परंपरा को अनेक प्राचीन कवियों ने आगे बढ़ाया और वर्तमान में भी अधिकांश कवियों ने दोहा लेखन को सर्वप्रिय बनाये रखा है। 

हाल ही में मुरादाबाद के वरिष्ठ व यशस्वी नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" के दोहे पढ़ते हुए महसूस हुआ कि उन्होंने दोहा-लेखन में "नवदोहे" के रूप में एक नये काव्यरूप का सृजन कर एक बड़ी उपलब्धि पा ली है। नवगीत की ही भांँति व्योम जी के दोहे परंपरागत शैली से हटकर नये कथ्य, नये बिम्ब गढ़ते हुए आधुनिक युग की बात करते हैं। इस दौरान आपने दोहे की मूल अवधारणा को भी पूर्णतः सुरक्षित रखा है। आपके दोहों में नवगीत के सभी आवश्यक तत्व यथा-जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व बोध, प्रीति आदि स्वत: ही  दोहे की दो पंक्तियों में समा गये हैं। कोरे उपदेशात्मक रवैये को त्यागकर आपके दोहे आम आदमी की बात करते हैं, जो कल्पना लोक की कोमल बिछावन से उतरकर यथार्थ के खुरदरे धरातल पर चलकर पाठकों के बीच पहुँचते हैं। उनके दोहों के भीतर कथ्य और शिल्प दोनों में नवगीत का मूल तत्व- 'नवता' प्रमुख रूप से  उभर कर सामने आता है, फलतः मेरे दृष्टिकोण से व्योमजी के दोहों को 'नवदोहे' कहना ही अधिक श्रेष्ठ होगा।

मांँ शारदे की वंदना से प्रारंभ होकर, यह उत्कृष्ट नवदोहा-संग्रह, भारतीय संस्कृति-संस्कार, जीवन-मूल्यों व सामाजिक सरोकारों की पैरवी करता हुआ भारत के जयघोष पर आकर रुकता है। एक कुशल नवगीतकार की लेखनी से जब नवदोहे प्रसूत हुए तो चुप के ऊसर में उगे हरे संवाद, मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार करने  हेतु तत्पर हो उठे और कृति को शीर्षक प्रदान करता उनका यह दोहा अत्यंत उत्कृष्ट बन गया-

मिट जायें मन से सभी, मनमुटाव-अवसाद। 

चुप के ऊसर में अगर, उगें हरे संवाद।।

         व्योमजी के दोहों की व्यंजना-शक्ति चमत्कृत करती है तो भाषा की भव्यता, भावों को निर्मलता प्रदान करती है। रूपक-यमक, अनुप्रास और मानवीकरण आदि अलंकारों से श्रृंगारित दोहे, बेहद सरल व सहज बन पड़े हैं। नव्यता के बावजूद भी आपके शब्द कहीं से भी आरोपित नहीं लगते। गंभीर विषयों के सागर को आपने जिस सहजता व  कुशलता से दो पंक्तियों वाले दोहे की गागर में  उड़ेल दिया है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। जीवन का सारांश प्रस्तुत करता यह दोहा पाठकों की अंतरात्मा को झकझोर देता है-

धन-पद-बल की हो अगर, भीतर कुछ तासीर। 

जीकर देखो एक दिन, वृद्धाश्रम की पीर।।

        कवि के भीतर की आत्मीयता से भरे दोहों ने जब कल्पना की झील में नहाकर, अनूठे विम्बों को धारण किया तो आपके नव दोहे प्रत्यक्ष होकर, "नभ पर स्वर्ण सुगंधित गीत" लिखने लगे। इसकी एक बानगी देखिए-

मन ने पूछा देखकर ,अद्भुत दृश्य पुनीत। 

नभ पर किसने लिख दिए, स्वर्ण सुगंधित गीत।।

            व्योमजी के दोहे यथार्थ के धरातल पर उगे हैं, अतः अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं ताकि क्षरित होते हुए मूल्यों को बचाया जा सकें। तभी तो व्योमजी लिखते भी हैं-

मूल्यहीनता से रही, इस सच की मुठभेड़। 

जड़ से जो जुड़कर जिए, हरे रहे वे पेड़।।

और आभासी युग में संस्कार व संस्कृति की दुर्गति देखकर कवि के व्यथित कोमल हृदय से भावनाओं का लावा दोहों के रूप में बह निकलता है और व्योमजी लिखने पर विवश हो जाते हैं-

ऐसे कटु परिदृश्य का, कभी न था अनुमान। 

सूली पर आदर्श हैं, संस्कृति लहूलुहान।।

साथ ही उन्होंने आधुनिक समय के पीढ़ीगत मतभेदों को भी अपने दोहों में बड़ी कुशलता से चित्रित किया है-

देख-देखकर हैं दुखी, सारे बूढ़े पेड़। 

रोज़ तनों से टहनियाँ, करती हैं मुठभेड़।।

         आजकल मंच पाने की होड़ में कविता लेखन के नाम पर बाहुबली लफ्फाजियों ने अधिक स्थान घेरा हुआ है तथा स्वाभिमानी कविता को हाशिये पर धकेल दिया है। कविता में इस जुगाड़बाजी का व्योमजी ने बड़ी निर्भीकता से चित्रण किया है-

दफ़्न डायरी में हुए, कविता के अरमान। 

मंचों पर लफ्फाज़ियाँ, पाती हैं सम्मान।।

कविता के इतर, आज हिंदी साहित्य के अन्य सृजन यथा- कहानी, नाटक व अन्य विधाओं के लेखन के प्रति साहित्यकारों की उदासीनता को भी आपने पूरी ईमानदारी के साथ सशक्त दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इसका एक उदाहरण देखिए-

नाटक गुमसुम चुप खड़ा, भर नयनों में नीर। 

शून्य सृजन की है घुटन, किसे सुनाये पीर।।

साथ ही चाटुकारिता को मुँह चिढ़ाता हुआ, आपका यह दोहा आज के समय में बिलकुल उपयुक्त जान पड़ता है-

लगन ,समर्पण और श्रम, सारे ही हैरान। 

चाटुकारिता को मिला, श्रेष्ठ कर्म सम्मान।।

पाठक की अंतरात्मा को झकझोरते, सीधी-सच्ची बात करते आपके दोहे, सीधे हृदय को स्पर्श करते हैं। इसी क्रम में, अधोलिखित समसामयिक दोहे का अप्रतिम काव्यात्मक सौंदर्य, शिल्प और कथ्य देखते ही बनता है-

बदल रामलीला गयी, बदल गए अहसास। 

राम आजकल दे रहे, दशरथ को वनवास।।

व्योमजी समाज को आईना भी दिखाते हैं और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ पारिवारिक रिश्तों में मिठास और सामाजिक-संबंधो में उल्लास बनाये रखने की पैरवी भी करते हैं, यही आपके दोहों की आत्मा है। इसकी झलक पूरे संग्रह में देखने को मिलती है। एक बानगी देखिए-

आशा के अनुरूप हो, आपस का व्यवहार। 

फिर हर दिन परिवार में, बना रहेगा प्यार।।

नयी बहू ससुराल जब, पहुँची पहली बार। 

स्वागत में सब बन गए, रिश्ते तोरणद्वार।।

          सजग कवि देश हित में ही सोचता और लिखता है। किसी भी देश की राजनीति का उस देश के उत्थान-पतन में महत्वपूर्ण स्थान होता है और एक सजग व निर्भीक कवि सदैव अपनी लेखनी के माध्यम से राजनीतिक विद्रूपता को वास्तविकता का दर्पण दिखाता रहा है। इसी क्रम में आप लिखते हैं कि-

लोकतंत्र में भी बहुत, आया है बदलाव। 

आये दिन होने लगे, अब तो आम चुनाव।।

सारे ही दल रच रहे, सत्ता का षडयंत्र। 

अब तो अवसरवादिता, राजनीति का मंत्र।।

आम आदमी की पीड़ा और गरीब की भूख आपको भीतर तक झंझोड़ती है और आपकी कलम लिखने पर विवश हो जाती है-

मिले हमें स्वाधीनता, बीते इतने वर्ष। 

ख़त्म न लेकिन हो सका, "हरिया" का संघर्ष।।

सपनो के बाज़ार में, "रमुआ" खड़ा उदास। 

भूखा नंगा तन लिए, कैसे करे विकास।।

परंतु साथ ही देश के नागरिकों से कर्तव्यनिर्वहन का आह्वान करना भी नही भूलते, तभी तो लिखते हैं-

तुम विरोध बेशक करो, किंतु रहे यह ध्यान। 

राष्ट्रगर्व के पर्व का, क्षरित न हो सम्मान।।

आज के भागदौड़ भरे जीवन में पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति में सुख हमसे कोसों दूर हैं, परंतु मानसिक तनाव स्थायी होते जा रहे हैं, इस स्थिति को अद्भुत विम्बों में पिरोना एक श्रेष्ठ नवदोहाकार के लिए अत्यधिक सरल जान पड़ता है। तभी तो आपने लिखा है-

सुख साधारण डाक से, पहुंँच न पाये गांँव। 

पर पंजीकृत मिल रहे, हर दिन नये तनाव।।

          प्रकृति चित्रण के तो कहने ही क्या हैं। चाहे वो "तानाशाह सूरज" हो या, "मंचासीन बूंँदे", "मेघों का अखबार" हो या "बारिश में नहायी बूंँदे"। "वासंती नवगीत गाती कोयल" हो या "पीली सरसों का ख़त"। सभी के चित्र नवदोहाकार व्योमजी एक फ्रेम में रखने में सक्षम हो गये हैं। यह कवि का कोमल हृदय ही है जो  बूंँदों की  उद्दंडता को सहने में असमर्थ गरीब की पीड़ाभरी मनुहार को बड़े ही मार्मिक और विनीत भाव से लिखता है-

बरसो! पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध। 

रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध।।

          तीज-त्योहार मनाने में भी कवि की कलम पीछे नहीं है। अद्भुत विम्ब जब त्योहारों की मस्ती में रंँगे, तो "पिचकारी रंगो से संवाद करने लगी" और दीपशिखाओं के उजास में एक और नया अध्याय जुड़ गया। एक दोहा देखिए-

मन के सारे त्यागकर, कष्ट और अवसाद। 

पिचकारी करने लगी, रंगों से संवाद।।

           वर्तमान समय की एक बड़ी समस्या प्रदूषण भी है जिसके कारण अनेक विसंगतियाँ भी उत्पन्न हुईं और जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यक साँसों पर संकट। पर्यावरण प्रेमी कवि विकास के नाम पर विनाश देखकर व्यथित हो उठता है और लिखता है-

जब शहरों की गंदगी, गयी नदी के पास। 

फफक-फफककर रो उठी, पावन जल की आस।।

समसामयिक संदर्भों पर आपकी लेखनी ने खूब सम्मान पाया है फिर चाहे वो समाजिक घटनाएँ हों या देशभक्ति से जुड़े ऐतिहासिक पल-

भारत की उपलब्धि से ,बढ़ी जगत में शान। 

मूक-बधिर से हो गये, चीन -रूस-जापान।।

आज तिरंगे की हुई, जग में जयजयकार। 

मिशन चंद्रमा का हुआ, सपना जब साकार।।

             व्योमजी की यह कृति उन्हें देश के प्रथम नवदोहाकार की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है। और उनके पूरे संकलन की समीक्षा केवल एक दोहे से ही की जा सकती थी, परंतु जिस प्रकार हांँडी का एक चावल चखने के पश्चात संपूर्ण भोज किये बिना नहीं रहा जा सकता, उसी प्रकार एक दोहा पढ़ने के पश्चात,  आपका संपूर्ण "नवदोहा-संग्रह" पढ़े बिना नहीं रहा जा सका। पंक्तियाँ देखिएगा-

मिलजुलकर हम तुम चलो, ऐसा करें उपाय। 

अपनेपन की लघुकथा,उपन्यास बन जाये।।

मुझे विश्वास है कि यह कृति "उगें हरे संवाद" निश्चित रूप से हिंदी साहित्य में नवदोहों की लघुकथाओं के अपनत्व से भरा एक सार्थक उपन्यास सिद्ध होगी। 



कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)

कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद

प्रकाशन वर्ष - 2023

पृष्ठ संख्या- 104 

मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)


समीक्षक
- मीनाक्षी ठाकुर

मिलन विहार, दिल्ली रोड, 

मुरादाबाद- 244001





शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के नौ दोहे ....


मिला तिरंगे को नया, आज मान-सम्मान । 

पहुँच गया जब चाँद पर, विश्वासों का यान ।। 1।।

दृढ़ संकल्पों के सफल, जग में हम पर्याय । 

झंडा गाढ़ा चाँद पर, लिखा नया अध्याय।। 2।।

भारत की उपलब्धि से बढ़ी जगत में शान । 

मूक-बधिर से हो गये, चीन- रूस-जापान।। 3।।

भारत का संसार में, बढ़ा मान-सम्मान । 

कामयाब जब हो गई, सपनों भरी उड़ान ।।4।।

 सुन चंदा की भूमि से, भारत का जय नाद । 

संकल्पों ने भी किया, दृढ़ता का अनुवाद ।।5।। 

चन्द्रयान की सफलता, बना हमारा गर्व ।

 हर जन के मन में मना, नया राष्ट्रीय पर्व ।।6।।

 मिलने पहुँचा चाँद से, भारत का विश्वास । 

लो हमने भी रच दिया, एक नया इतिहास ।। 7।।

दुनिया में फिर से बनी, एक अलग पहचान।

पहुँच गया लो चाँद पर, अपना हिन्दुस्तान।। 8।।

आज तिरंगे की हुई, जग में जय-जयकार |

मिशन चन्द्रमा का हुआ, सपना जब साकार ।।9।।

✍️ योगेन्द्र वर्मा व्योम

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत