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गुरुवार, 4 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार मंसूर उस्मानी के दस दोहे ....


बच्चों को सिखलाइए, बूढ़ों का सम्मान।

हो जाएगी आपकी, हर मुश्किल आसान।। 1।।


ग़ालिब, तुलसी, मीर के, शब्दों की ताज़ीम।

करते मेरे दौर में, बेकल, निदा वसीम।। 2।।


हिंदी रानी देश की, उर्दू जिसका ताज।

खुसरो जी की शायरी, इन दोनों की लाज।। 3।।


तनहाई में रात की, भरता है 'मंसूर'।

सन्नाटो की माँग में, यादों का सिंदूर।। 4।।


ख़ुदा और भगवान में, नहीं ज़रा भी फ़र्क़।

जो माने वो पार है, ना माने तो ग़र्क़।। 5।।


जब थे पैसे जेब में, रिश्तों की थी फ़ौज।

बहा सभी को ले गयी, निर्धनता की मौज।। 6।।


मन में कुंठा पालकर, घूमे चारों धाम।

आये जब घर लौटकर, माया मिली न राम।। 7।।


दस्तक दी भगवान ने, खुले न मन के द्वार।

ऐसे लोगों का भला, कौन करे उद्धार।। 8।।


पुरखों की पहचान था, पुश्तैनी संदूक।

बेटा जिसको बेचकर, ले आया बंदूक।। 9।।


अपनी पलकों ले लिया, जब निर्धन का नीर।

मेरे आशिक़ हो गये, सारे संत-फ़क़ीर।। 10।।


✍️ मंसूर उस्मानी

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 6 मई 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार मंसूर उस्मानी की ग़ज़ल ...वो भी नयी हवाओं के जंगल में खो गया, बच्चा जो होनहार था एक खानदान में


सच्चाई   क्या   मिलेगी   हमारे   बयान   में

लिखते हैं हम कसीदे सितमगर की शान में


इन्साफ मेहरबानी  मोहब्बत  वफ़ा  ख़ुलूस

मिल जाएं तो बताना मिले किस  दूकान  में


मजलिस से उठ के चल दिए मुंसिफ लिबास लोग

क़ातिल का ज़िक्र  आया  जहाँ  दास्तान  में


वो भी नयी हवाओं के  जंगल  में  खो  गया

बच्चा  जो  होनहार  था  एक  खानदान  में


मंसूर   हर   क़दम   पे   बुराई   के  बावजूद

अच्छाइयाँ   भी   खूब   हैं   हिन्दोस्तान   में।


✍️ मंसूर उस्मानी

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

शुक्रवार, 8 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार मंसूर उस्मानी की कृति 'अमानत' की डॉ कृष्ण कुमार 'नाज' द्वारा की गई समीक्षा---- मुहब्बतों का मुकम्मल दस्तावेज़ है अमानत

    मंसूर भाई ऐसे शायर हैं, जिनकी पहुंच सिर्फ़ मुशायरों तक नहीं, बल्कि कवि-सम्मलेनों तक भी है, हिंदी के कार्यक्रमों में भी वो बड़े सम्मान के साथ आमंत्रित किए जाते हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि भाषाओं के प्रति उन्होंने कभी दुराग्रहपूर्ण रवैया इखि़्तयार नहीं किया। सहजता और सरलता के साथ जिस भाषा का भी शब्द शेर कहते वक़्त उनके ज़ह्न में आया, प्रयोग कर लिया। वो चाहे हिंदी का हो, उर्दू का हो, अंग्रेज़ी का हो या लोकभाषा का। और फिर, हिंदी और उर्दू में धाार्मिकता की दूरबीन लगाकर अंतर तलाशने वाले लोग एक दिन ख़ुद ही पस्त होकर धराशायी हो जाएंगे। आखि़र कोई फ़र्क़ है भी कहां हिंदी और उर्दू में। हिंदी अगर दिल है, तो उर्दू उसकी धड़कन; हिंदी अगर शरीर है तो उर्दू उसकी आत्मा, हिंदी अगर आंख है तो उर्दू उसकी रोशनी। एक-दूसरे के बग़ैर दोनों का अस्तित्व बचा पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव है। साहित्यिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिस रचनाकार ने हिंदू या मुसलमान बनकर साहित्य सृजन किया, वह अतीत की गर्त में खो गया और जिन्होंने इंसान बनकर मानवमात्र के कल्याण के लिए सार्वभौमिक साहित्य रचा, उनकी आवाज़, उनके विचार सदियों बाद आज भी ज़िंदा हैं और हमारी आने वाली नस्लें उन आवाज़ों को, उन विचारों को सदियों तक महफ़ूज़ रखेंगी।
    हालांकि, यह सामाजिक विडंबना ही है कि यहां प्यार चोरी-छिपे करना पड़ता है, सबसे नज़रें बचाकर; जबकि नफ़रत खुलेआम की जा सकती है, उस पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इसके लिए न किसी से नज़र बचानी है, न किसी से छिपना है। लेकिन, यह भी वास्तविकता है कि मुहब्बत करने वाले मुहब्बत कर रहे हैं। समाज को अम्न और शांति का संदेश दे रहे हैं, भले ही सामाजिक अव्यवस्थाएं उन्हें सूली पर क्यों न लटका दें, लेकिन सूली पर लटकने वाली आवाज़ चीख़-चीख़कर कहेगी कि उसने कोई जुर्म नहीं किया, कोई पाप नहीं किया। उस आवाज़ का साथ देने के लिए हज़ारों आवाज़ें नारों का रूप ले लेंगी। वह घायल आवाज़ ज़ालिमों के मुंह पर यह कहकर तमाचा मारेगी-

    तुमने दुनिया को अदावत के तरीक़े बांटे
    हमने दुनिया में लुटाई है ग़ज़ल की ख़ुशबू

    उसको हर दौर ने ऐज़ाज़ दिया है ‘मंसूर’
    जिसने लफ़्ज़ों में छुपाई है ग़ज़ल की ख़ुशबू

मंसूर भाई ने कभी समझौतावादी शायरी नहीं की। उन्होंने समाज में रहते हुए जो भी देखा, उसी का शब्दों के माध्यम से चित्रण किया। उनकी शायरी मात्र उनका अपना चिंतन नहीं, हर उस फटे हाल, तंगदस्त और अव्यवस्थाओं से दुखी आदमी की बात है, जो अपने से चंद सीढ़ियां ऊँचे आदमी से गिड़गिड़ाकर अपने कर्तव्यों की दुहाई देते हुए रहम की भीख मांग रहा है। उन्होंने इंसानियत से ख़ाली धर्म को मात्र दिखावा क़रार दिया है। उनके चंद ख़ूबसूरत अशआर प्रस्तुत हैं, जो मानवमात्र को संदेश देते हुए नज़र आते हैं-
    कांधों पे सब ख़ुदा को उठाए फिरे मगर
    बंदों का एहतराम किसी ने नहीं किया

    उसी से खाता हूं अक्सर फ़रेब मंज़िल का
    मैं जिसके पांव से कांटा निकाल देता हूं

    अब ऐसे ख़्वाब में नींदे ख़राब मत कीजे
    जो सारे शह्र को पागल बनाए देता है
    समझो कि ज़िंदगी की वहीं शाम हो गई
    किरदार बेचने का जहां भी सवाल आय

    ग़र्क़ हो जाती है जब नींद में सारी दुनिया
    जाग उठते हैं अदीबों के क़लम रात गए

    इतना धुंधला गए हैं आईने
    अपना चेह्रा नज़र नहीं आता

    वो दरख़्त आज कहां है जो कहा करता था
    मेरे साये में भी कुछ देर ठहरते जाओ

    मंसूर साहब ने अपने प्रिय की ख़ूबसूरती का बयान बड़े ख़ूबसूरत तरीक़े से किया है। एक शेर प्रस्तुत है-
 
            कैसा हसीन अक्स तुम्हारी हंसी का था
    साया कहीं पे धूप, कहीं चांदनी का था

    मंसूर भाई से मेरा परिचय क़रीब दो दशक पुराना है। यह उनकी मुहब्बतों का ही नतीजा है कि इस अंतराल में मैं उनके क़रीब से क़रीबतर होता गया। दोस्तों के बीच बैठकर गपशप करना, बात-बात पर चुटकुले सुनाकर सबको हंसाना और उनकी हंसी में बेबाकियत के साथ शरीक होना उनकी पहचान में शामिल है। वह स्थान चाहे उनके घर का ख़ूबसूरत ड्राइंगरूम हो या दफ़्तर का छोटा-सा तंग कमरा। लेकिन, मैंने अक्सर ये भी महसूस किया है कि उनके पुर-सुकून, मुस्कुराते चेह्रे के पीछे एक टूटा-फूटा वजूद, एक ठहरा हुआ ग़म का दरिया और दबा हुआ दर्द का एक तूफ़ान ज़रूर छिपा हुआ है, जो कभी पहलू बदलता है तो समय की चादर पर कुछ अशआर बिखर जाते हैं। ये दुनिया जिसकी एक झलक ही देख पाती है, बस।
    देशभर में अपनी उत्कृष्ट शायरी के ज़रिये धूम मचाने वाले और मुरादाबादी साहित्यिक गरिमा को और मज़बूत, और सुंदर बनाने वाले मंसूर भाई ने अनेक देशों की साहित्यिक यात्राएं की हैं और मुरादाबाद के साथ ही हिंदुस्तान का नाम रोशन किया है।
    ‘अमानत’ मंसूर साहब की पांचवीं किताब है। इससे पहले उनकी चार किताबें ‘मैंने कहा’, ‘जुस्तजू’, ‘ग़ज़ल की ख़ूशबू’ और ‘कशमकश’ ग़ज़ल के पाठकों में बहुत चर्चित हुई हैं। 140 पृष्ठीय इस पुस्तक में 89 ग़ज़लें, 26 क़तआत, 10 दोहे शामिल हैं। इसके अलावा 126 शेर ऐसे हैं जिन्हें मुतफ़र्रिक अशआर की श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है। पुस्तक के आरंभ में सर्वश्री धर्मपाल गुप्त ‘शलभ’, पद्मश्री बेकल उत्साही, प्रो. मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद, पद्मभूषण गोपालदास ‘नीरज’, प्रो. वसीम बरेलवी, ज़ुबैर रिज़वी, डा. राहत इंदौरी, मुनव्वर राना, डा. उर्मिलेश, डा. कुंअर बेचैन, कृष्णकुमार ‘नाज़’, नित्यानंद तुषार और दीक्षित दनकौरी जैसे विद्वानों और साहित्यकारों की संक्षिप्त टिप्पणियां हैं, जिनमें मंसूर साहब के कृतित्व और व्यक्तित्व का उल्लेख किया गया है।


**कृति : अमानत
**रचनाकार : मंसूर उस्मानी
**प्रथम संस्करण : 2010
**प्रकाशक : वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली 110002
**मूल्य: 95₹
**समीक्षक : डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’
           सी-130, हिमगिरी कालोनी, कांठ रोड                       मुरादाबाद 244001
                  उत्तर प्रदेश, भारत